ममता कालिया का बहुचर्चित ... · web viewवह अपन...

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मममम मममममम मम ममममममममम ममममममम- 'मममम' मम मममम ममममम ममम मममम मममम मम मममम ममम मममममम मममम मम मम मम ममममम ममम ममम ममममममममम ममममम मममम मम ममम म मम मममम ममममम मममम ममममम मम मममम मममममम ममम मममम मम ममम मममममममम मम मम ममममम मममममम मम ममम म मममम, ममममममम मम ममममममममम मम ममम म ममम मम ममम मम ममममममम मममममम ममममममममम मममम मम ममममम मम मममम मम मममम-मम मममम मममम ममममममममम मममम ममममम ममम ममम ममम मममममम मम ममममममम ममम मम मममम मम मममम मममम मम मममम मममम मम मम ममम म ममम मम मममम म मम, ममम मम मममम मम ममम ममममम म ममममम मम मममम ममममममममम मम ममममम-मम मममममम मम ममम ''मममम मममम ममम मम ममम, ममम ममम मम ममम,'' मममम मममम मममम ममम ममममम मममम मममम ममम मम ममममम मममम मममम ममम ममम ममम मममम ममम ममम ममममममममम मम मममम ममम मम ममममम मममममम ममम ममममम मममम ममम मममम मम मममममम मममम-मममम मममम मममम ममममम ममममम मममममम मममम मम ममममम मममम मम ममममममम ममम मम ममममम ममममम ममम मममम मममममम मममममम-मममममम मम ममममममम मममम मम ममममममम मममम मम मममम मम ममममम मम मममम ममम मममममम म मममममम मम मम मम मम मम ममम ममममम मममम मम मममम मम ममममममम मममम मम म ममम ममममममम ममम ममममममममम ममम मममम मम ममममम ममममम ममममम म मम, मममममम मम ममम ममममममम मममम ममममम मम ममम मम ममममम ममम मममम ममममम ममम ममम ममममम मम ममम ममममम मममम मम मममम मममम मममम, मममम ममम मममममममम मममम ममम मममममम ममममम ममम मम मममममम ममममम मममम मममम मम मम मम ममममम ममम-मम ममममममम मम मममम मम मम, ''मम मम मममम ममममममम मम मममममममममम ममम मममम'' ममम मम मममम मममम मम मममम-मममम मममम म मम ममममममम ममममम ममममम मममम मममम मम मममममममम मममम ममम मममम ममम मम ममममममम मम ममममम ममममम मम ममममम मम मममममम मममम मममम म मममम मम ममममम (मममम मममममम) ममममम मम, ममममम मम ममम ममम ममम मममम मम ममममम ममममम मम ममम ममममममम ममममम मममम मम ममम ममम ममममममम मम मममम मममम मममम मम मम ममम मममम ममममममम मम मम ममममम मममम ममम ममम मममममम ममममम मममममम मममम ममममम मममममम ममम मममममममम मम मम ममममम ममममम मममममम मम ममममम मममममम ममम मम मममममम ममम मममम मम मम मममम ममम ममम ममम मम मम मममममममम ममममम मममम-मममम मम ममम ममममम मममम ममम म ममम मम ममममममम मम मममममममम मम मम मममम ममममममम मम मम मममममम मममम मम मम मम मम, मममम ममममम मम ममम मम मम मम ममममममम मममम मममम ममम मम मम मममम ममम मम मममममम ममम मममम ममम ममममममम मम ममम म मम.म.मम. मममम ममममम मम ममममम मम मम मममम मममम ममम मम मम मम ममम मम मम मममममम मममम मम मममम मममममम ममम मम मम मममममम ममम ममम म मम.म.मम. मम ममम मम ममम मम म ममममममम मम ममम मम मममम मम मम मममम ममममम ममम ममम ममम मममममम मम मममममम मम मम मममम मम ममम मममम म मम ममम मममम मममम ममम मम मममममम मममम ममम मममम म मममममम मममममम मम मम मममममम ममम ममममममममममम मम मममममम मम ममम मममम मममममम मम ममममममम मममम मममममममम मममममम ममम ममम मममम मम ममममममम मम ममम ममम मममममम मममम मम मम मममम मममम मम मम मममम मममममममममम ममममममम मममममममममम मम ममममम म

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Page 1: ममता कालिया का बहुचर्चित ... · Web viewवह अपन ऑफ स म घ स । श यद इस वक त ल ड श ड ग श

ममता कालि�या का बहुचर्चिच त उपन्यास- 'दौड़'वह अपने ऑफ़ि�स में घुसा। शायद इस वक्त �ोड शेडिड ग शुरू हो गई थी। मुख्य हॉ� में आपातका�ीन टू्यब �ाइट ज� रही थी। वह उसके सहारे अपने केफ़िबन तक आया। अँधेरे में मेज़ पर रखे कंप्यूटर की एक बौड़म लिस�ुएट बन रही थी। �ोन, इंटरकॉम सब फ़िनष्प्राण �ग रहे थे। ऐसा �ग रहा था संपूण@ सृष्टिC फ़िनश्चेC पड़ी है।फ़िबज�ी के रहते यह छोटा-सा कक्ष उसका साम्राज्य होता है। थोड़ी देर में आँख अँधेरे की अभ्यस्त हुई तो मेज़ पर पड़ा माउस भी नज़र आया। वह भी अच� था। पवन को हँसी आ गई, नाम है चूहा पर कोई चप�ता नहीं। फ़िबज�ी के फ़िबना प्�ास्टिस्टक का नन्हा-सा खिख�ौना है बस। ''बो�ो चूहे कुछ तो करो, चँू चँू ही सही,'' उसने कहा। चूहा फ़िPर बेजान पड़ा रहा।पवन को यकायक अपना छोटा भाई सघन याद आया। रात में फ़िबस्कुटों की त�ाश में वे दोनों रसोईघर में जाते। रसोई में ना�ी के रास्ते बडे़-बडे़ चूहे दौड़ �गाते रहते। उन्हें बड़ा डर �गता। रसोई का दरवाज़ा खो� कर फ़िबज�ी ज�ाते हुए छोटू �गातार म्याऊँ-म्याऊँ की आवाज़ें मुँह से फ़िनका�ता रहता फ़िक चूहे ये समझें फ़िक रसोई में फ़िबल्�ी आ पहँुची है और वे डर कर भाग जाए।ँ छोटू का जन्म भी माजा@र योफ़िन का है।पवन ज़्यादा देर स्मृफ़ितयों में नहीं रह पाया। यकायक फ़िबज�ी आ गई,  अँधेरे के बाद चकाचौंध करती फ़िबज�ी के साथ ही ऑफ़ि�स में जैसे प्राण �ौट आए। दातार ने हाट प्�ेट कॉPी का पानी चढ़ा दिदया, बाबू भाई जे़राक्स मशीन में काग़ज़ �गाने �गे और लिशल्पा काबरा अपनी टेब� से उठ कर नाचती हुई-सी लिचते्रश की टेब� तक गई, ''यू नो हमें नरू�ाज़ का कांटे्रक्ट ष्टिम� गया।''पवन ने अपनी टेब� पर बैठे-बैठे दाँत पीसे। यह बेवकू� �ड़की हमेशा ग़�त आदमी से मुख़ाफ़ितब रहती है। इसे क्या पता फ़िक लिचते्रश की चौबीस तारीख को नौकरी से छुट्टी होने वा�ी है। उसने दो जंप्स (वेतन वृद्धी) माँगे थे, कंपनी ने उसे जंप आउट करना ही बेहतर समझा। इस समय त�वारें दोनों तर� की तनी हुई हैं। लिचते्रश को जवाब ष्टिम�ा नहीं है पर उसे इतना अंदाज़ा है फ़िक माम�ा कहीं Pँस गया है। इसीलि�ए फ़िपछ�े हफ़्ते उसने एलिशयन पेंट्स में इंटरवू्य भी दे दिदया। एलिशयन पेंट्स का एरिरया मैनेजर पवन को नरू�ाज में ष्टिम�ा था और उससे शान मार रहा था फ़िक तुम्हारी कंपनी छोड़-छोड़ कर �ोग हमारे यहाँ आते हैं। पवन ने लिचते्रश की लिस�ारिरश कर दी ताफ़िक लिचते्रश का जो �ायदा होना है वह तो हो, उसकी कंपनी के लिसर पर से यह लिसरदद@ हटे। वहीं उसे यह भी ख़बर हुई फ़िक नरू�ाज में रोज़ बीस लिस�ेंडर की खपत है। आई.ओ.सी. अपने एजेंट के ज़रिरए उन पर दबाव बनाए हुई है फ़िक वे सा� भर का अनुबंध उनसे कर �ें। गुज@र गैस ने भी अज़j �गा रखी है। आई.ओ.सी. की गैस कम दाम की है। संभावना तो यही है बनती है फ़िक उनके एजेंट शाह एडं सेठ अनुबंध पा जाएगँे पर एक चीज़ पर बात अटकी है। कई बार उनके यहाँ मा� की सप्�ाई ठप्प पड़ जाती है। पब्लिl�क सेक्टर के सौ पचडे़। कभी कम@चारिरयों की हड़ता� तो कभी ट्रक चा�कों की शतm। इनके मुक़ाब�े गुज@र गैस में माँग और आपूर्तित के बीच ऐसा संतु�न रहता है फ़िक उनका दावा है फ़िक उनका प्रफ़ितष्ठान संतुC उपभोक्ताओं का संसार है।पवन पांडे को इस नए शहर और अपनी नई नौकरी पर नाज़ हो गया। अब देखिखए फ़िबज�ी चार बजे गई ठीक साढे़ चार बजे आ गई। पूरे शहर को टाइम ज़ोन में बाँट दिदया है, लिस�@ आधा घंटे के लि�ए फ़िबज�ी गु� की जाती है, फ़िPर अग�े ज़ोन में आधा घंटा। इस तरह फ़िकसी भी के्षत्र पर ज़ोर नहीं पड़ता। नहीं तो उसके पुराने शहर यानी इ�ाहाबाद में तो यह आ�म था फ़िक अगर फ़िबज�ी च�ी गई तो तीन-तीन दिदन तक आने के नाम न �े। फ़िबज�ी जाते ही छोटू कहता, ''भइया ट्रांसPाम@र दुफ़िड़म बो�ा था, हमने सुना है।'' परीक्षा के दिदनों में ही शादी-lयाह का मौसम होता। जैसे ही मोहल्�े की फ़िबज�ी पर ज़्यादा ज़ोर पड़ता, फ़िबज�ी Pे� हो जाती। पवन झँुझ�ाता, ''माँ अभी तीन चैप्टर बाकी हैं, कैसे पढँू।'' माँ उसकी टेब� के चार कोनों पर चार मोमबत्तिvयाँ �गा देती और बीच में रख देती, उसकी फ़िक़ताब। नए अनुभव की उvेजना में पवन, फ़िबज�ी जाने पर और भी अच्छी तरह पढ़ाई कर डा�ता।छोटू इसी बहाने फ़िबज�ीघर के चार चक्कर �गा आता। उसे छुटपन से बाज़ार घूमने का चस्का था। घर का Pुटकर सौदा �ाते, पोस्ट ऑफ़ि�स, फ़िबज�ीघर के चक्कर �गाते यह शौक अब �त में बद� गया था। परीक्षा के दिदनों में भी वह कभी नई पेंलिस� ख़रीदने के बहाने तो कभी यूनीPाम@ इस्तरी करवाने के बहाने घर से ग़ायब रहता। जाते हुए कहता, ''हम अभी आते हैं।'' �ेफ़िकन इससे यह न पता च�ता फ़िक हज़रत जा कहाँ रहे हैं। जैसे मराठी में, घर से जाते हुए मेहमान यह नहीं कहता फ़िक मैं जा रहा हँू, वह कहता है 'मी येतो' अथा@त मैं आता हँू। यहाँ गुजरात में और संुदर रिरवाज है। घर से मेहमान फ़िवदा �ेता है तो मेज़बान कहते हैं, ''आऊ जो।'' यानी फ़िPर आना। यह ठीक है फ़िक पवन घर से अठारह सौ फ़िक�ोमीटर दूर आ गया है। पर एम.बी.ए. के बाद कहीं न कहीं तो उसे जाना ही था। उसके माता फ़िपता अवश्य चाहते थे फ़िक वह वहीं उनके पास रह कर नौकरी करे पर उसने कहा, ''पापा यहाँ मेरे �ायक सर्तिव स कहाँ? यह तो बेरोज़गारों का शहर है। ज़्यादा से ज़्यादा नूरानी ते� की माक{ टिट ग ष्टिम� जाएगी।'' माँ बाप समझ गए थे फ़िक उनका लिशखरचुंबी बेटा कहीं और बसेगा।फ़िPर यह नौकरी पूरी तरह पवन ने स्वयं ढँूढ़ी थी। एम.बी.ए. अंफ़ितम वर्ष@ की जनवरी में जो चार पाँच कंपफ़िनयाँ उनके संस्थान में आई उनमें भाई�ा� भी थी। पवन पह�े दिदन पह�ी इंटरवू्य में ही चुन लि�या गया। भाई�ा� कंपनी ने उसे अपनी ए�.पी.जी. यूफ़िनट में प्रलिशकु्ष सहायक मैनेजर बना लि�या। संस्थान का फ़िनयम था फ़िक अगर एक नौकरी में छात्र का चयन हो जाए तो वह बाकी के तीन इंटरवू्य नहीं दे सकता। इससे ज़्यादा छात्र �ाभास्टिन्वत हो रहे थे और कैं पस पर परस्पर स्पधा@ घटी थी। पवन को बाद में यही अ�सोस रहा फ़िक उसे पता ही नहीं च�ा फ़िक उसके संस्थान में फ़िवप्रो, एप� और बी.पी.सी.ए� जैसी कंपफ़िनयाँ भी आई थीं। फ़िP�हा� उसे यहाँ कोई लिशकायत नहीं थी। अपने अन्य कामयाब सालिथयों की तरह उसने सोच रखा था फ़िक अगर सा� बीतते न बीतते उसे पद और वेतन में उच्चतर गे्रड नहीं दिदया गया तो वह यह कंपनी छोड़ देगा।सी.पी. रोड चौराहे पर खडे़ होके उसने देखा, सामने से शरद जैन जा रहा है। यह एक इv�ाक़ ही था फ़िक वे दोनों इ�ाहाबाद में स्कू� से साथ पढे़ और अब दोनों को अहमदाबाद में नौकरी ष्टिम�ी। बीच में दो सा� शरद ने आई.ए.एस. की मरीलिचका में नC फ़िकए, फ़िPर कैफ़िपटेशन Pीस दे कर सीधे आई.आई.एम. अहमदाबाद में दाखिख� हो गया।उसने शरद को रोका, ''कहाँ?''''यार फ़िपज़ा हट च�ते हैं, भूख �ग रही है।''वे दोनों फ़िपज़ा हट में जा बैठे। फ़िपज़ा हट हमेशा की तरह �ड़के-�ड़फ़िकयों से गु�ज़ार था। पवन ने कूपन लि�ए और काउंटर पर दे दिदए।शरद ने सकुचाते हुए कहा, ''मैं तो जैन फ़िपज़ा �ूँगा। तुम जो चाहे खाओ।''''रहे तुम वहीं के वहीं सा�े। फ़िपज़ा खाते हुए भी जैफ़िनज़्म नहीं छोड़ेंगे।''अहमदाबाद में हर जगह मेनू काड@ में बाकायदा जैन वं्यजन शाष्टिम� रहते जैसे जैन फ़िपज़ा, जैन आम�ेट, जैन बग@र।पवन खाने के माम�े में उन्मुक्त था। उसका मानना था फ़िक हर वं्यजन की एक ख़ालिसयत होती है। उसे उसी अंदाज़ में खाया जाना चाफ़िहए। उसे संशोधन से लिचढ़ थी।मेनू काड@ में जैन फ़िपज़ा के आगे उसमें पड़ने वा�ी चीज़ें का खु�ासा भी दिदया था, टमाटर, लिशम�ा ष्टिमच@, पvा गोभी और तीखी मीठी चटनी।शरद ने कहा, ''कोई ख़ास �क@ तो नहीं है, लिस�@ लिचकन की चार-पाँच कतरन उसमें नहीं होगी, और क्या?''''सारी �ज़्ज़त तो उन कतरनों की है यार।'' पवन हँसा।

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''मैंने एक दो बार कोलिशश की पर सP� नहीं हुआ। रात भर �गता रहा जैसे पेट में मुगा@ बो� रहा है कुकडूँकँू।''''तुम्हीं जैसों से महात्मा गांधी आज भी साँसें �े रहे हैं। उनके पेट में बकरा में-में करता था।''शरद ने वेटर को बु�ा कर पूछा, ''कौन-सा फ़िपज़ा ज़्यादा फ़िबकता है यहाँ।''''जैन फ़िपज़ा।'' वेटर ने मुसकुराते हुए जवाब दिदया।''देख लि�या,'' शरद बो�ा, ''पवन तुम इसको एफ़िप्रलिशएट करो फ़िक सात समंदर पार की फ़िडश का पह�े हम भारतीयकरण करते हैं फ़िPर खाते हैं। घर में ममी बेसन का ऐसा �ज़ीज़ आम�ेट बना कर खिख�ाती हैं फ़िक अंडा उसके आगे पानी भरे।''''मैं तो जब से गुजरात आया हँू बेसन ही खा रहा हँू। पता है बेसन को यहाँ क्या बो�त ेहैं? चने का �ोट।''पता नहीं यह जैन धम@ का प्रभाव था या गाँधीवाद का, गुजरात में मांस, मछ�ी और अंडे की दुकानें मुश्किश्क� से देखने में आतीं। होस्ट� में रहने के कारण पवन के लि�ए अंडा भोजन का पया@य था पर यहाँ लिस�@ स्टेशन के आस-पास ही अंडा ष्टिम�ता। वहीं त�ी हुई मछ�ी की भी चुनी दुकानें थीं। पर अक्सर मेम नगर से स्टेशन तक आने की और टै्रफ़ि�क में Pँसने की उसकी इच्छा न होती। तब वह फ़िकसी अचे्छ रेस्तराँ में साष्टिमर्ष भोजन कर अपनी त�ब पूरी करता। वे अपने पुराने दिदन याद करते रहे, दोनों के बीच में �ड़कपन की बेशुमार बेवकूफ़ि�याँ कॉमन थीं और पढ़ाई के संघर्ष@। पवन ने कहा, ''पह�े दिदन जब तुम अमदाबाद आए तब की बात बताना ज़रा।''''तुम कभी अमदाबाद कहते हो कभी अहमदाबाद, यह चक्कर क्या है।''''ऐसा है अपना गुजराती क्�ायंट अहमदाबाद को अमदाबाद ही बो�ना माँगता, तो अपुन भी ऐसाइच बो�ने का।''''मैं कहता हँू यह एकदम व्यापारी शहर है, सौ प्रफ़ितशत। मैं चा�ीस घंटे के स�र के बाद यहाँ उतरा। एक थ्री व्ही�र वा�े से पूछा, ''आई.आई.एम. च�ोगे?'' फ़िकदर बो�ने से, उसने पूछा। मैंने कहा, ''भाई वस्त्रापुर में जहाँ मैनेजरी की पढ़ाई होती है, उसी जगह जाना है। तो जानते हो सा�ा क्या बो�ा, टू हंडे्रड भाड़ा �गेगा। मैंने कहा तुम्हारा दिदमाग़ तो ठीक है। उसने कहा, साब आप उदर से पढ़ कर बीस हज़ार की नौकरी पाओगे, मेरे को टू हंडे्रड देना आपको ज़्यादा �गता क्या?''''तुम्हारा लिसर घूम गया था?''''बाई गॉड। मुझे �गा वह एकदम ठग्गू है। पर जिजस भी थ्री व्ही�र वा�े से मैंने बात की सबने यही रेट बताया।''''मुझे याद है, शाम को तुमने मुझसे ष्टिम� कर सबसे पह�े यही बात बताई थी।''''सच्ची बात तो यह है फ़िक अपने घर और शहर से बाहर आदमी हर रोज़ एक नया सबक सीखता है।''''और बताओ, जॉब ठीक च� रहा है?''''ठीक क्या यार, मैंने कंपनी ही ग़�त चुन �ी।''''बैनर तो बड़ा अच्छा है, स्टाट@ भी अच्छा दिदया है?''''पर प्रॉडक्ट भी देखो। बूट पॉलि�श। हा�त यह है फ़िक डिह दुस्तान में लिस�@ दस प्रफ़ितशत �ोग चमडे़ के जूत ेपहनते हैं।''''बाकी नlबे क्या नंगे पैर फ़िPरते हैं?''''मज़ाक नहीं, बाकी �ोग चप्प� पहनते हैं या �ोम शुज़। �ोम के जूत ेकपड़ों की तरह फ़िडटरजेंट से धु� जाते हैं और चप्प� चटकाने वा�े पॉलि�श के बारे में कभी सोचते नहीं। पॉलि�श फ़िबके तो कैसे?'' पवन ने कौतुक से रेस्तराँ में कुछ पैरों की तर� देखा। अष्टिधकांश पैरों में �ोम के मोटे जूत ेथे। कुछ पैरों में चप्प�ें थीं।''अभी हेड ऑफ़ि�स से �ैक्स आया है फ़िक मा� की अग�ी खेप त्तिभजवा रहे हैं। अभी फ़िपछ�ा मा� फ़िबका नहीं है। दुकानदार कहते हैं वे और ज़्यादा मा� स्टोर नहीं करेंगे, उनके यहाँ जगह की फ़िकल्�त है। ऐसे में मेरी सनशाइन शू पॉलि�श क्या करें?''''डी�र को कोई फ़िगफ़्ट ऑ�र दो, तो वह मा� फ़िनका�े।''''सबको सनशाइन रखने के लि�ए वॉ� रैक दिदए हैं, डी�स@ कमीशन बढ़वाया है पर मैंने खुद खडे़ हो कर देखा है, काउंटर से� नहीं के बराबर है।''पवन ने सुझाव दिदया, ''कोई रणनीफ़ित सोचो। कोई इनामी योजना, हॉलि�डे प्रोग्राम?''''इनामी योजना का सुझाव भेजा है। हमारा टारगेट उपभोक्ता स्कू�ी फ़िवद्याथj हैं। उसकी दिद�चस्पी टॉPी या पेन में हो सकती है, हॉलि�डे प्रोग्राम में नहीं।''''हाँ, यह अच्छी योजना है।''''बाइ गॉड, अगर पब्लिl�क स्कू�ों में चमडे़ के जूते पहनने का फ़िनयम न होता तो सारी बूट पॉलि�श कंपफ़िनयाँ बंद हो जातीं। इन्हीं के बूते पर बाटा, कीवी, फ़िबल्�ी, सनशाइन सब ज़िज़ दा हैं।''''इस लि�हाज़ से मेरी प्रॉडक्ट बदिढ़या है। हर सीज़न में हर तरह के आदमी को गैस लिस�ेंडर की ज़रूरत रहती है। �ेफ़िकन यार जब थोक में प्रॉडक्ट फ़िनका�नी हो, यह भी भारी पड़ जाती है।''पवन उठ खड़ा हुआ, ''थोड़ी देर और बैठे तो यहाँ फ़िडनर टाइम हो जाएगा। तुम कहाँ खाना खाते हो आजक�।''''वहीं जहाँ तुमने बताया था, मौसी के। और तुम?''''मैं भी मौसी के यहाँ खाता हँू पर मैंने मौसी बद� �ी है।''''क्यों?''''वह क्या है यार मौसी कढ़ी और करे�े में भी गुड़ डा� देती थीं और खाना परोसने वा�ी उसकी बेटी कुछ ऐसी थी फ़िक झे�ी नहीं जाती थी।''''हमारी वा�ी मौसी तो बहुत सख़्त ष्टिमज़ाज है, खाते वक्त आप वॉकमैन भी नहीं सुन सकते। बस खाओ और जाओ।''''यार कुछ भी कहो अपने शहर का खस्ता, समोसा बहुत याद आता है।''शहर में जगह-जगह घरों में मफ़िह�ाओं ने माहवारी फ़िहसाब पर खाना खिख�ाने का प्रबंध कर रखा था। नौकरी पेशा छडे़ (अफ़िववाफ़िहत) युवक उनके घरों में जा कर खाना खा �ेते। रोटी सlज़ी, दा� और चाव�। न रायता न चटनी न स�ाद। दर तीन सौ पचास रुपए महीना, एक वक्त। इन मफ़िह�ाओं को मौसी कहा जाता। भ�े ही उनकी उम्र पचीस हो या पचास। रात साढे़ नौ के बाद खाना नहीं ष्टिम�ता। तब ये �ड़के उडुपी भोजना�य में एक मसा�ा दोसा खा कर सो जाते। इतनी तक�ी� में भी इन युवकों को कोई लिशकायत न होती। अपने उद्यम से रहने और जीने का संतोर्ष सबके अंदर।घर गृहस्थी वा�े साथी पूछते, ''ज़िज दगी के इस ढंग से कC नहीं होता?''''होता है कभी-कभी।'' अनुपम कहता, ''सन 84 से बाहर हँू। पह�े पढ़ने की ख़ाफ़ितर, अब काम की।'' कभी-कभी छुट्टी के दिदन अनुपम लि�ट्टी चोखा बनाता। बाकी �ड़के उसे लिचढ़ाते, ''तुम अनुपम नहीं अनुपमा हो।''वह बे�न हाथ में नचाते हुए कहता, ''हम अपने �ा�ू अंक� को लि�खँूगा इधर में तुम सब बुतरू एक सीधे सादे फ़िबहारी को सताते हो।''

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जब आप अपना शहर छोड़ देते हैं, अपनी लिशकायतें भी वहीं छोड़ आते हैं। दूसरे शहर का हर मंज़र पुरानी यादों को कुरेदता है। मन कहता है ऐसा क्यों है वैसा क्यों नहीं है? हर घर के आगे एक अदद टाटा सुमो खड़ी है। मारुफ़ित 800 क्यों नहीं? तक@ शलिक्त से तय फ़िकया जा सकता है फ़िक यह परिरवार की ज़रूरत और आर्चिथ क हैलिसयत का परिरचय पत्र है। पर यादें हैं फ़िक �ौट-�ौट आती हैं लिसफ़िव� �ाइंस, ए�फ़िगन रोड और चैथम �ाइंस की सड़कों पर जहाँ मालिचस की फ़िडफ़िबयों जैसी कारें और स्टिस्टयरिर ग के पीछे बैठे नमकीन चेहरे तफ़िबयत तरोताज़ा कर जाते। ओP, नए शहर में सब कुछ नया है। यहाँ दूध ष्टिम�ता है पर भैसें नहीं दिदखतीं। कहीं साइफ़िक� की घंटी टनटनाते दूध वा�े नज़र नहीं आते। बड़ी-बड़ी सुसब्लि�त डेरी शॉप हैं, एयरकंडीशंड, जहाँ आदमकद चमचमाती स्टी� की टंफ़िकयों में टोटी से दूध फ़िनक�ता है। ठंडा, पास्चराइज्ड। वहीं ष्टिम�ता है दही, दुग्ध ना पेड़ा और श्रीखंड।यही हा� तरकारिरयों का है। हर का�ोनी के गेट पर सुबह तीन चार घंटे एक ऊँचा ठे�ा तरकारिरयों से सजा खड़ा रहेगा। वह घर-घर घूम कर आवाज़ नहीं �गाता। स्त्रिस्त्रयाँ उसके पास जाएगँी और ख़रीदारी करेंगी। उसके ठे�े पर ख़ास और आम तरकारिरयों का अंबार �गा है। हरी लिशम�ा ष्टिमच@ है तो �ा� और पी�ी भी। गोभी है तो ब्रोको�ी भी। स�ाद की शक्� का थाई कैबेज भी दिदखाई दे जाता है। ख़ास तरकारिरयों में फ़िकसी की भी कीमती डेढ़ दो सौ रुपए फ़िक�ो से कम नहीं। ये बडे़-बडे़ �ा� टमाटर एक तर� रखे हैं फ़िक दूर से देखने पर प्�ास्टिस्टक की गेंद �गत ेहैं। ये टमाटर क्यारी में नहीं प्रयोगशा�ा में उगाए गए �गते हैं। कीमत दस रुपए पाव। टमाटर का आकार इतना बड़ा है फ़िक एक पाँव में एक ही चढ़ सकता है। दस रुपए का एक टमाटर है। भगवान क्या टमाटर भी एन.आर.आई. हो गया। लिशकागो में एक डॉ�र का एक टमाटर ष्टिम�ता है। भारत में टमाटर उसी दिदशा में बढ़ रहा है। तरकारिरयाँ फ़िवश्व बाज़ार की जिजन्स बनती जा रही हैं। इनका भूमंड�ीकरण हो रहा है। पवन को याद आता है उसके शहर में घूरे पर भी टमाटर उग जाता था। फ़िकसी ने पका टमाटर कूडे़ करकट के ढेर पर Pें क दिदया, वहीं पौधा �ह�हा उठा। दो माह बीतते न बीतते उसमें P� �ग जाते। छोटे-छोटे �ा� टमाटर, रस से ट�म�, यहाँ जैसे बडे़ बेजान और बनावटी नहीं, अस� और खटष्टिमटे्ठ।शहर के बाज़ारों में घूमना पवन, शरद, दीपेंद्र, रोज़डिव दर और लिशल्पा का शौक भी है और दिदनचया@ भी। रोज़डिव दर कौर प्रदूर्षण पर प्रोजेक्ट रिरपोट@ तैयार कर रही है। कंधे पर पस@ और कैमरा �टकाए कभी वह एलि�स फ़िब्रज के टै्रफ़ि�क जाम के लिचत्र उतारती है तो कभी बाज़ार में जैनरेटर से फ़िनक�ने वा�े धुए ँका जायज़ा �ेती है। दीपेंद्र कहता है, ''रोजू तुम्हारी रिरपोट@ से क्या होगा। क्या टैंपो और जेनरेटर धुआँ छोड़ना बंद कर देंगे?''रोजू लिसगरेट का आखिख़री कश �े कर उसका टोटा पैर के नीचे कुच�ती है, ''माई Pुट! तुम तो मेरे जॉब को ही चुनौती दे रहे हो। मेरी कंपनी को इससे मत�ब नहीं है फ़िक वाहन धुए ँके बगै़र च�ें। उसकी योजना है हवा शुजिद्धकरण संयंत्र बनाने की। एक हब@� स्प्रे भी बनाने वा�ी है। उसे एक बार नाक के पास स्प्रे कर �ो तो धुए ँका प्रदूर्षण आपकी साँस के रास्ते अंदर नहीं जाता।''''और जो प्रदूर्षण आँख और मुँह के रास्ते जाएगा वह?''''तो मुँह बंद रखो और आँख में डा�ने को आइ ड्राप �े आओ।''पवन के मुँह से फ़िनक� जाता है, ''मेरे शहर में प्रदूर्षण नहीं है।''''आ हा हा, पूरे फ़िवश्व में प्रदूर्षण चिच ता का फ़िवर्षय है और ये पवन कुमार आ रहे हैं सीधे स्वग@ से फ़िक वहाँ प्रदूर्षण नहीं हैं। तुम इ�ाहाबाद के बारे में रोमांदिटक होना कब छोड़ोगे?''रोजू हँसती है, ''वॉट ही मीन्स इज वहाँ प्रदूर्षण कम है। वैसे पवन मैंने सुना है यू.पी. में अभी भी फ़िकचन में �कड़ी के चूल्हे पर खाना बनता है। तब तो वहाँ घर के अंदर ही धुआँ भर जाता होगा?''''इ�ाहाबाद गाँव नहीं शहर है, काव� टाउन। लिशक्षा जगत में उसे पूव@ का ऑक्सPोड@ कहत ेहैं।''लिशल्पा काबरा बातचीत को फ़िवराम देती है, ''ठीक है, अपने शहर के बारे में थोड़ा रोमांदिटक होने में क्या हज़@ है।''पवन कृतज्ञता से लिशल्पा को देखता है। उसे यह सोच कर बुरा �गता है फ़िक लिशल्पा की गै़र मौजूदगी में वे सब उसके बारे में हल्केपन से बो�ते हैं। पवन का ही दिदया हुआ �ती�ा है लिशल्पा काबरा, लिशल्पा का ब्रा। 'फ़िवश्वास नी जोत घरे-घरे— गुज़@र गैस �ावे छे' यह नारा है पवन की कंपनी का। इस संदेश को प्रचारिरत प्रसारिरत करने का अनुबंध शीबा कंपनी को साठ �ाख में ष्टिम�ा है। उसने भी सड़कें और चौराहे रंग डा�े हैं।   ए�.पी.जी. फ़िवभाग में काम करने वा�ों के हौस�े और हसरतें बु�ंद हैं। सबको यकीन है फ़िक वे जल्द ही आई। ओ.सी. को गुजरात से खदेड़ देंगे। फ़िनदेशक से �े कर फ़िड�ीवरी मैन तक में काम के प्रफ़ित तत्परता और तन्मयता है। मेम नगर में जहाँ जी.जी.सी.ए�. का दफ़्तर है, वह एक खूबसूरत इमारत है, तीन तर� हरिरया�ी से ष्टिघरी। सामने कुछ और खूबसूरत मकान हैं जिजनके बरामदों में फ़िवशा� झू�े �गे हैं। बग� में सेंट जे़फ़िवयस@ स्कू� है। छुट्टी की घंटी पर जब नी�े यूनीPाम@ पहने छोटे-छोटे बच्चे स्कू� के Pाटक से बाहर भीड़ �गाते हैं तो जी.जी.सी.ए�. के �ा� लिसचि� डरों से भरे �ा� वाहन बड़ा बदिढ़या कांट्रास्ट बनाते हैं �ा� नी�ा, नी�ा �ा�।अटैची में कपडे़, आँखों में सपने और अंतर में आकु�ता लि�ए न जाने कहाँ-कहाँ से नौजवान �ड़के नौकरी की ख़ाफ़ितर इस शहर में आ पहँुचे हैं। बड़ी-बड़ी सर्तिव स इंडस्ट्री में काय@रत ये नवयुवक सबेरे नौ से रात नौ तक अथक परिरश्रम करते हैं। एक दफ़्तर के दो तीन �ड़के ष्टिम� कर तीन या चार हज़ार तक के फ़िकराये का एक फ्�ैट �े �ेते हैं। सभी बराबर का शेयर करते हैं फ़िकराया, दूध का फ़िब�, टाय�ेट का सामान, �ांड्री का खच@। इस अनजान शहर में रम जाना उनके आगे नौकरी में जम जाने जैसी ही चुनौती है, हर स्तर पर। कहाँ अपने घर में ये �ड़के शहज़ादों की तरह रहते थे, कहाँ सारी सुख सुख-सुफ़िवधाओं से वंलिचत, घर से इतनी दूर ये सब सP�ता के संघर्ष@ में �गे हैं। न इन्हें भोजन की चिच ता है न आराम की। एक आँख कंप्यूटर पर गड़ाए ये भोजन की रस्म अदा कर �ेते हैं और फ़िPर �ग जाते हैं कंपनी के व्यापार �क्ष्य को लिसद्ध करने में। ज़ाफ़िहर है, व्यापार या �ाभ �क्ष्य इतने ऊँचे होते हैं फ़िक लिसजिद्ध का सुख हर एक को हालिस� नहीं होता। लिसजिद्ध, इस दुफ़िनया में, एक चार पफ़िहया दौड़ है जिजसमें स्टिस्टयरिर ग आपके हाथ में है पर बाकी सारे कंट्रोल्स कंपनी के हाथ में। वही तय करती है आपको फ़िकस रफ़्तार से दौड़ना है और कब तक।बीसवीं शताlदी के अंफ़ितम दशक के तीन जादूई अक्षरों ने बहुत से नौजवानों के जीवन और सोच की दिदशा ही बद� डा�ी थी। ये तीन अक्षर थे एम.बी.ए.। नौकरिरयों में आरक्षण की आँधी से सकपकाए सवण@ परिरवार धड़ाधड़ अपने बेटे बेदिटयों को एम.बी.ए. में दाखिख� होने की स�ाह दे रहे थे। जो बच्चा पवन, लिशल्पा और रोज़डिव दर की तरह कैट, मैट जैसी प्रवेश परीक्षाए ँफ़िनका� �े वह तो ठीक, जो न फ़िनका� पाए उसके लि�ए �ंबी-चौड़ी कैफ़िपटेशन Pीस देने पर एम.एम.एस. के द्वार खु�े थे। हर बड़ी संस्था ने ये दो तरह के कोस@ बना दिदए थे। एक के ज़रिरए वह प्रफ़ितष्ठा अर्जिज त करती थी तो दूसरी के ज़रिरए धन। समाज की तरह लिशक्षा में भी वगjकरण आता जा रहा था। एम.बी.ए. में �ड़के वर्ष@ भर पढ़ते, प्रोजेक्ट बनाते, रिरपोट@ पेश करते और हर सत्र की परीक्षा में उvीण@ होने की जी तोड़ मेहनत करते। एम.एम.एस. में रईस उद्योगपफ़ितयों, सेठों के फ़िबगडे़ शाहज़ादे एन.आर.आई. कोटे से प्रवेश �ेते, जम कर वक्त बरबाद करते और दो की जगह तीन सा� में फ़िडग्री �े कर अपने फ़िपता का व्यवसाय सँभा�ने या फ़िबगाड़ने वापस च�े जाते। शरद के फ़िपता इ�ाहाबाद के नामी लिचफ़िकत्सक थे। संतान को एम.बी.बी.एस. में दाखिख� करवाने की उनकी कोलिशशें नाकामयाब रहीं तो उन्होंने एकमुश्त कैफ़िपटेशन Pीस दे कर उसका नाम एम.एम.एस. में लि�खवा दिदया। एम.एम.एस. फ़िडग्री के बाद उन्होंने अपने रसूख से उसे सनशाइन बूट पॉलि�श में नौकरी भी दिद�वा दी पर इसमें सP� होना शरद की जिज़म्मेवारी थी। उसे अपने फ़िपता का कठोर चेहरा याद आता और वह सोच �ेता नौकरी में चाहे

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फ़िकतनी Pजीहत हो वह सह �ेगा पर फ़िपता की फ़िहक़ारत वह नहीं सह सकेगा। कंपनी के एम. डी. जब तब हेड ऑफ़ि�स से आ कर चक्कर काट जाते। वे अपने मैनेजरों को भेज कर जायज़ा �ेते और शरद व उसके सालिथयों पर बरस पड़ते, ''पूरे माक{ ट में फ़िबल्�ी छाई हुई है। शो रूस से �े कर होर्डिंड ग और बैनर तक, सब जगह फ़िबल्�ी ही फ़िबल्�ी है। आप �ोग क्या कर रहे हैं। अगर स्टोरेज की फ़िकल्�त है तो फ़िबल्�ी के लि�ए क्यों नहीं, सनशाइन ही क्यों?'' शरद और साथी अपने पुराने तक@ प्रस्तुत करते तो एम.डी. ताम्रपणj साहब और भड़क जाते, ''फ़िबल्�ी पालि�श क्या Pोम शूज़ पर �गाई जा रही है या उससे चप्प�ें चमकाई जा रही हैं।''इस बार उन्होंने शरद और उसके सालिथयों को फ़िनद{श दिदया फ़िक नगर के मोलिचयों से बात कर रिरपोट@ दें फ़िक वे कौन-सी पॉलि�श इस्तेमा� करते हैं और क्यों?एम.डी. तो Pँू-Pाँ कर च�ते बने, �ड़कों को मोलिचयों से लिसर खपाने के लि�ए छोड़ गए। शरद और उसके सहकमj सुबह नौ से बारह के समय शहर के मोलिचयों को ढँूढ़ते, उनसे बात करते और नोट्स �ेते।दरअस� बाज़ार में दिदन पर दिदन स्पधा@ कड़ी होती जा रही थी। उत्पादन, फ़िवपणन और फ़िवक्रय के बीच ता�मे� बैठाना दुष्कर काय@ था। एक-एक उत्पाद की टक्कर में बीस-बीस वैकब्लिल्पक उत्पाद थे। इन सबको शे्रष्ठ बताते फ़िवज्ञापन अत्तिभयान थे जिजनके प्रचार प्रसार से माक{ टिट ग का काम आसान की बजाय मुश्किश्क� होता जाता। उपभोक्ता के पास एक-एक चीज़ के कई चमकदार फ़िवकल्प थे।रोज़डिव दर ने पुरानी कंपनी छोड़ कर इंफ़िडया �ीवर के टूथपेस्ट फ़िडवीजन में काम सँभा�ा था। उसे आजक� दुफ़िनया में दाँत के लिसवा कुछ नज़र नहीं आता था। वह कहती, ''हमारी प्रोडक्ट के एक-एक आइटम को इतना प्रचारिरत कर दिदया गया है फ़िक अब इसमें बस साबुन ष्टिम�ाने की कसर बाकी है।'' रेफ़िडयो और टी.वी.पर दिदन में सौ बार दश@क और श्रोता की चेतना को झकझोरता फ़िवज्ञापन माक{ टिट ग के प्रयासों में चुनौती और चेतावनी का काम करता। उपभोक्ता बहुत ज़्यादा उम्मीद के साथ टूथपेस्ट ख़रीदता जो एकबारगी पूरी न होती दिदखती। वह वापस अपने पुराने टूथपेस्ट पर आ जाता फ़िबना यह सोचे फ़िक उसे अपने दाँतों की बनावट खान-पान के प्रकार और प्रकृफ़ित और वंशानुगत सीमाओं पर भी ग़ौर करना चाफ़िहए।शरद को �गता बूट पालि�श बेचना सबसे मुश्किश्क� काम है तो रोज़डिव दर को �गता ग्राहकों के मुँह नया टूथपेस्ट चढ़वाना चुनौतीपरक है और पवन पांडे को �गता वह अपनी कंपनी का टारगेट, फ़िवक्रय �क्ष्य, कैसे पूरा करे। खा�ी समय में अपने-अपने उत्पाद पर बहस करते-करते वे इतना उत्पात करते फ़िक �गता सP�ता का कोई सट्टा खे� रहे हैं। पवन म्यूजिज़क लिसस्टम पर गाना �गा देता, ''ये तेरी नज़रें झुकी-झुकी, ये तेरा चेहरा खिख�ा-खिख�ा। बड़ी फ़िकस्मत वा�ा है'' - 'सनी टूथपेस्ट जिजसे ष्टिम�ा' रोज़डिव दर गाने की �ाइन पूरी करती।ऐनाग्राम Pाइनेंस कंपनी के सौजन्य से शहर में तीन दिदवसीय सांस्कृफ़ितक काय@क्रम का आयोजन हुआ। गुजरात फ़िवश्वफ़िवद्या�य के फ़िवशा� परिरसर में बेहद संुदर साज़-स�ा की गई। गुजरात वैसे भी पंडा� रचना में परंपरा और मौलि�कता के लि�ए फ़िवख्यात रहा है, फ़िPर इस आयोजन में बजट की कोई सीमा न थी। पवन, लिशल्पा, रोजू, शरद और अनुपम ने पह�े ही अपने पास मँगवा लि�ए। पह�े दिदन नृत्य का काय@क्रम था, अग�े दिदन ता�-वाद्य और पंफ़िडत भीमसेन चौरलिसया का बाँसुरी वादन और लिशवकुमार शमा@ का संतूर वादन। अहमदाबाद जैसी औद्योफ़िगक, व्यापारिरक नगरी के लि�ए यह एक अभूतपूव@ संस्कृफ़ित संगम था।आयोजन का समस्त प्रबंध ए.एP.सी. के युवा मैनेजरों के जिज़म्मे था। मुक्तांगन में पंद्रह हज़ार दश@कों के बैठने का इंतज़ाम था। परिरसर के चार कोनों तथा बीच-बीच में दो जगह फ़िवशा� सुपर स्क्रीन �गे थे जिजन पर मंच के क�ाकारों की छफ़िव पड़ रही थी। इससे मंच से दूर बैठे दश@कों को भी क�ाकार के समीप होने की अनुभूफ़ित हो रही थी। दश@कों की सीटों से हट कर, परिरसर की बाहरी दीवार के क़रीब एक स्नैक बाज़ार �गाया गया था। सांस्कृफ़ितक काय@क्रम में प्रवेश फ़िनःशुल्क था हा�ाँफ़िक खान-पान के लि�ए सबके पचास रुपए प्रफ़ित व्यलिक्त के फ़िहसाब से कूपन खरीदना अफ़िनवाय@ था।दूसरे दिदन पवन भीमसेन जोशी को सुनने गया था। सुपर स्क्रीन पर भीमसेन जोशी महा भीमसेन जोशी नज़र आ रहे थे। 'सब है तेरा' अंतरे पर आते-आत ेउन्होंने हमेशा की तरह सुर और �य का समा बाँध दिदया। �ेफ़िकन पवन को इस बात से उ�झन हो रही थी फ़िक आसपास की सीटों के दश@कों की दिद�चस्पी गायन से अष्टिधक खान-पान में थी। वे बार-बार उठ कर स्नैक बाज़ार जाते, वहाँ से अंक� लिचप्स के पैकेट और पेप्सी �ाते। देखते ही देखते पूरे माहौ� में राग अहीर भैरव के साथ कुर@-कुर@ चुर@-चुर@ की ध्वफ़िनयाँ भी शाष्टिम� हो गईं। अष्टिधकांश दश@कों के लि�ए वहाँ देखे जाने के अंदाज़ में उपब्लिस्थफ़ित महत्वपूण@ थी।पवन ने अपने शहर में इस क�ाकार को सुना था। मेहता संगीत सष्टिमफ़ित के हा� में खचाखच भीड़ में स्तब्ध सराहना में सम्मोफ़िहत. इ�ाहाबाद में आज भी साफ़िहत्य संगीत के सवा@ष्टिधक मम@ज्ञ और रसज्ञ नज़र आते हैं। वहाँ इस तरह बीच में उठ कर खाने-पीने का कोई सोच भी नहीं सकता।अपने शहर के साथ ही घर की याद उमड़ आई। उसने सोचा प्रोग्राम ख़त्म होने पर वह घर �ोन करेगा। माँ इस वक्त क्या कर रही होंगी, शायद दही में जामन �गा रही होंगी- दिदन का आखिख़री काम। पापा क्या कर रहे होंगे, शायद समाचारों की पचासवीं फ़िकस्त सुन रहे होंगे। भाई क्या कर रहा होगा। वह ज़रूर टे�ी�ोन से लिचपका होगा। उसके कारण �ोन इतना व्यस्त रहता है फ़िक खुद पवन को अपने घर बात करने के लि�ए भी पी.सी.ओ पर एकेक घंटे बैठना पड़ जाता है। अंततः जब �ोन ष्टिम�ता है सघन से पता च�ता है फ़िक माँ पापा की अभी-अभी आँख �गी है। कभी उनसे बात होती है, कभी नहीं होती। जब माँ डिन दासे स्वर में पूछती हैं, ''कैसे हो पुनू्न, खाना खा लि�या, लिचठ्ठी डा�ा करो।'' वह हर बात पर हाँ-हाँ कर देता है। पर तसल्�ी नहीं होती। उसका अपनी माँ से बेहद जीवंत रिरश्ता रहा है। �ोन जैसे यंत्र को बीच में डा� कर, लिस�@ उस तक पहँुचा जा सकता है, उसे पुनसृ@जिजत नहीं फ़िकया जा सकता। वह माँ के चेहरे की एक-एक ज¥ंफ़िबश देखना चाहता है। फ़िपता हँसते हुए अद्भतु संुदर �गत ेहैं। इतनी दूर बैठ कर पवन को �गता है माता फ़िपता और भाई उसके अ�बम की सबसे संुदर तस्वीरें हैं। उसे �गा अब सघन फ़िकस से उ�झता होगा। सारा दिदन उस पर �दा रहता था, कभी तक़रार में कभी �ाड़ में। कई बार सघन अपना छुटपन छोड़ कर बड़ा भइया बन जाता। पवन फ़िकसी बात से खिखन्न होता तो सघन उससे लि�पट-लि�पट कर मनाता, ''भइया बताओ क्या खाओगे? भइया तुम्हारी शट@ आयरन कर दें? भइया हमें लिसफ़िब� �ाइंस �े च�ोगे।''साफ़िहत्य प्रेमी माता फ़िपता के कारण घर में कमरे फ़िकताबों से अटे पडे़ थे। स्कू� की पढ़ाई में बाहरी सामान्य फ़िकताबें पढ़ने का अवकाश नहीं ष्टिम�ता था फ़िPर भी जो थोड़ा बहुत वह पढ़ जाता था, अपने पापा और माँ के उकसाने के कारण। उन्होंने उसे प्रेमचंद की कहाफ़िनयाँ और कुछ �ेख पढ़ने को दिदए थे। 'क�न', 'पूस की रात' जैसी कहाफ़िनयाँ उसके जेहन पर नक्श हो गई थीं �ेफ़िकन �ेखों के संदभ@ सब गड्ड-मड्ड हो गए थे।अध्ययन के लि�ए अब अवकाश भी नहीं था। कंपनी की कम@भूष्टिम ने उसे इस युग का अत्तिभमन्यु बना दिदया था। घर की बहुत हुड़क उठने पर �ोन पर बात करता। एक आँख बार-बार मीटर स्क्रीन पर उठ जाती। छोटू कोई चुटकु�ा सुना कर हँसता। पवन भी हँसता, फ़िPर कहता, ''अच्छ छोटू अब काम की बात कर, चा�ीस रुपए का हँस लि�ए हम �ोग।'' माँ पूछती, ''तुमने गद्दा बनवा लि�या।'' वह कहता, ''हाँ माँ बनवा लि�या।'' सच्चाई यह थी फ़िक गद्दा बनवाने की �ुस@त ही उसके पास नहीं थी। घर से Pोम की रजाई �ाया था, उसी को फ़िबस्तर पर गदे्द की तरह फ़िबछा रखा था। पर उसे पता था फ़िक 'नहीं' कहने पर माँ नसीहतों के ढेर �गा देंगी, ''गदे्द के बगै़र कमर अकड़ जाएगी। मैं यहाँ से बनवा कर भेजँू? अपना ध्यान भी नहीं रख पाता, ऐसी नौकरी फ़िकस काम की। पब्लिl�क सेक्टर में आ जा, चैन से तो रहेगा।''अहमदाबाद इ�ाहाबाद के बीच एस.टी.डी. कॉ� की पल्स रेट दिद� की धड़कन जैसी सरपट च�ती है 3-6-9-12 पाँच ष्टिमनट बात कर अभी मन भी नहीं भरा होता फ़िक सौ रुपए फ़िनक� जाते। तब उसे �गता 'टाइम इज़ मनी'। वह अपने को ष्टिधक्कारता फ़िक घर वा�ों से बात करने में भी वह महाजनी दिदखा रहा है पर शहर में अन्य मद¬ पर इतना खच@ हो जाता फ़िक �ोन के लि�ए पाँच सौ से ज़्यादा गँुजाइश बजट में न रख पाता।

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शफ़िन की शाम पवन हमेशा की तरह अत्तिभर्षेक शुक्�ा के यहाँ पहँुचा तो पाया वहाँ माहौ� अ�ग है। प्रायः यह होता फ़िक वह, अत्तिभर्षेक, उसकी पत्नी राजु� और उनके नन्हे बेटे अंकुर के साथ कहीं घूमने फ़िनक� जाता। �ौटते हुए वे बाहर ही फ़िडनर �े �ेत ेया कहीं से बदिढ़या सlज़ी पैक करा कर �े आते और बे्रड से खाते। आज अंकुर जिज़द पकडे़ था फ़िक पाक@ में नहीं जाएगँे, बाज़ार जाएगँे।राजु� उसे मना रही थी, ''अंकुर पाक@ में तुम्हें भा�ू दिदखाएगेँ और खरगोश भी।''''वो सब हमने देख लि�या, हम बजा� देखेंगे।''हार कर वे बाज़ार च� दिदए। खिख�ौनों की दुकान पर अंकुर अड़ गया। कभी वह एयरगन हाथ में �ेता कभी टे्रन। उसके लि�ए तय करना मुश्किश्क� था फ़िक वह क्या �े। पवन ने इ�ेक्ट्राफ़िनक बंदर उसे दिदखाया जो तीन बार कूदता और खों-खों करता था।अंकुर पह�े तो चुप रहा। जैसे ही वे �ोग दाम चुका कर बंदर पैक करा कर च�ने �गे अंकुर मच�ने �गा, ''बंदर नहीं गन �ेनी है।'' राहु� ने कहा, ''गन गंदी, बंदर अच्छा। राजा बेटा बंदर से खे�ेगा।''''हम ठांय-ठांय करेंगे हम बंदर Pें क देंगे।''फ़िPर से दुकान पर जा कर खिख�ौने देखे गए। बेमन से एयरगन फ़िPर फ़िनक�वाई। अभी उसे देख, समझ रहे थे फ़िक अंकुर का ध्यान फ़िPर भटक गया। उसने दुकान पर रखी साइफ़िक� देख �ी।''लिछफ़िक� �ेना, लिछफ़िक� �ेना।'' वह लिचल्�ाने �गा।''अभी तुम छोटे हो। ट्राइलिसफ़िक� घर में है तो।'' राजु� ने समझाया।अत्तिभर्षेक की सहनशलिक्त ख़त्म हो रही थी, ''इसके साथ बाज़ार आना मुसीबत है, हर बार फ़िकसी बड़ी चीज़ के पीछे �ग जाएगा। घर में खिख�ौने रखने की जगह भी नहीं है और य ेख़रीदता च�ा जाता है।''बडे़ कौश� से अंकुर का ध्यान वापस बंदर में �गाया गया। दुकानदार भी अब तक उकता चुका था। इस सब चक्कर में इतनी देर हो गई फ़िक और कहीं जाने का वक्त ही नहीं बचा। वापसी में वे �ा गाड@न से सटे माक{ ट में भे�पुरी, पानीपूरी खाने रुक गए। माक{ ट ग्राहकों से ठसाठस भरा था। अंकुर ने कुछ नहीं खाया उसे नींद आने �गी। फ़िकसी तरह उसे कार में लि�टा कर वे घर आए।अत्तिभर्षेक ने कहा, ''पवन तुम �की हो, अभी तुम्हारी जान को न बीवी का झंझट है न बच्चे का।''राजु� तुनक गई, ''मेरा क्या झंझट है तुम्हें?''''मैं तो जनर� बात कर रहा था।''''यह जनर� नहीं स्पेश� बात थी। मैंने तुम्हें पह�े कहा था मैं अभी बच्चा नहीं चाहती। तुमको ही बच्चे की पड़ी थी।''पवन ने दोनों को समझाया, ''इसमें झगडे़ वा�ी कोई बात नहीं है। एक बच्चा तो घर में होना ही चाफ़िहए। एक से कम तो पैदा भी नहीं होता, इसलि�ए एक तो होगा ही होगा।''अत्तिभर्षेक ने कहा, ''मैं बहुत थका हुआ हँू। नो मोर फ़िडस्कशन।''�ेफ़िकन राजु� का मूड ख़राब हो गया। वह घर के आखिख़री काम फ़िनपटाते हुए भुनभुनाती रही, ''डिह दुस्तानी मद@ को शादी के सारे सुख चाफ़िहए बस जिज़म्मेदारी नहीं चाफ़िहए। मेरा फ़िकतना हज@ हुआ। अच्छी भ�ी सर्तिव स छोड़नी पड़ी। मेरी सब क�ीग्स कहती थीं राजु� अपनी आज़ादी चौपट करोगी और कुछ नहीं। आजक� तो डिड क्स का ज़माना है। डब� इनकम नो फ़िकड्स (दोहरी आमदनी, बच्चे नहीं)। सेंदिटमेंट के चक्कर में Pँस गई।'' फ़िकसी तरह फ़िवदा �े कर पवन वहाँ से फ़िनक�ा।कंपनी ने पवन और अनुपम का तबाद�ा राजकोट कर दिदया। वहाँ उन्हें नए लिसरे से ऑफ़ि�स शुरू करना था, ए�.पी.जी. का रिरटे� माक{ ट सँभा�ना था और पुरे सौराष्ट्र में जी.जी.सी. संजा� Pै�ाने की संभावनाओं पर प्रोजेक्ट तैयार करना था।तबाद�े अपने साथ तक�ी� भी �ाते हैं पर इन दोनों को उतनी नहीं हुई जिजतनी आशंका थी। इनके लि�ए अहमदाबाद भी अनजाना था और राजकोट भी। परदेसी के लि�ए परदेस में पसंद क्या, नापसंद क्या। अहमदाबाद में इतनी जड़ें जमी भी नहीं थीं फ़िक उखडे़ जाने पर दद@ हो। पर अहमदाबाद राजकोट माग@ पर डी�क्स बस में जाते समय दोनों को यह ज़रूरी �ग रहा था फ़िक वे हेड ऑफ़ि�स से ब्रांच ऑफ़ि�स की ओर धके� दिदए हैं। गुज़@र गैस सौराष्ट्र के गाँवों में अपने पाँव पसार रही थी। इसके लि�ए वह अपने नए प्रलिशक्षार्चिथ यों को दौरे और प्रचार का व्यापक काय@क्रम समझा चुकी थी। सूचना, उजा@, फ़िवv और फ़िवपणन के लि�ए अ�ग-अ�ग टीम ग्राम स्तर पर काय@ करने फ़िनक� पड़ी थी। यों तो पवन और अनुपम भी अभी नए ही थे पर उन्हें इन २६ प्रलिशक्षार्चिथ यों के काय@ का आक�न और संयोजन करना था। राजकोट में वे एक दिदन दिटकते फ़िक अग�े ही दिदन उन्हें सूरत, भरूच, अंक�ेश्वर के दौरे पर भेज दिदया जाता। हर जगह फ़िकसी तीन लिसतारा होट� में इन्हें दिटकाया जाता, फ़िPर अग�ा मुकाम।सूरत के पास हजीरा में भी पवन और अनुपम गए। वहाँ कंपनी के ते� के कुए ँथे। �ेफ़िकन पह�ी अनुभूफ़ित कंपनी के वच@स्व की नहीं अरब महासागर के वच@स्व की हुई। एक तर� हरे-भरे पेड़ों के बीच ब्लिस्थत बड़ी-बड़ी Pैक्टरिरयाँ, दूसरी तर� हहराता अरब सागर।एक दिदन उन्हें वीरपुर भी भेजा गया। राजकोट से पचास मी� पर इस छोटे से कस्बे में ज�राम बाबा का शलिक्तपीठ था। वहाँ के पूजारी को पवन ने गुज़@र गैस का महत्व समझा कर छह गैस कनेक्शन का ऑड@र लि�या। कुछ ही देर में ज�राम बाबा के भक्तों और समथ@कों में ख़बर Pै� गई फ़िक बाबा ने गुज़@र गैस वापरने (इस्तेमा� करने) का आदेश दिदया है। देखते-देखते शाम तक पवन ओर अनुपम ने २६४ गैस कनेक्शन का आदेश प्राप्त कर लि�या। वैसे गुज़@र गैस का मुक़ाब�ा हर जगह आई.ओ.सी. से था। �ोग औद्योफ़िगक और घरे�ू इस्तेमा� के अंतर को महत्व नहीं देते। जिजसमें चार पैसे बचें वहीं उन्हें बेहतर �गता। कई जगह उन्हें पुलि�स की मदद �ेनी पड़ी फ़िक घरे�ू गैस का इस्तेमा� औद्योफ़िगक इकाइयों में न फ़िकया जाय।फ़िकरीट देसाई ने चार दिदन की छुट्टी माँगी तो पवन का माथा ठनक गया। फ़िनजी उद्यम में दो घंटे की छुट्टी �ेना भी फ़ि�जू�खचj समझा जाता था फ़िPर यह तो इकठे्ठ चार दिदन का मस�ा था। फ़िकरीट की गै़रहाजिजरी का मत�ब था एक ग्रामीण के्षत्र से चार दिदनों के लि�ए फ़िबल्कु� कट जाना।''आखिख़र तुम्हें ऐसा क्या काम आ पड़ा?''''अगर मैं बताऊँगा तो आप छुट्टी नहीं देंगे।''''क्या तुम शादी करने जा रहे हो?''''नहीं सर। मैंने आपको बो�ा न मेरे को ज़रूर जाना माँगता।''बहुत कुरेदने पर पता च�ा फ़िकरीट देसाई सर� माग@ के कैं प में जाना चाहता है। राजकोट में ही तेरह मी� दूर पर उसके स्वामी जी का कैं प �गेगा।''जो काम तुम्हारे माँ बाप के �ायक है वह तुम अभी से करोगे।'' पवन ने कहा।''नहीं सर, आप एक दिदन कैं प के मेफ़िडटेशन में भाग �ीजिजए। मन को बहुत शांफ़ित ष्टिम�ती है। स्वामी जी कहते हैं, मेफ़िडटेशन फ़िप्रपेस@ यू Pॉर योर मंडेज।'' (ध्यान �गाने से आप अपने सोमवारों का सामना बेहतर ढंग से कर सकते हैं।)''तो इसके लि�ए छुट्टी की क्या ज़रूरत है। तुम काम से �ौट कर भी कैं प में जा सकते हो।''''नहीं सर। पूजा और ध्यान Pु�टाइम काम है।''

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पवन ने बेमन से फ़िकरीट को छुट्टी दे दी। मन ही मन वह भुनभुनाता रहा। एक शाम वह यों ही कैं प की तर� च� पड़ा। दिदमाग़ में कहीं यह भी था फ़िक फ़िकरीट की मौजूदगी जाँच �ी जाए।राजकोट जूनागढ़ चि� क रोड़ पर दाफ़िहने हाथ को फ़िवशा� Pाटक पर ध्यान लिशफ़िवर सर� माग@ का बोड@ �गा था। तक़रीबन स्वतंत्र नगर वसा था। कारों का काफ़ि��ा आ और जा रहा था। इतनी भीड़ थी फ़िक उसमें फ़िकरीट को ढँूढ़ना मुमफ़िकन ही नहीं था। जिजज्ञासावश पवन अंदर घुसा। फ़िवशा� परिरसर में एक तर� बड़ी-सी खु�ी जगह वाहन खडे़ करने के लि�ए छोड़ी गई थी जो तीन चौथाई भरी हुई थी। वहीं आगे की ओर �ा� पी�े रंग का पंडा� था। दूसरी तर� तरतीब से तंबू �गे हुए थे। कुछ तंबुओं के बाहर कपडे़ सूख रहे थे। उस भाग में भी एक Pाटक था जिजस पर लि�खा था प्रवेश फ़िनर्षेध।पंडा� के अंदर जब पवन घुसने में सP� हुआ तब स्वामी जी का प्रवचन समापन की प्रफ़िक्रया में था। वे फ़िनहायत शांत, संयत, गहन गंभीर वाणी में कह रहे थे, ''प्रेम करो, प्रात्तिणमात्र से प्रेम करो। प्रेम कोई टे�ी�ोन कनेक्शन नहीं है जो आप लिस�@ एक मनुष्य से बात करें। प्रेम वह आ�ोक है जो समूचे कमरे को, समूचे जीवन को आ�ोफ़िकत करता है। अब हम ध्यान करेंगे। ओम्।''उनके 'ओम्' कहते ही पाँच हज़ार श्रोताओं से भरे पंडा� में सन्नाटा खिख च गया। जो जहाँ जैसा बैठा था वैसा ही आँख मूँद कर ध्यानमग्न हो गया।आँखें बंद कर पाँच ष्टिमनट बैठने पर पवन को भी असीम शांफ़ित का अनुभव हुआ। कुछ-कुछ वैसा जब वह �ड़कपन में बहुत भाग दौड़ कर �ेता था तो माँ उसे ज़बरदस्ती अपने साथ लि�टा �ेती और थपकते हुए डपटती, ''बच्चा है फ़िक आPत। चुपचाप आँख बंद कर, और सो जा।'' उसे �गा अगर कुछ देर और वह ऐसे बैठ गया तो वाकई सो जाएगा।उसने हल्के से आँख खो� कर अग�-बग� देखा, सब ध्यानमग्न थे। देखने से सभी वी.आई.पी. फ़िकस्म के भक्त थे, जेब में झाँकता मोबाइ� �ोन और घुटनों के बीच दबी ष्टिमनर� वाटर की बोत� उन्हें एक अ�ग दजा@ दे रही थी। सP�ता के कीर्तित मान त�ाशते ये भक्त जाने फ़िकस जैट रफ़्तार से दिदन भर दौड़ते थे, अपनी फ़िबजनेस या नौकरी की �क्ष्य पूर्तित के क�पुज{ बने मनुष्य। पर यहाँ इस वक्त ये शांफ़ित के शरणागत थे।कुछ देर बाद सभा फ़िवसर्जिज त हुई। सबने स्वामी जी को मौन नमन फ़िकया और अपने वाहन की दिदशा में च� दिदए। पार्डिंक ग स्थ� पर गाफ़िड़यों की घरघराहट और तीखे मीठे हान@ सुनाई देने �गे। वापसी में पवन का फ़िकरीट के प्रफ़ित आक्रोश शांत हो चुका था। उसे अपना स्नायु मंड� शांत और स्वस्थ �ग रहा था। उसे यह उलिचत �गा फ़िक आपाधापी से भरे जीवन में चार दिदन का समय ध्यान के लि�ए फ़िनका�ा जाय। स्वामी जी के फ़िवचार भी उसे मौलि�कता और ताज़गी से भरे �गे। जहाँ अष्टिधसंख्य गुरुजन धम@ को मफ़िहमा मंफ़िडत करते हैं, फ़िकरीट के स्वामी जी केव� अध्यात्म पर ब� देते रहे। चिच तन, मनन और आत्मशुजिद्ध उनके सर� माग@ के लिसद्धांत थे।सर� माग@ ष्टिमशन के भक्त उन भक्तों से फ़िनतांत त्तिभन्न थे जो उसने अपने शहर में सा� दर सा� माघ मे�े में आते देखे थे। दीनता की प्रफ़ितमूर्तित बने वे भक्त असाध्य कC झे� कर प्रयाग के संगम तट तक पहँुचते। फ़िनजी संपदा के नाम पर उनके पास एक अदद मै�ी कुचै�ी गठरी होती, साथ में बूढ़ी माँ या आजी और अंटी में गदिठयाये दस बीस रुपए। कंुभ के पव@ पर �ाखों की संख्या में ये भक्त गंगा मैया तक पहँुचते, डुबकी �गाते और मुलिक्त की कामना के साथ घर वापस �ौट जाते। संज्ञा की बजाय सव@नाम वन कर जीते वे भक्त बस इतना समझते फ़िक गंगा पफ़िवत्र पावन है और उनके कृत्यों की तारिरणी। इससे ऊपर तक@ शलिक्त फ़िवकलिसत करना उनका अभीC नहीं था।पर फ़िकरीट के स्वामी कृष्णा स्वामी जी महाराज के भक्त समुदाय में एक से एक सुलिशत्तिक्षत, उच्च पदस्थ अष्टिधकारी और व्यवसायी थे। कोई डॉक्टर था तो कोई इंजीफ़िनयर, कोई बैंक अ�सर तो कोई प्राइवेट सेक्टर का मैनेजर। यहाँ तक फ़िक कई चोटी के क�ाकार भी उनके भक्तों में शुमार थे। सा� में चार बार वे अपना लिशफ़िवर �गाते, देश के अ�ग-अ�ग नगरों में। समूचे देश से उनके भक्त गण वहाँ पहँुचते। उनके कुछ फ़िवदेशी भक्त भी थे जो भारतीयों से ज़्यादा स्वदेशी बनने और दिदखने की कोलिशश करते।पवन ने दो चार बार स्वामी जी का प्रवचन सुना। स्वामी जी की वकृ्तत्वता असरदार थी और व्यलिक्तत्व परम आकर्ष@क। वे दत्तिक्षण भारतीय तहमद के ऊपर भारतीय कुता@ धारण करते। अन्य धमा@चाय¬ की तरह न उन्होंने केश बढ़ा रखे थे, न दाढ़ी। वे मानते थे फ़िक मनुष्य को अपना बाह्य स्वरूप भी अंतस्व@रूप की तरह स्वच्छ रखना चाफ़िहए। उनका यथाथ@वादी जीवन दश@न उनके भक्तों को बहुत सही �गता। वे सब भी अपने यथाथ@ को त्याग कर नहीं, उसमें से चार दिदन की मोह�त फ़िनका� कर इस आध्यास्त्रित्मक हालि�डे के लि�ए आते। वे इसे एक 'अनुभव' मानते। स्वामी जी एकदम धारदार, फ़िवश्वसनीय अंग्रेज़ी में भारतीय मनीर्षा की शलिक्त और सामर्थ्यय@ समझाते, भक्तों का लिसर देशप्रेम से उन्नत हो जाता। स्वामी जी डिह दी भी बखूबी बो� �ेते। मफ़िह�ा लिशफ़िवर में वे अपना आधा वक्तव्य डिह दी में देते और आधा अंग्रेज़ी में।सर� माग@ ष्टिमशन आराम करने से पूव@ स्वामी जी पी.पी. के. कंपनी में कार्मिम क प्रबंधक थे। ष्टिमशन की संरचना, संचा�न और काय@ योजना में उनका प्रबंधकीय कौश� देखने को ष्टिम�ता था। लिशफ़िवर में इतनी भीड़ एकत्र होती थी पर न कहीं अराजकता होती न शांफ़ित भंग। अनजाने में पवन उनसे प्रभाफ़िवत होता जा रहा था। पर फ़िकसी भी प्रभाव की आत्यंफ़ितकता उस पर ठहर नहीं पाती क्योंफ़िक काम के लिस�लिस�े में उसे राजकोट के आसपास के के्षत्र के अ�ावा बार-बार अहमदाबाद भी जाना पड़ता। अहमदाबाद में दोस्तों से ष्टिम�ना भी भ�ा �गता। अत्तिभर्षेक के यहाँ जा कर अंकुर की नई शरारतें देखना सुख देता।अत्तिभर्षेक जिजस फ़िवज्ञापन कंपनी में काम करता था उसमें आजक� अक अन्य कंपनी की टक्कर में टूथपेस्ट युद्ध लिछड़ा हुआ था। दोनों के फ़िवज्ञापन एक के बाद एक टी.वी. के चैन�ों पर दिदखाए जाते। एक में डेंदिटस्ट का बयान प्रमाण की तरह दिदया जाता तो दूसरे में उसी बयान का खंडन। दोनों टूथपेस्ट बहुराष्ट्रीय कंपफ़िनयों के थे। इन कंपफ़िनयों का जिजतना धन टूथपेस्ट के फ़िनमा@ण में �ग रहा था �गभग उतना ही उसके प्रचार में। टूथपेस्ट तक़रीबन एक से थे, दोनों की रंगत भी एक थी पर कंपनी त्तिभन्न होने से उनकी त्तिभन्नता और उत्कृCता लिसद्ध करने की होड़ मची थी। इसी के लि�ए अत्तिभर्षेक की कंपनी फ़िक्रसेंट कॉपµरेशन को नlबे �ाख का प्रचार अत्तिभयान ष्टिम�ा था। अत्तिभर्षेक ने फ़िवजुअ�ाइज़र से आइफ़िडया समझा। स्त्रिस्क्रप्ट लि�खी गई। अब फ़िवज्ञापन फ़ि�ल्म बननी थी। उन्हें ऐसी माड� की त�ाश थी जिजसके व्यलिक्तत्व में दांत प्रधान हों, साथ ही वह खूबसूरत भी हो। इसके अ�ावा दो एक पंलिक्त के डाय�ाग बो�ने का उसे शऊर हो। उनके पास माडल्स की एक स्थायी सूची थी पर इस वक्त वह काम नहीं आ रही थी। मुश्किश्क� यह थी फ़िकसी भी उत्पाद का प्रचार करने में एक माड� का चेहरा दिदन में इतनी बार मीफ़िडया संजा� पर दिदखाया जाता फ़िक वह उसी उत्पाद के फ़िवज्ञापन से लिचपक कर रह जाता। अग�े फ़िकसी उत्पाद के फ़िवज्ञापन में उस माड� को �ेने से फ़िवज्ञापन ही फ़िपट जाता। नए चेहरों की भी कमी नहीं थी। रोज़ ही इस के्षत्र में नई �ड़फ़िकयाँ जोखम उठाने को तैयार थीं पर उन्हें माड� बनाए जाने का भी एक तंत्र था। अगर सब कुछ तय होने के बाद कैमरामैन उसे नापास कर दे तब उसे �ेना मुश्किश्क� था।आजक� अत्तिभर्षेक के जिज़म्मे माड� का चुनाव था। वह एक lयूटी पा�@र की मा�फ़िकन फ़िनफ़िकता पर दबाव डा� रहा था फ़िक वह अपनी बेटी तान्या को माडचि� ग करने दें। इस लिस�लिस�े में वह कई बार 'रोजेज' पा�@र में गया। इसी को �े कर पफ़ित पत्नी में तनाव हो गया।राजु� का मानना था फ़िक रोजेज अच्छी जगह नहीं है। वहाँ सौंदय@ उपचार की आड़ में ग़�त धंधे होते हैं। उसका कहना था फ़िक फ़िवज्ञापन फ़ि�ल्म बनाने का काम उनकी कंपनी को मुंबई इकाई करे, यहाँ अहमदाबाद में अच्छी फ़ि�ल्म बनना मुमफ़िकन नहीं है। अत्तिभर्षेक का कहना था फ़िक वह बंबइया फ़िवज्ञापन फ़ि�ल्मों से अघा गया है। वह यहीं मौलि�क काम कर दिदखाएगा।''यों कहो फ़िक तुम्हें माड� की त�ाश में मज़ा आ रहा है।'' राजु� ने ताना मारा।

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''यही समझ �ो। यह मेरा काम है, इसी की मुझे तनख़्वाह ष्टिम�ती है।''''मजे़ हैं तनख़्वाह भी ष्टिम�ती है, �ड़की भी ष्टिम�ती है।''अत्तिभर्षेक उखड़ गया, ''क्या मत�ब तुम्हारा। तुम हमेशा टेढ़ा सोचती हो। जैसे तुम्हारे टेढे़ दाँत हैं वैसी टेढ़ी तुम्हारी सोच है।''राजु� का, ऊपर नीचे का एक-एक दाँत टेढ़ा उगा हुआ था। फ़िवशेर्ष कोण से देखने पर वह हँसते हुए अच्छा �गता था।''शुरू में इसी बाँके दाँत पर आप फ़िPदा हुए थे।'' राजु� ने कहा, ''आज आपको यह भद्दा �गने �गा।''''फ़िPर तुमने ग़�त शlद इस्तेमा� फ़िकया। बाँका शlद दाँत के साथ नहीं बो�ा जाता। बाँकी अदा होती है, दाँत नहीं।''''शlद अपनी जगह से हट भी सकते हैं। शlद पत्थर नहीं हैं जो अच� रहें।''''तुम अपनी भार्षा की कमज़ोरी छुपा रही हो।''''कोई भी बात हो, सबसे पह�े तुम मेरे दोर्ष फ़िगनाने �गत ेहो।''''तुम मेरा दिदमाग़ ख़राब कर देती हो।''''अच्छा सारी पर अब तुम फ़िनफ़िकता के यहाँ नहीं जाओगे। इससे अच्छा है तुम यूफ़िनवर्चिस टी की छात्राओं में सही चेहरा तपाश करो।''''तपास नहीं त�ाश करो।''''त�ाश सही पर तुम रोजेज नहीं जाओगे।''जब से राजु� ने नौकरी छोड़ी उसके अंदर असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। साढे़ चार सा� की नौकरी के बाद वह लिस�@ इसलि�ए हटा दी गई क्योंफ़िक उसकी फ़िवज्ञापन एजेंसी मानती थी फ़िक घर और दफ्तर दोनों मोच{ सँभा�ना उसके बस की बात नहीं। ख़ास तौर पर जब वह गभ@वती थी, उसके हाथ से सारे महत्वपूण@ काय@ �े कर साधना चिस ह को दे दिदए गए। अंकुर के पैदा होने तक दफ्तर में माहो� इतना फ़िबगड़ गया फ़िक प्रसव के पश्चात राजु� ने त्यागपत्र ते दिदया। पर तब से वह पफ़ित के प्रफ़ित बड़ी सतक@ और संदेहशी� हो गई थी। उसे �गता था अत्तिभर्षेक उतना व्यस्त नहीं जिजतना वह नाट्य करता है। फ़िPर फ़िवज्ञापन कंपनी की दुफ़िनया परिरवत@न और आकर्ष@ण से भरपूर थी। रोज़ नई-नई �ड़फ़िकयाँ माड� बनने का सपना आँखों में लि�ए हुए कंपनी के द्वार खटखटाती। उनके शोर्षण की आशंका से इनकार नहीं फ़िकया जा सकता था।फ़िवज्ञापन एजेन्सी का सारा संजा� स्वयं देख �ेने से इधर कई दिदनों से राजु� को जो अन्य सवा� उदे्वलि�त कर रहे थे, उन पर वह अत्तिभर्षेक के साथ बहस करना चाहती थी। पर अत्तिभर्षेक जब भी घर आता, �ंबी बातचीत के मूड में हरफ़िगज़ न होता। बश्किल्क वह लिचड़लिचड़ा ही �ौटता।उस दिदन वे खाना खा रहे थे। टी.वी. च� रहा था। समाचार से पह�े 'स्पाक@ �' टूथपेस्ट का फ़िवज्ञापन फ्�ैश हुआ। इसकी कापी अत्तिभर्षेक ने तैयार की थी।अंकुर लिचल्�ाया, ''पापा का एड, पापा का एड।''यह फ़िवज्ञापन आज पाँचवी बार आया था पर वे सब ध्यान से देख रहे थे। फ़िवज्ञापन में पाट· का दृश्य था जिजसमें हीरो के कुछ कहने पर फ़िहरोइन हँसती है। उसकी हँसी में हर दाँत मे मोती फ़िगरते हैं। हीरो उन्हें अपनी हथे�ी पर रोक �ेता है। सारे मोती इकटे्ठ होकर 'स्पाक@ �' टूथपेस्ट की टू्यब बन जाते हैं। अग�े शाट में हीरो हीरोइन �गभग चंुबनबद्ध हो जाते हैं। अत्तिभर्षेक ने कहा, ''राजु� कैसा �गा एड?''''ठीक ही है।'' राजु� ने कहा। उसके उत्साहफ़िवहीन स्वर से अत्तिभर्षेक का मूड उखड़ गया। उसे �गा राजु� उसके काम को ज़ीरो दे रही है, ''ऐसी श्मशान आवाज़ में क्यों बो� रही हो?''''नहीं, मैं सोच रही थी, फ़िवज्ञापन फ़िकतनी अफ़ितशयोलिक्त करते हैं। सच्चाई यह है फ़िक न फ़िकसी के हँसने से Pू� झरते हैं न मोती फ़िPर भी मुहावरा है फ़िक �ीक पीट रहा है।''''सचाई तो यह है फ़िक माड� �ीना भी स्पाक@ � इस्तेमा� नहीं करती हैं। वह प्रफ़ितदं्वद्वी कंपनी का दिटक्को इस्तेमा� करती है। पर हमें सच्चाई नहीं, प्राडक्ट बेचनी है।''''पर �ोग तो तुम्हारे फ़िवज्ञापनों को ही सच मानते हैं। क्या यह उनके प्रफ़ित धोखा नहीं है?''''फ़िबल्कु� नहीं। आखिखर हम टूथपेस्ट की जगह टूथपेस्ट ही दिदखा रहे हैं, घोडे़ की �ीद नहीं। सभी टूथपेस्टों में एक-सी चीज़ें पड़ी होती हैं। फ़िकसी में रंग ज़्यादा होता है फ़िकसी में कम। फ़िकसी में �ोम ज़्यादा, फ़िकसी में कम।''''ऐसे में कापीराइटर की नैफ़ितकता क्या कहती है?''''ओ लिशट। सीधा सादा एक प्रॉडक्ट बेचना है, इसमें तुम नैफ़ितकता और सच्चाई जैसे भारी भरकम सवा� मेरे लिसर पर दे मार रही हो। मैंने आई.आई.एम. में दो सा� भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से माक{ टिट ग सीख कर फ़िनक�ा हँू। आइ कैन सै� ए डैड रैट (मैं मरा हुआ चूहा भी वेच सकता हँू) यह सच्चाई, नैफ़ितकता सब मैं दजा@ चार तक मॉर� साइंस में पढ़ कर भू� चुका हुआ हँू। मुझे इस तरह की डोज़ मत फ़िप�ाया करो, समझी?''राजु� मन ही मन उसे गा�ी देती बत@न समेट कर रसोई में च�ा गई। अत्तिभर्षेक मुँह Pेर कर सो गया। अग�े दिदन पवन आया। वह अंकुर के लि�ए छोटा-सा फ़िक्रकेट बैट और गेंद �ाया था। अंकुर तुरंत बा�कनी से अपने दोस्तों को आवाज़ देने �गा, ''शुlबू, रुनझुन जल्दी आओ, बैट बा� खे�ना।''अत्तिभर्षेक अभी ऑफ़ि�स से नहीं �ौटा था। राजु� ने दो ग्�ास कोल्ड काPी बनाई। एक ग्�ास पवन को थमा कर बो�ी, ''तुम्हें फ़िवज्ञापनों की दुफ़िनया कैसी �गती है?''''बहुत अच्छी, जादुई। राजु�, मुल्क की सारी हसीन �ड़फ़िकयाँ फ़िवज्ञापनों में च�ी गई हैं, तभी राजकोट की सड़कों पर एक भी हसीना नज़र नहीं आती।''''गम्मत जम्मत छोड़ो, सीरिरयस�ी बो�ो, ऐसा नहीं �गता फ़िक माक{ टिट ग के लि�ए फ़िवज्ञापन झूठ पर झूठ बो�त ेहैं।''''मुझे ऐसा नहीं �गता। यह तो अत्तिभयान है इसमें सच और झूठ की बात कहाँ आती है?'' तभी अत्तिभर्षेक भी आ गया। आज वह अचे्छ मूड में था। उसके टूथपेस्ट वा�े फ़िवज्ञापन को सव@श्रेष्ठ फ़िवज्ञापन का सम्मान ष्टिम�ा था। उसने कहा, ''राजु� क� तुम मुझे कंडैम कह रही थीं, आज मुझे उसी कापी पर एवाड@ ष्टिम�ा।''''कांगे्रचु�ेशंस।'' पवन और राजु� ने कहा।''क� तो तुम �ानतें कस रही थीं। मेरी परदादी की तरह बा� रही थीं।''''जब एलिथक्स की यानी नैफ़ितकता की बात आएगी मैं फ़िPर कहँूगी फ़िक फ़िवज्ञापन झूठ बो�ते हैं। पर अत्तिभ, ऐसा नहीं है फ़िक लिस�@ तुम ऐसा करते हो, सब ऐसा करते हैं। जनता को बेवकू़� बनाते हैं।''''जनता को लिशक्षा और सूचना भी तो देते हैं।'' पवन ने कहा।''पर साथ में जनता की उम्मीदों को बढ़ा कर उसका पैसा नC करवाते हैं।'' राजु� ने कहा।''हाँ हाँ, आज तक मैंने ऐसा फ़िवज्ञापन नहीं देखा जो कहता हो यह चीज़ न ख़रीदिदए।'' अत्तिभर्षेक ने कहा, ''फ़िवज्ञापन की दुफ़िनया का खच@ और फ़िवक्री की दुफ़िनया है। हम सपनों के सौदागर हैं, जिजसे चाफ़िहए बाज़ार जाए, सपनों और उम्मीदों से भरी टू्यब ख़रीद �ें। ये फ़िवज्ञापन का ही कमा� है फ़िक हमारे तीन सदस्यों वा�े परिरवार में तीन तरह के टूथपेस्ट आते हैं। अंकुर को धारिरयों वा�ा टूथपेस्ट पसंद है, तुम्हें वह र्षोड़र्षी वा�ा और मुझे साँस की बू दूर करने

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वा�ा। टूथपेस्ट तो फ़िPर भी गनीमत है, तुम्हें पता है- फ़िडटरजेंट की फ़िवज्ञापनबाज़ी में और भी अँधेर है। हम �ोग सोना फ़िडटरजेंट की एड फ़ि�ल्म जब शूट कर रहे थे तो सीवस@ के क्�ीन फ़िडटरजेंट से हमने बा�टी में झाग उठवाए थे। क्�ीन में सोना से ज़्यादा झाग पैदा करने की ताक़त है।''पवन ने कहा, ''दरअस� बाज़ार के अथ@शास्त्र में नैफ़ितकता जैसा शlद �ा कर, राजु�, तुम लिस�@ कनफ्यूजन Pै�ा रही हो। मैंने अब तक पाँच सौ फ़िकताबें तो मैनेजमेंट और माक{ टिट ग पर पढ़ी होंगी। उनमें नैफ़ितकता पर कोई चैप्टर नहीं है।''स्टै�ा फ़िडमै�ो इंटरप्राइज कापµरेशन में बराबर की पाट@नर थी और उसकी कंपनी गुज़@र गैस कंपनी को कंप्यूटर सप्�ाई करती थी। पह�े तो वह पवन के लि�ए कारोबारी लिचदिट्ठयों पर महज़ एक हस्ताक्षर थी पर जब कंप्यूटर की दो एक समस्या समझने पवन लिशल्पा के साथ उसके ऑफ़ि�स गया तो इस दुब�ी पत�ी हँसमुख �ड़की से उसका अच्छा परिरचय हो गया।स्टै�ा की उम्र मुश्किश्क� से चौबीस सा� थी पर उसने अपने माता-फ़िपता के साथ आधी दुफ़िनया घूम रखी थी। उसकी माँ चिस धी और फ़िपता ईसाई थे। माँ से उसे गोरी रंगत ष्टिम�ी थी और फ़िपता से तराशदार नाक नक्श। जीन्स और टाप में वह �ड़का ज़्यादा और �ड़की कम नज़र आती। उसके ऑफ़ि�स में हर समय गहमागहमी रहती। �ोन बजता रहता, Pैक्स आते रहते। कभी फ़िकसी Pैक्टरी से बीस कंप्यूटस@ का एक साथ ऑड@र ष्टिम� जाता, कभी कहीं कांफ्रें स से बु�ावा आ जाता। उसने कई तकनीलिशयन रखे हुए थे। अपने व्यवसाय के हर पह�ू पर उसकी तेज़ नज़र रहती। इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वा�ों को बताते समय कई बार स्टै�ा का जिज़क्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हाड@वेयर का कोस@ कर रहा था। पवन ने कहा, ''तुम इस बा� मेरे साथ राजकोट च�ो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वल्ड@ में प्रवेश दिद�ाऊँगा फ़िक तुम्हारी आँखें खु�ी रह जाएगँी।''सघन ने कहा, ''जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर लिसटी है।''''एक बार तुम एटंरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर लिसटी से कम नहीं।''माँ ने कहा, ''इसको भी �े जाओगे तो हम दोनों फ़िबल्कु� अके�े रह जाएगँे। वैसे ही सीफ़िनयर लिसटीजन का�ोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लि�ख कर बाहर च�े जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुvा और एक कार बस यह रह गया है।''''इ�ाहाबाद में कुछ भी बद�ता नहीं है माँ। दो सा� पह�े जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट च�ी आओ।''''और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है।''पापा से बात की गई। उन्होंने सा� इनकार कर दिदया।''शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम फ़िकसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो।''''यहाँ मेरे �ायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की माक{ टिट ग कर �ूँगा।''''दिदल्�ी तकभी आ जाओ तो? सच दिदल्�ी आना-जाना फ़िबल्कु� मुश्किश्क� नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से च�ो, सबेरे दिदल्�ी। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो �ेंगे। या क�कvे आ जाओ। वह तो महानगर है।''''पापा मेरे लि�ए शहर महत्वपूण@ नहीं है, कैरिरयर है। अब क�कvे को ही �ीजिजए। कहने को महानगर है पर माक{ टिट ग की दृष्टिC से एकदम �द्धड़। क�कvे में प्रोडू्यसस@ का माक{ ट है, कंज्यूमस@ का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हँू जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृफ़ित नहीं उपभोक्ता संस्कृफ़ित चाफ़िहए, तभी मैं कामयाब रहँूगा।'' माता फ़िपता को पवन की बातों ने स्तंत्तिभत कर दिदया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म फ़िकए दे रहा था जिजसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑP इंफ़िडया की दिदल्�ी रिरलिक्तयों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे। रात जब पवन अपने कमरे में च�ा गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, ''आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का �गा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिदया।''रेखा दिदन भर के काम से पस्त थी, ''पह�े तुम्हें भय था फ़िक बच्चे कहीं तुम जैसे आदश@वादी न बन जाए।ँ इसीलि�ए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथाथ@वादी बन गया है तो तुम्हें तक�ी� हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा।''''यानी तुम्हें उसके एदिटट्यूड से कोई लिशकायत नहीं है।'' राकेश हैरान हुए।''देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मत�ब यह नहीं होता फ़िक बच्चा घर भू� गया है। कैसे मेरी गोद में लिसर रख कर दोपहर को �ेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्प� चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।''रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में माक{ टिट ग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था फ़िक इस के्षत्र में फ़िकतनी स्पधा@ होती है। वह एक Pटीचर पाठशा�ा में अध्याफ़िपका थी। उसके लि�ए बेटे की कामयाबी गव@ का फ़िवर्षय थी। उसकी सहयोगी अध्याफ़िपकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्ष¬ में �गे थे। इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वा�ों को बताते समय कई बार स्टै�ा का जिज़क्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हाड@वेयर का कोस@ कर रहा था। पवन ने कहा, ''तुम इस बा� मेरे साथ राजकोट च�ो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वल्ड@ में प्रवेश दिद�ाऊँगा फ़िक तुम्हारी आँखें खु�ी रह जाएगँी।''सघन ने कहा, ''जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर लिसटी है।''''एक बार तुम एटंरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर लिसटी से कम नहीं।''माँ ने कहा, ''इसको भी �े जाओगे तो हम दोनों फ़िबल्कु� अके�े रह जाएगँे। वैसे ही सीफ़िनयर लिसटीजन का�ोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लि�ख कर बाहर च�े जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुvा और एक कार बस यह रह गया है।''''इ�ाहाबाद में कुछ भी बद�ता नहीं है माँ। दो सा� पह�े जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट च�ी आओ।''''और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है।''पापा से बात की गई। उन्होंने सा� इनकार कर दिदया।''शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम फ़िकसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो।''''यहाँ मेरे �ायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की माक{ टिट ग कर �ूँगा।''''दिदल्�ी तक भी आ जाओ तो? सच दिदल्�ी आना-जाना फ़िबल्कु� मुश्किश्क� नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से च�ो, सबेरे दिदल्�ी। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो �ेंगे। या क�कvे आ जाओ। वह तो महानगर है।''''पापा मेरे लि�ए शहर महत्वपूण@ नहीं है, कैरिरयर है। अब क�कvे को ही �ीजिजए। कहने को महानगर है पर माक{ टिट ग की दृष्टिC से एकदम �द्धड़। क�कvे में प्रोडू्यसस@ का माक{ ट है, कंज्यूमस@ का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हँू जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृफ़ित नहीं उपभोक्ता संस्कृफ़ित चाफ़िहए, तभी मैं कामयाब रहँूगा।'' माता फ़िपता को पवन की बातों ने स्तंत्तिभत कर दिदया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म फ़िकए दे रहा था जिजसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑP इंफ़िडया की दिदल्�ी रिरलिक्तयों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे। रात जब पवन अपने कमरे में च�ा गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, ''आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का �गा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिदया।''

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रेखा दिदन भर के काम से पस्त थी, ''पह�े तुम्हें भय था फ़िक बच्चे कहीं तुम जैसे आदश@वादी न बन जाए।ँ इसीलि�ए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथाथ@वादी बन गया है तो तुम्हें तक�ी� हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा।''''यानी तुम्हें उसके एदिटट्यूड से कोई लिशकायत नहीं है।'' राकेश हैरान हुए।''देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मत�ब यह नहीं होता फ़िक बच्चा घर भू� गया है। कैसे मेरी गोद में लिसर रख कर दोपहर को �ेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्प� चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।''रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में माक{ टिट ग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था फ़िक इस के्षत्र में फ़िकतनी स्पधा@ होती है। वह एक Pटीचर पाठशा�ा में अध्याफ़िपका थी। उसके लि�ए बेटे की कामयाबी गव@ का फ़िवर्षय थी। उसकी सहयोगी अध्याफ़िपकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्ष¬ में �गे थे। कोई आई.ए.एस, पी.सी.एस. परीक्षाओं को पार नहीं कर पा रहा था तो फ़िकसी को बैंक प्रफ़ितयोगी परीक्षा सता रही थी। फ़िकसी का बेटा कई इंटरवू्य में असP� होने के बाद नशे की �त में पड़ गया था तो फ़िकसी की बेटी हर सा� पी.एम.टी. में अटक जाती। जीवन के पचपनवें सा� में रेखा को यह सोचकर बहुत अच्छा �गता फ़िक उसके दोनों बच्चे पढ़ाई में अव्व� रहे और उन्होंने खुद ही अपने कैरिरयर की दिदशा तय कर �ी। सघन अभी छोटा था पर वह भी जब अपने कैरिरयर पर फ़िवचार करता, उसे शहरों में ही संभावनाए ँनज़र आतीं। वह दोस्ती से माँग कर देश फ़िवदेश के कंप्यूटर जन@� पढ़ता। उसका ज़्यादा समय ऐसे दोस्तों के घरों में बीतता जहाँ कंप्यूटर होता।राकेश बो�े, ''तुम समझ नहीं रही हो। पवन के बहाने एक पूरी की पूरी युवा पीढ़ी को पहचानो। ये अपनी जड़ों से कट कर जीने वा�े �ड़के समाज की कैसी तस्वीर तैयार करेंगे।''''और जो जड़ों से जुडे़ रहे हैं उन्होंने इन फ़िनन्यानवें वर्ष¬ में कौन-सा परिरवत@न फ़िकया है। तुम्हें इतना ही कC है तो क्यों करवाया था पवन को एम.बी.ए.। घर के बरामदे में दुकान खु�वा देते, मालिचस और साबुन बेचता रहता।''''तुम मूख@ हो, ऐसा भी नहीं �गता मुझे, बस मेरी बात काटना तुम्हें अच्छा �गता है।''''अच्छा अब सो जाओ। और देखो, सुबह पवन के सामने फ़िPर यही बहस मत छेड़ देना। चार रोज़ को बच्चा घर आया है, राजी खुशी रहे, राजी खुशी जाए।''रेखा ने रात को तो पुत्र की पक्षधरता की पर अग�े दिदन स्कू� से घर �ौटी तो पवन से उसकी खटपट हो गई। दोपहर में धोबी कपडे़ इस्त्री कर के �ाया था। आठ कपड़ों के बाहर रुपए होते थे पर धोबी ने सो�ह माँगे। पवन ने सो�ह रुपए दे दिदए। पता च�ने पर रेखा उखड़ गई। उसने कहा, ''बेटे कपडे़ �े कर रख �ेने थे, फ़िहसाब मैं अपने आप करती।''पवन बो�ा, ''माँ क्या �क@ पड़ा, मैंने दे दिदया।''रेखा ने कहा, ''टूरिरस्ट की तरह तुमने उसे मनमाने पैसे दे दिदए, वह अपना रेट बढ़ा देगा तो रोज़ भुगतना तो मुझे पडे़गा।''पवन को टूरिरस्ट शlद पत्थर की तरह चुभ गया। उसका गोरा चेहरा क्रोध से �ा� हो गया, ''माँ आपने मुझे टूरिरस्ट कह दिदया। मैं अपने घर आया हँू, टूर पर नहीं फ़िनक�ा हँू।''शाम तक पवन फ़िकचफ़िकचाता रहा। उसने फ़िपता से लिशकायत की। फ़िपता ने कहा, ''यह फ़िनहायत टुच्ची-सी बात है। तुम क्यों परेशान हो रहे हो। तुम्हें पता है तुम्हारी माँ की जुबान बे�गाम है। छोटी-सी बात पर कड़ी-सी बात जड़ देती है।''नौकरी �ग जाने के साथ पवन बहुत नाज¥कष्टिमज़ाज हो गया था। उसे ऑफ़ि�स में अपना वच@स्व और शलिक्त याद हो आई, ''दफ्तर में सब मुझे पवन सर या फ़िPर ष्टिमस्टर पांडे कहते हैं। फ़िकसी की फ़िहम्मत नहीं फ़िक मेरे आदेश की अवहे�ना करे। घर में फ़िकसी को अपनी मजj से मैं चार रुपए नहीं दे सकता।''रेखा सहम गई, ''बेटे मेरा मत�ब यह नहीं था मैं तो लिस�@ यह कर रही थी फ़िक कपडे़ रोज़ इश्किस्तरी होते हैं, एक बार इन �ोगों को ज़्यादा पैसे दे दो तो ये एकदम लिसर चढ़ जाते हैं।'' और भी छोटी-छोटी फ़िकतनी ही बातें थीं जिजनमें माँ बेटे का दृष्टिCकोण एकदम अ�ग था। पवन ने कहा, ''माँ मेरा जन्मदिदन इस बार यों ही फ़िनक� गया। आपने �ोन फ़िकया पर ग्रीटिट ग काड@ नहीं भेजा।''रेखा हैरान रह गई, ''बेटे ग्रीटिट ग काड@ तो बाहरी �ोगों को भेजा जाता है। तुम्हें पता है तुम्हारा जन्मदिदन हम कैसे मनाते हैं। हमेशा की तरह मैं मंदिदर गई, स्कू� में सबको ष्टिमठाई खिख�ाई, रात को तुम्हें �ोन फ़िकया।''''मेरे सब क�ीग्ज हँसी उड़ा रहे थे फ़िक तुम्हारे घर से कोई ग्रीटिट ग काड@ नहीं आया।'' माँ को �गा उन्हें अपने बेटे को प्यार करने का नया तरीका सीखना पडे़गा। मुश्किश्क� से पाँच दिदन ठहरा पवन। रेखा ने सोचा था उसकी पसंद की कोई न कोई फ़िडश रोज़ बना कर उसे खिख�ाएगी पर पह�े ही दिदन उसका पेट खराब हो गया। पवन ने कहा, ''माँ मैं नींबू पानी के लिसवा कुछ नहीं �ूँगा। दोपहर को थोड़ी-सी खिखचड़ी बना देना। और पानी कौन-सा इस्तेमा� करते हैं आप �ोग?''''वही जो तुम जन्म से पीते आए हो, गंगा ज� आता है हमारे न� में।'' रेखा ने कहा।''तब से अब तक गंगा जी में न जाने फ़िकतना म�-मूत्र फ़िवसर्जिज त हो चुका है। मैं तो कहँूगा यह पानी आपके लि�ए भी घातक है। एक्वागाड@ क्यों नहीं �गाते?''''याद करो, तुम्हीं कहा करते थे फ़ि�ल्टर से अच्छा है हम अपने लिसस्टम में प्रफ़ितरोधक शलिक्त का फ़िवकास करें।''''वह सब फ़ि�जू़� की भावुकता थी माँ। तुम इस पानी की एक बँूद अगर माइक्रोस्कोप के नीचे देख �ो तो कभी न फ़िपयो।''पवन को अपनी जन्मभूष्टिम का पानी रास नहीं आ रहा था। शाम को पवन ने सघन से बारह बोत�ें ष्टिमनर� वाटर मँगाया। रसोई के लि�ए रेखा ने पानी उबा�ना शुरू फ़िकया। न� का ज� फ़िवर्षतुल्य हो गया। देश में परदेसी हो गया पवन।तफ़िबयत कुछ सँभ�ने पर अपने पुराने दोस्तों की त�ाश की। पता च�ा अष्टिधकांश शहर छोड़ चुके हैं या इतने ठंडे और अजनबी हो गए हैं फ़िक उनके साथ दस ष्टिमनट फ़िबताना भी सज़ा है। पवन ने दुखी हो कर पापा से कहा, ''मैं नाहक इतनी दूर आया। सघन सारा दिदन कंप्यूटर सेंटरों की खाक छानता है। आप अख़बारों में �गे रहते हैं। माँ सुबह की गई शाम को �ौटती हैं। क्या ष्टिम�ा मुझे यहाँ आ कर?''''तुमने हमें देख लि�या, क्या यह का�ी नहीं?''''यह काम तो मैं एटंरप्राइज के सैट�ाइट �ोन से भी कर सकता था। मुझे �गता है यह शहर नहीं जिजसे मैं छोड़ कर गया था।''''शहर और घर रहने से ही बसते हैं बेटा। अब इतनी दूर एक अनजान जगह को तुमने अपना दिठकाना बनाया है। परायी भार्षा, पहनावा और भोजन के बावजूद वह तुम्हें अपना �गने �गा होगा।''''सच तो यह है पापा जहाँ हर महीने वेतन ष्टिम�े, वही जगह अपनी होती है और कोई नहीं।''''केव� अथ@शास्त्र से जीवन नहीं कटता पवन,  उसमें थोड़ा दश@न, थोड़ा अध्यात्म और ढेर-सी संवेदना भी पनपनी चाफ़िहए।''''आपको पता नहीं दुफ़िनया फ़िकतनी तेज़ी से आगे बढ़ रही। अब धम@, दश@न, और अध्यात्म जीवन में हर समय रिरसने वा�े Pोडे़ नहीं हैं। आप सर� माग@ के

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लिशफ़िवर में कभी जा कर देखिखए। चार-पाँच दिदन का कोस@ होता है, वहाँ जा कर आप मेफ़िडटेट कीजिजए और छठे दिदन वापस अपने काम से �ग जाइए। यह नहीं फ़िक डी.सी. फ़िबज�ी की तरह हमेशा के लि�ए उससे लिचपक जाइए।''''तुमने तो हर चीज़ की पैकेज़िज ग ऐसी कर �ी है फ़िक जेब में समा जाए। भलिक्त की कपस्यू� बना कर बेचते हैं आजक� के धम@गुरु। सुबह-सुबह टी.वी. के सभी चैन�ों पर एक न एक गुरु प्रवचन देता रहता है। पर उनमें वह बात कहाँ जो शंकराचाय@ में थी या स्वामी फ़िववेकानंद में।''''हर पुरानी चीज़ आपको शे्रष्ठ �गती है, यह आपकी दृष्टिC का दोर्ष है पापा। अगर ऐसा ही है तो आधुफ़िनक चीज़ों का आप इस्तेमा� भी क्यों करते हैं, Pें क दीजिजए अपना टी.वी. सेट, टे�ी�ोन और कुडिक ग गैस। आप नई चीज़ों का �ायदा भी �ूटते हैं और उनकी आ�ोचना भी करते हैं।''''पवन मेरी बात लिस�@ चीज़ों तक नहीं है।''''मुझे पता है। आप अध्यात्म और धम@ पर बो� रहे थे। आप कभी मेरे स्वामी जी को सुफ़िनए। सबसे पह�े तो उन्होंने यही समझाया है फ़िक धम@ जहाँ ख़त्म होता है, अध्यात्म वहीं शुरू होता है। आप बचपन में मुझे शंकर का अदै्वतवास समझाते थे। मेरे कुछ पल्�े नहीं पड़ता था। आपने जीवन में मुझे बहुत कन्Pूज फ़िकया है पर सर� माग@ में एकदम सीधी सच्ची यथाथ@वादी बाते हैं।''फ़िपता आहत हो देखते रह गए। उनके बेटे के व्यलिक्तत्व में भौफ़ितकतावाद, अध्यात्म और यथाथ@वाद की कैसी फ़ित्रपथगा बह रही है।राजकोट ऑफ़ि�स से पवन के लि�ए टं्रककॉ� आया फ़िक सोमवार को वह सीधे अहमदाबाद ऑफ़ि�स पहँुचे। सभी माक{ टिट ग मैनेजरों की उच्च स्तरीय बैठक थी। पवन का मन एकाएक उत्साह से भर गया। फ़िपछ�े पाँच दिदन पाँच युग की तरह बीते थे। जाते-जाते वह परिरवार के प्रफ़ित बहुत भावुक हो आया।''माँ तुम राजकोट आना। पापा आप भी। मेरे पास बड़ा-सा फ़्�ैट है। आपको ज़रा भी दिदक्कत नहीं होगी। अब तो कुक भी ष्टिम� गया है।''''अब तेरी शादी भी कर दें क्यों।'' रेखा ने पवन का मन टटो�ा।''माँ शादी ऐसे थोडे़ ही होगी। पह�े तुम मेरे साथ सारा गुजरात घूमो। अरे वहाँ मेरे जैसे �ड़कों की बड़ी पूछ है। वहाँ के गु�ू �ड़के बडे़ फ़िपचके-दुचके-से होते हैं। मेरा तो पापा जैसा कद देख कर ही �ट्टू हो जाते हैं सब।'' ''कोई �ड़की देख रखी है क्या?'' रेखा ने कहा।''एक हो तो नाम बताऊँ। तुम आना तुम्हें सबसे ष्टिम�वा दँूगा।''''पर शादी तो एक से ही करनी होती है।''पवन हँसा। भाई को लि�पटाता हुआ बो�ा, ''जान टमाटर तुम कब आओगे।''''पह�े अपना कंप्यूटर बना �ूँ।''''इसमें तो बहुत दिदन �गेंगे।'''' नहीं भैय्या, ममी एक बार दिदल्�ी जाने दें तो भगीरथ पै�ेस से बाकी का सामान �े आऊँ।''''�े ये हज़ार रुपए तू रख �े काम आएगँे।'' मीटिट ग में भाग �ेने वा�े सभी सदस्यों को प्रलिसडेंसी में ठहराया गया था। दो दिदन के चार सत्रों में फ़िवपणन के सभी पह�ुओं पर खु� कर बहस हुई। हैरानी की बात यह थी फ़िक ईंधन जैसी आवश्यक वस्तु को भी ऐब्लिच्छक उपभोक्ता सामग्री के वग@ में रख कर इसके प्रसार और फ़िवकास का काय@क्रम तैयार फ़िकया जा रहा था। बहुत-सी ईंधन कंपफ़िनयाँ मैदान में आ गईं थीं। कुछ बहुराष्ट्रीय ते� कंपफ़िनयाँ ए�.पी.जी. इकाई खो� चुकी थीं, कुछ खो�ने वा�ी थीं। दूसरी तर� कुछ उद्योगपफ़ितयों ने भी ए�.पी.जी बनाने के अष्टिधकार हालिस� कर लि�ए थे। इससे स्पधा@ तो बढ़ ही रही थी। व्यावसाष्टियक उपभोक्ता भी कम हो रहे थे। फ़िनजी उद्योगपफ़ित मोठाबाई नानूभाई अपनी सभी Pम¬ में अपनी बनाई ए�.पी.जी. इस्तेमा� कर रहे थे जबफ़िक पह�े वहाँ जी.जी.सी.ए�. की लिस�ेंडर जाती थीं। बहुराष्ट्रीय कंपनी की फ़ि�तरत थी फ़िक शुरू में वह अपने उत्पाद का दाम बहुत कम रखती। जब उसका नाम और वस्तु �ोगों की फ़िनगाह में चढ़ जाते वह धीरे से अपना दाम बढ़ा देती। जी.जी.सी.ए�. के मालि�कों के लि�ए य ेसब परिरवत@न लिसरदद@ पैदा कर रहै थे। उन्होंने सा� तौर पर कहा, ''फ़िपछ�े पाँच वर्ष@ में कंपनी को साठ करोड़ का घाटा हुआ है। हम आप सबको बस दो वर्ष@ देते हैं। या घाटा कम कीजिजए या इस इकाई को बंद कीजिजए। हमारा क्या है, हम डेफ़िनम बेचते थे, डेफ़िनम बेचते रहेंगे। पर यह आप �ोगों का Pेलि�यर होगा फ़िक इतनी बड़ी-बड़ी फ़िडग्री और तनख़्वाह �ेकर भी आपने क्या फ़िकया। आप स्टडी कीजिजए ऐसा क्या है जो एस्सो और श�े में हैं और जी.जी.सी.ए�. में नहीं। वे भी डिह दुस्तानी कम@चारिरयों से काम �ेते हैं, हम भी। वे भी वही �ा� लिसचि� डर बनाते हैं। हम भी।''युवा मैनेजरों में एम.डी. की इस स्पीच से ख�ब�ी मच गई। ए�.पी.जी. फ़िवभाग के अष्टिधकारिरयों के चेहरे उतर गए। समापन सत्र शाम सात बजे संपन्न हुआ तब बहुतों को �गा जैसे यह उनका फ़िवदाई समारोह भी है। पवन भी थोड़ा उखड़ गया। वह अपनी रिरपोट@ भी प्रस्तुत नहीं कर पाया फ़िक सौराष्ट्र के फ़िकतने गाँवों में उसकी इकाई ने नए आड@र लि�ए और कहाँ-कहाँ से अन्य कंपफ़िनयों को अपदस्थ फ़िकया। रिरपोट@ की एक कॉपी उसने एम.डी. के सेके्रटरी गायकवाड़ को दे दी।राजकोट जाने से पह�े अत्तिभर्षेक से भी ष्टिम�ना था। अनुपम उसके साथ था। उन्होंने घर पर �ोन फ़िकया। पता च�ा अभी दफ़्तर से नहीं आया।वे दोनों आश्रम रोड उसके दफ़्तर की तर� च� दिदए। अनुपम ने कहा, ''मैं तो घर जाकर सबसे पह�े अपना बायोडाटा अप टु डेट करता हँू। �गता है यहाँ छँटनी होने वा�ी है।''पवन हँसा, '' बहुराष्ट्रीय कंपफ़िनयों से संघर्ष@ करने का सबसे अच्छा तरीका है फ़िक उनमें खुद घुस जाओ।''अनुपम ने खुशी जताई, ''वाह भाई, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था।''अत्तिभर्षेक अपना काम समेट रहा था। दोस्तों को देख चेहरा खिख� उठा।''फ़िपछ�े बारह घंटे से मैं इस प्रेत के आगे बैठा हँू।'' उसने अपने कंप्यूटर की तर� इशारा फ़िकया, ''अब में और नहीं झे� सकता। च�ो कहीं बैठ कर कॉPी पीते हैं, फ़िPर घर च�ेंगे।''वे कॉPी हाउस में अपने भफ़िवष्य से अष्टिधक अपनी कंपफ़िनयों के भफ़िवष्य की चिच ता करते रहे।अत्तिभर्षेक ने कहा, ''फ़िनजी सेक्टर में सबसे ख़राब बात वही है, नचिथ ग इज ऑन पेपर। एम.डी. ने कहा घाटा है तो मानना पडे़गा फ़िक घाटा है। पब्लिl�क सेक्टर मैं कम@चारी लिसर पर चढ़ जाते हैं, पाई-पाई का फ़िहसाब दिदखाना पड़ता है।''''फ़िPर भी पब्लिl�क सेक्टर में बीमार इकाइयों की बेशुमार संख्या है। प्राइवेट सेक्टर में ऐसा नहीं है।''अत्तिभर्षेक हँसा, ''मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा। मेरे पापा और चाचा दोनों पब्लिl�क सेक्टर में है। आजक� दोनों की कंपनी बंद च� रही हैं। पर पापा और चाचा दोनों बेफ़िPक्र हैं। कहते हैं �ेबर कोट@ से जीत कर एक-एक पैसा वसू� कर �ेंगे।''अत्तिभर्षेक की कंपनी की साख ऊँची थी और अत्तिभर्षेक वहाँ पाँच सा� से था पर नौकरी को �ेकर असुरक्षा बोध उसे भी था। यहाँ हर दिदन अपनी कामयाबी का सबूत देना पड़ता। कई बार क्�ायंट को पसंद न आने पर अच्छी भ�ी कॉपी में तlदीलि�याँ करनी पड़ती तो कभी पूरा प्रोजेक्ट ही कैं स� हो जाता। तब उसे �गता वह नाहक फ़िवज्ञापन प्रबंधन में Pँस गया, कोई सरकारी नौकरी की होती, चैन की नींद सोता। पर पटरी बद�ना रे�ों के लि�ए सुगम होता है, ज़िज़ दगी के लि�ए दुग@म। अब यह उसका परिरलिचत संसार था, इसी में संघर्ष@ और सP�ता फ़िनफ़िहत थी।

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अत्तिभर्षेक ने फ़िड�ाइट से लिच�ी पनीर पैक करवाया फ़िक घर च� कर खाना खाएगेँ।जैसे ही वे घर में दाखिख� हुए देखा राजु� और अंकुर बाहर जाने के लि�ए बने ठने बैठे हैं। उन्हें देखते ही वे चहककर बो�े, ''अहा, तुम आ गए। च�ो आज बाहर खाना खाएगेँ। अंकुर शाम से जिज़द कर रहा है।''अत्तिभर्षेक ने कहा, ''आज घर में ही खाते हैं, मैं सlज़ी �े आया हँू।''राजु� बो�ी, ''तुमने सुबह वादा फ़िकया था शाम को बाहर �े च�ोगे। सlज़ी फ़िफ्रज में रख देते हैं, क� खाएगेँ।''राजु� ता�े �गाने में व्यस्त हो गई। अत्तिभर्षेक ने पवन और अनुपम से कहा, ''सॉरी यार, कभी-कभी घर में भी कॉपी ग�त हो जाती है।''तीनों थके हुए थे। पवन ने तो अठारह सौ फ़िक�ोमीटर की यात्रा की थी। पर राजु� और अंकुर का जोश ठंडा करना उन्हें कू्ररता �गी।स्टै�ा और पवन ने अपनी जन्मपफ़ित्रयाँ कंप्यूटर से मैच कीं तो पाया छvीस में से छlबीस गुण ष्टिम�ते हैं। पवन ने कहा, ''�गता है तुमने कंप्यूटर को भी घूस दे रखी है।''स्टै�ा बो�ी, ''यह पंफ़िडत तो फ़िबना घूस के काम कर देता है।'' आकर्ष@ण, दोस्ती और दिद�जोई के बीच कुछ देर को उन्होंने यह भु�ा ही दिदया फ़िक इस रिरश्ते के दूरगामी समीकरण फ़िकस प्रकार बैठें गे। स्टै�ा के माता फ़िपता आजक� लिशकागो गए हुए थे। स्टै�ा के ई-मे� पत्र के जवाब में उन्होंने ई-मे� से बधाई भेजी। पवन ने माता फ़िपता को �ोन पर बताया फ़िक उसने �ड़की पसंद कर �ी है और वे अग�े महीने यानी जु�ाई में ही शादी कर �ेंगे।पांडे परिरवार पवन की ख़बर पर हतबुद्ध रह गया। न उन्होंने �ड़की देखी थी न उसका घर-बार। आकश्किस्मकता के प्रफ़ित उनके मन में सबसे पह�े शंका पैदा हुई। राकेश ने पत्नी से कहा, ''पुनू्न के दिदमाग में हर बात फ़िPतूर की तरह उठती है। ऐसा करो, तुम एक हफ़्ते की छुट्टी �ेकर राजकोट हो आओ। �ड़की भी देख �ेना और पुनू्न को भी टटो� �ेना। शादी कोई चार दिदनों का खे� नहीं, हमेशा का रिरश्ता है। इंटर से �ेकर अब तक दज@नों दोस्त रही हैं पुनू्न की, ऐसा चटपट �ैस�ा तो उसने कभी नहीं फ़िकया।''''तुम भी च�ो, मैं अके�ी क्या कर �ूँगी।''''मैं कैसे जा सकता हँू। फ़िPर पुनू्न सबसे ज़्यादा तुम्हें मानता है, तुम हो आओ।''रास्ते भर रेखा को �गता रहा फ़िक जब वह राजकोट पहँुचेगी पवन ता�ी बजाते हुए कहेगा,''माँ मैंने यह मज़ाक इसीलि�ए फ़िकया था फ़िक तुम दौड़ी आओ। वैसे तो तुम आती नहीं।''उसने अपने आने की ख़बर बेटे को नहीं की थी। मन में उसे फ़िवश्किस्मत करने का उत्साह था। साथ ही यह भी फ़िक उसे परेशान न होना पडे़। अहमदाबाद से राजकोट की बस यात्रा उसे भारी पड़ी। तेज़ रफ़्तार के बावजूद तीन घंटे सहज ही �ग गए। डायरी में लि�खे पते पर जब वह स्कूटर से पहँुची छह बज चुके थे।पवन तभी ऑफ़ि�स से �ौटा था। अनुपम भी उसके साथ था। उसे देख पवन खुशी से बाव�ा हो उठा. बाहों में उठा कर उसने माँ को पूरे घर में नचा दिदया। अनुपम ने जल्दी से खूब मीठी चाय बनाई। थोड़ी देर में स्टै�ा वहाँ आ पहँुची।पवन ने उनका परिरचय कराया। स्टै�ा ने है�ो फ़िकया। पवन ने कहा, ''माँ स्टै�ा मेरी फ़िबजनेस पाट@नर, �ाइ� पाट@नर, रूम पाट@नर तीनों है।''अनुपम बो�ा, ''हाँ अब जी.जी.जी.ए�. चूल्हे चाहे भाड़ में जाए। तुम तो इंटरप्राइज के स्�ीडिप ग पाट@नर बन गए।''स्टै�ा ने कहा, ''पवन डार्लिं� ग, जिजतने दिदन मैम यहाँ पर हैं मैं ष्टिमसेज छजनानी के यहाँ सोऊँगी।''स्टै�ा रात के खाने का प्रबंध करने रसोई में च�ी गई। फ़िPर पवन उसे छोड़ने ष्टिमसेज़ छजनानी के घर च�ा गया। पवन को कुछ-कुछ अंदाज़ा था फ़िक मां से एक� वाता@�ाप कोई आसान काम नहीं होगा। उसने अनुपम को मध्यस्थ की तरह साथ फ़िबठाए रखा।बारह बजे अनुपम का धैय@ समाप्त हो गया। उसने कहा, ''भाई मैं सोने जा रहा हँू। सुबह ऑफ़ि�स भी जाना है।'' कमरे में अके�े होते ही रेखा ने कहा, ''पुनू्न यह लिस�फ़िब�-सी �ड़की तुझे कहाँ ष्टिम� गई?''पवन ने कहा, ''तुम्हें तो हर �ड़की लिस�फ़िब� नज़र आती है। इसका �ाखों का कारोबार है।''''पर �गती तो दो कौड़ी की है। यह तो फ़िब�कु� तुम्हारे �ायक नहीं।'' ''यही बात तुम्हारे बारे में दादी माँ ने पापा से कही थी। क्या उन्होंने दादी माँ की बात मानी थी, बताइए।''रेखा का सवाÀग संताप से ज� उठा। उसका अपना बेटा, अभी क� की इस छोकरी की तु�ना अपनी माँ से कर रहा है और उन सब जानकारिरयों का दुरुपयोग कर रहा है जो घर का �ड़का होने के नाते उसके पास हैं।''मैंने तो ऐसी कोई �ड़की नहीं देखी जो शादी के पह�े ही पफ़ित के घर में रहने �गे।''''तुमने देखा क्या है माँ? कभी इ�ाहाबाद से फ़िनक�ो तो देखोगी न। यहाँ गुजरात, सौराष्ट्र में शादी तय होने के पह�े �ड़की महीने भर ससुरा� में रहती है। �ड़का �ड़की एक दूसरे के तौर तरीके समझने के बाद ही शादी करते हैं।''''पर यह ससुरा� कहाँ है?''''माँ, स्टै�ा अपना कारोबार छोड़ कर तुम्हारे क़स्बे में तो जाने से रही। उसका एक-एक दिदन कीमती है।''रेखा भड़क गई, ''अभी तो यह भी तय नहीं है फ़िक हम इस रिरश्ते के पक्ष में हैं या नहीं। हमारी राय का तुम्हारे लि�ए कोई अथ@ है या नहीं।''''फ़िब�कु� है तभी तो तुम्हें खबर की, नहीं तो अब तक हमने स्वामी जी के आश्रम में जा कर शादी कर �ी होती।''''फ़िब�कु� ग�त बात कर रहे हो पुनू्न, यही सब सुनाने के लि�ए बु�ाया है मुझे।''''अपने आप आई हो। फ़िबना खबर दिदए। तुम्हारे इरादे भी संदिदग्ध थे। तुम्हें मेरा टाइम टेब� पूछ �ेना चाफ़िहए था। मान �ो मैं बाहर होता।''रेखा को रोना आ गया। पवन पर अफ़िप्रय यथाथ@ का दौरा पड़ा ता जिजसके अंतग@त उसने अपनी लिशकायतों के शर शू� से उसे �थपथ कर दिदया।''मैं सुबह वापस च�ी जाऊँगी, कोई ढंग की गाड़ी नहीं होगी तो मा�गाड़ी में च�ी जाऊँगी पर अब एक ष्टिमनट तेरे पास नहीं रहँूगी।''पवन की सख्ती का संदूक टूट गया। उसने माँ को अंकवार में भरा, ''माँ कैसी बातें करती हो। तुम पह�ी बार मेरे पास आई हो, मैं तुम्हें जाने दँूगा भ�ा। गाड़ी के आगे �ेट जाऊँगा।''दोनों रोते रहे। पवन के आँसू रेखा कभी झे� नहीं पाई। चौबीस सा� को होने पर भी उसके चेहरे पर इतनी मासूष्टिमयत थी फ़िक हँसते और रोते समय लिशशु �गता था। संप्रेर्षण के इन क्षणों में माँ बेटा बन गई और बेटा माँ। पवन ने माँ के आँसू पोंछे, पानी फ़िप�ाया और थपक-थपक कर शांत फ़िकया उसे।सुबह तेज़ संगीत की ध्वफ़िन से रेखा की नींद टूटी। एक क्षण को वह भू� गई फ़िक वह कहाँ है। 'हो रामजी मेरा फ़िपया घर आया' सी.डी. लिसस्टम पर पूरे वाल्यूम पर च� रहा था और अनुपम रसोई में चाय बना रहा था। उसने एक कप चाय रेखा को दी, ''गुडमार्डिंन ग।'' फ़िPर उसने संगीत का वाल्यूम थोड़ा कम फ़िकया, ''सॉरी, सुबह मुझे खूब ज़ोर-ज़ोर से गाना सुनना अच्छा �गता है। और फ़िPर पवन भैया को उठाने का और कोई तरीका भी तो नहीं। आँटी से सवेरे पौने नौ तक सोते रहते हैं और नौ बजे अपने ऑफ़िPस में होते हैं।''''सुबह चाय नाश्ता कुछ नहीं �ेता?''

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''फ़िकसी दिदन स्टै�ा भाभी हमारे लि�ए टोस्ट और कांप्�ान तैयार कर देती हैं। पर ज़्यादातर तो ऐसे ही भागते हैं हम �ोग। �ंच टाइम तक पेट में नगाडे़ बजने �गते हैं।''चाव� में कंकड़ की तरह रड़क गया फ़िPर स्टै�ा का नाम। कहाँ से �ग गई यह ब�ा मेरे भो�े भा�े बेटे के पीछे, रेखा ने उदासी से सोचा।''हटो आज मैं बनाती हँू नाश्ता।''रसोई की पड़ता� करने पर पाया गया फ़िक टोस्ट और ष्टिमल्क शेक के लिसवा कुछ भी बनना मुमफ़िकन नहीं है। थोडे़ से बत@न थे, जो जूठे पडे़ थे।''अभी भरत आ कर करेगा। आंटी आप परेशान मत होइएगा। भरत खाना बना �ेता है।''''पवन तो बाहर खाता था।''''आँटी, हम �ोग का टाइम गड़बड़ हो जाता था। मौसी �ोग के यहाँ टाइम की पाबंदी बहुत थी। हफ्ते में दो एक दिदन भूखा रहना पड़ता था। कई बार हम �ोग टूर पर रहते हैं। तब भी पूरे पैसे देने पड़ते थे मौसी को। अब तीनों का �ंच बॉक्स भरत पैक कर देता है।''तभी भरत आ गया। पवन की पुरानी जीन्स और टी शट@ पहने हुए यह बीस-बाईस सा� का �ड़का था जिजसने लिसर पर पटका बाँध रखा था। अनुपम के बताने पर उसने नमस्ते करते हुए कहा, ''पौन भाई नी वा आवी।'' (पवन भाई की माँ आई है।)ग़ज़ब की Pुतj थी उसमें। कु� पौन घंटे में उसने काम सँभा� लि�या। रोटी बनाने के पह�े वह रेखा के पास आ कर बो�ा, ''वा तमे केट�ा रोट�ी खातो?'' (माँ तुम फ़िकतनी रोटी खाती हो?)यह सीधा-सा वाक्य था पर रेखा के मन पर ढे�े की तरह पड़ा। अब बेटे के घर में उसकी रोदिटयों की फ़िगनती होगी। उसने ज�भुन कर कहा, ''डेढ़।''''वे (दो) च�ेगा।'' कह कर भरत फ़िPर रसोई में च�ा गया। इस बीच पवन नहा कर बाहर फ़िनक�ा।रेखा से रहा नहीं गया। उसने पवन को बताया। पवन हँसने �गा, ''अरे माँ तुम तो पाग� हो। भरत को हमीं �ोगों ने कह रखा है फ़िक खाना फ़िब�कु� बरबाद न जाए। नाप तो� कर बनाए। उसे हरेक का अंदाज़ा है कौन फ़िकतना खाता है। घर खु�ा पड़ा है, तुम जो चाहो बना �ेना।''रेखा को �गा इस नाप तो� के पीछे ज़रूर स्टै�ा का हाथ होगा। उसका बेटा तो ऐसा फ़िहसाबी कभी नहीं था। खुद यह जम कर बरबाद करने में यकीन करता था। एक बार नाश्ता बनता, दो बार बनता। पवन को पसंद न आता। शहजादे की तरह Pरमा देता, ''आ�ू का टोस्ट नहीं खाएगेँ, आम�ेट बनाओ।'' अब आम�ेट तैयार होता वह दाँत सा� करने बाथरूम में घुस जाता। देर �गा कर बाहर फ़िनक�ता। फ़िPर नाश्ता देखते ही भड़क जाता, ''यह अंडे की ठंडी �ाश कोई खा सकता है? मा�ती पराठा बनाओ नहीं तो हम अभी जा रहे हैं बाहर।'' घर की पुरानी सेफ़िवका मा�ती में ही इतना धीरज था फ़िक रेखा की गैरमौजूदगी में पवन के नखरे पूरे करे। कभी फ़िबना फ़िकसी सूचना के तीन-तीन दोस्त साथ �े आता। सारा घर उनके आफ़ितर्थ्यय में जुट जाता।पवन ने कहा, ''भारत मेरा �ंच पैक मत करना, दुपहर में मैं घर आ जाऊँगा।'' फ़िPर रेखा से कहा, ''माँ क्या करँू, ऑफ़ि�स जाना ज़रूरी है, देखो क� की छुट्टी का जुगाड़ करता हँू कुछ। तुम पीछे से टी.वी. देखना, सी.डी. सुन �ेना। कोई दिदक्कत हो तो मुझे �ोन कर �ेना। सामने पटे� आँटी रहती है, कोई ज़रूरत हो तो उनसे बात कर �ेना।'' तभी स्टै�ा Pू�ों का गु�दस्ता लि�ए आई।''गुड मॉर्डिंन ग मैम।'' उसने गु�दस्ता रेखा को दिदया। उसमें छोटा-सा फ़िगफ्ट काड@ �गा था, ''स्टै�ा पवन की ओर से।''Pू�ों की बजाय रेखा ध्यान से उस लिचट को देखती रही। पवन ताड़ गया। उसने कहा, ''माँ यह हम दोनों की तर� से है।'' उसने फ़िगफ्ट काड@ में पेन से स्टै�ा और पवन के बीच कॉमा �गा दिदया।रेखा को थोड़ी आश्वश्किस्त हुई। उसने देखा स्टै�ा की मुख मुद्रा थोड़ी बद�ी।स्टै�ा ने अपना �ंच बाक्स और ऑफ़ि�स बैग उठाया, ''बाय, सी यू इन द ईवडिन ग मैम, टेक केयर।''उसी के पीछे-पीछे पवन, अनुपम भी गाड़ी की चाभी �ेकर फ़िनक� गए।अके�े घर में फ़िबस्तर पर पड़ी-पड़ी रेखा देर तक फ़िवचारमग्न रही। बीच में इच्छा हुई फ़िक राकेश से बात करे पर एस.टी.डी. कोड डाय� करने पर उधर से आवाज़ आई, ''यह सुफ़िवधा तमारे �ोन पर नथी छे।'' �ोन की एस.टी.डी. सुफ़िवधा पर इ�ेक्ट्राफ़िनक ता�ा था। एक बार फ़िPर रेखा को �गा इस घर पर स्टै�ा का फ़िनयंत्रण बहुत गहरा है।रेखा के तीन दिदन के प्रवास में स्टै�ा सुबह शाम कोई न कोई उपहार उसके लि�ए �ेकर आती। एक शाम वह उसके लि�ए आभ�ा(शीशे) की कढ़ाई की भव्य चादर �ेकर आई। पवन ने कहा, ''जैसे पीर शाह पर चादर चढ़ाते हैं वैसे हम तुम्हें मनाने को चादर चढ़ा रहे हैं माँ।''''पीर औलि�या की मज़ार पर चादर चढ़ाते है, मुझे क्या मुदा@ मान रहे हो?''''नहीं माँ मुदा@ तो उन्हें भी नहीं माना जाता। तुम हर अच्छी बात का बुरा अथ@ कहाँ से ढँूढ़ �ाती हो।''''पर तुम खुद सोचो। कहीं काँच की चादर फ़िबस्तर पर फ़िबछाई जाती है। काँच पीठ में नहीं चुभ जाएगँे।''स्टै�ा ने उन दोनों का संवाद सुना। उसने पवन के जानू पर हाथ मारा, ''आइ गॉट इट। मैम इसे वॉ� हैडिग ग की तरह दीवार पर �टका �ें। पूरी दीवार कवर हो जाएगी।''पवन ने सराहना से उसे देखा, ''तुम जीफ़िनयस हो लिस�ी।''चादर प्�ास्टिस्टक बैग में डा� कर रेखा के सूटकेस के ऊपर रख दी गई।रेखा को रात में यही सपना बार-बार आता रहा फ़िक उसके फ़िबस्तर पर शीशे वा�ी चादर फ़िबछी है। जिजस करवट वह �ेटती है उसके बदन में शीशे चट-चट कर टूट कर चुभ रहे हैं।उसने सुबह पवन से बताया फ़िक वह चादर नहीं �े जाएगी। पवन उखड़ गया, ''आपको पता है हमारे तीन हज़ार फ़िगफ्ट पर खच@ हुए हैं। इतनी कीमती चीज़ की कोई कद्र नहीं आपको?''रेखा को �गा अगर इस वक़्त वह तीन हज़ार साथ �ाई होती तो मुँह पर मारती स्टै�ा के। प्रकट उसने कहा, ''पुनू्न उस �ड़की से कहना फ़िव� बना कर रख �े हर चीज़ का, मैं वहाँ जा कर पैसे त्तिभजवा दँूगी।''''आप कभी समझने की कोलिशश नहीं करोगी। वह जो भी कर रही है, मेरी मज़j से, मेरी माँ के लि�ए कर रही है। अब देखो वह आपके लि�ए राजधानी एक्सप्रेस का दिटकट �ाई है, यहाँ से अमदाबाद वह अपनी एस्टीम में खुद आपके �े जाएगी। और क्या करे वह, सती हो जाए।''''सती और साफ़िवत्री के गुण तो उसमें दिदख नहीं रहे, अच्छी कैरिरयरिरस्ट भ�े ही हो।''''वह भी ज़रूरी है, बश्किल्क माँ वह ज़्यादा ज़रूरी है। तुम तो अपने आपको थोड़ा बहुत �ेखक भी समझती हो, इतनी दफ़िकयानूस कब से हो गई फ़िक मेरे लि�ए लिचराग �े कर सती साफ़िवत्री ढँूढ़ने फ़िनक� पड़ो। वी आर मेड Pॉर इच अदर। हम अग�े महीने शादी कर �ेंगे।''''इतनी जल्दी।''''हमारे एजेंडा पर बहुत सारे काम हैं। शादी के लि�ए हम ज़्यादा से ज़्यादा चार दिदन खा�ी रख सकते हैं।''''क्या लिसफ़िव� मैरेज करोगे?'' रेखा ने हलिथयार डा� दिदए।स्वामी जी से पूछना होगा। उनका लिशफ़िबर इस बार उनके मुख्य आश्रम, मनपक्कम में �गेगा।''

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''कहाँ?''''मद्रास से तीस पैंतीस मी� दूर एक जगह है माँ। मैं तो कहता हँू आप वहाँ जा कर दस दिदन रहो। आपकी बेचैनी, परेशानी, बेवजह लिचढ़ने की आदत सब ठीक हो जाएगी।''''मैं जैसी भी हँू ठीक हँू। कोई ठा�ी बैठी नहीं हँू जो आश्रमों में जा कर रहँू। नौकरी भी करनी है।''''छोटी-सी नौकरी है तुम्हारी छोड़ दो, चैन से जिजयो माँ।''''इसी छोटी-सी नौकरी से मैंने बडे़-बडे़ काम कर डा�े पुनू्न, तू क्या जानता नहीं है?''''पर आप में जीवन दश@न की कमी है। स्टै�ा के माँ बाप को देखो। अपनी �ड़की पर फ़िवश्वास करते हैं। उन्हें पता है वह जो भी करेगी, सोच समझ कर करेगी।''''डी� का क्या मत�ब है। तुम अभी शादी जैसे रिरश्ते की गंभीरता नहीं जानते। शादी और व्यापार अ�ग-अ�ग चीज़ें है।''''कोई भी नाम दो, इससे �क@ नहीं पड़ता। अग�े महीने आप चौबीस को मद्रास पहँुचो। स्वामी जी की सा�फ़िगरह पर चौबीस जु�ाई को बड़ा भारी ज�सा होता है, कम से कम पचास शादिदयाँ कराते हैं स्वामी जी।''''सामूफ़िहक फ़िववाह?''''हाँ। एक घंटे में सब काम पूरा हो जाता है।'' शल्य फ़िक्रया की तरह बेटे ने सब कुछ फ़िनधा@रिरत कर रखा था। पह�े पुत्र को �ेकर परिरवार के अरमानों के लि�ए इसमें कोई गंुजाइश नहीं थीं।माँ ने अंफ़ितम द�ी� दी, ''तू खरमास में शादी करेगा। इसमें शादिदयाँ फ़िनफ़िर्षद्ध होती हैं।'' पवन ने पास आकर माँ को कंधों से पकड़ा, ''माँ मेरी प्यारी माँ, यह मैं भी जानता हँू और तुम भी फ़िक हम �ोग इन बातों में यकीन नहीं करते। लिस�ी के साथ जब बंधन में बँध जाऊँ वही मेरे लि�ए मुबारक महीना है।''आहत मन और सुन्न मश्किस्तष्क लि�ए रेखा �ौट आई। पफ़ित और छोटे बेटे ने जो भी सवा� फ़िकए, उनका वह कोई लिस�लिस�ेवार उvर नहीं दे पाई।''मेरा पुनू्न इतना कैसे बद� गया।'' वह कं्रदन करती रही।पवन ने �ोन पर माँ की सकुश� वापसी की ख़बर �ी। सघन से ई-मे� पता लि�या और दिदया और अपने पापा से बात करता रहा, ''पापा आप अपनी शादी याद करो और माँ को समझाने का प्रयत्न करो। मैं �ड़की को फ़िडच(धोखा) नहीं कर सकता।''राकेश व्यथा के ऊपर फ़िववेक का आवरण चढ़ाए बेटे की आवाज़ सुनते रहे। 'ठीक है', 'अच्छा हँू' के अ�ावा उनके मुँह से कुछ नहीं फ़िनक�ा। उस दिदन फ़िकसी से खाना नहीं खाया गया। राकेश ने कहा, ''हमें यह भी सोचना चाफ़िहए फ़िक उस �ड़की में ज़रूर ऐसी कोई ख़ालिसयत होगी फ़िक हमारा बेटा उसे चाहता है। तुमने देखा होगा।''''मुझे �गा स्टै�ा बड़ी अच्छी व्यवस्थापक है। मुझे तो वह �ड़की की बजाय मैनेजर ज़्यादा �गा।'' रेखा ने कहा।''तो इसमें बुराई क्या है। पवन दफ्तर भ�े ही मैनेज कर �े घर में तो उसे हर वक़्त एक मैनेजर चाफ़िहए जो उसका ध्यान रखे। यहाँ यह काम तुम और सुग्गू करते थे।''''पर शादी एकदम अ�ग बात होती है।''''कोई अ�ग बात नहीं होती। �ड़की काम से �गी है। तुम्हारे जाने पर �गातार तुमसे ष्टिम�ती रही। अपनी गरिरमा इसी में होती है फ़िक बच्चों से टकराव की ब्लिस्थफ़ित न आने दें।''''पर सब कुछ वही तय कर रही है, हमें लिस�@ लिसर फ़िह�ाना है।''''तो क्या बुराई है। तुम अपने को नारीवादी कहती हो। जब �ड़की सारे इंतज़ाम में पह� करे तो तुम्हें बुरा �ग रहा है।''''हम इस सारे प्�ान में कहीं नहीं है। हमें तो पुनू्न ने उठा कर ताक पर रख दिदया है, फ़िपछ�े सा� के गणेश �क्ष्मी की तरह।''''सब यही करते हैं क्या हमने ऐसा नहीं फ़िकया। मेरी माँ को भी ऐसा ही दुख हुआ था।''रेखा भड़क उठी, ''तुम स्टै�ा की मुझसे तु�ना कर रहे हो। मैंने तुम्हारे घर परिरवार की धूप छाया जैसे काटी है, वह काटेगी वैसे। बस बैठे-बैठे कंप्यूटर जोड़ने के लिसवा और क्या आता है उसे। एक टाइम खाना नौकर बनाता है। दूसरे टाइम बाहर से आता है। दूध तक गरम करने में दिद�चस्पी नहीं है उसे।''''मुझे �गता है तुम पूवा@ग्रह से ग्रलिसत हो। मेरा �ड़का ग़�त चयन नहीं कर सकता।''''अब तुम उसकी �य में बो� रहे हो।''कई दिदनों तक रेखा की उफ़िद्वग्नता बनी रही। उसने अपनी अध्यापक सखिखयों से स�ाह की। जो भी घर आता, उसकी बेचैनी भाँप जाता। उसने पाया हर परिरवार में एक न एक अनचाहा, मनचाहा फ़िववाह हुआ है।उसे अपने दिदन याद आए। फ़िबल्कु� ऐसी तड़प उठी होगी राकेश के माता फ़िपता के क�ेजे में जब उनकी देखी सवाÀग संुदरिरयों को ठुकरा कर उसने रेखा से फ़िववाह को मन बनाया। उसके दोस्तों तक ने उसने कहा, ''तुम क्या एकदम पाग� हो गए हो?'' दरअस� वे दोनों एक दूसरे के फ़िव�ोम थे। राकेश थे �ंबे, तगडे़, संुदर और हँसमुख, रेखा थी छोटी, दुब�ी, कमसूरत और कटखनी। बो�त ेवक़्त वह भार्षा को चाकू की तरह इस्तेमा� करती थी। उसके इसी तेवर ने राकेश को खींचा था। वह उसकी दो चार कफ़िवताओं पर दिद� दे बैठा। राकेश के फ़िहतफै़िर्षयों का ख़या� फ़िक अव्व� तो यह शादी नहीं होगी। और हो भी गई तो छह महीने में टूट जाएगी।रेखा को याद आता गया। शादी के बाद के महीनों में वह �ाख घर का काम, स्कू� की नौकरी, खच@ को बोझ सँभा�ती, माँ जी उसके प्रफ़ित अपनी त�खी नहीं त्यागती। अगर कभी फ़िपता जी या राकेश उसकी फ़िकसी बात की तारी� कर देते तो उस दिदन उसकी शामत ही आ जाती। माँ जी की नज़रों में रेखा च�ती-फ़िPरती चुनौती थी।जी.जी.सी.ए�. �गातार घाटे में च�ते-च�ते अब डूबने के कगार पर थी। कम@चारिरयों की छटनी शुरू हो गई थी। एम.बी.ए. पास �ड़कों में इतना धैय@ नहीं था फ़िक वे डूबते जहाज़ का मस्तू� सँभा�ते। सभी फ़िकसी न फ़िकसी फ़िवकल्प की खोज में थे।था पवन ने घर पर �ोन कर सूचना दी फ़िक उसका चयन बहुराष्ट्रीय कंपनी मै� में हो गया है। नयी नौकरी में ज्वाइन करने से पूव@ उसके पास तीन सप्ताह का समय होगा। इसी समय वह घर आएगा और जी भर कर रहेगा।अग�े हफ्ते पवन ने कंप्यूटर पर फ़िनर्मिम त सा�सुथरा सुरुलिचपूण@ पत्र भेजा जिजसमें उसकी शादी का फ़िनमंत्रण था। स्वामी जी के काय@क्रम के अनुसार शादी दिदल्�ी में होनी थी। शहरों की दूरिरयाँ और अपरिरचय उसके जीवन में महत्व नहीं रखती थीं। बेटे की योजनाओं पर स्तंत्तिभत होना जैसे जीवन का अंग बन गया था। अपने नाम के अनुरूप ही वह पवन वेग से सारी व्यवस्था कर रहा था।इस बीच इतना समय अवश्य ष्टिम� गया था फ़िक रेखा और राकेश अपने क्षोभ और असंतोर्ष को संत�ुन का रूप दे सके। जब दिदल्�ी में रामकृष्णपुरम में सर� माग@ के लिशफ़िबर में उन्होंने दस हज़ार दश@कों की भीड़ में सामूफ़िहक फ़िववाह का दृश्य देखा तो उन्हें महसूस हुआ फ़िक इस आयोजन में पारंपारिरक फ़िववाह संस्कार से कहीं ज़्यादा गरिरमा और फ़िवश्वस्वीयता है। न कहीं माता फ़िपता की महाजनी भूष्टिमका थी न नाटकीयता। स्वामी जी की उपब्लिस्थफ़ित में वधु

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को एक सादा मंग�सूत्र पहनाया गया, फ़िPर फ़िववाह को नोटरी द्वारा रलिचस्टर फ़िकया गया। अंत में सभी दश@कों के बीच �ड्डू बाँट दिदए गए। कन्याओं के अत्तिभभावकों के चेहरे पर कृतज्ञता का आ�ोक था। �ड़कों के अत्तिभभावकों के चेहरे कुछ बुझे हुए थे।अब तक अपने आक्रोश पर रेखा और राकेश फ़िनयंत्रण कर चुके थे। नये अनुभव से गुज़रने की उvेजना में उन्हें स्टै�ा से कोई लिशकायत नहीं हुई। वे पवन और बहू को �ेकर घर आए। दो दिदन स�वार सूट पहनने के बाद स्टै�ा ने कह दिदया, ''मैं दुपट्टा नहीं सँभा� सकती।'' वह वापस अपनी फ़िप्रय पोशाक जीन्स और टॉप में नज़र आई। उसकी व्यस्तता भी इस तरह की थी फ़िक लि�बास को �े कर फ़िववाद नहीं फ़िकया जा सकता था। उसने यहाँ अपनी सहयोगी Pम@ से संपक@ कर सघन को कंप्यूटर के पाट@स दिद�ा दिदए। फ़िPर वे दोनों कंप्यूटर रूस बन गया। उसने सगव@ घोर्षणा की, ''मेरी जैसी भाभी कभी फ़िकसी को न ष्टिम�ी है न ष्टिम�ेगी।'' स्टै�ा कंप्यूटर मैन्यू पर जिजतनी पारंगत थी, रसोईघर की मैन्यू पर उतनी ही अनाड़ी। �गातार घर से बाहर होस्ट�ों में रहने की वजह से उसके जेहन में खाने का कोई ख़ास तसव्वुर नहीं था। वह अंडा आ�ू, चाव� उबा�ना जानती थी या फ़िPर मैगी।माँ ने कहा, ''इतनी बेस्वाद चीज़ें तुम खा सकती हो?''स्टै�ा ने कहा, ''मैं तो बस कै�ोरी फ़िगन �ेती हँू और आँख मूँद कर खाना फ़िनग� �ेती हँू।'''पर हो सकता है पवन स्वादिदC खाना खाना चाहे।''  ''तो वह कुडिक ग सीख �े। वैसे भी वह अब चैन्ने जाने वा�ा है। मैं राजकोट और अहमदाबाद के बीच च�ती फ़िPरती रहँूगी।''''फ़िPर भी मैं तुम्हें थोड़ा बहुत लिसखा दँू।''अब पवन ने हस्तके्षप फ़िकया। वह यहाँ माता फ़िपता का आशीवा@द �ेने आया था उपदेश नहीं।''माँ जब से मैंने होश सँभा�ा, तुम्हें स्कू� और रसोई के बीच दौड़ते ही देखा। मुझे याद है जब मैं सो कर उठता तुम रसोई में होतीं और जब मैं सोने जाता, तब भी तुम रसोई में होतीं। तुम्हें चाफ़िहए फ़िक स्टै�ा के लि�ए जीवन भट्ठी न बने। जो तुमने सहा, वह क्यों सहे।?''रेखा की मुखाकृफ़ित तन गई। हा�ाँफ़िक बेटे के तक@ की वह क़ाय� थी।दोपहर में �ेटे उसे �गा हर पीढ़ी का प्यार करने का ढंग अ�ग और अनोखा होता है। स्टै�ा भ�े ही कंप्यूटर पर आठ घंटे काम कर �े, रसोई में आध घंटे नहीं रहना चाहती। पवन भी नहीं चाहता फ़िक वह रसोई में जाए। रेखा ने कहा, ''यह दा� रोटी तो बनानी सीख �े।'' पवन ने जवाब दिदया खाना बनाने वा�ा पाँच सौ रुपये में ष्टिम� जाएगा माँ, इसे बावचj थोड़ी बनाना है।''''और मैं जो सारी उमर तुम �ोगों की बावचj, धोफ़िबन, जमादारनी बनी रहीं वह?''''ग़�त फ़िकया आपने और पापा ने। आप चाहती हैं वही ग�फ़ितयाँ मैं भी करँू। जो गुण है इस �ड़की के उन्हें देखो। कंप्यूटर फ़िवज़ड@ है यह। इसके पास फ़िब� गेट्स के हस्ताक्षर से लिचट्ठी आती है।''''पर कुछ स्त्रिस्त्रयोलिचत गुण भी तो पैदा करने होंगे इसे।''''अरे माँ आज के ज़माने में स्त्री और पुरुर्ष का उलिचत अ�ग-अ�ग नहीं रहा है। आप तो पढ़ी लि�खी हो माँ समय की दस्तक पहचानो। इक्कीसवीं सदी में ये सडे़ ग�े फ़िवचार �े कर नहीं च�ना है हमें, इनका तप@ण कर डा�ो।''स्टै�ा की आदत थी जब माँ बेटे में कोई प्रफ़ितवाद हो तो वह फ़िबल्कु� हस्तके्षप नहीं करती थी। उसकी ज़्यादा दिद�चस्पी समस्याओं के ठोस फ़िनदान में थी। उसने फ़िपता से कहा, ''मैं आपको ऑपरेट करना लिसखा दँूगी। तब आप देखिखएगा संपादन करना आपके लि�ए फ़िकतना सर� काम होगा। जहाँ मज़j संशोधन कर �ें जहाँ मज़j ष्टिमटा दें।''रेखा की कई कहाफ़िनयाँ उसने कंप्यूटर पर उतार दीं। बताया, ''मैम इस एक फ्�ॉपी में आपकी सौ कहाफ़िनयाँ आ सकती हैं। बस यह फ़िडस्कैट सँभा� �ीजिजए, आपका सारा साफ़िहत्य इसमें है।''चमत्कृत रह गए वे दोनों। रेखा ने कहा, ''अब तुम हमारी हो गई हो। मैम न बो�ा करो।''''ओ.के. माम सही।'' स्टै�ा हँस दी।बच्चों के वापस जाने में बहुत थोडे़ दिदन बचे थे। राकेश इस बात से उखडे़ हुए थे फ़िक शादी के तत्का� बाद पवन और स्टै�ा साथ नहीं रहेंगे बश्किल्क एक दूसरे से तीन हज़ार मी� के �ास�े पर होंगे।उन्होंने दोनों को समझाने की कोलिशश की। पवन ने कहा, ''मैं तो वचन दे चुका हँू मै� को। मेरा चेन्नई जाना तय है।''''और जो वचन जीवन साथी को दिदये वे?''पवन हँसा, ''पापा जुम�ेबाज़ी में आपका जवाब नहीं। हमारी शादी में कोई भारी भरकम वचनों की अद�ा बद�ी नहीं हुई।''''बहू अके�ी अनजान शहर में रहेगी? आजक� समय अच्छा नहीं है।''''समय कभी भी अच्छा नहीं था पापा, मैं तो पच्चीस सा� से देख रहा हँू। फ़िPर वह शहर स्टै�ा के लि�ए अनजान नहीं है। एक और बात, राजकोट में डिह सा, अपराध यहाँ का एक परसेंट भी नहीं है। रातों में �ोग फ़िबना ता�ा �गाए स्कूटर पाक@ कर देते हैं, चोरी नहीं होती। फ़िPर आपकी बहू कराटे, ताइक्वांडो में माफ़िहर है।''''पर फ़िPर भी शादी के बाद तुम्हारा �ज़@ है साथ रहो।''''पापा आप भारी भरकम शlदों से हमारा रिरश्ता बोजिझ� बना रहे हैं। मैं अपना कैरिरयर, अपनी आज़ादी कभी नहीं छोडँूगा। स्टै�ा चाहे तो अपना फ़िबज़नेस चेन्नई �े च�े।''''तुम तो तरक्कीराम हो। मैं चेन्नई पहँुचँू और तुम चिस गापुर च�े जाओ तब!'' स्टै�ा हँसी।पता च�ा पवन के चिस गापुर या ताईवान जाने की भी बात च� रही थी।रेखा ने कहा, ''यह बार-बार अपने को फ़िडस्टब@ क्यों करती हो। अच्छी भ�ी कट रही है सौराष्ट्र में। अब फ़िPर एक नई जगह जाकर संघर्ष@ करोगे?''''वही तो माँ। मंजिज़�ों के लि�ए संघर्ष@ तो करना ही पडे़गा। मेरी �ाइन में च�ते रहना ही तरक्की है। अगर यहीं पड़ा रह गया तो �ोग कहेंगे, देखा कैसा �द्धड़ है, कंपनी डूब रही है और यह कैसा फ़िबयांका की तरह उसमें Pँसा हुआ है।''बातें राकेश को बहुत चुभीं, ''तुम अपनी तरक्की के लि�ए पत्नी और कंपनी दोनों छोड़ दोगे?''''छोड़ कहाँ रहा हँू पापा, यह कंपनी अब मेरे �ायक नहीं रही। मेरी प्रफ़ितभा का इस्तेमा� अब ''मै�' करेगी। रही स्टै�ा। तो यह इतनी व्यस्त रहती है फ़िक इंटरनेट और �ोन पर मुझसे बात करने की �ुस@त फ़िनका� �े यही बहुत है। फ़िPर जेट, सहारा, इंफ़िडयन एयर�ाइंस का फ़िबजनेस आप �ोग च�ने दोगे या नहीं। लिसP@ सात घंटे की उड़ान से हम �ोग ष्टिम� सकते हैं।''''यानी सेटे�ाइट और इंटरनेट से तुम �ोगों का दांपत्य च�ेगा?''''येस पापा।''''मैं तुम्हारी प्�ाडिन ग से ज़रा भी खुश नहीं हँू पुनू्न। एक अच्छी भ�ी �ड़की को अपना जीवन साथी बना कर कुछ जिज़म्मेदारी से जीना सीखो। और बेचारी जी.सी.सी.ए�. ने तुम्हें इतने वर्ष¬ में काम लिसखा कर काफ़िब� बनाया है। क� तक तुम इसके गुण गाते नहीं थकते थे। तुम्हारी एलिथक्स को क्या होता जा

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रहा है?''पवन लिचढ़ गया, ''मेरे हर काम में आप यह क्या एलिथक्स, मोरैलि�टी जैसे भारी भरकम पत्थर मारते रहते है। मैं जिजस दुफ़िनया में हँू वहाँ एलिथक्स नहीं, प्रो�ेशन� एलिथक्स का ज़रूरत है। चीज़ों को नई नज़र से देखना सीखिखए नहीं तो आप पुराने अखबार की तरह रद्दी की टोकरी में Pें क दिदये जाएगँे। आप जेनरेशन गैप पैदा करने की कोलिशश कर रहे हैं। इससे क्या होगा, आप ही दुखी रहेंगे।''''तुम हमारी पीढ़ी में पैदा हुए हो, बडे़ हुए हो, फ़िPर जेनरेशन गैप कहाँ से आ गया। अस� में पवन हम और तुम साथ बडे़ हुए हैं।'''ऐसा आपको �गता है। आपको आज भी के. ए�. सहग� पसंद है, मुझे बाबा सहग�, इतना Pास�ा है हमारे आपके बीच। आपको पुरानी चीज़ें, पुराने गीत, पुरानी फ़ि�ल्में सब अच्छी �गती हैं। ढँूढ़-ढँूढ़ कर आप कबाड़ इकठ्ठा करते हैं। टी.वी. पर कोई पुरानी फ़ि�ल्म आए आप उससे बँध जाते हैं। इतना फ़ि�ल्म बोर नहीं करती जिजतना आपकी यादें बोर करती हैं- फ़िनम्मी ऐसे देखती थी, ऐसे भागती थी, उसके होठ अनफ़िकस्ड लि�प्स कह�ाते थे। मेरे पास इन फ़िकस्से कहाफ़िनयों का वक़्त नहीं है। तकनीकी दृष्टिC से फ़िकतनी खराब फ़ि�ल्में थीं वे। एक डाय�ाग बो�ने में हीरोइन दो ष्टिमनट �गा देती थी। आप भी तो आधी फ़ि�ल्म देखते न देखते ऊँघ जाते हैं।''रेखा ने कहा, ''बाप को इतना �ंबा �ेक्चर फ़िप�ा दिदया। यह नहीं देखा फ़िक तेरे सुख की ही सोच रहे हैं वे।''''जब मैं यहाँ सुख से रहता था तब भी तो आप �ोग दुखी थे। आपने कहा था माँ फ़िक आपके बडे़ बाबू के �ड़के तक ने एम.बी.ए. प्रवेश पास कर �ी। उस समय मुझे कैसा �गा था।''''सभी माँ बाप अपने बच्चों को भौफ़ितक अथ¬ में कामयाब बनाना चाहते हैं ताफ़िक कोई उन्हें फ़िPसड्डी न समझे।''''वही तो मैंने फ़िकया। आपके ऊपर इन तीन अक्षरों का कैसा जादू चढ़ा था, एम.बी.ए.। आपको उस वक़्त �गा था फ़िक अगर आपके �ड़के ने एम.बी.ए. नहीं फ़िकया तो आपकी नाक कट जाएगी।''''हमें तुम्हारी फ़िडग्री पर गव@ है बेटा पर शादी के साथ कुछ ता�मे� भी बैठाने पड़ते हैं।''''ता�मे� बड़ा गड़बड़ शlद है। इसके लि�ए न मैं स्टै�ा की बाधा बनँूगा न वह मेरी। हमने पह�े ही यह बात सा� कर �ी है।''''पर अके�ापन. . .''''यह अके�ापन तो आप सब के बीच रह कर भी मुझे हो रहा है। आप मेरे नज़रिरए से चीज़ों को देखना नहीं चाहते। आपने मुझे ऐसे समुद्र में Pें क दिदया है जहाँ मुझे तैरना ही तैरना है।''''तुम पढ़ लि�ख लि�ए, यह ग�ती भी हमारी थी क्यों?''''पढ़ तो मैं यहाँ भी रहा था पर आप सपने पूरे करना चाहते थे। आपके सपने मेरा संघर्ष@ बन गए। यह मत सोलिचए फ़िक संघर्ष@ अके�े आता है। वह सबक भी लिसखाता च�ता है।''राकेश फ़िनरुvर हो गए। उन्हें �गा जिजतना अपरिरपक्व वह बेटे को मान रहे हैं, उतना वह नहीं है।स्टै�ा का रे� आरक्षण दो दिदन पह�े का था। उसके जाने के बाद पवन का सामान समेटना शुरू हुआ। उसने छोटे से 'ओफ़िडसी' सूटकेस में करीने से अपने कपडे़ जमा लि�ए। बैग में फ़िनहायत ज़रूरी चीज़ों के साथ �ैपटॉप, ष्टिमनर� वॉटर और मोबाइ� �ोन रख लि�या।जाने के दिदन उसने माँ के नाम बीस हज़ार का चेक काटा, ''माँ हमारे आने से आपका बहुत खच@ हुआ है, यह मैं आपको पह�ी फ़िकस्त दे रहा हँू। वेतन ष्टिम�ने पर और दँूगा।''रेखा का ग�ा रँूध गया, ''बेटे हमें तुमसे फ़िकश्तें नहीं चाफ़िहए। जो कुछ हमारा है सब तुम्हारा और छोटू का है। यह मकान तुम दोनों आधा-आधा बाँट �ेना। और जो भी है उसमें बराबर का फ़िहस्सा है।''''अब बताओ, फ़िहसाब की बात तुम कर रही हो या मैं? इतने सा� की नौकरी में मैंने कभी एक पैसा आप दोनों पर खच@ नहीं फ़िकया।''रेखा ने चेक वापस करते हुए कहा, ''रख �ो नई जगह पर काम आएगा। दो शहरों में गृहस्थी जमाओगे, दोहरा खच@ भी होगा।''''सोच �ो माँ, �ास्ट ऑPर। फ़िPर न कहना पवन ने घर पर उधार चढ़ा दिदया।''बच्चों के जाने के बाद घर एकबारगी भायं भायं करने �गा। सघन ने सॉफ्टवेयर की प्रवेश परीक्षा उvीण@ कर दिदल्�ी में डेढ़ सा� का कोस@ ज्वायन कर लि�या। रेखा और राकेश एक बार फ़िPर अके�े रह गए।अके�ेपन के साथ सबसे जान�ेवा होते हैं उदासी और पराजय बोध! वे दोनों सुबह की सैर पर जाते। इंजीफ़िनयरिर ग का�ेज के अहाते की सा� हवा कुछ देर को लिचv प्रPुब्लिल्�त करती फ़िक का�ोनी का कोई न कोई परिरलिचत दिदख जाता। बात स्वास्थ्य और मौसम से होती हुई अफ़िनवाय@तः बच्चों पर आ जाती। का�ेज की रेचि� ग पर गदिठया से गदिठयाये पैरों को तफ़िनक आराम देते लिसन्हा साहब बताते उनका अष्टिमत मुंबई में है, वहीं उसने फ़िक़स्तों पर फ्�ैट ख़रीद लि�या है। सोनी साहब बताते उनका बेटा एच.सी.ए�. की ओर से न्यूयाक@ च�ा गया है। मजीदिठया का छोटा भाई कैनेडा में हाड@वेयर का कोस@ करने गया था, वहीं बस गया है।ये सब कामयाब संतानों के माँ बाप थे। हर एक के चेहरे पर भय और आशंका के साये थे। बच्चों की सP�ता इनके जीवन में सन्नाटा बुन रही थी।''इतनी दूर च�ा गया है बेटा, पता नहीं हमारी फ़िक्रया करने भी पहँुचेगा या नहीं?'' सोनी साहब कह कर चुप हो जाते।रेखा और राकेश इन सब से हट कर घूमने का अभ्यास करते। उन्हें �गता जो बेचैनी वे रात भर जीते हैं उसे सुबह-सुबह शlदों का जामा पहना डा�ना इतना ज़रूरी तो नहीं। यों दिदन भर बात में छोटू और पवन का ध्यान आता रहता। घर में पाव भर सlज़ी भी न खपती। माँ कहती, ''�ो छोटू के नाम की बची है यह। पता नहीं क्या खाया होगा उसने?''राकेश को पवन का ध्यान आ जाता, ''उसके जॉब में दौरा ही दौरा है। इतना बड़ा एरिरया उसे दे दिदया है क्या खाता होगा। वहाँ सब चाव� के वं्यजन ष्टिम�ते हैं, मेरी तरह उसे भी चाव� फ़िबल्कु� पसंद नहीं।''दोनों के कान �ोन पर �गे रहते। �ोन अब उनके लि�ए कोने में रखा एक यंत्र नहीं, संवादिदया था। पवन जब अपने शहर में होता �ोन कर �ेता। अगर चार पाँच दिदन उसका �ोन न आए तो य े�ोग उसका नंबर ष्टिम�ाते। उस समय उन्हें छोटू की याद आती। �ोन ष्टिम�ाने, उठाने, एस.टी.डी. का इ�ेक्ट्राफ़िनक ता�ा खो�ने, �गाने का काम छोटू ही फ़िकया करता था। अब वे �ोन ष्टिम�ाते पर डरते-डरते। सही नंबर दबाने पर भी उन्हें �गता नंबर ग़�त �ग गया है। कभी पवन �ोन उठाता पर ज़्यादातर उधर से यही यांफ़ित्रक आवाज़ आती 'यू हैव रीच्ड द वायस मे� बॉक्स ऑP नंबर ९८४४०१४९८८।रेखा को वायस मे� की आवाज़ बड़ी मनहूस �गती। वह अक्सर पवन से कहती, ''तुम खुद तो बाहर च�े जाते हो, इस चुडै़� को �गा जाते हो।''''क्या करँू माँ, मैं तो हफ्ता-हफ्ता बाहर रहता हँू। �ौट कर कम से कम यह तो पता च� जाता है फ़िक कौन �ोन घर पर आया।''सघन के होस्टे� में �ोन नहीं था। वह बाहर से महीने में दो बार �ोन कर �ेता। उसे हमेशा पैसों की तंगी सताती। महीने के शुरू में पैसे ष्टिम�ते ही वह कंप्यूटर की महँगी पफ़ित्रकाए ँखरीद �ेता, फ़िPर कभी नाश्ते में कटौती, कभी खाने में कंजूसी बरतता। दिदल्�ी इतना महँगा था फ़िक बीस रुपये रोज़ आने-जाने में फ़िनक� जाते जबफ़िक इसके बावजूद बस के लि�ए घंटों धूप में खड़ा होना पड़ता। एक सेमेस्टर पूरा कर जब वह घर आया माँ पापा उसे पहचान नहीं पाए। चेहरे पर हफ़िड्डयों के कोण फ़िनक� आए थे। शक� पर से पह�े वा�ा छ�काता बचपना गायब हो गया था।

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बैग और अटैची से उसके चीकट मै�े कपडे़ फ़िनका�ते हुए रेखा ने कहा, ''क्यों कभी कपडे़ धोते नहीं थे।'' उसने गद@न फ़िह�ा दी।''क्यों?''''टाइम कहाँ है माँ। रोज़ रात तीन बजे तक कंप्यूटर पर पढ़ना होता है। दिदन में क्�ास।''''बाकी �ड़के कैसे करते हैं?''''�ांड्री में धु�वाते हैं। मेरे पास पैसे नहीं होते।'' राकेश ने कहा, ''जिजतने तुम्हें भेजते हैं, उतने तो हम पवन को भी नहीं भेजते थे। एक तरह से तुम्हारी माँ का पूरा वेतन ही च�ा जाता है।''''उस ज़माने की बात पुरानी हो गई पापा। अब तो अके�ी लिचप सौ रुपये की होती है।''''क्या ज़रूरत है इतने लिचप्स खाने की?'' रेखा ने भौंहें लिसकोड़ी।सघन हँस दिदया, ''माँ पोटेटो लिचप्स नहीं, पढ़ने के लिचप की बात करो। यह तो एक मैगज़ीन है, और न जाने फ़िकतनी हैं जो मैं अPोड@ नहीं कर पाता। मेरे कोस@ की एक-एक सी.डी. की कीमत ढाई सौ रुपये होती है।''नाश्ते के बाद वह फ़िबना नहाए सो गया। उसकी मै�ी जीन्स रगड़ते हुए माँ सोचती रही, इसके कपड़ों से इसके संघर्ष@ का पता च� रहा है। जब तक वह घर पर था हमेशा सा� सुथरा रहता था। दोपहर में उसे खाने के लि�ए उठाया। बड़ी मुश्किश्क� से वह उठा, चार कौर खा कर फ़िPर सो गया। तभी उसके पुराने दोस्त योगी का �ोन आ गया। उसकी हाड@ फ़िडस्क अटक रही थी। सघन ने कहा वह उसके यहाँ जा रहा है, मरम्मत कर देगा।''तुम तो साफ्टवेयर प्रोग्रामिम ग में हो।'' राकेश ने कहा।''वहाँ मैंने हाड@वेयर का भी ईवडिन ग कोस@ �े रखा है।'' सघन ने जाते-जाते कहा।हम अपने बच्चों को फ़िकतना कम जानते हैं। उनके इरादे, उनका गंतव्य, उनका संघर्ष@ पथ सब एकाकी होता है। राकेश ने सोचा। उसकी स्मृफ़ित में वह अभी भी �ी�ा दिदखाने वा�ा छोटा-सा फ़िकशन कन्हैया था जबफ़िक वह सूचना फ़िवज्ञान के ऐसे संसार में हाथ पैर Pटकार रहा था जिजसके ओर छोर समूचे फ़िवश्व में Pै�े थे।रेखा ने कहा, ''जो मैं नहीं चाहती थी वह कर रहा है छोटू। हाड@वेयर का मत�ब है मेकैफ़िनक बन कर रह जाएगा। एक भाई मैनेजर दूसरा, मेकैफ़िनक।''राकेश ने डाँट दिदया, ''जो बात नहीं समझती, उसे बो�ा मत करो। हाड@वेयर वा�ों को टैक्नीलिशयन कहते हैं, मेकैफ़िनक नहीं। फ़िवदेश में सॉफ्टवेयर इंजीफ़िनयर से ज़्यादा हाड@वेयर इंजीफ़िनयर कमाते हैं। तुम्हें याद है जब यह छोटा-सा था, तीन सा� का, मैंने इसे एक रूसी फ़िकताब �ा कर दी थी 'मैं क्या बनँूगा?' सलिचत्र थी वह।''रेखा का मूड बद� गया, ''हाँ मैं इसे पढ़ कर सुनाती थी तो यह बहुत खुश होता था। उसमें एक जगह लि�खा था मैकेफ़िनक अपने हाथ पैर फ़िकतने भी गंदे रखें उसकी माँ कभी नहीं मारती। इसे यह बात बड़ी अच्छी �गती। वह तस्वीर थी न बच्चे के दोनों हाथ ग्रीज से लि�थडे़ हैं और माँ उसे खाना खिख�ा रही है।''''पर छोटू कमज़ोर बहुत हो गया है। क� से इसे फ़िवटाष्टिमन देना शुरू करो।''''मुझे �गता है यह खाने पीने के पैसे काट कर हाड@वेयर कोस@ की Pीस भरता होगा। शुरू का चुप्पा है। अपनी ज़रूरतें बताता तो है ही नहीं।''अभी सघन को सुबह शाम दूध दलि�या देना शुरू ही फ़िकया था फ़िक हॉट मे� पर उसे ताइवान की सॉफ्टवेयर से नौकरी का बु�ावा आ गया। Pुर@ हो गई उसकी थकान और चुप्पी। कहने �गा, ''मुझे दस दिदनों से इसका इंतज़ार था। सारे बैच ने एप्�ाय फ़िकया था पर पोस्ट लिस�@ एक थी।''माँ बाप के चेहरे Pक पड़ गए। एक �ड़का इतनी दूर मद्रास में बैठा है। दूसरा च�ा जाएगा एक ऐसे परदेस जिजसके बारे में वे स्पेचि� ग से ज़्यादा कुछ नहीं जानते।राकेश कहना चाहते थे सघन से, ''कोई ज़रूरत नहीं इतनी दूर जाने की, तुम्हारे के्षत्र में यहाँ भी नौकरी है।''पर सघन सहमफ़ित भेज चुका था। पासपोट@ उसने फ़िपछ�े सा� ही बनवा लि�या था। वह कह रहा था, ''पापा बस हवाई दिटकट और पाँच हज़ार का इंतज़ाम आप कर दो, बाकी मैं मैनेज कर �ूँगा। आपका खच@ मैं पह�ी पे में से चुका दँूगा।''रेखा को �गा सघन में से पवन का चेहरा झाँक रहा है। वही महाजनी प्रस्ताव और प्रसंग। उसे यह भी �गा फ़िक जवान बेटे ने एक ष्टिमनट को नहीं सोचा फ़िक माता फ़िपता यहाँ फ़िकसके सहारे ज़िज़ दा रहेंगे।अफ़िनवासी और प्रवासी केव� पय@टक और पंछी नहीं होते, बच्चे भी होते हैं। वे दौड़-दौड़ कर दज़j के यहाँ से अपने नये लिस�े कपडे़ �ाते हैं, सूटकेस में अपना सामान और काग़ज़ात जमाते हैं, मनी बेल्ट में अपना पासपोट@, वीजा और चंद डॉ�र रख, रवाना हो जाते हैं अनजान देश प्रदेश के स�र पर, माता फ़िपता को लिस�@ स्टेशन पर हाथ फ़िह�ाते छोड़ कर।प्�ेटPॉम@ पर �ड़खड़ाती रेखा को अपने थरथराते हाथ से संभा�ते हुए राकेश ने कहा, ''ठीक ही फ़िकया छोटू ने। जिजतनी तरक्की यहाँ दस सा� में करता उतनी वह वहाँ दस महीनों में कर �ेगा। जीफ़िनयस तो है ही।''कॉ�ोनी के गुप्ता दंपत्तिv भी उनके साथ स्टेशन आए हुए थे। ष्टिमसेज गुप्ता ने कहा, ''वायर� Pीवर की तरह फ़िवदेश वायरस भी बहुत Pै�ा हुआ है आजक�।''खुद कुछ भी कह �ो, ''हमारा छोटू ऐसा नहीं है। उसके फ़िवर्षय में यहाँ कुछ ज़्यादा है ही नहीं। कह कर गया है फ़िक दिट्रक्स ऑP द टे्रड सीखते ही मैं �ौट आऊँगा। यही रह कर फ़िबजनेस करँूगा।''''अजी राम कहो।'' गुप्ता जी बो�े, ''जब वहाँ के ऐश ओ आराम में रह �ेगा तब �ौटने की सोचेगा? यह मुल्क, यह शहर, यह घर सब जे� �गेगा जे�।''''�ेट्स होप Pॉर द बेस्ट।'' राकेश ने सबको चुप फ़िकया।घर वही था, दर ओ दीवार वही थे, घऱ का सामान वही था, यहाँ तक फ़िक रूटीन भी वही था पर पवन और सघन के माता फ़िपता को मानो वनवास ष्टिम� गया। अपने ही घर में वे आकु� पंछी की तरह कमरे कमरे Pड़Pड़ाते डो�ते। पह�े दो दिदन तो उन्हें फ़िबस्तर पर �गता रहा जैसे कोई उन्हें हवा में उड़ाता हुआ �े जा रहा है। जब तक सघन का वहाँ से �ोन नहीं आ गया, उनके पैरों की थरथराहट नहीं थमी।छोटे बेटे के च�े जाने से बडे़ बेटे की अनुपब्लिस्थफ़ित भी नये लिसरे से ख�ने �गी। दिदन भर की अवष्टिध में छोटे-छोटे करिरश्मे और कारनामे, बच्चों को पुकार कर दिदखाने का मन करता, कभी पुस्तक में पढ़ा बदिढ़या-सा वाक्य, कभी अखबार में छपा कोई मौलि�क समाचार, कभी बफ़िगया में खिख�ा नया गु�ाब, इस सब को बाँटने के लि�ए वे आपस में पूरे होते हुए भी आधे थे। प्रकट राकेश सुबह उठते ही अपने छोटे से साप्ताफ़िहक पत्र के संपादन में व्यस्त हो जाते, रेखा कुकर चढ़ाने के साथ कॉफ़िपयाँ भी जाँचती रहती पर घर भायं-भायं करता रहता। सुबह आठ बजे ही जैसे दोपहर हो जाती।बच्चे घर के तंतु जा� में फ़िकस कदर समाए होते हैं यह उनकी गै़र मौजूदगी में ही पता च�ता है। दफ्तर जाने के लि�ए राकेश स्कूटर फ़िनका�ते। सुबह के समय स्कूटर को फ़िकक �गाना उन्हें नागवार �गता। वे पह�ी कोलिशश करते फ़िक उन्हें �गता सघन का पैर स्कूटर की फ़िकक पर रखा है। ''�ाओ पापा मैं स्टाट@ कर दँू।'' चफ़िकत दृष्टिC दायें बायें उठती फ़िPर अफ़िड़य� स्कूटर पर बेमन से ठहर जाती।

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रसोई में ताक बहुत ऊँचे �गे थे। रेखा का कद लिस�@ पाँच Pुट था। ऊपर के ताकों पर कई ऐसे सामान रखे थे जिजनकी ज़रूरत रोज़ न पड़ती। पर पड़ती तो सही। रेखा एक पैर पटे्ट पर उचक कर मत@बान उतारने की कोलिशश करती पर कामयाब न हो पाती। स्टू� पर चढ़ना फे्रक्चर को खु�ा बु�ावा देना था। अंततः जब वह लिचमटे या क�छी से कोई चीज़ उतारने को होती उसे �गता कहीं से आ कर दो परिरलिचत हाथ मत@बान उतार देंगे। रेखा बाव�ी बन इधर उधर कमरों में बच्चे को टोहती पर कमरों की वीरानी में कोई तबदी�ी न आती। कॉ�ोनी में कमोबेश सभी की यही हा�त थी। इस बुड्ढा बुड्ढी कॉ�ोनी में लिस�@ गमj की �ंबी छुदिट्टयों में कुछ रौनक दिदखाई देती जब परिरवारों के नाती पोते अंदर बाहर दौड़ते खे�ते दिदखाई देते। वरना यहाँ चह�-पह� के नाम पर लिस�@ सlज़ी वा�ों के या रद्दी खरीदने वा�े कबाफ़िड़यों के ठे�े घूमते नज़र आते। बच्चों को सुरत्तिक्षत भफ़िवष्य के लि�ए तैयार कर हर घर परिरवार के माँ बाप खुद एकदम असुरत्तिक्षत जीवन जी रहे थे।शायद असुरक्षा के एहसास से �ड़ने के लि�ए ही यहाँ की जनकल्याण सष्टिमफ़ित प्रफ़ित मंग�वार फ़िकसी एक घर में संुदर कांड का पाठ आयोजिजत करती। उस दिदन वहाँ जैसे बुढ़वा मंग� हो जाता। पाठ के नाम पर संुदर कांड का कैसेट म्यूजिज़क लिसस्टम में �गा दिदया जाता। तब घर के साज ओ सामान पर चचा@ए ँहोतीं।डाइडिन ग टेफ़िब� पर माइक्रोवेव ओवन देखकर ष्टिमसेज गुप्त ष्टिमसेज मजीदिठया से पूछतीं, ''यह कब लि�या?''ष्टिमसेज मजीदिठया कहतीं, ''इस बार देवर आया था, वही दिद�ा गया है।''''आप क्या पकाती हैं इसमें?''''कुछ नहीं, बस दलि�या खिखचड़ी गम@ कर �ेते हैं। झट से गम@ हो जाता है।''''अरे यह इसका उपयोग नहीं है, कुछ केक वेक बना कर खिख�ाइए।''''बच्चे पास हों तो केक बनाने का मज़ा है।''पता च�ा फ़िकसी के घऱ में वैक्यूम क्�ीनर पड़ा धू� खा रहा है, फ़िकसी के यहाँ के यहाँ Pूड प्रोसेसर। �ंबे गृहस्थ जीवन में अपनी सारी उमंग खच@ कर चुकी ये सयानी मफ़िह�ाए ँएकरसता का च�ता फ़िPरता कू�ता कराहता दस्तावेज़ थीं। रेखा को इन मंग�वारीय बैठकों से दहशत होती। उसे �गता आने वा�े वर्ष¬ में उसे इन जैसा हो जाना है।उसका मन बार-बार बच्चों के बचपन और �ड़कपन की यादों में उ�झ जाता। घूम फ़िPर कर वही दिदन याद आते जब पुनू्न छोटू धोती से लि�पट-लि�पट जाते थे। कई बार तो इन्हें स्कू� भी �े कर जाना पड़ता क्योंफ़िक वे पल्�ू छोड़ते ही नहीं। फ़िकसी सभी सष्टिमफ़ित में उसे आमंफ़ित्रत फ़िकया जाता तब भी एक न एक बच्चा उसके साथ ज़रूर लिचपक जाता। वह मज़ाक करती, ''महारानी �क्ष्मीबाई की पीठ पर बच्चा दिदखाया जाता है, मेरा उँग�ी से बँधा हुआ।''क्या दिदन थे वे! तब इनकी दुफ़िनया की धुरी माँ थी, उसी में था इनका ब्रह्मांड और ब्रह्म। माँ की गोद इनका झू�ा, पा�ना और प�ंग। माँ की दृष्टिC इनका सृष्टिC फ़िवस्तार। पवन की प्रारंत्तिभक पढ़ाई में रेखा और राकेश दोनों ही बाव�े रहे थे। वे अपने स्कूटर पर उसकी स्कू� बस के पीछे-पीछे च�ते जाते यह देखने फ़िक बस कौन से रास्ते जाती है। स्कू� की झाफ़िड़यों में छुप कर वे पवन को देखते फ़िक कहीं वह रो तो नहीं रहा। वह शाहज़ादे की तरह रोज़ नया �रमान सुनाता। वे दौड़-दौड़ कर उसकी इच्छा पूरी करते। परीक्षा के दिदनों में वे उसकी नींद सोते जागते।रेखा के क�ेजे में हूक-सी उठती, फ़िकतनी जल्दी गुज़र गए वे दिदन। अब तो दिदन महीनों में बद� जाते हैं और महीने सा� में, वह अपने बच्चों को भर नज़र देख भी नहीं पाती। वैसे उसी ने तो उन्हें सारे सबक याद कराए थे। इसी प्रफ़िक्रया में बच्चों के अंदर तेज़ी, तेजश्किस्वता और त्वरा फ़िवकलिसत हुई, प्रफ़ितभा, पराक्रम और महत्वाकांक्षा के गुण आए। वही तो लिसखाती थी उन्हें 'जीवन में हमेशा आगे ही आगे बढ़ो, कभी पीछे मुड़ कर मत देखो।'' बच्चों को प्रेरिरत करने के लि�ए वह एक घटना बताती थी। पवन और सघन को यह फ़िकस्सा सुनने में बहुत मज़ा आता था। सघन उसकी धोती में लि�पट कर तुत�ाता, ''मम्मा जब बैया जंत� मंत� प� चर गया तब का हुआ?'' रेखा के सामने वह क्षण साकार हो उठता। पूरे आवेग से बताने �गती, ''पता है पुनू्न एक बार हम दिदल्�ी गए। तू ढ़ाई सा� का था। अच्छा भ�ा मेरी उँग�ी पकडे़ जंतर मंतर देख रहा था। इधर राकेश मुझे धूप घड़ी दिदखाने �गे उधर त ूकब हाथ छुड़ा कर भागा, पता ही नहीं च�ा। जैसे ही मैं देखूँ पवन कहाँ है। हे भगवान त ूतो जंतर-मंतर की ऊँची सीढ़ी चढ़ कर सबसे ऊपर खड़ा था। मेरी हा�त ऐसी हो गई फ़िक काटो तो खून नहीं। मैंने इनकी तर� देखा। इन्होंने एक बार गुस्से से मुझे घूरा, ''ध्यान नहीं रखती?''घबरा ये भी रहे थे पर तुझे पता नहीं च�ने दिदया। सीढ़ी के नीचे खडे़ हो कर बो�े, ''बेटा फ़िबना नीचे देखे, सीधे उतर आओ, शाबाश, कहीं देखना नहीं।''फ़िPर मुझसे बो�े, ''तुम अपनी हाय तोबा रोक कर रखो, नहीं तो बच्चा फ़िगर जाएगा। तू खम्म-खम्म सारी सीदिढ़याँ उतर आया। हम दोनों ने उस दिदन प्रसाद चढ़ाया। भगवान ने ही रक्षा की तेरी।''बार-बार सुनकर बच्चों को ये फ़िकस्से ऐसे याद हो गए थे जैसे कहाफ़िनयाँ।पवन कहता, ''माँ जब तुम बीमार पड़ी थीं, छोटू स्कू� से सीधे अस्पता� आ गया था।''''सच्ची। ऐसा इसने खतरा मो� लि�या। के.जी. दो में पढ़ता था। सेंट एथंनी में तीन बजे छूट्टी हुई। आया जब तक उसे ढँूढे़, बस में फ़िबठाए, ये च� दिदया बाहर।''पवन कहता, ''वैसे माँ अस्पता� स्कू� से दूर नहीं है।''''अरे क्या? चौराहा देखा है वह बा�सन वा�ा। छह रास्ते Pूटते हैं वहाँ। फ़िकतनी ट्रकें च�ती हैं। अचे्छ भ�े �ोग चकरष्टिघन्नी हो जाते हैं सड़क पार करने में और यह एफ़िड़याँ अचकाता जाने कैसे सारा टै्रफ़ि�क पार कर गया फ़िक मम्मा के पास जाना है। सघन कहता, ''हमें फ़िपछ�े दिदन पापा ने कहा था फ़िक तुम्हारी मम्मी मरने वा�ी है। हम इसलि�ए गए थे।''''तुमने यह नहीं सोचा फ़िक तुम कुच� जाओगे।''''नहीं।'' सघन लिसर फ़िह�ाता, ''हमें तो मम्मा चाफ़िहए थी।'' अब उसके फ़िबना फ़िकतनी दूर रह रहा है सघन। क्या अब याद नहीं आती होगी? फ़िकतना काबू रखना पड़ता होगा अपने पर।भाग्यवान होते हैं व जिजनके बेटे बचपन से होस्ट� में प�ते हैं, दूर रह कर पढ़ाई करते हैं और एक दिदन बाहर-बाहर ही बडे़ होते जाते हैं। उनकी माँओं के पास यादों के नाम पर लिस�@ खत और ख़बर होती है, �ोन पर एक आवाज़ और एक्समस के ग्रीटिट ग काड@। पर रेखा ने तो रच-रच कर पा�े हैं अपने बेटे। इनके गू मूत में गी�ी हुई है, इनके आँसू अपनी चुम्मायों से सुखाये हैं, इनकी हँसी अपने अंतस में उतारी है।बार-बार सुनकर बच्चों को ये फ़िकस्से ऐसे याद हो गए थे जैसे कहाफ़िनयाँ।पवन कहता, ''माँ जब तुम बीमार पड़ी थीं, छोटू स्कू� से सीधे अस्पता� आ गया था।''''सच्ची। ऐसा इसने खतरा मो� लि�या। के.जी. दो में पढ़ता था। सेंट एथंनी में तीन बजे छूट्टी हुई। आया जब तक उसे ढँूढे़, बस में फ़िबठाए, ये च� दिदया बाहर।''पवन कहता, ''वैसे माँ अस्पता� स्कू� से दूर नहीं है।''''अरे क्या? चौराहा देखा है वह बा�सन वा�ा। छह रास्ते Pूटते हैं वहाँ। फ़िकतनी ट्रकें च�ती हैं। अचे्छ भ�े �ोग चकरष्टिघन्नी हो जाते हैं सड़क पार करने में और यह एफ़िड़याँ अचकाता जाने कैसे सारा टै्रफ़ि�क पार कर गया फ़िक मम्मा के पास जाना है। सघन कहता, ''हमें फ़िपछ�े दिदन पापा ने कहा था फ़िक तुम्हारी

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मम्मी मरने वा�ी है। हम इसलि�ए गए थे।''''तुमने यह नहीं सोचा फ़िक तुम कुच� जाओगे।''''नहीं।'' सघन लिसर फ़िह�ाता, ''हमें तो मम्मा चाफ़िहए थी।'' अब उसके फ़िबना फ़िकतनी दूर रह रहा है सघन। क्या अब याद नहीं आती होगी? फ़िकतना काबू रखना पड़ता होगा अपने पर।भाग्यवान होते हैं व जिजनके बेटे बचपन से होस्ट� में प�ते हैं, दूर रह कर पढ़ाई करते हैं और एक दिदन बाहर-बाहर ही बडे़ होते जाते हैं। उनकी माँओं के पास यादों के नाम पर लिस�@ खत और ख़बर होती है, �ोन पर एक आवाज़ और एक्समस के ग्रीटिट ग काड@। पर रेखा ने तो रच-रच कर पा�े हैं अपने बेटे। इनके गू मूत में गी�ी हुई है, इनके आँसू अपनी चुम्मायों से सुखाये हैं, इनकी हँसी अपने अंतस में उतारी है।राकेश कहते हैं, ''बच्चे अब हमसे ज़्यादा जीवन को समझते हैं। इन्हैं कभी पीछे मत खींचना।''रात को पवन का �ोन आया। माता फ़िपता दोनों के चेहरे खिख� गए।''तफ़िबयत कैसी है?''''एकदम ठीक।'' दोनों ने कहा। अपनी खाँसी, ए�जj और दद@ बता कर उसे परेशान थोडे़ करना है।''छोटू की कोई ख़बर?''''फ़िब�कु� मजे़ में है। आजक� चीनी बो�ना सीख रहा है।''''वी.सी.डी. पर फ़िपक्चर देख लि�या करो माँ।''''हाँ देखती हँू।'' सा� झूठ बो�ा रेखा ने। उसे न्य ूसी.डी. में फ़िडस्क �गाना कभी नहीं आएगा।फ़िपछ�ी बार पवन माइक्रोवेव ओवन दिद�ा गया था। �ोन पर पूछा, ''माइक्रोवेव से काम �ेती हो?''''मुझे अच्छा नहीं �गता। सीटी मुझे सुनती नहीं, मरी हर चीज़ ज्यादा पक जाए। फ़िPर सlज़ी एकदम स�ेद �गे जैसे कच्ची है।''''अच्छा यह मैं �े �ूँगा, आपको ब्राउडिन ग वा�ा दिद�ा दँूगा।''''स्टै�ा कहाँ है?'' पता च�ा उसके माँ बाप लिशकागो से वापस आ गए हैं। पवन ने चहकते हुए बताया, ''अब छोटी ममी फ़िबजनेस सँभा�ेगी। स्टै�ा पास फ़िवजिज़ट दे सकेगी।''फ़िवजिज़ट शlद खटका पर वे उ�झे नहीं। फ़िPर भी �ोन रखने के पह�े रेखा के मुँह से फ़िनक�ा, ''सभी हमसे ष्टिम�ने नहीं आए।''''आएगँे माँ, पह�े तो जैट�ैग (थकान) रहा, अब फ़िबजनेस में ष्टिघरे हैं। वैसे आपकी बहू आप �ोगों की मु�ाक़ात प्�ान कर रही है। वह चाहती है फ़िकसी हा�ी डे रिरसोट@ (सैर सपाटे की जगह) में आप चारों इकटे्ठ दो तीन दिदन रहो। वे �ोग भी आराम कर �ेंगे और आपके लि�ए भी चेंज हो जाएगा।''''इतने तामझाम की क्या ज़रूरत है? उन्हें यहाँ आना चाफ़िहए।''''ये तुम स्टै�ा से �ोन पर फ़िडसकस कर �ेना। बहुत �ंबी बात हो गई, बाय।''कुछ देर बाद ही स्टै�ा का �ोन आया। ''मॉम आप कंप्यूटर ऑन रखा करो। मैंने फ़िकतनी बार आपके ई-मे� पर मैसेज दिदया। ममी ने भी आप दोनों को है�ो बो�ा था पर आपका लिसस्टम ऑP था।''''तुम्हें पता ही है, जब से छोटू गया हमने कंप्यूटर पर खो� उढ़ा कर रख दिदया है।''''ओ नो माम। अगर आपके काम नहीं आ रहा तो यहाँ त्तिभजवा दीजिजए। मैं मँगवा �ूँगी। इतनी यूजPू� चीज़ आप �ोग वेस्ट कर रहे हैं।''रेखा कहना चाहती थी फ़िक उसके माता फ़िपता उनसे ष्टिम�ने नहीं आए। पर उसे �गा लिशकायत उसे छोटा बनाएगी। वह ज़lत कर गई। �ेफ़िकन जब स्टै�ा ने उसे अग�े महीने वाटर पाक@ के लि�ए बु�ावा दिदया उसने सा� इनकार कर दिदया, ''मेरी छुदिट्टयाँ खतम हैं। मैं नहीं आ सकती। ये चाहें तो च�े जाए।ँ''इस आयोजन में राकेश की भी रुलिच नहीं थी।कई दिदनों के बाद रेखा और राकेश इंजीफ़िनयरींग कॉ�ेज परिरसर में घूमने फ़िनक�े। एक-एक कर परिरलिचत चेहरे दिदखते गए। अच्छा �गता रहा। ष्टिमन्हाज साहब ने कहा, ''घूमने में नागा नहीं करना चाफ़िहए। रोज़ घूमना चाफ़िहए चाहे पाँच ष्टिमनट घूमो।'' उन्हीं से समाचार ष्टिम�ा। कॉ�ोनी के सोनी साहब को दिद� का दौरा पड़ा था, हॉश्किस्पट� में भरती हैं। रेखा और राकेश फ़िPक्रमंद हो गए। ष्टिमसेज सोनी चौंसठ सा� की गदिठयाग्रस्त मफ़िह�ा है। अस्पता� की भाग दौड़ कैसे सँभा�ेगी?''देखो जी क� तो मैंने भूर्षण को बैठा दिदया था वहाँ पर। आज तो उसने भी काम पर जाना था।''रेखा और राकेश ने तय फ़िकया वे शाम को सोनी साहब को देख कर आएगँे।पर सोनी के दिद� ने इतनी मोह�त न दी। वह थक कर पह�े ही धड़कना बंद कर बैठा। शाम तक कॉ�ोनी में अस्पता� की शव वाफ़िहका सोनी का पार्चिथ व शरीर और उनकी बेहा� पत्नी को उतार कर च�ी गई।सोनी की �ड़की को सूचना दी गई। वह देहरादून lयाही थी। पता च�ा वह अग�े दिदन रात तक पहँुच सकेगी। ष्टिमसेज सोनी से लिसद्धाथ@ को �ोन नंबर �े कर उन्हीं के �ोन से इंटरनेशन� कॉ� ष्टिम�ाई गई।ष्टिमसेज सोनी पफ़ित के शोक में एकदम हतबुजिद्ध हो रही थीं। �ोन में वे लिस�@ रोती और क�पती रहीं, ''तेरे डैडी, तेरे डैडी. . .'' तब �ोन ष्टिमन्हाज साहब ने सँभा�ा, ''भई लिसधारथ, बड़ा ही बुरा हुआ। अब तू जल्दी से आ कर अपना �ज़@ पूरा कर। तेरे इंतज़ार में फ्यूनर� (दाह संस्कार) रोक के रखें?''उधर से लिसद्धाथ@ ने कहा, ''अंक� आप ममी को सँभालि�ए। आज की तारीख सबसे मनहूस है। अंक� मैं जिजतनी भी जल्दी करँूगा, मुझे पहँुचने में हफ्ता �ग जाएगा।''''हफ्ते भर बॉडी कैसे पड़ी रहेगी?'' ष्टिमन्हाज साहब बो�े।''आप मुरदाघर में रखवा दीजिजए। यहाँ तो महीनों बॉडी मारच्यूरी में रखी रहती है। जब बच्चों को �ुस@त होती है फ्यूनर� कर देते हैं।''''वहाँ की बात और है। हमारे मु�ुक में एयरकंडीशंड मुरदाघर कहाँ हैं। ओय पुvर तेरा बाप उप्पर च�ा गया तू इन्नी दूरों बैठा बहाने बना रहा है।''''ज़रा मम्मी को �ोन दीजिजए।''कॉ�ोनी के सभी घरों के �ोग इंतज़ाम में जुट गए। जिजसको जो याद आता गया, वही काम करता गया। सवेरे तक Pू�, गु�ा�, शा� से अथj ऐसी सजी फ़िक सब अपनी मेहनत पर खुद दंग रह गए। पर इस दारुण काय@ के दौरान कई �ोग बहुत थक गए। ष्टिमन्हाज साहब के दिद� की धड़कन बढ़ गई। उनके ल़ड़के ने कहा, ''डैडी, आप रहने दो, मैं घाट च�ा जाता हँू।''भूर्षण ने ही मुखाखिग्न दी।रेखा, ष्टिमसेज गुप्ता, ष्टिमसेज यादव, ष्टिमसेज लिसन्हा और अन्य स्त्रिस्त्रयाँ ष्टिमसेज सोनी के पास बैठी रहीं। ष्टिमसेज सोनी अब कुछ संयत थीं, ''आप सब ने दुख की घड़ी में साथ दिदया।''''यह तो हमारा �ज़@ था।'' कुछ आवाज़ें आईं।रेखा के मुँह से फ़िनक� गया, ''ऐसा क्यों होता है फ़िक कुछ �ोग �ज़@ पहचानते हैं, कुछ नहीं। अरे सुख में नहीं पर दुख में तो साथ दो।''

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ष्टिमसेज सोनी ने कहा, ''अपने बच्चे के बारे में कुछ भी कहना बुरा �गता है पर लिसद्ध ूने कहा मैं फ़िकसी को बेटा बनाकर सारे काम करवा �ूँ। ऐसा भी कभी होता है।''''और रेडीमेड बेटे ष्टिम� जाए,ँ यह भी कहाँ मुमफ़िकन है। बाज़ार में सब चीज़ मो� जाती है पर बच्चे नहीं ष्टिम�ते।''''ऐसा ही पता होता है फ़िक पच्चीस बरस पह�े परिरवार फ़िनयोजन क्यों करते। होने देते और छः बच्चे। एक न एक तो पास रहता।''''वैसे इतनी दूर से जल्दी से आना हो भी नहीं सकता था।'' ष्टिमसेज मजीदिठया ने कहा, ''हमारी सास मरी तो हमारे देवर कहाँ आ पाए।''''पर आपके पफ़ित तो थे ना? उन्होंने अपना �ज़@ फ़िनभाया।''इस अकश्किस्मक घटना ने सबके लि�ए सबक का काम फ़िकया। सभी ने अपने वसीयतनामे सँभा�े और बैंक खातों के lयौरे। क्या पता कब फ़िकसका बु�ावा आ जाय। आ�मारी में दो चार हज़ार रुपए रखना ज़रूरी समझा गया।कॉ�ोनी के �ुरसत पसंद बुजुग¬ की फ़िवशरे्षता थी फ़िक वे हर काम ष्टिमशन की तरह हाथ में �ेते। जैसे कभी उन्होंने अपने दफ्तरों में �ाइ�ें फ़िनपटायी होंगी वैसे वे एक एक कर अपनी जिज़म्मेदारिरयाँ फ़िनपटाने में �ग गए। लिसन्हा साहब ने कहा, ''भई मैंने तो एकादशी को गऊदान भी जीते जी कर लि�या। पता नहीं अष्टिमत बंबई से आ कर यह सब करे या नहीं।''गुप्ता जी बो�े, ''ऐसे स्वग@ में सीट रिरज़व@ नहीं होती। बेटे का हाथ �गना चाफ़िहए।''श्रीवास्तव जी के कोई �ड़का नहीं था, इक�ौती �ड़की ही थी। उन्होंने कहा, ''फ़िकसी के बेटा न हो तो?''''तब उसे ऐसी तड़Pड़ नहीं होती जो सोनी साहब की ष्टिमसेज को हुई।''रेखा यह सब देख सुन कर दहशत से भर गई। एक तो अभी इतनी उम्रदराज़ वह नहीं हुई थी फ़िक अपना एक पैर श्मशान में देखें। दूसरे उसे �गता ये सब �ोग अपने बच्चों को ख�नायक बना रहे हैं। क्या बूढे़ होने पर भावना समझने की सामर्थ्यय@ जाती रहती है।कॉ�ोनी के हर कठोर फ़िनण@य पर उसे �गता मैं ऐसी नहीं हँू, मैं अपने बच्चों के बारे में ऐसी कू्ररता से नहीं सोचती। मेरे बच्चे ऐसे नहीं हैं।रात की आखिखरी समाचार बु�ेदिटन सुन कर वे अभी �ेटे ही थे फ़िक �ोन की �ंबी घंटी बजी। घंटी के साथ-साथ दिद� का तार भी बजा, ''ज़रूर छोटू का �ोन होगा, पंद्रह दिदन से नहीं आया।'' �ोन पर बड़कू पवन बो� रहा था, ''है�ो माँ कैसी हो? आपने �ोन नहीं फ़िकया?''''फ़िकया था पर आंसरिर ग मशीन के बो�ने से पह�े काट दिदया। तुम घर में नहीं दिटकते।''''अरे माँ मैं तो यहाँ था ही नहीं। ढाका च�ा गया था, वहाँ से मुंबई उतरा तो सोचा स्टै�ा को भी देखता च�ूँ। वह क्या है उसकी शक� भी भू�ती जा रही थी।''''तुमने जाने की खबर नहीं दी।''''आने की तो दे रहा हँू। मेरा काम ही ऐसा है। अटैची हर वक़्त तैयार रखनी पड़ती है। और सुनो तुम्हारे लि�ए ढाकाई साफ़िड़याँ �ाया हँू।''फ़िनहा� हो गई रेखा। इतनी दूर जा कर उसे माँ की याद बनी रही। तुरंत बहू का ध्यान आया।''स्टै�ा के लि�ए भी �े आनी थी।''''�ाया था माँ, उसे और छोटी ममी को पसंद ही नहीं आईं। स्टै�ा को वहीं से जींस दिद�ा दी। च�ो तुम्हारे लि�ए तीन हो गईं। तीन सा� की छुट्टी।''''मैंने तो तुमसे माँगी भी नहीं थीं।'' रेखा का स्वर कदिठन हो आया।एक अचे्छ मैनेजर की तरह पवन फ़िपता से मुखाफ़ितब हुआ, ''पापा इतवार से मैं स्वामी जी के ध्यान लिशफ़िवर में चार दिदन के लि�ए जा रहा हँू। चिस गापुर से मेरे बॉस अपनी टीम के साथ आ रहे हैं। वे ध्यान लिशफ़िवर देखना चाहते हैं। आप भी मनपक्कम आ जाइए। आपको बहुत शांफ़ित ष्टिम�ेगी। अपने अखबार का एक फ़िवशरे्षांक प्�ान कर �ीजिजए स्वामी जी पर। फ़िवज्ञापन खूब ष्टिम�ेंगे। यहाँ उनकी बहुत बड़ी लिशष्य मंड�ी हैं।''राकेश हँू हाँ करते रहे। उनके लि�ए जगह की दूरी, भार्षा का अपरिरचय, छुट्टी की फ़िकल्�त, कई रोडे़ थे राह में। वे इसी में मगन थे फ़िक पुनू्न उन्हें बु�ा रहा है। ''छोटू की कोई ख़बर?''''हाँ पापा उसका ताइपे से खत आया था। जॉब उसका ठीक च� रहा है पर उसकी चा�-ढा� ठीक नहीं �गी। वह वहाँ की �ोक� पालि�दिटक्स में फ़िहस्सा �ेने �गा है। यह चीज़ घातक हो सकती है।''राकेश घबरा गए, ''तुम्हें उसे समझाना चाफ़िहए।''''मैंने �ोन फ़िकया था, वह तो नेता की तरह बो� रहा था। मैंने कहा, नौकरी को नौकरी की तरह करो, उसमें उसू�, लिसद्धांत ठोकने की क्या ज़रूरत है।''''उसने क्या कहा?''''कह रहा था भैया यह मेरे अश्किस्तत्व का सवा� है।''रेखा को संकट का आभास हुआ। उसने �ोन राकेश से �े लि�या, ''बेटे उसको कहो �ौरन वापस आ जाए। उसे चीन ताइवान के पचडे़ से क्या मत�ब।''''माँ मैं समझा ही सकता हँू। वह जो करता है उसकी जिज़म्मेदारी है। कई �ोग ठोकर खा कर ही सँभ�ते हैं।''''पुनू्न तेरा इक�ौता भाई है सघन, तू पल्�ा झाड़ रहा है।''''माँ तुम �ोन करो, लिचठ्ठी लि�खो। अफ़िड़य� �ोगों के लि�ए मेरी बरदाश्त का�ी कम हो गई है। मेरी कोई लिशकायत ष्टिम�े तो कहना।''दहशत से दह� गई रेखा। तुरंत छोटू को �ोन ष्टिम�ाया। वह घर पर नहीं था। उसे ढँूढ़ने में दो ढाई घंटे �ग गए। इस बीच माता-फ़िपता का बुरा हा� हो गया। राकेश बार-बार बाथरूम जाते। रेखा साड़ी के पल्�ू में अपनी खाँसी दबाने में �गी रही।अंततः छोटू से बात हुई उसने समीकरण समझाया।''ऐसा है पापा अगर मैं �ोक� �ोगों के समथ@न में नहीं बो�ूँगा तो ये मुझे नC कर देंगे।''''तो तुम यहाँ च�े आओ। इन्Pोटेक (सूचना तकनीफ़िक) में यहाँ भी अच्छी से अच्छी नौकरिरयाँ हैं।''''यहाँ मैं जम गया हँू।''''परदेस में आदमी कभी नहीं जम सकता। तंबू का कोई न कोई खूँटा उखड़ा ही रहता है।''''डिह दुस्तान अगर �ौटा तो अपना काम करँूगा।''''यह तो और भी अच्छा है।''''पर पापा उसके लि�ए कम से कम तीस चा�ीस �ाख रुपए की ज़रूरत होगी। मैं आपको लि�खने ही वा�ा था। आप फ़िकतना इंतज़ाम कर सकते हैं, वाकी जब मैं जमा कर �ूँ तब आऊँ।''राकेश एकदम गड़बड़ा गए, ''तुम्हें पता है घर का हा�। जिजतना कमाते हैं उतना खच@ कर देते हैं। सारा पोंछ-पाँछ कर फ़िनका�ें तो भी एक डेढ़ से ज़्यादा नहीं होगा।''''इसी फ़िबना पर मुझे वापस बु�ा रहे हैं। इतने में तो पी,सी,ओ, भी नहीं खु�ेगा।''

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''तुमने भी कुछ जोड़ा होगा इतने बरसों में।''''पर वह का�ी नहीं है। आपने इन बरसों में क्या फ़िकया? दोनों बच्चों का खच@ आपके लिसर से उठ गया, घूमने आप जाते नहीं, फ़िपक्चर आप देखते नहीं, दारू आप पीते नहीं, फ़िPर आपके पैसों का क्या हुआ?''राकेश आगे बो� नहीं पाए। बच्चा उनसे रुपये आने पाई में फ़िहसाब माँग रहा था।रेखा ने �ोन झपट कर कहा, ''तू कब आ रहा है छोटू?'' सघन ने कहा, ''माँ जब आने �ायक हो जाऊँगा तभी आऊँगा। तुम्हें थोड़ा इंतज़ार करना होगा।''