जो कुछ भी हैं - gopal raju · अत्र्तत प्रािीन...

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मानसी गोपाल राजू ऱड़की - 247 667 (उतराखड) www.bestastrologer4u.com www.bestastrologer4u.blogspot.in एवय , भोग-वलास, धन-सपदा आद भौततकवादी भोग के साथ-साथ हर कोई ान, शात, वा, अाम, ोग आदद के लए आज ऐसी द, भावशाली औषध, वध, िा तलाश रहा है जो सब क अलाउीन के धिराग़ की तरह तकाल उपलध करवा दे। इसके लए जगह-जगह द कान ख ल रही ह। दान, अन दान, धन-सपदा आद अथवा परो ऱप म द और ह सब ि कर ल अथवा क पा साद वऱप ात कर ल। देखा जाए तो जतने अधधक क ल आज ख ल रह ह

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  • मानसश्री गोपाल राजू रूड़की - 247 667 (उत्तराखण्ड) www.bestastrologer4u.com

    www.bestastrologer4u.blogspot.in

    एश्वर्य, भोग-ववलास, धन-सम्पदा आदद भौततकवादी भोगों के साथ-साथ हर कोई ध्र्ान, शान्तत, स्वास््र्, अध्र्ात्म, र्ोग आदद के ललए आज ऐसी ददव्र्, भावशाली औषधध, ववधध, क्रिर्ा तलाश रहा है जो सब कुछ अलाउद्दीन के धिराग़ की तरह तत्काल उपलब्ध करवा दे। इसके ललए जगह-जगह दकुानें खलु रही हैं। दान, अनुदान, धन-सम्पदा आदद प्रत्र्क्ष अथवा परोक्ष रूप में दें और र्ह सब िर् कर लें अथवा कृपा प्रसाद स्वरूप प्राप्त कर लें। देखा जाए तो न्जतने अधधक स्कूल आज खुल रहें हैं

    http://www.bestastrologer4u.com/

  • उतनी ही अधधक मानलसक अराजकता बढ़ रही है। र्ह सब कहन-ेसुनने की आवश्र्कता नहीीं है। हम सब र्ह अच्छी तरह से जानते हैं, समझते हैं और दैतनक जीवन में तनत्र् देख रहे हैं, कर रहे हैं और पररणाम, जो कुछ भी हैं अच्छे र्ा बुरे, भोग रहे हैं। ध्र्ान के ललए ववश्व स्तर पर इधर ववपश्र्ना (Vipassana) ववधध का िलन बहुत प्रिललत हो रहा है। क्र्ा है ववपश्र्ना पद्र्तत ववपश्र्ना आत्मशवुि और आत्म तनरीक्षण की एक अत्र्तत प्रािीन क्रिर्ा साधना है। इसका अथय है अपनी श्वास को देखना और उसके प्रतत सजग होना। धिरततर से ऋवष, मुनी झठू, पाप, अत्र्ािार, व्र्लभिार, काम, िोध आदद से अलग-थलग सींर्म और सदािार का जीवन जीन,े मन को साधने और आत्मा को तनमयल बनाने के ललए ववपश्र्ना क्रिर्ा का सहारा लेते रहे हैं। महात्मा बुि ने इसका सरलीकरण करके इसका व्र्ापक प्रिार-प्रसार क्रकर्ा इसके उतहोंने दो रुप ददए - बैठे-बैठे ध्र्ान र्ोग द्वारा ववपश्र्ना क्रिर्ा और शाींत-धित्त से अींगो को

  • लशधथल करके टहलते हुए ववपश्र्ना क्रिर्ा। तदततर में आिार्य श्री राम, ओशो तथा बाबाराम देव आदद ने क्रिर्ा को नवीन रूप देकर इसका व्र्ापक प्रिार-प्रसार क्रकर्ा। कुल सार-सत र्ह है क्रक ववपश्र्ना झूठ, पाप, व्र्वलभिार से अलग सदािार, आत्मसखु आदद का जीवन जीने की एक ध्र्ान ववधध है न्जसमें सतत ्जागरूक रहकर मन की गततववधधर्ों का वस्ततुः अवलोकन करना होता है। कौन कर सकता है ववपश्र्ना साधना ववपश्र्ना क्रिर्ा में कोई ललींग भेद, वणय, जात-पात, आर्-ुअवस्था, धनाढ्र्-दररद्र आदद का कहीीं कोई बतधन नहीीं है। ववपश्र्ना क्रिर्ा साधना सहज है, सरल है और सुगम है। इसललए बबना ज्ञान-ध्र्ान और प्रपींि के एक छोटा बच्िा अथवा अलशक्षक्षत आदद कोई भी इसको जीवन में अपना सकता है। ववपश्र्ना एक ऐसी क्रिर्ा है जो ज्ञान, पुरुषाथय, र्ोग्र् गुरू की कृपा के बबना भी सहजता से लसि की जा सकती है। ववपश्र्ना क्रिर्ा उठते-बैठते, सोत-ेजागते, घर में, घर से बाहर, क्रकसी भी समर् और क्रकसी भी अवस्था में कोई भी कर सकता है। साधना में

  • न कपाल भातत, न अनुलोम-ववलोम, न सोहऽम,् न र्ोग क्रिर्ा, न सुदशयन क्रिर्ा आदद क्रकसी भी न्क्लष्ट बातों में नहीीं जाना है। बस देखना है और अवलोकन करना है। ववपश्र्ना के लाभ रोग-शोक तथा साींसाररक दःुखों से छुटकारा पाने के ललए ववपश्र्ना साधन राम बाण लसि हुई है। असाध्र् रोग तक ठीक होना इसके द्वारा सम्भव है। मन को शान्तत प्रदान करने का र्ह एक प्रभावशाली उपिम है। हम अपने कृत्र्ों, अपने शरीर, अपने मन और अपने हृदर् के प्रतत जागरूक बनते हैं। कोई भी ऐसे रोग जो, वस्तुतः रोग नहीीं हैं और केवल मानलसकता के रूप में मन्स्तष्क में जतम लेकर शरीर में ववकार के रूप में पनप गए हैं, उनका तनदान तो तनन्श्ित रूप से इस क्रिर्ा द्वारा सम्भव है। मानलसक सींत्रास, अवसाद, आलस्र्, उदासी, कार्य के प्रतत अरुधि, ईष्र्ाय-द्वेष आदद कलुवषत भाव-भावनाएीं तो साधक के पास से स्वतः ही दरू भाग जाती हैं। साधक के मन में हर समर् एक आत्म सततनु्ष्ट, ददव्र्ता, प्रसतनता, उल्लास बना रहता है। साधना की िरम सीमा

  • पर पहुुँिकर तो रक्त िाप, मधमेुह त्विा रोग, श्वास रोग, अतनद्रा रोग, अवसाद, मानलसक सींत्रास आदद अनेकों रोगों का अभ्र्ास के द्वारा शमन क्रकर्ा जा सकता है। सौतदर्य, रूप-लावण्र्, अध्र्र्नरत छात्र-छात्राओीं में ज्ञान के प्रतत रुधि और ववलक्षण बुवि का तो स्वतः समावेश होने लगता है। भौततक अपेक्षाओीं से अलग आध्र्ान्त्मक मागय पर प्रशस्त होना, प्रज्ञा ज्ञान, ददव्र्ता और र्हाुँ तक क्रक मोक्ष और तनमायण साधक को प्राप्त होता है, र्ह सत्र् है और परम सत्र् है। ववपश्र्ना से हातन मन को साधने की क्रिर्ा से माना आपने मन को तो साध ललर्ा। ददव्र्ता को प्राप्त हो गए। अनेक लसविर्ों के स्वामी बन गए। भौततक जगत की तमाम उपलन्ब्धर्ाुँ प्राप्त हो गर्ीीं। स्वस्थ शरीर और सुतदर कार्ा, रूप-लावण्र् के धनी बन गए। परतत ुमन को साधने के बाद भी लोभ, लालि, हवस, कलुषता और मन की तनमयलता से सवयथा दरू रहे तब तो साधना से लाभ के ववपरीत अनथय ही अनथय लमलने की सम्भावना बढ़

  • जाएगी। मन को तो साध ललर्ा परतत ुमन और भाव र्दद तनमयल नहीीं बनार्ा तो ववपश्र्ना साधन व्र्थय ही समझें। िोरों की भावना लोभ और लालि वश होती है। क्र्ोंक्रक मन तनमयल नहीीं है इसललए कभी भी मन में लालि आते हीेे िोरी जैसा अपराध मन करवा ही देगा। मन में िोध जागना स्वाभाववक है, क्र्ोंक्रक मन तनमयल नहीीं है। ववपश्र्ना साधन के बाद भी इसललए वह हत्र्ा जैसा जघतर् अपराध तक करवा देगा। उपलन्ब्धर्ों की प्रान्प्त तो ववपश्र्ना साधन से सम्भव है परतत ु माना मन सध तो गर्ा परतत ुतनमयल नहीीं बना तो भौततकवादी जीवन में लोभ, लालि, ईष्र्ाय, कलुषता, िोध और सबसे ऊपर अपना कद बढ़ाने की होड़ जीवन का उत्थान नहीीं बन्ल्क पतन ही करेगी। ववपश्र्ना के दषु्पररणामों से बिने के ललए ही बिु भगवान ववपश्र्ना दीक्षा ऐसे ही सहजता से नहीीं दे देते थे। साधक की पात्रता परखते थे पहले। अन्ग्न में तपाकर जैसे कुतदन तरै्ार होता है वसेै ही आत्म ज्ञान और मन को तनमयल बनाने के ललए महीनों उसको तपाते थे तब

  • जाकर उसको कहीीं दीक्षा देत ेथे। कैसे करें ववपश्र्ना साधना अपनी अततयआत्मा को सवयप्रथम तैर्ार करररे् साधना के ललए। दृढ़ तनश्िर्ी बतनए क्रक साधना सफल होकर लसि होगी ही होगी। मन से र्ह भ्रम पूरी तरह से तनकाल दीन्जए क्रक लशक्षा अथवा प्रलशक्षण ग्रहण करने की तरह क्रकसी तथाकधथत स्कूल, आश्रम, गुरू, ज्ञानी-ध्र्ानी अथवा लसि सींत-पुरूष आदद के पास जाना आवश्र्क है और उनके बबना साधना सम्भव नहीीं है। ऐसी भावना बलवती कररए क्रक स्वर्ीं में आप सक्षम हैं, र्ोग्र् है और पूणय हैं। साधना के ललए इसललए क्रकसी के भी मागयदशयन की आवश्र्कता नहीीं है आपको। अगर आपको तनःस्वाथय भाव से इस के्षत्र में लसिहस्त मागयदशयन देने वाला कोई लमल जाए तो इसको अपना परम सौभाग्र् समझें और उसकी देख-रेख में अपने आपको समवपयत कर दें। अपना ध्र्ान नासाग्र पर केन्तद्रत करें। साींस की गतत को देखें - श्वास आता है और श्वास जाता है। इस आने-जाने को देखना है। इसके पीछे ददरे् ममय को बबल्कुल भी नहीीं

  • समझना है। प्रारन्म्भक अवस्था में बस देखें - श्वास आर्ा और बाहर तनकला। नाक के दाएीं छेद से आ रहा है अथवा बाएीं से। कुछ नहीीं देखना, कुछ नही समझना। बस एक ही बात श्वास शरीर में प्रववष्ट हुआ और शरीर से बाहर तनकला। हल्के से आर्ा र्ा तेजी से आर्ा। हल्के से बाहर तनकला अथवा तेजी से बाहर तनकला इस पर भी कोई ध्र्ान नहीीं देना। श्वास क्र्ों आ रहा है और क्र्ों जा रहा है इन गूढ़ त्र्ों में बबल्कुल भी नहीीं जाना है। श्वास आ रहा है, तो आ रहा है। जा रहा है, तो बस जा रहा है। इसको मात्र देखना है ध्र्ान से। प्रारन्म्भक अभ्र्ास में उठते-बैठत,े सोत-ेजागत ेक्रकसी भी न्स्थतत में बस श्वास के आने और श्वास के जाने को नाक के तछद्रों में देखें। सलुभ हो, समर् हो अथवा मन हो तो क्रकसी भी सुखद न्स्थतत में अपने को न्स्थर करके श्वास के आने और जाने को देखें। बस देखते रहें। करना कुछ नहीीं है। बलात अथवा अतनच्छा के िलते भी ध्र्ान नहीीं लगाना है श्वास के आने और जाने पर। सब क्रिर्ा सहज भाव से सहजता से होनी हैं। कहीीं कोई

  • जोर-जबरदत्ती नहीीं करनी। धीरे-धीरे श्वास को आप देखने लगेंगे उसका मागय, उसका गततव्र्, और उसकी गतत। श्वास केवल फेफड़ों तक जा रहा है। श्वास केवल पेट तक जा रहा है अथवा श्वास नाभी अथवा उसके नीिे के अींगों तक जा रहा है। र्ह सब देखने का अभ्र्ास सहजता से करें। श्वास अतदर आ रहा है तो आपका पेट फूल रहा है। श्वास बाहर जा रहा है तो आपका पेट वपिक रहा हैं। श्वास के पेट में भरने और खाली होने पर पेट का ऊपर और नीि ेहोना देखना है अब आपको। अभ्र्ास और सींर्म की कमी से र्ह सम्भव न हो पा रहा हो तो हल्के से पेट पर हाथ की हथेली रखकर पेट की ऊपर और नीिे होने की गतत को देखें और अनुभव करें क्रक र्ह एक लर् में हो रही है अथवा अतनर्लमत। र्ह देखें क्रक धीरे-धीरे एक ऐसी अवस्था स्वतः आने लगेगी क्रक आपका मन श्वास के साथ-साथ फूलते और वपिकत ेपेट पर केन्तद्रत होने लगा है। उसमें एक लर्बिता एक तारतम्र् बनने लगा है। श्वास के देखने को, श्वास की पेट के साथ फूलने और वपिकने की क्रिर्ा को अब उठते-बैठते कहीीं भी,

  • क्रकसी भी अवस्था में देखते रहें। कहीीं कोई र्ोग नहीीं करना है। कहीीं कोई हठ र्ोग, कोई ध्र्ान धारणा, समाधध, कोई त्राटक नहीीं करना, कोई प्राणार्ाम नहीीं करना हैं, कहीीं कोई मींत्र जप नहीीं करना है। कहीीं कुछ इस भाव से नहीीं करना है क्रक क्रकसी स्वाथय की पूतत यवश कर रहे हैं। बस सहज भाव से श्वास की गतत और उसके मागय को देखना है और धीरे-धीरे अभ्र्ास करना है क्रक उसका गततव्र् क्र्ा है? उसकी सच्िाई क्र्ा है? ववपश्र्ना का सार-सत बस इस एक बात में तनदहत है क्रक श्वास ही सत्र् है। साधना का अ, ब और स इस सत्र् के सहारे ही मनःन्स्थतत को न्स्थर करना है, केन्तद्रत करना है, एकाग्र करना है। हमारा समस्त कार्य, हमारा समस्त उदे्दश्र्, हमारा समस्त ध्र्ान सब बस इस एक सत्र् श्वास के आने और जाने पर केन्तद्रत हो जाना है। जैसे-जैसे ववपश्र्ना का अभ्र्ास बढ़ता जाएगा श्वास की गतत, पेट का िमश उसके साथ फूलना और वपिकना सब सहज रूप में स्वतः ही ददखने लगेगा और मन के प्रत्रे्क भाव को हम ठीक-ठीक पढ़ने लगेंगे।

  • शारीररक ववकार कैसे ठीक करें- ववपश्र्ना का सतत ्अभ्र्ास और शरीर के अतदर- अतदर स्वतः आ रहे भावों का अवलोकन, बस इसमें ही क्रिर्ा का सार-सत तछपा है। मन िींिल है। इसमें अनधगनत भाव, वविार, कल्पनाएुँ तनरततर आती हैं और जाती हैं। मन में माना कोई भाव आर्ा तो उसको देखें, केवल देखें - वविार आर्ा, भाव आर्ा, ध्र्ान आर्ा, र्ाद आर्ी, शरीर के क्रकसी अींग में पीड़ा आई, िोध आर्ा, शान्तत आई, क्रकसी भाग में शरीर के खजुली आई आदद जो कुछ भी स्वतः मन में आ रहा है अथवा जा रहा है उसका अवलोकन मात्र करना है। आर्ा और गर्ा, बस। क्र्ों आर्ा, कैसे आर्ा, क्र्ों गर्ा, कैसे गर्ा। मैं सोि रहा हूुँ। मेरे मन में वविार आएगा। मैं र्ह करुुँगा। मैं कर रहा हूुँ। मैं वह करूगाुँ। इस मैं, मेरा, क्र्ों, कब, कैसे आदद क्रकसी में भी उलझना नहीीं है। इसको समझने का प्रर्ास भी नहीीं करना है। बस आर्ा और गर्ा। जसेै श्वास आई और गई। पेट फूला और पेट वपिका। क्रकसी वविार, इच्छा, सींकल्प, भाव, अववभाव ववशेष

  • का अवलोकन करत-ेकरते माना आप को कहीीं मच्छर ने काट ललर्ा तो स्वाभाववक है सारा ध्र्ान उसकी जलन पर िला जाएगा। और हाथ स्वतः ही उस स्थान को खुजलाने में िले जाएींगे, जहाुँ मच्छर ने काटा है। र्हाुँ रे् आपका अभ्र्ास शुरू होता है। स्थान को खुजलाना नहीीं है। अवलोकन करना है और सारा ध्र्ान बस इस एक बात में केन्तद्रत करना है क्रक खुजली हो रही है, खुजली हो रही है। क्र्ों हो रही है, कैसे हो रही है इस बात में बबल्कुल नहीीं उलझना है। धीरे-धीरे खुजली का ध्र्ान करें। अभ्र्ास करत-ेकरते ऐसी एक अवस्था स्वतः ही आ जाएगी क्रक खुजली का बोध समाप्त होने लगेगा। लसर ददय हो रहा है। पेट में ददय हो रहा हैं। रक्त िाप असामातर् हो रहा है आदद कोई भी व्र्ाधध सता रही है तो उसको होने दें। ववपश्र्ना साधना में बैठ जाएीं। श्वास-तनश्वास से मन को साधें। श्वास को शरीर में भ्रमण करने दें। वहाुँ तक जाने दें जहाुँ कष्ट हो रहा है। क्र्ों हो रहा। क्रकतना हो रहा है। कैसे हो रहा है। कुछ मत सोिें। बस श्वास को देखें क्रक श्वास के उस भाग तक पहुुँि रहा

  • है। अभ्र्ास करते-करते लगने लगेगा क्रक वह व्र्ाधध, वह रोग, वह पीड़ा धीरे-धीरे समाप्त होने लगी है। पढ़ने-समझने में सब बहुत ही सहज लगेगा। है भी। परतत ुहमारा मन नहीीं सधा है। हमारा मन सत्र् को स्वीकार नहीीं कर पा रहा है श्वास का आवन-जावन ही वस्ततुः सत्र् है। इसको देखना है। इसको समझना है। इसको अपनाना है जीवन में। समझने का सबसे सरल उपार् है, कहीीं क्रकसी श्मशान, कबिस्तान आदद में जाएीं। तनववयकार भावना से शवों को देखें और देखते रहें। जीवन के सत्र् का ममय र्दद समझना है तो र्हाुँ से अच्छा कोई स्थान नहीीं हो सकता। क्र्ोंक्रक र्ही जीवन का अींत है और र्हाुँ से ही ववपश्र्ना साधना का श्री गणेश है।

    मानसश्री गोपाल राज ू