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कुबेरनाथ राय

परिचय

जन्म : 26 मार्च 1933, गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : निबंध, कविता

मुख्य कृतियाँ

निबंध संग्रह : प्रिया नीलकंठी, गंधमादन, रस आखेटक, विषाद योग, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, महाकवि की तर्जनी, कामधेनु, मराल, अगम की नाव, रामायण महातीर्थम, चिन्मय भारत : आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि अभिसार, वाणी का क्षीरसागर, उत्तरकुरुकविता संग्रह : कंठमणि

सम्मान

मूर्तिदेवी पुरस्कार 

निधन

5 जून 1996

उत्तराफाल्गुनी के आसपास कुबेरनाथ राय

वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आने लगती है, 'अस्ति, जायते, वर्धते' - ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन 'विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति' प्रबलतर हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही शीश पर काश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कल-वसन धारण कर लेती हैं। अतः बचपन भले निर्मल-प्रसन्न हो, गदहपचीसी भले ही 'मधु-मधुनी-मधूनि' हो; परंतु जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है। इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद 'फलागम' या 'निमीसिस' (Nemesis) की प्रतीक्षा है। जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुतः घटित होता है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल है - देह भले ही 'एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु' साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रह्मा को बूढ़ा कहते हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं। मैंने दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक बार ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर तीसोत्तर युवा-मूर्ति को देखा था। देखकर ही मैं कलाकार की औचित्य-मीमांसा पर मुग्ध हो गया। जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है। जो सर्जक है, पिता है, 'प्रॉफेट' है, नई लीक का जनक है, प्रजाता है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है? उसे तो अनुभवी पुंगव तीसोत्तर युवा के रूप में ही स्वीकारना होगा। जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करनेवाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और युवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो जाता है। मेरी समझ से सृष्टिकर्त्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की जा सकती। अतः प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।

वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिह्न को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिह्न को पूरा-पूरा उसका समाधान-मूल्य हमें चुकाना ही पड़ता है। किसी भी पुरुष या नारी की कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरुता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश 'सरमन ऑन दी माउंट' (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा। वाल्मीकि के अनुसार रामचंद्र को भी तीस के आसपास ही (वास्तव में 27 वर्ष की वयस में) वनवास हुआ था। उस समय सीता की आयु अठारह वर्ष की थी और वनवास के तेरहवें वर्ष में अर्थात सीता के तीसवाँ पार करते-करते ही सीताहरण की ट्रेजेडी घटित हुई थी। अतः तीसवाँ वर्ष सदैव वरण के महामुहूर्त्त के रूप में आता है और संपूर्ण दशक उस वरण और तेज के दाह से अविष्ट रहता है। तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरुक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम-से-कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं। चालीसा लगने के बाद पैंतालीस तक 'यथास्थिति' की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है। इसके बाद अनुकूल उर्मियाँ स्पष्टतः थकहर होने लगती हैं और प्रतिकूल उर्मियाँ प्रबल होकर देह की गाँठ-गाँठ में बैठे रिपुओं से मेल कर बैठती हैं, मन हारने लगता है, सृष्टि अनाकर्षक और रति प्रतिकूल लगने लगती है, बुद्धि का तेज घट जाता है और वह स्वीकारपंथी (कनफर्मिस्ट) होने लगती है एवं आत्मा की दाहक तेजीमयी शक्ति पर विकार का धूम्र छाने लगता है। मैं तो यहाँ पर पैंतालीसवें वर्ष की बात कर रहा हूँ। परंतु मुझे स्मरण आती है दोस्तीव्हस्की - जिसने चालीस के बाद ही जीवन को धिक्कार दे दिया था : 'मैं चालीस वर्ष जी चुका। चालीस वर्ष ही तो असली जीवन-काल है। तुम जानते हो कि चालीसवाँ माने चरम बुढ़ापा। दरअसल चालीस से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है। भला चालीस से आगे कौन जीता है? मूर्ख लोग और व्यर्थ लोग' ('नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड' से) दोस्तोव्हस्की की इस उक्ति का यदि शाब्दिक अर्थ न लिया जाय तो मेरी समझ से इसका यही अर्थ होगा कि चालीस वर्ष के बाद जीवन के सहज लक्षणों का, परिवर्तन-परिवर्धन-सृजन का आत्मिक और मानसिक स्तरों पर ह्रास होने लगता है। पर मैं 'साठा तब पाठा' की उक्तिवाली गंगा की कछार का निवासी हूँ, इसी से इस अवधि को पाँच वर्ष और आगे बढ़ाकर देखता हूँ, यद्यपि दोस्तोव्हस्की की मूल थीसिस मुझे सही लगती है। शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।

मैं इस समय 1972 ईस्वी अपना अड़तीसवाँ पावस झेल रहा हूँ। पूर्वाफाल्गुनी का विकारग्रस्त यौवन जल पी-पीकर मैं 'क्षिप्त' से भी आगे एक पग 'विक्षिप्त' हो चुका हूँ और शीघ्र ही मोहमूढ़ होनेवाला हूँ! भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा। मघा में अगाध जल है। पृथ्वी की तृषा आश्लेषा और मघा के जल से ही तृप्त होती है। यदि मघा में धरती की प्यास नहीं बुझी तो उसे अगले संवत्सर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। न केवल परिमाण में, बल्कि गुण में भी मघा का जल श्रेष्ठ है। मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : 'बरसै मघा झकोरि-झकोरी। मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।' मघा बरसी, मानो दूध बरसा, मधु बरसा। इस मघा के बाद आती है पूर्वाफाल्गुनी जो बड़ी ही रद्दी-कंडम नक्षत्र है। इसका पानी फसल जायदाद के लिए हानिकारक तो है ही, उत्तर भारत में बाढ़-वर्षा का भय भी सर्वाधिक इसी नक्षत्र-काल में रहता है। इसी से उत्तर भारतीय गंगातीरी किसान इसे एक कीर्तिनाशा-कर्मनाशा नक्षत्र मानते हैं। इसके बाद आती है उत्तराफाल्गुनी, भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र, जो समूचे पावस में मघा के बाद दूसरी उत्तम नक्षत्र है। इसका पानी स्वास्थ्यप्रद और सौभाग्यकारक होता है। इस अड़तीसवें पावस में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब कितनी देर ही है।

अतः आज पूर्वाफाल्गुनी का अंतिम पानपात्र मेरे होंठों से संलग्न है। क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है। इनको ही मैं क्रमशः विद्रोह, प्रगति और नवलेखन कहकर पुकारता हूँ। भले ही यह विकार-जल हो, भले ही इसमें श्रेय-प्रेय, गति-मुक्ति कुछ भी न हो। परंतु इसमें जीर्णता और जर्जरता नहीं। यह जरा और वृद्धत्व का प्रतीक नहीं। पूर्वाफाल्गुनी द्वारा प्रदत्त विक्षिप्तता भी यौवन का ही एक अनुभव है। मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर कोई उपंग बजा रहा है क्योंकि मेरे सम्मुख द्वार पर काल-नट्टिन अर्थात् उत्तराफाल्गुनी त्रिभंग रूप में खड़ी है और मैं उसमें मार की तीन कन्याओं तृषा-रति-आर्त्ति को एक साथ देख रहा हूँ। कांचनपद्म कांति, कर-पल्लव, कुणितकेश, बिंबाधर, विशाल बंकिम भ्रू, दक्षिणावर्त नाभि, और त्रिवली रेखा से युक्त इस भुवन-मोहन रूप को मैं देख रहा हूँ और इसको आगमनी में अपने भीतर बजती उपंग को निरंतर सुन रहा हूँ। उपंग एक विचित्र बाजा है। काल-पुरुषों की उँगलियाँ चटाक-चटाक पड़ती है और आहत नाद का छंदोबद्ध रूप निकलता है बीच-बीच में हिचकी के साथ। यह हिचकी भी उसी काल-विदूषक की भँड़ैती है और यह उपंग के तालबद्ध स्वर को अधिक सजीव और मार्मिक कर देती है। मैं अपने भीतर बजते यौवन का यह उपंग-संगीत सुन रहा हूँ और अपने मनोविकारों का छककर पान कर रहा हूँ। मुझे कोई चिंता नहीं। अभी वानप्रस्थ का शरद काल आने में काफी देर है। इस क्षण उसकी क्या चिंता करूँ? इस क्षण तो बस मौज ही मौज है, भले ही वह कटुतिक्त मौज क्यों न हो; काम भुजंग के डँसने पर तो नीम भी मीठी लगती है। अतः यह काल-नटी, यह पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी, यह 'नैनाजोगिन' कितनी भी भ्रान्ति, माया या मृगजल क्यों न हो, मैं इसके रूप में आबद्ध हूँ। इसमें मुझे वही स्वाद आ रहा है जो मायापति भगवान को अपनी माया के काम मधु का स्वाद लेते समय प्राप्त होता है और जिस स्वाद को लेने के लिए वे परमपद के भास्वर सिंहासन को छोड़कर हम लोगों के बीच बार-बार आते हैं। अतः इस समय मुझे कोई चिंता, कोई परवाह नहीं।

परंतु एक न एक दिन वह क्षण भी निश्चय ही उपस्थित होगा जिसकी श्रंगारहीन शरद यवनिका के पीछे जीर्ण हेमंत और मृत्युशीतल शिशिर की प्रेतछाया झलकती रहेगी। 'उस दिन, तुम क्या करोगे? है तुम्हारे पास कोई बीज-मंत्र, कोई टोटका, कोई धारणी-मंत्र जिससे तुम अगले बीस-बाईस वर्षों के लिए इस उत्तराफाल्गुनी के पगों को स्तंभित कर दो और वह अगले बीस-बाईस वर्ष तुम्हारे द्वारदेश पर, शिथिल दक्षिण चरण, ईषत कृंचित जानु के साथ आभंग मुद्रा में नतग्रीव खड़ी रहे और तुम्हारे हुकुम की प्रतीक्षा करती रहे? है कोई ऐसा जीवन-दर्शन, ऐसा सिद्धाचार, ऐसी काया सिद्धि जिससे बाहर-बाहर शरद-शिशिर, पतझार-हेमंत आएँ और जूझते-हार खाते चले जाएँ। परंतु मनस की द्वार-देहरी पर यह उत्तराफाल्गुनी एक रस साठ वर्ष की आयु तक बनी रहे? है कोई ऐसा उपाय? यह प्रश्न रह-रहकर मैं स्वयं अपने ही से पूछता हूँ। आज से तेरह वर्ष पूर्व भी मैंने इस प्रश्न पर चिंता की थी और उक्त चिंतन से जो समाधान निकला उसे मैंने कार्य-रूप में परिणत कर दिया। परंतु इन तेरह वर्षों में असंख्य भाव-प्रतिभाओं के मुंडपात हुए हैं और आज मैं मूल्यों के कबंध-वन में भाव-प्रतिभाओं के केतु-कांतार में बैठा हूँ। आज जगत वही नहीं रहा जो तेरह वर्ष पूर्व था। एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई बूँद स्थिर नहीं। अतः शताब्दी के आठवें दशक के इस प्रथम चरण में मुझे उसी प्रश्न को पुनः-पुनः सोचना है : कैसे जीर्णता या जरा को, यदि संपूर्णतः जीतना असंभव हो तो भी फाँकी देकर यथासंभव दूरी तक वंचित रखा जाए? कैसे अपने दैहिक यौवन को नहीं, तो मानसिक यौवन को ही निरंतर धारदार और चिरंजीवी रखा जाय? उस दिन तो मैंने सीधा-सीधा उत्तर ढूँढ़ निकाला था : 'ययाति की तरह पुत्रों से यौवन उधार लेकर।' अर्थात मैं कोई नौकरी न करके कॉलेज में अध्यापन करूँ तो मुझ पचपन या साठ वर्ष की आयु तक युवा शिष्य-शिष्याओं के मध्य वास करने का अवसर सुलम होगा। मैं इनकी आशा-आकांक्षा, उत्साह, साहस, उद्यमता आदि से वैसे ही अनुप्राणित और आविष्ट रहूँगा जैसे चुंबकीय आकर्षण-क्षेत्र में पड़कर साधारण लोहा भी चुंबक बन जाता है।

परंतु विगत दशक के अंतिम दो वर्षों में जब मेरे ये बालखिल्य सहचरगण छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट बनने लगे, जब इन्होंने मेरे गुरुओं, गांधी-विवेकानंद-विद्यासागर-सर आशुतोष, की प्रतिमाओं का एवं उनके द्वारा प्रति-पादित मूल्यों का, अनर्गल मुंडपात करना शुरू कर दिया, जब इनके नए दार्शनिकों ने कहना प्रारंभ किया कि आध्यापक और छात्र के बीच भी श्रेणी-शत्रुओं का संबंध है क्योंकि अध्यापक भी 'स्थापित व्यवस्था' का एक अंग है और 'व्यवस्था' का भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है, तब देश में घटित होती हुई इन घटनाओं पर विचार करके और क्रांति तथा 'नई पीढ़ी' के दार्शनिकों - यथा हिबर्ट मारक्यूज, चेग्वारा, ब्रैंडिटकोहन आदि की चिंतनधारा से यथासंभव अल्प स्वल्पे परिचय पा करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं इन अपने भाइयों, अपने हृदय के टुकड़ों के साथ जो आज छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट हैं, कुछ ही दूर तक, आधे रास्ते ही जा सकता हूँ। विविध प्रकार के नारों से आक्रांत ये नए 'पुरूरवा' ('पुरूरवा' का शब्दार्थ होता है 'रवों' (आवाजों या नारों) से आक्रांत या पूरित पुरुष। 'ययाति' पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो पुरूरवा नई पीढ़ी का।) यदि मुझे यौवन उधार देंगे भी तो बदले में मुझे भी कबंध में रूपांतरित होने को कहेंगे। और मैं कैसे अपना चेहरा, अपनी आत्म-सत्ता, अपना व्यक्तित्व त्याग दूँ? 'छिन्नमस्त' पुरुष बनकर यौवन लेने से क्या लाभ? बिना मस्तक के बिना अपने निजी नयन-मुख-कान के इस उधार प्राप्त नवयौवन का नया अर्थ होगा? रूप, रस, गंध और गान से वंचित रह जाऊँगा। केवल शिश्नोदरवाला व्यक्तित्व लेकर कौन जीवन-यौवन भोगना चाहेगा? कम-से-कम बुद्धिजीवी तो नहीं ही। आत्मार्थ पृथिवी त्यजेत? अतः मुझे चिरयौवन को इन शिष्य-पुरूरवाओं की नई पीढ़ी से दान के रूप में नहीं लेना है। तेरह वर्ष पहले का चिंतित समाधान आज व्यर्थ सिद्ध हो गया है। मुझे अन्यत्र चिरयौवन का अनुसंधान करना है। कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी। उसे ही मुझे आविष्कृत करना होगा। जो बाहर-बाहर अप्राप्य है वह सब-कुछ भीतर-भीतर सुलभ है। मैं अपने ही हृदय समुद्र का मंथन करके प्राण और अमृत के स्रोत किसी चंद्रमा को आविष्कृत करूँगा। तेरह वर्ष पुराना समाधान आज काम नहीं आ सकता।

मैं मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है। मैं बालखिल्यों के क्रोध की सार्थकता को स्वीकार करता हूँ। पर साथ ही छिन्नमस्ता शैली के सस्ते रंगांध और आत्मघाती समाधान को भी मैं बेहिचक बिना शील-मुरौवत के अस्वीकार करता हूँ। अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर। पुरानी पीढ़ी का चिरयक्षत्व मुझे भी अच्छा नहीं लगता। मैं भी चाहता हूँ कि वह पीढ़ी अब खिजाब-आरसी का परित्याग करके संन्यास ले ले। शासन और व्यवस्था के पुतली घरों की मशीन-कन्याएँ उनकी बूढ़ी उँगलियों के सूत्र-संचालन से ऊब गई हैं और उनकी गति में रह-रह कर छंद-पतन हो रहा है। यह बिल्कुल न्याय-संगत प्रस्ताव है कि पूर्व पीढ़ी अपनी मनुस्मृति और कौपीन बगल में दबाकर पुतलीघर से बाहर हो जाय और नई पीढ़ी को, अर्थात हमें और हमारे बालखिल्यों को अपने भविष्य के यश-अपयश का पट स्वयं बुनने का अवसर दे जिससे वे भी अपने कल्पित नक्शे, अपने अर्जित हुनर को इस कीर्तिपट पर काढ़ने का अवसर पा सकें। यह सब सही है। परंतु क्या इन सब बातों की संपूर्ण सिद्धि के लिए इस पुतलीघर का ही अग्निदाह, पुरानी पीढ़ी द्वारा बुने कीर्तिपट के विस्तार का दाह, उनके श्रम फल का तिरस्कार आदि आवश्यक हैं? क्या ऐसा सब करना एक आत्मघाती प्रक्रिया नहीं? इस स्थल पर डॉ. राधाकृष्णन या आचार्य विनोबा भावे की राय को उद्धृत करूँ तो वह क्रांति के इन 'दुग्ध कुमारों' के लिए कौड़ी की तीन ही होगी। अतः मैं लेनिन जैसे महान क्रांतिकारी की राय उद्धृत कर रहा हूँ! 1922 ई. मैं लेनिन ने लिखा था, 'उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा... हम सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। 'सर्वहारा संस्कृति' अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। 'सर्वहारा संस्कृति' उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।' यह बात स्वामी दयाननंद या पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की होती तो बड़ी आसानी से कह सकते 'मारो गोली! सब बूर्ज्वा बकवास है।'; पर कहता है क्रांतिकारियों का पितामह लेनिन, जिसे एक कट्टर बंगाली मार्क्सवादी नीरेंद्रनाथ राय ने अपनी पुस्तक 'शेक्सपियर-हिज ऑडिएंस' के पृष्ठ (49-50) पर उद्धृत किया है। आज प्रायः लोग पुकारकर कहते हैं : 'देखो, देखो जोखिम उठा रहा हूँ, मूल्य भंजन कर रहा हूँ। अरे बंधु, जोखिम उठा रहे हो या नाम कमा रहे हो? यह तो आज अपने को प्रतिष्ठित बनाने और जाग्रत सिद्ध करने का सबसे सटीक तरीका 'शॉर्टकट' यानी तिरछा रास्ता है। जोखिम तुम नहीं उठा रहे हो तुम तो धार के साथ बह रहे हो और यह बड़ी आसान बात है। आज जोखिम वह उठा रहा है जो नदी की वर्तमान धारा के प्रतिकूल, धार के हुकुम को स्वीकारते हुए कह रहा है : 'मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे? वह बदला जा सकता है तोड़ा नहीं जा सकता। मूल्य स्थिर या सनातन नहीं होता, यह भी मान लेता हूँ। परंतु एक अविच्छिन्न मूल्य-प्रवाह, एक सनातन मूल्य-परंपरा का अस्तित्व तो मानना ही होगा।' नए बालखिल्य दार्शनिक कहेंगे - 'यह धार के विपरीत जाना हुआ। यह तो प्रतिक्रियावाद है।' ऐसी अवस्था में मेरा उन्हें उत्तर है : 'कभी-कभी नदी की धार पथभ्रष्ट भी हो जाती है। वह सदैव प्रगति की दिशा में ही नहीं बहती। वह स्वभाव से अधोगति की ओर जानेवाली होती है। और आज? आज तो वन्याकाल है। वन्याकाल में धार पथभ्रष्ट रहती है। वह कर्मनाशा-कीर्तिनाशा-कालमुखी बनकर हमारे गाँव को रसातल में पहुँचाने आ रही है। अतः इस क्षण हमारी प्यारी नदी ही शत्रुरूपा हो गई है। और यदि गाँव को बचाना है तो हम धार के प्रतिकूल समर करेंगे। यदि हम अपना घर-द्वार फूँककर तमाशा देखकर मौज लेनेवाले आत्मभोगी 'नीरो' की संतानें नहीं है तों हमें इस नदी से समर करना ही होगा। यही हमारी जिजीविषा की माँग है। और इसके प्रतिकूल जो कुछ कहा जा रहा है, वह 'नई पीढ़ी' की बात हो या पुरानी की, मुमुक्षा का मुक्ति भोग है। यह सब विद्रोह नहीं बूर्ज्वा डेथविश का नया रूप है।'

अतः मै धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है, रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या रचनाकार के लिए 'नॉनकनफर्मिस्ट' होना जरूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती। अतः मुझे भी विद्रोही दर्शनों से अपने को किसी न किसी रूप में आजीवन संयुक्त रखना ही है। एक लेखक होने के नाते यही मेरी नियति है, और इस तथ्य को अस्वीकृत करने का अर्थ है अपनी सिसृक्षा की सारी संभावनाओं का अवरोध। परंतु लेखक, कवि या किसी भी साहित्येतर क्षेत्र के सर्जक या विधाता को यह बात भी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि शत-प्रतिशत अस्वीकार या 'नॉनकनफर्मिज्म' से भी रचना या सृजन असंभव हो जाता है। पुराने के अस्वीकार से ही नए का आविष्कार संभव है। यह कुछ हद तक ठीक है। परंतु नए भावों या विचारों के 'उद्गम' के बाद 'उपकरण' या अभिव्यक्ति के साधन का प्रश्न उठता है और इसके लिए 'नॉनकनफर्मिज्म' को त्यागकर पचहत्तर प्रतिशत पुराने उपकरणों में से ही निर्वाचित-संशोधित करके कुछ को स्वीकार कर लेना होता है। रचना की 'आइडिया' के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन' चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्रॉसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया में 'स्वीकारवादी मन' की भी उतनी ही आवश्यकता है। अन्यथा 'आइडिया' या ज्ञान का 'क्रिया' में रूपांतर संभव नहीं। अतः प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो, 'विद्रोही' और 'स्वीकारवादी' दोनों साथ ही साथ होता है। 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' के फैशनेबुल दर्शन के प्रति मेरा आक्षेप यह भी है कि यह एक स्वयं आरोपित 'नो एक्जिट' (द्वारा या वातायन रहित अवरुद्ध कक्ष) है, इसको लेकर बहुत आगे तक नहीं जाया जा सकता है। यह दर्शन विषय और विधा दोनों की नकारात्मक सीमा बाँधकर बैठा है। और इसके द्वारा अपने 'स्व' को भी पूरा-पूरा नहीं पहचाना जा सकता है; तो 'स्व' से बाहर, इतिहास और समाज को समझने की तो बात ही नहीं उठती। यह 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' का दर्शन कभी अस्तित्ववाद का चेहरा लेकर आता है तो कभी नव्य मार्क्सवाद का (क्लासिकल मार्क्सवाद से भिन्न); और ये दोनों मानसिक-बौद्धिक स्तर पर मौसेरे भाई हैं। ये एक ही ह्रासोन्मुखी संस्कृति की संतानें हैं। योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़, निरुद्ध और आरूढ़। ये दोनों दर्शन विमूढ़ स्थिति के दो भिन्न संस्करण हैं, अतः दोनों त्याज्य हैं।

यह बाढ़-वन्या का काल है। नदी अपनी दिशा भूलकर, कूल छोड़कर उन्मुक्त हो गई है, अतः बुद्धजीवी वर्ग से धीरता और संयम अपेक्षित है। घबराकर वन्या की पथभ्रष्ट धार के प्रति आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जल के उत्तरण, वन्या के 'उतार' की प्रतीक्षा करना अधिक उचित है। पानी हटने पर नदी फिर कूलों के बीच लौट जाएगी। नदी अपनी शय्या यदि बदल भी दे, तो भी नई शय्या के साथ कोई कूल, कोई अवरोध तो उसे स्वीकार करना ही होगा। यह नया कूल भी उसी पुराने कूल के ही समानान्तर होगा। नदी तब भी समुद्रमुखी ही रहेगी। उलटकर हिमाचलमुखी कभी नहीं हो सकती। अतः इस वन्या नाट्य के विष्कंभक के बीच का समय मैं न तो बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ और न बहुत चिंताजनक। मैं बिल्कुल अविचलित हूँ। मेरा विश्वास है कि कल नहीं तो परसों हम अर्थात पुरानी पीढ़ी का युवा और मेरे बालखिल्य छात्र-छात्राएँ अर्थात नई युवा पीढ़ी, दोनों मिलकर इस शासन एवं व्यवस्था के पुतलीघर की नृत्य कन्याओं के कत्थक नृत्य को साथ-साथ संचालित करेंगे। यह पुतलीघर ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है। अन्यथा जरा भी छंद पतन होने पर कोई न कोई भयावह पुतली एक ही झपट्टे में हड्डी आँत तक का भक्षण कर डालेगी क्योंकि इन पुतलियों में से कोई-कोई विषकन्याएँ भी हैं। अतः मैं चेष्टा करूँगा कि अपने अंदर की अमृता कला का आविष्कार करके इस उत्तराफाल्गुनी काल को बीस बाइस वर्ष के लिए अपने अंतर में स्थिर अचल कर दूँ, बाहर-बाहर चाहे शरद बहे या निदाघ हू-हू करे। तब मैं अपने बालखिल्य सहचरों के साथ व्यवस्था की इन पुतलियों का छंदोबद्ध नृत्य भोग सकूँगा। और एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर मेरे कानों में कहेगा 'फाइव ओ' क्लाक! पाँच बज गए!' कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जायगा : 'बहुत हुआ। बहुत भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ चरिष्यामि।' और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरुष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा लोकारण्य में, खो जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं। अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।

कुब्जा-सुंदरी कुबेरनाथ राय

हमारे दरवाज़े की बगल में त्रिभंग-मुद्रा में एक टेढ़ी नीम खड़ी है, जिसे राह चलते एक वैष्णव बाबा जी ने नाम दे दिया था, 'कुब्जा-सुंदरी'। बाबा जी ने तो मौज में आकर इसे एक नाम दे दिया था, रात भर हमारे अतिथि रहे, फिर 'रमता योगी बहता पानी'! बाद में कभी भेंट नहीं हुई।

परन्तु तभी से यह नीम मेरे लिए श्रीमद्भागवत का एक पन्ना बन गई। इसके वक्र यष्टि-छंद में मुझे तभी से एक सौंदर्य बोध मिलने लगा। वैसे भी यह है बड़े फायदे की चीज। अपने आप उगी, बिना किसी परिचर्या के बढ़ती गई, पौधे से पेड़ बन गई और अब मुफ्त में शीतल छाँह देती हैं, हवा को शुद्ध और नीरोग रखती है, हजर किस्म के रोगों के लिए उपचार-द्रव्य के रूप में छाल, पत्ती, फूल, फल और तेल देती है, पशु और मनुष्य के रोगों से जूझती है, सबसे बढ़कर सुबह-सुबह राम-राम के पहर दातून के रूप में मुँह साफ़ करती है, बाद में मैं अपना मुँह गन्दा करूँ या अश्लील करूँ तो यह बेचारी क्या करे? नाम भले ही वृन्दावनी हो पर इसकी भूमिका वैष्णवता के उस साफ-सुथरे संस्करण की है जिसे संत कबीर ने अपनाया था। वैसे तो संत और भक्त में मैं कोई खास प्रभेद नहीं मानता। संत 'हंस' है तो भक्त 'मराल'। नाम का ही फ़र्क है। बात एक ही है। संत और भक्त की मूल प्रकृति एक ही होती है। दोनों ही वैष्णव हैं।

अब राजनीति उन्हें वाद-प्रतिवाद के रूप में रखे तो रखे - 'दाख छुहारा छांड़ि अमृत फल विष-कीरा विष खात!' अपना-अपना स्वाद है! परन्तु हिन्दुस्तान का किसान-मन उन्हें एक ही मानता है। वैसे तो फागुन-चैत में यह नीम भी वृन्दावनी साज-शृंगार ले लेती है। पर महज एक ऋतु के लिए। फागुन में इसके पत्ते झड़ने लगते हैं। वैराग्य की उदासी का अपूर्व पीतवर्णी शान्त रस इस पर उतरता है। फिर चैत्र चढ़ते ही नरम टूसे और पत्तियाँ जीवन और यौवन की कविता की तरह फूटने लगती हैं। देखते-देखते ही वृक्ष शोभामय हो उठता है और इसके नाम से जुड़ा 'सुन्दरी' शब्द तभी सार्थक लगता है। फिर रात में नन्हें-नन्हें सुगन्धित पीतगर्भी श्वेत फूलों की मंजरियाँ लग जाती हैं। पतझर की पीली अपर्णा उदासी से लेकर निर्मल चाँदनी में स्नान करती हुई वासन्ती रातों की सुगन्ध तक यह नीम कविता-ही-कविता है। प्रति संध्या को प्रत्येक डाल चहचहाहट से भर उठती है। पेंपा, गौरया, सुग्गे और एकाध कौए भी इस पर रैन बसेरा लेते हैं। तब गंध और गान से इसका विश्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। चाँदनी रातों में तो यह 'देवी-यान' बन जाती है। लोग कहते हैं कि सबकी नज़रों से अदृश्य पार्वती की सातों बहनों का रथ आकाश से उतरता है और नीम की डाल से पार्वती की सातों बहनें एकान्त में झूला झूलती हैं। मनुष्य-चक्षुओं से अदृश्य वसन्तकालीन रातों में।

भोजपुरी लोकगीतों में यह विश्वास बार-बार व्यक्त होता है भयमिश्रित श्रद्धा के साथ! वैद्यों-डॉक्टरों की वात्सल्यमयी माँ यह वसन्त ऋतु नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए चेचक का उपहार लेकर आती है (असम, बंगाल में तो 'वसंत' का एक अर्थ 'चेचक' भी होता है) और चेचकग्रस्त शिशु के सिरहाने नीम की पतली कंछिया रख दी जाती है। अत: उत्तर भारत में यह कटु तिक्त नीम भी 'देवी-तरु' मानी जाती है। 'नीप' या 'कदम्ब' की तरह। 'नीम' और 'नीप' में एक अक्षर का ही अंतर है तो भी दोनों का व्यक्तित्व भिन्न हैं। 'नीप' अर्थात कदम्ब त्रिपुर सुन्दरी का वृक्ष है तो 'नीम' शीतला का। आधी रात को 'नीप' के कुंजों में गंधर्वों की बाँसुरी बजती है, तो आधी रात को 'नीम' की डाल पर देवी की सातों बहनों की चूड़ियाँ खनकती हैं। इस नीम का एक कुहकी रूप है 'महानिम्ब' या 'बकायन' जिसके पत्ते भी नीम की तरह सीकों पर लगते हैं और ये पत्तियाँ कटुतिक्त नहीं होतीं तथा अपने द्रव्य-गुण के कारण दक्षिण भारत में तेजपात की तरह इसका प्रयोग होता है। वहाँ इसे 'गौरी नीम' भी कहते हैं। पर उत्तर भारत में 'बकायन' का उल्लेख शबर मंत्रों में 'अकाइन बकाइन लोना चमाइन' के रूप में होता है। अत: यह वृक्ष लोक की भयमिश्रित श्रद्धा का पात्र है और बाग बगीचे के एकान्त कोने में ही लगाया जाता है। बस्ती के भीतर इसका प्रवेश नहीं। परन्तु कटु नीम तो रास्ते-चौरस्ते और आँगन की शोभा है - नीरोग छाँह, शुद्ध पवन और मनसायन कलरव! एक ग्राम-कथिका है 'निबिया रे करुआइन तबो शीतल छाँह, भइया रे बिराना, तबो दाहिन बाँह!' यानी नीम कटु होने पर भी शीतल छाया देती है और दूर के रिश्ते का भाई भी अपनी बाँह होता है।

उत्तर भारत में नीम भले ही लोक विश्वास में 'देव तरु' माना जाता हो, शास्त्र में इसे मात्र भैषज्य-तरु की ही महत्ता है। परन्तु उड़ीसा में नीम को 'ब्रह्म दास' की संज्ञा मिली है, वह शायद इसलिए है कि उत्कल के महादेवता जगन्नाथ जी का कलेवर यानी मूर्ति नीम-काष्ठ से ही बनती है और प्रति द्वादश वर्ष के बाद उसका 'नव यौवन' अर्थात 'नवीनीकरण' किया जाता है। इस नव कलेवर-उत्सव को 'नव यौवन-उत्साह' कहते हैं। मैंने पहले पहल इस बात को आज से पैंतीस वर्ष पूर्व कलकत्ते में अपने मित्र वनमाली गोस्वामी से सुना था। उन्होंने जब कहा, इस बार जून-जुलाई में पुरी जा रहा हूँ नव-यौवन दर्शन करने! सुनकर मैं तो चमत्कृत हो गया और अपनी तत्कालीन भंगिमा और भाषा में मैंने पूछा था, यार, इस कलकत्ते में नवयौवन का अकाल पड़ा है क्या, कि उत्कल देश को आपकी आँखें पवित्र करने को तुली हैं। उन्होंने मेरे अज्ञान का तत्काल निवारण करते हुए असल अर्थ बताया और आगे भी बताया कि उड़ीसा के लोग इस नीम को अत्यंत पवित्र मानते हैं और इसकी संज्ञा 'दारु ब्रह्म' है। यदि वेद व्यास उड़िया होते तो वे गीता में अवश्य कहला देते, वृक्षाणां निम्बोऽस्मि । वस्तुत: हिन्दुस्तानी मन जीवन को प्रकृति और ईश्वर से जोड़कर देखता है। उसके मन में जो कुछ उपयोगी और रसमय है वह सब अपने आप ईश्वर से जुड़ जाता है।

वनमाली थे उड़िया ब्राह्मण, परन्तु गौड़ीय वैष्णव मत को मानते थे। उनसे मैंने वैष्णवों की अनोखी शब्दावली का थोड़ा-बहुत ज्ञान भी अर्जित किया था। उदाहरण के लिए वैष्णव लोग खाना तो खाते ही नहीं, भोजन भी नहीं करते, बल्कि 'प्रसाद' ग्रहण करते हैं, 'भात' को 'अन्न' कहते हैं, दाल को 'रसम्' - 'तरकारी' शब्द का उच्चारण किया कि सीधे नरक में चले गए! अत: इसे 'शाक' कहते हैं। उनमें खीर के लिए 'परमान्न' और पुलाव के लिए 'पुष्पान्न' चलता है। भोजपुरी लोगों की दालपूरी के लिए 'राधा वल्लभी' और गाजीपुरी सत्तू-बाटी के लिए 'मुकुन्दी'। मुझे सबसे अद्भुत लगा उनके रसशास्त्र का 'अभियोग' शब्द। हम तो जानते थे कि 'अभियोग' माने होता है मुकदमा और 'अभियुक्त' माने अपराधी परन्तु उनके शास्त्र में प्रेमी या प्रेमिका द्वारा एक-दूसरे को आकर्षित करने के तरीके को 'अभियोग' कहते हैं। जैसे कि नायिका बाग-बगीचे में जा रही है जो अक्सर वैष्णव कविता में जाती है, वहीं नायक दिखाई पड़ गया तो उसे दिखाकर एक नरम कच्चे किसलय अथवा पल्लव को दाँत से काटना, या नायक द्वारा अपने साथी को, नायिका को दिखाकर, किसी फल को देना जैसी इशारेबाजियाँ 'अभियोग' है।

आप कहेंगे कि कड़वी नीम के सन्दर्भ में भारत की मधुरतम रस-परम्परा की यह चर्चा करना अनर्गल है। ये चर्चाएँ तो कदम्ब-तमाल के सन्दर्भ में होनी चाहिए। परन्तु 'वय: कैशोरकं ध्येयम' यानी 'वयस में किशोर-वय ही आराध्य है' की घोषणा करने वाले माधवेन्द्र पुरी के प्राशिष्य थे महाप्रभु चैतन्य जिन्होंने अपनी साधना का केन्द्र 'राधा' को ही बनाया। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि इस राधा-उपासना के आदि प्रवर्तक अपने कलिकाल में निम्बकाचार्य ही माने जाते हैं। तो यह कटु नीम इस रस-उपासना के आदि प्रवर्तक अपने कलिकाल में निम्बकाचार्य ही माने जाते हैं। तो यह कटु नीम इस रस-परम्परा के आदि गुरु के नाम से जुड़ी है और राधा-माधव के परम प्रिय 'करील' से तो लाख दर्जे सुन्दर और आकर्षक है। करील, कदम्ब और तमाल को जिन्होंने कभी नजदीक से देखा न हो उन्हें कोई धोखा दे, उनके बाह्य रूप रंग में 'नाम बड़े पर दर्शन थोड़े' वाली बात ही है। नीम फागुन-चैत-वैसाख तीन महीने पूर्वराग-राग-महाराग के प्रतीक किसी भी महीरुह से शोभा और शृंगार में मुकाबला कर सकती है। करील में तो काँटे ही काँटे हैं। उससे खूबसूरत तो अपने खेत-खलिहान की बबूल है। ग्रीष्म आते ही यह चटक पीले फूलों से ढँक जाती है तो उन काँटों के बावजूद उसे मानना पड़ता है।

कदम्ब का पेड़ शीशम की तरह ही लम्बा छरहरा होता है। पर बड़े-बड़े पत्ते होते हैं पलाश की तरह। फूल कन्दुक यानी गेंद की तरह बड़े-बड़े। इनमें दल नहीं होते। जीरे या पराग-सूत्रों से गठित सघन पुष्प-कन्दुक। हल्का हरित पीत वर्ण, कोई सौंदर्य नहीं। परन्तु इनकी सुगन्ध बड़ी मादक और मीठी होती है। कदम्ब की असल खूबी है इसकी मीठी मादक गंध और इसकी शाखाओं या कोटरों से चूती हुई 'नीरा' जिसे 'कदम्ब मधु' कहते हैं। हिमालय के निचले भागों में जहाँ किरातों की गंधर्वशाखा रहती थी ये पेड़ बहुतायत से मिलते थे। वारुणी और मादक सुगंध के कारण तथा पावस ऋतु में पुष्पित होने के कारण यह पेड़ गन्धर्व-संस्कृति से और कामदेव से जुड़ गया। फिर बाद में यमुना तट पर आरण्यक रूप में उपस्थित होने के कारण 'साक्षात् मन्मथ-मन्मथ:' श्रीकृष्ण की महाराग-लीला का अनिवार्य अंग बन गया। यह त्रिपुर सुंदरी का भी परम प्रिय वृक्ष बना इसी वारुणी गंध और गंधर्व संस्कृति के कारण। वैसे भी में मानता हूँ कि नीम मूलत: उपयोगी भैषज्य-तरु ही है। परन्तु रूप-गंध-सुषमा-सौन्दर्य से यह एकदम रिक्त भी नहीं है, अत: इसके संदर्भ में रस-चर्चा की बात बिल्कुल अनर्गल हो, ऐसी बात नहीं।

राधा का चर्चा तो सभी करते हैं, पर कुब्जा की चर्चा प्राय: नहीं होती। किसी ने की भी तो गोपियों के मुँह से खरी-खोटी का लक्ष्य बनाकर ही। परन्तु कुब्जा की ओर से शायद ही कोई जवाब देने जाता है। वैसे 'ग्वालकवि' ने मथुरा निवासी होने के कारण ही शायद 'कुब्जाष्टक' लिखकर पड़ोसी का कर्तव्य पालन अवश्य किया है और गोपियों की कटूक्तियों का 'सौ सुनार की न एक लोहार की' शैली में कुब्जा सुन्दरी का प्रत्युत्तर व्यक्त किया है। कुब्जा कहती है कि वे बेहया गोपियाँ मुझे क्या कहेंगी? कहीं चलनी भी सूप पर हँस सकती है? 'बनन में, बागन में, यमुना किनारन में, खेत में, खरान में, खराब होती डोली वै।' मैं तो उनसे लाख दर्जे अच्छी हूँ। इस शताब्दी के प्रारम्भ में एक बार द्विवेदी युग के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि पण्डित नवनीतलाल चतुर्वेदी का आगमन बनारस में हुआ और तत्कालीन काशिराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ने, जो स्वयं भी कवि थे, उनसे आग्रह किया, चौबे जी, हमें लगत हौ कि कुब्जा के साथे ब्रजभाषा के कविन द्वारा न्याय नाही हुआ है। अब आपै कुछ कृपा करीं। महाराज ने तो मौज में आकर बात कह दी थी। परन्तु चतुर्वेदी जी ने दूसरे ही दिन 'कुब्जा-पचीसी' लिखकर महाराज के सामने प्रस्तुत कर दी। कुब्जा की ओर दिए गए एक से एक धाँसू जवाब। बानगी देखें, कुब्जा उद्धव द्वारा लाए गए कटु-तिक्त संदेश के उत्तर में कहती है:

गोबर की डलिया सिर लै कब गायन में हम जाति हैं रूँधन।    त्यों 'नवनीत' दुहावन के मिस द्वार किवार दिए कब मूँदन।    कौन दिना बन बीच कही हरि कामरि लाई बचाइयो बूँदन    उद्धव और कहा कहिए, कब खोलि दिए फरियान के फूँदन।

इसमें 'फरिया' शब्द से पूरब वाले शायद परिचित न हों। पहले जमाने में अन्तर्वास के रूप में मर्द जाँघिया पहनते थे और नारियाँ फरिया जो घाघरे के नीचे रहती थी। राजपूत चित्रकला में यह लक्ष्य किया जा सकता है। जाँघिया जांघों तक ही रहता है, पर फरिया पूरी टाँग को ढँकती है। शेष तो बड़ा ही स्पष्ट है। परन्तु एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस समय नवनीत जी ने इस रचना के छन्दों को लिखा था वे पूर्णत: नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। बहुत बाद में 46 वर्ष की अवस्था में अपने गुरु के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। वैष्णव धर्म में विशेषत: पुष्टिमार्ग में गृहस्थाश्रम को ही सर्वोच्च महत्व दिया गया है। यदि कोई आधुनिक आलोचक अपने फ्रांयड-युंग के ज्ञान का इस पर आरोपण करे और उनके जीवन के बारे में कोई कुकल्पना करे तो अपनी शोध की कलम को ही गन्दी करेगा। वैष्णव-संस्कृति में प्रशिक्षित मन इस बात को भली भाँति समझता है कि ये सब 'राधा-गोविन्द-सुमिरन' के बहाने हैं। इनका क्रियात्मक अर्थ शैली और भंगिमा तक ही सीमित है। ये सब मध्यकालीन वैष्णव काव्य रूढ़ियों का अनुगमन मात्र है। ठीक वैसे ही जैसे आज की आधुनिक जनवादी कविता के अद्भुत अद्भुत जुझारू तेवर हैं। सूर के 'हों पतितन को टीको' या तुलसी के 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' के आधार पर उनके जीवन की व्याख्या करना घोर मूर्खता है और वैष्णव साहित्य परम्पराओं से घोर अपरिचय का द्योतक है। केलि-वर्णन और दैन्य-निवेदन के पदों को उनके सांस्कृतिक एवं शास्त्रीय संदर्भ में देखना ही सही ढंग से देखना है।

एक बार मैंने एक भागवत मर्मज्ञ पण्डित से इस कुब्जा-तत्व की चर्चा की थी तो उन्होंने बताया था कि कुब्जा वस्तुत: धरती का प्रतीक है और उसका कृष्ण-प्रेम पार्थिव स्तर तक ही सीमित था। दैहिक प्रेम से ऊपर उठ कर महाभाव में प्रवेश करने की वह अधिकारिणी नहीं थी। इसी से प्रेम की अपार्थिव ईश्वरीय लीला की वह सहचारिणी नहीं हो सकी। श्रीमद्भागवत एक 'रहस्य-काव्य' है और सारे रहस्य-काव्य प्रतीकों की भाषा में ही मुखरित होते हैं। गहन गंभीर बोध को वैखरी के स्तर पर उतारने के लिए अन्य कोई साधन ही नहीं। निर्गुण लीला में तो यह बात स्पष्ट है ही, सगुण लीला में भी यही बात है, क्योंकि 'चरित' जब दिव्य लीला के रूप में उतरता है तो 'रहस्य' व्यक्त करता है और 'रहस्य' की भाषा ही है प्रतीक भाषा।

रास लीला की बात लें। आर्य समाजियों से लेकर आज के नव शिक्षित तक सभी के तेवर इस पर अग्नि वर्षा करते हैं। परन्तु रास क्या कोई 'स्थूल' घटना है? वृन्दावन की लोक-संस्कृति में रास-नृत्य की प्रथा सदैव से है। इसको श्रीमद्भागवत ने एक सृष्टि के निरन्तर चालू भवति-प्रवाह के वृत्ताकार रूप का प्रतीक बना दिया है। केन्द्र में एक श्रीकृष्ण और परिधि के प्रत्येक जोड़े को परस्पर बाँधे हुए असंख्य कृष्ण। इस सृष्टि नाम की माल्यरचना में ईश्वर सूत्र की तरह उपस्थित हैं और एक इकाई को दूसरे से जोड़ता है। मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, सर्वत्र ही ईश्वर महान संयोजक या ग्रंथि के रूप में वर्तमान है। यह गाँठ टूट जाय तो माला बिखर जाएगी। वही सब कुछ को एक- दूसरे से बाँधे हुए हैं तथा केन्द्र में भी वही 'कर्माध्यक्ष' के रूप में है। गीता में उन्होंने कहा है, 'समासों में मैं द्वन्द्व समास' हूँ। द्वन्द्व समास तब घटित होता है जब दो संज्ञाएँ परस्पर जुड़ती हैं। पुत्र पिता से, पति पत्नी से, मित्र मित्र से, पड़ोसी पड़ोसी से, नागरिक नागरिक से जुड़ता है तो संसार बनता है और गतिशील होता है। यही है शाश्वत रासलीला जिसे श्रीमद्भागवत अपनी प्रतीक भाषा में व्यक्त करता है। इस 'विश्व नृत्य' को स्थूल भाषा के माध्यम से समझना ही भूल है।

इसी भाँति कुब्जा को देखें। कुब्जा और कोई नहीं कंस द्वारा शासित पृथ्वी ही है जो कुब्ज भोगने के लिए विवश है। अपने सहज रूप में यह उदार, क्षमामयी और सुंदर अपनी धरती ही कुब्जा है जिसे कंसों, केशियों और चाणूरों का अंग-शृंगार करना पड़ता था। उसका चोवा चंदन, उसका रूप, रस, गंध और गान इन पाप-विग्रहों की सेवा में अर्पित हो रहा था। इसी से वह ग्लानि से सिकुड़कर विकलांग हो गई थी। परंतु जब 'वरण' का क्षण आया तो इसी विवश धरती ने साहस किया और एक बार द्विधाहीन मन से भगवत अंग श्री का चंदन-शृंगार कर दिया। इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं। जब कोई मुक्ति मार्ग नहीं रह जाता तो विश्व मंगल की परम शक्ति का अवतरण और हस्तक्षेप होता है। उस समय ईश्वर भी अपेक्षा करता है कि वरण करने का कोई साहस दिखाकर आगे आए। कोई एक लोटा गंगाजल और बेलपत्र लेकर खड़ा हो जाए। तब वह एक लोटा गंगाजल ही युगों की संचित पाप-राशि का प्रक्षालन कर देता है। एक तिनपतिया बेलपत्र ही रुद्र की तीसरी आँख बन जाता है। कोई नन्हा-सा साढ़े तीन हाथ का आदमी साहस तो करे! श्रीमद्भागवत् के अनेक प्रसंग बड़े ही संकेतधर्मी हैं, जैसे यमलार्जुन उद्धार, दावानल पान, कालिया मर्दन या कुब्जा प्रेम आदि। श्रीमद्भागवत के मर्म को समझकर उसे पढ़ा जाए तो आज भी वह अप्रासंगिक नहीं। आज भी मारक अंधकार में अनेक हत्या-कक्ष चालू हैं जिनमें से किसी एक में कहीं न कहीं कृष्ण-जन्म होगा ही। उस जन्म की आकृति, भाषा और मुहावरा चाहे जो हो। मनुष्य जन्म पाकर भी हम निराशावादी क्यों बनें? हमारी सारी वाङमयी परंपरा इस निराशा के नरक से उद्धार के सूत्रों से भरी पड़ी है।

'पिङ् पिङ्, बिङ् पिङ् पिङ् बिङ्!' रात्रि में आकाश मंडल में 'नारद की वीणा बज रही है। चंद्र विगलित रात। 'कुब्जा सुंदरी' की दो शाखाओं के बीच चाँद झूल रहा है और रात पिघल कर सगुण-साकार चाँदनी बन गई हैं। विगलित चाँदनी की धारा! गोया रात ही पिघलकर नदी बनती जा रही हो। एक ध्या�