तमस के पार श्री राजन स्वामी ·...

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  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 11 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    तमस के पारलेखक

    श्री राजन स्वामी

    प्रकाशक

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठनकुड़ रोड, सरसावा, सहारनपुर, उ.प्र.

    www.spjin.org

    सवा%धि'कार सुरधि(त © २०१४, श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्टपी.डी.एफ. ससं्करण – २०१९

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 22 / 371/ 371

    http://www.spjin.org/

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    प्राक्कथन

    'मा%नुरागी सज्जनवृन्द!

    सृष्टि= के प्रारम्भ से ही मनीष्टि@यों में यह जानने कीप्रबल जिजज्ञासा रही है ष्टिक मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ,देह और गेह को छोड़ने के पश्चात् मुझे कहाँ जाना है?सधिSदानन्द परब्रह्म कौन हैं , कहाँ हैं, कैसे हैं, तथाउनकी प्राष्टिV का सा'न क्या ह?ै

    इन्हीं ष्टिव@यों को केन्द्र में रखते हुए ष्टिवगत कुछ व@[पूव% लखनऊ में एक आध्यात्मि_मक शिशष्टिवर का आयोजनष्टिकया गया था।

    श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ (सरसावा) से प'ारे हुए श्रीराजन स्वामी जी का इन्हीं ष्टिव@यों पर प्रवचन हुआ था।प्रवचन का शुभारम्भ 'म% की ष्टिवशद व्याख्या के साथ

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 33 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    प्रारम्भ हुआ, जो श्रोताओं के हृदय को छू गया।

    यद्यष्टिप उस सम्पूण% काय%क्रम की DVD तथा 3MP3उपलब्' थी, तथाष्टिप ऐसा लगा ष्टिक यष्टिद इस प्रवचन कोलिललिखत रूप में भी उपलब्' कराया जाये , तो जन-सामान्य के लिलए अधि'क उपयोगी हो सकता ह।ै

    इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ज्ञानपीठ केष्टिवद्याथs कण% जी ने उस प्रवचन शँृ्रखला को लिललिखत रूपमें प्रस्ततु ष्टिकया, जो "तमस के पार" नामक ग्रन्थ के रूपमें आपके सम्मुख प्रस्तुत ह।ै

    आशा ह,ै प्रस्ततु ग्रन्थ आपको रुधिचकर लगेगा तथाआध्यात्मि_मक तथ्यों को अधित सरल रूप में समझाने मेंसहायक हो सकेगा।

    प्रमादवश हुई भूल-चूक को (मा करते हुए अपने

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    ष्टिवचारों से हमें अवगत कराने का क= करें , जिजससे बादके प्रकाशनों को परिरमाजिज%त ष्टिकया जा सके।

    आपका शुभाकां(ी

    सद्गरुु प्रसाद आय%

    भूतपूव% आई.ए.एस. (सेवाष्टिनवृत्त)

    पूव% सधिचव, भारत सरकार

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    अनुक्रमशिणका1 'म% का स्वरूप 7

    2 अलकंार व्याख्या 69

    3 परब्रह्म कहाँ ह?ै 136

    4 परब्रह्म का स्वरूप कैसा ह?ै 2175 परब्रह्म के सा(ा_कार का माग% क्या

    ह?ै280

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    प्रथम अध्याय

    'म% का स्वरूप

    यो भूत ंच भव्यं च सव यश्चाधि'धितष्ठधित।

    स्वय%स्य च केवल ंतस्म ैज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।

    अथव%वेद का. १० सू. ८ मं. १

    जो कुछ हुआ ह,ै जो कुछ होगा, जो अपनी सत्ता सेसब पर अधि'ष्टिष्ठत ह,ै जो स्वरूप से आनन्दमय ह,ै उससधिSदानन्द परब्रह्म को प्रणाम ह।ै

    प्राणा'ार सुन्दरसाथ जी एवं 'म% की स्वर्णिणम राहपर गमन का प्रयास करने वाले 'म%प्रेमी सज्जनों! अब हम'म%-चचा% करते हैं ष्टिक 'म% क्या है और हम 'म% को क्योंग्रहण करें? क्या आज का ष्टिवज्ञान हमें इतनी सुख-सुष्टिव'ायें नहीं दे सकता ष्टिक हमें 'म% की शरण लेने की

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    आवश्यकता पडे़?

    जब हम मत्मिन्दर में देखते हैं तो भीड़, कुम्भ के मेलेमें देखते हैं तो भीड़, मत्मिस्जदों में देखते हैं तो भीड़। इसीप्रकार हम गरुुद्वारों में लाखों लोगों को देखते हैं। जनैमत, बौद्ध मत के सम्मेलनों में जब लाखों की भीड़ कोदेखते हैं, तो प्रश्न होता है ष्टिक क्या ये सभी लोग 'ार्मिमकहैं? क्या ष्टिकसी कम%काण्ड ष्टिवशे@ को करना ही 'ार्मिमकताह?ै कोई यज्ञ होता है, लाखों लोग उसमें इकट्ठे होते हैं।कहीं चचा% और स_संग होता है , उसमें भी लाखों लोगोंकी भीड़ इकट्ठी होती ह।ै सबकी अलग-अलग वेश-भू@ाह।ै ष्टिहन्द ूसमाज में एक हजार के लगभग मत हैं।

    इनकी भी वेश-भू@ा अलग-अलग ह।ै ष्टिक्रधिश्चयन कीअलग वे@-भू@ा ह,ै जनै और अन्य अलग-अलग मत-मतान्तरों की अलग वेश-भू@ा ह।ै संसार में अधि'कतर

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    लोग दावा करते हैं ष्टिक मैं 'ार्मिमक हूँ , लेष्टिकन "'म% क्याह"ै? यह गहन रहस्य ह।ै

    व्यास जी ने कहा है ष्टिक मैं दोनों भुजायें उठाकरकह रहा हूँ ष्टिक 'म% ही सारे ब्रह्माण्ड को 'ारण करनेवाला ह,ै लेष्टिकन मेरी बात को सुनने वाला कोई भी नहींह।ै मैं कहता हूँ ष्टिक "'म% से ही अथ% होता है, 'म% से हीकाम होता ह,ै 'म% से ही मो( होता है", लेष्टिकन संसारमेरी पुकार को सुनने के लिलये राजी नहीं ह।ै 'म% कीआवश्यकता क्यों है? यह गहन ष्टिव@य ह।ै एक बात हमेंध्यान में रखनी होगी ष्टिक जब सृष्टि= नहीं थी तब भी 'म%था, और जब सृष्टि= नहीं रहेगी तब भी 'म% होगा। 'म%ष्टिकसी पूजा-पद्धधित या कम%काण्ड को नहीं कहते हैं।ष्टिकसी वे@-भू@ा के 'ारण करने से कोई 'ार्मिमक नहीं होसकता।

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    'म% की महानता हमें उस समय समझ में आती है ,जब मानवता ष्टिवनाश की कगार पर पहुँच जाती ह।ैसामान्य रूप से तो लोग यही सोचते हैं ष्टिक 'म% की क्याजरूरत ह?ै यह सभी की भूल ह।ै 'म% से रष्टिहत कोई भीमानव बन ही नहीं सकता, वह पशतुा का शिशकार होजायेगा।

    कल्पना कीजिजए ष्टिक यष्टिद हर व्यष्टि चोरी करने लगे,हर व्यष्टि झूठ बोलने लगे, हर व्यष्टि की 'ीरता समाVहो जाये, तो क्या यह सृष्टि= रहेगी? जब सृष्टि= नहीं थी तबभी 'म% था, और जब सृष्टि= नहीं रहेगी तब भी 'म% रहेगा।स_य अनाष्टिद है , परमा_मा अनाष्टिद है , 'म% अनाष्टिद ह।ै'म% ष्टिकसी पूजा-पाठ को नहीं कहते।

    महाभारत का यदु्ध होता ह।ै उसमें अट्ठारहअ(ौष्टिहणी सेना मारी जाती ह।ै अट्ठारह अ(ौष्टिहणी सेना

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    में सैंतालिलस लाख, तेईस हजार, नौ सौ बीस सैष्टिनकहोते हैं, इतने मारे गये। कौरव प( में तीन बचे -अश्व_थामा, कृपाचाय%, और कृतवमा%। पाण्डव वग% में श्रीकृष्ण बचे और पाँच पाण्डव बचे, शे@ कोई नहीं बचा।यष्टिद दयु'न मान जाता ष्टिक मैं पाँच गाँव दे द ूँगा, तो यहभयानक यदु्ध नहीं होता।

    महाभारत का यदु्ध क्यों हुआ? 'म% की मया%दाओंके उल्लंघन के कारण। सच बात तो यह है ष्टिक भीष्मष्टिपतामह ने 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया। यष्टिद भीष्मष्टिपतामह 'म% की मया%दा का पालन करते और कह देतेष्टिक जुआ ष्टिकसी भी कीमत पर नहीं होगा , पाण्डवों कोवनवास नहीं भेजा जायेगा, तथा द्रोपदी का चीर-हरणनहीं ष्टिकया जायेगा, और वह खडे़ हो जाते। उनके साथद्रोणाचाय% खडे़ हो जाते, ष्टिवदरु जी, कृपाचाय% जी खडे़ हो

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    जाते, तो दयुा'न क्या कर लेता या 'तृरा=्र क्या करलेते? लेष्टिकन सैंतालिलस लाख, तेईस हजार, नौ सौ बीसप्राशिणयों की ह_या क्यों हुई ? क्योंष्टिक इन सभी महानपुरु@ों द्वारा 'म% की मया%दा का उल्लंघन ष्टिकया गया।

    द्रोणाचाय% ने उल्लघनं ष्टिकया। यष्टिद द्रोणाचाय% कह देतेष्टिक नहीं, द्रोपदी का चीर-हरण ष्टिकसी भी कीमत पर नहींहोगा। मैं दोनों प(ों का गुरु हूँ , कोई भी व्यष्टि मेरे रहतेजुआ नहीं खेल सकता। यष्टिद कृपाचाय% जी ने भी ऐसाष्टिकया होता, तो सम्भवतः यदु्ध रुक सकता था।

    कहीं न कहीं योगेश्वर श्री कृष्ण जी भी दो@ी थे ,क्योंष्टिक योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने एक ओर अजु%न का रथहाँका, तो दसूरी ओर दयु'न को अपनी नारायणी सेनादे दी। आलिखर उस अन्यायी को नारायणी सेना देने कीक्या जरूरत थी? यष्टिद अजु%न को अपना योग-ऐश्वय%

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    ष्टिदखाकर सम्मोष्टिहत ष्टिकया, उपदेश ष्टिदया, तो वहींदयु'न को भी क्यों नहीं सम्मोष्टिहत कर लिलया? दयु'नको भी क्यों नहीं ष्टिदखाया? यष्टिद दयु'न इतना ही द=ुथा, तो जब भीष्म ष्टिपतामह को मारने के लिलये अपनाचक्र उठा सकते हैं, तो वही चक्र दयु'न को मारने केलिलये क्यों नहीं उठाया? यष्टिद दयु'न को उसी ष्टिदन मारदेते, तो शायद महाभारत का यदु्ध नहीं होता।

    कुन्ती से भी गुनाह हुआ क्योंष्टिक यष्टिद कुन्ती यहकह देती ष्टिक कण% मेरा बेटा है, तो शायद महाभारत कायदु्ध नहीं होता। अजु%न कण% के चरणों में लिलपट जाते औरष्टिकसी भी त्मिस्थधित में महाभारत का यदु्ध नहीं होता।

    हर महापुरु@ से थोड़ी-थोड़ी भूल हो रही ह।ै कुन्तीसे अलग हो रही है, शल्य से अलग हो रही है, कृपाचाय%से अलग हो रही है, और 'ृतरा=्र से तो हो ही रही ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1313 / 371/ 371

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    'ृतरा=्र तो मूल में थे। उनको पुत्र-मोह ने घेर रखा था।इन ष्टिवशिश= व्यष्टियों द्वारा 'म% की अवहेलना के कारणलाखों लोगों का संहार हुआ।

    इसी तरह से संसार में चलता रहता ह।ै नये-नयेवाद खडे़ होते रहते हैं। चाहे माक्स%वाद हो, चाहेमाओवाद हो, अपनी-अपनी ष्टिवचार'ाराओं को फैलानेके लिलये लाखों का क_ल कराया गया। जिजहाद के नामपर आज भी ऐसा ही हो रहा ह।ै सारे संसार में जोआतकंवाद फैल रहा है, वह 'म% की मया%दा काअधितक्रमण ह।ै जिजस ष्टिकसी भी व्यष्टि को 'म% केवास्तष्टिवक स्वरूप का बो' हो जायेगा, वह ष्टिकसी भीप्राणी को मन, वाणी, और कम% से पीड़ा नहीं देनाचाहेगा।

    जहाँ 'म% है, वहाँ सुख और शात्मिन्त ह।ै 'म% के नाम

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1414 / 371/ 371

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    पर लड़ाई नहीं होनी चाष्टिहये। मत के नाम पर लड़ाई होसकती ह,ै ष्टिकसी वाद के नाम पर लड़ाई हो सकती है,ष्टिकन्तु 'म% में प्राणी को मारने या पीड़ा देने का प्रश्न हीनहीं होता।

    हम ष्टिकसी मत्मिन्दर में जाते हैं। वहाँ कोई ष्टिवकृधितदेखते हैं, तो कहते हैं ष्टिक यह 'म% नहीं है, यह अ'म% ह।ैप्रश्न यह होता है ष्टिक 'ार्मिमक स्थानों में ष्टिवकृधित क्योंआई? 'ार्मिमक स्थान, जहाँ पूजा-पाठ होते हैं, जहाँपरमा_मा की आरा'ना होती है, वहाँ ष्टिवकृधितयाँ क्योंदेखने को ष्टिमलती हैं? सच यह है ष्टिक वहाँ कम%काण्ड भरहोता ह,ै 'म% का पालन नहीं होता। 'म% तो 'ारण करनेकी वस्तु ह।ै

    यतोऽभ्यदुयः ष्टिनःशे्रयसः जिसधिद्धः स 'म%ः।

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    वैशेष्टि@क दश%न १/१/२

    'म% ष्टिकसको कहते हैं? जिजससे प्रजा का कल्याणहो और अन्ततोग_वा मो( की प्राष्टिV हो, उसको कहते हैं'म%।

    'म%शास्त्र में 'म% के दस ल(ण बताये गये हैं-

    १. 'ृधित ('यै%)

    २. (मा

    ३. दम (इत्मिन्द्रयों का दमन करना)

    ४. अस्तेय (चोरी न करना)

    ५. शौच (आन्तरिरक और बाह्य पष्टिवत्रता)

    ६. इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह

    ७. शुद्ध बुधिद्ध

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    ८. ष्टिवद्या

    ९. स_य (मन, वाणी, और कम% से स_य का आचरणकरना)

    १०. क्रो' न करना

    'ृधितः (मा दमोऽस्तेयं शौचं इत्मिन्द्रय ष्टिनग्रहः।

    'ीः ष्टिवद्या स_यमक्रो'ो दशकं 'म% ल(णम्।।

    मनुस्मृधित ६/९२

    'म% के ये ल(ण हैं। यष्टिद ष्टिकसी व्यष्टि में ये ल(ण नहींहैं, तो वह 'ार्मिमक नहीं ह।ै अब हम इन दसों ल(णों कीव्याख्या करते हैं-

    'यै%

    'यै%शाली ष्टिकसको कहते हैं? सूरज उगता है लाल

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1717 / 371/ 371

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    रगं का, डूबता है तो लाल रगं का। लेष्टिकन कभी ऐसानहीं होता ष्टिक उगते समय ष्टिकसी और रगं का है औरडूबते समय ष्टिकसी और रगं का ह।ै

    समः शत्रौ च ष्टिमते्र च तथा मानपमानयोः।

    गीता १२/१८

    सुख हो, दखु हो, लाभ हो, हाष्टिन हो , जय हो,पराजय हो, सबमें जो एक सम_व भाव को लिलये रहता है,वह 'यै%शाली ह।ै मया%दा पुरु@ोत्तम राम को कहा गया ष्टिककल आपका राजधितलक ष्टिकया जायेगा, ष्टिकन्तु सवेराहोने से पहले ही आदेश दे ष्टिदया गया ष्टिक राजधितलक तोनहीं होगा, आपको चौदह व@[ के लिलये वन जाना पडे़गा।

    जब राजसिंसहासन देने की बात कही गई थी तो रामका चेहरा लिखललिखलाया नहीं था, और जब वन जाने की

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1818 / 371/ 371

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    बात कही गई थी तो उनके चेहरे पर जरा भी उदासीनहीं थी। इसको कहते हैं 'यै%।

    सुख और दखु का भोा हर प्राणी को होना पड़ताह।ै जो व्यष्टि सुखों को पाकर उच्छृङ्खल हो जाते हैं, भूलजाते हैं उस सव%शष्टिमान की सत्ता को, वे 'यै% से रष्टिहतकहे जाते हैं, और जो दखुों में अ'ीर हो जाते हैं, वे भी'यै% से रष्टिहत कहे जाते हैं। 'ीरता का जिजसमें गुण हो, जोसमझ ले ष्टिक ष्टिदन के बाद राष्टित्र और राष्टित्र के बाद ष्टिदनका चक्र चलता रहता है, उसको कहते हैं 'यै%वान्।

    (मा

    आप देलिखये, पृथ्वी पर पदैा होने वाले अन्न को हमग्रहण करते हैं, फल को हम ग्रहण करते हैं और बदले मेंहम क्या देते हैं? मल-मूत्र। पथृ्वी ष्टिकतनी (माशील है,

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 1919 / 371/ 371

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    वृ( ष्टिकतना (माशील ह।ै एक मनुष्य को आप अपशब्दकह दीजिजये, जिजन्दगी भर याद रखेगा, और वृ( पर हमप_थर मारते हैं, बदले में वह हमें क्या देता ह ैमीठा फल।यह (माशीलता मनुष्य को 'ार्मिमक बनाती ह।ै जिजसकेपास (मा का गुण नहीं है, वह कभी भी महान नहीं होसकता।

    सव%शष्टिमान परमा_मा ष्टिकतना (माशील ह।ै व@ा% होगई, लाभ हो गया, तो ष्टिकसान कहेगा, ष्टिकतना अच्छा हैपरमा_मा। यष्टिद नुकसान हो गया , तो जली-कटीसुनायेगा, कैसा है परमा_मा, हमारी फसल बबा%द करदी। वह परमा_मा सव%शष्टिमान है, लेष्टिकन एक भी शब्दनहीं बोलता ष्टिक मेरे बन्दे! तू मेरी कृपा से जिजन्दा है औरमुझको ही अपशब्द बोल रहा है, मैं तुम्हारा नाश करदूँगा। पर नहीं, वह दया का सागर ह,ै (मा का सागर ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2020 / 371/ 371

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    जिजस मनुष्य में (मा का गुण है, वही 'ार्मिमक कहलाने काअधि'कारी ह।ै

    दमन

    संसार में इत्मिन्द्रयों की उच्छृङ्खलता सारे क=ों काकारण ह।ै एक व्यष्टि है जो अपनी इत्मिन्द्रयों पर ष्टिनयन्त्रणनहीं रखता, तो परिरणाम क्या होता है? बहुत अधि'कदौलत जोड़ता ह।ै पड़ोसी भूखा मर रहा है और उसकेयहाँ छप्पन प्रकार का भोजन बन रहा है, ष्टिफर भीउसकी तृष्णायें शान्त नहीं हो रही हैं। हम इन आँखों सेसुन्दर रूप देखकर मोष्टिहत हो रहे हैं। कानों से म'ुरआवाज सुनकर मोष्टिहत हो रहे हैं। नाजिसका से सुगत्मिन्'लेकर मोष्टिहत हो रहे हैं। _वचा से कोमल स्पश% पाकरमोष्टिहत हो रहे हैं। जिजह्वा से @ट् रसों का सेवन करकेमोष्टिहत हो रहे हैं।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2121 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    हम सोच रहे हैं ष्टिक हम 'ार्मिमक हैं। ऐसा नहीं ह।ैहमने तो अपने को काल के गाल में डाल रखा ह।ै मछलीजिजह्वा के वशीभूत होकर अपने जीवन को गवाँ दतेी ह।ैहाथी हशिथनी के स्पश% को पाने के लिलये पागल हो जाताह।ै हाथी को पकड़ने के लिलये शिशकारी क्या करते हैं?गड्ढा खोद देते हैं, काले रगं के कागज से एक हशिथनी बनादेते हैं। दरू से देखने पर ऐसा लगता है, जसेै वहाँ हशिथनीही खड़ी ह।ै हाथी उसका आलिंलगन करने के लिलये जाताह,ै गड्ढे में ष्टिगर जाता है और शिशकारिरयों के हाथ में अपनेआपको सौंप देता ह।ै यह है स्पश% के वशीभूत होने काफल।

    ष्टिहरण कान के वशीभूत हो जाता ह।ै जब शिशकारीम'ुर आवाज बजाता है, तो ष्टिहरण अपनी सु'-बु' खोदेता है और पकड़ा जाता ह।ै पतङ्ग रूप पर मारा जाता

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2222 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    ह।ै जहाँ दीपक जला नहीं, अपना सब कुछ छोड़कर उसपर कूद पड़ता ह।ै एक-एक इत्मिन्द्रय के वशीभूत होने सेये प्राणी काल के गाल में समा जाते हैं या बन्'न में पड़जाते हैं। मनुष्य तो पाँचों इत्मिन्द्रयों से पाँचों इत्मिन्द्रयों काभोग कर रहा ह।ै उपष्टिन@द् में कहा है-

    परांधिच खाष्टिन व्यतणृ_स्वयम्भसू्तस्मा_पराङ् पश्यधित नान्तरा_मन्।

    कधिश्चद्धीरः प्र_यगा_मानय(ैदावृत्तच(ुरमृत_वष्टिमच्छन्।।

    कठोपष्टिन@द् ४/१

    परमा_मा ने पाँच इत्मिन्द्रयाँ बनाई हैं। कोई 'यै%शालीपुरु@ ही इन इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@यों की तरफ नहीं भटकता।अमृत की इच्छा करने वाला कोई 'ीर पुरु@ ही अपनेअन्दर उस शाश्वत स_य को पाना चाहता ह।ै वह बाहरनहीं भागता, इन पाँच ष्टिव@यों के पीछे। जिजसने इनका

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2323 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    दमन कर लिलया, ष्टिक नहीं ये सब (शिणक है , वही'यै%शाली ह।ै

    आग में घी डालना शुरु कर दीजिजये या एक चम्मचपेट्र ोल लेकर डालना शुरु कर दीजिजये, आग बुझेगी नहीं?और बढ़ जाएगी। जिजतना हम भोगते जायेंगे, उतनी हीतृष्णा बढ़ती जायेगी।

    माँस खाने वालों से पूशिछये। एक व्यष्टि मरने लगा,उसने जिजन्दगी भर माँस खाया था। उससे पूछा, अबतुम्हारी क्या इच्छा है? उसने कहा, अब तो मैं मरने हीवाला हूँ, मुझे माँस लिखला दीजिजये। जिजन्दगी भर माँसखाते रष्टिहये, कभी भी इच्छा पूरी नहीं हो सकती, औरयही तृष्णा चौरासी लाख योष्टिनयों के रूप में दःुख काकारण बनती ह।ै

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2424 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    यष्टिद आपमें इत्मिन्द्रयों के ष्टिव@यों का दमन करने कीप्रवलित्त नहीं है , तो आप 'ार्मिमक कहलाने के अधि'कारीनही हैं। चाहे आपकी वेश-भू@ा कैसी हो, चाहे आपनेभगवे वस्त्र 'ारण कर रखे हों, ष्टिवशिभन्न प्रकार के धितलकलगा रखे हों, मालायें 'ारण कर रखी हों , पूजा-पाठकरते हों, ग्रन्थों का ज्ञान रखते हों, ये सब कुछ बाह्यचीजें हो जायेंगी। 'म% के स्वरूप को कोई ष्टिवरला हीजानता ह।ै 'म%ग्रन्थों का कथन है-

    'म%स्य त_वं ष्टिनष्टिहत ंगुहायाम्। महाभारत (भीष्म पव%)

    'म% का परमत_व गहुा में त्मिस्थत ह।ै गुहा क्या है ?जिजसमें ब्रह्म का सा(ा_कार होता ह।ै आपने पौराशिणकरूप से भगवान शिशव का फोटो देखा होगा। भगवान शिशवको ष्टिकस पर बठैाया गया है? बलै पर। बलै क्या है? 'म%का प्रतीक ह।ै बलै के चार परै होते हैं। चार चरणों वाला

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2525 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    बलै है और उसके ऊपर भगवान शिशव की सवारी बताईगई ह।ै शिशव क्या है? कल्याण स्वरूप परमा_मा ही शिशवह।ै उनका डमरू और ष्टित्रशूल क्या है? उनका ष्टित्रशूलस_व, रज, और तम की ष्टित्रगुणात्मि_मका प्रकृधित है, औरष्टित्रशूल से बन्'ा हुआ डमरू है जिजससे आवाज ष्टिनकलतीह।ै पौराशिणक मान्यता है ष्टिक भगवान शिशव के डमरू सेअ=ाध्यायी के चौदह सूत्र ष्टिनकले, जिजससे सारा व्याकरणबना ह।ै याष्टिन प्रकृधित से पदैा होने वाले इस महत्त_व सेसारा संसार पदैा हुआ ह,ै सारा ज्ञान-ष्टिवज्ञान उससेष्टिनकलता ह।ै

    यह आलकंारिरक वण%न ह।ै ऐसा न समजिझए ष्टिक आपतो कारों में घूमते हैं और आपने परमा_मा को बठैा ष्टिदयाएक बलै पर। आज कोई व्यष्टि बलै पर बठैकर घूमे, तोसब लोग क्या समझेंगे? कोई वनवासी, अनपढ़ आदमी

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2626 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    घूम रहा ह।ै परमा_मा बलै पर नहीं बठैता। वह तो 'म%रूपी बलै पर ष्टिवराजमान ह।ै उसके चार चरण हैं-

    शु्रधितः स्मृधितः सदाचारः स्वस्य च ष्टिप्रया_मनः।

    एतद् चतुर्मिव' ंप्राहुः सा(ाद् 'म%स्य ल(णम्।।

    मनुस्मृधित २/१२

    शु्रधित का कथन हो , स्मृधित अथा%त् 'म%शास्त्र काकथन हो, सदाचार हो, और अन्तरा_मा की आवाज। इनचारों से परी(ा की जाती ह ैष्टिक 'म% क्या ह।ै

    अ'म% क्या है ? अभी 'म% केे दस ल(णों कीव्याख्या चल रही ह।ै

    अस्तेय

    अस्तेय का अथ% ह ैचोरी न करना। कोई भी सरकारआती ह,ै तो क्या कहती है ष्टिक हम गरीबी ष्टिमटायेंगे, हम

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2727 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    गरीबी ष्टिमटायेंगे। गरीबी क्यों नहीं ष्टिमटा पाते। इसलिलयेक्योंष्टिक ष्टिमटाने वाला और जिजसकी गरीबी ष्टिमटाने कीबात की जाती ह,ै ये दोनों ही चोर हैं। चाहे अधि'कारी हो,चाहे नेता हो, चाहे सा'ारण सब्जी बेचने वाला हो, द'ूबेचने वाला हो, रिरक्शा चलाने वाला हो, सभी चोरीकरते हैं। योगदश%न का कथन है-

    अस्तेयप्रधितष्ठायां सव%र_नोपस्थानम्।

    योग दश%न २/३९

    यष्टिद मनुष्य चोरी के कम[ का परिर_याग कर दे , तोसभी र_नों की प्राष्टिV उसको स्वतः ही हो जायेगी। भारत,पाष्टिकस्तान, और इण्डोनेशिशया का नाम दषु्टिनया के सबसेभ्र= देशों में आता ह।ै जिजस ष्टिदन इन देशों के लोग चोरीकरना बन्द कर देंगे, उस ष्टिदन इन देशों में कोई भी व्यष्टि

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2828 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    गरीब नहीं रहेगा। भारतीय संस्कृधित क्या कहती ह?ै

    मातृवत् परदार@ुे परद्रव्ये@ु लोष्ठवत्।

    आ_मवत् सव%भूते@ु यः पश्यधित सः पत्मिण्डतः।।

    जो परस्त्री को माता के समान देखता है और दसूरेके 'न को ष्टिमट्टी के समान समझता है, ष्टिनधिश्चत रूप सेवही 'ार्मिमक कहलाता ह।ै

    शौच

    शौच का अशिभप्राय है आन्तरिरक और बाह्यपष्टिवत्रता। आप शरीर को खूब नहला लीजिजये। यष्टिद मनपष्टिवत्र नहीं है , तो इसे नहलाने से क्या लाभ? सांईबुल्लेशाह ने एक बहुत अच्छा पद गाया ह-ै

    मक्का गये गल मुष्टि नाहीं, जो सौ-सौ जुम्मे पढ़ आइये।

    गंगा गये गल मुष्टि नाहीं, जो सौ-सौ डुबकी लगाइये।प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 2929 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    गया गये गल मुष्टि नाहीं, जो सौ-सौ ष्टिपण्ड चढ़ाइये।।

    यष्टिद आपका हृदय पष्टिवत्र नहीं है , तो आप मक्का मेंजाकर नमाज भी पढ़ लेंगे, तो क्या होगा? गंगा में जाकरस्नान भी कर लेंगे, तो क्या ष्टिमलेगा? शरीर को शुद्ध करसकते हैं, हृदय को नहीं। 'म%शास्त्र में कहा गया है-

    अष्टिगा%त्राशिण शुद्धयत्मिन्त, मनः स_येन शुद्धयधित।

    ष्टिवद्यातपोभ्यां भूता_मा, बुधिद्धज्ञा%नेन शुद्धयधित।।

    मनुस्मृधित ५/१०६

    जल से शरीर शुद्ध होता ह।ै स_य का आचरण करनेसे मन शुद्ध होता ह।ै ष्टिवद्या और तप से जीव ष्टिनम%ल होताह,ै और ज्ञान द्वारा बुधिद्ध शुद्ध होती ह।ै

    यष्टिद आपके अन्तःकरण में परमा_मा का ज्ञान नहींह,ै तो आप नष्टिदयों में स्नान करते ष्टिफरिरये, कभी भी मो(

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3030 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    की प्राष्टिV होने वाली नहीं ह।ै एक धितशिथ घोष्टि@त कर दीजाती है ष्टिक इस ष्टिदन जो नहा लेगा, सी'े मो( को प्राVहोगा।

    यष्टिद स्नान मात्र से मो( प्राV हो जाये , तो वेद-शास्त्र के अवतरण की क्या आवश्यकता है? ष्टिफर पढ़ने-लिलखने की क्या जरूरत है? आँखें बन्द कर ध्यान-समाधि' लगाने की क्या जरूरत है? और यष्टिद इसी सेमुष्टि ष्टिमलती है , तो ष्टिफर उसमें रहने वाले सीपों ,मछलिलयों, घोंघों सबको मुष्टि ष्टिमल जानी चाष्टिहए। ष्टिफरतो ऋष्टि@-मुष्टिन पागल थे। इस त्मिस्थधित में तो ऋष्टि@ -मुष्टिनयों की साथ%कता ही नहीं होती। वस्ततुः यह ष्टिवकृधितह,ै 'म% नहीं। ज्ञान रूपी गंगा में स्नान ष्टिकये ष्टिबना ष्टिकसीको भी मुष्टि ष्टिमलने वाली नही ह।ै

    ऋते ज्ञानात् न मुष्टिः।

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3131 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता, सा(ा_कार नहींहोता, तब तक कोई भी भवसागर से पार नहीं होसकता, यह वेदान्त का स्प= कथन ह।ै संसार के सभी'म%ग्रन्थों का आशय यह है ष्टिक 'म% का अत्मिन्तम लक्ष्य हैहृदय की पष्टिवत्रता। जब तक हृदय को पष्टिवत्र नहीं बनासकते, तब तक ष्टिप्रयतम परब्रह्म आपके हृदय सिंसहासनपर कभी भी ष्टिवराजमान नहीं हो सकते, चाहे आप ष्टिकतनेभी कम%काण्ड करते रष्टिहये। चाहे आप सौ-सौ मालायेंफेरते रष्टिहए।

    सौ माला वाओ गले में, द्वादस करो दस बेर।

    जो लों प्रेम न उपजे ष्टिपउ सों, तो लों मन न छोडे़ फेर।।

    श्री प्राणनाथ वाणी - ष्टिकरन्तन १४/५

    सारे संसार में यही चल रहा ह।ै 'ार्मिमक स्थानों पर

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3232 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    लाखों लोगों की भीड़ ष्टिदखाई दतेी है, लेष्टिकन सच यह हैष्टिक क्या उन्होंने ष्टिदल को पष्टिवत्रता के उस चरम परपहँुचाया ह,ै जिजस पर परब्रह्म का सिंसहासन बन सके?

    यष्टिद आपके हृदय में काम, क्रो', लोभ, मोह, मद,अहकंार की अष्टि° जल रही है, तो उस कीचड़ में परब्रह्मके चरण-कमल नहीं पड़ेंगे और यही 'म% का पाँचवाल(ण ह-ै शौच अथा%त् आन्तरिरक पष्टिवत्रता।

    बारह साल पहले जब कुम्भ लगा था, उसमें यहीहुआ था। गंगा में नहाने के नाम पर नागा महा_माओं मेंऔर पुलिलस में झड़प हो गई थी। पुलिलस वालों ने उननागाओं को गोली मारी और उन नागाओं ने पुलिलसवालोंको मार-मारकर गंगा में फेक ष्टिदया था। यह क्या है?क्या इसी को 'म% कहते हैं? आप एक ष्टिदन के बाद भीतो नहा सकते हैं। लेष्टिकन नहीं, हमें अभी नहाना ह।ै क्या

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3333 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    यह हमारा 'म% कहता है? यह 'म% नहीं कहता, यह मतकहता है और इसे मनोष्टिवकृधित कहते हैं। यह 'म% काआदेश नहीं ह।ै

    तीथ% ष्टिकसे कहते हैं?

    जनाः यःै तरत्मिन्त ताष्टिन तीथा%ष्टिन।

    मनुष्य जिजन शुभ कम[ द्वारा भवसागर से पार होताह,ै उसको तीथ% कहते हैं। स_य बोलना तीथ% है , तपकरना तीथ% है, स्वाध्याय करना तीथ% है, परमा_मा काध्यान करना तीथ% ह।ै आप ष्टिकसी जल में स्नान करनेमात्र को, ष्टिकसी पव%त की परिरक्रमा करने मात्र को, तीथ%मान लेते हैं, वही सबसे बड़ी भूल ह।ै

    इत्मिन्द्रयों का ष्टिनग्रह

    शम और दम दोनों अलग-अलग हैं, लेष्टिकन दोनों

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3434 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    एक-दसूरे के पूरक हैं। एक व्यष्टि ने ष्टिनण%य ष्टिकया ष्टिकमुझे ष्टिमठाई नहीं खानी ह।ै उस व्यष्टि ने उस ष्टिमठाई कोकमरे में रख ष्टिदया। दसूरे कमरे में बठैा हुआ वह सोचरहा है ष्टिक उस कमरे में मेरी ष्टिमठाई रखी है, उसे खाऊँया न खाऊँ? मैंने तो सबको कह ष्टिदया ह ैष्टिक मुझे ष्टिमठाईनहीं खानी ह।ै रात-ष्टिदन उसी के बारे में सोचता रहताह।ै परिरणाम क्या होगा? देखेगा ष्टिक जब मकान में कोईनहीं है, तो शिछपकर खा लेगा, ष्टिफर सबको कह देगा ष्टिकमैं तो ष्टिमठाई नहीं खाता हूँ।

    क्रो' को दबायेंगे, तो दबा हुआ क्रो' एक ष्टिदनज्वालामुखी बनकर भड़केगा और फूटेगा, वैसे ही जसेैपृथ्वी के अन्दर दबी हुई अष्टि° जब ज्वालामुखी का रूपलेती है तो न जाने ष्टिकतनों को समाV कर देती ह।ै वैसेही दबी हुई वासनायें जब उभरती हैं , तो उनका रूप

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3535 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    बहुत भयानक होता ह।ै

    नीधितकारों का कथन है ष्टिक वासनाओं को दबाइयेनहीं। दमन नहीं शमन कीजिजए। इसको कहते हैं इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह। यह कैसे होगा? ष्टिववेक और ष्टिवचार से। मनीष्टि@योंका एक ही कथन है ष्टिक काम का दमन नहीं करो, कामका शमन करो। काम कहाँ से पदैा होता है, उस परध्यान दीजिजए।

    कामस्य बीजः संकल्पः सङ्कल्पादेव जायते।

    काम का बीज क्या है? संकल्प। मनुष्य अपनेसंकल्पों का बना होता ह।ै जिजसका हृदय अधितशय पष्टिवत्रह,ै उसके मन में दरु्मिवचार आते ही नहीं और वह ष्टिकसीभी ष्टिवकार से ग्रजिसत नहीं हो सकता।

    आपने ष्टिमठाई को रखा ह।ै दसूरे कमरे में बठेै हैं

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3636 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    और आपकी ष्टिववेक-शष्टि जाग्रत हो गई ष्टिक इसमें क्याह?ै इसमें थोड़ा सा घी पड़ा है, शक्कर पड़ी है, थोडे़ सेकुछ और स्वाष्टिद= पदाथ% ष्टिमले हैं, यही तो ह।ै (ण भर केस्वाद के पीछे मैं अपना व्रत भंग क्यों करँू ? आपनेष्टिववेक-शष्टि से अपने ष्टिवचारों को इतना शुद्ध कर लिलयाहै ष्टिक आपके सामने ष्टिमठाइयों का ढेर लगा है , लेष्टिकनआप जिजह्वा पर नहीं रख सकते।

    एक हलवाई को देलिखये। वह ष्टिदन भर ष्टिमठाइयों कोबनाता है लेष्टिकन उसकी जिजह्वा ललचाती नहीं है, क्योंष्टिकउसने ष्टिववेक शष्टि से जान लिलया है ष्टिक इसको बनाते-बनाते तो मेरी पूरी जिजन्दगी गुजर गई। इससे कभी भीतृष्णा की पूर्तित होने वाली नहीं ह।ै मनुष्य के साथ यहीभूल होती ह।ै वह सोचता है ष्टिक आज खाकर देख लेताहँू, कल नहीं खाऊँगा। कल ष्टिफर सोचता है ष्टिक आज

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3737 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    एक बार और खाकर देख लूँ। परसों ष्टिफर सोचता है ,आज एक बार ष्टिफर खाकर देख लूँ। यह बेचारा "एकबार" कभी समाV नहीं हो पाता , क्योंष्टिक वह इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह नहीं कर पाता।

    इत्मिन्द्रय-ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? मन से।

    मन का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? धिचत्त से।

    धिचत्त का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? बुधिद्ध से।

    बुधिद्ध का ष्टिनग्रह कहाँ से होगा? ज्ञान के प्रकाश सेऔर ष्टिववेक की शष्टि से।

    यष्टिद आपके अन्दर ज्ञान का प्रकाश है , तो बुधिद्धधिचत्त से कहेगी ष्टिक हे धिचत्त! तू अच्छे संस्कारों वाला बन।धिचत्त के बुरे संस्कार अपने आप दब जाएंगे और जसेैधिचत्त के संस्कार होंगे वैसे ही मन के ष्टिवचार होंगे और मन

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3838 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    तो इत्मिन्द्रयों का राजा ह।ै जिजसने मन को जीत लिलया ,उसने इत्मिन्द्रयों को जीत लिलया। ष्टिफर उसको पता ही नहींरहता ष्टिक मैं कहाँ हूँ। इसको एक छोटे से दृ=ान्त सेसमझाना चाहूँगा, जिजससे स्प= हो जायेगा ष्टिक मन कीपष्टिवत्रता क्या कुछ कराती ह।ै पौराशिणक मान्यता है-

    एक बार अजु%न को स्वग% में ले जाया गया। वहाँउव%शी ने बहुत अच्छा नृ_य ष्टिकया। राष्टित्र को उव%शीअजु%न के पास आती है, प्रणय ष्टिनवेदन करती ह।ै अजु%नकहते हैं ष्टिक हे माता! आपके चरणों में मेरा कोष्टिट-कोष्टिटप्रणाम ह।ै उव%शी को क्रो' आ गया और कहा ष्टिक अजु%न!मैं तुमसे प्रणय ष्टिनवेदन करने आई हूँ और तुम मुझे माताकह रहे हो। अजु%न कहता है ष्टिक हाँ माता! आप हमारेकुरुवन्श की माता हैं, इसलिलये मेरी माता हैं। अजु%न सेउव%शी पूछती हैं ष्टिक जब मैं नृ_य कर रही थी, तब तो तू

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 3939 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    मुझे गौर से देख रहा था। अजु%न बोला ष्टिक माते! मैं यहदेख रहा था ष्टिक यष्टिद माता कुन्ती भी आपकी तरहसुन्दर होती, तो मैं भी सुन्दर होता। मैं तो उसी रूप मेंआपको देख रहा था। यह है मन की पष्टिवत्रता। यष्टिदहमारा मन पष्टिवत्र ह,ै तो हम पणू%तया पष्टिवत्र हैं।

    आपने अपने मन को जीत लिलया, तो इत्मिन्द्रयों कोजीतने की कोई आवश्यकता नहीं पडे़गी। एक महा_माजी गुजर रहे थे। उन्होंने रास्ते में देखा ष्टिक हलवाईजलेष्टिबयाँ तल रहा ह।ै मन को काफी मना ष्टिकया ष्टिक रेमन! तू मत ललचा, लेष्टिकन मन नहीं माना। अन्त में ,उन्होंने टोकरी में मुँह डाल ष्टिदया। हाथ से भी जलेष्टिबयाँनहीं उठाई, बत्मिल्क सी'े अपने मुँह को उस टोकरी मेंडाल ष्टिदया। हलवाई को गुस्सा चढ़ा, उसने जो जलेबीतलने वाला कलछा होता है, उससे महा_मा जी को बहुत

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4040 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    मारा। सब लोग कहने लगे ष्टिक भाई! ये ष्टिवर महा_माष्टिदख रहे हैं, तमु्हें इतनी ष्टिनद%यता से नहीं पीटना चाष्टिहये।

    महा_मा जी बोले- नहीं-नहीं! हलवाई जी ने तोबहुत अच्छा ष्टिकया। मुझे जंगल में सा'ना करते-करतेइतने साल हो गये। ष्टिफर भी मेरा मन इस जलेबी के लिलयेइतना पागल हो रहा था। मैंने तो जानबूझकर अपने मुँहको इस टोकरी में डाला , ताष्टिक इस मन को अपनीकरनी की सजा ष्टिमल जाये।

    कल्पना कीजिजये ष्टिक धिचत्त में संस्कार भरा है ष्टिकजलेबी खाने को ष्टिमलनी चाष्टिहए और वह संस्कार जबप्रबल हो गया, तो मन के अन्दर वह आग भड़क उठी,अब जिजह्वा बेचारी क्या करे? यष्टिद मन पर ष्टिववेक-शष्टिका ष्टिनयन्त्रण ह,ै धिचत्त के अच्छे संस्कार काय% कर रहे हैं,तो आप हलवाई के पास ष्टिदन-रात बठेै रष्टिहये, आपके

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4141 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    हाथों में जलेबी का टोकरा होगा , ष्टिफर भी आप अपनीजिजह्वा पर जलेबी नहीं रख सकते। यह है 'म% का ल(णइत्मिन्द्रय ष्टिनग्रह।

    बुधिद्ध

    बुधिद्ध क्या ह?ै संसार में मनुष्य और पशु की वृलित्त मेंक्या अन्तर ह?ै पशु भी खाता-पीता और सोता है,मनुष्य भी खाता-पीता और सोता ह।ै मनुष्य की यहीष्टिवशे@ता है ष्टिक वह ष्टिववेकपूव%क ष्टिवचार कर सकता ह।ैमनुष्य यह जान सकता है ष्टिक मैं कौन हूँ? क्योंष्टिक जबमनुष्य जन्म लेता है, आँखें खोलता है, कुछ बड़ा होताह,ै ष्टिववेक-शष्टि जाग्रत होती है, तो उसके मन में प्रश्नहोते हैं-

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4242 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    कुतः आगतोऽत्मिस्म। ष्टिववेक चूड़ामशिण ५१

    अथा%त् मैं कहाँ से आया हूँ?

    कुत्र गष्टिमष्याष्टिम।

    अथा%त् कहाँ जाऊँगा?

    को नाम बन्'ः।

    मेरे लिलए बन्'न कहाँ से हो गया ष्टिक मैं माता के गभ%में इतने समय तक पड़ा रहा। न जाने ष्टिकतने जन्मों में मैंष्टिकस-ष्टिकस योष्टिन में भटका हूँ ? कभी गाय बना, कभीबलै बना, कभी हाथी बना, कभी बन्दर बना। मनुष्ययोष्टिन में कभी राजा बना, कभी कँगाल बना, कभी पुरु@बना, तो कभी स्त्री बना।

    आलिखर मैं कौन हूँ ? यह ष्टिवचार पशु-प(ी नहींकरेंगे, पेड़-पौ'े नहीं करेंगे। यह बुधिद्ध की ष्टिवशे@ता है

    प्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठप्रकाशकः श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, , सरसावा सरसावा 4343 / 371/ 371

  • तमस के पार श्री राजन स्वामीतमस के पार श्री राजन स्वामी

    और बुधिद्ध में भी जिजसकी स_य को ग्रहण करने वाली बुधिद्धनहीं है, तो ष्टिनधिश्चत है ष्टिक आप 'म% की राह पर नहीं चलसकते हैं।

    जानाष्टिम 'म न चमे प्रवलृित्तः, जानाम्य'म न चमे ष्टिनवलृित्�

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