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लोकजीवन के अन्यतम चितेरे : कविवर बाबा त्रिलोचन

सोचा न था, तुम चल दोगे

यूँ यह चमन छोड़कर,

न देखा तुम्हें ,

न मिल ही पाया तुमसे कभी,

जिंदगी में ताउम्र मलाल रह गया।

ढूँढूँ कहाँ बाबा त्रिलोचन तुम्हें अब -

(चिरानीपट्टी में, काशी में या गाजियाबाद में?)

दर-ब-दर भटक कर

कहीं पाया है 'गर

तुम्हारा अक़्स तो

तुम्हारे अक्षर में

जिसे जतन से संजोया है

तुमने अपनी हर कविता में।

जिंदा रहेगा हरदम

फक्कड़ बांकपन तुम्हारा

हर भा-रत जन के

कवि-मन में। - (कविवर त्रिलोचन जी को श्रद्धांजलि)

 

जब कविता में होश संभाला तो कविवर त्रिलोचन इस दुनिया से विदा हो चुके थे। नागार्जुन और शमशेर के बाद आधुनिक हिंदी कविता के त्रयी के अंतिम स्तंभ बाबा त्रिलोचन के साँसों की डोर गत 9 दिसम्बर, 2007 को गाजियाबाद में टूट गयी। उनके बाद कविता में आधुनिकता और परंपरा का ऐसा अद्भुत समागम और कहाँ पाऊँगा?

त्रिलोचन भारतीय लोकचित्त के सबसे बड़े कवि हैं। कविता-कर्म उनके लिये तप के बराबर था जिसके लिए वे कोई भी जोखिम उठाने को तैयार थे। अपनी साधारण लगने वाली कविताओं में उन्होंने जिस काव्य-मूल्य की सृष्टि की, वह आज के काव्य-परिदृश्य में एक उल्लेखनीय और युगांतरकारी घटना मानी जा रही है जिसका ठीक-ठीक पहचाना जाना हिंदी काव्यालोचना परंपरा के लिये एक गहरी चुनौती है। यह सोचकर घोर अचरज होता है और दु:ख भी कि, पहले तो जीवन के अत्यंत सन्निकट या संपृक्त रहने वाली त्रिलोचन की सरल-बोधगम्य रचनाओं को अन्यमनस्क होकर देखा गया या फ़िर उपेक्षणीय मानकर त्याज्य कर दिया गया पर अन्य मानदंडों पर रची गयी कविताएँ जब देर तक दृश्य में नहीं टिक पायीं और बाज़ारवाद की आँधी में बिखरने लगी, तो पुन: सबका ध्यान त्रिलोचन की कविता पर केंद्रित होने लगा। यह आधुनिकतावादियों के काव्य-चिंतन पर एक सवालिया निशान है।

जहाँ तक सृजनात्मक और रचनाधारित आलोचना का प्रश्न है, हमारे आलोचक की अध्ययन-परम्परा भी गहन-गंभीर और संदर्भमूलक नहीं है। यहाँ रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व को माँजने और गुनने के बजाय आलोचकों द्वारा उनके संबंध में अपनी नकारात्मक टिप्पणी और निष्कर्ष ही अधिक दिये जाते हैं। जो काव्य के पारखी-आलोचक हैं वे भी अपने यशस्वी मायालोक से इतने ग्रस्त रहते हैं कि उनका आलोचना-विवेक भी लगभग आलोचना-अहंकार का पर्याय बन जाता है। अपने-अपने पूर्वग्रह, विवाद और सुविधाओं के लालच और दुराग्रहों के कारण वे आलोचना की खास ज़मीन और वज़ह खोजते हैं, इस कारण तटस्थ नहीं रह पाते। संभवत: इन्हीं कारणों से त्रिलोचन के काव्य-संसार का अब तक न तो समग्र मूल्यांकन हो पाया, न उनकी वह प्रतिष्ठा ही हिंदी साहित्य में हो पायी जिसके वे सही मानो में हक़दार थे। अब जब नहीं रहे बाबा तो समालोचकों की नींद खुल रही है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

लोकरस की सच्ची कविताओं की विलक्षणता की पहचान में विलंब का एक और कारण उत्तर-आधुनिकता और पश्चिम के विजातीय विचार का भारतीय संस्कार में तीव्र और विवेकहीन सम्मिलन भी है। लोक का जीवन और सौंदर्य तो उसके श्रम की संस्कृति से उद्भूत होता है पर जब तथाकथित विकास की आँधी हमारे यहाँ तेज हो गयी तो उसके वेग में लोक हाशिए पर धकेला गया, इसके सृजन को अविकसित, रूढ़, पारंपरिक और छोटी पहल की कहकर हेय समझा गया क्योंकि वह विचार पूँजी के संस्कार से फलित होता है जिसमें जीवन का रस कृत्रिम और देहवाद, निरा कलावाद और रूपवाद से निस्सरित होता है। इस बारे में लोक के पक्षपाती समीक्षक डा. जीवन सिंह का विचार ध्यातव्य है। वे कहते हैं कि-"दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार किया है कि ये बातें कविता के लिये अछूत जैसी बना दी गयी है। इनमें उन आलोचकों का भी हाथ रहा है जो अपनी काव्य-परंपराओं को भूलकर विदेशी काव्य-चिंतन के पीछे इतने पड़े कि अपनी सुध-बुध ही भूल गये।.....उसकी अनदेखी करके जो रचना होगी, वह नई और आधुनिक तो होगी परन्तु आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध और पूर्ण नहीं होगी।" उपर्युक्त कारणद्वय से आधुनिक पाठकों और बडे़ आलोचकों कवियों की लिस्ट में त्रिलोचन जी को पीछे रख दिया गया। पर उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की, न हार मानी। हरदम अपना देशी ठाठ और सृजन का अलग ढर्रा बनाये रखा क्योंकि त्रिलोचन के कवि-प्रकृति को पता था कि लोकहृदय ही दुनिया में मानवता की संस्कृति रच सकेगी।

त्रिलोचन के काव्यलोक से जुड़ा एक अहम् सवाल यह है कि उनकी कविता का जनमानस में देर तक टिकने और आकर्षण की वज़ह क्या है। इस कारण की जाँच-बीच उनके काव्यविवेक और उसमें अंतर्निहित रूप और वस्तु को बिना समझे नहीं किया जा सकता।

उनकी सोच में प्रगाढ़ पार्थिवता थी जो उनके लोकसंस्कारी स्वभाव के कारण उनकी कविताओं में स्वत: लक्षित होता है। वे गाँव के कृषक-संस्कार के काफ़ी करीब थे जो उन्हें चिरानीपट्टी गाँव और काशी में मिला था। चिरानीपट्टी ने उनको लोक की समझ दी और काशी ने काव्य- चिंतन की। उनका लोक जिन तत्वों से बना है, उसमें बडी़-बडी़ बातों के लिये जगह नहीं। इसलिये त्रिलोचन बातूनी कवि नहीं थे। बिना लागलपेट के सीधे अपनी बात कहने में विश्वास करते थे, इसलिये कविता के बाहर भी निकल आना चाहते थे अर्थात् कला के बंधन में नहीं फँसते थे। वे वस्तु के निकटतम स्थानापन्न, बल्कि वही हो जाना चाहते थे। जैसे जहाँ जिस रूप में देखा, हू-ब-हू वैसा ही रच दिया। अपनी ओर से जोड़-तोड़ से परहेज बरतते थे। यही लोक का स्वभाव भी है, यानि खरा, पवित्र। यहाँ भावना प्रधान होती है, न कि कला। वैसे भी रीतिकाल के बाद साहित्य में जीवन का सतत विकास और कला का पराभव ही दृष्टिगत हुआ है। कहने का अर्थ है कि वे हृदय से लिखते थे, बल्कि यूँ कहें कि कविता को अपना हृदय ही दे देना चाहते थे। कलम की दिमागी कसरत नहीं करते थे। उन्होंने खुद कहा है-

"मुझे वह रूप नहीं मिला है जिससे कोई/ सुंदर कहलाता है,हृदय मिला है/ जिससे मनुष्यता का निर्मल कमल खिला है।"

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वाल्मिकि के काव्य-सौष्ठव का उल्लेख करते हुए कहीं कहा है कि, "किस सूक्ष्मता के साथ कवि कुलगुरु ने ऐसे प्राकृतिक व्यापारों का निरीक्षण किया है, जिनको बिना किसी अनूठी उक्ति के गिना देना ही कल्पना का परिष्कार और भाव का संचार करने के लिये बहुत है।" इसी परिप्रेक्ष्य में त्रिलोचन की काव्यकला भी देखनी-परखनी चाहिए। कविता में कला का सायास यत्न कभी उन्होंने नहीं किया, इसलिये उक्तियों की वक्रता, गूढ़ता और अनूठेपन का सहारा भी नहीं लिया। प्रकृति, लोक और जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण ही स्वयं त्रिलोचन की कविता को कला का रूपाकार देते हैं। ऐसा, विरल कवियों में लक्षित होता है और इसे कलाहीन कला और जीवन की कला (an artless art for life) की संज्ञा दी जा सकती है।

अभिव्यक्ति की इस कला में उनकी भाषिक संरचना का भी कम योग नहीं है। भाषा के प्रति त्रिलोचन आरम्भ (1950-51) से ही सजग थे। उनकी भाषा सबसे अलग, अनूठी और कला की ही तरह सरल है जिसका ठेठ देशज जातीय रूप ही उसकी पहचान है और महानता भी। बोली, भाषा के साथ यहाँ इतने रचे-बसे हैं कि इसका संश्लेषण इतने व्यापक रूप में किसी अन्य कवि की रचना में गोचर नहीं होता। तद्भव-तत्सम का यह संश्लिष्ट रचाव बडे़ विस्मयपूर्ण ढंग से उनकी कविता में खुरदुरे और क्लासिक चीजों का मेल कराती है जो अकल्पनीय है। अपनी भाषा के इस प्रकृत गुण को त्रिलोचन ने सदैव बनाए रखा। तत्सम शब्दावलियों में भी उनकी भाषिक संरचना उतनी ही महत्वपूर्ण है।

त्रिलोचन की कविताओं में अभिव्यक्ति की सहजता (simplicity of expression) भी इतनी अन्यतम है कि वह नये काव्य-सौंदर्य का सृजन करती है जिसका पाठक के मन पर दीर्घ और गहरा प्रभाव पड़ता है। यह सहजता मात्र लोक की बानगी के कारण नहीं है, अपितु भाषा की तरलता, हृदय-तत्व के समावेशीकरण और कवि की स्वयं की प्रकृति और "प्रयत्नहीन कला" (effortless art) के हुनर का परिणाम है जो मात्र त्रिलोचन के यहाँ विपुलता के साथ देखा जा सकता है। इसलिये यह अद्भुत है, एकल है और इसका विशेष महत्व है।

हिंदी काव्य में लोकधर्मिता और प्रगतिशील आधुनिकता का निर्वहन त्रिलोचन के अलावा कई अन्य कवियों ने भी बखूबी किया है जैसे नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल आदि ने। पर त्रिलोचन के कवि में लोकजीवन का जितना विस्तार और जितनी सघनता है उतने दूसरे कवियों में अपेक्षाकृत कमतर और बाह्यतर है। नागार्जुन अधिक ठोस है, अत: आघात भी करते है। शमशेर में अस्तित्व की उन्मुक्तता अधिक है, इसलिये उडा़न भरते हैं। केदार में सामाजिक यथार्थवाद से पूरित प्रगतिशीलता अधिक है तो अरुणकमल में जीवन को भरने की ललक। इन सबका अपना-अपना महत्व है पर त्रिलोचन किसान-लोक के ज्यादा करीब हैं जिसमें भारत की आत्मा बसती है, इसलिये जीवन के प्रति निष्कवच खुलापन त्रिलोचन को आधुनिकता और लोकधर्मिता के बृहत्तर दायरे में लेकर चलती है। यहाँ जीवन से गहरा लगाव, जन के साथ तादात्म्यता और संघर्ष में तपकर निखरते जीवन के प्रति विराट निष्ठाबोध ही सच्चे अर्थों में त्रिलोचन को आधुनिक बनाता है। यह आधुनिकता न तो आयातित है, न अंधविश्वास या स्वांग भर। इस आधुनिकता का भारतीय संदर्भ है। यह भी नोट करने योग्य है कि यह आधुनिकता रूढ़ियों, वर्जनाओं और जर्जर परंपराओं के विरोध में खड़ी तो है पर अपना निष्कर्ष नहीं देती। दूसरे शब्दों में, यहाँ अंतरंग अनुभवों का सादा बयान है जिसमें व्यवस्था के प्रति अराजक विद्रोही स्वर नहीं है। ऐसे अनुभवों को त्रिलोचन बिना अलंकार, बिंब, प्रतीक, जैसे काव्य उपादानों के कविता में रखते है पर लोक की अटूट सन्निबद्धता के चलते कविता दमकने लगती है-

 

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि

चम्पा, तुम भी पढ़ लो

हारे गाढ़े काम सरेगा

गांधी बाबा की इच्छा है -

सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चम्पा ने यह कहा कि

मैं तो नहीं पढ़ूँगी

तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं

वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे

मैं तो नहीं पढ़ूँगी

 

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है

ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,

कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता

बड़ी दूर है वह कलकत्ता

कैसे उसे संदेसा दोगी

कैसे उसके पत्र पढ़ोगी

चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

 

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,

हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो

मैं तो ब्याह कभी न करूँगी

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी

कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी

कलकत्ता पर बजर गिरे.

('चंपा काले -काल्र अच्छर नहीं चीन्हती' से)

कितना सादा, किंतु अर्थपूर्ण बयान है!

त्रिलोचन की कविता ही उदाहरण है कि उन्होंने जीवन की पाठशाला में ही काव्य की दीक्षा ली है जो अपने लोक से उन्हें मिली है। इसी रास्ते चलकर कविता को एक चेतन मन और स्पंदित समाज की अभिव्यक्ति का आकार प्रदान कर पाये हैं। विकास का अर्थ उनके लिये जीवन में ही है, उससे बाहर नहीं। जीवनेतर प्रगति व्यर्थ है, मिथ्या है उनके लिये!-

जीवन में ही प्रगति भरी है, अलग नहीं है।

जो बाहर है वस्तु तत्व से दूर कहीं है ।

स्पष्ट है, उनके जीवनधर्मी काव्यविवेक में ही परिवर्तन और प्रगति की सार्थकता छिपी है। यहाँ यह भी लक्ष्य किया जाना चाहिए कि जीवन में जटिलता भी है, दु:ख भी, अकेलापन भी, अथाह शून्यता भी, पर इन विपदाओं का सर्व्र रागालाप नहीं है। त्रिलोचन का कवि स्वीकारता तो है कि पीड़ा है पर उससे वह टूटा- हारा नहीं है, हताश होकर बैठ नहीं गया है। वह सदैव दु:खों की माला नहीं जपता। वह कर्मयोगी है। वह दुख के सामने तनकर खड़ा होता है और अपने काम में व्यस्त हो जाता है। वह दैव के भरोसे भी नहीं रहता, बल्कि कर्म-पथ पर अग्रसर हो जाता है, अदम्य तत्परता के साथ। वह जीवन के उत्सव में हमेशा साझी है, चाहे दुख हो या सुख क्योंकि उसकी जिजीविषा दृढ़ है-

संकोचों से सागर तरना

शक्य नहीं है

अगर चाहते हो तुम जीना

धक्के मारो इसी भीड़ पर, इससे डरना

जीवन को विनष्ट करना है

उर्वर होता है जीवन भी आघातों से

विकसित होता है, बढ़ता है उत्पातों से।

या फिर,

लडो़ बंधु हे, जैसे रघु ने इंद्र से लडा़ था/

क्रूर देव सम्मुख मानव दृप्त खडा़ था।

यह जीवन के प्रति त्रिलोचन के गहरे अंतर्निष्ठा का प्रमाण है जिसे वे जीवन के व्यापक प्रसार में देखते हैं। लोकहृदय की ऐसी पहचान बनानेवाले जीवनधर्मी कवि को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सच्चा कवि कहा है जो त्रिलोचन के कवि की उचित संज्ञा है। वह कविता को समाज के सबसे न्यूनतम तबके से उठाते हैं यानि श्रमिक या किसान से। अपने विचार, भाव और जीवन -सत्व भी वहीं से ग्रहण करते हैं। मानवता के गहरे विश्वासी-कवि त्रिलोचन मानते हैं कि -

"उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,

नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता

कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता

कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है

उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता

सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,

अपने समाज से है; दुनिया को सपने से

अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता

दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में

वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता

चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता

विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।

धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण

सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।"

त्रिलोचन इस तरह भावों की गहराई के कवि हैं, वे उसका नाटक नहीं करते। वे दुख-दर्दों की हाला पीकर और भी उर्जावान होकर काव्य-सृजन करते हैं। यह उनके दृढ़ व्यक्तित्व को इंगित करता है। आज मानवता के ह्रास का एक बड़ा कारण चरित्र का दोहरापन है और कई बार तो चरित्र के विचलन को ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया जाता है क्योंकि सरप्लस पूँजी ने मानव के सबंधों को सिर्फ़ धन-संबंधों में ही बदलने का कार्य किया है और सुख की झूठी परिभाषा की है। परंतु उनके चरित्र का ठोसपन और एकनिष्ठता वस्तुत: आधुनिकता का भारतीय संदर्भ है जिसकी जड़ें हमारी परंपरा और संस्कृति में है जो वे अपने पारंपरिक ज्ञान और संस्कार से लेते हैं। यही कारण है कि इनके प्राण-तत्व के रूप में तुलसी और निराला उनके आदर्श हैं जिनकी गुरुता उन्होंने स्वीकारी है हालाँकि दोनो अलग-अलग काल और परिस्थितियों के कवि हैं परंतु त्रिलोचन के अंतस में समाकर एकरस हो गये हैं। अत: उनकी परंपरा किताबी नहीं वरन् संस्कार-जन्य और व्यावहारिक है। कविता के बीज भी उनके बाल्य-मन में लोकगीतों (चीरानीपट्टी में गाये जाने वाले गीत यथा; चौताल, उलारा आदि) से ही फलीभूत हुए। इसलिये वे अपनी ज़मीन को कभी नहीं भूलते। पर यह भी गौ़र करने के लायक है कि वे उदार विकसित जीवन के पक्ष में हैं यानि नवाचारी जीवनोन्मुख गतिविधि के हिमायती हैं। उसके लिये अपने मन के द्वार बंद नहीं रखते।

त्रिलोचन की कविताओं में आकर्षण का एक और कारण है, उनकी कविताओं में बड़ी मात्रा में लोक-चित्रों और प्रकृति का समुपस्थित होना। वे अपने आस-पास की प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं, उनकी बारीक गतिविधियों का अवगाहन करते हैं और सादी भाषा की लड़ियों में पिरोकर कविता की सुन्दर माला रच देते हैं। इस प्रकार प्रकृति के व्यापारों से न्यस्त होकर उनकी कविता में कला का स्वत: प्रस्फुटन हो जाता है अथवा कहें कि, वे कला के लिये कविता नहीं करते थे। इसलिये उनकी कविता में वक्रता और गूढ़ता की जगह आत्मीयता और सरलता का बोध होता है। यही उनका कलावाद है-

"पवन शान्त नहीं है"-

आज पवन शांत नहीं है श्यामा /देखो शांत खड़े उन आमों को /हिलाए दे रहा है /उस नीम को /झकझोर रहा है /और देखो तो /तुम्हारी कभी साड़ी खींचता है /कभी ब्लाउज़ /कभी बाल /धूल को उड़ाता है /बग़ीचों और खेतों के /सूखे तृण-पात नहीं छोड़ता है /कितना अधीर है /तुम्हारे वस्त्र बार बार खींचता है /और तुम्हें बार बार आग्रह से /छूता है /यौवन का ऎसा ही प्रभाव है /सभी को यह उद्वेलित करता है /आओ ज़रा देर और घूमें फिरें /पवन आज उद्धत है /वृक्ष-लता-तृण-वीरुध नाचते हैं /चौपाए कुलेल करते हैं /और चिड़ियाँ बोलती हैं।

वर्तमान समय में त्रिलोचन के कविता की प्रासंगिकता - 1990 के बाद अपने देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। यह एक ऐसा सर्वग्रासी विचार है जिसमें मानव के वही मूल्य, वस्तु, कला और प्रयत्न टिक पायेंगे जो बाजार के पक्ष में हो और उपभोक्ता-मनुष्य के लिये उपयोगी हो क्योंकि यह विचार जीवन और संस्कृति के हरेक कर्म, वाक्य, शब्द और परिणाम को एक बिकाऊ उत्पाद में बदल देने पर आमादा है। ऐसे में भारतीय साहित्य के देशज चरित्र के नष्ट हो जाने का खतरा स्वाभाविक है। साथ ही यह आदमी में ऐसी रुचि को उत्पन्न करने का उपक्रम कर रहा है जो बाजार और विज्ञापन की भाषा को तरज़ीह दे। यह सृजन, विचार और आत्मिक भाव की भाषा को हाशिए पर रखता है। इस कारण त्रिलोचन और ऐसे अन्य कवियों को लोग क्योंकर पढ़ेंगे? लोककला, लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य तो उस ज़मीन का पता देते हैं जिसके विषय में ये रचे जाते हैं। अत: वैश्वीकरण मनुष्य के लोकोन्मुखी प्रकृति पर ही वार करता है और वह मनुष्य के सोचने के ढंग को ही बदल देना चाहता है।

दूसरी ओर, लोक की कोख से जन्मा साहित्य मनुष्य को उसकी अपनी अस्मिता और ज़मीन से जोड़ता है। दुनियाभर में श्रम की संस्कृति को प्रतिस्थापित करता है और आदर भी। इसलिये कहा जा सकता है कि यह मनुष्यता की संस्कृति में विश्वास रखता है। इस संदर्भ में त्रिलोचन की कविता को देखने से यह पता चलता है कि उनकी कविता उस लोक-हृदय का पता देती है जिसमें बाजार के लिये जगह नहीं। अत: बाजार से बेजा़र होते इस लोक-समय में उनकी कविताओं का महत्व और बढ़ जाता है जो बाजार के विपरीत, मानव की मूल संवेदना को जगाने में समर्थ है क्योंकि दुनियाभर में संप्रति चल रहे लूट-खसोट, छल-छद्म, हिंसा, दंभ, अहंकार, प्रदर्शन, अन्याय और उत्पीड़न से अलग वह एक प्रेममय, विलक्षण संसार की रचना करता है जिसमें सच्चाई को प्रतिष्ठित करने की और आदमी को झूठ से अलगाने की शब्दों की ताक़त है।

अत: वरिष्ठ कवि और समालोचक विजेंद्र जी ('कृतिओर' के सम्पादक) की यह उक्ति हमें स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि "त्रिलोचन मनीषी भी हैं। तपस्वी भी। कविता उनके अत्यंत दायित्वशील जीवन का पर्याय है। उन्होंने कविता का मान रखने के लिये हर बड़ा जोखिम उठाकर हमारे लिये एक अनुकरणीय प्रतिमान रचा है। ऐसे कवि ही अपनी जाति के गौरव होते हैं। आनेवाली पीढियां उनसे प्रेरणा लेती हैं। ऐसी कविता हमारे लिये हर समय ज्योति-स्तंभ का कार्य करती है। त्रिलोचन जैसे कवि अपने समय का भेदन कर उसे इस प्रकार अतिक्रमित करते हैं जो हमें भविष्य के कवि भी लग सकें।"

इसलिये त्रिलोचन जी के शब्दकर्म की बहुकोणीय समीक्षा और प्रतिष्ठा वर्तमान कविता-समय की माँग है।

त्रिलोचन शास्त्री

छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य में त्रिलोचन का प्रमुख स्थान है। कविता ही नहीं उनकी कहानियाँ भी उन्हें निराला की परम्परा में ला बिठाती हैं। उन्हें तुलसी बाबा का अवतार भी कह सकते हैं- ’तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी। मेरी सजग चेतना में तुम रमे ह्रुए हो।‘ जिस प्रकार रामभक्त तुलसी राम से भी ऊपर उठ गए थे- ’भक्त हुए उठ गए राम से भी यों ऊपर ।‘ तुलसी भक्त त्रिलोचन के विषय में भी यही कहा जा सकता है। हाँ! उनके यहाँ नायकत्व आम आदमी और पीड़ित समाज को मिला है।

त्रिलोचन शास्त्री जन्मना कृषक थे, देहाती थे। उनका जन्म २० अगस्त १९१७ को उत्तरप्रदेश, जिला सुलतानपुर, तहसील कादीपुर के गाँव कटघरा, चिरानिपट्टी में हुआ। पिता का नाम ठाकुर जगरदेव सिंह था और वे बैरागी बाबू के नाम से जाने जाते थे। माँ ठेठ ठकुराइन थी। उसका विश्वास था कि पढ़ लिखकर व्यक्ति न तो देहाती जीवन के दाँव पेंचों, उतार-चढ़ाव या नित्य होने वाले झगड़ों के काबिल रहता है और न ही इससे उसका भविष्य सँवर सकता है। वह तो बेटे को गँवार खेतीहर ही बनाना चाहती थी। इसी लिए सदैव बेटे की पढ़ाई का विरोध ही करती रही। हाँ! दादी, जिसे वे बुआ कहते थे, उनकी पढ़ाई के पक्ष में थी और पोते पर भी पढ़ाई की धुन सवार थी। कुल मिलाकर वे युद्ध प्रेमी ठाकुर परिवार के शर्मीले से पहलवान पुत्र थे। उनका बचपन का नाम ठाकुर वासुदेव सिंह था। त्रिलोचन नाम उनके संस्कृत के गुरु जी ने रखा। त्रिलोचन शिव का नाम है। शिव का तीसरा वक्र नेत्र। संस्कृत में शास्त्री की परीक्षा पास करने के कारण शास्त्री तखल्लस की तरह उनके नाम के साथ जुड़ गया। पंजाब से शास्त्री करने के इलावा उन्होंने काशी से बी० ए० एवं अंग्रेजी एम० ए० का पूर्वार्द्ध किया। घुम्मकड़ी उनके स्वभाव का अंग थी। उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के मूल में पिता, स्वामी जी एवं गुरु जी का प्रभाव देखा जा सकता है। पत्नी जयमूर्ति ने त्रिलोचन के जीवन के सर्वांगीण विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। शमशेर बहादुर सिंह एक जगह लिखते हैं, ’भई, वह घबराते किसी से नहीं, सिवाय सच्ची बात अपनी शास्त्राणी जी के। और दरअसल वही इनको ठीक-ठीक समझती भी थी।‘१ धरती में त्रिलोचन शास्त्री लिखते हैं-

मेरी दुर्बलता को हर कर

             नयी शक्ति नव साहस भर कर

तुमने फिर उत्साह दिलाया

कार्यक्षेत्र में बढ़ूँ संभल कर

तब से मैं अविरत बढ़ता हूँ

बल देता है प्यार तुम्हारा।२

त्रिलोचन प्रेम के कवि हैं, लेकिन उनका प्रेम गृहस्थ की नैतिक एवं स्वस्थ भावभूमि पर खड़ा है। वे प्रकृति के कवि हैं, प्राकृतिक अनुभूतियों के कवि हैं-

कुछ सुनती हो

कुछ गुनती हो

यह पवन आज यों बार-बार

खींचता तुम्हारा आँचल है

जैसे जब-तब छोटा देवर

तुमसे हठ करता है जैसे ।३

जीवन निर्वाह के लिए त्रिलोचन शास्त्री ने कटु संघर्ष किए। उन्होंने चनों पर गुजारा किया। हाथ से खींचने वाली रिक्शा चलाई। पत्रकार और अध्यापक रहे। १९३०-३५ तक आगरा से निकलने वाले साप्ताहिक प्रभाकर में काम किया। १९३६ में राजकोट में सौराष्ट्र के प्रसिद्ध साहित्यकार झवेरचन्द मेधाणी के साथ प्रूफ रीडिंग का काम किया। १९३८ में वे वाराणसी से निकलने वाले मासिक वानर में थे। १९३९ से १९४१ तक उन्होंने ३० रुपए महीने पर हंस में प्रूफ रीडर का काम किया। १९४३ और १९४८ में आज, १९४४-४६ में हंस, १९४९-५० में समाज एवं चित्ररेखा, १९७२-७५ में दैनिक जनवार्त्ता तथा १९७५-७८ में भाषा में रहे। गणेशराय इन्टरकालेज, जौनपुर में १९५२-५३ में अंग्रेजी के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में १९६७ से १९७२ तक अमरीकी छात्रों को हिन्दी-उर्दू-संस्कृत का व्यावहारिक शिक्षण दिया। हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर की मुक्तिबोध सृजनपीठ के १९८४-९० एवं १९९५-२००२ में अध्यक्ष रहे। १९९१-९२ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पोइट ऑन कैंपस रहे। तुम्हें सौंपता हूँ में जीवन संघर्ष पर लिखते हैं-

चलना ही था मुझे-

सडक, पगडंडी, दर्रे कौन खोजता,

पाँव उठाया और चल दिया।

खाना मिला न मिला,

बडी या छोटी हर्रें नहीं गाँठ में बाँधी,

श्रम पर अधिक बल दिया।

मुझे कहाँ जाना है यह जानता था,

मगर कैसे और किधर जाना है

यह व्यौरा अनजाना था।४

त्रिलोचन मुख्यतः कवि हैं। अपनी काव्य यात्रा में वे प्रथमतः छायावादी रहे हैं और फिर प्रगतिवादी। उनका प्रथम काव्यसंग्रह धरती (१९४५) प्रगतिवादी आंदोलन प्रारम्भ होने के ९ वर्ष बाद और तार सप्तक के तीन वर्ष बाद प्रकाश में आया। नयी कविता के दौर में भी वे प्रगतिवादी कविताएँ लिखते रहे। उनके १५ काव्य ग्रंथ मिलते हैं- धरती १९४५, गुलाब और बुलबुल १९५६, दिगंत १९५७, ताप के ताये हुए दिन १९८०, शब्द १९८०, उस जनपद का कवि हूँ मैं १९८१, अरधान १९८३, अनकही भी कुछ कहनी है १९८५, तुम्हें सौंपता हूँ १९८५, फूल नाम है एक १९८५, सब का अपना आकाश १९८७, चैती १९८७, अमोला १९९०, मेरा घर २००२, जीने की कला २००४। १९८१ में उन्हें ताप के ताये हुए दिन पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। १९९२ में हिन्दी अकादमी दिल्ली ने श्लाका पुरस्कार दिया। २००३ में भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता ने उन्हें सम्मानित किया। त्रिलोचन धरती के कवि हैं-

मुझमें जीवन की लय जागी

मैं धरती का हूँ अनुरागी।५

एक उदात्त नैतिक एवं सामाजिक चेतना उन्हें दायित्व बोधों के प्रति सचेत करती रहती है। इसीलिए निष्क्रियता पर उन्हें ग्लानि और आक्रोश होता है-

कोई काम नहीं कर पाया

कोई किसी के काम न आया

जगती से अन्न-जल-पवन लेता हूँ

क्या मेरा जीवन जीवन है ?६

शोषकों के प्रति, राज नेताओं के प्रति, अवसरवादियों के प्रति व्यंग्य उनके काव्य में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं-

झूरी बोला कि बाढ़ क्या आई

लीलने अन्न को सुरसा आई

अब कि श्रीनाथ तिवारी का घर

पक्का बन जाने की सुविधा आई।७

मार्क्सवादियों की तरह उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों और जड़ता का विरोध किया है-

करता हूँ आक्रमण धर्म के दृढ़ दुर्गों पर।८

सत्यं, शिवं, सुन्दर के दिन प्रति दिन हारने का उल्लेख भी उनके काव्य में यहाँ वहाँ मिल जाता है-

अच्छाई इन दिनों बुराई के घर पानीं

भरती है

अच्छाई के बिगड़े दिन हैं, और बुराई

राजपाट करती है।९

उस जनपद का हूँ में अनेक कविताएँ आत्मकथात्मक हो गई हैं। वही त्रिलोचन है, चीर भरा पाजामा, भीख माँगते, इधर त्रिलोचन ने, कवि है वही त्रिलोचन आदि में उन्होंने अपने ऊपर तटस्थ दृष्टि से लिखा है।

कवि के साथ साथ त्रिलोचन गद्यकार भी थे। देशकाल (१९८६) उनका कहानी संग्रह है। इसमें बीस कहानियाँ संकलित है। प्रगतिवादी पृष्ठभूमि पर लिखित इसकी हर कहानी पैना और गहरा व्यंग्य लिए है। अपनी इज्जत आप करो कहानी में कहते हैं- ’जो गरीब हैं, उनसे कहना कि अपनी इज्जत आप करो, दुनिया इज्जत करेग- उनकी हँसी उड़ाना है। उनके घावों में तीर चुभोना है। वे किसी से इज्जत माँगने का अधिकार नहीं रखते। वे इज्जत की माँग करें तो उनसे प्रश्न किया जाएगा। इज्जत ? कैसी इज्जत ? तेरे भी इज्जत है ?‘१०

कला पक्ष के विषय में लिखते हैं-

सीधे सादे सुर में अर के गान सुनाए

मन के करघों पर रेशम के भाव बुनाए।११

त्रिलोचन ने सानेट, रुबाइयों और गजलों में लिखा। छोटी और लम्बी कविताएँ लिखी। छायावादी शब्दावली, आँचलिक शब्द प्रयोग उनमें एक साथ मिलते हैं। शब्द की शक्ति वे पहचानते भी थे और उसके प्रति सचेत भी थे-

शब्दों के द्वारा जीवित अर्थों की धारा

....................................................................

शब्दों से ही वर्ण गंध का काम लिया है

मैंने शब्दों को असहाय नहीं पाया है।१२

शब्द, पृ० ४४

डॉ० कान्तिकुमार के शब्दों में- ’जिस प्रकार तुलसीदास को हम उनकी चौपाइयों से जानते हैं, बिहारी को उनके दोहों से अथवा मैथिलीशरण गुप्त को उनकी हरिगीतिका से, वैसे ही त्रिलोचन को उनके सानेटों से पहचाना जा सकता है।‘१३ फणीश्वरनाथ रेणु ने सानेट के कारण ही त्रिलोचन को ’शब्दयोगी‘ कहा है। त्रिलोचन अध्यापक हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं, पत्रकार है, शब्दकोशकार हैं। उन्होंने डायरी लिखी, आलोचना कार्य किया, सम्पादक कर्म निभाया। वे सचमुच त्रि-लोचन हैं।

“आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है”

"मैंने कब कहा था

कविता की साँस मेरी साँस है

जानता हूँ मेरी साँस टूटेगी

और यह दुनिया

जिसे दिन - रात चाहता हूँ

एक दिन छूटेगी,

मैंने कब कहा था

कविता की चाल मेरी चाल है

जानता हूँ मेरी चाल रुकेगी

और यह राह

जिसे दिन – रात देखता हूँ

एक दिन चुकेगी,

मैंने कब कहा था

कविता की प्यास मेरी प्यास है

जानता हूँ मेरी प्यास तड़पेगी

और यह तड़प

जिसे दिन – रात जानता हूँ

और – और भड़केगी।"

(विपर्याय / त्रिलोचन)

रचनाकार त्रिलोचन का चले जाना यों दुःखद है, क्षति है किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है जीवन की; किंतु यों चले जाना (तमाम दुरभिसंधियों की पीड़ा लिए) अपने कभी न धुल-पुँछ सकने वाले सामाजिक पापों की पीड़ा – सा, सालता है। जगत् के कालातिक्रमी रंगमंच से नायकों का नेपथ्य में जाना नाटक का अंत तो नहीं होता, हाँ अध्याय का अंत हो पटाक्षेप की घड़ी अवश्य है।

यह अवसान है एक ऐसी प्रखर जीवनीशक्ति का, ऐसी अदम्य ऊर्जा का जिसके प्राण हिंदी की कविता में बसते थे। साँसें कविता में रची हुई थीं और जिसका स्वप्न था कि जब उसकी साँस टूटे, दुनिया छूटे, उसके बाद भी कविता की साँस अनवरत रहे। आने वाले समय में हिंदी कविता की जीवनीशक्ति के रूप में यश:काय हो वे कालजयी ही रहेंगे।

इधर वे लम्बे समय से अस्वस्थ थे, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था, स्मृति भी कई बार बीच-बीच में खो गई-सी उन्हें लगती। आश्चर्य यही है कि बौद्धिक स्तर पर व शारीरिक स्तर पर भी अशक्त-ता झेलते हुए वे स्वयं अपनी इन दोनों दुर्बलताओं से सतत संघर्ष करने का जीवट बनाए रहे। उनकी पिछले कुछ वर्षों में उनसे मिलने गए लोगों से हुई बातचीत आदि इसके प्रमाण हैं। आयुजन्य विस्मृति व रोग से घिरे हुए भी वे सचेत, सक्रिय व जागरूक ही मिले। अपने संस्मरणों इत्यादि में लोगों ने इसे पुष्ट किया है कि विस्मृति-सी की अवस्था वाली उस आयु में भी काव्य-धर्मिता के अतिरिक्त वे वैचारिक स्तर पर सर्वदा काव्य-चिंतन, मनन व विश्लेषण में पूरी तरह सजग थे। हरिद्वार के अपने आवास पर जब वे लगभग टुकड़ों-टुकड़ों में बातें किया करते थे, या कह सकते हैं कि अर्धनिद्रा के बीच-बीच में एक प्रकार के `फ्लैशज़’ जब उन्हें आया करते, वे एक विषय तो कभी दूसरे विषय पर अपनी विश्लेषक पकड़ को प्रमाणित करते बातें करते, तब भी वे कभी निराला की कविताओं के रहस्य खोलते पाठ – विखण्डन करते व्याख्या कर रहे होते, कभी अपनी किसी कविता की रचना-प्रक्रिया या सन्दर्भ उनके विषय होते। उनके व्यक्तित्व में अनुभवों, स्थितियों व रचनाशीलता तक के विश्लेषण की यह जो अद्भुत व अलभ्य प्रतिभा थी, वह एक ओर जहाँ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट रचना के मर्म व प्रक्रिया तक पहुँचती थी, वहीं समाज के जाने कितने चरित्रों के व्यक्तित्व में निहित भिन्न-भिन्न मनोदशाओं तक का विश्लेषण, दर्शन कर उसकी गुत्थियाँ सुलझा लेती थी। इसी प्रतिभागत प्रवृत्ति के चलते उन्होंने भारतीय परंपरा के महान् कवियों, साहित्य व विमर्श आदि के अत्यन्त महत्वपूर्ण विश्लेषण अपनी चर्चाओं, वक्तव्यों आदि में किए ही; वहीं दो एकदम विपरीत प्रतीत होने वाले पात्रों तक को समान व प्रामाणिक अनुभूति से ‘एक’-सा बना कर ढाल दिया। सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर उनकी संवेदनात्मक पहुँच, भाषा पर नियन्त्रण ही नहीं अपितु शब्द-चयन के प्रति अन्त तक अतिरिक्त जागरूकता, अदम्य काव्य-ऊर्जा, जीवनासक्ति का अथाह कोष, भाषा में सतत प्रयोगधर्मिता का गुण उन्हें अद्वितीय रचनाकार के रूप में स्थापित व प्रमाणित करते हैं। इन विशेषताओं के कारण वे किसी ’प्रकार’, ’वर्ग’, ’धारा’ या ’पंक्ति’-विशेष के नहीं अपितु अपनी ही तरह के रचनाकार के रूप में स्मरण किए जाएँगे।

उनकी रचनाओं के भीतर जो लोक सम्पृक्ति उद्घाटित होती है उसमें एक अपढ़ चंपा है जो एक अक्षर भी नहीं पहचानती, पर इसके बावजूद वह संबंधों के महत्व को पहचानती है (चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती)। एक दुर्लभ होते विनम्र भाव, आत्मीयता व सरोकारों की व्यापकता के चलते वे कभी आत्मसम्मान खो कर हीन हुए किसी परिचित को अपना नाम देकर “भीख माँगते....” रच देते हैं, कभी सच्चे भारतीय-मानस के ऋणी व विनम्र भाव में पगी “तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी/मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो”, फिर कहीं आम अपढ़ स्त्री की संबंधों को दी जाती वरीयता के चलते “कलकत्ते पर बजर गिरे” की उसकी संवेदना के बहाने महानगरीय सभ्यता की निर्मूलता बताने के साथ-साथ आधुनिकता के तर्कों को खारिज भी कर रहे होते हैं। उनकी कविताओं में लू, वर्षा, जाड़े तक में कुदाल, खुरपी या हल लेकर काम में जुटा भारतीय मनुष्य है (“मैं तुम्हारे खेत में तुम्हारे साथ रहता हूँ/ कभी लू चलती है कभी वर्षा आती है कभी जाड़ा आता है/तुम्हें कभी बैठा भी पाया तो जरा देर........कभी अपने आप और कभी कई हाथों को लगाकर/काम किया करते हैं”), शरद की नवमी की हल्की ठंडक-भरी रात से प्रेम करने वाला पात्र है (ऋतु शरद और/नवमी तिथि है/....है अभी नहीं जाड़ा कोई/बस ज़रा-ज़रा रोंएँ काँपे) और शरद की पूर्णिमा को बेले के गजरो से शृंगार करने वाली गजरे गूँथ कर प्रसन्न होती स्त्रियाँ हैं (“बेले की कलियों के गजरे बनाऊँगी”)। प्रेमपूर्ण, कर्मशील और प्रसन्नचित्त साधारण जन से त्रिलोचन का भारत निर्मित होता है। वे इस जन के साथ इस देश की ऋतुओं, फसलों, वनस्पतिओं, क्रिया-व्यवहारों, जीवनयापन, त्यौहार, मेल-मिलाप, आपसी संबन्धों, इस देश की परंपरा, नायक, संस्कृति, सभ्यता, भाषा व भूगोल से निरन्तर जुड़े हैं, प्रेम करते हैं, रेखांकित करते हैं। कुम्भ-स्नान के लिए हज़ारों-हज़ार कष्ट सहकर भी डुबकी लगाने आने वाली भीड़ की मनोवृत्ति को तर्क से निरस्त नहीं करते, अपितु उसकी आस्था का सम्मान करते हैं और पाप व कलुष धोने की भावना का आदर भी — “आने दो, यदि महाकुम्भ में जन आता है/कुछ तो अपने मन का परिवर्तन पाता है”। समस्त भारत के साधारण जन, साधारण जीवन व सामान्य दिनचर्या, उससे जुड़ी छोटी-बड़ी बातें, घटनाएँ, तौर-तरीके, चिंता के विषय, आपसी व्यवहार उनके जीवनयापन से जुड़ी छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी चीज समूचे भारत का एक साँझा चित्र निर्मित करती है। समस्त भारत की एक परिकल्पना के रूप में विकसित इस संस्कार का बीजवपन करना ध्येय के रूप में उनके शब्दचित्रों का इंगित रहा। प्रत्येक भारतीय को संबोधित व प्रत्येक भारतीय को अभिव्यक्त करती ऐसी रचनाएँ उन योजक तत्वों को उभारने में रमी हैं, जो मूलतः एकरूप थे। यह कार्य समयानुरूप व सहायक तत्व के रूप में सर्वदा रेखांकित किया जाएगा।

राष्ट्रीयता के मोल पर वैश्विकता, जातीयता के मोल पर अखिल मानवता के पैर पसरने लगे जब, व उदारवादी भारतीय जनता सांस्कृतिक कट्टरता के प्रति सन्नद्धता का परित्याग तक करके भी कुटिल और लुभावने षड़यन्त्रों का शिकार होने में भी पीछे न रही; तब परिणाम वही – व्यक्ति अकेला, असहाय – “ मानव समाज नर-नारी के हाथों से/ व्यक्तियों, समूहों, वर्गों, देशों का रूप लिया करता है/ व्यक्ति ही तो मूल है यहाँ वहाँ जो कुछ है/ लेकिन व्यक्ति कितना असहाय है अकेले में/ मेले में सभी कितने अलग-अलग होते हैं/ परिवार में राग व्यक्ति का अलगाया रहता है/ जहाँ लोग एक-दूसरे के पास, बहुत पास होते हैं”। व्यक्ति-व्यक्ति की सामूहिकता के तत्त्वों व पारस्परिकता से ही देश का निर्माण होता है। बड़े यत्नों से पाल-पोस कर जिस जातीय भावना को पुंजीभूत एकीकृत किया गया था, सुविधाभोगी जीवनशैली की सभ्यता ने उसमें सेंध लगानी शुरू कर दी थी स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही; यही चिंता ऐसी कविताओं में व्यक्त हुई है। “हैं मानव इतने सारे/क्यों ये असहाय हुए/अलग-अलग हारे/चिंताओं ने/मेरे ही मन को छुआ” — चिंतामात्र से कुछ सार्थक करने की ओर बढ़ना विनाश को टालने का प्रयास है। मनुष्य के सुख-दुःख, हित-अहित के बारे में सोचती उनकी कविता मनुष्य, समाज व धरती के भविष्य को लेकर व्यग्र भी है। चराचर जगत् के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाने का परिणाम कितना घातक हो सकता है, वह आधुनिक समाज से छिपा नहीं। जड़-चेतन जगत् के प्रति जागरूक हुए बिना, उसकी चिंता किए बिना, स्वयं व्यक्ति भी सुख से नहीं रह सकता। यह पंचतत्वों व प्राणीमात्र के प्रति संवेदनशील होने का भारतीय दर्शन रहा है। वैश्विक संवेदना का असल अभिप्राय तो वस्तुत: व्यक्ति-व्यक्ति को प्रभावित करने वाले प्रत्येक उस पदार्थ के सही संतुलन की व्यवस्था में भागीदार होना है, जो सभी मनुषों को प्रभावित करते हैं (न कि उनकी जातीय विरासत, संस्कृति, परम्परा, भाषा, पहरावे, लोकव्यवहार, देशिकता, इतिहास आदि को एकीकरण की बाधा प्रमाणित कर उन्हें विनष्ट करने, विस्मृत कर प्रयोग से खारिज करना)। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, समुद्री तूफान, सुनामी लहरों का आतंक और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएँ पर्यावरणीय व मनुष्य के जीवन यापन के संतुलन के गड़बड़ाने का ही परिणाम हैं, जिन्होंने लाखों की संख्या में लोगों को काल-कवलित कर दिया। वनस्पति, जीवजंतु, जलवायु, आकाश व पशु-पक्षी के प्रति संवेदनशील व चिंतित होकर अपने कर्तव्याकर्तव्य का पालन करने वाले मनुष्य ऐसे भयंकर मानव संहार का प्रतिषेध बड़ी सीमा तक कर सकते हैं। अन्यथा सर्वनाश तो अवश्यम्भावी है – “इस पृथ्वी की रक्षा मानव का अपना कर्तव्य है/इसकी वनस्पतियाँ, चिड़ियाँ और जीव-जंतु/उसके सहयात्री हैं, इसी तरह जलवायु और सारा आकाश/अपनी-अपनी रक्षा मानव से चाहते हैं/उनकी इस रक्षा में/मानवता की भी तो रक्षा है/नहीं, सर्वनाश अधिक दूर नहीं”। उनकी कविता ने रचनाकार और रचनाशीलता के भारतीय आदर्श मूल्यों की अपरिहार्यता के लिए सचेत करने के साथ-साथ लक्ष्य व मार्ग दोनों की शुद्धता पर बल दिया। मनुष्य के हित व उसकी चेतना को केंद्र में रखकर सामाजिक प्रतिबद्धता को भी मूल्य के रूप में निभाया – “हिंदी की कविता, उनकी कविता है जिनकी/साँसों को आराम नहीं था, और जिन्होंने/सारा जीवन लगा दिया कल्मष धोने में समाज के, नहीं काम करने में घिन की/कभी किसी दिन....।“

त्रिलोचन का लेखन मूल भारतीय संस्कृति व परंपरा को ही अपना लक्ष्य व ध्येय स्वीकारता है; जिस प्रकार सारे भारतीय दर्शन की खोज सत्यं शिवं सुन्दरम् की खोज है; उसी प्रकार त्रिलोचन की कविता उसमें स्वर मिलाती है – “किंतु मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा-/लिखा कर/तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने तुझे/एक साथ सत्य, शिव, सुन्दर को दिखा जाए”। जीवन व जगत् के सारे व्यवहारों की मर्यादा से आत्मतत्व व सत्यं, शिवं, सुंदरम् का अन्वेषण करने की यह प्रक्रिया वस्तुतः जड़ता, कलुष, कृत्रिमता आदि की सर्वव्यापी दुर्बलताओं से परे निष्कलुष की ओर जाती है। ’जीने की कला’ आ जाए तो जीवन सुगम हो और जीवन सुगम हो तो जगत् सुंदर — की उद्भावना अनेकशः उनके काव्य में आविर्भूत हुई है।

उनके निधन के पश्चात् उन लोगों व स्थितियों पर क्षोभ गहराया ही है, जो उनके साथ इन शर्तों पर थे कि वे जब तक हमारी पक्षधरता करते हैं, तभी तक उन्हें मान व अपनापन देंगे, गुण गाएँगे, साथ देंगे । …….और उनका एक बयान आया नहीं कि लोग उन्हें काट कर फेंक देते हैं, सारा सम्मान, आत्मीयता व लोकलाज तक भूल जाते हैं। पिछले कुछ महीनों में स्थितियाँ ज्यों बदलीं, उसी के साथ अपने को रेखांकित कराने के बहाने के रूप में भी बहुतों ने मानो उनका आश्रय लिया । कुछेक ने तो उनके निकट जाने को आधार देने की जद्दोजहद में पुरानी बातों के स्पष्टीकरण तक त्रिलोचन की ओर से दे डाले कि ‘अमुक’ घटना वस्तुत: वैसी नहीं थी, त्रिलोचन का मन्तव्य वह नहीं था जो समझा गया, वे ‘उनकी’ पैरवी नहीं कर रहे थे ……….. या ‘वह’ वक्तव्य तो त्रिलोचन ने अपनी एक (औदार्यवृत्ति) आदत के चलते दिया था, अन्यथा उनका आशय ‘वह’ नहीं था ….इत्यादि - इत्यादि । जीवन के अन्तिम दिनों में एक श्रेष्ठ व स्वाभिमानी सर्जक - विचारक को इस स्वार्थी सहानुभूति ने तिरस्कृत ही किया । उनकी जानकारी के बिना, उनके किसी कथन या वक्तव्य का, उनकी ओर से स्पष्टीकरण देना स्वाभिमानी रचनाकार को यों मारना ही है साथ ही मौका पाकर उनकी परिस्थिति का लाभ उठाना भी है।

जिस हिन्दी समाज में हम रहते, बोलते, सोचते , चलते हैं, वह उनके कष्टों व अपनी कृतघ्नता के लिए दोषी है, उत्तरदायी है। यह पाप हम सभी के ऊपर है। रोग व आयु के कष्टों ने उन्हें जर्जर किया ही किन्तु अपने चिर साथियों के स्वार्थ व दोगलेपन का दंश झेलने के बावजूद काव्यकर्म के प्रति निरन्तरता व प्रतिबद्धता उनके जीवन के अन्यतम उदाहरण हैं। बाजारवादी व स्वार्थी होते समाज से एक अनन्य व्यक्तित्व का चले जाना साहित्येतर क्षति पहले है। इसकी कोई भरपाई नहीं, न ही हमारी पाप का कोई प्रायश्चित। कर्तव्यनिष्ठा से च्युत हुए समाज का अंग होने के कारण अपने प्रति एक धिक्कारभावना व क्षोभ से भर गया है मन। इस पीड़ा का अन्त नहीं।

आज वे हमारे मध्य नहीं हैं। चले गए। अपने पीछे छोड़ गए हैं – ’शब्द’, ’शब्द’ जो अब्दों तक जाते हैं, ’शब्द’ जो ’अ-मर’ हैं, ’शब्द’- जो ’अन्-अन्त’ हैं, ’शब्द’ – जो ’अ-क्षर’ हैं। अपने इन्हीं शाश्वत शब्दों से वे चिरन्तन विद्यमान हैं। वे हमारे पूर्वज होकर भी हमारे वर्तमान थे। उनके रहते इतिहास व वर्तमान मानो समताल- से होते। परंतु ताल टूट गई, जल तो जल में समा या होगा किंतु जिस काल के हाथों यह घट फूटा, वह हतप्रभ है कि सब बिखर गया मिट्टी के ठीकरों – सा। उनका यशःकाय अस्तित्व लोक से लेकर पंचतत्व तक की संपृक्ति का संधान करता अशेष है। बड़े या ख्यात रचनाकार आदि होने से बड़ी बात होती है बड़े व्यक्तित्व का मनुष्य होना। इन अर्थों में त्रिलोचन ऊँचे कद के रचनाकार-मात्र ही नहीं, ऊँचे व्यक्तित्व के मनुष्य पहले थे। यों, उनका जाना साहित्यिक से अधिक सांस्कृतिक –सामाजिक क्षति

’पुराने नाम याद हैं, शक्लें बदल गई हैं‘ - कवि त्रिलोचन (शास्त्री)

पता चला कि त्रिलोचन दिल्ली में हैं। यानी वैशाली (गाजियाबाद में)। अस्वस्थ भी हैं। त्रिलोचन शहर में हों और मुझ जैसे का लपक कर उनके पास जाने, उनसे मुलाकात करने, उनसे बतियाने, उनकी दिव्य निच्छल मुस्कान का आनंद लेने का मन न हो जाए, संभव ही नहीं है। मुझे नहीं याद आ रहा है कि त्रिलोचन का साथ कभी छूटा हो। कहीं भी गया हूँ, कहीं भी रहा हूँ, त्रिलोचन का मनोरूप हमेशा साथ रहा है, साथ ही नहीं, वह ताकत भी देता रहा है। इधर जब से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में प्राचार्य पद संभाला है और प्रशासकीय दाव-पेंचों पर पड़ा हूँ, त्रिलोचन को ज्यादा ही पुकारा है। ’आघात पर आघात‘, ’प्रगतिशीलों की सूची में नाम नहीं है‘ जैसी पंक्तियों ने कितनी ताकत दी है, यह मैं ही जानता हूँ।

यह मानी हुई बात है कि भले ही एक अच्छे-खासे अन्तराल के बाद किसी व्यक्ति से मिलने जा रहे हों, याद वही रूप रंग रहता है जो पिछली बार देखा होता है। सो जब अस्वस्थता की बात पता चली तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। फिर श्याम सुशील ने बताया कि वे पहचानते भी नहीं, तो काफी निराशा हुई। सबूत के लिए उन्होंने बताया था कि विश्वनाथ त्रिपाठी को भी नहीं पहचान पाए थे। चिन्ता हुई कि मिलने पर जाने कैसे दिखेंगे त्रिलोचन? क्या पहचान पाएँगे मुझे? ऐसे ही कुछ प्रश्नों के बादल घिर आए थे अगस्त की २६ तारीख को उनसे मिलने की योजना बनाते हु