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कुरुके्षत्रPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 30, 2007

In: आधुनिनक काल - कनिवताएं Comment!

रामधारी सि ंह “दि�नकर”प्रथम र्ग�वह कौन रोता है वहाँ-इनितहास के अध्याय पर,जि"स�ें थिलखा है, नौ"वानों के लहु का �ोल हैप्रत्यय निकसी बूढे, कुटि.ल नीनितज्ञ के व्याहार का;जि"सका हृदय उतना �थिलन जि"तना निक शीर्ष4 वलक्ष है;"ो आप तो लड़ता नहीं, क.वा निकशोरों को �गर,आश्वस्त होकर सोचता, शोनिनत बहा, लेनिकन, गयी बच ला" सारे देश की?और तब सम्�ान से "ाते निगने ना� उनके, देश-�ुख की लाथिल�ाहै बची जि"नके लु.े थिसन्दूर से; देश की इज्जत बचाने के थिलएया चढा जि"नने टिदये निन" लाल हैं।ईश "ानें, देश का लज्जा निवर्षय तत्त्व है कोई निक केवल आवरणउस हलाहल-सी कुटि.ल द्रोहाग्निIन का"ो निक "लती आ रही थिचरकाल सेस्वा4-लोलुप सभ्यता के अग्रणीनायकों के पे. �ें "ठराग्निIन-सी।निवश्व-�ानव के हृदय निनर्द्वेNर्ष �ें�ूल हो सकता नहीं द्रोहाग्निIन का;चाहता लड़ना नहीं स�ुदाय है,फैलतीं लप.ें निवरै्षली व्यथिPयों की साँस से।हर युद्ध के पहले निर्द्वेधा लड़ती उबलते क्रोध से,हर युद्ध के पहले �नु" है सोचता, क्या शस्त्र ही-उपचार एक अ�ोघ हैअन्याय का, अपकर्ष4 का, निवर्ष का गरल�य द्रोह का!लड़ना उसे पड़ता �गर।औ’ "ीतने के बाद भी,रणभूमि� �ें वह देखता है सत्य को रोता हुआ;वह सत्य, है "ो रो रहा इनितहास के अध्याय �ेंनिव"यी पुरुर्ष के ना� पर कीचड़ नयन का डालता।उस सत्य के आघात सेहैं झनझना उठ्ती थिशराए ँप्राण की असहाय-सी,सहसा निवपंथिच लगे कोई अपरिरथिचत हा ज्यों।वह नितलमि�ला उठता, �गर,है "ानता इस चो. का उत्तर न उसके पास है।सहसा हृदय को तोड़करकढती प्रनितध्वनिन प्राणगत अनिनवार सत्याघात की-‘नर का बहाया रP, हे भगवान! �ैंने क्या निकयालेनिकन, �नु" के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।इस दंश क दुख भूल कर होता स�र-आरूढ निफर;निफर �ारता, �रता, निव"य पाकर बहाता अश्रु है।

यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि� �ेंनर-�ेध की लीला हुई "ब पूण4 ी,पीकर लहू "ब आद�ी के वक्ष कावज्रांग पाण्डव भी� क �न हो चुका परिरशान्त ा।और "ब व्रत-�ुP-केशी द्रौपदी,�ानवी अवा ज्वथिलत, "ाग्रत थिशखा प्रनितशोध कीदाँत अपने पीस अन्तिन्त� क्रोध से,रP-वेणी कर चुकी ी केश की,केश "ो तेरह बरस से े खुले।और "ब पनिवकाय पाण्डव भी� ने द्रोण-सुत के सीस की �णिण छीन करहा �ें रख दी निप्रया के �Iन हो पाँच नन्हें बालकों के �ुल्य-सी।कौरवों का श्राद्ध करने के थिलए या निक रोने को थिचता के सा�ने,शेर्ष "ब ा रह गया कोई नहीं एक वृद्धा, एक अन्धे के थिसवा।और "ब,तीव्र हर्ष4-निननाद उठ कर पाण्डवों के थिशनिवर सेघू�ता निफरता गहन कुरुके्षत्र की �ृतभूमि� �ें,लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निनस्सार-सा,लौ. आता ा भ.क कर पाण्डवों के पास ही,"ीनिवतों के कान पर �रता हुआ,और उन पर वं्यग-सा करता हुआ-‘देख लो, बाहर �हा सुनसान हैसालता जि"नका हृदय �ैं, लोग वे सब "ा चुके।’हर्ष4 के स्वर �ें थिछपा "ो वं्यग है,कौन सुन स�झे उसे? सब लोग तोअद्ध4-�ृत-से हो रहे आनन्द से;"य-सुरा की सनसनी से चेतना निनस्पन्द है।निकन्तु, इस उल्लास-"ड़ स�ुदाय �ेंएक ऐसा भी पुरुर्ष है, हो निवकलबोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा�Iन थिचन्तालीन अपने-आप �ें।“सत्य ही तो, "ा चुके सब लोग हैं दूर ईष्या-रे्द्वेर्ष, हाहाकार से!�र गये "ो, वे नहीं सुनते इसे; हर्ष4 क स्वर "ीनिवतों का वं्यग है।”स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-”ओ युमिधमिrर, थिसनु्ध के ह� पार हैं;तु� थिचढाने के थिलए "ो कुछ कहो,निकन्तु, कोई बात ह� सुनते नहीं।“ह� वहाँ पर हैं, �हाभारत "हाँ दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,"ो घटि.त-सा तो कभी लगता, �गर,अ4 जि"स्क अब न कोई याद है।“आ गये ह� पार, तु� उस पार हो;यह परा"य निक "य निकसकी हुई?वं्यग, पश्चाताप, अन्तदा4ह का अब निव"य-उपहार भोगो चैन से।”हर्ष4 का स्वर घू�ता निनस्सार-सा लड़खड़ाता �र रहा कुरुके्षत्र �ें,औ’ युमिधमिrर सुन रहे अव्यP-सा एक रव �न का निक व्यापक शून्य का।‘रP से सिसंच कर स�र की �ेटिदनी हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,और ऊपर रP की खर धार �ें तैरते हैं अंग र, ग", बाजि" के।‘निकन्तु, इस निवध्वंस के उपरान्त भी शेर्ष क्या है? वं्यग ही तो भIय का?चाहता ा प्राप्त करना जि"से तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?‘सत्य ही तो, �ुमिyगत करना जि"से चाहता ठा, शत्रुओं के सा हीउड़ गये वे तत्त्व, �ेरे हा �ें वं्यग, पश्चाताप केवल छोड़कर।‘यह �हाभारत वृा, निनष्फल हुआ,उफ! ज्वथिलत निकतना गरल�य वं्यग है?पाँच ही असनिहष्णु नर के रे्द्वेर्ष सेहो गया संहार पूरे देश का!‘द्रौपदी हो टिदव्य-वस्त्रालंकृता, और ह� भोगें अहम्�य राज्य यह,

पुत्र-पनित-हीना इसी से तो हुईं कोटि. �ाताए,ँ करोड़ों नारिरयाँ!‘रP से छाने हुए इस राज्य को वज्र-सा कुछ .ू.कर स्�ृनित से निगरा,दब गयी वह बुजिद्ध "ो अबतक रही खो"ती कुछ तत्त्वरण के भस्� �ें।भर गया ऐसा हृदय दुख-दद4-से, फेन य बुदबुद नहीं उस�ें उठा!खींचकर उच्छ्वास बोले थिसफ4 वे‘पा4, �ैं "ाता निपता�ह पास हूँ।’और हर्ष4-निननाद अन्तःशून्य-सालड़खड़ता �र रहा ा वायु �ें।  द्वि�तीय र्ग�आयी हुई �ृत्यु से कहा अ"ेय भीष्� ने निक‘योग नहीं "ाने का अभी है, इसे "ानकर,रुकी रहो पास कहीं’; और स्वयं ले. गयेबाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पडे़ निव�ुP,काल के करों से छीन �ुमिy-गत प्राण कर।और पं "ोहती निवनीत कहीं आसपासहा "ोड़ �ृत्यु रही खड़ी शास्तिस्त �ान कर।श्रृंग चढ "ीवन के आर-पार हेरते-सेयोगलीन ले.े े निपता�ह गंभीर-से।देखा ध�4रा" ने, निवभा प्रसन्न फैल रहीशे्वत थिशरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।करते प्रणा�, छूते थिसर से पनिवत्र पद,उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,“हाय निपता�ह, �हाभारत निवफल हुआ”चीख उठे ध�4रा" व्याकुल, अधीर-से।“वीर-गनित पाकर सुयोधन चला गया है,छोड़ �ेरे सा�ने अशेर्ष ध्वंस का प्रसार;छोड़ �ेरे हा �ें शरीर निन" प्राणहीन,व्यो� �ें ब"ाता "य-दुन्दुणिभ-सा बार-बार;और यह �ृतक शरीर "ो बचा है शेर्ष,चुप-चुप, �ानो, पूछता है �ुझसे पुकार-निव"य का एक उपहार �ैं बचा हूँ, बोलो,"ीत निकसकी है और निकसकी हुई है हार?“हाय, निपता�ह, हार निकसकी हुई है यह?ध्वन्स-अवशेर्ष पर थिसर धुनता है कौन?कौन भस्नराथिश �ें निवफल सुख ढँूढता है?लप.ों से �ुकु. क प. बुनता है कौन?और बैठ �ानव की रP-सरिरता के तीरनिनयनित के वं्यग-भरे अ4 गुनता है कौन?कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?उत्तरा का करुण निवलाप सुनता है कौन?“"ानता कहीं "ो परिरणा� �हाभारत का,तन-बल छोड़ �ैं �नोबल से लड़ता;तप से, सनिहष्णुता से, त्याग से सुयोधन को"ीत, नयी नींव इनितहास निक �ैं धरता।और कहीं वज्र गलता न �ेरी आह से "ो,�ेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;तो भी हाय, यह रP-पात नहीं करता �ैं,भाइयों के संग कहीं भीख �ाँग �रता।“निकन्तु, हाय, जि"स टिदन बोया गया युद्ध-बी",

सा टिदया �ेर नहीं �ेरे टिदव्य ज्ञान ने;उलत दी �नित �ेरी भी� की गदा ने औरपा4 के शरासन ने, अपनी कृपान ने;और "ब अ"ु4न को �ोह हुआ रण-बीच,बुझती थिशखा �ें टिदया घृत भगवान ने;सबकी सुबुजिद्ध निपता�ह, हाय, �ारी गयी,सबको निवनy निकया एक अणिभ�ान ने।“कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, निकन्तु �ेरेप्राण "लते हैं पल-पल परिरताप से;लगता �ुझे है, क्यों �नुष्य बच पाता नहींदह्य�ान इस पुराचीन अणिभशाप से?और �हाभारत की बात क्या? निगराये गये"हाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,अणिभ�न्यु-वध औ’ सुयोधन का वध हाय,ह��ें बचा है यहाँ कौन, निकस पाप से?“एक ओर सत्य�यी गीता भगवान की है,एक ओर "ीवन की निवरनित प्रबुद्ध है;"नता हूँ, लड़ना पड़ा ा हो निववश, निकन्तु,लहू-सनी "ीत �ुझे दीखती अशुद्ध है;ध्वंस"न्य सुख यानिक सश्रु दुख शान्तिन्त"न्य,Iयात नहीं, कौन बात नीनित के निवरुद्ध है;"ानता नहीं �ैं कुरुके्षत्र �ें ग्निखला है पुण्य,या �हान पाप यहाँ फू.ा बन युद्ध है।“सुलभ हुआ है "ो निकरी. कुरुवंथिशयों का,उस�ें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;अणिभरे्षक से क्या पाप �न का धुलेगा कभी?पानिपयों के निहत ती4-वारिर हलाहल है;निव"य कराल नानिगनी-सी डँसती है �ुझे,इससे न "ूझने को �ेरे पास बल है;ग्रहन करँू �ैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,रा"सुख लोहू-भरी कीच का क�ल है।“बालहीना �ाता की पुकार कभी आती, औरआता कभी आत्त4नाद निपतृहीन बाल का;आँख पड़ती है "हाँ, हाय, वहीं देखता हूँसेंदुर पँुछा हुआ सुहानिगनी के भाल का;बाहर से भाग कक्ष �ें "ो थिछपता हूँ कभी,तो भी सुनता हूँ अट्टहास कू्रर काल का;और सोते-"ागते �ैं चौंक उठता हूँ, �ानोशोणिणत पुकारता हो अ"ु4न के लाल का।“जि"स टिदन स�र की अग्निIन बुझ शान्त हुई,एक आग तब से ही "लती है �न �ें;हाय, निपता�ह, निकसी भाँनित नहीं देखता हूँ�ुँह टिदखलाने योIय निन" को भुवन �ेऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से �ुझे,मिधक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण �ें;�ानव को देख आँखे आप झुक "ातीं, �नचाहता अकेला कहीं भाग "ाऊँ वन �ें।“करँू आत्�घात तो कलंक और घोर होगा,नगर को छोड़ अतएव, वन "ाऊँगा;

पशु-खग भी न देख पायें "हाँ, थिछप निकसीकन्दरा �ें बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;"ानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,थिछप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;वं्यग से बिबंधेगा वहाँ ""4र हृदय तो नहीं,वन �ें कहीं तो ध�4रा" न कहाऊँगा।”और तब चुप हो रहे कौन्तेय,संयमि�त करके निकसी निवध शोक दुष्परिर�ेयउस "लद-सा एक पारावारहो भरा जि"स�ें लबालब, निकन्तु, "ो लाचारबरस तो सकता नहीं, रहता �गर बेचैन है।भीष्� ने देखा गगन की ओर�ापते, �ानो, युमिधमिrर के हृदय का छोर;और बोले, ‘हाय नर के भाग !क्या कभी तू भी नितमि�र के पारउस �हत् आदश4 के "ग �ें सकेगा "ाग,एक नर के प्राण �ें "ो हो उठा साकार हैआ" दुख से, खेद से, निनवNद के आघात से?’औ’ युमिधमिrर से कहा, “तूफान देखा है कभी?निकस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,काल-सा वन �ें द्रु�ों को तोड़ता-झकझोरता,और �ूलोचे्छद कर भू पर सुलाता क्रोध सेउन सहस्रों पादपों को "ो निक क्षीणाधार हैं?रुIण शाखाए ँद्रु�ों की हरहरा कर .ू.तीं,.ू. निगरते निगरते शावकों के सा नीड़ निवहंग के;अंग भर "ाते वनानी के निनहत तरु, गुल्� से,थिछन्न फूलों के दलों से, पणिक्षयों की देह से।पर थिशराए ँजि"स �हीरुह की अतल �ें हैं गड़ी,वह नहीं भयभीत होता कू्रर झंझावात से।सीस पर बहता हुआ तूफान "ाता है चला,नोचता कुछ पत्र या कुछ डाथिलयों को तोड़ता।निकन्तु, इसके बाद "ो कुछ शेर्ष रह "ाता, उसे,(वन-निवभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)देखता "ीनिवत �हीरुह शोक से, निनवNद से,क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, �ौनाकाश �ें,सोचता, ‘है भे"ती हु�को प्रकृनित तूफ़ान क्यों?’पर नहीं यह ज्ञात, उस "ड़ वृक्ष को,प्रकृनित भी तो है अधीन निव�र्ष4 के।यह प्रभं"न शस्त्र है उसका नहीं;निकन्तु, है आवेग�य निवस्फो. उसके प्राण का,"ो "�ा होता प्रचंड निनदाघ से,फू.ना जि"सका सह" अनिनवाय4 है।यों ही, नरों �ें भी निवकारों की थिशखाए ँआग-सीएक से मि�ल एक "लती हैं प्रचण्डावेग से,तप्त होता कु्षद्र अन्तव्य�� पहले व्यथिP का,और तब उठता धधक स�ुदाय का आकाश भीक्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईष्या4, रे्द्वेर्ष से।भटि�याँ इस भाँनित "ब तैयार होती हैं, तभीयुद्ध का ज्वाला�ुखी है फू.ता

रा"नैनितक उलझनों के ब्या" सेया निक देशपे्र� का अवलम्ब ले।निकन्तु, सबके �ूल �ें रहता हलाहल है वही,फैलता है "ो घृणा से, स्व4�य निवरे्द्वेर्ष से।युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,"ानते हैं, युद्ध का परिरणा� अन्तिन्त� ध्वंस है!सत्य ही तो, कोटि. का वध पाँच के सुख के थिलए!निकन्तु, �त स�झो निक इस कुरुके्षत्र �ेंपाँच के सुख ही सदैव प्रधान े;युद्ध �ें �ारे हुओं के सा�नेपाँच के सुख-दुख नहीं उदे्दश्य केवल �ात्र े!और भी ठे भाव उनके हृदय �ें, स्वा4 के, नरता, निक "लते शौय4 के;खींच कर जि"सने उन्हें आगे निकया, हेतु उस आवेश का ा और भी।युद्ध का उन्�ाद संक्र�शील है, एक थिचनगारी कहीं "ागी अगर,तुरत बह उठते पवन उनचास हैं, दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।और तब रहता कहाँ अवकाश है तत्त्वथिचन्तन का, गंभीर निवचार का?युद्ध की लप.ें चुनौती भे"तीं  प्राण�य नर �ें थिछपे शादू4ल को।युद्ध की ललकार सुन प्रनितशोध से दीप्त हो अणिभ�ान उठता बोल है;चाहता नस तोड़कर बहना लहू, आ स्वयं तलवार "ाती हा �ें।रुIण होना चाहता कोई नहीं, रोग लेनिकन आ गया "ब पास हो,नितP ओर्षमिध के थिसवा उपचार क्या? शमि�त होगा वह नहीं मि�yान्न से।है �ृर्षा तेरे हृदय की "ल्पना, युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;क्योंनिक कोई क�4 है ऐसा नहीं, "ो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।सत्य ही भगवान ने उस टिदन कहा, ‘�ुख्य है कत्ता4-हृदय की भावना,�ुख्य है यह भाव, "ीवन-युद्ध �ें णिभन्न ह� निकतना रहे निन" क�4 से।’औ’ स�र तो और भी अपवाद है, चाहता कोई नहीं इसको �गर,"ूझना पड़ता सभी को, शत्रु "ब आ गया हो र्द्वेार पर ललकारता।है बहुत देखा-सुना �ैंने �गर, भेद खुल पाया न ध�ा4ध�4 का,आ" तक ऐसा निक रेखा खींच कर बाँ. दँू �ैं पुण्य औ’ पाप को।"ानता हूँ निकन्तु, "ीने के थिलए चानिहए अंगार-"ैसी वीरता,पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है, "ो खड़ा होता ज्वथिलत प्रनितशोध पर।छीनता हो सत्व कोई, और तू त्याग-तप के का� ले यह पाप है।पुण्य है निवच्छिच्छन्न कर देना उसे बढ रहा तेरी तरफ "ो हा हो।बद्ध, निवदथिलत और साधनहीन को है उथिचत अवलम्ब अपनी आह का;निगड़निगड़ाकर निकन्तु, �ाँगे भीख क्यों वह पुरुर्ष, जि"सकी भु"ा �ें शथिP हो?युद्ध को तु� निनन्द्य कहते हो, �गर, "ब तलक हैं उठ रहीं थिचनगारिरयाँणिभन्न स्व� के कुथिलश-संघर्ष4 की, युद्ध तब तक निवश्व �ें अनिनवाय4 है।और "ो अनिनवाय4 है, उसके थिलए ग्निखन्न या परिरतप्त होना व्य4 है।तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह फू.ती निनश्चय निकसी भी व्या" से।पाण्डवों के णिभक्षु होने से कभी रुक न सकता ा सह" निवस्फो. यहध्वंस से थिसर �ारने को े तुले ग्रह-उपग्रह कु्रद्ध चारों ओर के।ध�4 का है एक और रहस्य भी, अब थिछपाऊँ क्यों भनिवष्यत् से उसे?दो टिदनों तक �ैं �रण के भाल पर हूँ खड़ा, पर "ा रहा हूँ निवश्व से।व्यथिP का है ध�4 तप, करुणा, क्ष�ा, व्यथिP की शोभा निवनय भी, त्याग भी,निकन्तु, उठता प्रश्न "ब स�ुदाय का, भूलना पड़ता ह�ें तप-त्याग को।"ो अग्निखल कल्याण�य है व्यथिP तेरे प्राण �ें,कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही।निकन्तु, उसके पास ही स�ुदायगत "ो भाव हैं,पूछ उनसे, क्या �हाभारत नहीं अनिनवाय4 ा?

हारकर धन-धा� पाण्डव णिभक्षु बन "ब चल टिदये,पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस स�ुदाय को,"ो अनय का ा निवरोधी, पाण्डवों का मि�त्र ा।और "ब तूने उलझ कर व्यथिP के सद्ध�4 �ेंक्लीव-सा देखा निकया लज्जा-हरण निन" नारिर का,(द्रौपदी के सा ही लज्जा हरी ी "ा रहीउस बडे़ स�ुदाय की, "ो पाण्डवों के सा ा)और तूने कुछ नहीं उपचार ा उस टिदन निकया;सो बता क्या पुण्य ा? य पुण्य�य ा क्रोध वह,"ल उठा ा आग-सा "ो लोचनों �ें भी� के?कायरों-सी बात कर �ुझको "ला �त; आ" तकहै रहा आदश4 �ेरा वीरता, बथिलदान ही;"ानित-�जिन्दर �ें "लाकर शूरता की आरती,"ा रहा हूँ निवश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।त्याग, तप, णिभक्षा? बहुत हूँ "ानता �ैं भी, �गर,त्याग, तप, णिभक्षा, निवरागी योनिगयों के ध�4 हैं;यानिक उसकी नीनित, जि"सके हा �ें शायक नहीं;या �ृर्षा पार्षण्ड यह उस कापुरुर्ष बलहीन का,"ो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकरIलानिन�य "ीवन बहुत अच्छा, �रण अच्छा नहींत्याग, तप, करुणा, क्ष�ा से भींग कर,व्यथिP का �न तो बली होता, �गर,बिहंस्र पशु "ब घेर लेते हैं उसे, का� आता है बथिलr शरीर ही।और तू कहता �नोबल है जि"से,शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;के्षत्र उसका वह �नो�य भूमि� है,नर "हाँ लड़ता ज्वलन्त निवकार से।कौन केवल आत्�बल से "ूझ कर"ीत सकता देह का संग्रा� है?पाणिश्वकता खड्ग "ब लेती उठा,आत्�बल का एक बस चलता नहीं।"ो निनरा�य शथिP है तप, त्याग �ें,व्यथिP का ही �न उसे है �ानता;योनिगयों की शथिP से संसार �ें,हारता लेनिकन, नहीं स�ुदाय है।कानन �ें देख अच्छि�-पंु" �ुनिनपंुगवों कादैत्य-वध का ा निकया प्रण "ब रा� ने;“�ानितभ्रy �ानवों के शोध का उपाय एकशस्त्र ही है?” पूछा ा को�ल�ना वा� ने।नहीं निप्रये, सुधर �नुष्य सकता है तप,त्याग से भी,” उत्तर टिदया ा घनश्या� ने,“तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैवपनितत स�ूह की कुवृणित्तयों के सा�ने।”  तृतीय र्ग�स�र बिनंद्य है ध�4रा", पर,कहो, शान्तिन्त वह क्या है,"ो अनीनित पर च्छि�त होकर भी बनी हुई सरला है?सुख-स�ृजिद्ध क निवपुल कोर्षसंथिचत कर कल, बल, छल से,निकसी कु्षमिधत क ग्रास छीन, धन लू. निकसी निनब4ल से।सब स�े., प्रहरी निबठला कर कहती कुछ �त बोलो,शान्तिन्त-सुधा बह रही, न इस�ें गरल क्रान्तिन्त का घोलो।निहलो-डुलो �त, हृदय-रP अपना �ुझको पीने दो,अचल रहे साम्रज्य शान्तिन्त का, जि"यो और "ीने दो।सच है, सत्ता थिस�.-थिस�. जि"नके हाों �ें आयी,शान्तिन्तभP वे साधु पुरुर्ष क्यों चाहें कभी लड़ाई?सुख का सम्यक्-रूप निवभा"न "हाँ नीनित से, नय से

संभव नहीं; अशान्तिन्त दबी हो "हाँ खड्ग के भय से,"हाँ पालते हों अनीनित-पद्धनित को सत्ताधारी,"हाँ सुत्रधर हों स�ा" के अन्यायी, अनिवचारी;नीनितयुP प्रस्ताव सन्धिन्ध के "हाँ न आदर पायें;"हाँ सत्य कहनेवालों के सीस उतारे "ायें;"हाँ खड्ग-बल एक�ात्र आधार बने शासन का;दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय "हाँ "न-"न का;सहते-सहते अनय "हाँ �र रहा �नु" का �न हो;स�झ कापुरुर्ष अपने को मिधक्कार रहा "न-"न हो;अहंकार के सा घृणा का "हाँ र्द्वेन्र्द्वे हो "ारी;ऊपर शान्तिन्त, तलातल �ें हो थिछ.क रही थिचनगारी;आगा�ी निवस्फो. काल के �ुख पर द�क रहा हो;इंनिगत �ें अंगार निववश भावों के च�क रहा हो;पढ कर भी संकेत स"ग हों निकन्तु, न सत्ताधारी;दु�4नित और अनल �ें दें आहुनितयाँ बारी-बारी;कभी नये शोर्षण से, कभी उपेक्षा, कभी द�न से,अप�ानों से कभी, कभी शर-वेधक वं्यIय-वचन से।दबे हुए आवेग वहाँ यटिद उबल निकसी टिदन फू.ें,संय� छोड़, काल बन �ानव अन्यायी पर .ू.ें;कहो, कौन दायी होगा उस दारुण "गद्दहन काअहंकार य घृणा? कौन दोर्षी होगा उस रण का? तु� निवर्षण्ण हो स�झ हुआ "गदाह तुम्हारे कर से।सोचो तो, क्या अग्निIन स�र की बरसी ी अम्बर से?अवा अकस्�ात् मि�ट्टी से फू.ी ी यह ज्वाला?या �ंत्रों के बल "न�ी ी यह थिशखा कराला?कुरुके्षत्र के पुव4 नहीं क्या स�र लगा ा चलने?प्रनितबिहंसा का दीप भयानक हृदय-हृदय �ें बलने?शान्तिन्त खोलकर खड्ग क्रान्तिन्त का "ब व"4न करती है,तभी "ान लो, निकसी स�र का वह स"4न करती है।शान्तिन्त नहीं तब तक, "ब तक सुख-भाग न नर का स� हो,नहीं निकसी को अमिधक हो, नहीं निकसी को क� हो।ऐसी शान्तिन्त राज्य करती है तन पर नहीं, हृदय पर,नर के ऊँचे निवश्वासों पर,श्रद्धा, भथिP, प्रणय पर।न्याय शान्तिन्त का प्र� न्यास है,"बतक न्याय न आता,"ैसा भी हो, �हल शान्तिन्त का सुदृढ नहीं रह पाता।कृनित्र� शान्तिन्त सशंक आप अपने से ही डरती है,खड्ग छोड़ निवश्वास निकसी का कभी नहीं करती है।और जि"न्हेँ इस शान्तिन्त-व्यव�ा �ें थिसख-भोग सुलभ है,उनके थिलए शान्तिन्त ही "ीवन-सार, थिसजिद्ध दुल4भ है।पर, जि"नकी अच्छि�याँ चबाकर,शोणिणत पीकर तन का,"ीती है यह शान्तिन्त, दाह स�झो कुछ उनके �न का।सत्व �ाँगने से न मि�ले,संघात पाप हो "ायें,बोलो ध�4रा", शोनिर्षत वे जि"यें या निक मि�. "ायें? न्यायोथिचत अमिधकार �ाँगने से न मि�लें, तो लड़ के,ते"स्वी छीनते स�र को "ीत, या निक खुद �रके।निकसने कहा, पाप है स�ुथिचत सत्व-प्रान्तिप्त-निहत लड़ना ?उठा न्याय क खड्ग स�र �ें अभय �ारना-�रना ?

क्ष�ा, दया, तप, ते", �नोबल की दे वृा दुहाई,ध�4रा", वं्यजि"त करते तु� �ानव की कदराई।बिहंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है ?देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है।�नःशथिP प्यारी ी तु�को यटिद पौरुर्ष ज्वलन से,लोभ निकया क्यों भरत-राज्य का? निफर आये क्यों वन से?निपया भी� ने निवर्ष, लाक्षागृह "ला, हुए वनवासी,केशकर्षिरं्षता निप्रया सभा-सम्�ुख कहलायी दासीक्ष�ा, दया, तप, त्याग, �नोबल, सबका थिलया सहारा;पर नर-व्याघ्र सुयोधन तु�से कहो, कहाँ कब हारा?क्ष�ाशील हो रिरपु-स�क्ष तु� हुए निवनत जि"तना ही,दुy कौरवों ने तु�को कायर स�झा उतना ही।अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है,पौरुर्ष का आतंक �नु" को�ल होकर खोता है।क्ष�ा शोभती उस भु"ंग को, जि"सके पास गरल हो।उसको क्या, "ो दन्तहीन, निवर्षरनिहत, निवनीत, सरल हो ?तीन टिदवस तक पन्थ �ाँगते रघुपनित थिसनु्ध-निकनारे,बैठे पढते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे।उत्तर �ें "ब एक नाद भी उठा नहीं सागर से,उठी अधीर धधक पौरुर्ष की आग रा� के शर से।थिसनु्ध देह धर ‘त्रानिह-त्रानिह’ करता आ निगरा शरण �ें,चरण पू", दासता ग्रहण की,बँधा �ूढ बन्धन �ें।सच पूछो, तो शर �ें ही बसती है दीन्तिप्त निवनय की,सन्धिन्ध-वचन संपूज्य उसी का जि"स�ें शथिP निव"य की।सहनशीलता, क्ष�ा, दया को तभी पू"ता "ग है,बल का दप4 च�कता उसके पीछे "ब "ग�ग है।"हाँ नहीं सा�र्थ्यय4 शोध की, क्ष�ा वहाँ निनष्फल है।गरल-घूँ. पी "ाने का मि�स है, वाणी का छल है।फलक क्ष�ा का ओढ थिछपाते "ो अपनी कायरता,वे क्या "ानें ज्वथिलत-प्राण नर की पौरुर्ष-निनभ4रता ?वे क्या "ानें नर �ें वह क्या असहनशील अनल है,"ो लगते ही स्पश4 हृदय से थिसर तक उठता बल है?

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