शायद इसी को

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शायद इसी को --- ! रात अधीर हो रही थी, अंधेरे का आवरण हटने लगा था, आसमान म अरणणमा आछाददत होने लगी थी | शायद इसे ही कवल उषा का आगमन कहता है | चिकार इसे अं कत करते ह, सादहयकार सराहते ह, कहते ह ददवाशशु का जम ह आ है | समझे बिना ही सुननेवाले व सुध भुला पुलककत हो उठते ह | मने भी आसमान को देखा, मुझे तो और ही क छ वहा नज़र आया | घोर संघषष और ू रतांड़व टगोिर ह आ | सूरज ददववजय पर ननकला ह आ था, उसके रमसैननक तार पर तलवार िला रहे थे | जन िेिार ने रात भर काश दान कया वे समर म अमर हो रहे थे | लह का लाल रंग आकाश से धरा की ओर टपकने लगा | तरवर उन िू द को ले अपने सुकोमल सुमन की पंखुड़ड़य पर रंग िढ़ाने लगे | पास के पत ने आसू छलकाए | इतने म सूरज ववजय लालसा शलए आकाश म और भी िढ़ आया | वनपनत ने झट से आसू पछ हसी बिखेर दी | अि सिको उसी की दया पर िाकी जीवन जीना है | सूखा पता हवा के संग उछला, अपनी मौजूदगी िताने | आज की कोपल ने कल के िूढ़े पत पर यंवय कया | शायद इसी को संसार कहते ह ! आकाश म अि कोई िंिलता नहीं रही | पर क छ देर िाद वहा एक क रे पुनख खड़ा होगा | सूरज को मारकर तारे ववजयोसव मनाएगे | कभी िाद भी उनके संग हो लेगा | इनके वागत म पाररजात रत वणष ड़ंठल पर मवेत पंखुड़िया णखलाएगा | किर से एक िार रात का राय होगा | शायद इसी को संसार कहते ह ! और का मामला तो लोग के शलए अनत वाददटट दावत है, रोिक भोज है | वे िोले, “ददन के ताप से िह त िेिैन हो गए | सूरज िू िा तो सुख सा शमलता है |” ककसी के िू िने म ही उह सुख शमलता है | ननशा की समाचध पर खड़े उषा की राह देखगे उसके िाद | नाटक की कला तो उनकी नस म समाई ह ई है | शायद इसी को संसार कहते ह ! मने सुना है कक लोग म अतखकरण नाम की कोई िीज़ होती है | कौन जाने है भी क नहीं -- ? पर जवा तो ज़ऱर है | दात के िीि रहकर भी जयगान करती है, जमन मनाती है | उसी के िल िते अपना जीवन जीते ह सि, वही लोग को िनाती है, दटकाए रखती है, शमटाती है | शायद इसी को संसार कहते ह ! अरे .. अरे ! आप कहा िल ददए ? वविल को ठुकराकर सिल का साथ देने ? हारे का हाथ छोड़ जीते का पाव छू ने ... ? अछा ! तो यही संसार है! नहीं तो िोशलए सिा संसार है कहा ? ज़रा पता तो दीजए मुझे पह िना है वहा !

Upload: balaji-sharma

Post on 13-Feb-2017

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Lifestyle


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