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इतिवृत्त अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

अनुक्रम

· रोग का रंग

· रोग

· जी का लोभ

· घबराहट

· झाड़फूँक

· पूजा-पाठ

· तन्त्र यन्त्र

· दान पुण्य

· दान पुण्य

· मृत्यु क्या है

· मृत्यु का भय

· मृत्यु का प्रभाव

· स्वर्ग

· नरक

· जन्मान्तर वाद

· संसार

अनुक्रम

रोग का रंग

    आगे

रोग का रंग

बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी बंगाल के एक बड़े प्रसिद्ध उपन्यास लेखक हैं। उन्होंने बंगला में 'विष वृक्ष' नाम का एक बड़ा ही अनूठा उपन्यास लिखा है। उसमें कालिदास की एक बड़ी मनोमोहक कहानी है-आप लोग भी उसको सुनिए। कालिदास के पास एक मालिन नित्य आया करती, यह मालिन बड़ी मनचली और चुलबुली थी, प्रकृति भी इसकी बड़ी रसीली थी। यह कालिदास से उनके बनाए रसीले श्लोकों को सुनती, और उसके बदले उन्हें फूलों का गजरा भेंट देती। कालिदास का मेघदूत बड़ा ही मनोहर काव्य है, पर उसके आदि के कई एक श्लोक कुछ नीरस से हैं। एक दिन कालिदास ने मालिन को इन्हीं श्लोकों को सुनाया, मालिन ने नाक भौं चढ़ाई, कुछ मुँह बनाया, कहा मालिन लोग अच्छे-अच्छे फूलों के लिए चक्कर लगाती हैं, आप हमको नाम के श्लोक की ओर क्यों घसीटते हैं। कालिदास ने कहा-तब तो तुम स्वर्ग में न जा सकोगी। मालिन के कान खड़े हुए, उसने कहा-क्यों? कालिदास ने कहा-स्वर्ग में पहँचने के लिए सौ सीढ़ियाँ तय करनी पड़ती हैं। इन सौ सीढ़ियों में पहले की कुछ सीढ़ियाँ अच्छी नहीं हैं। पर उनसे आगे की एक से एक बढ़कर हैं। पर जब तक तुम पहले की सीढ़ियों को तै न करोगी, तब तक न तो तुम्हें अच्छी सीढ़ियाँ ही मिलेंगी, और न तुम स्वर्ग में ही पहुँच सकोगी। मालिन ताड़ गयी, हँसकर बोली-चूक हुई, क्षमा कीजिए, अब मैं जान गयी कि जो मीठे फलों का स्वाद लेना चाहता है, उसको फीके फल खाकर मुँह न बनाना चाहिए।

हम न तो अपने ग्रन्थ को मेघदूत बनाना चाहते हैं, न अपने को कालिदास। हम पढ़नेवालों को मालिन बनाना भी नहीं चाहते। अभिप्राय हमारा इस रचना के परिणाम से है। आप लोग इसके आदि के कुछ प्रसंगों को पढ़कर घबरायेंगे अवश्य। पर मेरी विनय यह है कि घबराने पर भी आप लोग इसे पढ़ते चलिए, आगे चलकर बिना कुछ रस मिले न रहेगा।

हम लोग प्राय: लोगों को तरह-तरह के रोगों में फँसा हुआ पाते हैं। कोई सिर पकड़े फिरता है, कोई पेट के दर्द की शिकायत करता है, किसी की ऑंख दुखती है, किसी का कान फटा पड़ता है, कोई ज्वर से चिल्लाता है, कोई अतिसार के उपद्रव से व्याकुल रहता है, निदान इसी तरह के बहुत से रोग लोगों को घेरे रहते हैं, और वे उनके हाथों बहुत कुछ भुगतते हैं। पर क्या कोई यह भी सोचता है कि इस तरह रोग के हाथों में पड़ जाने का क्या कारण है? रोग सब सुखों का काँटा है। अच्छे-अच्छे खाने, तरह-तरह के मेवे, भाँति-भाँति के फल, सुन्दर सेज, सजे हुए आवास, सुन्दरी रमणी, ऐसे ही और कितने भी सामान रुग्णावस्था में काटे खाते हैं, संसार की सारी सुख विलास की सामग्री मिट्टी हो जाती है-पर क्या रोगग्रस्त होने से पहले कभी हम रुग्ण न होने का विचार करते हैं? लोग जब खाट पर पड़ जाते हैं, तो बात-बात में विचारे भाग्य को कोसते हैं, देवी-देवताओं को मनाते हैं, भगवान की दुहाई देते हैं, पर क्या कभी यह भी विचारते हैं कि हमारा स्वास्थ्य बहुत कुछ हमारे हाथ है। जो हम जी से चाहें, यथार्थ रीति से सावधान रहें, और लड़कपन ही से स्वास्थ्य के नियमों पर चलाए जावें, तो रोगों से हम लोगों को बहुत कुछ छुटकारा मिल सकता है, पर दु:ख है कि हम लोगों का ध्यान इस ओर बहुत कम होता है। मैं यह नहीं कहता कि स्वास्थ्य के नियमों पर चलने से हम लोग सर्वथा रुग्ण होने से बचे रहेंगे, पर यह अवश्य कहता हूँ कि बहुत कुछ बचे रहेंगे। कितनी अवस्थाएँ ऐसी हैं कि जिनमें हम लोग सर्वथा विवश हो जाते हैं और उनके बारे में हमारा किया कुछ नहीं हो सकता, पर ऐसी दशाएँ बहुत कम हैं। अधिकतर ऐसी ही दशाएँ हैं कि यदि हम उनसे बचे रहें तो सब प्रकार के रोगों के पंजे से हमको छुटकारा मिल सकताहै।

जो कोई सिर पकड़े बैठा हो, और सिर दर्द का रोना रोता हो, और आप उससे पूछें कि क्यों भाई, सिर में दर्द क्यों है? तो यदि वह थोड़ी भी समझ रखता होगा, तो कह उठेगा, कि रात मैं देर तक जागता रहा, या आज बहुत समय तक धूप में घूमता फिरा, या कोई ठण्डी वस्तु खा गया, या खाने-पीने में देर हो गयी, निदान कुछ-न-कुछ कारण अपने सिर दर्द का वह अवश्य बतलावेगा, जिससे यह बात पाई जाती है कि उसको अपने सिर दर्द का कारण अवश्य ज्ञात है। और ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि यदि सिर दर्द के उस कारण से उस दिन वह बचता, तो उसके सिर में दर्द कभी न होता। अब यह बात यहाँ सोचने की है कि जब वह जानता था कि ऐसा करने से उसको इस तरह की वेदना हो जाती है, तो फिर उसने वैसा क्यों किया? यही भेद ऐसा है कि जो समस्त सुख दुखों की जड़ है। और जो इस भेद को जितना समझ सका है, वह इस संसार में उतना ही सुखी या दु:खी पाया जाता है। मान लो कि उसको रात में जागने से सिर दर्द हुआ था, तो फिर रात में वह क्यों जागा? अवश्य है कि या तो वह कोई तमाशा या नाच देखता रहा, या किसी मेले में सैर सपाटा करता रहा, या कोई पुस्तक देर तक पढ़ता रहा, या मित्रों के रोकने से रुका रहा, या ऐसी ही और कोई बात हुई, जिससे उसको रात में देर तक जागते रहना पड़ा। जब उसके सोने का समय हुआ होगा, तो उसके दिल ने उससे अवश्य कहा होगा कि अब चलकर सो रहो। परन्तु चाह ने कहा होगा कि थोड़ा नाच या तमाशा और देख लो, या थोड़ा सैर सपाटा और कर लो, या थोड़ी देर तक पुस्तक और पढ़ लो, या देखो तुम्हारे मित्र रोक रहे हैं, उनकी बात न मान कर यों चले जाना ठीक नहीं। पर चाह बढ़ाने ही से तो बढ़ती है, इसी तरह थोड़ा-थोड़ा करके उसने बहुत रात तक जगाया, जिसका फल यह हुआ कि दूसरे दिन सिर पकड़ कर बैठना पड़ा। मनुष्य को अपनी चाहों पर अधिकार रखना चाहिए, और सदा उसको बुध्दि के कहने पर चलाना चाहिए, पर ऐसा बहुत कम होता है, जहाँ तक देखा जाता है चाह ही मनुष्य को दबा बैठती है, और इसी से उसको सब तरह के दुखों में फँसना पड़ता है। जो उसको चाह के दबाने की शक्ति होती, तो वह कभी स्वभाव के प्रतिकूल अधिक समय तक न जागता। न तो नाच तमाशा या मेले की सजधज उसको ठहरा सकती, न पुस्तक की चटपटी बातें उसको विवश करतीं, और न कोई मित्र ही उसकी उचित बातों को सुनकर उसका रोक रखना पसन्द करता। और ऐसी अवस्था में वह अवश्य यथा समय सोता, और कभी सिर दर्द का शिकार न होता। ऐसे ही और सब दुखों और रोगों की बातों को भी समझ लेना चाहिए। पर स्मरण रखना चाहिए कि चाहों का दबाना स्वभाव डालने से आता है, जब तक स्वभाव न डाला जावे, वे कभी वश में नहीं रहतीं, और मनुष्य को ही दबा बैठती हैं। इस स्वभाव डालने का सबसे अच्छा समय लड़कपन है, जो लड़कपन से इस तरह का स्वभाव डालना नहीं सीखते वे पीछे कम सफलीभूत होते हैं।

मेरे एक मित्र प्राय: पेट के दर्द की शिकायत किया करते। मैंने एक दिन उनसे पूछा-बात क्या है? उन्होंने कहा कि कोई अच्छी वस्तु मिलने पर जब अधिक खा जाता हूँ या कोई कड़ी वस्तु खा लेता हूँ, तभी ऐसी नौबत आती है। मैंने कहा-फिर आप संयम से क्यों नहीं काम लेते ? उन्होंने कहा-जीभ नहीं मानती। इसी तरह किसी की ऑंख नहीं मानती, किसी का कान नहीं मानता, किसी का जी नहीं मानता और किसी के और और अंग नहीं मानते, और यह न मानना ही सब दुखों की जड़ है।

एक मुहर्रिर को मैंने देखा कि जब सूर्य डूब जाता, और अंधियाला बढ़ता जाता है उस समय भी आपकी लेखनी चलती रहती, और आप कागज के पीछे पड़े रहते। ऐसे ही एक क्लर्क दो एक पैसे के तेल का बचाव करता, और रात में चाँदनी के सहारे अपने कागजों को लिखता रहता। थोड़े ही दिनों में उनकी ऑंखें बिगड़ीं। लोगों ने फटकार बतलाई, तो उन्होंने कहा कि सब लोग जानते थे कि ऐसी नौबत आवेगी। किसी ने मना भी तो नहीं किया। इससे पाया जाता है कि इन बेचारों ने जो कुछ किया अनजान में किया, जो वे जानते कि ऐसा करने से ऑंखें बिगड़ जावेंगी तो शायद वे ऐसा न करते। ऐसे ही कितनी बातें ऐसी हैं, जो अनजान में हमारे ऊपर बुरा प्रभाव डालती हैं, हम लोग उसके बुरे प्रभाव को जानते ही नहीं जो उससे बचें। पर यह जानना चाहिए कि जो बातें बँधी हुई नियमों के प्रतिकूल हैं, या जिनके करने में हमको अपने जी पर दबाव डालना पड़ता है, उनको कभी न करना चाहिए। जो हम उसके बुरे प्रभाव को जानते भी न हों, किसी ने हमको बतलाया भी न हो, तब भी समझ लेना चाहिए कि उन बातों के करने से कुछ न कुछ बुराई अवश्य होगी। यह बँधी हुई चाल है कि लोग दिन भर काम करते हैं। और संध्या समय बन्द कर देते हैं, यह भी बँधी हुई चाल है कि जब रात को लिखना पढ़ना होता है तो दीया या कोई दूसरी रोशनी जला लेते हैं। इसलिए मुहर्रिर और क्लर्क को आप ही सोचना चाहिए था कि जो बँधी हुई चाल है, उसे छोड़कर चलना ठीक नहीं। और यदि वे इतना सोचते तो उनकी ऑंखें कभी न बिगड़तीं। ऐसे ही और बातों के विषय में भी सोच लेना चाहिए।

आज हम यह आप लोगों को सुनाने बैठे हैं, पर जब सूझना चाहिए था उस घड़ी हमको भी ये बातें न सूझीं। हम पहले प्रसंग में लिख चुके हैं तीन साल से माघ का महीना हमारे लिए बहुत डरावना हो गया है, यहाँ तक कि इस साल जान बचने की भी बहुत कम आशा थी। पर क्या हमारी यह दशा बिल्कुल अपने आप है, नहीं इसमें बहुत कुछ हमारी भूल चूक और लापरवाही का भी हाथ है। सन् 1879 ई. में जब मेरा सिन चौदह साल का था, मिडिल वर्नाक्यूलर मैंने पास कर लिया, मुझको तीन रुपया गवर्नमेन्ट स्कालर्शिप मिली, और क्वींसकॉलेज बनारस में अंग्रेजी पढ़ने की आज्ञा हुई। मैं पन्द्रह वर्ष के सिन में बनारस गया, और बोर्डिंग हाउस में ठहरा। मैं अपने घर में एक लड़का था, बड़े लाड़ प्यार से पला था, कभी किसी तरह की कठिनता का सामना नहीं पड़ा था। घर पर पका पकाया भोजन मिलता, अच्छी-अच्छी खाने की वस्तु मेरे लिए इहतियात से रखी रहती। मैं जिस तरह चाहता, रहता, जब चाहता नहाता खाता, तनिक सिर भी धमकता, तो घर भर आवभगत में लग जाता। पर बनारस में ये सब बातें कैसे नसीब होतीं, यहाँ मुझको रोटी भी अपने हाथ से बनानी पड़ती, और वह भी मैं कठिनाई से एक बेले बना सकता, जो रसोई बनती, वह भी अच्छी न बनती, इससे उसको खाकर भी प्रसन्न न होता। चित्त पहले से ही वश में न था, रुपये हाथ में थे, फिर बनारस-सा नगर, एक-से-एक खाने की अच्छी वस्तुएँ बिकने को आतीं, हमने भी उन पर हाथ मारना आरम्भ किया। इसका फल यह हुआ कि जो कभी मैं कच्ची रसोई बनाता, तो बड़ी लापरवाही से बनाता, जिससे प्राय: वह बुरी बनती, जिसमें से मैं कुछ खाता, कुछ छोड़ देता। इससे भूख बनी ही रहती, और खोंचेवाले की राह ताकता रहता, ज्यों वह पहुँचता, मैं भी उसके पास जा धमकता, और जो जी में आता, लेकर खाता। इसका परिणाम बड़ा बुरा हुआ, एक तो मेरी प्रकृति बादी, दूसरे बनारस की जलवायु बादी, तीसरा मेरा असंयम। पाँच-चार महीने में मुझे बादी बवासीर हो गयी। इन दिनों मुझको दिन रात कब्ज रहता, तबीअत जब देखो तब खराब। पर बात कुछ समझ में न आती। धीरे-धीरे ज्ञात हो गया कि मुझे बादी बवासीर हो गयी, और मैं बनारस छोड़कर निजामाबाद चला आया।

घर आने पर खाने पीने का गड़बड़ जाता रहा, जलवायु का झगड़ा भी जाता रहा, इसलिए मेरा स्वास्थ्य जैसे पहले था वैसा फिर हो गया, पर बादी बवासीर जड़ से न गयी, कभी-कभी वह अपना रंग दिखला जाती। यह बवासीर युवावस्था के लिए भी टाड़ा हुई, अठारह बीस बरस के सिन में भी जैसा चाहिए वैसा बल शरीर में न आया। जैसा दुबला पतला और दुर्बल बदन पहले था वैसा ही इन दिनों भी रहा। पर न तो बवासीर में कभी पीड़ा होती, और न उसकी वजह से कोई दूसरी ही ऐसी बुराई पैदा हुई, जिससे मुझको कोई विशेष कष्ट होता। इसलिए इन दिनों बवासीर से मैं बहुत लापरवाह रहा, जिसका फल यह हुआ कि वह धीरे-धीरे अपना बल बढ़ाती रही। पच्चीस बरस के सिन में उसका रंग कुछ बदला, वह महीने दो महीने पर सताने लगी, पर उसका यह सताना भी साधारण था, दो एक दिन कुछ कष्ट रहता, फिर दूर हो जाता। धीरे-धीरे तीस साल पूरा हुआ, अब रुग्णता का रंग कुछ और गहरा हुआ, अब उससे तरह-तरह की पीड़ायें होने लगीं। अब मेरे कान भी खड़े हुए, मैं कुछ औषधी-सेवन और दौड़ धूप भी करने लगा, पर आप देखें तो कैसी गहरी नींद के बाद ऑंख खुली। पन्द्रह वर्ष के पहले जिन बातों को दूर करना सहज था, अब वह बहुत ही कठिन हो गया। मैं चिनगारी को न बुझा सका, पर उससे जो एक डरावनी आग पैदा हो गयी, तब उसे बुझाने के लिए दौड़ा। नासमझ और टालटूल करने वालों की यही दशा होती है। वे समय पर सोते हैं, और जब समय नहीं रहता, तब उनकी ऑंखें खुलती हैं, जो सफलता का मँह न देखकर बड़े दु:ख के साथ फिर बन्द हो जाती हैं। तैतीसवीं साल बीमारी का बड़ा कड़ा धावा हुआ। मैंने समझा दिन पूरे हो गये। साथ ही अपनी लापरवाही और टालटूल की प्रकृति पर घृणा भी बड़ी हुई। परन्तु चार-पाँच महीने दुख झेल कर मैं फिर सँभल गया, किन्तु इस बार रुग्णता ने जो रंग पकड़ा वह निराला था। मैं इस निरालेपन को बतला सकता हूँ, पर नीरस बातों को कहाँ तक बढ़ाऊँ। थोडे में इतना कह देना चाहता हूँ कि चालीस साल के सिन तक मैं कुछ सुखी भी था, पर चालीस साल के बाद से रोग ने बहुत दुखी कर रखा है, देखूँ यह रंगत कितनी चटकीली होती है।

रोग

पीछे     आगे

हम कौन हैं, आप यह जानकर क्या करेंगे। फिर हम आप से छिप कब सकते हैं, आपकी हमारी जान-पहचान बहुत दिनों की है। हमने कई बार आप से मीठी-मीठी बातें की हैं, आपका जी बहलाया है, आपके सामने बहुत से फूल बिखेरे हैं, आपको हरे-भरे पेड़ों का समाँ दिखलाया है। कभी सुनसान की सैर करायी है, कभी सावन भादों की काली-काली घटाओं पर लट्टई बनाया है। यह सुबह का चमकता दिनमणि है, यह प्यारा-प्यारा निकला हुआ और यह छिटकती हुई चाँदनी है, यह चिलचिलाती हुई धूप है, उँगलियों को उठाकर आपको ये बातें दिखलाई हैं, और बतलाई हैं। पर आज इन बातों से काम नहीं, इस पचड़े से मतलब नहीं। हम कोई हों, आप बातें सुनते चलिए, यदि कुछ स्वाद मिले, आपका जी मेरी बातों को सुनने को हो तो सुनते रहिए, नहीं तो जाने दीजिए, दूसरी ही बातों से जी बहलाइए। याद रखिए, एक ही तरह की वस्तु खाते-खाते जी ऊब जाता है, कभी-कभी खाना अच्छा नहीं लगता। ऐसी नौबत आती है कि दो-एक दिन यों ही रह जाना पड़ता है, या कोई हलकी वस्तु थोड़ी सी खाकर दिन बिता लेते हैं। और तो बहुत होता है, कि रहर की दाल आज बदल दो, आज उर्द की दाल। आज दाल चावल खाने को जी नहीं चाहता, आज मीठा चावल हो तो अच्छा। आप लोगों ने लाड़-प्यार की बहुत-सी कहानियाँ पढ़ी हैं, जी की लगावट और मनचलों की चालाकी भरे चोचलों की तरह-तरह की रंग-बिरंगी लच्छेदार बातें सुनी हैं। आज मनफेर कीजिए, इस छोटी-सी रचना पर अपनी नजर डालिए, देखिए इसकी बातें काम की हैं या नहीं।

जाड़ों के दिन सुख-चैन के दिन होते हैं, न उनमें गरमी के दिन की सी घबराहट और बेचैनी रहती है न बवंडर उठते हैं, न लू-लपट चलती है, न प्यास के मारे नाकों दम रहता है, न बरसात के दिनों का सा बात का जोर, न कीच काँच का बखेड़ा रहता है, न तरह-तरह के रोग फैलते हैं, और न बिशूचिका अपना डरावना चेहरा दिखलाकर दिल दहलाती है। इसका दिन साफ-सुथरा होता है, हवा धीमी और सुन्दर बहती है, जो कुछ खाइए ठीक-ठीक पचता है, न बहुत पानी पीया जाता है, न पेट भर खाने के लाले पड़ते हैं। बाजार सब प्रकार की वस्तुओं से पट जाता है, सेब, अंगूर और दूसरे मेवे बहुतायत से मिलते हैं। जब से ताऊन का पाँव भारत में पड़ा, दूसरे लोगों के लिए भी जाड़े के दिन सुख-चैन के दिन नहीं रहे। पर मुझको तो तीन साल से जाड़े के दिन बहुत सताते हैं। मुझसे एक वैद्य न कहा था, कि चालीस बरस का सिन...बाद तुम्हारी बवासीर तुमको बहुत तंग करेगी, सचमुच वह मुझको अब बहुत तंग करती है। चालीसवें साल में ही उसने तंग करने की नींव डाली और हरसाल नींव पर रद्दे रख रही है। विशेषकर माघ का महीना मेरे लिए डरावना हो गया है। इस महीने में रोग का वेग बहुत बढ़ जाता है, बहुत पीड़ा होती है, बहुत कुछ भुगतना पड़ता है। इस साल यह वेग इतना बढ़ा और उसके ऐसे-ऐसे झटके लगे कि मैंने यह सोच लिया था, कि अब बहुत हो गया, जितने दिन और घड़ियाँ बीतती हैं, गनीमत हैं। पर, दिन पूरा नहीं हुआ था, अभी शायद संसार में कुछ दिन और रहना है। इसलिए माघ बीतते बीतते मैं बहुत कुछ सम्हल गया, और अब मैं पहले से बहुत कुछ अच्छाहूँ।

यद्यपि अब मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, आठो पहर तबीयत नहीं ठीक रहती; पर रोग कभी-कभी अपना रंग दिखला जाता है। किसी-किसी दिन मेरी भी वही दशा हो जाती है। इससे नहीं कहा जा सकता कि कब क्या हो जाएगा। कबीर साहब ने कहा है, ''यह देह नव द्वार का पिंजड़ा है, उसमें हवा नामक पंछी रहता है, इसलिए उसका उड़ जाना तो विचित्र बात नहीं है, वह ठहरी हुई है, यही आश्चर्य है।

'' नव द्वारे का पींजरा , तामें पंछी पौन।

रहने को आचरज है , गये अचंभा कौन। ''

सच है, इस साँस का क्या ठिकाना, आयी न आयी। पण्डित रामकर्ण ब्याह का उमंग भरे घर आये, रात भर स्त्री के साथ रंगरेलियाँ मनाते रहे। हँसते खेलते उठे, नहाया धोया, कुछ खा-पीकर दस बजे गुरुदेव से मिलने चले। अभी घोड़ा गाँव के बाहर आया था कि सर चकराने लगा, घोड़े से उतर कर पृथ्वी पर लेट गये। लेटते ही साँस देह के बाहर हो गयी। बेचारे नहीं जानते थे कि इस तरह अचानक मृत्यु उन पर टूट पड़ेगी। मुंशी अमृतलाल कचहरी का कुछ काम करके सन्ध्या समय घर आये, दस बजे रात तक सबके साथ गुलछर्रे उड़ाते रहे, ग्यारह बजे के लगभग रोटी खाकर सोए, बातें करते-करते नींद आ गयी, पर थोड़ी देर में अचानक नींद टूट गयी, मन घबराया चारपाई से उठकर खड़े हुए, पर सँभल न सके, धड़ से पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर न उठे। स्त्री ताकती ही रही गयी। एक बात भी मुँह से न निकली। राय दुर्गाप्रसाद साहब बाबू मोहनसिंह से हँसी-मजाक कर रहे थे, और तब छूट चल रही थी, सिर में जरा धमक तक न थी, कि बाबू वहाँ से विदा हुए। पास ही घर पर पहुँच कर कपड़े उतारते थे कि राय साहब ने उनको चौंका दिया। वह दौड़कर राय साहब के पास आये, वह पृथ्वी पर पड़े हुए साँसें तोड़ रहे हैं, कुछ कहना चाहते हैं, पर जबान न खुली। इतने में जम्हाई आयी, और काम तमाम।

जनरल स्मिथ विलायत से हिन्दुस्तान आये, दिन भर कांग्रेस में बातें सुनते रहे। हँसते रहे, तालियाँ बजाते रहे, शाम को डेरे पर जाकर काम-काज करते रहे, दोस्तों से मिलते जुलते रहे, दस बजे सो गये। उनकी ऑंखें फिर न खुलीं, दिल की हरकत बन्द हो गयी थी। वे चल बसे। मिस्टर हूपर बोर्ड माल के मेम्बर थे, हाल ही में उनकी शादी थी, वे विलायत जा रहे थे। रास्ते में फ्रांस के एक होटल में ठहरे हुए थे, दिन भर शरीर बहुत अच्छा रहा, रात में उसी होटल में लाल साहब से मिले, बहुत देर तक इधर उधर की बातें करते रहे। जब सोए तब कोई शिकायत न थी, पर चार बजे पेट में दर्द उठा, लोग डॉक्टर बुलाने दौड़े पर जब तक डॉक्टर आवें, दर्द ने उनको इस संसार से उठा लिया था। वह बेचारे आये और अपना-सा मुँह लिए वापस गये।

जिन दिनों मैं नत्थूपुर में गिर्दावर कानूनगो था, एक दिन पिताजी ने अचानक दर्शन दिया, आजकल आप बहुत स्वस्थ थे, बड़े प्रफुल्ल थे, जब तक रहे, ऐसे ही रहे, आठवें दिन जब घर को पधरने लगे, तब भी मैंने उनको स्वस्थ ही पाया। पर हाय! नौवाँ दिन बड़ा बुरा था, आज आप पहर दिन बीते घर पहुँचे, नहा धोकर अच्छी तरह खाया पीया, फिर आराम किया, जब उठे तब भी तबीअत वैसी ही फुरतीली थी। संध्या समय संगतजी में भजन गाते रहे। दो घड़ी रात तक यही झमेले रहे। इसके बाद रात को घर आये। उनका नियम था कि वे दो घड़ी रात गये नित्य संगत जी में जाते थे। बड़े प्रेम से भजन करते, आज भी इस काम में कोई कसर नहीं छोड़ा। आज भी उनके भजनों का रंग वैसा ही जमा, लोग उनको सुनकर वैसा आनन्द लिये, वैसा ही राम रस में सराबोर हुए, पर कहते कलेजा मुँह को आता है, आज उनकी ये तमाम बातें सपना हो गयीं। संगत जी से वापस आकर कुछ देर अध्ययन किया, फिर सोए। पर सोने के दो घड़ी बाद पेट के दर्द से उनकी हालत खराब हो गयी, इस समय रात का सन्नाटा था, छ: घड़ी रात बीत चुकी थी। उनके चचा उनके पास ही सोए थे, वे जगकर दौड़ धूप करने लगे। परन्तु दो घण्टे में उनकी ऑंखें सदा के लिए बन्द हो गयीं। और फिर न खुलीं। यह कैसी मौत है। कुछ घड़ी पहले क्या कोई भी जी में ला सकता था कि ऐसा होगा... और भी बहुत सी बातें बतलाई जा सकती हैं, पर मतलब आप समझ गये होंगे, मतलब और कुछ नहीं; यही है कि-

क्या ठिकाना है जिन्दगानी का।

आदमी बुलबुला है पानी का।

मैं मानूँगा कि जितनी ऐसी मौतें होतीं हैं वे देखने में आकस्मिक ज्ञात होती हैं, पर सच्ची बात यह है कि वे वास्तव में बहुत दिनों के पुराने रोग का परिणाम होती हैं। जो प्राणी इस तरह मरता है, वह देखने में हट्टा कट्टा और स्वस्थ भले ही हो, खाता-पीता और कामकाज करता ही क्यों न रहे, भीतर से वह खोखला होता है। रोग उसको उसी प्रकार चाट गया रहता है जैसे किसी लकड़ी को घुन या किसी पेड़ की जड़ को दीमक। प्राय: देखा गया है कि जो पेड़ बड़ी-बड़ी ऑंधियों में अपनी जगह से थोड़ा भी नहीं हिले, वे ही साधारण हवा की झोंकों से उखड़ गये और टूट कर धारा पर गिर पड़े। इसका कारण क्या है? इसका कारण कुछ और नहीं, यही है कि उस समय दीमकों ने खाकर उसकी जड़ को इतना दुर्बल कर दिया था कि वह साधारण हवा के झोंकों को भी सह नहीं सकता था। यही गति चटपट मरने वालों की भी है। पर इससे क्या! जो यह बात मान भी ली गयी कि ऐसी मृत्यु बहुत दिनों के रोगों का परिणाम होती है, तो भी इससे यह नहीं पाया जाता कि मनुष्य के जीवन का कोई ठिकाना है। बहुत से ऐसे लोग देखे गये हैं कि वे बिना किसी पुराने रोग के एक-ब-एक मर गये। उनके हृदय की गति अचानक बन्द हुई और वे चल बसे। कितने ऐसे पाए गये कि उनको साँप काट गया और वे घण्टे आधा घण्टे ही में ठण्डे हो गये। कोई नहाने के लिए पानी में उतरा और फिर ऊपर न उठा, कोई पेड़ से गिरा और वहीं का वहीं रह गया, किसी के ऊपर बिजली गिरी और दो चार मिनट में ही उसका काम तमाम हो गया, किसी के ऊपर मकान गिरा और उसका दम वहीं टूट गया। सच बात यह है कि मनुष्य मृत्यु से हर घड़ी घिरा हुआ है, और इसलिए यह बहुत ठीक है कि मर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जीते रहना ही विचित्रता है। पर यह सब होने पर भी संसार की यह रीति है कि एक बीमार मनुष्य से एक अधाबीमार की और एक अधाबीमार से एक भले चंगे के जीवन का भरोसा होता है। जो रोग मुझको है, वह चौबीस बरस का पुराना है, अब भी किसी-किसी दिन उसका वेग बहुत बढ़ जाता है, इससे मैंने जो पहले यह लिखा है कि यह नहीं जाना जाता कि कब क्या होगा, यह ठीक है। पर पहले से जो मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, इसलिए अभी कुछ दिन और जीते रहने की आशा बँधा गयी है और इसी आशा के सहारे आज मैंने फिर आप लोगों को कुछ मनमानी बातें सुनने के लिए लेखनी पकड़ी है। देखूँ मैं अपने विचार को कहाँ तक पूरा कर सकता हूँ।

जिन दिनों मैं बहुत रुग्ण था और जी में यह बात बैठ गयी थी कि अब चलने में देर नहीं है। उन्हीं दिनों मृत्यु और परलोक के विषय में मेरे जी में बहुत सी बातें उठी हैं, मैं उन बातों को आप लोगों को भी सुनाऊँगा। आशा है आप लोग धर्य से मेरी बातें सुनेंगे।

जी का लोभ

पीछे     आगे

जिन दिनों माघ के महीने में मेरा स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था, उन्हीं दिनों की बात है, कि एक दिन दो घड़ी रात रहे मेरी नींद अचानक टूट गयी। इस घड़ी रोग का पारा पूरी डिगरी पर था। सर घूमता था, दिल घबराता था और जान पड़ता था कि कोई कीड़ा उसमें बैठकर उसे बुरी तरह से नोच रहा है। हाथ-पाँव ऐंठ रहे थे, बेबस हुए जाते थे, और उनमें एक तरह की झनक पैदा हो गयी थी। जी बैठता जाता था, दम फूल रहा था, ऑंखें तलमला रही थीं, और उनसे पानी निकल रहा था। साँस कभी नाकों की राह खर्राटे के साथ निकलती, कभी धीरे चलती, कभी टूटती हुई जान पड़ती, और फिर ऐसा ज्ञात होता कि सारी देह में एक सन्नाटा-सा छा रहा है। थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि मैं अब अचेत हो जाऊँगा, और एक-ब-एक सारा बदन पसीने से तर हो गया। मैंने समझा अब देर नहीं है, जी बहुत घबराया, घबराहट ही में रजाई मैंने फेंक दी, चारपाई पर उठ बैठा, और फिर कमरे का किवाड़ खोल कर बाहर निकल आया।

बाहर बड़ी सर्दी थी। हवा धीरे-धीरे बह रही थी, पर बहुत ही ठण्डी थी, बरफ को मात करती थी। बाहर आते ही जी ठिकाने हो गया, धीरे-धीरे और शिकायतें भी कम हुईं। जब दौरे का बेग जाता रहा, और जी बहुत कुछ सम्हल गया उस समय मेरी दृष्टि नीले आकाश पर पड़ी। आकाश इस समय धुंधला था, और उसका विचित्र समाँ था। रंग-रंग के तारे उसमें छिटके हुए थे, और खूब चमक रहे थे। शुक्र भी बहुत कुछ ऊपर चढ़ आया था, और अपनी ऊदी रंगता में बड़ी आन बान से जगमगा रहा था। मैंने इन तारों को बड़ी वेदनामयी दृष्टि से देखा, मेरी ऑंखों ने मेरे जी का गहरा दुख इन ताराओं को जतलाया, मानो उन्होंने बहुत ही चुपचाप उनसे कहा कि क्या हमारे दुखड़े पर तुमको रोना नहीं आता। पर तारे तनिक भी न हिले, वे वैसे ही खिले रहे, वैसे ही हँसते रहे। और उनमें वैसी ही ज्योति फूटती रही। मानो उन्होंने कहा-नादान! क्या कभी तू किसी कीड़े मकोड़े के दुखड़े की कुछ परवाह करता है। जब नहीं करता, तो हमारी ओर यह वेदना भरी दृष्टि क्यों? तू तो हम लोगों के सामने एक कीड़े-मकोड़े से भी गया-बीता है।

अब मैंने दूसरी ओर दृष्टि डाली। सामने ही एक शिवालय का ऊँचा बुर्ज दिखलायी पड़ा। यह शुक्र की फीकी और हलकी ज्योति में कुछ-कुछ चमक रहा था, मानो भगवान की दया का हाथ ऊपर उठा हुआ मुझे ढाढ़स दे रहा था, कि घबराओ नहीं, सब अच्छा होगा।

ज्यों ज्यों रात बीतती थी, सर्दी तेज होती जाती थी। मैं सिर से पाँव तक कपड़े से लदा था, पर सर्दी फिर भी अपना काम कर रही थी, इसलिए मैं बाहर न ठहर सका और फिर कमरे में आकर चारपाई पर लेट गया। ऊपर से रजाई भी ओढ़ ली। पर नींद न आयी, आज न जाने कहाँ-कहाँ की बातें आकर जी में घूमने लगीं, बहुत सी पुरानी बातों की सुरत हुई। मैं ज्यों-ज्यों बीमारी की बातें सोचने लगा, त्यों-त्यों न जाने क्यों मुझे अपना जी बहुत प्यारा मालूम होने लगा। और मैं तरह-तरह की चिन्ताओं में डूब गया।

इस समय मुझे यह बिचार बार-बार होने लगा कि लोगों को अपना जी क्यों इतना प्यारा है ? मनुष्य ही नहीं, देखा जाता है कि चींटी से हाथी तक सभी इस रंग में रँगे हुए हैं। फूल संसार में हँसने के लिए ही आये हैं। पर आप उनको डाल से तोड़ कर अलग कीजिए। फिर देखिए वे कैसे कुम्हलाते हैं। पेड़ों से बढ़कर हरा भरा कौन होगा, पर उनकी जड़ पर टाँगा चलने दीजिए, फिर देखिए उनके एक-एक पत्ते पर कैसी एक उदासी न जाने कहाँ से आकर छा जाती है। आप कहेंगे फूल पत्ते भी इस असर से नहीं बचे हुए हैं ? मैं कहूँगा हाँ। फूल-पत्ते भी नहीं बचे हुए हैं। पहले इस विषय में कुछ शक भी हो सकता था, पर अब वर्तमान काल की जाँच पड़ताल ने इस विषय को बहुत स्पष्ट कर दिया है। जब चारपाये, चिड़ियाँ, पेड़-पत्ते, तक को अपना जी प्यारा है, तब मनुष्य की चर्चा ही क्या। पर सोचना तो यह है कि जी इतना प्यारा क्यों है?

संसार के दृश्य बड़े निराले हैं; उसकी वस्तुएँ ऐसी सुन्दर, ऐसी जी लुभाने वाली, और ऐसी अनूठी हैं, कि बड़े दुखों को झेलकर भी हम उनको नहीं भूलते। उनका चाव, उनसे मिलनेवाले सुख, हमको संसार के लिए बावला बनाए रहते हैं। काल के दिनों में एक भूख से तड़पता हुआ मानव यह कह सकता है कि मृत्यु आ जाती तो अच्छा। पर यदि सचमुच मृत्यु उसके सामने आकर खड़ी हो जावे, तो उसकी गति भी लकड़ीवाले की सी ही होगी। जैसे बोझ से घबरा कर लकड़ीवाले ने सिर के गट्ठे को गिराकर मृत्यु को याद किया था, और जब मृत्यु आयी, तब उसने कहा-मैंने किसी और काम के लिए तुझे नहीं बुलाया था, तू मेरे इस गिरे हुए गट्ठे को उठा दे, बस यही काम है। उसी तरह आशा है कि मृत्यु से वह भी यही कहेगा, कि मैंने तुझको इसीलिए बुलाया था, कि शायद तू मुझको कुछ खाने को दे दे। क्योंकि सच्ची बात यह है कि मृत्यु को वह खिजलाहट में पुकार उठता था, या इसलिए मृत्यु-मृत्यु चिल्लाता था कि जिससे लोग समझें कि उसका दुख कितना भारी है। और उसके ऊपर दया करें। नहीं तो मृत्यु मृत्यु चिल्लाने से क्या अर्थ, मृत्यु तो चुटकी बजाते आती है। एक सुई अपने कलेजे में गड़ा दो, देखो मृत्यु आ जाती है कि नहीं, या अपने गले में एक छुरी घुसेड़ दो, या अपने सिर को आग में डाल दो, देखो दम भर में काम तमाम हो जाता है या नहीं। पर सचमुच मृत्यु लाना कभी स्वीकार नहीं होता, भूखा मृत्यु को ऊपर ही से बुलाता था, जी से कभी नहीं। उसको ऐसी आपदा में भी आशा की झलक दिखलाती थी, वह जी में ही सोचता था, कि क्या हमारे घये दुख के दिन सदा रहेंगे, नहीं कभी नहीं, एक-न-एक दिन किसी दाता का हाथ उठेगा, हमारे दु:ख दूर होंगे, और हमारे लिए फिर वही दिन-रात और सुख की घड़ियाँ होंगी।

दु:ख के दिनों की यह दशा है। पर जहाँ चारों ओर सुख के ही डेरे हैं, वहाँ का क्या कहना। वहाँ तो सृष्टि हमारी ऑंखों में सोने की है। रत्नों जड़ी है। वहाँ तो यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता, कि कभी हमें इसको छोड़कर उठ जाना पड़ेगा। फिर जी प्यारा क्यों न होगा। कहावत है कि-'जी से जहान है'। महमूद गजनवी ने लोगों का लहू चूस-चूस कर और कितने लोगों का रोऑं कलपा कर बहुत बड़ी सम्पदा इकट्ठी की थी। जब वह मरने लगा तो उसने आज्ञा दी कि उसकी कमाई हुई सारी सम्पत्ति उसके सामने लाई जावे। देखते-ही-देखते उसके सामने सोने, चाँदी और जवाहिरात के ढेर लग गये। वह देर तक उनको देखता रहा, और देख-देख कर रोया किया। वह क्यों इतना रोया, यह बतलाने की आवश्यकता नही कहना इतना है कि जिस जी के चले जाने के पीछे महमूद गज़नवी की ऑंखों में इतनी बड़ी सम्पत्ति भी किसी काम की न रही, उस जी से बढ़कर कौन रत्न होगा। और उसको कौन प्यार न करेगा।

आपको अपनी घरवाली का चाँद सा मुखड़ा दम भर नहीं भूलता, आपको उसकी रसीली बड़ी-बड़ी ऑंखें जो सपने में याद आती हैं, तो भी आप चौंक पड़ते हैं। जब कभी वह आकर पास बैठ जाती है, और प्यार से गले में हाथों को डालकर मीठी-मीठी बातें करने लगती है, तो आप पर रस की वर्षा होने लगती है। कुछ घड़ियों के लिए भी आप उससे अलग होते हैं तो आपका जी मलता है, जो कहीं परदेश जाने की नौबत आती है, तो ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है। उसके बिना आपको चैन नहीं आता, जीना नीरस जान पड़ता है। वह आप के गले की माला है, ऑंखों की पुतली है, जीवन का सहारा है। औरत सब सुखों की कुंजी है। पर मुझे यह बतलाइये कि जो कोई बात ऐसी आन पड़े कि जिससे आप यह समझें कि अब सदा के लिए हमारा और इसका साथ छूटता है, तो उस घड़ी आपकी क्या गति होगी? आप पर कैसी बीतेगी। निस्सन्देह आपका यह दु:ख बहुत बड़ा होगा, और अब आप समझ गये होंगे कि 'जी' का लोभ इतना क्यों है?

आप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, सचमुच बच्चे हैं भी प्यार की वस्तु, उनकी भोली भाली सूरत पर कौन निछावर नहीं होता, उनकी तोतली और प्यारी बातें किसको नहीं भातीं। वे कलेजे के टुकड़े हैं, हाथ के खिलौने हैं, प्यार की जीती जागती तसवीर हैं, और आनन्द के लबालब भरे प्याले हैं। फिर कौन उन्हें दिल खोल कर न चाहेगा। आप जो उनको ऑंखों के ओझल करना भी पसन्द नहीं करते, तो कौन कहेगा कि यह ठीक नहीं, वे ऐसे ही धन हैं, कि सदा उनको ऑंखों के सामने ही रखा जावे पर बतलाइये जो आपकी ऑंखें इस तरह बन्द हों कि कभी उनके भोले-भाले चेहरों को देखने के लिए भी न खुल सकें, तो आपका कलेजा कसकेगा या नहीं। फिर आप सोच लें कि 'जी' इतना क्यों प्यारा है।

जब कोई इतना रुग्ण हो जाता है कि उसे अपने बचने की आशा नहीं रहती, तब वह प्राय: अपनी ऑंखों में ऑंसू भर लाता है, कभी अपने मिलने वालों से ऐसी दु:ख भरी बातें कहता है कि जिसको सुनकर कलेजे पर चोट सी लगती है, कभी ठण्डी साँसें भरता है, कभी घबराता है। पर क्यों? इसीलिए कि वह समझता है कि अब उससे संसार का बैचित्रय से भरा हुआ बाजार छूटता है। उसको उसका बढ़ा हुआ परिवार, उसके मेली-मिलापी, उसकी जमीन-जायदाद, धन-दौलत, नौकर-चाकर, उसके बाग-बगीचे, कोठे-अटारी, मन्दिर-मकान ही नहीं रुलाते, उनकी याद ही नहीं सताती, उनसे मिलने वाले सुखों का ध्यान ही नहीं दु:ख देता, कितने ही पर्व-त्यौहारों की बहार, कितने मेले-ठेलों का समाँ, कितने हाट-बाजार की धुम, कितनी सभा-सोसाइटियों का रंग, मौसिमों का निरालापन, खेल तमाशों का जमाव, भी एक-एक करके उसकी ऑंखों के सामने आते हैं, और उसको बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ते। यदि सृष्टि इतनी रंगीली न होती, तो शायद जी का इतना प्यार भी न होता।

सावन का महीना था। बादल झूम-झूम कर आते थे, कभी बरसते थे, कभी निकल जाते थे। काली-काली घटाओें की बहार थी, फुहारें पड़ रही थीं। कभी कोयल बोलती, कभी पपीहा पुकारता। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आते थे, पर बड़े मजे से आते थे, उनसे हरी-भरी डालियाँ हिलती थीं, और मोती बरस जाता था। धोये-धोये पत्तों पर समाँ था, फूलों की भीनी-भीनी महँक फैल रही थी। इसी बीच दूर से आयी हुई नफीरी की एक बहुत ही सुरीली ध्वनि ने एक रोगी को तड़पा दिया। मैं उनके पास बैठा था, वे दो एक दिन के ही मेहमान थे। पर ज्यों-ज्यों नफीरी की आवाज पास आती जाती थी, त्यों-त्यों वे बेचैन हो रहे थे। हम लोग इस समय जहाँ बैठे थे; वह एक वाटिका थी, जो ठीक सड़क के ऊपर थी। नफीरी के साथ-साथ कुछ देर में कुछ सुरीले गलों के स्वर भी सुन पड़े, थोड़ी ही देर में बड़ी मस्तानी आवाज से कजली गाती हुई गँवनहारिनों का एक झुण्ड नफीरी वालों के साथ ठीक वाटिका के सामने से होकर निकल गया। कुछ देर अजब समाँ रहा। अबकी बार बीमार की ऑंखों में ऑंसू भर आया। वे बोले-पण्डित जी, यह सावन के दिन अब कहाँ नसीब होंगे। हाय! अब मैं इनको सदा के लिए छोड़ता हूँ। मैंने कहा-एक दिन सभी को छोड़ना पड़ता है। उन्होंने कहा-हाँ, यह मैं मानता हूँ-पर क्या मैं थोड़े दिन और नहीं जी सकता हँ। दो चार सावन तो और देखने को मिलते। मैंने कहा-आगे चलकर फिर आप यही कहेंगे। उन्होंने कहा, ठीक है, पर क्या इस सावन में हमीं मरने को थे। मैं चुप रहा, फिर बोला-आप घबराइये नहीं, अभी आप बहुत दिन जियेंगे। अब आप लोग देखें जी का लोभ! यहाँ का एक-एक दृश्य ऐसा है, जो हम लोगों को सानन्द संसार को नहीं छोड़ने देता।

एक पण्डित जी कहा करते कि सृष्टि यदि बिल्कुल अंधियाली होती, और उसमें एक भी सुख का सामान न होता, तो कोई भी अपने 'जी' को प्यार न करता। पर जब उनसे कहा गया कि अंधियाले में रहने वाले उल्लू और तरह-तरह के दु:खों में फँसे मनुष्यों को क्या अपना जी प्यारा नहीं होता? तो वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, हाँ भाई; संसार नाम में ही कुछ जादू है। शायद जब तक यह नाम भी रहेगा, तब तक किसी को भी इन पचड़ों से छुटकारा न मिलेगा।

मैं चिन्ता में डूबा हुआ इसी तरह की बातें सोच रहा था, कि सुबह का दृश्य सामने आया। अंधेरा दूर हुआ, आकाश में लाली छाई और चिड़ियाँ चहकने लगीं। इसलिए मेरा जी इधर फँस गया, और कुछ घड़ी के लिए मुझको अपना सारा दु:ख भूल जाना पड़ा।

घबराहट

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जब किसी बीमार के जी में यह बात बैठ जाती है कि अब बचना कठिन है, तो उसमें घबराहट का पैदा हो जाना कुछ आश्चर्य नहीं। अपने दुख को देखकर मैं भी बहुत घबराया, सोचने लगा, मृत्यु भी कैसी बुरी बला है, कि कोई प्रयत्न काम ही नहीं देता। कोई कभी गुम हो जाता है, तो आशा नहीं टूटती, भरोसा रहता है कि कभी तो मिलेगा। लोग उसकी हुलिया जारी कराते हैं, उसके लिए समाचार पत्रों में नोटिस देते हैं। जहाँ कहीं उसके होने की आशा होती है, वहाँ लोगों को दौड़ाते हैं, इसी प्रकार के और भी कितने उपाय करते हैं। इन्हीं उपायों में से किसी-न-किसी एक उपाय से वह प्राय: मिल भी जाता है। जब कोई परदेश चला जाता है और बरसों घर की सुधि नहीं लेता, तब भी घरवाले उससे निराश नहीं होते, उसके पास चीट्ठियाँ भेजते हैं, घर का दु:ख-सुख उसको सुनाते हैं, या घर वालों में से कोई आप उसके पास चला जाता है, और किसी-न-किसी तरह उसको लिवा लाता है-जो वह नहीं आता तो भी धर्य रहता है कि कभी तो वह समझेगा, और घर की सुधि लेगा। इसी तरह की और भी दशाएँ हैं कि जिनमें मनुष्य घरवालों से अलग हो जाता है-जैसे आठ-दस बरस के लिए कारागार बद्ध हो गया, या काले पानी भेज दिया गया, या कहीं बणिज व्यापार करने चला गया पर फिर भी उसकी आशा होती है, और लोग बिल्कुल उससे हाथ धो नहीं लेते। किन्तु मौत ऐसा गुम होना है, कि फिर पता नहीं लगता, ऐसा परदेश है कि वहाँ जाकर कोई नहीं लौटता, ऐसी कैद है कि जिससे कोई नहीं छूटता, ऐसा काला पानी है कि जहाँ से छुटकारा नहीं होता, और ऐसी ठौर है कि जहाँ जाकर फिर कोई नहीं पलटता। न वहाँ कोई चीठी जाती, न कोई नोटिस पहुँचती है, न कोई हुलिया जारी होता है, और न कोई दूसरा उपाय काम आता है। फिर सोचने की बात है कि यदि मृत्यु से घबराहट न होगी तो किससेहोगी।

एक ग्रन्थ में लिखा है कि सिकन्दर लगभग सारे संसार में घूम आया, उसका बहुत बड़ा भाग उसने अपने हाथों में कर लिया, उसके पास बड़े-बड़े पढ़े-लिखे पण्डित थे, सब तरह के कारीगार और शिल्पी थे, अच्छे-से-अच्छे गुणी और वैद्य थे, हवा से बातें करने वाले घोड़े थे। एक-से-एक अनूठी सवारियाँ थीं, सब तरह के निराले हथियार थे, धन-दौलत से भण्डार भरा था, जवाहिरात कंकरों की तरह लुढ़कते थे। फिर भी मृत्यु आयी, और सिकन्दर को एक साधारण प्राणी की भाँति मरना पड़ा। देखना चाहिए मृत्यु कैसी प्रबला है, फिर उसको देखकर हम जैसों का कलेजा दहले, और हम लोग घबराहट में पड़ें तो क्या आश्चर्य है।

आग लगती है तो उसे पानी से बुझा देते हैं, ऑंधी चलती है तो घर मैं बैठकर जी बचा लेते हैं, लू लपट से बचने के लिए खस की टट्टियाँ लगाते हैं, पानी को छत्तो से रोकते हैं, रोगों में दवा खाते हैं, बहुत सी आपदाओं में सम्पदा काम देती है, अंधियाले में ज्योति जगमगाती है, पर किसी ने न बतलाया कि मृत्यु से बचने के लिए क्या करना चाहिए। संसार में हर तरह की विपत्ति से बचने का कुछ-न-कुछ उपाय है, तो मृत्यु से बचने का नहीं है, फिर बेचारा मनुष्य घबराए न तो क्या करे।

घबराहट का यह ढंग है कि इसके सामने बड़े-बड़े चतुरों की ऑंख पर भी परदा पड़ जाता है, बड़े-बड़े बुध्दिमान भी उल्लू बन जाते हैं। जिस काम को हम जानते हैं कि इसके करने से कुछ नहीं होगा, जो बात हमारे किसी काम की नहीं, घबराहट में हम उसको भी कर बैठते हैं। जब कोई डूबने लगता है तो सामने बहते हुए तिनके को दौड़कर पकड़ता है, पर क्या उसके सहारे से वह बच सकता है। थाली खो जाने पर लोग घड़े में हाथ डालते हैं, पर क्या सचमुच घड़े में थाली मिल सकती है। जब हम रुग्णता की आपत्ति में पड़ते हैं, या हमारा रोग प्रबल हो जाता है, तब भी हमारी यही अवस्था होती है कि हमसे जो लोग कहते हैं, हम वही करने को उतारू होते हैं, चाहे उनमें सभी बातें हमारे काम की हों चाहे न हों।

मेरे एक मित्र थे, उनकी प्रकृति थी कि जब वे किसी को बाँहों पर बहुत यन्त्र बाँधे हुए देखते, या किसी को झाड़ फूँक कराते हुए पाते, या किसी सीधे-सादे मनुष्य को किसी साधु संत की दी हुई राख सिर पर या ऑंखों में मलते हुए देख लेते, तो बहुत हँसते, मुँह बनाते और जो अवसर पाते तो उसे बहुत तंग भी करते। एक दिन एक मनुष्य दु:ख से घबरा कर एक मन्दिर में लोट रहा था, फूट-फूट कर रो रहा था, देवता के सामने गिड़गिड़ा रहा था, नाक रगड़ रहा था, कि वे उसके अपराधों को क्षमा करें। और उसके कष्टों को दूर कर दें। वहीं आप भी पहुँच गये। आपको उसकी नासमझी पर बड़ा दु:ख हुआ, बोले, देखिए न, यह बालू में से तेल निकालना चाहता है। एक दिन मैं उनके घर पर गया, इस समय सिर दर्द से आप बहुत बेचैन थे। एक मनुष्य आपका सिर पकड़े बैठा था, और कुछ छू छा कर रहा था। मैंने कहा-मर्द! यह क्या? उन्होंने कहा-कुछ नहीं। इन्होंने अपनी उँगलियों से मेरे सिर को जोर से पकड़ रखा है। इससे मुझको बड़ी तसकीन हो रही है। और इसीलिए मैंने ऐसा करना गवारा किया है। आप तो जानते ही हैं कि मैं इन बातों को पसन्द नहीं करता। मैंने कहा, इसी तरह आप को दूसरों की तसकीन का भी ख्याल रखना चाहिए। मेरी बात को सुनकर वे कुछ रूखे हुए। पर बोले नहीं। सच्ची बात यह है कि-घबराहट में तसकीन की ही खोज रहती है। चाहे वह किसी तरह मिले। जिन बातों को हम जी से घृणित समझते हैं, घबराहट में तसकीन के लिए हम उनको भी करने से नहीं हिचकते। क्योंकि उस घड़ी समझ ठीक-ठीक काम नहीं करती।

ऐसे लोग भी हैं, जो बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी नहीं घबराते। उनका धर्य उनके सारे संकटों को हल कर देता है। पर ऐसे धर्य धारण करने वाले कितने हैं? आप पोस्ते के खेत को देखिए, जहाँ तक आप की दृष्टि जावेगी, आप श्वेत फूल ही देखेंगे, इन्हीं फूलों में कभी-कभी लाल फूल भी दिखलाई पड़ता है। पर दो-चार भी नहीं, एक ही। इसी प्रकार गहरी विपत्ति में भी जिनका धर्य काम करता है वे इस संसार में थोड़े हैं। मैं उन धर्य धारण करने वालों में नहीं हूँ। मैं भी घबराने वालों में से हूँ। इसलिए संकटों में जैसी दशा ऐसे लोगों की होती है, मेरी भी हुई। जब तक रोग का बेग साधारण होता था, मेरी घबराहट भी साधारण थी। पर रात के बेग ने मुझे बहुत चौंका दिया। मैं सोचने लगा कि क्या रोग के हाथ से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी है? और आज दिन भर यही सोचता रहा।

मिलने वालों की भी कमी नहीं थी। जब से प्रकृति प्राय: गड़बड़ रहने लगी, तभी से नित्य ही कुछ लोग मिलने के लिए आया करते थे। आज मैं कचहरी नहीं गया, इससे और अधिक लोग आये। इनमें सब तरह के लोग थे। कुछ लोगों से कचहरी का हरिऔध था, वे इसलिए आये कि सहानुभूति दिखलाने के ऐसे ही अवसर होते हैं, उन्होंने समझा कि इन अवसरों पर आया गया भूलता नहीं, हमारे दस पन्द्रह मिनट लगेंगे, पर किसी अवसर पर हमारा यह दस पन्द्रह मिनट काम आ जायेगा, कोई-न-कोई काम अवश्य निकलेगा। कुछ लोग संगी साथी थे, वे हमारे दु:ख से दुखी थे, वे प्रतिदिन जानना चाहते थे कि हमारा क्या हाल है। बिना हमें देखे उनको चैन नहीं पड़ता था। इसलिए वे आये। और हमें देखकर अपना बोध कर गये। कुछ लोग बड़े-बूढ़े थे, सब पर दया करना ही उनका काम है, वे दया करके आये, और जिन बातों को हमारे हित का समझा, बतला गये। कितने लोगों से राह चलते ऑंखें बराबर हो गयीं, वे जानते थे आजकल इनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। पहले की जान-पहचान थी, शील ने न माना, इसलिए वे लोग भी आये, कुछ देर बैठे, कुछ पूछा-पाछा? फिर चले गये। कितने लोग कुछ लालच से आये, कुछ लोग इधर-उधर चक्कर लगाते-लगाते हमारे यहाँ भी पहुँच गये। कोई-कोई यह सोच कर आये कि चलो देखें इसकी रस्सी कितनी दराज है। यह कई बार अब तब हुआ, पर सम्हल गया, क्या अबकी बार भी तो न सम्हल जाएगा। पर ये लोग थे विचित्र, इनकी सहानुभूति की बातें बड़ी प्यारीथीं।

ऐसे अवसर पर जितने लोग आते हैं, कुछ-न-कुछ ऐसी बातें अवश्य कहते हैं कि जिससे रोगी को शान्ति मिले। ऐसा करने के दो कारण हैं। एक तो इससे रोगी के साथ सहानुभूति दिखलाई जा सकती है, दूसरी इसमें छिपी हुई बात यह है कि कहने वाले ऐसे अवसर पर ही अपने को बहुत सी बातों का जानकार और अवसर का समझने वाला सिद्ध कर सकते हैं। निदान हमारे यहाँ भी जितने लोग आये, सभी ने कुछ-न-कुछ बतलाया। जिसका जिस उपाय से भला हुआ था, जो क्रिया जिसको अनु�