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रंभाशकुसवंादम : हे संस्कृत मधील एक महान काव्य आहे. शुक मुनी म्हणजे वैराग्याच ंअतंीम टोक. तयांच्या तपाचा भंग करण्यासाठी सौंदययवती रंभा स्वगायतून खाली येते. आणण तयांच ंचचतत ववचललत करण्याचा प्रयतन करते. पण ततने मांडलेल्या प्रतयेक मोहाच ेशुकमुनी कसे खडंन करतात ते वाचले व ऐकलेच पाहहजे. यातील पहहला श्लोक हा रंभेचा म्हणजे या जगाच ेसुंदर रूप वणयन करणारा आहे तर दसुरा हे जग तनमोही, भक्तीपूणय नजरेतून पहाणारा आहे. अशी ही एक अततशय मजेशीर जुगलबंदी आहे.

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श्री. सुहास ललमये यांच्या उतकृष्ट वक्ततृतवातून या काव्याचा आस्वाद घ्या. .

अचधक माहहतीसाठी व संपूणय संचासाठी संपकय साधा : श्रीकृष्ण भागवत (9892794688)

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श्रीकृष्ण भागवत (9892794688)

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॥ शुक रम्भा संवादः सार्य ॥

॥ श्री गणेशो ववजयत े॥

॥ शुक रम्भा संवादः ॥

॥ हहन्दद संस्कृत भाषा टीकाद्वय संवललतम ्॥

Shuka Rambha Conversation

With commentaries in Hindi and Sanskrit.

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रम्भोवाच: - मागे मागे नूतनं चूतखण्ड ं

खण्ड ेखण्ड ेकोककलानां ववरावः ।

रावे रावे मातननी-मानभंगो भंगे भंगे मदमर्ः पञ्च-बाणः ॥ १ ॥

हे मुतन! हर मागय में नयी मंजरी शोभायमान हैं हर मंजरी पर कोयल सुमधुर टेहुक रही हैं । टेहका सुनकर मातननी स्रीयों का गवय दरू होता है और गवय नष्ट होते हह पााँच बाणों को धारण

करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं ।

हे शुक! मागे मागे नूतन ंनवीन ंचूताना ंआम्रवकृ्षाणां खाम ्।

अन्स्त इतत शेषः । तन्स्मदखण्ड ेकोककलानां परभतृा ंववरावः शब्दः भवतत । तन्स्मन ्ववराव ेजात ेसतत मातनदयाः मानवतयाः मनः गवयः तस्य भङ्गो नाशः भवतत । मातनदया अवप मानभङ्गः ककं पुनः साधारणस्रीणाम ्। तन्स्मन ्भङ्गे पञ्चबाणाः यस्य सः मदमर्ः प्रभवतत ॥ १ ॥

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शुक उवाच- मागे मागे जायत ेसाध-ुसङ्गः सङ्गे सङ्गे श्रयूते कृष्ण-कीततयः ।

कीतौ कीतौ नस्तदाकारवनृ्ततः वतृतौ वतृतौ सन्च्चदानदद भासः ॥ २ ॥

हे रंभा! हर मागय में साधजुनों का संग होता है उन हर एक

सतसंग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनन ेलमलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चचततवनृ्तत भगवान के ध्यान में लीन होती है और हर वक्त सन्च्चदानंद का आभास होता है ।

रंभे! मागे मागे साधूना ंसज्जनाना ंसंगः पररचयः सङ्गततश्च

जायत े। तन्स्मन ्सङ्गे कृष्णस्य प्रभोः कीतत यः यशः श्रूयते।

तस्यां कीतौ नः अस्माकं तस्याकारस्याकार इव वनृ्ततः भवतत । तस्या ंतदाकारवतृतौ सन्च्चदानददस्य ईश्वरस्य भासः प्रकाशः भवतत

अनुभूयते इतयर्यः ॥ २ ॥

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तीर्े तीर्े तनमयलं ब्रह्मवदृदं

वदृदे वदृदे तततव चचदतानुवादः । वादे वादे जायते तततवबोधो बोधे बोधे भासत ेचदद्रचूडः ॥ ३ ॥

हर तीर्य में पववर ब्राह्मणों का समुदाय ववराजमान है । उस समुदाय

में तततव का ववचार हुआ करता है । उन ववचारों में तततव का ज्ञान

होता है और उस ज्ञान में भगवान चंद्रशेखर लशवजी का भास

होता है । तीर्े पववरके्षर े। तनमयल ंपववरं ब्रह्मववदां ब्राह्मणाना ंवदृदं समूहः वतयते । तन्स्मन ्वदृदे तततवस्य तततवज्ञानस्य।

चचदतायाः ववचारस्यानुवादो वववादे जात ेतन्स्मन ्तततवस्य तततवज्ञानस्य

बोधः ज्ञान ंजायते भवतत । जायमाने तन्स्मन ्बोध ेचदद्र इददशु्चूड े

लशरलस यस्य सः ईश्वरः शङ्करः दृश्यते इतयर्यः ॥ ३ ॥

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रम्भोवाच- गेहे गेहे जङ्गमा हेम-वल्ली वल्या ंवल्या ंपावयण ंचदद्र-बबम्बम ्।

बबम्बे बबम्बे दृश्यते मीन-युग्मं युग्मे युग्म ेपञ्चबाण-प्रचारः ॥ ४ ॥

हे मुतनवर हर घर में घमूती किरती सोने की लता जैसी ललना ंके मुख पूणणयमा के चंद्र जसैे सुंदर हैं । उन मुखचंद्रो में नयनरुप दो मछलीयााँ हदख रही है और उन मीनरुप नयनों में कामदेव स्वतंर घूम रहा है । गेहे गेहे जङ्गमा गच्छन्दत, हेम्नः सुवणयस्य वल्ली लता दृश्यते । तस्यां लतायां शरच्चदद्रस्य बबबंं दृश्यते । तन्स्मन ्मीनयोयुयग्म ं

द्वंद्वमालोक्यते । तन्स्मन ्युग्मे द्वंद्वे पञ्चबाणः यस्य तस्य महतस्य

प्रचारः भवतत ॥ ४ ॥

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शुक उवच- स्र्ाने स्र्ाने दृश्यते रतन-वेदी वेद्यां वेद्यां लसद्ध-गदधवय-गोष्ठी । गोष्ठयां गोष्ठयां ककदनर-द्वदद्व-गीतं गीते गीत ेगीयते रामचदद्रः ॥ ५ ॥

हे रंभा! हर स्र्ान में रतन की वेदी हदख रही है हर वेदी पर लसद्ध और गंधवों की सभा होती है । उन सभा ंमें ककदनर

गण ककदनरीयों के सार् गाना गा रहे हैं । हर गाने में भगवान

रामचंद्र की कीतत य गायी जा रही है ।

स्र्ाने स्र्ाने रतनना ंखचचत रतनानां वेदी दृश्यत ेआलोक्यते । वेद्यां वेद्यां लसद्धाना ंगदधवायणा ंच गोष्ठी वातायलापः श्रूयते ।

गीते रामचदद्र ईश्वरः गीयते । ककदनराः रामसंबन्दधगान ंकुवयन्दत।

अत एव ईश्वरः स्मतयव्यः ॥ ५ ॥

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रम्भोवाच- पीन-स्तनी चददन-चचचयताङ्गी ववलोल-नेरा तरुणी सशुीला । नाऽऽललङ्चगता प्रेम-भरेण येन

वरृ्ागतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ६ ॥

हे मुतनवर सुंदर स्तनवाली शरीर पर चंदन का लेप की हु

चंचल आाँखोंवाली सुंदर युवती का प्रेम स ेन्जस पुरुष न ेआललगंन

ककया नहीं उसका जदम व्यर्य गया ।

पीनौ पुष्टौ स्तनौ यस्याः चददनेन गदधेन चचचयतं व्याप्तमङ्ग ं

शरीरं यस्याः । ववलोल नेर ेयस्याः सुशीला सुस्वभावा तरुणी युवती येन पुंसा पुरुषेण प्रमेस्य भरः तने न आललङ्चगता न महदयता चेत ्

तस्य पुंसः जीववतं वरृ्ा तनरर्यकं गतम ्॥ ६ ॥

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शुक उवाच- अचचदतय रूपो भगवान्दनरञ्जनो ववश्वम्भरो ज्ञानमय-न्श्चदातमा । ववशोचधतो येन ह्रहद क्षण ंनो वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ७ ॥

न्जसके रुप का चचतंन नहीं हो सकता जो तनरंजन ववश्व का पालक

है जो ज्ञान से पररपूणय है ऐसे चचतस्वरुप परब्रह्म का ध्यान

न्जसने स्वयं के हृदय में ककया नहीं है उसका जदम व्यर्य गया ।

अचचदतयं अववचाय ंरूपं स्वरूपं यस्य । तनरञ्जनः। ववश्वं भरतीतत

तर्ाभूतः । ज्ञानप्रचुरः ज्ञानमयः चचदातमा भगवान ्ईश्वरः।

येन पुंसा हृहद स्वहृदये क्षणं न ववशोचधतो-ऽदवेवषतः तस्य

नरस्य पुंसः जीववतं जीवनं वरृ्ा तनरर्यकं गतम ्॥ ७ ॥

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रम्भोवाच- कामातुरा पूणय-शशांक वक्रा बबम्बाधरा कोमल-नाल गौरा ।

नाऽऽललङ्चगता स्व ेहृदये भजुाभयां वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ८ ॥

हे मुतन भोग की ईच्छा स ेव्याकुल पररपूणय चंद्र जैसे मखुवाली बबबंाधरा कोमल कमल के नाल जैसी गौर वणी कालमनी न्जसने छाती से नही ंलगायी उसका जीवन व्यर्य गया ।

कामेन मदनेन आतुरा पीडडता । पूणयश्चासौ शशाङ्कश्चदद्रः इव वक्रं मखुं यस्याः । बबबं इव अधरः अधरोष्ठः यस्याः सा तर्ाभूता । कोमल ंमदृनुालं बबसततंु तद्वत ्गौरी गौरवणाय युवती स्री येन पुंसा स्वभुजाभया ंआतमहस्ताभया ंनाददोललता नाललङ्चगता तस्य

जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ ८ ॥

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शुक उवाच- चतुभुयजः चक्रधरो गदायुधः पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन ्।

ध्यान ेधतृो येन न बोधकाले

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ९ ॥

हे रंभा! चक्र और गदा न्जसन ेहार् में ललये हैं ऐस ेचार

हार्वाले पीतांबर पहेन ेहु कौस्तुभमणण की माला स ेववभूवषत

भगवान का ध्यान न्जसने जाग्रत अवस्र्ा में ककया नहीं उसका जदम

व्यर्य गया ।

चतवारः भुजाः हस्ताः यस्य तर्ाभतूः चक्रधरश्चक्रधारकः ।

गदा कौमोदकी आयुधं यस्य । पीतं पीतवण ंअंबरं वस्र ंयस्य।

कौस्तुभ-मालया लसन ्शोभायुक्तः यः हररः येन पुंसा ध्यान े

ध्यान-मागे बोध-समये न धतृः तस्य पुंसः जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ ९ ॥

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रम्भोवाच- ववचचर-वेषा नवयौवनाढ्या लवङ्ग-कपूयर सुवालस-देहा ।

नाऽऽललङ्चगता येन दृढं भुजाभया ं वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १० ॥

हे मुतनराज! अनके प्रकार के वस्र और आभूषणों से सज्ज लवंग

कपूयर इतयाहद सुगंध स ेसुवालसत शरीरवाली नवयुवती को न्जसन े

अपने दो हार्ों से आललगंन हदया नही ंउसका जदम व्यर्य गया ।

ववचचरो चचरववचचरो वेषो नेपथ्यो यस्याः । नवेन नूतनेन यौवनेन

युवतयाः भावस्तेन आढ्या संपूणाय । लवंगैश्च कपूयरैश्च सुवासी देहश्शरीरं यस्याः एतादृशी पूवोक्ता स्री येन पुरुषेण न आललङ्चगता महदयता तस्य नरस्य जीववतं जीवनं वरृ्ा तनरर्यकं गतम ्॥ १० ॥

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शुक उवाच- नारायणः पङ्कज-लोचनः प्रभुः केयूरवान ्कुण्डल-मन्ण्डताननः । भक्तया स्तुतो येन न शुद्ध-चेतसा वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ११ ॥

कमल जैसे नेरवाले केयूर पर सवार कुअल स ेसुशोलभत मखुवाले

संसार के स्वामी भगवान नारायण की स्तुतत न्जसन ेएकाग्रचचतत होकर

भन्क्तपूवयक की नहीं उसका जीवन व्यर्य गया ।

नारा अयन ंयस्य जल-शयनः । पङ्कात ्कदयमात ्जातं कमललमव

लोचन ंयस्य कमलनेरः । केयूरवान ्कुण्डलेन मन्ण्डतं शोलभतं आननं यस्य सः प्रभुः ईश्वरः येन पुरुषेण समाचधना भक्तया न

स्तुतः न प्राचर्यतः तस्य जीवनं वरृ्ा गतम ्॥ ११ ॥

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रम्भोवाच- वप्रयंवदा चम्पक-हेमवणाय हारावली-मन्ण्डत-नालभदेशा । सम्भोग-शीला रलमता न येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १२ ॥

हे मुतनवर! वप्रय बोलनेवाली चंपक और सुवणय के रंगवाली हार

का झमुका नालभ पर लटक रहा हो ऐसी स्वभाव स ेरमणशील ऐसी स्री स ेन्जसने भोग ववलास नहीं ककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

वप्रयं मनोहरं वदतत इतत वप्रयंवदा । चंपकश्च हेमश्च तयोः वणय इव वणो यस्याः चंपक हेम सदृशेतयर्यः, हारस्यावललः पंन्क्तः तया मैतश्शोलभतः\ नाभेः देशः प्रस्र्ान ंयस्याः । संभोगः एव शील ंस्वभावः यस्याः । सुरतस्वभावेतयर्यः। एतादृशी स्री येन पुरुषेण न रलमता नाललङ्चगता तस्य पुरुषस्य यौवन ं

वरृ्ा गतम ्॥ १२ ॥

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शुक उवाच- श्रीवतस-लक्ष्मम्याङ्ककत-हृतप्रदेशः ताक्ष्मयय-ध्वजः शाङ्यग-धरः परातमा ।

न सेववतो येन नजृदमनाऽवप

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १३ ॥

न्जस प्राणी न ेमनुष्य शरीर पाकर भी भगुृलता स ेववभूवषत

ह्रदयवाले धजा में गरुड वाले और शाङ्ग नामके धनुष्य को धारण करनेवाले परमातमा की सेवा न की उसका जदम व्यर्य गया ।

श्रीवतसलक्ष्मम्या अङ्ककतन्श्चन्दहतः हृदयस्य प्रदेशो यस्य ।

ताक्ष्मययः गरुडो ध्वजे यस्य । शाङ्यग नाम धनुस्तद्धरतीतत

तर्ाभूतः । परमातमा ईश्वरः। येन नजृदम यस्य नजृदमा तेन

पुंसा न सेववतस्तस्य पुरुषस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ १३ ॥

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रम्भोवाच- चलतकटी नूपुर-मञ्जुघोषा नासाग्र-मुक्ता नयनालभरामा । न सेववता येन भुजङ्ग-वेणी वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १४ ॥

हे मुतनशे्रष्ठ! चचंल कमरवाली नपूरु से मधुर शब्द

करनेवाली नाक में मोती पहनी हु सुंदर नयनों से सशुोलभत सपय के जैसा अंबोडा न्जसन ेधारण ककया है ऐसी सुंदरी का न्जसन ेसेवन

नहीं ककया उसका जदम व्यर्य गया ।

चलदती कटी यस्याः । नूपुरेण मञ्जु मनोहरो घोषो यस्याः। नासागे्र

मुक्तातन यस्याः । नयनेन कमल-नयनेन अलभरामा। भुजङ्ग इव वेणी यस्याः । एतादृशी स्री येन पुसंा न सेववता नाललङ्चगता तस्य नरस्य

जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ १४ ॥

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शुक उवाच- ववश्वम्भरो ज्ञान-मयः परेशः जगदमयोऽनदतगुण प्रकाशी ।

आराचधतो नावप वतृो न योगे

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १५ ॥

हे रंभा! संसार का पालन करनेवाले ज्ञान से पररपूणय संसार

स्वरुप अनंत गुणों को प्रकट करनेवाले भगवान की आराधना न्जसने नहीं की और योग में उनका ध्यान न्जसने नहीं ककया उसका जदम

व्यर्य गया ।

ववश्वं बबभततय इतत । ज्ञान-प्रचुरो ज्ञान-मयः। परेशः। जगदमयः अनदतान ्गुणान ्प्रकाशयतत इतत तर्ोक्तः ईश्वरः । येन नाराचधतः अवप

न योगे धतृः तस्य जीववत ंजीवन ंवरृ्ा गतम ्॥ १५ ॥

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रम्भोवाच- ताम्बूल-रागैः कुसुम-प्रकषषः सुगन्दध-तैलेन च वालसतायाः ।

न महदयतौ येन कुचौ तनशाया ं वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १६ ॥

हे मुतन! सुगंधी पान उततम िूल सुगंधी तेल और अदय पदार्ों से सुवालसत कायावाली कालमनी के कुच का मदयन रात को न्जसने नही ंककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

तांबूलस्य ये रागास्तैः । कुसमुाना ंप्रसूनानां प्रकषाय-स्तैश्च

सुगन्दध तैलं तेन वालसतायाः न्स्रयाः कुचौ स्तनौ तनशाया ंमध्य-रारौ येन पुंसा पुरुषेणा न महदयतौ तस्य नरस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ १६ ॥

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शुक उवाच- ब्रह्माहद देवोऽणखल ववश्व-देवो मोक्ष-प्रदोऽतीतगुणः प्रशादतः ।

धतृो न योगेन हृहद स्वकीये

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १७ ॥

ब्रह्माहद देवों के भी देव संपूणय ससंार के स्वामी मोक्षदाता तनगुयण

अतयंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान न्जसने योग द्वारा हृदय में नहीं ककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

ब्रह्मणः आहददेवः । अणखलस्य समग्रस्य ववश्वस्य जगतः देवः मोकं्ष

प्रददातत इतत । अतीताः गुणाः यस्य अनदतगुण इतयर्यः प्रशादतः ईश्वरः येन पुरुषेणा स्वकीये हृहद हृदये योगेन योग-मागेण न धतृो न धाररतः तस्य जीववत ंवरृ्ा जतम ्॥ १७ ॥

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रम्भोवाच- कस्तूररका-कंुकुम चददनैश्च

स-ुचचचयता याऽगरु-धूवपताम्बरा । उरः स्र्ले नो लुहठता तनशाया ं वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १८ ॥

कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप न्जसने ककया है अगरु के

गंध से सुवालसत वस्र धारण की हु तरुणी रात को न्जस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं उसका जदम व्यर्य गया ।

कस्तूररका च, कंुकुमस्य केसरस्य, चददनातन, तैस्सुचचचयता सुलेवपता । अगरु द्रव्यववशेषः तेन धूवपतं वालसतमम्बरं यस्याः। एतादृशी । या स्री येन पुरुषेण तनशायां मध्यरारौ उरःस्र्ले न

लुहठता नाललङ्चगता तस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ १८ ॥

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शुक उवाच- आनदद-रुपो तनजबोध-रूपः हदव्य-स्वरूपो बहुनाम-रूपः ।

तपः समाधौ लमललतो न येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ १९ ॥

हे रंभा! आनंद से पररपूणय रुपवाले हदव्य शरीर को धारण

करनेवाले न्जनके अनेक नाम और रुप हैं ऐसे भगवान के दशयन

न्जसने समाचध में नही ंककये उसका जीवन व्यर्य गया ।

आनददरूपः । ज्ञानस्वरूपः। हदव्यं शोभायुक्त ंस्वरूपं यस्य।

बहुनामरूपः ईश्वरः । येन पुंसा तपस्समाचधः तन्स्मन ्न धतृस्तस्य

नरस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ १९ ॥

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रम्भोवाच- कठोर पीनस्तन भार-नम्रा स-ुमध्यमा चञ्जल-खञ्जनाक्षी । हेमदत-काले रलमता न येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २० ॥

न्जस पुरुष न ेहेमंत ऋत ुमें कठोर और भरे हु स्तन के भार

से झकुी हु पतली कमरवाली चचंल और खंजर से ननैोंवाली स्री का सभंोग नहीं ककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

कठोरयोः पूणययोः पीनयोः पुष्टयोः कुचयोः भारेण नम्रा नलमता ।

सुष्ठु-मध्यमो मध्य-भाग यस्याः । चञ्चलयोः खञ्जनयोः इव

अक्षक्षणी यस्याः । एतादृशी पूवोक्ता युवती स्री येन पुंसा हेमदतकाले

न रलमता नाददोललता तस्य नरस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ २० ॥

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शुक उवाच- तपो-मयो ज्ञान-मयो वव-जदमा ववद्या-मयो योग-मयः परातमा ।

चचतते धतृो नो तपलस न्स्र्तेन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २१ ॥

हे रंभा! तपोमय ज्ञानमय जदमरहहत ववद्यामय योगमय परमातमा को तपस्या में लीन होकर न्जसन ेचचतत में धारण नही ंककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

तपः प्रचुरस्तपोमयः । ज्ञान-मयः। ववगतं जदम अवतारः यस्य

जदम-रहहतः इतयर्यः । ववद्यावान ्योग-प्रचुरः। परश्चासौ आतमा चेतत एतादृशः । ईश्वरः तपलस न्स्र्तेन न्स्र्तत ंकुवयता जनेन चचतते न धतृस्तस्य जदम वरृ्ा गतम ्॥ २१ ॥

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रम्भोवाच- स-ुलक्षणा मान-वती गुणाढ्या प्रसदन-वक्रा मदृ-ुभावषणी या । नो चुन्म्बता येन स-ुनालभ-देशे वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २२ ॥

हे मुतनवर! सद्लक्षण और गुणों से युक्त प्रसदन मुखवाली मधुर

बोलनेवाली मातननी सुंदरी के नालभ का न्जसन ेचुंबन नही ंककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

सुष्टु लक्षणातन यस्याः सुलक्षणा लक्षणवतीतयर्यः । मानः अस्यास्तीतत तर्ा भूता, प्रस्दनं सानददं वक्रं मखुं यस्याः न्स्मत-मुखीतयर्यः । मदृ ुकोमलं भाषते ब्रूत ेइतत मदृ-ुभावषणी।

सुष्टु शोभनः नालभ-देशः नालभ-प्रदेशः यस्याः, एतादृशी येन

पुंसा न चुंबबता तस्य नरस्य जदम वरृ्ा गतम ्॥ २२ ॥

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शुक उवाच- पतदयान्जयत ंसवय-सुखं ववनश्वरं

दःुख-प्रदं कालमतन-भोग सेववतम ्।

एवं ववहदतवा न धतृो हह योगो वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २३ ॥

हे रंभा! न्जस इदसान ने नारी के सेवन स ेउतपदन सब सखु नाशवंत

और दःुखदायक है ऐसा जानने के बावजुद न्जसन ेयोगाभयास नही ंककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

पतदया न्स्रया आन्जयतं प्रावपतं सव ंच तत ्सखुं ववनश्वरं नश्वरं

शीलं । कालमदयाः भोगोपभोगः तने सेववतं तदवप दःुखप्रदम।् एव ं

ववहदतवा ज्ञातवा योगो न धतृस्तस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ २३ ॥

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रम्भोवाच- ववशाल-वेणी नयनालभरामा कददपय सम्पूणय तनधानरूपा । भुक्ता न येनैव वसदतकाले

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २४ ॥

न्जस पुरुष न ेवसंत ऋत ुमें लंबे बालवाली सुंदर नेरों स े

सुशोलभत कामदेव के समस्त भआररुप ऐसी कालमनी के सार् ववहार

न ककया हो उसका जीवन व्यर्य गया ।

ववशाला महती वेणी केशकलापो यस्याः । नयनैः प्रशस्तनयनैः नेरैरलभरामा मनोज्ञा । कंदपयः कामस्तस्य संपूण ंतनधानरूप ं

यस्याः । एतादृशी स्री येन पुसंा वसंतस्य कामलमरस्य काले समये

न भुङ्क्ता न सेववता तस्य नरस्य पुंसो जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ २४ ॥

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शुक उवाच- माया-करण्डी नरकस्य हण्डी तपो-ववखण्डी सकृुतस्य भण्डी । नणृा ंववखण्डी चचर-सेववता चेत ्

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २५ ॥

हे रंभा! नारी माया की पटारी नकय की हई तपस्या का ववनाश

करनेवाली पुण्य का नाश करनेवाली पुरुष की घातक है इस लल

न्जस पुरुष न ेअचधक समय तक उसका सेवन ककया है उसका जीवन

व्यर्य गया ।

मायायाः करण्डी । नरकस्य रौरवाहदकस्य हण्डी, तपसो तनयमस्य

ववखण्डी नाशं कुवायणा । सकृुतस्य पुण्यस्य भण्डी नाश ंकुवायणा, नणृां ववखण्डी, यएतादृशी स्रीि चचरं चचरकाल ंसेववता चेत ्

तस्स्य पुंसः जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ २५ ॥

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रम्भोवाच- समस्त-शङृ्गार ववनोद-शीला लीलावती कोककल कण्ठ-नादा । ववलालसता नो नव-यौवनेन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २६ ॥

हे मुतन! न्जस पुरुष ने अपनी युवानी में समस्त शृंगार और

मनोवववाद करने में चतुर और अनेक लीला ंमें कुशल और

कोककलकंठी कालमनी के सार् ववलास नहीं ककया उसका जीवन व्यर्य है ।

समस्ताः समग्राः ये शङृ्गारास्तेषु ववनोद आनदद एव शीलं यस्याः ।

लीलास्संतत अस्याः सा । कोककलायाः कंठस्तस्य नाद इव नादः शब्दो यस्याः सा एतादृशी । नव ंच तत ्यौवन ंतेन आढ्या संपूणाय यौवनवती युवतीतयर्यः, स्री येन पुंसा न ववलालसता तस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्

॥ २६ ॥

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शुक उवाच- समाचध हं्ररी जन-मोहतयरी धमे कुमदरी कपटस्य तदरी ।

सतकमय हदरी कललता च येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २७ ॥

समाचध का नाश करनेवाली लोगों को मोहहत करनेवाली धमय ववनालशनी कपट की वीणा सतकमो का नाश करनेवाली नारी का न्जसने सेवन ककया उसका जीवन व्यर्य गया ।

समाधेतनययमस्य हदरी नाश ंकुवायणा । जनादमोहयतीतत

जन-संमोह-काररणी । धम ेकुमदरी कुन्तसतोपदेशकाररणी। कपटस्य

प्रपञ्चस्य तदरी सतकमयणण घ्नन्दत इतत तर्ा भूता, येन कललता सेववता तस्य जदम वरृ्ा गतम ्॥ २७ ॥

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रम्भोवाच- बबल्वस्तनी कोमललता सुशीला सुगदध-युक्ता लललता च गौरी ।

नाऽऽश्लेवषता येन च कण्ठ-देशे वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २८ ॥

हे मुतनराज बबल्विल जसैे कहठन स्तन है, अतयंत कोमल न्जसका शरीर है, न्जसका स्वभाव वप्रय है, ऐसी सुवालसत केशवाली ललचानेवाली गौर यवुती को न्जसने आललगंन नहीं हदया उसका जीवन व्यर्य गया । बबल्वे इव बबल्विले इव स्तनौ कुचौ यस्याः सा पुष्टस्तनीतयर्यः।

कोमललता सुकोमला । सुष्टु शीलं स्वभावो यस्याः सुस्वभावेतयर्यः। सुगदध-कुदता सुष्टु शोभनाः गंधाः सुगंधाः कुदताः केशा यस्याः सुगदध-केशवतीतयर्यः, लललता सुददरी गौरी गौरवणाय स्री कण्ठादेशे येन पुंसा नाश्लेवषता तस्य नरस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्

॥ २८ ॥

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शुक उवाच- चचदताव्यर्ा दःुखमया सदोषा संसार-पाशा जन-मोहकरी ।

सदताप-कोशा भन्जता च येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ २९ ॥

चचतंा पीडा और अनके प्रकार के दःुख से पररपूणय दोष स ेभरी हु संसार में बधंनरुप और संताप का खजाना ऐसी नारी का न्जसने सेवन ककया उसका जदम व्यर्य गया ।

चचतंा व्यर्ा दःुखप्रचुरा तदमयीतयर्यः । दोषैः सह वतयते इतत

सदोषा । संसारे पाशा-रूपा। जन-मोहकरी मोहं करोतीतत मोहकरी। जनान ंमोहकरी तर्ाभतूा । संताप ेकोशरूपा संतापभूतयष्टेतयर्यः।

एतादृशी येन पुंसा भन्जता सेववता तस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ २९ ॥

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रम्भोवाच- आनदद कददपय-तनधान रूपा झणतक्वणतकंकण नूपुराढ्या ।

नाऽस्वाहदता येन सुधाधरस्र्ा वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३० ॥

हे मुतनवर आनंद और कामदेव के खजाने समान खनकते कंगन

और नूपुर पहेनी हु कालमनी के होठ पर न्जसन ेचुंबन ककया नही ंउस पुरुष का जीवन व्यर्य है ।

आनदद-युक्तः कददपयः आनदद-कंदपयः तस्य तनधानरूपा ॥ रणंतत

क्वणन्दत श्ब्दापमानातन कंकणातन च नूपुराणी च तैराढ्या शोलभता ।

अधरे ततष्टतत इतत अधरस्र्ा सुधा अधरस्र्ा यस्याः तर्ाभूता स्री येन पुंसा न आस्वाहदता तस्य जीववतं वरृ्ा तनरर्यकं गतम ्॥ ३० ॥

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शुक उवाच- कापट्य-वेषा जन-वन्ञ्चका सा ववण्मूर दगुयदध-दरी दरुाशा ।

संसेववता येन सदा मलाढ्या वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३१ ॥

छल-कपट करनेवाली लोगों को बनानेवाली ववष्टा-मूर और दगुधं

की गुिारूप दरुाशा ंसे पररपूणय अनेक प्रकार स ेमल से भरी हु

ऐसी स्री का सेवन न्जसन ेककया उसका जीवन व्यर्य है ।

कपटस्यायं कापट्यः वेषो यस्याः कपटयुक्तवेषोयमर्यः, जनान ्

वञ्चयतत तर्ाभतूा । सा ववण्मूर-दगुयदधानांदरीव, दषु्टा आशा यस्याः । मलेन आढ्या संपूणाय एतादृशी स्री येन पुसंा सदा संसेववता तस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ ३१ ॥

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रम्भोवाच- चदद्रानना सुददर-गौरवणाय व्यक्त-स्तनी भोग-्अववलास दक्षा ।

नाऽऽददोललता व ैशयनेष ुयेन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३२ ॥

हे मुतनवर! चंद्र जैस ेमुखवाली सुंदर और गौर वणयवाली न्जसकी छाती पर स्तन व्यक्त हु हैं ऐसी संभोग और ववलास में चतुर ऐसी स्री को बबस्तर में न्जसन ेआललगंन नही ंहदया उसका जीवन व्यर्य है ।

चदद्र इव । इददरुरवानन ंमुख ंयस्याः चदद्रमुखीतयर्यः। सुददरः।

गौरः वणो यस्याः । व्यक्तौ स्पष्टं दृश्यमानौ स्तनौ कुचौ यस्याः।

भोगस्य ववलास ेदक्षा तनपुणा । एतादृशी स्री येन पुसंा शयनेष ुन

आददोललता न आललङ्चगता तस्य पुंसः जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ ३२ ॥

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शुक उवाच- उदमतत-वेषा महदरास ुमतता पाप-प्रदा लोक-ववडम्बनीया । योग-च्छला येन ववभान्जता च

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३३ ॥

हे रंभा पागल जैसा ववचचर वेष धारण की हु महदरा पीकर मस्त

बनी हु पाप देनेवाली लोगों को बनानेवाली और योगीयों के सार् कपट

करनेवाली स्री का सेवन न्जसन ेककया है उसका जीवन व्यर्य है ।

उदमततो वेषो यस्याः । महदरास ुमद्येषु मतता मदोदमतता। पाप ंप्रददातत

इतत पापप्रदा । लोकान ्ववडबंयतत इतत तर्ा भूता। योगच्चला योगमागे

कपटरूपा । या स्री येन पुसंा ववभान्जता सेववता तस्य जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ ३३ ॥

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रम्भोवाच- आनदद-रुपा तरुणी नताङ्गी सद्धमय-संसाधन सनृ्ष्ट-रुपा ।

कामार्यदा यस्य गहेृ न नारी वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३४ ॥

हे मुतन आनंदरुप नतांगी युवती उततम धमय के पालन में और

पुराहद पैदा करने में सहायक इंहद्रयों को संतोष देनेवाली नारी न्जस पुरुष के घर में न हो उसका जीवन व्यर्य है ।

आनददेन युक्ता रूप ंयस्याः । तरुणी युवती। नत ंअङ्गं यस्याः। सन ्

चासौ धमयश्च तस्य सम्यक् साधन ंतस्य सनृ्ष्ट रूपा । काम ं

अर् ंच ददातत इतत तर्ाभूता । नारी स्री। यस्य गहेृ नान्स्त तस्य

नरस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ ३४ ॥

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शुक उवाच- अशौच-देहा पततत-स्वभावा वपुःप्रगल्भा बल-लोभशीला । मषृा वददती कललता च येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३५ ॥

अशुद्ध शरीरवाली पततत स्वभाववाली प्रगल्भ देहवाली साहस और

लोभ करानेवाली झठू बोलनेवाली ऐसी नारी का ववश्वास न्जसने ककया उसका जीवन व्यर्य है ।

अशौचः अपववरः देहः शरीरं यस्याः अपववर-शरीरेतयर्यः ।

पतततः नीचः स्वभावो यस्याः । वपुषा प्रगल्भा तनभीका । बलस्य

परबलस्य लोभः एव शील ंयस्याः । परबल-हरण-शीलेतयर्यः।

मषृा अनतृं वदतीतत वददती लमथ्या-भावषणीतयर्यः । एतादृशी स्री येन पुंसा सेववता व्याक्षा तस्य पुंसः जीववतं व्यर् ंगतम ्॥ ३५ ॥

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रम्भोवाच- क्षामोदरी हंसगततः प्रमतता सौंदययसौभाग्यवती प्रलोला ।

न पीडडता येन रतौ यर्ेच्छं

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३६ ॥

हे मुतनवर पतली कमरवाली हंस की तरह चलनेवाली प्रमतत

सुंदर सौभाग्यवती चंचल स्वभाववाली स्री को रततक्रीडा के वक्त

अनुकुलतया पीडडत की नहीं है उसका जीवन व्यर्य है ।

क्षामं कृशं उदरं यस्याः. कृशोदरीतयर्यः. हंस इव मराल

इव गततः गमनं यस्याः. प्रमतता उदमतता. सुददरस्य भावं सुभगायाः भावः सौभाग्य ंच तद्वती. प्रलोला चंचला येन पुंसा रता ंक्रीडायां यर्ेच्छं संपूणयतया न तनपीडडता चेदन महदयता चेततस्य

जीववतं वरृ्ा गतम ्॥ ३६ ॥

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शुक उवाच- संसार-सद्भावन भन्क्त-हीना चचततस्य चौरा हृहद तनदयया च ।

ववहाय योगं कललता च येन

वरृ्ा गतं तस्य नरस्य जीववतम ्॥ ३७ ॥

हे रंभा संसार की उततम भावना ंको प्रकट करनेवाले प्रेम से रहहत

पुरुषों के चचतत को चोरनेवाली ह्रदय में दया न रखनेवाली ऐसी स्री का आललगंन योगाभयास छोडकर न्जस पुरुष ने ककया उसका जीवन

व्यर्य है ।

संसारे सद्भावना यस्य तया भक्तया हीना रहहता. चचततस्य

अदतःकरणस्य चोरा हरणशीला. हृहद हृदये तनदयया दयारहहता. एतादृशी स्री येन पुंसा योगं ववहाय योगमाग ंतयक्तवा कललता आललङ्चगता तस्य जीववत ंवरृ्ा गतम ्॥ ३७ ॥

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रम्भोवाच- सुगदधैः सुपुष्पैः सुशय्या सकुादता वसदतो ऋतुः पूणणयमा पूणयचदद्रः ।

यदा नान्स्त पुंस्तव ंनरस्य प्रभूत ं

ततः ककं ततः ककं ततः ककं ततः ककम ्॥ ३८ ॥

हे मुतनवर! सुंदर सुगंचधत पुष्पों स ेसुशोलभत शय्या हो, मनोनुकूल

सुंदर स्री हो, वसंत ऋत ुहो, पूणणयमा के चंद्र की चांदनी खीली हो, पर यहद पुरुष में पररपूणय पुरुषततव न हो तो उसका जीवन व्यर्य है ।

सुष्टु गदधः येषां तातन सुगदधतत

तैः. सुपुष्पैस्सुकुसमु-ैरलंकृता सशुैया पयकंः च सकुादता युवती. वसदतः मध ुऋतुः. पूणीमायाः पूण्श्चायसौ चदद्रः. सवायणण

वस्तूतन सन्दत ककं त ुयदा नरस्य पुंसः भावः पुंस्तवं पुरुषतव ं

प्रभूतं अतयदत ंनान्स्त चेततदा ततः शय्यायाः ककं प्रयोजन,ं

सुकादतायाः ककं, वसदतेन ककं, पूणणयमापूणयचददे्रन ककम?् ॥ ३८ ॥

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शुक उवाच- सुरूपं शरीरं नवीन ंकलर ं

धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचचरम ्। हरस्याङ्तघ युग्म ेमनश्चेदलग्न ं

ततः ककं ततः ककं ततः ककं ततः ककम ्॥ ३९ ॥

हे रंभा सुंदर शरीर हो युवा पतनी हो मेरु पवयत समान धन हो मन

को लभुानेवाली मधुर वाणी हो पर यहद भगवान लशवजी के चरणकमल

में मन न लगे तो जीवन व्यर्य है ।

सुष्टु रूपं यस्य ततसुरूप ंशरीरम.् नवीनं नतूनं कलर ं

युवती स्री, मेरुणा तुल्य ंधन ंद्रव्यं, चारु सुददरं वप्रय ं

चचरमलङ्कारयुक्त ंवचः वाक्य,ं उपरर सवयवणणयतमन्स्त; ककदतु, हरेः ईश्वरस्य अंतियुग्मे चरणकमलयुग्मे मनः अदतःकरणं न

लग्नं चेततेन सुरूपशरीराहदना ककं? न ककमपीतयर्यः; अतो मोहं

ववहाय सन्च्चदानददा ध्येतव्य इतयर्यः ॥ ३९ ॥