म ¡क्तिबध काव्य भाषा क क्तिल्पकार...6...

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1 मुिबोध : का भाषा के िपकार डॉ. संजय साद ीवातव भाषा का मूल संबंध कव के अंतःकरण से होता है। भाषा को युग बोध कᳱ संवाहक के भी देखा जाता है। कव अपने युग के भाव, वचार और समया को अपने का उतार देता है। मुिबोध के अनुसार कव भाषा का नमााण करता है। जो कव भाषा का नमााण करता है, वकास करता है, वह नसंदेह महान होता है।1 गजानन माधव मुिबोधहंदी के सिि हतार है। आपका जम 13 नवंबर 1917 . को मयदेि के मुरैना जले के योपुर नामक थान पर था। सन् 1964 लंबी बीमारी के बाद उनका वगावास हो गया। आपने कु छ समय तक हंसपिका का भी संपादन ᳰकया। आपने चाद का मुटेढा है , भूरी-भूरी खाक धूल, काठ का सपना, वपाि, आमायान, नई कवता का आम संघषा , उवािी दिान और का, नये साहय का सौदया ि, कामायनी : एक पुनᳶवाचारआᳰद का संकलन एवं पुतक कᳱ रचना कᳱ। आपकᳱ संपूणा साहय जनजीवन कᳱ घुटन को महसूस ᳰकया जा सकता है। मुिबोध कᳱ का यािा छायावाद से ारंभ होकर गतवाद, योगवाद और नई कवता से होते अपने का भाषा और िप को एक नया दान ᳰकया है। मुिबोध ने अपने का वि कार के तीक, बंब, अलंकार, ववधतापूणिका योग मुहावरे - लोकोिय तथा छंद को कवता थान ᳰदया है। मुिबोध ने कपना से भी वचि सच का सााकार फ टेसी के द्वारा ᳰकया है। हंदी साहय फटेसी के प म मुिबोध ने अपनी एक वि कᳱ पहचान बनाई है। वचरण करता-सा एक फ टेसी म। यह नित है ᳰक फ टेसी कल वातव होगी।2 1 नयी कवता का आमसंघषा तथा अय नबंधगजानन माधव मुिबोध, पृ .2 2 चाद का मुटेढा है -पृ .115

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1

मकु्तिबोध : काव्य भाषा के क्तिल्पकार

डॉ. संजय प्रसाद श्रीवास्तव

भाषा का मूल संबंध कक्तव के अंतःकरण से होता ह।ै भाषा को युग बोध की संवाहक के रूप में

भी दखेा जाता ह।ै कक्तव अपने युग के भावों, क्तवचारों और समस्याओं को अपने काव्य में उतार दतेा ह।ै

मुक्तिबोध के अनुसार “कक्तव भाषा का क्तनमााण करता ह।ै जो कक्तव भाषा का क्तनमााण करता है, क्तवकास

करता है, वह क्तनस्सदंहे महान होता ह।ै”1

गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ हहदंी के सिि हस्ताक्षर ह।ै आपका जन्म 13 नवंबर 1917 ई. को

मध्यप्रदिे के मुरैना क्तजले के श्योपुर नामक स्थान पर हुआ था। सन् 1964 में लंबी बीमारी के बाद

उनका स्वगावास हो गया। आपने कुछ समय तक ‘हसं’ पक्तिका का भी संपादन ककया। आपने ‘चााँद का

मुाँह टेढा ह’ै, ‘भूरी-भूरी खाक धूल’, ‘काठ का सपना’, ‘क्तवपाि’, ‘आत्माख्यान’, ‘नई कक्तवता का आत्म

संघषा’, ‘उवािी दिान और काव्य, नये साक्तहत्य का सौन्दया िास्त्र, ‘कामायनी : एक पुनर्वाचार’ आकद

काव्य संकलन एवं पुस्तकों की रचना की। आपकी संपूणा साक्तहत्य में जनजीवन की घुटन को महसूस

ककया जा सकता ह।ै मुक्तिबोध की काव्य यािा छायावाद से प्रारंभ होकर प्रगक्ततवाद, प्रयोगवाद और

नई कक्तवता से होते हुए अपने काव्य में भाषा और क्तिल्प को एक नया रूप प्रदान ककया ह।ै मुक्तिबोध न े

अपने काव्य में क्तवक्तिष्ट प्रकार के प्रतीक, हबंब, अलंकार, क्तवक्तवधतापूणा िब्दों का प्रयोग मुहावरे-

लोकोक्तियों तथा छंदों को कक्तवता में स्थान कदया ह।ै मुक्तिबोध ने कल्पना से भी क्तवक्तचि सच का

साक्षात्कार फैं टेसी के दव्ारा ककया ह।ै हहदंी साक्तहत्य में फैं टेसी के रूप में मुक्तिबोध न े अपनी एक

क्तवक्तिष्ट की पहचान बनाई ह।ै

“मैं क्तवचरण करता-सा हाँ एक फैं टेसी में। यह क्तनक्तित ह ैकक फैं टेसी कल वास्तव होगी।”2

1 ‘नयी कक्तवता का आत्मसंघषा तथा अन्य क्तनबंध’ – गजानन माधव मुक्तिबोध, पृ.2

2 ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै-पृ.115

2

अतः मुक्तिबोध का कहना था कक यथाथा की कलात्मक पररणक्तत फैं टेसी में ही क्तनक्तहत होती ह।ै

डायरी में मुक्तिबोध क्तलखते ह,ै ‘कला का पहला क्षण ह ैजीवन का उत्कट तीव्र अनभुव-क्षण। दसूरा

क्षण ह ैइस अनुभव का अपन ेकसकते-दखुते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैं टेसी का रूप

धारण कर लेना मानो वह अपनी आाँखों के सामने ही खडी हो। तीसरा और अंक्ततम क्षण ह ैइस फैं टेसी

के िब्दबद्ध होने की प्रकिया का आरंभ और उस प्रकिया का पररपूणाावस्था तक की गक्ततमानता।’

आगे मुक्तिबोध क्तलखते ह ैकक “कलाकार को िब्द साधना दव्ारा नय-ेनय ेभाव और नय ेअथा

स्वप्न क्तमलत ेह।ै”1

मुक्तिबोध की काव्य भाषा में क्तवक्तभन्न िब्दावली का क्तमक्तश्रत रूप दखेने को क्तमलती ह।ै

मुक्तिबोध की कक्तवता में तत्सम, तद्भव, अरबी, फारसी, अंगे्रजी आकद सभी भाषाओं के िब्दों का प्रयोग

हुआ ह।ै जसै—े

“कोलाहल करत सगवा उद्धत मजदरूों का जलुसू”

“रेफ्रीजरेटरों, क्तवटाक्तमनों, रेक्तडयो ग्रामों के बाहर की/मैं कनफटा हाँ हठेा हाँ। िवे्रलटे-

डाज के नीच ेलटेा हाँ”

उपयुाि पंक्ति में अरबी और अंगे्रजी िब्दों का प्रयोग ककया गया ह।ै

मुक्तिबोध की कक्तवता में सांसाररक हबंब अक्तधक क्तमलते ह।ै उनकी कक्तवताओं में एक रहस्यमय

व्यक्ति का क्तचिण क्तमल जाता ह।ै

“हजदंगी के...../कमरों में अाँधरेे/लगता ह ै चक्कर/कोई एक लगातार/........इतने में अकस्मात ्

क्तगरत ेहैं भीतर स/ेफूल ेहुए पक्तलस्तर/क्तगरती ह ैचनू ेभरी रेत/क्तससकती ह ैपपक्तडयााँ इस तरह/खुद-ब-

खुद/कोई बडा चहेरा बन जाता ह।ै”2

“कक इतन ेमें, इतन ेमें/झलक-झलक उठती ह/ैजल अन्तर में से ही

कठोर मखु आकृक्ततयााँ/भयावने चहेरे कुछ, लहरों के नीच ेस”े3

“भव्य ललाट की नाक्तसका में स/े बह रहा खनू न जाने कब स/े

लाल-लाल गरमीला एक रि टपकता/(खनू के धब्बों से भरा अगंरखा)।”4

1 नेक्तमचन्र जैन, मुक्तिबोध रचनावली-4, राजकमल प्रकािन, 1980, पृ. 105

2 ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै, पृ. 245-246

3 ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै, पृ. 172-173

4 ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै, पृ. 268

3

मुक्तिबोध की भाषा में मुहावरों का प्रयोग क्तमलता ह।ै उन्होंने अपने काव्य में मुहावरों को

स्वतः ही गढ कर प्रयोग ककया ह।ै वे मुहावरों के दव्ारा अपनी बात को स्पष्ट रूप से रखते ह।ै कक्तव

अिोक बाजपेयी कहते ह ैकक “वे एक ऐसे कक्तव हैं क्तजन्होंने हमारे समय को उसकी भयावह व्यापकता

और गहराई में पररभाक्तषत करने की कोक्तिि की ह।ै उनके मुहावरें में क्तबम्बधर्माता, सपाटबयानी

उत्सवधर्माता, क्तवशे्लषण, बातचीत, ररटाररक, क्तवनोदक्तप्रयता आकद अनेक तत्वों का अद्भुत और जरटल

संयोजन संभव हुआ ह।ै.............”1 साथ ही कक्तवता को सिि रूप भी प्रदान करते ह।ै कुछ उनके द्

वारा प्रयोग ककए गए मुहावरे इस प्रकार ह—ै‘हजंदगी के झोल’, ‘जीतोड मेहनतकि’, ‘गुल करना’,

‘दांत ककटककटाना’, ‘क्तसर कफरना’, ‘केंचुली उतारना’, ‘जमाना सख्त होना’, ‘अपना गक्तणत करना’,

‘सच्चाई की आाँख क्तनकालना’, ‘मन टटोलना’ आकद।

मुक्तिबोध ने अपने काव्य को सिि बनाने के क्तलए अलकंारों का भी प्रयोग ककया ह।ै उनके

प्रारंक्तभक रचनाओं में मानवीकरण का प्रयोग हुआ ह।ै

“घबराए हुए प्रतीक और मसु्कुरात ेरूप क्तचिण लकेर मैं/घर लौटता हाँ/उपमाएाँ द्वार पर आत े

ही कहती ह/ैककतन ेबरस तमु्हें और जीना ही चाक्तहए।”2

मुक्तिबोध कृत ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै कक्तवता में “चााँदनी का स्थान-स्थान पर मानवीकरण

ककया गया ह।ै कहीं वह हसंती ह,ै रोती है, जीती है, मरती है, या कफर धारािाही चााँदनी के होंठ काल े

पड गए।”3

श्रीकांत वमाा का आरोप ह ैकक “मकु्तिबोध न ेकाव्य के सगंीत के मलू्यों का सहंार ककया, भाषा

का सहंार ककया तथा िब्दों को अथाहीन और अथा को िब्दहीन बना कदया।”4

कुाँ वर नारायण न ेमुक्तिबोध पर क्तलखा ह ैकक, “मुक्तिबोध का कथ्य या सदंिे क्तजतना स्पष्ट और

सीधा ह ैउनकी कक्तवताओं की बनावट उतनी ही जरटल और उलझी हुई है, वे सहज बोधगम्य नहीं ह।ै”5

अतः कथ्य की क्तवक्तवधता के कारण हहदंी साक्तहत्य में आलोचक वगों ने उन्हें ‘दरुूह’, ‘अस्पष्ट’,

‘न समझ में आनेवाला कक्तव’ कहा ह।ै

1 अिोक वाजपेयी, ‘कफलहाल’, प.ृ124-25

2 नरेंर क्तमश्र, ‘अलंकार दपाण’, क्तनमाल पक्तब्लकेिन, कदल्ली, 2001, पृ.64

3 नरेि क्तमश्र, ‘अलंकार दपाण’, क्तनमाल पक्तब्लकेिन, कदल्ली, 2001, पृ.25

4 ‘चााँद का मुाँह टेढा ह’ै – संपादकीय, श्रीकांत वमाा

5 ‘मुक्तिबोध की कक्तवता की बनावट’ – कुाँ वर नारायण, कक्तवता का अनुवाद

4

मुक्तिबोध की मातृभाषा मराठी थी लेककन उनकी संपूणा काव्य भाषा हहदंी में ह।ै उन्होंन ेभाषा

के अक्तभजात्य को ध्वंि ककया। साथ ही उन्होंन ेअंगे्रजी, उदूा, मराठी तथा तत्सम्, तद्भव एवं दिेज िब्दों

के सहारे अपनी काव्य यािा को आगे बढाया।

मुक्तिबोध की भाक्तषक कुिलता और रौर-सौंदया को ‘चंबल की घारटयााँ’ कक्तवता की पंक्तियों में

दखेा जा सकता ह।ै

“कटें, उठे पठारों का, दरों का

धाँसानों का बयाबान इलाका। गुाँजान रात।

अजनबी हवाओं की तजे मार-धाड।

बरगदों बबलूों को तोड-ताड-फोड

गगन में अडे हुए पहाडों स ेछेडछाड

नहीं कोई आड।”

मुक्तिबोध ने अपने काव्य को मुिछंद में रचा ह।ै कक्तव िमिेर बहादरु हसंह ने उनके मुिछंद के

काव्य पर रटप्पणी करते हुए क्तलखते ह ैकक “जो क्तनराला के मुि छंदों से हाथ क्तमलाकर आगे आता ह,ै

वही सीधी अक्तभव्यक्ति, तरल मानवीय व्यंजना, मगर उससे अक्तधक भी कुछ क्तनरालापन के साथ

मुक्तिबोधपन। सबके साथ यद्यक्तप क्तवक्तिष्ट, एक क्तवक्तिष्ट अपनापन।”

मुक्तिबोध ने मनुष्य के मनोभावों तथा प्रकृक्तत को भी प्रतीकात्मक िैली में प्रस्तुत ककया ह।ै

उनकी मानव जीवन के प्रक्तत गहरी जुडाव के कारण वे रोजाना की हजंदगी के अक्तधकतर प्रतीकों को

अपने काव्य में स्थान दतेे हैं। जैस—ेपूाँछ, दााँत, मूाँछ, कचडा, चादरें, मोररयााँ, रफू, ईंधन, धुआाँ, गुम्बद,

अंगार, क्तवष गठरी, आईना, अकादमी, पलस्तर, गडढे, धूल, बवंडर आकद ऐसे ही प्रतीक हैं। “मकु्तिबोध

ने काव्य भाषा को एक नया तवेर कदया ह।ै जो नई कक्तवता की सामान्य काव्य भाषा की तलुना में काफी

अनगढ और बडेौल लगता ह।ै”1

मुक्तिबोध के काव्य में भाषा का अनगढपन, अजनबीपन और अटपटापन दखेने को क्तमलता ह।ै

मुक्तिबोध की कक्तवता की भाषा “संस्कृतक्तनष्ठ ह,ै क्तनराला की भाषा की तरह। जहााँ तक ऊजाा के सजान

का प्रश्न ह,ै मुक्तिबोध क्तनराला के उत्तराक्तधकारी हैं। पर क्तनराला में क्तवषयवस्तु, भाषा िैली की जो

क्तवक्तवधता कदखाई दतेा ह,ै वह मुक्तिबोध में नहीं।”2

मुक्तिबोध भाषा का चयन नहीं करते थे बक्तल्क भाषा को गढते थे। मुक्तिबोध की के संबंध में

डॉ. लक्तलता अरोडा कहती ह,ै “उनकी भाषा कभी ससं्कृतक्तनष्ठ सामाक्तजक पदावली की अलकृंत

1 नामवर हसंह, कक्तवता के नए प्रक्ततमान, पृ.243

2 डॉ. बच्चन हसंह, समकालीन हहदंी साक्तहत्य, पृ. 70

5

वीक्तधका स ेगजुरती है तो कभी अरबी, फारसी, उदूा के नाजकु लचीले हाथों को थामकर चलती है, तो

कभी अगं्रजेी की इलके्तरिक िेन पर बठैकर जल्दी से खटाक-खटाक क्तनकल जाती ह।ै”1

मुक्तिबोध की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा ह ैऔर क्तजसमें लयात्मकता दखेने को क्तमलती

ह।ै मुक्तिबोध स्वप्न की िैली—‘फैण्टेसी’ के कक्तव के रूप में जाने जाते ह।ै इसका सीधा संबंध कल्पना से

ह।ै ‘फैण्टेसी’ िब्द की व्युत्पक्तत्त ग्रीक िब्द ‘फैण्टेक्तसया’ से हुई ह,ै क्तजसका अथा ह,ै “मानव की प्रवाह रूप

में या मााँग पर एक काल्पक्तनक दकु्तनया का क्तनमााण करन ेका अद्भतु सामथ्या।”2 मुक्तिबोध के अनुसार,

“फैण्टेसी में मन की क्तनगूढ वृक्तत्तयों का अनुभूत जीवन समस्याओं का इक्तछछत जीवन क्तस्थक्ततयों का प्रक्षेप

होता ह।ै”3

मुक्तिबोध ने भारतीय जीवन की िासदी पीडा और सामाक्तजक तनाव को फैण्टेसी िैली में

व्यि करन ेका प्रयास ककया ह।ै मुक्तिबोध की फैण्टेसी िैली पर क्तवचार व्यि करत ेहुए नन्दककिोर

नवल ने कहा ह ै कक—“मुक्तिबोध फैण्टेसी िैली की तरफ धीरे-धीरे बढे थे और यथाथा बोध की

पररपक्वता के साथ उनका ढंग स्वयंमेव बदलता गया था। दसूरे उन्होंने अपनी कक्तवताओं में फैण्टेसी का

कई प्रकार का इस्तेमाल ककया ह।ै कहीं फैण्टेसी का स्पिा हल्का ह,ै कहीं प्रगाढ, कहीं वह सरल रूप में

आती ह ैऔर कहीं बहुत जरटल रूप में। उनकी फैण्टेसी िैली की सफलता उनकी इस क्षमता में क्तनक्तहक्तत

ह,ै जैसे वे क्तजस तरह यथाथा को फैण्टेसी में बदल सकते थे उसी तरह फैण्टेसी का क्तचिण भी क्तबल्कुल

यथाथा की तरह कर सकते थे। उनका यथाथा लोक जैसे फैं टाक्तस्टक ह,ै वैसे ही उनका फैं टाक्तस्टक लोक

अत्यंत यथाथा”4

िेजेडी साधारणतः फैं टेसी में ही होती ह।ै कक्तव मुक्तिबोध स्वप्न के माध्यम से फैं टेसी की दव्ारा

यथाथा का क्तचिण करते ह।ै मुक्तिबोध इस पर क्तलखते ह ै कक, “कभी-कभी फैं टेसी जीवन की क्तवस्ततृ

वास्तक्तवकताओं को लेकर उपक्तस्थत होती ह ैऔर कथा के अंतगात जो पाि, चररि और काया प्रस्तुत होत े

हैं वे सभी प्रतीक होते हैं-वास्तक्तवक जीवन तथ्यों के।”5

मुक्तिबोध की ‘अाँधेरे में’ कक्तवता में प्रतीक रूप में ‘बरगद’ का क्तचिण हुआ ह।ै इस कक्तवता में

‘बरगद’ को परंपरा बोध और क्तवषादमय जीवन के रूप में प्रतीक के माध्यम से प्रयोग हुआ ह।ै

उदाहरण स्वरूप—

1 मुक्तिबोध : एक अध्ययन, डॉ. लक्तलता अरोडा, पृ. 178

2 गजानन माधव मुक्तिबोध : सृजन और क्तिल्प – रणक्तजत हसंह पृ. 159

3 एक साक्तहक्तत्यक की डायरी-गजानन माधव मुक्तिबोध, पृ.21 4 मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना – नंदककिोर नवल, पृ. 12

5 नेक्तमचन्द जैन, मुक्तिबोध रचनावली-भाग-4, राजकमल प्रकािन, कदल्ली, संस्करण 1980, पृ. 221

6

“भयकंर बरगद

सभी उपके्तक्षतों, समस्त वकं्तचतो,

गरीबों का वही घर, वही छत

उसके ही तल-खोह-अाँधरेे में सो रह े

गहृहीन कई प्राण।”1

‘लकडी का रावण’ पूाँजीवादी व्यवस्था और िोषण का प्रतीक ह।ै यहााँ ‘वानर’ जनवादी िांक्तत

का प्रतीक ह।ै उदाहरण—

“बढ ना जायें

छा न जायें

मरेी इस अक्तद्वतीय

सता के क्तिखरों पर स्वणााभ,

हमला न कर बैठें खतरनाक

कुहरे के जनतन्िी

वानर य,े नर य!े!”2

मुक्तिबोध की कक्तवता में प्रयुि प्रतीक जीवन की संपूणा व्याख्या करते ह।ै अतः मुक्तिबोध ने इन

प्रतीकों के माध्यम से कक्तवता के कथ्य को स्पष्ट, रहस्यात्मक एवं काव्यक्तिल्प को जीवंत बनाया ह।ै उनके

अक्तधकांि प्रतीक मानव जीवन के संदभा में प्रयुि हुए ह।ै

मुक्तिबोध की कक्तवता में हबबंों के प्रयोग से अक्तधक समृद्ध हो गया ह।ै उनकी कक्तवता को

हबंबमय कहा जा सकता ह।ै मुक्तिबोध के हबंब के संदभा में कक्तव िमिेर बहादरु हसंह क्तलखते ह ै कक

“मकु्तिबोध की हर इमजे के पीछे िक्ति होती ह।ै वे हर वणान को दमदार, अथापणूा और क्तचिमय बनात े

हैं।”3

मुक्तिबोध की कक्तवताओं में पहाड, पठार, गुफाएाँ आकद के हबंब प्रयुि हुए हैं। उन्होंन े

भावानुभूक्ततयों को मूताता प्रदान करने के क्तलए प्राकृक्ततक हबंबों का प्रयोग ककया ह।ै ‘अंधेरे में’ कक्तवता में

इसके उदाहरण क्तमलते हैं—

“भकू्तम की सतहों के बहुत-बहुत नीच े

अाँक्तधयारी, एकान्त

प्राकृत गहुा एक

क्तवस्ततृ खोह के सााँवले तल में

1 मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 332

2 मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 370

3 सुरेि ऋतुपणा, ‘मुक्तिबोध की काव्य सृक्तष्ट’, पृ. 108

7

क्ततक्तमर को भेदकर चमकत ेहैं पत्थर

तजेक्तस्िय रेक्तडयो-एक्तरटव रत्न भी क्तबखरे,

झरता ह ैक्तजन पर प्रबल प्रणात एक।

प्राकृत जल वह आवगे-भरा ह,ै

द्यकु्ततमत ्मक्तणयों की अक्तियों पर स े

कफसल-कफसलकर बहती हैं लहरें,

लहरों के तल में स ेफूटती ह ैककरनें,

रत्नों की रंगीन रूपों की आभा

फूट क्तनकलती

खोह की बडेौल भीतें ह ैक्तझलक्तमल!!”1

प्रकृक्तत के मनोरम दशृ्य को क्तचिण करने वाला हबंब प्रातः और संध्या के माध्यम से यहााँ वणान

ककया गया ह।ै मुक्तिबोध ने अपने भावों, क्तवचारों तथा जीवन को क्तवक्तभन्न हबंबों दव्ारा कक्तवता में

जीवंतता प्रदान की ह।ै

मुक्तिबोध की कक्तवताओं में अलंकार, हबंबो और प्रतीकों के सामंजस्य दखेने को क्तमलता ह।ै

उनकी कक्तवताओं में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ ह।ै जसै—े

“नीला पौधा

यह आत्मज

रि-हसकं्तचता-हृदय-धररिी का

आत्मा के कोमल आलवाल में

यह जवान हो रहा

कक अनभुव-रि ताल में डूब ेउसके पदतल

जड ेज्ञान-सकं्तवदा

कक पीतीं अनभुव

वह पौधा बढ रहा

तमु्हारे उर में अनसुक्तन्धत्स ुक्षोभ का क्तवरवा

वह मैं ही हाँ।”2

मुक्तिबोध के काव्य में अनेक स्थान पर उत्पे्रक्षा अलंकार कदखाई दतेा ह।ै उदाहरण स्वरूप

क्तनम्न पंक्ति को दखेा जा सकता ह।ै

“ककंत,ु गहरी बावडी

की भीतरी दीवार पर

1 मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 336

2 मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 117

8

क्ततरछी क्तगरी रक्तव-रक्तश्म

के उडत ेहुए परमाण,ु जब

तल तक पहुाँचत ेहैं कभी

तब ब्रह्मराक्षस समझता ह,ै सयूा न े

झकुकर ‘नमस्त’े कर कदया।”1

मुक्तिबोध की कक्तवताएाँ मुि छंद में क्तलखी गई ह।ै उनकी कक्तवताओं में काव्यभाषा, भाषािैली

प्रतीक, हबंब अलंकार और छंद का सुंदर क्तचिण हुआ ह।ै

क्तनष्कषातः कहा जा सकता ह ै कक मुक्तिबोध एक सिि यथाथावादी कक्तव थे। उन्होंन ेअपनी

अक्तभव्यक्ति के अनुरूप रूपकों, प्रतीकों, क्तबबों की पररकल्पना करते हुए भाषा को गढा ह।ै अतः

मुक्तिबोध काव्यभाषा के क्तिल्पकार थे।

******

सहायक ग्रथं सचूी

1. ‘मुक्तिबोध कक्तवता और जीवन क्तववेक’-चन्रकान्त दवेताले, राधाकृष्ण प्रकािन, कदल्ली,

संस्करण-2003

2. ‘प्रक्ततक्तनक्तध आधुक्तनक कक्तव’, संपादक-डॉ.चन्र क्तिखा, हररयाणा साक्तहत्य अकादमी, पंचकूल,

संस्करण 2003

3. ‘कक्तव परम्परा तुलसी से क्तिलोचन’-प्रभाकर श्रोक्तिय, भारतीय ज्ञानपीठ, कदल्ली, संस्करण-

2008

4. क्तवक्तभन्न पि-पक्तिकाएाँ।

[email protected]

1 मुक्तिबोध रचनावली, खंड-दो, पृ. 316