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हिदी साहिय के इतििास लेखन की परपरा का परचय जीवन पंत शिक संथान ,दिली ववववाल हिदी डी सी -1 सेमेटर-I न प- I, हिदी साहिय का इतििास अयाय: हिदी साहिय के इतििास लेखन की परपरा का परचय अयाय लेखक: िकॉलेज / विभाग : िदथ ििा, शििाजी कॉलेज, हदली वििवियालय

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

हििंदी डी सी -1

सेमेस्टर-I

प्रश्न पत्र- I, हििंदी साहित्य का इतििास

अध्याय: हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

अध्याय लेखक: िरुण

कॉलेज / विभाग : िदर्थ प्रिक्िा, शििाजी कॉलेज, हदल्ली विश्िविद्यालय

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

ववषर्य सचूी

1. रामचिंद्र िुक्ल से पिलेेः हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा 2. रामचिंद्र िुक्लेः हििंदी साहित्य का इतििास – एक पररचय

3. िजारीप्रसाद द्वििेदी

क) हििंदी साहित्य की भूशमका ख) हििंदी साहित्येः उद्भि और विकास

ग) हििंदी साहित्य का आहदकाल

4. रामविलास िमाथ

5. साहित्य के इतििासकार और उनके ग्रन्र्

6. सिंदभथ ग्रिंर् सूची

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

दििंी सादित्र्य के इततिास-लेखन की परंपरा का पररचर्य

रामचिंद्र िुक्ल से पिले : हििंदी साहित्य का इतििास लेखन

दििंी की िुरुआत से लेकर आज तक और आज की भाषा में सादित्र्य का इततिास कई लेखकों ने शलखा िै लेककन इनमे रामचंद्र िुक्ल की एक अलग िी ववशिष्टता िै। दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन से पिले इसे िब्िबद्ध करना िी एक बडी समस्र्या थी तब मित्वपूर्ण र्यि निीं था कक दििंी सादित्र्य का इततिास बड ेववश्लेषर्ात्मक और वैज्ञातनक तरीके से िमारे सामने आए बल्ल्क तब मित्वपूर्ण र्यि समझा गर्या कक दििंी सादित्र्य का इततिास कम से कम इततिास के रूप में तो िमारे सामने आए, और काफी समर्य बाि र्यि संभव िो सका कक दििंी के कववर्यों का पररचर्यात्मक िी सिी पर एक क्रम संजोने की कोशिि की गई। जो दििंी सादित्र्य का इततिास शलखने में एक बुतनर्याि की तरि काम आई।

िालााँकक दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन की िुरुआत में कववर्यों का सूची संग्रि और पररचर्य मात्र िी दिर्या गर्या लेककन र्यि अंधकार में पड ेइततिास को मिाल दिखाने से कम निीं था। इसशलरे्य दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन की परंपरा पर दृल्ष्टपात करने से पिले दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन के आरंशभक प्रर्यासों को संक्षेप में जान लेना आवश्र्यक िोगा। क्र्योंकक इन िुरुआती प्रर्यासों ने िी आने वाले इततिास लेखकों को दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन को वैज्ञातनक दृल्ष्ट से िेखने के शलरे्य आधार प्रिान ककर्या।

ककसी िेि का सादित्र्य विााँ के जन-समुिार्य के मल्स्तष्क की सववोच्च कल्पनांं और भावनांं का संिचत कोि िै। और तनल्श्चत िी रे्य कल्पनाएाँ और भावनाएाँ व्र्यल्क्तगत न िोकर सामाल्जक िोती िैं। इसमें समाज के संस्कार और उसकी िचतंाएाँ तनदित िोती िैं इसशलरे्य ककसी भी ऐसे सूची संग्रि को र्या कववर्यों के पररचर्यात्मक संग्रि को इततिास निीं किा जाना चादिए ल्जसमे इन िचतंांं और संस्कारों का अभाव िो। ल्जसका इिारा दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन के आरंशभक प्रर्यासों में शमलता िै।

गासाथ द िासी

दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन का पिला प्रर्यास इस्तवार ि ला शलतरेत्रू्यर एंिईु ऐंिसु्तानी के रूप में फ्रैं च ववद्वान गासाण ि तासी द्वारा 1839 ई. में ककर्या गर्या इसका िसूरा भाग उन्िोंने 1847 ई. में प्रकाशित करवार्या। िालााँकक इसे केवल दििंी सादित्र्य के रूप में िेखना भी ठीक निीं िै क्र्योंकक मुख्र्यतः इसमें दििंसु्तानी र्या उिूण के लेखकों के सूची संग्रि और पररचर्य िेने के शलरे्य शलखा गर्या था ल्जसमे प्रसंगविः कुछ दििंी कवव भी संकशलत कर शलए गए िैं। इसमे कववर्यों का वववरर् काल-क्रमानुसार निीं दिर्या गर्या िै और न िी काल-ववभाग ककर्या गर्या िै। इसशलरे्य र्यि उनकी बिुत बडी सीमा िै कक वे काल और प्रवलृ्त्त को छोडकर सादित्र्य का इततिास शलखने का प्रर्यास करत ेिैं पर क्र्या काल और प्रवलृ्त्त को छोडकर सादित्र्य का इततिास-लेखन संभव िै?

गासाण ि तासी के इस प्रर्यास से पिले भी इस तरि के प्रर्यास िोत ेरिे थे। भक्तमाल, चौरासी वैष्र्वन की वाताण, िो सौ बावन वैष्र्वन की वाताण के रूप में भी इस तरि के प्रर्यास िेखने में आए लेककन दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन की िुरुआत सिी मार्यनों में गासाण ि तासी के ‘इस्तवार ि ल शलतरेत्रू्यर ऐंिईु ऐंिसु्तानी’ से िी समझनी चादिए। इस प्रकार र्यदि िम भक्तमाल और वैष्र्व वाताणंं को छोड िें तो गासाण ि तासी का र्यि प्रर्यास दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन की परंपरा का आरंशभक प्रर्यास माना जाना चादिए।

शििशसिंि सेंगर

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

ठाकुर शिवशसिं सेंगर नें 1883 ई. में दििंी कववर्यों का एक वतृ्त संग्रि शिवशसिं सरोज के नाम से तैर्यार ककर्या था। शिवशसिं सरोज में तकरीबन एक िजार कववर्यों का बबवरर् शमलता िै। िालााँकक उन्िोंने भी कववर्यों का ऊपरी तौर पर पररचर्य मात्र दिर्या िै लेककन तब भी शिवशसिं सेंगर की सूचनाएाँ और वववरर् अपने पूवणवती लेखकों की अपेक्षा अिधक सिी और ववश्वसनीर्य िैं।

जॉजथ ग्रग्रयसथन

गासाण ि तासी और शिवशसिं सेंगर के पास इततिास लेखन के नाम पर भक्तमाल और वैष्र्वन वाताण आदि िी थी लेककन िग्रर्यसणन के पास गासाण ि तासी और शिवशसिं सेंगर एक आधार के रूप में उपल्स्थत थे। इसशलरे्य जॉजण िग्रर्यसणन की भूशमका उपरोक्त वतृ्तसंग्रिों को इततिास का ढॉचा िेने में अिधक समझनी चादिरे्य। सर जॉजण िग्रर्यसणन ने 1889 ई. में मॉडनण वनाणक्रू्यलर शलटरेटर ऑफ नािणन दििंोस्तान के रूप में दििंी सादित्र्य का इततिास प्रस्तुत ककर्या। इसशलरे्य कई लेखक ( डॉ. ककिोरीलाल गुप्त आदि) िग्रर्यसणन के ि मॉडनण वनाणक्रू्यलर शलटरेचर ऑफ दििंसु्तान को िी दििंी सादित्र्य का प्रथम इततिास मानत ेिैं। जॉजण िग्रर्यसणन ने न शसफण कववर्यों की प्राप्त सूची में संिोधन प्रवधणन ककर्या िै बल्ल्क सारे इततिास को कुछ ववशिष्ट कालखंडों में ववभाल्जत कर प्रत्रे्यक काल का थोडा बिुत सामान्र्य पररचर्य िेने का भी प्रर्यास ककर्या। लेककन दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन में वे स्वरं्य को रू्यरोपीर्य पूवणग्रि से मुक्त निीं रख सके िैं।

िुक्ल जी ने अपने काल ववभाजन का आधार िग्रर्यसणन के ि मॉडनण वनाणक्रू्यलर शलटरेचर ऑफ दििंसु्तान से िी शलर्या लेककन प्रत्रे्यककालखंड का नामकरर् उसकी मुख्र्य प्रवलृ्त्तर्यों के आधार पर ककर्या और इनमे उस तनल्श्चत काल की सामाल्जक, राजनीततक, और धाशमणक ल्स्थततर्यों का ध्र्यान रखा।

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जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

नागरी प्रचाररणी सभा

सन ्1900 से 1911 ई. के बीच कािी नागरी प्रचाररर्ी सभा ने आठ ल्जल्िों में अपनी खोज ररपोटण प्रकाशित की, ल्जसके पररर्ामस्वरूप सैंकडों ज्ञात-अज्ञात कववर्यों के बारे में जानकारी शमल सकी। सन ्1913 में उपरोक्त सामग्री और नागरी प्रचाररर्ी सभा द्वारा जुटाई गर्यी जानकारी का प्रर्योग कर शमश्र बंधुंं(गरे्ि बबिारी शमश्र, श्र्याम बबिारी शमश्र और िुकिेव बबिारी शमश्र) ने अपना वविालकार्य ग्रंथ शमश्रबंधु ववनोि प्रस्तुत ककर्या।

शमश्र बिंधु

शमश्र बंधुंं ने तीन भागों में दििंी सादित्र्य का इततिास शमश्रबंधु ववनोि के नाम से सन ्1913 ई. में प्रस्तुत ककर्या और उसके कई वषों बाि इसका चौथा भाग प्रकाशित करार्या। शमश्रबंधु ववनोि की र्यि वविेषता थी कक वि पषृ्ठसंख्र्या और कववर्यों की संख्र्या के दिसाब से अपने पूवणवती वतृ्त संग्रिों में सबसे वविाल था। लेककन इसकी सबसे बडी सीमा र्यि िै कक र्यि इततिास की इतनी सारी सामग्री प्रस्तुत करने के बावजूि भी इततिास की जि में निीं समा पाता, ॉॉ मात्र एक वतृ्त संग्रि िोकर रि जाता िै।क्र्योंकक इसमे केवल नाम, जन्म, तनधन-संवत ् ,रचनांं आदि का उल्लेख मात्र िै। उनका र्या उनकी पररल्स्थततर्यों का वैज्ञातनक ववश्लेषर् इसमें निीं ककर्या गर्या िै।

रामचिंद्र िुक्ल: िजार िर्षों की युगानुकूल सिंदभथसापेक्षिा का िैज्ञातनक विश्लेर्षण

दििंी सादित्र्य का सवणमान्र्य और बिुप्रिंशसत इततिास ग्रंथ आचार्यण रामचंद्र िुक्ल ने 1929 ई. में प्रस्तुत ककर्या जो नागरी प्रचाररर्ी सभा द्वारा प्रकाशित ‘दििंी िब्ि सागर’ की भूशमका स्वरूप दििंी सादित्र्य की प्रवलृ्त्तर्यों का सामान्र्य पररचर्य िेने के शलरे्य शलखा गर्या था। उन्िें इततिास की जो सामग्री अपने पूवणवती वतृ्त-संग्रि लेखकों द्वारा प्राप्त िुई थी उसे उन्िोंने एक व्र्यवल्स्थत क्रम िेकर एक जीवंत आकार प्रिान ककर्या। उन्िोंने अपने ववस्ततृ अध्र्यर्यन और वैज्ञातनक दृल्ष्टकोर् के द्वारा अपनी रुिच के कववर्यों का रु्यगानुकूल संिभण में मूल्र्यााँकन ककर्या। िुक्ल जी दििंी सादित्र्य के इततिास लेखन की परंपरा में अलंकारवािी, रसवािी और चमत्कारपूर्ण प्रििणन की प्रवलृ्त्त की अपेक्षा लोकसंग्रि की व्र्यापक कसौटी लेकर आए और उन्िोंने रु्यगीन संिभों में दििंी कववर्यों का मूल्र्यााँकन ककर्या।

काल-विभाजन

िुक्ल जी ने अपने काल ववभाजन का आधार िग्रर्यसणन के ि मॉडनण वनाणक्रू्यलर शलटरेचर ऑफ दििंसु्तान से िी शलर्या लेककन प्रत्रे्यककालखंड का नामकरर् उसकी मुख्र्य प्रवलृ्त्तर्यों के आधार पर ककर्या और इनमे उस तनल्श्चत काल की सामाल्जक, राजनीततक, और धाशमणक ल्स्थततर्यों का ध्र्यान रखा। िुक्ल जी कववर्यों के गुर्-िोष वववेचन से स्वरं्य को बचात े िुए उनका तकण संगत ववश्लेषर् इततिास लेखन की परंपरा में लगभग पिली बार प्रस्तुत करत ेिैं। ववद्र्यापतत, घनानंि, जार्यसी. तुलसीिास, सूरिास आदि कववर्यों का मूल्र्यााँकन ल्जस दृल्ष्ट से उन्िोंने ककर्या िै वि आज भी सवणमान्र्य िै।िुक्ल जी ने अपने दििंी सादित्र्य के इततिास को चार कालों में ववभाल्जत ककर्या िै -

आदिकाल – वीरगाथा काल

पूवण मध्र्यकाल – भल्क्तकाल

उत्तर मध्र्यकाल – रीततकाल

आधुतनक काल – गद्र्यकाल

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आहदकाल : िीरगार्ा काल

आदिकाल को उन्िोंने वीरगाथा काव्र्यों के अिधक रच ेजाने और इस काल की मुख्र्य प्रवलृ्त्त वीरता प्रििणन को मानत े िुए तथा इस काल में रासो काव्र्य परंपरा िोने के कारर् इसे आदिकाल की अपेक्षा वीरगाथाकाल का नाम दिर्या। इसके शलरे्य उन्िें कई ववद्वानों का ववरोध भी झलेना पडा क्र्योंकक उसी काल में बोद्धों और जैतनर्यो की रचनाएाँ भी आती थी ल्जसे िुक्ल जी आध्र्याल्त्मक तजण पर शलखी िोनें के कारर् धाशमणक रचनाएाँ मात्र मान उन्िें इस सादित्र्य में िाशमल करने के बावजूि मित्वपूर्ण निीं मानत।े इसी काल के एक मित्वपूर्ण कवव ववद्र्यापतत को - ल्जनकी कववता की अनुगूाँज आज भी शमिथलााँचल के लोकगीतों में सुनी जा सकती िै –और खडी बोली के प्रथम कवव खुसरो को व ेआदिकाल के फुटकल खात ेमें रखत ेिैं। िुक्ल जी की इसके शलरे्य कडी आलोचना की गई िै लेककन िुक्ल जी के आदिकाल को वीरगाथा काल मानने के पीछे अपने तकण िैं।

दििंी सादित्र्य का इततिास के काल खण्ड वीरगाथाकाल में िुक्ल जी कालववभाग एवं चार प्रकरर्ों के माध्र्यम से सादित्रे्यततिास के इस कालखण्ड का पररचर्य िेत ेिैं। कालविभाग के अंतगणत वे ल्जन तीन बबिंुं ं पर बात करत ेिैं वे िैं – जनता और सादित्र्य का संबंध , दििंी सादित्र्य के इततिास के चार काल और इन कालों के नामकरर् का तात्पर्यण। इसके बाि प्रकरण 1 में आदिकाल का सामान्र्य पररचर्य िेत े िुए इसे दििंी सादित्र्य के आववभाणव काल के रूप में िेखत ेिैं साथ िी प्राकृताभास दििंी के पुराने पद्र्यों के माध्र्यम से आदिकाल की कालाविध का तनधाणरर् करत ेिैं। इस काल की रासों प्रबंध परंपरा, अपभ्रंि परंपरा, िेिी भाषा पर ववचार करत ेिुए िुक्ल जी इस काल के आरंभ की अतनदिणष्ट लोकप्रवलृ्त्त का ववश्लेषर् करने का प्रर्यास करत ेिैं। इसी काल के प्रकरण 2 में िुक्ल जी अपभ्रंि काव्र्य का ब्र्यौरा प्रस्तुत करत े िैं। इस प्रकरर् को अपभ्रंि पर कें दद्रत रखत े िुए तथा अपभ्रंि को एक लोकप्रचशलत काव्र्यभाषा मानत ेिुए इसके सादित्र्य के आववभाणव काल का ववश्लेषर् करत ेिैं। इस प्रकरर् के अंतगणत वे ल्जन ववषर्यों का ववश्लेषर् करत े िैं उनमे अपभ्रंि की उत्पल्त्त,जैन ग्रंथकारों की अपभ्रंिरचनाएाँ और इसके छंि, बौद्धों का वज्रर्यान संप्रिार्य, शसद्धों की भाषा और इस भाषा के कुछ नमूने, बौद्ध धमण का तांबत्रक रूप और संध्र्या भाषा, वज्रर्यान संप्रिार्य का प्रभाव और इसकी मिासुख अवस्था, गोरखनाथ के नाथमंत्र का मूल और इसकी वज्रर्यातनर्यों से शभन्नता, गोरखनाथ का समर्य और मुसलमानों व भारतीर्य र्योिगर्यों का संसगण, गोरखनाथ की िठर्योग साधना, नाथ संप्रिार्य के शसद्धांत और इनका वज्रर्यातनर्यों से साम्र्य, इनकी भाषा, इसके ववषर्य एवं इस पंथ का प्रभाव,सादित्रे्यततिास में भाषा की दृल्ष्ट से इस पर ववचार, ववद्र्यापतत की अपभ्रंि रचनाएाँ और इन अपभ्रंि कववतांं की भाषा। उपरोक्त सभी ववषर्यों का िुक्ल जी संक्षेप में उल्लेख करत ेिुए दििंी सादित्र्य के इततिास मेंइनकी भूशमका का ववश्लेषर् करते िैं। प्रकरण 3से वे वीरगाथा काल की िुरुआत मानत ेिैं और इससे पिले के प्रकरर्ों को इसकी बुतनर्याि के रूप में िेखत ेिैं। इसे वे िेिभाषा काव्र्य की संज्ञा िेत ेिैं। और इनकी संिेिास्पिता का उल्लेख करत ेिुए तत्कालीन राजनीततक पररल्स्थतत के आलोक में इन वीरगाथांं की भूशमका का ववश्लेषर् करत ेिैं। इसी प्रकरर् में वे ‘रासो’ िब्ि की व्रु्यत्पल्त्त को स्पष्ट करते िैं।

“र्यिााँ पर वीर काल के उन ग्रथंों का उल्लेख ककर्या जाता िै, ल्जनकी र्या तो प्रततर्यााँ शमलती िैं र्या किीं उल्लेख मात्र पार्या जाता िै। रे्य ग्रंथ ‘रासो’ किलात े िैं कुछ लोग इस ग्रंथ का सबंंध ‘रिस्र्य’ से बतलात े िैं। पर ‘बीसलिेवरासो’ में काव्र्य के अथणमें ‘रामार्यर्’ िब्ि बार बार आर्या िै। अतः िमारी समझ में इसी ‘रामार्यर्’ िब्ि से िोत ेिोत े‘रासो’ िो गर्या िै।“(रामचंद्र िुक्ल, दििंी सादित्र्य का इततिास, पषृ्ठ 23)

प्रकरण4 में वे वीरगाथाकाल की उनरचनाकार को रखत ेिैं जो इस काल की मुख्र्य प्रवलृ्त्त वीर काव्र्य अथवा रासो प्रबंध परंपरा में न आत ेिुए भी इस काल के मित्वपूर्ण कवव िैं। इसे वे फुटकल रचनाएाँ कित ेिैं। िुक्ल जी के इस तरि के फुटकल खातों पर कई आलोचकों ने सवाशलर्या तनिान उठाएाँ िैं। खासकर तब जब इस काल

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के मित्वपूर्ण कवव अमीर खुसरो और ववद्र्यापतत को फुटकल खात ेमें व ेरखत ेिैं। इसके अंतगणत वे इन कववर्यों की रचनांं में लोकपक्ष को िुक्ल जी मित्वपूर्ण मानत ेिैं।

“मोटे दिसाब से वीरगाथा काल मिाराज िम्मीर के समर्य तक िी समझना चादिए उसके उपरांत मुसलमानों का साम्राज्र्य भारत में ल्स्थरिो गर्या और दििं ू राजांं को न तो आपस में लडने का उतना उत्साि रिा, न मुसलमानों से। जनता की िचत्तवलृ्त्त बिलने लगी और ववचारधारा िसूरी ंर चली।“(दििंी सादित्र्य का इततिास,पषृ्ठ42)

पूिथ मध्यकाल : भक्क्िकाल

पूवणमध्र्यकाल को िुक्ल जी ने भल्क्तकाल का नाम दिर्या िै ल्जसके पीछे उनका तकण िै कक भल्क्त इस काल की मुख्र्य प्रवलृ्त्त िै इसशलरे्य इसे भल्क्तकाल किना िी ज्र्यािा उपरु्यक्त रिेगा। उनके इस नामकरर् से लगभग सभी आलोचक सिमत िै लेककन भल्क्तकाल की िुरुआत में िी वे भल्क्त को मुसलमानी आक्रमर् के पररर्ामस्वरूप उपजा मानत ेिैं। र्यि वक्तव्र्य िुक्लजी का काफी वववादित वक्तव्र्य माना जाता िै। िुक्ल जी का किना िै कक मुसलमानी आक्रमर्काररर्यों के आक्रमर् से आक्रांत भारतीर्य जनता के पास ईश्वर की भल्क्त करने के अलावा और चारा िी क्र्या था। ल्जसके प्रततवाि स्वरूप बाि में िजारी प्रसािद्वववेिी ने अपनी पुस्तक दििंी सादित्र्य की भूशमका में शलखा कक ‘दििंी सादित्र्य का ववकास ककसी आक्रमर् के पररर्ामस्वरूप िताि जनमानस द्वारा मजबूरी में निीं िुआ बल्ल्क र्यि भारतीर्य िचतंा का स्वाभाववक ववकास था।‘

दििंी सादित्र्य के इततिास में िुक्ल जी संपूर्ण दििंी सादित्र्य को रु्यगीन पररल्स्थततर्यों के आलोक में िेखने का प्रर्यास करत ेिैं। एक तरि से समकालीनता का संिभण उनके इततिास लेखन की कसौटी के रूप में उभरता िै। उनके शलए ककसी कवव का मित्व उसके समकालीन िोने में िै। तुलसीिास और जार्यसी इसीशलरे्य उनके पसंिीिा कववर्यों में िैं। लेककन दििंी सादित्र्य का सवाणिधक समकालीन कवव कबीर उनके इततिास में भल्क्तकाल के बाकक कववर्यों की अपेक्षा उतना मित्व निीं प्राप्त कर पाता ल्जतने का वि अिधकारी िै। ल्जसके कारर् बाि के सादित्रे्यततिास लेखकों और आलोचकों ने िुक्ल जी की आलोचना की िै। लेककन तब भी िुक्ल जी की मित्ता इसशलरे्य िै कक वे अपने इस इततिास द्वारा सादित्रे्यततिास लेखन की परंपरा को एक सिी राि पर लाने में कामर्याब रिे।

“भल्क्त का जो सोता िक्षक्षर् भारत की ंर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ंर पिले से िी आ रिा था उसे राजनीततक पररवतणन के कारर् िून्र्य पडत े िुए जनता के हृिर्य क्षेत्र में फैलने के शलरे्य पूरा स्थान शमला। रामानुजाचार्यण (संवत1्073) ने िास्त्रीर्य पद्धतत से ल्जस सगुर् भल्क्त का तनरूपर् ककर्या था। उसकी ंर जनता आकवषणत िोती चली जा रिी थी।“(दििंी सादित्र्य का इततिास - भल्क्तकाल के प्रकरर् 1 से)

अन्र्यथा र्यि राि कवव पररचर्य और कववर्यों की संख्र्या कोिगनवाने की परंपरा को आगे बढात ेिुए न जाने ककस मंल्जल पर पिुाँचती। िुक्ल जी ने अपनी वैज्ञातनक और समकालीन इततिासदृल्ष्ट से इततिास को िेखत ेिुए आगे आने वाले इततिास लेखकों के समक्ष न केवल एक मानिंड स्थावपत ककर्या अवपतु दििंी सादित्र्य का लगभग सवणमान्र्य और वैज्ञातनक इततिास शलखा ल्जसके तथ्र्यों पर आगे आने वाले इततिास लेखक भरोसा कर सकतथेे।

संपूर्ण भल्क्तकाल को िुक्ल जी छः प्रकरर्ों में बााँटत ेिैं। प्रकरण 1 में वे भल्क्तकाल का सामान्र्य पररचर्य िेते िुए इस काल की राजनीततक और धाशमणक पररल्स्थततर्यों पर बात करत ेिुए भल्क्त के आववभाणव के कारर्ों पर बात करत ेिैं। इसी संिभण में वे भल्क्त के िक्षक्षर् में उिर्य िोने और उसका प्रवाि उत्तर भारत की ंर िोते जाने का ववश्लेषर् करत ेिैं। इस प्रकरर् में वे सगुर् भल्क्त की प्रततष्ठा, दििं ूमुसलमान िोनों के शलरे्य एक

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

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सामान्र्य भल्क्तमागण का ववकास और इसके मूल स्रोतों का उल्लेख करत े िैं। वे संपूर्ण भल्क्तकाल को तनगुणर् भल्क्तधारा और सगुर् भल्क्तधारा में बााँटत ेिै। तनगुणर् भल्क्तधारा को वे ज्ञानाश्रर्यी और पे्रममागी िाखा में बााँटत ेिैं और सगुर् भल्क्तधारा को वे रामभल्क्त िाखा और कृष्र्भल्क्त िाखा में बााँटत ेिैं। भल्क्तकाल के प्रकरण 1 में वे तनगुणर् भल्क्त धारा में भक्त कववर्यों नामिेव, कबीर का उल्लेख करत ेिुए तनगुणर् पंथ और नाथ पंथ की अंतस्साधना में शभन्नता को पररलक्षक्षत करत े िैं। कबीर और नामिेव की रचनांं में भल्क्त के स्वरूप को दिखात ेिुए वे इन रचनांं की वविेषता बतात ेिैं साथ िी इनकी रचनांं पर नाथपंथ के प्रभाव का ववश्लेषर् करत े िैं।प्रकरण2तनगुणर् भल्क्तधारा की ज्ञानाश्रर्यी(संत) िाखा को आधार बनाता िै। इस प्रकरर् में ज्ञानमागी िाखा के मुख्र्य कववर्यों का पररचर्य दिर्या गर्या िै साथ उनकी रचनांं का ववश्लेषर् करने का प्रर्यास ककर्या गर्या िै। इस प्रकरर् के अंतगणत िुक्ल जी कबीर, धमणिास, गुरुनानक, िाििूर्याल, सुंिरिास, मलूकिास आदि भक्त कववर्यों और उनकी रचनांं का सामान्र्य पररचर्य िेत ेिैं। प्रकरण3 तनगुणर् भल्क्तधारा की पे्रममागी(सूफी) िाखा को आधार बनाता िै। इस प्रकरर् में िुक्ल जी पे्रममागी अथवा सूफी िाखा के मुख्र्य कववर्यों का पररचर्य िेत ेिैं। और साथ िी सूफी कववर्यों की संत कववर्यों अथाणत कबीर आदि कववर्यों से शभन्नता दिखात ेिैं। इसके अंतगणत कुतुबन, मशलक मुिम्मि जार्यसी, उसमान, िेख नबी, काशसमिाि आदि सूफी कववर्यों एवं उनकी रचनांं का सामान्र्य पररचर्य दिर्या गर्या िैं। इनमे भी िुक्ल जी मशलक मुिम्मि जार्यसी और उनकी रचना पद्मावत का ववस्ततृ ववश्लेषर् करत ेिैं। प्रकरण4 सगुर् भल्क्तधारा की रामभल्क्त िाखा पर कें दद्रत िै। इसके अंतगणत िुक्ल जी राम भल्क्तिाखा पर बात करने से पिले अद्वैतवाि और इसके ववववध स्वरूप का संक्षक्षप्त वववरर् िेत ेिुए वैष्र्व श्रीसंप्रिार्य, रामानंि के समर्य तथा इनकी गुरुपरंपरा व उपासना पद्धतत का वववरर् िेत ेिैं। इस िाखा का प्रतततनिध कवव वे तुलसीिास को स्वीकारत ेिैं। और तुलसीिास की रचना रामचररतमानस का समकालीन संिभों में मूल्र्यााँकन करत ेिैं। इस िाखा के अन्र्य कववर्यों में स्वामी अग्रिास, नाभािास, प्रार्चंिचौिान, हृिर्यराम आदि का पररचर्य िेत े िैं।प्रकरण5 सगुर् भल्क्तधारा की कृष्र्भल्क्त िाखा पर कें दद्रत िै। इसके अंतगणत िुक्ल जी वैष्र्धमण आंिोलन के प्रवतणक श्रीवल्लभाचार्यण और उनके िािणतनक शसदं्धांत का पररचर्य िेत े िुए तत्कालीन राजनीततक और धाशमणक पररल्स्थतत का संक्षेप में वववरर् िेत ेिैं। तत्पश्चात वे कृष्र्भल्क्त काव्र्य के स्वरूप पर ववचार करत ेिुए इस िाखा के कववर्यों का पररचर्य िेत ेिैं। सूरिास को वे इस िाखा के प्रतततनिध कवव के रूप में ववश्लेवषत करत ेिैं साथ िी अष्टछाप के कववर्यों और उनकी रचनांं का संक्षक्षप्त वववरर् िेतिेैं। सूरिास, नंििास, कृष्र्िास, परमानंििास, कंुभनिास, चतुभुणजिास, छीतस्वामी, गोवविंस्वामी अष्टछाप के कवव माने जात ेिैं। कृष्र्भल्क्त िाखा के अन्र्य कववर्यों में रसखान, मीराबाई, धु्रविास, आदि कवव आत ेिैं। प्रकरण 6 इस प्रकरर् में कुछ कववर्यों और उनकी रचनांं को रखा गर्या िै िालााँकक इनमे कई ऐसे कवव िै ल्जनका संबंध रीततकाल के साथ जुडता िै लेककन उनके भल्क्त पिों के कारर् िुक्ल जी उन्िें भल्क्तकाल की सगुर् भल्क्त िाखा के अंतगणत उल्लेखखत करत े िैं। नरोत्तमिास, आलम, गंग, केिविास, रिीम(अब्िरुणिीम खानखाना), सेनापतत आदि कववर्यों को िुक्ल जी भल्क्तकाल के फुटकल खात ेमें रखत ेिैं।

उत्तर मध्र्यकाल : रीततकाल

रीततकाल को समझाने और उसका ववश्लेषर् करने के शलरे्य आचार्यण रामचंद्र िुक्ल तीन प्रकरर्ों का प्रर्योग करत ेिैं। प्रकरण 1 रीततकाल का सामान्र्य पररचर्य िेत े िुए रीतत परंपरा के आरंभ और इसके पूवणवती लक्षर्ों पर प्रकाि डालता िै और संस्कृत के रीतत ग्रंथों से इसकी शभन्नता को स्पष्ट करता िै तत्पश्चात लक्षर् ग्रंथकारों के आचार्यणत्व पर ववचार करत ेिुए िुक्ल जी इन ग्रंथों की िास्त्रीर्य दृल्ष्ट से वववेचना करत ेिैं। रीतत ग्रंथकार कवव और उनका उद्देश्र्य, इनकी कृततर्यों की वविेषताएाँ, सादित्र्य ववकास पर रीतत परंपरा का प्रभाव, रीततग्रंथों की भाषा तथा रीततकववर्यों के छंि और रस पर िुक्ल जी इसी प्रकरर्में बात करत ेिैं। प्रकरर् 2 रीतत ग्रंथकार कववर्यों का सामान्र्य पररचर्य िेता िै। इन कववर्यों में िचतंामखर् बत्रपाठी, बेनी, मिाराज जसवंत शसिं, बबिारी

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

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लाल, मंडन, मततराम, भूषर् से लेकर रशसक ववनोि तक लगभग 57 कववर्यों का पररचर्य और उनकी रचनांं की वववेचना की गई िै।

बबिारी सतसई के संबंध में िुक्ल जी इसी प्रकरर् में र्यि भाव प्रकट करत ेिैं कक “श्रृंगाररस के ग्रंथों में ल्जतनी ख्र्यातत और ल्जतना मान बबिारी सतसई का िुआ उतना और ककसी का निीं। इसका एक एक िोिा दििंी सादित्र्य का एक एक रत्न माना जाता िै। इसकी पचासों टीकाएाँ रची गई।...बबिारी ने इस सतसई के अततररक्त कोई और ग्रंथ निीं शलखा। र्यिी एक ग्रंथ उनकी इतनी बडी कीततण का आधार िै। र्यि बात सादित्र्य क्षेत्र के इस तथ्र्य की घोषर्ा की ंर इिारा कर रिी िै कक ककसी कवव का र्यि उसकी रचनांं के पररमार् के दिसाब से निीं िोता, गुर् के दिसाब से िोता िै।” (पषृ्ठ 171)

रीततकाल के प्रकरर् 3 में रीततकाल के अन्र्य कववर्यों का ल्जक्र ककर्या गर्या िै और उनके पररचर्य के साथ उनकी रचनांं की संक्षक्षप्त वववेचना र्यिााँ शमलती िै। इस प्रकरर् के अंतगणत िुक्ल जी ने उन कववर्यों को रखा ल्जन्िोंने कोई लक्षर् ग्रंथ तो निीं शलखा ककंतु ल्जनकी रचनांं ने उत्तर मध्र्यकाल र्या रीततकाल के सादित्र्य पर खासा प्रभाव डाला। इसमे बोधा, आलम, गुरूगोवविं शसिं जी, लाल कवव से लेकर द्ववजिेव(मिाराज मानशसिं) तक के 46 कववर्यों की संक्षक्षप्त वववेचना की गई िै।इनकी वविेषताबतात ेिुए रीतत ग्रंथकारों से इनकी शभन्नता बतात े िुए इन कववर्यों को छः वगों में बााँटा गर्या िै। श्रृंगारी कवव, कथा प्रबंधकार, वर्णनात्मक प्रबंधकार, सूल्क्तकार, ज्ञानोपिेिक पद्र्यकार और भक्त कवव। इसके बाि इस प्रकरर् के अंत में वीर रस की फुटकल कववतांं काल्जक्र आता िै और इस काल के उत्तराद्धण और आधुतनक काल के पूवाणद्धण के बीच ल्स्थत गद्र्य सादित्र्य का संक्षक्षप्त रूप में वववेचन करत ेिैं।

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आधतुनक काल : गद्य काल

गद्य खिंड

आधुतनक काल को िुक्ल जी गद्र्य खण्ड और काव्र्य खंड में बााँटत ेिैं। गद्र्य खंड में पााँच और काव्र्य खंड में चार प्रकरर् िैं। आधुतनक काल के सादित्र्य के इततिास पर बात करत े िुए वे पिले गद्र्य खंड में गद्र्य के ववकास का सामान्र्य पररचर्य िेत े िुए आधुतनक काल के पूवण(ब्रजभाषी गद्र्य) के गद्र्य की अवस्था पर ववचार करत ेिैं। इसके अंतगणत वे गोरखपंथी ग्रंथों और कृष्र् भल्क्त िाखा के गद्र्य ग्रंथों के कुछ नमून प्रस्तुत करते िैं। ताकक इनकी भाषा के स्वरूप पर ववचार ककर्या जा सके। गद्र्य खंड के प्रकरण 1 में ब्रजभाषी गद्र्य के कुछ नमूने प्रस्तुत करने के पश्चात िुक्ल जी बतात ेिै कक कैसे शिष्ट समुिार्य में खडी बोली का व्र्यविार आरंभ िुआ और उसमे फारसी शमिश्रत खडी बोली र्या रेखता में िार्यरी की िुरुआत िुई। वे उिूण सादित्र्य का आरंभ र्यिीं से स्वीकारत े िैं। इस प्रकरर् के अंतगणत िी वे खडी बोली के स्वाभाववतक िेिी रूप के प्रसार, खडी बोली और उसकी उत्पल्त्त के संबंध में ववद्र्यमान भ्रम, और इसके कारर्ों की संक्षेप में पडताल करत ेिैं। तत्पश्चात िुक्ल जी गद्र्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले चार लेखकों(मुिंी सिासुख लाल, इंिाअल्ला खााँ, लल्लू लाल, और सिल शमश्र) की भाषा और उनके भाषा वैववध्र्य की वववचेना करत े िैं। दििंी भाषा की तत्कालीन ल्स्थतत पर ववचार करत ेिुए वे इस गद्र्य के प्रसार में ईसाइर्यों के र्योग और शमिनररर्यों की भूशमका का उल्लेख करत ेिैं। दििंी की तुलना में उिूण के प्रसार के कारर् और अिालतो में दििंी का प्रवेि और उसका तनष्कासन, कािी और आगरे के समाचार पत्रों की भाषा, शिक्षा क्रम में दििंी प्रिेि का ववरोध, और दििंी व उिूण के संबंध में गासाण ि तासी के मत की संक्षेप में व्र्याख्र्या करत ेिैं। प्रकरण 2गद्र्य सादित्र्य के आववभाणव पर कें दद्रत िै। इसके अंतगणत िुक्ल जी ल्जन बबिंुं ं को उठात ेिैं वे िैं- दििंी के प्रतत मुसलमान अिधकाररर्यों का रुख, राजा शिवप्रसाि शसिं और राजा लक्ष्मर् शसिं के अनुवािों की भाषा, फे्रडररक वपन्कॉट का दििंी पे्रम, गासाण ि तासी का उिूण पक्षपात, दििंी गद्र्य के प्रसार में आर्यण समाज की भूशमका, पंडडत श्रद्धाराम की दििंी सेवा और दििंी गद्र्य की भाषा के स्वरूप का तनमाणर्।

तत्पश्चात गद्र्य के स्वरूप तनमाणर् के बाि उसके सादित्र्य में आने और उन सादित्र्यकारों की रचनांं का वववेचन ककर्या गर्या िै जो आधुतनक दििंी सादित्र्य(गद्र्य सादित्र्य) का नेततृ्व करत ेिैं। ल्जसके अंतगणत िुक्ल जी भारतेंि ुिररश्चंद्र की भूशमका और प्रभाव को दिखात ेिुए उनके पूवणवती और समकालीन लेखकों से उनकी िैली की शभन्नता की चचाण करत ेिैं। भारतेंि ुऔर उनके सिर्योिगर्यों(भारतेंि ुमंडल) की भाषा िैली उनके द्वारा शलखे लेख और तनबंध के उल्लेख के साथ साथ र्यिीं पर दििंी के पिले मौशलक उपन्र्यास(परीक्षा गुरू) और दििंी िुरुआती नाट्र्य सादित्र्य का ब्र्यौरा दिर्या गर्या िै।

िुक्ल जी आधुतनक दििंी सादित्र्य के गद्र्य खंड को तीन उत्थानों में ववभाल्जत करते िैं। प्रथम उत्थान में भारतेंि ुऔर उनके मंडल के रचना कमण का ववस्तार से वववचेन ककर्या गर्या िै। द्ववतीर्य उत्थान गद्र्य के प्रसार, गद्र्य सादित्र्य के तनमाणर् और गद्र्य की तत्कालीन गतत पर कें दद्रत िै। ल्जसके अंतगणत इस काल की िचतंांं और आकांिांं, इस काल के नाटक, तनबंध, समालोचना, आधुतनक दििंी किानी(पिली मौशलक किानी) और जीवन चररत व इनकी भाषा का वववरर् िेता िैं। ततृीर्य उत्थान आधुतनक भाषा के स्वरूप और गद्र्य सादित्र्य के ववववध अंगों का संक्षक्षप्त वववरर् और उनकी प्रवलृ्त्तर्यों का उल्लेख करता िै। इसके अंतगणत उपन्र्यास और किानी, छोटी किातनर्यााँ और समालोचना और काव्र्य मीमांसा आदि का िुक्ल जी संक्षेप में वववरर् िेत ेिैं।

काव्य खिंड

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जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

आधुतनक काल के काव्र्य खंड को िुक्ल जी ने चार प्रकरर् और तीन उत्थानों में बााँटा िै। प्रकरर् १ में पुरानी काव्र्यधारा के अंतगणत ल्जन बबिंुं ं को उठार्या गर्या िै। वे िैं – प्रचीन काव्र्य परंपरा, ब्रजभाषा काव्र्य परंपरा के कववर्यों का पररचर्य, पुरानी पररपादटर्यों से संबंध रखने के साथ िी सादित्र्य की नवीन गतत के प्रवतणन में र्योग िेने वाले कवव, भारतेंि ु द्वारा भाषा पररष्कार का कार्यण, उनके द्वारा स्थावपत कवव समाज आदि का पररचर्यात्मक वववरर् दिर्या गर्या िै और उसके बाि कववता की नई धारा का आरंभ माना िै ल्जसके बाि प्रथम उत्थान की िुरुआत िोती िै। इसके अंतगणत भारतेंि,ु प्रताप नारार्यर् शमश्र, और बिरी नारार्यर् चौधऱी पे्रमघन के कार्यण की सरािना की गर्यी िै। और तत्पश्चात कववता में प्राकृततक दृश्र्यों की संल्श्लष्ट र्योजना, नरे्य ववषर्यों पर कववता और खडी बोली कववता के ववकास क्रम पर ववचार ककर्या गर्या िै। द्ववतीर्य उत्थान कववता में स्व्छंितावािी प्रवलृ्त्त और श्रीधर पाठक की काव्र्य कला पर कें दद्रत िै। र्यिीं पर िररऔध, मिावीर प्रसाि द्वववेिी और द्वववेिी मंडल के कववर्यों और उनकी काव्र्य भूशम पर ववचार ककर्या गर्या िै।

काव्र्य खंड का ततृीर्य उत्थान खडी बोली कववता के तीन रूपों और उनके सापेक्षक्षक मित्व व दििंी कववता में प्ररु्यक्त नए छंिों पर बात करता िै। र्यिााँ िुक्ल जी रिस्र्यवाि, प्रतीकवाि और छार्यावाि की कववता की उिािरर्ों द्वारा पडताल करने का प्रर्यास करत ेिैं। छार्यावाि पर ववस्तार से बात करत े िुए इसके मूल स्रोत स्वरूप एवं पररर्ाम, इस िब्ि के अनेकाथी प्रर्योग, छार्यावाि की कववता के प्रभाव पर ववचार करत ेिुए वे इस काल की अन्र्य काव्र्य धारांं का संक्षेप में उल्लेख करत ेिैं। िुक्ल जी इस उत्थान में खडी बोली काव्र्य की तीन धाराएं मानत े िैं एक, ब्रजभाषा काव्र्यपरंपरा िो,द्वववेिी काल में प्रवततणत खडीबोली काव्र्यधारा तीन, छार्यावाि। इस प्रकार िुक्ल जी का दििंी सादित्र्य का इततिास छार्यावाि तक आता िै।

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जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

आचायथ िजारी प्रसाद द्वििेदी

आचार्यणिजारी प्रसाि द्वववेिी ने दििंी सादित्र्य के इततिास को मुख्र्यतः अपनी तीन पुस्तकों में समादित ककर्या िै। रे्य पुस्तकें िैं –दििंी सादित्र्य की भूशमका,दििंी सादित्र्यः उद्भव और ववकास,दििंी सादित्र्य का आदिकाल,।

हििंदी साहित्य की भूशमका- भारतीर्य िचतंा का स्वाभाववक ववकास

िजारी प्रसाि द्ववविेी ने अपनी पुस्तक दििंी सादित्र्य की भूशमका में दििंी सादित्र्य को ककसी पौरुष से िताि जातत की प्रततकक्रर्या मानने की अपेक्षा भारतीर्य िचतंा का स्वाभाववक ववकास माना िै। उन्िोंने िजार वषण के दििंी सादित्र्य को समझने के शलरे्य उसकी बुतनर्याि को )अथाणत उससे िजार वषण पिले के सादित्र्य और विााँ के लोगों की िचतंांं का ववकास ककस तरि और ककस रूप में िो रिा था) को समझने -समझाने का प्रर्यास ककर्या िै।

‘आज से लगभग िजार वषण पिले दििंी सादित्र्य का बनना िुरू िुआ था। इन िजार वषों में भारतवषण का दििंी भाषी जान -समुिार्य क्र्या सोच-समझ रिा था , इस बात की जानकारी का एकमात्र साधन दििंी सादित्र्य िी िै।‘

द्वववेिी जी की र्यि बात बिुत मित्वपूर्ण िै कक वे दििंी सादित्र्य को समझने के शलरे्य उस िौर में जन -समुिार्य की िचतंा को समझने के शलरे्य दििंी सादित्र्य को और दििंी सादित्र्य को समझने के शलरे्य उस िौर के

जनसमुिार्य की िचतंांं को समझने का प्रर्यास करत ेिैं। एक तनल्श्चत काल में र्यि िोनों एक िसूरे के पूरक भी िोत ेिैं। इस बात को द्वववेिी जी दििंी सादित्र्य की भूशमका में इंिगत करत ेिैं।

र्यि बात जानने र्योग्र्य िै कक द्वववेिी जी इस संबंध में ककसी भारतीर्य लेखक )रामचंद्र िुक्ल (से प्रततवाि करने की अपेक्षा अंगे्रज इततिासकार िेवेल को चुनत े िै और प्रोफेसर िेवेल के उस कथन को गलत मानत े िैं जो

उन्िोंने अपनी पुस्तक दिस्री ऑफ आर्यणन रूल में किा था िेवेल का कथन था कक ‘मुसलमानी सत्ता के प्रततल्ष्ठत िोत ेिी दििं ूराजकाज से अलग कर दिए गए। इसशलए ितुनर्या के झंझटों से छुट्टी शमलत ेिी उनमे धमण की ंर, जो उनके शलए एकमात्र आश्रर्य स्थल रि गर्या था, स्वाभाववक आकषणर् पैिा िुआ।‘ आचार्यण द्वववेिी इसे गलत व्र्याख्र्या मानत ेिैं और प्रस्ताव करत ेिैं कक ‘िमारे पाठक आगे के सिस्राब्िक की सादिल्त्र्यक चतेना को जातत की स्वाभाववक चतेना के रूप में िेखें, अस्वाभाववक अधोगतत के रूप में निीं।‘

दििंी सादित्र्य का बनना िो िजार साल पिले िुरु िुआ था इसशलरे्य भी दििंी सादित्र्य की भूशमका का तनमाणर् चािे एक िजार साल के दििंी सादित्र्य के शलरे्य ककर्या गर्या िो लेककन तब भी उससे पिले के एक िजार साल को उसकी ववकास प्रकक्रर्या के रूप में द्वववेिी जी ने शलर्या िै उस एक िजार साल में भारतीर्य जनसमुिार्य के दिमाग की क्र्या िचतंाएाँ रिीं िोंगी? द्वववेिी जी का किना िै कक उन िचतंांं को जानने का िमारे पास एक िी साधन िै दििंी सादित्र्य।

और अंत में वे र्यि स्थापना िेत ेिैं कक ‘मध्र्यरु्यग के भारतीर्य इततिास का मुख्र्य अंतववणरोध िास्त्र और लोक के बीच का द्वण्द्व िै न कक इस्लाम और दििं ूधमण का संघषण।‘

द्वववेिी जी ने दििंी सादित्र्य की भूशमका में इस्लाम के प्रवेि को स्वीकार करत ेिुए इसे भारतीर्य इततिास की एक अभूतपूवण राजनीततक और धाशमणक घटना माना िै और इस बात पर अफसोस जतार्या िै कक ववद्वानों ने दििंी सादित्र्य का संबंध दििं ूजातत के साथ िी अिधक जोडा ल्जससे अनजान आिमी के मल्स्तष्क में िो तरि की सोच पैिा िुई – एक, दििंी सादित्र्य एक ितिपण जातत की संपल्त्त िै और िसूरी, दििंी सादित्र्य एक तनरंतर पतनिील जातत की िचतंांं का मूतण प्रतीक मात्र िै। द्वववेिी जी इसका प्रततवाि करने के बावजूि भी इस पुस््तक में र्यि किने का सािस करते िैं कक ‘कफर भी इस सादित्र्य का अध्र्यर्यन करना तनतांत आवश्र्यक

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

िै।क्र्योंकक िस सौ वषों तक िस करोड कुचले िुए मनुष्र्यों की बात भी मानवता की प्रगतत के अनुसंधान के शलरे्य केवल अनुपक्षेर्ीर्य िी निीं, बल्ल्क अवश्र्य ज्ञातव्र्य वस्तु िै।‘

दििंी सादित्र्य में इस्लाम के मित्व को स्वीकार करत ेिुए द्वववेिी जी कित ेिैं कक ‘अगर इस्लाम न आर्या िोता तो भी इस सादित्र्य का बारि आना वैसा िी िोता जैसा आज िै।‘ अथाणत ्सादित्र्य का चार आना र्या प्चीस फीसिी वे इस्लाम आदि के प्रभाव में तनशमणत मानत ेिैं।

अपनी बात को बेितर ढंग से समझाने के शलरे्य वे केवल दििंी सादित्र्य के िजार साल पर िी बात निीं करते बल्ल्क उनका तकण िै कक र्यदि दििंी सादित्र्य के इस िजार साल को जानना िै तो उससे पिले के िजार साल को इसकी भूशमका स्वरूप लेना िोगा और वे इसकी पररल्स्थततर्यों और लोक व्र्यविार में आए पररवतणनों को सादित्र्य से संबंद्ध करत ेिुए इस संबंध में अपना मत िेते िैं। तत्पश्चात वे मध्र्य भारत की ल्स्थतत का खाका खींचत ेिै लेककन अपने मूल ववषर्य को वे र्यिााँ भी केद्र में रखत ेिैं मसुलमानी आक्रमर् की प्रततकक्रर्या में दििंी सादित्र्य को िेखने वाले मत का खंडन लगातार इस पुस्तक में प्रत्र्यक्ष और परोक्ष रूप में जारी िै मध्र्य भारत के जनिार्य

की िचतंा भी इस मुद्दे से अलग िटकर निीं ि ॉै। र्यिााँ वे िास्त्र से लोक की ंर बढत ेदििंी सादित्र्य को िेखत ेिैं।

‘दििंी सादित्र्यः भारतीर्य िचतंा का स्वाभाववक ववकास’ अध्र्यार्य इस पुस्तक का कें द्रीर्य अध्र्यार्य िोने के साथ-साथ इसकी भूशमका भी िै। तत्पश्चात द्वववेिी जी संत मत भक्तों, की परंपरा(आलवार भक्त िक्षक्षर् के वैष्र्व आचार्यण), रामानंि की भक्त परंपरा, तनगुणर् और सगुर् मत की संक्षेप में व्र्याख्र्या करत ेिैं तथा सूफी साधना का आववभाणव बतात े िुए स्पष्ट करत े िैं कक पद्मावत की छंि-प्रथा भारतीर्य िै। दििंी सादित्र्य की भूशमका के अगले चरर् में वे भल्क्तकालीन कववर्यों(कबीर, नानक, सूरिास, नंििास, तुलसीिास, िाििूर्याल, सुंिरिास, और रज्जब का व्र्यल्क्तत्व ववश्लेषर् करत े िैं। तत्पश्चात रीतत-काव्र्य का ववश्लेषर् करत े िुए पुस्तक के समापन(उपसंिार) की तरफ बढत ेिैं।

हििंदी साहित्येः उद्भि और विकास

िजारीप्रसाि द्वववेिी अपनी इस पुस्तक(१९५२) में संपूर्ण दििंी सादित्र्य को प्रस्तावना, दििंी सादित्र्य का आदिकाल, भल्क्त सादित्र्य, तनगुणर् भल्क्त का सादित्र्य, कृष्र् भल्क्त का सादित्र्य, सुगरु्मागी रामभल्क्त का सादित्र्य, पे्रम कथानकों का सादित्र्य, रीततकाव्र्य, और आधुतनक काल आदि ववभागों में ववभाल्जत करत ेिैं।

प्रस्तावना के अंतगणत दििंी िब्ि के अथण और अपभ्रंि सादित्र्य पर बात करत े िुए व ेिसवीं िताब्िी तक के लोकभाषा-सादित्र्य के मुख्र्य लक्षर्ों को इंिगत करत ेिैं। अथाणत दििंी सादित्र्य के एक िजार सालों के बारे में जानने से पूवण व े इन एक िजार सालों की बुतनर्याि में चल रिे घटनाक्रमों और दििंी भाषा के पूवण रूप र्या अपभ्रंि का ववश्लेषर् करत ेिुए दििंी सादित्र्य के इततिास की भूशमका का पटाक्षेप करत ेिैं।

दििंी सादित्र्य का आदिकाल नामक ववभाग के दििंी सादित्र्य के एक काल वविेष के सिंभण उपरोक्त भूशमका से आगे की किानी किता चलता िैं। अथाणत आदिकाल में प्रामाखर्क रचनांं के अभाव के कारर्ों और इस काल की अद्धण-प्रामाखर्क रचनांं(पथृ्वीराज रासो) की वविेषता और इनमें तनदित ऐततिाशसक काव्र्य तत्व की वववेचना करता िै। इसी ववभाग में द्वववेिी जी ववद्र्यापतत की रचना कीततणलता की वविेषता बतात े िुए इस काल के नामकरर् पर ववचार करत ेिैं। एक अन्र्य अथण में द्वववेिी जी इस पुस्तक में िुक्ल जी के सादित्र्य के इततिास के छूटे िुए प्रसंगों एव ंसंिभों पर पुनववणचार करत ेिैं। कीततणलता और संिेिरासक ऐसे िी संिभण िैं ल्जन्िें िुक्ल जी लगभग छोडत ेिुए आगे बढ जात ेिैं। लेककन द्वववेिी जी इन पर ठिरकर ववचार करते िैं और दििंी सादित्र्य में इन्िी भूशमका एवं मित्व को प्रततपादित करत ेिैं।

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

भक्क्ि साहित्य

आचार्यण िजारीप्रसाि द्वववेिी भल्क्तकाल से वास्तववक दििंी सादित्र्य का आरंभ मानत ेिैं और भल्क्त आंिोलन को िारी िुई दििं ूजातत की असिार्य िचत्त की प्रततकक्रर्या मानने का कठोरता से ववरोध करत ेिैं। उनका किना िै कक “प्रततकक्रर्या तो जाततगत कठोरता और धमणगत संकीर्णता के रूप में प्रकट िुई थी। उस जाततगत कठोरता का एक पररर्ाम र्यि िुआ कक इस काल में दििंुं ं में वैरागी साधुंं की वविाल वादिनी खडी िो गई, क्र्योंकक जातत के कठोर शिकंजे से तनकल भागने का एकमात्र उपार्य साधु िो जाना िी रि गर्या था। भल्क्तवाि ने इस अवस्था को संभाला और दििंुं में नवीन और उिार आिावािी दृल्ष्ट प्रततल्ष्ठत की। चौििवीं िताब्िी के बाि दििंी सादित्र्य की मूल पे्ररर्ा भल्क्त िी रिी।”इसी कारर् द्वववेिी जी ने इस सादित्र्य को वास्तववक लोक-सादित्र्य और मिान आििण का सादित्र्य किा िै। भल्क्त सादित्र्य की िी िो धारांं(तनगुणर्, सगुर्) और चार िाखांं(कृष्र् भल्क्त, राम भल्क्त, ज्ञानमागी, पे्रम मागी) को वे अलग-अलग वववेिचत करत े िैं। और इनके अलग ववभाग बनात े िैं। तनगुणर् भल्क्त का सादित्र्य के अंतगणत वे कबीर को कें द्र में रखत े िुए अन्र्य तनगुणर् संतों जैसे नामिेव, जर्यिेव, िाि ूिर्याल, रैिास, गुरु नानक, िेख फरीि, मलूकिास, गरीबिास, चरर्िास आदि संतों और उनके सादित्र्य की वविेषता का वववेचन करत े िैं। कबीर को वे पंद्रिवीं िताब्िी का सबसे िल्क्तिाली और प्रभावोत्पािक व्र्यल्क्त मानत ेिैं।

“पंद्रिवीं िताब्िी में कबीर सबसे िल्क्तिाली और प्रभावोत्पाितक व्र्यल्क्त थे। संर्योग से वे ऐसे रु्यग-संिध के समर्य उत्पन्न िुए थे, ल्जसे िम ववववध धमण साधनांं और मनोभावनां ं का चौरािा कि सकत े िैं।...व ेमुसलमान िोकर भी असल में मुसलमान निीं थे। व े दििं ू िोकर भी दििं ू निीं थे। वे साधु िोकर भी साधु(अगिृस्थ) निीं थे। वे वैष्र्व िोकर भी वैष्र्व निीं थे। वे र्योगी िोकर भी र्योगी निीं थे। वे कुछ भगवान की ंर से सबसे न्र्यारे बनाकर भेजे गरे्य थे।...कबीर िास ऐसे शमलनबबिं ुपर खड ेथे जिााँ से एक ंर दििंतु्व तनकल जाता िै और िसूरी ंर मुसलमानत्व, जिााँ एक ंर ज्ञान तनकल जाता िै, िसूरी ंर अशिक्षा, जिााँ एक ंर र्योगमागण तनकल जाता िै िसूरी ंर भल्क्तमागण, जिााँ से एक ंर तनगुणर् भावना तनकल जाती िै, िसूरी ंर सगुर् साधना, उसी प्रिस्त चौरािे पर वे खड ेथे।” (पषृ्ठ 76)

कृष्र् भल्क्त का सादित्र्य के अंतगणत वे सूरिास को कें द्र में रखने के बावजूि वे चंडीिास और ववद्र्यापतत, और जर्यिेव के गीत गोवविं को इस संिभण में न केवल उदृ्धत करत े िै। अवपतु कृष्र् भल्क्त सादित्र्य में इसकी भूशमका एवं मित्व प्रततपादित करत ेिैं। चंडीिास और ववद्र्यापतत के राधा के िचत्रर्-वैववध्र्य को भी द्वववेिी जी उल्लेखनीर्य मानत ेिैं और कित ेिैं कक ववद्र्यापतत के पे्रम वर्णन में िरीर पक्ष की प्रधानता अवश्र्य िै ककंतु र्यि उल्लेखनीर्य कक इससे सहृिर्य के मन में ववकार उत्पन्न निीं िोता। तत्पश्चात वे सूरिास के कवव वैशिष्ट्र्य पर ववचार करत े िुए अष्टछाप के कववर्यों और मीराबाई के कृततत्व और व्र्यल्क्तत्व पर ववचार करत े िैं। रिीम, रसखान और धु्रविास के कृततत्व को भी द्वववेिी जी ने इसी ववभाग में स्थान दिर्या िै।

सगुर्मागी रामभल्क्त के सादित्र्य को द्वववेिी जी िो भागों में वववेिचत करत ेिैं। उनका किना िै कक “स्वामी रामानंि द्वारा प्रचाररत रामभल्क्त ने िो मागोंमें अपने आपको प्रकट ककर्या। तनगुणर् मागण के रूप में उसका ववकास कबीर, िाि ूआदि तनगुणर् परंपरा के भक्तों में िुआ। परंतु स्वरं्य स्वामी रामानंि तनगुणर्मागण के उपासक निीं थे।“ र्यि संपूर्ण अध्र्यार्य तुलसीिास पर कें दद्रत िै। तुलसीिास के जन्म, व्र्यककत्व, पररचर्य के स्रोत, आदि का ब्र्योरा र्यिााँ शमलता िै और उनकी रचनांं की संक्षक्षप्त समीक्षा की झलक भी र्यिााँ दिखाई िेती िै। तुलसीिास के अलावा वप्रर्यािास, केिविास, नाभािास, आदि कववर्यों के कृततत्व और व्र्यल्क्तत्व की वविेषताएाँ भी बताई गर्यी िैं।

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

पे्रमकथानकों के सादित्र्य में सूकफर्यों की पे्रम किातनर्योंऔर उनके आधाररक स्रोतों का वववरर् दिर्या गर्या िै। इसके अंतगणत कुतुबन, मंझन, जार्यसी आदि कववर्यों के काव्र्य की वविेषता बताई गर्यी िै। और उसमान, जान कवव, काशसमिाि आदि का सकं्षक्षप्त पररचर्य दिर्या गर्या िै।

रीततकाव्र्य का सामान्र्य पररचर्य िेने के बाि द्वववेिी जी इस काल में श्रृंगार भावना और नातर्यका भेि के आकषणर् को कववर्यों में िेखते िैं। र्यिााँ भल्क्त पे्ररर्ा का िैिथल्र्य दिखाई िेता िै। प्रमुख रीतत ग्रंथकारों के रूप में िचतंामखर्, भूषर्, मततराम, जसवंत शसिं और शभखारीिास, िेव,पद्माकर, ग्वाल कवव आदि की वववेचना की गई िै। बबिारी लाल को रीततकाल का लोकवप्रर्य कवव माना गर्या िैं और गाथा सप्तिती और बबिारी सतसई की तुलना करने का प्रर्यास ककर्या गर्या िै। रीततमुक्त काव्र्यधारा में आलम, बोधा, ठाकुर, िगररधर कववरार्य, रसतनिध,सेनापतत, बेनी, आदि के काव्र्य वैशिष्ट्र्य के प्रभाव को दिखार्या गर्या िै।

आधुतनक काल से गद्र्य रु्यग का आरंभ मानने के बावजूि द्वववेिी जी का जोर इस रु्यग की ऐततिाशसक ल्स्थतत पर ववचार करने पर िै। ताकक दििंी की तत्कालीन ल्स्थतत का जार्यजा शलर्या जा सके। ल्जसके पश्चात पररमाल्जणत भाषा का सूत्रपात िो सका और दििंी सादित्र्य खासकर खडी बोली के सादित्र्य का आरंभ। र्यिी काल िै जब शिक्षा ने पत्रकाररता की एक भाषा गढी ववरोध करने के शलरे्य अपनी व्र्यंग्र्यात्मक िल्क्त को पिचाना। ल्जसमे भारतेंि ु िररश्चंद्र की उल्लेखनीर्य भूशमका िै उन्िोंने अपनी नवीन भाषा िैली और काव्र्य वैशिष्ट्र्य से दििंी प्रिेि में एक आंिोलन को जन्म दिर्या और दििंी को राष्रीर्यता से जोडत े िुए भाषा के सवाल को जनमानस में ले जाकर दििंी को जनआंिोलन के पे्ररर्ामर्यी िल्क्त प्रिान की। ल्जसके बाि िी सादित्र्य की बिुमुखी उन्नतत संभव िो सकी। रामचंद्र िुक्ल का सादित्र्य छार्यावाि तक आकर समाप्त िो जाता िै। द्वववेिी इसे एक किम आगे बढात े िुए प्रगततवाि तक लेकर आए िैं। द्वववेिी जी की खाशसर्यत र्यि िै कक वे एक ववशिष्ट काल के रचनाकारों और उनकी रचनांं उनकी समकालीनता में अध्र्यर्यन करत े चलत े िैं। संभवत इसीशलरे्य उनके तनष्कषण ज्र्यािा सटीक और तथ्र्यानुकूल मालमू िोत ेिैं। रचनाकार की ल्स्थतत और उसके समर्य का अध्र्यर्यन िुक्लजी भी करत ेिैं ककंतु िुक्ल रचनाकार को जिााँ रु्यगीन पररल्स्थततर्यों में ववश्लेवषत करत ेिैं विीं द्वववेिी जी तत्कालीन और समकालीन संिभों तक लात े िैं और उनका लक्ष्र्य उस रचनाकार के भीतर की मानवीर्यता की खोज में तनदित िोता िै। छार्यावाि में व ेएक नवीन सांस्कृततक चतेना को िेखत ेिैं और इसे नवीन शिक्षा पद्धतत का पररर्ाम मानत ेिैं। सुशमत्रानंिन पंत, तनराला, जर्यिंकर प्रसाि, मिािेवी के कृततत्व पर इसी ववभाग में वे ववचार करत ेिैं और इसके समानांतर चल एक और काव्र्यधारा ल्जसमे बालकृष्र् िमाण नवीन, शसर्याराम िरर् गुप्त, दिनकर, ब्चन, आदि की भावात्मक और गेर्यात्म पिों एवं रचनांं का भी उल्लेख करते चलत ेिैं।

हििंदी साहित्य का आहदकाल

र्यि पुस्तक आचार्यण िजारीप्रसाि द्वववेिी बबिार राज्र्य की सरकारके शिक्षा ववभाग द्वारा संस्थावपत संरक्षक्षत और संचाशलत बबिार-राष्रभाषा-पररषि से प्रकाशित िोने वाला पिला ग्रंथ िै। र्यि पुस्तक(दििंी सादित्र्य का आदिकाल) बबिार-राष्रभाषा-पररषद् के तत्वाधान में दिरे्य गरे्य पााँच व्र्याख्र्यानों का संग्रि िै। आचार्यण द्वववेिी के रे्य व्र्याख्र्यान माचण 1952 ई. को पटना में पररषद् के तत्वाधान में संपन्न िुए थे। उस िौरान द्वववेिी जी के मन में दििंी के आरंशभक सादित्र्य के संबंध में जो उलझनें थीं और उनका जो भी समाधान वे उस समर्य िेख रिे थे। उसे उन्िोंने स्पष्ट भाषा में अपने व्र्याख्र्यान का दिस्सा बनार्या था। प्रथम व्र्याख्र्यान में द्वववेिी जी अपभ्रंि के उपलब्ध सादित्र्य की चचाण करत ेिुए र्यि तो स्वीकारत ेिैं कक दििंी सादित्र्य का सचमुच िी क्रमबद्ध इततिास पं. रामचंद्र िुक्ल ने दििंी िब्ि सागर की भूशमका के रूप में सन ्1921 ई. में प्रस्तुत ककर्या। पर साथ िी इसे उन्िीं पूवणवती वत्तसंग्रिों की परंपरा का दिस्सा मानत ेिैं। और कित े िै कक िुक्ल जी ने सादित्र्य को मानव समाज के सामूदिक िचत्त की अशभव्र्यल्क्त के रूप में न िेखकर केवल शिक्षक्षत समझी जाने वाली जनता की

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प्रवृल्त्तर्यों के पररवतणन-वववतणन के तनिेिक के रूप में िेखा िै। इस व्र्याख्र्यान में चंद्रधर िमाण गुलेरी,रािुल सांकृत्र्यार्यन आदि लेखकों ववद्वानों का उल्लेख करत े िुए वे आदिकाल के उस अध्र्यर्यन ववश्लेषर् पर अपना ध्र्यान कें दद्रत करत ेिैं जो सन ्पचास से पिले तक ककर्या जा चुका था। िसूरे और तीसरे व्र्याख्र्यान में द्वववेिी जी का प्रर्यत्न अपभ्रंि (ल्जसे उन्िोंने िेश्र्यभाषा भी किा िै) की ऐसी रचनाएाँ र्या तो शमलती िी निीं र्या जो अब ववकृत रूप में शमलती िैं, को एक िभुाणग्र्य के रूप में िेखा िै। जबकक इनका तनमाणर् आज के दििंी भाषी क्षते्रों में िुआ था। र्यिााँ वे अप्रभ्रंि भाषा में शलखखत ल्जन जैन चररत काव्र्यों की चचाण करत ेिैं। और बतात ेिैं कक रे्य अिधकतर जैन परंपरा से प्राप्त िोने के बावजूि दििंी भाषी क्षेत्रों के बािर शलखे गरे्य िै। इसी व्र्याख्र्यान में वे इस बात की सूचना भी िेत ेिैं कक इसी काल में ववपलु मात्रा में जैनेतर सादित्र्य भी शलखा गर्या था जो नाना ऐततिाशसक कारर्ों से सुरक्षक्षत निीं रि सका। पथृ्वीराज रासो का संिभण िेत ेिुए वे उसके एक अप्रामाखर्क रचना बन जाने के कारर्ों की पडताल करत ेिैं।

चतुथण व्र्याख्र्यान पथृ्वीराज रासो के साथ िी पद्ममावत के उिािरर् के माध्र्यम से बताता िै कक इन ऐततिाशसक काव्र्यों ने ककस प्रकारर्यथाथण और तथ्र्यों को कल्पना के साथ शमिश्रत कर प्रस्तुत ककर्या।

पथृ्वीराज रासो और पद्मावत भी ऐततिाशसक व्र्यल्क्त के नाम के साथ संबद्ध काव्र्य िैं। परंतु अन्र्यार्य ऐततिाशसक काव्र्यों की भााँतत मूलतः इनमें भी ऐततिाशसक और तनजंधरी कथांं का शमश्रर् रिा िोगा। जैसा कक िुरु में िी इिारा ककर्या गर्या िै। सम्भावनांंपर बल िेने का पररर्ाम र्यि िुआ िै कक िमारे िेि के सादित्र्य में कथानक को गतत और घुमाव िेने के शलए कुछ ऐसे अशभप्रार्य बिुत िीघणकाल से व्र्यवहृत िोत ेआरे्य िैं जो बिुत थोडी िरू तक र्यथाथण िोत ेिैं और जो आगे चलकर कथानक-रूदढ में बिल गरे्य िैं। (दििंी सादित्र्य का आदिकाल)

र्यिााँ द्वववेिी जी ऐसी इक्कीस कथानक रूदढर्यों का उिािरर् िेत ेिैं ल्जससे सादित्र्य के ववद्र्यािथणर्यों का टकराना पडता िै। उनका किना िै कक पद्मावत में इन रूदढर्यों का व्र्यविार िै और रासो में तो पे्रम-सम्बंधी सभी रूदढर्यों का मानो र्योजनापूवणक समाविे ककर्या गर्या िै। जो बात मूल लेखक से छूट गर्यी थी उसे प्रक्षेप करके पूरा कर शलर्या गर्या िै।

पथृ्वीराज रासो के सिंभण को िी द्वववेिी पााँचवे व्र्याख्र्यान का दिस्सा बनात ेिैं। लेककन र्यिााँ उनका जोर इसकी भाषा और छंिों पर िै। इसके लेखक चंिबरिाई को व े शिवशसिं के िवाले से छप्पर्यों का राजा मानत े िैं। चंिबरिाई की छंि िैली और रासो ग्रंथों के छंि लक्षर्ों पर इस व्र्याख्र्यान में चचाण की गई िै।

दििंी सादित्र्य के आदिकाल पर दिरे्य गरे्य अपने पााँचों व्र्याख्र्यानों के माध्र्यम से दििंी सादित्र्य के आरंशभक काल की एक रूपरेखा िेने की कोशिि की िै। दििंी सादित्र्य के आदिकाल को संिभण के रूप में रखत ेिुए वे अपभ्रंि र्या िेश्र्यभाषा, रासो और इसकी छंि िैली, कीततणलता और ववद्र्यापतत, साथ िी चंद्रधरिमाण गुलेरी, रािुल सांक-त्र्यार्यन आदि लेखकों पर बात करत े िुए आगे बढे िै। द्वववेिी जी की िैली ऐसी िै कक किीं भी बोखझलता मिसूस निीं िोती उनके तथ्र्य और तकण ऐसे िै कक उनकी काट बडी मुल्श्कल से िाशसल िोती िै।

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जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

रामववलास िमाण

डॉ. रामववलास िमाण न े दििंी सादित्र्य का परंपरागत इततिास निी ं शलखा िै और न िी सादित्र्य समाज उन्िें सादित्रे्यततिास लेखक के रूप में पिचानता िै। उनकी छवव एक माक्सणवािी आलोचक के रूप में दििंी के सादित्र्य समाज के भीतर पैठी िुई िै। मूलतः दििंी सादित्र्य के इततिास लेखक न िोने के बावजूि भी दििंी सादित्र्य इततिास लेखन में उनकी भूशमका को नजरंिाज निीं ककर्या जा सकता। बिेक उन्िोंने दििंी सादित्र्य का कोई क्रमवद्ध इततिास न शलखा िो लेककन उनकी अलग अलग पुस्तकों में उन्िोंने दििंी सादित्र्य के संबंध में जो कुछ शलखा िै और अपनी जो मौशलक स्थापनाएं विााँ िीं िैं उन स्थापनांं ने दििंी के संबंध में बनी बनाई पूवणवती दृल्ष्ट में क्रांततकारी पररवतणन ककर्या िै। कफर वो चािे तुलसीिास के संबंध में िो र्या तनराला के संिभण में। भारतेंि ुके संबंध में िो र्या मिावीरप्रसाि द्वववेिी के संबंध में। उनकी इततिासद़्षल्ष्ट र्यूरो-कें दद्रत उपतनवेिवािी सोच के बरक्स भारतीर्य दृल्ष्ट और उसकी परंपरा का मूल्र्यााँकन करते िुए दििंी सादित्र्य का ववश्लेषर् करती िै तनल्श्चत िी इस दृल्ष्ट के औजारों को प्रततबद्धता के स्तर पर माक्सणवाि और जनवाि आधार प्रिान करते िैं।

रामववलास िमाण दििंी सादित्र्य की पडताल करने के शलए वेिों तक जाते िैं, भाषा ववज्ञान के ववद्र्याथी की िब्ि के भीतर तछपे अथों को खोलने की कोशिि करते िैं। और उस उपतनवेिवािी सोच और दृल्ष्ट का ववरोध करते िैंजो भारतीर्य परंपरा को थोथा और पल्श्चमी सभ्र्यता को शे्रष्ठ स्थावपत करने की जुगत में लगी रिती िै।

दििंसु्तान का प्रारंशभक इततिास र्या सादित्र्य इततिास वविेशिर्यों द्वारा शलखा गर्या। रामववलास िमाण इसे भारतीर्य िचतंन के शलरे्य एक चनुौती समझते िैं। क्र्योंकक इस इततिास लेखन ने िमारी अपनी समझ और दृल्ष्ट को वपछडा बताकर वविेशिर्यों की दृल्ष्ट को शे्रष्ठ साबबत करवार्या। इसशलरे्य रामववलास िमाण की इततिास दृल्ष्ट प्रततऔपतनवेशिक और अपनी परंपरा के मूल्र्यााँकन से उपजी िै। अपने औपतनवेशिक दित को साधने के शलरे्य अगें्रजों ने भारत की समदृ्धपरंपरा और संस्कृतत, गौरविाली इततिास, ज्ञान-ववज्ञान और कला को तनकृष्ट साबबत ककर्या। ताकक वे भववष्र्य में स्वर्यं भारत पर िासन करने के शलरे्य उिचत ठिरा सकें । रामववलास िमाण का मानना िै कक भारत का इततिास इस र्यूरोप-कें दद्रत दृल्ष्ट से अलग रखकर अपनी परंपरा का मूल्र्यााँकन करते िुए शलखा जाना चादिरे्य। इसशलरे्य वे भारतीर्य नवजागरर् का संबंध १८५७ की क्रांतत एवं स्वतंत्रता संग्राम से जोडते िैं और भाषा के सवाल को इससे जोडते िुए। दििंसु्तानी एकता में दििंी की भूशमका को बताते िुए इस भारतीर्य नवजागरर् को दििंी नवजागरर् से अलग निीं मानते।

अगर वे तुलसी सादित्र्य के सामंत-ववरोधी मूल्र्यों को उद्घादटत करते िैं तो भारतेंि ुको दििंी नवजागरर् का अग्रितू घोवषत करते िुए दििंी नवजागरर् की समस्र्यांं पर उंगली रखते िैं।

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

वे दििंी नवजागरर् को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से संबद्ध मानते िुए शलखते िै कक -"दििंी प्रिेि में नवजागरर् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से िुरू िोता िै ।" (मिावीर प्रसाि द्वववेिी और दििंी नवजागरर्, भूशमका) और र्यि बताने का प्रर्यास करते िैं कक ककस तरि इस का प्रभाव संपूर्ण िेि पर पडता िै ककंतु दििंी प्रिेिों पर इसका असर सवाणिधक पडता िै।वे इसे दििंी प्रिेि का जाततर्य एवं राष्रीर्य संग्राम मानते िैं।

"भारतेंि ु र्युग उत्तर भारत में जन-जागरर् का पिला र्या प्रारंशभक िौर निीं िै; वि जन जागरर् की पुरानी परंपरा का खास िौर िै। जन-जागरर् की िुरुआत तब िोती िै, जब र्यिााँ बोल-चाल की भाषांं में सादित्र्य रचा जाने लगता िै, जब र्यिााँ के प्रिेिों में आधतुनक जाततर्यों का गठन िोता िै। र्यि सामंत ववरोधी जागरर् िै।" (भारतेंि ु िररश्चदं्र और दििंी नवजागरर् की समस्र्याएाँ, प.ृ 13)

१९५७ के स्वतंत्रता संग्राम से पिले के जन-जागरर् को वे लोक स ेसबंद्ध मानत े िुए उसे भल्क्तकाल के संिभण में लोकजागरर् की संज्ञा िेते िैं और जनसमुिार्य में उसके असर और भूशमका का ववश्लेषर् करते िैं। वे एक ंर सादित्र्य के स्तर पर अगर सामंतवािी दृल्ष्ट से मुकाबला करते िैं तो इततिासदृल्ष्ट के स्तर पर औपतनवेशिक र्या साम्राज्र्यवािी दृल्ष्ट से। वे इन िोनों ववरोधों को एक िसूरे से जोडते िुए बताते िैं। 1957 से पिले के जन-जागरर् र्या लोकजागरर् की चनुौती र्यदि सामंतवाि था तो 1957 के बाि साम्राज्र्यवाि के चनुौती के रूप में सामने आर्या था। इसशलरे्य इस िौर का सादित्र्य अपने ममण में इस जन-जागरर् के संघषण और ववजर्य की लालसा के साथ साथ उसके कू्ररतापूर्ण िमन की िासतां भी सुनाता िै। सादित्र्य इततिास लेखन की परंपरा में उनका मित्व इसशलरे्य भी िै कक वे तुलसीिास, भारतेंि,ु मिावीरप्रसाि द्वववेिी, तनराला और प्रेमचिं को वे अपने पूवणवततणर्यों की तलुना में अलग दृल्ष्ट से िेखते िैं और उनकी रचनांं के भीतर के प्रगततिील तत्व को पिचानते िुए उनका ववश्लेषर् करते िैं। प्रगततिीलता उनके शलए सादित्र्य की कसौटी िै। ििणन, सादित्र्य, भाषा-ववज्ञान, भारतीर्य संस्कृतत, जातीर्यता की अवधारर्ा, इततिास ऐसा कौन सा ववषर्य ल्जस पर रामववलास िमाण ने अपनी लेखनी पूरे अिधकार के साथ न चलाई िो। तनराला, भारतेंि,ु प्रेमचिं पर उनका ववश्लेषर् लगभग सवणमान्र्य िै। रामववलास जी ने सादित्र्य के इततिास की पुस्तकें बेिक न शलखी िों लेककन उनके लेखन ने सादित्रे्यततिास की दृल्ष्ट जरूरी बिलाव ककर्या िैं। वे जब रचनाकारों पर बात करते िै तो उसके र्युग िी निीं बल्ल्क अपने र्युग के संिभण में उसकी समकालीनता की खोज माक्सणवािी नजरररे्य से करते िैं। र्यि उनकी सादित्र्य इततिासद्ृल्ष्ट का मुख्र्य औजार िै।

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हििंदी साहित्य के इतििास लेखन की परिंपरा का पररचय

जीवन पर्यतं शिक्षक संस्थान , दिल्ली ववश्वववद्र्यालर्य

साहित्य के इतििासकार और उनके ग्रन्र्

दिन्िी सादित्र्य के मुख्र्य इततिासकार और उनके ग्रन्थ तनम्नानुसार िैं -

1. गासाण ि तासी : इस्तवार ि ला शलतेरात्र्यूर ऐंिईु ऐंिसु्तानी (फ्रें च भाषा में; फ्रें च ववद्वान,

दिन्िी सादित्र्य के पिले इततिासकार)

2. शिवशसिं सेंगर : शिव शसिं सरोज

3. जाजण िग्रर्यसणन : ि मॉडनण वनेक्र्यूलर शलरैचर आफ दििंोस्तान

4. शमश्र बंध ु: शमश्र बंध ुववनोि

5. रामचदं्र िुक्ल : दिन्िी सादित्र्य का इततिास

6. िजारी प्रसाि द्वववेिी : दिन्िी सादित्र्य की भूशमका; दिन्िी सादित्र्य का आदिकाल; दिन्िी सादित्र्य :उद्भव और ववकास

7. रामकुमार वमाण : दिन्िी सादित्र्य का आलोचनात्मक इततिास

8. डॉ धीरेन्द्र वमाण : दिन्िी सादित्र्य

9. डॉ नगेन्द्र : दिन्िी सादित्र्य का इततिास; दिन्िी वांड्मर्य 20वीं िती

10. रामस्वरूप चतुवेिी : दिन्िी सादित्र्य और संवेिना का ववकास, लोकभारती प्रकािन,

इलािाबाि, 1986

11. ब्चन शसिं : दिन्िी सादित्र्य का िसूरा इततिास , राधाकृष्र् प्रकािन, नई दिल्ली,

सिंदभथ ग्रिंर्

1. िकु्ल, रामचदं्र(दििंी सादित्र्य का इततिास) नागरी प्रचाररर्ी सभा, कािी सवंत ्2038वव. 2. द्वववेिी, िजारीप्रसाि(दििंी सादित्र्य की भशूमका) राजकमल प्रकािन, दिल्लीससं्करर् 2008

3. द्वववेिी, िजारीप्रसाि(दििंी सादित्र्यः उिभव और ववकास)राजकमल प्रकािन, दिल्लीससं्करर् 2009

4. द्वववेिी, िजारीप्रसाि(दििंी सादित्र्य का आदिकाल) बबिार राष्ट्भाषा पररषद् पटना 5. बत्रपाठी, ववश्वनाथ (दििंी सादित्र्य का सरल इततिास) ंररर्यटं ब्लकैस्वॉन, दिल्ली स.ं 2010