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कबीर कबीर की रचनाए ँ                 

हि�ंदी साहि�त्य में कबीर का व्यक्ति�त्व अनुपम �ै। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महि�मामण्डि()त व्यक्ति�त्व `कबीर' के क्तिसवा अन्य हिकसी का न�ीं �ै। जीवन परिरचयकबीर के जन्म के संबंध में अनेक हिकंवदन्तिन्तयाँ �ैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गरुु रामानन्द स्वामी के आशीवा9द से काशी की एक हिवधवा ब्राह्मणी के गर्भ9 से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात क्तिशशु को ल�रतारा ताल के पास फें क आयी। उसे नीरु नाम का जुला�ा अपने घर ले आया। उसीने उसका पालन-पोषण हिकया। बाद में य�ी बालक कबीर क�लाया। कहितपय कबीर पन्थिFयों की मान्यता �ै हिक कबीर का जन्म काशी में ल�रतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनो�र पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। एक प्राचीन गं्रथ के अनुसार हिकसी योगी के औरस तथा प्रतीहित नामक देवाङ्गना के गर्भ9 से र्भ�राज प्रल्�ाद �ी संवत १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे। कुछ लोगों का क�ना �ै हिक वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रर्भाव से उन्�ें हि�ंदु धम9 की बातें मालूम हुईं। एक दिदन, एक प�र रात र�ते �ी कबीर पञ्चगंगा घाट की सीदि\यों पर हिगर पडे़। रामानन्द जी गंगास्नान करने के क्तिलये सीदि\याँ उतर र�े थे हिक तर्भी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द हिनकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान क्तिलया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर क्तिलया। कबीर के �ी शब्दों में- �म कासी में प्रकट र्भये �ैं, रामानन्द चेताये। अन्य जनश्रुहितयों से ज्ञात �ोता �ै हिक कबीर ने हि�ंदु-मुसलमान का रे्भद मिमटा कर हि�ंदु-र्भ�ों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग हिकया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर क्तिलया। जनश्रुहित के अनुसार उन्�ें एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिरश करने के क्तिलये उन्�ें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा र�ता �ी था। कबीर प\े-क्तिलखे न�ीं थे- मसि� कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिहं हाथ। कृहितयाँसंत कबीर ने स्वयं गं्रथ न�ीं क्तिलखे, मुँ� से र्भाखे और उनके क्तिशष्यों ने उसे क्तिलख क्तिलया। आप के समस्त हिवचारों में रामनाम की महि�मा प्रहितध्वहिनत �ोती �ै। वे एक �ी ईश्वर को मानते थे और कम9का() के घोर हिवरोधी थे। अवतार, मूर्त्तिlं, रोज़ा, ईद, मसजिजद, मंदिदर आदिद को वे न�ीं मानते थे। कबीर के नाम से मिमले गं्रथों की संख्या भिर्भन्न-भिर्भन्न लेखों के अनुसार भिर्भन्न-भिर्भन्न �ै। एच.एच. हिवल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ गं्रथ �ैं। हिवशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ गं्रथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौ) ने `हि�ंदुत्व' में ७१ पुस्तकें हिगनायी �ैं। कबीर की वाणी का संग्र� `बीजक' के नाम से प्रक्तिसद्ध �ै। इसके तीन र्भाग �ैं- रमैनी सबद सारवी य� पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजर्भाषा आदिद कई र्भाषाओं की खिखचड़ी �ै। कबीर परमात्मा को मिमत्र, माता, हिपता और पहित के रूप में देखते �ैं। य�ी तो मनुष्य के सवा9मिधक हिनकट र�त े�ैं। वे कर्भी क�ते �ैं- हरिरमोर पि�उ, मैं राम की बहुरिरया तो कर्भी क�ते �ैं, हरिर जननी मैं बालक तोरा उस समय हि�ंदु जनता पर मुण्डिस्लम आतंक का क�र छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुहिनयोजिजत हिकया जिजससे मुण्डिस्लम मत की ओर झुकी हुई जनता स�ज �ी इनकी अनुयायी �ो गयी। उन्�ोंने अपनी र्भाषा सरल और सुबोध रखी ताहिक व� आम आदमी तक पहँुच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिमलन में सुहिवधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृहित और गोर्भक्षण के हिवरोधी थे। कबीर को शांहितमय जीवन हिप्रय था और वे अहि�ंसा, सत्य, सदाचार आदिद गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वर्भाव तथा संत प्रवृभिl के कारण आज हिवदेशों में र्भी उनका समादर �ो र�ा �ै। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्तिlं की मार ने उन्�ें बहुत कष्ट दिदया। उसी �ालत में उन्�ोंने बनारस छोड़ा और आत्महिनरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के क्तिलये देश के हिवभिर्भन्न र्भागों की यात्राए ँकीं। इसी क्रम में वे कालिलंजर जिजले के हिपथौराबाद श�र में पहँुचे। व�ाँ रामकृष्ण का छोटा सा मजिन्दर था। व�ाँ के संत र्भगवान गोस्वामी जिजज्ञासु साधक थे हिकंतु उनके तक� का अर्भी तक पूरी तर� समाधान न�ीं हुआ था। संत कबीर से उनका हिवचार-हिवहिनमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर ग�रा असर हिकया-

बन ते भागा पिबहरे �ड़ा, करहा अ�नी बान।करहा बेदन का�ों कहे, को करहा को जान।। वन से र्भाग कर ब�ेक्तिलय ेके द्वारा खोये हुए गडे्ढ में हिगरा हुआ �ाथी अपनी व्यथा हिकस से क�े ? सारांश य� हिक धम9 की जिजज्ञासा सें प्रेरिरत �ो कर र्भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बा�र तो हिनकल आये और �रिरव्यासी सम्प्रदाय के गडे्ढ में हिगर कर अकेले हिनवा9क्तिसत �ो कर असंबाद्य्य ण्डिस्थहित में पड़ चुके �ैं। मूर्त्तिlं पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्�ोंने एक साखी �ाजिजर कर दी- �ाहन �ूजे हरिर मिमलैं, तो मैं �ूजौं�हार।था ते तो चाकी भली, जा�े �ी�ी खाय �ं�ार।। ११९ वष9 की अवस्था में उन्�ोंने मग�र में दे� त्याग हिकया।

दो�ावली / कबीरदुख में सुमरिरन सब करे, सुख मे करे न कोय । जो सुख मे सुमरिरन करे, दुख का�े को �ोय ॥ 1 ॥ हितनका कबहुँ ना हिनंदिदये, जो पाँव तले �ोय । कबहुँ उड़ आँखो पडे़, पीर घानेरी �ोय ॥ 2 ॥ 

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माला फेरत जुग र्भया, हिफरा न मन का फेर । कर का मन का )ार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ गुरु गोहिवन्द दोनों खडे़, काके लागंू पाँय । बक्तिल�ारी गुरु आपनो, गोहिवंद दिदयो बताय ॥ 4 ॥ बक्तिल�ारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । मानुष से देवत हिकया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ कबीरा माला मनहि� की, और संसारी र्भीख । माला फेरे �रिर मिमले, गले र�ट के देख ॥ 6 ॥ सुख मे सुमिमरन ना हिकया, दु:ख में हिकया याद । क� कबीर ता दास की, कौन सुने फरिरयाद ॥ 7 ॥ साईं इतना दीजिजये, जा मे कुटुम समाय । मैं र्भी र्भूखा न रहँू, साधु ना र्भूखा जाय ॥ 8 ॥ लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे हिफरे पछताओगे, प्राण जाहि�ं जब छूट ॥ 9 ॥ जाहित न पूछो साधु की, पूक्तिछ लीजिजए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा र�न दो म्यान ॥ 10 ॥ ज�ाँ दया त�ाँ धम9 �ै, ज�ाँ लोर्भ त�ाँ पाप । ज�ाँ क्रोध त�ाँ पाप �ै, ज�ाँ क्षमा त�ाँ आप ॥ 11 ॥ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ �ोय । माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल �ोय ॥ 12 ॥ कबीरा ते नर अन्ध �ै, गुरु को क�ते और । �रिर रूठे गुरु ठौर �ै, गुरु रुठै न�ीं ठौर ॥ 13 ॥ पाँच प�र धन्धे गया, तीन प�र गया सोय । एक प�र �रिर नाम हिबन, मुक्ति� कैसे �ोय ॥ 14 ॥ कबीरा सोया क्या करे, उदिठ न र्भजे र्भगवान । जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी र�ेगी म्यान ॥ 15 ॥ शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । तीन लोक की सम्पदा, र�ी शील में आन ॥ 16 ॥ माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । आशा तृष्णा न मरी, क� गए दास कबीर ॥ 17 ॥ माटी क�े कुम्�ार से, तु क्या रौंदे मोय । एक दिदन ऐसा आएगा, मैं रौंदंूगी तोय ॥ 18 ॥ रात गंवाई सोय के, दिदवस गंवाया खाय । �ीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ नींद हिनशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । और रसायन छांहिड़ के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ जो तोकु कांटा बुवे, ताहि� बोय तू फूल । तोकू फूल के फूल �ै, बाकू �ै हित्रशूल ॥ 21 ॥ दुल9र्भ मानुष जन्म �ै, दे� न बारम्बार । तरुवर ज्यों पlी झडे़, बहुरिर न लागे )ार ॥ 22 ॥ 

आय �ैं सो जाएगँे, राजा रंक फकीर । एक लिसं�ासन चदि\ चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में प्रलय �ोएगी, बहुरिर करेगा कब ॥ 24 ॥ माँगन मरण समान �ै, महित माँगो कोई र्भीख । माँगन से तो मरना र्भला, य� सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ ज�ाँ आपा त�ाँ आपदां, ज�ाँ संशय त�ाँ रोग । क� कबीर य� क्यों मिमटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ माया छाया एक सी, हिबरला जाने कोय । र्भगता के पीछे लगे, सम्मुख र्भागे सोय ॥ 27 ॥ आया था हिकस काम को, तु सोया चादर तान । सुरत सम्भाल ए गाहिफल, अपना आप प�चान ॥ 28 ॥ क्या र्भरोसा दे� का, हिबनस जात क्तिछन मां� । साँस-सांस सुमिमरन करो और यतन कुछ नां� ॥ 29 ॥ गारी �ी सों ऊपजे, कल� कष्ट और मींच । �ारिर चले सो साधु �ै, लाहिग चले सो नींच ॥ 30 ॥ दुब9ल को न सताइए, जाहिक मोटी �ाय । हिबना जीव की �ाय से, लो�ा र्भस्म �ो जाय ॥ 31 ॥ 

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दान दिदए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । अपनी आँखों देख लो, यों क्या क�े कबीर ॥ 32 ॥ दस द्वारे का हिपंजरा, तामे पंछी का कौन । र�े को अचरज �ै, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपहु शीतल �ोय ॥ 34 ॥ �ीरा व�ाँ न खोक्तिलये, ज�ाँ कंुजड़ों की �ाट । बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ कुदिटल वचन सबसे बुरा, जारिर कर तन �ार । साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ जग में बैरी कोई न�ीं, जो मन शीतल �ोय । य� आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न �ोय । मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की �ोय ॥ 38 ॥ सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । य� तीनों सोते र्भले, साहिकत लिसं� और साँप ॥ 39 ॥ अवगुन कहूँ शराब का, आपा अ�मक साथ । मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । नाना नाच दिदखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ अटकी र्भाल शरीर में तीर र�ा �ै टूट । चुम्बक हिबना हिनकले न�ीं कोदिट पटन को फू़ट ॥ 42 ॥ कबीरा जपना काठ की, क्या दिदख्लावे मोय । ह्रदय नाम न जपेगा, य� जपनी क्या �ोय ॥ 43 ॥ पहितवृता मैली, काली कुचल कुरूप । पहितवृता के रूप पर, वारो कोदिट सरूप ॥ 44 ॥ 

बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । एक कबीरा ना मुआ, जेहि� के राम अधार ॥ 45 ॥ �र चाले तो मानव, बे�द चले सो साध । �द बे�द दोनों तजे, ताको र्भता अगाध ॥ 46 ॥ राम र�े बन र्भीतरे गुरु की पूजा ना आस । र�े कबीर पाख() सब, झूठे सदा हिनराश ॥ 47 ॥ जाके जिजव्या बन्धन न�ीं, ह्र्दय में न�ीं साँच । वाके संग न लाहिगये, खाले वदिटया काँच ॥ 48 ॥ तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिमले फल चार । सत्गुरु मिमले अनेक फल, क�ें कबीर हिवचार ॥ 49 ॥ सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी हिबन मीन । प्राण तजे हिबन हिबछडे़, सन्त कबीर क� दीन ॥ 50 ॥ समझाये समझे न�ीं, पर के साथ हिबकाय । मैं खींचत हँू आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ �ंसा मोती हिव(न्या, कुञ्च्न थार र्भराय । जो जन माग9 न जाने, सो हितस क�ा कराय ॥ 52 ॥ क�ना सो क� दिदया, अब कुछ क�ा न जाय । एक र�ा दूजा गया, दरिरया ल�र समाय ॥ 53 ॥ वस्तु �ै ग्रा�क न�ीं, वस्तु सागर अनमोल । हिबना करम का मानव, हिफरैं )ांवा)ोल ॥ 54 ॥ कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । चा�े क�ँ सत आइना, जो जग बैरी �ोय ॥ 55 ॥ कामी, क्रोधी, लालची, इनसे र्भक्ति� न �ोय । र्भक्ति� करे कोइ सूरमा, जाहित वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । सूरत )ोर लागी र�े, तार टूट नाहि�ं जाय ॥ 57 ॥ साधु ऐसा चहि�ए ,जैसा सूप सुर्भाय । सार-सार को गहि� र�े, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ लगी लग्न छूटे नाहि�ं, जीर्भ चोंच जरिर जाय । मीठा क�ा अंगार में, जाहि� चकोर चबाय ॥ 59 ॥ र्भक्ति� गेंद चौगान की, र्भावे कोई ले जाय । क� कबीर कुछ र्भेद नाहि�ं, क�ां रंक क�ां राय ॥ 60 ॥ 

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घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । बाल सने�ी सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ अन्तया9मी एक तुम, आत्मा के आधार । जो तुम छोड़ो �ाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ मैं अपराधी जन्म का, नख-क्तिसख र्भरा हिवकार । तुम दाता दु:ख र्भंजना, मेरी करो सम्�ार ॥ 63 ॥ प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न �ाट हिबकाय । राजा-प्रजा जोहि� रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ प्रेम प्याला जो हिपये, शीश दभिक्षणा देय । लोर्भी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ सुमिमरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । क�ैं कबीर हिबसरे न�ीं, प्रान तजे तेहि� संग ॥ 66 ॥ सुमरिरत सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । बा�र का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ छीर रूप सतनाम �ै, नीर रूप व्यव�ार । �ंस रूप कोई साधु �ै, सत का छानन�ार ॥ 68 ॥ ज्यों हितल मां�ी तेल �ै, ज्यों चकमक में आग । तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ जा करण जग ढँ़ूदि\या, सो तो घट �ी मांहि� । परदा दिदया र्भरम का, ताते सूझे नाहि�ं ॥ 70 ॥ जब�ी नाम हि�रदे घरा, र्भया पाप का नाश । मानो लिचंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ न�ीं शीतल �ै चन्द्रमा, हि�ंम न�ीं शीतल �ोय । कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सने�ी सोय ॥ 72 ॥ आ�ार करे मन र्भावता, इंदी हिकए स्वाद । नाक तलक पूरन र्भरे, तो का कहि�ए प्रसाद ॥ 73 ॥ जब लग नाता जगत का, तब लग र्भक्ति� न �ोय । नाता तोडे़ �रिर र्भजे, र्भगत क�ावें सोय ॥ 74 ॥ जल ज्यों प्यारा मा�री, लोर्भी प्यारा दाम । माता प्यारा बारका, र्भगहित प्यारा नाम ॥ 75 ॥ दिदल का मर�म ना मिमला, जो मिमला सो गज� । क� कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दज� ॥ 76 ॥ बानी से पह्चाहिनये, साम चोर की घात । अन्दर की करनी से सब, हिनकले मुँ� कई बात ॥ 77 ॥ जब लहिग र्भगहित सकाम �ै, तब लग हिनष्फल सेव । क� कबीर व� क्यों मिमले, हिनष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ फूटी आँख हिववेक की, लखे ना सन्त असन्त । जाके संग दस-बीस �ैं, ताको नाम म�न्त ॥ 79 ॥ दाया र्भाव ह्र्दय न�ीं, ज्ञान थके बे�द । ते नर नरक �ी जायेंगे, सुहिन-सुहिन साखी शब्द ॥ 80 ॥ दाया कौन पर कीजिजये, का पर हिनद9य �ोय । सांई के सब जीव �ै, कीरी कंुजर दोय ॥ 81 ॥ जब मैं था तब गुरु न�ीं, अब गुरु �ैं मैं नाय । प्रेम गली अहित साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥ क्तिछन �ी च\े क्तिछन �ी उतरे, सो तो प्रेम न �ोय । अघट प्रेम हिपंजरे बसे, प्रेम क�ावे सोय ॥ 83 ॥ ज�ाँ काम त�ाँ नाम नहि�ं, ज�ाँ नाम नहि�ं व�ाँ काम । दोनों कबहूँ नहि�ं मिमले, रहिव रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ कबीरा धीरज के धरे, �ाथी मन र्भर खाय । टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ ऊँचे पानी न दिटके, नीचे �ी ठ�राय । नीचा �ो सो र्भरिरए हिपए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ सबते लघुताई र्भली, लघुता ते सब �ोय । जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ संत �ी में सत बांटई, रोटी में ते टूक । क�े कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ 

माग9 चलते जो हिगरा, ताकों नाहि� दोष । य� कहिबरा बैठा र�े, तो क्तिसर करडे़ दोष ॥ 89 ॥ 

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जब �ी नाम ह्रदय धरयो, र्भयो पाप का नाश । मानो क्तिचनगी अखिग्न की, परिर पुरानी घास ॥ 90 ॥ काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । काया वैध ईश बस, मम9 न काहू पाय ॥ 91 ॥ सुख सागर का शील �ै, कोई न पावे था� । शब्द हिबना साधु न�ी, द्रव्य हिबना न�ीं शा� ॥ 92 ॥ बा�र क्या दिदखलाए, अनन्तर जहिपए राम । क�ा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । क�े कबीर सेवक न�ीं, च�ै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास । कस्तूरी का हि�रन ज्यों, हिफर-हिफर ढँ़ू\त घास ॥ 95 ॥ कथा-कीत9न कुल हिवशे, र्भवसागर की नाव । क�त कबीरा या जगत में नाहि� और उपाव ॥ 96 ॥ कहिबरा य� तन जात �ै, सके तो ठौर लगा । कै सेवा कर साधु की, कै गोहिवंद गुन गा ॥ 97 ॥ तन बो�त मन काग �ै, लक्ष योजन उड़ जाय । कबहु के धम9 अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ ज�ँ गा�क ता हँू न�ीं, ज�ाँ मैं गा�क नाँय । मूरख य� र्भरमत हिफरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ 

क�ता तो बहुत मिमला, ग�ता मिमला न कोय । सो क�ता व� जान दे, जो नहि�ं ग�ता �ोय ॥ 100 ॥ तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । तब लग जीव जग कम9वश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुडै़ सौ बार । दुज9न कुम्भ कुम्�ार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥ सब धरती कारज करँू, लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मक्तिस करँू गुरुगुन क्तिलखा न जाय ॥ 104 ॥ बक्तिल�ारी वा दूध की, जामे हिनकसे घीव । घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥ आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट �ोय । सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई �ोय ॥ 106 ॥ साधु गाँदिठ न बाँधई, उदर समाता लेय । आगे-पीछे �रिर खडे़ जब र्भोगे तब देय ॥ 107 ॥ घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । बाल सने �ी सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥ कहिबरा खाक्तिलक जाहिगया, और ना जागे कोय । जाके हिवषय हिवष र्भरा, दास बन्दगी �ोय ॥ 109 ॥ ऊँचे कुल में जामिमया, करनी ऊँच न �ोय । सौरन कलश सुरा, र्भरी, साधु हिनन्दा सोय ॥ 110 ॥ सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पहिन�ार । �ोले-�ोले सुरत में, क�ैं कबीर हिवचार ॥ 111 ॥ सब आए इस एक में, )ाल-पात फल-फूल । कहिबरा पीछा क्या र�ा, ग� पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥ जो जन र्भीगे रामरस, हिवगत कबहूँ ना रूख । अनुर्भव र्भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥ लिसं� अकेला बन र�े, पलक-पलक कर दौर । जैसा बन �ै आपना, तैसा बन �ै और ॥ 114 ॥ य� माया �ै चू�ड़ी, और चू�ड़ा कीजो । बाप-पूत उरर्भाय के, संग ना का�ो के�ो ॥ 115 ॥ ज�र की जम� में �ै रोपा, अर्भी खींचे सौ बार । कहिबरा खलक न तजे, जामे कौन हिवचार ॥ 116 ॥ जग मे बैरी कोई न�ीं, जो मन शीतल �ोय । य� आपा तो )ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥ जो जाने जीव न आपना, कर�ीं जीव का सार । जीवा ऐसा पा�ौना, मिमले ना दूजी बार ॥ 118 ॥ 

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कबीर जात पुकारया, च\ चन्दन की )ार । बाट लगाए ना लगे हिफर क्या लेत �मार ॥ 119 ॥ लोग र्भरोसे कौन के, बैठे र�ें उरगाय । जीय र�ी लूटत जम हिफरे, मैँ\ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥ एक कहूँ तो �ै न�ीं, दूजा कहूँ तो गार । �ै जैसा तैसा �ो र�े, र�ें कबीर हिवचार ॥ 121 ॥ जो तु चा�े मु� को, छोडे़ दे सब आस । मु� �ी जैसा �ो र�े, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥ साँई आगे साँच �ै, साँई साँच सु�ाय । चा�े बोले केस रख, चा�े घौंट र्भु()ाय ॥ 123 ॥ अपने-अपने साख की, सब�ी लीनी मान । �रिर की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥ खेत ना छोडे़ सूरमा, जूझे दो दल मो� । आशा जीवन मरण की, मन में राखें नो� ॥ 125 ॥ लीक पुरानी को तजें, कायर कुदिटल कपूत । लीख पुरानी पर र�ें, शाहितर लिसं� सपूत ॥ 126 ॥ सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की �ी दे� । लखा जो च�े अलख को, उन्�ीं में लख ले� ॥ 127 ॥ र्भूखा-र्भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग । र्भां)ा घड़ हिनज मुख दिदया, सोई पूण9 जोग ॥ 128 ॥ गर्भ9 योगेश्वर गुरु हिबना, लागा �र का सेव । क�े कबीर बैकु(ठ से, फेर दिदया शुक्देव ॥ 129 ॥ प्रेमर्भाव एक चाहि�ए, र्भेष अनेक बनाय । चा�े घर में वास कर, चा�े बन को जाय ॥ 130 ॥ कांचे र्भा)ें से र�े, ज्यों कुम्�ार का दे� । र्भीतर से रक्षा करे, बा�र चोई दे� ॥ 131 ॥ साँई ते सब �ोते �ै, बन्दे से कुछ नाहि�ं । राई से पव9त करे, पव9त राई माहि�ं ॥ 132 ॥ केतन दिदन ऐसे गए, अन रुचे का ने� । अवसर बोवे उपजे न�ीं, जो न�ीं बरसे मे� ॥ 133 ॥ एक ते अनन्त अन्त एक �ो जाय । एक से परचे र्भया, एक मो� समाय ॥ 134 ॥ साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । आशा छोडे़ दे� की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ �रिर संगत शीतल र्भया, मिमटी मो� की ताप । हिनक्तिशवासर सुख हिनमिध, ल�ा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ आशा का ईंधन करो, मनशा करो बर्भूत । जोगी फेरी यों हिफरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट �ोय । सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई �ोय ॥ 138 ॥ अटकी र्भाल शरीर में, तीर र�ा �ै टूट । चुम्बक हिबना हिनकले न�ीं, कोदिट पठन को फूट ॥ 139 ॥ अपने-अपने साख की, सब �ी लीनी र्भान । �रिर की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ आस पराई राखता, खाया घर का खेत । औन9 को पथ बोधता, मुख में )ारे रेत ॥ 141 ॥ आवत गारी एक �ै, उलटन �ोय अनेक । क� कबीर नहि�ं उलदिटये, व�ी एक की एक ॥ 142 ॥ आ�ार करे मनर्भावता, इंद्री की स्वाद । नाक तलक पूरन र्भरे, तो कहि�ए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ आए �ैं सो जाएगँे, राजा रंक फकीर । एक लिसं�ासन चदि\ चले, एक बाँमिध जंजीर ॥ 144 ॥ आया था हिकस काम को, तू सोया चादर तान । सूरत सँर्भाल ए काहिफला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ उज्जवल प�रे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । एक �रिर के नाम हिबन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ उतते कोई न आवई, पासू पूछँू धाय । इतने �ी सब जात �ै, र्भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ 

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अवगुन कहूँ शराब का, आपा अ�मक �ोय । मानुष से पशुआ र्भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ एक कहूँ तो �ै न�ीं, दूजा कहूँ तो गार । �ै जैसा तैसा र�े, र�े कबीर हिवचार ॥ 149 ॥ ऐसी वाणी बोक्तिलए, मन का आपा खोए । औरन को शीतल करे, आपौ शीतल �ोय ॥ 150 ॥ कबीरा संग्ङहित साधु की, जौ की र्भूसी खाय । खीर खाँड़ र्भोजन मिमले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥ एक ते जान अनन्त, अन्य एक �ो आय । एक से परचे र्भया, एक बा�े समाय ॥ 152 ॥ कबीरा गरब न कीजिजए, कबहूँ न �ँक्तिसये कोय । अजहँू नाव समुद्र में, ना जाने का �ोय ॥ 153 ॥ कबीरा कल� अरु कल्पना, सतसंगहित से जाय । दुख बासे र्भागा हिफरै, सुख में र�ै समाय ॥ 154 ॥ कबीरा संगहित साधु की, जिजत प्रीत कीजै जाय । दुग9हित दूर व�ावहित, देवी सुमहित बनाय ॥ 155 ॥ कबीरा संगत साधु की, हिनष्फल कर्भी न �ोय । �ोमी चन्दन बासना, नीम न क�सी कोय ॥ 156 ॥ को छूटौ इहि�ं जाल परिर, कत फुरंग अकुलाय । ज्यों-ज्यों सुरजिझ र्भजौ च�ै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥ कबीरा सोया क्या करे, उदिठ न र्भजे र्भगवान । जम जब घर ले जाएगँे, पड़ा र�ेगा म्यान ॥ 158 ॥ का� र्भरोसा दे� का, हिबनस जात क्तिछन मारहि�ं । साँस-साँस सुमिमरन करो, और यतन कछु नाहि�ं ॥ 159 ॥ काल करे से आज कर, सबहि� सात तुव साथ । काल काल तू क्या करे काल काल के �ाथ ॥ 160 ॥ काया का\ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय । काया बह्रा ईश बस, मम9 न काहँू पाय ॥ 161 ॥ क�ा हिकयो �म आय कर, क�ा करेंगे पाय । इनके र्भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ कुदिटल बचन सबसे बुरा, जासे �ोत न �ार । साधु वचन जल रूप �ै, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ क�ता तो बहँूना मिमले, ग�ना मिमला न कोय । सो क�ता व� जान दे, जो न�ीं ग�ना कोय ॥ 164 ॥ कबीरा मन पँछी र्भया, र्भये ते बा�र जाय । जो जैसे संगहित करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ कबीरा लो�ा एक �ै, ग\ने में �ै फेर । ताहि� का बखतर बने, ताहि� की शमशेर ॥ 166 ॥ क�े कबीर देय तू, जब तक तेरी दे� । दे� खे� �ो जाएगी, कौन क�ेगा दे� ॥ 167 ॥ करता था सो क्यों हिकया, अब कर क्यों पक्तिछताय । बोया पेड़ बबूल का, आम क�ाँ से खाय ॥ 168 ॥ कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढं़ू\े बन माहि�ं । ऐसे घट-घट राम �ै, दुहिनया देखे नाहि�ं ॥ 169 ॥ कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । एक दिदना �ै सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ कागा काको घन �रे, कोयल काको देय । मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ कहिबरा सोई पीर �ै, जो जा नैं पर पीर । जो पर पीर न जानइ, सो काहिफर के पीर ॥ 172 ॥ 

कहिबरा मनहि� गयन्द �ै, आकंुश दै-दै राखिख । हिवष की बेली परिर र�ै, अम्रत को फल चाखिख ॥ 173 ॥ कबीर य� जग कुछ न�ीं, खिखन खारा मीठ । काल्� जो बैठा र्भ()पै, आज र्भसाने दीठ ॥ 174 ॥ कहिबरा आप ठगाइए, और न ठहिगए कोय । आप ठगे सुख �ोत �ै, और ठगे दुख �ोय ॥ 175 ॥ कथा कीत9न कुल हिवशे, र्भव सागर की नाव । क�त कबीरा या जगत, ना�ीं और उपाय ॥ 176 ॥ 

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कहिबरा य� तन जात �ै, सके तो ठौर लगा । कै सेवा कर साधु की, कै गोहिवंद गुनगा ॥ 177 ॥ कक्तिल खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । चा�े कहूँ सत आइना, सो जग बैरी �ोय ॥ 178 ॥ केतन दिदन ऐसे गए, अन रुचे का ने� । अवसर बोवे उपजे न�ीं, जो नहि�ं बरसे मे� ॥ 179 ॥ कबीर जात पुकारया, च\ चन्दन की )ार । वाट लगाए ना लगे हिफर क्या लेत �मार ॥ 180 ॥ कबीरा खाक्तिलक जाहिगया, और ना जागे कोय । जाके हिवषय हिवष र्भरा, दास बन्दगी �ोय ॥ 181 ॥ गाँदिठ न थामहि�ं बाँध �ी, नहि�ं नारी सो ने� । क� कबीर वा साधु की, �म चरनन की खे� ॥ 182 ॥ खेत न छोडे़ सूरमा, जूझे को दल माँ� । आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँ� ॥ 183 ॥ चन्दन जैसा साधु �ै, सप9हि� सम संसार । वाके अग्ङ लपटा र�े, मन मे नाहि�ं हिवकार ॥ 184 ॥ घी के तो दश9न र्भले, खाना र्भला न तेल । दाना तो दुश्मन र्भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ गारी �ी सो ऊपजे, कल� कष्ट और र्भींच । �ारिर चले सो साधु �ैं, लाहिग चले तो नीच ॥ 186 ॥ चलती चक्की देख के, दिदया कबीरा रोय । दुइ पट र्भीतर आइके, साहिबत बचा न कोय ॥ 187 ॥ जा पल दरसन साधु का, ता पल की बक्तिल�ारी । राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारिर ॥ 188 ॥ जब लग र्भक्ति� से काम �ै, तब लग हिनष्फल सेव । क� कबीर व� क्यों मिमले, हिन:कामा हिनज देव ॥ 189 ॥ जो तोकंू काँटा बुवै, ताहि� बोय तू फूल । तोकू फूल के फूल �ै, बाँकू �ै हितरशूल ॥ 190 ॥ जा घट प्रेम न संचर,े सो घट जान समान । जैसे खाल लु�ार की, साँस लेतु हिबन प्रान ॥ 191 ॥ ज्यों नैनन में पूतली, त्यों माक्तिलक घर माहि�ं । मूख9 लोग न जाहिनए, ब�र ढं़ू\त जांहि� ॥ 192 ॥ जाके मुख माथा न�ीं, ना�ीं रूप कुरूप । पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ ज�ाँ आप त�ाँ आपदा, ज�ाँ संशय त�ाँ रोग । क� कबीर य� क्यों मिमटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ जाहित न पूछो साधु की, पूक्तिछ लीजिजए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा र�न दो म्यान ॥ 195 ॥ जल की जमी में �ै रोपा, अर्भी सींचें सौ बार । कहिबरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ ज�ाँ ग्रा�क तँ� मैं न�ीं, जँ� मैं गा�क नाय । हिबको न यक र्भरमत हिफरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ झूठे सुख को सुख क�ै, मानता �ै मन मोद । जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ जो तु चा�े मुक्ति� को, छोड़ दे सबकी आस । मु� �ी जैसा �ो र�े, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ जो जाने जीव आपना, कर�ीं जीव का सार । जीवा ऐसा पा�ौना, मिमले न दीजी बार ॥ 200 ॥ ते दिदन गये अकारथी, संगत र्भई न संत । प्रेम हिबना पशु जीवना, र्भक्ति� हिबना र्भगवंत ॥ 201 ॥ तीर तुपक से जो लडे़, सो तो शूर न �ोय । माया तजिज र्भक्ति� करे, सूर क�ावै सोय ॥ 202 ॥ तन को जोगी सब करे, मन को हिबरला कोय । स�जै सब हिवमिध पाइये, जो मन जोगी �ोय ॥ 203 ॥ तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । तब लग जीव जग कम9वश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ दुल9र्भ मानुष जनम �ै, दे� न बारम्बार । तरुवर ज्यों पlी झडे़, बहुरिर न लागे )ार ॥ 205 ॥ 

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दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । र�े को अचरज र्भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ �ोय । माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल �ोय ॥ 207 ॥ न्�ाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । मीन सदा जल में र�ै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ पाँच प�र धन्धे गया, तीन प�र गया सोय । एक प�र र्भी नाम बीन, मुक्ति� कैसे �ोय ॥ 209 ॥ पोथी प\-प\ जग मुआ, पंहि)त र्भया न कोय । \ाई आखर प्रेम का, प\ै सो पंहिड़त �ोय ॥ 210 ॥ पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । देखत �ी क्तिछप जाएगा, ज्यों सारा परर्भात ॥ 211 ॥ पा�न पूजे �रिर मिमलें, तो मैं पूजौं प�ार । याते ये चक्की र्भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ पlा बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । अब के हिबछुडे़ ना मिमले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ प्रेमर्भाव एक चाहि�ए, र्भेष अनेक बजाय । चा�े घर में बास कर, चा�े बन मे जाय ॥ 214 ॥ बन्धे को बँनधा मिमले, छूटे कौन उपाय । कर संगहित हिनरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ बँूद पड़ी जो समुद्र में, ताहि� जाने सब कोय । समुद्र समाना बँूद में, बूझै हिबरला कोय ॥ 216 ॥ बा�र क्या दिदखराइये, अन्तर जहिपए राम । क�ा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ बानी से प�चाहिनए, साम चोर की घात । अन्दर की करनी से सब, हिनकले मुँ� की बात ॥ 218 ॥ बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । पँछी को छाया न�ीं, फल लागे अहित दूर ॥ 219 ॥ मूँड़ मुड़ाये �रिर मिमले, सब कोई लेय मुड़ाय । बार-बार के मुड़ते, र्भेड़ न बैकु(ठ जाय ॥ 220 ॥ माया तो ठगनी बनी, ठगत हिफरे सब देश । जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ र्भज दीना कहूँ और �ी, तन साधुन के संग । क�ैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ माया छाया एक सी, हिबरला जाने कोय । र्भागत के पीछे लगे, सन्मुख र्भागे सोय ॥ 223 ॥ मथुरा र्भावै द्वारिरका, र्भावे जो जगन्नाथ । साधु संग �रिर र्भजन हिबनु, कछु न आवे �ाथ ॥ 224 ॥ माली आवत देख के, कक्तिलयान करी पुकार । फूल-फूल चुन क्तिलए, काल �मारी बार ॥ 225 ॥ मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की �ोय ॥ 226 ॥ ये तो घर �ै प्रेम का, खाला का घर नाहि�ं । सीस उतारे र्भुँई धरे, तब बैठें  घर माहि�ं ॥ 227 ॥ या दुहिनयाँ में आ कर, छाँहिड़ देय तू ऐंठ । लेना �ो सो लेइले, उठी जात �ै पैंठ ॥ 228 ॥ राम नाम चीन्�ा न�ीं, कीना हिपंजर बास । नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे र्भास ॥ 229 ॥ रात गंवाई सोय के, दिदवस गंवाया खाय । �ीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ राम बुलावा र्भेजिजया, दिदया कबीरा रोय । जो सुख साधु सगं में, सो बैकंुठ न �ोय ॥ 231 ॥ संगहित सों सुख्या ऊपजे, कुसंगहित सो दुख �ोय । क� कबीर त�ँ जाइये, साधु संग ज�ँ �ोय ॥ 232 ॥ साहि�ब तेरी साहि�बी, सब घट र�ी समाय । ज्यों मे�ँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ साँझ पडे़ दिदन बीतबै, चकवी दीन्�ी रोय । चल चकवा वा देश को, ज�ाँ रैन नहि�ं �ोय ॥ 234 ॥ 

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सं� �ी मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । क�े कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ साईं आगे साँच �ै, साईं साँच सु�ाय । चा�े बोले केस रख, चा�े घौंट मु()ाय ॥ 236 ॥ लकड़ी क�ै लु�ार की, तू महित जारे मोहि�ं । एक दिदन ऐसा �ोयगा, मैं जारौंगी तोहि� ॥ 237 ॥ �रिरया जाने रुखड़ा, जो पानी का गे� । सूखा काठ न जान �ी, केतुउ बूड़ा मे� ॥ 238 ॥ ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । आय कबीर हिफर गया, फीका �ै संसार ॥ 239 ॥ ॠजिद्ध क्तिसजिद्ध माँगो न�ीं, माँगो तुम पै ये� । हिनक्तिस दिदन दरशन शाधु को, प्रर्भु कबीर कहुँ दे� ॥ 240 ॥ क्षमा बडे़ न को उक्तिचत �ै, छोटे को उत्पात । क�ा हिवष्णु का घदिट गया, जो र्भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहि�ं । क्या ले गुर संतोहिषए, �ौंस र�ी मन माहि�ं ॥ 242 ॥ 

बक्तिल�ारी गुर आपणौ, घौं�ाड़ी कै बार । जिजहिन र्भाहिनष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ ना गुरु मिमल्या न क्तिसष र्भया, लालच खेल्या )ाव । दुन्यू बूडे़ धार में, चदि\ पाथर की नाव ॥ 244 ॥ सतगुर �म संू रीजिझ करिर, एक कह्मा कर संग । बरस्या बादल प्रेम का, र्भींजिज गया अब अंग ॥ 245 ॥ कबीर सतगुर ना मिमल्या, र�ी अधूरी सीष । स्वाँग जती का प�रिर करिर, धरिर-धरिर माँगे र्भीष ॥ 246 ॥ य� तन हिवष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिदये जो गुरु मिमलै, तो र्भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ तू तू करता तू र्भया, मुझ में र�ी न हँू । वारी फेरी बक्तिल गई, जिजत देखौं हितत तू ॥ 248 ॥ राम हिपयारा छांहिड़ करिर, करै आन का जाप । बेस्या केरा पूतं ज्यंू, क�ै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ कबीरा प्रेम न चहिषया, चहिष न क्तिलया साव । सूने घर का पांहुणां, ज्यंू आया त्यंू जाव ॥ 250 ॥ कबीरा राम रिरझाइ लै, मुखिख अमृत गुण गाइ । फूटा नग ज्यंू जोहिड़ मन, संधे संमिध मिमलाइ ॥ 251 ॥ लंबा मारग, दूरिरधर, हिवकट पंथ, बहुमार । क�ौ संतो, क्यंू पाइये, दुल9र्भ �रिर-दीदार ॥ 252 ॥ हिबर�-र्भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । राम-हिबयोगी ना जिजवै जिजवै तो बौरा �ोइ ॥ 253 ॥ 

य� तन जालों मक्तिस करों, क्तिलखों राम का नाउं । लेखभिण करंू करंक की, क्तिलखी-क्तिलखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ अंदेसड़ा न र्भाजिजसी, सदैसो कहि�यां । के �रिर आयां र्भाजिजसी, कै�रिर �ी पास गयां ॥ 255 ॥ इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यंू जीवउं । लो�ी सींचो तेल ज्यंू, कब मुख देख पदिठउं ॥ 256 ॥ अंषहिड़यां झाईं पड़ी, पंथ हिन�ारिर-हिन�ारिर । जीर्भहिड़याँ छाला पड़या, राम पुकारिर-पुकारिर ॥ 257 ॥ सब रग तंत रबाब तन, हिबर� बजावै हिनl । और न कोई सुभिण सकै, कै साईं के क्तिचl ॥ 258 ॥ जो रोऊँ तो बल घटै, �ँसो तो राम रिरसाइ । मन �ी माहि�ं हिबसूरणा, ज्यँू घँुण काठहि�ं खाइ ॥ 259 ॥ कबीर �ँसणाँ दूरिर करिर, करिर रोवण सौ क्तिचl । हिबन रोयां क्यंू पाइये, प्रेम हिपयारा मिमत्व ॥ 260 ॥ सुखिखया सब संसार �ै, खावै और सोवे । दुखिखया दास कबीर �ै, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ परबहित परबहित मैं हिफरया, नैन गंवाए रोइ । सो बूटी पाऊँ न�ीं, जातैं जीवहिन �ोइ ॥ 262 ॥ पूत हिपयारौ हिपता कौं, गौ�हिन लागो घाइ । लोर्भ-मिमठाई �ाथ दे, आपण गयो र्भुलाइ ॥ 263 ॥ 

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�ाँसी खैलो �रिर मिमलै, कौण स�ै षरसान । काम क्रोध हित्रष्णं तजै, तोहि� मिमलै र्भगवान ॥ 264 ॥ 

जा कारभिण में ढँ़ू\ती, सनमुख मिमक्तिलया आइ । धन मैली हिपव ऊजला, लाहिग न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ पहँुचेंगे तब क�ैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । आजहूं बेरा समंद मैं, बोक्तिल हिबगू पैं काई ॥ 266 ॥ दीठा �ै तो कस कहूं, कह्मा न को पहितयाइ । �रिर जैसा �ै तैसा र�ो, तू �रिरष-�रिरष गुण गाइ ॥ 267 ॥ र्भारी क�ौं तो बहु)रौं, �लका कहूं तौ झूठ । मैं का जाणी राम कंू नैनंू कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ कबीर एक न जा(यां, तो बहु जा(यां क्या �ोइ । एक तै सब �ोत �ै, सब तैं एक न �ोइ ॥ 269 ॥ कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिदया न जाइ । नैनंू रमैया रमिम रह्मा, दूजा क�ाँ समाइ ॥ 270 ॥ कबीर कूता राम का, मुहितया मेरा नाउं । गले राम की जेवड़ी, जिजत खैंचे हितत जाउं ॥ 271 ॥ कबीर कक्तिलजुग आइ करिर, कीये बहुत जो र्भीत । जिजन दिदल बांध्या एक संू, ते सुख सोवै हिनचींत ॥ 272 ॥ जब लग र्भगहि�त सकामता, सब लग हिनफ9 ल सेव । क�ै कबीर वै क्यँू मिमलै हिनह्कामी हिनज देव ॥ 273 ॥ पहितबरता मैली र्भली, गले कांच को पोत । सब सखिखयन में यों दिदपै, ज्यों रहिव सक्तिस को जोत ॥ 274 ॥ कामी अर्भी न र्भावई, हिवष �ी कौं ले सोमिध । कुबुखिध्द न जीव की, र्भावै स्यंर्भ र�ौ प्रमोक्तिथ ॥ 275 ॥ 

र्भगहित हिबगाड़ी कामिमयां, इन्द्री केरै स्वादिद । �ीरा खोया �ाथ थैं, जनम गँवाया बादिद ॥ 276 ॥ परनारी का राचणौ, जिजसकी ल�सण की खाहिन । खूणैं बेक्तिसर खाइय, परगट �ोइ दिदवाहिन ॥ 277 ॥ परनारी राता हिफरैं, चोरी हिबदि\ता खाहि�ं । दिदवस चारिर सरसा र�ै, अहित समूला जाहि�ं ॥ 288 ॥ ग्यानी मूल गँवाइया, आपण र्भये करना । ताथैं संसारी र्भला, मन मैं र�ै )रना ॥ 289 ॥ कामी लज्जा ना करै, न मा�ें अहि�लाद । नींद न माँगै साँथरा, र्भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ कक्तिल का स्वामी लोभिर्भया, पीतक्तिल घरी खटाइ । राज-दुबारा यौं हिफरै, ज्यँ �रिर�ाई गाइ ॥ 291 ॥ स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । राम-नाम काठें  रह्मा, करै क्तिसषां की आंस ॥ 292 ॥ इहि� उदर के कारणे, जग पाच्यो हिनस जाम । स्वामी-पणौ जो क्तिसरिर च\यो, क्तिसर यो न एको काम ॥ 293 ॥ ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहि�ं । उरजिझ-पुरजिझ करिर र्भरिर रह्मा, चारिरउं बेदा मांहि� ॥ 294 ॥ कबीर कक्तिल खोटी र्भई, मुहिनयर मिमलै न कोइ । लालच लोर्भी मसकरा, हितनकँू आदर �ोइ ॥ 295 ॥ कक्तिल का स्वमी लोभिर्भया, मनसा घरी बधाई । दैंहि� पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ 

कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । पूँछ जो पकडै़ र्भेड़ की उतर या चा�े पार ॥ 297 ॥ तीरथ करिर-करिर जग मुवा, )ंूधै पाणी न्�ाइ । रामहि� राम जपतं)ां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ चतुराई सूवै प\ी, सोइ पंजर मांहि� । हिफरिर प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहि�ं ॥ 299 ॥ कबीर मन फूल्या हिफरै, करता हँू मैं घं्रम । कोदिट क्रम क्तिसरिर ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ सबै रसाइण मैं हिक्रया, �रिर सा और न कोई । हितल इक घर मैं संचर,े तौ सब तन कंचन �ोई ॥ 301 ॥ 

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�रिर-रस पीया जाभिणये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । मैमता घूमत र�ै, नाहि� तन की सार ॥ 302 ॥ कबीर �रिर-रस यौं हिपया, बाकी र�ी न थाहिक । पाका कलस कंुर्भार का, बहुरिर न च\ई चाहिक ॥ 303 ॥ कबीर र्भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । क्तिसर सौंपे सोई हिपवै, न�ीं तौ हिपया न जाई ॥ 304 ॥ हित्रक्षणा सींची ना बुझै, दिदन दिदन बधती जाइ । जवासा के रुष ज्यंू, घण मे�ां कुमिमलाइ ॥ 305 ॥ कबीर सो घन संक्तिचये, जो आगे कू �ोइ । सीस च\ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ कबीर माया मोहि�नी, जैसी मीठी खांड़ । सतगुरु की कृपा र्भई, न�ीं तौ करती र्भांड़ ॥ 307 ॥ 

कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी �ादिट । सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर कादिट ॥ 308 ॥ कबीर जग की जो क�ै, र्भौ जक्तिल बूडै़ दास । पारब्रह्म पहित छांहिड़ करिर, करै माहिन की आस ॥ 309 ॥ बुगली नीर हिबटाक्तिलया, सायर च\या कलंक । और पखेरू पी गये, �ंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ कबीर इस संसार का, झूठा माया मो� । जिजहि� धारिर जिजता बाधावणा, हित�ीं हितता अंदो� ॥ 311 ॥ माया तजी तौ क्या र्भया, माहिन तजिज न�ी जाइ । माहिन बडे़ मुहिनयर मिमले, माहिन सबहिन को खाइ ॥ 312 ॥ करता दीसै कीरतन, ऊँचा करिर करिर तंु) । जाने-बूझै कुछ न�ीं, यौं �ी अंधा रंु) ॥ 313 ॥ कबीर पदि\यो दूरिर करिर, पुस्तक देइ ब�ाइ । बावन आहिषर सोमिध करिर, ररै मम© क्तिचl लाइ ॥ 314 ॥ मैं जा(यँू पादि\बो र्भलो, पादि\बा थे र्भलो जोग । राम-नाम संू प्रीती करिर, र्भल र्भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ पद गाए ंमन �रहिषयां, साषी कह्मां अनंद । सो तत नांव न जाभिणयां, गल में पहिड़या फंद ॥ 316 ॥ जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । पार ब्रह्म नेड़ा र�ै, पल में करै हिन�ाल ॥ 317 ॥ काजी-मुल्ला भ्रमिमयां, चल्या युनीं कै साथ । दिदल थे दीन हिबसारिरयां, करद लई जब �ाथ ॥ 318 ॥ प्रेम-हिप्रहित का चालना, पहि�रिर कबीरा नाच । तन-मन तापर वारहँु, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ सांच बराबर तप न�ीं, झूठ बराबर पाप । जाके हि�रदै में सांच �ै, ताके हि�रदै �रिर आप ॥ 320 ॥ खूब खां) �ै खीचड़ी, माहि� ष्)याँ टुक कून । देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ साईं सेती चोरिरयाँ, चोरा सेती गुझ । जाणैंगा रे जीवएगा, मार पडै़गी तुझ ॥ 322 ॥ तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । कबीर मूल हिनकंदिदया, कौण �ला�ल खाय ॥ 323 ॥ जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । सूवै सैंबल सेहिवया, यौ जग चल्या हिनरास ॥ 324 ॥ जेती देखौ आत्म, तेता साक्तिलगराम । राधू प्रतहिष देव �ै, न�ीं पाथ सँू काम ॥ 325 ॥ कबीर दुहिनया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ । हि�रदा र्भीतर �रिर बसै, तू ताहि� सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ मन मथुरा दिदल द्वारिरका, काया कासी जाभिण । दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोहित हिपक्तिछरिरग ॥ 327 ॥ मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । वो �ै दाता मुक्ति� का, वो सुमिमरावै नाम ॥ 328 ॥ मथुरा जाउ र्भावे द्वारिरका, र्भावै जाउ जगनाथ । साथ-संगहित �रिर-र्भागहित हिबन-कछु न आवै �ाथ ॥ 329 ॥ 

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कबीर संगहित साधु की, बेहिग करीजै जाइ । दुम9हित दूरिर बंबाइसी, देसी सुमहित बताइ ॥ 330 ॥ उज्जवल देखिख न धीजिजये, वग ज्यंू मा)ै ध्यान । धीर बौदिठ चपेटसी, यँू ले बू)ै ग्यान ॥ 331 ॥ जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिरग । प�ली था दिदखाइ करिर, उ)ै देसी आरिरग ॥ 332 ॥ जाहिन बूजिझ सांचहि�ं तज©, करै झूठ सँू नेहु । ताहिक संगहित राम जी, सुहिपने �ी हिपहिन देहु ॥ 333 ॥ कबीर तास मिमलाइ, जास हि�याली तू बसै । नहि�ंतर बेहिग उठाइ, हिनत का गंजर को स�ै ॥ 334 ॥ कबीरा बन-बन मे हिफरा, कारभिण आपणै राम । राम सरीखे जन मिमले, हितन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ कबीर मन पंषो र्भया, ज�ाँ मन व�ाँ उहिड़ जाय । जो जैसी संगहित करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ कबीरा खाई कोट हिक, पानी हिपवै न कोई । जाइ मिमलै जब गंग से, तब गंगोदक �ोइ ॥ 337 ॥ माषी गुड़ मैं गहिड़ र�ी, पंख र�ी लपटाई । ताली पीटै क्तिसरिर घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ मूरख संग न कीजिजये, लो�ा जक्तिल न हितराइ । कदली-सीप-र्भुजगं मुख, एक बंूद हित�ँ र्भाइ ॥ 339 ॥ �रिरजन सेती रुसणा, संसारी सँू �ेत । ते णर कदे न नीपजौ, ज्यँू कालर का खेत ॥ 340 ॥ 

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । बक्तिल�ारी ता दास की, पैक्तिसर हिनकसण �ार ॥ 341 ॥ पाणी �ीतै पातला, धुवाँ �ी तै झीण । पवनां बेहिग उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्� ॥ 342 ॥ आसा का ईंधण करँू, मनसा करँू हिबरू्भहित । जोगी फेरी हिफल करँू, यौं हिबनना वो सूहित ॥ 343 ॥ कबीर मारू मन कँू, टूक-टूक �ै जाइ । हिवव की क्यारी बोइ करिर, लुणत क�ा पक्तिछताइ ॥ 353 ॥ कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । क�ै कबीर कैसे हितरँू, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ मैं मन्ता मन मारिर रे, घट �ी मा�ैं घेरिर । जब�ीं चालै पीदिठ दे, अंकुस दै-दै फेरिर ॥ 355 ॥ मन� मनोरथ छाँहिड़ये, तेरा हिकया न �ोइ । पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ एक दिदन ऐसा �ोएगा, सब सँू पडे़ हिबछोइ । राजा राणा छत्रपहित, सावधान हिकन �ोइ ॥ 357 ॥ कबीर नौबत आपणी, दिदन-दस लेहू बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरिर न देखै आइ ॥ 358 ॥ जिजनके नौबहित बाजती, र्भैंगल बंधते बारिर । एकै �रिर के नाव हिबन, गए जनम सब �ारिर ॥ 359 ॥ क�ा हिकयौ �म आइ करिर, क�ा क�ैंगे जाइ । इत के र्भये न उत के, चक्तिलत र्भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ 

हिबन रखवाले बाहि�रा, क्तिचहिड़या खाया खेत । आधा-परधा ऊबरै, चेहित सकै तो चैहित ॥ 361 ॥ कबीर क�ा गरहिबयौ, काल क�ै कर केस । ना जाणै क�ाँ मारिरसी, कै धरिर के परदेस ॥ 362 ॥ नान्�ा कातौ क्तिचl दे, म�ँगे मोल हिबलाइ । गा�क राजा राम �ै, और न ने)ा आइ ॥ 363 ॥ उजला कपड़ा पहि�रिर करिर, पान सुपारी खाहि�ं । एकै �रिर के नाव हिबन, बाँधे जमपुरिर जाहि�ं ॥ 364 ॥ कबीर केवल राम की, तू जिजहिन छाँडै़ ओट । घण-अ�रहिन हिबक्तिच लौ� ज्यँू, घणी स�ै क्तिसर चोट ॥ 365 ॥ मैं-मैं बड़ी बलाइ �ै सकै तो हिनकसौ र्भाजिज । कब लग राखौ �े सखी, रुई लपेटी आहिग ॥ 366 ॥ 

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कबीर माला मन की, और संसारी र्भेष । माला प�रयां �रिर मिमलै, तौ अर�ट कै गक्तिल देखिख ॥ 367 ॥ माला पहि�रै मनर्भुषी, ताथै कछू न �ोइ । मन माला को फैरता, जग उजिजयारा सोइ ॥ 368 ॥ कैसो क�ा हिबगाहिड़या, जो मुं)ै सौ बार । मन को का�े न मूंहि)ये, जामे हिवषम-हिवकार ॥ 369 ॥ माला प�रयां कुछ न�ीं, र्भगहित न आई �ाथ । माथौ मूँछ मुं)ाइ करिर, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ बैसनो र्भया तौ क्या र्भया, बूझा न�ीं बबेक । छापा हितलक बनाइ करिर, दग�या अनेक ॥ 371 ॥ 

स्वाँग प�रिर सो र�ा र्भया, खाया-पीया खूंदिद । जिजहि� तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्�ी मूंदिद ॥ 372 ॥ चतुराई �रिर ना मिमलै, ए बातां की बात । एक हिनस प्रे�ी हिनरधार का गा�क गोपीनाथ ॥ 373 ॥ एष ले बू\ी पृथमी, झूठे कुल की लार । अलष हिबसारयो र्भेष में, बूडे़ काली धार ॥ 374 ॥ कबीर �रिर का र्भावता, झीणां पंजर । रैभिण न आवै नींदड़ी, अंहिग न च\ई मांस ॥ 375 ॥ लिसं�ों के ले�ँ) न�ीं, �ंसों की न�ीं पाँत । लालों की नहि� बोरिरयाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ गाँठी दाम न बांधई, नहि�ं नारी सों ने� । क� कबीर ता साध की, �म चरनन की खे� ॥ 377 ॥ हिनरबैरी हिन�कामता, साईं सेती ने� । हिवहिषया संू न्यारा र�ै, संतहिन का अंग स� ॥ 378 ॥ जिजहि�ं हि�रदै �रिर आइया, सो क्यंू छाना �ोइ । जतन-जतन करिर दाहिबये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ काम मिमलावे राम कंू, जे कोई जाणै राखिख । कबीर हिबचारा क्या क�ै, जाहिक सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥ राम हिवयोगी तन हिबकल, ताहि� न चीन्�े कोई । तंबोली के पान ज्यंू, दिदन-दिदन पीला �ोई ॥ 381 ॥ पावक रूपी राम �ै, घदिट-घदिट रह्या समाइ । क्तिचत चकमक लागै न�ीं, ताथै घूवाँ �ै-�ै जाइ ॥ 382 ॥ फाटै दीदै में हिफरौं, नजिजर न आवै कोई । जिजहि� घदिट मेरा साँइयाँ, सो क्यंू छाना �ोई ॥ 383 ॥ �ैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारिर । तास पटेतर ना तुलै, �रिरजन की पहिन�ारिर ॥ 384 ॥ जिजहि�ं धरिर साध न पूजिज, �रिर की सेवा नाहि�ं । ते घर र्भड़धट सारषे, र्भूत बसै हितन माहि�ं ॥ 385 ॥ कबीर कुल तौ सोर्भला, जिजहि� कुल उपजै दास । जिजहि�ं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ क्यंू नृप-नारी नींदिदये, क्यंू पहिन�ारी कौ मान । वा माँग सँवारे पील कौ, या हिनत उदिठ सुमिमरैराम ॥ 387 ॥ काबा हिफर कासी र्भया, राम र्भया रे र�ीम । मोट चून मैदा र्भया, बैदिठ कबीरा जीम ॥ 388 ॥ दुखिखया र्भूखा दुख कौं, सुखिखया सुख कौं झूरिर । सदा अजंदी राम के, जिजहिन सुख-दुख गेल्�े दूरिर ॥ 389 ॥ कबीर दुहिबधा दूरिर करिर, एक अंग �ै लाहिग । यहु सीतल बहु तपहित �ै, दोऊ कहि�ये आहिग ॥ 390 ॥ कबीर का तू लिचंतवै, का तेरा च्यंत्या �ोइ । अ(च्यंत्या �रिरजी करै, जो तोहि� च्यंत न �ोइ ॥ 391 ॥ र्भूखा र्भूखा क्या करैं, क�ा सुनावै लोग । र्भां)ा घहिड़ जिजहिन मुख मियका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ रचना�ार कंू चीखिन्� लै, खैबे कंू क�ा रोइ । दिदल मंदिद मैं पैक्तिस करिर, ताभिण पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ कबीर सब जग �ंहि)या, मांदल कंमिध च\ाइ । �रिर हिबन अपना कोउ न�ीं, देखे ठोहिक बनाइ ॥ 394 ॥ मांगण मरण समान �ै, हिबरता बंचै कोई । क�ै कबीर रघुनाथ संू, महित रे मंगावे मोहि� ॥ 395 ॥ 

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माहिन म�तम प्रेम-रस गरवातण गुण ने� । ए सब�ीं अ�ला गया, जब�ी कह्या कुछ दे� ॥ 396 ॥ संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । साईं संू सनमुख र�ै, ज�ाँ माँगे त�ां देइ ॥ 397 ॥ कबीर संसा कोउ न�ीं, �रिर संू लाग्गा �ेत । काम-क्रोध संू झूझणा, चौ)ै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ कबीर सोई सूरिरमा, मन सँू मां)ै झूझ । पंच पयादा पाहिड़ ले, दूरिर करै सब दूज ॥ 399 ॥ जिजस मरनै यैं जग )रै, सो मेरे आनन्द । कब मरिरहँू कब देखिखहँू पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ अब तौ जूझया �ी बरगै, मुहि) चल्यां घर दूर । क्तिसर साहि�बा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतहिन चादि\ असवार । ग्यान खड़ग गहि� काल क्तिसरिर, र्भली मचाई मार ॥ 402 ॥ कबीर �रिर सब कँू र्भजै, �रिर कँू र्भजै न कोइ । जब लग आस सरीर की, तब लग दास न �ोइ ॥ 403 ॥ क्तिसर साटें �रिर सेवेये, छांहिड़ जीव की बाभिण । जे क्तिसर दीया �रिर मिमलै, तब लहिग �ाभिण न जाभिण ॥ 404 ॥ 

जेते तारे रैभिण के, तेतै बैरी मुझ । धड़ सूली क्तिसर कंगुरै, तऊ न हिबसारौ तुझ ॥ 405 ॥ आपा र्भेदिटयाँ �रिर मिमलै, �रिर मेट् या सब जाइ । अकथ क�ाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ जीवन थैं मरिरबो र्भलौ, जो मरिर जानैं कोइ । मरनैं प�ली जे मरै, जो कक्तिल अजरावर �ोइ ॥ 407 ॥ कबीर मन मृतक र्भया, दुब9ल र्भया सरीर । तब पैं)े लागा �रिर हिफरै, क�त कबीर कबीर ॥ 408 ॥ रोड़ा �ै र�ो बाट का, तजिज पाषं) अभिर्भमान । ऐसा जे जन �ै र�ै, ताहि� मिमलै र्भगवान ॥ 409 ॥ कबीर चेरा संत का, दासहिन का परदास । कबीर ऐसैं �ोइ रक्षा, ज्यँू पाऊँ तक्तिल घास ॥ 410 ॥ अबरन कों का बरहिनये, र्भोपै लख्या न जाइ । अपना बाना वाहि�या, कहि�-कहि� थाके र्भाइ ॥ 411 ॥ जिजसहि� न कोई हिवसहि� तू, जिजस तू हितस सब कोई । दरिरग� तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ �ोइ ॥ 412 ॥ साँई मेरा वाभिणयां, स�हित करै व्यौपार । हिबन )ां)ी हिबन पालडै़ तौले सब संसार ॥ 413 ॥ झल बावै झल दाहि�नै, झलहि� माहि� त्यो�ार । आगै-पीछै झलमाई, राखै क्तिसरजन�ार ॥ 414 ॥ एसी बाणी बोक्तिलये, मन का आपा खोइ । औरन को सीतल करै, आपौ सीतल �ोइ ॥ 415 ॥ 

कबीर �रिर कग नाव सँू प्रीहित र�ै इकवार । तौ मुख तैं मोती झडै़ �ीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ बैरागी हिबरकत र्भला, हिगर�ी क्तिचl उदार । दुहुँ चूका रीता पडै़ वाकँू वार न पार ॥ 417 ॥ कोई एक राखै सावधां, चेतहिन प�रै जाहिग । बस्तर बासन सँू खिखसै, चोर न सकई लाहिग ॥ 418 ॥ बारी-बारी आपणीं, चले हिपयारे म्यंत । तेरी बारी रे जिजया, नेड़ी आवै हिनंत ॥ 419 ॥ पदारथ पेक्तिल करिर, कंकर लीया �ाक्तिथ । जोड़ी हिबछटी �ंस की, पड़या बगां के साक्तिथ ॥ 420 ॥ हिनंदक हिनयारे राखिखये, आंगन कुदिट छबाय । हिबन पाणी हिबन सबुना, हिनरमल करै सुर्भाय ॥ 421 ॥ गोत्यंद के गुण बहुत �ैं, क्तिलखै जु हि�रदै मांहि� । )रता पाणी जा पीऊं, महित वै धोये जाहि� ॥ 422 ॥ जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिमलाइ । जो क्तिचभिणयां सो ढहि� पडै़, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ 

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सीतलता तब जाभिणयें, समिमता र�ै समाइ । पष छाँडै़ हिनरपष र�ै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ खूंदन तौ धरती स�ै, बा\ स�ै बनराइ । कुसबद तौ �रिरजन स�ै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥ नीर हिपयावत क्या हिफरै, सायर घर-घर बारिर । जो हित्रषावन्त �ोइगा, सो पीवेगा झखमारिर ॥ 426 ॥ 

कबीर क्तिसरजन �ार हिबन, मेरा हि�त न कोइ । गुण औगुण हिब�णै न�ीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ �ीरा परा बजार में, र�ा छार लहिपटाइ । ब तक मूरख चक्तिल गये पारखिख क्तिलया उठाइ ॥ 428 ॥ सुरहित करौ मेरे साइयां, �म �ैं र्भोजन माहि�ं । आपे �ी बहि� जाहि�ंगे, जौ नहि�ं पकरौ बाहि�ं ॥ 429 ॥ क्या मुख लै हिबनती करौं, लाज आवत �ै मोहि� । तुम देखत ओगुन करौं, कैसे र्भावों तोहि� ॥ 430 ॥ सब काहू का लीजिजये, साचां सबद हिन�ार । पच्छपात ना कीजिजये क�ै कबीर हिवचार ॥ 431 ॥ ॥ गुरु के हिवषय में दो�े ॥ गुरु सों ज्ञान जु लीजिजये सीस दीजिजए दान । बहुतक र्भोदँू बहि� गये, राखिख जीव अभिर्भमान ॥ 432 ॥ गुरु को कीजै द()व कोदिट-कोदिट परनाम । कीट न जाने र्भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ कुमहित कीच चेला र्भरा, गुरु ज्ञान जल �ोय । जनम-जनम का मोरचा, पल में )ारे धोय ॥ 434 ॥ गुरु पारस को अन्तरो, जानत �ै सब सन्त । व� लो�ा कंचन करे, ये करिर लेय म�न्त ॥ 435 ॥ गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । क�ैं कबीर सो सन्त �ैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ 

जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । एक पलक हिबसरे न�ीं, जो गुण �ोय शरीर ॥ 437 ॥ गुरु समान दाता न�ीं, याचक सीष समान । तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्�ी दान ॥ 438 ॥ गुरु कुम्�ार क्तिसष कंुर्भ �ै, गदि\-गदि\ का\ै खोट । अन्तर �ाथ स�ार दै, बा�र बा�ै चोट ॥ 439 ॥ गुरु को क्तिसर राखिखये, चक्तिलये आज्ञा माहि�ं । क�ैं कबीर ता दास को, तीन लोक र्भय नहि�ं ॥ 440 ॥ लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरहित पठाय । शब्द तुरी बसवार �ै, क्तिछन आवै क्तिछन जाय ॥ 441 ॥ गुरु मूरहित गहित चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर । आठ प�र हिनरखता र�े, गुरु मूरहित की ओर ॥ 442 ॥ गुरु सों प्रीहित हिनबाहि�ये, जेहि� तत हिनबटै सन्त । प्रेम हिबना दिढग दूर �ै, प्रेम हिनकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ गुरु हिबन ज्ञान न उपजै, गुरु हिबन मिमलै न मोष । गुरु हिबन लखै न सत्य को, गुरु हिबन मिमटे न दोष ॥ 444 ॥ गुरु मूरहित आगे खड़ी, दुहिनया र्भेद कछु नाहि�ं । उन्�ीं कँू परनाम करिर, सकल हितमिमर मिमदिट जाहि�ं ॥ 445 ॥ गुरु शरणागहित छाहिड़ के, करै र्भरौसा और । सुख सम्पहित की क� चली, न�ीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ क्तिसष खां)ा गुरु र्भसकला, च\ै शब्द खरसान । शब्द स�ै सम्मुख र�ै, हिनपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया र्भक्ति� हिवश्वास । गुरु सेवा ते पाइये, सद्गरुु चरण हिनवास ॥ 448 ॥ अ�ं अखिग्न हिनक्तिश दिदन जरै, गुरु सो चा�े मान । ताको जम न्योता दिदया, �ोउ �मार मे�मान ॥ 449 ॥ जैसी प्रीहित कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों �ोय । क�ैं कबीर ता दास का, पला न पकडै़ कोय ॥ 450 ॥ मूल ध्यान गुरु रूप �ै, मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन �ै, मूल सत्य सतर्भाव ॥ 451 ॥ 

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पंहि)त पादि\ गुहिन पक्तिच मुये, गुरु हिबना मिमलै न ज्ञान । ज्ञान हिबना नहि�ं मुक्ति� �ै, सl शब्द परनाम ॥ 452 ॥ सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि� हिनब�े गुरु प्रेम । क�ै कबीर गुरु प्रेम हिबन, कतहुँ कुशल नहि� के्षम ॥ 453 ॥ क�ैं कबीर जजिज र्भरम को, नन्�ा �ै कर पीव । तजिज अ�ं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ कोदिटन चन्दा उग�ी, सूरज कोदिट �ज़ार । तीमिमर तौ नाशै न�ीं, हिबन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ तब�ी गुरु हिप्रय बैन कहि�, शीष ब\ी क्तिचत प्रीत । ते रहि�यें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ तन मन शीष हिनछावरै, दीजै सरबस प्रान । क�ैं कबीर गुरु प्रेम हिबन, हिकतहँू कुशल नहि�ं के्षम ॥ 457 ॥ जो गुरु पूरा �ोय तो, शीषहि� लेय हिनबाहि� । शीष र्भाव सुl जाहिनये, सुत ते शे्रष्ठ क्तिशष आहि� ॥ 458 ॥ र्भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि� । गुरु हिबन कौन उबारसी, र्भौ जल धारा माँहि� ॥ 459 ॥ करै दूरिर अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय । बक्तिल�ारी वे गुरुन की �ंस उबारिर जुलेय ॥ 460 ॥ सुहिनये सन्तों साधु मिमक्तिल, क�हि�ं कबीर बुझाय । जेहि� हिवमिध गुरु सों प्रीहित छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥ अबुध सुबुध सुत मातु हिपतु, सबहि� करै प्रहितपाल । अपनी और हिनबाहि�ये, क्तिसख सुत गहि� हिनज चाल ॥ 462 ॥ लौ लागी हिवष र्भाहिगया, कालख )ारी धोय । क�ैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल �ोय ॥ 463 ॥ राजा की चोरी करे, र�ै रंग की ओट । क�ैं कबीर क्यों उबरै, काल कदिठन की चोट ॥ 464 ॥ साबुन हिबचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । जल सो अरसां नहि�ं, क्यों कर ऊजल �ोय ॥ 465 ॥ ॥ सतगुरु के हिवषय मे दो�े ॥ सत्गुरु तो सतर्भाव �ै, जो अस र्भेद बताय । धन्य शीष धन र्भाग हितहि� जो ऐसी सुमिध पाय ॥ 466 ॥ सतगुरु शरण न आव�ीं, हिफर हिफर �ोय अकाज । जीव खोय सब जायेंगे काल हितहँू पुर राज ॥ 467 ॥ सतगुरु सम कोई न�ीं सात दीप नौ ख() । तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्() ॥ 468 ॥ सतगुरु मिमला जु जाहिनये, ज्ञान उजाला �ोय । भ्रम का र्भां) तोहिड़ करिर, र�ै हिनराला �ोय ॥ 469 ॥ सतगुरु मिमले जु सब मिमले, न तो मिमला न कोय । माता-हिपता सुत बाँधवा ये तो घर घर �ोय ॥ 470 ॥ जेहि� खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुहिन अरु देव । क�ै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ मनहि�ं दिदया हिनज सब दिदया, मन से संग शरीर । अब देवे को क्या र�ा, यों कमिय क�हि�ं कबीर ॥ 472 ॥ सतगुरु को माने न�ी, अपनी क�ै बनाय । क�ै कबीर क्या कीजिजये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥ जग में युक्ति� अनूप �ै, साधु संग गुरु ज्ञान । तामें हिनपट अनूप �ै, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ कबीर समूझा क�त �ै, पानी था� बताय । ताकँू सतगुरु का करे, जो औघट )ूबे जाय ॥ 475 ॥ हिबन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुहिन नहि�ं हिनस्तरे । ब्रह्मा-हिवष्णु, म�ेश और सकल जिजव को हिगनै ॥ 476 ॥ केते पदि\ गुहिन पक्तिच र्भुए, योग यज्ञ तप लाय । हिबन सतगुरु पावै न�ीं, कोदिटन करे उपाय ॥ 477 ॥ )ूबा औघट न तरै, मोहि�ं अंदेशा �ोय । लोर्भ नदी की धार में, क�ा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चा�हु । मेटो र्भव को अंक, आवा गवन हिनवारहु ॥ 479 ॥ 

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करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश �ै । �ोये सब जिजव काज, हिनश्चय करिर परतीत करू ॥ 480 ॥ य� सतगुरु उपदेश �ै, जो मन माने परतीत । करम र्भरम सब त्याहिग के, चलै सो र्भव जल जीत ॥ 481 ॥ जग सब सागर मोहि�ं, कहु कैसे बूड़त तेरे । गहु सतगुरु की बाहि�ं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ 

॥ गुरु पारख पर दो�े ॥ जानीता बूझा न�ीं बूजिझ हिकया न�ीं गौन । अन्धे को अन्धा मिमला, रा� बतावे कौन ॥ 483 ॥ जाका गुरु �ै आँधरा, चेला खरा हिनरन्ध । अन्धे को अन्धा मिमला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ गुरु लोर्भ क्तिशष लालची, दोनों खेले दाँव । दोनों बूडे़ बापुरे, चदि\ पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ आगे अंधा कूप में, दूजे क्तिलया बुलाय । दोनों बू)छे बापुरे, हिनकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ गुरु हिकया �ै दे� का, सतगुरु चीन्�ा नाहि�ं । र्भवसागर के जाल में, हिफर हिफर गोता खाहि� ॥ 487 ॥ पूरा सतगुरु न मिमला, सुनी अधूरी सीख । स्वाँग यती का पहि�हिन के, घर घर माँगी र्भीख ॥ 488 ॥ कबीर गुरु �ै घाट का, �ाँटू बैठा चेल । मूड़ मुड़ाया साँझ कँू गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ गुरु-गुरु में र्भेद �ै, गुरु-गुरु में र्भाव । सोइ गुरु हिनत बजिन्दये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ जो गुरु ते भ्रम न मिमटे, भ्रान्तिन्त न जिजसका जाय । सो गुरु झूठा जाहिनये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । द्वार न पावै शब्द का, र्भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ सद्गरुु ऐसा कीजिजये, लोर्भ मो� भ्रम नाहि�ं । दरिरया सो न्यारा र�े, दीसे दरिरया माहि� ॥ 493 ॥ कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । पापी का पापी गुरु, यो बू\ा संसार ॥ 494 ॥ जो गुरु को तो गम न�ीं, पा�न दिदया बताय । क्तिशष शोधे हिबन सेइया, पार न पहँुचा जाए ॥ 495 ॥ सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठ�राय । चंचल से हिनश्चल र्भया, नहि�ं आवै न�ीं जाय ॥ 496 ॥ गु अँमिधयारी जाहिनये, रु कहि�ये परकाश । मिमदिट अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम �ै तास ॥ 497 ॥ गुरु नाम �ै गम्य का, शीष सीख ले सोय । हिबनु पद हिबनु मरजाद नर, गुरु शीष नहि�ं कोय ॥ 498 ॥ गुरुवा तो घर हिफरे, दीक्षा �मारी ले� । कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी दे� ॥ 499 ॥ गुरुवा तो सस्ता र्भया, कौड़ी अथ9 पचास । अपने तन की सुमिध न�ीं, क्तिशष्य करन की आस ॥ 500 ॥ जाका गुरु �ै गीर�ी, हिगर�ी चेला �ोय । कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ गुरु मिमला तब जाहिनये, मिमटै मो� तन ताप । �रष शोष व्यापे न�ीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ य� तन हिवषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिदये जो गुरु मिमलै, तो र्भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ बँधे को बँधा मिमला, छूटै कौन उपाय । कर सेवा हिनरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ गुरु हिबचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । क�ैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ गुरु हिबचारा क्या करे, ह्रदय र्भया कठोर । नौ नेजा पानी च\ा पथर न र्भीजी कोर ॥ 506 ॥ क�ता हँू कहि� जात हँू, देता हँू �ेला । गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ ॥ गुरु क्तिशष्य के हिवषय मे दो�े ॥ 

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क्तिशष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । क�ैं कबीर गुरु शीष को, मत �ै अगम अगाध ॥ 508 ॥ हि�रदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न �ोय । ताके सद्गरुु क�ा करें, घनघक्तिस कुल्�रन �ोय ॥ 509 ॥ ऐसा कोई न मिमला, जासू कहूँ हिनसंक । जासो हि�रदा की कहूँ, सो हिफर मारे )ंक ॥ 510 ॥ क्तिशष हिकरहिपन गुरु स्वारथी, हिकले योग य� आय । कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ स्वामी सेवक �ोय के, मन�ी में मिमक्तिल जाय । चतुराई रीझै न�ीं, रहि�ये मन के माय ॥ 512 ॥ गुरु कीजिजए जाहिन के, पानी पीजै छाहिन । हिबना हिवचारे गुरु करे, परे चौरासी खाहिन ॥ 513 ॥ सत को खोजत मैं हिफरँू, सहितया न मिमलै न कोय । जब सत को सहितया मिमले, हिवष तजिज अमृत �ोय ॥ 514 ॥ देश-देशान्तर मैं हिफरँू, मानुष बड़ा सुकाल । जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ ॥ भिर्भक्ति� के हिवषय मे दो�े ॥ कबीर गुरु की र्भक्ति� हिबन, राजा ससर्भ �ोय । माटी लदै कुम्�ार की, घास न )ारै कोय ॥ 516 ॥ कबीर गुरु की र्भक्ति� हिबन, नारी कूकरी �ोय । गली-गली र्भूँकत हिफरै, टूक न )ारै कोय ॥ 517 ॥ जो कामिमहिन परदै र�े, सुनै न गुरुगुण बात । सो तो �ोगी कूकरी, हिफरै उघारे गात ॥ 518 ॥ चौंसठ दीवा जोय के, चौद� चन्दा माहि�ं । तेहि� घर हिकसका चाँदना, जिजहि� घर सतगुरु नाहि�ं ॥ 519 ॥ �रिरया जाने रूखाड़ा, उस पानी का ने� । सूखा काठ न जाहिन�ै, हिकतहँू बूड़ा गे� ॥ 520 ॥ जिझरमिमर जिझरमिमर बरक्तिसया, पा�न ऊपर मे� । माटी गक्तिल पानी र्भई, पा�न वा�ी ने� ॥ 521 ॥ कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । सुमिध-सुमिध के हि�रदे हिवधे, उपजै ज्ञान हिवचार ॥ 522 ॥ कबीर चन्दर के भिर्भरै, नीम र्भी चन्दन �ोय । बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जहिन बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हि�या न खीज । ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ कंचन मेरू अरप�ी, अरपैं कनक र्भ()ार । क�ैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ साकट का मुख हिबम्ब �ै हिनकसत बचन र्भुवंग । ताहिक औषण मौन �ै, हिवष नहि�ं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ शुकदेव सरीखा फेरिरया, तो को पावे पार । हिबनु गुरु हिनगुरा जो र�े, पडे़ चौरासी धार ॥ 527 ॥ कबीर ल�रिर समुन्द्र की, मोती हिबखरे आय । बगुला परख न जानई, �ंस चुहिन-चुहिन खाय ॥ 528 ॥ साकट क�ा न कहि� चलै, सुन�ा क�ा न खाय । जो कौवा मठ �हिग र्भरै, तो मठ को क�ा नशाय ॥ 529 ॥ साकट मन का जेवरा, र्भजै सो करराय । दो अच्छर गुरु बहि�रा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ कबीर साकट की सर्भा, तू महित बैठे जाय । एक गुवाडे़ कदिद बडै़, रोज गद�रा गाय ॥ 531 ॥ संगत सोई हिबगुच9ई, जो �ै साकट साथ । कंचन कटोरा छाहिड़ के, सन�क लीन्�ी �ाथ ॥ 532 ॥ साकट संग न बैदिठये करन कुबेर समान । ताके संग न चक्तिलये, पहिड़ �ैं नरक हिनदान ॥ 533 ॥ टेक न कीजै बावरे, टेक माहि� �ै �ाहिन । टेक छाहिड़ माहिनक मिमलै, सत गुरु वचन प्रमाहिन ॥ 534 ॥ साकट सूकर कीकरा, तीनों की गहित एक �ै । कोदिट जतन परमोमिघये, तऊ न छाडे़ टेक ॥ 535 ॥ 

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हिनगुरा ब्राह्म्ण नहि�ं र्भला, गुरुमुख र्भला चमार । देवतन से कुlा र्भला, हिनत उदिठ र्भूँके द्वार ॥ 536 ॥ �रिरजन आवत देखिखके, मो�ड़ो सूखिख गयो । र्भाव र्भक्ति� समझयो न�ीं, मूरख चूहिक गयो ॥ 537 ॥ खसम क�ावै बैरनव, घर में साकट जोय । एक धरा में दो मता, र्भक्ति� क�ाँ ते �ोय ॥ 538 ॥ घर में साकट स्त्री, आप क�ावे दास । वो तो �ोगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ आँखों देखा घी र्भला, न मुख मेला तेल । साघु सो झगड़ा र्भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ कबीर दश9न साधु का, बडे़ र्भाग दरशाय । जो �ोवै सूली सजा, काँटे ई टरिर जाय ॥ 541 ॥ कबीर सोई दिदन र्भला, जा दिदन साधु मिमलाय । अंक र्भरे र्भारिर र्भेदिटये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ कबीर दश9न साधु के, करत न कीजै काहिन । ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से �ाहिन ॥ 543 ॥ कई बार नाहि�ं कर सके, दोय बखत करिरलेय । कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहि�ं देय ॥ 544 ॥ दूजे दिदन नहि�ं करिर सके, तीजे दिदन करू जाय । कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति� फन पाय ॥ 545 ॥ तीजे चौथे नहि�ं करे, बार-बार करू जाय । यामें हिवलंब न कीजिजये, क�ैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ दोय बखत नहि�ं करिर सके, दिदन में करँू इक बार । कबीर साधु दरश ते, उतरैं र्भव जल पार ॥ 547 ॥ बार-बार नहि�ं करिर सके, पाख-पाख करिरलेय । क�ैं कबीरन सो र्भ� जन, जन्म सुफल करिर लेय ॥ 548 ॥ पाख-पाख नहि�ं करिर सकै, मास मास करू जाय । यामें देर न लाइये, क�ैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ बरस-बरस नाहि�ं करिर सकै ताको लागे दोष । क�ै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ छठे मास नहि�ं करिर सके, बरस दिदना करिर लेय । क�ैं कबीर सो र्भ�जन, जमहि�ं चुनौती देय ॥ 551 ॥ मास-मास नहि�ं करिर सकै, उठे मास अलबl । यामें ढील न कीजिजये, क�ै कबीर अहिवगl ॥ 552 ॥ मात-हिपता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू काहिन । साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आहिन ॥ 553 ॥ साधु चलत रो दीजिजये, कीजै अहित सनमान । क�ैं कबीर कछु र्भेट धरँू, अपने हिबl अनुमान ॥ 554 ॥ इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । क�ै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति� फल पाय ॥ 555 ॥ खाली साधु न हिबदा करँू, सुन लीजै सब कोय । क�ै कबीर कछु र्भेंट धरँू, जो तेरे घर �ोय ॥ 556 ॥ सुहिनये पार जो पाइया, छाजन र्भोजन आहिन । क�ै कबीर संतन को, देत न कीजै काहिन ॥ 557 ॥ कबीर दरशन साधु के, खाली �ाथ न जाय । य�ी सीख बुध लीजिजए, क�ै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ टूका मा�ी टूक दे, चीर माहि� सो चीर । साधु देत न सकुक्तिचये, यों कक्तिश क�हि�ं कबीर ॥ 559 ॥ कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पाहिन । क�ै कबीर सन्तन को, देत न कीजै काहिन ॥ 560 ॥ साधु आवत देखिखकर, �ँसी �मारी दे� । माथा का ग्र� उतरा, नैनन ब\ा सने� ॥ 561 ॥ साधु शब्द समुद्र �ै, जामें रत्न र्भराय । मन्द र्भाग मट्टी र्भरे, कंकर �ाथ लगाय ॥ 562 ॥ साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ साधु आवत देखिखके, मन में करै र्भरोर । सो तो �ोसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ 

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साधु मिमलै य� सब �लै, काल जाल जम चोट । शीश नवावत \हि� परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ साधु हिबरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द हिवचार । जग में �ोते साधु नहि�ं, जर र्भरता संसार ॥ 566 ॥ साधु बडे़ परमारथी, शीतल जिजनके अंग । तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ आवत साधु न �रखिखया, जात न दीया रोय । क�ै कबीर वा दास की, मुक्ति� क�ाँ से �ोय ॥ 568 ॥ छाजन र्भोजन प्रीहित सो, दीजै साधु बुलाय । जीवन जस �ै जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मे� । परमारथ के कारने, चारों धारी दे� ॥ 570 ॥ हिबरछा कबहुँ न फल र्भखै, नदी न अंचय नीर । परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ सुख देवै दुख को �रे, दूर करे अपराध । क�ै कबीर व� कब मिमले, परम सने�ी साध ॥ 572 ॥ साधुन की झुपड़ी र्भली, न साकट के गाँव । चंदन की कुटकी र्भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ क� अकाश को फेर �ै, क� धरती को तोल । क�ा साध की जाहित �ै, क� पारस का मोल ॥ 574 ॥ �यबर गयबर सधन धन, छत्रपहित की नारिर । तासु पटतरा न तुले, �रिरजन की परिर�ारिरन ॥ 575 ॥ क्यों नृपनारिर हिनजिन्दये, पहिन�ारी को मान । व� माँग सँवारे पीववहि�त, हिनत व� सुमिमरे राम ॥ 576 ॥ जा सुख को मुहिनवर रटैं, सुर नर करैं हिवलाप । जो सुख स�जै पाईया, सन्तों संगहित आप ॥ 577 ॥ साधु क्तिसद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परच() । क्तिसद्ध जु वारे आपको, साधु तारिर नौ ख() ॥ 578 ॥ कबीर शीतल जल न�ीं, हि�म न शीतल �ोय । कबीर शीतल सन्त जन, राम सने�ी सोय ॥ 579 ॥ आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । षट दश9न खटपट करै, हिबरला पावै र्भेद ॥ 580 ॥ कोदिट-कोदिट तीरथ करै, कोदिट कोदिट करु धाय । जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस म�ेस । गीता हँू हिक गत न�ीं, सन्त हिकया परवेस ॥ 582 ॥ सन्त मिमले जाहिन बीछुरों, हिबछुरों य� मम प्रान । शब्द सने�ी ना मिमले, प्राण दे� में आन ॥ 583 ॥ साधु ऐसा चाहि�ए, दुखै दुखावै नाहि�ं । पान फूल छेडे़ न�ीं, बसै बगीचा माहि�ं ॥ 584 ॥ साधु क�ावन कदिठन �ै, ज्यों खांडे़ की धार । )गमगाय तो हिगर पडे़ हिन�चल उतरे पार ॥ 585 ॥ साधु क�ावत कदिठन �ै, लम्बा पेड़ खजूर । च\े तो चाखै प्रेम रस, हिगरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । हिबन साधन तो सुमिध नाहि�ं साधु क�ाँ ते �ोय ॥ 587 ॥ साधु सोई जाहिनये, चलै साधु की चाल । परमारथ राता र�ै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ साधु र्भौरा जग कली, हिनक्तिश दिदन हिफरै उदास । टुक-टुक त�ाँ हिवलन्थिम्बया, ज�ँ शीतल शब्द हिनवास ॥ 589 ॥ साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि� । अपने मत गाड़ा र�ै, साधुन का मत येहि� ॥ 590 ॥ साधु सती और सूरमा, राखा र�ै न ओट । माथा बाँमिध पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 साधु-साधु सब एक �ै, जस अफीम का खेत । कोई हिववेकी लाल �ै, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ साधु सती औ लिसं को, ज्यों लेघन त्यौं शोर्भ । लिसं� न मारे मे\का, साधु न बाँघै लोर्भ ॥ 593 ॥ 

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साधु तो �ीरा र्भया, न फूटै धन खाय । न व� हिबनर्भ कुम्भ ज्यों ना व� आवै जाय ॥ 594 ॥ साधू-साधू सब�ीं बडे़, अपनी-अपनी ठौर । शब्द हिववेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ सदा र�े सन्तोष में, धरम आप दृ\ धार । आश एक गुरुदेव की, और क्तिचl हिवचार ॥ 596 ॥ दुख-सुख एक समान �ै, �रष शोक नहि�ं व्याप । उपकारी हिन�कामता, उपजै छो� न ताप ॥ 597 ॥ सदा कृपालु दु:ख परिर�रन, बैर र्भाव नहि�ं दोय । क्तिछमा ज्ञान सत र्भाख�ी, लिसं� रहि�त तु �ोय ॥ 598 ॥ साधु ऐसा चाहि�ए, जाके ज्ञान हिववेक । बा�र मिमलते सों मिमलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ सावधान और शीलता, सदा प्रफुण्डिल्लत गात । हिनर्विवंकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ हिनबैंरी हिन�कामता, स्वामी सेती ने� । हिवषया सो न्यारा र�े, साधुन का मत ये� ॥ 601 ॥ मानपमान न क्तिचत धरै, औरन को सनमान । जो कोठ9  आशा करै, उपदेशै तेहि� ज्ञान ॥ 602 ॥ और देव नहि�ं क्तिचl बसै, मन गुरु चरण बसाय । स्वल्पा�ार र्भोजन करँू, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहि�ं । हि)ंर्भ चाल करनी करे, साधु क�ो मत ताहि�ं ॥ 604 ॥ इजिन्द्रय मन हिनग्र� करन, हि�रदा कोमल �ोय । सदा शुद्ध आचरण में, र� हिवचार में सोय ॥ 605 ॥ शीलवन्त दृ\ ज्ञान मत, अहित उदार क्तिचत �ोय । लज्जावान अहित हिनछलता, कोमल हि�रदा सोय ॥ 606 ॥ कोई आवै र्भाव ले, कोई अर्भाव लै आव । साधु दोऊ को पोषते, र्भाव न हिगनै अर्भाव ॥ 607 ॥ सन्त न छाडै़ सन्तता, कोदिटक मिमलै असंत । मलय र्भुवंगय बेमिधया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ कमल पत्र �ैं साधु जन, बसैं जगत के माहि�ं । बालक केरिर धाय ज्यों, अपना जानत नाहि�ं ॥ 609 ॥ ब�ता पानी हिनरमला, बन्दा गन्दा �ोय । साधू जन रमा र्भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ बँधा पानी हिनरमला, जो टूक गहि�रा �ोय । साधु जन बैठा र्भला, जो कुछ साधन �ोय ॥ 611 ॥ एक छाहिड़ पय को ग�ैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । अवगुण छाडै़ गुण ग�ै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ जौन र्भाव उपर र�ै, भिर्भतर बसावै सोय । र्भीतर और न बसावई, ऊपर और न �ोय ॥ 613 ॥ उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ तन में शीतल शब्द �ै, बोले वचन रसाल । क�ैं कबीर ता साधु को, गंजिज सकै न काल ॥ 615 ॥ तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत �ै झेल । साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ ढोल दमामा गड़झड़ी, स�नाई और तूर । तीनों हिनकक्तिस न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ आज काल के लोग �ैं, मिमक्तिल कै हिबछुरी जाहि�ं । ला�ा कारण आपने, सौगन्ध राम हिक खाहि�ं ॥ 618 ॥ जुवा चोरी मुखहिबरी, ब्याज हिबरानी नारिर । जो चा�ै दीदार को, इतनी वस्तु हिनवारिर ॥ 619 ॥ कबीर मेरा कोइ न�ीं, �म काहू के नाहि�ं । पारै पहँुची नाव ज्यों, मिमक्तिल कै हिबछुरी जाहि�ं ॥ 620 ॥ सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । मान सरोवर �ंस �ै, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ सन्त मिमले सुख ऊपजै दुष्ट मिमले दुख �ोय । सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ �ोय ॥ 622 ॥ 

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संगत कीजै साधु की कर्भी न हिनष्फल �ोय । लो�ा पारस परस ते, सो र्भी कंचन �ोय ॥ 623 ॥ मान न�ीं अपमान न�ीं, ऐसे शीतल सन्त । र्भव सागर से पार �ैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुर्भाव । येते लक्षण साधु के, क�ैं कबीर सतर्भाव ॥ 625 ॥ सो दिदन गया इकारथे, संगत र्भई न सन्त । ज्ञान हिबना पशु जीवना, र्भक्ति� हिबना र्भटकन्त ॥ 626 ॥ आशा तजिज माया तजै, मो� तजै अरू मान । �रष शोक हिनन्दा तजै, क�ैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ आसन तो इकान्त करैं, कामिमनी संगत दूर । शीतल सन्त क्तिशरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ य� कक्तिलयुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । कामी क्रोधी मस्खरा, हितनकी पूजा �ोय ॥ 629 ॥ कुलवन्ता कोदिटक मिमले, पण्डि()त कोदिट पचीस । सुपच र्भ� की पनहि� में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ साधु दरशन म�ाफल, कोदिट यज्ञ फल ले� । इक मजिन्दर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिरले� ॥ 631 ॥ साधु दरश को जाइये, जेता धरिरये पाँय । )ग-)ग पे असमेध जग, �ै कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । जग कुlा पीछे हिफरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ आज काल दिदन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ साधु ऐसा चाहि�ए, ज�ाँ र�ै त�ँ गैब । बानी के हिबस्तार में, ताकँू कोदिटक ऐब ॥ 635 ॥ सन्त �ोत �ैं, �ेत के, �ेतु त�ाँ चक्तिल जाय । क�ैं कबीर के �ेत हिबन, गरज क�ाँ पहितयाय ॥ 636 ॥ �ेत हिबना आवै न�ीं, �ेत त�ाँ चक्तिल जाय । कबीर जल और सन्तजन, नवैं त�ाँ ठ�राय ॥ 637 ॥ साधु-ऐसा चाहि�ए, जाका पूरा मंग । हिवपभिl पडे़ छाडै़ न�ीं, च\े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिमरन वैराग । ये ता तब�ी पाइये, पूरन मस्तक र्भाग ॥ 639 ॥ ॥ रे्भष के हिवषय मे दो�े ॥ चाल बकुल की चलत �ैं, बहुरिर क�ावै �ंस । ते मु�ा कैसे चंुगे, पडे़ काल के फंस ॥ 640 ॥ बाना पहि�रे लिसं� का, चलै र्भेड़ की चाल । बोली बोले क्तिसयार की, कुlा खवै फाल ॥ 641 ॥ साधु र्भया तो क्या र्भया, माला पहि�री चार । बा�र र्भेष बनाइया, र्भीतर र्भरी र्भंगार ॥ 642 ॥ तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । स�जै सब क्तिसमिध पाइये, जो मन जोगी �ोय ॥ 643 ॥ जौ मानुष गृ� धम9 युत, राखै शील हिवचार । गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ शब्द हिवचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । क्या रमता क्या बैठता, क्या गृ� कंदला छाँव ॥ 645 ॥ हिगर�ी सुवै साधु को, र्भाव र्भक्ति� आनन्द । क�ैं कबीर बैरागी को, हिनरबानी हिनरदुन्द ॥ 646 ॥ पाँच सात सुमता र्भरी, गुरु सेवा क्तिचत लाय । तब गुरु आज्ञा लेय के, र�े देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ गुरु के सनमुख जो र�ै, स�ै कसौटी दुख । क�ैं कबीर तो दुख पर वारों, कोदिटक सूख ॥ 648 ॥ मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । तासों तो कौवा र्भला, तन मन एकहि� रंग ॥ 649 ॥ र्भेष देख मत र्भूक्तिलये, बूजिझ लीजिजये ज्ञान । हिबना कसौटी �ोत न�ीं, कंचन की पहि�चान ॥ 650 ॥ कहिव तो कोदिट-कोदिट �ैं, क्तिसर के मुडे़ कोट । मन के कूडे़ देखिख करिर, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 

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बोली ठोली मस्खरी, �ँसी खेल �राम । मद माया और इस्तरी, नहि�ं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ फाली फूली गा)री, ओदि\ लिसं� की खाल । साँच लिसं� जब आ मिमले, गा)र कौन �वाल ॥ 653 ॥ बैरागी हिबरकत र्भला, हिगर�ी क्तिचl उदार । दोऊ चूहिक खाली पडे़, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ धारा तो दोनों र्भली, हिबर�ी के बैराग । हिगर�ी दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ घर में र�ै तो र्भक्ति� करँू, ना तरू करू बैराग । बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अर्भाग ॥ 656 ॥ ॥ र्भीख के हिवषय मे दो�े ॥ उदर समाता माँहिग ले, ताको नाहि�ं दोष । क�ैं कबीर अमिधका ग�ै, ताहिक गहित न मोष ॥ 657 ॥ अजहँू तेरा सब मिमटैं, जो मानै गुरु सीख । जब लग तू घर में र�ै, महित कहुँ माँगे र्भीख ॥ 658 ॥ माँगन गै सो र्भर र�ै, र्भरे जु माँगन जाहि�ं । हितनते पहि�ले वे मरे, �ोत करत �ै नाहि�ं ॥ 659 ॥ माँगन-मरण समान �ै, तोहि� दई मैं सीख । क�ैं कबीर समझाय के, महित कोई माँगे र्भीख ॥ 660 ॥ उदर समाता अन्न ले, तनहि�ं समाता चीर । अमिधकहि�ं संग्र� ना करै, हितसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ आब गया आदर गया, नैनन गया सने� । य� तीनों तब �ी गये, जबहि�ं क�ा कुछ दे� ॥ 662 ॥ स�त मिमलै सो दूध �ै, माँहिग मिमलै सा पाहिन । क�ैं कबीर व� र� �ै, जामें एचंाताहिन ॥ 663 ॥ अनमाँगा उlम क�ा, मध्यम माँहिग जो लेय । क�ैं कबीर हिनकृमिष्ट सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ अनमाँगा तो अहित र्भला, माँहिग क्तिलया नहि�ं दोष । उदर समाता माँहिग ले, हिनश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ ॥ संगहित पर दो�े ॥ कबीरा संगत साधु की, हिनत प्रहित कीज9 जाय । दुरमहित दूर ब�ावसी, देशी सुमहित बताय ॥ 666 ॥ एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुहिन आध । कबीर संगत साधु की, करै कोदिट अपराध ॥ 667 ॥ कहिबरा संगहित साधु की, जो करिर जाने कोय । सकल हिबरछ चन्दन र्भये, बांस न चन्दन �ोय ॥ 668 ॥ मन दिदया कहुँ और �ी, तन साधुन के संग । क�ैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे दे� । कबहुँ र्भाव कुर्भाव ते, जहिन मिमदिट जाय सने� ॥ 670 ॥ साखी शब्द बहुतै सुना, मिमटा न मन का दाग । संगहित सो सुधरा न�ीं, ताका बड़ा अर्भाग ॥ 671 ॥ साध संग अन्तर पडे़, य� महित कबहु न �ोय । क�ैं कबीर हितहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ हिगरिरये परबत क्तिसखर ते, परिरये धरिरन मंझार । मूरख मिमत्र न कीजिजये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ संत कबीर गुरु के देश में, बक्तिस जावै जो कोय । कागा ते �ंसा बनै, जाहित बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ र्भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । सब अंग तो हिवष सों र्भरा, अमृत क�ाँ समाय ॥ 675 ॥ तोहि� पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । काची सरसों पेरिरकै, खरी र्भया न तेल ॥ 676 ॥ काचा सेती महित मिमलै, पाका सेती बान । काचा सेती मिमलत �ी, �ै तन धन की �ान ॥ 677 ॥ कोयला र्भी �ो ऊजला, जरिर बरिर �ै जो सेव । मूरख �ोय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 

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मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँदिठ का जाय । कोयला �ोय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ ज्ञानी को ज्ञानी मिमलै, रस की लूटम लूट । ज्ञानी को आनी मिमलै, �ौवै माथा कूट ॥ 680॥ साखी शब्द बहुतक सुना, मिमटा न मन क मो� । पारस तक पहँुचा न�ीं, र�ा लो� का लो� ॥ 681 ॥ ब्राह्मण केरी बेदिटया, मांस शराब न खाय । संगहित र्भई कलाल की, मद हिबना र�ा न जाए ॥ 682 ॥ जीवन जीवन रात मद, अहिवचल र�ै न कोय । जु दिदन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । कोदिट जतन परमोमिधये, कागा �ंस न �ोय ॥ 684 ॥ जो छोडे़ तो आँधरा, खाये तो मरिर जाय । ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ र्भाँहित पक्तिछताय ॥ 685 ॥ प्रीहित कर सुख लेने को, सो सुख गया हि�राय । जैसे पाइ छछून्दरी, पकहिड़ साँप पक्तिछताय ॥ 686 ॥ कबीर हिवषधर बहु मिमले, मभिणधर मिमला न कोय । हिवषधर को मभिणधर मिमले, हिवष तजिज अमृत �ोय ॥ 687 ॥ सज्जन सों सज्जन मिमले, �ोवे दो दो बात । ग�दा सो ग�दा मिमले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ तरुवर जड़ से कादिटया, जबै सम्�ारो ज�ाज । तारै पर बोरे न�ीं, बाँ� ग�े की लाज ॥ 689 ॥ मैं सोचों हि�त जाहिनके, कदिठन र्भयो �ै काठ । ओछी संगत नीच की सरिर पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ लकड़ी जल )ूबै न�ीं, क�ो क�ाँ की प्रीहित । अपनी सीची जाहिन के, य�ी बड़ने की रीहित ॥ 691 ॥ साधू संगत परिर�रै, करै हिवषय का संग । कूप खनी जल बावरे, त्याग दिदया जल गंग ॥ 692 ॥ संगहित ऐसी कीजिजये, सरसा नर सो संग । लर-लर लोई �ेत �ै, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ तेल हितली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । संगहित को बेरो र्भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ साधु संग गुरु र्भक्ति� अरू, ब\त ब\त बदि\ जाय । ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घदिट जाय ॥ 695 ॥ संगत कीजै साधु की, �ोवे दिदन-दिदन �ेत । साकुट काली कामली, धोते �ोय न सेत ॥ 696 ॥ चचा9 करँू तब चौ�टे, ज्ञान करो तब दोय । ध्यान धरो तब एहिकला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ सन्त सुरसरी गंगा जल, आहिन पखारा अंग । मैले से हिनरमल र्भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 

॥ सेवक पर दो�े ॥ सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । ज�ाँ जाय त�ँ काल �ै, क�ैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ तू तू करंू तो हिनकट �ै, दुर-दुर करू �ो जाय । जों गुरु राखै त्यों र�ै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ सेवक सेवा में र�ै, सेवक कहि�ये सोय । क�ैं कबीर सेवा हिबना, सेवक कर्भी न �ोय ॥ 701 ॥ अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन हिब�ाय ॥ 702 ॥ य� मन ताको दीजिजये, साँचा सेवक �ोय । क्तिसर ऊपर आरा स�ै, तऊ न दूजा �ोय ॥ 703 ॥ गुरु आज्ञा मानै न�ीं, चलै अटपटी चाल । लोक वेद दोनों गये, आये क्तिसर पर काल ॥ 704 ॥ आशा करै बैकु(ठ की, दुरमहित तीनों काल । शुक्र क�ी बक्तिल ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ द्वार थनी के पहिड़ र�े, धका धनी का खाय । कबहुक धनी हिनवाजिज �ै, जो दर छाहिड़ न जाय ॥ 706 ॥ 

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उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । क�ैं कबीर संसार में, सो कहि�ये गुरुमुख ॥ 707 ॥ क�ैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या हिनयरै क्या दूर । जाका क्तिचत जासों बसै सौ तेहि� सदा �जूर ॥ 708 ॥ गुरु आज्ञा लै आव�ी, गुरु आज्ञा लै जाय । क�ैं कबीर सो सन्त हिप्रय, बहु हिवमिध अमृत पाय ॥ 709 ॥ गुरुमुख गुरु क्तिचतवत र�े, जैसे मभिणहि� र्भुजंग । क�ैं कबीर हिबसरे न�ीं, य� गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ य� सब तच्छन क्तिचतधरे, अप लच्छन सब त्याग । सावधान सम ध्यान �ै, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ ज्ञानी अभिर्भमानी न�ीं, सब काहू सो �ेत । सत्यवार परमारथी, आदर र्भाव स�ेत ॥ 712 ॥ दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अहित उदार क्तिचत �ोय । लज्जावान अहित हिनछलता, कोमल हि�रदा सोय ॥ 714 ॥ ॥ दासता पर दो�े ॥ कबीर गुरु कै र्भावते, दूरहि� ते दीसन्त । तन छीना मन अनमना, जग से रूदिठ हिफरन्त ॥ 715 ॥ कबीर गुरु सबको च�ै, गुरु को च�ै न कोय । जब लग आश शरीर की, तब लग दास न �ोय ॥ 716 ॥ सुख दुख क्तिसर ऊपर स�ै, कबहु न छोडे़ संग । रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ गुरु समरथ क्तिसर पर खडे़, क�ा कर्भी तोहि� दास । रिरजिद्ध-क्तिसजिद्ध सेवा करै, मुक्ति� न छोडे़ पास ॥ 718 ॥ लगा र�ै सत ज्ञान सो, सब�ी बन्धन तोड़ । क�ैं कबीर वा दास सो, काल र�ै �थजोड़ ॥ 719 ॥ काहू को न संताहिपये, जो क्तिसर �न्ता �ोय । हिफर हिफर वाकंू बजिन्दये, दास लच्छन �ै सोय ॥ 720 ॥ दास क�ावन कदिठन �ै, मैं दासन का दास । अब तो ऐसा �ोय रहँू पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ दासातन हि�रदै बसै, साधुन सो अधीन । क�ैं कबीर सो दास �ै, प्रेम र्भक्ति� लवलीन ॥ 722 ॥ दासातन हि�रदै न�ीं, नाम धरावै दास । पानी के पीये हिबना, कैसे मिमटै हिपयास ॥ 723 ॥ ॥ र्भक्ति� पर दो�े ॥ र्भक्ति� कदिठन अहित दुल9र्भ, र्भेष सुगम हिनत सोय । र्भक्ति� जु न्यारी र्भेष से, य� जनै सब कोय ॥ 724 ॥ र्भक्ति� बीज पलटै न�ीं जो जुग जाय अनन्त । ऊँच-नीच धर अवतरै, �ोय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ र्भक्ति� र्भाव र्भादौं नदी, सबै चली घ�राय । सरिरता सोई सराहि�ये, जेठ मास ठ�राय ॥ 726 ॥ र्भक्ति� जु सी\ी मुक्ति� की, च\े र्भ� �रषाय । और न कोई चदि\ सकै, हिनज मन समझो आय ॥ 727 ॥ र्भक्ति� दु�ेली गुरुन की, नहि�ं कायर का काम । सीस उतारे �ाथ सों, ताहि� मिमलै हिनज धाम ॥ 728 ॥ र्भक्ति� पदारथ तब मिमलै, जब गुरु �ोय स�ाय । प्रेम प्रीहित की र्भक्ति� जो, पूरण र्भाग मिमलाय ॥ 729 ॥ र्भक्ति� र्भेष बहु अन्तरा, जैसे धरहिन अकाश । र्भ� लीन गुरु चरण में, र्भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ कबीर गुरु की र्भक्ति� करँू, तज हिनषय रस चौंज । बार-बार नहि�ं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ र्भक्ति� दुवारा साँकरा, राई दशवें र्भाय । मन को मैगल �ोय र�ा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ र्भक्ति� हिबना नहि�ं हिनस्तरे, लाख करे जो कोय । शब्द सने�ी �ोय र�े, घर को पहँुचे सोय ॥ 733 ॥ 

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र्भक्ति� नसेनी मुक्ति� की, संत च\े सब धाय । जिजन-जिजन आलस हिकया, जनम जनम पक्तिछताय ॥ 734 ॥ गुरु र्भक्ति� अहित कदिठन �ै, ज्यों खाडे़ की धार । हिबना साँच पहँुचे न�ीं, म�ा कदिठन व्यव�ार ॥ 735 ॥ र्भाव हिबना नहि�ं र्भक्ति� जग, र्भक्ति� हिबना न�ीं र्भाव । र्भक्ति� र्भाव इक रूप �ै, दोऊ एक सुर्भाव ॥ 736 ॥ कबीर गुरु की र्भक्ति� का, मन में बहुत हुलास । मन मनसा माजै न�ीं, �ोन च�त �ै दास ॥ 737 ॥ कबीर गुरु की र्भक्ति� हिबन, मिधक जीवन संसार । धुवाँ का सा धौर�रा, हिबनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ जाहित बरन कुल खोय के, र्भक्ति� करै क्तिचतलाय । क�ैं कबीर सतगुरु मिमलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ देखा देखी र्भक्ति� का, कबहुँ न च\ सी रंग । हिबपहित पडे़ यों छाड़सी, केचुक्तिल तजत र्भुजंग ॥ 740 ॥ आरत �ै गुरु र्भक्ति� करँू, सब कारज क्तिसध �ोय । करम जाल र्भौजाल में, र्भ� फँसे नहि�ं कोय ॥ 741 ॥ जब लग र्भक्ति� सकाम �ै, तब लग हिनष्फल सेव । क�ैं कबीर व� क्यों मिमलै, हिन�कामी हिनजदेव ॥ 742 ॥ पेटे में र्भक्ति� करै, ताका नाम सपूत । मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ हिनप9क्षा की र्भक्ति� �ै, हिनम¯�ी को ज्ञान । हिनरदं्वद्वी की र्भक्ति� �ै, हिनल¯र्भी हिनबा9न ॥ 744 ॥ हितमिमर गया रहिव देखते, मुमहित गयी गुरु ज्ञान । सुमहित गयी अहित लोर्भ ते, र्भक्ति� गयी अभिर्भमान ॥ 745 ॥ खेत हिबगारेउ खरतुआ, सर्भा हिबगारी कूर । र्भक्ति� हिबगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ ज्ञान सपूरण न भिर्भदा, हि�रदा नाहि�ं जुड़ाय । देखा देखी र्भक्ति� का, रंग न�ीं ठ�राय ॥ 747 ॥ र्भक्ति� पF बहुत कदिठन �ै, रती न चालै खोट । हिनराधार का खोल �ै, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ र्भ�न की य� रीहित �ै, बंधे करे जो र्भाव । परमारथ के कारने य� तन र�ो हिक जाव ॥ 749 ॥ र्भक्ति� म�ल बहु ऊँच �ै, दूरहि� ते दरशाय । जो कोई जन र्भक्ति� करे, शोर्भा बरहिन न जाय ॥ 750 ॥ और कम9 सब कम9 �ै, र्भक्ति� कम9 हिन�कम9 । क�ैं कबीर पुकारिर के, र्भक्ति� करो तजिज र्भम9 ॥ 751 ॥ हिवषय त्याग बैराग �ै, समता कहि�ये ज्ञान । सुखदाई सब जीव सों, य�ी र्भक्ति� परमान ॥ 752 ॥ र्भक्ति� हिनसेनी मुक्ति� की, संत च\े सब आय । नीचे बामिधहिन लुहिक र�ी, कुचल पडे़ कू खाय ॥ 753 ॥ र्भक्ति� र्भक्ति� सब कोइ क�ै, र्भक्ति� न जाने मेव । पूरण र्भक्ति� जब मिमलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ ॥ चेतावनी ॥ कबीर गब9 न कीजिजये, चाम लपेटी �ाड़ । �यबर ऊपर छत्रवट, तो र्भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ कबीर गब9 न कीजिजये, ऊँचा देखिख अवास । काल परौं र्भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ कबीर गब9 न कीजिजये, इस जीवन की आस । टेसू फूला दिदवस दस, खंखर र्भया पलास ॥ 757 ॥ कबीर गब9 न कीजिजये, काल ग�े कर केस । ना जानो हिकत मारिर �ैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ कबीर मजिन्दर लाख का, जाहिड़या �ीरा लाल । दिदवस चारिर का पेखना, हिवनक्तिश जायगा काल ॥ 759 ॥ कबीर धूल सकेक्तिल के, पुड़ी जो बाँधी ये� । दिदवस चार का पेखना, अन्त खे� की खे� ॥ 760 ॥ कबीर थोड़ा जीवना, मा\ै बहुत म\ान । सब�ी ऊर्भ पF क्तिसर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ 

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कबीर नौबत आपनी, दिदन दस लेहु बजाय । य� पुर पटृन य� गली, बहुरिर न देखहु आय ॥ 762 ॥ कबीर गब9 न कीजिजये, जाम लपेटी �ाड़ । इस दिदन तेरा छत्र क्तिसर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ कबीर य� तन जात �ै, सकै तो ठोर लगाव । कै सेवा करँू साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ कबीर जो दिदन आज �ै, सो दिदन न�ीं काल । चेहित सकै तो चेत ले, मीच परी �ै ख्याल ॥ 765 ॥ कबीर खेत हिकसान का, मिमरगन खाया झारिर । खेत हिबचारा क्या करे, धनी करे नहि�ं बारिर ॥ 766 ॥ कबीर य� संसार �ै, जैसा सेमल फूल । दिदन दस के व्यव�ार में, झूठे रंग न र्भूल ॥ 767 ॥ कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । जीव परा बहू लूट में, जागँू लेन न देन ॥ 768 ॥ कबीर जन्त्र न बाजई, टूदिट गये सब तार । जन्त्र हिबचारा क्याय करे, गया बजावन �ार ॥ 769 ॥ कबीर रसरी पाँव में, क�ँ सोवै सुख-चैन । साँस नगारा कँुच का, बाजत �ै दिदन-रैन ॥ 770 ॥ कबीर नाव तो झाँझरी, र्भरी हिबराने र्भाए । केवट सो परचै न�ीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेन�ार । �रूये-�रूये तरिर गये, बूडे़ जिजन क्तिसर र्भार ॥ 773 ॥ एक दिदन ऐसा �ोयगा, सबसों परै हिबछो� । राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहि�ं �ोय ॥ 774 ॥ ढोल दमामा दुरबरी, स�नाई संग र्भेरिर । औसर चले बजाय के, �ै कोई रखै फेरिर ॥ 775 ॥ मरेंगे मरिर जायँगे, कोई न लेगा नाम । ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेहिड़ बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ कबीर पानी �ौज की, देखत गया हिबलाय । ऐसे �ी जीव जायगा, काल जु पहँुचा आय ॥ 777 ॥ कबीर गाहिफल क्या करे, आया काल नजदीक । कान पकरिर के ले चला, ज्यों अजिजयाहि� खटीक ॥ 778 ॥ कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । सतगुरु शब्द हिबसारिरया, आदिद अन्त का मीत ॥ 779 ॥ �ाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । सब जग जरता देखिख करिर, र्भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ आज काल के बीच में, जंगल �ोगा वास । ऊपर ऊपर �ल हिफरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ ऊजड़ खेडे़ टेकरी, धहिड़ धहिड़ गये कुम्�ार । रावन जैसा चक्तिल गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ पाव पलक की सुमिध न�ीं, करै काल का साज । काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ आछे दिदन पाछे गये, गुरु सों हिकया न �ैत । अब पक्तिछतावा क्या करे, क्तिचहिड़या चुग गई खेत ॥ 784 ॥ आज क�ै मैं कल र्भजँू, काल हिफर काल । आज काल के करत �ी, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ क�ा चुनावै मेहिड़या, चूना माटी लाय । मीच सुनेगी पाहिपनी, दौरिर के लेगी आय ॥ 786 ॥ सातों शब्द जु बाजते, घर-घर �ोते राग । ते मजिन्दर खाले पडे़, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ ऊँचा म�ल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । वे मजिन्दर खाले पडे़, र�ै मसाना जाय ॥ 788 ॥ ऊँचा मजिन्दर मेहिड़या, चला कली ढुलाय । एकहि�ं गुरु के नाम हिबन, जदिद तदिद परलय जाय ॥ 789 ॥ ऊँचा दीसे धौ�रा, र्भागे चीती पोल । एक गुरु के नाम हिबन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ 

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पाव पलक तो दूर �ै, मो पै क�ा न जाय । ना जानो क्या �ोयगा, पाव के चौथे र्भाय ॥ 791 ॥ मौत हिबसारी बाहि�रा, अचरज कीया कौन । मन माटी में मिमल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ घर रखवाला बाहि�रा, क्तिचहिड़या खाई खेत । आधा परवा ऊबरे, चेहित सके तो चेत ॥ 793 ॥ �ाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान �ार । अजहँु झोला बहुत �ै, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ पकी हुई खेती देखिख के, गरब हिकया हिकसान । अजहँु झोला बहुत �ै, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिरया नाम । दिदना चार के कारने, हिफर-हिफर रोके ठाम ॥ 796 ॥ क�ा चुनावै मेहिड़या, लम्बी र्भीत उसारिर । घर तो सा\े तीन �ाथ, घना तो पौने चारिर ॥ 797 ॥ य� तन काँचा कंुर्भ �ै, क्तिलया हिफरै थे साथ । टपका लागा फुदिट गया, कछु न आया �ाथ ॥ 798 ॥ क�ा हिकया �म आपके, क�ा करेंगे जाय । इत के र्भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ जनमै मरन हिवचार के, कूरे काम हिनवारिर । जिजन पंथा तोहि� चालना, सोई पंथ सँवारिर ॥ 800 ॥ कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । राम हिनकुल कुल र्भेदिटया, सब कुल गया हिबलाय ॥ 801 ॥ दुहिनया के धोखे मुआ, चला कुटुम की काहिन । तब कुल की क्या लाज �ै, जब ले धरा मसाहिन ॥ 802 ॥ दुहिनया सेती दोसती, मुआ, �ोत र्भजन में र्भंग । एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ य� तन काँचा कंुर्भ �ै, य�ीं क्तिलया रहि�वास । कबीरा नैन हिन�ारिरया, नाहि�ं जीवन की आस ॥ 804 ॥ य� तन काँचा कंुर्भ �ै, चोट चहँू दिदस खाय । एकहि�ं गुरु के नाम हिबन, जदिद तदिद परलय जाय ॥ 805 ॥ जंगल ढेरी राख की, उपरिर उपरिर �रिरयाय । ते र्भी �ोते मानवी, करते रंग रक्तिलयाय ॥ 806 ॥ मलमल खासा पहि�नते, खाते नागर पान । टे\ा �ोकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ म�लन मा�ी पौ\ते, परिरमल अंग लगाय । ते सपने दीसे न�ीं, देखत गये हिबलाय ॥ 808 ॥ ऊजल पी�ने कापड़ा, पान-सुपारी खाय । कबीर गुरू की र्भक्ति� हिबन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ कुल करनी के कारने, दिढग �ी रहि�गो राम । कुल काकी लाजिज �ै, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ कुल करनी के कारने, �ंसा गया हिबगोय । तब कुल काको लाजिज �ै, चाहिकर पाँव का �ोय ॥ 811 ॥ मैं मेरी तू जाहिन करै, मेरी मूल हिबनास । मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । ऐसा लेखा मीच का, दौरिर सकै तो दौर ॥ 813 ॥ इत पर धर उत �ै धरा, बहिनजन आये �ाथ । करम करीना बेक्तिच के, उदिठ करिर चालो काट ॥ 814 ॥ जिजसको र�ना उतघरा, सो क्यों जोडे़ मिमत्र । जैसे पर घर पाहुना, र�ै उठाये क्तिचl ॥ 815 ॥ मेरा संगी कोई न�ीं, सबै स्वारथी लोय । मन परतीत न ऊपजै, जिजय हिवस्वाय न �ोय ॥ 816 ॥ मैं र्भौंरो तोहि� बरजिजया, बन बन बास न लेय । अटकेगा कहुँ बेक्तिल में, तड़हिफ- तड़हिफ जिजय देय ॥ 817 ॥ दीन गँवायो दूहिन संग, दुनी न चली साथ । पाँच कुल्�ाड़ी मारिरया, मूरख अपने �ाथ ॥ 818 ॥ तू महित जानै बावरे, मेरा �ै य� कोय । प्रान हिप() सो बँमिध र�ा, सो नहि�ं अपना �ोय ॥ 819 ॥ 

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या मन गहि� जो क्तिथर र�ै, ग�री धूनी गाहिड़ । चलती हिबरयाँ उदिठ चला, �स्ती घोड़ा छाहिड़ ॥ 820 ॥ तन सराय मन पा�रू, मनसा उतरी आय । कोई काहू का �ै न�ीं, देखा ठोंहिक बजाय ॥ 821 ॥ )र करनी )र परम गुरु, )र पारस )र सार । )रत र�ै सो ऊबरे, गाहिफल खाई मार ॥ 822 ॥ र्भय से र्भक्ति� करै सबै, र्भय से पूजा �ोय । र्भय पारस �ै जीव को, हिनरर्भय �ोय न कोय ॥ 823 ॥ र्भय हिबन र्भाव न ऊपजै, र्भय हिबन �ोय न प्रीहित । जब हि�रदै से र्भय गया, मिमटी सकल रस रीहित ॥ 824 ॥ काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिदवस औ रात । सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव हिपसात ॥ 825 ॥ बारी-बारी आपने, चले हिपयारे मीत । तेरी बारी जीयरा, हिनयरे आवै नीत ॥ 826 ॥ एक दिदन ऐसा �ोयगा, कोय काहु का नाहि�ं । घर की नारी को क�ै, तन की नारी जाहि�ं ॥ 827 ॥ बैल ग\न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ । एकहि�ं गुरँु के ज्ञान हिबनु, मिधक दा\ी मिधक मूँछ ॥ 828 ॥ य� हिबरिरयाँ तो हिफर न�ीं, मनमें देख हिवचार । आया लार्भहि�ं कारनै, जनम जुवा महित �ार ॥ 829 ॥ खलक मिमला खाली हुआ, बहुत हिकया बकवाद । बाँझ हि�लावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ चले गये सो ना मिमले, हिकसको पूछँू जात । मात-हिपता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ हिवषय वासना उरजिझकर जनम गँवाय जाद । अब पक्तिछतावा क्या करे, हिनज करनी कर याद ॥ 832 ॥ 

�े महित�ीनी माछीरी! राखिख न सकी शरीर । सो सरवर सेवा न�ीं , जाल काल नहि�ं कीर ॥ 833 ॥ मछरी य� छोड़ी न�ीं, धीमर तेरो काल । जिजहि� जिजहि� )ाबर धर करो, त�ँ त�ँ मेले जाल ॥ 834 ॥ परदा र�ती पदुमिमनी, करती कुल की कान । घड़ी जु पहँुची काल की, छोड़ र्भई मैदान ॥ 835 ॥ जागो लोगों मत सुवो, ना करँू नींद से प्यार । जैसा सपना रैन का, ऐसा य� संसार ॥ 836 ॥ क्या करिरये क्या जोहिड़ये, तोडे़ जीवन काज । छाहिड़ छाहिड़ सब जात �ै, दे� गे� धन राज ॥ 837 ॥ जिजन घर नौबत बाजती, �ोत छतीसों राग । सो घर र्भी खाली पडे़, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ कबीर काया पाहुनी, �ंस बटाऊ माहि�ं । ना जानूं कब जायगा, मोहि� र्भरोसा नाहि�ं ॥ 839 ॥ जो तू परा �ै फंद में हिनकसेगा कब अंध । माया मद तोकँू च\ा, मत र्भूले महितमंद ॥ 840 ॥ अहि�रन की चोरी करै, करै सुई का दान । ऊँचा चदि\ कर देखता, केहितक दुरिर हिवमान ॥ 841 ॥ नर नारायन रूप �ै, तू महित समझे दे� । जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खो� ॥ 842 ॥ मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । अहिवनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ मरँू- मरँू सब कोइ क�ै, मेरी मरै बलाय । मरना था तो मरिर चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ एक बून्द के कारने, रोता सब संसार । अनेक बून्द खाली गये, हितनका न�ीं हिवचार ॥ 845 ॥ समुझाये समुझे न�ीं, धरे बहुत अभिर्भमान । गुरु का शब्द उछेद �ै, क�त सकल �म जान ॥ 846 ॥ राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिर्भमान । पड़ोसी की जो दशा, र्भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ मूरख शब्द न मानई, धम9 न सुनै हिवचार । सत्य शब्द नहि�ं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ 

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चेत सवेरे बाचरे, हिफर पाछे पक्तिछताय । तोको जाना दूर �ै, क�ैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ क्यों खोवे नरतन वृथा, परिर हिवषयन के साथ । पाँच कुल्�ाड़ी मार�ी, मूरख अपने �ाथ ॥ 850 ॥ आँखिख न देखे बावरा, शब्द सुनै नहि�ं कान । क्तिसर के केस उज्ज्वल र्भये, अबहु हिनपट अजान ॥ 851 ॥ ज्ञानी �ोय सो मान�ी, बूझै शब्द �मार । क�ैं कबीर सो बाँक्तिच �ै, और सकल जमधार ॥ 852 ॥ ॥ काल के हिवषय मे दो�े ॥ जोबन मिमकदारी तजी, चली हिनशान बजाय । क्तिसर पर सेत क्तिसरायचा दिदया बु\ापै आय ॥ 853 ॥ कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी हिब�ाय । जिजव जंजाले पहिड़ र�ा, दिदयरा दममा आय ॥ 854 ॥ झूठे सुख को सुख क�ै, मानत �ै मन मोद । जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । क�ैं कबीर में क्या करँू, कोई न�ीं पहितयाय ॥ 856 ॥ हिनश्चय काल गरास�ी, बहुत क�ा समुझाय । क�ैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पहितयाय ॥ 857 ॥ जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुन्तिम्�लाय । जो चुने सो \हि� पडै़, जनमें सो मरिर जाय ॥ 858 ॥ कुशल-कुशल जो पूछता, जग में र�ा न कोय । जरा मुई न र्भय मुवा, कुशल क�ाँ ते �ोय ॥ 859 ॥ जरा श्वान जोबन ससा, काल अ�ेरी हिनl । दो बैरी हिबच झोंपड़ा कुशल क�ाँ सो मिमत्र ॥ 860 ॥ हिबरिरया बीती बल घटा, केश पलदिट र्भये और । हिबगरा काज सँर्भारिर ले, करिर छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ य� जीव आया दूर ते, जाना �ै बहु दूर । हिबच के बासे बक्तिस गया, काल र�ा क्तिसर पूर ॥ 862 ॥ कबीर गाहिफल क्यों हिफरै क्या सोता घनघोर । तेरे क्तिसराने जम खड़ा, ज्यँू अँमिधयारे चोर ॥ 863 ॥ कबीर पगरा दूर �ै, बीच पड़ी �ै रात । न जानों क्या �ोयेगा, ऊगन्ता परर्भात ॥ 864 ॥ कबीर मजिन्दर आपने, हिनत उदिठ करता आल । मर�ट देखी )रपता, चौ)\े दीया )ाल ॥ 865 ॥ धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल । �ाथों परबत लौलते, ते र्भी खाये काल ॥ 866 ॥ आस पास जोधा खडे़, सबै बजावै गाल । मंझ म�ल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ चहँु दिदक्तिस पाका कोट था, मजिन्दर नगर मझार । खिखरकी खिखरकी पा�रू, गज बन्दा दरबार ॥ 

चहँु दिदक्तिस ठा\े सूरमा, �ाथ क्तिलये �ाक्तिथयार । सब�ी य� तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥ �म जाने थे खायेंगे, बहुत जिजमिम बहु माल । ज्यों का त्यों �ी रहि� गया, पकरिर ले गया काल ॥ 869 ॥ काची काया मन अक्तिथर, क्तिथर क्तिथर कम9 करन्त । ज्यों-ज्यों नर हिनधड़क हिफरै, त्यों-त्यों काल �सन्त ॥ 870 ॥ �ाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट र्भराय । ते मुहिनवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ संसै काल शरीर में, हिवषम काल �ै दूर । जाको कोई जाने न�ीं, जारिर करै सब धूर ॥ 872 ॥ बालपना र्भोले गया, और जुवा म�मंत । वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ बेटा जाये क्या हुआ, क�ा बजावै थाल । आवन-जावन �ोय र�ा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥ 

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ताजी छूटा श�र ते, कसबे पड़ी पुकार । दरवाजा जड़ा �ी र�ा, हिनकस गया असवार ॥ 875 ॥ खुक्तिल खेलो संसार में, बाँमिध न सक्कै कोय । घाट जगाती क्या करै, क्तिसर पर पोट न �ोय ॥ 876 ॥ घाट जगाती धम9राय, गुरुमुख ले पहि�चान । छाप हिबना गुरु नाम के, साकट र�ा हिनदान ॥ 877 ॥ संसै काल शरीर में, जारिर करै सब धूरिर । काल से बांचे दास जन जिजन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥ ऐसे साँच न मानई, हितलकी देखो जाय । जारिर बारिर कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥ जारिर बारिर मिमस्सी करे, मिमस्सी करिर �ै छार । क�ैं कबीर कोइला करै, हिफर दै दै औतार ॥ 880 ॥ काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय । काल पाय सहिब हिबहिनश �ै, काल काल क�ँ खाय ॥ 881 ॥ पात झरन्ता देखिख के, �ँसती कूपक्तिलयाँ । �म चाले तु मचाक्तिल�ौं, धीरी बापक्तिलयाँ ॥ 882 ॥ फागुन आवत देखिख के, मन झूरे बनराय । जिजन )ाली �म केक्तिल, सो �ी ब्योर ेजाय ॥ 883 ॥ मूस्या )रपैं काल सों, कदिठन काल को जोर । स्वग9 र्भूमिम पाताल में ज�ाँ जावँ त�ँ गोर ॥ 884 ॥ सब जग )रपै काल सों, ब्रह्मा, हिवष्णु म�ेश । सुर नर मुहिन औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥ कबीरा पगरा दूरिर �ै, आय पहँुची साँझ । जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि� गयी बाँझ ॥ 886 ॥ जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज हिबछाय । सो अब क�ँ दीसै न�ीं, क्तिछन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ काल हिफरे क्तिसर ऊपरै, �ाथों धरी कमान । क�ैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिर्भमान ॥ 888 ॥ काल काल सब कोई क�ै, काल न चीन्�ै कोय । जेती मन की कल्पना, काल क�वै सोय ॥ 889 ॥ ॥ उपदेश ॥ काल काम तत्काल �ै, बुरा न कीजै कोय । र्भले र्भलई पे ल�ै, बुरे बुराई �ोय ॥ 890 ॥ काल काम तत्काल �ै, बुरा न कीजै कोय । अनबोवे लुनता न�ीं, बोवे लुनता �ोय ॥ 891 ॥ लेना �ै सो जल्द ले, क�ी सुनी मान । क�ीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥ खाय-पकाय लुटाय के, करिर ले अपना काम । चलती हिबरिरया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥ खाय-पकाय लुटाय के, य� मनुवा मिमजमान । लेना �ोय सो लेई ले, य�ी गोय मैदान ॥ 894 ॥ गाँदिठ �ोय सो �ाथ कर, �ाथ �ोय सी दे� । आगे �ाट न बाहिनया, लेना �ोय सो ले� ॥ 895 ॥ दे� खे� खोय जायगी, कौन क�ेगा दे� । हिनश्चय कर उपकार �ी, जीवन का फल ये� ॥ 896 ॥ क�ै कबीर देय तू, सब लग तेरी दे� । दे� खे� �ोय जायगी, कौन क�ेगा दे� ॥ 897 ॥ दे� धरे का गुन य�ी, दे� दे� कछु दे� । बहुरिर न दे�ी पाइये, अकी दे� सुदे� ॥ 898 ॥ स� �ी में सत बाटई, रोटी में ते टूक । 

क�ैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥ क�ते तो कहि� जान दे, गुरु की सीख तु लेय । साकट जन औ श्वान को, फेरिर जवाब न देय ॥ 900 ॥ �स्ती चदि\ये ज्ञान की, स�ज दुलीचा )ार । श्वान रूप संसार �ै, र्भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥ 

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या दुहिनया दो रोज की, मत कर या सो �ेत । गुरु चरनन क्तिचत लाइये, जो पूरन सुख �ेत ॥ 902 ॥ कबीर य� तन जात �ै, सको तो राखु ब�ोर । खाली �ाथों व� गये, जिजनके लाख करोर ॥ 903 ॥ सरगुन की सेवा करो, हिनरगुन का करो ज्ञान । हिनरगुन सरगुन के परे, त�ीं �मारा ध्यान ॥ 904 ॥ घन गरजै, दामिमहिन दमकै, बँूदैं बरसैं, झर लाग गए। �र तलाब में कमल खिखले, त�ाँ र्भानु परगट र्भये॥ 905 ॥ क्या काशी क्या ऊसर मग�र, राम हृदय बस मोरा। जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन हिन�ोरा ॥ 906 ॥ 

अंखिखयां तो छाई �री / कबीरअंखिखयां तो छाई परी

पंथ हिन�ारिर हिन�ारिर 

जी�हिड़यां छाला परया

नाम पुकारिर पुकारिर

हिबर� कमन्डल कर क्तिलये

बैरागी दो नैन

मांगे दरस मधुकरी

छकै र�ै दिदन रैन

सब रंग तांहित रबाब तन

हिबर� बजावै हिनत

और न कोइ सुहिन सकै

कै सांई के क्तिचत अवधूता युगन युगन �म योगी / कबीरअवधूता युगन युगन �म योगीआवै ना जाय मिमटै ना कबहूंसबद अना�त र्भोगीसर्भी ठौर जमात �मरीसब �ी ठौर पर मेला�म सब माय सब �ै �म माय�म �ै बहुरी अकेला�म �ी क्तिसद्ध समामिध �म �ी�म मौनी �म बोलेरूप सरूप अरूप दिदखा के�म �ी �म तो खेलेंक�े कबीर जो सुनो र्भाई साधोना �ीं न कोई इच्छाअपनी म\ी में आप मैं )ोलूंखेलंू स�ज स्वेच्छा उ�देश का अंग / कबीरबैरागी हिबरकत र्भला, हिगर�ी क्तिचl उदार ।दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकंू वार न पार ॥1॥र्भावाथ9 - बैरागी व�ी अच्छा, जिजसमें सच्ची हिवरक्ति� �ो, और गृ�स्थ व� अच्छा, जिजसका हृदय उदार �ो । यदिद वैरागी के मन में हिवरक्ति� न�ीं, और गृ�स्थ के मन में उदारता न�ीं, तो दोनों का ऐसा पतन �ोगा हिक जिजसकी �द न�ीं ।`कबीर' �रिर के नाव संू, प्रीहित र�ै इकतार ।तो मुख तैं मोती झड़ैं, �ीरे अन्त न फार ॥2॥

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र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -- यदिद �रिरनाम पर अहिवरल प्रीहित बनी र�े, तो उसके मुख से मोती-�ी मोती झड़ेंगे, और इतने �ीरे हिक जिजनकी हिगनती न�ीं । [ �रिर र्भ� का व्यव�ार - बता9व सबके प्रहित मधुर �ी �ोता �ै- मन मधुर, वचन मधुर और कम9 मधुर ।]ऐसी बाणी बोक्तिलये, मन का आपा खोइ ।अपना तन सीतल करै, औरन को सुख �ोइ ॥3॥र्भावाथ9 - अपना अ�ंकार छोड़कर ऐसी बाणी बोलनी चाहि�ए हिक, जिजससे बोलनेवाला स्वयं शीतलता और शान्तिन्त का अनुर्भव करे, और सुननेवालों को र्भी सुख मिमले ।कोइ एक राखै सावधां, चेतहिन प�रै जाहिग ।बस्तर बासन संू खिखसै, चोर न सकई लाहिग ॥4॥र्भावाथ9 - प�र-प�र पर जागता हुआ जो सचेत र�ता �ै, उसके वस्त्र और बत9न कैसे कोई ले जा सकता �ै ?चोर तो दूर �ी र�ेंगे, उसके पीछे न�ीं लगेंगे । जग में बैरी कोइ न�ीं, जो मन सीतल �ोइ ।या आपा को )ारिरदे, दया करै सब कोइ ॥5॥र्भावाथ9 - �मारे मन में यदिद शीतलता �ै, क्रोध न�ीं �ै और क्षमा �ै, तो संसार में �मसे हिकसीका बैर �ो न�ीं सकता । अथवा अ�ंकार को हिनकाल बा�र करदें, तो �म पर सब कृपा �ी करेंगे ।आवत गारी एक �ै, उलटत �ोइ अनेक ।क� `कबीर' नहि�ं उलदिटए, व�ी एक की एक ॥6॥र्भावाथ9 - �में कोई एक गाली दे और �म उलटकर उसे गाक्तिलयाँ दें, तो वे गाक्तिलयाँ अनेक �ो जायेंगी। कबीर क�ते �ैं हिक यदिद गाली को पलटा न जाय, गाली का जवाब गाली से न दिदया जाय, तो व� गाली एक �ी र�ेगी ।कथनी-करणी का अंग / कबीरजैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल ।पारब्रह्म नेड़ा र�ै, पल में करै हिन�ाल ॥1॥र्भावाथ9 - मुँ� से जैसी बात हिनकले, उसीपर यदिद आचरण हिकया जाय, वैसी �ी चाल चली जाय, तो र्भगवान् तो अपने पास �ी खड़ा �ै, और व� उसी क्षण हिन�ाल कर देगा ।पद गाए मन �रहिषयां, साषी कह्यां अनंद ।सो तत नांव न जाभिणयां, गल में पहिड़या फंद ॥2॥र्भावाथ9 - मन �ष9 में )ूब जाता �ै पद गाते हुए, और साखिखयाँ क�ने में र्भी आनन्द आता �ै । लेहिकन सारतत्व को न�ीं समझा, और �रिरनाम का मम9 न समझा, तो गले में फन्दा �ी पड़नेवाला �ै । मैं जा(यंू पदिढबौ र्भलो, प\बा थैं र्भलौ जोग ।राम-नाम संू प्रीहित करिर, र्भल र्भल नींदौ लोग ॥3॥र्भावाथ9 - प�ले मैं समझता था हिक पोक्तिथयों का प\ना बड़ा अच्छा �ै, हिफर सोचा हिक प\ने से योग-साधन क�ीं अच्छा �ै । पर अब तो इस हिनण9य पर पहँुचा हँू हिक रामनाम से �ी सच्ची प्रीहित की जाय, र्भले �ी अच्चै-अचे्छ लोग मेरी हिनन्दा करें ।`कबीर' पदि\बो दूरिर करिर, पुस्तक देइ ब�ाइ ।बावन आहिषर सोमिध करिर, `ररै' `ममै' क्तिचl लाइ ॥4॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं --प\ना क्तिलखना दूर कर, हिकताबों को पानी में ब�ा दे । बावन अक्षरों में से तू तो सार के ये दो अक्षर ढँू\कर ले ले--`रकार' और `मकार'। और इन्�ीं में अपने क्तिचl को लगा दे ।पोथी प\ प\ जग मुवा, पंहि)त र्भया न कोय ।ऐकै आहिषर पीव का, प\ै सो पंहि)त �ोइ ॥5॥र्भावाथ9 - पोक्तिथयाँ प\-प\कर दुहिनया मर गई, मगर कोई पण्डि()त न�ीं हुआ । पण्डि()त तो व�ी �ो सकता �ै, जिजसने हिप्रयतम प्रर्भु का केवल एक अक्षर प\ क्तिलया ।[पाठान्तर �ै `ढाई आखर प्रेम का' अथा9त प्रेम शब्द के जिजसने ढाई अक्षर प\ क्तिलये,अपने जीवन में उतार क्तिलयर, उसी को पण्डि()त क�ना चाहि�ए ।]करता दीसै कीरतन, ऊँचा करिर-करिर तंु) ।जानें-बूझै कुछ न�ीं, यौं�ीं आंधां रंू) ॥6॥र्भावाथ9 - �मने देखा ऐसों को, जो मुख को ऊँचा करके जोर-जोर से कीत9न करते �ैं । जानते-समझते तो वे कुछ र्भी न�ीं हिक क्या तो सार �ै और क्या असार । उन्�ें अन्धा क�ा जाय, या हिक हिबना क्तिसर का केवल रु() ? 

कबीर की साखिखयाँ / कबीरकस्तुरी कँु)ली बसै, मृग ढ़ु\े बब माहि�ं.ऎसे घदिट घदिट राम �ैं, दुहिनया देखे नाहि�ं..प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना �ाट हिबकाय.राजा प्रजा जेहि� रुचे, सीस देई लै जाय ..माला फेरत जुग गाया, मिमटा ना मन का फेर.कर का मन का छाहिड़, के मन का मनका फेर..माया मुई न मन मुआ, मरिर मरिर गया शरीर.आशा तृष्णा ना मुई, यों क� गये कबीर ..झूठे सुख को सुख क�े, मानत �ै मन मोद.खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद..वृक्ष कबहुँ नहि� फल र्भखे, नदी न संचै नीर.परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर..साधु बडे़ परमारथी, धन जो बरसै आय.तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय..सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुडै़ सौ बार.दुज9न कंुर्भ कुम्�ार के, एके धकै दरार..

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जिजहि�ं धरिर साध न पूजिजए, �रिर की सेवा नाहि�ं.ते घर मरघट सारखे, र्भूत बसै हितन माहि�ं..मूरख संग ना कीजिजए, लो�ा जल ना हितराइ.कदली, सीप, र्भुजंग-मुख, एक बंूद हित�ँ र्भाइ..हितनका कबहुँ ना हिनजिन्दए, जो पायन तले �ोय.कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी �ोय..बोली एक अमोल �ै, जो कोइ बोलै जाहिन.हि�ये तराजू तौल के, तब मुख बा�र आहिन..ऐसी बानी बोक्तिलए,मन का आपा खोय.औरन को शीतल करे, आपहँु शीतल �ोय..लघता ते प्रर्भुता मिमले, प्रर्भुत ते प्रर्भु दूरी.क्तिचट्टी लै सक्कर चली, �ाथी के क्तिसर धूरी..हिनन्दक हिनयरे राखिखये, आँगन कुटी छवाय.हिबन साबुन पानी हिबना, हिनम9ल करे सुर्भाय..मानसरोवर सुर्भर जल, �ंसा केक्तिल कराहि�ं.मुकता�ल मुकता चुगै, अब उहिड़ अनत ना जाहि�ं..कबीर के �द / कबीर1. अरे दिदल, प्रेम नगर का अंत न पाया, ज् यों आया त् यों जावैगा।। सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क् या क् या बीता।। क्तिसर पा�न का बोझा ल ीीता, आगे कौन छुड़ावैगा।। परली पार मेरा मीता खण्डि¶)या, उस मिमलने का ध् यान न धरिरया।। टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाहिफल गोता खावैगा।। दास कबीर क�ैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन स�ाई।। चला अकेला संग न कोई, हिकया अपना पावैगा। 

2. र�ना न�ीं देस हिबराना �ै। य� संसार कागद की पुण्डि¶)या, बँूद पडे़ घुल जाना �ै। य� संसार कॉंट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरिर जाना �ै। य� संसार झाड़ और झॉंखर, आग लगे बरिर जाना �ै। क�त कबीर सुनो र्भाई साधो, सतगुरू नाम दिठकाना �ै। करम गपित टारै नाहिहं टरी / कबीरकरम गहित टारै नाहि�ं टरी ॥मुहिन वक्तिसष्ठ से पण्डि()त ज्ञानी, क्तिसमिध के लगन धरिर ।सीता �रन मरन दसरथ को, बनमें हिबपहित परी ॥ १॥क�ॅं व� फन्द क�ाँ व� पारमिध, क�ॅं व� मिमरग चरी ।कोदिट गाय हिनत पुन्य करत नृग, हिगरहिगट-जोन परिर ॥ २॥पा()व जिजनके आप सारथी, हितन पर हिबपहित परी ।क�त कबीर सुनो र्भै साधो, �ोने �ोके र�ी ॥ ३॥कामी का अंग / कबीरपरनारी राता हिफरैं, चोरी हिबदि\ता खाहि�ं ।दिदवस चारिर सरसा र�ै, अंहित समूला जाहि�ं ॥1॥र्भावाथ9 - परनारी से जो प्रीहित जोड़ते �ैं और चोरी की कमाई खाते �ैं, र्भले �ी वे चार दिदन फूले-फूले हिफरें ।हिकन्तु अन्त में वे जड़मूल से नष्ट �ो जाते �ैं ।परनारिर का राचणौं, जिजसी ल�सण की खाहिन ।खूणैं बैक्तिस र खाइए, परगट �ोइ दिदवाहिन ॥2॥र्भावाथ9 - परनारी का साथ ल�सुन खाने के जैसा �ै, र्भले �ी कोई हिकसी कोने में क्तिछपकर खाये, व� अपनी बास से प्रकट �ो जाता �ै ।र्भगहित हिबगाड़ी कामिमयाँ, इन्द्री केरै स्वादिद ।�ीरा खोया �ाथ थैं, जनम गँवाया बादिद ॥3॥र्भक्ति� को कामी लोगों ने हिबगाड़ )ाला �ै, इजिन्द्रयों के स्वाद में पड़कर, और �ाथ से �ीरा हिगरा दिदया, गँवा दिदया । जन्म लेना बेकार �ी र�ा उनका ।कामी अमी न र्भावई, हिवष �ी कौं लै सोमिध ।कुबुजिद्ध न जाई जीव की, र्भावै स्यंर्भ र�ौ प्रमोमिध ॥4॥र्भावाथ9 - कामी मनुष्य को अमृत पसंद न�ीं आता, व� तो जग�-जग� हिवष को �ी खोजता र�ता �ै । कामी जीव की कुबुजिद्ध जाती न�ीं, चा�े स्वयं शम्भु र्भगवान् �ी उपदेश दे-देकर उसे समझावें । कामी लज्या ना करै, मन मा�ें अहि�लाद ।नींद न मांगै सांथरा, र्भूख न मांगै स्वाद ॥5॥र्भावाथ9 - कामी मनुष्य को लज्जा न�ीं आती कुमाग9 पर पैर रखते हुए, मन में बड़ा आह्लाद �ोता �ै उसे । नींद लगने पर य� न�ीं देखा जाता हिक हिबस्तरा कैसा �ै, और र्भूखा मनुष्य स्वाद न�ीं जानता, चा�े जो खा लेता �ै ।

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ग्यानी मूल गँवाइया, आपण र्भये करता ।ताथैं संसारी र्भला, मन में र�ै )रता ॥6॥ज्ञानी ने अ�ंकार में पड़कर अपना मूल र्भी गवाँ दिदया,व� मानने लगा हिक मैं �ी सबका कता9-धlा9 हँू ।उससे तो संसारी आदमी �ी अच्छा, क्योंहिक व� )रकर तो चलता �ै हिक क�ीं कोई र्भूल न �ो जाय । काहे री नसिलनी तू कुमिमलानी / कबीरका�े री नक्तिलनी तू कुमिमलानी।तेरे �ी नाक्तिल सरोवर पानी॥जल में उतपहित जल में बास, जल में नक्तिलनी तोर हिनवास।ना तक्तिल तपहित न ऊपरिर आहिग, तोर �ेतु कहु कासहिन लाहिग॥क�े 'कबीर जे उदहिक समान, ते नहि�ं मुए �मारे जान।केहि� समुझावौ सब जग अन्धा / कबीरकेहि� समुझावौ सब जग अन्धा ॥इक दुइ �ोयॅं उन्�ैं समुझावौं, सबहि� र्भुलाने पेटके धन्धा ।पानी घो) पवन असवरवा, ढरहिक परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥गहि�री नदी अगम ब�ै धरवा, खेवन- �ार के पहि)गा फन्दा ।घर की वस्तु नजर नहि� आवत, दिदयना बारिरके ढँूढत अन्धा ॥ २॥लागी आहिग सबै बन जरिरगा, हिबन गुरुज्ञान र्भटहिकगा बन्दा ।क�ै कबीर सुनो र्भाई साधो, जाय क्तिलङ्गोटी झारिर के बन्दा ॥ ३॥कौन ठगवा नगरिरया लूटल �ो / कबीरकौन ठगवा नगरिरया लूटल �ो ।।चंदन काठ के बनल खटोला ता पर दुलहि�न सूतल �ो। उठो सखी री माँग संवारोदुल�ा मो से रूठल �ो। आये जम राजा पलंग चदि\ बैठा नैनन अंसुवा टूटल �ो चार जाने मिमल खाट उठाइन चहँु दिदक्तिस धंू धंू उठल �ो क�त कबीर सुनो र्भाई साधोजग से नाता छूटल �ो गुरुदेव का अंग / कबीरराम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहि�ं ।क्या ले गुर संतोहिषए, �ौंस र�ी मन माहि�ं ॥1॥र्भावाथ9 - सद्गरुु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिदया �ै । मेरे पास ऐसा क्या �ै उस सममोल का, जो गुरु को दँू ?क्या लेकर सन्तोष करँू उनका ? मन की अभिर्भलाषा मन में �ी र� गयी हिक, क्या दभिक्षणा च\ाऊँ ? वैसी वस्तु क�ाँ से लाऊँ ?

सतगुरु लई कमांण करिर, बा�ण लागा तीर ।एक जु बाह्या प्रीहित संू, र्भीतरिर रह्या शरीर ॥2॥र्भावाथ9 - सदगुरु ने कमान �ाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर तो बड़ी प्रीहित से ऐसा चला दिदया लक्ष्य बनाकर हिक, मेरे र्भीतर �ी व� हिबंध गया, बा�र हिनकलने का न�ीं अब ।सतगुरु की महि�मा अनंत, अनंत हिकया उपगार ।लोचन अनंत उघाहिड़या, अनंत-दिदखावण�ार ॥3॥र्भावाथ9 - अन्त न�ीं सद्गरुु की महि�मा का, और अन्त न�ीं उनके हिकये उपकारों का , मेरे अनन्त लोचन खोल दिदये, जिजनसे हिनरन्तर मैं अनन्त को देख र�ा हँू । बक्तिल�ारी गुर आपणैं, द्यौं�ाड़ी कै बार ।जिजहिन माहिनष तैं देवता, करत न लागी बार ॥4॥

र्भावाथ9 - �र दिदन हिकतनी बार न्यौछावर करँू अपने आपको सद्गरुू पर, जिजन्�ोंने एक पल में �ी मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिदया, और तदाकार �ो गया मैं । गुरु गोहिवन्द दोऊ खडे़,काके लागंू पायं ।बक्तिल�ारी गुरु आपणे, जिजन गोहिवन्द दिदया दिदखाय ॥5॥र्भावाथ9 - गुरु और गोहिवन्द दोनों �ी सामने खडे़ �ैं ,दुहिवधा में पड़ गया हँू हिक हिकसके पैर पक)ंू !सद्गरुु पर न्यौछावर �ोता हंू हिक, जिजसने गोहिवन्द को सामने खड़ाकर दिदया, गोहिवनद से मिमला दिदया ।

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ना गुर मिमल्या न क्तिसष र्भया, लालच खेल्या )ाव ।दुन्यंू बूडे़ धार मैं, चदि\ पाथर की नाव ॥6॥र्भावाथ9 - लालच का दाँव दोनों पर चल गया , न तो सच्चा गुरु मिमला और न क्तिशष्य �ी जिजज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर च\कर दोनों �ी मझधार में )ूब गये ।पीछैं  लागा जाइ था, लोक बेद के साक्तिथ ।आगैं थैं सतगुर मिमल्या, दीपक दीया �ाक्तिथ ॥7॥र्भावाथ9 - मैं र्भी औरों की �ी तर� र्भटक र�ा था, लोक-वेद की गक्तिलयों में । माग9 में गुरु मिमल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिदया मेरे �ाथ में । इस उजेले में र्भटकना अब कैसा ?`कबीर' सतगुर ना मिमल्या, र�ी अधूरी सीष । स्वांग जती का प�रिर करिर, घरिर घरिर माँगे र्भीष ॥8॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -उनकी सीख अधूरी �ी र� गयी हिक जिजन्�ें सद्गरुु न�ीं मिमला । सन्यासी का स्वांग रचकर, र्भेष बनाकर घर-घर र्भीख �ी माँगते हिफरते �ैं वे । सतगुरु �म संू रीजिझ करिर, एक कह्या परसंग ।बरस्या बादल प्रेम का, र्भींजिज गया सब अंग ॥9॥र्भावाथ9 - एक दिदन सद्गरुु �म पर ऐसे रीझे हिक एक प्रसंग क� )ाला,रस से र्भरा हुआ । और, प्रेम का बादल बरस उठा, अंग-अंग र्भीग गया उस वषा9 में ।य� तन हिवष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।सीस दिदये जो गुर मिमलै, तो र्भी सस्ता जान ॥10॥र्भावाथ9 - य� शरीर तो हिबष की लता �ै, हिबषफल �ी फलेंगे इसमें । और, गुरु तो अमृत की खान �ै । क्तिसर च\ा देने पर र्भी सद्गरुु से र्भेंट �ो जाय, तो र्भी य� सौदा सस्ता �ी �ै । घूँघट के पट / कबीरघँूघट का पट खोल रे, तोको पीव मिमलेंगे। घट-घट मे व� सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥ धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे। सुन्न म�ल मे दिदयना बारिरले, आसन सों मत )ोल रे।। जागू जुगुत सों रंगम�ल में, हिपय पायो अनमोल रे। क� कबीर आनंद र्भयो �ै, बाजत अन�द ढोल रे॥ चांणक का अंग / कबीरइहि� उदर कै कारणे, जग जाच्यों हिनस जाम ।स्वामीं-पणो जो क्तिसरिर चढ्यो, सर् यो न एको काम ॥1॥ र्भावाथ9 - इस पेट के क्तिलए दिदन-रात साधु का र्भेष बनाकर व� माँगता हिफरा,और स्वामीपना उसके क्तिसर पर च\ गया । पर पूरा एक र्भी काम न हुआ - न तो साधु हुआ और न स्वामी �ी ।स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास ।रामनाम कांठै रह्या, करै क्तिसषां की आस ॥2॥र्भावाथ9 - स्वामी आज-कल मुफ्त में,या पैसे के पचास मिमल जाते �ैं, मतलब य� हिक क्तिसजिद्धयाँ और चमत्कार दिदखाने और फैलाने वाले स्वामी रामनाम को वे एक हिकनारे रख देते �ैं, और क्तिशष्यों से आशा करते �ैं लोर्भ में )ूबकर ।कक्तिल का स्वामी लोभिर्भया, पीतक्तिल धरी खटाइ ।राज-दुबारां यौ हिफरै, ज्यँू �रिर�ाई गाइ ॥3॥ र्भावाथ9 - कक्तिलयुग के स्वामी बडे़ लोर्भी �ो गये �ैं,और उनमें हिवकार आ गया �ै, जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से । राज-द्वारों पर ये लोग मान-सम्मान पाने के क्तिलए घूमते र�ते �ैं, जैसे खेतों में हिबगडै़ल गायें घुस जाती �ैं ।कक्तिल का स्वामी लोभिर्भया, मनसा धरी बधाइ ।दैंहि� पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ ॥4॥र्भावाथ9 - कक्तिलयुग का य� स्वामी कैसा लालची �ो गया �ै !लोर्भ ब\ता �ी जाता �ै इसका । ब्याज पर य� पैसा उधार देता �ै और लेखा-जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता �ै। `कबीर' कक्तिल खोटी र्भई, मुहिनयर मिमलै न कोइ ।लालच लोर्भी मसकरा, हितनकँू आदर �ोइ ॥5॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - बहुत बुरा हुआ इस कक्तिलयुग में, क�ीं र्भी आज सच्चे मुहिन न�ीं मिमलते । आदर �ो र�ा �ै आज लालक्तिचयों का, लोभिर्भयों का और मसखरों का ।ब्राह्मण गुरू जगत का, साधू का गुरू नाहि�ं ।उरजिझ-पुरजिझ करिर मरिर रह्या, चारिरउँ बेदां माहि�ं ॥6॥र्भावाथ9 - ब्राह्मण र्भले �ी सारे संसार का गुरू �ो, पर व� साधु का गुरु नहि�ं �ो सकता व� क्या गुरु �ोगा, जो चारों वेदों में उलझ-पुलझकर �ी मर र�ा �ै ।चतुराई सूवै प\ी, सोई पंजर माहि�ं ।हिफरिर प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहि�ं ॥7॥र्भावाथ9 - चतुराई तो रटते-रटते तोते को र्भी आ गई, हिफर र्भी व� हिपंजडे़ में कैद �ै । औरों को उपदेश देता �ै, पर खुद कुछ र्भी न�ीं समझ पाता ।तीरथ करिर करिर जग मुवा, )ूँघै पाणीं न्�ाइ ।रामहि� राम जपंत)ां, काल घसीट्यां जाइ ॥8॥र्भावाथ9 - हिकतने �ी ज्ञानाभिर्भमानी तीथ� में जा-जाकर और )ुबहिकयाँ लगा-लगाकर मर गये जीर्भ से रामनाम का कोरा जप करने वालों को काल घसीट कर ले गया ।`कबीर' इस संसार कौं, समझाऊँ कै बार ।पूँछ जो पकडै़ र्भेड़ की, उतर् या चा�ै पार ॥9॥

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र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं--हिकतनी बार समझाऊँ मैं इस बावली दुहिनया को ! र्भेड़ की पूँछ पकड़कर पार उतरना चा�ते �ैं ये लोग ![अंध-रूदि\यों में पड़कर धम9 का र�स्य समझना चा�ते �ैं ये लोग !] `कबीर' मन फूल्या हिफरैं, करता हँू मैं धं्रम ।कोदिट क्रम क्तिसरिर ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥10॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - फूला न�ीं समा र�ा �ै व� हिक `मैं धम9 करता हँू, धम9 पर चलता हँू, चेत न�ीं र�ा हिक अपने इस भ्रम को देख ले हिक धम9 क�ाँ �ै, जबहिक करोड़ों कम� का बोझ ढोये चला जा र�ा �ै ! सिचतावणी का अंग / कबीर`कबीर' नौबत आपणी, दिदन दस लेहु बजाइ ।ए पुर पाटन, ए गली, बहुरिर न देखै आइ ॥1॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं-- अपनी इस नौबत को दस दिदन और बजालो तुम । हिफर य� नगर, य� पट्टन और ये गक्तिलयाँ देखने को न�ीं मिमलेंगी ? क�ाँ मिमलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, हिबगड़ी बात को बना लेने का जिजनके नौबहित बाजती, मैंगल बंधते बारिर ।एकै �रिर के नाव हिबन, गए जनम सब �ारिर ॥2॥र्भावाथ9 - प�र-प�र पर नौबत बजा करती थी जिजनके द्वार पर, और मस्त �ाथी ज�ाँ बँधे हुए झूमते थे । वे अपने जीवन की बाजी �ार गये । इसक्तिलए हिक उन्�ोंने �रिर का नाम-स्मरण न�ीं हिकया। इक दिदन ऐसा �ोइगा, सब संू पडै़ हिबछो� ।राजा राणा छत्रपहित, सावधान हिकन �ोइ ॥3॥र्भावाथ9 - एक दिदन ऐसा आयगा �ी, जब सबसे हिबछुड़ जाना �ोगा । तब ये बडे़-बडे़ राजा और छत्र-धारी राणा क्यों सचेत न�ीं �ो जाते ? कर्भी-न-कर्भी अचानक आ जाने वाले उस दिदन को वे क्यों याद न�ीं कर र�े ?`कबीर' क�ा गरहिबयौ, काल ग�ै कर केस ।ना जाणै क�ाँ मारिरसी, कै घरिर कै परदेस ॥4॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -य� गव9 कैसा,जबहिक काल ने तुम्�ारी चोटी को पकड़ रखा �ै? कौन जाने व� तुम्�ें क�ाँ और कब मार देगा ! पता न�ीं हिक तुम्�ारे घर में �ी, या क�ीं परदेश में ।हिबन रखवाले बाहि�रा, क्तिचहिड़या खाया खेत ।आधा-परधा ऊबरे, चेहित सकै तो चेहित ॥5॥र्भावाथ9 - खेत एकदम खुला पड़ा �ै, रखवाला कोई र्भी न�ीं । क्तिचहिड़यों ने बहुत कुछ उसे चुग क्तिलया �ै । चेत सके तो अब र्भी चेत जा, जाग जा , जिजससे हिक आधा-परधा जो र्भी र� गया �ो, व� बच जाय ।क�ा हिकयौ �म आइ करिर, क�ा क�ैंगे जाइ ।इत के र्भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥6॥र्भावाथ9 - �मने य�ाँ आकर क्या हिकया ? और साईं के दरबार में जाकर क्या क�ेंगे ? न तो य�ाँ के हुए और न व�ाँ के �ी - दोनों �ी ठौर हिबगाड़ बैठे । मूल र्भी गवाँकर इस बाजार से अब �म हिबदा ले र�े �ैं ।`कबीर' केवल राम की, तू जिजहिन छाँडे़ ओट ।घण-अ�रहिन हिबक्तिच लौ� ज्यंू, घणी स�ै क्तिसर चोट ॥7॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं, चेतावनी देते हुए - राम की ओट को तू मत छोड़, केवल य�ी तो एक ओट �ै । इसे छोड़ दिदया तो तेरी व�ी गहित �ोगी, जो लो�े की �ोती �ै , �थौडे़ और हिन�ाई के बीच आकर तेरे क्तिसर पर चोट-पर-चोट पडे़गी । उन चोटों से य� ओट �ी तुझे बचा सकती �ै ।उजला कपड़ा प�रिर करिर, पान सुपारी खाहि�ं ।एकै �रिर के नाव हिबन, बाँधे जमपुरिर जाहि�ं ॥8॥र्भावाथ9 - बदि\या उजले कपडे़ उन्�ोंने प�न रखे �ैं, और पान-सुपारी खाकर मुँ� लाल कर क्तिलया �ै अपना । पर य� साज-लिसंगार अन्त में बचा न�ीं सकेगा, जबहिक यमदूत बाँधकर ले जायंगे । उस दिदन केवल �रिर का नाम �ी यम-बंधन से छुड़ा सकेगा ।नान्�ा कातौ क्तिचl दे, म�ँगे मोल हिबकाइ ।गा�क राजा राम �ै, और न नेड़ा आइ ॥9॥र्भावाथ9 - खूब क्तिचl लगाकर म�ीन-से-म�ीन सूत तू चरखे पर कात, व� बडे़ म�ँगे मोल हिबकेगा । लेहिकन उसका गा�क तो केवल राम �ै , कोई दूसरा उसका खरीदार पास फटकने का न�ीं ।मैं-मैं बड़ी बलाइ �ै, सकै तो हिनकसो र्भाजिज ।कब लग राखौ �े सखी, रूई लपेटी आहिग ॥10॥र्भावाथ9 - य� मैं -मैं बहुत बड़ी बला �ै । इससे हिनकलकर र्भाग सको तो र्भाग जाओ । अरी सखी, रुई में आग को लपेटकर तू कबतक रख सकेगी ? [राग की आग को चतुराई से ढककर र्भी क्तिछपाया और बुझाया न�ीं जा सकता ।] जणा9 का अंग / कबीरर्भारी क�ौं तो बहु )रौं, �लका कहूं तौ झूठ ।मैं का जाणौं राम कंू, नैनंू कबहूँ न दीठ ॥1॥र्भावाथ9 - अपने राम को मैं यदिद र्भारी क�ता हँू, तो )र लगता �ै, इसक्तिलए हिक हिकतना र्भारी �ै व� । और, उसे �लका क�ता हँू तो य� झूठ �ोगा । मैं क्या जानूँ उसे हिक व� कैसा �ै, इन आँखों से तो उसे कर्भी देखा न�ीं ।सचमुच व� अहिनव9चनीय �ै, वाणी की पहँुच न�ीं उस तक ।दीठा �ै तो कस कहूँ, कह्या न को पहितयाय ।�रिर जैसा �ै तैसा र�ो, तू �रहिष-�रहिष गुण गाइ ॥2॥र्भावाथ9 - उसे यदिद देखा र्भी �ै, तो वण9न कैसे करँू उसका ? वण9न करता हँू तो कौन हिवश्वास करेगा ? �रिर जैसा �ै, वैसा �ै । तू तो आनन्द में मग्न �ोकर उसके गुण गाता र� वण9न के ऊ�ापो� में मन को न पड़ने दे । पहँुचेंगे तब क�ैंगे ,उमड़ैंगे उस ठांइ ।अजहँू बेरा समंद मैं, बोक्तिल हिबगूचैं कांइ ॥3॥ 

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र्भावाथ9 - जब उस ठौर पर पहँुच जायंगे, तब देखेंगे हिक क्या क�ना �ै, अर्भी तो इतना �ी हिक व�ाँ आनन्द-�ी-आनन्द उमडे़गा, और उसमें य� मन खूब खेलेगा। जबहिक बेड़ा बीच समुद्र में �ै, तब व्यथ9 बोल-बोलकर क्यों हिकसी को दुहिवधा में )ाला जाय हिक - -उस पार �म पहँुच गये �ैं ! जीवन-मृतक का अंग / कबीर`कबीर मन मृतक र्भया, दुब9ल र्भया सरीर ।तब पैं)े लागा �रिर हिफरै, क�त कबीर ,कबीर ॥1॥ र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -मेरा मन जब मर गया और शरीर सूखकर कांटा �ो गया, तब, �रिर मेरे पीछे लगे हिफरने मेरा नाम पुकार-पुकारकर-`अय कबीर ! अय कबीर !'- उलटे व� मेरा जप करने लगे ।जीवन थैं मरिरबो र्भलौ, जो मरिर जानैं कोइ ।मरनैं प�ली जे मरै, तो कक्तिल अजरावर �ोइ ॥2॥र्भावाथ9 - इस जीने से तो मरना क�ीं अच्छा ; मगर मरने-मरने में अन्तर �ै । अगर कोई मरना जानता �ो, जीते-जीते �ी मर जाय । मरने से प�ले �ी जो मर गया, व� दूसरे �ी क्षण अजर और अमर �ो गया ।[जिजसने अपनी वासनाओं को मार दिदया, व� शरीर र�ते हुए र्भी मृतक अथा9त मु� �ै।] आपा मेट्या �रिर मिमलै, �रिर मेट्या सब जाइ ।अकथ क�ाणी प्रेम की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥र्भावाथ9 - अ�ंकार को मिमटा देने से �ी �रिर से र्भेंट �ोती �ै, और �रिर को मिमटा दिदया, र्भुला दिदया, तो �ाहिन-�ी-�ाहिन �ै ।प्रेम की क�ानी अकथनीय �ै । यदिद इसे क�ा जाय तो कौन हिवश्वास करेगा ?`कबीर' चेरा संत का, दासहिन का परदास ।कबीर ऐसैं �ोइ रह्या, ज्यंू पाऊँ तक्तिल घास ॥4॥

र्भावाथ9 - कबीर सन्तों का दास �ै, उनके दासों का र्भी दास �ै ।व� ऐसे र� र�ा �ै, जैसे पैरों के नीचे घास र�ती �ै ।रोड़ा है्व र�ो बाट का, तजिज पाषं) अभिर्भमान ।ऐसा जे जन है्व र�ै, ताहि� मिमलै र्भगवान ॥5॥र्भावाथ9 - पाख() और अभिर्भमान को छोड़कर तू रास्ते पर का कंकड़ बन जा । ऐसी र�नी से जो बन्दा र�ता �ै, उसे �ी मेरा माक्तिलक मिमलता �ै । झीनी झीनी बीनी चदरिरया / कबीरझीनी झीनी बीनी चदरिरया ॥का�े कै ताना का�े कै र्भरनी, कौन तार से बीनी चदरिरया ॥ १॥इ)ा हिपङ्गला ताना र्भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिरया ॥ २॥आठ कँवल दल चरखा )ोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिरया ॥ ३॥साँ को क्तिसयत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिरया ॥ ४॥सो चादर सुर नर मुहिन ओढी, ओदिढ कै मैली कीनी चदरिरया ॥ ५॥दास कबीर जतन करिर ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिरया ॥ ६॥तूने रात गँवायी �ोय के दिदव� गँवाया खाय के / कबीरतूने रात गँवायी सोय के दिदवस गँवाया खाय के ।�ीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥सुमिमरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे ।बा�र का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे ।माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे ।गया ना मन का फेर रे ।�ाथ का मनका छाँहिड़ दे मन का मनका फेर ॥दुख में सुमिमरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।जो सुख में सुमिमरन करे तो दुख का�े को �ोय रे ।सुख में सुमिमरन ना हिकया दुख में करता याद रे ।दुख में करता याद रे ।क�े कबीर उस दास की कौन सुने फ़रिरयाद ॥तेरा मेरा मनुवां / कबीरतेरा मेरा मनुवां कैसे एक �ोइ रे । 

मै क�ता �ौं आँखन देखी, तू क�ता कागद की लेखी । मै क�ता सुरझावन �ारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥ 

मै क�ता तू जागत रहि�यो, तू जाता �ै सोई रे । मै क�ता हिनरमो�ी रहि�यो, तू जाता �ै मोहि� रे ॥ 

जुगन-जुगन समझावत �ारा, क�ा न मानत कोई रे । 

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तू तो रंगी हिफरै हिब�ंगी, सब धन )ारा खोई रे ॥ 

सतगुरू धारा हिनम9ल बा�ै, बामे काया धोई रे । क�त कबीर सुनो र्भाई साधो, तब �ी वैसा �ोई रे ॥ दिदवाने मन, भजन पिबना दुख �ैहौ / कबीरदिदवाने मन, र्भजन हिबना दुख पै�ौ ॥ पहि�ला जनम र्भूत का पै �ौ, सात जनम पक्तिछता�ौउ ।काँटा पर का पानी पै�ौ, प्यासन �ी मरिर जै�ौ ॥ १॥दूजा जनम सुवा का पै�ौ, बाग बसेरा लै�ौ ।टूटे पंख मॅं)राने अधफ) प्रान गॅंवै�ौ ॥ २॥बाजीगर के बानर �ोइ �ौ, लकहि)न नाच नचै�ौ ।ऊॅं च नीच से �ाय पसरिर �ौ, माँगे र्भीख न पै�ौ ॥ ३॥तेली के घर बैला �ोइ�ौ, आीॅंखिखन ढाँहिप ढॅंपै�ौउ । कोस पचास घरै माँ चक्तिल�ौ, बा�र �ोन न पै�ौ ॥ ४॥पॅंचवा जनम ऊॅं ट का पै�ौ, हिबन तोलन बोझ लदै�ौ ।बैठे से तो उठन न पै�ौ, खुरच खुरच मरिर जै�ौ ॥ ५॥धोबी घर गद�ा �ोइ�ौ, कटी घास नहि�ं पैं�ौ ।लदी लादिद आपु चदिढ बैठे, लै घटे पहँुचैं�ौ ॥ ६॥पंक्तिछन माँ तो कौवा �ोइ�ौ, करर करर गु�रै�ौ ।उहि) के जय बैदिठ मैले थल, गहि�रे चोंच लगै�ौ ॥ ७॥सlनाम की �ेर न करिर�ौ, मन �ी मन पक्तिछतै�ौउ ।क�ै कबीर सुनो र्भै साधो, नरक नसेनी पै�ौ ॥ ८॥नीपित के दोहे / कबीरप्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न �ाट हिबकाय। राजा परजा जेहि� रूचै, सीस देइ ले जाय।। 

जब मैं था तब �रिर  न�ीं, अब �रिर  �ैं मैं नाहि�ं। प्रेम गली अहित सॉंकरी, तामें दो न समाहि�ं।। 

जिजन ढँूढा हितन पाइयॉं, ग�रे पानी पैठ। मैं बपुरा बू)न )रा, र�ा हिकनारे बैठ।। 

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिमक्तिलया कोय। जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।। 

सॉंच बराबर तप न�ीं, झूठ बराबर पाप। जाके हि�रदै सॉंच �ै, ताके हि�रदै आप।। 

बोली एक अनमोल �ै, जो कोई बोलै जाहिन। हि�ये तराजू तौल िी के, तब मुख बा�र आहिन।। 

अहित का र्भला न बोलना, अहित की र्भली न चूप। अहित का र्भला न बरसना, अहित की र्भली न धूप।। 

काल् � करै सो आज कर, आज करै सो अब् ब। पल में परलै �ोयगी, बहुरिर करैगो कब् ब। 

हिनंदक हिनयरे राखिखए, ऑंगन कुटी छवाय। हिबन पानी, साबुन हिबना, हिनम9ल करे सुर्भाय।। 

दोस पराए देख िी करिर, चला �संत �संत। अपने या न आवई, जिजनका आदिद न अंत।। 

जाहित न पूछो साधु की, पूछ लीजिजए ग् यान। मोल करो तलवार के, पड़ा र�न दो म् यान।। 

सोना, सज् जन, साधुजन, टूदिट जुरै सौ बार। दुज9न कंुर्भ-कुम् �ार के, एकै धका दरार।। 

पा�न पुजे तो �रिर मिमले, तो मैं पूजँू प�ाड़। 

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ताते या चाकी र्भली, पीस खाए संसार।। 

कॉंकर पाथर जोरिर कै, मण्डिस्जद लई बनाय। ता च\ मुल् ला बॉंग दे, बहि�रा हुआ खुदाए।। नैया पड़ी मंझधार गुरु हिबन कैसे लागे पार / कबीरनैया पड़ी मंझधार गुरु हिबन कैसे लागे पार ॥साहि�ब तुम मत र्भूक्तिलयो लाख लो र्भूलग जाये ।�म से तुमरे और �ैं तुम सा �मरा नाहि�ं ।अंतरयामी एक तुम आतम के आधार ।जो तुम छोड़ो �ाथ प्रर्भुजी कौन उतारे पार ॥गुरु हिबन कैसे लागे पार ॥मैं अपराधी जन्म को मन में र्भरा हिवकार ।तुम दाता दुख र्भंजन मेरी करो सम्�ार ।अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब हिनवाज़ ।जो मैं पूत कपूत हंू क�ौं हिपता की लाज ॥गुरु हिबन कैसे लागे पार ॥पहितव्रता का अंग / कबीरमेरा मुझमें कुछ न�ीं, जो कुछ �ै सो तोर ।तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै �ै मोर ॥1॥र्भावाथ9 - मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ र्भी न�ीं,जो कुछ र्भी �ै, व� सब तेरा �ी । तब, तेरी �ी वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता �ै, क्या आपभिl �ो सकती �ै मुझे ? `कबीर' रेख स्यंदूर की, काजल दिदया न जाइ ।नैनंू रमैया रमिम रह्या, दूजा क�ाँ समाइ ॥2॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, जबहिक उनमें क्तिसन्दूर की जैसी रेख उर्भर आयी �ै ?मेरा रमैया नैनों में रम गया �ै, उनमें अब हिकसी और को बसा लेने की ठौर न�ीं र�ी। [क्तिसन्दूर की रेख से आशय �ै हिवर�-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल �ो गयी �ैं।] `कबीर' एक न जा(यां, तो बहु जां(या क्या �ोइ ।एक तैं सब �ोत �ै, सब तैं एक न �ोइ ॥3॥

र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - यदिद उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ ! क्योंहिक एक का �ी तो य� सारा पसारा �ै, अनेक से एक थोडे़ �ी बना �ै ।

जबलग र्भगहित सकामता, तबलग हिनफ9 ल सेव ।क�ै `कबीर' वै क्यंू मिमलैं, हिन�कामी हिनज देव ॥4॥र्भावाथ9 -र्भक्ति� जबतक सकाम �ै, र्भगवान की सारी सेवा तबतक हिनष्फल �ी �ै । हिनष्कामी देव से सकामी साधक की र्भेंट कैसे �ो सकती �ै ?`कबीर' कक्तिलजुग आइ करिर, कीये बहुत जो मीत ।जिजन दिदलबाँध्या एक संू, ते सुखु सोवै हिनचींत ॥5॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - कक्तिलयुग में आकर �मने बहुतों को मिमत्र बना क्तिलया, क्योंहिक (नकली) मिमत्रों की कोई कमी न�ीं । पर जिजन्�ोंने अपने दिदल को एक से �ी बाँध क्तिलया, वे �ी हिनभिश्चन्त सुख की नींद सो सकते �ैं ।`कबीर' कूता राम का, मुहितया मेरा नाउं ।गले राम की जेवड़ी, जिजत कैं चे हितत जाउं ॥6॥ र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं--मैं तो राम का कुlा हँू, और नाम मेरा मुहितया (मोती) �ै गले में राम की जंजीर पड़ी हुई �ै; उधर �ी चला जाता हँू जिजधर व� ले जाता �ै। [प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-�ी-मौज �ै ।]पहितबरता मैली र्भली, काली, कुक्तिचल, कुरूप । पहितबरता के रूप पर, बारौं कोदिट स्वरूप ॥7॥र्भावाथ9 - पहितव्रता मैली �ी अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी प�ने हुए और कुरूप । तो र्भी उसके रूप पर मैं करोंड़ों सुन्दरिरयों को न्यौछावर कर देता हँू ।पहितबरता मैली र्भली, गले काँच को पोत ।सब सखिखयन में यों दिदपै , ज्यों रहिव सक्तिस की जोत ॥8॥र्भावाथ9 - पहितव्रता मैली �ी अच्छी, जिजसने सु�ाग के नाम पर काँच के कुछ गुरिरये प�न रखे �ैं । हिफर र्भी अपनी सखी-स�ेक्तिलयों के बीच व� ऐसी दिदप र�ी �ै, जैसे आकाश में सूय9 और चन्द्र की ज्योहित जगमगा र�ी �ो । बहुरिर नहिहं आवना या दे� / कबीरबहुरिर नहि�ं आवना या देस ॥जो जो गए बहुरिर नहि� आए, पठवत नाहि�ं सॅंस ॥ १॥सुर नर मुहिन अरु पीर औक्तिलया, देवी देव गनेस ॥ २॥धरिर धरिर जनम सबै र्भरमे �ैं ब्रह्मा हिवष्णु म�ेस ॥ ३॥जोगी जङ्गम औ संन्यासी, दीगंबर दरवेस ॥ ४॥चंुहि)त, मुंहि)त पंहि)त लोई, सरग रसातल सेस ॥ ५॥ज्ञानी, गुनी, चतुर अरु कहिवता, राजा रंक नरेस ॥ ६॥कोइ राम कोइ रहि�म बखानै, कोइ क�ै आदेस ॥ ७॥नाना र्भेष बनाय सबै मिमक्तिल ढूऊंदिढ हिफरें चहँु देस ॥ ८॥क�ै कबीर अंत ना पै�ो, हिबन सतगुरु उपदेश ॥ ९॥

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बीत गये दिदन भजन पिबना रे / कबीरबीत गये दिदन र्भजन हिबना रे । र्भजन हिबना रे, र्भजन हिबना रे ॥बाल अवस्था खेल गवांयो ।जब यौवन तब मान घना रे ॥ला�े कारण मूल गवाँयो ।अजहंु न गयी मन की तृष्णा रे ॥क�त कबीर सुनो र्भई साधो ।पार उतर गये संत जना रे ॥बे�ा� का अंग / कबीररचन�ार कंू चीखिन्� लै, खैबे कंू क�ा रोइ ।दिदल मंदिदर मैं पैक्तिस करिर, ताभिण पछेवड़ा सोइ ॥1॥र्भावाथ9 - क्या रोता हिफरता �ै खाने के क्तिलए ? अपने सरजन�ार को प�चान ले न ! दिदल के मंदिदर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेहिफक्र सो जा ।र्भूखा र्भूखा क्या करैं, क�ा सुनावै लोग ।र्भां)ा घहिड़ जिजहिन मुख दिदया, सोई पूरण जोग ॥2॥र्भावाथ9 -अरे,द्वार-द्वार पर क्या क्तिचल्लाता हिफरता �ै हिक`मैं र्भूखा हँू,मैं र्भूखा हँू?र्भां)ा ग\कर जिजसने उसका मुँ� बनाया, व�ी उसे र्भरेगा, रीता न�ीं रखेगा ।`कबीर' का तू लिचंतवै, का तेरा च्यंत्या �ोइ ।अणच्यंत्या �रिरजी करैं, जो तोहि� च्यंत न �ोइ ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - क्यों व्यथ9 लिचंता कर र�ा �ै? लिचंता करने से क्या �ोगा? जिजस बात को तूने कर्भी सोचा न�ीं, जिजसकी लिचंता न�ीं की, उस अ-लिचंहितत को र्भी तेरा साईं पूरा कर देगा ।संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ ।साईं सँू सनमुख र�ै, ज�ाँ मांगै त�ां देइ ॥4॥र्भावाथ9 - संचय करके संत कर्भी गठरी न�ीं बाँधता । उतना �ी लेता �ै, जिजतने की दरकार पेट को �ो । साईं ! तू तो सामने खड़ा �ै, जो र्भी ज�ाँ माँगूँगा, व� तू व�ीं दे देगा । 

माहिन म�ातम प्रेम-रस, गरवातण गुण ने� ।ए सब�ीं अ�ला गया, जब�ीं कह्या कुछ दे� ॥5॥र्भावाथ9 - जब र्भी हिकसी ने हिकसी से क�ा हिक `कुछ दे दो, ' समझलो हिक तब न तो उसका सम्मान र�ा, न बड़ाई, न प्रेम-रस , और न गौरव, और न कोई गुण और न स्ने� �ी ।मांगण मरण समान �ै, हिबरला बंचै कोई ।क�ै `कबीर' रघुनाथ संू, महित रे मंगावै मोहि� ॥6॥र्भावाथ9- कबीर रघुनाथजी से प्राथ9ना करता �ै हिक,मुझे हिकसीसे कर्भी कुछ माँगना न पडे़ क्योंहिक माँगना मरण के समान �ै, हिबरला �ी कोई इससे बचा �ै ।`कबीर सब जग �ंहि)या, मांदल कंमिध च\ाइ ।�रिर हिबन अपना कोउ न�ीं, देखे ठोहिक बजाइ ॥7॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - सारे संसार में एक मजिन्दर से दूसरे मजिन्दर का चक्कर मैं काटता हिफरा , बहुत र्भटका कंधे पर कांवड़ रखकर पूजा की सामग्री के साथ । सारे देवी देवताओं को देख क्तिलया, ठोकबजाकर परख क्तिलया, पर �रिर को छोड़कर ऐसा कोई न�ीं मिमला, जिजसे मैं अपना क� सकंू । र्भजो रे रै्भया राम गोहिवंद �री / कबीरर्भजो रे र्भैया राम गोहिवंद �री ।राम गोहिवंद �री र्भजो रे र्भैया राम गोहिवंद �री ॥जप तप साधन नहि�ं कछु लागत, खरचत नहि�ं गठरी ॥संतत संपत सुख के कारन, जासे र्भूल परी ॥क�त कबीर राम न�ीं जा मुख, ता मुख धूल र्भरी ॥भेष का अंग / कबीरमाला पहि�रे मनमुषी, ताथैं कछू न �ोई ।मन माला कौं फेरता, जग उजिजयारा सोइ ॥1॥र्भावाथ9 -- लोगों ने य� `मनमुखी' माला धारण कर रखी �ै, न�ीं समझते हिक इससे कोई लार्भ �ोने का न�ीं । माला मन �ी की क्यों न�ीं फेरते ये लोग ? `इधर' से �टाकर मन को `उधर' मोड़ दें, जिजससे सारा जगत जगमगा उठे । [ आत्मा का प्रकाश फैल जाय और र्भर जाय सव9त्र ।]`कबीर' माला मन की, और संसारी र्भेष ।माला प�र् यां �रिर मिमलै, तौ अर�ट कै गक्तिल देखिख ॥2॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - सच्ची माला तो अचंचल मन की �ी �ै, बाकी तो संसारी र्भेष �ै मालाधारिरयों का । यदिद माला प�नने से �ी �रिर से मिमलन �ोता �ो, तो र�ट को देखो, �रिर से क्या उसकी र्भेंट �ो गई, इतनी बड़ी माला गले में )ाल लेने से ?

माला प�र् यां कुछ न�ीं, र्भगहित न आई �ाथ ।माथौ मूँछ मुँ)ाइ करिर, चल्या जगत के साथ ॥3॥र्भावाथ9 - यदिद र्भक्ति� तेरे �ाथ न लगी, तो माला प�नने से क्या �ोना-जाना ? केवल क्तिसर मुँड़ा क्तिलया और मूँछें  मुँड़ा लीं - बाकी व्यव�ार तो दुहिनयादारों के जैसा �ी �ै तेरा ।साईं सेती सांच चक्तिल, औरां संू सुध र्भाइ ।र्भावै लम्बे केस करिर, र्भावै घुरहिड़ मुं)ाइ ॥4॥

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र्भावाथ9 -स्वामी के प्रहित तुम सदा सच्चे र�ो,और दूसरों के साथ स�ज-सीधे र्भाव से बरतो हिफर चा�े तुम लम्बे बाल रखो या क्तिसर को पूरा मुँड़ा लो । [व� माक्तिलक र्भेष को न�ीं देखता, व� तो सच्चों का गा�क �ै ।] केसों क�ा हिबगाहिड़या, जो मुँ)ै सौ बार ।मन को का�े न मूंहि)ये, जामैं हिबषय-हिबकार ॥5॥र्भावाथ9 -बेचारे इन बालों ने क्या हिबगाड़ा तुम्�ारा,जो सैकड़ों बार मूँड़ते र�ते �ो अपने मन को मूँड़ो न, उसे साफ करलो न ,जिजसमें हिवषयों के हिवकार-�ी-हिवकार र्भरे पडे़ �ैं । स्वांग प�रिर सोर�ा र्भया, खाया पीया खूंदिद ।जिजहि� सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्�ी मूंदिद ॥6॥र्भावाथ9 - वा�! खूब बनाया य� साधु का स्वांग ! अन्दर तुम्�ारे लोर्भ र्भरा हुआ �ै और खाते पीते �ो ठंूस-ठंूस कर , जिजस गली में से साधु गुजरता �ै, उसे तुमने बन्द कर रखा �ै । बैसनों र्भया तौ क्या र्भया, बूझा न�ीं बबेक ।छापा हितलक बनाइ करिर, दगध्या लोक अनेक ॥7॥र्भावाथ9 -इस तर� वैष्णव बन जाने से क्या �ोता �ै, जब हिक हिववेक को तुमने समझा न�ीं ! छापे और हितलक लगाकर तुम स्वयं हिवषय की आग में जलते र�े, और दूसरों को र्भी जलाया।तन कों जोगी सब करै, मन कों हिबरला कोइ ।सब क्तिसमिध स�जै पाइये, जे मन जोगी �ोइ ॥8॥र्भावाथ9 - तन के योगी तो सर्भी बन जाते �ैं, ऊपरी र्भेषधारी योगी । मगर मन को योग के रंग में रँगनेवाला हिबरला �ी कोई �ोता �ै । य� मन अगर योगी बन जाय, तो स�ज �ी सारी क्तिसजिद्धयाँ सुलर्भ �ो जायंगी । पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार ।अलष हिबसार् यो र्भेष मैं, बूडे़ काली धार ॥9॥र्भावाथ9 - हिकसी-न-हिकसी पक्ष को लेकर, वाद में पड़कर और कुल की परम्पराओं को अपनाकर य� दुहिनया )ूब गई �ै । र्भेष ने `अलख' को र्भुला दिदया । तब काली धार में तो )ूबना �ी था ।चतुराई �रिर ना मिमलै, ए बातां की बात ।एक हिनसप्रे�ी हिनरधार का, गा�क गोपीनाथ ॥10॥र्भावाथ9 - हिकतनी �ी चतुराई करो, उसके स�ारे �रिर मिमलने का न�ीं, चतुराई तो सारी - बातों-�ी-बातों की �ै । गोपीनाथ तो एक उसीका गा�क �ै, उसीको अपनाता �ै । जो हिनस्पृ� और हिनराधार �ोता �ै। [दुहिनया की इच्छाओं में फँसे हुए और ज�ाँ-त�ाँ अपना आश्रय खोजनेवाले को दूसरा कौन खरीद सकता �ै, कौन उसे अंगीकार कर सकता �ै ?] भ्रम-पिबधों�वा का अंग / कबीरजेती देखौं आत्मा, तेता साक्तिलगराम ।साधू प्रतहिष देव �ैं, न�ीं पाथर संू काम ॥1॥र्भावाथ9 - जिजतनी �ी आत्माओं को देखता हँू, उतने �ी शाक्तिलग्राम दीख र�े �ैं । प्रत्यक्ष देव तो मेरे क्तिलए सच्चा साधु �ै ।पाषाण की मूर्वितं पूजने से क्या बनेगा मेरा ?जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास ।सूवै सैंबल सेहिवया, यौं जग चल्या हिनरास ॥2॥र्भावाथ9 - कोरा जप और तप मुझे थोथा �ी दिदखायी देता �ै, और इसी तर� तीथ� और व्रतों पर हिवश्वास करना र्भी । सुवे ने भ्रम में पड़कर सेमर के फूल को देखा, पर उसमें रस न पाकर हिनराश �ो गया वैसी �ी गहित इस मिमथ्या-हिवश्वासी संसार की �ै ।तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ ।`कबीर' मूल हिनकंदिदया, कौंण �ला�ल खाइ ॥3॥र्भावाथ9 - तीथ9 तो य� ऐसी अमरबेल �ै, जो जगत रूपी वृक्ष पर बुरी तर� छा गई �ै । कबीर ने इसकी जड़ �ी काट दी �ै, य� देखकर हिक कौन हिवष का पान करे ! मन मथुरा दिदल द्वारिरका, काया कासी जाभिण ।दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोहित हिपछाभिण ॥4॥र्भावाथ9 - मेरा मन �ी मेरी मथुरा �ै, और दिदल �ी मेरी द्वारिरका �ै, और य� काया मेरी काशी �ै । दसवाँ द्वार व� देवालय �ै, ज�ाँ आत्म-ज्योहित को प�चाना जाता �ै । [ दसवें द्वार से तात्पय9 �ै, योग के अनुसार ब्रह्मरन्ध्र से ।]`कबीर' दुहिनया देहुरै, सीस नवांवण जाइ ।हि�रदा र्भीतर �रिर बसै, तू ता�ी सौं ल्यौ लाइ ॥5॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं --य� नादान दुहिनया, र्भला देखो तो, मजिन्दरों में माथा टेकने जाती �ै । य� न�ीं जानती हिक �रिर का वास तो हृदय में �ै , तब व�ीं पर क्यों न लौ लगायी जाय ? ममिध का अंग / कबीर`कबीर'दुहिबधा दूरिर करिर,एक अंग है्व लाहिग । यहु सीतल बहु तपहित �ै, दोऊ कहि�ये आहिग ॥1॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -- इस दुहिवधा को तू दूर कर दे - कर्भी इधर की बात करता �ै, कर्भी उधर की । एक �ी का �ो जा । य� अत्यन्त शीतल �ै और व� अत्यंत तप्त - आग दोनों �ी �ैं । [ दोनों �ी `अहित' को छोड़कर मध्य का माग9 तू पकड़ ले ।]दुखिखया मूवा दुख कौं, सुखिखया सुख कौं झुरिर ।सदा अनंदी राम के, जिजहिन सुख दुख मेल्�े दूरिर ॥2॥र्भावाथ9 - दुखिखया र्भी मर र�ा �ै, और सुखिखया र्भी एक तो अहित अमिधक दुःख के कारण, और दूसरा अहित अमिधक सुख से । हिकन्तु राम के जन सदा �ी आनंद में र�ते �ैं , क्योंहिक उन्�ोंने सुख और दुःख दोनों को दूर कर दिदया �ै ।काबा हिफर कासी र्भया, राम र्भया रे र�ीम ।मोट चून मैदा र्भया ,बैदिठ कबीरा जीम ॥3॥ मन का अंग / कबीर

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`कबीर' मारँू मन कंू, टूक-टूक है्व जाइ ।हिबष की क्यारी बोइ करिर, लुणत क�ा पक्तिछताइ ॥1॥र्भावाथ9 - इस मन को मैं ऐसा मारँूगा हिक व� टूक-टूक �ो जाय । मन की �ी करतूत �ै य�, जो जीवन की क्यारी में हिवष के बीज मैंने बो दिदये , उन फलों को तब लेना �ी �ोगा, चा�े हिकतना �ी पछताया जाय ।आसा का ईंधण करँू, मनसा करँू हिबरू्भहित ।जोगी फेरिर हिफल करँू, यौं हिबनना वो सूहित ॥2॥र्भावाथ9 - आशा को जला देता हँू ईंधन की तर�, और उस राख को तन पर रमाकर जोगी बन जाता हँू । हिफर ज�ाँ-ज�ाँ फेरी लगाता हिफरँूगा, जो सूत इक्ट्ठा कर क्तिलया �ै उसे इसी तर� बुनूँगा । [मतलब य� हिक आशाए ँसारी जलाकर खाक कर दँूगा और हिनस्पृ� �ोकर जीवन का क्रम इसी ताने-बाने पर चलाऊँगा ।]पाणी �ी तै पातला, धुवां �ी तै झीण ।पवनां बेहिग उतावला, सो दोसत `कबीर' कीन्� ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं हिक ऐसे के साथ दोस्ती करली �ै मैंने जो पानी से र्भी पतला �ै और धुए ंसे र्भी ज्यादा झीना �ै । पर वेग और चंचलता उसकी पवन से र्भी क�ीं अमिधक �ै । [पूरी तर� काबू में हिकया हुआ मन �ी ऐसा दोस्त �ै ।]`कबीर' तुरी पलाभिणयां, चाबक लीया �ाक्तिथ ।दिदवस थकां सांई मिमलौं, पीछै पहिड़�ै राहित ॥4॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -ऐसे घोडे़ पर जीन कस ली �ै मैंने, और �ाथ में ले क्तिलया �ै चाबुक, हिक सांझ पड़ने से प�ले �ी अपने स्वामी से जा मिमलूँ । बाद में तो रात �ो जायगी , और मंजिजल तक न�ीं पहँुच सकँूगा ।मैमन्ता मन मारिर रे, घट �ी मा�ैं घेरिर ।जबहि�ं चालै पीदिठ दे, अंकुस दै-दै फेरिर ॥5॥र्भावाथ9 - मद-मl �ाथी को, जो हिक मन �ै, घर में �ी घेरकर कुचल दो ।अगर य� पीछे को पैर उठाये, तो अंकुश दे-देकर इसे मोड़ लो ।कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । क�ै कबीर कैसे हितरँू, पंच कुसंगी संग ॥6॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं --नाव य� कागज की �ै, और गंगा में पानी-�ी-पानी र्भरा �ै । हिफर साथ पाँच कुसंहिगयों का �ै, कैसे पार जा सकँूगा ? [ पाँच कुसंहिगयों से तात्पय9 �ै पाँच चंचल इजिन्द्रयों से ।]मन� मनोरथ छाँहिड़ दे, तेरा हिकया न �ोइ ।पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥7॥र्भावाथ9 - अरे मन ! अपने मनोरथों को तू छोड़ दे, तेरा हिकया कुछ �ोने-जाने का न�ीं । यदिद पानी में से �ी घी हिनकलने लगे, तो कौन रूखी रोटी खायगा ? [मतलब य� हिक मन तो पानी की तर� �ै, और घी से तात्पय9 �ै आत्म-दश9न ।] मन मस्त हुआ तब क्यों बोल ै/ कबीरमन मस्त हुआ तब क्यों बोलै।�ीरा पायो गाँठ गँदिठयायो, बार-बार वाको क्यों खोलै।�लकी थी तब चढी तराजू, पूरी र्भई तब क्यों तोलै।सुरत कलाली र्भई मतवाली, मधवा पी गई हिबन तोले।�ंसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों )ोलै।तेरा सा�ब �ै घर माँ�ीं बा�र नैना क्यों खोलै।क�ै 'कबीर सुनो र्भई साधो, सा�ब मिमल गए हितल ओलै॥ मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में / कबीरमन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥जो सुख पाऊँ राम र्भजन में सो सुख नाहि�ं अमीरी में मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥र्भला बुरा सब का सुनलीजैकर गुजरान गरीबी मेंमन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥आखिखर य� तन छार मिमलेगाक�ाँ हिफरत मग़रूरी मेंमन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥प्रेम नगर में र�नी �मारीसाहि�ब मिमले सबूरी मेंमन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥क�त कबीर सुनो र्भयी साधोसाहि�ब मिमले सबूरी मेंमन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥माया का अंग / कबीर`कबीर' माया पापणी, फंध ले बैठी �ादिट ।सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा कादिट ॥1॥र्भावाथ9 - य� पाहिपन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी �ै । बहुत सारों पर फंन्दा )ाल दिदया �ै इसने ।पर कबीर उसे काटकर साफ बा�र हिनकल आया �रिर र्भ� पर फंन्दा )ालनेवाली माया खुद �ी फँस जाती �ै, और व� स�ज �ी उसे काट कर हिनकल आता �ै ।] `कबीर' माया मो�नी, जैसी मीठी खां) ।सतगुरु की कृपा र्भई, न�ीं तौ करती र्भां) ॥2॥

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र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -य� मोहि�नी माया शक्कर-सी स्वाद में मीठी लगती �ै, मुझ पर र्भी य� मोहि�नी )ाल देती पर न )ाल सकी । सतगुरु की कृपा ने बचा क्तिलया, न�ीं तो य� मुझे र्भांड़ बना-कर छोड़ती । ज�ाँ-त�ाँ चा�े जिजसकी चाटुकारी मैं करता हिफरता ।माया मुई न मन मुवा, मरिर-मरिर गया सरीर ।आसा हित्रष्णां ना मुई, यों कहि� गया `कबीर' ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं --न तो य� माया मरी और न मन �ी मरा, शरीर �ी बार-बार हिगरते चले गये ।मैं �ाथ उठाकर क�ता हँू । न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा का �ी ।`कबीर' सो धन संक्तिचये, जो आगैं कंू �ोइ ।सीस च\ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥4॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं,--उसी धन का संचय करो न, जो आगे काम दे । तुम्�ारे इस धन में क्या रखा �ै ? गठरी क्तिसर पर रखकर हिकसी को र्भी आजतक ले जाते न�ीं देखा ।हित्रसणा सींची ना बुझै, दिदन दिदन बधती जाइ ।जवासा के रूष ज्यंू, घण मे�ां कुमिमलाइ ॥5॥

र्भावाथ9 - कैसी आग �ै य� तृष्णा की !ज्यौं-ज्यौं इसपर पानी )ालो, ब\ती �ी जाती �ै । जवासे का पौधा र्भारी वषा9 �ोने पर र्भी कुम्�ला तो जाता �ै, पर मरता न�ीं, हिफर �रा �ो जाता �ै ।कबीर जग की को क�ै, र्भौजक्तिल, बुडै़ दास ।पारब्रह्म पहित छाँहिड़ करिर, करैं माहिन की आस ॥6॥ र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं-- दुहिनया के लोगों की बात कौन क�े, र्भगवान के र्भ� र्भी र्भवसागर में )ूब जाते �ैं । इसीक्तिलए परब्रह्म स्वामी को छोड़कर वे दूसरों से मान-सम्मान पाने की आशा करते �ैं। माया तजी तौ क्या र्भया, माहिन तजी न�ीं जाइ । माहिन बडे़ मुहिनयर हिगले, माहिन सबहिन को खाइ ॥7॥र्भावाथ9 - क्या हुआ जो माया को छोड़ दिदया, मान-प्रहितष्ठा तो छोड़ी न�ीं जा र�ी । बडे़-बडे़ मुहिनयों को र्भी य� मान-सम्मान स�ज �ी हिनगल गया । य� सबको चबा जाता �ै, कोई इससे बचा न�ीं ।`कबीर' इस संसार का, झूठा माया मो� ।जिजहि� घरिर जिजता बधावणा, हितहि�ं घरिर हितता अंदो� ॥8॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -- झूठा �ै संसार का सारा माया और मो� । सनातन हिनयम य� �ै हिक - जिजस घर में जिजतनी �ी बधाइयाँ बजती �ैं, उतनी �ी हिवपदाए ँव�ाँ आती �ैं । बुगली नीर हिबटाक्तिलया, सायर चढ् या कलंक ।और पखेरू पी गये , �ंस न बोवे चंच ॥9॥र्भावाथ9 - बगुली ने चोंच )ुबोकर सागर का पानी जूठा कर )ाला ! सागर सारा �ी कलंहिकत �ो गया उससे ।और दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गये, पर �ंस �ी ऐसा था, जिजसने अपनी चोंच उसमें न�ीं )ुबोई ।`कबीर' माया जिजहिन मिमले, सौ बरिरयाँ दे बाँ� ।नारद से मुहिनयर मिमले, हिकसो र्भरोसौ त्याँ� ॥10॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -अरे र्भाई, य� माया तुम्�ारे गले में बा�ें )ालकर र्भी सौ-सौ बार बुलाये, तो र्भी इससे मिमलना-जुलना अच्छा न�ीं । जबहिक नारद-सरीखे मुहिनवरों को य� समूचा �ी हिनगल गई, तब इसका हिवश्वास क्या ? माया म�ा ठगनी �म जानी / कबीरमाया म�ा ठगनी �म जानी।।

हितरगुन फांस क्तिलए कर )ोले

बोले मधुरे बानी।।

 

केसव के कमला वे बैठी

क्तिशव के र्भवन र्भवानी।।

पं)ा के मूरत वे बैठीं

तीरथ में र्भई पानी।।

 

योगी के योगन वे बैठी

राजा के घर रानी।।

काहू के �ीरा वे बैठी

काहू के कौड़ी कानी।।

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र्भगतन की र्भगहितन वे बैठी

बृह्मा के बृह्माणी।।

क�े कबीर सुनो र्भई साधो

य� सब अकथ क�ानी।। मेरी चुनरी में �रिरगयो दाग पि�या / कबीरमेरी चुनरी में परिरगयो दाग हिपया।

पांच तत की बनी चुनरिरया

सोर� सौ बैद लाग हिकया।

य� चुनरी मेरे मैके ते आयी

ससुर ेमें मनवा खोय दिदया।

मल मल धोये दाग न छूटे

ग्यान का साबुन लाये हिपया।

क�त कबीर दाग तब छुदिट �ै

जब सा�ब अपनाय क्तिलया। मोको क�ां / कबीरमोको क�ां ढूढें  तू बंदे मैं तो तेरे पास मे । 

ना मैं बकरी ना मैं र्भे)ी ना मैं छुरी गं)ास मे । न�ी खाल में न�ी पूंछ में ना �ड्डी ना मांस मे ॥ 

ना मै देवल ना मै मसजिजद ना काबे कैलाश मे । ना तो कोनी हिक्रया-कम9 मे न�ी जोग-बैराग मे ॥ 

खोजी �ोय तुरंतै मिमक्तिल�ौं पल र्भर की तलास मे मै तो र�ौं स�र के बा�र मेरी पुरी मवास मे 

क�ै कबीर सुनो र्भाई साधो सब सांसो की सांस मे ॥ मोको क�ां ढँूढे रे बन्दे / कबीरमोको क�ां ढँूढे रे बन्देमैं तो तेरे पास मेंना तीरथ मे ना मूरत मेंना एकान्त हिनवास मेंना मंदिदर में ना मण्डिस्जद मेंना काबे कैलास मेंमैं तो तेरे पास में बन्देमैं तो तेरे पास मेंना मैं जप में ना मैं तप मेंना मैं बरत उपास मेंना मैं हिकरिरया करम में र�तानहि�ं जोग सन्यास मेंनहि�ं प्राण में नहि�ं हिपं) मेंना ब्रह्या() आकाश मेंना मैं प्रकुहित प्रवार गुफा मेंनहि�ं स्वांसों की स्वांस मेंखोजिज �ोए तुरत मिमल जाउंइक पल की तालास में

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क�त कबीर सुनो र्भई साधोमैं तो हंू हिवश्वास में र� का अंग / कबीर`कबीर' र्भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।क्तिसर सौंपे सोई हिपवै, न�ीं तौ हिपया न जाई ॥1॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - कलाल की र्भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये �ैं, पर इस मदिदरा को एक व�ी पी सकेगा, जो अपना क्तिसर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, न�ीं तो पीना �ो न�ीं सकेगा । [कलाल �ै सद्गरुु, मदिदरा �ै प्रर्भु का प्रेम-रस और क्तिसर �ै अ�ंकार ।]`कबीर' �रिर-रस यौं हिपया, बाकी र�ी न थाहिक ।पाका कलस कंुर्भार का, बहुरिर न च\ई चाहिक ॥2॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - �रिर का प्रेम-रस ऐसा छककर पी क्तिलया हिक कोई और रस पीना बाकी न�ीं र�ा ।कुम्�ार का बनाया जो घड़ा पक गया, व� दोबारा उसके चाक पर न�ीं च\ता । [मतलब य� हिक क्तिसद्ध �ो जाने पर साधक पार कर जाता �ै जन्म और मरण के चक्र को।]�रिर-रस पीया जाभिणये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।मैंमंता घूमत र�ै, ना�ीं तन की सार ॥3॥र्भावाथ9 - �रिर का प्रेम-रस पी क्तिलया, इसकी य�ी प�चान �ै हिक व� नशा अब उतरने का न�ीं, च\ा सो च\ा । अपनापन खोकर मस्ती में ऐसे घूमना हिक शरीर का र्भी मान न र�े ।सबै रसाइण मैं हिकया, �रिर सा और न कोइ ।हितल इक घट मैं संचर,ै तौ सब तन कंचन �ोई ॥4॥र्भावाथ9 - सर्भी रसायनों का सेवन कर क्तिलया मैंने, मगर �रिर-रस-जैसी कोई और रसायन न�ीं पायी । एक हितल र्भी घट में, शरीर में, य� पहँुच जाय, तो व� सारा �ी कंचन में बदल जाता �ै । [मैल जल जाता �ै वासनाओं का, और जीवन अत्यंत हिनम9ल �ो जाता �ै ।] रहना नहिहं दे� पिबराना है / कबीरर�ना नहि�ं देस हिबराना �ै।य� संसार कागद की पुहि)या, बँूद प)े गक्तिल जाना �ै।य� संसार काँटे की बा)ी, उलझ पुलझ मरिर जाना �ै॥य� संसार झा) और झाँखर आग लगे बरिर जाना �ै।क�त 'कबीर सुनो र्भाई साधो, सतुगरु नाम दिठकाना �ै॥राम पिबनु तन को ता� न जाई / कबीरराम हिबनु तन को ताप न जाई ।जल में अगन र�ी अमिधकाई ॥राम हिबनु तन को ताप न जाई ॥तुम जलहिनमिध मैं जलकर मीना ।जल में र�हि� जलहि� हिबनु जीना ॥राम हिबनु तन को ताप न जाई ॥तुम हिपंजरा मैं सुवना तोरा ।दरसन देहु र्भाग बड़ मोरा ॥राम हिबनु तन को ताप न जाई ॥तुम सद्गरुु मैं प्रीतम चेला ।क�ै कबीर राम रमंू अकेला ॥राम हिबनु तन को ताप न जाई ॥रे दिदल गापि?ल ग?लत मत कर / कबीररे दिदल गाहिफल गफलत मत कर, एक दिदना जम आवेगा ॥सौदा करने या जग आया, पूँजी लाया, मूल गॅंवाया, प्रेमनगर का अन्त न पाया, ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या क्या कीता, क्तिसर पा�न का बोझा लीता, आगे कौन छु)ावेगा ॥ २॥परक्तिल पार तेरा मीता खहि)या, उस मिमलने का ध्यान न धरिरया, टूटी नाव उपर जा बैठा, गाहिफल गोता खावेगा ॥ ३॥दास कबीर क�ै समुझाई, अन्त समय तेरा कौन स�ाई, चला अकेला संग न कोई, कीया अपना पावेगा ॥ ४॥पिवरह का अंग / कबीर

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अंदेसड़ा न र्भाजिजसी, संदेसौ कहि�यां ।कै �रिर आयां र्भाजिजसी, कै �रिर �ी पास गयां ॥1॥र्भावाथ9 - संदेसा र्भेजते-र्भेजते मेरा अंदेशा जाने का न�ीं, अन्तर की कसक दूर �ोने की न�ीं, य� हिक हिप्रयतम मिमलेगा या न�ीं, और कब मिमलेगा; �ाँ य� अंदेशा दूर �ो सकता �ै दो तर� से - या तो �रिर स्वयं आजायं, या मैं हिकसी तर� �रिर के पास पहँुच जाऊँयहु तन जालों मक्तिस करों, क्तिलखों राम का नाउं ।लेखणिणं करंू करंक की, क्तिलखिख-क्तिलखिख राम पठाउं ॥2॥र्भावाथ9 - इस तन को जलाकर स्या�ी बना लँूगी, और जो कंकाल र� जायगा, उसकी लेखनी तैयार कर लँूगी । उससे प्रेम की पाती क्तिलख-क्तिलखकर अपने प्यारे राम को र्भेजती रहँूगी । ऐसे �ोंगे वे मेरे संदेसे ।हिबर�-र्भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ ।राम-हिबयोग ना जिजबै जिजवै तो बौरा �ोइ ॥3॥र्भावाथ9 - हिबर� का य� र्भुजंग अंतर में बस र�ा �ै, )सता �ी र�ता �ै सदा, कोई र्भी मंत्र काम न�ीं देता । राम का हिवयोगी जीहिवत न�ीं र�ता , और जीहिवत र� र्भी जाय तो व� बावला �ो जाता �ै ।सब रग तंत रबाब तन, हिबर� बजावै हिनl । और न कोई सुभिण सकै, कै साईं के क्तिचl ॥4॥र्भावाथ9 - शरीर य� रबाब सरोद बन गया �ै -एक-एक नस तांत �ो गयी �ै । और बजानेवाला कौन �ै इसका ? व�ी हिवर�, इसे या तो व� साईं सुनता �ै, या हिफर हिबर� में )ूबा हुआ; य� क्तिचl ।अंषहिड़यां झाईं पड़ीं, पंथ हिन�ारिर-हिन�ारिर ।जीर्भहिडं़याँ छाला पड़्या, राम पुकारिर-पुकारिर ॥5॥र्भावाथ9 - बाट जो�ते-जो�ते आंखों में झाईं पड़ गई �ैं, राम को पुकारते-पुकारते जीर्भ में छाले पड़ गये �ैं। [ पुकार य� आl9 न �ोकर हिवर� के कारण तप्त �ो गयी �ै..और इसीक्तिलए जीर्भ पर छाले पड़ गये �ैं ।] इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यंू जीव ।लो�ी सींची तेल ज्यंू, कब मुख देखौं पीव ॥6॥र्भावाथ9 - इस तन का दीया बना लंू, जिजसमें प्राणों की बlी �ो ! और,तेल की जग� हितल-हितल बलता र�े र� का एक-एक कण । हिकतना अच्छा हिक उस दीये में हिप्रयतम का मुखड़ा कर्भी दिदखायी दे जाय ।`कबीर' �ँसणां दूरिर करिर, करिर रोवण सौं क्तिचl ।हिबन रोयां क्यंू पाइए, प्रेम हिपयारा मिमl ॥7॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - व� प्यारा मिमत्र हिबन रोये कैसे हिकसीको मिमल सकता �ै ? [रोने-रोने में अन्तर �ै । दुहिनया को हिकसी चीज के क्तिलए रोना, जो न�ीं मिमलती या मिमलने पर खो जाती �ै, और राम के हिवर� का रोना, जो सुखदायक �ोता �ै।]जौ रोऊँ तौ बल घटै, �ँसौं तो राम रिरसाइ ।मन �ी माहि�ं हिबसूरणा, ज्यँू घँुण काठहि�ं खाइ ॥8॥र्भावाथ9 - अगर रोता हँू तो बल घट जाता �ै, हिवर� तब कैसे स�न �ोगा ? और �ँसता हंू तो मेरे राम रिरसा जायंगे । तो न रोते बनता �ै और न �ँसते। मन-�ी-मन हिबसूरना �ी अच्छा, जिजससे सबकुछ खौखला �ो जाय, जैसे काठ घुन लग जाने से ।�ांसी खेलौं �रिर मिमलै, कोण स�ै षरसान ।काम क्रोध हित्रष्णां तजै, तोहि� मिमलै र्भगवान ॥9॥र्भावाथ9 - �ँसी-खेल में �ी �रिर से मिमलन �ो जाय,तो कौन व्यथा की शान पर च\ना चा�ेगा र्भगवान तो तर्भी मिमलते �ैं, जबहिक काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिदया जाय ।पूत हिपयारौ हिपता कौं, गौं�हिन लागो धाइ ।लोर्भ-मिमठाई �ाक्तिथ दे, आपण गयो र्भुलाइ ॥10॥र्भावाथ9 - हिपता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया । �ाथ में लोर्भ की मिमठाई देदी हिपता ने । उस मिमठाई में �ी रम गया उसका मन । अपने-आपको व� र्भूल गया, हिपता का साथ छूट गया ।

परबहित परबहित मैं हिफर् या, नैन गँवाये रोइ ।सो बूटी पाऊँ न�ीं, जातैं जीवहिन �ोइ ॥11॥र्भावाथ9 - एक प�ाड़ से दूसर ेप�ाड़ पर मैं घूमता र�ा, र्भटकता हिफरा, रो-रोकर आँखे र्भी गवां दीं । व� संजीवन बूटी क�ीं न�ीं मिमल र�ी, जिजससे हिक जीवन य� जीवन बन जाय, व्यथ9ता बदल जाय साथ9कता में । सुखिखया सब संसार �ै, खावै और सौवे ।दुखिखया दास कबीर �ै, जागे अरु रौवे ॥12॥र्भावाथ9 - सारा �ी संसार सुखी दीख र�ा �ै, अपने आपमें मस्त �ै व�, खूब खाता �ै और खूब सोता �ै ।दुखिखया तो य� कबीरदास �ै, जो आठों प�र जागता �ै और रोता �ी र�ता �ै । [धन्य �ै ऐसा जागना, ओर ऐसा रोना !हिकस काम का,इसके आगे खूब खाना और खूब सोना!]

जा कारभिण में ढँू\ती, सनमुख मिमक्तिलया आइ ।धन मैली हिपव ऊजला, लाहिग न सकौं पाइ ॥13॥र्भावाथ9 - जीवात्मा क�ती �ै - जिजस कारण मैं उसे इतने दिदनों से ढँू\ र�ी थी, व� स�ज �ी मिमल गया, सामने �ी तो था । पर उसके पैरों को कैसे पकड़ू ? मैं तो मैली हँू, और मेरा हिप्रयतम हिकतना उजला ! सो, संकोच �ो र�ा �ै ।जब मैं था तब �रिर न�ीं , अब �रिर �ैं मैं नाहि�ं ।सब अंमिधयारा मिमदिट गया, जब दीपक देख्या माहि�ं ॥14॥र्भावाथ9 - जबतक य� मानता था हिक `मैं हंू', तबतक मेरे सामने �रिर न�ीं थे । और अब �रिर आ प्रगटे, तो मैं न�ीं र�ा । अँधेरा और उजेला एकसाथ, एक �ी समय, कैसे र� सकते �ैं ? हिफर व� दीपक तो अन्तर में �ी था ।

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देवल मा�ैं देहुरी, हितल जे �ै हिबसतार ।मा�ैं पाती माहि�ं जल, मा�ैं पूजण�ार ॥15॥र्भावाथ9 - मजिन्दर के अन्दर �ी दे�री �ै एक, हिवस्तार में हितल के माहिनन्द । व�ीं पर पlे और फूल च\ाने को रखे �ैं, और पूजनेवाला र्भी तो व�ीं पर �ैं । [अन्तरात्मा में �ी मंदिदर �ै, व�ीं पर देवता �ै, व�ीं पूजा की सामग्री �ै और पुजारी र्भी व�ीं मौजूद �ै ।] संगहित का अंग / कबीर�रिरजन सेती रूसणा, संसारी सँू �ेत ।ते नर कदे न नीपजैं, ज्यंू कालर का खेत ॥1॥र्भावाथ9 - �रिरजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना - ऐसों के अन्तर में र्भक्ति�-र्भावना कर्भी उपज न�ीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई र्भी बीज उगता न�ीं । मूरख संग न कीजिजए, लो�ा जक्तिल न हितराइ ।कदली-सीप-र्भूवंग मुख, एक बंूद हित�ँ र्भाइ ॥2॥र्भावाथ9 - मूख9 का साथ कर्भी न�ीं करना चाहि�ए, उससे कुछ र्भी फक्तिलत �ोने का न�ीं । लो�े की नाव पर च\कर कौन पार जा सकता �ै ? वषा9 की बँूद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी - परिरणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और हिवष बना ।माषी गुड़ मैं गहिड़ र�ी, पंख र�ी लपटाइ ।ताली पीटै क्तिसरिर धुनैं, मीठैं  बोई माइ ॥3॥र्भावाथ9 - मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से क्तिलपट गये ।मिमठाई के लालच में व� मर गई, �ाथ मलती और क्तिसर पीटती हुई।ऊँचे कुल क्या जनमिमयां, जे करनी ऊँच न �ोइ ।सोवरन कलस सुरै र्भर् या, साधू हिनंदा सोइ ॥4॥र्भावाथ9 - ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या �ोता �ै, यदिद करनी ऊँची न हुई ? साधुजन सोने के उस कलश की हिनन्दा �ी करते �ैं, जिजसमें हिक मदरा र्भरी �ो ।`कहिबरा' खाई कोट की, पानी हिपवै न कोइ ।जाइ मिमलै जब गंग से, तब गंगोदक �ोइ ॥5॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - हिकले को घेरे हुए खाई का पानी कोई न�ीं पीता, कौन हिपयेगा व� गंदला पानी ? पर जब व�ी पानी गंगा में जाकर मिमल जाता �ै, तब व� गंगोदक बन जाता �ै, परम पहिवत्र !`कबीर' तन पंषो र्भया, ज�ाँ मन त�ाँ उहिड़ जाइ ।जो जैसी संगहित करै, सो तैसे फल खाइ ॥6॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - य� तन मानो पक्षी �ो गया �ै, मन इसे चा�े ज�ाँ उड़ा ले जाता �ै । जिजसे जैसी र्भी संगहित मिमलती �ै- संग और कुसंग - व� वैसा �ी फल र्भोगता �ै । [ मतलब य� हिक मन �ी अच्छी और बुरी संगहित मे ले जाकर वैसे �ी फल देता �ै ।]काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार ।बक्तिल�ारी ता दास की, पैक्तिस र हिनकसण�ार ॥7॥र्भावाथ9 - य� दुहिनया तो काजल की कोठरी �ै, जो र्भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ काक्तिलख लग �ी जायगी । धन्य �ै उस प्रर्भु-र्भ� को, जो इसमें पैठकर हिबना काक्तिलख लगे साफ हिनकल आता �ै । �म्रथाई का अंग / कबीरजिजसहि� न कोई हितसहि� तू, जिजस तू हितस ब कोइ ।दरिरग� तेरी सांईयां , ना मरूम कोइ �ोइ ॥1॥र्भावाथ9 - जिजसका क�ीं र्भी कोई स�ारा न�ीं, उसका एक तू �ी स�ारा �ै । जिजसका तू �ो गया, उससे सर्भी नाता जोड़ लेते �ैं साईं ! तेरी दरगा� से, जो र्भी व�ाँ पहँुचा, व� म�रूम न�ीं हुआ , सर्भी को आश्रय मिमला ।सात समंद की मक्तिस करौं, लेखहिन सब बनराइ ।धरती सब कागद करौं, तऊ �रिर गुण क्तिलख्या न जाइ ॥2॥र्भावाथ9 - समंदरों की स्या�ी बना लंू और सारे �ी वृक्षों की लेखनी, और कागज का काम लँू सारी धरती से, तब र्भी �रिर के अनन्त गुणों को क्तिलखा न�ीं जा सकेगा ।अबरन कौं का बरहिनये, मोपै लख्या न जाइ ।अपना बाना वाहि�या, कहि� कहि� थाके माइ ॥3॥र्भावाथ9 - उसका क्या वण9न हिकया जाय, जो हिक वण9न से बा�र �ै ? मैं उसे कैसे देखूँ व� आँख �ी न�ीं देखने की । सबने अपना-अपना �ी बाना प�नाया उसे, और क�-क�कर थक गया उनका अन्तर ।झल बावैं झल दाहि�नैं, झलहि� माहि�ं व्यौ�ार । आगैं पीछैं  झलमई, राखैं क्तिसरजन �ार ॥4॥ र्भावाथ9 - झाल(ज्वाला) बाईं ओर जल र�ी �ै, और दाहि�नी ओर र्भी, लपटों ने घेर क्तिलया �ै दुहिनयाँ के सारे �ी व्यव�ार को । ज�ाँ तक नजर जाती �ै, जलती और उठती हुई लपटें �ी दिदखाई देती �ैं । इस ज्वाला में से एक मेरा क्तिसरजन�ार �ी हिनकालकर बचा सकता �ै ।सांई मेरा बाभिणयां, स�जिज करै ब्यौपार ।हिबन )ां)ी हिबन पालड़ैं, तोले सब संसार ॥5॥र्भावाथ9 - ऐसा बहिनया �ै मेरा स्वामी, जिजसका व्यापार स�ज �ी चल र�ा �ै । उसकी तराजू में न तो )ां)ी �ै और न पलडे़ हिफर र्भी व� सारे संसार को तौल र�ा �ै, सबको न्याय दे र�ा �ै ।साईं संू सब �ोत �ै, बंदै थैं कुछ नाहि�ं ।राईं थैं परबत कषै, परबत राई माहि�ं ॥6॥र्भावाथ9 - स्वामी �ी मेरा समथ9 �ै, व� सब कुछ कर सकता �ै उसके इस बन्दे से कुछ र्भी न�ीं �ोने का ।व� राई से पव9त कर देता �ै और उसके इशारे से पव9त र्भी राई में समा जाता �ै । �ांच का अंग / कबीरलेखा देणां सो�रा, जे दिदल सांचा �ोइ ।उस चंगे दीवान में, पला न पकडै़ कोइ ॥1॥

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र्भावाथ9 - दिदल तेरा अगर सच्चा �ै, तो लेना-देना सारा आसान �ो जायगा । उलझन तो झूठे हि�साब-हिकताब में आ पड़ती �ै, जब साईं के दरबार में पहँुचेगा, तो व�ाँ कोई तेरा पल्ला न�ीं पकडे़गा , क्योंहिक सब कुछ तेरा साफ-�ी-साफ �ोगा ।साँच कहूं तो मारिर�ैं, झूठे जग पहितयाइ ।य� जग काली कूकरी, जो छेडै़ तो खाय ॥2॥र्भावाथ9 - सच-सच क� देता हँू तो लोग मारने दौड़ेंगे, दुहिनया तो झूठ पर �ी हिवश्वास करती �ै । लगता �ै, दुहिनया जैसे काली कुहितया �ै, इसे छेड़ दिदया, तो य� काट खायेगी ।यहु सब झूठी बंदिदगी, बरिरयाँ पंच हिनवाज ।सांचै मारे झूठ पदि\, काजी करै अकाज ॥3॥र्भावाथ9 - काजी र्भाई ! तेरी पाँच बार की य� नमाज झूठी बन्दगी �ै, झूठी प\-प\कर तुम सत्य का गला घोंट र�े �ो , और इससे दुहिनया की और अपनी र्भी �ाहिन कर र�े �ो ।[क्यों न�ीं पाक दिदल से सच्ची बन्दगी करते �ो ?]सांच बराबर तप न�ीं, झूठ बराबर पाप ।जिजस हि�रदे में सांच �ै, ता हि�रदै �रिर आप ॥4॥र्भावाथ9 - सत्य की तुलना में दूसरा कोई तप न�ीं, और झूठ के बराबर दूसरा पाप न�ीं ।जिजसके हृदय में सत्य रम गया, व�ाँ �रिर का वास तो सदा र�ेगा �ी ।प्रेम-प्रीहित का चोलना, पहि�रिर कबीरा नाच ।तन-मन तापर वारहँू, जो कोइ बोलै सांच ॥5॥र्भावाथ9 - प्रेम और प्रीहित का ढीला-ढाला कुता9 प�नकर कबीर मस्ती में नाच र�ा �ै, और उसपर तन और मन की न्यौछावर कर र�ा �ै, जो दिदल से सदा सच �ी बोलता �ै।काजी मुल्लां भ्रंमिमयां, चल्या दुनीं कै साथ ।दिदल थैं दीन हिबसारिरया, करद लई जब �ाथ ॥6॥र्भावाथ9 - ये काजी और मुल्ले तर्भी दीन के रास्ते से र्भटक गये और दुहिनयादारों के साथ-साथ चलने लगे, जब हिक इन्�ोंने जिजब� करने के क्तिलए �ाथ में छुरी पकड़ ली दीन के नाम पर। साईं सेती चोरिरयां, चोरां सेती गुझ ।जाणैंगा रे जीवणा, मार पडै़गी तुझ ॥7॥र्भावाथ9 - वा� ! क्या क�ने �ैं, साईं से तो तू चोरी और दुराव करता �ै और दोस्ती कर ली �ै चोरों के साथ ! जब उस दरबार में तुझ पर मार पडे़गी, तर्भी तू असक्तिलयत को समझ सकेगा ।खूब खां) �ै खीचड़ी, माहि� पड्याँ टुक लूण ।पेड़ा रोटी खाइ करिर, गल कटावे कूण ॥8॥र्भावाथ9 - क्या �ी बदि\या स्वाद �ै मेरी इस खिखचड़ी का ! जरा-सा, बस, नमक )ाल क्तिलया �ै पेडे़ और चुपड़ी रोदिटयाँ खा-खाकर कौन अपना गला कटाये ? �ाध का अंग / कबीरहिनरबैरी हिन�कामता, साईं सेती ने� ।हिवहिषया संू न्यारा र�ै, संतहिन का अंग ए� ॥1॥र्भावाथ9 - कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये �ैं- हिकसी से र्भी बैर न�ीं, कोई कामना न�ीं, एक प्रर्भु से �ी पूरा प्रेम ।और हिवषय-वासनाओं में हिनल©पता ।संत न छांडै़ संतई, जे कोदिटक मिमलें असंत ।चंदन र्भुवंगा बैदिठया, तउ सीतलता न तजंत ॥2॥र्भावाथ9 - करोड़ों �ी असन्त आजायं, तोर्भी सन्त अपना सन्तपना न�ीं छोड़ता । चन्दन के वृक्ष पर हिकतने �ी साँप आ बैठें , तोर्भी व� शीतलता को न�ीं छोड़ता ।गांठी दाम न बांधई, नहि�ं नारी सों ने� ।क� `कबीर' ता साध की, �म चरनन की खे� ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं हिक �म ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चा�ते �ैं, जो गाँठ में एक कौड़ी र्भी न�ीं रखता और नारी से जिजसका प्रेम न�ीं ।क्तिस�ों के ले�ँड़ न�ीं, �ंसों की न�ीं पाँत ।लालों की नहि� बोरिरयाँ, साध न चलैं जमात ॥4॥र्भावाथ9 - लिसं�ों के झु() न�ीं हुआ करते और न �ंसों की कतारें । लाल-रत्न बोरिरयों में न�ीं र्भरे जाते, और जमात को साथ लेकर साधु नहि�ं चला करते ।जाहित न पूछौ साध की, पूछ लीजिजए ग्यान ।मोल करौ तलवार का, पड़ा र�न दो म्यान ॥5॥र्भावाथ9 -क्या पूछते �ो हिक साधु हिकस जाहित का �ै?पूछना �ो तो उससे ज्ञान की बात पूछोतलवार खरीदनी �ै, तो उसकी धार पर च\े पानी को देखो, उसके म्यान को फें क दो, र्भले �ी व� बहुमूल्य �ो ।`कबीर' �रिर का र्भावता, झीणां पंजर तास ।रैभिण न आवै नींदड़ी, अंहिग न च\ई मांस ॥6॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -�रिर के प्यारे का शरीर तो देखो-पंजर �ी र� गया �ै बाकी । सारी �ी रात उसे नींद न�ीं आती, और अंग पर मांस न�ीं च\ र�ा ।राम हिबयोगी तन हिबकल, ताहि� न चीन्�े कोइ ।तंबोली के पान ज्यंू , दिदन-दिदन पीला �ोइ ॥7॥र्भावाथ9 - पूछते �ो हिक राम का हिवयोग �ोता कैसा �ै ?हिवर� में व� व्यक्तिथत र�ता �ै, देखकर कोई प�चान न�ीं पाता हिक व� कौन �ै ?तम्बोली के पान की तर�, हिबना सींचे, दिदन-दिदन व� पीला पड़ता जाता �ै ।काम मिमलावे राम कंू, जे कोई जाणै राखिख ।`कबीर' हिबचारा क्या क�ै, जाकी सुखदेव बोलै साखिख ॥8॥र्भावाथ9 - �ाँ,राम से काम र्भी मिमला सकता �ै -ऐसा काम, जिजसे हिक हिनयंत्रण में रखा जाय। य� बात बेचारा कबीर �ी न�ीं क� र�ा �ै, शुकदेव मुहिन र्भी साक्षी र्भर र�े �ैं । [ आशय `धम9 से अहिवरुद्ध' काम से �ै, अथा9त् र्भोग के प्रहित अनासक्ति� और उसपर हिनयंत्रण ।]जिजहि�ं हि�रदे �रिर आइया, सो क्यंू छानां �ोइ ।जतन-जतन करिर दाहिबये, तऊ उजाला सोइ ॥9॥

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र्भावाथ9 - जिजसके अन्तर में �रिर आ बसा, उसके प्रेम को कैसे क्तिछपाया जा सकता �ै ? दीपक को जतन कर-कर हिकतना �ी क्तिछपाओ, तब र्भी उसका उजेला तो प्रकट �ो �ी जायगा।[रामकृष्ण परम�ंस के शब्दों में क्तिचमनी के अन्दर से फानुस का प्रकाश क्तिछपा न�ीं र� सकता ।]फाटै दीदै में हिफरौं, नजरिर न आवै कोइ ।जिजहि� घदिट मेरा साँईयाँ, सो क्यंू छाना �ोइ ॥10॥र्भावाथ9 - कबसे मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख र�ा हँू हिक ऐसा कोई मिमल जाय, जिजसे मेरे साईं का दीदार हुआ �ो । व� हिकसी र्भी तर� क्तिछपा न�ीं र� जायगा, नजर पर च\े तो !पावकरूपी राम �ै, घदिट-घदिट रह्या समाइ ।क्तिचत चकमक लागै न�ीं, ताथै धूवाँ है्व-है्व जाइ ॥11॥र्भावाथ9 - मेरा राम तो आग के सदृश �ै, जो घट-घट में समा र�ा �ै । व� प्रकट तर्भी �ोगा, जब हिक क्तिचl उसपर केजिन्द्रत �ो जायगा । चकमक पत्थर की रगड़ बैठ न�ीं र�ी, इससे केवल धँुवा उठ र�ा �ै । तो आग अब कैसे प्रकटे ?

`कबीर' खाक्तिलक जाहिगया, और न जागै कोइ ।कै जगै हिबषई हिवष-र्भर् या, कै दास बंदगी �ोइ ॥12॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -जाग र�ा �ै, तो मेरा व� खाक्तिलक �ी, दुहिनया तो ग�री नींद में सो र�ी �ै, कोई र्भी न�ीं जाग र�ा । �ाँ, ये दो �ी जागते �ैं - या तो हिवषय के ज�र में )ूबा हुआ कोई, या हिफर साईं का बन्दा, जिजसकी सारी रात बंदगी करते- करते बीत जाती �ै ।पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ ।राम-सने�ी बाहि�रा, उलजंड़ मेरे र्भाइ ॥13॥र्भावाथ9 - मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान �ी �ैं, जिजनमें राम के स्ने�ी न�ीं बस र�े, यद्यहिप उनको बडे़ सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया �ै और जग�-जग� ज�ाँ आनन्द-उत्सव �ो र�े �ैं ।

जिजहि�ं घरिर साध न पूजिज, �रिर की सेवा नाहि�ं ।ते घर मड़�ट सारंषे, र्भूत बसै हितन माहि�ं ॥14॥र्भावाथ9 - जिजस घर में साधु की पूजा न�ीं, और �रिर की सेवा न�ीं �ोती, व� घर तो मरघट �ै, उसमें र्भूत-�ी-र्भूत र�ते �ैं ।�ैवर गैवर सघन धन, छत्रपहित की नारिर ।तास पटंतर ना तूलै, �रिरजन की पहिन�ारिर ॥15॥र्भावाथ9 - �रिर-र्भ� की पहिन�ारिरन की बराबरी छत्रधारी की रानी र्भी न�ीं कर सकती । ऐसे राजा की रानी,जो अचे्छ-से-अचे्छ घोड़ों और �ाक्तिथयों का स्वामी �ै, और जिजसका खजाना अपार धन-सम्पदा से र्भरा पड़ा �ै ।क्यंू नृप-नारी नींदिदये, क्यंू पहिन�ारी कौं मान ।वा मांग संवारे पीव कौं, या हिनत उदिठ सुमिमरै राम ॥26॥र्भावाथ9 - रानी को य� नीचा स्थान क्यों दिदया गया, और पहिन�ारिरन को इतना ऊँचा स्थान ? इसक्तिलए हिक रानी तो अपने राजा को रिरझाने के क्तिलए मांग सँवारती �ै, लिसंगार करती �ै और व� पहिन�ारिरन हिनत्य उठकर अपने राम का सुमिमरन ।`कबीर कुल तौ सो र्भला, जिजहि� कुल उपजै दास ।जिजहि�ं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास ॥27॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं-- कुल तो व�ी शे्रष्ठ �ै, जिजसमें �रिर-र्भ� जन्म लेता �ै । जिजस कुल में �रिर-र्भ� न�ीं जनमता, व� कुल आक और पलास के समान व्यथ9 �ै । साधो ये मुरदों का गांव / कबीरसाधो ये मुरदों का गांव

पीर मरे पैगम्बर मरिर�ैं

मरिर �ैं जिजन्दा जोगी

राजा मरिर�ैं परजा मरिर�ै

मरिर�ैं बैद और रोगी

चंदा मरिर�ै सूरज मरिर�ै

मरिर�ैं धरभिण आकासा

चौदां र्भुवन के चौधरी मरिर�ैं

इन्हूं की का आसा

नौहूं मरिर�ैं दसहूं मरिर�ैं

मरिर �ैं स�ज अठ्ठासी

तैंतीस कोट देवता मरिर �ैं

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बड़ी काल की बाजी

नाम अनाम अनंत र�त �ै

दूजा तत्व न �ोइ

क�त कबीर सुनो र्भाई साधो

र्भटक मरो ना कोई �ाध-अ�ाध का अंग / कबीरजेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाभिण ।प�ली था� दिदखाइ करिर, उं)ै देसी आभिण ॥1॥र्भावाथ9 - उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जिजतना वे मीठा बोलते �ैं । प�ले तो नदी की था� बता देते �ैं हिक हिकतनी और क�ाँ �ै, पर अन्त में वे ग�रे में )ुबो देते �ैं । [सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के हिववेक से काम क्तिलया जाये ।]उज्ज्वल देखिख न धीजिजये, बग ज्यंू मां)ै ध्यान ।धौरे बैदिठ चपेटसी, यंू ले बूडै़ ग्यान ॥2॥र्भावाथ9 - ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न र्भूल जाओ, उस पर हिवश्वास न करो । उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा �ै, कोई र्भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का न�ीं ।[दम्भी का दिदया ज्ञान र्भी मंझधार में )ुबो देगा ।]`कबीर' संगत साध की, कदे न हिनरफल �ोइ ।चंदन �ोसी बांवना,नींब न क�सी कोइ ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - साधु की संगहित कर्भी र्भी व्यथ9 न�ीं जाती, उससे सुफल मिमलता �ी �ै । चन्दन का वृक्ष बावना अथा9त् छोटा-सा �ोता �ै, पर उसे कोई नीम न�ीं क�ता, यद्यहिप व� क�ीं अमिधक बड़ा �ोता �ै ।`कबीर' संगहित साध की, बेहिग करीजै जाइ ।दुम9हित दूरिर गंवाइसी, देसी सुमहित बताइ ॥4॥र्भावाथ9 - साधु की संगहित जल्दी �ी करो, र्भाई, न�ीं तो समय हिनकल जायगा । तुम्�ारी दुबु9जिद्ध उससे दूर �ो जायगी और व� तुम्�ें सुबुजिद्ध का रास्ता पकड़ा देगी । मथुरा जाउ र्भावै द्वारिरका, र्भावै जाउ जगनाथ ।साध-संगहित �रिर-र्भगहित हिबन, कछू न आवै �ाथ ॥5॥र्भावाथ9 - तुम मथुरा जाओ, चा�े द्वारिरका, चा�े जगन्नाथपुरी, हिबना साधु-संगहित और �रिर-र्भक्ति� के कुछ र्भी �ाथ आने का न�ीं ।

मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम ।वो �ै दाता मुकहित का, वो सुमिमरावै नाम ॥6॥र्भावाथ9 - मेरे तो ये दो �ी संगी साथी �ैं - एक तो वैष्णव, और दूसरा राम । राम ज�ाँ मुक्ति� का दाता �ै, व�ाँ वैष्णव नाम-स्मरण कराता �ै । तब और हिकसी साथी से मुझे क्या लेना-देना ?`कबीर' बन बन में हिफरा, कारभिण अपणैं राम ।राम सरीखे जन मिमले, हितन सारे सबरे काम ॥7॥र्भावाथ9 -कबीर क�ते �ैं - अपने राम को ढँू\ते-ढँू\ते एक बन में से मैं दूसरे बन में गया, जब व�ाँ मुझे स्वयं राम के सरीखे र्भ� मिमल गये, तो उ�ोंने मेरे सारे काम बना दिदये । मेरा वन वन का र्भटकना तर्भी सफल हुआ ।जाहिन बूजिझ सांचहि� तजै, करैं झूठ संू नेहु ।ताकी संगहित रामजी, सुहिपनें �ी जिजहिन देहु ॥8॥र्भावाथ9 -जो मनुष्य जान-बूझकर सत्य को छोड़ देता �ै, और असत्य से नाता जोड़ लेता �ै । �े राम! सपने में र्भी कर्भी मुझे उसका साथ न देना ।`कबीर' तास मिमलाइ, जास हि�याली तू बसै ।नहि�ंतर बेहिग उठाइ, हिनत का गंजन को स�ै ॥9॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - मेरे साईं, मुझे तू हिकसी ऐसे से मिमला दे, जिजसके हृदय में तू बस र�ा �ो, न�ीं तो दुहिनया से मुझे जल्दी �ी उठा ले ।रोज-रोज की य� पीड़ा कौन स�े ? सुपने में सांइ मिमले / कबीरसुपने में सांइ मिमले

सोवत क्तिलया लगाए

आंख न खोलूं )रपता

मत सपना �ै जाए

सांइ मेरा बहुत गुण

क्तिलखे जो हृदय माहि�ं

हिपयूं न पाणी )रपता

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मत वे धोय जाहि�ं

नैना र्भीतर आव तू

नैन झांप तो�े लेउं

न मैं देखूं और को

न ते�ी देखण देउं 

 

नैना अंतर आव तू

ज्यौ �ौं नैन झंपेउं

ना �ौं देखूं और कँू

ना तुम देखण देउं

कबीर रेख लिसंदूर की

काजर दिदया न जाइ

नैन ूरमैया रमिम रह्या

दूजा क�ॉ समाइ 

मन परतीत न पे्रम रस

ना इत तन में ढंग

क्या जानै उस पीवसू

कैसे र�सी रंग 

 अखंिखयां तो छाई परी

पंथ हिन�ारिर हिन�ारिर 

जी�हिड़यां छाला परया

नाम पुकारिर पुकारिर

हिबर� कमन्डल कर क्तिलये

बैरागी दो नैन

मांगे दरस मधुकरी

छकै र�ै दिदन रैन

सब रंग तांहित रबाब तन

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हिबर� बजावै हिनत

और न कोइ सुहिन सकै

कै सांई के क्तिचत �ुमिमरण का अंग / कबीरर्भगहित र्भजन �रिर नांव �ै, दूजा दुक्ख अपार ।मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर' सुमिमरण सार ॥1॥र्भावाथ9 - �रिर का नाम-स्मरण �ी र्भक्ति� �ै और व�ी र्भजन सच्चा �ै ; र्भक्ति� के नाम पर सारी साधनाए ंकेवल दिदखावा �ै, और अपार दुःख की �ेतु र्भी । पर स्मरण व� �ोना चाहि�ए मन से, बचन से और कम9 से, और य�ी नाम-स्मरण का सार �ै ! `कबीर क�ता जात हँू, सुणता �ै सब कोई ।राम करें र्भल �ोइगा, नहि�ंतर र्भला न �ोई ॥2॥र्भावाथ9 - मैं �मेशा क�ता हँू, रट लगाये र�ता हँू, सब लोग सुनते र्भी र�ते �ैं - य�ी हिक राम का स्मरण करने से �ी र्भला �ोगा, न�ीं तो कर्भी र्भला �ोनेवाला न�ीं । पर राम का स्मरण ऐसा हिक व� रोम-रोम में रम जाय ।तू तू करता तू र्भया, मुझ में र�ी न हँू ।वारी फेरी बक्तिल गई ,जिजत देखौं हितत तंू ॥3॥र्भावाथ9 - तू, �ी �ै, तू �ी �ै' य� करते-करते मैं तू �ी �ो गयी, हँू' मुझमें क�ीं र्भी न�ीं र� गयी । उसपर न्यौछावर �ोते-�ोते मैं समर्विपतं �ो गयी हँू । जिजधर र्भी नजर जाती �ै उधर तू-�ी-तू दीख र�ा �ै । `कबीर' सूता क्या करै, का�े न देखै जाहिग ।जाको संग तैं बीछुड्या, ता�ी के संग लाहिग ॥4॥र्भावाथ9 - कबीर अपने आपको चेता र�े �ैं, अच्छा �ो हिक दूसर ेर्भी चेत जायं । अरे, सोया हुआ तू क्या कर र�ा �ै ? जाग जा और अपने साक्तिथयों को देख, जो जाग गये �ैं । यात्रा लम्बी �ै, जिजनका साथ हिबछड़ गया �ै और तू हिपछड़ गया �ै, उनके साथ तू हिफर लग जा ।जिजहि� घदिट प्रीहित न प्रेम-रस, फुहिन रसना न�ीं राम ।ते नर इस संसार में, उपजिज खये बेकाम ॥5॥र्भावाथ9 - जिजस घट में, जिजसके अन्तर में न तो प्रीहित �ै और न प्रेम का रस । और जिजसकी रसना पर रामनाम र्भी न�ीं - इस दुहिनया में बेकार �ी पैदा हुआ व� और बरबाद �ो गया ।`कबीर' प्रेम न चहिषया, चहिष न लीया साव ।सूने घर का पाहुंणां , ज्यंू आया त्यंू जाव ॥6॥र्भावाथ9 - कबीर मिधक्कारते हुए क�ते �ैं - जिजसने प्रेम का रस न�ीं चखा, और चखकर उसका स्वाद न�ीं क्तिलया, उसे क्या क�ा जाय ? व� तो सूने घर का मे�मान �ै, जैसे आया था वैसे �ी चला गया !राम हिपयारा छांहिड़ करिर, करै आन का जाप ।बेस्यां केरा पूत ज्यँू, क�ै कौन सू बाप ॥7॥र्भावाथ9 - हिप्रयतम राम को छोड़कर जो दूसर ेदेवी-देवताओं को जपता �ै, उनकी आराधना करता �ै, उसे क्या क�ा जाय ? वेश्या का पुत्र हिकसे अपना बाप क�े ? अनन्यता के हिबना कोई गहित न�ीं ।लूदिट सकै तौ लूदिटयौ, राम-नाम �ै लूदिट ।पीछैं  �ो पक्तिछताहुगे, यहु तन जै�ै छूदिट ॥8॥र्भावाथ9 - अगर लूट सको तो लूट लो, जी र्भर लूटो--य� राम नाम की लूट �ै । न लूटोगे तो बुरी तर� पछताओगे, क्योंहिक तब य� तन छूट जायगा ।लंबा मारग, दूरिर घर, हिवकट पंथ, बहु मार ।क�ौ संतो, क्यंू पाइये, दुल9र्भ �रिर-दीदार ॥ 9॥र्भावाथ9 - रास्ता लम्बा �ै, और व� घर दूर �ै, ज�ाँ हिक पहँुचना �ै । लम्बा �ी न�ीं, उबड़-खाबड़ र्भी �ै । हिकतने �ी बटमार व�ाँ पीछे लग जाते �ैं । संत र्भाइयों, बताओ तो हिक �रिर का व� दुल9र्भ दीदार तब कैसे मिमल सकता �ै ?`कबीर' राम रिरझाइ लै, मुखिख अमृत गुण गाइ ।फूटा नग ज्यँू जोहिड़ मन, संधे संमिध मिमलाइ ॥10॥ र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं- अमृत-जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिरझा ले । राम से तेरा मन-हिबछुड़ गया �ै, उससे वैसे �ी मिमल जा , जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्थिन्ध-से-सन्थिन्ध मिमलाकर एक कर क्तिलया जाता �ै । �ूरातन का अंग / कबीरगगन दमामा बाजिजया, पड्या हिनसानैं घाव ।खेत बु�ार् या सूरिरमै, मुझ मरणे का चाव ॥1॥ र्भावाथ9 - गगन में युद्ध के नगाडे़ बज उठे, और हिनशान पर चोट पड़ने लगी । शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बु�ारकर तैयार कर दिदया, तब क�ता �ै हिक `अब मुझे कट-मरने का उत्सा� च\ र�ा �ै ।'`कबीर' सोई सूरिरमा, मन संू मां)ै झूझ । पंच पयादा पाहिड़ ले, दूरिर करै सब दूज ॥2॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - सच्चा सूरमा व� �ै, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता �ै, पाँचों पयादों को जो मार र्भगाता �ै, और दै्वत को दूर कर देता �ै । [ पाँच पयादे, अथा9त काम, क्रोध, लोर्भ, मो� और मत्सर। दै्वत अथा9त् जीव और ब्रह्म के बीच र्भेद-र्भावना ।]`कबीर' संसा कोउ न�ीं, �रिर संू लाग्गा �ेत ।काम क्रोध संू झूझणा, चौडै़ मांड्या खेत ॥3॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -- मेरे मन में कुछ र्भी संशय न�ीं र�ा, और �रिर से लगन जुड़ गई । इसीक्तिलए चौडे़ में आकर काम और क्रोध से जूझ र�ा हँू रण-के्षत्र में ।सूरा तब�ी परहिषये, लडै़ धणी के �ेत । पुरिरजा-पुरिरजा है्व पडै़, तऊ न छांडै़ खेत ॥4॥

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र्भावाथ9 - शूरवीर की तर्भी सच्ची परख �ोती �ै, जब व� अपने स्वामी के क्तिलए जूझता �ै । पुजा9-पुजा9 कट जाने पर र्भी व� युद्ध के के्षत्र को न�ीं छोड़ता ।अब तौ झूझ्या �ीं बणै, मुहिड़ चाल्यां घर दूर ।क्तिसर साहि�ब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर ॥5॥र्भावाथ9 - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर य�ाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर र� गया �ै । साईं को क्तिसर सौंपते हुए सूरमा कर्भी सोचता न�ीं, कर्भी हि�चकता न�ीं ।जिजस मरनैं थैं जग )रै, सो मेरे आनन्द ।कब मरिरहंू, कब देखिखहंू पूरन परमानंद ॥6॥र्भावाथ9 - जिजस मरण से दुहिनया )रती �ै, उससे मुझे तो आनन्द �ोता �ै ,कब मरँूगा और कब देखूँगा मैं अपने पूण9 सण्डिच्चदानन्द को !कायर बहुत पमांव�ीं, ब�हिक न बोलै सूर ।काम पड्यां �ीं जाभिणये, हिकस मुख परिर �ै नूर ॥7॥र्भावाथ9 - बड़ी-बड़ी )ींगे कायर �ी �ाँका करते �ैं, शूरवीर कर्भी ब�कते न�ीं । य� तो काम आने पर �ी जाना जा सकता �ै हिक शूरवीरता का नूर हिकस चे�रे पर प्रकट �ोता �ै ।`कबीर' य� घर पेम का, खाला का घर नाहि�ं ।सीस उतारे �ाक्तिथ धरिर, सो पैसे घर माहि�ं ॥8॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - य� प्रेम का घर �ै, हिकसी खाला का न�ीं , व�ी इसके अन्दर पैर रख सकता �ै, जो अपना क्तिसर उतारकर �ाथ पर रखले । [ सीस अथा9त अ�ंकार । पाठान्तर �ै `र्भुइं धरै' । य� पाठ कुछ अमिधक साथ9क जचता �ै । क्तिसर को उतारकर जमीन पर रख देना, य� �ाथ पर रख देने से क�ीं अमिधक शूर-वीरता और हिनर�ंकारिरता को व्य� करता �ै ।] `कबीर' हिनज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध ।सीस उतारिर पग तक्तिल धरै, तब हिनकट प्रेम का स्वाद ॥9॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम �ी �ै । मगर व�ाँ तक पहँुचने का रास्ता बड़ा हिवकट �ै, और लम्बा इतना हिक उसका क�ीं छोर �ी न�ीं मिमल र�ा । प्रेम रस का स्वाद तर्भी सुगम �ो सकता �ै, जब हिक अपने क्तिसर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिदया जाय ।प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न �ादिट हिबकाइ ।राजा परजा जिजस रुचै, क्तिसर दे सो ले जाइ ॥10॥र्भावाथ9 - अरे र्भाई ! प्रेम खेतों में न�ीं उपजता, और न �ाट-बाजार में हिबका करता �ै य� म�ँगा �ै और सस्ता र्भी - यों हिक राजा �ो या प्रजा, कोई र्भी उसे क्तिसर देकर खरीद ले जा सकता �ै ।`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतहिन चदि\ असवार ।ग्यान खड़ग गहि� काल क्तिसरिर, र्भली मचाई मार ॥11॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं - क्या �ी मार-धाड़ मचा दी �ै इस चेतन शूरवीर ने ।सवार �ो गया �ै प्रेम के घोडे़ पर । तलवार ज्ञान की ले ली �ै, और काल-जैसे शत्रु के क्तिसर पर व� चोट- पर-चोट कर र�ा �ै ।जेते तारे रैभिण के, तेतै बैरी मुझ ।धड़ सूली क्तिसर कंगुरैं, तऊ न हिबसारौं तुझ ॥12॥र्भावाथ9 - मेरे अगर उतने र्भी शत्रु �ो जायं, जिजतने हिक रात में तारे दीखते �ैं, तब र्भी मेरा धड़ सूली पर �ोगा और क्तिसर रखा �ोगा ग\ के कंगूरे पर, हिफर र्भी मैं तुझे र्भूलने का न�ीं ।

क्तिसरसाटें �रिर सेहिवये, छांहिड़ जीव की बाभिण ।जे क्तिसर दीया �रिर मिमलै, तब लहिग �ाभिण न जाभिण ॥13॥र्भावाथ9 - क्तिसर सौंपकर �ी �रिर की सेवा करनी चाहि�ए । जीव के स्वर्भाव को बीच में न�ीं आना चाहि�ए । क्तिसर देने पर यदिद �रिर से मिमलन �ोता �ै, तो य� न समझा जाय हिक व� कोई घाटे का सौदा �ै ।`कबीर' �रिर सबकंू र्भजै, �रिर कंू र्भजै न कोइ ।जबलग आस सरीर की, तबलग दास न �ोइ ॥14॥र्भावाथ9 - कबीर क�ते �ैं -�रिर तो सबका ध्यान रखता �ै,सबका स्मरण करता �ै , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई न�ीं करता । प्रर्भु का र्भ� तबतक कोई �ो न�ीं सकता, जबतक दे� के प्रहित आशा और आसक्ति� �ै । �मन �ै इश्क मस्ताना / कबीर�मन �ै इश्क मस्ताना, �मन को �ोक्तिशयारी क्या ? र�ें आजाद या जग से, �मन दुहिनया से यारी क्या ? जो हिबछुडे़ �ैं हिपयारे से, र्भटकते दर-ब-दर हिफरते, �मारा यार �ै �म में �मन को इंतजारी क्या ? खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर क्तिसर पटकता �ै, �मन गुरनाम साँचा �ै, �मन दुहिनया से यारी क्या ? न पल हिबछुडे़ हिपया �मसे न �म हिबछडे़ हिपयारे से, उन्�ीं से ने� लागी �ै, �मन को बेकरारी क्या ? कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिदल से, जो चलना रा� नाजÔक �ै, �मन क्तिसर बोझ र्भारी क्या ?