श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन...

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ी कास गुजराती टीका ी राजन वामी ी कास गुजराती टीका ी राजन वामी काशकः ी ाणनाथ ानपीठ काशकः ी ाणनाथ ानपीठ , , सरसावा सरसावा 1 / 636 / 636

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    श्री तारतम वाणी

    प्रकास गजुरातीटीका व भावाथ�

    श्री राजन स्वामी

    प्रकाशक

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा�धि'कार सरुधि(त (चौपाई छोड़कर) © २०१५, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्टपी.डी.एफ. संस्करण – २०१९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 636/ 636

    http://www.spjin.org/

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    प्रस्तावना

    प्राणा'ार श्री सुन्दरसाथ जी! अ(रातीत श्री राजजी का हृदय ज्ञान का अनन्त सागर ह।ै उसकी एक बूँदश्री महामधित जी के 'ाम-हृदय में आयी, जो सागर कास्वरूप बन गयी। इसलिMये कहा गया है किक "नूर सागरसूर मारफत, सब किदMों करसी रोसन", अथा�त् यहतारतम वाणी मारिरफत के ज्ञान का सूय� ह।ै यह ब्रह्मवाणीसबके हृदय में ब्रह्मज्ञान का उजाMा करती ह।ै

    "हक इMम से होत है, अस� बका दीदार" का कथनअ(रशः सत्य ह।ै इस ब्रह्मवाणी की अMौकिकक ज्योधितसुन्दरसाथ के हृदय में माया का अन्'कार कदाकिप नहींरहने देगी। इस तारतम वाणी की थोड़ी सी भी अमृतमयीबूँदों का रसास्वादन जीव के लिMये परब्रह्म के सा(ात्कारएवं अखण्ड मुकि[ का द्वार खोM देता ह।ै अतः वैधि]क

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 33 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    स्तर पर इस ब्रह्मवाणी का प्रसार करना हमारा कर्त्त�व्यह।ै इस Mक्ष्य की पूर्तित के लिMये यह आवश्यक है किकअनेक भारतीय भाषाओं में अवतरिरत इस ब्रह्मवाणी काटीका सरM भाषा में प्रस्ततु हो। यद्यकिप वत�मान में अनेकसम्माननीय मनीकिषयों की टीकायें प्रचलिMत हैं, किकन्तु ऐसाअनुभव किकया जा रहा था किक एक ऐसी भी टीका हो, जोकिवश्लेषणात्मक हो, सन्दभ�, भावाथ�, स्पष्टीकरण, एवंकिटप्पणिणयों से य[ु हो।

    मुझ जसेै अल्पज्ञ एवं अल्प बुधिo वाMे व्यकि[ केलिMये यह कदाकिप सम्भव नहीं था, किकन्तु मेरे मन मेंअचानक ही यह किवचार आया किक यकिद सन्त कबीर जीऔर ज्ञाने]र जी अपने योगबM से भैंसे से वेद मन्त्रों काउच्चारण करवा सकते हैं, तो मेरे प्राणवल्लभ अ(रातीतमुझसे तारतम वाणी के टीका की सेवा क्यों नहीं करवा

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 44 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    सकते? इसी आशा के साथ मैंने अ(रातीत श्री जी केचरणों में अन्तरात्मा से प्राथ�ना की।

    'ाम 'नी श्री राज जी एवं सद्गरुू महाराज श्रीरामरतन दास जी की मेहेर की छाँव तMे मैंने यह काय�प्रारम्भ किकया। सरकार श्री जगदीश चन्द्र जी की पे्ररणा नेमुझे इस काय� में दृढ़तापूव�क जुटे रहने के लिMये प्रेरिरतकिकया। श्री प्राणनाथ जी की पहचान के सम्बन्' मेंजनमानस में अनेक प्रकार की भ्रान्तिन्तयाँ फैMी रहती हैं।'ाम 'नी की कृपा से होने वाMी इस टीका से उनभ्रान्तिन्तयों का समा'ान हो सकेगा, ऐसी मैं आशा करताहँू।

    सभी सम्माननीय पूव� टीकाकारों के प्रधित श्रoासुमन समर्पिपत करते हुए, मैं यह आशा करता हूँ किक यहटीका आपको रुधिचकर Mगेगी। सभी सुन्दरसाथ से

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    किनवेदन है किक इसमें होने वाMी तु्रकिटयों को सु'ारकर मुझेभी सूधिचत करने की कृपा करें, जिजससे मैं भी आपकेअनमोM वचनों से Mाभ उठा सकँू एवं अपने को 'न्य-'न्य कर सकँू।

    आप सबकी चरण-रज

    राजन स्वामी

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ सरसावा

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    अनुक्रमणिणका1 कांई एणी पेर ेकी'ूं रास 12

    2 संभारो साथ अवसर आव्यो छे हाथ जी

    (श्री साथनो प्रबो')

    15

    3 सकM साथ रखे कोई वचन किवसारो

    जी

    25

    4 न कांई मनमां न कांई धिचत (चौपाई प्रगटी)

    30

    5 जुओ र ेबेहेनी हू ंहाय हाय (किवMाप करया छे)

    78

    6 मूंजी सैयM र े(भाखा सिंस'ी जाटी) 1177 सजण किवया मूंजा किनकरी

    (बीजी किवMामणी)125

    8 खईु सा परडेहडो 132

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    9 हवे एक Mवो जो सांभर ेसही (चौपाई प्रगटाणी)

    141

    10 हवे किवनती एक कहू ंमारा वाMा (किवनती)

    152

    11 हवे आपणमां बेठा आ'ार 16812 हवे गुणने Mखूंजी तमतणां

    (श्री 'णीजीना गणु)175

    13 सांभMो साथ मारा जिसरदार 20614 मूंजा अं' अभागी जीव जोर रे

    (जाटी भाषा में - प्रबो')209

    15 मूंहजा जीव अभागी रे 21516 मूंजा जीव सुहागी रे

    (वी वMामणी)221

    17 मूंजा साथ सुहागी रे 225

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    18 हू ंतां किपउजीने Mागूं छंू पाय (किवनती)

    237

    19 अखंड दडंवत करंू परणाम 24320 हवे करंू ते अस्तुत आ'ार

    (हवे प्रकास उपनो छे)255

    21 सांभM जीव कहु ंवतृांत (जीवनो प्रबो')

    317

    22 हवे दृष्ट उघाडी जो पोतानी 33123 हवे वारी जाऊं वनराय वल्लभनी 33724 हवे अस्तुत ऊपर एक किवनती कहूं 34925 खईु सा किनद्रडी रे

    (कर्त्तण जो द्रष्टांत)364

    26 खईुसो भरम जो घेंण 37827 हाणे तू ंम भूMज रे 390

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 99 / 636/ 636

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    28 भोरी तू ंम भूM इदं्रावती 39829 हू ंजाणू ंकिन' एकMी Mऊं

    (श्री Mखमीजीनूं द्रष्टांत)405

    30 सुईने सुई सूता संू करो रे (प्रगटवाणी प्रकासनी)

    444

    31 बेहदी साथ तमे सांभMो (बेहद वाणी)

    474

    32 वMी वण पूछे कहूं किवचार (द'ू पाणीनो किवछोडो)

    549

    33 सांभMो साथ कहू ंकिवचार (श्री भागवतनो सार)

    564

    34 हवे वMी कहू ंते सुणो (एक सौ आठ प( का सार)

    589

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    35 हवे कांईक हू ंमारी करंू (गुणनी आसंका)

    602

    36 गुण केटMा कहू ंमारा वाMा 61237 हवे सैयरने हू ंप्रगट कहूं

    (प्रगट वाणी)616

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    श्री कुMजम स्वरूप

    किनजनाम श्री कृष्ण जी, अनाकिद अ(रातीत।

    सो तो अब जाहेर भए, सब किव' वतन सकिहत।।

    प्रकाश गुजराती - जंबूर

    प्रकाश गुजराती का अवतरण हब्शा में किव.सं.१७१५ में हुआ था। इसका किहन्दसु्तानी भाषा मेंअवतरण अनूपशहर में किव.सं. १७३६ में हुआ। अबप्रस्ततु है श्री इन्द्रावती जी के स्वरों में अवतरिरत प्रकाशगुजराती की किहन्दी टीका।

    कांई एणी पेर ेकी'ू ंरास, रमीने जाकिगया।

    कांई आपण आ अवतार, फरीने मांकिगया।।१।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1212 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    कुछ इस प्रकार से रास MीMा करने के पश्चात् हम सभीसलिखयाँ परम'ाम गयीं और अपने मूM तनों में जाग्रतहुई।ं व्रज-रास में माया का दःुख देखने की हमारी इच्छापूण� न हो सकी थी, इसलिMये हमने 'ाम 'नी से पुनःखेM किदखाने (इस संसार में Mाने) की माँग की।

    कांई तेणी घडी तत्काM, आपण आंही आकिवयां।

    पेहेMा फेराना MवMेस, आपण आंही ल्याकिवयां।।२।।

    किप्रयतम ने उसी (ण हमारी माँग को स्वीकार कर लिMयाऔर उनके आदेश से हम सभी इस न]र जगत् में आगयीं। पहMी बार जब हम सभी व्रज-रास में आयी थीं,तो उस समय हमारी कुछ इच्छायें शेष रह गयी थीं,जिजन्होंने हमें यहाँ पर Mा किदया (आने के लिMये किववश करकिदया)।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1313 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    वाMेजीए तेणी ताM, संुदरबाई मोकल्यां।

    सखी तमे Mई चाMो आवेस, म मूकंू एकMा।।३।।

    किप्रयतम ने उसी (ण श्यामा जी को सबके साथ यहकहते हुए भेजा किक मैं आपको अकेMे नहीं भेज सकता।सव�दा ही आपके साथ मेरा आवेश स्वरूप किवद्यमानरहेगा।

    इन्द्रावती Mागे पाय, सुणो तमे साथ जी।

    कांई आपणने अवसर, आव्यो छे हाथ जी।।४।।

    श्री इन्द्रावती जी सब सुन्दरसाथ जी के चरणों में प्रणामकरके कहती हैं किक हे साथ जी! आप मेरी बात सुकिनए।हमें किप्रयतम की पहचान करके उन्हें रिरझाने का बहुत हीसुन्दर अवसर प्राप्त हुआ ह।ै

    प्रकरण ।।१।। चौपाई ।।४।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1414 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    श्री साथनो प्रबो' - राग 'नाश्री

    सुन्दरसाथ को प्रबोधि'त करना

    संभारो साथ, अवसर आव्यो छे हाथ जी।

    आप नाख्या जेम पेहेMे फेर,े वMी नाखजो एम किनघात जी।।१।।

    श्री इन्द्रावती जी कहती हैं किक हे साथ जी! आप व्रजकी MीMा को याद कीजिजए। जिजस प्रकार आपने व्रज सेरास में जाते समय स्वयं को 'ाम 'नी के प्रधित न्योछावरकर किदया था, उसी प्रकार किनःसंकोच भाव से पुनः इसजागनी MीMा में भी समर्पिपत हो जाइये। आपको यहस्वर्णिणम अवसर पुनः प्राप्त हुआ ह।ै

    संुदरबाई आपण माटे, आव्या छे आणी वार जी।

    ए आपणने अMगां नव कर,े काईं मोकल्या छे प्राण आ'ार जी।।२।।प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1515 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    इस जागनी MीMा में श्यामा जी हमार ेलिMये ही आयी हैं।ये हमें किकसी भी न्तिस्थधित में अपने से अMग नहीं करसकतीं, क्योंकिक हमारे प्राणवल्लभ श्री राज जी ने ही इन्हेंहमार ेसाथ भेजा ह।ै

    सपनातरमां लिखण नव मूके, तो साख्यात अMगां केम थाय जी।

    कृपा वाMाजीनी केही कहू,ं जो जुए जीव रूदया मांहें जी।।३।।

    श्यामा जी जब स्वप्न में भी हमें एक (ण के लिMये भीनहीं छोड़ सकती हैं, तो भMा सा(ात् कैसे छोड़ सकतीहैं? हे साथ जी! यकिद आप अपने जीव के हृदय में इसबात का किवचार करें, तो यह स्पष्ट होगा किक 'ाम 'नी कीकृपा अपार ह।ै उसका वण�न मैं कैसे कर सकती हूँ।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1616 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    एवडी वात वाMो कर ेर ेआपणसूं, पण नथी कांई साथने सार जी।

    भरम उडाडी जो आपण जोइए, तो बेठा छे आपणमां आ'ार जी।।४।।

    किप्रयतम हमारे प्रधित इस प्रकार का प्रेममयी व्यवहारकरते हैं, किकन्तु सुन्दरसाथ को उसकी कुछ भी पहचाननहीं ह।ै यकिद हम अपने संशय को किमटाकर किवचार करें,तो हमें किवकिदत होगा किक 'ाम 'नी हमारे (मेरे हृदय में)मध्य में ही बठेै हैं।

    सपनातरमां मनोरथ की'ा,ं तो धितहां पण वाMोजी साथ जी।

    सुंदरबाई Mई आवेस 'णीनो, नव मकेू आपणो हाथ जी।।५।।

    व्रज में हमने माया की इच्छा की थी, किकन्तु वहाँ हमारेसाथ 'ाम 'नी (श्री कृष्ण जी के तन में) अपने साथथे। इस जागनी ब्रह्माण्ड में श्री राज जी का आवेश Mेकरश्यामा जी हमारे साथ हैं। वे किकसी भी न्तिस्थधित में हमारा

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1717 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    हाथ नहीं छोड़ेंगी।

    धितMमात्र दखु नव किदए आपणने, जो जोइए वचन किवचारी जी।

    दखु आपणने तोज थाय छे, जो संसार कीजे छे भारी जी।।६।।

    यकिद हम तारतम वाणी के वचनों का किवचार करके देखें,तो यह स्पष्ट होगा किक किप्रयतम हमें नाम मात्र भी दःुखनहीं दे सकते हैं। हमें दःुख का अनुभव इसलिMये होता हैक्योंकिक हम अपने 'ाम 'नी की अपे(ा संसार कोअधि'क महत्वपूण� मानने Mगते हैं।

    अंतरध्यान समे दखु दी'ां, ए आसंका मन मांहें जी।

    एणे समे संसार भारी नव की'ू,ं साथें दखु दीठां एम कांए जी।।७।।

    हमारे मन में यह संशय उत्पन्न होता है किक यकिद ऐसा हैतो रास में अन्त'ा�न के समय हमें किवरह का दःुख क्यों

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    किदया? उस समय तो हमने संसार को महत्वपूण� नहींमाना था, किफर भी सुन्दरसाथ ने किवरह का असह्य दःुखक्यों देखा?

    दखुतां केमे न किदए र ेवाMोजी, ए तां किवचारीने जोइए जी।

    सांभर ेवचन तोज र ेसलिखयो, जो माया मूकतां घणू ंरोइए जी।।८।।

    हे साथ जी! आप इस किवषय पर किवचार करके देलिखयेकिक 'ाम 'नी हमें किकसी भी प्रकार से दःुख नहीं देते हैं।वास्तकिवकता तो यह है किक इस प्रकार की बातें हमें तभीयाद आती हैं, जब माया छोड़ते समय मोहवश बहुत रोतेहैं (दःुखी होते हैं)।

    भावाथ�- जब माया का सुख छोड़ते समय हमें दःुखहोता ह,ै तो उसे न छोड़ने का हम बहाना ढँूढते हैं किकराज जी तो किकसी भी प्रकार से दःुख देने वाMे नहीं हैं,

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1919 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    पुनः माया का सुख छीनकर हमें दःुखी क्यों किकया जारहा ह?ै

    वचन संभारवा ने काजे मार ेवाMे, दखु दी'ां अधित घणां जी।

    आपण मनोरथ एहज की'ा,ं वाMे राख्या मन आपणां जी।।९।।

    परम'ाम में हमने माया का दःुख देखने की इच्छा कीथी, इसलिMये मेरे 'ाम 'नी ने हमारे मन की इच्छा पूण�की और उसकी (दःुख माँगने की) याद देने के लिMये रासमें किवरह का बहुत अधि'क दःुख किदया।

    आपण माया नी होंसज की'ी, अने माया तो दखु किन'ान जी।

    ते सभंारवाने काजे र ेसलिखयो, वाMो पाम्या ते अंतरध्यान जी।।१०।।

    हे साथ जी! परम'ाम में हमने माया का खेM देखने कीइच्छा की थी और माया तो दःुखों का ही भण्डार स्वरूप

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2020 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    ह।ै उस इच्छा की याद किदMाने के लिMये ही किप्रयतम रासके मध्य ओझM हो गये थे।

    नहीं तो अ'लिखण ए र ेआपणों, नव सहे किवछोह जी।

    ए तां किवचारीने जोइए र ेसलिखयो, तो तारतम भाजे संदेह जी।।११।।

    अन्यथा, किप्रयतम तो आ'े (ण के लिMये भी हमाराकिवयोग सहन नहीं कर सकते हैं। हे साथ जी! यकिद आपइस सम्बन्' में किवचार करके देखें, तो तारतम वाणी सेसभी संशय दरू हो जाते हैं।

    एणे समे तारतमनी समझण, ते में केम केहेवाय जी।

    अनेक किव'नू ंतारतम इहां, तेणे घर MीMा प्रगट थाय जी।।१२।।

    इस समय यह कैसे माना जाये किक हमें तारतम ज्ञान सेसत्य की पहचान हो गयी है? इस संसार में तारतम ज्ञान

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    के अनेक स्वरूप हैं, जिजनसे परम'ाम की MीMा प्रकटहोती ह।ै

    ओMखवाने 'णी आपणो, कहू ंतारतम किवचार जी।

    साथ सकM तमे ग्रहजो धिचतसू,ं नही राखूं संदेह Mगार जी।।१३।।

    अपने प्राणवल्लभ के स्वरूप की पहचान कराने के लिMयेमैं तारतम वाणी का कथन कहती हूँ। हे साथ जी! आपसभी एकाग्रधिचर्त्त से इसे ग्रहण कीजिजए। मैं आपके मन मेंथोड़ा सा भी संशय नहीं रहने दूँगी।

    पेहेMे फेर ेतां ए किन' न हुती, अजवाMू ंतारतम जी।

    तो आ फेरो थयो आपणने, साथ जुओ किवचारी मन जी।।१४।।

    हे साथ जी! यकिद आप अपने मन में किवचार करके देखें,तो व्रज में तारतम ज्ञान का उजाMा न होने से हमें

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    किप्रयतम और घर की पहचान नहीं थी, इसलिMये हमें इसजागनी ब्रह्माण्ड में आना पड़ा ह।ै

    उत्कंठा नव रहे र ेकेहेनी, जो कीजे तारतम नो किवचार जी।

    तारतमतणू ंअजवाMू ंMईने, आव्या आपणमां आ'ार जी।।१५।।

    यकिद आप तारतम वाणी का धिचन्तन करके किप्रयतम कीपहचान कर Mेते हैं, तो आपमें किकसी भी प्रकार कीMौकिकक इच्छा नहीं रह पायेगी। किप्रयतम अ(रातीत हीतारतम ज्ञान का प्रकाश Mेकर हमारे मध्य (मेरे 'ाम-हृदय में) किवराजमान हैं।

    एणे अजवाMे जो न ओMख्या, तो आपणमां अधित मणां जी।

    चरणे Mागी कहे इदं्रावती, वाMो नव मूके गणु आपणां जी।।१६।।

    इस तारतम ज्ञान के उजाMे में भी यकिद हम अपनेप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2323 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    अराध्य (अ(रातीत) को नहीं पहचान पाते हैं, तो यहदोष हमारे किववेक की अत्यधि'क कमी को दशा�ता ह।ैअपने प्राणे]र के चरणों में प्रणाम करती हुई श्री इन्द्रावतीजी कहती हैं किक इतनी भूM होने पर भी 'ाम 'नी हमसेप्रेम करने का अपना गणु नहीं छोड़ सकते हैं।

    प्रकरण ।।२।। चौपाई ।।२०।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2424 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    सकM साथ, रखे कोई वचन किवसारो जी।

    'णी मल्या आपणने मायामां, अवसर आज तमारो जी।।१।।

    हे साथ जी! आप सभी मेरे द्वारा कहे गये किकसी भीवचन को भूलिMये नहीं। 'ाम 'नी हमें इस मायावी जगत्में (श्री किमकिहरराज जी के तन में) किमMे हैं। उन्हें रिरझानेके लिMये इस समय आपके पास सुनहरा अवसर ह।ै

    संुदरबाई अंतरगत कहावे, प्रकास वचन अधित भारी जी।

    साथ सकM तमे मMी सांभMो, जो जो तारतम किवचारी जी।।२।।

    मेरे 'ाम-हृदय में किवराजमान होकर श्यामा जी कह रहीहैं किक इस प्रकाश ग्रन्थ के वचन बहुत ही महत्वपूण� हैं। हेसाथ जी! आप सभी किमMकर मेरी बात सुकिनये। आपतारतम वाणी के वचनों का किवचार करके देलिखये (किनण�यकीजिजए)।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2525 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    साथ जी एणे पगMे चाMजो र,े पगMा ते एह प्रमाण जी।

    प्रगट तमने पेहेMे कह्यू,ं वMी कहू ंछंू किनरवाण जी।।३।।

    हे साथ जी! आप श्रीमुखवाणी के दशा�ये माग� परचलिMये। यही माग� शे्रयस्कर ह।ै पहMे भी मैंने प्रत्य( रूपसे यही बात कही थी। किनधिश्चत रूप से पुनः एक बार वहीबात कह रही हूँ।

    हवे रखे माया मन 'रो, तमे जोई ते अनेक जुगत जी।

    कई कई पेर ेकह्यूं में तमने, तमे हजी न पाम्या तृकिपत जी।।४।।

    अब आप अपने मन को माया में न Mगाइये। आपनेअनेक प्रकार से इसे देख लिMया ह।ै मैंने आपको माया मेंफँसने से रोकने के लिMये अनेक प्रकार से समझाया,किकन्तु आप इसमें इतना डूब चुके हैं किक अभी भी इससेतृप्त नहीं हो पा रहे हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2626 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    जिजहां Mगे तमे रहो र ेमायामां, रखे लिखण मूको रास जी।

    पचवीस पख Mेजो आपणां, तमने नहीं Mोपे मायानों पास जी।।५।।

    आप जब तक इस मायावी संसार में हैं, तब तक एक(ण के लिMये भी रास की वाणी के धिचन्तन एवं तद्नसुारआचरण को न छोकिड़ये। परम'ाम के पच्चीस प(ों कीशोभा को अपने 'ाम-हृदय में बसाइये, जिजसमें आपकेऊपर माया का कोई भी प्रभाव न पडे़।

    अनेक किव' में घणुएं कह्यू,ं हवे रखे लिखण किवकिहMा थाओ जी।

    रासतणी रामतडी जो जो, जे भरिरयां आपण पाउंं जी।।६।।

    मैंने आपको अनेक प्रकार से समझाकर यह बात कहीहै किक अब आप एक (ण के लिMये भी अपने प्राणवल्लभ सेअMग न होइए। आप उस रास MीMा के सम्बन्' मेंकिवचार कीजिजए, जिजसमें क्रीड़ा करने के लिMये आप इस

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    संसार को छोड़कर बेहद मण्डM में गये थे।

    रास रामतडी रखे लिखण मूको, जे आपण की'ी परमाण जी।

    तमे घणएु नव मूको माया, पण हू ंनहीं मूकंू किनरवाण जी।।७।।

    हमने बेहद में रास की जो रामतें की हैं, उसका धिचन्तनएक (ण के लिMये भी नहीं छोकिड़ये। भMे ही आप मायाको बहुत अधि'क (पूण� रूप से) नहीं छोड़ पा रहे हैं,किकन्तु मैं भी आपको किनधिश्चत रूप से नहीं छोडँू़गी अथा�त्उसमें लिMप्त नहीं होने दूँगी।

    कहे इन्द्रावती वचन वाMाना, जे सुणया आपण सार जी।

    हवे Mाख वातो जो कर ेर ेमाया, तोहे नहीं मूकंू चरण किनर'ार जी।।८।।

    श्री इन्द्रावती जी कहती हैं किक किप्रयतम के जिजन वचनोंको हमने (सद्गरुु 'नी श्री देवचन्द्र जी के मुख से या

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2828 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    तारतम वाणी द्वारा) सुना ह,ै उनका सार तत्व यही हैकिक माया चाहे किकतना भी प्रयास क्यों न करे, किकन्तुकिकसी भी न्तिस्थधित में मैं अपने किप्रये]र के चरणों को नहींछोडँू़।

    प्रकरण ।।३।। चौपाई ।।२८।।

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    चौपाई प्रगटी

    न कांई मनमां न कांई धिचत, न कांई मार ेरदे एवडी मत।

    एक वचन समू नव केहेवाय, एतां आव्यो जाणे पूरतणो दरिरयाय।।१।।

    मेरे मन, धिचर्त्त, या हृदय में न्तिस्थत मेरी बुधिo में इतनासामर्थ्यय� नहीं ह ैकिक मैं इस तारतम वाणी का एक भी शब्दकह सकँू, किकन्तु 'ाम 'नी की कृपा से यह ब्रह्मवाणी मेरेहृदय से इस प्रकार प्रकट हो रही है जसेै सागर में Mहरोंके प्रवाह (पूर) बहते हैं।

    श्री संुदरबाई Mई आकिवया, इदं्रावती ऊपर पूरण दया।

    रूदे बेसी केहेवराव्युं एह, साथ माटे की'ा सनेह।।२।।

    श्री इन्द्रावती जी कहती हैं किक मेरे ऊपर श्यामा जी कीअपार (पूण�) कृपा ह।ै वे परम'ाम से इस वाणी को

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3030 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    Mेकर आयी हैं तथा मेरे 'ाम-हृदय में किवराजमान होकरव्य[ करा रही हैं। ऐसा वे सुन्दरसाथ से प्रेम होने केकारण ही कर रही हैं।

    वचन एक केहेतां किनर'ार, अमे घेर जईने Mेसंू सार।

    अदृष्ट थईने कहे वचन, साथ सकM तमे ग्रहजो मन।।३।।

    सद्गरुु 'नी श्री देवचन्द्र जी कहा करते थे किक मैंइन्द्रावती जी के 'ाम-हृदय में किवराजमान होकर सबसुन्दरसाथ की जागनी की सुधि' Mूँगा। हे साथ जी! आपसभी अपने मन में इस बात को बसा Mीजिजए किक अदृश्य('ामगमन) होने के पश्चात् वे ही मेरे हृदय में किवराजमानहोकर इस ब्रह्मवाणी को कह रहे हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3131 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    आपण पेहेMां पगMा भरिरयां जेह, वMी जे की'ां पे्रम सनेह।

    ते प्रगट की'ां आपण माट, 'ोक मारग ए आपणी वाट।।४।।

    व्रज-रास में हमने अपने किप्रयतम के प्रधित स्नेह-प्रेम काजो माग� अपनाया था, उसे ही 'ाम 'नी ने तारतम वाणीद्वारा इस समय प्रकट कर किदया ह।ै कम�काण्डों से पर ेकाहमारा यह माग� पे्रम का किवहञ्गम (प(ी) माग� ह।ै

    आपणने ए प्रगट करी, साथ सकM Mेजो धिचत 'री।

    तमे रखे हMवी करो ए वाण, पूरण दयाए कह्यूं किनरवाण।।५।।

    हे साथ जी! आप इस बात को अपने धिचर्त्त में बसाMीजिजए किक 'ाम 'नी ने हमार ेलिMये ही यह तारतम वाणीप्रकट की ह।ै आप इस ब्रह्मवाणी को हल्के रूप में नMीजिजए। किनधिश्चत रूप से किप्रयतम की अपार कृपा से ही मैंयह बात कह रही हूँ।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3232 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    प्रबो' वचन ते सदा केहेवाय, पण आ वचन कांई प्रगट न थाय।

    ते माटे तमे सुणजो साथ, आपणमां बेठा प्राणनाथ।।६।।

    परब्रह्म की मकिहमा के वचन तो हमेशा से ही कहे जातेरहे हैं, किकन्तु उनके 'ाम, स्वरूप, और MीMा कीपहचान कराने वाMे तारतम ज्ञान के इन वचनों को आजकिदन तक किकसी ने भी नहीं कहा ह।ै अतः हे साथ जी!आप सभी मेरी इस बात को सुकिनए। किप्रयतम हमारे हीमध्य (मेर े'ाम-हृदय में) बठैकर MीMा कर रहे हैं।

    आपणने जिसखामण कहे, पण भरम आडे काईं रूदे नव रहे।

    ते भरम उडाडो तमे जोई रास, जेम ओMलिखए आपणो प्राणनाथ।।७।।

    वे तारतम वाणी द्वारा हमें जाग्रत होने की सीख दे रहेहैं, किकन्तु संशय हो जाने के कारण किकसी के भी हृदय मेंवह सीख नहीं रह पाती ह।ै हे साथ जी! आप अपने

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3333 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    संशय को हटाकर रास की तरह ही पे्रम का माग�अपनाइये, जिजससे आपको अपने प्राणवल्लभ अ(रातीतकी पहचान हो जाये।

    किवकिहMा थयानी नहीं ए वार, तेडवा आपणने आव्या आ'ार।

    प्रगट पुकारी कहे छे सही, आ वचन कहाव्या अंतरगत रही।।८।।

    यह समय किप्रयतम से दरू होने का नहीं ह।ै हमारे जीवनके आ'ार श्री राज जी हमें बुMाने के लिMये ही आये हैं। वेमेरे हृदय में किवराजमान होकर प्रत्य( रूप से पुकार-पुकारकर इन वचनों को कह रहे हैं।

    एक वचन न आवे अस्तुत, सोभा दी'ी जेम काMबुत।

    अस्तुतनी आंहीं केही वात, प्रगट थावा की'ी किवख्यात।।९।।

    किप्रयतम ने मेरे इस न]र तन को तारतम वाणी कहनेप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    की शोभा दे दी है, अन्यथा मझुसे तो 'नी की मकिहमा मेंइस ब्रह्मवाणी का एक शब्द भी नहीं कहा जा सकता।किप्रयतम अ(रातीत की स्तुधित कहने की यहाँ कैसी बातह,ै 'ाम 'नी ने तो मेरे 'ाम-हृदय में किवराजमान होकरइस बात को जिसo कर किदया है किक तारतम वाणी कहनेवाMे स्वयं श्री राज जी ही हैं।

    फM वस्त जे भार ेवचन, जीव पण न कहे आगM मन।

    ते प्रगट की'ां अपार, जे काईं हुतो आपणो सार।।१०।।

    तारतम वाणी के सार तत्व रूपी आत्म-जाग्रधित केवचन इतने गहन हैं किक उन्हें जीव भी अपने मन के आगेयथाथ� रूप से व्य[ करने का सामर्थ्यय� नहीं रखता।अपार मकिहमा वाMे अखण्ड परम'ाम का जो सार तत्व(मूM सम्बन्' की पणू� पहचान) था, उसे किप्रयतम ने

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    तारतम वाणी द्वारा प्रकट कर किदया ह।ै

    सगाई की'ी प्रगट, आपण घणुएं राखी गुपत।

    वचन एक ए छे किनर'ार, श्री सुंदरबाई केहेतां जे सार।।११।।

    'ाम 'नी ने तारतम वाणी द्वारा परम'ाम के अपने मूMसम्बन्' की पूण� पहचान को प्रकट कर किदया ह,ै जिजसेउन्होंने अनाकिद काM से हमसे णिछपाकर रखा था। सद्गरुु'नी श्री देवचन्द्र जी द्वारा कहे हुए वचनों का सार तत्वयही है किक किनधिश्चत रूप से मूM सम्बन्' की पणू� पहचानबहुत बड़ी (सवपरिर) बात ह।ै

    आ MीMा थासे किवस्तार, सूरज ढांक्यो न रहे Mगार।

    आ MीMा केम छानी रहे, जेहेने रास 'णी एम वचन कहे।।१२।।

    इस जागनी MीMा का बहुत अधि'क किवस्तार होगा। मायाप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3636 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    के बादMों से ज्ञान रूपी सूय� को नहीं ढका जा सकता।भMा यह जागनी MीMा कैसे णिछपी रह सकती है,जिजसकी मकिहमा में 'ाम 'नी इस प्रकार के गौरवमयीवचन कहते हैं।

    ते माटे तमे सुणजो साथ, जे प्रगट MीMा की'ी प्राणनाथ।

    कोई मनमां म 'रजो रोष, रखे काढो मेहेराजनो दोष।।१३।।

    इसलिMये हे सुन्दरसाथ जी! आप सभी मेरी यह बातसुकिनये। स्वयं अ(रातीत श्री प्राणनाथ जी ही प्रत्य( रूपसे यह MीMा कर रहे हैं। कोई मुझ किमकिहरराज को न तोदोषी बनाये और न ही क्रो' करे किक मैंने यह वाणी क्योंकह दी ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3737 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    एटMू ंतमे जाणो किनर'ार, आ वचन मेहेराजें प्रगट न थाय।

    आपण घरनी नहीं ए वात, जे किकव करी मांधिडए किवख्यात।।१४।।

    आप यह बात किनधिश्चत रूप से जान Mीजिजए किक तारतमवाणी के वचनों को मैंने (किमकिहरराज ने) नहीं कहा ह।ैअपने परम'ाम की यह रीधित नहीं है किक काव्य (ग्रन्थ)रचना करके प्रजिसधिo प्राप्त कर Mें और स्वयं को परब्रह्मके रूप में दशा�यें।

    हू ंमन मांहें एम जाणु ंघणु,ं जे किकव नहीं ए काम आपणु।ं

    पण आतां नथी कांई किकवनी वात, रूदे बेसी केहेवराव्युं प्राणनाथ।।१५।।

    मैं अपने मन में इस बात को बहुत अच्छी तरह सेजानती हँू किक हम ब्रह्मसृकिष्टयों का काय� अन्यों की तरहकाव्य की रचना करना नहीं ह।ै इस ब्रह्मवाणी को मात्रकाव्य के रूप में ही नहीं देखना चाकिहए। मेरे प्राणे]र

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3838 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    अ(रातीत ने मेरे 'ाम-हृदय में किवराजमान होकर मझुसेइस ब्रह्मवाणी को कहMाया ह।ै

    ए वचन सव आवेसमां कह्या, उर्त्तमबाईए जोपे करी ग्रह्या।

    एम कह्युं दई आवेस, जे प्रगट MीMा की'ी वसेस।।१६।।

    तारतम वाणी (रास, प्रकाश, एवं षट्ऋतु) के वचनोंको हब्शा में मेरे 'ाम-हृदय में बठैकर अ(रातीत नेअपने आवेश से कहा ह।ै उoव राय ने उसे सुुनकरअच्छी प्रकार से लिMकिपबo किकया। इस प्रकार, 'ाम 'नीने हब्शा में प्रत्य( MीMा की तथा अपने आवेश से इसवाणी को कहा।

    में मन मांहें जाण्यूं एम, जे किकव थासे त्यार ेरमसंू केम।

    किकव पण थई आ वचन किवचार, रमी इदं्रावती अनेक प्रकार।।१७।।

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    मैं अपने मन में ऐसा सोचा करती थी किक यकिद इसीप्रकार काव्यमय वाणी का अवतरण होता रहेगा, तो मैंजागनी MीMा का आनन्द कैसे Mूँगी? किकन्तु किप्रयतमअ(रातीत की ऐसी किवशेष कृपा हुई किक गहन किवचारों कोप्रकट करने वाMी काव्यमय तारतम वाणी का अवतरणभी हुआ तथा मैंने अपने प्रकार से जागनी MीMा काआनन्द भी लिMया।

    सघMा कारज थया एम जिस', श्रीसुदंरबाईए जिसखामण किद'।

    रूदे बेसी केहेवराव्युं रास, पेहेMो फेरो की'ो प्रकास।।१८।।

    श्यामा जी ने मेरे 'ाम-हृदय में किवराजमान होकर रासकी वाणी कही। उन्होंने व्रज और रास की MीMाओं कोप्रकाश में Mाकर हमें समप�ण तथा प्रेम की स्वर्णिणम राहपर चMने की णिश(ा दी। इस प्रकार, हमारे सभी काय�

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4040 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    जिसo हो गये।

    ते माटे तमे सुणजो साथ, आपण काजे की'ू ंप्राणनाथ।

    रखे जाणो मनमां रहे कांई Mेस, ते माटे की'ो उपदेस।।१९।।

    इसलिMये हे सुन्दरसाथ जी! आप मेरी इस बात काश्रवण करें। यह सारी MीMा हमारे प्राणवल्लभ ने हमारीआत्म-जाग्रधित के लिMये ही की ह।ै किकसी के मन में नाममात्र के लिMये भी माया का प्रभाव न रह जाये, इसलिMयेउन्होंने इस तारतम वाणी का अवतरण किकया ह।ै

    आपण पेहेMा पगMा भरिरयां सार, एम चाMो म Mावो वार।

    वMी जो जो आ पेहेMां वचन, प्रेम सेवा एम राखो मन।।२०।।

    हमने व्रज-रास में समप�ण तथा प्रेम की जो राहअपनायी थी, वह सवपरिर थी। हे साथ जी! इस जागनी

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    ब्रह्माण्ड में आप उसी माग� का अवMम्बन कीजिजए। इसमेंजरा भी देर न करें। पुनः व्रज एवं रास की प्रेममयीMीMाओं के वचनों का किवचार कीजिजए तथा अपने मन कोप्रेम और सेवा के माग� पर Mे चलिMए।

    तारतम वचन कहू ंवMी फरी, तमने कह्यूं छे अनेक किव'े करी।

    वMी तमने कहू ंप्रकास, सणुजो एक मने ग्रही स्वासं।।२१।।

    हे साथ जी! मैं आपसे बार-बार तारतम के वचनों कोकह रही हूँ। मैं इसे पहMे भी आपसे अनेक प्रकार से कहचुकी हँू। मेरे द्वारा कहे जाने वाMे तारतम के इस उजाMेको आप एकाग्र मन से सुकिनये।

    पेहेMे फेर ेश्री बकंुैठनाथ, इछा दरसन करवा साथ।

    साथ तणे मन मनोरथ एह, जे माया रामत जोइए तेह।।२२।।

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  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    पहMी बार हम व्रज-रास में इसलिMये आये क्योंकिकअ(र ब्रह्म को हमारे दश�न की इच्छा थी। सुन्दरसाथ केभी मन में माया का खेM देखने की प्रबM इच्छा थी।

    त्यार ेभगवानजी मन किवमास्या रही, श्री 'णीजीए इछा की'ी सही।

    Mा'ूं सपन दी'ू ंआवेस, माया रामत की'ी प्रवेस।।२३।।

    अ(र ब्रह्म ने अपने मन में परम'ाम की MीMा देखनेका जो किवचार किकया, उसे 'ाम 'नी ने व्रज-रास में पूण�किकया। अ(र ब्रह्म की आत्मा में श्री राज जी के आवेश केसाथ हम सबने इस स्वप्नमयी ब्रह्माण्ड में माया के खेMमें प्रवेश किकया।

    ए आवेस Mईने करी, प्रगट्या गोकुM नदं घरी।

    साथ सपन एम Mा'ू ंसही, जे गोकुM रकिमया भेMा थई।।२४।।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4343 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    अ(र ब्रह्म की आत्मा ने श्री राज जी के आवेश कोMेकर नन्द जी के घर में श्री कृष्ण जी के तन में प्रवेशकिकया। इसी प्रकार, हम सब सलिखयों ने भी स्वप्न केब्रह्माण्ड में प्रवेश किकया तथा गोकुM में किप्रयतम के साथकिमMकर प्रेम की म'ुर MीMायें की।

    अग्यार ेवरस Mगे MीMा करी, काMमाया इहांज परहरी।

    जोगमाया करी रकिमयां रास, आनदं मन आणी उMास।।२५।।

    व्रज में ११ वष� तक MीMा करने के पश्चात् काMमायाके इस ब्रह्माण्ड का Mय हो गया। सभी सलिखयाँ योगमायाके ब्रह्माण्ड में अपने किप्रयतम के पास गयीं और अपने मनमें अत्यधि'क उमंग Mेकर आनन्दपूव�क रास की रामतेंकी।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4444 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    रास रमी घेर आव्या एह, साथ सकM मन अधि'क सनेह।

    कांइक उत्कंठा रही मन सार, तो आपण आव्या आणी वार।।२६।।

    रास खेMने के पश्चात् अपने मन में किप्रयतम के प्रधितअत्यधि'क प्रेम भाव Mेकर हम सभी सुन्दरसाथ परम'ामआये। किकन्तु हमारे मन में माया देखने की कुछ इच्छाशेष रह गयी थी, इसलिMये हमें पुनः इस ब्रह्माण्ड में आनापड़ा ह।ै

    वMी एक वचन कहू ंसुणजो साथ, दया करी कहे प्राणनाथ।

    आ किकव करी रखे जाणो मन, भरम टाMवा कह्यां वचन।।२७।।

    हे साथ जी! मैं पुनः आपसे एक और बात कह रही हूँ,आप उसे सुनें। अ(रातीत श्री प्राणनाथ जी सब पर कृपाकरते हुए मेरे अन्दर से यह बात कह रहे हैं। आप अपनेमन में ऐसा मत समजिझये किक यह श्रीमुखवाणी कोई काव्य

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4545 / 636/ 636

  • श्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामीश्री प्रकास गुजराती टीका श्री राजन स्वामी

    ग्रन्थ ह।ै आपके संशयों को समाप्त करने के लिMये ही 'ाम'नी ने यह वाणी कही ह।ै

    भरम टMे ओMखाय 'णी, अने सेवा थाय मारा वाMाजी तणी।

    ओMखाय वल्लभ तो टMे माया पास, एटMा माटे प्रगट थयो रास।।२८।।

    मन के संशयों के किमटने पर किप्रयतम की पहचान होतीह।ै पहचान के पश्चात् ही कोई मेरे प्राणे]र की सच्चे हृदयसे सेवा कर सकता ह।ै किप्रयतम की पहचान ही जीव केऊपर चढ़े हुए माया के रगं (प्रभाव) को हटाती है,इसलिMये 'ाम 'नी ने रास ग्रन्थ का अवतरण किकया ह।ै

    पेहेMा फेराना अवतार, ते तारतमे कह्या किवचार।

    पेहेMे फेरतेां खबर न पडी, तो आपण आव्या आंहीं वMी।।२९।।

    तारतम वाणी का कथन है किक पहMी बार जब व्रज मेंप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञान�