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Page 1: हिन्दी साहित्य- सीमांचल€¦  · Web viewहिंदी साहित्य की खूब उन्नति हो ... नरेश

डायरी के पृष्ठ अमृतलाल नागर

नई डायरी का नया पृष् ठ

स् वप् न कभी-कभी स् फूर्तित�दायक होते हैं। पिपछले एक वर्ष" से डायरी लिलखने का शौक लगा। समय-समय पर कागज पर अंपिकत, एकांत क्षणों में मेरे अच् छे और बुरे पिवचार मुझे अपने जीवन की समालोचना करने का अवसर देते हैं। डायरी पिनर्ष् पाप और पिनर्ष् कलंक है - मेरा अंतःकरण भी पिनर्ष् पाप और पिनर्ष् कलंक है। मैं दोनों को प् यार कर सकता हूँ, दोनों का आदर करना जानता हूँ, बहुत-सी बुराइयों के सा थ ही मुझमें एक अच् छाई है। काश, इन दोनों के आदेशों का पालन भी करने लगूँ !

22 अक् टूबर, 1941 ई. अमृतलाल नागर

शालिलनी लिसनेटोन स् टूपिडयो,

कोल् हापुर। (महारार््ष ट्र)

22 अक् टूबर, 1941 ई.

दिदवाली हो गई। आज भैया दूज है। अगर मेरी अपनी कोई सगी बहन होती तो आज के दिदन मुझे न भूलती। मुझे इस बात को देखकर बड़ी शांपित है पिक मेरे लिच. बेबी (नागरजी के ज्येष्ठ पुत्र कुमुद) और लिच. शरत (नागरजी के कपिनष्ठ पुत्र शरद) के पितलक काढ़ने वाली उनकी बहन भा. आशा (नागरजी के ज्येष्ठ पुत्री अचला का बाल्यकाल में रखा गया नाम) है। प्रभु, मेरी प्राथ"ना की लज् जा रक् खो! - ये दोनों भाई और उनकी ये बहन अखंड सुख भोगते हुए शतायु प्राप् त करें। बहन को उसकी ये भैया दूज मुबारक हो। उसे अपने दोनों भाइयों को इस तरह टीका काढ़ने का अवसर, प्रभु कृपा से, सौ वर्ष" तक आए। तथास् तु।

लिच. रतन (नागरजी के अनुज रतनलाल नागर) घर गया होगा। लिच. रतन और लिच. मदन (नागरजी के दूसरे अनुज मदनलाल नागर) तथा सौ. साधना (अनुज रतनलाल नागर की धम"पत्नी) ने माते (नागरजी की माता) के साथ दिदवाली मनाई होगी। प्रभु, इन् हें शतायु प्रदान करो और अखंड सुख दो। एवमस् तु !

आजकल मन चौबीस घंटे घरेलू वातावरण में ही रमा रहता है। नाथ, मुझे अपनी पूरी गृहस् थी के साथ रहकर जीवन भर सुख पिबताने का अवसर दो। कोल् हापुर में अब मन जरा भी नहीं लगता। - मुझे एक-एक सेंकें ड भारी मालूम पड़ रहा है। मेरी मनोदशा इस समय बहुत खराब है।

शारीरिरक अवस् था भी ठीक नहीं। मैंने इस छोटी-सी अवस् था में अपने शरीर पर जिजतना अधिधक अत् याचार पिकया है, वह कम नहीं है। ...मैं यह भी चाहता हूँ पिक व् यायाम करके अपने शरीर को सुगदिठत बनाऊँ। मेरी यह बड़ी इच् छा है पिक स् वास् थ ्य भी मेरा बहुत अच् छा हो जाए। मेरा पिनयधिमत जीवन जिजस दिदन बन सकेगा-वह दिदन बड़ा शुभ होगा। मैं दुपिनया में कुछ काम कर सकँूगा। हे प्रभु, जिजस दिदन अपने सापिहत् य द्वारा मैं अपने देश की सेवा कर सकँू - मैं अपने को धन् य समझँूगा। सचमुच, मेरा उदे्दश् य यही है पिक मैं अपने सापिहत् य द्वारा हिह�दी सापिहत् य और अपने देश की सेवा कर सकँू। बेकारी, झूठी प्रपितर्ष् ठा, दलिलत वग" की करुण कहानी, सीधी-सादी भार्षा में (झूठी और सस् ती भावुकता के चक् कर में न पड़कर) पुरअसर तरीके से अपने देशवालों को सुनाता चलँू-पिवश् व को अपने देश की उस अवस् था (दशा) का परिरचय दँू, जिजसे हमारे गौरांग प्रभु अपना उल् लू सीधा करने की गरज से लिछपाते हैं। प्रलिसजिW का हर एक आदमी भूखा होता है; पर मैं यह बात मानने के लिलए तैयार हूँ पिक मुझमें यह बात कमजोरी तक बन कर आ गई है; लेपिकन लिसनेमावालों की तरह खुद ही अपनी तारीफ लिलखकर और खुद होना मुझे नहीं भाता। मैं तो चाहता हूँ जनता

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ही में से कोई आकर मेरी कला पर लिलखे, मुझसे इंटरव् यू ले, मेरे आटोग्राफ माँगे। यह मैं जानता हूँ पिक अगर मैं अपना काम करता रहा तो ईश् वर मुझे यह सम् मान भी कृपापूव"क प्रदान करेंगे। - सचमुच 'बड़ा' बनने की मेरी सबसे बड़ी महत् वाकांक्षा है। प्रभु, मैं पिनब"ल हूँ, मूख" हूँ। अपनी अस्लिZलयत से मैं पूरी तरह परिरलिचत हूँ, मुझे दुपिनया वैसे जो कुछ भी समझे। प्रभु यह तुम् हारी ही कृपा का फल है पिक आज मैं यह 'कुछ' बन सका हूँ - और एक दिदन तुम् हारी ही कृपा के बल पर मैं बहुत कुछ बन जाऊँगा। मुझे तो मात्र तुम् हारा ही सहारा है।

अभी दिदन की बात है - कंपनी की एक् स् ट्रानदिटयों में से एक - लालाबाई मुझसे कहने लगी : ''पंपिडतजी, अगली पिपक् चर में मुझे काम दो और ऐसा लिलखो पिक ये कंपनी वाले आदमी नहीं, जम के दूत हैं। दूसरों को अपनी पिपक् चर में बताते हैं पिक गरीबी और अमीरी का भेदभाव दूर करो, मगर खुद ही करते हैं।'' लालाबाई ने पिकस जलन और व् यथा के कारण यह बात मुझसे कही होगी, इसका मैं अंदाज लगा सकता हूँ। मुझसे उसका यह कहने का साहस भी लिसफ" इसलिलए हुआ पिक मैं स् टूपिडयो में पिवनायकराव (नवयुग लिचत्रपट के मालिलक तथा 'संगम' पिफल्म के पिनमा"ता-पिनद\शक) से लेकर होटल के एक मामूली 'ब् वॉय' तक से एक-सा पे्रम-व् यवहार रखता हूँ। सभी मौका पड़ने पर मुझसे अपने दिदल की बात कह डालते हैं। मैंने यह चीज यहाँ पहले भी महसूस की। मैं यह नहीं कहता पिक यह लिसफ" नवयुग लिचत्रपट में ही है। यह चीज आमतौर पर देखी जाती है -'लिचराग तले अँधेरा' की कहावत पर यकीन हो जाता है। इसके पहले भी एक ऐसा ही पिकस् सा मैंने यहाँ देखा। म् यूजिजक पिडपाट"मेंट में केशोराय नाम का एक बुड्ढा करताल बजाने वाला था। बारह रुपये माहवार उसको धिमलते थे। केशोराय बड़ा सीधा आदमी है। कंपनी के खच\ में कमी करने की गरज से उसके लाख-लाख लिचरौरी करने पर भी उसे पिनकाल दिदया गया। एक दिदन मैंने म् यूजिजक पिडपाट"मेंट में जाकर उसका अभाव महसूस पिकया। उसके बारे में पूछा तो सारा पिकस् सा मालूम हुआ। पता लगा, कोई साबुत कपड़ा न होने की वजह से चार रोज से अपनी कोठरी के बाहर नहीं पिनकली - यह उसकी 15/16 बरस की जवान जहान लड़की के संबंध में मैंने सुना। बेचारे को बुढ़ापे में भीख माँगने की कला का अभ् यास करना पड़ रहा है - यह मैंने सुना। उसके दो छोटे बच् चे भी अब पाठशाला जाना छोड़ भीख माँगने की कोलिशश कर रहे हैं। मुझसे और कुछ सुना न गया। मैं उसके मकान का पता पूछकर उससे धिमलने के लिलए चला। रानडे (नवयुग लिचत्रपट में नागरजी के सहकम_) रास् ते में ही धिमल गए। उनके पूछने पर मैंने तमाम पिकस् सा बतलाया। मैं और रानडे उसके घर गए। केशोराय अपने सामने स् टूपिडयो के दो 'देवताओं' (बडे़ अफसरों) को देखकर स् तब् ध रह गया। हाथ जोड़कर पिगड़पिगड़ाते हुए बोला : 'आज हमारे यहाँ सत् तनरायन हैं - पूजा करँूगा।'

दो रंग की दो फटी हुई धोपितयों को गाँठों से जोड़कर उसकी लड़की छोटी-सी-समृजिWहीन-पूजन सामग्री सँजो रही थी। उसके दोनों भाइयों की बुरी हालत भी हमने देखी। केशोराय का पाताल से बातें करता हुआ पेट भी हमने देखा। वह भीख से थोडे़-बहुत पैसे जुटा कर भगवान को प्रसन् न करने का प्रबंध करता है। पिवदुर के घर शाक ग्रहण करने वाले, दीनबंधु हरिर क् या उसका यह अमूल् य-प्रसाद ग्रहण न करेंगे? - नहीं, भगवान में इतना साहस नहीं। भगवान केशोराय और उसके परिरवार को सुख दो। मैं सोचने लगा, उसकी लड़की जो देखने-सुनने में ऐसी कुछ बुरी भी नहीं - इस आफत में पड़कर खुद या अपने बाप के द्वारा अपनी जवानी की दुकान खोलकर बैठ जाए। ...बडे़-बडे़ लोग-यही परम भावुक श्री पिवनायक भी तब शायद लिचल् ला देंगे पिक हाय-हाय! केशोराय ने अपनी लड़की को वेश् या बनाकर बाजार में बैठा दिदया। ...पर आज उसकी मुसीबत का अंदाज लगाने की तरफ कोई ध् यान भी नहीं देता। बेकार का पेट्रोल खूब फँूका जाएगा - उसमें कमी कैसे हो? - अपनी कमजोरिरयों को Black mailer journalists से खरीदने के लिलए हजारों रुपया फँूका जाएगा, क् योंपिक वह Business है, खुद Rs. 1500/- में एक पाई कम करना पसंद नहीं करेंगे। साल-साल, डेढ़-डेढ़ साल से 'एपरंदिटसों' को झौओं की तादाद में रखकर उन् हें एक पैसा दिदए बगैर मजदूरों की तरह उनसे काम लिलए जाएगँे। स् टॉफ की मीटिट�ग कर 'भाई-भाई' बनकर मेरी-आपकी सबकी कंपनी कहने का ढोंग रचेंगे, अपने साम् यवाद का इस तरह लेक् चरी-सबूत देकर यह समझ लेंगे पिक हम सचमुच ही अपना सारा फज" अदा कर चुके। अखबारों में अपनी पस्लिeललिसटी भेजेंगे पिक मामूली-से-मामूली नौकर भी उनसे भाई की तरह धिमलता है। और घरौआ बरत सकता है। और उसके बाद यह हालत ! दुपिनया सचमुच दुरंगी है।

खुदा का घर (नागरजी के प्रZतापिवत उपन्यास का शीर्ष"क, जो पिक पूरा नहीं हुआ।) अब उठाना चाहता हूँ। उस पर मैंने नोट्स लिलखने शुरू कर दिदए हैं। बहुत जल् द ही पूरा चाट" बनाकर लिलखने का काम शुरू कर दँूगा।

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जुन् नरकर (नवयुग लिचत्रपट की पिफल्म 'संगम' के सह-पिनद\शक) ने मुझसे 'पाव"ती' के संवाद और गायन लिलखने की बात की है। लेपिकन Business side के लिलए चिच�चलीकर (प्रZतापिवत पिफल्म के पिनमा"ता) अभी बात नहीं करते। उनसे अभी ही सौदा तय हो जाता तो मेरी इच् छा थी, इसी बीच में पाव"ती के गायन और संवाद लिलखकर और रुपये लेकर घर जाता, परंतु प्रभु की जैसी मजीh" होगी वही होगा। उसी का आसरा है।

आज ईद है। मौलाना (नवयुग लिचत्रपट में नागरजी के एक अन्य सहकम_) शहर में नमाज पढ़ने गए थे। बाल-बच् चों से दूर इस तरह त् योहार का फीकापन मौलाना पिकस तरह से महसूस कर रहे हैं-यह मैं बड़ी ही अच् छी तरह समझ सकता हूँ।

 

23-10-41

कल शाम को ही मैंने डायरी में लिलखा था, व् यायाम करके अपना शरीर सुगदिठत बनाने की मेरी इच् छा है। रात में ही काका (श्री चिच�तामण राव मोडक - नवयुग लिचत्रपट में नागरजी के एक अन्य सहकम_) से बातें होने लगीं। उन् होंने मुझे बहुत उत् सापिहत पिकया और तीन अच् छी कसरतें भी बताईं। काका बडे़ ही हँसमुख और खुशधिमजाज आदमी हैं। नवयुग के एक यूपिनट के रिरकॉर्तिड�स् ट होकर आए हैं। पहले भी पिकसी वक्त यहाँ ही थे। काका से 'संगम' के सेट पर मेरी मुलाकात कराई गई और पाँच धिमनट के अंदर ही हम इतने बेतकल् लुफ हो गए, मानो बरसों के दोस् त हों। काका अभी चार-पाँच दिदन मेरे कमरे में मेहमान बन कर रहे, आज ही पूना वापस गए हैं। काका का शरीर बढ़ा सुगदिठत है। वे बतलाते थ ेपिक 15 वर्ष" की उम्र में उन् हें थाइलिसस हो गई थी और वह 2nd stage तक पहुँच गई थी। डॉक् टरों ने जवाब दे दिदया था। दैवयोग से इनके मन में अपने-आप ही धुन समाई और कसरत करना शुरू कर दिदया और आज यह हालत है पिक ढाई-पौने तीन मन का Iron Bar आसानी से उठा लेते हैं। सुप्रलिसW पिफल् म-स् टार मास् टर मोडक (साहू मोडक) के चचा हैं, पिlश्चिnयन हैं-मगर सबसे ऊपर काका बहुत अच् छे आदमी हैं। आज काका के जाने से सूना-सूना सा लगता है।

आज से 'संगम' की शूटिट�ग शुरू हो गई। एक सप् ताह के अंदर ही सब सीन डालने का इरादा है। आठ नवंबर को बंबई के वेस् ट-एडं-लिसनेमा में प्रदर्शिश�त होना पिनश्चिnत हुआ है। मैं श्री जुन् नरकर के साथ ही यहाँ से 5 नवंबर को बंबई जाऊँगा। रिरलीज के बाद पिफर लखनऊ जाऊँगा। अगर इसी बीच में 'पाव"ती' के डॉयलॉग लिलख जाता और पैसे धिमल जाते तो अच् छा होता। जैसी प्रभु की मजीh" होगी-होगा। - हम सब उसी के आधीन हैं।

हिह�दी सापिहत् य की खूब उन् नपित हो - बस अब तो यही मन में लग रही है। चारों तरफ से अच् छी-अच् छी रचनाए ँपिनकलें। सापिहत् य के हर अंग को अच् छी तरह से सजाया जाए। क् या बताऊँ, एक अच् छी-सी मालिसक पपित्रका मेरे हाथ में आ जाए तो मन की कुछ पिनकालँू। 'खुदा का घर' और 'लूलू' (इस चरिरत्र पर कें दिpत संZमरण वर्षq बाद 'लूलू की माँ' शीर्ष"क से 'ये कोठेवालिलयाँ में लिलखा।) दिदमाग में घूम रहे हैं। पहले 'खुदा का घर' लिलखना शुरू करँूगा। खूब लिलखँू ! खूब लिलखँू !! खूब लिलखँू !!! बस !

हरिर तुम् हारी जय हो !

24-10-41

कल से कसरत करना शुरू कर दिदया है। बदन के जोड़-जोड़ में उसके कारण दद" हो रहा है। मौलाना कहते हैं, कसरत शुरू में दो महीने तक बड़ी तकलीफ देती है। जो भी हो, अब तो इसे छोडँ़ूगा नहीं - यही मेरा पिनश् चय है। प्रभु इसे पिनबाह दें। मैं भी अपना बदन गठीला बना हुआ देखना चाहता हूँ।

कल से 'संगम' के बकाया पिहस् से की शूटिट�ग चल पड़ी है। दिदन भर सेट पर ही बीता है।

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आज 'खजांची' देखा। कहानी क् या है, बस वो मसल है पिक 'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा - भानमती ने कुनबा जोड़ा' - मगर इस पिपक् चर को सफल जाना ही चापिहए था। इसमें वो 'मास-अपील' का मसाला मौजूद है। भगवान, मेरे 'संगम' को भी 'फ्लूक' बनाकर पिनकाल दें तो मुझे भी फायदा हो। सब कुछ प्रभु कृपा पर पिनभ"र है।

आज पिवनायकराव मुझसे कहते थ ेपिक 'संगम' की पस्लिeललिसटी के संबंध में तुम भी चिच�चलीकर के साथ दिदल् ली जाओ।

आज बच् चों की याद बड़ी आ रही है। भगवान मेरे भाइयों और बच् चों तथा सारे परिरवार को शतायु प्रदान करें और अखंड सुख दें। तथास् तु! - प्रभु तुम् हारी जय हो !

26-10-41

कल रानडे ने एक मजाक सुनाया। 'सरकारी पाहुणे' का 'ट्रीटमेंट' टाइप करने को दिदया गया। रानडे ने लिलखा था : A bullock-cart drawan by ten bullocks. टाइप होकर आया। ''A bullock-cart drawan by ten horses.'' दुबारा ठीक करने के लिलए भेजा गया। टाइप होकर आया! A bullock-cart drawan By Manutai. मनुताई पिफल् म की हीरोइन का नाम है। टाइपिपस् ट रौ में इस बार 'मनुताई' टाइप कर गया।

कल रात राजू और गोहिव�द को पत्र लिलखा और 12 बजे सो गया। मौलाना शहर गए हुए थे।

आज सुबह से संपादक की कुरसी जोर मार रही है। तबीयत एक मालिसक-पपित्रका को हाथ में लेने के लिलए मचल रही है। हिह�दी में इस समय कोई भी ऐसी मालिसक पपित्रका नहीं जो आज के सापिहत्यित्यक-जगत के सामने अश्चिभमान के साथ रखी जा सके। सबकी सब उसी दपिकयानूसी ढंग पर चली जा रही हैं। मेरा इरादा है एक ऐसी पपित्रका पिनकाली जाए जो सापिहत् य के सभी अंगों की पुधिv कर सके। उसमें मनन और स् वाध् याय की ठोस सामग्री हो। साधारण पाठक वग" के लिलए भी काम उठाने का काफी साधन हो। हिह�दी में इस वक्त बड़ी मनमानी और धाँधलेबाजी मची हुई है। गत से काम करने की तरफ पिकसी का ध् यान नहीं जाता। रामपिवलास शमा" ऐसे उत् साही सापिहत् य-सेपिवयों की बड़ी जरूरत है। हिह�दी में अच् छे-अच् छे लेखक पैदा पिकए जाए।ँ पिवद्वानों का सहयोग प्राप् त पिकया जाए। मान लीजिजए पिक दुभा"ग् यवश बहुत से ऐसे पिवद्वान मौजूद हैं, जो अपनी मातृभार्षा की सेवा करने की रुलिच नहीं रखते। उन् हें उकसाया जाए। पहले यदिद वो अंग्रेजी में भी लिलखें तो उनसे लीजिजए। संपादक खुद अनुवाद करके उसे छापे। ऐसे तीन-चार लेख जहाँ पिनकालें, पिफर उनसे कहा जाए पिक आप जैसी भी भार्षा बने-हिह�दी में ही लिलखिखए। बहुत से तो बस इसी वजह से संकोच करते हैं पिक उनके पास भार्षा नहीं। अगर उनका यह डर संपादक पिनकाल दें तो साल-छह महीने बाद वह संुदर और सुचारु रूप से लिलखने लगेंगे। ऐसे लोगों की भार्षा भी जदिटल न होकर प्राकृपितक बोलचाल की भार्षा ही बनेगी। इस तरह हिह�दुस् तानी का मसला आप ही आप हल हो जाएगा। कोई भी तकलीफ न होगी। संपादक लोग जरा भी मेहनत नहीं करते। उनमें स् फूर्तित� ही नहीं। संपादक की कुरसी पर बैठकर, बस, लोग अश्चिभमान से फूल जाते हैं - काम कायदे से करते ही नहीं। उन् हें लेखक बनाने का परिरश्रम उठाने में शम" मालूम पड़ती है। आशीवा"द और उपदेश वो लोग बाँट सकते हैं। दौड़-धूप कर कायदे के पिवद्वानों का सहयोग प्राप् त नहीं करते। संपादक भी आम तौर पर जापिहल और बुW ूही है। हे ईश् वर, पिकस दिदन हिह�दी सापिहत् य का सूय" चमकेगा!

10 बजे रात

योग की व् याख् या करते हुए महर्तिर्ष� पतंजलिल अपने योग-दश"न के पिद्वतीय सूत्र में कहते हैं : ''योग * लिचत् तवृश्चिy पिनरोधः'' लिचत् त की वृश्चिyयों को रोकना दो प्रकार से संभव बतलाया गया है।

(1) संप्रज्ञात (2) असंप्रज्ञात।

इसके पहले पिक इन दो प्रकार के योग साधनों का भेद बताया जाए, पतंजलिलजी की परिरभार्षा के अनुसार लिचत् त के पाँच प्रकारों को समझ लेना आवश् यक है -

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(1) श्चिक्षप् त (2) मूढ़ (3) पिवश्चिक्षप् त, (4) एकाग्र (5) पिनरुW।

क्षि�प् त - लिचत् त की उस अवस् था को कहेंगे जब उसमें पिनरंतर रजोगुण का प्राधान् य रहे।

मूढ़ - तामसी वृश्चिyयों के प्राबल् य से जब लिचत् त पिववेकरपिहत हो जाए - ऐसा, जैसे पिक मनुर््ष य पिनpावस् था में ज्ञान एवं चेतनता शून् य हो जाता है।

वि�क्षि�प् त - इस प्रकार के लिचत् त में चंचलता अधिधक होती है, वह कभी-ही-कभी स्लि{र हुआ करता है। पिवश्चिक्षप् त में प्रायः सतोगुण और रजोगुण की प्राधान् यता रहती है। तामस कम रहता है। पिवश्चिक्षप् त की क्षश्चिणक स्लि{रता में ही एकाग्रता भी संभव है और एकाग्रता के कारण सात्यित्वक वृश्चिyयों का पोर्षण भी संभव है, जिजनके द्वारा योग के माग", या यों कहना चापिहए पिक योग के प्रवेश द्वार तक पहुँच जाना मनुर््ष य के लिलए संभव है।

पातंजलिल के मतानुसार श्चिक्षप् त और मूढ़ प्रकारों के लिचत् त में योग का आभास भी होना संभव नहीं, क् योंपिक उनमें सतोगुण का अभाव है।

एकाग्रता - पिकसी भी पिवर्षय-पिवशेर्ष को लेकर उसी में रम जाना। उदाहरणाथ" हम sex को ही ले लें। sex को लेकर यह भी संभव है पिक हम तमोगुण को प्राधान् यता दें, क् योंपिक sex के संबंध में सोचते ही शारीरिरक उपभोग...। रजोगुण भी संभव है पिक हम उस सुख के मद में चूर हो जाए,ँ परंतु इन दोनों गुणों को छोड़कर हम सतोगुण प्रधान लिचत् त से sex के संबंध में पिवचार कर सकते हैं। उस समय हमारा लिचत् त केवल अध् ययन के तौर पर ही इस पिवर्षय की पिववेचना करेगा। ऐसा करते समय इंदिpय-उपभोग की लालसा भी हमारे ध् यान में नहीं आएगी। एकदम ही न आए, यह तो मैं नहीं कह सकता, परंतु यदिद सात्यित्वक वृश्चिy पिवशेर्ष है तो वह राजस और तामस का नाश करने में पिनश् चयतः सफल होगी।

इस सात्त्वि}वक वृश्चिy पिवशेर्ष एकाग्र-लिचत् त में ही संप्रज्ञात योग होता है। संप्रज्ञात (consciousness) हमारे में जागृत रहती ही है। हमें यह ध् यान रहता ही है पिक इस समय हम इस पिवर्षय-पिवशेर्ष का मनन कर रहे हैं।

इस तरह conscious state of mind से जो पिवर्षय का सीधा (direct) योग सात्त्वि}वक रूप से होता है वह संप्रज्ञात योग हुआ।

30-10-41

कोल् हापुर, महारार््ष ट्र

तीन दिदन से रोज ही डायरी लिलखने की बात लिसफ" सोचकर ही रह जाता था। आज चार रोज हुए यहाँ से 22 मील दूर 'रुकड़ी' स् टेशन पर आउटडोर शूटिट�ग के लिलए गए थे। सबेरे साढे़ छह बज ेही यहाँ से मोटर पर पिनकल गए थे।

सूरज ताजा ही उगा था। सड़क और पहापिड़याँ कुहरे से भरी हुईं। ठंडी मजेदार हवा और हमारी मोटर की तेज रफ्तार से उड़ती हुई - लाल धूल।

पहले एक पहाड़ी नाले के ऊपर बना हुआ छोटा-सा पुल धिमला। पुल की ऊँचाई तक बढे़ हुए पेड़ों के सघन-कंुज। सड़क की ऊँचाई और नीचे घादिटयों में कहीं कुदरती हरिरयाली, बसी हुई झोंपपिड़यों के छप् परों से छनकर पिनकलता हुआ हल् का-हल् का धुआँ कुहासे के साथ ही धिमलता हुआ। मोटर का हान" बजा - दो बैलगापिड़याँ खड़-खड़ करती खरामा-खरामा छोटी-सी सड़क को बड़ी जोरों में घेरे चली आ रही थीं। मोटर के हान" ने उन् हें बतलाया, अभी स् वराज् य नहीं हुआ। हड़बड़ा कर 'दिटख-दिटख पिहलाः पिहलाः' की। बैलों की घंदिटयाँ बड़ी मस् ती के साथ मेरे कान के पास टुनटुना कर बैलों के गलों में झूमती-झूलती पिनकल गईं और गापिड़यों के पिनकलते ही हम कोल् हापुर के पास से होकर बहने वाली नदी 'पंचगंगा' के पुल पर थे। पंचगंगा को देखकर मुझे अपने यहाँ की गोमती की याद आई। टिठ�गना

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आदमी अपने ही इतने कद वाले को पसंद करता है। दोनों पिकनारों पर हरिरयाली और पानी इतना शांत - मुझे लगा, नदी शायद अभी सोकर नहीं उठी - पंचगंगा नदी तो रिरयासत की ही है आखिखरकार। बुझी हुई चौकोर कंदील को हाथ में लिलए एक आदमी और उससे एकदम सट कर जरा उससे दो मुट्ठी आगे जाने वाली एक स् त्री को देखा - सड़क पर सामने कोहरा-नीचे पंचगंगा का एक कोना और हरिरयाली तथा पेड़ों पर छाया हुआ कोहरा। उस जोडे़ की 'लिसलुएट' पेंटिट�ग-सरीखी वह अदा दिदल पर छाप मार कर अभी ही आँखों से ओझल हुई थी पिक सड़क के बाईं तरफ दो पेड़ों का सहारा पाकर फलती हुई अमर बेल को देखा। दोनों पेड़ों पर बुरी तरह छाकर वह बीच में झूले की पटरी की तरह लटक रही थी। - उसके पीछे ही एक झोपड़ी और आगे एक बैलगाड़ी रखी हुई। उस वक्त बैल नहीं थ,े झोपड़ी के आगे एक मुगा" और एक मुग_ पास-पास चुग रहे थे। मेरे दिदमाग में 'पिवलायती मुगेh" के लिलए एक आया : 'बुदिढ़या हीरोइन एक नौजवान को लेकर इसी पिफजा में मोटर पर खूब पीकर पिनकली है। यह पेड़ों का झूला, वह हरिरयाली और सन् नाटा देखकर वह फौरन ही मोटर रुकवाती है और नौजवान को उस कुदरती झूले के पीछे घसीट कर ले जाती है।'

रुकड़ी स् टेशन पर एक गँूगी बुदिढ़या रेल के चले जाने के बाद कुछ ढँूढ़ रही थी। मैं समझ गया, पिकसी मुसापिफर ने कुछ दान फें का है, वह उसी को खोज रही है। मेरी इच् छा थी पिक अपना एक पैसा फें ककर उसे यह समझने दँू पिक यह वही पैसा है जिजसे वह खोज रही थी। लेपिकन उसने मुझे देख लिलया और हाथ उठाकर सैकड़ों आशीवा"द दिदए और पिफर ढँूढ़ने में लग गई। कुछ देर बाद उसे एक पाई धिमली। बड़ी पिनराश हुई - उसने पाई मुझे दिदखाकर अपने चेहरे पर ये भाव लिलया पिक इसके पीछे मुझे मेहनत बहुत ज्यादा करनी पड़ी और कीमत बहुत कम धिमली। मैंने एक इकन् नी पिनकाल कर उसे दी। गरीब महारार््ष ट्र प्रांत के बेहद मामूली स् टेशन रुकड़ी की उस गँूगी बूढ़ी श्चिभखारिरन को जान पड़ता है इकन् नी पिकसी ने कभी भी भीख में नहीं दी थी। उसे आश् चय" और प्रसन् नता इस कदर हुई - अगर जबान होती तो वह न जाने क् या कहती। उसकी मुख-मुpा और हाव-भाव से ऐसा मालूम पड़ता था जैसे वह आज अपनी वाक् शलिक्त को थोड़ी देर के लिलए चाहती ही है। उस वक्त तो उसने जिजतने आशीवा"द दिदए तो दिदए ही; बाद में भी जब-जब वह मुझे देखती, आशीर्ष देती। वह पिकतना सच् चा आशीवा"द था! - उससे मेरे रतन-मदन और बेबी, शरत-आशा का पिकतना भला होगा।

संुदरबाई बड़ी ही सीधी-सादी औरत है। बुदिढ़या मुझसे बड़ा पे्रम करती है। रतनबाई और वत् सलाबाई तो कुरसी पर बैठी हुई और वह खड़ी हुई। मुझसे देखा न गया। मैंने एक पिबस् तर उठा कर उसके लिलए रखना चाहा। जैसे ही पिबस् तर उठाने उठा, पिवनायक राव यह समझकर पिक मैं उस पर बैठँूगा, खुद बैठने के लिलए झुके। मैंने फौरन ही उनसे कहा : आपसे ज्यादा बुदिढ़या को उसकी जरूरत है।

हाय, कैसा क् लेश होता है मन को जब यह देखता हूँ पिक अधिधकारी होकर लोग मनुर््ष यता को भूल जाते हैं।

24-1-46

बहुत दिदनों बाद ! कल मpास जा रहा हूँ। प्रपितभा साथ हैं। पंतजी का तार और रुपया पाकर उदयशंकर की पिपक् चर का काम करने। आज अचला आगरा गई। जाते समय दुखी थी। पहली बार प्रपितभा से अलग हुई है।

खोसलाजी के पास पैसा डूब गया।

लिचमनलाल देसाई ने 1200/ - रुपये कम दिदए।

पिकशोर वीर कुणाल में अनायास मेरा credit हज्म कर गए।

एकदा नैधिमर्षारण्ये अमृतलाल नागर

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कृपित-सापिहत्यित्यकों की कौम उस खिखलौने की तरह होती है, जिजसे आड़ा-सीधा, उल् टा-पल् टा चाहे जैसे भी दबाकर रख जाए, हाथ का दबाव हटते ही वह तुरंत अपनी सही पोजीशन पर आ जाता है। सही पोजीशन है आवारगी। आवारापन पिकसी-न-पिकसी रूप में उनकी छुट्टी में ही पड़ा होता है। धम"वीर भारती एक रार््ष ट्रीय संस् था हिह�दुस् तानी पिबरादरी के प्रादेलिशक अध् यक्ष बनकर कुछ समय पहले लखनऊ आए थे। श्रीलाल शुक् ल आई.ए.एस. उन दिदनों राजधानी के एक आला अफसर थे। कपिव उपन् यासकार धिमले, तो छुट्टी की चुल उठने लगी। भारती ने हमसे कहा, "कल न आएगेँ, श्रीलाल के साथ लखीमपुर के आगे जंगल देखने का काय"lम उन लोगों ने बनाया है।"

हमने कहा, ''हो आओ। डॉ. वासुदेवशरणजी की 'पाश्चिणपिनकालीन भारत' में वह कोटरावन भारत के छह श्रेर््ष ठ वनों में बनाया गया है।'' पाश्चिणपिन -छाप सांस् कृपितक मुहर लगा देने से भारती को वन-अटल का प्रोग्राम और भी भा गया।

मगर दूसरे दिदन शाम को भारती पिफर घर पर ही दिदखाई दिदए। मैंने चौंक कर पूछा, ''अरे जंगली नहीं बने तुम लोग?"

भारती बोले, "अरे क् या बताए,ँ श्रीलाल पिकसी जरूरी काम पर लगा दिदए गए, सारा प्रोग्राम चौपट हो गया ! अब सोचते हैं नैधिमर्षारण् य देख आए ँ!" सापिहत्यित्यक आवारगी में रमा हुआ मन भला आसानी से चुप बैठ सकता है? कोटरावन न सही, धिमश्रका वन सही। 'म थुरा न सही, मधुवन ही सही' (ऐ मेरे आवारापन) तुझे ढँूढ़ ही लेंगे कहीं-न-कहीं। संयोग से केशवचंp वमा" भी यहीं थे। भारती ने बतलाया पिक कल सवेरे केशव, श्रीलाल, उनकी पत् नी और वे नैधिमर्षारण् य जाएगँे। पिफर पूरे कूटनीपितक मधुरतम भाव से कहा, ''और अगर आप भी चले चलें, तो मजा आ जाएगा !'' हम ठहरे आजाद आवारा, नीमसार-धिमश्चिश्रख का नाम यों ही हमें धिमश्री-सा मीठा लगता है। 'पिवधुर पंपिडत' जातक कथा में धिमश्रक वन की तुलना नंदनवन से की गई है। 'धिमस् सकं नंदनं वनम्।' नैधिमर्षारण् य इसी धिमस् सक वन का एक भाग है। मेरे बचपन तक 'नीमसार धिमस् सक' लखपेड़वा जंगल कहलाता था। धिमश्चिश्रख और नीमसार के बीच की जगह में अब मुत्त्वि�कल से सौ पेड़ होंगे। तपोवन का आभास तक अब वहाँ नहीं धिमलता है। सन् तावनी गदर के अनुपम संस् मरण छोड़ जाने वाले ठाणे जिजले (बंबई) के पंपिडत पिवर््ष णुभट्ट गोडशे ने नैधिमर्षारण् य का छोटा, हिक�तु बड़ा ही मनोरम लिचत्र 'माझा प्रवास' में अंपिकत पिकया है। सदिदयों पुराना तपोवन था, इसलिलए फलों और फूलों के पेड़ भी उस जंगल में बहुत थे। अंग्रेजी राज आ जाने के बाद भारत में इतनी तेजी से और इतने पिवराट पैमाने पर परिरवत"न हुए पिक सहस् त्राखिeदयों में भी बहुत न बदला जा सकने वाला भारत सहसा नया होने लगा। इतना परिरवत"न तो शकों, यूनापिनयों, हूणों, तुकq आदिद की नृशंस तोड़-फोड़ और सीनाजोरिरयों के बावजूद नहीं हो सका था।

खैर इस नैधिमर्षारण् य ने मुझे सन '45 से '65-66 तक रोटी-पानी और दीन-दुपिनया के मसलों के बावजूद अपने से कसकर बाँध रखा था। बवंडरनुमा पहेली-सा वह मुझे उलझाता रहा। नैधिमर्षारण् य हिह�दू औरतों, भक् तों, कथावाचकों और वहाँ के पंडों के बीच में ही महत् व पाता रहा है। हमारे पौराश्चिणक युग को देशी, पिवलायती बौजिWकों ने उपेक्षा की दृधिv से देखा और बम् हनीती बकवास कह के टाल दिदया है। 'महँू बड़कवन केर पिपछलगा' छापे की बातें मेरे मन पर भी छप गई थीं, लेपिकन सन '45 में पहली बार मpास में कपालीश् वर के मंदिदर में एक कथावाचक के मुख से नैधिमर्षारण् य का माहात् म् य तधिमल भार्षा में सुनकर पहले तो मैं गद्गद हो उठा, क् योंपिक नैधिमर्षारण् य मेरे नगर का पड़ोसी है। पिफर तेजी से यह सवाल भी उठा पिक वह कौन व् यलिक्त या संगठन था, जिजसने नीमसार को यह अखिखल भारतीय महत् व प्रदान पिकया।

उसी जमाने में एक बार कुछ दिदनों के लिलए लखनऊ आने पर मैंने संयोग से चौक की एक गली में चौराहे के नल पर बाल् टी रखकर लोटे ने नहाने वाले एक अधपढे़, लोअर-धिमपिडल क् लास के अधेड़ पुरुर्ष को 'गंगा-चिस�धु-सरस् वती च यमुना' वाला श् लोक पढ़ते देखा-सुना, तो पहले हँसी आई पिक हजरत नहा तो रहे हैं चौराहे के नल पर, मगर गोते लगा रहे हैं सारे भारत की नदिदयों में।

यह भावनात् मक रार््ष ट्रीय एकता लाने की जरूरत कब और क् यों पड़ी होगी और उसमें नैधिमर्षारण् य का नाम जुड़ना क् यों अपिनवाय" हुआ होगा? ये प्रश् न मेरे मन को बार-बार गोते दिदलाने लगे। सहारा देने के लिलए काम आए हिह�दी-भार्षी बुजगु" धिमजा"पुर पिनवासी पटना के बैरिरस् टर पिवश् वमान् य स् व. डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल। मुझे हुमायूँ की जान बचाने वाले श्चिभश् ती की तरह अगर चार घड़ी की हुकूमत धिमल जाए, तो मैं नगर-नगर, गाँव-गाँव में डॉ. जायसवाल की मूर्तित�याँ लगवाने का हुक् म दे दँू। इस महापुरुर्ष ने दुपिनया को और भारतीयों को भी, भारतीय इपितहास को देखने-

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समझने की सही दृधिv प्रदान की। उनका यह उपकार भुलाया नहीं जा सकता। इनके द्वारा लिलखे गए गं्रथ 'अंधकार युगीन भारत' ने मुझे पिबच् छू के से डंक मारने वाली अपनी इस पहेली का अता-पता दे दिदया पिक गंगा, यमुना, बदरी, केदार, हरिरद्वार, काशी, मथुरा, अयोध् या, प्रयाग आदिद के रहते हुए हमारी गोमती नदी पर बसे नैधिमर्षारण् य को क् यों चुना गया था।

कुर्षाणों को अपनी भूधिम से खेदकर भगाने वाली यहाँ की एक आदिदम नागपूजक जनजापित 'भर' पर पिकसी उदे्दश् यपरक तपोलिसW महापुरुर्ष ने लिशव का भार रखकर भरों को भारलिशव बना दिदया था। अवध में भरों का एकछत्र राज् य था। महाभारत के अनुसार पुराने भारत में कुलपपित वह कहलाता था, जो दस हजार पिवद्यार्शिथ�यों का भरण-पोर्षण कर सके। भाग"व शुनक की वंश-परंपरा के कोई महर्तिर्ष� शौनक ऋपिर्ष नीमसार में कुलपपित थे। कुर्षाणों के राज् य में जापिहर है पिक आप ही भूख मरते होंगे तो, छात्रों का भरण-पोर्षण भला क् यों कर पाते। मगर भार लिशवों-वाकाटकों के काल में वे पिफर से अपनी कुलपपित वाली असली हैलिसयत पा गए। उन् होंने कहीं बसे हुए सूत परिरवार के एक सौपित को बुलाया। ये सौपित कथा बाँचने में अपना सानी नहीं रखते थ,े और यह दिदमाग शौनक का ही था, जिजसने कीमती यज्ञों वाली बम् हनौती, 'मोनोपली' को तोड़कर गंगा या पिकसी पपिवत्र तीथ" में एक गोता लगाने से भी उतना ही पुण् य लाभ करा दिदया, जिजतना उस जमाने में धनी-मानी हजारों खच" करके यज्ञों से पाते थे। कुलपपित शौनक ने नैधिमर्षारण् य को अपने ढंग का अनोखा कथा-पिवश् वपिवद्यालय बना दिदया। सारे पुराणों पर पिवर््ष णु का ठप् पा लगाकर कथा की ऐसी भलिक्तधारा बहायी, जैसी दुपिनया में शायद ही कहीं बही हो।

मैं सन '57 में गदर के पि�स् से बटोरने के लिसललिसले में पहली बार नैधिमर्षारण् य गया था। मैंने चlतीथ" पर उस समय भी लगभग 8-10 प्रदेशों के भक् त-भलिक्तनों को नहाते देखा। जाने उन् हें क् या धिमल जाता है पिक चlतीथ" में एक डुबकी लगाने के लिलए सैकड़ों रुपये खच" करके वे यहाँ आते हैं। पुरानेपन की इस पिनशानी को अंग्रेजी राज् य भी नहीं तोड़ सका। महाद्वीप जैसे एक देश को समुpों से पिहमालय तक कथाओं से बाँधने वाली मंत्रलिसW कथा-भूधिम के नाम से मेरा कथाकार मन भला क् यों न बावला हो जाए ! अत्यंत पिप्रय आत् मीय जनों का साथ, हमने सोचा चलो तीरथ जाकर पिकसी न जाने वाले पिप्रय को अपना पुन् न छूकर देंगे।

सबेरे गापिड़याँ आ गईं, हमारे घर से होकर ही जाना भी था। अतरसुइया इलाहाबाद के भारती को चौक की दुकानें देखकर जलेपिबयों की हुड़क उठी। चँूपिक हमसे नहीं कहना था, इसलिलए अपने एक पार्ष"द को चौराहे पर ही जलेबी खरीदने उतार दिदया था। वह पार्ष"द राम अब आए और अब आए। खैर, जलेपिबयाँ जब आईं, तो हमारी कार में ही रखी गईं, भारती दूसरी कार में बैठे। मीठे के नाम पर श्रीलाल भी कम लार टपकाने वाले नहीं हैं, 'अउर हम का कोउ ते कम हन' आखिखर कब तक अमरूद खाते रहें ! श्रीलाल बोले, ''जलेपिबयाँ शुरू कर दी जाए।ँ'' मैंने कहा, ''भैया, जिजसकी बदौलत खाने को धिमल रही हैं, पहले उसको तो श्चिभजवा दो।'' बहूरानी ने हमारा साथ दिदया, इस तरह रास् ते में एक मौके की जगह गापिड़याँ रोककर नैधिमर्षारण् य यात्रा का अपिग्रम जलेबी प्रसाद पिवतरण हुआ। जलेबी की धिमठास में रास् ते-भर श्रीलाल और केशव ब्रज-भार्षा की एक से एक संुदर कपिवताए ँसुनाते चले। रास् ते की दूरिरयाँ उसी धिमठास में घुल गईं।

एक बार भोपाल से सांची जाते हुए पिप्रयवर डॉ. जगदीश गुप् त और पिवष्णुकांत शास् त्री ने भी ऐसा ही रसवर्ष"ण पिकया था। बीच-बीच में मुसाहबत के लिलए स् व. दुर्ष् यन् त कुमार पुराने शायरों की धिमलती-जुलती पंलिक्तयाँ सुनाकर समाँ बाँध देते थे।

दधीलिच मंदिदर और धिमश्चिश्रत कंुड के पास पहुँचकर हमारी गापिड़याँ ने हाल् ट पिकया। भृगु पुत्र दधीलिच ऋपिर्ष के नाम के साथ अपूव" त् याग की कहानी जुड़ी है।

भाग"व दधीलिच मूल रूप से वहीं रहते थ ेया ईरान-अफगापिनस् तान में, इसका पिहसाब तो पुरा-इपितहास के पंपिडत ही बता सकते हैं, मगर कुलपपित भाग"व शौनक ने अनोखे कथासत्र का शुभारंभ अपने इन परम त् यागी महान् पुरखे की पुण् य-स् मृपित में तीथ" की प्रपितर्ष् ठापना करके पिकया था। धिमश्चिश्रत तीथ" में भारत के सभी तीथq का जल है, खाली एक तीथ"राज ने आने से इनकार कर दिदया था। ऋपिर्षयों ने शाप दिदया पिक संगम को छोड़कर तुम् हारे जल में कीडे़ पड़ जाएगँे। इलावास (इलाहाबाद) के पानी में कीटाणु हैं या नहीं, यह तो वहाँ के वत"मान प्रशासक पं. श्रीलालजी जाँच

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करवा के बतला सकते हैं। बहरहाल उस समय वे सूबे की कला, संस् कृपित और पुरातत् व के मालिलक थे। नैधिमर्ष में खुदाई का काम लिछड़वा रखा था।

पुरातत् व का पुजारी हूँ, अपने नगर के लक्षमण टीले की बदौलत मैंने बडे़-बडे़ उस् तादों की लिचलिलम भरकर इसकी कुछ समझ भी हालिसल की है, पर उस समय तो कथा के कोठे पर चढ़ा हुआ मन अपनी ही कल् पनाओं में पिवचर रहा था। दस-ग् यारह वर्ष" पहले अपना उपन् यास लिलखते समय मैंने पिकस दृश् य की पिकस स् थल पर कल् पना की थी, इसका ध् यान आने लगा। मन में भीड़-भाड़ लग गई। मनु शतरूपा का तपोवन अब करीब-करीब उजाड़ पड़ा है, हर साल वन-महोत् सव मनाने वाली सरकार क् या पिफर से नैधिमर्ष-धिमश्रकावन को तपोवन नहीं बना सकती? इन तपोवनों में जिजन फलों-फूलों का वण"न धिमलता है, उनको पिफर से नहीं लगवा सकती? ढाई-तीन हजार वर्ष" पूव" के तपोवन की झलक देने से क् या पिवदेशी पय"टकों का आकर्ष"ण अधिधक न बढे़गा ? जिजस भूधिम ने रार््ष ट्र को एक तथा शलिक्तशाली बनाने हेतु अद्भतु आयोजन पिकया, दश्चिक्षणाखोरों की 'मोनोपली' तोड़कर भावनात् मक तत्व का प्रचार पिकया, सारे अवतार पिवर््ष णु के अवतार कह-कह कर कहापिनयाँ गढ़ीं, वह भूधिम सदा प्रणम् य है। बहुजातीय भारत के बहु-इर््ष टदेव अपने-अपने भक् तों को लड़वाते थ,े पिवर््ष णु के अवतार होकर सब सबके लिलए पूज ्य और प्रणम् य हो गए। शैवो-वैर््ष णवों की सदिदयों पुरानी लडाhई को नारद की ए क पिवनोदी कथा जोड़कर हँसी-हँसी में उड़ा दिदया। कमाल पिकया था इस नैधिमर्ष कथा-पिवश् वपिवद्यालय और उसके वाइस-चांसलकर शौनक ने। कथा-पिवश् वपिवद्यालय से नए रूप में ढली हुई कथाओं का कोस" पढ़ो, चाहे लघुसत्र पढ़ो चाहे दीघ"सत्र, कथा बाँचने की कला सीखो, मजमा इकट्ठा करने के कुछ व् यावहारिरक लटके पिवश् वपिवद्यालय दे ही देगा। पिफर जाओ, खाओ-कमाओ और हमारी कथाओं का प्रचार करो।

मैं नैधिमर्ष की रचनात् मक प्रपितभा और शलिक्त के प्रपित श्रWाश्चिभभूत हूँ।

यहाँ पांडवों का पिकला है। कम से कम जनश्रुपित में तो पांडवों का पिकला ही कहलाता है। उसके खंडहरों पर माता आनंदमयी ने अपना आश्रम और पुराण मंदिदर बनाया, उससे पहले वहाँ भारलिशवों के जमाने की, जायसवाल द्वारा बखानी लगभग पहली शताब् दी ईसवी की बहुत-सी ईंटें नजर आती थीं। अब खिखस्लिल्जयों के वक्त के हाहाजाल नामक मंत्री के बनवाए हुए कुछ पिहस् से की ईंटें भी नजर आती हैं।

पास ही बजरंगबली का मंदिदर है, राम-लक्ष् मण को कंधे पर पिबठलाए पवनतनय की पिवशाल मूर्तित�। मैं अपने अनुमान को पुरा-पंपिडतों की राय से एक बार पुख्ता भी कर चुका हूँ। यह मुर्तित� शंुगकाल की है, यहाँ की सबसे पुरानी मूर्तित�। पुरानों में पुराना तो चlतीथ" भी है। सुनते हैं, कुछ इलाहाबादी ऋपिर्ष ब्रह्माजी से तप के लिलए उत् तम और पावन भूधिम पूछने गए। ब्रह्माजी ने एक चक् कर दे दिदया, कहा, ''जहाँ इस चl की पिनधिम (धुरी) पुरानी होकर पिगर जाए, वहीं जाकर तपस् या करो।'' इस तरह पिनधिम से नैधिमर्षारण् य बना ओर जहाँ चl पिगरकर धरती में पाताल तक धँसा, वहाँ एक सोता फूट पिनकला, वह चlतीथ" है। नैधिमर्ष कथा-पिवश् वपिवद्यालय ने कीमती यज्ञों की आग को पावन तीथq के जल से बुझा दिदया। वहाँ, पपिवत्र जल में श्रWापूव"क एक गोता लगाकर तुम् हें वह खुदा धिमलेगा, जो कोदिट यज्ञ फल अर्जिज�त करने वाले राजाओं, धन कुबेरों को भी नहीं धिमल सकता।

नैधिमर्षारण् य जाकर मेरा मन जाग्रत स् वप् नों में डोलता है, एसैी मन-तरंगें लिचत्रकूट के अलावा मुझे अन् यत्र नहीं धिमलीं। लेपिकन लिचत्रकूट में दूसरे प्रकार का अनुभव होता है, यहाँ कुछ और। बहरहाल राम लिचत्रकूट से भी जुडे़ हैं और नैधिमर्षारण् य से भी। त् यक् ता भगवती सीता की स् वण"मूर्तित� को प्रतीक सहधर्मिम�णी बनाकर भगवान राम ने यहीं राजसूय यज्ञ पिकया था। यहीं लव-कुश ने पहली बार वाल् मीकीय रामायण सुनाई थी। यहीं अपनी स् वण" प्रपितमा को राम के साथ यज्ञ में बैठी देखकर दुखावेश में माता सीता धरती में समाई थीं। सीता के शाखिeदक अथ" का कायल होते हुए मेरा कथाकार मन इस समय भूधिम के चप् पे-चप् पे में उस जगह की कल् पना कर रहा है, जहाँ सीता माँ समाई होंगी।

यहाँ गुप् तकालीन ईंटों का बना एक अद्भतु कमलाकार यज्ञकंुड है। मनों लकड़ी और घी वगैरह सोखने वाले यज्ञकंुड कैसे होते थ,े यह कोई यहाँ आकर समझे।

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और अब ललिलता देवी के मंदिदर में आइए। मंदिदर की बाहरी दीवारें पूरी म् यूजिजयम बनी हुई हैं। पंडों ने जो मूर्तित� पाई, वहीं दीवार पर सीमेंट से लिचपका दिदया। ललिलता देवी का मंदिदर लगभग 9 वीं शताब् दी में कश् मीर नरेश ललिलतादिदत् य ने बनवाया था। गुप् तकाल का वैभव तो इस भूधिम में काफी भरा पड़ा है।

सब कुछ देख-दाख लिलया। भूख सताने लगी। खैर, उस समस् या से भी सुखेन पिनपटे। गापिड़याँ पिफर लौट चलीं। रास् ते में एक खंडहर पर हमारे सांस् कृपितक पिवभाग के पिनदेशक श्रीलाल शुक् ल की नजर पड़ी। मेरी उत् सुकता भी जाग उठी, गाड़ी रुकवाई और हम चल पडे़। पिफर तो धीरे-धीरे सभी धिमत्र आए। लिचपित्रत ईंटों के एक मंदिदर की कुछ दीवारें थीं।उन् नाव के भीतर गाँव जैसा कलात् मक और शानदार तो नहीं, पर ठीक ही था।

ठीक समय पर घर आ गए। स् नेही स् वजनों के साथ यह एक दिदन मेरे लिलए बड़ा ताजगी-भरा गुजरा।

 

(1979 , टुकडे़-टुकडे़ दास् तान में संकलिलत)