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Page 1: Kishore Karuppaswamy€¦ · Web viewव न द ह ल ह म इ ग ल ड स ड 0 फ ल0 ह कर ल ट ह और ज वन-य त र आरम भ करन क

पे्रमचंद

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सभ्यता का रहस्य 3 समस्या 9दो सखि�यां 15

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सभ्यता का रहस्य

तो मेरी समझ में दुनि�या की एक हजार एक बातें �हीं —आती जैसे लोग प्रात:काल उठते ही बालों पर छुरा क्यों चलाते हैं ? क्या अब पुरुषों में भी इत�ी �जाकत आ गयी

है निक बालों का बोझ उ�से �हीं सँभलता ? एक साथ ही सभी पढे़-लिल�े आदमिमयों की आँ�ें क्यों इत�ी कमजोर हो गयी है ? दिदमाग की कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? लोग खि�ताबों के पीछे क्यों इत�े हैरा� होते हैं ? —इत्यादिद लेनिक� इस समय मुझे इ� बातों से मतलब �हीं। मेरे म� में एक �या प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मुझे कोई �हीं देता। प्रश्न यह है निक सभ्य कौ� है और असभ्य कौ� ? सभ्यता के लक्षण क्या हैं ? सरसरी �जर से देखि�ए, तो इससे ज्यादा आसा� और कोई सवाल ही � होगा। बच्चा-बच्चा इसका समाधा� कर सकता है। लेनिक� जरा गौर से देखि�ए, तो प्रश्न इत�ा आसा� �हीं जा� पड़ता। अगर कोट-पतलू� पह��ा, टाई-हैट कालर लगा�ा, मेज पर बैठकर �ा�ा �ा�ा, दिद� में तेरह बार कोको या चाय पी�ा और लिसगार पीते हुए चल�ा सभ्यता है, तो उ� गोरों को भी सभ्य कह�ा पडे़गा, जो सड़क पर बैठकर शाम को कभी-कभी टहलते �जर आते हैं; शराब के �शे से आँ�ें सु�F, पैर लड़�ड़ाते हुए, रास्ता चल�ेवालों को अ�ायास छेड़�े की धु� ! क्या उ� गोरों को सभ्य कहा जा सकता है ? कभी �हीं। तो यह लिसद्ध हुआ निक सभ्यता कोई और ही चीज है, उसका देह से इत�ा सम्बन्ध �हीं है जिजत�ा म� से।

यों

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रे इ�े-निग�े मिमत्रों में एक राय रत�निकशोर भी हैं। आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत लिशक्षिक्षत और एक बडे़ ओहदेदार हैं। बहुत अच्छा वेत� पा�े पर भी उ�की

आमद�ी �चF के लिलए काफी �हीं होती। एक चौथाई वेत� तो बँगले ही की भेंट हो जाती है। इसलिलए आप बहुधा चिचंनितत रहते हैं। रिरश्वत तो �हीं —लेते कम-से-कम मैं �हीं जा�ता, हालाँनिक कह�े वाले कहते —हैं लेनिक� इत�ा जा�ता हँू निक वह भत्ता बढ़ा�े के लिलए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहाँ तक निक इसके लिलए हर साल बजट की निकसी दूसरे मद से रुपये नि�काल�े पड़ते हैं। उ�के अफसर कहते हैं, इत�े दौरे क्यों करते हो, तो जवाब देते हैं, इस जिजले का काम ही ऐसा है निक जब तक �ूब दौरे � निकए जाए ँरिरआया शांत �हीं रह सकती। लेनिक� मजा तो यह है निक राय साहब उत�े दौरे वास्तव में �हीं करते, जिजत�े निक अप�े रोज�ामचे में लिल�ते हैं। उ�के पड़ाव शहर से पचास मील पर होते हैं। �ेमे वहॉँ गडे़ रहते हैं, कैं प के अमले वहाँ पडे़ रहते हैं और राय साहब घर पर मिमत्रों के साथ गप-शप करते रहते हैं, पर निकसी की मजाल है निक राय साहब की �ेक�ीयती पर सन्देह कर सके। उ�के सभ्य पुरुष हो�े में निकसी को शंका �हीं हो सकती।

मे

एक दिद� मैं उ�से मिमल�े गया। उस समय वह अप�े घलिसयारे दमड़ी को डाँट रहे थे। दमड़ी रात-दिद� का �ौकर था, लेनिक� घर रोटी �ा�े जाया करता था। उसका घर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव में था। कल रात को निकसी कारण से यहाँ � आ सका। इसलिलए डाँट पड़ रही थी।

राय —साहब जब हम तुम्हें रात-दिद� के लिलए र�े हुए हैं, तो तुम घर पर क्यों रहे ? कल के पैसे कट जायेंगे।

—दमड़ी हजूर, एक मेहमा� आ गये थे, इसी से � आ सका। राय —साहब तो कल के पैसे उसी मेहमा� से लो।

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—दमड़ी सरकार, अब कभी ऐसी �ता � होगी। राय —साहब बक-बक मत करो।

—दमड़ी हजूर......

राय —साहब दो रुपये जुरमा�ा। दमड़ी रोता चला गया। रोजा बख्शा�े आया था, �माज़ गले पड़ गयी। दो रुपये

जुरमा�ा ठुक गया। �ता यही थी निक बेचारा कसूर माफ करा�ा चाहता था। यह एक रात को गैरहाजिज़र हो�े की सजा थी ! बेचारा दिद�-भर का काम कर चुका

था, रात को यहाँ सोया � था, उसका दण्ड ! और घर बैठे भत्ते उड़ा�ेवाले को कोई �हीं पूछता ! कोई दंड �हीं देता। दंड तो मिमले और ऐसा मिमले निक जिजंदगी-भर याद रहे; पर पकड़�ा तो मुश्किcकल है। दमड़ी भी अगर होलिशयार होता, तो जरा रात रहे आकर कोठरी में सो जाता। निफर निकसे �बर होती निक वह रात को कहाँ रहा। पर गरीब इत�ा चंट � था।

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मड़ी के पास कुल छ: निबस्वे जमी� थी। पर इत�े ही प्राक्षिणयों का �चF भी था। उसके दो लड़के, दो लड़निकयाँ और स्त्री, सब �ेती में लगे रहते थे, निफर भी पेट की रोदिटयाँ �हीं

मयस्सर होती थीं। इत�ी जमी� क्या सो�ा उगल देती ! अगर सब-के-सब घर से नि�कल मजदूरी कर�े लगते, तो आराम से रह सकते थे; लेनिक� मौरूसी निकसा� मजदूर कहला�े का अपमा� � सह सकता था। इस बद�ामी से बच�े के लिलए दो बैल बाँध र�े थे ! उसके वेत� का बड़ा भाग बैलों के दा�े-चारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर �ेती छोड़कर मजदूर ब� जा�ा मंजूर � था। निकसा� की जो प्रनितष्ठा है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों � कमाये ? निकसा�ी के साथ मजदूरी कर�ा इत�े अपमा� की बात �हीं, द्वार पर बँधे हुए बैल हुए बैल उसकी मा�-रक्षा निकया करते हैं, पर बैलों को बेचकर निफर कहाँ मुँह दिद�ला�े की जगह रह सकती है !

एक दिद� राय साहब उसे सरदी से काँपते दे�कर —बोले कपडे़ क्यों �हीं ब�वाता ? काँप क्यों रहा है ?

—दमड़ी सरकार, पेट की रोटी तो पूरा ही �हीं पड़ती, कपडे़ कहाँ से ब�वाऊँ ?राय —साहब बैलों को बेच क्यों �हीं डालता ? सैकड़ों बार समझा चुका, लेनिक� �-

जा�े क्यों इत�ी मोटी-सी बात तेरी समझ में �हीं आती। —दमड़ी सरकार, निबरादरी में कहीं मुँह दिद�ा�े लायक � रहँूगा। लड़की की सगाई �

हो पायेगी, टाट बाहर कर दिदया जाऊँगा। राय —साहब इन्हीं निहमाकतों से तुम लोगों की यह दुगFनित हो रही है। ऐसे आदमिमयों

पर दया कर�ा भी पाप है। (मेरी तरफ निफर कर) क्यों मुंशीजी, इस पागलप� का भी कोई इलाज है ? जाड़ों मर रहे हैं, पर दरवाजे पर बैल जरूर बाँधेंगे।

मैं�े —कहा ज�ाब, यह तो अप�ी-अप�ी समझ है।राय —साहब ऐसी समझ को दूर से सलाम कीजिजए। मेरे यहॉं कई पुcतों से

जन्माष्टमी का उत्सव म�ाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पा�ी निफर जाता था। गा�ा होता था; दावतें होती थीं, रिरcतेदारों को न्योते दिदये जाते थे, गरीबों को कपडे़ बाँटे जाते थे। वालिलद साहब के बाद पहले ही साल मैं�े उत्सव बन्द कर दिदया। फायदा क्या ? मुफ्त में चार-पाँच हजार की चपत �ा�ी पड़ती थी। सारे कसबे में वावेला मचा, आवाजें कसी गयीं, निकसी �े �ाश्किस्तक कहा, निकसी �े ईसाई ब�ाया लेनिक� यहाँ इ� बातों की क्या परवा ! आखि�र थोडे़ ही दिद�ों में सारा कोलाहल शान्त हो गया। अजी, बड़ी दिदल्लगी थी। कसबे में निकसी के यहाँ शादी हो, लकड़ी मुझसे ले ! पुcतों से यह रस्म चली आती थी। वालिलद तो दूसरों से दरख्त मोल लेकर इस रस्म को नि�भाते थे। थी निहमाकत या �हीं ? मैं�े फौर�

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लकड़ी दे�ा बन्द कर दिदया। इस पर भी लोग बहुत रोये-धोये, लेनिक� दूसरों का रो�ा-धो�ा सु�ूँ, या अप�ा फायदा दे�ँू। लकड़ी से कम-से-कम 500)रुपये सला�ा की बचत हो गयी। अब कोई भूलकर भी इ� चीजों के लिलए दिदक कर�े �हीं आता।

मेरे दिदल में निफर सवाल पैदा हुआ, दो�ों में कौ� सभ्य है, कुल-प्रनितष्ठा पर प्राण दे�ेवाले मू�F दमड़ी; या ध� पर कुल-मयाFदा को बलिल दे�ेवाले राय रत� निकशोर !

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य साहब के इजलास में एक बडे़ माकm का मुकदमा पेश था। शहर का एक रईस �ू� के मामले में फँस गया था। उसकी जमा�त के लिलए राय साहब की �ुशामदें हो�े

लगीं। इज्जत की बात थी। रईस साहब का हुक्म था निक चाहे रिरयासत निबक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग नि�कल जाऊँ। डालिलयॉँ लगाई गयीं, लिसफारिरशें पहुँचाई गयीं, पर राय साहब पर कोई असर � हुआ। रईस के आदमिमयों को प्रत्यक्ष रूप से रिरश्वत की चचाF कर�े की निहम्मत � पड़ती थी। आखि�र जब कोई बस � चला, तो रईस की स्त्री से मिमलकर सौदा पटा�े की ठा�ी।

रारात के दस बजे थे। दो�ों मनिहलाओं में बातें हो�े लगीं। 20 हजार की बातचीत थी !

राय साहब की पत्�ी तो इत�ी �ुश हुईं निक उसी वक्त राय साहब के पास दौड़ी हुई आयी और कह�ें —लगी ले लो, ले लो

राय साहब �े —कहा इत�ी बेसब्र � हो। वह तुम्हें अप�े दिदल में क्या समझेंगी ? कुछ अप�ी इज्जत का भी �याल है या �हीं ? मा�ा निक रकम बड़ी है और इससे मैं एकबारगी तुम्हारी आये दिद� की फरमायशों से मुक्त हो जाऊँगा, लेनिक� एक लिसनिवलिलय� की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज �हीं है। तुम्हें पहले निबगड़कर कह�ा चानिहए था निक मुझसे ऐसी बेदूदी बातचीत कर�ी हो, तो यहाँ से चली जाओ। मैं अप�े का�ों से �हीं सु��ा चाहती।

—स्त्री यह तो मैं�े पहले ही निकया, निबगड़कर �ूब �री-�ोटी सु�ायीं। क्या इत�ा भी �हीं जा�ती ? बेचारी मेरे पैरों पर सर र�कर रो�े लगी।

राय —साहब यह कहा था निक राय साहब से कहूँगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जायेंगे ?यह कहते हुए राय साहब �े गदगद होकर पत्�ी को गले लगा लिलया।

—स्त्री अजी, मैं �-जा�े ऐसी निकत�ी ही बातें कह चुकी, लेनिक� निकसी तरह टाले �हीं टलती। रो-रोकर जा� दे रही है।

राय —साहब उससे वादा तो �हीं कर लिलया ?—स्त्री वादा ? मैं रुपये लेकर सन्दूक में र� आयी। �ोट थे।

राय —साहब निकत�ी जबरदस्त अहमक हो, � मालूम ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी देगा या �हीं।

—स्त्री अब क्या देगा ? दे�ा होता, तो दे � दी होती। राय —साहब हाँ मालूम तो ऐसा ही होता है। मुझसे कहा तक �हीं और रुपये लेकर

सन्दूक में दाखि�ल कर लिलए ! अगर निकसी तरह बात �ुल जाय, तो कहीं का � रहँू। —स्त्री तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दँू।

राय —साहब निफर वही निहमाकत ! अरे, अब तो जो कुछ हो�ा था, हो चुका। ईश्वर पर भरोसा करके जमा�त ले�ी पडे़गी। लेनिक� तुम्हारी निहमाकत में शक �हीं। जा�ती हो, यह साँप के मुँह में उँगली डाल�ा है। यह भी जा�ती हो निक मुझे ऐसी बातों से निकत�ी �फरत है, निफर भी बेसब्र हो जाती हो। अबकी बार तुम्हारी निहमाकत से मेरा व्रत टूट रहा है। मैं�े दिदल में ठा� लिलया था निक अब इस मामले में हाथ � डालूँगा, लेनिक� तुम्हारी निहमाकत के मारे जब मेरी कुछ चल�े भी पाये ?

—स्त्री मैं जाकर लौटाये देती हँू।राय —साहब और मैं जाकर जहर �ाये लेता हँू।

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इधर तो स्त्री-पुरुष में यह अक्षिभ�य हो रहा था, उधर दमड़ी उसी वक्त अप�े गाँव के मुखि�या के �ेत से जुआर काट रहा था। आज वह रात-भर की छुट्टी लेकर घर गया था। बैलों के लिलए चारे का एक नित�का भी �हीं है। अभी वेत� मिमल�े में कई दिद� की देर थी, मोल ले � सकता था। घर वालों �े दिद� को कुछ घास छीलकर खि�लायी तो थी, लेनिक� ऊँट के मुँह में जीरा। उत�ी घास से क्या हो सकता था। दो�ों बैल भू�े �डे़ थे। दमड़ी को दे�ते ही दो�ों पँूछें �ड़ी करके हँुकार�े लगे। जब वह पास गया तो दो�ों उसकी हथेलिलयाँ चाट�े लगे। बेचारा दमड़ी म� मसोसकर रह गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ हो �हीं सकता, सबेरे निकसी से कुछ उधार लेकर चारा लाऊँगा।

लेनिक� जब ग्यारह बजे रात उसकी आँ�ें �ुलीं, तो दे�ा निक दो�ों बैल अभी तक �ाँद पर �डे़ हैं। चाँद�ी रात थी, दमड़ी को जा� पड़ा निक दो�ों उसकी ओर उपेक्षा और याच�ा की दृमिष्ट से दे� रहे हैं। उ�की कु्षधा-वेद�ा दे�कर उसकी आँ�ें सजल हो आयीं। निकसा� को अप�े बैल अप�े लड़कों की तरह प्यारे होते हैं। वह उन्हें पशु �हीं, अप�ा मिमत्र और सहायक समझता। बैलों को भू�े �डे़ दे�कर �ींद आँ�ों से भाग गयी। कुछ सोचता हुआ उठा। हँलिसया नि�काली और चारे की निफक्र में चला। गाँव के बाहर बाजरे और जुआर के �ेत �डे़ थे। दमड़ी के हाथ काँप�े लगे। लेनिक� बैलों की याद �े उसे उते्तजिजत कर दिदया। चाहता, तो कई बोझ काट सकता था; लेनिक� वह चोरी करते हुए भी चोर � था। उस�े केवल उत�ा ही चारा काटा, जिजत�ा बैलों को रात-भर के लिलए काफी हो। सोचा, अगर निकसी �े दे� भी लिलया, तो उससे कह दँूगा, बैल भू�े थे, इसलिलए काट लिलया। उसे निवश्वास था निक थोडे़-से चारे के लिलए कोई मुझे पकड़ �हीं सकता। मैं कुछ बेच�े के लिलए तो काट �हीं रहा हँू; निफर ऐसा नि�दFयी कौ� है, जो मुझे पकड़ ले। बहुत करेगा, अप�े दाम ले लेगा। उस�े बहुत सोचा। चारे का थोड़ा हो�ा ही उसे चोरी के अपराध से बचा�े को काफी था। चोर उत�ा काटता, जिजत�ा उससे उठ सकता। उसे निकसी के फायदे और �ुकसा� से क्या मतलब ? गाँव के लोग दमड़ी को चारा लिलये जाते दे�कर निबगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में � फँसाता, लेनिक� संयोग से हल्के के था�े का लिसपाही उधर जा नि�कला। वह पड़ोस के एक बनि�ये के यहाँ जुआ हो�े की �बर पाकर कुछ ऐंठ�े की टोह में आया था। दमड़ी को चारा लिसर पर उठाते दे�ा, तो सन्देह हुआ। इत�ी रात गये कौ� चारा काटता है ? हो � हो, कोई चोरी से काट रहा है, डाँटकर —बोला कौ� चारा लिलए जाता है ? �ड़ा रह!

दमड़ी �े चौककर पीछे दे�ा, तो पुलिलस का लिसपाही ! हाथ-पाँव फूल गये, काँपते हुए —बोला हुजूर, थोड़ा ही-सा काटा है, दे� लीजिजए।

—लिसपाही थोड़ा काटा हो या बहुत, है तो चोरी। �ेत निकसका है ?—दमड़ी बलदेव महतो का।

लिसपाही �े समझा था, लिशकार फँसा, इससे कुछ ऐंठँगा; लेनिक� वहाँ क्या र�ा था। पकड़कर गाँव में लाया और जब वहाँ भी कुछ हत्थे चढ़ता � दिद�ाई दिदया तो था�े ले गया। था�ेदार �े चाला� कर दिदया। मुकदमा राय साहब ही के इजलास में पेश निकया।

राय साहब �े दमड़ी को फँसे हुए दे�ा, तो हमदद{ के बदले कठोरता से काम लिलया। —बोले यह मेरी बद�ामी की बात है। तेरा क्या निबगड़ा, साल-छ: मही�े की सजा हो जायेगी,

शर्मिमंन्दा तो मुझे हो�ा पड़ रहा है ! लोग यही तो कहते होंगे निक राय साहब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर हैं। तू मेरा �ौकर � होता, तो मैं हलकी सजा देता; लेनिक� तू मेरा �ौकर है, इसलिलए कड़ी-से-कड़ी सजा दँूगा। मैं यह �हीं सु� सकता निक राय साहब �े अप�े �ौकर के साथ रिरआयत की।

यह कहकर राय साहब �े दमड़ी को छ: मही�े की सख्त कैद का हुक्म सु�ा दिदया।उसी दिद� उन्हों�े �ू� के मुकदमे में जमा�त ले ली। मैं�े दो�ों वृत्तान्त सु�े और मेरे

दिदल में यह ख्याल और भी पक्का हो गया निक सभ्यता केवल हु�र के साथ ऐब कर�े का �ाम है। आप बुरे-से-बुरा काम करें, लेनिक� अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं, तो आप

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सभ्य हैं, सज्ज� हैं, जेजिन्टलमै� हैं। अगर आप में यह लिसफ़त �हीं तो आप असभ्य हैं, गँवार हैं, बदमाश हैं। यह सभ्यता का रहस्य है !

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समस्या

रे दफ्तर में चार चपरासी हैं। उ�में एक का �ाम गरीब है। वह बहुत ही सीधा, बड़ा आज्ञाकारी, अप�े काम में चौकस रह�े वाला, घुड़निकयाँ �ाकर चुप रह जा�ेवाला यथा

�ाम तथा गुण वाला म�ुष्य है।मुझे इस दफ्तर में साल-भर होते हैं, मगर मैं�े उसे एक दिद� के लिलए भी गैरहाजिजर �हीं पाया। मैं उसे 9 बजे दफ्तर में अप�ी फटी दरी पर बैठे हुए दे��े का ऐसा आदी हो गया हँू निक मा�ो वह भी उसी इमारत का कोई अंग है। इत�ा सरल है निक निकसी की बात टाल�ा �हीं जा�ा। एक मुसलमा� है। उससे सारा दफ्तर डरता है, मालूम �हीं क्यों ? मुझे तो इसका कारण लिसवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कुछ �हीं मालूम होता। उसके कथ�ा�ुसार उसके चचेरे भाई रामपुर रिरयासत में काजी हैं, फूफा टोंक की रिरयासत में कोतवाल हैं। उसे सवFसम्मनित �े ‘काजी-साहेब’ की उपामिध दे र�ी है। शेष दो महाशय जानित के ब्राह्मण हैं। उ�के आशीवाFदों का मूल्य उ�के काम से कहीं अमिधक है। ये ती�ों कामचोर, गुस्ता� और आलसी हैं। कोई छोटा-सा काम कर�े को भी कनिहए तो निब�ा �ाक-भौं लिसकोडे़ �हीं करते। क्लक� को तो कुछ समझते ही �हीं ! केवल बडे़ बाबू से कुछ दबते हैं, यद्यनिप कभी-कभी उ�से झगड़ बैठते हैं। मगर इ� सब दुगुFणों के होते हुए भी दफ्तर में निकसी की मिमट्टी इत�ी �राब �ही है, जिजत�ी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया है, तो ये ती�ों मार ले जाते हैं, गरीब को कोई पूछता भी �हीं। और सब दस-दस पाते हैं, वह अभी छ: ही में पड़ा हुआ है। सुबह से शाम तक उसके पैर एक क्षण के लिलए भी �हीं दिटकते—यहाँ तक निक ती�ों चपरासी उस पर हुकूमत जताते हैं और ऊपर की आमद�ी में तो उस बेचारे का कोई भाग ही �हीं। नितस पर भी दफ्तर के सब —कमFचारी दफ्तरी से लेकर बाबू तक —सब उससे लिचढ़ते हैं। उसकी निकत�ी ही बार लिशकायतें हो चुकी हैं, निकत�ी ही बार जुमाF�ा हो चुका है और डाँट-डपट तो नि�त्य ही हुआ करती है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में � आता था। हाँ, मुझे उस पर दया अवcय आती थी, और आप�े व्यवहार से मैं यह दिद�ा�ा चाहता था निक मेरी दृमिष्ट में उसका आदर चपरालिसयों से कम �हीं। यहाँ तक निक कई बार मैं उसके पीछे अन्य कमFचारिरयों से लड़ भी चुका हँू।

मे

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क दिद� बडे़ बाबू �े गरीब से अप�ी मेज साफ कर�े को कहा। वह तुरन्त मेज साफ कर�े लगा। दैवयोग से झाड़� का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और रोश�ाई मेज

पर फैल गयी। बडे़ बाबू यह दे�ते ही जामे से बाहर हो गये। उसके का� पकड़कर �ूब ऐंठे और भारतवषF की सभी प्रचलिलत भाषाओं से दुवFच� चु�-चु�कर उसे सु�ा�े लगे। बेचारा गरीब आँ�ों में आँसू भरे चुपचाप मूर्तितंवत् �ड़ा सु�ता था, मा�ो उस�े कोई हत्या कर डाली हो। मुझे बाबू का जरा-सी बात पर इत�ा भयंकर रौद्र रूप धारण कर�ा बुरा मालूम हुआ। यदिद निकसी दूसरे चपरासी �े इससे भी बड़ा कोई अपराध निकया होता, तो भी उस पर इत�ा वज्र-प्रहार � होता। मैं�े अंग्रेजी में —कहा बाबू साहब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उस�े जा�-बूझकर तो रोश�ाई निगराया �हीं। इसका इत�ा कड़ा दण्ड अ�ौलिचत्य की पराकाष्ठा है।

बाबूजी �े �म्रता से —कहा आप इसे जा�ते �हीं, बड़ा दुष्ट है। ‘मैं तो उसकी कोई दुष्टता �हीं ’दे�ता।‘आप अभी उसे जा�ते �हीं, एक ही पाजी है। इसके घर दो हलों की �ेती होती है,

हजारों का ले�-दे� करता है; कई भैंसे लगती हैं। इन्हीं बातों का इसे घमण्ड ’है।‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहाँ चपरासनिगरी क्यों करता?’‘निवश्वास मानि�ए, बड़ा पोढ़ा आदमी है और बला का ’मक्�ीचूस।‘यदिद ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध �हीं ’है।

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‘अजी, अभी आप इ� बातों को �हीं जा�ते। कुछ दिद� और रनिहए तो आपको स्वयं मालूम हो जाएगा निक यह निकत�ा कमी�ा आदमी है?’

एक दूसरे महाशय बोल —उठे भाई साहब, इसके घर म�ों दूध-दही होता है, म�ों मटर, जुवार, च�े होते हैं, लेनिक� इसकी कभी इत�ी निहम्मत � हुई निक कभी थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। यहाँ इ� चीजों को तरसकर रह जाते हैं। तो निफर क्यों � जी जले ? और यह सब कुछ इसी �ौकरी के बदौलत हुआ है। �हीं तो पहले इसके घर में भू�ी भाँग � थी।

बडे़ बाबू कुछ सकुचाकर —बोले यह कोई बात �हीं। उसकी चीज है, निकसी को दे या � दे; लेनिक� यह निबल्कुल पशु है।

मैं कुछ-कुछ ममF समझ गया। —बोला यदिद ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी है, तो वास्तव में पशु ही है। मैं यह � जा�ता था।

अब बडे़ बाबू भी �ुले। संकोच दूर हुआ। —बोले इ� सौगातों से निकसी का उबार तो होता �हीं, केवल दे�े वाले की सहृदयता प्रकट होती है। और आशा भी उसी से की जाती है, जो इस योग्य होता है। जिजसमें सामर्थ्ययF ही �हीं, उससे कोई आशा �हीं करता। �ंगे से कोई क्या लेगा ?

रहस्य �ुल गया। बडे़ बाबू �े सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समृजिद्ध के शतु्र सब होते हैं, छोटे ही �हीं, बडे़ भी। हमारी ससुराल या �नि�हाल दरिरद्र हो, तो हम उससे आशा �हीं र�ते ! कदालिचत् वह हमें निवस्मृत हो जाती है। निकन्तु वे सामर्थ्ययFवा�् होकर हमें � पूछें , हमारे यहाँ तीज और चौथ � भेजें, तो हमारे कलेजे पर साँप लोट�े लगता है। हम अप�े नि�धF� मिमत्र के पास जायँ, तो उसके एक बीडे़ पा� से ही संतुष्ट हो जाते हैं; पर ऐसा कौ� म�ुष्य है, जो अप�े निकसी ध�ी मिमत्र के घर से निब�ा जलपा� के लौटाकर उसे म� में कोस�े � लगे और सदा के लिलए उसका नितरस्कार � कर�े लगे। सुदामा कृष्ण के घर से यदिद नि�राश लौटते तो, कदालिचत् वह उ�के लिशशुपाल और जरासंध से भी बडे़ शतु्र होते। यह मा�व-स्वभाव है।

तीन

कई दिद� पीछे मैं�े गरीब से —पूछा क्यों जी, तुम्हारे घर पर कुछ �ेती-बारी होती है ?

गरीब �े दी� भाव से —कहा हाँ, सरकार, होती है। आपके दो गुलाम हैं, वही करते हैं ?

‘गायें-भैंसें भी लगती हैं?’‘हाँ, हुजूर; दो भैंसें लगती हैं, मुदा गायें अभी गाक्षिभ� �हीं है। हुजूर, लोगों के ही

दया-धरम से पेट की रोदिटयाँ चल जाती ’हैं।‘दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ �ानितर करते हो?’गरीब �े अत्यन्त दी�ता से —कहा हुजूर; मैं सरकार लोगों की क्या �ानितर कर

सकता हँू। �ेती में जौ, च�ा, मक्का, जुवार के लिसवाय और क्या होता है। आप लोग राजा हैं, यह मोटी-झोटी चीजें निकस मुँह से आपकी भेंट करँू। जी डरता है, कहीं कोई डाँट � बैठे निक इस टके के आदमी की इत�ी मजाल। इसी के मारे बाबूजी, निहयाव �हीं पड़ता। �हीं तो दूध-दही की कौ� निबसात थी। मुँह लायक बीड़ा तो हो�ा चानिहए।

‘भला एक दिद� कुछ लाके दो तो, दे�ो, लोग क्या कहते हैं। शहर में यह चीजें कहाँ मयस्सर होती हैं। इ� लोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता ’है।

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‘जो सरकार, कोई कुछ कहे तो? कहीं कोई साहब से लिशकायत कर दे तो मैं कहीं का � ’रहँू।

‘इसका मेरा जिजम्मा है, तुम्हें कोई कुछ � कहेगा। कोई कुछ कहेगा, तो मैं समझा ’दँूगा।

‘तो हुजूर, आजकल तो मटर की फलिसल है। च�े के साग भी हो गये हैं और कोल्हू भी �ड़ा हो गया है। इसके लिसवाय तो और कुछ �हीं ’है।

‘बस, तो यही चीजें ’लाओ।‘कुछ उल्टी-सीधी पडे़, तो हुजूर ही सँभालेंगे!’‘हाँ जी, कह तो दिदया निक मैं दे� ’लूँगा।दूसरे दिद� गरीब आया तो उसके साथ ती� हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के लिसरों पर

टोकरिरयाँ थीं, उसमें मटर की फनि�याँ भरी हुई थीं। एक के लिसर पर मटका था, उसमें ऊ� का रस था। ती�ों ऊ� का एक-एक गट्ठर काँ� में दबाये हुए थे। गरीब आकर चुपके से बरामदे के साम�े पेड़ के �ीचे �ड़ा हो गया। दफ्तर में आ�े का उसे साहस �हीं होता था, मा�ो कोई अपराधी वृक्ष के �ीचे �ड़ा था निक इत�े में दफ्तर के चपरालिसयों और अन्य कमFचारिरयों �े उसे घेर लिलया। कोई ऊ� लेकर चूस�े लगा, कई आदमी टाकरें पर टूट पडे़, लूट मच गयी। इत�े में बडे़ बाबू दफ्तर में आ पहुँचे। यह कौतुकब दे�ा तो उच्च स्वर से बोले—यह क्या भीड़ लगा र�ी है, अप�ा-अप�ा काम दे�ो।

मैं�े जाकर उ�के का� में —कहा गरीब, अप�े घर से यह सौगात लाया है। कुछ आप ले लीजिजए, कुछ इ� लोगों को बाँट दीजिजए।

बडे़ बाबू �े कृनित्रम क्रोध धारण करके —कहा क्यों गरीब, तुम ये चीजें यहाँ क्यों लाये ? अभी ले जाओ, �हीं तो मैं साहब से रपट कर दँूगा। कोई हम लोगों को मलूका समझ लिलया है।

गरीब का रंग उड़ गया। थर-थर काँप�े लगा। मुँह से एक शब्द भी � नि�कला। मेरी ओर अपराधी �ेत्रों से ताक�े लगा।

मैं�े उसकी ओर से क्षमा-प्राथF�ा की। बहुत कह�े-सु��े पर बाबू साहब राजी हुए। सब चीजों में से आधी-आधी अप�े घर क्षिभजवायी। आधी में अन्य लोगों के निहस्से लगाये गये। इस प्रकार यह अक्षिभ�य समाप्त हुआ।

4

ब दफ्तर में गरीब का �ाम हो�े लगा। उसे नि�त्य घुड़निकयाँ � मिमलतीं; दिद�-भर दौड़�ा � पड़ता। कमFचारिरयों के वं्यग्य और अप�े सहयोनिगयों के कटुवाक्य � सु��े पड़ते।

चपरासी लोग स्वयं उसका काम कर देते। उसके �ाम में भी थोड़ा-सा परिरवतF� हुआ। वह गरीब से गरीबदास ब�ा। स्वभाव में कुछ तबदीली पैदा हुई। दी�ता की जगह आत्मगौरव का उद्भव हुआ। तत्परता की जगह आलस्य �े ली। वह अब भी कभी देर करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का बहा�ा करके घर बैठ रहता। उसके सभी अपराध अब क्षम्य थे। उसे अप�ी प्रनितष्ठा का गुर हाथ लग गया था। वह अब दसवें-पाँचवे दिद� दूध, दही लाकर बडे़ बाबू की भेंट निकया करता। देवता को संतुष्ट कर�ा सी� गया। सरलता के बदले अब उसमें काँइयाँप� आ गया।

एक रोज बडे़ बाबू �े उसे सरकारी फाम� का पासFल छुड़ा�े के लिलए स्टेश� भेजा। कई बडे़-बडे़ पुचिलंदे थे। ठेले पर आये। गरीब �े ठेलेवालों से बारह आ�े मजदूरी तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो उस�े बडे़ बाबू से बारह आ�े पैसे ठेलेवालों को दे�े के लिलए वसूल निकये। लेनिक� दफ्तर से कुछ दूर जाकर उसकी �ीयत बदली। अप�ी दस्तूरी माँग�े लगा। ठेलेवाले राजी � हुए। इस पर गरीब �े निबगड़कर सब पैसे जेब में र� लिलये और

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धमकाकर —बोला अब एक फूटी कौड़ी भी � दँूगा। जाओ जहाँ फरिरयाद करो। दे�ें, क्या ब�ा लेते हो।

ठेलेवाले �े जब दे�ा निक भेंट � दे�े से जमा ही गायब हुई जाती है तो रो-धोकर चार आ�े पैसे दे�े पर राजी हुए। गरीब �े अठन्नी उसके हवाले की, बारह आ�े की रसीद लिल�ाकर उसके अँगूठे के नि�शा� लगवाये और रसीद दफ्तर में दाखि�ल हो गयी।

यह कुतूहल दे�कर में दंग रह गया। यह वही गरीब है, जो कई मही�े पहले सरलता और दी�ता की मूर्तितं था, जिजजसे कभी चपरालिसयों से भी अप�े निहस्से की रकम माँग�े का साहस � होता था, जो दूसरों को खि�ला�ा भी � जा�ता था, �ा�े का तो जिजक्र ही क्या। यह स्वभावांतर दे�कर अत्यन्त �ेद हुआ। इसका उत्तरदामियत्व निकसके लिसर था ? मेरे लिसर, जिजस�े उसे चघ्घड़प� और धूतFता का पहला पाठ पढ़ाया था। मेरे लिचत्त में प्रश्न —उठा इस काँइयाँप� से, जो दूसरों का गला दबाता है, वह भोलाप� क्या बुरा था, जो दूसरों का अन्याय सह लेता था। वह अशुभ मुहूतF था, जब मैं�े उसे प्रनितष्ठा-प्राप्तिप्त का मागF दिद�ाया, क्योंनिक वास्तव में वह उसके पत� का भयंकर मागF था। मैं�े बाह्य प्रनितष्ठा पर उसकी आत्म-प्रनितष्ठा का बलिलदा� कर दिदया।

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दो सखि�याँ

1ल��ऊ1-7-25

प्यारी बह�,जब से यहाँ आयी हँू, तुम्हारी याद सताती रहती है। काश! तुम कुछ दिद�ों के लिलए

यहाँ चली आतीं, तो निकत�ी बहार रहती। मैं तुम्हें अप�े निव�ोद से मिमलाती। क्या यह सम्भव �हीं है ? तुम्हारे माता-निपता क्या तुम्हें इत�ी आजादी भी � देंगे ? मुझे तो आश्चयF यही है निक बेनिड़याँ पह�कर तुम कैसे रह सकती हो! मैं तो इस तरह घण्टे-भर भी �हीं रह सकती। ईश्वर को धन्यवाद देती हँू निक मेरे निपताजी पुरा�ी लकीर पीट�े वालों में �हीं। वह उ� �वी� आदश� के भक्त हैं, जिजन्हों�े �ारी-जीव� को स्वगF ब�ा दिदया है। �हीं तो मैं कहीं की � रहती।

निव�ोद हाल ही में इंग्लैंड से डी0 निफल 0 होकर लौटे हैं और जीव�-यात्रा आरम्भ कर�े के पहले एक बार संसार-यात्रा कर�ा चाहते हैं। योरप का अमिधकांश भाग तो वह दे� चुके हैं, पर अमेरिरका, आस्टे्रलिलया और एलिशया की सैर निकये निब�ा उन्हें चै� �हीं। मध्य एलिशया और ची� का तो यह निवशेष रूप से अध्यय� कर�ा चाहते हैं। योरोनिपय� यात्री जिज� बातों की मीमांसा � कर सके, उन्हीं पर प्रकाश डाल�ा इ�का ध्येय है। सच कहती हँू, चन्दा, ऐसा साहसी, ऐसा नि�भ�क, ऐसा आदशFवादी पुरुष मैं�े कभी �हीं दे�ा था। मैं तो उ�की बातें सु�कर चनिकत हो जाती हँू। ऐसा कोई निवषय �हीं है, जिजसका उन्हें पूरा ज्ञा� � हो, जिजसकी वह आलोच�ा � कर सकते हो; और यह केवल निकताबी आलोच�ा �हीं होती, उसमें मौलिलकता और �वी�ता होती है। स्ववन्त्रता के तो वह अ�न्य उपासक हैं। ऐसे पुरुष की पत्�ी ब�कर ऐसी कौ�-सी स्त्री है, जो अप�े सौभाग्य पर गवF � करे। बह�, तुमसे क्या कहूँ निक प्रात:काल उन्हें अप�े बँगले की ओर आते दे�कर मेरे लिचत्त की क्या दशा हो जाती है। यह उ� पर न्योछावर हो�े के लिलए निवकल हो जाता है। यह मेरी आत्मा में बस गये हैं। अप�े पुरुष की मैं�े म� में जो कल्प�ा की थी, उसमें और उ�में बाल बराबर भी अन्तर �हीं। मुझे रात-दिद� यही भय लगा रहता है निक कहीं मुझमें उन्हें कोई तु्रदिट � मिमल जाय। जिज� निवषयों से उन्हें रुलिच है, उ�का अध्यय� आधी रात तक बैठी निकया करती हँू। ऐसा परिरश्रम मैं�े कभी � निकया था। आई�े-कंघी से मुझे कभी उत�ा पे्रम � था, सुभानिषतों को मैं�े कभी इत�े चाव से कण्ठ � निकया था। अगर इत�ा सब कुछ कर�े पर भी मैं उ�का हृदय � पा सकी, तो बह�, मेरा जीव� �ष्ट हो जायेगा, मेरा हृदय फट जायेगा और संसार मेरे लिलए सू�ा हो जायेगा।

कदालिचत् पे्रम के साथ ही म� में ईष्याF का भाव भी उदय हो जाता है। उन्हें मेरे बँगले की ओर जाते हुए दे� जब मेरी पड़ोलिस� कुसुम अप�े बरामदे में आकर �ड़ी हो जाती है, तो मेरा ऐसा जी चाहता है निक उसकी आँ�ें ज्योनितही� हो जायँ। कल तो अ�थF ही हो गया। निव�ोद �े उसे दे�ते ही हैट उतार ली और मुस्कराए। वह कुलटा भी �ीसें नि�काल�े लगी। ईश्वर सारी निवपक्षित्तयाँ दे, पर मिमर्थ्ययाक्षिभमा� � दे। चुडै़लों की-सी तो आपकी सूरत है, पर अप�े को अप्सरा समझती हैं। आप कनिवता करती हैं और कई पनित्रकाओं में उ�की कनिवताए ँछप भी गई हैं। बस, आप जमी� पर पाँव �हीं र�तीं। सच कहती हँू, थोड़ी देर के लिलए निव�ोद पर से मेरी श्रद्धा उठ गयी। ऐसा आवेश होता था निक चलकर कुसुम का मुँह �ोच लूँ। �ैरिरयत हुई निक दो�ों में बातचलत � हुई, पर निव�ोद आकर बैठे तो आध घण्टे तक मैं उ�से � बोल सकी, जैसे उ�के शब्दों में वह जादू ही � था, वाणी में वह रस ही � था। तब से अब तक मेरे लिचत्त की व्यग्रता शान्त �हीं हुई। रात-भर मुझे �ींद �हीं आयी, वही दृcय

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आँ�ों के साम�े बार-बार आता था। कुसुम को लज्जिज्जत कर�े के लिलए निकत�े मसूबे बाँध चुकी हँू। अगर यह भय � होता निक निव�ोद मुझे ओछी और हलकी समझेंगे, तो मैं उ�से अप�े म�ोभावों को स्पष्ट कह देती। मैं सम्पूणFत: उ�की होकर उन्हें सम्पूणFत: अप�ा ब�ा�ा चाहती हँू। मुझे निवश्वास है निक संसार का सबसे रूपवा�् युवक मेरे साम�े आ जाय, तो मैं उसे आँ� उठाकर � दे�ँूगी। निव�ोद के म� में मेरे प्रनित यह भाव क्यों �हीं है।

चन्दा, प्यारी बह�; एक सप्ताह के लिलए आ जा। तुझसे मिमल�े के लिलए म� अधीर हो रहा है। मुझे इस समय तेरी सलाह और सहा�ुभूनित की बड़ी जरूरत है। यह मेरे जीव� का सबसे �ाजुक समय है। इन्हीं दस-पाँच दिद�ों में या तो पारस हो जाऊँगी या मिमट्टी। लो सात बज गए और अभी बाल तक �हीं ब�ाये। निव�ोद के आ�े का समय है। अब निवदा होती हँू। कहीं आज निफर अभानिग�ी कुसुम अप�े बरामदे में � आ �ड़ी हो। अभी से दिदल काँप रहा है। कल तो यह सोचकर म� को समझाया था निक यों ही सरल भाव से वह हँस पड़ी होगी। आज भी अगर वही दृcय साम�े आया, तो उत�ी आसा�ी से म� को � समझा सकँूगी।

तुम्हारी,पद्मा

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गोर�पुर5-7-25

निप्रय पद्मा,भला एक युग के बाद तुम्हें मेरी सुमिध तो आई। मैं�े तो समझा था, शायद तुम�े

परलोक-यात्रा कर ली। यह उस नि�षु्ठरता का दंड ही है, जो कुसुम तुम्हें दे रही है। 15 एनिप्रल को कालेज बन्द हुआ और एक जुलाई को आप �त लिल�ती —हैं पूरे ढाई मही�े बाद, वह भी कुसुम की कृपा से। जिजस कुसुम को तुम कोस रही हो, उसे मैं आशीवाFद दे रही हँू। वह दारुण दु:� की भाँनित तुम्हारे रास्ते में � आ �ड़ी होती, तो तुम्हें क्यों मेरी याद आती ? �ैर, निव�ोद की तुम�े जो तसवीर �ींची, वह बहुत ही आकषFक है और मैं ईश्वर से म�ा रही हँू, वह दिद� जल्द आए निक मैं उ�से बह�ोई के �ाते मिमल सकँू। मगर दे��ा, कहीं लिसनिवल मैरेज � कर बैठ�ा। निववाह निहन्दू-पद्धनित के अ�ुसार ही हो। हॉ, तुम्हें अज्जिख्त्यर है जो सैकड़ों बेहूदा और व्यथF के कपडे़ हैं, उन्हें नि�काल डालो। एक सच्चे, निवद्वा� पज्जिण्डत को अवcय बुला�ा, इसलिलए �हीं निक वह तुमसे बात-बात पर टके नि�कलवाये, बश्किल्क इसलिलए निक वह दे�ता रहे निक वह सब कुछ शास्त्र-निवमिध से हो रहा है, या �हीं।

अच्छा, अब मुझसे पूछो निक इत�े दिद�ों क्यों चुप्पी साधे बैठी रही। मेरे ही �ा�दा� में इ� ढाई मही�ों में, पाँच शादिदयॉँ हुई। बारातों का ताँता लगा रहा। ऐसा शायद ही कोई दिद� गया हो निक एक सौ महमा�ों से कम रहे हों और जब बारात आ जाती थी, तब तो उ�की संख्या पाँच-पाँच सौ तक पहुँच जाती थी। ये पाँचों लड़निकयाँ मुझसे छोटी हैं और मेरा बस चलता तो अभी ती�-चार साल तक � बोलती, लेनिक� मेरी सु�ता कौ� है और निवचार कर�े पर मुझे भी ऐसा मालूम होता है निक माता-निपता का लड़निकयों के निववाह के लिलए जल्दी कर�ा कुछ अ�ुलिचत �हीं है। जिजन्दगी का कोई दिठका�ा �हीं। अगर माता-निपता अकाल मर जायँ, तो लड़की का निववाह कौ� करे। भाइयों का क्या भरोसा। अगर निपता �े काफी दौलत छोड़ी है तो कोई बात �हीं; लेनिक� जैसा साधारणत: होता है, निपता ऋण का भार छोड़ गये, तो बह� भाइयों पर भार हो जाती है। यह भी अन्य निकत�े ही निहन्दू-रस्मों की भाँनित आर्थिथंक समस्या है, और जब तक हमारी आर्थिथंक दशा � सुधरेगी, यह रस्म भी � मिमटेगी।

अब मेरे बलिलदा� की बारी है। आज के पंद्रहवें दिद� यह घर मेरे लिलए निवदेश हो जायगा। दो-चार मही�े के लिलए आऊँगी, तो मेहमा� की तरह। मेरे निव�ोद ब�ारसी हैं, अभी

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का�ू� पढ़ रहे हैं। उ�के निपता �ामी वकील हैं। सु�ती हँू, कई गाँव हैं, कई मका� हैं, अच्छी मयाFदा है। मैं�े अभी तक वर को �हीं दे�ा। निपताजी �े मुझसे पुछवाया था निक इच्छा हो, तो वर को बुला दँू। पर मैं�े कह दिदया, कोई जरूरत �हीं। कौ� घर में बहू ब�े। है तकदीर ही का सौदा। � निपताजी ही निकसी के म� में पैठ सकते हैं, � मैं ही। अगर दो-एक बार दे� ही लेती, �हीं मुलाकात ही कर लेती तो क्या हम दो�ों एक-दूसरे को पर� लेते ? यह निकसी तरह संभव �हीं। ज्यादा-से-ज्यादा हम एक-दूसरे का रंग-रूप दे� सकते हैं। इस निवषय में मुझे निवश्वास है निक निपताजी मुझसे कम संयत �हीं हैं। मेरे दो�ों बडे़ बह�ोई सौंदयF के पुतले � हों पर कोई रमणी उ�से घृणा �हीं कर सकती। मेरी बह�ें उ�के साथ आ�न्द से जीव� निबता रही हैं। निफर निपताजी मेरे ही साथ क्यों अन्याय करेंगे। यह मैं मा�ती हँू निक हमारे समाज में कुछ लोगों का वैवानिहक जीव� सु�कर �हीं है, लेनिक� संसार में ऐसा कौ� समाज है, जिजसमें दु�ी परिरवार � हों। और निफर हमेशा पुरुषों ही का दोष तो �हीं होता, बहुधा स्त्रिस्त्रयॉँ ही निवष का गाँठ होती हैं। मैं तो निववाह को सेवा और त्याग का व्रत समझती हँू और इसी भाव से उसका अक्षिभवाद� करती हँू। हाँ, मैं तुम्हें निव�ोद से छी��ा तो �हीं चाहती लेनिक� अगर 20 जुलाई तक तुम दो दिद� के लिलए आ सको, तो मुझे जिजला लो। ज्यों-ज्यों इस व्रत का दिद� नि�कट आ रहा है, मुझे एक अज्ञात शंका हो रही है; मगर तुम �ुद बीमार हो, मेरी दवा क्या —करोगी जरूर आ�ा बह� !

तुम्हारी,चन्दा

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मंसूरी5-8-25

प्यारी चन्दा,सैंकड़ों बातें लिल��ी हैं, निकस क्रम से शुरू करँू, समझ में �हीं आता। सबसे पहले

तुम्हारे निववाह के शुभ अवसर पर � पहुँच सक�े के लिलए क्षमा चाहती हँू। मैं आ�े का नि�श्चय कर चुकी थी, मैं और प्यारी चंदा के स्वयंवर में � जाऊँ: मगर उसके ठीक ती� दिद� पहले निव�ोद �े अप�ा आत्मसमपFण करके मुझे ऐसा मुग्ध कर दिदया निक निफर मुझे निकसी की सुमिध � रही। आह! वे पे्रम के अन्तस्तल से नि�कले हुए उष्ण, आवेशमय और कंनिपत शब्द अभी तक का�ों में गूँज रहे हैं। मैं �ड़ी थी, और निव�ोद मेरे साम�े घुट�े टेके हुए पे्ररणा, निव�य और आग्रह के पुतले ब�े बैठे थे। ऐसा अवसर जीव� में एक ही बार आता है, केवल एक बार, मगर उसकी मधुर स्मृनित निकसी स्वगF-संगीत की भाँती जीव� के तार-तार में व्याप्त रहता है। तुम उस आ�न्द का अ�ुभव कर —सकोगी मैं रो�े लगी, कह �हीं सकती, म� में क्या-क्या भाव आये; पर मेरी आँ�ों से आँसुओं की धारा बह�े लगी। कदालिचत् यही आ�न्द की चरम सीमा है। मैं कुछ-कुछ नि�राश हो चली थी। ती�-चार दिद� से निव�ोद को आते-जाते कुसुम से बातें करते दे�ती थी, कुसुम नि�त �ए आभूषणों से सजी रहती थी और क्या कहूँ, एक दिद� निव�ोद �े कुसुम की एक कनिवता मुझे सु�ायी और एक-एक शब्द पर लिसर धु�ते रहे। मैं मानि��ी तो हँू ही; सोचा,जब यह उस चुडै़ल पर लट्टू हो रहे हें, तो मुझे क्या गरज पड़ी है निक इ�के लिलए अप�ा लिसर �पाऊँ। दूसरे दिद� वह सबेरे आये, तो मैं�े कहला दिदया, तबीयत अच्छी �हीं है। जब उन्हों�े मुझसे मिमल�े के लिलए आग्रह निकया, तब निववश होकर मुझे कमरे में आ�ा पड़ा। म� में नि�श्चय करके आयी —थी साफ कह दंूगी अब आप � आया कीजिजए। मैं आपके योग्य �हीं हँू, मैं कनिव �हीं, निवदुषी �हीं, सुभानिषणी �हीं....एक पूरी स्पीच म� में उमड़ रही थी, पर कमरे में आई और निव�ोद के सतृष्ण �ेत्र दे�े, प्रबल उत्कंठा में काँपते हुए —होंठ बह�, उस आवेश का लिचत्रण �हीं कर सकती। निव�ोद �े मुझे बैठ�े भी �

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दिदया। मेरे साम�े घुट�ों के बल फशF पर बैठ गये और उ�के आतुर उन्मत्त शब्द मेरे हृदय को तरंनिगत कर�े लगे।

एक सप्ताह तैयारिरयों में कट गया। पापा ओर मामा फूले � समाते थे।और सबसे प्रसन्न थी कुसुम ! यही कुसुम जिजसकी सूरत से मुझे घृणा थी ! अब मुझे

ज्ञात हुआ निक मैं�े उस पर सन्देह करके उसके साथ घोर अन्याय निकया। उसका हृदय नि�ष्कपट है, उसमें � ईष्याF है, � तृष्णा, सेवा ही उसके जीव� का मूलतत्व है। मैं �हीं समझती निक उसके निब�ा ये सात दिद� कैसे कटते। मैं कुछ �ोई-�ोई सी जा� पड़ती थी। कुसुम पर मैं�े अप�ा सारा भार छोड़ दिदया था। आभूषणों के चु�ाव और सजाव, वस्त्रों के रंग और काट-छाँट के निवषय में उसकी सुरुलिच निवलक्षण है। आठवें दिद� जब उस�े मुझे दुलनिह� ब�ाया, तो मैं अप�ा रूप दे�कर चनिकत रह गई। मैं�े अप�े को कभी ऐसी सुन्दरी � समझा था। गवF से मेरी आँ�ों में �शा-सा छा गया।

उसी दिद� संध्या-समय निव�ोद और में दो क्षिभन्न जल-धाराओं की भाँनित संगम पर मिमलकर अक्षिभन्न हो गये। निवहार-यात्रा की तैयारी पहले ही से हो चुकी थी, प्रात:काल हम मंसूरी के लिलए रवा�ा हो गये। कुसुम हमें पहुँचा�े के लिलए स्टेश� तक आई और निवदा होते समय बहुत रोयी। उसे साथ ले चल�ा चाहती थी, पर � जा�े क्यों वह राजी � हुई।

मंसूरी रमणीक है, इसमें सन्देह �हीं। cयामवणF मेघ-मालाए ँपहानिड़यों पर निवश्राम कर रही हैं, शीतल पव� आशा-तरंगों की भाँनित लिचत्त का रंज� कर रहा है, पर मुझे ऐसा निवश्वास है निक निव�ोद के साथ मैं निकसी नि�जF� व� में भी इत�े ही सु� से रहती। उन्हें पाकर अब मुझे निकसी वस्तु की लालसा �हीं। बह�, तुम इस आ�न्दमय जीव� की शायद कल्प�ा भी � कर सकोगी। सुबह हुई, �ाcता आया, हम दो�ों �े �ाcता निकया; डाँडी तैयार है, �ौ बजते-बजते सैर कर�े नि�कल गए। निकसी जल-प्रपात के निक�ारे जा बैठे। वहाँ जल-प्रवाह का मधुर संगीत सु� रहे हैं। या निकसी लिशला-�ंड पर बैठे मेघों की व्योम-क्रीड़ा दे� रहे हैं। ग्यारह बजते-बजते लौटै। भोज� निकया। मैं प्या�ो पर जा बैठी। निव�ोद को संगीत से पे्रम है। �ुद बहुत अच्छा गाते हैं और मैं गा�े लगती हँू, तब तो वह झूम�े ही लगते हैं। तीसरे पहर हम एक घंटे के लिलए निवश्राम करके �ेल�े या कोई �ेल दे��े चले जाते हैं। रात को भोज� कर�े के बाद लिथयेटर दे�ते हैं और वहाँ से लौट कर शय� करते हैं। � सास की घुड़निकयाँ हैं � ��दों की का�ाफूसी, � जेठानि�यों के ता�े। पर इस सु� में भी मुझे कभी-कभी एक शंका-सी होती —है फूल में कोई काँटा तो �हीं लिछपा हुआ है, प्रकाश के पीछे कहीं अन्धकार तो �हीं है ! मेरी समझ में �हीं आता, ऐसी शंका क्यों होती है। अरे, यह लो पाँच बज गए, निव�ोद तैयार हैं, आज टेनि�स का मैच दे��े जा�ा है। मैं भी जल्दी से तैयार हो जाऊँ। शेष बातें निफर लिल�ँूगी।

हाँ, एक बात तो भूली ही जा रही थी। अप�े निववाह का समाचार लिल��ा। पनितदेव कैसे हैं ? रंग-रूप कैसा है ? ससुराल गयी, या अभी मैके ही में हो ? ससुराल गयीं, तो वहाँ के अ�ुभव अवcय लिल��ा। तुम्हारी �ूब �ुमाइश हुई होगी। घर, कुटुम्ब और मुहल्ले की मनिहलाओं �े घूँघट उठा-उठाकर �ूब मुँह दे�ा होगा, �ूब परीक्षा हुई होगी। ये सभी बातें निवस्तार से लिल��ा। दे�ें कब निफर मुलाकात होती है।

तुम्हारी,पद्मा

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गोर�पुर1-9-25

प्यारी पद्मा,15

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तुम्हारा पत्र पढ़कर लिचत्त को बड़ी शांनित मिमली। तुम्हारे � आ�े ही से मैं समझ गई थी निक निव�ोद बाबू तुम्हें हर ले गए, मगर यह � समझी थी निक तुम मंसूरी पहुँच गयी। अब उस आमोद-प्रमोद में भला गरीब चन्दा क्यों याद आ�े लगी। अब मेरी समझ में आ रहा है निक निववाह के लिलए �ए और पुरा�े आदशF में क्या अन्तर है। तुम�े अप�ी पसन्द से काम लिलया, सु�ी हो। मैं लोक-लाज की दासी ब�ी रही, �सीबों को रो रही हँू।

अच्छा, अब मेरी बीती सु�ो। दा�-दहेज के टंटे से तो मुझे कुछ मतलब है �हीं। निपताजी �े बड़ा ही उदार-हृदय पाया है। �ूब दिदल �ोलकर दिदया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अखिग्�-परीक्षा शुरू हो गयी। निकत�ी उत्कण्ठा —थी वह-दशF� की, पर दे�ँू कैसे। कुल की �ाक � कट जाएगी। द्वार पर बारात आयी। सारा जमा�ा वर को घेरे हुए था। मैं�े —सोचा छत पर से दे�ँू। छत पर गयी, पर वहाँ से भी कुछ � दिद�ाई दिदया। हाँ, इस अपराध के लिलए अम्माँजी की घुड़निकयाँ सु��ी पड़ीं। मेरी जो बात इ� लोगों को अच्छी �हीं लगती, उसका दोष मेरी लिशक्षा के माथे मढ़ा जाता है। निपताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी सहा�ुभूनित र�ते हैं। मगर निकस-निकस का मुँह पकड़ें। द्वारचार तो यों गुजरा और भाँवरों की तैयारिरयाँ हो�े लगी। ज�वासे से गह�ों और कपड़ों का थाल आया। बह� ! सारा —घर स्त्री-

—पुरुष सब उस पर कुछ इस तरह टूटे, मा�ो इ� लोगों �े कभी कुछ दे�ा ही �हीं। कोई कहता है, कंठा तो लाये ही �हीं; कोई हार के �ाम को रोता है! अम्माँजी तो सचमुच रो�े लगी, मा�ो मैं डुबा दी गयी। वर-पक्षवालों की दिदल �ोलकर नि�ंदा हो�े लगी। मगर मैं�े गह�ों की तरफ आँ� उठाकर भी �हीं दे�ा। हाँ, जब कोई वर के निवषय में कोई बात करता था, तो मैं तन्मय होकर सु��े लगती था। मालूम —हुआ दुबले-पतले आदमी हैं। रंग साँवला है, आँ�ें बड़ी-बड़ी हैं, हँसमु� हैं। इ� सूच�ाओं से दश�§त्कंठा और भी प्रबल होती थी। भाँवरों का मुहूतF ज्यों-ज्यों समीप आता था, मेरा लिचत्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यनिप मैं�े उ�की झलक भी � दे�ी थी, पर मुझे उ�के प्रनित एक अभूतपूवF पे्रम का अ�ुभव हो रहा था। इस वक्त यदिद मुझे मालूम हो जाता निक उ�के दुcम�ों को कुछ हो गया है, तो मैं बावली हो जाती। अभी तक मेरा उ�से साक्षात् �हीं हुआ हैं, मैं�े उ�की बोली तक �हीं सु�ी है, लेनिक� संसार का सबसे रूपवा�् पुरुष भी, मेरे लिचत्त को आकर्तिषंत �हीं कर सकता। अब वही मेरे सवFस्व हैं।

आधी रात के बाद भाँवरें हुईं। साम�े हव�-कुण्ड था, दो�ों ओर निवप्रगण बैठे हुए थे, दीपक जल रहा था, कुल देवता की मूर्तितं र�ी हुई थीं। वेद मंत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम हुआ निक सचमुच देवता निवराजमा� हैं। अखिग्�, वायु, दीपक, �क्षत्र सभी मुझे उस समय देवत्व की ज्योनित से प्रदीप्त जा� पड़ते थे। मुझे पहली बार आध्यास्त्रित्मक निवकास का परिरचय मिमला। मैं�े जब अखिग्� के साम�े मस्तक झुकाया, तो यह कोरी रस्म की पाबंदी � थी, मैं अखिग्�देव को अप�े सम्मु� मूर्तितंवा�्, स्वग�य आभा से तेजोमय दे� रही थी। आखि�र भाँवरें भी समाप्त हो गई; पर पनितदेव के दशF� � हुए।

अब अप्तिन्तम आशा यह थी निक प्रात:काल जब पनितदेव कलेवा के लिलए बुलाये जायँगे, उस समय दे�ँूगी। तब उ�के लिसर पर मौर � होगा, सखि�यों के साथ मैं भी जा बैठँूगी और �ूब जी भरकर दे�ँूगी। पर क्या मालूम था निक निवमिध कुछ और ही कुचक्र रच रहा है। प्रात:काल दे�ती हँू, तो ज�वासे के �ेमे उ�ड़ रहे हैं। बात कुछ � थी। बारानितयों के �ाcते के लिलए जो सामा� भेजा गया था, वह काफी � था। शायद घी भी �राब था। मेरे निपताजी को तुम जा�ती ही हो। कभी निकसी से दबे �हीं, जहाँ रहे शेर ब�कर रहे। —बोले जाते हैं, तो जा�े दो, म�ा�े की कोई जरूरत �हीं; कन्यापक्ष का धमF है बारानितयों का सत्कार कर�ा, लेनिक� सत्कार का यह अथF �हीं निक धमकी और रोब से काम लिलया जाय, मा�ो निकसी अफसर का पड़ाव हो। अगर वह अप�े लड़के की शादी कर सकते हैं, तो मैं भी अप�ी लड़की की शादी कर सकता हँू।

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बारात चली गई और मैं पनित के दशF� � कर सकी ! सारे शहर में हलचल मच गई। निवरोमिधयों को हँस�े का अवसर मिमला। निपताजी �े बहुत सामा� जमा निकया था। वह सब �राब हो गया। घर में जिजसे देखि�ए, मेरी ससुराल की नि�ंदा कर रहा —है उजड्ड हैं, लोभी हैं, बदमाश हैं, मुझे जरा भी बुरा �हीं लगता। लेनिक� पनित के निवरुद्ध मैं एक शब्द भी �हीं सु��ा चाहती। एक दिद� अम्माँजी —बोली लड़का भी बेसमझ है। दूध पीता बच्चा �हीं, का�ू� पढ़ता है, मूँछ-दाढ़ी आ गई है, उसे अप�े बाप को समझा�ा चानिहए था निक आप लोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भीगी निबल्ली ब�ा रहा। मैं सु�कर नितलमिमला उठी। कुछ बोली तो �हीं, पर अम्माँजी को मालूम जरूर हो गया निक इस निवषय में मैं उ�से सहमत �हीं। मैं तुम्हीं से पूछती हँू बह�, जैसी समस्या उठ �ड़ी हुई थी, उसमें उ�का क्या धमF था ? अगर वह अप�े निपता और अन्य सम्बस्त्रिन्धयों का कह�ा � मा�ते, तो उ�का अपमा� � होता ? उस वक्त उन्हों�े वही निकया, जो उलिचत था। मगर मुझे निवश्वास है निक जरा मामला ठंडा हो�े पर वह आयेंगे। मैं अभी से उ�की राह दे��े लगी हँू। डानिकया लिचदिट्ठयाँ लाता है, तो दिदल में धड़क� हो�े लगती —हैं शायद उ�का पत्र भी हो ! जी में बार-बार आता है, क्यों � मैं ही एक �त लिल�ँू; मगर संकोच में पड़कर रह जाती हँू। शायद मैं कभी � लिल� सकँूगी। मा� �हीं है केवल संकोच है। पर हाँ, अगर दस-पाँच दिद� और उ�का पत्र � आया, या वह �ुद � आए, तो संकोच मा� का रूप धारण कर लेगा। क्या तुम उन्हें एक लिचट्ठी �हीं लिल� सकती ! सब �ेल ब� जाय। क्या मेरी इत�ी �ानितर भी � करोगी ? मगर ईश्वर के लिलए उस �त में कहीं यह � लिल� दे�ा निक चंदा �े पे्ररणा की है। क्षमा कर�ा ऐसी भद्दी गलती की, तुम्हारी ओर से शंका करके मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हँू, मगर मैं समझदार थी ही कब ?

तुम्हारी,चन्दा

5मंसूरी

20-9-25प्यारी चन्दा,

मैं�े तुम्हारा �त पा�े के दूसरे ही दिद� काशी �त लिल� दिदया था। उसका जवाब भी मिमल गया। शायद बाबूजी �े तुम्हें �त लिल�ा हो। कुछ पुरा�े �याल के आदमी हैं। मेरी तो उ�से एक दिद� भी � नि�भती। हाँ, तुमसे नि�भ जायगी। यदिद मेरे पनित �े मेरे साथ यह बताFव निकया —होता अकारण मुझसे रूठे —होते तो मैं जिजन्दगी-भर उ�की सूरत � दे�ती। अगर कभी आते भी, तो कुत्तों की तरह दुत्कार देती। पुरुष पर सबसे बड़ा अमिधकार उसकी स्त्री का है। माता-निपता को �ुश र��े के लिलए वह स्त्री का नितरस्कार �हीं कर सकता। तुम्हारे ससुरालवालों �े बड़ा घृक्षिणत व्यवहार निकया। पुरा�े �यालवालों का गजब का कलेजा है, जो ऐसी बातें सहते हैं। दे�ा उस प्रथा का फल, जिजसकी तारीफ करते तुम्हारी जबा� �हीं थकती। वह दीवार सड़ गई। टीपटाप कर�े से काम � चलेगा। उसकी जगह �ये लिसरे से दीवार ब�ा�े की जरूरत है।

अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सु� लो। मुझे ऐसा संदेह हो रहा है निक निव�ोद �े मेरे साथ दगा की है। इ�की आर्थिथंक दशा वैसी �हीं, जैसी मैं�े समझी थी। केवल मुझे ठग�े के लिलए इन्हों�े सारा स्वाँग भरा था। मोटर माँगे की थी, बँगले का निकराया अभी तक �हीं दिदया गया, फरनि�चर निकराये के थे। यह सच है निक इन्हों�े प्रत्यक्ष रूप से मुझे धो�ा �हीं दिदया। कभी अप�ी दौलत की डींग �हीं मारी, लेनिक� ऐसा रह�-सह� ब�ा ले�ा, जिजससे दूसरों को अ�ुमा� हो निक यह कोई बडे़ ध�ी आदमी हैं, एक प्रकार का धो�ा ही है। यह स्वाँग

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इसीलिलए भरा गया था निक कोई लिशकार फँस जाय। अब दे�ती हँू निक निव�ोद मुझसे अप�ी असली हालत को लिछपा�े का प्रयत्� निकया करते हैं। अप�े �त मुझे �हीं दे��े देते, कोई मिमल�े आता है, तो चौंक पड़ते हैं और घबरायी हुई आवाज में बेरा से पूछते हैं, कौ� है ? तुम जा�ती हो, मैं ध� की लौंडी �हीं। मैं केवल निवशुद्ध हृदय चाहती हँू। जिजसमें पुरुषाथF है, प्रनितभा है, वह आज �हीं तो कल अवcय ही ध�वा�् होकर रहेगा। मैं इस कपट-लीला से जलती हँू। अगर निव�ोद मुझसे अप�ी कदिठ�ाइयाँ कह दें, तो मैं उ�के साथ सहा�ुभूनित करँूगी, उ� कदिठ�ाइयों को दूर कर�े में उ�की मदद करँूगी। यों मुझसे परदा करके यह मेरी सहा�ुभूती और सहयोग ही से हाथ �हीं धोते, मेरे म� में अनिवश्वास, दे्वष और क्षोभ का बीज बोते हैं। यह चिचंता मुझे मारे डालती हैं। अगर इन्हों�े अप�ी दशा साफ-साफ बता दी होती, तो मैं यहाँ मंसूरी आती ही क्यों ? ल��ऊ में ऐसी गरमी �हीं पड़ती निक आदमी पागल हो जाय। यह हजारों रुपये क्यों पा�ी पड़ता। सबसे कदिठ� समस्या जीनिवका की है। कई निवद्यालयों में आवेद�-पत्र भेज र�े हैं।जवाब का इंतजार कर रहे हैं। शायद इस मही�े के अंत तक कहीं जगह मिमल जाय। पहले ती�-बार सौ मिमलेंगे। समझ में �हीं आता, कैसे काम चलेगा। डेढ़ सौ रुपये तो पापा मेरे कालेज का �चF देते थे। अगर दस-पाँच मही�े जगह � मिमली तो यह क्या करें गे, यह निफक्र और भी �ाये डालती है। मुश्किcकल यही है निक निव�ोद मुझसे परदा र�ते हैं। अगर हम दो�ों बैठकर परामशF कर लेते, तो सारी गुश्कित्थयाँ सुलझ् जातीं। मगर शायद यह मुझे इस योग्य ही �हीं समझते। शायद इ�का �याल है निक मैं केवल रेशमी गुनिड़या हँू, जिजसे भाँनित-भाँनित के आभूषणों, सुगंधों और रेशमी वस्त्रों से सजा�ा ही काफी है। लिथरेटर में कोई �या तमाशा हो�े वाला होता है, दौडे़ हुए आकर मुझे �बर देते हैं। कहीं कोई जलसा हो, कोई �ेल हो, कहीं सैर कर�ा हो उसकी शुभ सूच�ा मुझे अनिवलम्ब दी जाती है और बड़ी प्रसन्नता के साथ, मा�ो मैं रात-दिद� निव�ोद और क्रीड़ा और निवलास में मग्� रह�ा चाहती हँू, मा�ो मेरे हृदय में गंभीर अंश है ही �हीं। यह मेरा अपमा� है; घोर अपमा�, जिजसे मैं अब �हीं सह सकती। मैं अप�े संपूणF अमिधकार लेकर ही संतुष्ट हो सकती हँू। बस, इस वक्त इत�ा ही। बाकी निफर। अप�े यहाँ का हाल-हवाल निवस्तार से लिल��ा। मुझे अप�े लिलए जिजत�ी चिचंता है, उससे कम तुम्हारे लिलए �हीं है। दे�ो, हम दो�ों के डोंगे कहाँ लगते हैं। तुम अप�ी स्वदेशी, पाँच हजार वष� की पुरा�ी जजFर �ौका पर बैठी हो, मैं �ये, द्रुतगामी मोटर-बोट पर। अवसर, निवज्ञा� और उद्योग। मेरे साथ हैं। लेनिक� कोई दैवी निवपक्षित्त आ जाय, तब भी इसी मोटर-बोट पर डूबँूगी। साल में ला�ों आदमी रेल के टक्करों से मर जाते हैं, पर कोई बैलगानिडयों पर यात्रा �हीं करता। रेलों का निवस्तार बढ़ता ही जाता है। बस।

तुम्हारी,पद्मा

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गोर�पुर25-9-25

प्यारी पद्मा, कल तुम्हारा �त मिमला, आज जवाब लिल� रही हँू। एक तुम हो निक मही�ों रटाती

हो। इस निवषय में तुम्हें मुझसे उपदेश ले�ा चानिहए। निव�ोद बाबू पर तुम व्यथF ही आक्षेप लगा रही हो। तुम�े क्यों पहले ही उ�की आर्थिथंक दशा की जाँच-पड़ताल �हीं की ? बस, एक सुन्दर, रलिसक, लिशष्ट, वाणी-मधुर युवक दे�ा और फूल उठीं ? अब भी तुम्हारा ही दोष है। तुम अप�े व्यवहार से, रह�-सह� से लिसद्ध कर दो निक तुममें गंभीर अंश भी हैं, निफर दे�ँू निक निव�ोद बाबू कैसे तुमसे परदा र�ते हैं। और बह�, यह तो मा�वी स्वभाव है। सभी चाहते हैं

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निक लोग हमें संपन्न समझें। इस स्वाँग को अंत तक नि�भा�े की चेष्टा की जाती है और जो इस काम में सफल हो जाता है, उसी का जीव� सफल समझा जाता है। जिजस युग में ध� ही सवFप्रधा� हो, मयाFदा, कीर्तितं, —यश यहाँ तक निक निवद्या भी ध� से �रीदी जा सके, उस युग में स्वाँग भर�ा एक लाजिजमी बात हो जाती है। अमिधकार योग्यता का मुँह ताकते हैं ! यही समझ लो निक इ� दो�ों में फूल और फल का संबंध है। योग्यता का फूल लगा और अमिधकार का फल आया।

इ� ज्ञा�ोपदेश के बाद अब तुम्हें हार्दिदंक धन्यवाद देती हँू। तुम�े पनितदेव के �ाम जो पत्र लिल�ा था, उसका बहुत अच्छा असर हुआ। उसके पाँचवें ही दिद� स्वामी का कृपापात्र मुझे मिमला। बह�, वह �त पाकर मुझे निकत�ी �ुशी हुई, इसका तुम अ�ुमा� कर सकती हो। मालूम होता था, अंधे को आँ�ें मिमल गयी हैं। कभी कोठे पर जाती थी, कभी �ीचे आती थी। सारे में �लबली पड़ गयी। तुम्हें वह पत्र अत्यन्त नि�राशाज�क जा� पड़ता, मेरे लिलए वह संजीव�-मंत्र था, आशादीपक था। प्राणेश �े बारानितयों की उदं्दडता पर �ेद प्रकट निकया था, पर बड़ों के साम�े वह जबा� कैसे �ोल सकते थे। निफर ज�ानितयों �े भी, बारानितयों का जैसा आदर-सत्कार कर�ा चानिहए था, वैसा �हीं निकया। अन्त में लिल�ा —था ‘निप्रये, तुम्हारे दशF�ों की निकत�ी उत्कंठा है, लिल� �हीं सकता। तुम्हारी कज्जिल्पत मूर्तितं नि�त आँ�ों के साम�े रहती है। पर कुल-मयाFदा का पाल� कर�ा मेरा कत्तFव्य है। जब तक माता-निपता का रु� � पाऊँ, आ �हीं सकता। तुम्हारे निवयोग में चाहे प्राण ही नि�कल जायँ, पर निपता की इच्छा की उपेक्षा �हीं कर सकता। हाँ, एक बात का दृढ़-नि�श्चय कर चुका —हँू चाहे इधर की दुनि�यां उधर हो जाय, कपूत कहलाऊँ, निपता के कोप का भागी ब�ँू, घर छोड़�ा पडे़ पर अप�ी दूसरी शादी � करँूगा। मगर जहाँ तक मैं समझता हँू, मामला इत�ा तूल � �ींचेगा। यह लोग थोडे़ दिद�ों में �मF पड़ जायँगे और तब मैं आऊँगा और अप�ी हृदयेश्वरी को आँ�ों पर निबठाकर लाऊँगा।

बस, अब मै। संतुष्ट हँू बह�, मुझे और कुछ � चानिहए। स्वामी मुझ पर इत�ी कृपा र�ते हैं, इससे अमिधक और वह क्या कर सकते हैं ! निप्रयतम! तुम्हारी चन्दा सदस तुम्हारी रहेगी, तुम्हारी इच्छा ही उसका कत्तFव्य है। वह जब तक जिजएगी, तुम्हारे पनिवत्र चरणों से लगी रहेगी। उसे निबसार�ा मत।

बह�, आँ�ों में आँसू भर आते हैं, अब �हीं लिल�ा जाता, जवाब जल्द दे�ा।तुम्हारी, चन्दा

7दिदल्ली

15-12-25प्यारी बह�,

तुझसे बार-बार क्षमा मॉँगती हँू, पैरों पड़ती हँू। मेरे पत्र � लिल��े का कारण आलस्य � था, सैर-सपाटे की धु� � थी। रोज सोचती थी निक आज लिल�ँूगी, पर कोई-�-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, कोई ऐसी बात हो जाती थी; कोई ऐसी बाधा आ �ड़ी होती थी निक लिचत्त अशांत हो जाता था और मुँह लपेट कर पड़ रहती थी। तुम मुझे अब दे�ो तोशायद पनिहचा� � सको। मंसूरी से दिदल्ली आये एक मही�ा हो गया। यहाँ निव�ोद को ती� सौ रुपये की एक जगह मिमल गयी है। यह सारा मही�ा बाजार की �ाक छा��े में कटा। निव�ोद �े मुझे पूरी स्वाधी�ता दे र�ी है। मैं जो चाहँू, करँू, उ�से कोई मतलब �हीं। वह मेरे मेहमा� हैं। गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर डालकर वह नि�श्चिशं्चत हो गए हैं। ऐसा बेनिफक्रा मैं�े आदमी ही �हीं दे�ा। हाजिजरी की परवाह है, � निड�र की, बुलाया तो आ गए, �हीं तो बैठे हैं। �ौकरों से कुछ बोल�े की तो मा�ो इन्हों�े कसम ही �ा ली है। उन्हें डाटँू तो मैं, र�ूँ तो मैं,

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नि�कालूँ तो मैं, उ�से कोई मतलब ही �हीं। मैं चाहती हँू, वह मेरे प्रबन्ध की आलोच�ा करें, ऐब नि�कालें; मैं चाहती हँू जब मैं बाजार से कोई चीज लाऊँ, तो वह बतावें मैं जट गई या जीत आई; मैं चहती हँू मही�े के �चF का बजट ब�ाते समय मेरे और उ�के बीच में �ूब बहस हो, पर इ� अरमा�ों में से एक भी पूरा �हीं होता। मैं �हीं समझती, इस तरह कोई स्त्री कहाँ तक गृह-प्रबन्ध में सफल हो सकती है। निव�ोद के इस सम्पूणF आत्म-समपFण �े मेरी नि�ज की जरूरतों के लिलए कोई गुंजाइश ही �हीं र�ी। अप�े शौक की चीजें �ुद �रीदकर लाते बुरा मालूम होता है, कम-से-कम मुझसे �हीं हो सकमा। मैं जा�ती हँू, मैं अप�े लिलए कोई चीज लाऊँ, तो वह �ाराज � होंगे। �हीं, मुझे निवश्वास है, �ुश होंगे; लेनिक� मेरा जी चाहता है, मेरे शौक चिसंगार की चीजें वह �ुद ला कर दें। उ�से ले�े में जो आ�न्द है, वह �ुद जाकर ला�े में �हीं। निपताजी अब भी मुझे सौ रुपया मही�ा देते हैं और उ� रुपयों को मैं अप�ी जरूरतों पर �चF कर सकती हँू। पर � जा�े क्यों मुझे भय होता है निक कहीं निव�ोदद समझें, मैं उ�के रुपये �चF निकये डालती हँू। जो आदमी निकसी बात पर �ाराज �हीं हो सकता, वह निकसी बात पर �ुश भी �हीं हो सकता। मेरी समझ में ही �हीं आता, वह निकस बात से �ुश और निकस बात से �ाराज होते हैं। बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो निब�ा रास्ता जा�े इधर-उधर भटकता निफरे। तुम्हें याद होगा, हम दो�ों कोई गक्षिणत का प्रश्न लगा�े के बाद निकत�ी उत्सुकता से उसका जवाब दे�ती थी; जब हमारा जवाब निकताब के जवाब से मिमल जाता था, तो हमें निकत�ा हार्दिदंक आ�न्द मिमलता था। मेह�त सफल हुईं, इसका निवश्वास हो जाता था। जिज� गक्षिणत की पुस्तकों में प्रश्नों के उत्तर � लिल�े होते थे, उसके प्रश्न हल कर�े की हमारी इच्छा ही � होती थी। सोचते थे, मेह�त अकारथ जायगी। मैं रोज प्रश्न हल करती हँू, पर �हीं जा�ती निक जवाब ठीक नि�कला, या गलत। सोचो, मेरे लिचत्त की क्या दशा होगी।

एक हफ्ता होता है, ल��ऊ की मिमस रिरग से भेंट हो गई। वह लेडी डाक्टर हैं और मेरे घर बहुत आती-जाती हैं। निकसी का लिसर भी धमका और मिमस रिरग बुलायी गयीं। पापा जब मेनिडकल कालेज में प्रोफेसर थे, तो उन्हों�े इ� मिमस रिरग को पढ़ाया था। उसका एहसा� वह अब भी मा�ती हैं। यहाँ उन्हें दे�कर भोज� का नि�मंत्रण � दे�ा अलिशष्टता की हद होती। मिमस रिरग �े दावत मंजूर कर ली। उस दिद� मुझे जिजत�ी कदिठ�ाई हुई, वह बया� �हीं कर सकती। मैं�े कभी अँगरेजों के साथ टेबुल पर �हीं �ाया। उ�में भोज� के क्या लिशष्टाचार हैं, इसका मुझे निबलकुल ज्ञा� �हीं। मैं�े समझा था, निव�ोद मुझे सारी बातें बता देंगे। वह बरसों अँगरेजों के साथ इंग्लैंड रह चुके हैं। मैं�े उन्हें मिमस रिरग के आ�े की सूच�ा भी दे दी। पर उस भले आदमी �े मा�ो सु�ा ही �हीं। मैं�े भी नि�श्चय निकया, मैं तुमसे कुछ � पूछँूगी, यही � होगा निक मिमस रिरग हँसेंगी। बला से। अप�े ऊपर बार-बार झुँझलाती थी निक कहाँ मिमस रिरग को बुला बैठी। पड़ोस के बँगलों में कई हमी-जैसे परिरवार रहते हैं। उ�से सलाह ले सकती थी। पर यही संकोच होता था निक ये लोग मुझे गँवारिर� समझेंगे। अप�ी इस निववशता पर थोड़ी देर तक आँसू भी बहाती रही। आखि�र नि�राश होकर अप�ी बुजिद्ध से काम लिलया। दूसरे दिद� मिमस रिरग आयीं। हम दो�ों भी मेज पर बैठे। दावत शुरू हुई। मैं दे�ती थी निक निव�ोद बार-बार झेंपते थे और मिमस रिरग बार-बार �ाक लिसकोड़ती थीं, जिजससे प्रकट हो रहा था निक लिशष्टाचार की मयाFदा भंग हो रही है। मैं शमF के मारे मरी जाती थी। निकसी भाँनित निवपक्षित्त लिसर सके टली। तब मैं�े का� पकडे़ निक अब निकसी अँगरेज की दावत � करँूगी। उस दिद� से दे� रही हँू, निव�ोद मुझसे कुछ खि�ंचे हुए हैं। मैं भी �हीं बोल रही हँू। वह शायद समझते हैं निक मैं�े उ�की भद्द करा दी। मैं समझ रही हँू। निक उन्हों�े मुझे लज्जिज्जत लज्जिज्जत निकया। सच कहती हँू, चन्दा, गृहस्थी के इ� झंझटों में मुझे अब निकसी से हँस�े बोल�े का अवसर �हीं मिमलता। इधर मही�ों से कोई �यी पुस्तक �हीं पढ़ सकी। निव�ोद की निव�ोदशीलता भी � जा�े कहाँ चली गयी। अब वह लिस�ेमा या लिथएटर का �ाम भी �हीं लेते। हाँ, मैं चलँू तो वह तैयार हो जायेंगे। मैं चाहती हँू, प्रस्ताव उ�की ओर से हो, मैं उसका

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अ�ुमोद� करँू। शायद वह पनिहले की आदतें छोड़ रहे हैं। मैं तपस्या का संकल्प उ�के मु� पर अंनिकत पाती हँू। ऐसा जा� पड़ता है, अप�े में गृह-संचाल� की शलिक्त � पाकर उन्हों�े सारा भार मुझ पर डाल दिदया है। मंसूरी में वह घर के संचालक थे। दो-ढाई मही�े में पन्द्रह सौ �चF निकये। कहाँ से लाये, यह में अब तक �हीं जा�ती। पास तो शायद ही कुछ रहा हो। संभव है निकसी मिमत्र से ले लिलया हो। ती� सौ रुपये मही�े की आमद�ी में लिथएटर और लिस�ेमा का जिजक्र ही क्या ! पचास रुपये तो मका� ही के नि�कल जाते हैं। मैं इस जंजाल से तंग आ गयी हँू। जी चाहता है, निव�ोद से कह दँू निक मेरे चलाये यह ठेला � चलेगा। आप तो दो-ढाई घंटा यूनि�वर्थिसंटी में काम करके दिद�-भर चै� करें, �ूब टेनि�स �ेलें, �ूब उपन्यास पढ़ें , �ूब सोयें और मैं सुबह से आधी रात तक घर के झंझटों में मरा करँू। कई बार छेड़�े का इरादा निकया, दिदल में ठा�कर उ�के पास गयी भी, लेनिक� उ�का सामीप्य मेरे सारे संयम, सारी ग्लानि�, सारी निवरलिक्त को हर लेता है। उ�का निवकलिसत मु�मंडल, उ�के अ�ुरक्त �ेत्र, उ�के कोमल शब्द मुझ पर मोनिह�ी मंत्र-सा डाल देते हैं। उ�के एक आचिलंग� में मेरी सारी वेद�ा निवली� हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर यह इत�े रूपवा�्, इत�े मधुरभाषी, इत�े सौम्य � होते। तब कदालिचत् मैं इ�से झगड़ बैठती, अप�ी कदिठ�ाइयाँ कह सकती। इस दशा में तो इन्हों�े मुझे जैसे भेड़ ब�ा लिलया है। मगर माया को तोड़�े का मौका तलाश कर रही हँू। एक तरह से मैं अप�ा आत्म-सम्मा� �ो बैठी हँू। मैं क्यों हर एक बात में निकसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हँू ? मुझमें क्यों यह भाव �हीं आता निक जो कुछ मैं कर रही हँू, वह ठीक है। मैं इत�ी मु�ापेक्षा क्यों करती हँू ? इस म�ोवृक्षित्त पर मुझे निवजय पा�ा है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त निवदा होती हँू। अप�े यहाँ के समाचार लिल��ा, जी लगा है।

तुम्हारी,पद्मा

8काशी

25-12-25प्यारी पद्मा,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे कुछ दु:� हुआ, कुछ हँसी आयी, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो, यह तुम्हें �ुद �हीं मालूम। तुम�े आदशF पनित पाया है, व्यथF की शंकाओं से म� को अशांत � करो। तुम स्वाधी�ता चाहती थीं, वह तुम्हें मिमल गयी। दो आदमिमयों के लिलए ती� सौ रुपये कम �हीं होते। उस पर अभी तुम्हारे पापा भी सौ रुपये दिदये जाते हैं। अब और क्या कर�ा चानिहए? मुझे भय होता है निक तुम्हारा लिचत्त कुछ अव्यवज्जिस्थत हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिलए सहा�ुभूनित का एक शब्द भी �हीं।

मैं पन्द्रह तारी� को काशी आ गयी। स्वामी स्वयं मुझे निवदा करा�े गये थे। घर से चलते समय बहुत रोई। पहले मैं समझती थी निक लड़निकयाँ झूठ-मूठ रोया करती हैं। निफर मेरे लिलए तो माता-निपता का निवयोग कोई �ई बात � थी। गम�, दशहरा और बडे़ दिद� की छुदिट्टयों के बाद छ: सालों से इस निवयोग का अ�ुभव कर रही हँू। कभी आँ�ों में आँसू � आते थे। सहेलिलयों से मिमल�े की �ुशी होती थी। पर अबकी तो ऐसा जा� पड़ता था निक कोई हृदय को �ींचे लेता है। अम्माँजी के गले लिलपटकर तो मैं इत�ा रोई निक मुझे मूछाF आ गयी। निपताजी के पैरों पर लोट कर रो�े की अक्षिभलाषा म� में ही रह गयी। हाय, वह रुद� का आ�न्द ! उस समय निपता के चरणों पर निगरकर रो�े के लिलए मैं अप�े प्राण तक दे देती। यही रो�ा आता था निक मैं�े इ�के लिलए कुछ � निकया। मेरा पाल�-पोषण कर�े में इन्हों�े क्या कुछ कष्ट � उठाया ! मैं जन्म की रोनिगणी हँू। रोज ही बीमार रहती थी। अम्माँजी रात-रात

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भर मुझे गोद में लिलये बैठी रह जाती थी। निपताजी के कन्धों पर चढ़कर उचक�े की याद मुझे अभी तक आती है। उन्हों�े कभी मुझे कड़ी नि�गाह से �हीं दे�ा। मेरे लिसर में ददF हुआ और उ�के हाथों के तोते उड़ जाते थे। दस वषF की उम्र तक तो यों गए। छ: साल देहरादू� में गुजरे। अब, जब इस योग्य हुई निक उ�की कुछ सेवा करँू, तो यों पर झाड़कर अलग हो गई। कुल आठ मही�े तक उ�के चरणों की सेवा कर सकी और यही आठ मही�े मेरे जीव� की नि�मिध है। मेरी ईश्वर से यही प्राथF�ा है निक मेरा जन्म निफर इसी गोद में हो और निफर इसी अतुल निपतृस्�ेह का आ�न्द भोगूँ।

सन्ध्या समय गाड़ी स्टेश� से चली। मैं ज�ा�ा कमरे में थी और लोग दूसरे कमरे में थे। उस वक्त सहसा मुझे स्वामीजी को दे��े की प्रबल इच्छा हुई। सान्त्व�ा, सहा�ुभूनित और आश्रय के लिलए हृदय व्याकुल हो रहा था। ऐसा जा� पड़ता था जैसे कोई कैदी कालापा�ी जा रहा हो।

घंटे भर के बाद गाड़ी एक स्टेश� पर रुकी। मैं पीछे की ओर खि�ड़की से लिसर नि�कालकर दे��े लगी। उसी वक्त द्वार �ुला और निकसी �े कमरे में कदम र�ा। उस कमरे में एक औरत भी � थी। मैं�े चौंककर पीछे दे�ा तो एक पुरुष। मैं�े तुरन्त मुँह लिछपा लिलया और बोली, आप कौ� हैं ? यह ज�ा�ा कमरा है। मरदा�े कमरे में जाइए।

पुरुष �े �डे़-�डे़ —कहा मैं तो इसी कमरे में बैठँूगा। मरदा�े कमरे में भीड़ बहुत है। मैं�े रोष से —कहा �हीं, आप इसमें �हीं बैठ सकते। ‘मैं तो ’बैठँूगा।‘आपको नि�कल�ा पडे़गा। आप अभी चले जाइये, �हीं तो मैं अभी जंजीर �ींच

’लूँगी।‘अरे साहब, मैं भी आदमी हँू, कोई जा�वर �हीं हँू। इत�ी जगह पड़ी हुई है। आपका

इसमें हरज क्या है?’गाड़ी �े सीटी दी। मैं और घबराकर —बोली आप नि�कलते हैं, या मैं जंजीर �ींचँू ?पुरुष �े मुस्कराकर —कहा आप तो बड़ी गुस्सावर मालूम होती हैं। एक गरीब आदमी

पर आपको जरा भी दया �हीं आती ?गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोध और लज्जा के मुझे पसी�ा आ गया। मैं�े फौर� द्वार

�ोल दिदया और —बोली अच्छी बात है, आप बैदिठए, मैं ही जाती हँू।बह�, मैं सच कहती हँू, मुझे उस वक्त लेशमात्र भी भय � था। जा�ती थी, निगरते ही

मर जाऊँगी, पर एक अज�बी के साथ अकेले बैठ�े से मर जा�ा अच्छा था। मैं�े एक पैर लटकाया ही था निक उस पुरुष �े मेरी बाँह पकड़ ली और अन्दर �ींचता हुआ —बोला अब तक तो आप�े मुझे कालेपा�ी भेज�े का सामा� कर दिदया था। यहाँ और कोई तो है �हीं, निफर आप इत�ा क्यों घबराती हैं। बैदिठए, जरा हँलिसए-बोलिलए। अगले स्टेश� पर मैं उतर जाऊँगा, इत�ी देर तक कृपा-कटाक्ष से वंलिचत � कीजिजए। आपको दे�कर दिदल काबू से बाहर हुआ जाता है। क्यों एक गरीब का �ू� लिसर पर लीजिजएगा।.......

मैं�े झटककर अप�ा हाथ छुटा लिलया। सारी देह काँप�े लगी। आँ�ों में आँसू भर आये। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती, तो मैं�े जरूर उसे नि�काल लिलया होता और मर�े-मार�े को तैयार हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओंठ चबा�े के लिसवा और क्या करती ! आखि�र झल्ला�ा व्यथF समझकर मैं�े सावधा� हो�े की चेष्टा करके

—कहा आप कौ� हैं ? उस�े उसी दिढठाई से —कहा तुम्हारे पे्रम का इचु्छक। ‘आप तो मजाक करते हैं। सच ’बतलाइए।‘सच बता रहा हँू, तुम्हारा आलिशक ’हँू।‘अगर आप मेरे आलिशक हैं, तो कम-से-कम इत�ी बात मानि�ए निक अगले स्टेश� पर

उतर जाइए। मुझे बद�ाम करके आप कुछ � पायेंगे। मुझ पर इत�ी दया ’कीजिजए।

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मैं�े हाथ जोड़कर यह बात कही। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी �े द्वार की ओर जाकर —कहा अगर आपका यही हुक्म है, तो लीजिजए, जाता हँू। याद रखि�एगा।

उस�े द्वार �ोल लिलया और एक पाँव आगे बढ़ाया। मुझे मालूम हुआ वह �ीचे कूद�े जा रहा है। बह�, �हीं कह सकती निक उस वक्त मेरे दिदल की क्या दशा हुई। मैं�े निबजली की तरह लपककर उसका हाथ पकड़ लिलया और अप�ी तरफ जोर से �ींच लिलया।

उस�े ग्लानि� से भरे हुए स्वर में —कहा ‘क्यों �ींच लिलया, मैं तो चला जा रहा ’था।‘अगला स्टेश� आ�े ’दीजिजए।‘जब आप भगा ही रही हैं, तो जिजत�ी जल्द भाग जाऊँ उत�ा ही ’अच्छा।‘मैं यह कब कहती हँू निक आप चलती गाड़ी से कूद ’पनिड़ए।‘अगर मुझ पर इत�ी दया है, तो एक बार जरा दशF� ही दे ’दो।‘अगर आपकी स्त्री से कोई दूसरा पुरुष बातें करता, तो आपको कैसा लगता?’पुरुष �े त्योरिरयाँ चढ़ाकर —कहा ‘मैं उसका �ू� पी ’जाता।मैं�े नि�स्संकोच होकर —कहा तो निफर आपके साथ मेरे पनित क्या व्यवहार करेंगे, यह

भी आप समझते होंगे ?‘तुम अप�ी रक्षा आप ही कर सकती हो। निप्रये! तुम्हें पनित की मदद की जरूरत ही

�हीं। अब आओ, मेरे गले से लग जाओ। मैं ही तुम्हारा भाग्यशाली स्वामी और सेवक ’हँू।मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मुँह से —नि�कला अरे! आप!!’ और मैं दूर हटकर

�ड़ी हो गयी। एक हाथ लंबा घूँघट �ींच लिलया। मुँह से एक शब्द � नि�कला। स्वामी �े —कहा अब यह शमF और परदा कैसा?मैं�े —कहा आप बडे़ छलिलये हैं ! इत�ी देर तक मुझे रुला�े में क्या मजा आया?

—स्वामी इत�ी देर में मैं�े तुम्हें जिजत�ा पहचा� लिलया, उत�ा घर के अन्दर शायद बरसों में भी � पहचा� सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमुच गाड़ी से कूद पड़तीं ?

‘अवcय?’‘बड़ी �ैरिरयत हुई, मगर यह दिदल्लगी बहुत दिद�ों याद ’रहेगी। मेरे स्वामी औसत कद

के, साँवले, चेचकरू, दुबले आदमी हैं। उ�सके कहीं रूपवा�् पुरुष मैं�े दे�े हैं: पर मेरा हृदय निकत�ा उल्ललिसत हो रहा था ! निकत�ी आ�न्दमय सन्तुमिष्ट का अ�ुभव कर रही थी, मैं बया� �हीं कर सकती।

मैं�े —पूछा गाड़ी कब तक पहुँचेगी ?‘शाम को पहुँच ’जायेंगे।मैं�े दे�ा, स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गया है। वह दस मिम�ट तक चुपचाप बैठे

बाहर की तरफ ताकते रहे। मैं�े उन्हें केवल बात में लगा�े ही के लिलए यह अ�ावcयक प्रश्न पूछा था। पर अब भी जब वह � बोले तो मैं�े निफर � छेड़ा। पा�दा� �ोलकर पा� ब�ा�े लगी। सहसा, उन्हों�े —कहा चन्दा, एक बात कहूँ ?

मैं�े —कहा हाँ-हाँ, शौक से कनिहए। उन्हों�े लिसर झुकाकर शमाFते हुए —कहा मैं जा�ता निक तुम इत�ी रूपवती हो, तो मैं

तुमसे निववाह � करता। अब तुम्हें दे�कर मुझे मालूम हो रहा है निक मैं�े तुम्हारे साथ अन्याय निकया है। मैं निकसी तरह तुम्हारे योग्य � था।

मैं�े पा� का बीड़ा उन्हें देते हुए —कहा ऐसी बातें � कीजिजए। आप जैसे हैं, मेरे सवFस्व हैं। मैं आपकी दासी ब�कर अप�े भाग्य को धन्य मा�ती हँू।

दूसरा स्टेश� आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गये। जब-जब गाड़ी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को हम लोग ब�ारस पहुँच गए। मका� एक गली में है और मेरे घर से बहुत छोटा है। इ� कई दिद�ों में यह भी मालूम हो रहा है निक सासजी स्वभाव की रू�ी हैं। लेनिक� अभी निकसी के बारे में कुछ �हीं कह सकती। सम्भव है, मुझे

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भ्रम हो रहा हो। निफर लिल�ँूगी। मुझे इसकी लिचन्ता �हीं निक घर कैसा है, आर्थिथंक दशा कैसी है, सास-ससुर कैसे हैं। मेरी इच्छा है निक यहाँ सभी मुझ से �ुश रहें। पनितदेव को मुझसे पे्रम है, यह मेरे लिलए काफी है। मुझे और निकसी बात की परवा �हीं। तुम्हारे बह�ोईजी का मेरे पास बार-बार आ�ा सासजी को अच्छा �हीं लगता। वह समझती हैं, कहीं यह लिसर � चढ़ जाय। क्यों मुझ पर उ�की यह अकृपा है, कह �हीं सकती; पर इत�ा जा�ती हँू निक वह अगर इस बात से �ाराज होती हैं, तो हमारे ही भले के लिलए। वह ऐसी कोई बात क्यों करेंगी, जिजसमें हमारा निहत � हो। अप�ी सन्ता� का अनिहत कोई माता �हीं कर सकती। मुझ ही में कोई बुराई उन्हें �जर आई होगी। दो-चार दिद� में आप ही मालूम हो जाएगा ! अप�े यहाँ के समाचार लिल��ा। जवाब की आशा एक मही�े के पहले तो है �हीं, यों तुम्हारी �ुशी।

तुम्हारी, चन्दा

9दिदल्ली

1-2-26प्यारी बह�,

तुम्हारे प्रथम मिमल� की कुतूहलमय कथा पढ़कर, लिचत्त प्रसन्न हो गया। मुझे तुम्हारे ऊपर हसद हो रहा है। में�े समझा था, तुम्हें मुझ पर हसद होगा, पर निक्रया उलटी हो गयी, तुम्हें चारों ओर हरिरयाली ही �जर आती है, मैं जिजधर �जर डालती हँू, सू�े रेत और �ग्� टीलों के लिसवा और कुछ �हीं। �ैर ! अब कुछ मेरा वृत्तान्त —सु�ो

“अब जिजगर थामकर बैठो, मेरी बारी आयी।”निव�ोद की अनिवचलिलत दशFनि�कता अब असह्य हो गयी है। कुछ निवलिचत्र जीव हैं, घर

में आग लगे, पत्थर पडे़ इ�की बला से। इन्हें मुझ पर जरा भी दया �हीं आती। मैं सुबह से शाम तक घर के झंझटों में कुढ़ा करँू, इन्हें कुछ परवाह �हीं। ऐसा सहा�ुभूनित से �ाली आदमी कभी �हीं दे�ा था। इन्हें तो निकसी जंगल में तपस्या कर�ी चानिहए थी। अभी तो �ैर दो ही प्राणी हैं, लेनिक� कहीं बाल-बचे्च हो गये तब तो मैं बे-मौत मर जाऊँगी। ईश्वर � करे, वह दारुण निवपक्षित्त मेरे लिसर पडे़।

चन्दा, मुझे अब दिदल से लगी हुई है निक निकसी भाँनित इ�की वह समामिध भंग कर दँू। मगर कोई उपाय सफल �हीं होता, कोई चाल ठीक �हीं पड़ती। एक दिद� मैं�े उ�के कमरे के लंप का बल्व तोड़ दिदया। कमरा अँधेरा पड़ा रहा। आप सैर करके आये, तो कमरा अँधेरा दे�ा। मुझसे पूछा, मैं�े कह दिदया बल्ब टूट गया। बस, आप�े भोज� निकया और मेरे कमरे में आकर लेट रहे। पत्रों और उपन्यासों की ओर दे�ा तक �हीं, �-जा�े वह उत्सुकता कहाँ निवली� हो गयी। दिद�-भर गुजर गया, आपको बल्व लगवा�े की कोई निफक्र �हीं। आखि�र, मुझी को बाजार से ला�ा पड़ा।

एक दिद� मैं�े झुँझलाकर रसोइये को नि�काल दिदया। सोचा जब लाला रात-भर भू�े सोयेंगे, तब आँ�ें �ुलेंगी। मगर इस भले आदमी �े कुछ पूछा तक �हीं। चाय � मिमली, कुछ परवाह �हीं। ठीक दस बजे आप�े कपडे़ पह�े, एक बार रसोई की ओर जाकर दे�ा, सन्नाटा था। बस, कालेज चल दिदये। एक आदमी पूछता है, महाराज कहाँ गया, क्यों गया; अब क्या इन्तजाम होगा, कौ� �ा�ा पकायेगा, कम-से-कम इत�ा तो मुझसे कह सकते थे निक तुम अगर �हीं पका सकती, तो बाजार ही से कुछ �ा�ा मँगवा लो। जब वह चले गए, तो मुझे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। रायल होटल से �ा�ा मँगवाया और बैरे के हाथ कालेज भेज दिदया। पर �ुद भू�ी ही रही। दिद�-भर भू� के मारे बुरा हाल था। लिसर में ददF हो�े लगा।

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आप कालेज से आए और मुझे पडे़ दे�ा तो ऐसे परेशा� हुए मा�ो मुझे नित्रदोष है। उसी वक्त एक डाक्टर बुला भेजा। डाक्टर आये, आँ�ें दे�ी, जबा� दे�ी, हरारत दे�ी, लगा�े की दवा अलग दी, पी�े की अलग, आदमी दवा ले�े गया। लौटा तो बारह रुपये का निबल भी था। मुझे इ� सारी बातों पर ऐसा क्रोध आ रहा था निक कहाँ भागकर चली जाऊँ। उस पर आप आराम-कुस� डालकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पल पर पूछ�े लगे कैसा जी है ? ददF कुछ कम हुआ ? यहाँ मारे भू� के आँतें कुलकुला रही थी। दवा हाथ से छुई तक �हीं। आखि�र झ� मारकर मैं�े निफर बैरे से �ा�ा मंगवाया। निफर चाल उलटी पड़ी। मैं डरी निक कहीं सबेरे निफर यह महाशय डाक्टर को � बुला बैठैं , इसलिलए सबेरा होते ही हारकर निफर घर के काम-धने्ध में लगी। उसी वक्त एक दूसरा महाराज बुलवाया। अप�े पुरा�े महाराज को बेकसूर नि�कालकर दण्डस्वरूप एक काठ के उल्लू को र��ा पड़ा, जो मामूली चपानितयाँ भी �हीं पका सकता। उस दिद� से एक �यी बला गले पड़ी। दो�ों वक्त दो घंटे इस महाराज को लिस�ा�े में लग जाते हैं। इसे अप�ी पाक-कला का ऐसा घमण्ड है निक मैं चाहे जिजत�ा बकँू, पर करता अप�े ही म� की है। उस पर बीच-बीच में मुस्करा�े लगता है, मा�ो कहता हो निक ‘तुम इ� बातों को क्या जा�ो, चुपचाप बैठी देख्ती ’जाव। जला�े चली थी निव�ोद को और �ुद जल गयी। रुपये �चF हुए, वह तो हुए ही, एक और जंजाल में फँस गयी। मैं �ुद जा�ती हँू निक निव�ोद का डाक्टर को बुला�ा या मेरे पास बैठे रह�ा केवल दिद�ावा था। उ�के चेहरे पर जरा भी घबराहट � थी, लिचत्त जरा भी अशांत � था।

चंदा, मुझे क्षमा कर�ा। मैं �हीं जा�ती निक ऐसे पुरुष के पाले पड़कर तुम्हारी क्या दशा होती, पर मेरे लिलए इस दशा में रह�ा असह्य है। मैं आगे जो वृत्तान्त कह�े वाली हँू, उसे सु�कर तुम �ाक-भौं लिसकोड़ोगी, मुझे कोसोगी, कलंनिक�ी कहोगी; पर जो चाहे कहो, मुझे परवा �हीं। आज चार दिद� होते हैं, मैं�े नित्रया-चरिरत्र का एक �या अक्षिभ�य निकया। हम दो�ों लिस�ेमा दे��े गये थे। वहाँ मेरी बगल में एक बंगाली बाबू बैठे हुए थे। निव�ोद लिस�ेमा में इस तरह बैठते हैं, मा�ो ध्या�ावस्था में हों। � बोल�ा, � चाल�ा! निफल्म इत�ी सुन्दर थी, ऐज्जिक्टंग इत�ी सजीव निक मेरे मुँह से बार-बार प्रशंसा के शब्द नि�कल जाते थे। बंगाली बाबू को भी बड़ा आ�न्द आ रहा था। हम दो�ों उस निफल्म पर आलोच�ाए ँकर�े लगे। वह निफल्म के भावों की इत�ी रोचक व्याख्या करता था निक म� मुग्ध हो जाता था। निफल्म से ज्यादा मजा मुझे उसकी बातों में आ रहा था। बह�, सच कहती हँू, शक्ल-सूरत में वह निव�ोद के तलुओं की बराबरी भी �हीं कर सकता, पर केवल निव�ोद को जला�े के लिलए मैं उससे मुस्करा-मुस्करा कर बातें कर�े लगी। उस�े समझा, कोई लिशकार फँस गया। अवकाश के समय वह बाहर जा�े लगा, तो मैं भी उठ �ड़ी हुई; पर निव�ोद अप�ी जगह पर ही बैठे रहे।

मैं�े —कहा बाहर चलते हो, मेरी तो बैठे-बैठे कमर दु� गयी। निव�ोद —बोले हाँ-हाँ चलो, इधर-उधर टहल आयें। मैं�े लापरवाही से —कहा तुम्हारा

जी � चाहे तो मत चलो, मैं मजबूर �हीं करती। निव�ोद निफर अप�ी जगह पर बैठते हुए —बोले अच्छी बात है। मैं बाहर आयी तो बंगाली बाबू �े —पूछा क्या आप यहीं की रह�े वाली हैं ? ‘मेरे पनित

यहाँ यूनि�वर्थिसंटी में प्रोफेसर ’हैं।‘अच्छा! वह आपके पनित थे। अजीब आदमी ’हैं।‘आपको तो मैं�े शायद यहाँ पहले ही दे�ा ’है।‘हाँ, मेरा मका� तो बंगाल में है। कंच�पुर के महाराज साहब का प्राइवेट सेके्रटरी हँू।

महाराजा साहब वाइसराय से मिमल�े आये हैं। ’‘तो अभी दो-चार दिद� रनिहएगा?’‘जी हाँ, आशा तो करता हँू। रहँू तो साल-भर रह जाऊँ। जाऊँ तो दूसरी गाड़ी से

चला जाऊँ। हमारे महाराजा साहब का कुछ ठीक �हीं। यों बडे़ सज्ज� और मिमल�सार हैं। आपसे मिमलकर बहुत �ुश होंगे।

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यह बातें करते-करते हम रेस्ट्राँ में पहुँच गये। बाबू �े चाय और टोस्ट लिलया। मैं�े लिसफF चाय ली।

‘तो इसी वक्त आपका महाराजा साहब से परिरचय करा दंू। आपको आश्चयF होगा निक मुकुटधारिरयों में भी इत�ी �म्रता और निव�य हो सकती है। उ�की बातें सु�कर आप मुग्ध हो

’जायँगी।मैं�े आई�े में अप�ी सूरत दे�कर —कहा जी �हीं, निफर निकसी दिद� पर रखि�ए।

आपसे तो अक्सर मुलाकात होती रहेगी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ �हीं आयीं ?युवक �े मुस्कराकर —कहा मैं अभी क्वाँरा हँू और शायद क्वाँरा ही रहँू?मैं�े उत्सुक होकर —पूछा अच्छा! तो आप भी स्त्रिस्त्रयों से भाग�े वाले जीवों में हैं।

इत�ी बातें तो हो गयी और आपका �ाम तक � पूछा। बाबू �े अप�ा �ाम भुव�मोह� दास गुप्त बताया। मैं�े अप�ा परिरचय दिदया। ‘जी �हीं, मैं उ� अभागों में हँू, जो एक बार नि�राश होकर निफर उसकी परीक्षा �हीं

करते। रूप की तो संसार में कमी �हीं, मगर रूप और गुण का मेल बहुत कम दे��े में आता है। जिजस रमणी से मेरा पे्रम था, वह आज एक बडे़ वकील की पत्�ी है। मैं गरीब था। इसकी सजा मुझे ऐसी मिमली निक जीव�पयFन्त � भूलेगी। साल-भर तक जिजसकी उपास�ा की, जब उस�े मुझे ध� पर बलिलदा� कर दिदया, तो अब और क्या आशा र�ूँ?

मैं�े हँसकर —कहा ‘आप�े बहुत जल्द निहम्मत हार ’दी। भुव� �े साम�े द्वार की ओर ताकते हुए —कहा मैं�े आज तक ऐसा वीर ही �हीं

दे�ा, जो रमक्षिणयों से परास्त � हुआ हो। ये हृदय पर चोट करती हैं और हृदय एक ही गहरी चोट सह सकता है। जिजस रमणी �े मेरे पे्रम को तुच्छ समझकर पैरों से कुचल दिदया, उसको मैं दिद�ा�ा चाहता हँू निक मेरी आँ�ों में ध� निकत�ी तुच्छ वस्तु है, यही मेरे जीव� का एकमात्र उदे्दcय है। मेरा जीव� उसी दिद� सफल होगा, जब निवमला के घर के साम�े मेरा निवशाल भव� होगा और उसका पनित मुझसे मिमल�े में अप�ा सौभाग्य समझेगा।

मैं�े गम्भीरता से —कहा यह तो कोई बहुत ऊँचा उदे्दcय �हीं है। आप यह क्यों समझते हैं निक निवमला �े केवल ध� के लिलए आपका परिरत्याग निकया। सम्भव है, इसके और भी कारण हों। माता-निपता �े उस पर दबाव डाला हो, या अप�े ही में उसे कोई ऐसी तु्रदिट दिद�लाई दी हो, जिजससे आपका जीव� दु:�मय हो जाता। आप यह क्यों समझते हैं निक जिजस पे्रम से वंलिचत होकर आप इत�े दु:�ी हुए, उसी पे्रम से वंलिचत होकर वह सु�ी हुई होगी। सम्भव था, कोई ध�ी स्त्री पाकर आप भी निफसल जाते।

भुव� �े जोर देकर —कहा यह असम्भव है, सवFथा असम्भव है। मैं उसके लिलए नित्रलोक का राज्य भी त्याग देता।

मैं�े हँसकर —कहा हाँ, इस वक्त आप ऐसा कह सकते हैं; मगर ऐसी परीक्षा में पड़कर आपकी क्या दशा होती, इसे आप नि�श्चयपूवFक �हीं बता सकते। लिसपाही की बहादुरी का प्रमाण उसकी तलवार है, उसकी जबा� �हीं। इसे अप�ा सौभाग्य समजिझए निक आपको उस परीक्षा में �हीं पड़�ा पड़ा। वह पे्रम, पे्रम �हीं है, जो प्रत्याघात की शरण ले। पे्रम का आदिद भी सहृदयता है और अन्त भी सहृदयता। सम्भव है, आपको अब भी कोई ऐसी बात मालूम हो जाय, जो निवमला की तरफ से आपको �मF कर दे।

भुव� गहरे निवचार में डूब गया। एक मिम�ट के बाद उन्हों�े लिसर उठाया। और बोले—‘मिमसेज निव�ोद, आप�े आज एक ऐसी बात सुझा दी, जो आज तक मेरे ध्या� में आयी ही � थी। यह भाव कभी मेरे म� में उदय ही �हीं हुआ। मैं इत�ा अ�ुदार क्यों हो गया, समझ में �हीं आता। मुझे आज मालूम हुआ निक पे्रम के ऊँचे आदशF का पाल� रमक्षिणयाँ ही कर सकती हैं। पुरुष कभी पे्रम के लिलए आत्म-समपFण �हीं कर सकता — वह पे्रम को स्वाथF और वास�ा से पृथक �हीं कर सकता। अब मेरा जीव� सु�मय हो जायगा। आप�े मुझे आज लिशक्षा दी है, उसके लिलए आपको धन्यवाद देता ’हँू।

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यह कहते-कहते भुव� सहसा चौंक पडे़ और —बोले ओह! मैं निकत�ा बड़ा मू�F —हँूसारा रहस्य समझ में आ गया, अब कोई बात लिछपी �हीं है। ओह, मैं�े निवमला के साथ घोर अन्याय निकया! महा�् अन्याय! मैं निबल्कुल अंधा हो गया था। निवमला, मुझे क्षमा करो।

भुव� इसी तरह देर तक निवलाप करते रहे। बार-बार मुझे धन्यवाद देते थे और मू�Fता पर पछताते थे। हमें इसकी सुध ही � रही निक कब घंटी बजी, कब �ेल शुरू हुआ। यकायक निव�ोद कमरे में आए। मैं चौंक पड़ी। मैं�े उ�के मु� की ओर दे�ा, निकसी भाव का पता � था। —बोले तुम अभी यही हो, पद्मा! �ेल शुरू हुए तो देर हुई! मैं चारों तरफ तुम्हें �ोज रहा था।

मैं हकबकाकर उठ �ड़ी हुई और —बोली �ेल शुरू हो गया? घंटी की आवाज तो सु�ायी ही �हीं दी।

भुव� भी उठे। हम निफर आकर तमाशा दे��े लगे। निव�ोद �े मुझे अगर इस वक्त दो-चार लग�े वाली बातें कह दी होतीं, उ�की आँ�ों में क्रोध की झलक दिद�ायी देती, तो मेरा अशान्त हृदय सँभल जाता, मेरे म� को ढाढ़स होती, पर उ�के अनिवचलिलत निवश्वास �े मुझे और भी अशांत कर दिदया। बह�, मैं चाहती हँू, वह मुझ पर शास� करें। मैं उ�की कठोरता, उ�की उद्दण्डता, उ�की बलिलष्ठता का रूप दे��ा चाहती हँू। उ�के पे्रम, प्रमोद, निवश्वास का रूप दे� चुकी। इससे मेरी आत्मा को तृप्तिप्त �हीं होती ! तुम उस निपता को क्यों कहोगी, जो अप�े पुत्र को अच्छा खि�लाये, अच्छा पह�ाये, पर उसकी लिशक्षा-दीक्षा की कुछ लिच�ता � करे; वह जिजस राह जाय, उस राह जा�े दे; जो कुछ करे, वह कर�े दे। कभी उसे कड़ी आँ� से दे�े भी �हीं। ऐसा लड़का अवcय ही आवारा हो जायगा। मेरा भी वही हाल हुआ जाता है। यह उदासी�ता मेरे लिलए असह्य है। इस भले आदमी �े यहाँ तक � पूछा निक भुव� कौ� है ? भुव� �े यही तो समझा होगा निक इसका पनित इसकी निबल्कुल परवाह �हीं करता। निव�ोद �ुद स्वाधी� रह�ा चाहते हैं, मुझे भी स्वाधी� छोड़ दे�ा चाहते हैं। वह मेरे निकसी काम में हस्तक्षेप �हीं कर�ा चाहते। इसी तरह चाहते हैं निक मैं भी उ�के निकसी काम में हस्तक्षेप � करँू मैं इस स्वाधी�ता को दो�ों ही के लिलए निवष तुल्य समझती हँू। संसार में स्वाधी�ता का चाहे जो भी मूल्य हो, घर में तो पराधी�ता ही फलती-फूलती है। मैं जिजस तरह अप�े एक जेवर को अप�ा समझती हँू, उसी तरह निव�ोद को अप�ा समझ�ा चाती हँू। अगर मुझसे पूछे निब�ा निव�ोद उसे निकसी को दे दें, तो मैं लड़ पड़ूगँी। मैं चाहती हँू, कहाँ हँू, क्या पढ़ती हँू, निकस तरह जीव� जीव� व्यतीत करती हँू, इ� सारी बातों पर उ�की तीव्र दृमिष्ट रह�ी चानिहए। जब वह मेरी परवाह �हीं करते, तो मैं उ�की परवाह क्यों करँू? इस �ींचाता�ी में हम एक-दूसरे से अलग होते चले जा रहे हैं और क्या कहूँ, मुझे कुछ �हीं मालूम निक वह निक� मिमत्रों को रोज पत्रा लिल�ते हैं। उन्हों�े भी मुझसे कभी कुछ �हीं पूछा। �ैर, मैं क्या लिल� रही थी, क्या कह�े लगी। निव�ोद �े मुझसे कुछ �हीं पूदा। मैं निफर भुव� से निफल्म के सम्बन्ध में बातें कर�े लगी।

जब �ेल �त्म हो गया और हम लोग बाहर आए और ताँगा ठीक कर�े लगे, तो भुव� �े —कहा ‘मैं अप�ी कार में आपको पहुँचा ’दँूगा।

हम�े कोई आपक्षित्त �हीं की। हमारे मका� का पता पूछकर भुव� �े कार चला दी। रास्ते में मैं�े भुव� से —कहा ‘कल मेरे यहाँ दोपहर का �ा�ा ’�ाइएगा। भुव� �े स्वीकार कर लिलया।

भुव� तो हमें पहुँचाकर चले गए, पर मेरा म� बड़ी देर तक उन्हीं की तरफ लगा रहा। इ� दो-ती� घंटों में भुव� को जिजत�ा समझी, उत�ा निव�ोद को आज तक �हीं समझी। मैं�े भी अप�े हृदय की जिजत�ी बातें उससे कह दीं, उत�ी निव�ोद से आज तक �हीं कहीं। भुव� उ� म�ुष्यों में है, जो निकसी पर पुरुष को मेरी कुदृमिष्ट डालते दे�कर उसे मार डालेगा। उसी तरह मुझे निकसी पुरुष से हँसते दे�कर मेरा �ू� पी लेगा और जरूरत पडे़गी, तो मेरे लिलए आग में कूद पडे़गा। ऐसा ही पुरुष-चरिरत्र मेरे हृदय पर निवजय पर सकता है।मेरे ही हृदय पर

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�हीं, �ारी-जानित (मेरे निवचार में) ऐसे ही पुरुष पर जा� देती हैं। वह नि�बFल है, इसलिलए बलवा�् का आश्रय ढँूढ़ती है।

बह�, तुम ऊब गई होगी, �त बहुत लम्बा हो गया; मगर इस काण्ड को समाप्त निकए निब�ा �हीं रहा जाता। मैं�े सबेरे ही से भुव� की दावत की तैयारी शुरू कर दी। रसोइया तो काठ का उल्लू है, मैं�े सारा काम अप�े हाथ से निकया। भोज� ब�ा�े में ऐसा आ�न्द मुझे और कभी � मिमला था।

भुव� बाबू की कार ठीक समय पर आ पहुँची। भुव� उतरे और सीधे मेरे कमरे में आए। दो-चार बातें हुईं। निड�र-टेबल पर जा बैठे। निव�ोद भी भोज� कर�े आए। मैं�े उ� दो�ों आदमिमयों का परिरचय करा दिदया। मुझे ऐसा मालूम हुआ निक निव�ोद �े भुव� की ओर से कुछ उदासी�ता दिद�ायी। इन्हें राजाओं-रईसों से लिचढ़ है, साम्यवादी हैं। जब राजाओं से लिचढ़ है तो उ�के निपट्ठठुओं से क्यों � होती। वह समझते हैं, इ� रईसों के दरबार में �ुशामदी, नि�कम्मे, लिसद्धान्तही�, चरिरत्रही� लोगों का जमघट रहता है, जिज�का इसके लिसवाय और कोई काम �हीं निक अप�े रईस की हर एक उलिचत-अ�ुलिचत इच्छा पूरी करें और प्रजा का गला काटकर अप�ा घर भरें। भोज� के समय बातचीत की धारा घूमते-घूमते निववाह और पे्रम-जैसे महत्त्व के निवषय पर आ पहुँची।

निव�ोद �े —कहा ‘�हीं, मैं वतFमा� वैवानिहक प्रथा को पसन्द �हीं करता। इस प्रथा का आनिवष्कार उस समय हुआ था, जब म�ुष्य सभ्यता की प्रारश्किम्भक दशा में था। तब से दुनि�यां बहुत आगे बढ़ी है। मगर निववाह प्रथा में जौ-भर भी अन्तर �हीं पड़ा। यह प्रथा वतFमा� काल के लिलए इपयोगी ’�हीं।

भुव� �े —कहा ‘आखि�र आपको इसमें क्या दोष दिद�ाई देते हैं ?निव�ोद �े निवचारकर —कहा ‘इसमें सबसे बड़ा ऐब यह है निक यह एक सामाजिजक प्रश्न

को धार्मिमंक रूप दे देता ’है।‘और दूसरा?’‘दूसरा यह निक यह व्यलिक्तयों की स्वाधी�ता में बाधक हैं। यह स्त्रीव्रत और पनितव्रत

का स्वाँग रचकर हमारी आत्मा को संकुलिचत कर देता है। हमारी बुजिद्ध के निवकास में जिजत�ी रुकावट इस प्रथा �े डाली है, उत�ी और निकसी भौनितक या दैनिवक क्रांनित से भी �हीं हुई। इस�े मिमर्थ्यया आदश� को हमारे साम�े र� दिदया और आज तक हम उन्हीं पुरा�ी, सड़ी हुई, लज्जाज�क पाशनिवक लकीरों को पीटते जाते हैं। व्रत केवल एक नि�रथFक बंध� का �ाम है। इत�ा महत्त्वपूणF �ाम देकर हम�े उस कैद को धार्मिमंक रूप दे दिदया है। पुरुष क्यों चाहता है निक स्त्री उसको अप�ा ईश्वर, अप�ा सवFस्व समझे ? केवल इसलिलए निक वह उसका भरण-पोषण करता है। क्या स्त्री का कत्तFव्य केवल पुरुष की सम्पक्षित्त के लिलए वारिरस पैदा कर�ा है? उस सम्पक्षित्त के लिलए जिजस पर, निहन्दू �ीनितशास्त्र के अ�ुसार, पनित के देहान्त के बाद उसका कोई अमिधकार �हीं रहता। समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा संगठ� सम्पक्षित्त-रक्षा के आधार पर हुआ है। इस�े सम्पक्षित्त को प्रधा� और व्यलिक्त को गौण कर दिदया है। हमारे ही वीयF से उत्पन्न सन्ता� हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग करे, इस म�ोभाव में निकत�ी स्वाथाFन्धता, निकत�ा दासत्व लिछपा हुआ है, इसका कोई अ�ुमा� �हीं कर सकता। इस कैद में जकड़ी हुई समाज की सन्ता� यदिद आज घर में, देश में, संसार में, अप�े कू्रर स्वाथF के लिलए रक्त की �दिदयाँ बहा रही है, तो क्या आश्चयF है। मैं इस वैवानिहक प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता हँू।

भुव� चनिकत हो गया। मैं �ुद चनिकत हो गई। निव�ोद �े इस निवषय पर मुझसे कभी इत�ी स्पष्टता से बातचीत � की थी। मैं यह तो जा�ती थी, वह साम्यवादी हैं, दो-एक बार इस निवषय पर उ�से बहस भी कर चुकी हँू , पर वैवानिहक प्रथा के वे इत�े निवरोधी हैं, यह मुझे मालूम � था। भुव� के चेहरे से ऐसा प्रकट होता था निक उन्हों�े ऐसे दाशFनि�क निवचारों की गंध तक �हीं पाई। जरा देर के बाद —बोले प्रोफेसर साहेब, आप�े तो मुझे एक बडे़

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चक्कर में डाल दिदया। आखि�र आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा र��ा चाहते हैं या निववाह की आवcयकता ही �हीं समझते ? जिजस तरह पशु-पक्षी आपस में मिमलते हैं, वह हमें भी कर�ा चानिहए?

निव�ोद �े तुरंत उत्तर —दिदया बहुत कुछ। पशु-पखि�यों में सभी का मा�लिसक निवकास एक-सा �हीं है। कुछ ऐसे हैं, जो जोडे़ के चु�ाव में कोई निवचार �हीं र�ते। कुछ ऐसे हैं, जो एक बार बचे्च पैदा कर�े के बाद अलग हो जाते हैं, और कुछ ऐसे हैं, जो जीव�पयFन्त एक साथ रहते हैं। निकत�ी ही क्षिभन्न-क्षिभन्न श्रेक्षिणयाँ हैं। मैं म�ुष्य हो�े के �ाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता हँू, जो जीव�पयFन्त एक साथ रहते हैं। मगर स्वेच्छा से। उ�के यहाँ कोई कैद �हीं, कोई सजा �हीं। दो�ों अप�े-अप�े चारे-दा�े की निफक्र करते हैं। दो�ों मिमलकर रह�े का स्था� ब�ाते हैं, दो�ों साथ बच्चों का पाल� करते हैं। उ�के बीच में कोई तीसरा �र या मादा आ ही �हीं सकता, यहाँ तक निक उ�में से जब एक मर जाता है तो दूसरा मरते दम तक फुटै्टल रहता है। यह अने्धर म�ुष्य-जानित ही में है निक स्त्री �े निकसी दूसरे पुरुष से हँसकर बात की और उसके पुरुष की छाती पर साँप लोट�े लगा, �ू�-�राबे के मंसूबे सोचे जा�े लगे। पुरुष �े निकसी दूसरी स्त्री की ओर रलिसक �ेत्रों से दे�ा और अधाµनिग�ी �े त्योरिरयाँ बदलीं, पनित के प्राण ले�े को तैयार हो गई। यह सब क्या है ? ऐसा म�ुष्य-समाज सभ्यता का निकस मुँह से दावा कर सकता है ?

भुव� �े लिसर सहसलाते हुए —कहा मगर म�ुष्यों में भी तो क्षिभन्न-क्षिभन्न श्रेक्षिणयाँ हैं। कुछ लोग हर मही�े एक �या जोड़ा �ोज नि�कालेंगे।

निव�ोद �े हँसकर —कहा लेनिक� यह इत�ा आसा� काम � होगा। या तो वह ऐसी स्त्री चाहेगा, जो सन्ता� का पाल� स्वयं कर सकती हो या उसे एक मुcत सारी रकम अदा कर�ा पडे़गी !

भुव� भी —हँसे आप अप�े को निकस श्रेणी में रक्�ेंगे?निव�ोद इस प्रश्न के लिलए तैयार � थ। था भी बेढंगा-सा सवाल। झेंपते हुए —बोले

परिरज्जिस्थनितयाँ जिजस श्रेणी में ले जायँ। मैं स्त्री और पुरुष दो�ों के लिलए पूणF स्वाधी�ता का हामी हँू। कोई कारण �हीं है निक मेरा म� निकसी �वयौव�ा की ओर आकर्तिषंत हो और वह भी मुझे चाहे तो भी मैं समाज और �ीनित के भय से उसकी ओर ताक � सकँू। मैं इसे पाप �हीं समझता।

भुव� अभी कुछ उत्तर � दे�े पाये थे निक निव�ोद उठ �डे़ हुए। कालेज के लिलए देर हो रही थी। तुरन्त कपडे़ पह�े और चल दिदये। हम दो�ों दीवा��ा�े में आकर बैठे और बातें कर�े लगे।

भुव� �े लिसगार जलाते हुए —कहा ‘कुछ सु�ा’ कहाँ जाकर ता� टूटी?मैं�े मारे शमF के लिसर झुका लिलया। क्या जवाब देती। निव�ोद की अप्तिन्तम बात �े मेरे

हृदय पर कठोर आघात निकया था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था निक निव�ोद �े केवल मुझे सु�ा�े के लिलए निववाह का यह �या �ण्ड� तैयार निकया है। वह मुझसे निपंड छुड़ा ले�ा चाहते हैं। वह निकसी रमणी की ताक में हैं, मुझसे उ�का जी भर गया। वह ख्याल करके मुझे बड़ा दु:� हुआ। मेरी आँ�ों से आँसू बह�े लगे। कदालिचत् एकांत में मैं � रोती, पर भुव� के साम�े मैं संयत � रह सकी। भुव� �े मुझे बहुत सांत्व�ा —दी ‘आप व्यथF इत�ा शोक करती हैं। मिमस्टर निव�ोद आपका मा� � करें; पर संसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यलिक्त है, जो आपके संकेत पर अप�े प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रत्� पाकर संसार में ऐसा कौ� पुरुष है, जो अप�े भाग्य को धन्य � मा�ेगा। आप इसकी निबलकुल लिचन्ता � ’करें।

मुझे भुव� की यह बात बुरी मालूम हुई। क्रोध से मेरा मु� लाल हो गया। यह धूतF मेरी इस दुबFलता से लाभ उठाकर मेरा सवF�ाश कर�ा चाहता है। अप�े दुभाFग्य पर बराबर रो�ा आता था। अभी निववाह हुए साल भी �हीं पूरा हुआ, मेरी यह दशा हो गई निक दूसरों को

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मुझे बहका�े और मुझ पर अप�ा जादू चला�े का साहस हो रहा है। जिजस वक्त मैं�े निव�ोद को दे�ा था, मेरा हृदय निकत�ा फूल उठा था। मैं�े अप�े हृदय को निकत�ी भलिक्त से उ�के चरणों पर अपFण निकया था। मगर क्या जा�ती थी निक इत�ी जल्द मैं उ�की आँ�ों से निगर जाऊँगी और मुझे परिरत्यक्ता समझ, निफर शोहदे मुझ पर डोरे डालेंगे।

मैं�े आँसू पोंछते हुए —कहा मैं आपसे क्षमा माँगती हँू। मुझे जरा निवश्राम ले�े दीजिजए।

‘हाँ-हाँ, आराम करें; मैं बैठा दे�ता ’रहँूगा।‘जी �हीं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मुझे आराम � ’मिमलेगा।‘अच्छी बात है, आप आराम कीजिजए। मैं सन्ध्या-समय आकर दे� ’जाऊँगा।‘जी �हीं, आपको कष्ट कर�े की कोई जरूरत �हीं ’है।‘अच्छा तो मैं कल जाऊँगा। शायद महाराजा साहब भी ’आवें।‘�हीं, आप लोग मेरे बुला�े का इन्तजार कीजिजएगा। निब�ा बुलाये � ’आइएगा।‘यह कहती हुई मैं उठकर अप�े सो�े के कमरे की ओर चली। भुव� एक क्षण मेरी

ओर दे�ता रहा, निफर चुपके से चला गया। बह�, इसे दो दिद� हो गये हैं। पर मैं कमरे से बाहर �हीं नि�कली। भुव� दो-ती� बार

आ चुका है, मगर मैं�े उससे मिमल�े से साफ इ�कार कर दिदया। अब शायद उसे निफर आ�े का साहस � होगा। ईश्वर �े बडे़ �ाजुक मौके पर मुझे सुबुजिद्ध प्रदा� की, �हीं तो मैं अब तक अप�ा सवF�ाश कर बैठी होती। निव�ोद प्राय: मेरे पास ही बैठे रहते हैं। लेनिक� उ�से बोल�े को मेरा जी �हीं चाहता। जो पुरुष व्यक्षिभचार का दाशर्ति�ंक लिसद्धांतों से समथ�F कर सकता है, जिजसकी आँ�ों में निववाह-जैसे पनिवत्र बन्ध� को कोई मूल्य �हीं, जो � मेरा हो सकता है, � मुझे अप�ा ब�ा सकता है, उसके साथ मुझ-जैसी मानि��ी गर्तिवंणी स्त्री का कै दिद� नि�वाF होगा!

बस, अब निवदा होती हँू। बह�, क्षमा कर�ा। मैं�े तुम्हारा बहुत-सा अमूल्य समय ले लिलया। मगर इत�ा समझ लो निक मैं तुम्हारी दया �हीं, सहा�ुभूनित चाहती हँू।

तुम्हारी, पद्मा

10काशी

5-1-26बह�,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे ऐसा मालूम हुआ निक कोई उपन्यास पढ़कर उठी हंू। अगर तुम उपन्यास लिल�ों, तो मुझें निवश्वास है, उसकी धूम मच जाय। तुम आप उसकी �ामियका ब� जा�ा। तुम ऐसी-ऐसी बातें कहॉँ सी� गयी, मुझें तो यही आश्चयF है। उस बंगाली के साथ तुम अकेली कैसी बैठी बातें करती रहीं, मेरी तो समझ �हीं आता। मैं तो कभी � कर सकती। तुम निव�ोद को जला�ा चाहती हो, उ�के लिचत्त को अशांत कर�ा चाहती हो। उस गरीब के साथ तुम निकत�ा भयंकर अन्याय कर रही हो ! तुम यह क्यों समझती हो निक निव�ोद तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अप�े निवचारों में इत�े मग्� है निक उ�की रुलिच ही �हीं रही। संभव है, वह कोई दाशFनि�क तत्व �ोज रहें हो, कोई थीलिसस लिल� रहीं हो, निकसी पुस्तक की रच�ा कर रहे हों। कौ� कह सकता है ? तुम जैसी रुपवती स्त्री पाकर यदिद कोई म�ुष्य लिचप्तिन्तत रहे, तो समझ लो निक उसके दिदल पर कोई बड़ा बोझ हैं। उ�को तुम्हारी सहा�ुभूनित की जरुरत है, तुम उ�का बोझ हलका कर सकती हों। लेनिक� तुम उलटे उन्हीं को दोष देती हों। मेरी समझ में �ही आता निक तुम एक दिद� क्यों निव�ोद से दिदल �ोलकर बातें �हीं कर लेती, संदेह को जिजत�ी जल्द हो सकें , दिदल से नि�काल डाल�ा चानिहए। संदेह वह चोट है, जिजसका

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उपच जल्द � हो, तो �ासूर पड़ जाता है और निफर अच्छा �हीं होता। क्यों दो-चार दिद�ों के लिलए यहॉँ �हीं चली आतीं ? तुम शायद कहो, तू ही क्यों �हीं चली आती। लेनिक� मै स्वतन्त्र �ही हँू, निब�ा सास-ससुर से पूछे कोई काम �हीं कर सकती। तुम्हें तो कोई बंध� �हीं है।

बह�, आजकल मेरा जीव� हषF और शोक का निवलिचत्र मिमश्रण हो रहा हैं। अकेली होती हँू, तो रोती हंू, आ�न्द आ जाते है तो हॅंसती हँू। जी चाहता है, वह हरदम मेरे साम�े बैठे रहते। लेनिक� रात के बारह बजे के पहले उ�के दशF� �हीं होते। एक दिद� दोपहर को आ गयें, तो सासजी �े ऐसा डॉंटा निक कोई बचे्च को क्या डॉंटेगा। मुझें ऐसा भय हो रहा है निक सासजी को मुझसे लिचढ़ हैं। बह�, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न र��े की चेष्टा करती हँू। जो काम कभी � निकये थे, वह उ�के लिलए करती हँू, उ�के स्�ा� के लिलए पा�ी गमF करती हँू, उ�की पूजा के लिलए चौकी निबछाती हँू। वह स्�ा� कर लेती हैं, तो उ�की धोती छॉँटती हँू, वह लेटती हैं तो उ�के पैर दबाती हँू; जब वह सो जाती है तो उन्हें पं�ा झलती हँू। वह मेरी माता हैं, उन्ही के गभF से वह रत्� उत्पन्न हुआ है जो मेरा प्राणधार है। मै उ�की कुछ सेवा कर सकँू, इससे बढकर मेरे लिलए सौभाग्य की और क्या बात होगी। मैं केवल इत�ा ही चाहती हँू निक वह मुझसे हँसकर बोले, मगर � जा�े क्यों वह बात-बात पर मुझे कोस�े दिदया करती हैं। मैं जा�ती हँू, दोष मेरा ही हैं। हॉँ, मुझे मालूम �हीं, वह क्या हैं। अगर मेरा यही अपराध है निक मैं अप�ी दो�ों �न्दों से रुपवती क्यों हँू, पढ़ी-लिल�ी क्यों हँू, आन्नद मुझें इत�ा क्यों चाहते हैं, तो बह�, यह मेरे बस की बात �ही। मेरे प्रनित सासजी को भ्रम होता होगा निक मैं ही आन्नद को भरमा रहीं हँू। शायद वह पछताती है निक क्यों मुझें बहू ब�ाया ! उन्हे भय होता है निक कहीं मैं उ�के बैटे को उ�से छी� � लूँ। दो-एक बार मुझे जादूगर�ी कही चुकी हैं। दो�ों ��दें अकारण ही मुझसे जलती रहती है। बड़ी ��दजी तो अभी कलोर हैं, उ�का जल�ा मेरी समझ में �ही आता। मैं उ�की जगह होती,तो अप�ी भावज से कुछ सी��े की, कुछ पढ़�े की कोलिशश करती, उ�के चरण धो-धोकर पीती, पर इस छोकरी को मेरा अपमा� कर�े ही में आन्नद आता हैं। मैं जा�ती हँू, थोडे़ दिद�ों में दो�ों ��दें लज्जिज्जत होंगी। हॉँ, अभी वे मुझसे निबचकती हैं। मैं अप�ी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न हो�े को कोई अवसर �हीं देती।

मगर रुप को क्या करँु। क्या जा�ती थी निक एक दिद� इस रुप के कारण मैं अपरामिध�ी ठहरायी जाऊँगी। मैं सच कहती हँू बह�, यहाँ मै�े लिसगांर कर�ा एक तरह से छोड़ ही दिदया हैं। मैली-कुचैली ब�ी बेठी रहती हँू। इस भय से निक कोई मेरे पढ़�े-लिल��े पर �ाक � लिसकोडे़, पुस्तकों को हाथ �हीं लगाती। घर से पुस्तकों का एक गटठर बॉँध लायी थी। उसमें कोई पुस्तकें बड़ी सुन्दर हैं। उन्हें पढ़�े के लिलए बार-बार जी चाहता हैं, मगर छरती हँू निक कोई ता�ा � दे बैठे। दो�ों ��दें मुझें दे�ती रहती हैं निक यह क्या करती हैं, कैसे बैठती है, कैसे बोलती है, मा�ो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा दिदए गए हों। इ� दो�ों मनिहलाओं को मेरी बदगोई में क्यों इत�ा मजा आता हैं, �ही कह सकती। शायद आजकल उन्हे लिसवा दूसरा काम ही �हीं। गुस्सा तो ऐसा आता हैं निक एक बार जिझढ़क दँू, लेनिक� म� को समझाकर रोक लेती हँू। यह दशा बहुत दिद�ों �हीं रहेगी। एक �ए आदमी से कुछ निहचक हो�ा स्वाभानिवक ही है, निवशेषकर जब वह �या आदमी लिशक्षा और निवचार व्यवहार में हमसे अलग हो। मुझी को अगर निकसी फ्रें च लेडी के साथ रह�ा पडे़, तो शायद मे भी उसकी हरएक बात को आलोच�ा और कुतूहल की दृमिष्ट से दे��े लगूँ। यह काशीवासी लोग पूजा-पाठ बहुत करते है। सासजी तो रोज गंगा-स्�ा� कर�े जाती हैं। बड़ी ��द भी उ�के साथ जाती है। मै�े कभी पूजा �हीं की। याद है, हम और तुम पूजा कर�े वालों को निकत�ा ब�ाया करती थी। अगर मै पूजा कर�े वालों का चरिरत्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मै भी पूजा करती होती। लेनिक� मुझे तो कभी ऐसा अ�ुभव प्राप्त �हीं हुआ, पूजा कर�े वालिलयॉँ भी उसी तरह दूसरों की नि�न्दा करती हैं, उसी तरह आपस में लड़ती-झगड़ती हैं, जैसे वे जो कभी पूजा �हीं करतीं। �ैर, अब मुझे धीरे-धीरे पूजा से श्रद्धा होती जा रही हैं। मेरे ददिदया ससुरजी �े एक छोटा-सा ठाकुरद्वारा ब�वा दिदया था। वह मेरे घर के साम�े ही हैं। मैं अक्सर

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सासजी के साथ वहॉँ जाती हँू और अब यह कह�े में मुझे कोई संकोच �हीं निक उ� निवशाल मूर्तितंयों के दशF� से मुझे अप�े अतस्तल में एक ज्योनित का अ�ुभव होता है। जिजत�ी अश्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के जीव� की आलोच�ा निकया करती थी, वह बहुत कुछ मिमट चुकी हैं।

लेनिक� रुपवती हो�े का दण्ड यहीं तक बस �हीं है। ��दें अगर मेरे रुप कों दे�कर जलती हैं, तो यह स्वाभानिवक हैं। दु:�ी तो इस बात का है निक यह दण्ड मुझे उस तरफ से भी मिमल रहा है, जिजधर से इसकी कोई संभाव�ा � हो�ी —चानिहए मेरे आ�न्द बाबू भी मुझे इसका दण्ड दे रहे है। हॉँ, उ�की दण्ड�ीनित एक नि�राले ही ढग की हैं। वह मेरे पास नि�त्य ही कोई-�-कोई सौगात लाते रहते है। वह जिजत�ी देर मेरे पास रहते है। उ�के म� में यह संदेह होता रहता है निक मुझे उ�का रह�ा अच्छा �हीं लगता। वह समझते है निक मैं उ�से जो पे्रम करती हँू, यह केवल दिद�ावा है, कोशल है।। वह मेरे साम�े कुछ ऐसे दबे-दबायें, लिसमटे-लिसमटायें रहते है निक मैं मारे लज्जा के मर जाती हँू। उन्हें मुझसे कुछ कहते हुए ऐसा संकोच होता है, मा�ो वह कोई अ�ामिधकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैले-कुचैले कपडे़ पह�े हुए कोई आदमी उज्जवल वस्त्र पह��े वालों से दूर ही रह�ा चाहता है, वही दशा इ�की है। वह शायद समझते हैं निक निकसी रुपवती स्त्री को रूपही� पुरुष से पे्रम हो ही �हीं सकता। शायद वह दिदल में पछतातें है निक क्यों इससे निववाह निकया। शायद उन्हें अप�े ऊपर ग्लानि� होती है। वह मुझे कभी रोते दे� लेते है, तो समझते है। मैं अप�े भाग्य को रों रही हँू, कोई पत्र लिल�ते दे�ते हैं, तो समझते है, मैं उ�की रुपही�ता ही का रो�ा रो रही हँू। क्या कहूँ बह�, यह सौन्दयF मेरी जा� का गाहक हो गया। आ�न्द के म� से शंका को नि�काल�े और उन्हें अप�ी ओर से आश्वास� दे�े के लिलए मुझे ऐसी-ऐसी बातें कर�ी पड़ती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण कर�े पड़ते हैं, जिज� पर मुझे घृणा होती हैं। अगर पहले से यह दशा जा�ती, तो ब्रह्मा से कहती निक मुझे कुरूपा ही ब�ा�ा। बडे़ असमंजस में पड़ी हँू! अगर सासजी की सेवा �हीं करती, बड़ी ��दजी का म� �हीं र�ती, तो उ�की ऑं�ों से निगरती हँू। अगर आ�न्द बाबू को नि�राश करती हँू, तो कदालिचत् मुझसे निवरक्त ही हो जायँ। मै तुमसे अप�े हृदय की बात कहती हँू। बह�, तुमसे क्या पदाF र��ा है; मुझे आ�न्द बाबू से उत�ा पे्रम है, जो निकसी स्त्री को पुरूष से हो सकता है, उ�की जगह अब अगर इन्द्र भी साम�े आ जायँ, तो मै उ�की ओर ऑ� उठाकर � दे�ँू। मगर उन्हें कैसे निवश्वास दिदलाऊँ। मै दे�ती हँू, वह निकसी � निकसी बहा�े से बार-बार घर मे आते है और दबी हुई, ललचाई हुई �जरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर दे�ते है, तो जी चाहता है, जाकर उ�का हाथ पकड़ लूँ और अप�े कमरे में �ींच ले आऊँ। मगर एक तो डर होता है निक निकसी की ऑं� पड़ गयी, तो छाती पीट�े लगेगी, और इससे भी बड़ा डर यह निक कहीं आ�न्द इसे भी कौशल ही � समझ बैठे। अभी उ�की आमद�ी बहुम कम है, लेनिक� दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उड़ाते हैं। अगर पे्रमोपहार-स्वरूप वह धेले की कोई चीज दें, तो मैं उसे ऑं�ों से लगाऊँ, लेनिक� वह कर-स्वरूप देते हैं, मा�ो उन्हें ईश्वर �े यह दण्ड दिदया हैं। क्या करँू, अब मुझे भी पे्रम का स्वॉँग कर�ा पडे़गा। पे्रम-प्रदशF� से मुझे लिचढ़ हैं। तुम्हें याद होगा, मै�े एक बार कहा था निक पे्रम या तो भीतर ही रहेगा या बाहर ही रहेगा। समा� रूप से वह भीतर और बाहर दो�ों जगह �हीं रह सकता। सवॉँग वेcयाओं के लिलए है, कुलवंती तो पे्रम को हृदय ही में संलिचत र�ती हैं!

बह�, पत्र बहुत लम्बा हो गया, तुम पढ़ते-पढ़ते ऊब गयी होगी। मैं भी लिल�ते-लिल�ते थक गयी। अब शेष बातें कल लिल�ँूगी। परसों यह पत्र तुम्हारे पास पहूँचेगा।

X X X

बह�, क्षमा कर�ा; कल पत्र लिल��े का अवसर �हीं मिमला। रात एक ऐसी बात हो गयी, जिजससे लिचत्त अशान्त उठा। बड़ी मुश्किcकलों से यह थोड़ा-सा समय नि�काल सकी हँू। मै�े अभी तक आ�न्द से घर के निकसी प्राणी की लिशकायत �हीं की थी। अगर सासजी �े कोई बात की दी या ��दजी �े कोई ता�ा दे दिदया; तो इसे उ�के का�ों तक क्यों पहुँचाऊँ। इसके

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लिसवा निक गृह-कलह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आयेगा। इन्हीं जरा-जरा सी बातों को � पेट में डाल�े से घर निबगड़ते हैं। आपस में वैम�स्य बढ़ता हैं। मगर संयोग की बात, कल अ�ायास ही मेरे मुंह से एक बात नि�कल गयी जिजसके लिलये मै अब भी अप�े को कोस रहीं हँू, और ईश्वर से म�ाती हँू निक वह आगे � बढे़। बात यह हुई निक कल आन्नद बाबू बहुत देर करके मेरे पास आये। मैं उ�के इन्तार में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी �े आकर —पूछा क्या अभी तक निबजली जल रही है? क्या वह रात-भर � आयें, तो तुम रात-भर निबजली जलाती रहोगी?

मै�ें उसी वक्त बत्ती ठण्डी कर दी। आ�न्द बाबू थोड़ी ही देर मे आयें, तो कमरा अँधेरा पड़ा था �-जा�े उस वक्त मेरी मनित निकत�ी मन्द हो गयी थी। अगर मै�े उ�की आहट पाते ही बत्ती जला दी होती, तो कुछ � होता, मगर मैं अँधेरे में पड़ी रहीं। उन्हो�ें —पूछा क्या सो गयीं? यह अधेरा क्यों पड़ा हुआ है?

हाय! इस वक्त भी यदिद मै�े कह दिदया होता निक मै�े अभी बती गुल कर दी तो बात ब� जाती। मगर मेरे मुँह से —‘नि�कला सांसजी का हुक्म हुआ निक बत्ती गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात-भर � आओ, तो क्या रातभर बत्ती जलती रहें?’

‘तो अब तो जला दो। मै रोश�ी के साम�े से आ रहा हँू। मुझे तो कुछ सूझता ही ’�हीं।

‘मै�े अब बट� को हाथ से छू�े की कसम �ा ली है। जब जरूरत पड़गी; तो मोम की बत्ती जला लिलया करँूगी। कौ� मुफ्त में घुडनिकयॉँ सहें।’

आन्नद �े निबजली का बट� दबाते हुए —कहा ‘और मै�े कसम �ा ली निक रात-भर बत्ती जलेगी, चाहे निकसी को बुरा लगे या भला। सब कुछ दे�ता हँू, अन्धा �हीं हँू। दूसरी बहू आकर इत�ी सेवा करेगी तो दे�ँूगा; तुम �सीब की �ोटी हो निक ऐसे प्राक्षिणयों के पाले पड़ी। निकसी दूसरी सास की तुम इत�ी खि�दमत करतीं, तो वह तुम्हें पा� की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिलए रहती, मगर यहॉँ चाहे प्राण ही दे दे, निकसी के मुँह से सीधी बात � ’नि�कलेगी।

मुझे अप�ी भूल साफ मालूम हो गयी। उ�का क्रोध शान्त कर�े के इरादे से —बोलीगलती भी तो मेरी ही थी निक व्यथF आधी रात तक बत्ती जलायें बैठी रही। अम्मॉँजी �े गुल कर�े को कहा, तो क्या बुरा कहा ? मुझे समझा�ा, अच्छी सी� दे�ा, उ�का धमF हैं। मेरा धमF यही है निक यथाशलिक्त उ�की सेवा करँू और उ�की लिशक्षा को निगरह बाँधँू।

आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे। निफर —बोले मुझे मालूम हो रहा है निक इस घर में मेरा अब गुजर � होगा। तुम �हीं कहतीं, मगर मै सब कुछ सु�ता रहता हँू। सब समझता हँू। तुम्हें मेरे पापों का प्रायक्षिश्चत कर�ा पड़ रहा हैं। मै कल अम्मॉँजी से साफ-साफ कह —‘दँूगा अगर आपका यही व्यवहार है, तो आप अप�ा घर लीजिजए, मै अप�े लिलए कोई दूसरी राह नि�काल ’लूँगा।

मैं�े हाथ जोड़कर निगड़निगड़ाते हुए —कहा �हीं-�हीं। कहीं ऐसा गजब भी � कर�ा। मेरे मुँह में आग लगे, कहॉँ से कहाँ बत्ती का जिजकर कर बैठी। मैं तुम्हारे चरण छूकर कहती हँू, मुझे � सासजी से कोई लिशकायत है, � ��दजी से, दो�ों मुझसे बड़ी है, मेरी माता के तुल्य हैं। अगर एक बात कड़ी भी कह दें, तो मुझे सब्र कर�ा चानिहए! तुम उ�से कुछ � कह�ा �हीं तो मझे बड़ा दु:� होगा।

आ�न्द �े रँुधे कंठ से —कहा तुम्हारी-जैसी बहू पाकर भी अम्मॉँजी का कलेजा �हीं पसीजता, अब क्या कोई स्वगF की देवी घर में आती? तुम डरो मत, मैं ख्वाहमख्वाह लड़ूगँा �हीं। मगर हॉँ, इत�ा अवcय कह दँूगा निक जरा अप�े मिमजाज को काबू में र�ें। आज अगर मै दो-चार सौ रुपयें घर में लाता होता, तो कोई चूँ � करता। कुछ कमाकर �हीं लाता, यह उसी का दण्ड है। सच पूछों, तो मुझे निववाह कर�े का कोई अमिधकार ही � था। मुझ-जैसे मन्द बुजिद्ध को, जो कौड़ी कमा �हीं सकता, उसे अप�े साथ निकसी मनिहला को डुबा�े का क्या हक था! बह�जी को �-जा�े क्या सूझी है निक तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं। ससुराल का

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सफाया कर दिदया, अब यहॉँ भी आग लगा�े पर तुली हुई है। बस, निपताजी का लिलहाज करता हँू, �हीं इन्हें तो एक दिद� में ठीक कर देता।

बह�, उस वक्त तो मै�े निकसी तरह उन्ही शान्त निकया, पर �हीं कह सकती निक कब वह उबल पडे़। मेरे लिलए वह सारी दुनि�यां से लड़ाई मोल ले लेगें। मै जिज� परिरज्जिस्थतयों में हँू, उ�का तुम अ�ुमा� कर सकती हो। मुझ पर निकत�ी ही मार पडे़ मुझे रो�ा � चानिहए, जबा� तक � निहला�ा चानिहए। मैं रोयी और घर तबाह हुआ। आ�न्द निफर कुछ � सु�ेगे, कुछ � दे�ेगें। कदालिचत इस उपाय से वह अप�े निवचार मे मेरे हृदय में अप�े पे्रम का अंकुर जमा�ा चाहते हो। आज मुझे मालूम हुआ निक यह निकत�े क्रोधी हैं। अगर मै�े जरा-सा पुचार दे दिदया होता, तो रात ही को वह सासजी की �ोपड़ी पर जा पहुँचते। निकत�ी युवनितयॉँ इसी अमिधकार के गवF में अप�े को भूल जाती हैं। मै तो बह�, ईश्वर �े चाहा तो कभी � भूलूँगी। मुझे इस बात का डर �हीं है निक आ�न्द अलग घर ब�ा लेगें, तो गुजर कैसे होगा। मै उ�के साथ सब-कुछ झेल सकती हँू। लेनिक� घर तो तबाह हो जायेगा।

बस, प्यारी पद्मा, आज इत�ा ही। पत्र का जवाब जल्द दे�ा।

तुम्हारी,चन्दा

11दिदल्ली

5-2-26प्यारी चन्दा,

क्या लिल�ँू, मुझ पर तो निवपक्षित्त का पहाड़ टूट पड़ा! हाय, वह चले गए। मेरे निव�ोद का ती� दिद� से पता —�हीं नि�म§ही चला गया, मुझे छोड़कर निब�ा कुछ कहे-सु�े चला गया—अभी तक रोयी �हीं। जो लोग पूछ�े आते हैं, उ�से बहा�ा कर देती हँू —निक दो-चार दिद� में आयेंगे, एक काम से काशी गये हैं। मगर जब रोऊँगी तो यह शरीर उ� ऑंसुओं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे निवसर्जिजंत हो जायँगे। छलिलयें �े मुझसे कुछ भी �हीं कहा, रोज की तरह उठा, भोज� निकया, निवद्यालय गया; नि�यत समय पर लौटा, रोज की तरह मुसकराकर मेरे पास आया। हम दो�ों �े जलपा� निकया, निफर वह दैनि�क पत्र पढ़�े लगा, मैं टेनि�स �ेल�े चली गयी। इधर कुछ दिद�ो से उन्हें टेनि�स से कुछ पे्रम � रहा था, मैं अकेली ही जाती। लौटी, तो रोज ही की तरह उन्हें बरामदे में टहलते और लिसगार पीते दे�ा। मुझे दे�ते ही वह रोज की तरह मेरा ओवरकोट लाये और मेरे ऊपर डाल दिदया। बरामदे से �ीचे उतरकर �ुले मैदा� मे हम टहल�े लगे। मगर वह ज्यादा बोले �हीं, निकसी निवचार में डूबे रहें। जब ओस अमिधक पड़�े लगी, तो हम दो�ों निफर अन्दर चले आयें। उसी वक्त वह बंगाली मनिहला आ गयी, जिज�से मै�े वीणा सी��ा शुरू निकया है। निव�ोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे। संगीत उन्हें निकत�ा निप्रय है, यह तुम्हें लिल� चुकी हँू। कोई �यी बात �हीं हुई। मनिहला के चले जा�े के बाद हम�े साथ-ही-साथ भोज� मियका निफर मै अप�े कमरे में लेट�े आयी। वह रोज की तरह अप�े कमरे मे लिल��े-पढ़�े चले गयें! मैं जल्द ही सो गयी, लेनिक� बे�बर पड़ी रहँू, उ�की आहट पाते ही आप-ही-आप ऑं�े �ुल गयीं। मै�े दे�ा, वह अप�ा हरा शाल ओढे़ �डे़ थें। मै�े उ�की ओर हाथ बढ़ाकर —कहा आओं, �डे़ क्यों हो, और निफर सो गयी। बस, प्यारी बह�! वही निव�ोद के अंनितम दशF� थे। कह �हीं सकती, वह पंलग पर लेटे या �हीं। इ� ऑ�ों में �-जा�े कौ�-सी महानि�द्रा समायी हुई थी। प्रात: उठी तो निव�ोद को � पाया। मैं उ�से पहले उठती हँू, वह पडे़ सोते रहते हैं। पर आज वह पलंग पर � थें। शाल भी � था। मै�े समझा, शायद अप�े कमरे में चले गये हों। स्�ा�-गृह में चली गयी। आध घंटें मे बाहर आयी, निफर भी वह � दिद�ायी दिदये। उ�के कमरे में गयी, वहॉँ भी � थें। आश्चयF हुआ निक

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इत�े सबरे कहॉँ चले गयें। सहसा �ँूटी पर —पड़ी कपडे़ �े थे। निकसी से मिमल�े चले गये? या स्�ा� के पहले सैर कर�े की ठा�ी। कम-से-कम मुझसे कह तो देते, संशय मे तो जी � पड़ता। क्रोध —आया मुझे लौंडी समझते …हैं

हाजिजरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय र� गया। निव�ोद के इतंजार में चाय ठंडी हो गयी। मै बार-बार झुँझालती थी, कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती, ठा� ली थी निक आज ज्योही महाशय आयेंगे, ऐसा लताड़ूगँी निक वह भी याद करेंगे। कह दँूगी, आप अप�ा घर लीजिजए, आपकों अप�ा घर मुबारक रहें, मै अप�े घर चली जाऊँगी। इस तरह तो रोदिटयॉँ वहॉं भी मिमल जायेंगी। जाडे़ के �ौ बज�े में देर ही क्या लगती है। निव�ोद का अभी पता �हीं। झल्लायी हुई कमरे मे गयी निक एक पत्र लिल�कर मेज पर र� —दँू साफ-साफ लिल� दँू निक इस तरह अगर रह�ा है, तो आप रनिहए मे �हीं रह सकती। मै जिजत�ा ही तरह देती जाती हँू, उत�ा ही तुम मुझे लिचढ़ाते हों। बह�, उस क्रोध मे सन्तप्त भावों की �दी-सी म� में उमड़ रही थी। अगर लिल��े बैठती, तो पन्नों-के-पने्न लिल� डालती। लेनिक� आह! मै तो भाग जा� की धमकी ही दे रही थी, वह पहले ही भाग चुके थे। ज्योंही मेज पर बैठी, मुझे पैडी मे उ�का एक पत्र मिमला। मै�े तुरन्त उस पत्र को नि�काल लिलया और सरसरी नि�गाह से —पढ़ा मेरे हाथ कॉँप�े लगे, पॉँव थरथरा�े लगे, जा� पड़ा कमरा निहल रहा है। एक ठण्डी, लम्बी, हृदय को चीर�े वाली आह �ींचकर मैं कोच पर निगर पड़ी। पत्र यह —था

‘निप्रयें ! �ौ मही�े हुए, जब मुझे पहली बार तुम्हारे दशF�ों का सौभाग्य हुआ था। उस वक्त मै�े अप�े को धन्य मा�ा था। आज तुमसे निवयोग का दुभाFग्य हो रहा है निफर भी मैं अप�े को धन्य मा�ता हँू। मुझे जा�े का लोशमात्र भी दु:� �हीं है, क्योनिक मै जा�ता हँू तुम �ुश होगी। जब तुम मेरे साथ सु�ी �ही रह सकती; तो मैं तबरदस्ती क्यों पड़ा रहँू। इससे तो यह कहीं अच्छा है निक हम और तुम अलग हो जायँ। मै जैसा हँू, वैसा ही रहँूगा। तुम भी जैसी हो, वैसी ही रहोगी। निफर सु�ी जीव� की सम्भाव�ा कहाँ? मै निववाह को आत्म-निवकास का पूरी का साध� समझता हँू। स्त्री पुरुष के सम्बन्ध का अगर कोई अथF है, तो यही है, व�ाF मै निववाह की कोई जरुरत �हीं समझता। मा�व सन्ता� निब�ा निववाह के भी जीनिवत रहेगी और शायद इससे अचे्छ रूप में। वास�ा भी निब�ा निववाह के पूरी हो सकती है, घर के प्रबन्ध के लिलए निववाह कर�े की काई जरुरत �हीं। जीनिवका एक बहुत ही गौण प्रश्न है। जिजसे ईश्वर �े दो हाथ दिदये है वह कभी भू�ा �हीं रह सकता। निववाह का उदे्दcय यही और केवल यही हैं निक स्त्री और पुरूष एक-दूसरे की आत्मोन्ननित में सहायक हों। जहॉँ अ�ुराग हों, वहा निववाह है और अ�ुराग ही आत्मोन्ननित का मुख्य साध� है। जब अ�ुराग � हो, तो निववाह भी � रहा। अ�ुराग के निब�ा निववाह का अथF �हीं।

जिजस वक्त मै�े तुम्हें पहली बार दे�ा था, तुम मुझे अ�ुराग की सजीव मूर्तितं-सी �जर आयी थीं। तुममे सौंदयF था, लिशक्षा थी, पे्रम था, सू्फर्तितं थी, उमंग थी। मैं मुग्ध हो गया। उस वक्त मेरी अन्धी ऑं�ों को यह � सूझा निक जहॉँ तुममें इत�े गुण थे, वहॉँ चंचलता भी थी, जो इ� सब गुणों पर पदाF डाल देती। तुम चंचल हो, गजब की चंचल, जो उस वक्त मुझे � सूझा था। तुम ठीक वैसी ही हो, जैसी तुम्हारी दूसरी बह�ें होती है, � कम, � ज्यादा। मै�े तुमको स्वाधी� ब�ा�ा चाहा था, क्योंनिक मेरी समझ मे अप�ी पूरी ऊँचाई तक पहुँच�े के लिलए इसी की सबसे अमिधक जरूरत है। संसार भर में पुरूषों के निवरुद्ध क्यों इत�ा शोर मचा हुआ है? इसीलिलए निक हम�े औरतों की आजादी छी� ली है और उन्हें अप�ी इच्छाओं की लौंडी ब�ा र�ा है। मै�े तुम्हें स्वाधी� कर दिदया। मै तुम्हारे ऊपर अप�ा कोई अमिधकार �हीं मा�ता। तुम अप�ी स्वामिम�ी हो, मुझे कोई लिचन्ता � थी। अब मुझे मालूम हो रहा है, तुम स्वेच्छा से �हीं, संकोच या भय या बन्ध� के कारण रहती हो। दो ही चार दिद� पहले मुझ पर यह बात �ुली है। इसीलिलए अब मै तुम्हारें सु� के मागF में बाधा �हीं डाल�ा चाहता। मै कहीं भागकर �हीं जा रहा हँू। केवल तुम्हारे रास्ते से हटा जा रहा हँू, और इत�ी दूर हटा जा रहा हँू, निक तुम्हें मेरी ओर से पूरी नि�क्षिश्चन्तता हो जाय। अगर मेरे बगैर तुम्हारा जीव� अमिधक

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सुन्दर हो सकता है, तो तुम्हें जबर� �हीं र��ा चाहता। अगर मै समझता निक तुम मेरे सु� के मागF बाधक हो रही हों, तो मै�े तुमसे साफ-साफ कह दिदया होता। मै धैयF और �ीनित का ढोंग �हीं मा�ता, केवल आत्माका संतोष चाहता —हँू अप�े लिलए भी, तुम्हारे लिलए भी। जीव� का तत्व यही है; मूल्य यही है। मै�े डेस्क में अप�े निवभाग के अध्यक्ष के �ाम एक पत्र लिल�कर र� दिदया हैं। वह उ�के पास भेज दे�ा। रूपये की कोई लिचन्ता मत कर�ा। मेरे एकाउंट मे अभी इत�े रूपये हैं, जो तुम्हारे लिलए कई मही�े को काफी हैं, और उस वक्त तक मिमलते रहेगें, जब तक तुम ले�ा चाहोगी। मै समझता हँू, मै�े अप�ा भाव स्पष्ट कर दिदया है। इससे अमिधक स्पष्ट मै �हीं कर�ा चाहता। जिजस वक्त तुम्हारी इच्छा मुझसे मिमल�े की हो, बैंक से मेरा पता पूछ ले�ा। मगर दो-चार दिद� के बाद। घबरा�े की कोई बात �हीं। मै स्त्री को अबला या अपंग �हीं समझता। वह अप�ी रक्षा स्वयं कर सकती —हैं अगर कर�ा चाहें। अगर अब या अब से दो-चार मही�ा, दो-चार साल पीछें तुम्हे मेरी याद आए और तुम समझों निक मेरे साथ सु�ी रह सकती हो, तो मुझे केवल दो शब्द लिल�कर डाल दे�ा, मै तुरन्त आ जाऊँगा, क्योंनिक मुझे तुमसे कोई लिशकायत �हीं हैं। तुम्हारे साथ मेरे जीव� के जिजत�े के जिजत�े दिद� कटे हैं, वह मेरे लिलए स्वगF-स्वप्न के दिद� हैं। जब तक जीउँगी, इस जीव� की आ�न्द-स्मृनितयों कों हृदय में संलिचत र�ूँगा। आह! इत�ी देर तक म� को रोके रह�े के बाद ऑं�ों से एक बूँद ऑंसू निगर ही पड़ा। क्षमा कर�ा, मै�ें तुम्हें ‘ ’चंचल कहा हैं। अचंचल कौ� है? जा�ता हँू निक तुम�े मुझे अप�े हृदय से नि�कालकर फें क दिदया हैं, निफर भी इस एक घंटे में निकत�ी बार तुमको दे�-दे�कर लौट आया हँू! मगर इ� बातों को लिल�कर मैं तुम्हारी दया को उकसा�ा �हीं चाहता। तुम�े वही निकया, जिजसका मेरी �ीनित में तुमको अमिधकार था, है और रहेगां। मैं निववाह में आत्मा को सव§परी र��ा चाहता हँू। स्त्री और पुरुष में मै वही पे्रम चाहता हँू, जो दो स्वाधी� व्यलिक्तयों में होता हैं। वह पे्रम �हीं जिजसका आधार पराधी�ता हैं।

बस, अब और कुछ � लिल�ँूगा। तुमको एक चेताव�ी दे�े की इच्छा हो रही है पर दँूगा �हीं; क्योंनिक तुम अप�ा भला और बुरा �ुद समझ सकती हो। तुम�े सलाह दे�े का हक मुझसे छी� लिलया है। निफर भी इत�ा कहे बगैर �हीं रहा जाता निक संसार में पे्रम का स्वॉँग भर�े वाले शोहदों की कमी �हीं है, उ�से बचकर रह�ा। ईश्वर से यही प्राथF�ा करता हँू निक तुम जहॉं रहो, आ�न्द से रहों। अगर कभी तुम्हें मेरी जरूरत पडे़, तो याद कर�ा। तुम्हारी एक तस्वीर का अपहरण निकये जाता हँू। क्षमा कर�ा, क्या मेरा इत�ा अमिधकार भी �हीं? हाय! जी चाहता है, एक बार निफर दे� आऊँ, मगर �हीं ’आऊँगा।

—तुम्हारा ठुकराया हुआ, निव�ोद

बह�, यह पत्र पढ़कर मेरे लिचत्त की जो दशा हुई, उसका तुम अ�ुमा� कर सकती हो। रोयी तो �हीं; पर दिदल बैठा जाता था। बार-बार जी चाहता था निक निवष �ाकर सो रहँू। दस बज�े में अब थोड़ी ही देर थी। मैं तुरन्त निवद्यालय गयी और दशF�-निवभाग के अध्यक्ष को निव�ोद का पत्र पढ़कर —बोले आपको मालूम है, वह कहॉँ गये और कब तक आयेंगें? इसमें तो केवल एक मास की छुटटी मॉँगी गयी है। मै�ें बहा�ा —निकया वह एक आवcयक कायF से काशी गये है। और नि�राश होकर लौट आयी। मेरी अन्तरात्मा संहस्रों जिजहवा ब�कर मुझे मिधक्कार रही थी। कमरे में उ�की तस्वीर के साम�े घुट�े टेककर मै�े जिजत�े पश्चाताप–पूणF शब्दों में क्षमा माँगी है, वह अगर निकसी तरह उ�के का�ों तक पहुँच सकती, तो उन्हें मालूम होता निक उन्हें मेरी ओर से निकत�ा भू्रम हुआ! तब से अब तक मै�ें कुछ भोज� �हीं निकया और � एक मिम�ट सोयी। निव�ोद मेरी कु्षधा और नि�द्रा भी अप�े साथ लेते गये और शायद इसी तरह दस-पॉँच दिद� उ�की �बर � मिमली, तो प्राण भी चले जायेंगें। आज मैं बैंक तकF

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गयी थी, यह पूछ�े निक निहम्मत � पड़ी निक निव�ोद का कोई पत्र आयां। वह सब क्या सोचते निक यह उ�की पत्�ी होकर हमसे पूछ�े आयी हैं!

बह�, अगर निव�ोद � आये, तो क्या होगा? मैं समझती थी, वह मेरी तरफ से उदासी� हैं, मेरी परवा �हीं करते, मुझसे अप�े दिदल की बातें लिछपाते हैं, उन्हें शायद मैं भारी हो गयी हँू। अब मालूम हुआ, मै कैसे भयंकर-भ्रम में पड़ी हुई थी। उ�का म� इत�ा कोमल है, यह मैं जा�ती, तो उस दिद� क्यों भुव� को मुँह लगाती? मैं उस अभागे का मुँह तक � दे�ती। इस वक्त जो उसे दे� पाऊँ, तो शायद गोली मार दँू। जरा तुम निव�ोद के पत्र को निफर पढों, —बह� आप मुझे स्वाधी� ब�ा�े चले थे। अगर स्वाधी� ब�ाते थें, तो भुव� से जरा देर मेरा बातचीत कर ले�ा क्यों इत�ा अ�रा? मुझें उ�की अनिवचलिलत शांनित से लिचढ़ होती थी। वास्तव में उ�के हृदय में इस रात-सी बात �े जिजत�ी अशांनित पैदा कर दी, शायद मुझमें � कर सकती। मैं निकसी रमणी से उ�की रूलिच दे�कर शायद मुँह फुला लेती, ता�े देती, �ुद रोती, उन्हें रुलाती; पर इत�ी जल्द भाग � जाती। मद� का घर छोड़कर भाग�ा तो आज तक �हीं सु�ा, औरतें ही घर छोड़कर मैके भागती है, या कहीं डूब�े जाती हैं, या आत्महत्या करती हैं। पुरूष नि�द्वFन्द्व बैठे मूंछों पर ताव देते हैं। मगर यहॉँ उल्टी गंगा बह रही —हैं पुरूष ही भाग �ड़ा हुआ! इस अशांनित की थाह कौ� लगा सकता हैं? इस पे्रम की गहराई को कौ� समझ सकता हैं? मै तो अगर इस वक्त निव�ोद के चरणों पर पडे़-पडे़ मर जाऊँ तो समझूँ, मुझे स्वगF मिमल गया। बस, इसके लिसवा मुझे अब और कोई इच्छा �हीं हैं। इस अगाध-पे्रम �े मुझे तृप्त कर दिदया। निव�ोद मुझसे भागे तो, लेनिक� भाग � सके। वह मेरे हृदय से, मेरी धारणा से, इत�े नि�कट कभी � थे। मैं तो अब भी उन्हें अप�े साम�े बैठा दे� रही हँू। क्या मेरे साम�े निफलासफर ब��े चले थे? कहॉँ गयी आपकी वह दाशFनि�क गंभीरता? यों अप�े को धो�ा देते हो? यों अप�ी आत्मा को कुचलते हों ? अबकी तो तुम भागे, लेनिक� निफर भाग�ा तो दे�ँूगी। मै � जा�ती थी निक तुम ऐसे चतुर बहुरूनिपये हो। अब मै�े समझा, और शायद तुम्हारी दाशFनि�क गंभीरता को भी समझ मे आया होगा निक पे्रम जिजत�ा ही सच्चा जिजत�ा ही हार्दिदंक होता है, उत�ा ही कोमल होता हें वह वपक्षित्त के उन्मत्त सागर में थपेड़ �ा सकता है, पर अवहेल�ा की एक चोट भी �हीं सह सकता। बनिह�, बात निवलिचत्र है, पर है सच्ची, मै इस समय अप�े अन्तस्तल में जिजत�ी उमंग, जिजत�े आ�न्द का अ�ुभव कर रही हँू, याद �हीं आता निक निव�ोद के हृदय से लिलपटकर भी कभी पाया हो। तब पदाF बीच में था, अब कोई पदाF बीच में �हीं रहा। मै उ�को प्रचलिलत पे्रम व्यापार की कसौटी पर कस�ा चाहती थी। यह फैश� हो गया निक पुरुष घर मे आयें, तो स्त्री के वास्ते कोई तोहफा लाये, पुरुष रात-दिद� स्त्री के लिलए गह�े ब�वा�े, कपडे़ लिसलवा�े, बेल, फीते, लेस �रीद�े में मस्त रहे, निफर स्त्री को उससे कोई लिशकायत �हीं। वह आदशF-पनित है, उसके पे्रम में निकसे संदेह हो सकता है? लेनिक� उसकी पे्रयसी की मृत्यु के तीसरे मही�े वह निफर �या निववाह रचाता है। स्त्री के साथ अप�े पे्रम को भी लिचता मे जला आता है। निफर वही स्वॉँग इस �यी पे्रयसी से हो�े लगते हैं, निफर वही लीला शुरू हो जाती है। मैं�े यही पे्रम दे�ा था और इसी कसौटी पर निव�ोद कस रही थी। निकत�ी मन्दबुजिद्ध हँू ! लिछछोरेप� को पे्रम समझे बैठी थी। निकत�ी स्त्रिस्त्रयाँ जा�ती हैं निक अमिधकांश ऐसे ही गह�े, कपडे़ और हँस�े-बोल�े में मस्त रह�े वाले जीव लम्पट होते हैं। अप�ी लम्पटता को लिछपा�े के लिलए वे यह स्वॉँग भरते रहते हैं। कुत्ते को चुप र��े के लिलए उसके साम�े हड्डी के टुकडे़ फें क देते हैं। बेचारी भोली-भाली उसे अप�ा सवFस्व देकर खि�लौ�े पाती है और उन्हीं में मग्� रहती है। मैं निव�ोद को उसी कॉँटे पर तौल रही —थी हीरे को साग के तराजू पर र� देती थी। मैं जा�ती हँू, मेरा दृढ़ निवश्वास और वह अटल है निक निव�ोद की दृमिष्ट कभी निकसी पर स्त्री पर �हीं पड़ सकती। उ�के लिलए मै हँू, अकेली मै हँू, अच्छी हँू या बुरी हँू, जो कुछ हँू, मै हँू। बह�, मेरी तो मारे गवF और आ�न्द से छाती फूल उठी है। इत�ा बड़ा —साम्राज्य इत�ा अचल, इत�ा स्वरक्षिक्षत, निकसी हृदयेश्वरी को �सीब हुआ है ! मुझे तो सन्देह है। और मैं इस पर भी असन्तुष्ट थी, यह �

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जा�ती थी निक ऊपर बबूले तैरते हैं, मोती समुद्र की तह मे मिमलते हैं। हाय! मेरी इस मू�Fता के कारण, मेरे प्यारे निव�ोद को निकत�ी मा�लिसक वेद�ा हो रही है। मेरे जीव�-ध�, मेरे जीव�-सवFस्व � जा�े कहॉँ मारे-मारे निफरते होंगें, � जा�े निकस दशा में होगें, �-जा�े मेरे प्रनित उ�के म� में कैसी-कैसी शंकाऍं उठ रही —होंगी प्यारे ! तुम�े मेरे साथ कुछ कम अन्याय �हीं निकया। अगर मै�े तुम्हें नि�षु्ठर समझा, तो तुम�े तो मुझे उससे कहीं बदतर —समझा क्या अब भी पेट �हीं भरा? तुम�े मुझे इत�ी गयी-गुजरी समझ लिलया निक इस अभागे भुव�… मै ऐसे-ऐसे एक ला� भुव�ों को तुम्हारे चरणों पर भेंट कर सकती हँू। मुझे तो संसार में ऐसा कोई प्राणी ही �हीं �जर आता, जिजस पर मेरी नि�गाह उठ सके। �हीं, तुम मुझे इत�ी �ीच, इत�ी कलंनिक�ी �हीं समझ —सकते शायद वह �ौबत आती, तो तुम और मैं दो में से एक भी इस संसार में � होता।

बह�, मैं�े निव�ोद को बुला�े की, �ींच ला�े की, पकड़ मँगवा�े की एक तरकीब सोची है। क्या कहूँ, पहले ही दिद� यह तरकीब क्यों � सूझी ? निव�ोद को दैनि�क पत्र पढे़ निब�ा चै� �हीं आता और वह कौ�-सा पत्र पढ़ते हैं, मैं यह भी जा�ती हँू। कल के पत्र में यह �बर —‘छपेगी पद्मा मर रही ’है , और परसों निव�ोद यहॉँ —होंगे रुक ही �हीं सकते। निफर �ूब झगडे़ होंगे, �ूब लड़ाइयॉँ होंगी।

अब कुछ तुम्हारे निवषय में। क्या तुम्हारी बुदिढ़या सचमुच तुमसे इसलिलए जलती है निक तुम सुन्दर हो, लिशक्षिक्षत हो ? �ूब ! और तुम्हारे आ�न्द भी निवलिचत्र जीव मालूम होते हैं। मै�े सु�ा है निक पुरुष निकत�ा ही कुरूप हो, उसकी नि�गाह अप्सराओं ही पर जाकर पड़ती है। निफर आन्नद बाबू तुमसे क्यों निबचकते है? जरा गौरसे दे��ा, कहीं राधा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो �हीं? अगर सासजी यों ही �ाक में दम करती रहें, तो मैं तो यही सलाह दँूगी निक अप�ी झोपड़ी अलग ब�ा लो। मगर जा�ती हँू, तुम मेरी यह सलाह � मा�ोगी, निकसी तरह � मा�ेगी। इस सनिहष्णुता के लिलए मैं तुम्हें बधाई देती हँू। पत्र जल्द लिल��ा। मगर शायद तुम्हारा पत्र आ�े के पहले ही मेरा दूसरा पत्र पहुँचे।

तुम्हारी,पद्मा

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काशी10-2-26

निप्रय पद्मा, कई दिद� तक तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा कर�े के बाद आज यह �त लिल� रही हँू। मैं

अब भी आशा कर रही हँू निक निव�ोद बाबू घर आ गये होगें, मगर अभी वह � आये हों और तुम रो-रोकर अप�ी ऑं�े फोडे़ डालती हो, तो मुझे जरा भी दु:� � होगा! तुम�े उ�के साथ जो अन्याय निकया है, उसका यही दण्ड है। मुझे तुमसे जरा भी सहा�ुभूनित �हीं है। तुम गृनिहणी होकर वह कुदिटल क्रीड़ा कर�े चली थीं, जो पे्रम का सौदा कर�े वाली स्त्रिस्त्रयों को ही शोभा देती है। मैं तो जब �ुश होती निक निव�ोद �े तुम्हारा गला घोंट दिदया होता और भुव� के कुसंस्कारों को सदा के लिलए शांत कर देते। तुम चाहे मुझसे रूठ ही क्यों � जाओ पर मैं इत�ा जरूर कहूँगी निक तुम निव�ोद के योग्य �हीं हो। शायद तुम�े अँग्रेजी निकताबों मे पढ़ा होगा निक स्त्रिस्त्रयाँ छैले रलिसकों पर ही जा� देती हैं और यह पढ़कर तुम्हारा लिसर निफर गया है।

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तुम्हें नि�त्य कोई स�स�ी चानिहए, अन्यथा तुम्हारा जीव� शुष्क हो जायेगा। तुम भारत की पनितपरायणा रमणी �हीं, यूरोप की आमोदनिप्रय युवती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है। तुम�े अब तक रूप को ही आकषFण का मूल समझ र�ा है। रूप में आकF षण है, मा�ती हँू। लेनिक� उस आकषFण का �ाम मोह है, वह स्थायी �हीं, केवल धो�े की टट्टी है। पे्रम का एक ही मूल मंत्र है, और वह है सेवा। यह मत समझो निक जो पुरूष तुम्हारे ऊपर भ्रमर की भॉँनित मँडराया करता है, वह तुमसे पे्रम करता है। उसकी यह रूपासलिक्त बहुत दिद�ों तक �हीं रहेगी। पे्रम का अंकुर रूप में है, पर उसको पल्लनिवत और पुस्त्रिष्पत कर�ा सेवा ही का काम है। मुझे निवश्वास �हीं आता निक निव�ोद को बाहर से थके-मॉँदे, पसी�े मे तर दे�कर तुम�े कभी पं�ा झला होगा। शायद टेबुल-फै� लगा�े की बात भी � सूझी होगी। सच कह�ा, मेरा अ�ुमा� ठीक या �हीं? बतलाओ, तुम�े की उ�के पैरों में चंपी की है? कभी उ�के लिसर में तेज डाला है? तुम कहोगी, यह खि�दमतगारों का काम है, लेनिडयाँ यह मरज �हीं पालतीं। तुम�े उस आ�न्द का अ�ुभव ही �हीं निकया। तुम निव�ोद को अप�े अमिधकार में र��ा चाहती हो, मगर उसका साध� �हीं करतीं। निवलास�ी म�ोरंज� कर सकती है, लिचरसंनिग�ी �हीं ब� सकती। पुरूष के गले से लिलपटी हुई भी वह उससे कोसों दूर रहती है। मा�ती हँू, रूपमोह म�ुष्य का स्वभाव है, लेनिक� रूप से हृदय की प्यास �हीं बुझती, आत्मा की तृप्तिप्त �हीं होती। सेवाभाव र��े वाली रूप-निवही� स्त्री का पनित निकसी स्त्री के रूप-जाल मे फँस जाय, तो बहुत जल्द नि�कल भागता है, सेवा का चस्का पाया हुआ म� केवल ��रों और चोचलों पर लट्टू �हीं होता। मगर मैं तो तुम्हें उपदेश कर�े बैठ गयी, हालॉँनिक तुम मुझसे दो-चार मही�े बड़ी होगी। क्षमा करो बह�, यह उपदेश �हीं है। ये बातें हम-तुम सभी जा�ते हैं, केवल कभी-कभी भूल जाते हैं। मैं�े केवल तुम्हें याद दिदला दिदया हैं। उपदेश मे हृदय �हीं होता, लेनिक� मेरा उपदेश मेरे म� की वह व्यथा है, जो तुम्हारी इस �यी निवपक्षित्त से जागरिरत हुई है।

अच्छा, अब मेरी रामकहा�ी सु�ो। इस एक मही�े में यहॉँ बड़ी-बड़ी घट�ाऍं हो गयीं। यह तो मैं पहले ही लिल� चुकी हँू निक आ�न्द बाबू और अम्मॉँजी में कुछ म�मुटाव रह�े लगा। वह आग भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती थी। दिद� में दो-एक बार मॉँ बेटे में चोंचें हो जाती थी। एक दिद� मेरी छोटी ��दजी मेरे कमरे से एक पुस्तक उठा ले गयीं। उन्हें पढ़�े का रोग है। मैं�े कमरे में निकताब � दे�ी, तो उ�से पूछा। इस जरा-सी बात पर वह भले-मा�स निबगड़ गयी और कह�े —लगी तुम तो मुझे चोरी लगाती हो। अम्मॉँ �े उन्हीं का पक्ष लिलया और मुझे �ूब सु�ायी। संयोग की बात, अम्मॉँजी मुझे कोस�े ही दे रही थीं निक आन्नद बाबू घर में आ गये। अम्माँजी उन्हें दे�ते ही और जोर से बक�े लगीं, बहू की इत�ी मजाल! वह तू�े लिसर पर चढ़ा र�ा है और कोई बात �हीं। पुस्तक क्या उसके बाप की थी? लड़की लायी, तो उस�े कौ� गु�ाह निकया? जरा भी सब्र � हुआ, दौड़ी हुई उसके लिसर पर जा पहुँची और उसके हाथों से निकताब छी��े लगी।

बह�, मैं यह स्वीकार करती हँू निक मुझे पुस्तक के लिलए इत�ी उतावली � कर�ी चानिहए थी। ��दजी पढ़ चुक�े पर आप ही दे जातीं। � भी देतीं तो उस एक पुस्तक के � पढ़�े से मेरा क्या निबगड़ा जाता था। मगर मेरी शामत निक उ�के हाथों से निकताब छी��े लगी थी। अगर इस बात पर आ�न्द बाबू मुझे डाँट बताते, तो मुझे जरा भी दु:� � होता मगर उन्हों�े उल्टे मेरा पक्ष लिलया और त्योरिरयाँ चढ़ाकर —बोले निकसी की चीज कोई निब�ा पूछे लाये ही क्यों? यह तो मामूली लिशष्टाचार है।

इत�ा सु��ा था निक अम्मॉँ के लिसर पर भूत-सा सवार हो गया। आ�न्द बाबू भी बीच-बीच मे फुलझनिड़यॉँ छोड़ते रहे और मैं अप�े कमरे में बैठी रोती रही निक कहॉँ-से-कहॉँ मैं�े निकताब मॉँगी। � अम्मॉँजी ही �े भोज� निकया, � आ�न्द बाबू �े ही। और मेरा तो बार-बार यही जी चाहता था निक जहर �ा लूँ। रात को जब अम्मॉजी लेटी तो मैं अप�े नि�यम के अ�ुसार उ�के पॉँव पक्रड़ लिलये। मैं पैंता�े की ओर तो थी ही। अम्मॉँजी �े जो पैर से मुझे

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ढकेला तो मैं चारपाई के �ीचे निगर पड़ी। जमी� पर कई कटोरिरयॉँ पड़ी हुई थीं। मैं उ� कटोरिरयों पर निगरी, तो पीठ और कमर में बड़ी चोट आयी। मैं लिचल्ला�ा � चाहती थी, मगर � जा�े कैसे मेरे मुँह से ची� नि�कल गयी। आ�न्द बाबू अप�े कमरे में आ गये थे, मेरी ची� सु�कर दौडे़ पडे़ और अम्मॉँजी के द्वार पर आकर —बोले क्या उसे मारे डालती हो, अम्मॉँ? अपराधी तो मैं हँू; उसकी जा� क्यों ले रही हो? यह कहते हुए वह कमरे में घुस गये और मेरा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती �ींच ले गये। मैं�े बहुत चाहा निक अप�ा हाथ छुड़ा लूँ, पर आन्नद �े � छोड़ा! वास्वत में इस समय उ�का हम लोगों के बीच में कूद पड़�ा मुझे अच्छा �हीं लगता था। वह � आ जाते, तो मैं�े रो-धोकर अम्मॉँजी को म�ा लिलया होता। मेरे निगर पड़�े से उ�का क्रोध कुछ शान्त हो चला था। आ�न्द का आ जा�ा गजब हो गया। अम्मॉँजी कमरे के बाहर नि�कल आयीं और मुँह लिचढ़ाकर —बोली हॉँ, दे�ो, मरहम-पट्टी कर दो, कहीं कुछ टूट-फूट � गया हो !

आ�न्द �े ऑंग� में रूककर —कहा क्या तुम चाहती हो निक तुम निकसी को मार डालो और मैं � बोलूँ ?

‘हॉँ, मैं तो डाय� हँू, आदमिमयों को मार डाल�ा ही तो मेरा काम है। ताज्जुब है निक मैं�े तुम्हें क्यों � मार ’डाला।

‘तो पछतावा क्यों हो रहा है, धेले की संखि�या में तो काम चलता है।‘ ‘अगर तुम्हें इस तरह औरत को लिसर चढ़ाकर र��ा है, तो कहीं और ले जाकर र�ो।

इस घर में उसका नि�वाFह अब � ’होगा।‘मैं �ुद इसी निफ्रक में हँू, तुम्हारे कह�े की जरूरत ’�हीं।‘मैं भी समझ लूँगी निक मैं�े लड़का ही �हीं ’ज�ा।‘मैं भी समझ लूँगा निक मेरी माता मर ’गयी।मैं आ�न्द का हाथ पकड़कर जोर से �ींच रही थी निक उन्हें वहॉँ से हटा ले जाऊँ,

मगर वह बार-बार मेरा हाथ झटक देते थे। आखि�र जब अम्मॉँजी अप�े कमरे में चली गयीं, तो वह अप�े कमरे में आये और लिसर थामकर बैठ गये।

मैं�े —कहा यह तुम्हें क्या सूझी ?आ�न्द �े भूमिम की ओर ताकते हुए —कहा अम्मॉँ �े आज �ोदिटस दे दिदया। ‘तुम �ुद ही उलझ पडे़, वह बेचारी तो कुछ बोली ’�हीं।‘मैं ही उलझ पड़ा !’‘और क्या। मैं�े तो तुमसे फरिरयाद � की ’थी।‘पकड़ � लाता, तो अम्माँ �े तुम्हें अधमरा कर दिदया होता। तुम उ�का क्रोध �हीं ’जा�ती।‘यह तुम्हारा भ्रम है। उन्हों�े मुझे मारा �हीं, अप�ा पैर छुड़ा रही थीं। मैं पट्टी पर बैठी

थी, जरा-सा धक्का �ाकर निगर पड़ीं। अम्मॉँ मुझे उठा�े ही जा रही थीं निक तुम पहुँच ’गये।‘�ा�ी के आगे �नि�हाल का ब�ा� � करो, मैं अम्मॉँ को �ूब जा�ता हँू। मैं कल ही

दूसरा घर ले लूँगा, यह मेरा नि�श्चय है। कहीं-�-कहीं �ौकरी मिमल ही जायेगी। ये लोग समझते हैं निक मैं इ�की रोदिटयों पर पड़ा हुआ हँू। इसी से यह मिमजाज है !’

मैं जिजत�ा ही उ�को समझती थी, उत�ा वह और बफरते थे। आखि�र मैं�े झुँझलाकर —कहा तो तुम अकेले जाकर दूसरे घर में रहो। मैं � जाऊँगी। मुझे यहीं पड़ी रह�े दो।आ�न्द �े मेरी ओर कठोर �ेत्रों से दे�कर —कहा यही लातें �ा�ा अच्छा लगता है?‘हाँ, मुझे यही अच्छा लगता ’है।‘तो तुम �ाओ, मैं �हीं �ा�ा चाहता। यही फायदा क्या थोड़ा है निक तुम्हारी दुदFशा

ऑं�ों से � दे�ँूगा, � पीड़ा ’होगी।‘अलग रह�े लगोगे, तो दुनि�या क्या ’कहेगी।‘इसकी परवाह �हीं। दुनि�यां अन्धी ’है।

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‘लोग यही कहेंगे निक स्त्री �े यह माया फैलायी है।‘‘इसकी भी परवाह �हीं, इस भय से अप�ा जीव� संकट में �हीं डाल�ा ’चाहता।मैं�े रोकर —कहा तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत �हीं है। बह�, और

निकसी समय इस पे्रम-आग्रह से भरे हुए शब्दों �े � जा�े क्या कर दिदया होता। ऐसे ही आग्रहों पर रिरयासतें मिमटती हैं, �ाते टूटते हैं, रमणी के पास इससे बढ़कर दूसरा अस्त्र �हीं। मैं�े आ�न्द के गले में बाँहें डाल दी थीं और उ�के कन्धे पर लिसर र�कर रो रही थी। मगर इस समय आ�न्द बाबू इत�े कठोर हो गये थे निक यह आग्रह भी उ� पर कुछ असर � कर सका। जिजस माता � जन्म दिदया, उसके प्रनित इत�ा रोष ! हम अप�ी माता की एक कड़ी बात �हीं सह सकते, इस आत्माक्षिभमा� का कोई दिठका�ा है। यही वे आशाऍं हैं, जिज� पर माता �े अप�े जीव� के सारे सु�-निवलास अपFण कर दिदये थे, दिद� का चै� और रात की �ींद अप�े ऊपर हराम कर ली थी ! पुत्र पर माता का इत�ा भी अमिधकार �हीं !

आ�न्द �े उसी अनिवचलिलत कठोरता से —कहा अगर मुहब्बत का यही अथF है निक मैं इस घर में तुम्हारी दुगFनित कराऊँ, तो मुझे वह मुहब्बत �हीं है।

प्रात:काल वह उठकर बाहर जाते हुए मुझसे —बोले मैं जाकर घर ठीक निकये आता हँू। तॉँगा भी लेता आऊँगा, तैयार रह�ा।

मैं�े दरवाजा रोककर —कहा क्या अभी तक क्रोध शान्त �हीं हुआ? ‘क्रोध की बात �हीं, केवल दूसरों के लिसर से अप�ा बोझ हटा ले�े की बात ’है।‘यह अच्छा काम �हीं कर रहे हो। सोचो, माता जी को निकत�ा दु:� होगा। ससुरजी

से भी तुम�े कुछ पूछा ?’‘उ�से पूछ�े की कोई जरूरत �हीं। कताF-धताF जो कुछ हैं, वह अम्मॉँ हैं। दादाजी

मिमट्टी के लोंदे ’हैं।‘घर के स्वामी तो हैं ?‘

‘तुम्हें चल�ा है या �हीं, साफ ’कहो।‘मैं तो अभी � ’जाऊँगी।‘अच्छी बात है, लात ’�ाओ।मैं कुछ �हीं बोली। आ�न्द �े एक क्षण के बाद निफर —कहा तुम्हारे पास कुछ रूपये

हो, तो मुझे दो।मेरे पास रूपये थे, मगर मैं�े इ�कार कर दिदया। मैं�े समझा, शायद इसी असमंजस

में पड़कर वह रूक जायँ। मगर उन्हों�े बात म� में ठा� ली थी। खि�न्न होकर —बोले अच्छी बात है, तुम्हारे रूपयों के बगैर भी मेरा काम चल जायगा। तुम्हें यह निवशाल भव�, यह सु�-भोग, ये �ौकर-चाकर, ये ठाट-बाट मुबारक हों। मेरे साथ क्यों भू�ों मरोगी। वहॉँ यह सु� कहॉँ ! मेरे पे्रम का मूल्य ही क्या !

यह कहते हुए वह चले गये। बह�, क्या कहूँ, उस समय अप�ी बेबसी पर निकत�ा दु:� हो रहा था। बस, यही जी में आता था निक यमराज आकर मुझे उठा ले जायें। मुझे कल-कलंनिक�ी के कारण माता और पुत्र में यह वैम�स्य हो रहा था। जाकर अम्मॉँजी के पैरों पर निगर पड़ी और रो-रोकर आ�न्द बाबू के चले जा�े का समाचार कहा। मगर माताजी का हृदय जरा भी � पसीजा। मुझे आज मालूम हुआ निक माता भी इत�ी वज्र-हृदया हो सकती है। निफर आ�न्द बाबू का हृदय क्यों � कठोर हो। अप�ी माता ही के पुत्र तो हैं।

माताजी �े नि�दFयता से —कहा तुम उसके साथ क्यों � चली गयी ? जब वह कहता था तब चला जा�ा चानिहए था। कौ� जा�े, यहॉँ मैं निकसी दिद� तुम्हें निवष दे दँू।

मैं�े निगड़निगड़ाकर —कहा अम्मॉँजी, उन्हें बुला भेजिजए, आपके पैरों पड़ती हँू। �हीं तो कहीं चले जायेंगे।

अम्मॉँ उसी नि�दFयता से —बोलीं जाय चाहे रहे, वह मेरा कौ� है। अब तो जो कुछ हो, तुम हो, मुझे कौ� निग�ता है। आज जरा-सी बात पर यह इत�ा झल्ला रहा है। और मेरी

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अम्माँजी �े मुझे सैकड़ों ही बार पीटा होगा। मैं भी छोकरी � थी, तुम्हारी ही उम्र की थी, पर मजाल � थी निक तुम्हारे दादाजी से निकसी के साम�े बोल सकँू। कच्चा ही �ा जातीं ! मार �ाकर रात-भर रोती रहती थी, पर इस तरह घर छोड़कर कोई � भागता था। आजकल के लौंडे ही पे्रम कर�ा �हीं जा�ते, हम भी पे्रम करते थे, पर इस तरह �हीं निक मॉँ-बाप, छोटे-बडे़ निकसी को कुछ � समझें।

यह कहती हुई माताजी पूजा कर�े चली गयी। मैं अप�े कमरे में आकर �सीबों को रो�े लगी। यही शंका होती थी निक आ�न्द निकसी तरफ की राह � लें। बार-बार जी मसोसता था निक रूपये क्यों � दे दिदये। बेचारे इधर-उधर मारे-मारे निफरते होंगे। अभी हाथ-मुँह भी �हीं धोया, जलपा� भी �हीं निकया। वक्त पर जलपा� � करेंगे तो, जुकाम हो जायेगा, और उन्हें जुकाम होता है, तो हरारत भी हो जाती है। महरी से —कहा जरा जाकर दे� तो बाबूजी कमरे में हैं? उस�े आकर —कहा कमरे में तो कोई �हीं, �ँूटी पर कपडे़ भी �हीं है।

मैं�े —पूछा क्या और भी कभी इस तरह अम्मॉँजी से रूठे हैं? महरी —बोली कभी �हीं बहू ऐसा सीधा तो मैं�े लड़का ही �हीं दे�ा। मालनिक� के साम�े कभी लिसर �हीं उठाते थे। आज �-जा�े क्यों चले गए।

मुझे आशा थी निक दोपहर को भोज� के समय वह आ जायेँगे। लेनिक� दोपहर कौ� कहे; शाम भी हो गयी और उ�का पनित �हीं। सारी रात जागती रही। द्वार की ओर का� लगे हुए थे। मगर रात भी उसी तरह गुजर गयी। बह�, इस प्रकार पूरे ती� बीत गये। उस वक्त तुम मुझे दे�तीं, तो पहचा� � सकतीं। रोते-रोते आँ�ें लाल हो गयी थीं। इ� ती� दिद�ों में एक पल भी �हीं सोयी और भू� का तो जिजक्र ही क्या, पा�ी तक � निपया। प्यास ही � लगती थी। मालूम होता था, देह में प्राण ही �हीं हैं। सारे घर में मातम-सा छाया हुआ था। अम्मॉँजी भोज� कर�े दो�ों वक्त जाती थीं, पर मुँह जूठा करके चली आती थी। दो�ों ��दों की हँसी और चुहर भी गायब हो गयी थी। छोटी ��दजी तो मुझसे अप�ा अपराध क्षमा करा�े आयी।

चौथे दिद� सबेरे रसोइये �े आकर मुझसे —कहा बाबूजी तो अभी मुझे दशाश्वमेध घाट पर मिमले थे। मैं उन्हें दे�ते ही लपककर उ�के पास आ पहुँचा और —बोला भैया, घर क्यों �हीं चलते? सब लोग घबड़ाये हुए हैं। बहूजी �े ती� दिद� से पा�ी तक निपया। उ�का हाल बहुत बुरा है। यह सु�कर वह कुछ सोच में पड़ गये, निफर —बोले बहूजी �े क्यों दा�ा-पा�ी छोड़ र�ा है? जाकर कह दे�ा, जिजस आराम के लिलए उस घर को � छोड़ सकी, उससे क्या इत�ी जल्द जी-भर गया !

अम्मॉँजी उसी समय आँग� में आ गयी। महाराज की बातों की भ�क का�ों में पड़ गयी, —बोली क्या है अलगू, क्या आ�न्द मिमला था ?

—महाराज हाँ, बड़ी बहू, अभी दशाश्वमेध घाट पर मिमले थे। मैं�े —कहा घर क्यों �हीं चलते, तो —बोले उस घर में मेरा कौ� बैठा हुआ है?

—अम्मॉँ कहा �हीं और कोई अप�ा �हीं है, तो स्त्री तो अप�ी है, उसकी जा� क्यों लेते हो?

—महाराज मैं�े बहुत समझाया बड़ी बहू, पर वह टस-से-मस � हुए। —अम्मॉँ करता क्या है?

—महाराज यह तो मैं�े �हीं पूछा, पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था।—अम्मॉँ ज्यों-ज्यों तुम बूढे़ होते हो, शायद सदिठयाते जाते हो। इत�ा तो पूछा होता,

कहॉँ रहते हो, कहॉँ �ाते-पीते हो। तुम्हें चानिहए था, उसका हाथ पकड़ लेते और �ींचकर ले आते। मगर तुम �कमहरामों को अप�े हलवे-मांडे से मतलब, चाहे कोई मरे या जिजये। दो�ों वक्त बढ़-बढ़कर हाथ मारते हो और मूँछों पर ताव देते हो। तुम्हें इसकी क्या परवाह है निक घर में दूसरा कोई �ाता है या �हीं। मैं तो परवाह � करती, वह आये या � आये। मेरा धमF पाल�ा-पोस�ा था, पाल पोस दिदया। अब जहॉँ चाहे रहे। पर इस बहू का क्या करँू, जो रो-

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रोकर प्राण दिदये डालती है। तुम्हें ईश्वर �े आँ�े दी हैं, उसकी हालत दे� रहे हो। क्या मुँह से इत�ा भी � फूटा निक बहू अन्न जल त्याग निकये पड़ी हुई।

—महाराज बहूजी, �ारायण जा�ते हैं, मैं�े बहुत तरह समझाया, मगर वह तो जैसे भागे जाते थे। निफर मैं क्या करता।

—अम्मॉँ समझाया �हीं, अप�ा लिसर। तुम समझाते और वह योंही चला जाता। क्या सारी लचे्छदार बातें मुझी से कर�े को है? इस बहू को मैं क्या कहूँ। मेरे पनित �े मुझसे इत�ी बेरू�ी की होती, तो मैं उसकी सूरत � दे�ती। पर, इस पर उस�े �-जा�े कौ�-सा जादू कर दिदया है। ऐसे उदालिसयों को तो कुलटा चानिहए, जो उन्हें नितग�ी का �ाच �चाये।

कोई आध घंटे बाद कहार �े आकर —कहा बाबूजी आकर कमरे में बैठे हुए हैं।मेरा कलेजा धक-धक कर�े लगा। जी चाहता था निक जाकर पकड़ लाऊँ, पर

अम्मॉँजी का हृदय सचमुच वज्र है। —बोली जाकर कह दे, यहॉँ उ�का कौ� बैठा हुआ है, जो आकर बैठे हैं !

मैं�े हाथ जोड़कर —कहा अम्मॉँजी, उन्हें अन्दर बुला लीजिजए, कहीं निफर � चले जाऍं।

—अम्मॉँ यहॉँ उ�का कौ� बैठा हुआ है, जो आयेगा। मैं तो अन्दर कदम � र��े दँूगी।

अम्मॉँजी तो निबगड़ रही थी, उधर छोटी ��दजी जाकर आ�न्द बाबू को लायी। सचमुच उ�का चेहरा उतरा हुआ था, जैसे मही�ों का मरीज हो। ��दजी उन्हें इस तरह �ीचें लाती थी, जैसे कोई लड़की ससुराल जा रही हो। अम्मॉँजी �े मुस्काराकर —कहा इसे यहॉँ क्यों लायीं? यहॉँ इसका कौ� बैठा हुआ है?

आ�न्द लिसर झुकाये अपरामिधयों की भॉँनित �डे़ थे। जबा� � �ुलती थी। अम्मॉँजी �े निफर —पूछा चार दिद� से कहॉँ थे?

‘कहीं �ही, यहीं तो ’था।‘�ूब चै� से रहे ’होगे।‘जी हॉँ, कोई तकलीफ � ’थी।‘वह तो सूरत ही से मालूम हो रहा ’है।��दजी जलपा� के लिलए मिमठाई लायीं। आ�न्द मिमठाई �ाते इस तरह झेंप रहे थे

मा�ों ससुराल आये हों, निफर माताजी उन्हें लिलए अप�े कमरे में चली गयीं। वहॉँ आध घंटे तक माता और पुत्र में बातें होती रही। मैं का� लगाये हुए थी, पर साफ कुछ � सु�ायी देता था। हॉँ, ऐसा मालूम होता था निक कभी माताजी रोती हैं और कभी आन्नद। माताजी जब पूजा कर�े नि�कलीं, तो उ�की आँ�ें लाल थीं। आ�न्द वहॉँ से नि�कले, तो सीधे मेरे कमरे में आये। मैं उन्हें आते दे� चटपट मुँह ढॉँपकर चारपाई पर रही, मा�ो बे�बर सो रही हँू। वह कमरे में आये, मुझे चरपाई पर पडे़ दे�ा, मेरे समीप आकर एक बार धीरे पुकारा और लौट पडे़। मुझे जगा�े की निहम्मत � पड़ी। मुझे जो कष्ट हो रहा था, इसका एकमात्र कारण अप�े को समझकर वह म�-ही-म� दु:�ी हो रहे थे। मैं�े अ�ुमा� निकया था, वह मुझे उठायेंगे, मैं मा� करँूगी, वह म�ायेंगे, मगर सारे मंसूबे �ाक में मिमल गए। उन्हें लौटते दे�कर मुझसे � रहा गया। मैं हकबकाकर उठ बैठी और चारपाई से �ीचे उतर�े लगी, मगर �-जा�े क्यों, मेरे पैर लड़�ड़ाये और ऐसा जा� पड़ा मैं निगरी जाती हँू। सहसा आ�न्द �े पीछे निफर कर मुझे संभाल लिलया और —बोले लेट जाओ, लेट जाओ, मैं कुरसी पर बैठा जाता हँू। यह तुम�े अप�ी क्या गनित ब�ा र�ी है?

मैं�े अप�े को सँभालकर —कहा मैं तो बहुत अच्छी तरह हँू। आप�े कैसे कष्ट निकया?‘पहले तुम कुछ भोज� कर लो, तो पीछे मैं कुछ बात ’करँूगा।‘मेरे भोज� की आपको क्या निफक्र पड़ी है। आप तो सैर सपाटे कर रहे हैं !’

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‘जैसे सैर-सपाटे मैं�े निकये हैं, मेरा दिदल जा�ता है। मगर बातें पीछे करँूगा, अभी मुँह-हाथ धोकर �ा लो। चार दिद� से पा�ी तक मुँह में �हीं डाला। राम ! राम !’

‘यह आपसे निकस�े कहा निक मैं�े चार दिद� से पा�ी तक मुँह में �हीं डाला। जब आपको मेरी परवाह � थी, तो मैं क्यों दा�ा-पा�ी छोड़ती?’

‘वह तो सूरत ही कहे देती हैं। फूल से… मुरझा ’गये।‘जरा अप�ी सूरत जाकर आई�े में ’देखि�ए।‘मैं पहले ही कौ� बड़ा सुन्दर था। ठँूठ को पा�ी मिमले तो क्या और � मिमले तो क्या।

मैं � जा�ता था निक तुम यह अ�श�-व्रत ले लोगी, �हीं तो ईश्वर जा�ता है, अम्मॉँ मार-मारकर भगातीं, तो भी � जाता।’

मैं�े नितरस्कार की दृमिष्ट से दे�कर —कहा तो क्या सचमुच तुम समझे थे निक मैं यहाँ केवल आराम के निवचार से रह गयी?

आ�न्द �े जल्दी से अप�ी भूल —सुधरी �हीं, �हीं निप्रये, मैं इत�ा गधा �हीं हँू, पर यह मैं कदानिप � समझता था निक तुम निबलकुल दा�ा-पा�ी छोड़ दोगी। बड़ी कुशल हुई निक मुझे महाराज मिमल गया, �हीं तो तुम प्राण ही दे देती। अब ऐसी भूल कभी � होगी। का� पकड़ता हँू। अम्मॉँजी तुम्हारा ब�ा� कर-करके रोती रही।

मैं�े प्रसन्न होकर —कहा तब तो मेरी तपस्या सफल हो गयी। ‘थोड़ा-सा दूध पी लो, तो बातें हों। जा�े निकत�ी बातें कर�ी है। ‘पी लूँगी, ऐसी क्या जल्दी ’है।‘जब तक तुम कुछ �ा � लोगी, मैं यही समझूँगा निक तुम�े मेरा अपराध क्षमा

�हीं ’निकया।‘मैं भोज� जभी करँूगी, जब तुम यह प्रनितज्ञा करो निक निफर कभी इस तरह

रूठकर � ’जाओगे।‘मैं सच्चे दिदल से यह प्रनितज्ञा करता ’हँू।बह�, ती� दिद� कष्ट तो हुआ, पर मुझे उसके लिलए जरा भी पछतावा �हीं है। इ�

ती� दिद�ों के अ�श� �े दिदलों मे जो सफाई कर दी, वह निकसी दूसरी निवमिध से कदानिप � होती। अब मुझे निवश्वास है निक हमारा जीव� शांनित से व्यतीत होगा। अप�े समाचार शीघ्र, अनित शीघ्र लिल��ा।

तुम्हारीचन्दा

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दिदल्ली20-2-26

प्यारी बह�, तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे तुम्हारे ऊपर दया आयी। तुम मुझे निकत�ा ही बुरा कहो, पर

मैं अप�ी यह दुगFनित निकसी तरह � सह सकती, निकसी तरह �हीं। मैं�े या तो अप�े प्राण ही दे दिदये होते, या निफर उस सास का मुँह � दे�ती। तुम्हारा सीधाप�, तुम्हारी सह�शीलता, तुम्हारी सास-भलिक्त तुम्हें मुबारक हो। मैं तो तुरन्त आ�न्द के साथ चली जाती और चाहे भी� ही क्यों � माँग�ी पड़ती उस घर में कदम � र�ती। मुझे तुम्हारे ऊपर दया ही �हीं आती, क्रोध भी आता है, इसलिलए निक तुममें स्वाक्षिभमा� �हीं है। तुम-जैसी स्त्रिस्त्रयों �े ही सासों और पुरूषों का मिमजाज आसमा� चढ़ा दिदया है। ‘जहनु्नम में जाय ऐसा —घर जहॉँ अप�ी इज्जत ’�हीं। मैं पनित-पे्रम भी इ� दामों � लूँ। तुम्हें उन्नीसवी सदी में जन्म ले�ा चानिहए था।

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उस वक्त तुम्हारे गुणों की प्रशंसा होती। इस स्वाधी�ता और �ारी-स्वत्व के �वयुग में तुम केवल प्राची� इनितहास हो। यह सीता और दमयन्ती का युग �हीं। पुरूषों �े बहुत दिद�ों तक राज्य निकया। अब स्त्री-जानित का राज्य होगा। मगर अब तुम्हें अमिधक � कोसँूगी।

अब मेरा हाल सु�ो। मैं�े सोचा था, पत्रों में अप�ी बीमारी का समाचार छपवा दूँँगी। लेनिक� निफर ख्याल आया; यह समाचार छपते ही मिमत्रों का तॉँता लग जायेगा। कोई मिमजाज पूछ�े आयेगा। कोई दे��े आयेगा। निफर मैं कोई रा�ी तो हँू �हीं, जिजसकी निबमारी का बुलेदिट� रोजा�ा छापा जाय। � जा�े लोगों के दिदल में कैसे-कैसे निवचार उत्पन्न हों। यह सोचकर मैं�े पत्र में छपवा�े का निवचार छोड़ दिदया। दिद�-भर मेरे लिचत्त की क्या दशा रही, लिल� �हीं सकती। कभी म� में आता, जहर �ा लूँ, कभी सोचती, कहीं उड़ जाऊं। निव�ोद के सम्बन्ध में भॉँनित-भॉँनित की शंकाऍं हो�े लगीं। अब मुझे ऐसी निकत�ी ही बातें याद आ�े लगीं, जब मैं�े निव�ोद के प्रनित उदासी�ता का भाव दिद�ाया था। मैं उ�से सब कुछ ले�ा चाहती थी; दे�ा कुछ � चाहती थी। मैं चाहती थी निक वह आठों पहर भ्रमर की भॉँनित मुझ पर मँडराते रहें, पतंग की भॉँनित मुझे घेरे रहें। उन्हें निकताबो और पत्रों में मग्� बैठे दे�कर मुझे झुँझलाहट हो�े लगती थी। मेरा अमिधकांश समय अप�े ही ब�ाव-चिसंगार में कटता था, उ�के निवषय में मुझे कोई लिचन्ता ही � होती थी। अब मुझे मालूम हुआ निक सेवा का महत्व रूप से कहीं अमिधक है। रूप म� को मुग्ध कर सकता है, पर आत्मा को आ�न्द पहुँचा�े वाली कोई दूसरी ही वस्तु है।

इस तरह एक हफ्ता गुजर गया। मैं प्रात:काल मैके जा�े की तैयारिरयाँ कर रही —थीयह घर फाडे़ �ाता —था निक सहसा डानिकये �े मुझे एक पत्र लाकर दिदया। मेरा हृदय धक-धक कर�े लगा। मैं�े कॉँपते हुए हाथों से पत्र लिलया, पर लिसर�ामे पर निव�ोद की परिरलिचत हस्तलिलनिप � थी, लिलनिप निकसी स्त्री की थी, इसमें सन्देह � था, पर मैं उससे सवFथा अपरिरलिचत थी। मैं�े तुरन्त पत्र �ोला और �ीचे की तरफ दे�ा तो चौंक —पड़ी वह कुसुम का पत्र था। मैं�े एक ही साँस में सारा पत्र पढ़ लिलया। लिल�ा —‘था बह�, निव�ोद बाबू ती� दिद� यहॉँ रहकर बम्बई चले गये। शायद निवलायत जा�ा चाहते हैं। ती�-चार दिद� बम्बई रहेंगे। मैं�े बहुत चाहा तनिक उन्हें दिदल्ली वापस कर दँू, पर वह निकसी तरह � राजी हुए। तुम उन्हें �ीचे लिल�े पते से तार दे दो। मैं�े उ�से यह पता पूछ लिलया था। उन्हों�े मुझे ताकीद कर दी थी निक इस पते को गुप्त र��ा, लेनिक� तुमसे क्या परदा। तुम तुरन्त तार दे दो, शायद रूक जायॅ। वह बात क्या हुई ! मुझसे निव�ोद �े तो बहुत पूछ�े पर भी �हीं बताया, पर वह दु:�ी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अप�ा � ब�ा सकी, इसका मुझे आश्चयF है; पर मुझे इसकी पहले ही शंका थी। रूप और गवF में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध है। गवF रूप का प्रकाश

’है। … मैं�े पत्र र� दिदया और उसी वक्त निव�ोद के �ाम तार भेज दिदया निक बहुत बीमार हँू,

तुरन्त आओ। मुझे आशा थी निक निव�ोद तार द्वारा जवाब देंगे, लेनिक� सारा दिद� गुजर गया और कोई जवाब � आया। बँगले के साम�े से कोई साइनिकल नि�कलती, तो मैं तुरन्त उसकी ओर ताक�े लगती थीं निक शायद तार का चपरासी हो। रात को भी मैं तार का इन्तजार करती रही। तब मैं�े अप�े म� को इस निवचार से शांत निकया निक निव�ोद आ रहे हैं, इसलिलए तार भेज�े की जरूरत � समझी।

अब मेरे म� में निफर शकाए ँउठ�े लगी। निव�ोद कुसुम के पास क्यों गये, कहीं कुसुम से उन्हें पे्रम तो �हीं हैं? कहीं उसी पे्रम के कारण तो वह मुझसे निवरक्त �हीं हो गये? कुसुम कोई कौशल तो �हीं कर रही हैं? उसे निव�ोद को अप�े घर ठहरा�े का अमिधकार ही क्या था? इस निवचार से मेरा म� बहुत कु्षब्ध हो उठा। कुसुम पर क्रोध आ�े लगा। अवcय दो�ों में बहुत दिद�ों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैं�े निफर कुसुम का पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिलए कुछ सोच�े की सामग्री र�ी हुई थी। नि�श्चय निकया निक कुसुम को एक पत्र लिल�कर �ूब कोसँू। आधा पत्र लिल� भी डाला, पर उसे फाड़ डाला। उसी वक्त

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निव�ोद को एक पत्र लिल�ा। तुमसे कभी भेंट होगी, तो वह पत्र दिद�लाऊँगी; जो कुछ मुँह में आया बक डाला। लेनिक� इस पत्र की भी वही दशा हुई जो कुसुम के पत्र की हुई थी। लिल��े के बाद मालूम हुआ निक वह निकसी निवक्षप्त हृदय की बकवाद है। मेरे म� में यही बात बैठती जाती थी वह कुसुम के पास हैं। वही छलिल�ी उ� पर अप�ा जादू चला रही है। यह दिद� भी बीत गया। डानिकया कई बार आया, पर मैं�े उसकी ओर ऑं� भी �हीं उठायी। चन्दा, मैं �हीं कह सकती, मेरा हृदय निकत�ा नितलतमिमला रहा था। अगर कुसुम इस समय मुझे मिमल जाती, तो मैं �-जा�े क्या कर डालती।

रात को लेटे-लेटे ख्याल आया, कहीं वह यूरोप � चले गये हों। जी बैचे� हो उठा। लिसर में ऐसा चक्कर आ�े लगा, मा�ों पा�ी में डूबी जाती हँू। अगर वह यूरोप चले गये, तो निफर कोई आशा —�हीं मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर �जर डाली। दो बजे थे। �ौकर को जगाया और तार-घर जा पहुँची। बाबूजी कुरसी पर लेटे-लेटे सो रहे थे। बड़ी मुश्किcकल से उ�की �ींद �ुली। मैं�े रसीदी तार दिदया। जब बाबूजी तार दे चुके, तो मैं�े —पूछा इसका जवाब कब तक आयेगा?

बाबू �े —कहा यह प्रश्न निकसी ज्योनितषी से कीजिजए। कौ� जा�ता है, वह कब जवाब दें। तार का चपरासी जबरदस्ती तो उ�से जवाब �हीं लिल�ा सकता। अगर कोई और कारण � हो, तो आठ-�ौ बजे तक जवाब आ जा�ा चानिहए।

घबराहट में आदमी की बुजिद्ध पलाय� कर जाती है। ऐसा नि�रथFक प्रश्न करके मैं स्वयं लज्जिज्जत हो गयी। बाबूजी �े अप�े म� में मुझे निकत�ा मू�F समझा होगा; �ैर, मैं वहीं एक बेंच पर बैठ गयी और तुम्हें निवश्वास � आयेगा, �ौ बजे तक वहीं बैठी रही। सोचो, निकत�े घंटे हुए? पूरे सात घंटे। सैकड़ों आदमी आये और गये, पर मैं वहीं जमी बैठी रही। जब तार का डमी �टकता, मेरे हृदय में धड़क� हो�े लगती। लेनिक� इस भय से निक बाबूजी झल्ला � उठें , कुछ पूछ�े का साहस � करती थीं। जब दफ्तर की घड़ी में �ौ बजे, तो मैं�े डरते-डरते बाबू से —पूछा क्या अभी तक जवाब �हीं आया।

बाबू �े —कहा आप तो यहीं बैठी हैं, जवाब आता तो क्या मैं �ा डालता? मैं�े बेहयाई करके निफर —पूछा तो क्या अब � आवेगा? बाबू �े मुँह फेरकर — —कहा और दो-चार घंटे बैठी रनिहए।

बह�, यह वाग्बाण शर के समा� हृदय में लगा। आँ�े भर आयीं। लेनिक� निफर मैं वह टली �हीं। अब भी आशा बँधी हुई थी निक शायद जवाब आता हो। जब दो घंटे और गुजर गये, तब मैं नि�राश हो गयी। हाय ! निव�ोद �े मुझे कहीं का � र�ा। मैं घर चली, तो ऑं�ें से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। रास्ता � सूझता था।

सहसा पीछे से एक मोटर का हा�F सु�ायी दिदया। मैं रास्ते से हट गयी। उस वक्त म� में आया, इसी मोटर के �ीचे लेट जॉँऊ और जीव� का अन्त कर दँू। मैं�े ऑं�े पोंछकर मोटर की ओर दे�ा, भुव� बैठा हुआ था और उसकी बगल में बैठी थी कुसुम ! ऐसा जा� पड़ा, अखिग्� की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर लिसर से नि�कल गयी। मैं उ� दो�ों की नि�गाहों से बच�ा चाहती थी, लेनिक� मोटर रूक गयी और कुसुम उतर कर मेरे गले से लिलपट गयी। भुव� चुपचाप मोटर में बैठा रहा, मा�ो मुझे जा�ता ही �हीं। नि�दFयी, धूतF !

कुसुम �े —पूछा मैं तो तुम्हारे पास जाती थी, बह�? वहॉँ से कोई �बर आयी? मैं�े बात टाल�े के लिलए —कहा तुम कब आयीं?

भुव� के साम�े मैं अप�ी निवपक्षित्त-कथा � कह�ा चाहती थी। —कुसुम आओ, कार में बैठ जाओ।

‘�हीं, मैं चली जाउँगी। अवकाश मिमले, तो एक बार चली ’आ�ा।कुसुम �े मुझसे आग्रह � निकया। कार में बैठकर चल दी। मैं �ड़ी ताकती रह गयी !

यह वही कुसुम है या कोई और? निकत�ा बड़ा अन्तर हो गया है?

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मैं घर चली, तो सोच�े —लगी भुव� से इसकी जा�-पहचा�, कैसे हुई? कहीं ऐसा तो �हीं है निक निव�ोद �े इसे मेरी टोह ले�े को भेजा हो ! भुव� से मेरे निवषय में कुछ पूछ�े तो �हीं आयी हैं?

मैं घर पहुँचकर बैठी ही थी निक कुसुम आ पहुँची। अब की वह मोटर में अकेली � थी—निव�ोद बैठे हुए थे। मैं उन्हे दे�कर दिठठक गयी ! चानिहए तो यह था निक मैं दौड़कर उ�का हाथ पकड़ लेती और मोटर से अतार लाती, लेनिक� मैं जगह से निहली तक �हीं। मूर्तितं की भाँनित अचल बैठी रही। मेरी मानि��ी प्रकृनित आप�ा उद्दण्ड-स्वरूप दिद�ा�े के लिलए निवकल हो उठी। एक क्षण में कुसुम �े निव�ोद को उतारा और उ�का हाथ पकडे़ हुये ले आयी। उस वक्त मैं�े दे�ा निक निव�ोद का मु� निबलकुल पीला पड़ गया है और वह इत�े अशक्त हो गये हैं निक अप�े सहारे �डे़ भी �हीं रह सकते, मैं�े घबराकर पूछा, क्यों तुम्हारा यह क्या हाल है?

कुसुम �े —कहा हाल पीछे पूछ�ा, जरा इ�की चौपाई चटपट निबछा दो और थोडा-सा दूध मँगवा लो।

मैं�े तुरन्त चारपाई निबछायी और निव�ोद को उस पर लेटा दिदया। और दूध तो र�ा हुआ था। कुसुम इस वक्त मेरी स्वामिम�ी ब�ी हुई थी। मैं उसके इशारे पर �ाच रही थी। चन्दा, इस वक्त मुझे ज्ञात हुआ निक कुसुम पर निव�ोद को जिजत�ा निवश्वास है, वह मुझ पर �हीं। मैं इस योग्य हँू ही �हीं। मेरा दिदल सैकड़ों प्रश्न पूछ�े के लिलए तड़फड़ा रहा था, लेनिक� कुसुम एक पल के लिलए भी निव�ोद के पास से �े टलती थी। मैं इत�ी मू�F हँू निक अवसर पा�े पर इस दशा में भी मैं निव�ोद से प्रश्नों का तॉँता बॉँध देती।

निव�ोद को जब �ींद आ गयी, मैं�े ऑं�ो में ऑंसू भरकर कुसुम से —पूछा बह�, इन्हें क्या लिशकायत है? मैं�े तार भेजा। उसका जवाब �हीं आया। रात दो बजे एक जरुरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-घर बैठी जवाब की राह दे�ती रही। वहीं से लौट रही थी, जब तुम रास्ते में मिमली। यह तुम्हे कहॉँ मिमल गये?

कुसुम मेरा हाथ पकड़कर दूसरे कमरे में ले गयी और —बोली पहले तुम यह बताओं निक भुव� का क्या मुआमला था? दे�ो, साफ, कह�ा।

मैं�े आपक्षित्त करते हुए —कहा कुसुम, तुम यह प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हें �ुद समझ ले�ा चानिहए था निक इस बात में कोई सार �हीं है ! निव�ोद को केवल भ्रम हो गया।

‘निब�ा निकसी कारण के?’‘हॉँ, मेरी समझ में तो कोई कारण � ’था।‘मैं इसे �हीं मा�ती। यह क्यों �हीं कहतीं निक निव�ोद को जला�े, लिचढा�े और जगा�े

के लिलए तुम�े यह स्वॉँग रचा ’था।कुसुम की सूझ पर चनिकत होकर मैं�े —कहा वह तो केवल दिदल्लगी थी। ‘तुम्हारे लिलए दिदल्लगी थी, निव�ोद के लिलए वज्रपात था। तुम�े इत�े दिद�ों उ�के साथ

रहकर भी उन्हें �हीं समझा ! तुम्हें अप�े ब�ाव-सँवार के आगे उन्हें समझ�े की कहॉँ फुरसत ? कदालिचत् तुम समझती हो निक तुम्हारी यह मोह�ी मूर्तितं ही सब कुछ है। मैं कहती हँू, इसका मूल्य दो-चार मही�े के लिलए हो सकता है। स्थायी वस्तु कुछ और ही ’है।

मैं�े अप�ी भूल स्वीकार करते हुए —कहा निव�ोद को मुझसे कुछ पूछ�ा तो चानिहए था?

कुसुम �े हँसकर —कहा यही तो वह �ही कर सकते। तुमसे ऐसी बात पूछ�ा उ�के लिलए असम्भव है। वह उ� प्राक्षिणयों में है, जो स्त्री की ऑं�ें से निगरकर जीते �हीं रह सकते। स्त्री या पुरूष निकसी के लिलए भी वह निकसी प्रकार का धार्मिमंक या �ैनितक बन्ध� �हीं र��ा चाहते। वह प्रत्येक प्राणी के लिलए पूणF स्वाधी�ता के समथFक हैं। म� और इच्छा के लिसवा वह कोई बंध� स्वीकार �हीं करते। इस निवषय पर मेरी उ�से �ूब बातें हुई हैं। —�ैर मेरा

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पता उन्हें मालूम था ही, यहॉँ से सीधे मेरे पास पहुँचे। मैं समझ गई निक आपस में पटी �हीं। मुझे तुम्हीं पर सन्देह हुआ।

मैं�े —पूछा क्यों? मुझ पर तुम्हें क्यों सन्देह हुआ?‘इसलिलए निक मैं तुम्हे पहले दे� चुकी ’थी।‘अब तो तुम्हें मुझ पर सन्देह ’�हीं।‘�हीं, मगर इसका कारण तुम्हारा संयम �हीं, परम्परा है। मैं इस समय स्पष्ट बातें

कर रहीं हंू, इसके लिलए क्षमा ’कर�ा।‘�हीं, निव�ोद से तुम्हें जिजत�ा पे्रम है, उससे अमिधक अप�े-आपसे है। कम-से-कम

दस दिद� पहले यही बात थी। अन्यथा यह �ौबत ही क्यों आती? निव�ोद यहॉँ से सीधे मेरे पास गये और दो-ती� दिद� रहकर बम्बई चले गये। मैं�े बहुत पूछा, पर कुछ बतलाया �हीं। वहॉँ उन्हों�े एक दिद� निवष �ा ’लिलया।

मेरे चेहरे का रंग उड़ गया।‘बम्बई पहुँचते ही उन्हों�े मेरे पास एक �त लिल�ा था। उसमें यहॉँ की सारी बातें

लिल�ी थीं और अन्त में लिल�ा —था मैं इस जीव� से तंग आ गया हँू, अब मेरे लिलए मौत के लिसवा और कोई उपाय �हीं ’है।

मैं�े एक ठंडी साँस ली।‘मैं यह पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवा�ा हो गयी। जब वहॉँ पहुँची,

तो निव�ोद को मरणासन्न पाया। जीव� की कोई आशा �हीं थी। मेरे एक सम्बन्धी वहॉँ डाक्टारी करते हैं। उन्हें लाकर दिद�ाया तो वह —बोले इन्हों�े जहर �ा लिलया है। तुरन्त दवा दी गयी। ती� दिद� तक डाक्टर साहब � दिद�-को-दिद� और रात-को-रात � समझा, और मैं तो एक क्षण के लिलए निव�ोद के पास से � हटी। बारे तीसरे दिद� इ�की ऑं� �ुली। तुम्हारा पहला तार मुझे मिमला था, पर उसका जवाब दे�े की निकसे फुरसत थी? ती� दिद� और बम्बई रह�ा पड़ा। निव�ोद इत�े कमजोर हो गये थे निक इत�ा लम्बा सफर करी�ाउ�के लिलए असम्भव था। चौथे दिद� मैं�े जब उ�से यहॉँ आ�े का प्रस्ताव निकया, तो —बोले मैं अब वहॉँ � जाऊँगा। जब मैं�े बहुत समझाया, तब इस शतF पर राजी हुए तानिक मैं पहले आकर यहॉँ की परिरज्जिस्थनित दे� ’जाऊं।

मेरे मुँह से —‘नि�कला हा ! ईश्वर, मैं ऐसी अभानिग�ी ’हँू।‘अभानिग�ी �हीं हो बह�, केवल तुम�े निव�ोद को समझा � था। वह चाहते थे निक मैं

अकेली जाऊँ, पर मैं�े उन्हें इस दशा में वहॉ छोड़�ा उलिचत � समझा। परसों हम दो�ों वहॉँ चले। यहॉँ पहुँचकर निव�ोद तो वेटिटंग-रूम में ठहर गये, मैं पता पूछती हुई भुव� के पास पहुँची। भुव� को मैं�े इत�ा फटकारा निक वह रो पड़ा। उस�े मुझसे यहॉँ तक कह डाला निक तुम�े उसे बुरी तरह दुत्कार दिदया है। आँ�ों का बुरा आदमी है, पर दिदल का बुरा �हीं। उधर से जब मुझे सन्तोष हो गया और रास्ते में तुमसे भेंट हो जा�े पर रहा-सहा भ्रम भी दूर हो गया, तो मैं निव�ोद को तुम्हारे पास लायी। अब तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौपतीं हँू। मुझे आशा है, इस दुघFट�ा �े तुम्हें इत�ा सचेत कर दिदया होगा निक निफर �ौबत � आयेगी। आत्मसमपFण कर�ा सी�ो। भूल जाओ निक तुम सुन्दरी हो, आ�न्दमय जीव� का यही मूल मंत्र है। मैं डींग �हीं मारती, लेनिक� चाहँू तो आज निव�ोद को तुमसे छी� सकती हँू। लेनिक� रूप में मैं तुम्हारे तलुओं के बराबर भी �हीं। रूप के साथ अगर तुम सेवा-भाव धारण कर सको, तो तुम अजेय हो ’जाओगी।

मैं कुसुम के पैरों पर निगर पड़ी और रोती हुई —बोली बह�, तुम�े मेरे साथ जो उपकार निकया है, उसके लिलए मरते दम तक तुम्हारी ऋणी रहँूगी। तुम�े � सहायता की होती, तो आज �-जा�े क्या गनित होती।

बह�, कुसुम कल चली जायगी। मुझे तो अब वह देवी-सी दी�ती है। जी चाहता है, उसके चरण धो-धोकर पीऊँ। उसके हाथों मुझे निव�ोद ही �हीं मिमले हैं, सेवा का सच्चा

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आदशF और स्त्री का सच्चा कत्तFव्य-ज्ञा� भी मिमला है। आज से मेरे जीव� का �वयुग आरम्भ होता है, जिजसमें भोग और निवलास की �हीं, सहृदयता और आत्मीयता की प्रधा�ता होगी।

तुम्हारी,पद्मा

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