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प्रथम अध्याय

1-भूमिमकाः-वाराणसी को भारत की सांस्कृतितक राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। बाबा तिवश्वनाथ की नगरी होने के कारण वाराणसी शहर न केवल स्थानीय एवं के्षत्रीय लोगों के आकर्ष)ण का केन्द्र रहा है, वरन समू्पण) देश-तिवदेश के लोगों के आकर्ष)ण का केन्द्र है। लगभग तीन हजार वर्ष) पुराने इस वाराणसी शहर को लघु भारत कहते हैं क्योंतिक यह शहर अपने आप में भारत वर्ष) के लगभग सभी क्षेत्रों और संस्कृतितयों को समेटे हुए है।

वाराणसी के धार्मिम<क, शैक्षिक्षक और सांस्कृतितक महत्व के कारण न केवल भारत के तिवक्षिभन्न प्रान्तों से, बल्किAक तिवश्व के कई देशों स े लोग यहा ँ आकर बस गए और इस शहर के बहुसांस्कृतितक समाज का तिहस्सा बन गए। वत)मान समय में भी धार्मिम<क उन्मुखता, उच्च शिशक्षा की सुतिवधा के साथ साथ उद्योग, व्यापार एवं रोजगार के अन्य साधनों की उपलब्धता भी लोगों के आकर्ष)ण का कारण है। अधिधक समय स े पीढ़ी दर पीढ़ी रहन े वाल े इन समुदायों ने वाराणसी में अपने समाज के अलग अलग मोहAले बसा शिलए हैं। इस प्रकार यहा ँ तिवक्षिभन्न संस्कृतितयों, धार्मिम<क सम्प्रदायों तथा क्षिभन्न क्षिभन्न भार्षाओं के सहअल्किस्तत्व की स्थिस्थतित ह ै जिजसके कारण वाराणसी शहर का समाज बहुभातिर्षक है। अतः वाराणसी की भातिर्षक सम्पदा अधिधक सम्पन्न है।

प्रस्तुत शोध का तिवर्षय “वाराणसी शहर के मुख्य अल्पसंख्यक भाषाभाषी समुदायों का समाज भाषिषक अनुशीलन” करना हैः जिजसके अंतग)त बंगाली, गुजराती, मराठी तथा पंजाबी भार्षी समुदायों का समाजभातिर्षक अध्ययन तिकया गया है। वाराणसी शहर में बहुत स े भार्षाभार्षी समुदाय तिवद्यमान ह ैं अतः भातिर्षक समुदायों की व्यापक संख्या को

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देखते हुए केवल इन चार भातिर्षक समुदायों को ही इस शोध के तिवर्षय के रूप में चुना गया है।

वाराणसी म ें इन तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदायों के सहअल्किस्तत्व के कारण भार्षा सम्पक) की स्थिस्थतित बनती है। सम्पक) की स्थिस्थतित में ये भार्षाए ँपरस्पर एक दूसरे को प्रभातिवत करती हैं जिजसके फलस्वरूप भातिर्षक आदान, कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न, ति_भातिर्षकता, बहुभातिर्षकता, भातिर्षक परिरवृक्षि` तथा मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रतिaया का प्रारम्भ होना स्वाभातिवक है। इन सभी समाजभातिर्षक प्रतिaयाओं के कारण भार्षाओं के मूल स्वरूप में भी परिरवत)न हो रहा है और ये अपने मानक रूप से क्षिभन्न हो रही हैं। प्रस्तुत शोध में इन भातिर्षक समुदायों का इन सभी दृधिdयों से समाजभातिर्षक अध्ययन तिकया गया ह ै जिजसकी तिवस्तृत वण)नात्मक प्रस्तुतित इस शोध-प्रबन्ध में की गई है।

1.1 समाजभाषाषिवज्ञान—भार्षा और समाज एक ही शिसक्के के दो पहलू माने जाते हैं। भार्षा और समाज का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। समाजभार्षातिवज्ञान के अंतग)त भार्षा और समाज के सभी प्रकार के आपसी सम्बन्धों का तिवशे्लर्षण तिकया जाता है। समाज में भार्षा का प्रयोग तिकस रूप में तथा तिकतने प्रकार से तिकया जा सकता है, यह हमें समाजभार्षातिवज्ञान से पता चलता है। इसके अंतग)त समाज में रहने वाले तिवक्षिभन्न भार्षा-भार्षी समुदायों की भार्षा का वैज्ञातिनक पद्धतित से तिववेचन तथा अध्ययन तिकया जाता है। भार्षा मनुष्य के व्यवहार में प्रयुक्त होती है अतः भार्षा को व्यवहारिरक रूप समाज में ही प्राप्त होता है। मनुष्य एक सामाजिजक प्राणी है, अतः समाज में आपसी व्यवहार के शिलए भार्षा ही सवा)धिधक उपयुक्त साधन होती है। भार्षा के माध्यम से ही आपसी व्यवहार सम्पादिदत होते हैं। भार्षा और समाज का एक दूसरे के तिबना कोई अल्किस्तत्व नहीं ह ै अतएव इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं तिकया जा सकता। समाज नहीं रहेगा तो भार्षा की तिवलुप्तिप्त तिनक्षिoत है। भार्षा जीतिवत रहे और पीढ़ी दर पीढ़ी

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चलती रहे इसके शिलए आवश्यक ह ै तिक उसे बोलने वाला समाज भी जीतिवत रहे। भार्षा मनुष्य जातित को पशुपक्षिक्षयों से अलग करती है। भार्षा ही मनुष्य जातित को प्रद` नैसर्गिग<क वरदान है। आज सभ्यता संस्कृतित का जो तिवकास दिदखाई दे रहा है उसमें भार्षा की मुख्य भूधिमका है।

रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव (षिहन्दी भाषा का समाजशास्त्र, पृष्ठ 7) का मानना है—“समाजभार्षातिवज्ञान भार्षा वैज्ञातिनक अध्ययन का वह क्षेत्र है जो भार्षा और समाज के बीच पाए जाने वाले हर प्रकार के सम्बन्धों का अध्ययन तिवश्लेर्षण करता है। वह भार्षा की संरचना और प्रयोग के उन सभी पक्षों एवं सन्दभu का अध्ययन करता है, जिजसका सम्बन्ध सामाजिजक एवं सांस्कृतितक प्रकाय) के साथ होता है। अतः इसके अध्ययन के्षत्र के भीतर तिवक्षिभन्न सामाजिजक वगu की भातिर्षक अल्किस्मता, भार्षा के प्रतित सामाजिजक आधार, भार्षा तिनयोजन आदिद भार्षा अध्ययन के वे सभी सन्दभ) आ जाते हैं”।

लेबाब 1972, एव ं डेलहाइम्स 1971 का मानना है- भार्षा समाज सापेक्ष प्रतीक व्यवस्था है और इस प्रतीक व्यवस्था के मूल में ही सामाजिजक तत्व तिनतिहत रहते हैं।

आधुतिनक भार्षातिवज्ञान के जनक डी सस्यूर ने भार्षा अध्ययन के दो आयामों की चचा) की है—भार्षा व्यवस्था (लांग) व भार्षा व्यवहार (परोल)। चॉम्स्की ने भार्षातिवज्ञान के क्षेत्र में नई aाप्तिन्त के साथ अपने शिसद्धांतों को स्थातिपत तिकया है, उन्होंने लांग और परोल के समानान्तर ही भातिर्षक क्षमता और भातिर्षक व्यवहार की संकAपना की है। भातिर्षक क्षमता व्यशिक्त के चेतन एवं अवचेतन में स्थिस्थत वह भार्षा है जिजसको वह बोलता और समझता है, जबतिक भातिर्षक व्यवहार भातिर्षक ज्ञान का तिकसी तिनक्षिoत स्थान और समय पर सुतिनक्षिoत ढंग से प्रयोग है। भोलानाथ तितवारी का मानना ह ै तिक भार्षा का सूक्ष्मता से सामाजिजक स्तरों के सन्दभ) म ें अध्ययन तिकया जाय तो उन सूक्ष्म बातों को भी खोजा जा सकता ह ै जो सामाजिजक स्तरों से उद्भतू होती हैं तथा एक तिनक्षिoत सीमा तक उनकी अक्षिभव्यशिक्त करती हैं।

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समाजभार्षातिवज्ञान के अध्ययन से यह जानन े म ें भी मदद धिमलती ह ै तिक उस भार्षा को बोलने वाले की सामाजिजक स्थिस्थतित, धम), जातित तथा शैक्षिक्षक स्तर क्या है, वह तिकस परम्परा को मानता है। अभी तक भार्षा केवल तिवचारों, भावों की अक्षिभव्यशिक्त का साधन मानी जाती रही है, समाजभार्षातिवज्ञान के माध्यम से व्यशिक्त के सामाजिजक स्तर का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तरह का अध्ययन करन े वाल े अग्रणी आचायu म ें तिवशिलयम लेबाव(1966) और पीटर ट्रडतिगल(1974) हैं। लेबाव ने अमेरिरका के न्यूयाक) शहर की अंग्रेजी भार्षा के सामाजिजक स्तरीकरण का गहन अध्ययन तिकया है और ट्रडतिगल ने इंग्लैंड के नार्गिव<च शहर की अंगे्रजी भार्षा का।

‘आधुतिनक भार्षातिवज्ञान की भूधिमका’ नामक अपनी पुस्तक(पृष्ठ 24) म ें रघुवीर प्रसाद भटनागर मानते ह ैं “जिजस प्रकार व्यशिक्त का मानस शब्द रूप और वाक्यों के _ारा भार्षा का तिनमा)ण करता ह ै और भार्षा तिवशेर्ष के आधार पर मनुष्य का व्यशिक्तत्व और उसकी मनoेतना का पता लगाया जा सकता है, उसी प्रकार समाज और भार्षातिवज्ञान भी एक दूसरे से तिनतांत सम्बन्धिन्धत हैं। इस बात की कAपना भी नहीं की जा सकती तिक एक के तिबना दूसरे का अल्किस्तत्व सम्भव है”।

जब भार्षातिवज्ञान के अन्तग)त समाज का समावेश होता है तब समाजभार्षावैज्ञानी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता ह ै जैस े वह व्यशिक्त के वाशिचक व्यवहार को उसके व्यशिक्तगत तथा साव)जतिनक जीवन में तिकस प्रकार देखे, क्योंतिक मनुष्य का भातिर्षक व्यवहार समय, स्थान, श्रोता और संदभ) के अनुसार बदलता रहता है। भातिर्षक व्यवहार सव)दा एक सा नहीं रहता है, भार्षा-व्यापार घर के अंदर कुछ होता ह ै बाहर कुछ। अतः समाजभार्षातिवज्ञानी को भार्षा के तिवतिवध अनुभवों का अध्ययन करना होता है जो समाज और सांस्कृतितक आश्रय को लेकर चलते हैं। व्यशिक्त के प्रतितदिदन के सामाजिजक व्यवहार पर उन सभी बातों का प्रभाव पड़ता है जो समाज से सम्बन्धिन्धत हैं। इसी सामाजिजक व्यवहार को

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लेकर भार्षा का स्वरूप बनता है तथा वह पहचानी जाती है। एक व्यशिक्त अपने समाज में रहने वाले लोगों से एक ही समय में कई प्रकार की प्रयुशिक्तयों का प्रयोग करता ह ै तथा आवश्यकता पड़ने पर एक ही भार्षा के कई कोडों का प्रयोग करता है, जैसे अपने से छोटे लोगों के शिलए तिकसी कोड का प्रयोग करेगा और बड़ों के शिलए तिकसी कोड का प्रयोग करेगा। इसी प्रकार घर में जिजस भार्षा का प्रयोग वह करता है बाजार या दफ्तर में उसकी भार्षा में परिरवत)न स्वतः आ जाता है। अतः हम समाज के तिवतिवध अंगों को अलग करके भार्षा का स्वरूप तिनधा)रिरत नहीं कर सकते। समाज के बृह्द क्षेत्र में उसी के अनुरूप भार्षा- बोली के रूप तिनर्मिम<त होते हैं। इन्हीं सब तथ्यों पर प्रकाश डालने का काय) समाजभार्षावैज्ञातिनकों का होता है।

‘भार्षातिवज्ञान की भूधिमका’ नामक अपनी तिकताब (पृष्ठ 194)में देवेन्द्र नाथ शमा6 ने कहा है तिक “समाजतिवज्ञान में समाज का अध्ययन होता है, अथा)त् सामाजिजक प्राणी के रूप में मनुष्य के आचार, तिवचार, व्यवहार आदिद का तिवश्लेर्षण तिकया जाता है। व्यशिक्त और समाज का सम्बन्ध, व्यशिक्त पर समाज का प्रभाव, समाज के तिनमा)ण में व्यशिक्त का प्रभाव, आदिद तिवर्षयों की चचा) समाजभार्षातिवज्ञान में की जाती है”।

भार्षा सामाजिजक सम्पक्षि` है जिजसका जन्म और तिवकास समाज में ही होता है। व्यशिक्त के आचार-तिवचार का प्रभाव भार्षा में तथा भार्षा का प्रभाव व्यशिक्त के व्यवहार से परिरलक्षिक्षत होता है। भार्षा के माध्यम से शिशdाचार व सामाजिजक व्यवस्था का तिनयमन तिकया जाता है, यहाँ तक तिक कई aांतितकारी परिरवत)न भार्षा के _ारा ही सम्पन्न हो जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं तिक भार्षा के _ारा समाज की गतिततिवधिधयों को तिनयंतित्रत तिकया जा सकता है। व्यशिक्त के भावों, तिवचारों को भार्षा समाज में प्रत्यक्ष व स्पd स्वरूप _ारा अक्षिभव्यक्त करती है। भार्षातिवज्ञान भार्षा का अध्ययन करता ह ै तो समाजभार्षातिवज्ञान भार्षा को समाज से जोड़कर अध्ययन करता है। इस प्रकार भार्षातिवज्ञान समाजतिवज्ञान के बहुत समीप आ जाता

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है। अतः भार्षातिवज्ञान की वह शाखा जो भार्षा को समाज से जोड़कर उसका अध्ययन करती है समाजभार्षातिवज्ञान कहलाती है।

(क) उद्भव और षिवकास—भार्षा का प्रयोग सव)था समाज में तिकया जाता है, अतः भार्षा और समाज को एक दूसरे से पृ्रथक् करके नहीं देखा जा सकता। इनम ें आत्मीय सहअल्किस्तत्व होता है। मनुष्य एक सामाजिजक प्राणी ह ै अतः उसे भार्षा तथा समाज दोनों की आवश्यकता होती है। भार्षा समाज में मनुष्य को एक दूसरे के सम्पक) में लाने का माध्यम है, तथा मानवीय भावनाओं की अक्षिभव्यशिक्त का साधन है। मनुष्य भार्षा का प्रयोग समाज में करता है तथा समाज में रहकर ही वह भार्षा सीखता है। अतः भार्षा के कारण समाज की पहचान भी बनती है, भार्षा और समाज दोनों का तिवकास एक दूसरे के माध्यम से होता है। मनुष्य की पहचान भार्षा से और भार्षा की पहचान समाज से होती है। प्रत्येक भार्षा की अपनी शब्द सम्पदा होती है, समाज के लोग एक दूसरे के सम्पक) में आते हैं तो उनका भार्षायी सम्पक) भी होता है साथ ही तिनरन्तर भातिर्षक सम्पक) के कारण उनकी अपनी भार्षा में शब्दों का आदान-प्रदान होता रहता है, जिजससे उनकी भातिर्षक सम्पदा में वृजिद्ध होती रहती है।

समाजभार्षातिवज्ञान के सन्दभ) में कई तिव_ानों ने अपने अलग-अलग मत प्रदान तिकए हैं।–

षि:शमैन इस े भार्षा का समाजशास्त्र मानत े हैं। वहीं लेबाव समाजभार्षातिवज्ञान को ही वास्ततिवक भार्षातिवज्ञान मानते हैं। कषिपल देव षि<वेदी (भाषाषिवज्ञान एवं भाषा शास्त्र, पृष्ठ 25) के अनुसार “भार्षा सामाजिजक वस्तु है। सामाजिजक परिरवत)नों के साथ ही भार्षा में भी परिरवत)न और तिवकास होता है”। गम्पज6 तथा :र्ग्यूयू6सन आदिद समाजभार्षातिवज्ञान को समाजोन्मुख भार्षातिवज्ञान मानते हैं।

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(ख)भाषाषिवज्ञान एवं समाजभाषाषिवज्ञान—भार्षा और समाज के सम्बन्ध पर हम प्रकाश डाल चुके हैं। समाज मनुष्यों से बनता है तथा उसकी पहचान भार्षा से होती है, भार्षा मनुष्य से जुड़ी होती है या भार्षा के माध्यम से मनुष्य अपने भावों, तिवचारों को अक्षिभव्यक्त करता है पर भार्षा क्या होती है, इसकी पहचान कैसे होती है, भार्षा कैसे तिनर्मिम<त होती है, इन सभी तथ्यों पर भार्षातिवज्ञान प्रकाश डालता है। अतः भार्षातिवज्ञान के अंतग)त भार्षा का वैज्ञातिनक तिवधिध से तिवश्लेर्षण तिकया जाता है। अतः हम यह देख सकते हैं तिक मनुष्य के तिकन वाग् अंगों के प्रयत्न से भार्षा की उत्पक्षि` होती है, भार्षा की उत्पक्षि` से लेकर उसके स्वरूप, प्रयोग तथा अंगों के तिवर्षय में तिवस्तृत जानकारी भार्षातिवज्ञान के माध्यम से ही प्राप्त होती है। भार्षातिवज्ञान भार्षा के सूक्ष्म से सूक्ष्म तथ्यों पर प्रकाश डालता है, मनुष्य के मन में भार्षा को लेकर जो सवाल उत्पन्न होते हैं उनका उ`र भार्षातिवज्ञान स े ही प्राप्त होता ह ै अतः भार्षातिवज्ञान भार्षा सम्बन्धी सभी जिजज्ञासाओं को शान्त करता है। भार्षातिवज्ञान को तिवक्षिभन्न तिव_ानों ने अपने शब्दों में इस प्रकार परिरभातिर्षत तिकया है—1. “भार्षा के वैज्ञातिनक अध्ययन को भार्षातिवज्ञान कहते हैं। वैज्ञातिनक अध्ययन से हमारा तात्पय) सम्यक् रूप से भार्षा के बाहरी और भीतरी रूप एवं तिवकास आदिद के अध्ययन से है” भोलानाथ षितवारी, भाषा षिवज्ञान, पृष्ठ 42. “भार्षा-तिवज्ञान को अथा)त् भार्षा के तिवज्ञान को भातिर्षकी कहते हैं। भातिर्षकी में भार्षा का वैज्ञातिनक तिववेचन तिकया जाता है”।— देवीशंकर षि<वेदी, भाषा और भाषिषकी, पृष्ठ 1293 .“भार्षातिवज्ञान का सीधा अथ) है— भार्षा का तिवज्ञान और तिवज्ञान का अथ) ह ै तिवशिशd ज्ञान। इस प्रकार भार्षा का तिवशिशd ज्ञान भार्षा-तिवज्ञान कहलाएगा”।— देवेन्द्रनाथ शमा6, भाषाषिवज्ञान की भूमिमका, पृष्ठ 176

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अतः हम कह सकते हैं तिक भार्षातिवज्ञान भार्षा सम्बन्धी सभी सूक्ष्म बातों पर प्रकाश डालता है और भार्षा में होने वाले परिरवत)नों को भी सामने लाता है साथ ही भार्षा अपने बदलते स्वरूप में कैसी होती है, उसके कौन से अवयव प्रभातिवत हुए तथा तिकन परिरस्थिस्थतितयों में भार्षा परिरवत)न होन े की सम्भावना होती है, इन सभी बातों का तिवश्लेर्षण समाजभार्षातिवज्ञान के अन्तग)त आता है अतः सामाजिजक परिरस्थिस्थतित जैसे जैसे बदलती है मनुष्य भी अपने को उसी के अनुरूप ढालता जाता है। जिजसका प्रभाव उसकी भार्षा पर भी पड़ता है। कभी-कभी भार्षा म ें इतना अधिधक परिरवत)न हो जाता ह ै तिक वह अपना मूल अल्किस्तत्व खो देती है और हम इसे नई भार्षा का नाम दे देते हैं। भार्षातिवज्ञान केवल भार्षा का अध्ययन करता है, परन्तु समाजभार्षातिवज्ञान भार्षा तथा समाज दोनों को अपने अध्ययन के्षत्र के अंतग)त रखता है। प्रत्येक भार्षा की अपनी शब्दावली होती है। लेतिकन बहुभार्षी समाज में लोग एक दूसरे के सम्पक) में आने के शिलए अपनी अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त तिकसी अन्य माध्यम भार्षा का प्रयोग करत े हैं। इसशिलए सम्पक) भार्षाओं का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

कषिपलदेव षि<वेदी का (भाषाषिवज्ञान एवं भाषा शास्त्र, पृष्ठ 3) भार्षातिवज्ञान के सन्दभ) में मानना है तिक – “मानव अपने भावों को व्यक्त करने के शिलए जिजस साथ)क मौखिखक साधन को अपनाता है, वह भार्षा है। संकेत आदिद माध्यमों के _ारा भी कुछ भावों की अक्षिभव्यशिक्त हो जाती है, परन्तु अपने भावों को सूक्ष्म और स्पd रूप में व्यक्त करने का सव�`म साधन भार्षा ही है”। प्रत्येक मनुष्य के मनन्, शिचन्तन और तिवचार का साधन भी भार्षा ही है। भार्षातिवज्ञान भार्षा-सम्बन्धी सभी प्रश्नों और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता ह ै या प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। भार्षातिवज्ञान का सम्बन्ध तिवश्व की समस्त भार्षाओं से है, अतः वह एक भार्षा से सम्बद्ध तिवर्षयों का ही नहीं, अतिपतु तिवश्व की समस्त भार्षाओं का सामूतिहक एव ं तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। प्रत्येक भार्षा का व्याकरण उसकी

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रूप-शिसजिद्ध, पद तिनमा)ण और वाक्य-प्रयोग का तिववरण प्रस्तुत करता है। भार्षातिवज्ञान भार्षा के उच्चारण, प्रयोग और उपयोग की शिशक्षा देता है।

राजनाथ भट्ट (भाषाषिवज्ञान एवं षिहन्दी भाषा, पृष्ठ 21) के अनुसार “भार्षातिवज्ञान के सामान्य अध्ययन से हमें भार्षा के प्रतित वैज्ञातिनक दृधिdकोण तिवकशिसत करने में सहायता धिमल सकती है। भार्षा के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतितपूण) तिवचारों का तिनराकरण इससे हो सकता है। हमें यह ज्ञान प्राप्त होगा तिक संसार की सारी भार्षाए ँपरिरवत)नशील हैं और परिरवर्गित<त होते-होते कोई भार्षा जब अत्यधिधक क्षिभन्न रूप ग्रहण कर लेती है तो उसे हम एक नई भार्षा का नाम दे देते हैं, और उसके पुराने रूप को ‘मृत’ घोतिर्षत कर देते हैं। इस प्रसंग में ‘मृत’ शब्द का अथ) ‘परिरवर्गित<त’ होता है। भार्षातिवज्ञानी देखता है तिक स्वनों शब्दों और अथu में कैसे-कैस े परिरवत)न हो रह े हैं। वह इन परिरवत)नों के तिनयम खोजता ह ै और उन तिनयमों का तिवशे्लर्षण करता है।”

भार्षातिवज्ञान तथा समाजतिवज्ञान को यदिद अलग अलग देखा जाय तो समाजभार्षातिवज्ञान के स्वरूप का अंदाजा लगान कदिठन हो जाएगा, समाजभार्षातिवज्ञान भार्षा को समाज तथा समाज को भार्षा से जोड़ता है। अतः भार्षा के स्वरूप, आकृतित, और उसके प्रयोग को समाज के सभी रूपों स े जोड़कर उसका अध्ययन समाजभार्षातिवज्ञान के अतग)त तिकया जाता है। समाजभार्षातिवज्ञान समाज में पाए जाने वाले तत्व धम), जातित, सम्प्रदाय, आदिद के साथ साथ साव)जतिनक संस्थान, काय), के्षत्र, परम्परा, शहरी तथा ग्रामीण परिरवेश आदिद का जो भी प्रभाव भार्षा पर पड़ता है, इसका सूक्ष्मता से अध्ययन करता है। मनुष्य समाज तथा परिरवार सभी स्थानों पर अपनी सुतिवधानुसार भार्षा का प्रयोग करता है, अतः समाजभार्षातिवज्ञान यह अध्ययन करता है तिक व्यशिक्त के वाशिचक व्यापार को उसके व्यशिक्तगत तथा साव)जतिनक जीवन म ें तिकस प्रकार देखा जाए, क्योंतिक भातिर्षक व्यवहार परिरस्थिस्थतित अनुसार बदलता रहता है। व्यशिक्तगत जीवन में जो मनुष्य का रहन-सहन होता है सामाजिजक

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जीवन में क्षिभन्न होता है, अतः दोनों को ध्यान में रखकर अलग-अलग तिवश्लेर्षण तिकया जाना चातिहए। घर परिरवार में तिकए गए भातिर्षक व्यवहार तथा आसपास के समाज में या काय) क्षेत्र में तिकए गए भातिर्षक व्यवहार में क्यों अंतर होता है, इन सभी बातों पर समाजभार्षातिवज्ञान प्रकाश डालता है। माना जाता है तिक भार्षा समाज का दप)ण होती है, समाज के अनुरूप ही भार्षा का तिवकास तथा ह्रास होता है, कभी-कभी सामाजिजक वातावरण के परिरवत)न के कारण कुछ भार्षाए ँभी परिरवर्गित<त होकर अपना पूण) स्वरूप बदल देती है, कभी व्यवहार में न आने के कारण धीरे-धीरे उनका अल्किस्तत्व ही समाप्त हो जाता है। समाज में सभी प्रकार की गतिततिवधिधयों का जैसेतिक aांतित, कभी शांतित, कभी युद्ध, कभी धार्मिम<क आन्दोलन, कभी राष्ट्रीय गतिततिवधिधयाँ, जीत-हार आदिद सभी का प्रभाव भार्षा पर पड़ता है। समाजभार्षातिवज्ञान मनुष्य पर पड़न े वाल े प्रतितदिदन के सामाजिजक प्रभावों पर भी नज़र डालता है। हमारा जो प्रतितदिदन का व्यवहार होता है उस पर उन सभी बातों या घटनाओं का बहुत प्रभाव पड़ता ह ै जो आसपास के समाज म ें हो रही हैं, अतः इन सभी भातिर्षकी अनुभवों के शिलए समाजभार्षातिवज्ञान के अध्ययन का सहारा शिलया जाता है।

रामबख्श मिमश्र ने अपनी तिकताब ’समाजभार्षातिवज्ञानः संक्षिक्षप्त परिरचय” में कहा है “भार्षा ज्ञान भातिर्षक समुदाय की समग्र मानशिसक चेतना में प्रतितधिष्ठत होता है, अथा)त् यह समाज में रहने वाले सभी लोगों की मल्किस्तष्क की समग्रता में तिनवास करता है। अतः सामग्री संकलन हेतु तिकसी एक सूचक पर तिनभ)र रहना केवल एक व्यशिक्त बोली का अध्ययन करना हुआ। यह स्थिस्थतित भार्षावैज्ञातिनक अध्ययन के शिलए आदश) हो सकती है, लेतिकन समाज के भातिर्षक व्यवहार को देखने समझने के शिलए बहुत कम पड़ती है। तिनष्कर्ष)तः हम यह मान सकते हैं तिक भार्षातिवज्ञान का क्षेत्र भार्षा तक सीधिमत है, परन्तु समाजभार्षातिवज्ञान का क्षेत्र व्यापक है वह भार्षा व समाज दोनों को साथ लेकर चलता है।

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(ग) समाजभाषाषिवज्ञान अन्तर्विवFषयक अध्ययन के्षत्र—समाजभार्षातिवज्ञान का के्षत्र इतना व्यापक ह ै तिक अन्यतिवज्ञानों को भी इसन े अपने अन्तर्गिव<र्षयक क्षेत्र के अंदर समातिहत कर शिलया है। अतः अन्य तिवज्ञानों से समाजभार्षातिवज्ञान का गहरा सम्बन्ध है। जिजसे हम तिनम्न तिबन्दुओं _ारा समझ सकते हैं—

समाजभाषाषिवज्ञान और मनोषिवज्ञान —

तिवचारों का सम्बन्ध मनुष्य के मल्किस्तष्क से होता है, और मनुष्य अपने तिवचारों को भार्षा के माध्यम से व्यक्त करता है। अतः भार्षा का सम्बन्ध भी मल्किस्तष्क से हुआ। मनुष्य समाज में रहता है, भार्षा और समाज एक दूसरे के पूरक हुए। व्यशिक्त _ारा बोले गए वाक्य का क्या अथ) होता है, क्या भाव होता है इस तथ्य को मनोतिवज्ञान _ारा सुलझाया जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य का व्यवहार अलग होता है। यह सब उसकी मनोवृक्षि` पर तिनभ)र करता है अतः समाजभार्षातिवज्ञान मनोतिवज्ञान की सहायता लेता है। इसी प्रकार मानशिसक रोतिगयों की बातों को समझन े के शिलए उनकी भार्षा समझन े के शिलए मनोतिवज्ञान भार्षातिवज्ञान की सहायता लेता है। मानशिसक रूप से पीतिड़त लोगों का पता उनके व्यवहार से लगाया जाता है, इसके शिलए समाजभार्षातिवज्ञान आवश्यक है। भार्षाअधिधगम, भार्षाई मनोव़क्षि` और भार्षाई तिनष्ठा भी इसके अन्तग)त महत्वपूण) अध्ययन क्षेत्र हैं।

समाजभाषाषिवज्ञान और भूगोल —

भूगोल का भी समाजभार्षातिवज्ञान स े गहरा सम्बन्ध ह ै तिकसी भी भार्षा पर वहा ँ की भोगौशिलक संरचना प्रकृतित, नदी, पहाड़, समुद्र, जलवायु, कृतिर्ष उपज, उयोग धंधे का बहुत असर पड़ता है। उसी के अनुसार भार्षा म ें शब्दों को शिलया जाता है। तथा भौगोशिलक परिरस्थिस्थतितयों के कारण भार्षा में भी परिरवत)न होते हैं। साथ ही यदिद उस वातावरण से यदिद

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तिकसी वस्तु का लोप हो जाए तो धीरे धीरे भार्षा से उस शब्द का भी लोप हो जाता है। अतः अलग-अलग भोगौशिलक परिरवेश में ही भार्षाए ँतथा बोशिलया ँ तिवकशिसत होती हैं। तिहमशीत ठंडा प्रदेश की एशिसकमों भार्षा में तिवक्षिभन्न प्रकार के बफ) के शिलए दज)न भर से अधिधक शब्द धिमलते ह ैं जबतिक अंग्रेजी अथवा तिहन्दी म ें इतने शब्द नहीं धिमलते। समुद्र तटवत� अथवा जलाशय बहुल क्षेत्र में मछली उद्योग सम्बन्धी शब्दावली की बहुतायत होती है जबतिक शुष्क सहारा के रेतिगस्तान में ऐसा नहीं है।

समाजभाषाषिवज्ञान और इषितहास —

इतितहास का भी समाजभार्षातिवज्ञान से गहरा सम्बन्ध है क्योंतिक भार्षा में परिरवत)न समय समय पर होता रहता है। कुछ शब्द नए जुड़ जाते हैं तो कुछ का प्रचलन समाप्त हो जाता है। पहले भार्षा का स्वरूप क्या था, वत)मान में क्या है, इस तथ्य का पता भार्षा के इतितहास से चल जाता है। इतितहास भार्षा के मूल स्वरूप से लेकर उसके परिरवर्गित<त रूप के बीच के अंतर को समझने में भी सहायक है, साथ ही हम भार्षा में हुए परिरवत)नों के कारणों का भी पता लगा सकते हैं। देश, दुतिनया में अतीत में जो घटनाए ँघट चुकी हैं उनका वैज्ञातिनक अध्ययन तिववरण इतितहास में धिमलता है। देश पर मुगलों का शासन लगभग 600 वर्ष) रहा। भारतीय भार्षाए ँअरबी, फारसी, तुक� से प्रभातिवत हुईं। यहीं उदू) भार्षा का जन्म हुआ। उसके बाद अंग्रेजों के शासन में अंगे्रजी आई। आधुतिनक भारतीय भार्षाए ँअंग्रेजी से बहुत प्रभातिवत हुई हैं। पहले अशिशक्षा थी गरीबी थी, अब बहुत कुछ बदल गया है। भार्षाए ँभी बदली हैं, एक समाज में कई भार्षाभार्षी रहते हैं अतः उनकी भार्षा का प्रभाव एक दूसरे की भार्षा पर पड़ता है, उस प्रभाव को भी हम इतितहास के माध्यम से देख सकते हैं। समाजिजक व्यवस्थाओं का प्रभाव भी भार्षा पर पड़ता है, इस प्रकार भार्षा के माध्यम से समाज की पुरानी व्यवस्था के बार े म ें पता लगाया जा सकता है। अतएव समाजभार्षातिवज्ञान एवं इतितहास भी एक दूसरे के पूरक हुए।

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समाजभाषाषिवज्ञान और समाजशास्त्र —

मनुष्य की सभी प्रकार की गतिततिवधिधयाँ सामाजिजक संरचना, वातावरण, संस्थाए ँजिजनमें वह काय) करता है, संस्कार और परम्पराए ँजो उस े समाज म ें प्राप्त होत े हैं, अलग अलग सामाजिजक संदभu में तिकसी शब्द, पदबंध अथवा वाक्य के अलग अलग अथ) हो सकते हैं। प्रोशिक्त और समे्प्रर्षणपरक सामथ्य) में भी सामाजिजक संदभ) और उसमें औशिचत्य के ज्ञान की भूधिमका महत्वपूण) होती है। ये सभी समाज के अंग हैं जिजनका अध्ययन समाजशास्त्र के अंतग)त तिकया जाता है। समाजभार्षातिवज्ञान इन्हीं सब प्रतिaयाओं को भार्षा से जोड़ कर देखता है। अतः समाजभार्षातिवज्ञान तथा समाजशास्त्र भी एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं।

समाजभाषाषिवज्ञान और नृतत्वशास्त्र —

नृतत्वशास्त्र के अंतग)त कई सारे तथ्यों का अध्ययन तिकया जाता है। मनुष्य के शारीर तथा मल्किस्तष्क का तिवकास, उसकी सांस्कृतितक संरचना, भेद, प्रजातीय भेद तथा अनुवांशिशक सम्बन्ध, रक्तसम्बन्ध आदिद। क्षिभन्न क्षिभन्न समाजों के परम्परागत रीतितरिरवाज, आचार व्यवहार के अंतर को समझने में सहायक है। भार्षा के सन्दभ) में हम यह कह सकते हैं तिक भार्षा तिकतनी पुरानी है, पहले इसकी शिलतिप कैसी थी, उसमें क्या-क्या परिरवत)न आए हैं, उस समय भार्षा लेखन में तिकन सामतिग्रयों का उपयोग तिकया जाता था, साथ ही उस काल का सामाजिजक वातावरण कैसा था, संस्कृतित का तिवकास तिकस प्रकार हुआ, पारिरवारिरक रिरश्तेनातों की शब्दावली आदिद इन सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है।

वस्तुतः बीसवीं शताब्दी के पूवा)ध) म ें अमेरिरका के नृतिवज्ञातिनयों यथा बोआज सपीर और aोबर का महत्वपूण) योगदान है। अमेरिरकी आदिदवासी जनजातितयों की मरणोन्मुख भार्षाओं का अध्ययन करके तिवर्षय को समृद्ध तिकया, साथ ही ग्रीक और लैदिटन के प्रभाव से भार्षावैज्ञातिनक अध्ययन को मुक्त कर वस्तुतिनष्ठ अध्ययन का माग) प्रशस्त तिकया।

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उAलोखनीय ह ै तिक पंजाबी तिवश्वतिवद्यालय पदिटयाला म ें नृभार्षातिवज्ञान (Anthropological Linguistics) का तिवभाग है।

समाजभाषाषिवज्ञान और अथ6शास्त्र—

समाज की आर्थिथ<क व्यवस्था का सम्बन्ध अथ)शास्त्र से है। अथ)शास्त्र के माध्यम से ही देश की आर्थिथ<क व्यवस्था जैसे आय के स्रोत कृतिर्ष, खतिनज, औद्योतिगक तिवकास, सुख सुतिवधा के साधन, प्रतित व्यशिक्त आय आदिद का व्यौरा अथ)शास्त्र के अन्तग)त आता है। इन सब का असर भार्षा पर भी पड़ता है। ति�दिटश समाजशास्त्री बेशिसल बन)प्तिस्टन मानते हैं तिक सीधिमत कोड तिनम्न वग) के होते हैं, और व्यापक कोड एवं सीधिमत कोड दोनों मध्य वग) के होते हैं। इसके कारण तिनम्नवग) साधनसुतिवधा से वंशिचत गरीब बना रहता है और मध्यवग) सम्पन्न। अतः समाजभार्षातिवज्ञान इसके शिलए अथ)शास्त्र की सहायता लेता है।

समाजभाषाषिवज्ञान और राजनीषितशास्त्र—

राजनीतित के के्षत्र म ें भी भार्षा का तिवकास साक्षरता अक्षिभयान, तिवदेशी भार्षाओं के प्रतित सरकार का दृधिdकोण, राजभार्षा तथा राष्ट्रीय भार्षा का तिनधा)रण, राजनीतित में प्रयुक्त भार्षा का स्वरूप आदिद भी समाजभार्षातिवज्ञान तथा राजनीतित शास्त्र का आपसी सम्बन्ध दशा)ते हैं। राष्ट्रीय साक्षरता अक्षिभयान तथा भार्षा सव�क्षण अक्षिभयान आदिद का सम्बन्ध भार्षा से है साथ ही ये अक्षिभयान और इनसे जुड़ी समस्याए ँतथा उनके समाधान आदिद इसके अंतग)त आते हैं। राजनीतित की भी अपनी शब्दावली होती है जिजसका तिवकास भी समाज से होता है। राजनैतितक दलों की पसंद नापसंद और प्राथधिमकताओं का असर भार्षाओं पर पड़ता है।

समाजभाषाषिवज्ञान और शिशक्षाशास्त्र —

शिशक्षा समाज का एक अक्षिभन्न अंग है, और भार्षा उसका माध्यम। शिशक्षा जगत में प्रयुक्त भार्षा, मातृभार्षा का स्थान, तिवदेशी भार्षाओं का प्रयोग तथा प्रभाव आदिद का तिवशे्लर्षण

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इसके अंतग)त तिकया जाता है। शिशक्षा का माध्यम क्या होना चातिहए समाज में तिकस प्रकार की शिशक्षा की आवश्यकता है। इन सभी तथ्यों को समाजभार्षातिवज्ञान के माध्यम से समझा जाता है। शिशक्षा जगत के अपने मापदण्ड व तिनयम होते हैं जिजन्हें समाज मानता है। इससे मनुष्यों के साक्षर होने का अनुमान लगाया जाता है। शिशक्षण संस्थाओं के माध्यम से ही व्यशिक्त पढ़ना शिलखना सीखता है। स्कूल, कालेज और तिवश्वतिवद्यालयों म ें अनेक भार्षाए ँपढ़ाई जाती हैं जिजससे शिशक्षिक्षत लोग प्रायः ति_भार्षी या बहुभर्षी होते हैं। शिशक्षा का अनुपात शहरों में अधिधक है।

समाजभाषाषिवज्ञान और षिवज्ञान —

तिवज्ञान का काय) है तिनत नयी खोज करना, जिजसका समाज पर पूरा-पूरा प्रभाव पड़ता है। तिकसी भी गतिततिवधिध तथा हो रह े भौगौशिलक परिरवत)नों का पता लगाकर तिवज्ञान अपने तार्गिक<क पक्ष रखता है। जीवतिवज्ञान, शरीरतिवज्ञान, भौतितकी, रसायनशास्त्र, वनस्पतित तिवज्ञान आदिद में तिनरन्तर शोध काय) होते रहते ह ैं जिजससे समाज के लोग तथा वातावरण प्रभातिवत होता है तिवज्ञान के माध्यम से हमें ऐसी कई आवश्यक्ताओं के बारे में जानकारी धिमलती है जिजनके तिबना मानव अधूरा रहता है और इन बातों से मनुष्य अनजान रहता है। तिवज्ञान अपने तकu के माध्यम से रूदिढ़वादी समाज की सोच बदलने का काय) भी करता है। तिवज्ञान के इन सभी अध्ययनों का माध्यम भार्षा ही होती है। जो तिवज्ञान के समस्त अतिवष्कारों तथा खोजों को समाज से जोड़ती है। वैज्ञातिनक तिनयम प्रकृतित के तिनयमों पर आधारिरत हैं। देश और समाज के तिवकास और आधुतिनकता म ें तिवज्ञान का योगदान प्रशंसनीय है।

समाजभाषाषिवज्ञान और प्रौद्योषिगकी — Page 15

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मनुष्य तिनरन्तर प्रगतित की ओर अग्रसर होता है, समाज में नई-नई वस्तुओं की खोज व उपभोग करने से लेकर आज की आवश्यक्ताओं के अनुसार यंत्रों का प्रयोग जैसे कम्प्यूटर, भार्षा अक्षिभयंतित्रकी, इलैक्ट्रातिनक उपकरण, केधिमकल, आदिद। मैकेतिनकल, इंजीतिनयरिर<ग, कम्प्यूटर तिवज्ञान, प्राकृतितक भार्षा आदिद के माध्यम से सभ्यता व संस्कृतित का तिवकास होता है। इन सभी उपकरणों के शिलए नई भार्षा तथा नई शैशिलयों का उद्भव होना समाज के शिलए लाभकारी है। इसप्रकार प्रौद्योतिगकी भी समाजभार्षातिवज्ञान स े सम्बन्ध रखता है, और तिनरन्तर मनुष्य के सामाजिजक तिवकास में सहायक है। भार्षातिवज्ञान, गक्षिणत और इंजीतिनयरिर<ग के समप्तिन्वत योग से कम्प्यूटर तिवज्ञान का तिवकास हुआ है। उसमें यांतित्रक (कृतित्रम) बुजिद्धम`ा होती है।

समाजभाषाषिवज्ञान और चिMषिकत्साषिवज्ञान —

मनुष्य की शारीरिरक संरचना तथा वह भार्षा का प्रयोग तिकन वागंगों की सहायता से करता है। यदिद कोई तिकसी भार्षा के शब्दों का स्पd उच्चारण करने में असमथ) है तो इसके कारणों का पता शिचतिकत्सातिवज्ञान के माध्यम स े लगाया जाता है। इसके अंतग)त वाग-दोर्ष शिचतिकत्सा, तथा तिवक्षिभन्न प्रकार के रोगों के उपचार से लेकर अंगप्रत्यारोपण तक का काय) तिकया जाता है। अतः इन सब गतिततिवधिधयों का समाज तथा भार्षा पर प्रभाव पड़ना स्वाभातिवक है। समाजभार्षातिवज्ञान शिचतिकत्सातिवज्ञान की सहायता स े इन सभी तथ्यों पर प्रकाश डालता है। वाचाघात, अपठन संज्ञानात्मक तिवकारों अध्ययन और इलाज शिचतिकत्सकीय समाजभार्षातिवज्ञान के अन्तग)त आता है।

समाजभाषाषिवज्ञान और कानून ( षिवचिN ) —

समाज म ें होन े वाली कुरीतितयों को रोकने के शिलए समाज के _ारा ही तिनर्मिम<त पंचायत, न्यायपाशिलका, न्यायालय, तिववादों का तिनपटारा, साक्ष्य, अपराधी की पहचान करना, तथा

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उन्हें दस्थिण्डत करना, ये सभी काय) सामाजिजक व्यवस्था में शांतित बनाए रखने के शिलए तिकए जाते हैं। कानून की भी अपनी शब्दावली और भार्षा होती ह ै जिजसके माध्यम से समस्त कायu को सम्पन्न तिकया जाता है। इस प्रकार एक ही समाज में भार्षा के कई रूप देखने को धिमलते हैं, जिजनका प्रयोग स्थान व समयानुसार तिकया जाता है। अब फॉरेल्किन्सक तिवज्ञान ज्ञान की महत्वपूण) शाखा के रूप में तिवकशिसत हो रहा है जिजसमें भार्षा की भी भूधिमका महत्वपूण) है।

1.2 वत6मान प्रवृचिOयाँ—(क) भाषा सम्पक6 — एक ही समाज में कई भार्षा-भार्षी लोग रहते हैं, वे अपने परिरवार में मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं, अतः समाज के लोगों के एक दूसरे के सम्पक) में आने से उनकी भार्षा भी सम्पक) में आती है। भार्षा सम्पक) के कारण भार्षा में कुछ परिरवत)नों का होना स्वाभातिवक है। इस दृधिd से युरिरल वाइनराइख (1953) का अध्ययन बहुत महत्वपूण) हैं। क्षिभन्न क्षिभन्न भार्षाए ँएक दूसरे के सम्पक) में कैसे आ जाती है? उनके कारण क्या है? और सम्पक) में आने के बाद दूरगामी परिरणाम क्या होते हैं? वाइनराइख के तिनष्कर्ष) बहुत प्रासंतिगक हैं।

प्रो.रघुवीर प्रसाद भटनागर (आNुषिनक भाषाषिवज्ञान की भूमिमका, पृष्ठ 24) के अनुसार “भार्षा सम्पक) की स्थिस्थतित ति_भातिर्षकता को जन्म देती है। इस स्थिस्थतित में व्यशिक्त अपनी देशीय भार्षा(प्रथम भार्षा) के अतितरिरक्त तिकसी ति_तीय भार्षा के प्रयोग करने की आवश्यकता अनुभव करता है। ति_तीय भार्षा के ऊपर उसका कम(न्यूनाधिधक) अधिधकार हो जाता है। ऐसा व्यशिक्त ति_भार्षी कहलाता है। परन्त ु कभी-कभी ऐसे व्यशिक्त भी धिमलते हैं जिजनका प्रथमभार्षा व ति_तीय भार्षा पर समान अधिधकार होता है तथा जो दोनों भार्षाओं का समान योग्यता से प्रयोग करते हैं। ये व्यशिक्त उभयभार्षी कहलाते हैं। इस प्रकार से भार्षा

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संपक) ति_भातिर्षता तथा उभय-भातिर्षता उत्पन्न करता है। तिकसी मापनी के एक छोर पर एक भार्षी होता है जो केवल प्रथम भार्षा का प्रयोग करता है, मध्य स्थिस्थतित ति_भार्षी की होती है जो तिकसी ति_तीय भार्षा की न्यूनाधिधक योग्यता प्राप्त कर उसका भी प्रयोग करता है। दूसरे छोर पर उभयभार्षी होता है जो तिबरला व्यशिक्त ही होता है जो समान रूप से दोनों भार्षाओं का पूण) अधिधकार व समान योग्यता के साथ प्रयोग करता है।”

भार्षासम्पक) का चरम पक्ष ह ै सम्पक) भार्षा जिजस े ’लिल<ग्वा फ्रें का’ भी कहा जाता है। बहुभार्षीय परिरस्थिस्थतितयों में प्रायः एक सामान्य भार्षा की आवश्यकता होती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत की भातिर्षक परिरस्थिस्थतित है। अनेक तिवकशिसत प्रादेशिशक भार्षाओं के होते हुए भी हमारे यहाँ एक संपक) भार्षा की अत्यन्त आवश्यकता अनुभव हुई। शैक्षक्षिणक, प्रशासतिनक, व्यापारिरक आदिद कारणों से राष्ट्र में एक ऐसी भार्षा अपेक्षिक्षत है जिजसका प्रयोग प्रत्येक प्रदेश में तिकया जा सके।

भारत में अधिधकांश राज्यों में माध्यधिमक या उच्च माध्यधिमक स्तर पर अंगे्रजी अतिनवाय) तिवर्षय के रूप में पढ़ाई जाती है। तिवश्वतिवद्यालय स्तर पर उच्चतर अध्ययन तथा शोध काय) अंगे्रजी में होता है। अतएव अन्तर राज्य तथा अन्तर तिवश्वतिवद्यालय तिवचार गोधिष्ठयों तथा सम्मेलनों में अंग्रेजी ही सम्पक) भार्षा का काय) करती है। सम्पक) भार्षा का यह सीधिमत प्रयोग जहाँ पर समक्षक्षिणक, स्वचाशिलत अनुवाद-यंत्र-रचना की सुकरता उपलब्ध हो वहा ँ अनावश्यक हो जाता है। परन्तु पारस्परिरक वाता)लाप तथा तिवचारों के वैयशिक्तक स्तर पर आदान-प्रदान के शिलए सम्पक) भार्षा आवश्यक है।

कभी-कभी व्यशिक्त अपने काय) को सम्पन्न करने हेतु सम्पक) भार्षा का प्रयोग इतना अधिधक करने लगता है तिक उसे उसकी प्रथम भार्षा के उपयोग की आवश्यक्ता ही महसूस नहीं होती और धीर े धीर े वह उसका प्रयोग करना पूण)तः बंद कर देता है। इस प्रकार प्रथम भार्षा परिरत्यक्त हो जाती है और ति_तीय भार्षा या सम्पक) भार्षा प्रथम भार्षा का स्थान ले लेती है।

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(ख) भाषिषक आदान— आदान शब्द का अथ) है तिकसी बाहरी चीज को ले लेना या अपने में धिमला लेना। जब मनुष्य एक दूसरे के सम्पक) में आता है, तब वह वस्तुओं के आदान के साथ-साथ भातिर्षक आदान भी करता है। वस्तुओं के आदान में भतिवष्य में उन्हें लौटाया भी जा सकता है,पर भातिर्षक आदान में एक भार्षा(लक्ष्य भार्षा) दूसरी भार्षा (स्रोत भार्षा)के शब्दों को इस प्रकार अपने में समातिहत कर लेती है, तिक तिफर उसकी पहचान करना या उन्हें अलग करना कदिठन होता है। सामाजिजक जीवन में आदान दो प्रकार का होता है— सामान्य आदान और भातिर्षक आदान। दोनों प्रकार के आदानों में एक बहुत बड़ा अंतर देखने को धिमलता है।सामान्य आदान में जब मनुष्य तिकसी दूसरे व्यशिक्त से कोई वस्तु लेता है, तो उस दूसरे व्यशिक्त के पास उस वस्तु में कमी हो जाता है, तथा यह तिनक्षिoत है तिक कालान्तर में उसे वह वस्तु लौटानी पड़ती है। परन्तु भातिर्षक आदान ठीक इसके तिवपरीत होता है। जब लक्ष्य भार्षा, स्रोत भार्षा से आदान करती है तो स्रोत भार्षा के शब्द भण्डार में कोई कमी नहीं आती और लक्ष्य भार्षा में परिरवत)न के साथ साथ उसके शाखिब्दक भण्डार में वृजिद्ध होती है। भार्षा में भी आदान दो प्रकार से हो सकता है-प्रत्यक्ष आदान और अप्रत्यक्ष आदान। प्रत्यक्ष आदान में भार्षा में शब्दों की कमी होने के कारण दूसरी भार्षा से शब्द लेकर भातिर्षक व्यवहार सम्पन्न तिकया जाता है। कभी कभी ऐसा होता है तिक तिकसी भार्षा से शिलया गया आगत शब्द उस भार्षा का अपना न होकर उसमें भी तिकसी अन्य भार्षा से आया हुआ होता है। उदाहरणाथ) तिहन्दी में अंग्रेज़ी भार्षा के कई आगत शब्द ऐसे हैं जो अंग्रेज़ी में भी फ्रें च या जम)न भार्षाओं से आए हैं। इस प्रकार का आदान अप्रत्यक्ष-आदान कहलाता है।

कभी कभी यह देखने को धिमलता है, तिक जो शब्द स्रोत भार्षा से शिलए गए हैं उनका प्रचलन उस भार्षा में धीरे-धीरे कम होने लगता है और तिफर समाप्त हो जाता है। परन्तु लक्ष्य भार्षा में वे शब्द व्यवहार में बने रहने के कारण तिवद्यमान रहते हैं।

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भारतीय भार्षाओं में तिवक्षिभन्न भार्षाओं के आदान देखे जा सकते हैं। जैसे— मध्यकाल में मुगलों के आगमन के साथ-साथ अरबी, फारसी और तुक� भार्षाए ँआईं। मुगलों का शासन लगभग छः सौ वर्ष) रहा, जिजससे भारतीय भार्षाए ँबहुत प्रभातिवत हुईं।

(ग) भाषा<ैत— जगन्नाथन ने डाइग्लोशिसया के शिलए ‘भार्षा_ैत’ शब्द दिदया। तिकसी भार्षायी समाज में एक भार्षा के दो या दो से अधिधक रूपों का प्रयोग जब क्षिभन्न परिरस्थिस्थतितयों में होता है तो ऐसी स्थिस्थतित को भार्षा_ैत कहते हैं। भार्षायी समाज के लोग जहा ँ एक रूप का प्रयोग शिशक्षा, राजनीतित, सातिहप्तित्यक परिरचचा) प्रशासन तथा औपचारिरक परिरस्थिस्थतितयों में तिनयधिमत रूप से करते हैं वहीं दूसरे रूप का प्रयोग अनौपचारिरक तथा बोलचाल की परिरस्थिस्थतितयों में करते हैं। औपचारिरक तथा अनौपचारिरक के इस भेद को स्वीकार करते हुए एक भार्षारूप को उच्च बोली तथा अन्य को तिनम्न बोली अक्षिभधान दिदए जाते हैं। प्रायः उच्च बोली सातिहप्तित्यक दृधिd से प्रतितधिष्ठत व मानक स्वरूप की होती है या कभी कभी वरेण्य कही जाने वाली भार्षाए ँइस वग) में आती हैं, जबतिक तिनम्न बोली स्थानीय जनभार्षा होती है। ऐसे अनेक दृdान्त धिमलते हैं जहाँ भातिर्षक समुदाय का शिशक्षिक्षत वग) ही उच्च व तिनम्न दोनों बोशिलयों में पूण) रूपेण प्रवीण हो। कतितपय स्थिस्थतितयों में सांस्कृतितक कारणों से उच्च बोली भार्षा का शुद्ध व सही रूप माना जाता है। इस्लाम धम) की भार्षा होने के कारण यही स्थिस्थतित वरेण्य अरबी की है तिकन्तु जो लोग दोनों रूपों में प्रवीण होते हैं उनके प्रयोग की स्थिस्थतित सुतिनक्षिoत व स्थायी होती है। ये रूप कभी भी एक दूसरे पर आरोतिपत नहीं होते हैं। वक्ता जिजस परिरस्थतित में अपने को पाता है उसके अनुरूप प्रयोग करता है।

डायग्लोशिसया फ्रें च शब्द तिडग्लोसी स े बना है। इसका व्यवहार बोली तिवज्ञान म ें फगू)सन महोदय ने तिकया। कुछ स्थानों पर तिकसी एक भार्षा के दो या दो से अधिधक उपरूप तिकसी एक जनजातित के कुछ व्यशिक्तयों के _ारा तिवक्षिभन्न परिरस्थिस्थतितयों म ें उच्चरिरत होत े हैं। इस

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प्रवृक्षि` को ही सव)प्रथम चाAस) फगू)सन न े तिडग्लोशिसया की संज्ञा दी है। उदाहरणस्वरूप उन्होंने मानक भार्षा और उसके साथ उसकी ही क्षेत्रीय बोली को शिलया है। बहुत से लोग घर पर या परिरवार में या धिमत्रों के बीच स्थानीय बोली का प्रयोग करते हैं, पर तिकसी अन्य बोली के बोलने वालों के साथ मानक भार्षा का प्रयोग करते हैं। तिहन्दी के तिवशाल के्षत्र में यह स्थिस्थतित पग पग पर दिदखाई देती है। मथुरा का �जवासी तिकसी दूसरे �जवासी से �ज में बोलना पसंद करता है, जबतिक अवधी-भोजपुरी भार्षी से मानक तिहन्दी में तत्काल बोलने लगता है। प्रायः ऐसी मान्यता है तिक तधिमल, तेलुगु और बंगला भार्षाओं में भार्षा_ैत की स्थिस्थतित पाई जाती है। इस बात पर देश के शीर्ष)स्थ भार्षातिवज्ञानी एकमत नहीं हैं।

(घ) षि<भाषिषकता एवं बहुभाषिषकता—षि<भाषिषकता —

एरषिवन और औसगुड 1954 ने ति_भातिर्षकता की व्याख्या एक नए ढंग से प्रस्तुत की है जो भार्षा उपाज)न के क्षेत्र में एक सजीव एवं महत्वपूण) पद्धतित की ओर संकेत करती है। उनका कथन है तिक भार्षा शिशक्षण की ति_भातिर्षक परिरस्थिस्थतितयों में सैद्धांतितक रूप से संयुक्त या समानाधिधकृत पद्धतित अपनानी चातिहए। उन्होंने इसे पद्धतितयों का सहअल्किस्तत्व नाम दिदया है। इस संदभ) में उन्होंने दो सीमावत� परिरस्थिस्थतितयों का उAलेख तिकया है। उनमें पहली पद्धतित एक परम्परागत संयुक्त व्यवस्था है जो भार्षाओं के धिमक्षिश्रत संदभu में चाशिलत होती है। इसके अनुसार छात्र तिवद्यालय में उदि¦d भार्षा के नए शब्दों को मातृभार्षा के शब्दों के माध्यम से अनुवाद _ारा सीखता है अथवा समान वातावरण की घटनाओं में एक ही परिरवार के सदस्य दो भार्षाओं का प्रयोग उनके पारस्परिरक कोड परिरवत)न के साथ करते हैं। इसके तिवपरीत दूसरी पद्धतित एक समानाधिधकृत व्यवस्था है। इसमें प्रथम भार्षा को उदि¦d भार्षा से पृथक रखा जाता है और उशिचत संदभu में इसका प्रयोग तिकया जाता है। छात्र उदि¦d भार्षा के नए

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शब्दों तथा अन्य भार्षाई संरचना के घटकों को जीवन की यथाथ) परिरस्थिस्थतितयों में अनुभवों _ारा सीखता है।

ति_भातिर्षकता या बहुभातिर्षकता दो प्रकार की होती है— व्यशिक्तपरक और समाजपरक। व्यशिक्तपरक ति_भातिर्षकता प्रायः एक भार्षा-भार्षी समुदाय में देखी जाती है। जब कोई तिवशिशd शिशक्षा सम्पन्न व्यशिक्त अपने ज्ञानवध)न के शिलए या अन्य वैयशिक्तक आवश्यकताओं के कारण तिकसी दूसरी भार्षा को सीखता है, तो वह व्यशिक्तपरक ति_भातिर्षकता कहलाएगी। जैसे कोई रूसी या अमरीकी तिहन्दी या तिकसी अन्य भारतीय भार्षा को अपने व्यशिक्तगत उ¦ेश्य से सीखता है, तो उसकी आवश्यक्ता उसके समाज की समे्प्रर्षण व्यवस्था का एक अंग या उपांग नहीं होगी। इसके तिवपरीत यदिद एक समुदाय के सदस्य अपने पारिरवारिरक व्यवहार संप्रेर्षणीयता और दैतिनक आचरण आदिद के संदभ) में एक से अधिधक भार्षाओं का प्रयोग करते हैं, तो समाजपरक ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न होती है। ति_भातिर्षकता भारतीय सम्प्रेर्षण व्यवस्था का एक प्रमुख अंग है। यह व्यवस्था काल-aमानुसार समाज की अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल जिजस प्रकृतित में ढलती गई, उसमें ति_भार्षी स्थिस्थतित भी सहज रूप में उभरकर सामने आती गई। इसशिलए न केवल भारत एक बहुभार्षी देश है, बल्किAक भारत का प्रत्येक भार्षावार प्रदेश भी बहुभार्षी प्रदेश है। जैसे दिदAली और चंडीगढ़ आदिद में शिशक्षिक्षत लोग कोड-परिरवत)न की दृधिd से तिहन्दी पंजाबी और अंग्रेजी का समान परिरस्थिस्थतितयों में वैकस्थिAपक प्रयोग करते हैं। लगभग यही स्थिस्थतित भारत के सभी प्रदेशों की है जो भार्षा भेद, बोली वैक्षिभन्न्य और भातिर्षक ति_स्तरीयता की दृधिd से और भी जदिटल बनती जा रही है। तिफर भी समे्प्रर्षण की प्रतिaया में कोई बाधा उपस्थिस्थत नहीं होती, क्योंतिक एक लघु के्षत्रीय बोली स े लेकर समू्पण) देश की संपक) भार्षा तक संरचनात्मक भार्षाई घटकों-स्वतिनम, रूतिपम,शब्द सधिन्नवेश, पदबंध और वाक्य का संaमण होता है। इस संaमण से संपे्रर्षण की प्रतिaया के तिवस्तार तथा पारस्परिरक भार्षा व्यवहार में सहजता परिरलक्षिक्षत होती है।

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ब्लूम:ील्ड (Language, 1983) के अनुसार ति_भातिर्षक वह व्यशिक्त माना जाएगा जो दो भार्षाओं में मातृभार्षावत दक्षता रखता है। हागेन,1872 के अनुसार ति_भातिर्षकता की परिरभार्षा को हमें बहुमत अनुपात के रूप में नहीं बल्किAक लघुतम अनुपात के रूप में ग्रहण करना चातिहए व्यावहारिरक स्तर पर ति_भातिर्षकता पर तिवचार करत े हुए वाइनराइख( 1953, Languages in contact) ने इसशिलए इसे दो भार्षाओं को एक के बाद दूसरे प्रयोग के स्वभाव के रूप में देखने का आग्रह तिकया। ति_भातिर्षकता जन सामाजिजक आवश्यक्ता का वह स्तर होता ह ै जो न तिकसी औपचारिरक भार्षा-शिशक्षण की अपेक्षा रखता ह ै और न ही तिकसी शिलखिखत सातिहप्तित्यक मानदण्ड की। यही कारण है तिक भारत जैसे अशिशक्षिक्षत देश की भार्षा व्यवस्था में भी ति_भातिर्षकता की जड़ें बहुत गहराई तक जमी हैं। शहरों में रहने वाले अनेक अपढ़ लोग भी सामान्य बोलचाल में ति_भार्षी पाये जाते हैं।

सामाजिजकता के आयाम पर ति_भातिर्षकता को दो वगu में तिवभाजिजत तिकया जा सकता है-

1.व्यशिक्तपरक ति_भातिर्षकता— इसम ें प्रयोक्ता अपनी वैयशिक्तक आवश्यक्ताओं के कारण अन्य भार्षा को स्वीकार करता है। इस वग) के प्रयोक्ता तिकसी सामाजिजक दबाव या समे्प्रर्षण व्यवस्था की अपनी मांग के कारण दूसरी भार्षा सीखने की ओर प्रवृ` नहीं होते। उदाहरण के शिलए अगर कोई तिहन्दी मातृभार्षी, रूसी, जम)नी, फ्रें च, ग्रीक आदिद भार्षाओं को सीखने की ओर प्रवृ` हैं तो उसकी इस प्रवृक्षि` को उसके समाज की समे्प्रर्षण व्यवस्था की मांग का परिरणाम नहीं कहा जा सकता।2.समुदायपरक ति_भातिर्षकता— इसमें प्रयोक्ता मातृभार्षेतर भार्षा को अपन े समाज की व्यापक समे्प्रर्षण व्यवस्था की एक महत्वपूण) कड़ी के रूप म ें सीखता है। इस वग) का प्रयोक्ता अन्य भार्षा को एक सामाजिजक दबाव के परिरणामस्वरूप अपनाता पाया जाता है। उदाहरण के शिलए तिहन्दी मातृभार्षी जब अंगे्रजी भार्षा को सीखने की ओर प्रवृ` होता है तब

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वह केवल अपनी वैयशिक्तक रुशिच के कारण ही ऐसा नहीं करता, वल्किAक उच्च शिशक्षा, तकनीकी ज्ञान, वैज्ञातिनक तिवर्षयों पर ज्ञान वाता) आदिद सामाजिजक संदभu की मांग है तिक तिहन्दी भार्षी समाज के प्रयोक्ता अंग्रेजी भार्षा में भी पया)प्त दक्षता रखें।कुछ तिव_ानों की यह मान्यता है तिक एकभार्षी बालकों की तुलना में ति_भार्षी बालक अपनी शिशक्षा में प्रायः तिपछड़ जाते हैं। इस ओर भी तिव_ानों ने संकेत तिकया है तिक एक भार्षा के माध्यम से पढ़ने वाले बालकों की प्रगतित ति_भार्षी बालकों की तुलना में कहीं अधिधक होती है। तिकन्त ु जींस(1960) एचिलजाबेथ पील और लैंबट6 (1962) आदिद _ारा संचाशिलत परिरयोजनाओं से यह शिसद्ध होता ह ै तिक ति_भातिर्षकता, बौजिद्धक तिवकास म ें बाधक नहीं। उनके परीक्षण से यह स्पd हो जाता ह ै तिक फ्रें च भार्षी समुदाय के दस वर्ष�य ति_भार्षी बालक अपने समुदाय के एक भार्षी बालकों की तुलना म ें कहीं अधिधक भार्षायी क्षमता रखते ह ैं और सामान्य बौजिद्धक योग्यता म ें दूसर े वग) स े कहीं आगे रहत े हैं। भार्षा और संस्कृतित का सम्बन्ध एक दूसरे से बहुत गहरा होता है। कुछ लोग तो भ्रम से भार्षा को तिकसी समुदाय की संस्कृतित का एक सूचक शिचन्ह भी मानते हैं, पर भार्षा और संस्कृतित दोनों का सम्बन्ध सामाजिजक समुदाय स े रहता है। सामाजिजक समुदाय एक भार्षी या ति_भार्षी हो सकता है पर यह अतिनवाय) नहीं तिक एकभार्षी समुदाय की संस्कृतित भी एकतिनष्ठ ही हो और ति_भार्षी समुदाय की ति_तिनष्ठ।

जब कोई व्यशिक्त पूण)तः तिवदेशी या देसी भार्षा सीख लेने पर भी मातृभार्षा में दक्षता नहीं छोड़ता है तो ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित होती है। ऐसी स्थिस्थतित में वह व्यशिक्त दो भार्षाओं में नैसर्गिग<क वक्ता के समान दक्षता रखता है। दो भार्षाओं को नैसर्गिग<क बनाए रखना भी अद्भतु क्षमता का द्योतक है। यह स्थिस्थतित दो भार्षाओं के घतिनd आदान के फलस्वरूप या तिकसी तिवजेता भार्षा के तिनरन्तर बढ़ते हुए प्रभाव के कारण होती है।

बहुभाषिषकता --

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दो या दो से अधिधक भार्षाओं के ग्रहण और अक्षिभव्यशिक्त की क्षमता बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित है। इसदृधिd से तिवश्व के तिवक्षिभन्न भागों म ें तिनवास करने वाल े काफी संख्या म ें बहुभातिर्षक समाज धिमलते हैं। आज लगभग सभी वग) बहुभार्षी पाए जाते हैं जो अपने घर में मात©भार्षा, काय) क्षेत्र में मानक तथा अन्य अक्षिभव्यशिक्त के शिलए सम्पक) भार्षा का प्रयोग करते हैं।

तिवक्षिभन्न भार्षा वैज्ञातिनकों ने ति_भातिर्षकता और बहुभातिर्षकता के सन्दभ) में अपने मत प्रदान तिकए हैं—

ब्लूम:ील्ड(Language,1933-56) के अनुसार “दो भार्षाओं की मातृभार्षा के रूप में क्षमता ति_भातिर्षकता है”।

हागेन(1970-127,128) न े ति_भातिर्षकता की व्याख्या दो प्रकार स े की ह ै एक तो सीधिमत अथ) में और दूसरे व्यापक अथ) में। सीधिमत अथ) में हागेन भी ब्लूमफील्ड की भांतित “एकाधिधक भार्षाओं में मातृभार्षावत क्षमता को ति_भातिर्षकता कहते हैं”, लेतिकन व्यापक अथ) में ति_भातिर्षकता की व्याख्या करते हुए उन्होंने यह माना है तिक व े “प्रत्येक व्यशिक्त जो अAप ज्ञान के शिलए तिबना तिकसी तिवशेर्ष इच्छा के ति_तीय भार्षा को सीखते हैं ति_भातिर्षक है और यह स्थिस्थतित भी ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित ही है”।

हान6बी(1977-3) ने बहुभातिर्षकता के दो आवश्यक तत्व माने हैं—

1.बहुभार्षी व्यशिक्त में एकाधिधक भार्षाओं में भातिर्षक सम्बन्धों को स्थातिपत करने की क्षमता और2.व्यशिक्त परस्पर भातिर्षक सम्बन्ध स्थातिपत करने के शिलए तत्पर भी हो।हान6बी का तात्पय) है तिक बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित उसी समय उपस्थिस्थत होगी जब दो या अधिधक भार्षाओं में प्रयोग क्षमता होने के साथ-साथ दोनों भार्षा भार्षी उनके प्रयोग के शिलए

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तत्पर भी हों, अथा)त् बहुभातिर्षक व्यशिक्त अपनी आवश्यकतानुसार तिवक्षिभन्न भातिर्षक संदभu में तिवक्षिभन्न भार्षाओं का प्रयोग करता है तो बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न हो जाती है।

टेलर(1977-68) ने ति_भातिर्षकता के तीन प्रमुख कारण बताए हैं। उनके अनुसार समाज में ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न होने के तीन कारण हो सकते हैं–

1.तिनम्न वग) के लोगों में अंतर संबंध जातीय कारणों से होते हैं। और इससे बहुभातिर्षकता अथवा ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न हो सकती है।2.उच्च वग) में ति_भातिर्षकता का कारण शिशक्षा है। उच्च वग) तिवक्षिभन्न कारणों से ति_तीय भार्षा सीखता है, और इस ति_तीय भार्षा के सीखने से वह ति_भार्षी हो जाता है।3.तीसरी स्थिस्थतित उस समय उत्पन्न होती है जब तिकन्हीं दो क्षिभन्न भार्षा समाजों में सांस्कृतितक आदान-प्रदान, मेल-जोल, सेवाभाव, सहायता आदिद के भाव को लेकर परस्पर संबंध स्थातिपत होते हैं।अतः यह कह सकते हैं तिक जातीयता, शिशक्षा तथा तिवक्षिभन्न कारणों से क्षिभन्न भार्षा समुदायों के आपसी सम्पक) के कारण ति_भातिर्षकता अथवा बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न होती है।मैके (1968-554-55) के अनुसार दो या दो से अधिधक भर्षाओं का वैकस्थिAपक प्रयोग बहुभातिर्षकता है। वह बहुभातिर्षकता को वैयशिक्तक मानते ह ैं और सामाजिजक बहुभातिर्षकता को वैयशिक्तक बहुभातिर्षकताओं का समुदाय कहते हैं। मैके भार्षा के प्रयोग पर बल देते हैं। उनके अनुसार ति_भातिर्षकता प्रयोग की तिवशिशdता है। ति_भातिर्षकता भार्षा क्षमता की वस्तु न होकर भार्षा व्यवहार की वस्तु है। जब दो समुदाय परस्पर सम्पक) म ें आते ह ैं तो उसके परिरणाम स्वरूप ति_भातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न हो जाती है।

साइमन(1969-11-25) न े बहुभातिर्षकता को एक और दृधिd स े देखा है। उन्होंने बहुभातिर्षकता के पीछे भार्षायी अल्किस्मता, धम)-भेद, वंश-परम्परा, पारिरवारिरक शत्रुता, वग) तिवरोध और तिवदेश संपक) आदिद को मुख्य कारण माना है। इसके साथ ही तिवक्षिभन्न तिवशाल

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औद्योतिगक नगरी व ऐसे महानगरों के बन जाने से जिजनमें तिवक्षिभन्न भार्षा समुदायों के प्रवासी रहते हों, के कारण भी बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न हो जाती है। प्रवासी समाज चाहे अपनी भार्षा की मान्यता की मांग कर े या न कर ें लेतिकन उनकी अपनी भार्षा धीरे-धीरे तिवकAप के रूप में तिवकशिसत होती रहती है, तथा परस्पर तिवरोधी भार्षा समाज प्रतितस्पधा) के कारण अपनी भार्षा के तिवस्तार के शिलए तिवक्षिभन्न संस्थानों की स्थापना करते हैं।

साइमन के तिवचार बहुभातिर्षकता के सम्बन्ध में एक व्यापक दृधिd देते हैं। बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित के उत्पन्न होन े के पीछे कोई एक कारण नहीं होता है। तिवक्षिभन्न सामाजिजक, राजनीतितक, आर्थिथ<क, व्यावसाधियक, सांस्कृतितक आदिद कारणों से बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित उत्पन्न होती है। भारत में कभी समू्पण) देश में संस्कृत भार्षा का प्रचलन था तो प्रशासतिनक कारणों से मुगलकाल में उदू) व फारसी भार्षा महत्वपूण) होने के कारण उदू) और फारसी को अपनाया गया। अंग्रेजों के आने के बाद सरकारी आवश्यकता के कारण तथा व्यवसाधियक सुतिवधा के शिलए अंग्रेजी को ग्रहण कर शिलया गया। धार्मिम<क कारणों से �ज और अवधी बहुत ही महत्वपूण) स्थान पा गई थीं तो राजनैतितक कारणों से खड़ी बोली ने तिहन्दी भार्षा का रूप ग्रहण कर शिलया है और अब न केवल संपूण) भारत बल्किAक तिवश्व में भी अपना स्थान बना रही है।

बहुभातिर्षकता को हम दो प्रकार से देख सकते हैं।–

1.व्यशिक्तपरक बहुभातिर्षकता— जब कोई अपनी व्यशिक्तगत रुशिच के कारण कई भार्षाओं को सीखता है, उनम ें दक्षता हाशिसल करता ह ै तथा तिनरंतर व्यवहार म ें लाता ह ै तो वह व्यशिक्तपरक बहुभातिर्षकता होगी।2.राष्ट्रीय बहुभातिर्षकता— कोई सरकार अपने राष्ट्र के सम्बन्ध में जिजस प्रकार की भातिर्षक व्यवस्था का तिनण)य लेती है, बहुभातिर्षकता के सम्बन्ध में यह बात बहुत महत्वपूण) है। यदिद तिकसी राष्ट्र में एक राष्ट्रीय भार्षा की व्यवस्था होती है और केन्द्र से लेकर छोटी से छोटी

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इकाई तक एक ही भार्षा शिशक्षा, व्यापार, उद्योग, जनसंचार और काया)लय भार्षा के रूप में प्रयुक्त होती है। ऐसी स्थिस्थतित अधिधकतर एक भार्षी राष्ट्रों में ही होती है और वहाँ की प्रांतीय भार्षा या भार्षा रूप महत्वपूण) नहीं होते हैं। इसकी अपेक्षा ऐसे राष्ट्र जिजसमें तिवक्षिभन्न भार्षा समुदाय हैं, तिवक्षिभन्न संस्कृतितयाँ और धमu के समुदाय रहते हैं, उस राष्ट्र में सरकार तिवक्षिभन्न स्तरों पर तिवक्षिभन्न भार्षाओं को स्वीकृतित देती ह ै या व्यवस्था करती है। जैसे- भारत में प्रादेशिशक स्तर पर वहाँ की भार्षाओं को काया)लय शिशक्षा आदिद की भार्षा का स्थान दिदया गया है साथ ही तिहन्दी और अंग्रेजी का भी प्रयोग तिकया जा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर तिहन्दी और अंग्रेजी आवश्यक ह ै तो प्रदेशों के साथ पत्र-व्यवहार और प्रचार सामग्री आदिद प्रादेशिशक भार्षा में भी है। इसी के साथ साथ जन जातितयों की भार्षाओं को भी बढ़ावा दिदया गया है। स्कूलों में बच्चों को तित्रभार्षा फामू)ला के साथ पढ़ाया जाता है।

(ङ) कोड-मिमश्रण और कोड-परिरवत6न—कोड - मिमश्रण —

जब वक्ता भार्षा प्रयोग करते समय एक भार्षा में दूसरी भार्षा के तत्वों का प्रयोग करता है तो इस भातिर्षक स्थिस्थतित को कोड-धिमश्रण कहते हैं। यह धिमश्रण शब्द, पदबन्ध, उपवाक्य कई इकाइयों का होता है जैसे- तिहन्दी बोलते समय अंग्रेजी के शब्दों, पदबन्धों आदिद का प्रयोग करना “मेरा morning lecture आज नहीं हुआ” मैन े admission ले शिलया है but i don’t want to go. भार्षा धिमश्रण में एक भार्षा आधार के रूप में होती है जो प्रायः मातृभार्षा होती है। यह धिमश्रण भार्षा का भार्षा में, भार्षा का बोली में तथा बोली में भार्षा का या बोली में बोली का हो सकता है। कोड-धिमश्रण के कई कारण होते हैं। कतितपय भातिर्षक समुदाय तिकसी भार्षा को दूसर े की तुलना म ें अधिधक प्रतितधिष्ठत मानत े हैं। आदर धिमलने के कारण वक्ता इस ति_तीय भार्षा के शब्दों का अधिधकाधिधक प्रयोग करने का प्रयास करता है। ऐसे भी उदाहरण हैं तिक अन्य भार्षा से आगत शब्द का अपनी भार्षा में कोई

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समतुAय नहीं होता, जैसे रेल, दिटतिकट, बैंक आदिद शब्दों का कोई तिहन्दी समतुAय नहीं है। इसशिलए ये वैसे के वैसे अपना शिलये गये हैं और खूब प्रचलन में हैं। बहुत से संयुक्त शब्द भी धिमक्षिश्रत हैं जैसे डबलरोटी, हाफकमीज, टेबुलकुस�, हेडधिमस्त्री।

कोड - परिरवत6न —

संदभ) एवं व्यवहार क्षेत्र की उपयुक्तता के अनुरूप जब वक्ता एक भार्षा का प्रयोग करते करते दूसरी भार्षा का प्रयोग करने लगे तो यह स्थिस्थतित कोड-परिरवत)न कहलाती है। जैसे हमार े देश में काया)लयों में काय)रत समान सांस्कृतितक एवं भातिर्षक समुदाय से सम्बन्धिन्धत अधिधकारी परस्पर अंग्रेजी में बात करते करते अचानक मराठी, गुजराती या बंगाली में बात शुरू कर देते हैं। कभी-कभी यह कोड परिरवत)न तिकसी प्रादेशिशक बोलचाल की भार्षा में भी हो जाता है। यह स्थिस्थतित प्रायः उस समय होती है जब वाता)लाप औपचारिरक से अनौपचारिरक स्तर पर होने लगता है। इस प्रकार का कोड परिरवत)न अनेक ति_भातिर्षक समुदायों में धिमलता है।

वास्तव म ें कोड धिमश्रण तिकसी बहुभार्षी-समुदाय म ें सामाजिजक, शैक्षिक्षक, सांस्कृतितक, व्यवसाधियक, आर्थिथ<क आदिद आवश्यकताओं व वक्ता श्रोता के संबंध उनके सामाजिजक स्तर आदिद के अनुसार भार्षा की प्रकृतित के तहत उसके सदस्यों _ारा जाने या अनजाने दो या अधिधक भार्षा अथवा भार्षा रूपों के बीच होने वाले संसरण का नाम है, तो कोड परिरवत)न तिवर्षय संदभu और वक्ता श्रोता की भूधिमका के अनुसार तिवक्षिभन्न भार्षाओं का वैकस्थिAपक प्रयोग है।

लेबॉव (1970) के तिवचार से कोड परिरवत)न की जगह शैली परिरवत)न की चचा) अधिधक उपयोगी है अथा)त उनका मत है तिक व्यशिक्त तिवक्षिभन्न सामाजिजक संदभu में एक ही भार्षा की तिवक्षिभन्न शैशिलयों का आवश्यक्तानुसार परिरवत)न करता है। उन्होंने इस दृधिd से शैली परिरवत)न

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के पांच स्तर तिनधा)रिरत तिकए हैं-1. औपचारिरक वाता) 2. अनौपचारिरक वाता) 3. पठन 4. शब्द सूची 5. न्यूनतम युग्म। इनके परिरवत)न को उन्होंने मूAयों से बाधिधत बताया है क्योंतिक वक्ता सामाजिजक व्यवस्था में तिवक्षिभन्न मूAयों का तिनवा)ह करते हुए भार्षा का प्रयोग करता है। इसशिलए भार्षा म ें पाए जान े वाल े तिवकAपनों और कोड-परिरवत)नों का अध्ययन तिबना सामाजिजक व्यवस्था को समझे नहीं तिकया जा सकता है। भार्षा के शैलीगत रूप का सम्बन्ध सीधा सामाजिजक व्यवस्था के साथ है, उसी व्यवस्था के अन्तग)त प्रयोक्ता भार्षा के तिवक्षिभन्न रूपों में से संदभ) के अनुसार भार्षा-रूप चुनकर प्रयोग करता है।

कोड-धिमश्रण तथा कोड-परिरवत)न में अंतर—

1.कोड-परिरवत)न में बहुभातिर्षक समुदाय में भार्षा प्रयोक्ता तिवक्षिभन्न संदभu और सामाजिजक भूधिमकाओं स े बाधिधत होकर संदभा)नुसार तिवकAपवत तिवक्षिभन्न भातिर्षक कोडों का प्रयोग करता है।

वहीं कोड-धिमश्रण में भार्षा प्रयोक्ता दो या अधिधक भार्षाओं की तिवक्षिभन्न इकाइयों अथवा दो क्षिभन्न कोडों को इस प्रकार धिमक्षिश्रत करके प्रयोग करता ह ै तिक एक नया धिमक्षिश्रत कोड तिवकशिसत हो जाता है। कोड धिमश्रण प्रायः वाक्य के भीतर होता है।

2. कोड-परिरवत)न प्रोशिक्त के स्तर की भातिर्षक प्रतिaया है। अथा)त कोड-परिरवत)न चाहे वह तिकसी भी भार्षा रूपों के बीच हो प्रोशिक्त के स्तर पर ही होगा।

कोड-धिमश्रण का के्षत्र वाक्य के भीतर तक सीधिमत है। कोड-धिमश्रण में वाक्य की सीमा में एक भार्षा में दूसरी भार्षा से संप्रेर्षण की आवश्यक्ता के कारण तिवक्षिभन्न इकाइयों का परस्पर अंतरण और ग्रहण होता रहता है।

3. कोड-परिरवत)न में भार्षा प्रयोक्ता एकाधिधक कोडों के प्रयोग में पूण) दक्ष होता है। लेतिकन भार्षा धिमश्रण में ऐसा भी सम्भव है तिक भार्षा-प्रयोक्ता की एक कोड में तो पूण) दक्षता है,

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लेतिकन दूसरे कोड में वह पूण) दक्ष नहीं है, अथा)त् सामान्य ज्ञान रखता है। अनपढ़ लोग भी अपने ढंग से कोड धिमश्रण करते हैं, उनका उच्चारण मानक उच्चारण नहीं होता।

4. कोड-परिरवत)न में दो अथवा अधिधक कोडों का प्रयोग तिवकAप से होता है। कोड परिरवत)न में सभी कोड अलग-अलग होते हैं लेतिकन वे सभी कोड एक प्रोशिक्त के अंग हो सकते हैं।

कोड-धिमश्रण भार्षा म ें भार्षा की एक तिनरंतर प्रकृतित के अनुसार ही होता है। भार्षा की स्वभातिवक प्रकृतित के तिवपरीत भातिर्षक इकाइया ँ तिकसी भी भार्षा म ें ग्राह्य नहीं होती हैं क्योंतिक उससे समे्प्रर्षण में सुतिवधा की अपेक्षा असुतिवधा ही बनी रहती है। भार्षा-धिमश्रण में दो या अधिधक कोडों के सन्धिम्मश्रण से एक नया धिमक्षिश्रत कोड जन्म ले लेता है। समे्प्रर्षण की सणनीतित और धारदार अक्षिभव्यशिक्त कौशल में इनकी भूधिमका महत्वपूण) होती है।

(M) भाषिषक परिरवृचिO—भातिर्षक परिरवृक्षि` की बात ऐसे भार्षा समुदाय के सन्दभ) में उठती है जिजस की समाजभातिर्षक स्थिस्थतित दूसरे तिकसी बड़े और प्रभुता सम्पन्न भार्षा समुदाय के बीच में होती है। यह स्थिस्थतित व्यशिक्त के स्तर पर भी हो सकती है। जब कोई व्यशिक्त अपने भार्षा समुदाय से सामाजिजक, सांस्कृतितक दृधिd से अलग हो जाता है तो यह संभव है तिक वह अपनी मातृभार्षा के बहुत सारे प्रयोग के्षत्रों की उपेक्षा करने लगे और उसकी अगली पीदिढ़या ँ अपनी मूल भार्षा को छोड़ दें। भारत में भार्षायी अनुरक्षण की स्थिस्थतित अधिधक प्रबल है। हालांतिक भातिर्षक परिरवृक्षि` की प्रतिaया भी प्रारम्भ हो चुकी है और व्यशिक्त अन्य भार्षा समुदाय में तिवक्षिभन्न भातिर्षक संदभu में अपनी मातृभार्षा की भातिर्षक परिरवृक्षि` करने लगा है। ऐसी स्थिस्थतित में वह व्यापक जन संप्रेर्षण के भार्षा कोड को अपनाता है यह स्थिस्थतित महानगरों में स्पd दिदखाई देने लगी है।

जिजस प्रकार भार्षा प्रभुता तथा शशिक्त का प्रतीक बन सकती है उसी प्रकार शशिक्तहीनता की द्योतक भी हो सकती है, एक बहुभार्षी समाज में यदिद कोई व्यशिक्त इसशिलए पद-प्रतितष्ठा

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प्राप्त कर सकता है तिक वह एक तिनक्षिoत भार्षा समुदाय का सदस्य है तो उसी समाज में दूसरा व्यशिक्त लाचार और शशिक्तहीन रह सकता ह ै क्योंतिक वह तिकसी और ऐस े भार्षाई समुदाय का सदस्य है जिजसका न तो राजनीतितक दृधिd से कोई महत्व है और न ही सामाजिजक सांस्कृतितक दृधिd से। स्पd है तिक भार्षा को अक्षिभव्यशिक्त के एक सशक्त उपकरण के रूप में अपनाया जा सकता है। इस दृधिd से तिकसी समाज में सभी भार्षाओं का अल्किस्तत्व बराबर नहीं होता।

जब कई भार्षाए ँएक ही समाज में सहअल्किस्तत्व में होती हैं तो उनमें प्रकाय) तिवभाजन होने लगता है और उनकी शशिक्त सम्पन्नता में असमानता तिवकशिसत होने लगती है। उदाहरण के शिलए वाराणसी मुख्य रूप से भोजपुरी भार्षी शहर है लेतिकन यहाँ तिहन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी आदिद कई भार्षाए ँसहअल्किस्तत्व में हैं। इनके प्रयोग क्षेत्र और महत्व के अलग अलग आयाम हैं।

तिव_ानों के एक वग) ने भार्षा मृत्यु को भातिर्षक परिरवृक्षि` के साथ जोड़कर देखने का प्रयास तिकया है। यहाँ भातिर्षक परिरवृक्षि` से अथ) है एक कोड के स्थान पर दूसरे कोड का प्रयोग। भातिर्षक परिरवृक्षि` पूण) भी हो सकता है और आंशिशक भी। पूण) भातिर्षक परिरवृक्षि` की स्थिस्थतित में एक कोड के स्थान पर दूसरे कोड का प्रयोग भार्षा व्यवहार के सभी प्रयोगगत संदभu में होता है, जबतिक आंशिशक भातिर्षक परिरवृक्षि` की स्थिस्थतित में कुछ सीधिमत संदभu में ही एक कोड दूसरे कोड का स्थान लेता है। प्रयोग क्षेत्र में दो भार्षाओं के बीच के इस तनाव पूण) और संघर्ष)शील संदभ) के दो पक्ष हैं।

शम6हान6 के अनुसार परिरवेशगत समाज की तिवतिवध संस्कृतितयों के लोगों में जो एकीकरण की भावना धिमलती है, वह वास्तव म ें तीन स्वतंत्र और तीन संदभ) परक प्रवृक्षि`यों का सामाजिजक प्रकाय) है। ये तीन स्वतंत्र परिरवत) हैं—

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(क) पारस्परिरक व्यवहार की प्रवृक्षि` (अथा)त अधिधशासी एव ं अधीनस्थ समाज में तिवस्थापन उपतिनवेशीकरण आदिद से सम्पक) की आवृक्षि`)

(ख) संवेdन की मात्रा (अथा)त संस्थागत अलगाव या वृह`र समाज से अधीनस्थ वग) का तिवखण्डन)।

(ग) तिनयंत्रण की मात्रा (अथा)त तिकसी तिवशिशd समाज में अधीनस्थ वग) के शिलए उपलब्ध साधनों पर अधिधशासी वग) का तिनयंत्रण)।

भारतीय परंपरा म ें तिवस्थातिपत प्रायः अपनी मातृभार्षा को केवल इसशिलए नहीं खोते क्योंतिक यहाँ घरेलू जीवन में जातीय अलगाव का महत्व है।

इस सन्दभ) में पी.बी. पंषिडत (1977,p.7) का कहना है— “यूरोप अथवा अमेरिरका में दूसरी पीढी अधिधशाशिसत वग) की भार्षा के पक्ष में अपनी भार्षा को त्याग देती है। भार्षा तिवस्थापन वहाँ का प्रतितमान है, भार्षा अनुरक्षण एक अपवाद है। भारतीय संदभ) में भार्षा अनुरक्षण एक प्रतितमान है एवं भार्षा तिवस्थापन एक अपवाद। भार्षाओं का अनुरक्षण क्यों होता है, इस बात से अमेरिरकी समाजशास्त्री अपनी जिजज्ञासा शुरू करते हैं तिक लोग अपनी भार्षा को क्यों त्याग देते हैं”?

कुछ ऐसी भी स्थिस्थतितयाँ हैं जहाँ पंतिडत की यह धारणा तिक “भारत में भार्षा अनुरक्षण एक प्रतितमान है एवं भार्षा तिवस्थापन एक अपवाद” पूण)तः असंगत हो जाती है। कम से कम स्पd रूप से दो ऐसी स्थिस्थतितयाँ हैं जहाँ हमें मातृभार्षा की भातिर्षक परिरवृक्षि` धिमलती है। इनमें से तिहन्दी की बोशिलयों का ऐसा ही संदभ) है। आज हम देखते हैं तिक तिहन्दी की कई के्षत्रीय बोशिलयाँ अपनी अल्किस्मता स्थातिपत करने का प्रयत्न कर रही हैं। भोजपुरी को अलग भार्षा मानने की मांग की जा रही है। साथ ही यह आंदोलन भी चल रहा है तिक तिहन्दी राज्यों में भोजपुर, बुंदेलखण्ड एवं तिवशाल हरिरयाणा को अलग तिकया जाए। तिकन्तु बहुत समय से

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इसके बोलने वालों ने अपनी तिनष्ठा तिहन्दी की अधिधशासी भार्षायी परंपरा के साथ जोड़ी हुई है। इसशिलए तिहन्दी बोशिलयों (भोजपुरी, बुंदेली आदिद) के भार्षा-भातिर्षयों न े अपनी क्षेत्रीय बोशिलयों को मूल मातृभार्षा एव ं तिहन्दी को सह-मातृभार्षा के रूप म ें स्वीकार तिकया है। आसपास की बोशिलयों में समानता अधिधक है लेतिकन दूरस्थ बोशिलयों में अन्तर अधिधक है। जैसे छ`ीसगढ़ी और बघेली में अथवा भोजपुरी और अवधी में समानता अधिधक है जिजससे बोली सातत्य dialect continuum की स्थिस्थतित बनी रहती ह ै भातिर्षक व्यवहार में सम्प्रेर्षणीयता बाधिधत नहीं होती। लेतिकन जो बोशिलयाँ भौगौशिलक रूप से एक दूसरे से बहुत दूर ह ैं उनम ें अन्तर बढ़ जाता ह ै और पारस्परिरक बोधगम्यता कम हो जाती है। जैसे राजस्थानी और मैशिथली में अथवा छ`ीसगढ़ी और मंतिडयाली तिहमाचली में।

जनजातीय अधिधशाशिसत वग) भातिर्षक परिरवृक्षि` का दूसरा संदभ) प्रस्तुत करते हैं। भारत में ऐसे अनेक जातीय वग) हैं जो या तो अपनी भार्षा को पूण)तः छोड़ चुके हैं या छोड़ने की प्रतिकया म ें हैं। भील, भूधिमज, गोंड, हो, कोरथा, लोथा, मंदारी, कुरुक आदिद अनेक जनजातीयाँ अपनी भार्षा छोड़ चुकी हैं। पंतिडत का कहना है तिक भारत में भार्षा अनुरक्षण एक प्रतितमान है, यह उन परिरस्थिस्थतितयों पर आधारिरत है जहाँ सम्पक) स्थिस्थतित में अधिधशाशिसत अAपसंख्यकों की भार्षा भारत के कुछ अन्य क्षेत्रों में अधिधशासी भार्षा वग) की प्रभुतासम्पन्न भार्षा है। अतः उनके उदाहरण उसी स्थिस्थतित तक सीधिमत हो जाते ह ैं जहा ँ अधिधशासी एवं अधिधशाशिसत की भार्षाए ँमहान परंपरा की भार्षाए ँहोती है। इसके तिवपरीत अAपसंख्यक जातितया ँ भार्षा संपक) स्थिस्थतित में अपनी भार्षाओं को इसशिलए छोड़ देती हैं, क्योंतिक उनके पास शिलखिखत भार्षाओं जैसी कोई महान परम्पराए ँनहीं हैं।

भातिर्षक परिरवृक्षि` सामान्यतः जातीय संबंध एवं सांस्कृतितक अनुरक्षण भार्षा अनुरक्षण की अपेक्षा कहीं अधिधक स्थिस्थर पहलू है। एक ओर पुनः जातीयता एवं बहुसंस्कृतित को अपनाने से बहुत पहले अधिधकतर तिवस्थातिपत ति_भार्षी बन जाते हैं और दूसरी ओर सीधिमत ही सही

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तिकन्तु प्रकाया)त्मक जातीयता मातृभार्षा के पूण) तिवलयन के बहुत बाद तक बनी रहती है। (तिफशमैन 1966) भारतीय संबंध म ें इस बात को स्वीकार तिकया जा सकता ह ै तिक तिवस्थातिपत भार्षा समुदाय के बच्चे जो तिवस्थातिपत एवं गृहीता समाज के परस्पर तिवरोधी दबावों के बीच बढ़ते हैं—एक तरफ अपने के्षत्र की प्रमुख भार्षा को सामाजिजक व्यवहार के बाहरी संदभ) (नौकरी, बाजार, हाट आदिद) में अपनाते जाते हैं और दूसरी तरफ व्यवहार के घरेलू संदभ) में भार्षायी एवं सांस्कृतितक एकता को बनाए रखने के शिलए मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं।

(छ) मातृभाषा अनुरक्षण—भातिर्षक परिरवृक्षि` के तिवपरीत भार्षा अनुरक्षण का संबंध अपनी मूल भार्षा के प्रतित गहरी तिनष्ठा से है, उन स्थिस्थतितयों से है जहाँ तमाम मानशिसक तथा सामाजिजक दबावों के बावजूद एक भार्षाई समाज अपनी भार्षा के स्थान पर दूसरी भार्षा के प्रयोग को रोकने के शिलए सचेd रहता है। जब मनुष्य तिकसी ति_भार्षी या बहुभार्षी समाज में रहता है और उसे अपने दैतिनक तिaयाकलापों हेतु अपनी मातृभार्षा छोड़ अन्य भार्षाओं का प्रयोग करना पड़ता है, फलस्वरूप वह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर पाता है। अपने घर-परिरवार में वह मातृभार्षा का ही प्रयोग करता ह ै पर अन्य स्थानों पर उसे दूसरी भार्षा का सहारा लेना पड़ता है। प्रायः यह देखा गया है तिक कालान्तर में पीढ़ी दर पीढ़ी घर परिरवार में भी बच्चे अपनी मातृभार्षा का प्रयोग ना कर सम्पक) भार्षा का प्रयोग करने लग जाते हैं,जिजससे धीरे-धीर े उनकी मातृभार्षा का प्रयोग कम होता ह ै और मातृभार्षा का अल्किस्तत्व खतरे म ें पड़ जाता है। मातृभार्षा अनुरक्षण के शिलए आवश्यक है तिक भार्षा को तिनरंतर प्रयोग में लाया जाय। यह देखा गया है तिक जो परिरवार करीब 20-30 वर्षu से अपने समाज से दूर रह रहे हैं उनमें यह समस्या धिमलती है तिक उस परिरवार के बड़े बुजुग) तो अपनी मातृभार्षा का प्रयोग परिरवार में करते हैं, परन्तु बच्चे दूसरी भार्षा पर आक्षिश्रत हो जाते हैं। इस प्रकार मातृभार्षा

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अनुरक्षण ज्यादा दिदनों तक सफल नहीं हो पाता। अतः प्रत्येक भार्षाभार्षी समाज अपनी मातृभार्षा अनुरक्षण के शिलए प्रयत्न करता है, कोशिशश करता है तिक अपने भार्षी लोगों से तथा घर परिरवार में वह मातृभार्षा का ही प्रयोग करे।

कुछ देशों में अAपसंख्यक भार्षा भार्षी समुदायों में मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रवृक्षि` बढ़ी हुई धिमलती है। इतना ही नहीं, वे अपनी मातृभार्षा के _ारा ही जातीय अल्किस्तत्व को बनाए रखने का प्रयास करते हैं। भारतीय मूल के लोग कई देशों में जाकर बसे हुए हैं इग्लैंड(लंदन), कनाडा म ें पंजाबी अच्छी तादात म ें हैं। वहा ँ इनके गुरु_ार े ह ैं इनके भांगड़ा, छोलेभटूरे, मक्के की रोटी और सरसों की साग लोकतिप्रय हैं। पूव� उ`रप्रदेश और तिबहार के भोजपुरी भार्षी मारीशस, सूरीनाम, दिट्रतिनडाड, गुयाना आदिद देशों में बसे हैं। वे अपनी भोजपुरी भार्षा और संस्कृतित को बचाए हुए हैं, रामचरिरत मानस बचाकर रखे हुए हैं और वहाँ के शासन प्रशासन म ें भी महत्वपूण) भूधिमका का तिनवा)ह करत े हैं। इनकी वजह से तिहन्दी भार्षा के अन्तरराष्ट्रीय क्षिक्षतितज का तिवस्तार हुआ है।

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षि<तीय अध्याय

2.1 वाराणासी: ऐषितहाचिसक एवं समाजभाषिषक परिरMयः--वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत का एक प्राचीन और धार्मिम<क मह`ा रखने वाला शहर है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी तिवश्व का प्राचीनतम बसा हुआ जीवन्त शहर है। यह गंगा नदी के तिकनार े बसा ह ै और हज़ारों साल से उ`र भारत का शैक्षिक्षक, धार्मिम<क एवं सांस्कृतितक केन्द्र रहा है। दो नदिदयों ‘वरुणा’ और ‘अशिस’ के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में धिमलता है। तत्सम शब्द ‘वाराणसी’ ही तद्भव होकर बनारस हो गया। प्राकृत और अपभं्रश के दौर म ें संस्कृत के बहुत सार े शब्दों का तद्भवीकरण हुआ। व का ब हो गया जैसे ‘वन’ का ‘बन’, दीघ) स्वर वाले शुरु के दो अक्षरों में से पहले में का दीघ) स्वर ह्रस्व हो गया, वण)तिवपय)य के अधीन पीछे का न आगे चला आया और आगे का र पीछे चला गया तथा ‘सी’ का ‘स’ हो गया। इस प्रकार वाराणसी का ‘ण’ का ‘न’ होकर बनारस हो गया लेतिकन बनारस स े तिफर वाराणसी हो गया। अब वाराणसी है औपचारिरक प्रयोग और लेखन में। हालाँतिक बोलचाल में ‘बनारस’ शब्द का ही प्रचलन अधिधक है। ‘काशी तिहन्दू तिवश्ववद्यालय’ के अंग्रेजी रूपान्तर ‘बनारस तिहन्दू युतिनवर्थिस<टी’ में बनारस शब्द अभी भी बचा हुआ है। ‘बनारस’ नाम को बदलकर ‘वाराणसी’ और ‘पूना’ को बदलकर ‘पुणे’ करने की प्रवृक्षि` ठीक नहीं है। स्वनाम धन्य भार्षावैज्ञातिनक सुनीतित कुमार चटज� न े सरय ू प्रसाद अग्रवाल की पुस्तक ‘अवध के स्थान नामों का भार्षावैज्ञातिनक अध्ययन’ के प्राक्कथन में कहा है तिक तत्सम से तद्भव होने में तिकतना समय बीत गया। अब घड़ी की सुइयों को उAटा चलाकर पूव)वत� समय में पहुँचने का प्रयास करने

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में कोई तुक नहीं है। तद्भव में इतितहास और संस्कृतित तत्व का पुट तिनतिहत है। इसशिलए उसको बदलना उशिचत नहीं है। इस संदभ) में भार्षावैज्ञातिनक प्रो. चटज� का वक्तव्य तिनम्नशिलखिखत है-

“There is no point in trying to set back the hands of the clock by transforming ‘Banaras’ into ‘varanasi’, ‘Jamuna’ into ‘yamuna’ to give just two instances. Usually accepted modifications of Indian names which are almost universally employed are now being given new forms, just for example, the time-honoured English spelling ‘poona’ has been transformed into ‘pune’.”

प्रो. चटज� कहते हैं तिक भारत सतिहत कई देशों में राजनीतितक दलों _ारा अपनी तिवचार धाराओं के अनुरूप नामों में परिरवत)न करना उशिचत नहीं है। कभी कभी हम देखते हैं तिक एक ही पीढ़ी में तिकसी स`ाधारी दल _ारा कोई नाम कई बार बदला गया।

वाराणसी भारतवर्ष) की सांस्कृतितक एव ं धार्मिम<क नगरी के रूप म ें तिवख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना तिवश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलम, एथेंस तथा पीकिक<ग से की जाती है। वाराणसी में गंगा नदी मुख्य है इसके अलावा यहाँ वरुणा, असी, गुप्त गोदावरी और गोमती नदिदया ँ भी हैं। तिवश्व के इस प्राचीनतम नगर की वत)मान समय म ें कुल जनसंख्या(2011 की जनगणना के अनुसार) 36,82,194  है, जिजसमें पुरुर्षों की संख्या 19,28,641 है तथा मतिहलाओं की संख्या 17,53,553  है। यह शहर भारत के सवा)धिधक घनत्व वाले के्षत्रों में से एक है। क्योंतिक तिवक्षिभन्न कारणों से बाहर से आकर यहाँ बसने वालों का प्रतितशत काफी अधिधक है।

भारतवर्ष) में शायद ही ऐसा कोई व्यशिक्त हो जो तिक वाराणसी के नाम से न परिरशिचत हो। इस शहर का महात्म ही कुछ ऐसा तिवशिशd है तिक इस नाम को सुनते ही काशी नगरी की संस्कृतित, कला, धम),

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शिशक्षा, दश)न, गुण, चरिरत्र, तिवचार एवं वैदुष्य परम्परा का मनोमुग्धकारी तथा अपराजेय इतितहास क्षणमात्र में व्यशिक्त के मानसपटल पर अंतिकत हो उठता है। वाराणसी नगर के इस अति_तीय महत्व को बढ़ान े म ें यहा ँ के मूध)न्य गुणी, पस्थिण्डत, सन्त, साधक, महात्मा, औशिलया (पीर), फकीर, अवधूत, कापाशिलक, सातिहत्यकार, वं्यगकार, शिचत्रकार, नाटककार, पत्रकार, कतिव, लेखक, शिशAपी, संगीतकार, आदिद का महत्वपूण) योगदान रहा है। ऐसे अनूठे इस शहर का ऐतितहाशिसक परिरचय एवं कुछ तिवशिशd क्षेत्रों में इसका योगदान व महत्व इस प्रकार है।

(क) वाराणसी का ऐषितहाचिसक परिरMयः -

वाराणसी की प्राचीनता का उAलेख, वैदिदक सातिहत्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिदक सातिहत्य के तीनों स्तरों (संतिहता, �ाह्मण एव ं उपतिनर्षद) म ें वाराणसी का तिववरण धिमलता है। पौराक्षिणक कथाओं के अनुसार, काशी की स्थापना भगवान शंकर ने लगभग 5000 वर्ष) पूव) की थी, इस कारण यह एक महत्वपूण) तीथ) स्थल है। पुराणों में वाराणसी को �ह्मांड का कें द्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिशव तिनवास करते हैं। वाराणसी का तीथ) रूप म ें वण)न सबस े पहल े महाभारत म ें हुआ ह ै पाण्डव भी अपने अज्ञातवास के समय काशी आए थे। वाराणसी के इतितहास के शिलए तो ‘बरना’ अथा)त् वरुणा नदी का काफी महत्व है क्योंतिक जैसा हम पहले उAलेख कर चुके हैं इस नदी के नाम पर ही वाराणसी नगर का नाम पड़ा। प्राचीन काल में ऐसी मान्यता थी तिक भगवान शिशव की कृपा से इस नदी के पानी में सप) का तिवर्ष दूर करने की अलौतिकक क्षमता है।

वाराणसी का दूसरा नाम काशी भी है, प्राचीन काल में काशी एक जनपद के रूप में स्थिस्थत था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। आज भी वाराणसी के शिलए काशी नाम प्रचशिलत है।

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काशी को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे, उन्ही के कारण इस स्थान का नाम काशी पड़ा।

राजघाट के पास ‘काशी’ नाम का रेलवे स्टेशन है। तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय का पूरा नाम काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय है।

डॉ.तिवभूतित नारायण लिस<ह भारतीय स्वतंत्रता पूव) अंतितम नरेश थे। इसके बाद १५ अकू्तबर, १९४८ को काशी राज्य का भारतीय संघ में तिवलय हो गया। तिकन्तु तिवलय के पoात् भी काशी नरेश के सम्मान म ें कोई कमी नहीं आई और व े उसी प्रकार नगर की समस्त परंपराओं का तिनवा)ह करते रहे तथा काशी की जनता का स्नेह तथा आदर प्राप्त करते रहे। वे काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के चांसलर भी थे। इस तिवश्वतिवद्यालय और नगर के तिवकास में काशीराज का अप्रतितम योगदान है। सन् २००० में इनकी मृत्यु के उपरांत इनके पुत्र कँुवर अनंत नारायण लिस<ह ही इस परंपरा के वाहक हैं और खासे सम्मातिनत हैं।

ऐतितहाशिसक आलेखों से प्रमाक्षिणत होता है तिक ईसा पूव) छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष) का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्वपूण) राज्य था। मुगल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्दाबाद रखा गया, पर यह नाम अधिधक समय तक नही चल पाया।

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में भी वाराणसी ने महत्वपूण) भूधिमका का तिनवा)ह तिकया। इस नगरी को महारानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना तथा aांतितकारी सुशील कुमार लातिहड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद व जिजतेन्द्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है। महामना पंतिडत मदनमोहन मालवीय जैसे तिवलक्षण महापुरुर्ष के अतितरिरक्त राजा शिशव प्रसाद गुप्त, बाबूराव तिवष्णु पराड़कर, श्री प्रकाश, डॉ. भगवान दास, लालबहादुर शास्त्री, डॉ सम्पूणा)नंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुट तिबहारी लाल जैस े महापुरुर्षों का

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स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतितहास में स्वणा¶क्षरों में अंतिकत है। वाराणसी हमेशा से शिशक्षा की राजधानी रहा है, यहा ँ डीजल लोकोमोदिटव वक) शाप रेल इंजन बनान े का बेहतरीन कारखाना है, रेल जंकशन है, लालबहादुर शास्त्री हवाई अड्डा है। यहा ँ का काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय अन्तरराष्ट्रीय ख्यातित का केन्द्रीय तिवश्वतिवद्यालय जो कई दृधिdयों से सव)श्रेष्ठ है। राष्ट्र के तिनमा)ण म ें इसकी महत्वपूण) भूधिमका है। 2016 में इसके एक सौ वर्ष) पूर े हो जावेंगे।

(ख) वाराणसी का Nार्मिमFक महत्वः --

वाराणसी का धार्मिम<क महत्व तो तिवश्व प्रशिसद्ध है। यह तिहन्दू धम) के सव)प्रमुख तीथ)स्थलों में से एक है। मोक्षदाधियनी काशी के अन्तग)त तीन खण्ड कहे गए हैं—

1.केदार खण्ड 2. तिवशे्वश्वर खण्ड 3. ओंकारेश्वर खण्ड। इनमें केदार खण्ड का बहुत महत्व है क्योंतिक केदार खण्ड में मरने वालों को भैरवी यातना नहीं झेलनी पड़ती। काशी में यमराज का शासन नहीं चलता, यहां पाप करने वालों को भैरव दस्थिण्डत करते हैं, जिजसे भैरवी यातना कहते हैं। आध्यान्धित्मक दृधिd से काशी की सृधिd स्वयं भग्वान् शिशव ने की थी और वे ही इस नगरी के अधिधष्ठाता देवता हैं। शिशव पुराण में कहा गया है तिक महाप्रलय काल में केवल सद ्�म्ह की स`ा थी। उस तिनगु)ण और तिनराकार �म्ह से ईश्वर मूर्गित< सदाशिशव का प्राकट्य हुआ। सदाशिशव _ारा स्वस्वरूपभूता शशिक्त का प्रकटी करण तिकया गया। तिफर उन दोनों के _ारा शिशवलोक नामक क्षेत्र का तिनमा)ण तिकया गया जो काशी कहलाया।काशी के केदारेश्वर, तिवशे्वश्वर और ओंकारेश्वर खंड सामाजिजक दृधिd स े ही बांटे गए हैं। केदारेश्वर खण्ड म ें बाबा केदारनाथ का मंदिदर तो ओंकारेश्वर खंड म ें बाबा ओंकारेश्वर अधिधपतित के रूप में तिवराजमान हैं। जबतिक तिवश्वेश्वर खण्ड में स्वयं ज्योतितर्लिंल<ग के रूप में देवाधिधदेव तिवश्वनाथ तिवराजमान हैं। मुख्य बात यह है तिक तीनों खण्डों में एकरूपता स्थातिपत

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करने का भार मां गंगा पर है। अध)चन्द्राकार सतत प्रवाहमान गंगा काशी के तीनों खण्डों को, दूसरे शब्दों में समू्पण) काशी को अक्षिभलिस<शिचत करते हुए उ`रगामी हैं।काशी को ‘महाश्मशान’ कहा जाता है। अथा)त ् यह धरती का सबसे बड़ा श्मशान माना जाता है, यहाँ के मक्षिणकर्णिण<का तथा हरिरoंद्र घाट सबसे पतिवत्र माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है तिक यहाँ जिजनका तिaयाकम) तिकया जाता है उन्हें मोक्ष की प्राप्तिप्त होती है। काशी शिशव की नगरी है, इसका भार भगवान शंकर न े अपने तित्रशूल पर उठाया है। माना जाता ह ै तिक भगवान शंकर ने काशी की रचना अपने डमरू के आकार की की है। वाराणसी के लोगों के अनुसार, काशी के कंकर में शिशवशंकर हैं। यातिन तिक यहा ँ के प्रत् येक पत् थर म ें शिशव का तिनवास है। य े तिहन्दुओं की पतिवत्र सप्तपुरिरयों म ें स े एक है। शिशवपुराण म ें वाराणसी को भारतवर्ष) में स्थिस्थत प्रमुख बारह स्थानों में एक बताया गया है। मान्यता थी तिक जो व्यशिक्त प्रतितदिदन प्रातः काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, और समू्पण) शिसजिद्धयों को प्राप्त कर लेता है। काशी अथवा वाराणसी का महत्व मोक्ष दायनी नगरी के रूप में तिवश्वतिवख्यात है।काशी केवल तिहन्दुओं का ही धार्मिम<क स्थान नहीं है, बल्किAक तिवक्षिभन्न धमu के लोग भी इसे तीथ) स्थान मानते हैं। जैसे जैन धम) के लोगों के शिलए भी काशी तीथ) स्थान है। कारण उनके गुरु सुपाश्व)नाथ और पाश्व)नाथ जी का जन्म यहीं हुआ था। इसी प्रकार इनके कई गुरुओं की मूर्गित<या ँ काशी में प्राप्त हुईं, जिजनको संग्रहालयों में सुरक्षिक्षत रखा गया है। भगवान बुद्ध ने बौद्ध धम) का प्रथम उपदेश यहीं सारनाथ में दिदया था। अतः वाराणसी समस्त तिवश्व के बौद्ध धमा)वलन्धिम्बयों का महत्वपूण) तीथ)स्थान है।यह शहर छोटा भारत भी ह ै यहा ँ सप्तपुरी, चारोंधाम ह ैं सभी भार्षाओं के बोलन े वाले अपने-अपने प्रांत बनाकर यहाँ रहते हैं। जो यहाँ आया यहीं का होकर रह गया। सब अपने ईd देव साथ लेकर आए और उनके मजिन्दर बनाकर यहां तिबठा गए। इसी से बनारस सभी धमu की राजधानी बन गया। यहा ँ केवल शिशवजी के अनेक मजिन्दर नहीं ह ैं बल्किAक 56

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तिवनायक, नौ दुगा), नौ गौरी, _ादश सूय), अd भैरव, नाग, यक्ष, बीर, बरम, यक्ष, वैष्णव मंदिदर है, दादू, रामान्दी, रैदास, अघोरपंथ के स्थान हैं, जैन मंदिदर, बौद्धमंदिदर, मस्थिस्जद, गुरु_ारे हैं। तंत्रशास्त्र का अनूठा गुरु मंदिदर है, पीरों, शहीदों की मजारें हैं, चौरे हैं और न जाने तिकतने उपासना स्थल हैं। काशी की सबसे अनूठी बात यह है तिक यहाँ मृत्यु भी मंगल है।

(ग) वाराणसी का सांस्कृषितक महत्वः -- वाराणसी को भारत की सांस्कृतितक राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। क्योंतिक यह समस्त धमu, संस्कृतितयों का केन्द्र है इसीशिलए आज यह माना जाता है तिक काशी को देख शिलया जाय तो समस्त भारत के दश)न हो जात े हैं। इस प्रकार काशी सामाशिसक संस्कृतित की आधार भूधिम रही है। अनेकानेक संस्कृतितयों ने इसके तिनमा)ण में अपना योगदान तिकया है तथा इतितहास साक्षी ह ै तिक तिवक्षिभन्न धमu एव ं संस्कृतितयों के तिवकास का एक अत्यंत महत्वपूण) पड़ाव काशी रहा है।

वाराणसी तिवक्षिभन्न मत मतान्तरों की संगम स्थली रही है। संत कबीर ने तिहन्दू मुस्थिस्लम एकता के शिलए और संत रैदास ने अस्पृशय जातित के उत्थान के शिलए यहीं काय) तिकया। तुलसीदास ने यहीं रामचरिरतमानस की रचना की। शंकराचाय) को अंतितम ज्ञान यहीं प्राप्त हुआ। महावीर ने अपने एकान्तवास के दश)न का प्रचार यहीं तिकया था। कबीर के नेतृत्व में तिहन्दु-मुस्थिस्लम एकता का सूफीवाद भी यहीं पनपा। शिसक्ख धम) के प्रवत)क गुरुनानक अपनी साधना के दौरान यहाँ आये। इस प्रकार काशी तिवक्षिभन्न समुदायों के सहअल्किस्तत्व के कारण सामाजिजक सांस्कृतितक व भातिर्षक समभाव का केन्द्र रही है।

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भारत का लघु रूप देखना हो तो काशी पया)प्त है। हर भार्षा के्षत्र, सम्प्रदाय, जातित के लोगों ने काशी को और काशी ने उन्हें खुले दिदल से अपनाया है। हर काशीवासी खुद को शिशवगण के रूप में देखता है। इसशिलए यहाँ कोई तिकसी का चेला नहीं है, बल्किAक सभी एक दूसरे के गुरू हैं। आम सम्बोधन में भी एक दूसरे के शिलए गुरू शब्द का ही प्रयोग होता है। देश के हर कोने और प्रांत की संस्कृतित को खुद में समेटे इस शहर ने गंगा-जमुनी तहजीब की ऐसी धिमसाल कायम की है जो अन्यत्र दुल)भ है। देश की राष्ट्रभार्षा तिहन्दी की जन्मभूधिम संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतितक एकता का प्रतीक है।

यह नगर साल के तीन सौ पैंसठ दिदन में छः सौ अठह`र त्यौहार मनाता है—व्रत एवं त्यौहार के अलावा बनारस के लोगों को मेले-ठेले, लीला का भी शौक है। कारीगरी और कला तो आदिद काल से बनारस वाशिसयों के रक्त में प्रवातिहत हो रही है। जिजस तिकसी वस्तु के आगे बनारसी तिवशेर्षण लगा वह तिवशिशd बन गयी तिफर वह बनारसी साड़ी हो या मीना, मुकुट हो या धिमठाई, बनारसी पान हो या ठंडई, शिचत्र हो या मूर्गित< अथवा छोरा गंगा तिकनारे वाला हो। यहा ँ के बहुत से कतिवयों ने अपने उपनाम म ें ‘बनारसी’ तिवशेर्षण लगाकर अपनी पहचान सुतिनक्षिoत की है। जैस े चकाचक बनारसी, भैयाजी बनारसी, बेधड़क बनारसी, बेढब बनारसी, खाक बनारसी, साँढ़ बनारसी, डंडा बनारसी, लंठ बनारसी, नजीर बनारसी, चपाचप बनारसी, धूथ) बनारसी, चोंच बनारसी आदिद।

काशी की मौज मस्ती का आलम भी कुछ खास है यहाँ उत्सवों के अवसर नहीं तलाशे जाते बल्किAक अनायास ही उत्सव मन जाते हैं। काशी की जिजन्दादिदली ही सुदूर देशों से भी लोगों को यहाँ खींच लाती है। कुछ तो यहीं के होकर रह जाते हैं तो कुछ हमेशा के शिलए यादों को लेकर जाते हैं। अमेरिरका, यूरोप, जापान, इटली और न जाने तिकतने देशों के लोगों ने इस शहर को अपना शिलया। बनारस की जिजन्दादिदली उन्हें यहाँ से उनके अत्याधुतिनक देश की ओर रुख नहीं करने देती। यही कारण है तिक माक6 ट्वेन ने शिलखा है— “बनारस काल और

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सीमा से परे है, इसे बहुत दूर से नहीं जाना जा सकता। वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उ`र प्रदेश का एक प्रचीन और धार्मिम<क मह`ा रखने वाला शहर है। इसका पुराना नाम काशी है, यह गंगा नदी के तिकनारे बसा है और हजारों साल से उ`र भारत का धार्मिम<क एवं सांस्कृतितक केन्द्र रहा है।”

(घ) वाराणसी का शिशक्षा के क्षेत्र में महत्वः -- वाराणसी सव)तिवद्या की राजधानी है। काशी ने धार्मिम<क तथा व्यवसाधियक नगरी होने के साथ साथ शिशक्षा की नगरी के रूप में भी ख्यातित पायी है। प्राचीन काल से ही लोग संस्कृत, धम), आध्यात्म तथा वैदिदक सातिहत्य के अध्ययन के शिलए काशी आया करते थे। यहाँ कई तिव_ानों ने अपने तिवद्याधन से लोगों को अक्षिभलिस<शिचत तिकया है। कृष्ण के गुरू काश्य संदीपन और दक्षिक्षण भारत के गुरू अगस्त काशी के थे। काशी में पंतिडतों के आगे अपना शिसद्धांत प्रस्तुत तिकये तिबना कोई भी धम), सम्प्रदाय अथवा दश)न मान्य नहीं होता था। यहीं महर्गिर्ष< सुश्रुत ने सदिदयों पहले बांस की खपस्थिच्चयों से शAयशिचतिकत्सा के प्रयोग तिकए थे। शंकर, महावीर, तुलसी और कबीर ने इसी नगर में परमतत्व का शिचन्तन-मनन तिकया और दिदव्य ज्ञान के प्रसार _ारा समाज का उत्थान तिकया। इसी प्रकार भारतेन्दु, प्रसाद और प्रेमचन्द की कम)भूधिम भी यही शहर रहा है। जगन्नाथ रत्नाकर, स्वामी तिवशुद्धानंद, महाशय लातिहणी की गूढ़ साधनाओं का साक्ष्य भी इसी शहर के पास है। तिवद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदिदयों से ही धार्मिम<क गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृd तिकया है। भगवान बुद्ध और आचाय) महावीर के अलावा रामानुज, वAलभाचाय), संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदिद अनेक संत इस नगरी में आये। भगवान बुद्ध ने भी इस नगर में अपने शिशष्यों को उपदेश दिदये थे।

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काशी की यह अद्भतु तिवशेर्षता है तिक यहाँ पर हर क्षेत्र में उन्नतित के शिशखर धिमलते रहे हैं। चाहे वह कला का क्षेत्र हो, तिवद्या का के्षत्र हो, वैराग्य या साधना का के्षत्र हो, सव)त्र हर युग में कोई न कोई शिशखर काशी में सदा से मौजूद रहा है। यही कारण है तिक काशी के तिवर्षय में कहा जाता है तिक काशी कभी भी साधकों और तिव_ानों से शून्य नहीं होती।

वाराणसी के ऐसे कई प्रतितधिष्ठत शिशक्षण संस्थान हैं जिजनकी स्थापना बाहर से आए लोगों ने केवल शिशक्षा के तिवकास को ध्यान म ें रखकर की है। काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय इसका श्रेष्ठतम उदाहरण है। महामना मालवीय जी ने काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय की स्थापना कर वैदिदक काल से चली आ रही इसी शिशक्षा परम्परा को तिवस्तार दिदया। वत)मान समय में देश-तिवदेश से छात्र यहाँ आकर ज्ञानोपाज)न कर रहे हैं। साथ ही देश के तिवक्षिभन्न स्थानों से लोग आकर इस संस्थान की गरिरमा को बनाए हुए हैं।

काशी नालन्दा, तक्षशिशला के समान ही भारत के प्राचीन शिशक्षा-केन्द्रों में से एक है। आज भी यह भारत का प्रमुख शिशक्षा केन्द्र है और यहाँ कई शिशक्षण संस्थाए ँहैं। जिजनमें तिवक्षिभन्न तिवद्यालय, महातिवद्यालय, संस्कृत पाठशालाए,ँ मदरस े सन्धिम्मशिलत हैं। यहा ँ काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय, सम्पूणा)नन्द संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय, महात्मा गाँधी काशी तिवद्यापीठ, केन्द्रीय तितब्बती तिवश्वतिवद्यालय, आइ आइ टी तथा जाधिमया सल्किAफया तिवश्वतिवद्यालय हैं। इस प्रकार यह नगर शिशक्षा के के्षत्र में अपने महत्व को आज भी अकु्षण बनाए हुए है।

(ङ) वाराणसी का व्यवसामियक महत्वः --

धार्मिम<क नगरी होन े के साथ साथ वाराणसी प्राचीन काल से तिनरंतर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्र, हाथी दांत और शिशAप कला का व्यापारिरक एवं औद्योतिगक केन्द्र रहा है।आज भी यह पूव� उ`र प्रदेश और तिबहार का मुख्य व्यावसाधियक केन्द्र है।

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वाराणसी के कारीगरों के कला कौशल की ख्यातित सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी तिकमखाब तथा जरी के वस्त्रों से प्रभातिवत हुए तिबना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रशिसजिद्ध और मान्यता दिदलायी है। तिवदेशी व्यापार में इसकी तिवशिशd भूधिमका है। इसके उत्पादन में बढ़ो`री और तिवशिशdता से तिवदेशी मुद्रा अर्जिज<त करने में बड़ी सफलता धिमली है। रेशमी तथा जरी के उद्योग के अतितरिरक्त, यहा ँ पीतल के बत)न तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात उद्योग भी अपने कला और सौंदय) के शिलए तिवख्यात हैं। इसके अलावा यहा ँ के लकड़ी के खिखलौन े भी दूर दूर तक प्रशिसद्ध हैं, जिजन्ह ें कुटीर उद्योगों में महत्वपूण) स्थान प्राप्त हैं। पान के व्यवसाय का भी यह महत्वपूण) केन्द्र है। इसके अतितरिरक्त बनारस अन्य आधुतिनक वस्तुओं के भी थोक तिवaय की प्रमुख मंडी है।

वाराणसी नगर प्राचीनकाल में भी वाक्षिणज्य और व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। वाराणसी काष्ठ व्यवसाय का भी एक प्रमुख केन्द्र था। इन नगर के पास एक बढ़ई ग्राम था , जहाँ बढ़इयों की बस्ती थी। इस बस्ती म ें लगभग 500 बढ़ई रहत े थे। व े जंगलों म ें जाकर गृहतिनमा)ण में प्रयुक्त होने वाली लकतिड़यों को काट लेत े थे। ये बढ़ई एक दो अथवा कई मंजिजलों वाले मकान बनाने में दक्ष थे।

शिसAक, तिकमखाब तथा ज़री के कपडे़, लकड़ी के खिखलौने, हाथी दांत का सामान और पीतल के बत)न यहा ँ के परम्परागत उद्योग रहे हैं। इसके अतितरिरक्त अनाज, कपड़ा और आभूर्षण की यह प्रमुख मण्डी रही। तिवशेर्ष भौगोशिलक स्थिस्थतित के कारण, पूव� उ`र प्रदेश, पक्षिoमी तिबहार तथा नेपाल को वाराणसी की व्यापारिरक मंडी से तिवक्षिभन्न वस्तुओं की आपूर्गित< बराबर होती थी। बनारस के लंगड़े आम की मांग सव)त्र रहती है। इसी कारण वाराणसी का व्यापार सदैव सम्पन्न रहता है। काशी के व्यापारिरक जगत पर बहुत पहले स े खत्री एवं अग्रवाल जातित के लोगों का प्रभुत्व रहा है। तिवशेर्षकर खाद्य, कपड़े आभूर्षण, शिसAक आदिद

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वस्तुओं का व्यापार सैकड़ों वर्षu से इन्हीं दो प्रमुख जातितयों के हाथों में है। अग्रवालों का एक छोटा समूह जैन मतावलम्बी है। तिपछले 45-50 वर्ष) से राजस्थान से सैक़ड़ों मारवाड़ी परिरवार भी यहाँ आकर रहने लगे और उन्होंने भी व्यापार में रुशिच लेनी प्रारम्भ की। इसी प्रकार गुजराती परिरवार भी यहाँ आकर बस गये।

काशी नगरी में कभी भी जातितगत या भार्षागत संकीण)ता नहीं रही। यहाँ भारत का लघु रूप सरलता से देखा जा सकता है। यदिद बंगाली टोला और सोनारपुरा में बंगाल से आये परिरवार रहते हैं, तो लाहौरी टोले में लाहौर से आये खत्री व पंजाबी परिरवार। हनुमान घाट में दक्षिक्षण भारतीय परिरवार बसे हैं, तो पंचगंगा घाट, दुगा) घाट व �म्हा घाट में महाराष्ट्र के परिरवार रहत े हैं। सूतटोल े और दूध तिवनायक म ें गुजराती रहत े हैं, तो कुछ के्षत्रों म ें इसी प्रकार मारवाड़ी रहन े लगे। मगर यह तिवभाजन तिकसी संकीण)ता के आधार पर नहीं धिमलता। मारवाड़ी के मकान में गुजराती परिरवार भी सुतिवधापूव)क रहता है और मराठी के मकान में पंजाबी परिरवार साथ साथ रहते हुए धिमलते हैं।

व्यापारी वग) प्रारम्भ स े ही काशी के सामाजिजक, शैक्षक्षिणक एव ं सांस्कृतितक जीवन में रचनात्मक एवं सतिaय रुशिच लेता रहा। हरिरoन्द्र महातिवद्यालय, अग्रसेन कन्या तिवद्यालय, गुज)र स्कूल, सरस्वती उच्चतर माध्यधिमक तिवद्यालय, नागरी नाटक मण्डली, श्री रामलक्ष्मी नारायण मारवाड़ी अस्पताल, तिहन्दू सेवासदन अस्पताल, श्री मेहता अस्पताल, आदिद संस्थाए ँव्यापारी वग) की सामाजिजक तिवकास और जागरुकता के जीवन्त स्मारक हैं।

वाराणसी में गजदंत-व्यवसाय का भी तिवस्तृत प्रचार था, यहाँ हाथीदाँत की वस्तुयें बनती थी। वाराणसी के व्यापारी तिवaय की अनेक वस्तुओं के अतितरिरक्त हाथी दाँत के बने हुए सामान भी देश के अन्य भागों म ें पहँुचात े थे। इसके अतितरिरक्त यहा ँ धिमट्टी के बत)न एवं खिखलौने आदिद भी बनाए जाते थे। इसके अतितरिरक्त काशिसक चंदन भी वाराणसी का एक

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प्रमुख उद्योग था। जातकों में काशिसक चंदन का उAलेख धिमलता है, बौद्ध काल में वाराणसी चंदन के उद्योग एवं व्यापार के शिलए सुतिवख्यात था। वाराणसी से व्यापार के शिलए देश के अन्य भागों में वस्त्र, चंदन, हाथीदाँत के सामान, धिमट्टी के बत)न एवं खिखलौने तथा काष्ठ के बने हुए सामान भेजे जाते थे, वाराणसी के बहुमूAय, रंगीन, सुगंधिधत, सुवाशिसत, पतले एवं शिचकने कपड़े तिवaय के शिलए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। वाराणसी के वस्त्रों ने पूरे देश में अपनी एक अलग ही पहचान स्थातिपत की है।

(M) वाराणसी का कला व संगीत के क्षेत्र में महत्वः -- काशी नगरी प्राचीन काल से ही कला और संगीत की नगरी के रूप में तिवख्यात रही है। काशी के जनजीवन में भारतीय संगीत हमेशा से ही घुला धिमला रहा है। सदिदयों पूव) की अमूAय धरोहर गायन, वादन तथा नत)न की तिवशिशd भारतीय परम्परा के अतितरिरक्त धीरे धीरे तिवकशिसत नवीन शैशिलयों को भी अपन े म ें आत्मसात करत े हुए अपनी तिव_ता, तिनजी मौशिलकता से उसे काशी का बना लेने की तिवशिशd क्षमता के फलस्वरूप यहाँ की तिवक्षिभन्न तिवधाओं, तिवक्षिभन्न घरानों के कलावन्तों न े कला और संगीत को अप्रतितम योगदान दिदया। स्थानीय कलाकारों के अतितरिरक्त बाहर से आकर काशी में बस जाने वाले तिव_ानों को भी इस नगरी से भरपूर सम्मान धिमला।

बनारस के घरानों की तिहन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है। वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही तिवधाओं का केन्द्र रहा है। सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की तिवशेर्ष देन है। बनारस के तिवख्यात संगीतज्ञों में पं. रतिवशंकर, भारत रत्न तिवल्किस्मAलाह खान,

शिसतारा देवी, पद्मभूर्षण तिकशन महाराज, पद्मभूर्षण तिगरिरजा देवी, अनोखेलाल धिमश्र,

रंगनाथ धिमश्र तथा उस्ताद मुश्ताक अली के नाम प्रमुख हैं। नृत्य तिवधा में भी वाराणसी की

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कई प्रतितभाए ँशाधिमल हैं। कत्थक गुरू श्री तिबरजू महाराज ने काशी की माटी में ही नृत्य का ज्ञान प्राप्त तिकया।

यहा ँ होन े वाल े तिवक्षिभन्न संगीत समारोह जैस े धु्रपद महोत्सव, बुढ़वा मंगल, संकटमोचन संगीत समारोह इत्यादिद अपनी उत्कृdता के कारण अत्यंत प्रशिसद्ध हैं। इन समारोहों में देश भर से संगीत पे्रमी और भारी संख्या में तिवदेशी पय)टक जुटते हैं।

(छ) पय6टन के क्षेत्र में वाराणसी का महत्वः -- वाराणसी भारतीय तथा तिवदेशी पय)टकों के शिलए तिवशिशd आकर्ष)ण का केन्द्र है। यहाँ अनेक धार्मिम<क, ऐतितहाशिसक एवं संुदर दश)नीय स्थल हैं, जिजन्ह ें देखने के शिलए देश के ही नही, संसार भर से पय)टक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृतित की भूरिर भूरिर प्रशंसा करते हैं। कला, संगीत, सातिहत्य और संस्कृतित के तिवतिवध के्षत्रों म ें अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य शहरों की अपेक्षा अपना तिवशिशd स्थान रखती है।

वाराणसी का अवलोकन जीवन का उत्सव है जहाँ पय)टक बार-बार आना चाहता है। देखना चाहता है जीवन के तिवतिवध रूप को। जानना चाहता है भारतीय संस्कृतित की आत्मा को तथा उसके आध्यात्म और दश)न से रूबरू होना चाहता है। चाहे यहाँ के तिवक्षिभन्न धार्मिम<क स्थल हों, ऐतितहाशिसक स्मारक हों, कला और संगीत के तिवक्षिभन्न आयोजन हों या तिफर तीज-त्यौहार और मेले-पंडाल हों सबका अपना एक अलग आनन्द है एक अलग महत्व है। खानपान की तिवशिशd बनारसी चीजों का जायका हो या तिफर यहाँ के आम जनजीवन की मस्ती हो सबका एक अलग मज़ा है एक तिनराला रंग है, जो युगों-युगों से देश-तिवदेश के लोगों को आकर्गिर्ष<त करता रहा है।

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बनारस का सवा)धिधक सुरम्य स्वरूप है इसका मनोरम नदीतट। वाराणसी को घाटों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं घाटों के कारण ‘सुबहे बनारस’ की मनोरमता तिवश्व प्रशिसद्ध है। वाराणसी म ें 100 से अधिधक घाट हैं। यहाँ के गंगा तटवत� श्रृंखलाबद्ध घाटों की शोभा अनुपम एवं अति_तीय है। घाटों की यह श्रृंखला अस्सी घाट से प्रारम्भ होकर आदिदकेशव घाट पर समाप्त होती है। इनमें से कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, लिश<दे (लिस<धिधया), होAकर, भोंसले और पेशवा परिरवार रहे हैं। वाराणसी में अधिधकतर घाट स्नान घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येधिष्ठ घाट हैं। कुछ घाट जैसे मक्षिणकर्णिण<का घाट जैसे हरिरoन्द्र घाट, दशाश्वमेध घाट के नामकरण के पीछे कोई न कोई पुराणोतितहास की कथा है। कुछ घाट तिनजी स्वाधिमत्व के भी हैं। पूव) काशी नरेश का शिशवाला घाट और काली घाट तिनजी संपदा हैं।

इन्हीं घाटों पर कार्गित<क पूर्णिण<मा के अवसर पर सजने वाली देव-दीपावली तो हर वर्ष) नया वैभव प्राप्त कर रही है। पंचगंगा घाट से लेकर अस्सी घाट तक सवालाख दीप जलाकर शीत ऋतु के स्वागत का यह पव) देखने के शिलए हजारों की संख्या में लोग बाहर से आते हैं।

बनारस आने वाले बहुत से सैलानी यहाँ कई कई बार आते है। सुबह-ए-बनारस का जादू उन्ह ें बार बार यहा ँ खींच लाता है। यही कारण ह ै तिक उ`रवातिहनी गंगा के तिकनारे अध)चंद्राकार बसे इस प्रचीन शहर की आज न जाने तिकतनी छतिवयाँ देशी-तिवदेशी लेखकों, तिफAमकारों. कलाकारों की शिचत्रकृतितयों, तिफAमों, छायाशिचत्रों, पुस्तकों और सैलातिनयों की नज़रों में कैद हैं।

(ज) वाराणसी का साषिहत्य के क्षेत्र में योगदानः --

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वाराणसी नगरी सातिहत्य जगत के कई मूध)न्य तिव_ानों की जन्मभूधिम है। कई प्रख्यात तिव_ानों ने इसे अपनी कम)भूधिम भी बनाया। अनेक प्रतितभाए ँबाहर से आकर यहाँ तिनखरीं। वाराणसी में करीब छः सौ वर्ष) पूव) ‘कबीर’ ने एक नए युग का प्रारम्भ तिकया था। समाज को सन्तुशिलत बनाने व धार्मिम<क तथा राजनीतितक स्थिस्थरता को बनाए रखने के शिलए यह एक aाप्तिन्तकारी शुरुआत थी। रामानन्द के शिशष्य कबीर पढे़ शिलखे नहीं थे ‘मचिस कागद छुऔ नहीं, कलम गही नहीं हाथ’ तिफर भी परम ज्ञानी थे। अपने फक्कड़-सधुक्कड़ी स्वभाव के कारण इन्होंने सामाजिजक कुरीतितयों पर जम कर आघात तिकया और समाज को एक नई दिदशा दी। इसके बाद वाराणसी ‘संत रैदास’ की जन्मभूधिम बनी। इनको कबीर _ारा सम्मान धिमला, कबीर की भांतित ये भी रामानन्द के शिशष्य तथा ‘मीरा बाई’ के गुरु माने जाते हैं। इन्होंने भी ‘मन Mंगा तो कठौती में गंगा’ की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए समाज में मन की तिनम)लता पर जोर दिदया। इसी aम में आगे चलकर नरहरिर के शिशष्य राम भक्त ‘गोस्वामी तुलसीदास’ ने काशी का गौरव बढ़ाया। अकबर के शासन काल में तुलसीदास ने वाराणसी आकर पतिततपावनी गंगा के तिकनारे बैठकर अमर कृतित ‘रामMरिरतमानस’ की रचना की। अतः उनका जन्म भले ही काशी म ें नहीं हुआ परन्तु उनकी प्रतितभा म ें तिनखार काशी में आकर ही हुआ। ‘षिवनय पषित्रका’ के _ारा इन्होंने समाज में भशिक्त की गंगा बहा दी जिजसमें समाज में छाई तिनराशा व उदासी भी धीरे धीरे धुल गई। इसके पoात् तिहन्दी सातिहत्य के क्षिक्षतितज पर अपनी प्रतितभा के बल पर ‘भारतेंदु हरिरश्चन्द्र’ न े प्रशिसजिद्ध पायी। भारतेन्दु हरिरoन्द्र ने आधुतिनक तिहन्दी भार्षा को सुस्थिस्थर एवं सुदृढ़ स्वरूप प्रदान करने का सव)प्रथम श्लाघनीय प्रयास तिकया। अपने 34 वर्ष) के अAपकालीन जीवन में उनकी रचना धर्मिम<ता से सातिहत्य का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है। एक समय भारतेन्दु मण्डल तिहन्दी क्षेत्र की सातिहप्तित्यक गतिततिवधिध का केन्द्र था और अगले अनेक वर्षu तक यह काशी सव)तिवद्या की राजधानी बनी रही। भारतेंदु बहुप्रतितभा के धनी थ े य े रचनाकार, नाटककार, संपादक,

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आलोचक, अनुवादक और प्रचारक सब थे। इन के प्रभाव से वाराणसी तिहन्दी का केन्द्र बन गया। भारतेन्दु ने खड़ी बोली तथा �ज भार्षा दोनों को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया।

वाराणसी में ‘नागरीप्रMारिरणी सभा’ की स्थापना होने के बाद तिहन्दी एक आत्मतिनभ)र और शशिक्तशाली भार्षा के रूप में तिवकशिसत हुई। ‘बाबू श्याम सुन्दर’ ने कोश, व्याकरण से लेकर इतितहास एवं अनेक प्राचीन नवीन ग्रन्थों का प्रकाशन तिकया। अनेक तिवश्वतिवद्यालयों में तिहन्दी तिवभाग बढे़ एवं उनमें सातिहत्य की मांग हुई। ‘बाबू श्याम सुन्दर दास’, ‘रामMन्द्र शुक्ल’, ‘हरिरऔN’ उस समय सातिहत्य जगत म ें छाए हुए थे। इसी समय वाराणसी म ें ‘बाबू जयशंकर प्रसाद’, ‘पं. लक्ष्मीनारायण’, ‘पाण्डेय बेMन शमा6 उग्र’ आदिद महत्वपूण) सातिहत्यकार थे। ‘आMाय6 रामMन्द्र शुक्ल’, ‘Mन्द्रवली पाण्डेय’, ‘नंददुलारे वाजपेयी’ जैस े शोधी और ‘रत्नाकर’ तथा ‘लाला भगवानदीन’ जैस े कतिव टीकाकार थे। तिहन्दी सातिहत्य वाराणसी के माध्यम स े जाना जाता था। ‘मैचिथलीशरण गुप्त’, ‘अज्ञेय’, ‘जैनेन्द्र’, ‘पंत’, ‘षिनराला’ आदिद सभी तिकसी न तिकसी प्रकार वाराणसी स े जुड़ े थे। ‘गुलेरी जी’ ने भी वाराणसी से प्रेरणा ली थी। कई प्रशिसद्ध सातिहत्यकार वाराणसी के ही छात्र रहे हैं, जिजन्होंने देश के तिवक्षिभन्न स्थानों में सातिहत्य की नयी रोशनी फैलायी। कई तिव_ान बाहर स े आकर भी वाराणसी के सातिहप्तित्यक तिव_ानों म ें शाधिमल हुए, ‘आMाय6 हजारी प्रसाद षि<वेदी’ भी बाहर से आकर काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के अध्यापक बने। वत)मान समय म ें ‘डॉ. रघुनाथ सिसFह’, ‘डॉ. बच्चन सिसFह’, ‘डॉ. काशीनाथ सिसFह’ तथा ‘डॉ. नामवर सिसFह’ आदिद वाराणसी की प्रतितभा तथा परम्परा को सम्हाले हुए हैं। इन्होंन े भी सातिहत्य को एक नयी दिदशा प्रदान की। आचाय) तिवश्वनाथ प्रसाद धिमश्र, शिशवप्रसाद लिस<ह, रुद्र काशिशकेय, डॉ. शुकदेव लिस<ह, पद्मभूर्षण बलदेव उपाध्याय, कृष्णदेव उपाध्याय, पं. गोपीनाथ कतिवराज एवं भारतीय संस्कृतित के भावपुरुर्ष ‘पं. षिवद्याषिनवास मिमश्र’ जी ने भी

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तिहन्दी सातिहत्य में अनूठे प्रयोग तिकए। इनकी कई रचनाओं में अपनी धिमट्टी से जुड़े होने की साफ झलक दिदखाई देती है।

(झ) वाराणसी का सामाजिजक जीवनः --

वाराणसी तिवश्व का प्राचीनतम सतत् आवासीय शहर है। कहने को तो वाराणसी पहले से ही अपने में एक लघुभारत समेटे हुए रहा है। सदिदयों से यहाँ देश के लगभग सभी प्रांतवाशिसयों की बल्किस्तयाँ रही हैं। मराठी और दक्षिक्षण भारतीय रामघाट से लेकर हनुमान घाट, केदारघाट से लेकर अवधगव� तक फैले हैं तो मारवातिड़यों, गुजरातितयों ने चौखम्बा, नंदन साहू लेन, ग्वालदास लेन, ठठेरी बाजार की ओर प्रसार तिकया। इसी तरह खाशिलसपुरा से लेकर पाण्डे हवेली, सोनारपुरा तक बसा है एक लघु बंगाल। वाराणसी के तिवकास में इन सभी समुदायों ने अपनी सव�`म भूधिमका तिनभाई है। वंगाली समुदाय ने बंगाली टोला इन्टर कॉलेज जैसी शैक्षिक्षक संस्थाओं की स्थापना की तथा शिशक्षा के तिवकास में महत्वपूण) योगदान दिदया। वहीं दक्षिक्षण भारतीय लोगों ने वाराणसी की धार्मिम<क तथा आध्यान्धित्मक परम्परा को तिनरन्तर बनाए रखा। इसी प्रकार महाराष्ट्र से आए लोगों ने पांतिडत्य, पुरोतिहत परम्परा को आगे बढ़ाया। अग्रवाल तथा लिस<धी, पंजाबी समुदायों ने वाराणसी को व्यापारिरक केन्द्र की दृधिd से प्रतितधिष्ठत तिकया।सात वार तेरह त्यौहार की उशिक्त काशी के सन्दभ) में सटीक बैठती है क्योंतिक वाराणसी में सदा ही त्यौहारों की धूम रहती है जहाँ एक ओर पारम्परिरक तीज-त्यौहार अपना आकर्ष)ण बनाए हुए ह ैं वही दूसरी ओर करवाचौथ, डालाछठ जैस े पव) अपनी जड़ ें जमा रह े हैं। आधुतिनक परिरवत)न का दौर हो या तिफर सनातन सभ्यता सभी को काशी ने अपन े में आत्मसात तिकया है दोनों के समानान्तर तिवकास में तिकसी भी प्रकार का कोई तिवरोधाभास

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पैदा नहीं होता। बहुमंजिजली इमारतें बन रही हैं, मॉल संस्कृतित पोतिर्षत हो रही है। जीवन शैली बदल रही है। लेतिकन सब कुछ होते हुए भी काशी की अपनी स्वतंत्र स`ा है। इस स`ा को न तो आधुतिनकता ने चुनौती दी और न ही आधुतिनकता को इसने। कोई संघर्ष) नहीं, समान भाव से सब को आसरा देने वाली काशी के संदभ) में यह भी तिवख्यात है तिक यहाँ कोई भूखा नहीं सोता। स्वय ं माता अन्नपूणा) उसकी कु्षधापूर्गित< का इंतजाम करती हैं। वाराणसी का सामान्य जनजीवन अपनेआप में पारस्परिरक सौहाद) की अनूठी धिमसाल है। थोड़े में ही प्रसन्न होने वाले आशुतोर्ष शिशव की नगरी के तिनवासी भी थोड़े में ही सन्तुd होने की प्रवृक्षि` रखते हैं। तभी तो यहाँ का जीवन दश)न है--

“Mना Mबैना गंग जल जो पुरवे करतार

काशी कबहूँ न छाषिqए षिवश्वनाथ दरबार”

अतः वाराणसी के ऐतितहाशिसक पक्ष तथा वत)मान समय के तिवकास पर दृधिd डालते हुए हम कह सकते हैं तिक जिजसप्रकार तिकसी शहर के भीतर बाहर धीरे धीरे उभरते तिकसी नए शहर को पहचानना आसान नहीं होता, उसी प्रकार काशी, बनारस या वाराणसी हो तो और भी कदिठन हो जाता है। तिकसी भी पुराने शहर के भीतर कई शहर होते हैं। वाराणसी भी एक ऐसा ही शहर है, जिजतना प्राचीन है उतना ही नवीन भी है।

2.2 वाराणसी के षिवशिभन्न भाषिषक समुदायः--काशी तिवश्व के उन प्राचीन नगरों में से है जिजनका गौरव आज भी जस का तस बना हुआ है, यह शहर भारत वर्ष) के लगभग सभी क्षेत्रों की संस्कृतित को अपने में समेटे हुए है, अतः वाराणसी की संस्कृतित म ें पूर े भारतवर्ष) की संस्कृतित समातिहत है। कश्मीर स े लेकर कन्याकुमारी तक पूरा भारत वाराणसी में शिसमटा हुआ है। तिहन्दू, मुसलमान, शिसख, ईसाई,

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बौद्ध, जैन आदिद सभी धमu के मतावलम्बी यहाँ एक साथ रहते हैं। इसी प्रकार कश्मीरी, बंगाली, गुजराती, मारवाड़ी, मराठी, नेपाली, शिसन्धी, पंजाबी, मैशिथली, मलयाली, तधिमल, तेलुगु, कन्नड़, आदिद तिवक्षिभन्न प्रकार के लोग यहाँ एक लम्बे समय से साथ साथ रह रहे हैं। इन समुदाय के लोगों में क्षिभन्नता होने के बाद भी बनारसीपन की छाप स्पd दिदखाई देती है। वाराणसी के तिनवाशिसयों में यहां के मूल तिनवाशिसयों की संख्या कम है, क्षिभन्न क्षिभन्न क्षेत्रों से आए लोगों ने इसे बसाया है। वाराणसी की इन्द्रधनुर्षी छटा में इन सभी संस्कृ़तितयों के रंग समातिहत हैं। काशी अपने घाटों तथा मंदिदरों के शिलए अधिधक प्रशिसद्ध है। यहाँ के अधिधकांश घाट तथा मंदिदर महाराष्ट्र तथा दक्षिक्षण भारत के राजाओं _ारा तिनर्मिम<त कराए गए हैं। वाराणसी के प्रशिसद्ध काशी तिवश्वनाथ मंदिदर का तिनमा)ण इन्दौर की महारानी अतिहAयाबाई ने कराया था। वाराणसी एक ऐसा शहर ह ै जिजसके तिवकास और तिनमा)ण म ें यहा ं के मूल तिनवाशिसयों की तुलना में बाहर से आए यजमान तथा प्रवासी भक्तों का योगदान अधिधक है। वाराणसी के सुप्रशिसद्ध मारवाड़ी अस्पताल का तिनमा)ण बाहर से आए मारवाड़ी धतिनकों ने कराया है। कई मठों तथा संघों का तिनमा)ण भी केवल काशीवास करने के उ¦ेश्य से कराया गया है।

वाराणसी का दशिक्षण भारतीय समुदाय

इस शहर के सवा¶गीण तिवकास और इसे ख्यातित दिदलाने में दक्षिक्षण भारतीय समाज का भी महत्वपूण) योगदान है। दक्षिक्षण भारतीय भौगोशिलक के्षत्र म ें मुख्य रूप स े आन्ध्र प्रदेश, तधिमलनाडु, कना)टक तथा केरल प्रदेश आते हैं, जहा ँ बोली जान े वाली भार्षाय ें aमशः आन्ध्र में तेलुगु, तधिमलनाडु में तधिमल, कना)टक में कन्नड़ तथा केरल क्षेत्र में मलयालम हैं। यद्यतिप इन सभी भार्षाओं का अपनी तिनजी अल्किस्तत्व ह ै तिफर भी अनेक धिमलते-जुलते समानाथ� शब्दों का प्रयोग भी प्रायः इन भार्षाओं म ें होता है। इनकी संस्कृतित म ें बहुत

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अधिधक समानतायें हैं। इनके रहन सहन और पहनावे म ें भी तिकल्किन्चत मात्र ही अन्तर है। इनकी तिनत्य प्रतित की काय)शैली, गतिततिवधिधयाँ तिवतिवध संस्कार और पव) उत्सव आदिद भी प्रयः एक जैसे ही होते हैं। इन लोगों की वेश-भूर्षा, रहन-सहन, पूजा-पद्धतितयों आदिद की झलक बनारस के हनुमान घाट तथा केदार घाट मुहAले में आने पर सहज ही धिमल जाती है।

यहाँ तिनवास करने वाले दक्षिक्षण भारतीयों में कम)काण्डी पुरोतिहत परिरवारों की बहुलता है इसका कारण यह है तिक वाराणसी प्राचीन काल से ही पुण्य तीथ) रहा है। समू्पण) भारत से लोग मोक्ष की कामना से यहा ँ आते रह े ह ैं और इस aम में दक्षिक्षण भारत से सदिदयों से यातित्रयों का यहा ँ अनवरत आगमन होता रहा है। इसशिलए धार्मिम<क कायu खान-पान, देव दश)न आदिद की समुशिचत व्यवस्था हेतु अनेक पुरोतिहत दक्षिक्षण भारत से यहाँ आकर बस गए। ये आज भी दक्षिक्षण के यातित्रयों के तिहतैर्षी, माग)दश)क तथा सहायक हैं। आन्ध्र, तधिमलनाडु, कना)टक तथा केरल के कुछ पुरोतिहत परिरवार तो इस नगर में काफी लोकतिप्रय हैं। कुछ परिरवार अपने इस पैतृक पेशे के साथ साथ नगर के सामाजिजक, शैक्षक्षिणक तथा राजनीतितक के्षत्र में प्रशंसनीय काय) करते हुए काशी की गरिरमामय एवं गौरवशाली ख्यातित की रक्षा में महत्वपूण) भूधिमका तिनभा रहे हैं।

इसके अतितरिरक्त शिचतिकत्सा, संगीत, वाद्य, संस्कृत, ज्योतितर्ष, वेद वेदांग, मीमांसा, योग, तिवतिवध कला, शिशAप, राजनीतित, पत्रकारिरता तथा तिवतिवध प्रशासतिनक गतिततिवधिधयों के अलावा बनारसी व्यापार से जुड़कर दक्षिक्षण के कुछ नागरिरकों ने इस नगर की कीर्गित< बढ़ायी है। अन्य लोगों की भाँतित यहा ँ तिनवास कर रहे दक्षिक्षण भारतीयों न े भी स्थानीय रहन सहन, रीतित-रिरवाज, लोक-व्यवहार यहाँ तक तिक यहाँ बोली जाने वाली भार्षा को भी अपनाते हुए अपने मूल के्षत्र की सांस्कृतितक धिमट्टी की गन्ध को भी तिकसी न तिकसी रूप में यथावत् जीतिवत रखा है।जिजसकी छटा इनकी संस्कृतित, इनके दैनजिन्दन गतिततिवधिधयों से

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लेकर इनके _ारा समय समय पर आयोजिजत उत्सवों, मेलों आदिद में स्वाभातिवक रूप से देखी जा सकती है।

घर आंगन, पूजा गृह को साफ करना, सजाना, गीत-संगीत गाते हुए रंगोली काढ़ना, तेल के दीपक जलाना, सुहातिगनों-कन्याओं के बालों को तिवतिवध प्रकार की वेणी गूथकर उनमें सुगन्धिन्धत फूलों के गजरे लगाकर तिनकट के देवघर में दश)न करना, तरह तरह के पकवान व्यन्जन-तिनमा)ण आदिद गतिततिवधिधयों तिकसी भी दक्षिक्षण भारतीय घर में तिनत्य प्रतित देखी जा सकती हैं। इन सब कायu में मतिहलाओं का तिवशेर्ष योगदान रहता है।

दक्षिक्षण भारतीय समाज के लोगों की वेश-भूर्षा वाराणसी में उनकी एक अलग पहचान बनाती है। पुरुर्ष वग) धोती और कमीज़ धारण करते हैं, और मतिहलाए ँसाड़ी तथा लड़तिकयाँ लहंगा व ऊपर की कमीज़ पहनती हैं। दक्षिक्षण भारतीय समुदाय के लोग अपने समय का सदुपयोग बहुत अच्छे ढंग स े करत े हैं। इनके खाली समय म ें ऐसी अनेक गतिततिवधिधयाँ शाधिमल होती हैं जिजनके माध्यम से इनकी आन्तरिरक प्रतितभाओं को जाना जा सकता है। घर की बेकार चीजों स े हस्त-शिशAप का काय) करना, रंगोली के नय े तिडजाइन तैयार करना, कढ़ाई-बुनाई, पकवान, गीत संगीत आदिद गतिततिवधिधयाँ मतिहलायें करती रहती हैं। उपरोक्त दैनजिन्दन कायu को करने के पीछे आशय यह हो सकता है तिक वर्ष)-पय)न्त मनाये जाने वाले तिवतिवध उत्सवों, संस्कारों का ज्ञान आन े वाली पीढ़ी को हो सके, जिजन्ह ें व े प्रचशिलत परम्परानुरूप मना सकें । इन गतिततिवधिधयों के _ारा एक प्रकार से तिनत्य ही इन संस्कारों का प्रशिशक्षण होता रहता है।

वाराणसी का पव6तीय समुदाय

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संयुक्त प्रान्त के उ`र पक्षिoम कोण में कूमा)चल प्रदेश है। इसका प्रचशिलत नाम कुमायूँ है। कुमायूँ कधिमश्नरी में अAमोड़ा, नैनीताल तथा गढ़वाल जिजले सन्धिम्मशिलत है। इनमें से अAमोड़ा तथा नैनीताल के रहने वाले ही पव)तीय कहलाते हैं। काशी में तिकतने पहले पव)तीय आये, यह कहना कदिठन है। इस समय काशी म ें जो पव)तीय रहत े हैं, उनके पूव)जों को आये अधिधक से अधिधक 250 वर्ष) हुए हैं, और करीब करीब संयुक्त प्रांत के अन्य नगरों में रहने वाल े पव)तीयों के शिलए भी यह कहा जा सकता है। अपनी तिवद्या तथा पास्थिण्डत्य स े इन पव)तीयों ने प्रत्येक स्थान में अच्छी प्रतितष्ठा तथा ख्यातित प्राप्त की। केवल काशी ही में जो पव)तीय आये, उन्होंने कुछ कम यश तथा मान उपार्जिज<त नहीं तिकया। काशी के 200 वर्ष) पूव) के लगभग स्थायी रूप से आये हुए थोड़े से पव)तीय लोगों में पं. नीलान्बर पंत तथा पं. कमलापतित तित्रपाठी तिवशेर्ष रूप से उAलेखनीय हैं। काशी की वत)मान व्याकरण पठन-पाठन प्रणाली की नींव पं. गंगाराम जी शास्त्री ने डाली। इस समय व्याकरण की जो प्रणाली है, इसके प्रवत)क ये ही हैं। काशी में अन्य जातितयों की अपेक्षा पव)तीय समुदाय बहुत ही छोटा है। स्थायी रूप से तिनवास करने वाले केवल छः-सात परिरवार हैं। इनमें से प्रत्येक के पूव)ज अपने समय में प्रतितष्ठा और ख्यातित के भागी हुए हैं। इस समय भी कुछ अचे्छ संस्कृत के तिव_ान् हैं और आशा है तिक समय पाकर ये भी प्रतितधिष्ठत होंगे। काशी में संस्कृत तथा अंगे्रजी पढ़ने वाले पव)तीय छात्रों की संख्या 300 के लगभग होगी। काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय में तथा इससे सम्बन्ध रखने वाली संस्थाओं में लगभग 7 अध्यापक तथा 100 तिवद्याथ� होंगे। पव)तीय लोगों की काशी में एक पव)तीय धम)शाला भी है। अन्य जातितयों की अपेक्षा पव)तीय लोग बहुत ही कम संख्या में और बहुत पीछे आये। काशी में आने वाले पव)तीय अपने साथ केवल तिवद्या ही लाये और तिवद्या के बल पर उनका यथेd सम्मान हुआ। काशी की तिवद्या प्रगतित में पव)तीय लोगों का योगदान कम नहीं है। जहाँ काशी की वैभव वृजिद्ध में दूसरी जातित वाले अनेक प्रकार से सहायक हुए, वहाँ थोडे़ से पव)तीय जो काशी में आये और बसे, शास्त्र तथा सातिहत्य की सेवा कर संस्कृतराशिश भण्डार को अपनी कृतित के _ारा परिरवर्मिध<त कर गए।

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वाराणसी का मैचिथल समुदाय

धिमशिथला की सभ्यता संस्कृतित बहुत प्राचीन है, यह के्षत्र तिवद्या तथा धम) के शिलए प्रशिसद्ध रहा है। आध्यात्म ज्ञान में यह प्रदेश इतना आगे बढ़ा था तिक देहधारी होने पर भी इस देश के राजा जनक तिवदेह कहलाते थे। धीरे-धीरे मैशिथलों ने व्याकरण तथा अन्य शास्त्रों के अध्ययन के शिलए भी काशी आना आरम्भ तिकया। यहाँ आकर मैशिथली लोगों ने व्याकरण का अध्ययन करना प्रारम्भ तिकया। मैशिथल परम आल्किस्तक और अतित अपरिरग्रही होते रहे हैं। आरम्भ में जब ये काशी आने लगे, तब इनकी यही चेdा रहती थी तिक काशी के्षत्र में तिकसी से कोई सहायता न लें। घर से ही ये अपना खच) चलाते थे। परन्तु समय परिरवत)न के अनुसार मैशिथली लोगों ने अध्ययन का काय) प्रारंभ कर दिदया, और कुछ ने काशी में ही अपना घर बना शिलया। सम्प्रतित काशी में तीन श्रेणी के मैशिथली हैं। प्रथम तिवद्याथ�, ति_तीय काशीवास करने आये हुए अथवा तिकसी रोजगार में लगे हुए लोग और तृतीय इन लोगों से उपजीतिवत वग) इन तीनों वगu की संख्या लगभग 500 के करीब है। तिवद्यार्थिथ<यों में पहले सब संस्कृत पढ़ने वाले ही होते थे। अब अंग्रेजी पढ़ने वाले भी बहुत हैं। मैशिथल तिवद्याथ� तीक्ष्ण होते हैं इसीशिलए अध्यापकों का इन पर सहज स्नेह होता है। छात्रों की संख्या 300 के करीब होगी। काशी के तिवक्षिभन्न प्रशिसद्ध संस्कृत और अंग्रेजी तिवद्यालयों में अनेक मैशिथल अध्यापक भी हैं। डॉ. अमरनाथ झा काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के शुरुवाती दौर में कुलपतित रहे। प्रो. श्री नारायण धिमश्र कला संकायाध्यक्ष, प्रो. रजनी रंजन झा सामाजिजक तिवज्ञान संकायाध्यक्ष, प्रो. सी. बी. झा आयुव�द संकायाध्यक्ष का नाम आदर के साथ शिलया जाता है। सम्प्रतित भार्षातिवज्ञान तिवभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. अक्षिभनव कुमार धिमश्र और डॉ. अतिनल कुमार ठाकुर भी धिमथला के्षत्र के है। डॉ. रामबख्श धिमश्र पूव� उ`रप्रदेश के देवरिरया जिजले के हैं लेतिकन इनके पूव)ज मूलतः मधुबनी के थे। काशी म ें मैशिथलों के कई अन्नके्षत्र ह ैं जहा ँ केवल मैशिथलों को ही भोजन धिमलता है। पुर्गिन<या जिजले के बनैली राज्य की ओर से तीन क्षेत्र हैं-

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1. काली मंदिदर

2. तारा मंदिदर और

3. श्यामा मंदिदर। काली मंदिदर म ें प्रतितदिदन प्रायः दस व्यशिक्तयों को और तारा-मंदिदर में प्रतितदिदन पचास को तिनयधिमत रूप से भोजन धिमलता है। इन पचास के अतितरिरक्त यदिद और पचास भी मैशिथल- अतितशिथ आ जायें, तो उनको तीन दिदनों तक भोजन देने की व्यवस्था है। श्यामा मंदिदर की प्रतितष्ठा अभी कई साल पहले रानी चन्द्रावती ने की है और इस क्षेत्र में तारा-मंदिदर के ही अनुकरण का आयोजन धीरे धीरे हो रहा है। अब इन क्षेत्रों में, न केवल गरीब मैशिथल-तिवद्याथ� हैं, बल्किAक बहुत से ऐसे मैशिथल अध्यापक भी हैं, जिजन्हें नौकरी से तिनक्षिoत आय होती है, पर वे तिनयधिमत रूप से भोजन करने में संकोच नहीं करते। काशी से मैशिथलों का धिमशिथलामोद नामक मैशिथली भार्षा का एक माशिसक पत्र भी प्रकाशिशत होता था, जो उन्नीस वर्षu तक चलकर बन्द हो गया। इस पत्र का संचालन मैशिथल-तिव_`जन- सधिमतित की ओर स े होता था और इसके सव�सवा) थे- महामहोपाध्याय पंतिडत मुरलीधरजी झा। मैशिथलों की धम)शालाए ंभी हैं। गोमठ मोहAले में महाराज दरभंगा की और से अयोध्यानाथ-धम)शाला है। महारानी लक्ष्मीश्वरी के नाम पर जो छात्रावास है, उसका भी कुछ अंश धम)शाला के रूप म ें व्यवहृत होता है। नीलकण्ठ पर महाराज दरभंगा का जो तिवशाल शिशवमंदिदर है, उसके पास के बरामदों का भी धम)शाला जैसा उपयोग होता है। काशी नरेश के दरबार से भी मैशिथल पस्थिण्डतों का बराबर संबंध रहा है और उस दरबार में सदा मैशिथल पस्थिण्डत सम्मातिनत होते आये हैं। आजकल पस्थिण्डत लक्ष्मण जी झा काशी नरेश के दानाध्यक्ष हैं।

वाराणसी का खत्री समुदाय

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श्री तिवशे्वश्वर की पतिवत्रपुरी काशी सचमुच तीन लोकों से न्यारी है। भारत की प्रायः सभी जातितयों के लोग यहाँ धिमलेंगे, इनमें से खत्री जातित के लोग भी प्राचीन काल से यहाँ रहते और व्यापार करते हैं। इस जातित के हाथ में बनारसी माल, तिकमखाब, चांदी सोने के कामों की हौदे कुस� आदिद चीजों को तैयार करवाना और रिरयासतों में भेजना यह मुख्य व्यापार था देखा-देखी अन्य जातित वाले आगे आये मगर तिफर भी अभी तक यह व्यापार खत्री भाईयों के ही हाथ में है। समय की गतित को देखकर इन लोगों ने कारीगरों से अप-टू-डेट चीजें तैयार कराईं जिजन्हें लोगों ने अधिधक पसंद तिकया। जिजस प्रकार व्यापार को इन भाइयों ने अपनाया, उसी प्रकार जातीय कामों में तथा साव)जतिनक तिहत के शिलये भी यह जातित आगे रही है। आज भी कई खत्री भाइयों की कोदिठयाँ हैं जो इन कामों को कर रही हैं। सातिहत्य और समाज की अच्छी सेवा के साथ साथ तिवदेशिशयों को भी बनारसी माल उपलब्ध कराने का श्रेय खत्री बनु्धओं को जाता है। काशी में खत्री समाज के लोगों ने शिशक्षा के शिलए ऐजुकेशन कमेटी, सारस्वत खत्री तिवद्यालय, खत्री तिहतकारिरणी सभा, अरतिवन यात्री सेवासंघ के साथ साथ शिशAप कारीगरी का स्कूल आदिद की स्थापना में अपना योगदान दिदया है।

वाराणसी का अग्रवाल समुदाय

अग्रवाल समाज का भी काशी के तिवकास में महत्वपूण) योगदान है। इस समाज के लोगों ने पत्रकारिरता, तिवज्ञान, समाज सेवा, उत्पादन, व्यापार आदिद सभी क्षेत्रों म ें जो अति_तीय योगदान तिकया है वह अत्यंत सराहनीय है। बाबू श्री शिशवप्रसाद जी गुप्त ने ज्ञानमण्डल के नाम से एक प्रकाशन समूह स्थातिपत तिकया और वाराणसी स े आज अखबार का प्रकाशन प्रारम्भ तिकया। शैक्षिक्षक दृधिd से वाराणसी के अनेक तिवद्यालय, महातिवद्यालय आदिद भी यहाँ के अग्रवाल परिरवार के लोगों _ारा स्थातिपत तिकये गये, जिजसमें बाबू शिशवप्रसाद गुप्त _ारा स्थातिपत हरिरoन्द्र महातिवद्यालय, डी.ए.वी. कालेज, श्री अग्रसेन महाजनी महातिवद्यालय, श्री

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अग्रसेन कन्या पोस्ट ग्रेजुएट कालेज, श्री अग्रसेन शिशशु तिवहार प्रमुख हैं। इसके अलावा भी श्री गणेश शिशशु सदन एवं और भी अनेक बडे़-छोटे तिवद्यालय वाराणसी में अग्रवाल परिरवारों _ारा संचाशिलत तिकये जा रहे हैं। काशी अग्रवाल समाज के अन्तग)त भण्डार तिवभाग, समाज सेवा तिवभाग एवं अग्रवाल धम)शाला का भी संचालन तिकया जा रहा है जिजससे समू्पण) समाज की सेवा होती है। अग्रवाल समाज के लोगों ने वाराणसी के व्यवसाधियक क्षेत्र में भी खासी पैठ जमायी है। पंखे, शुगर धिमल, काड)बोड), इलेक्ट्रॉतिनक सामान आदिद के छोट े मोटे कारखाने अग्रवालों के व्यवसाय से जुड़े हैं। बनारसी साड़ी एवं वस्त्रों के उत्पादन एवं तिनया)त म ें भी अग्रवालों का बड़ा महत्वपूण) योगदान है, इसके अलावा प्रशासतिनक के्षत्रों म ें एवं सामाजिजक सांस्कृतितक, धार्मिम<क एवं व्यापारिरक, शिचतिकत्सकीय, शैक्षक्षिणक तिकसी भी के्षत्र में अग्रवाल पीछे नहीं रहे हैं।

अतः अग्रवाल समाज का काशी के तिवकास म ें शिशक्षा स े लेकर व्यवसाय, सामाजिजक गतिततिवधिधयों में बढ़ चढ़ कर योगदान है इनकी भार्षा में काशिशका इस तरह समातिहत हो गई है जिजसके कारण इनकी मूल भार्षा कम प्रयुक्त होती है।

वाराणसी का मारवाqी समुदाय

काशी में मारवाड़ी समाज के लोगों का आगमन तिवशेर्ष रूप से काशी के धार्मिम<क स्थल होने के कारण हुआ है। काशी में मारवाड़ी समाज का योगदान बहुत बाद में हुआ। मोक्षदायनी नगरी होने के कारण, गंगा स्नान तथा बाबा तिवश्वनाथ का दश)न यहाँ का मुख्य आकर्ष)ण है, जिजसके फलस्वरूप मारवाड़ी लोग काशी आए। धीरे धीरे मारवाड़ी समाज ने उद्योग व्यापार के क्षेत्र में भी प्रवेश तिकया, जैसे हैम्प वेलिल<ग, काटन धिमल, अन्नपूणा) धिमAस, आटा धिमल, तेल धिमल एव ं सोतिडयम शिसशिलकेट बनान े का काय) प्रारम्भ तिकया। इसके साथ ही कई केधिमकल फैक्ट्री, साबुन बनाने का उद्योग आदिद स्थातिपत हुए। कुछ मारवातिड़यों ने शहर में

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धिमठाई, नमकीन की दुकानें स्थातिपत कीं। मारवाड़ी समाज ने पूर े पूवा)न्चल के औद्योतिगक तिवकास में अप्रतितम योगदान तिकया है, यह समाज के शिलए अत्यन्त ही गव) की बात है। मारवाड़ी एवं अग्रवाल समाज के लोगों ने अन्य व्यवसायों में भी काफी ख्यातित अर्जिज<त की है।

मारवाड़ी बन्धु अधिधकांशतः व्यापारी हैं, अतः शिशक्षा को लेकर इनमें उतना उत्साह नहीं होता। परन्तु अपने व्यवसाय के शिलए वे शिशक्षा ग्रहण करते हैं। साथ ही इनके व्यावसाधियक शिशक्षण के शिलए एक तिवद्यालय की स्थापना की गई है, उसे महाजनी तिवद्यालय कहते हैं। समय के साथ साथ इन तिवद्यालयों का स्थान भी कॉलेजों ने ले शिलया अब तिवद्यार्थिथ<यों को तिवश्वतिवद्यालयों में भी व्यवसाय की शिशक्षा दी जाती है।

वाराणसी का नेपाली समुदाय

भारत की सुप्रशिसद्ध धार्मिम<क नगरी काशी अपने वैशिशष्ट्य के कारण तिवश्वतिवख्यात है। नेपाल और काशी का सम्बन्ध सदिदयों पुराना है। नेपाली जनता काशी का सम्मान एव ं आदर नैसर्गिग<क रूप में करती है। नेपाल में यह उशिक्त प्रशिसद्ध है-तिवद्या हराए काशी जानु, अथा)त् यदिद तिवद्या खो जाए तो काशी जाओ। पहले नेपाल में परीक्षा कराने वाली कोई संस्था नहीं थी। नेपाल में अध्ययन करके परीक्षा देन े लोग काशी आते थ े और काशी म ें प्रवेशिशका, प्रथमा, मध्यमा, शास्त्री आदिद परीक्षा उ`ीण) कर अपनी योग्यता के अनुसार जीतिवकोपाज)न तिकया करते थे। नेपाल के तिहन्दू धमा)वलंबी लोग जीवन में एक बार काशी जाकर गंगा स्नान एवं बाबा तिवश्वनाथ का दश)न करके अपने जीवन को सफल मानते रहे हैं।

वैसे तो काशी कई के्षत्रों में बँटा हुआ सा प्रतीत होता है। यहाँ दक्षिक्षण भारतीय, बंगाली, मैशिथली, गुजराती आदिद लोग अपनी संस्कृतित एवं परम्परा के अनुरूप

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रहते हैं। काशी का दुग)तिवनायक, मंगलागौरी, �म्हाघाट, दुगा)घाट नेपाशिलयों का गढ़ रहा है, आज भी है। नेपाल के कई लोग इन क्षेत्रों में रहकर गंगा स्नान एवं बाबा का दश)न कर अपने आप को गौरवाप्तिन्वत महसूस करते हैं। कई स्थान नेपाली कोठी के नाम से जाने जाते हैं। तिवद्या का क्षेत्र देखा जाय तो नेपाल के मूध)न्य तिव_ान काशी से ही सम्बन्ध रखते हैं। नेपाल के पूव) प्रधान मंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के छात्र रहे थे जिजन्हें बाद में मानद डॉक्टरेट की उपाधी से तिवभूतिर्षत तिकया गया।

वाराणसी में नेपाली भार्षा शिशक्षण की व्यवस्था काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय में है। वाराणसी में जिजतने भी नेपाली परिरवार हैं, उनमें मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना उतनी प्रबल नहीं है। वे अपने घर में नेपाली के साथ साथ तिहन्दी का प्रयोग भी करते हैं।

वाराणसी का मुस्लिस्लम समुदाय

वाराणसी म ें मुस्थिस्लम समुदाय की भी अच्छी संख्या है। शहर के कई मोहAले गशिलयाँ मुस्थिस्लम समुदाय के नाम हैं। शहर के तिवक्षिभन्न स्थानों में मुस्थिस्लम समुदाय की आबादी लगभग चार-पाँच लाख के करीब है। जिजस प्रकार तिहन्दू समुदाय के लोग अपने तीज त्यौहार धूम धाम से मनाते हैं उसी प्रकार मुस्थिस्लम समुदाय के सदस्य अपने त्यौहार मनाते है। शहर के तिवक्षिभन्न मुहAले जैसे बजरडीहा, मदनपुरा, जैतपुरा, बड़ी बाजार, दालमंडी, हड़ाहा सराय, लAलापुरा, देवनाथपुरा, रामापुरा, रेवड़ीतालाब, नबाबगंज आदिद मुस्थिस्लम बहुल के्षत्र हैं। यहाँ अधिधकांश संख्या मुस्थिस्लम बुनकरों की है जो रेशमी कपड़ा, बनारसी साड़ी आदिद बनाने का काय) करते हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी ये समुदाय इसी व्यापार से अपनी आजीतिवका चलाते आ रहे हैं। वाराणसी में मुस्थिस्लम समुदाय की बहुतायत है। इसमें शिशक्षिक्षत और अशिशक्षिक्षत दोनों तरह के लोग हैं। शिशक्षिक्षत वग) आज भी शिशक्षा से जुड़ा है और बाकी व्यवसाय से। वाराणसी की कुल जनसंख्या म ें इस समुदाय का बहुत बड़ा तिहस्सा है। वाराणसी म ें मुस्थिस्लम

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अधिधकांशतः बुनकर हैं, जो रेशमी कपड़ा, बनारसी सातिड़याँ बुनने का काय) करते हैं। कुछ मुस्थिस्लम जो धतिनक वग) स े हैं, बनारसी सातिड़यों का व्यापार देश-तिवदेशों तक करत े हैं। वाराणसी के मुस्थिस्लम अपनी बोलचाल में काशिशका का प्रयोग करते हैं, जिजसमें उदू), फारसी के शब्दों का धिमश्रण होता है। वाराणसी में मुस्थिस्लम बच्चों को उदू) की शिशक्षा प्रदान करने के शिलए कई मदरसे भी स्थिस्थत हैं।

मुस्थिस्लम समुदाय में अपनी मातृभार्षा उदू) के प्रतित अनुरक्षण की भावना भी तीव्र होती है। वाराणसी में भी कई मदरसों की स्थापना इसी उ¦ेश्य को लेकर की गई है। तातिक मुस्थिस्लम बच्चे उदू) फारसी शिलखना पढ़ना सीख सकें । यहाँ मदरसों की बहुतायत है। प्रत्येक के्षत्र जो मुस्थिस्लमों का ह ै वहा ँ कोई ना कोई मदरसा अवश्य है। जाधिमया हमीदिदया रिरज़तिवया, मदनपुरा, जाधिमया हमीदिदया रिरज़तिवया शिसस्वा ँ मदनपुरा, जाधिमया ँ रहमातिनया मदनपुरा, जाधिमया ँ फारुतिकया रेवड़ीतालाब, मदरसा हनतिफया गौशिसया बजरडीहा, मदरसा आतिहदयाउस्सन्ना बजरडीहा, मदरसा दायरतुल इस्लाह शिचराग े उलूम कच्चीबाग, मदरसा मजहरुल उलूम, पीलीकोठी मदरसा, मदीनतुल उलूम, जलीलापुरा मदरसा, मदरसा मजीरिरया सराय हड़ाहा आदिद।

वाराणसी का हरिरयाणवी समुदाय

हरिरयाणवी लोग अधिधक मेहनती होते हैं, ये लोग व्यापार के के्षत्र में अपनी पहचान अच्छी तरह से बनाना जानते हैं। कुछ हरिरयाणवी लोगों ने शिशक्षा, पत्रकारिरता आदिद क्षेत्रों में भी नाम अर्जिज<त तिकया है, जैसे वाराणसी में गौड़ परिरवार जो अपने कम)काण्ड तथा वैदिदक ज्ञान के कारण जाना जाता था। बलदेव प्रसाद धिमश्र जो तिक एक अचे्छ लेखक के रूप में जाने जाते हैं।

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वाराणसी का जयसवाल समुदाय

वाराणसी में जयसवाल समाज की व्यवसाधियक क्षेत्र में अच्छी पहचान है। इनके नाम से भी बनारस में कई मोहAले बसे हैं, जैसे तेशिलया नाला, तेशिलयाबाग आदिद। कृतिर्ष से सम्बन्धिन्धत व्यापार पर जयसवालों का ही अधिधकार है। तिवशे्वश्वर गंज, खोजवां बाजार तिकराना व्यापार, अनाज मण्डी आदिद सभी में इनकी पैठ है। वाराणसी में कलाव`ू तार, शिसAक के शिलए रंग तैयार करना आदिद काय) भी ये लोग ही करते हैं।

अतः वाराणसी के तिवकास में लगभग सभी समुदायों का योगदान है। शिशक्षा, व्यवसाय आदिद सभी क्षेत्रों में तिवक्षिभन्न समुदाय के लोगों ने बढ़ चढ़ कर तिहस्सा शिलया है। मनुष्य सामाजिजक प्राणी है। सभी परस्पर एक दूसरे पर तिनभ)र हैं। शताब्दों में वाराणसी की सामाजिजक-सांस्कृतितक समरसता तिवकशिसत हुई है।

वाराणसी का षिबहारी समुदाय

तिबहारी शब्द तिबहार से वु्यत्पन्न तिवशेर्षण है, इस नाम की कोई एक भार्षा नहीं है; मगही, मैशिथली और भोजपुरी इसके अन्तग)त तिगनी जाती हैं। तिपछले कुछ दशकों में शिशक्षा प्राप्तिप्त के शिलए या नौकरी पेशे से जुड़कर बड़ी संख्या में तिबहारी समुदाय बाराणसी के सामनेघाट व नगवाँ में आकर बसे हैं। इनके वाराणसी में आकर बसने से छठ पव) यहाँ अधिधक लोकतिप्रय हुआ है। छठ पव) के आस-पास वाराणसी म ें तिबहारिरयों का रेला दिदखाई देता है। इनसे प्रभातिवत होकर स्थानीय व तिवक्षिभन्न समुदाय के लोग भी इस पव) में सपरिरवार शाधिमल होते हैं व मनाते हैं।

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2.3 वाराणसी का भाषिषक समाज तथा भाषायी कोशः-- शिशव की नगरी काशी के समाज में प्रारंभ से ही तिव_ानों के शिलए तिवशिशd स्थान रहा है; यहाँ ज्ञान प्राप्तिप्त के शिलए बड़े बड़े तिव_ानों ने पद यात्राए ँकी हैं। अतः तिव_ानों की नगरी काशी म ें एक स े बढ़कर एक तिवभूतितया ँ उत्पन्न हुईं, जिजन पर इतितहास गव) करता ह ै तिकन्त ु काशी के सामाजिजक परिरवेश म ें व े सामान्य नागरिरक की जीवनचया) का भी महत्व है। नगर सेठ हों या दरिरद्र, तिव_ान हों या मूख), प्रशासतिनक अधिधकारी हों या सामान्य मजदूर यदिद वे काशी के हैं तो बाहर से अलग दिदखना सम्भव नहीं होता। यहां के नागरिरकों के जेहन में यह बात बराबर रही शरीर और मन पूरी तरह स्वस्थ और पुd हो। इसी कारण यहाँ मुहAले मुहAले रिरयाज पानी के शिलए अखाड़े स्थातिपत तिकए गए कुए ँऔर तालाब बहुतायत से बने गये, यातित्रयों के शिलए तांगे चलते थे, अभी भी कई जगह तांगा स्टैण्ड दिदखाई देत े हैं, अच्छे पुस्तकालयों की भी कमी नहीं है। यहा ँ के अनेकानेक पुस्तकालयों म ें कारमाइकेल पुस्तकालय, नागरी प्रचारिरणी सभा, सरस्वती भवन पुस्तकालय, गाय घाट का साव)जतिनक पुस्तकालय, खोजवा ँ स्थिस्थत श्री आदश) खोजवा ँ पुस्तकालय, तिवश्वनाथ पुस्तकालय, भगवानदास स्वाध्याय पीठ, तुलसी पुस्तकालय तथा बंगीय सातिहत्य पुस्तकालय आदिद आज भी वत)मान हैं। काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय की सयाजीराव गायकवाड़ सेन्ट्रल लाइ�ेरी बहुत उत्कृd पुस्तकालयों में शुमार है जिजसमें दस लाख से अधिधक पुस्तकें हैं।

भातिर्षक समाज तथा भार्षायी कोश का अध्ययन समाजभार्षातिवज्ञान के अंतग)त आता है। समाजभार्षातिवज्ञान न े समाज सापेक्ष अध्ययन हेत ु कई संकAपनाओं को जन्म दिदया है, इनके माध्यम से समाज और भार्षा की तिवक्षिभन्न स्थिस्थतितयों, तथा सम्बन्धों की व्याख्या की जा सकती है। प्रत्येक भार्षा या बोली अपने समाज से परिरभातिर्षत होती है, चाहे वह समाज कोई गांव मुहAला हो, कोई नगर अथवा पूरा राष्ट्र। वही समाज जो उसे बोलता है उस भार्षा

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की पहचान होता है। भार्षायी समाज के शिलए अभी तक कोई एक परिरभार्षा नहीं बन पायी है। भार्षायी समाज का स्वरूप बृहद भी हो सकता है, और लघु भी। एक बड़े भार्षायी समाज के अंतग)त कई छोटे छोटे भार्षायी समाज भी हो सकते हैं। जैसे एक ही भार्षायी समाज में पंतिडतों-पुरोतिहतों और मछुआरों-मAलाहों के समाजभातिर्षक रूप और व्यवसाय में अन्तर हो सकता है, इनका रूप समयानुसार परिरवर्गित<त होता रहता है, कुछ कारणों से भार्षायी समाज का स्वरूप बढ़ जाता है और कुछ प्रतितकूल परिरस्थिस्थतितयों के कारण लघु हो जाता है।

कभी कभी ऐसा होता है तिक तिकन्ही कारणों से कोई भार्षा अपना मूल स्वरूप ही छोड़ देती है, अथा)त उस भार्षा को बोलने वाले प्रयोग कम कर देते हैं या तिबAकुल बंद कर देते हैं, जिजससे उस भार्षा का अल्किस्तत्व समाप्त हो जाता है। उदाहरण के तौर पर आज मानक तिहन्दी बहुत तिवकशिसत और सशक्त हो गई है। लेतिकन जब इसका कोई अल्किस्तत्व नहीं था तब �ज भार्षा देश के बहुत बड़े भाग में मानक सातिहप्तित्यक भार्षा बन गई थी, लेतिकन आज तिहन्दी (मुख्य रूप से खड़ी बोली) के आगे बढ़ जाने के कारण �जभार्षा का वजूद कम हो गया है। कुछ ही लोग भार्षा का मूल स्वरूप पहचानते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उसके बदलते स्वरूप को अपना लेते हैं। इस कारण भी भार्षा की अल्किस्मता स्थिस्थर न रहकर बदलती चलती है।

वाराणसी शहर की भातिर्षक समृजिद्ध का कारण यहाँ तिवक्षिभन्न कारणों से क्षिभन्न क्षिभन्न समुदाय के लोगों का तिनवास करना है। वाराणसी की गशिलयाँ एवं मुहAले पूरे तिवश्व में तिवख्यात हैं। इन गशिलयों और मुहAलों में प्राचीन काल से ही तिवक्षिभन्न समुदाय के लोग एक तिनक्षिoत इलाकों में बसे हुए हैं तथा उन मोहAलों की उन समुदाय के नामों से पहचान बन गई है। इसे पुराना बनारस कहा जाता है। यहाँ प्राचीन क्षेत्रों में से बंगाली टोला, सोनारपुरा, देवनाथपुरा, पाण्डे हवेली आदिद क्षेत्र बंगाशिलयों के हैं। केदारघाट, हनुमान घाट, नारद घाट आदिद दक्षिक्षण

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भारतितयों के मुहAले हैं, और शहर के मध्य भाग में मीरघाट, लक्खी चौतरा, नीची बाग, गोलघर आदिद क्षेत्रों म ें मारवाड़ी बन्धु तथा गुजराती बन्धुओं का बसेरा है। वाराणसी के लाहौरी टोला, शिसगरा, �म्हनाल, गुरुबाग, लक्सा, शिसद्धतिगरीबाग आदिद इलाकों में पंजाबी व शिसन्धी समुदाय के लोग बसे हैं। अगत्स्य कुण्डा, �म्हाघाट आदिद मराठी समुदाय के क्षेत्र हैं। दूधतिवनायक के्षत्र नेपाली लोगों का मुहAला है। बजरडीहा, मदनपुरा, रेवड़ी तालाब, लAलापुरा आदिद मुहAले मुस्थिस्लम समुदाय के नाम हैं।

तिनम्नशिलखिखत ताशिलका से इसे स्पd रूप से समझ सकते हैं—

वाराणसी के शिभन्न-शिभन्न क्षेत्रों में षिनवास करने वाले षिवशिभन्न भाषिषक समुदाय

aम संख्या समुदाय मुहAलों के नाम

1. बंगाली बंगाली टोला, देवनाथपुरा, केदारघाट, पाण्डेय हवेली, गंगामहल, भेलुपुरा, शिशवाला, सोनारपुरा, हरिरoन्द्र घाट, चौसट्टी घाट

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2. मराठी दुग)घाट, �म्हाघाट, अगत्स्य कुण्ड

3 गुजराती चौखम्बा, गायघाट, पक्कामहाल

4. पंजाबी लाहौरी टोला, शिसगरा, �म्हनाल, गायघाट, गुरुबाग

5. मारवाड़ी मीरघाट, लख्खी चौतरा, नन्दनसाहू लेना

6. शिसन्धी गुरुबाग, दशाश्वमेध, शिसद्धतिगरीबाग

7. मैशिथली दरभंगा घाट

8. दक्षिक्षणभारतीय हनुमानघाट, केदारघाट, नारदघाट, दुगा)घाट, मीरघाट, मानसरोवरघाट

9. नेपाली नेपाली खपरा, दूधतिवनायक

10. कश्मीरी लाहोरी टोली

11 मुस्थिस्लम मदनपुरा, रेवड़ी तालाब, लोहता, बजरडीहा,शिशवाला, जैतपुरा, लAलापुरा

12 तिबहारी सामनेघाट, नगवा

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भाषायीकोश—

तिकसी भार्षासमाज के भातिर्षक व्यवहार म ें कई भार्षाए ँ उनके के्षत्रीय और सामाजिजक भेदोपभेद, बोशिलयाँ, कूट भार्षा, शैशिलयाँ हो सकती हैं। उन सभी को समवेत रूप में उस

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भातिर्षकसमाज का रिरपतु)वा कहत े हैं। यह व्यशिक्तगत स्तर पर भी हो सकता है। दिदAली, कलक`ा, बम्बई, चेन्नई आदिद महानगरों में से प्रत्येक के भातिर्षक रिरपतु)वा में सदस्य कोडों की संख्या सैकड़ों में होगी। वाराणसी वैसे तो मूलतः भोजपुरी भार्षी शहर है तिफर तिहन्दी जानने समझने और बोलने वालों की संख्या में तिवगत दशकों में बहुत बृद्धी हुई है। शिशक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ी है, अतः ति_भार्षी बहुभार्षी लोग बहुतायत में हो गये हैं। अनपढ़ लोग भी बोलचाल म ें ति_भार्षी और बहुभार्षी हैं। शिशक्षा म ें और राजकाज शासन में, कोट)कचहरी म ें तिहन्दी प्रमुख भार्षा है। यह व्यापक रूप से सम्पक) भार्षा भी है। शिशक्षिक्षत मध्यवग) में और काया)लयों में अंग्रेजी है जो अपेक्षाकृत अधिधक प्रभुता सम्पन्न है। धार्मिम<क अनुष्ठान, पूजापाठ, व्रत, संस्कार के तिवधिधतिवधान में संस्कृत की मुख्य भूधिमका है।

बनारस की मुख्य भार्षा काशिशका है बनारसी बोली को काशिशका कहते हैं, जो तिक भोजपुरी का ही एक प्रतितधिष्ठत प्रतितभेद है। ज्यादातर बनारस के मूल तिनवासी अन्य भार्षा-भातिर्षयों के आस-पास ही रहते हैं तथा इनके परस्पर सम्बन्ध भी अचे्छ हैं, ये आपस में काशिशका का प्रयोग करते हैं। इन ठेठ बनारशिसयों का अपना अलग समुदाय है। बनारसी वो होत े ह ैं जो कई पीदिढ़यों स े यहा ँ के स्थायी तिनवासी हैं, और अधिधकतर पुराने मुहAलों में बसे हैं। अतः बनारसी तिकसी भी धम) के हो सकते हैं, तिहन्दू और जैनी भी, मुस्थिस्लम और इसाई भी। इनकी बोशिलयों म ें इनकी धार्मिम<क एव ं सामाजिजक तिवशेर्षताओं का धिमश्रण होता है। अन्य भार्षायी समाजों एवं समुदायों से बनारसी समुदाय अपनी एक बनारसी बोली के कारण अलग हो जाता है।

वाराणसी पूव� तिहन्दी का प्रतिततिनधिध शहर है। यहाँ की सामान्य बोलचालवाली तिहन्दी मानक तिहन्दी नहीं है, उसमें स्थानीय और क्षेत्रीय बोशिलयों के तत्व पे जाते ह ैं और तद्भव रूपों की बहुतायत रहती है। तिनम्नशिलखिखत उदाहरण द्रdव्य हैं—

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“हमारा भला होगा त आपो का भला होगा।

ई कइसे होगा? हम नहीं कहे हैं।

मैं कहा हँू, मैं एक लेख शिलखा हँू।

चहवे से मत काम चलाइए, पकउतिड़यो लीजिजए।

लड़के का बरछा कर शिलया कुच्छो खिखआया उवाया नहीं।

वो खाना बनाई तो हम खाना खाये।

अरे आपकी सइतिकशिलया का क्या हुआ? ”

बातचीत के दौरान वे भोजपुरी या काशिशका का प्रयोग करते हैं तथा वे मानते हैं तिक वे शुद्ध तिहन्दी का प्रयोग कर रहे हैं। शिशक्षिक्षत समुदाय के लोग आवश्यकतानुसार अंग्रेजी भार्षा का प्रयोग करते हैं, वहीं मुस्थिस्लम समुदाय के लोग बातचीत के दौरान उदू) फारसी के तद्भव धिमक्षिश्रत तिहन्दी/भोजपुरी का प्रयोग करते हैं। वाराणसी का समाज बहुभार्षी है, प्राचीन काल से ही धार्मिम<क तथा पय)टन स्थल होने के कारण तिनरन्तर देसीतिवदेशिसयों के आवागमन का केन्द्र रहा है। अतः यहा ँ पहल े स े ही बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित बनी हुई है। घाटों पर तिवराजमान पण्ड े तिवदेशिशयों को कम)काण्ड का महत्व समझात े हैं। मंदिदरों, शिशवालयों में पुरोतिहत कई भार्षाओं में तिवक्षिभन्न भार्षा- भार्षी समुदाय के लोगों की पूजा अच)ना करवाते हैं, तथा कई लोग गाइड बनकर बाहर से आए लोगों को वाराणसी के महत्व, तथा यहा ँ के महत्वपूण) स्थानों के बारे में बताते हैं। इस प्रकार वे धिमक्षिश्रत भार्षा का प्रयोग करते हैं। वे अंग्रेजी, फ्रें च, जम)न आदिद कई भार्षाओं को काशिशका में धिमक्षिश्रत कर अपने समे्प्रर्षण का काय) करते हैं जो प्रायः मानक भार्षारूप नहीं होता।

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अतः वाराणसी के भार्षायी कोश पर प्रकाश डालने पर हम पाते हैं तिक यहाँ की बोलचाल की भार्षा काशिशका है। शिशक्षिक्षत वग) हो या अशिशक्षिक्षत औपचारिरक संदभ) में खड़ी बोली का प्रयोग करता ह ै तथा आम बोलचाल म ें काशिशका का प्रयोग करता है। बंगाली, गुजराती, पंजाबी, मराठी आदिद तिवक्षिभन्न भार्षाभार्षी समुदाय के लोग अपने वग) अथवा घर परिरवार में अपनी मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं तथा धार्मिम<क अनुष्ठानों में संस्कृत भार्षा का प्रयोग होता है।

2.4 शोN प्रषिवचिNः--प्रत्येक शोधकाय) के प्रारम्भ म ें ही शोध के तिवर्षय के अनुसार सव)प्रथम शोध प्रतिवधिध सुतिनक्षिoत करना हर शोधाथ� के शिलए अत्यावश्यक होता है। शोध प्रतिवधिध के आधार पर ही सव�क्षण के तिवक्षिभन्न चरणों को सुतिनक्षिoत तिकया जाता है एवं तदन्ुसार तथ्यों व आंकड़ों आदिद का संकलन तथा तिववेचन- तिवशे्लर्षण तिकया जाता है। तिवशेर्षतः भार्षा-वैज्ञातिनक व समाज-भातिर्षक अध्ययनों में इस पद्धतित के प्रतित शोधाथ� की प्रतितबद्धता अतित आवश्यक होती है, क्योंतिक संकशिलत भार्षायी तथ्यों और आंकड़ों के तिववेचन के आधार पर ही शोधकाय) की मह`ा तथा उपादेयता तिनधा)रिरत होती है।

प्रस्तुत शोध का तिवर्षय “वाराणसी शहर के मुख्य अल्पसंख्यक भाषाभाषी स माजों का स माजभाषिषक अनुशीलन” है। अतएव सव)प्रथम शोध के तिवर्षय को ध्यान में रखते हुए शोध-प्रतिवधिध का तिनमा)ण तिकया गया एवं तत्पoात उसके अनुसार सव�क्षण के तिवक्षिभन्न चरणों का तिनधा)रण कर तथ्यों व आँकड़ों का संकलन तथा तिववेचन तिकया गया है।

(क) केन्द्रों का Mयन —

तिकसी भी शोधकाय) की मौशिलकता तथा तिवश्वस्नीयता सव�क्षण काय) हेतु उपयुक्त केन्द्रों व सूचकों के चयन पर तिनभ)र करती है। सही केन्द्रों तथा सूचकों का चयन वस्तुतः बहुत ही

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कदिठन काय) होता है। इस शोधकाय) के तिनधिम` वाराणसी के तिवक्षिभन्न तिवशिशd क्षेत्रों का चयन तिकया गया जिजनमें शोध के तिवक्षिभन्न अध्यायों के अनुसार तिवशिशd भातिर्षक के्षत्रों के अन्तग)त अलग-अलग केन्द्रों को चुना गया। उनमें से भी अनेक सम्भातिवत केन्द्रों में से अपेक्षाकृत अधिधक महत्त्व वाले केन्द्रों को चयतिनत तिकया गया।

(ख) सूMकों का Mयन—

यह सव)तिवदिदत है तिक शोधकाय) के दौरान सम्बद्ध के्षत्र में जाकर सूचकों के माध्यम से सामग्री संकशिलत करना परम आवश्यक होता है।

शोध सव�क्षण हेतु सूचकों का चयन तिनधा)रिरत मानदण्डों के आधार पर ही तिकया गया एवं इस बात का भी तिवशेर्ष ध्यान रखा गया तिक इसमें सभी वग) के लोग समान रूप से सन्धिम्मशिलत हों। सूचकों के चयन के तिवक्षिभन्न मानदण्डों के अनुसार इस प्रकार तिकया गया है—तिवक्षिभन्न आयुवग) के आधार पर, लिल<ग के आधार पर, शिशक्षा के आधार पर, आर्थिथ<क आधार पर एवं व्यवसाय के आधार पर। चयतिनत सूचकों को इन मानदण्डों के अन्तग)त भी तिवक्षिभन्न वगu में तिवभाजिजत तिकया गया है। जिजसका तिववरण इस प्रकार है--

(क) लिल<ग के आधार पर--- स्त्री एवं पुरुर्ष।

(ख) आयु के आधार पर----5 से 25 वर्ष), 25 से 50 वर्ष) तथा 50 वर्ष) एवं इससे अधिधक।

(ग) शिशक्षा के आधार पर--- अशिशक्षिक्षत, अद्ध)शिशक्षिक्षत, शिशक्षिक्षत, तकनीकी।

(घ) आर्थिथ<क आधार पर--- उच्च आयवग), मध्यम आयवग), तिनम्न आयवग)।

(ङ) व्यवसाय के आधार पर---मजदूर, अध्यापक, तिवद्याथ�, गृहणी, अन्य व्यवसाय।

(ग) प्रश्नावली षिनमा6ण —

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प्रस्तुत शोधकाय) हेत ु सूचकों स े जानकारी प्राप्त करन े के उ¦ेश्य स े एक प्रश्नावली का तिनमा)ण का गया। प्रश्नावली की रूपरेखा भारतीय भार्षा संस्थान, मैसूर _ारा प्रकाशिशत ‘समाज भार्षावैज्ञातिनक सव�क्षण काय) हेतु प्रस्तुत प्रश्नावली बैंक’ के आधार पर बनायी गयी है। प्रश्नावली म ें उन्हीं प्रश्नों का चयन तिकया गया ह ै जिजनसे तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदायों के सूचकों से आवश्यक जानकारी प्राप्त हो सके। प्रश्नावली को चार भागों में बांटा गया है, प्रश्नावली के प्रथम खण्ड के प्रश्नों स े सूचकों के व्यशिक्तगत परिरचय जैसे- लिल<ग, आय, व्यवसाय, जन्मस्थान, मातृभार्षा, मूलतिनवास स्थान, स्थानान्तरण के कारण आदिद की जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्नावली के दूसरे भाग के प्रश्नों के माध्यम से सूचकों की भातिर्षक योग्यता तथा मातृभार्षा की दक्षता का अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रश्नावली के तीसरे भाग के सभी प्रश्न सूचकों के भातिर्षक अपसरण से संबंधिधत सूचनाओं को प्रदान करते हैं। प्रश्नावली के अंतितम भाग में सूचकों के व्यशिक्तगत परिरचय के साथ साथ उनके बहुभातिर्षक योग्यता तथा भातिर्षक प्रयोग की जानकारी प्राप्त होती है।

(घ) पूव6वतv शोNकायw का अनुशीलन —

भार्षा अनुरक्षण और तिवस्थापन स े सम्बन्धिन्धत अन्यत्र हुए शोधकायu के अध्ययन अनुशीलन स े अपना तिवर्षय समझने, शोधसामग्री संकशिलत करन े और तिवश्लेर्षण तथा वण)नात्मक प्रस्तुतित करने का सलीका सीखने में मदद धिमली। अतः उनका उAलेख प्रासंतिगक है।

1. ‘दिदAली में पंजाबी भार्षा के अनुरक्षण का समाजभातिर्षक अध्ययन’ तिवर्षय पर रंजीत लिस<ह रंगीला का महत्वपूण) काय) है। दिदAली की आबादी अभी हाल तक पंजाबी बहुल रही

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है। पंजाबी ने सम्पक) की स्थिस्थतित में तिहन्दी को प्रभातिवत तिकया और खुद भी बहुत प्रभातिवत हुई, देवनागरी शिलतिप में शिलखी जाने लगी।

2. जी. सम्बाशिशवा राव और रेखा शमा) ने मारीशस का समाजभातिर्षक सव�क्षण तिकया है। वहाँ पूव� उ`र प्रदेश और पक्षिoमी तिबहार से गये भारतीय मूल के लोगों की अच्छी तादात है। वे भोजपुरी भार्षा और संस्कृतित का अनुरक्षण करने के शिलए तिनष्ठावान हैं। अंग्रेजी और फ्रें च के सम्पक) में वहाँ की भोजपुरी प्रभातिवत हो रही है।

3. केन्द्रीय तिहन्दी संस्थान, आगरा में हुई संगोष्ठी में प्रस्तुत लेखों का संग्रह ‘भार्षा अनुरक्षण एवं तिवस्थापन’ नामक पुस्तक तिवशेर्ष रूप से उपयोगी शिसद्ध हुई। श्री कृष्ण _ारा सम्पादिदत इस पुस्तक म ें कश्मीर, तिबहार, तिहमाचल प्रदेश अंडमान तिनकोबार आदिद प्रदेशों म ें तथा बंगलोर और दिदAली जैस े शहरों में तिवतिवध प्रकार के भार्षा अनुरक्षण और तिवस्थापन की स्थिस्थतितयों का तिववरण प्रस्तुत है। प्रत्येक परिरस्थिस्थतित और समस्या अलग तरह की है।

4. इस दृधिd से जवाहरलाल नेहरू तिवश्वतिवद्यालय के चंदर जे दासवानी और एस परचानी के परिरयोजना काय) का उAलेख आवश्यक है। देश तिवभाजन के समय पातिकस्तान से तिवस्थातिपत लिस<धी समाज के लोग भारत वर्ष) के तिवक्षिभन्न प्रान्तों के शहरों में बस गये और व्यापार करने लगे। धीरे धीरे इनकी लिस<धी भार्षा प्रभातिवत होती गई। आज स्थिस्थतित यह है तिक लिस<धी समाज के तिबखराव और अन्य कारणों से भारतीय लिस<धी भार्षा में अखिखल भारतीय मानक रूप का अभाव हो गया है। इसके दूरगामी परिरणाम होंगे।

इन सभी पूव)वत� कायu के अध्ययन से अपने शोध तिवर्षय को समझना व काय) करना सुकर हुआ।

(ड.) सवxक्षण की व्यवहारिरक कठिठनाइयाँ —

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सव�क्षण के दौरान शोधाथ� को अनेक प्रकार की कदिठनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रश्नावली भरवान े हेत ु वाराणसी शहर के सभी प्रमुख के्षत्रों म ें जाकर तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदाय के लोगों से धिमलकर सही जानकारी व आंकड़ों का पता लगाना एक बड़ा ही दुरूह काय) प्रतीत हुआ। आज के व्यस्ततम जीवन (दिदनचया)) में जहाँ लोगों के पास ठीक से खाने व सोने का समय नहीं है, तिकसी शोधाथ� के प्रश्नों के उ`र देना समय की बबा)दी के समान प्रतीत हुआ। शोधाथ� को सूचकों से थोड़ा भी समय व सहयोग धिमल सके इसके शिलए कई कई दिदन उनके घरों व दुकानों पर इंतज़ार करना पड़ा। कुछ सूचकों न े दया दिदखाकर शोधाथ� का सहयोग करने आगे आए पर इस सहयोग के बदले कोई राशिश या तिकसी प्रकार का व्यशिक्तगत लाभ धिमलता न देख उन्होंने भी अरुशिच दिदखाई। शोधाथ� को कई सूचकों के गुस्से का भी सामना करना पड़ा, कुछ सूचक जो व्यवसाय से जुडे़ हैं प्रश्नावली भरने से मना कर दिदया व कहा-“इतने में हम कई गाहक तिनपटा लेंगे, क्या मैडम धंधे का समय है पढ़ाई-शिलखाई करनी होती तो यहाँ क्यों होते” आदिद आदिद।

कुछ सूचकों ने प्रश्नावली की उपयोतिगता पर सवाल खड़े कर दिदए, जब शोधाथ� ने उनकी जिजज्ञासाओं को शांत करने का प्रयत्न तिकया तो वे अपनी उम्र व आय बताने में एतराज जताने लगे। शैक्षिक्षक काय) से जुड़े लोगों ने शोधाथ� का सहयोग व उत्साह वध)न तिकया वहीं दूसरी ओर मतिहला सूचकों ने शोधाथ� के समझाने पर संकोच के साथ कुछ प्रश्नों के उ`र देने के बाद आगे अपनी असमथ)ता जताते हुए तिवदा ले ली। 60 वर्ष) अथवा उससे ऊपर की आयु वग) में अधिधकांश वही सूचक उपलब्ध हुए जो अपने अपने सेवायोजन से अवकाश ग्रहण कर घरों की सीमा में बन्द जीवन यापन कर रहे थे। बच्चों ने सूचकों के रूप में उत्साह दिदखाया पर भातिर्षक तिवशे्लर्षण के दौरान उन्हें अपनी मातृभार्षा से जुड़े प्रश्नों के उ`र देने में कदिठनाई महसूस होने लगी।

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कुछ सूचकों ने पीढ़ी दर पीढ़ी सुनी अपने पूव)जों की गाथाओं के आधार पर सूचनाए ँप्रदान कीं, उनके पास उनकी कही बातों का कोई शिलखिखत प्रमाण न होन े से शोधाथ� के सामने प्राप्त सूचनाओं की तिवश्वसनीयता पर प्रश्नशिचन्ह लग गया। इस प्रकार प्रस्तुत शोधकाय) में तिवक्षिभन्न कदिठनाइयों का सामना करने के साथ साथ, मेहनत व लगन से शोधाथ� का काय) सम्पन्न हुआ।

............ ⃟⃟⃟⃟...........

तृतीय अध्यायवाराणसी के बंगाली समुदाय का समाजभाषिषक अनुशीलन

3.1 बंगला भाषा का संशिक्षप्त परिरMयः-- बंगला भार्षा भारतीय आय)भार्षा परिरवार की भार्षा है जो मागधी अपभ्रंश से उद्भतू हुई है। इसका तिवकास दो चरणों में हुआ है। प्राचीन बंगला और आधुतिनक बंगला। भारत के अन्य तिव_ानों की तरह बंगाल के भी तिव_ान संस्कृत की रचनाओं को ही तिवशेर्ष महत्व देते थे। उनकी दृधिd में वही अमर भारती का पद सुशोक्षिभत कर सकती थी। बोलचाल की भार्षा को वे परिरवत)नशील और अस्थायी मानते थे। तिकन्तु साधारण जन तो अपने तिवचारों और भावों

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को प्रकट करने के शिलए उसी सरल भार्षा को पसंद करते थे जो उनके हृदय के अधिधक तिनकट हो। उसी भार्षा में वे उपदेश और शिशक्षा ग्रहण करते थे।

पुरातन वंगाल में इस तरह की दो भार्षाए ँप्रचशिलत थीं एक स्थानीय भार्षा, जिजसे हम प्राचीन बँगला कह सकते हैं, दूसरी अखिखल भारतीय जन सातिहप्तित्यक भार्षा, जो सामान्यतः समूचे उ`र भारत में समझी जा सकती थी। इसे नागर या शौरसेनी अपभ्रंश कह सकते हैं जो मोटे तौर पर पक्षिoमी उ`र प्रदेश, पूव� पंजाब तथा राजस्थान की भार्षा थी। सामान्य जनता के शिलए इन दोनों भार्षाओं में थोड़ा सा सातिहत्य तिवद्यमान था। प्रेम और भशिक्त के गीत, कहावतें और लोकगीत मातृभार्षा में पाए जाते थे। बौद्ध तथा तिहन्दू धम) के उपदेशक जनता में प्रचार करने के शिलए जो रचनाए ँतैयार करते थे वे प्रायः पुरानी बँगला तथा नागर अपभ्रंश, दोनों में होती थीं।

बंगला में आधे से अधिधक शब्द संस्कृत के हैं अतः बंगला भातिर्षयों के शिलए संस्कृत भार्षा को बोलना समझना आसान है। इनके कतिव संस्कृततिनष्ठ बंगला म ें कतिवताए ँतिकया करते थे। पुरानी बंगला में तो संस्कृत शब्दों की भरमार है अब जो बंगला प्रचलन में है उसमें उच्चारण की दृधिd स े शब्दों के सरल रूप का प्रयोग तिकया जाता है। संस्कृत स े उद्भतू आधुतिनक भारतीय आय) भार्षा होने के कारण बंगला भार्षा पर संस्कृत भार्षा का प्रभाव होना सहज स्वाभातिवक है।

बंगला भार्षा के तिवकासaम का भार्षावैज्ञातिनक तिववरण इस प्रकार है---

भारोपीय भार्षा परिरवार

भारत ईरानी

ईरानी दरद भारतीय-आय)

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वैदिदक संस्कृत लौतिकक संस्कृत-(प्राचीन भा. आ.)

पाशिल

प्राकृतें

मागधी प्राकृत

मागधी अपभं्रश

बंगला

आधुतिनक बंगला का तिवकास भी तीनों चरणों में हुआ है। गद्य बंगला अथा)त् शिलखिखत बंगला भार्षा और बोलचाल की बंगला भार्षा में भी अंतर देखने को धिमलता है। गद्य बंगला की साधु शैली थी जबतिक बोलचाल की बंगला पर वत)मान समय का प्रभाव या लचीलापन था। बंगला के तिव_ानों न े कई संस्कृत वेदान्तों का अनुवाद बंगला म ें तिकया। कुछ कतिवयों ने कतिवताओं तथा भजनों की रचनाए ँकी जो आम बंगाशिलयों को अधिधक पसंद आयीं।

बंगला भार्षा में संस्कृत से शब्द आए हैं शब्दों की संरचना भी तिबAकुल वैसी ही है। संस्कृत के अलावा बंगला में तिहन्दी, उदू), फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का समावेश है। इससे बंगला भार्षा का भार्षायी कोश समृद्ध हुआ है। मानक बंगला को यदिद हम छोड़ दें तो बोलचाल की भार्षा में आस पास की भार्षा के कई शब्दों का समावेश भलीभांतित हो चुका है। मानक बंगला पक्षिoम बंगाल और बांगला देश दोनों में ह ै कलक`ा और ढाका उनके केन्द्रीय क्षेत्र हैं तथा तिवक्षिभन्न शहरों में भी बंगला भातिर्षयों ने इसका अनुरक्षण तिकया है, परन्तु

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धीरे धीरे समयानुसार इसमें परिरवत)न होता जा रहा है। ये अंतर बंगाल में बोली जाने वाली बंगला तथा अन्य स्थानों पर बोली जाने बाली बंगला के बीच देखे जा सकते हैं।

बंगला भार्षा पर राष्ट्रीय आन्दोलनों का प्रभाव भी देखने को धिमलता है। बंगला सातिहत्य पर दृधिd डालने से हमें यह अन्तर स्पd रूप से दिदखायी देता है। 1885 के आन्दोलन का बंगला भार्षा तथा सातिहत्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुस्थिस्लम लेखकों ने भी इस समय बंगला भार्षा में उदू) फारसी के शब्दों को डाल कर अनूठे प्रयोग तिकये। भार्षा का स्वभाव परिरवर्गित<त होना है। लोग कई उ¦ेश्यों को लेकर तिवक्षिभन्न स्थानों पर जाते हैं तो साथ में अपनी मातृभार्षा एवं संस्कृतित भी ले जाते हैं और देश काल के अनुसार इसमें परिरवत)न होता जाता है। इसी कारण इनकी प्राचीन मातृभार्षा तथा आधुतिनक भार्षा में अंतर हो जाता है। इनकी भार्षा के कई कदिठन शब्दों का स्थान सरल शब्द ले लेते हैं तथा भार्षा में आसपास की भार्षा के शब्द खुद ब खुद शाधिमल हो जाते हैं, और धीरे धीरे उस भार्षा का तिहस्सा बन जाते हैं। बंगला भार्षा भारत में तिहन्दी के बाद सबसे अधिधक बोली जाने वाली भार्षा है। बंगला भार्षा के लेखकों की सभी जगह धूम है। प्रशिसद्ध बंगाली लेखकों म ें शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंतिकम चन्द्र चट्टोपाध्याय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, और माइकल मधुसूदन द` थे। समाज सुधारक राजा राममोहन राय और नेता जी सुभार्ष चन्द्र बोस का नाम कौन नहीं जानता। सातिहत्य सृजन, कला, अध्यात्म, दश)न, योग, संगीत आदिद के्षत्रों में बंगालीभार्षी समुदाय का महत्वपूण) योगदान है। सर जाज) तिग्रयस)न (1903:4) बंगाशिलयों की बौजिद्धक प्रतितभा के प्रशंसक थे। वे तिहन्दुसतान को सम्य बनाने वालों में बंगाशिलयों और भोजपुरिरयों को अग्रणी मानते थे—कलम की ताकत और लाठी की ताकत के बल पर :

“The Bengali and Bhojpuri are two of the great civilizers of Hindustan, the former with his pen and the latter with his cudgel”.

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बंगाली लोग अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त संस्कृत और अंग्रेजी का भी यथेd ज्ञान रखते हैं। बंगला भार्षा की वण)माला �ाम्ही से वु्यत्पन्न है, इसशिलए देवनागरी के काफी तिनकट है। बंगला के अक्षर घुमावदार अधिधक हैं, कुछ अक्षर तो देवनागरी के अक्षरों से धिमलते जुलते प्रतीत होते हैं, जैसे—

क , व, ल, उ, ड आदिद।

Vowels and vowel diacriticss

Consonants

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3.2 वाराणसी का बंगाली समुदाय :-(क) ऐषितहाचिसक परिरMय -- वाराणसी में बंगाली समुदाय का आगमन लगभग 1500 वर्ष) पूव) बंगाल के पालवंशीय राजाओं के शासन काल में हुआ। काशी में चैतन्य महा प्रभु के आगमन के पoात एक बड़ा कातिफला बंगाल से आकर वाराणसी में बस गया।

धम) शिशक्षा और संस्कृतित का सबसे बड़ा केन्द्र होने, तिवमुक्त के्षत्र होने और मोक्ष प्राप्तिप्त के साधन के रूप में प्रचारिरत होने के नाते काशी प्राचीनकाल से ही बंग समाज के लोगों को अपनी ओर आकर्गिर्ष<त करती आ रही है, बंगला सातिहत्य में भी काशीवास की मतिहमा का महत्व देखने को धिमलता है। धम) ग्रंथों और लेखों तथा कला तिवशेर्षकर संगीत गं्रथों में काशी के असंख्य सन्दभu को देखा और पढ़ा जा सकता है। श्री तरुणकान्तिन्त बसु के अनुसार—“Nार्मिमFक ललक और मोक्ष-कामना के साथ इस नगर में बंगाचिलयों के आने की परम्परा उस समय से प्रारंभ होती है, जब काशी पर बंगाल के पाल राजाओं का आचिNपत्य था। दसवीं र्ग्यूयारहवीं शताब्दी में पाल राजाओं-Nम6पाल, मदनपाल एवं रामपाल <ारा षिकतने ही षिहन्दू एवं बौद्ध मंठिदरों एवं Mैत्य षिवहारों का षिनमा6ण हुआ। इन्ही मदनपाल के नाम पर यहाँ के मदनपुरा मुहल्ले का नामकरण हुआ है। इसके बाद कुछ बंगाली Mैतन्य महाप्रभु के समय में काशीवास के चिलए आए, और बंगाली भक्त गायघाट-षिवशे्वश्वर गंज स्लि�त बंगाली बाqा में ठहरे जहाँ से आNे षिकलोमीटर की दूरी पर जतनबर में महाप्रभु का पqाव था और जहाँ आज Mैतन्य महाप्रभु का मंठिदर है। कुछ बंगाचिलयों का आगमन उस समय हुआ जब बंगाल के नवाब चिसराजुद्दौला का आतंक और अत्याMार पूरे बंगाल में :ैल गया, जिजस कारण नाटोर(बंगाल) की महारानी रानी भवानी को बंगाल छोqना पqा साथ ही उनस े सम्बन्धि�त उनके आशिश्रत और उनके प्रषित आदर भाव रखने वाले बंगाली नर-नारिरयों का एक बqा

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काषि:ला यहाँ आकर बस गया और इन लोगों ने बनारस में भी छोटा सा बंगाल बना चिलया।

बंगाचिलयों के चिलए वैNव्य और वृद्धाव�ा काशी में षिबताने की आ�ा और परम्परा आज भी षिवद्यमान है। बंगाचिलयों का षिवचिNवत वाराणसी प्रवास अब से कोई 215

वष6 पूव6 से आरम्भ होता है। इस प्रकार पहला परिरवार वापुली परिरवार है जो 1764

ई. से आजतक केदार घाट मुहल्ले में बसा हुआ है और दूसरा मिमत्र बसु परिरवार है जो बंगाली बस्ती से दो मील दूर Mौखम्भा मुहल्ले की बंगाली की ड्योढ़ी नाम से प्रचिसद्ध इमारत म ें लगभग उन्हीं ठिदनों स े अब तक कायम है। मि�ठिटश काल म ें पढ़े चिलखे बंगाली लोग डॉक्टर, वकील, रेल, डाक तथा तार आठिद कम6Mारिरयों के रूप में वाराणसी आकर बस गए। Nीर े Nीर े अन्य परिरवार भी आने लग े और बंगाल के सभ्रांत एवं सुशिशशिक्षत जनों में बनारस में षिनजी मकान बनवाने का एक :ैशन सा Mल गया। अब तो बनारस म ें भाषाई अल्पसंख्यकों के चिलहाज से सबसे अचिNक जनसंख्या बंगाचिलयों की है”।

(‘काशी और बंगाली समाज’,सोच-तिवचार पतित्रका,काशी अंक, जुलाई-2010)

बंगाल से आए कई महापुरुर्ष जैसे चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी तिववेकानन्द, महाप्रभु तिवजयकृष्ण गोस्वामी, माता आनंदमयी आदिद ने भी बनारस में आकर तिवद्यालय, शिचतिकत्सालय और सेवाश्रम स्थातिपत तिकए। जिजनमें रामकृष्ण धिमशन, स्वामी प्रणवानन्द _ारा स्थातिपत भारत सेवाश्रम संघ, आनन्दमयी करुणासंघ, सनातन गौड़ीय मठ, सुमेरु मठ, शिसजिद्ध काली आश्रम, किन<बाका)श्रम, मीरावाणी प्रचार मंदिदर, हरिरनाथ प्रदाधियनी सभा, आनन्ददाधियनी सभा, भशिक्त प्रदाधियनी हरिरसभा आदिद उAलेखनीय है। इन सभी की देख रेख

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मठाधीशों _ारा की जाती है, तथा काशी दश)न के शिलए आए तीथ)यातित्रयों के शिलए यहाँ उशिचत व्यवस्था की जाती है।

इतितहास इस बात का साक्षी है तिक बंगाल से आए कई राजा रातिनयों ने वाराणसी के घाटों तथा गली मुहAलों का नव तिनमा)ण कराया है, जिजसके कारण उन घाटों या गशिलयों का नामकरण उन्हीं राजा-रातिनयों के नाम से कर दिदया गया और वे उन्हीं नामों से प्रशिसद्ध हो गए। यहाँ वाराणसी के इतितहास में वर्णिण<त है तिक नाटौर की रानी भवानी, जिजनके बार े में कहा जाता है तिक रानी माँ की बाल तिवधवा रूपवती पुत्री तारादेवी पर बंगाल के तत्कालीन नबाव शिसराजु¦ौला की बुरी दृधिd पड़ गई, और उसने उनसे तिववाह का प्रस्ताव भेज दिदया, जिजस कारण रानी भवानी को बंगाल छोड़कर काशी आना पड़ा, और उन्हों ने अपने जीवन के शेर्ष दिदन वाराणसी में गुजारे। रानी भवानी ने काशी में कई मकान दान तिकए, वे जिजस गली रहीं थीं उसका नाम रानी भवानी गली है जो इस बात का संकेत है। साथ ही रानी भवानी ने तत्कालीन काशी नरेश महाराजा बलवन्त लिस<ह से अनुमतित प्राप्त कर वाराणसी के प्राचीन मंदिदरों और कुण्डों का जीणuद्धार कराया और वृह`र काशी के पंचकोशी माग) में धम)शालाए ँभी बनवाईं। जहा ँ अन्य प्रदेशों के राजा-महाराजाओं ने काशी में मजिन्दर और महल बनवाए तो वहा ँ बंगाल के जंमीदार भी पीछे नही रहे। छोटे ही सही, पर असंख्य मकान, मंदिदर इन लोगों ने भी बनवाए और हर एक इमारत के रख रखाव और पूजन भजन के शिलए बंगाशिलयों को ही तिनयुक्त तिकया। बंगाली टोला, देवनाथपुरा, सोनारपुरा, पातालेश्वर, केदारघाट की गशिलयों से गुजरने पर अनतिगनत छोटे छोटे आश्रम और मंदिदर धिमलते हैं जो बंगाली बन्धुओं ने बनवाए हैं।

तिवक्षिभन्न शिशक्षण संस्थाओं की स्थापना में भी बंग तिव_ानों का महत्वपूण) योगदान रहा है चाहे बात संस्कृत कालेज (1793,जो स्वतंत्रता के बाद संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय बना) की स्थापना की हो जिजसमें पं. काशीनाथ तका)लंकार, हरिरभूर्षण तक) वागीश, चन्द्रनारायण न्यायरत्न,

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महामहोपाध्याय पं. वामाचरण न्यायाचाय), राय बहादुर श्री प्रमदादास धिमत्र आदिद ने महत्वपूण) भूधिमका तिनभाई और काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय की स्थापना म ें श्री उपेन्द्रनाथ वसु, ज्ञानेन्द्र नाथ बसु, प्रो. श्यामचरण ड े तथा पं. मदन मोहन मालवीय के शिशक्षक महामहोपाध्याय आदिदत्यनाथ भट्टाचाय) आदिद की भूधिमकाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता। शुरु से ही बंगाली समुदाय के लोग शिशक्षा जगत में अधिधक कुशाग्र रहे हैं इस बात का प्रमाण अंग्रेजों के शासन काल से ही धिमलने लगता है। सवा)धिधक सरकारी नौकरी करने वाल े बंग बंध ु ही थे। काशी म ें महाराजा जयनारायण घोर्षाल _ारा 1814 में स्थातिपत जयनारायण इंटर कालेज है। जिजसे उन्होंन े 1821 में एक चच) धिमशन पादरी को दे दिदया। संस्कृत कॉलेज (सम्प्रतित समू्पणा)नंद संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय) के संस्थापक सदस्य पं. काशीनाथ तका)लंकार, पं. चन्द्रनारायण आदिद ने वाराणसी की गरिरमा बढ़ाई है।

आधुतिनक शिशक्षा के क्षेत्र में भी बंगाशिलयों की देन महत्वपूण) है। शताब्दी पुराना जयनारायण कॉलेज और बंगालीटोला कालेज, एगं्लो बंगली कालेज, दुगा)चरण गAस) इंटर कालेज, तिवतिपन तिबहारी चaवत� गAस) इंटर कालेज, कन्याकुमारी गAस) हाई स्कूल, ओरिरयंटल सेधिमनरी, एजूकेशन सोसाइटीज हाईस्कूल तथा मूक बधिधर तिवद्यालय काशी के बंगाली समाज की देन हैं। रतिवन्द्र भारती स्कूल, जिजसकी स्थापना और संरक्षण बंगाली समाज _ारा हुआ है, एक तिवशाल जनसमुदाय की शैक्षक्षिणक एवं सांस्कृतितक आवश्यक्ताओं की पूर्गित< करता है। इस संदभ) में महाराजा जयनारायण घोर्षाल, लिच<तामक्षिण मुखज�, तिबतिपनतिबहारी चaवत� के पुत्र, श्रीमती उर्षामयी सेन, रक्षिक्षत परिरवार, प्रभासचन्द्र चaवत� आदिद तिवशिशd जनों का नाम उAलेखनीय है।

संस्कृत वांगमय और भारतीय दश)न के अध्ययन अध्यापन और प्रचार प्रसार का काय) बनारस में बंगाली पंतिडतों _ारा ही तिवकशिसत होता आया है। बंगाली समाज की ओर से कई तिव_ानों न े काशी का गौरव बढ़ाया है। जैसे— “वेदान्त के अ_ैत शिसद्धांत के प्रचारक

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स्व.पंतिडत मधूसूदन सरस्वती तथा संस्कृत (सम्पूणा)नंद संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय) कालेज के संस्थापक सदस्य पं. काशीनाथ तका)लंकार, पं. चन्द्रनारायण न्यायपंचानन शास्त्राथ) के ज्ञाता, आदिद ने काशी के गौरव को तिकतना बढ़ाया है, यह सव)तिवदिदत है। आधुतिनक शिशक्षा के प्रचार प्रसार म ें काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय तथा अन्य शिशक्षण संस्थाओं से संबद्ध बंगाली शिशक्षकों ने काशी में अपना योगदान दिदया और आज तक लगातार दे रहे हैं”।

इस प्रकार हम देखते हैं वाराणसी के बंगाली समुदाय ने यहाँ की तिव_त परंपरा में कई रत्न जोडे़ तथा वाराणसी का तिवकास शिशक्षा, व्यवसाय, धम) आदिद सभी दिदशाओं में तिकया।

( ख ) शैशिक्षक तथा सामाजिजक स्लि�षित - वाराणसी शहर म ें शिशक्षा, कला संगीत, खेल-कूद तथा धार्मिम<क, सामाजिजक और राजनीतितक के्षत्रों में जो योगदान बंगाली समुदाय ने दिदया है, वह अन्य दूसरे समुदायों की तुलना में कहीं अधिधक है। इन तिवक्षिभन्न गतिततिवधिधयों में बंग-बनु्धओं का यह योगदान इस नगर की सनातन सम्पक्षि` बन चुका है।

वत)मान समय में वाराणसी के तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदायों में सबसे अधिधक जनसंख्या बंगाली समुदाय की है। वाराणसी के हर क्षेत्र में बंगाली परिरवार देखने को धिमल जाएगँे। जिजनमें से कुछ तो व्यवसाय के कारण वाराणसी आ गए हैं, कुछ शिशक्षा ग्रहण करने के उ¦ेश्य से और नौकरी करने के कारण वाराणसी में ही पीढ़ी दर पीढ़ी से रह रहे हैं। श्री तरुणकाप्तिन्त बसु के अनुसार “वाराणसी में जगबन्धु �दस)(फूल के बत)न) मोतिहनी मोहन कांजिजलाल, हेमचन्द्र भट्टाचाय) एण्ड �दस)(बनारसी साड़ी) धारा �दस)(सोने के आभूर्षण) मस्थिAलक �दस)(हाड) वेअर) इस्थिण्डयन पे्रस और इउरेका किप्र<टिट<ग प्रेस आदिद दज)नों बंगाली फम) सौ वर्ष) पूव) से अब तक कायम हैं।

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वाराणसी में कई स्थान ऐसे हैं जहाँ पूरे के पूरे मुहAले में बंगाली समाज ही तिनवास करता है। वाराणसी में एक मोहAले का नाम कालीतAला है इस नाम से ही तिवदिदत होता है तिक यह बंगला नाम है, यहाँ महाकाली की एक आपरूपी मूर्गित< है जो सन ् 1823 ई. में स्व. श्री मतिहमाचन्द्र बनज� महोदय ने स्थातिपत की थी। वाराणसी की अंत हीन गशिलयों में बंगाली समाज का तिवस्तार तिनम्न मोहAलों म ें है— बंगालीटोला, गणेशमहाल, देवनाथपुरा, पातालेश्वर, हाqारबाग, राणामहल, खाचिलसपुरा, मंुशीघाट, पाण्डेहवेली, पाण्डेघाट, गंगामहल, नारदघाट, Mौसट्टीघाट, मानसरोवर, केदारघाट,

हरिरश्चन्द्रघाट, तिफर गौदोशिलया के पक्षिoम की ओर लक्सा, रामापुरा, रेवqी तालाब,

कमच्छा, सन्त नगर, चिसद्धषिगरीबाग, भेलूपुर और मुख्य सड़क पर सोनारपुरा, शिशवाला, भदैनी इत्यादिद महालों में बंगाली बसे हैं।

इसके अतितरिरक्त आजकल शहर के सभी तिहस्सों में बंगाली समुदाय के लोग स्वतंत्र एकाकी परिरवारों के रूप में भी तिनवास कर रहे हैं। आधुतिनक समय में एकाकी परिरवार के प्रतित बढ़ते रुझान के कारण बंगाली समुदाय के लोगों में भी एकाकी परिरवार में रहने की प्रवृक्षि` बढ़ी है। जिजसके फलस्वरूप वाराणसी शहर के नवीन तिवकशिसत क्षेत्रों जैस े तिक लंका, संुदरपुर, करौंदी, डी.एल.डब्ल्यू आदिद में भी बड़ी संख्या में बंगाली समुदाय के लोग तिनवास करते हैं। वाराणसी में बंगाली समुदाय के लोगों की संख्या लगभग 7000 से 8000 के आस पास होगी।

वाराणसी के बंगाली समुदाय को हम दो वगu में तिवभाजिजत कर सकते हैं। पहला उच्च या सभ्रांत शिशक्षिक्षत वग) दूसरा तिनम्न या मजदूर अशिशक्षिक्षत वग)। उच्च वग) का आगमन कब और कैसे हुआ हम इस पर चचा) कर चुके हैं। परन्तु तिनम्न वग) के वाराणसी आकर बसने का कारण केवल रोजगार की तलाश रहा है, ये लोग रोजगार की तलाश में यहा ँ आए और

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मजदूरी करने लगे। वत)मान समय में भी ये लोग रोजगार की तलाश में वाराणसी आ रहे हैं। इन लोगों का काय) रिरक्शा चलाना, छोटी मोटी दुकानें करना है।

जहा ँ एक ओर उच्च या सभ्रांत शिशक्षिक्षत वग) अक्षिभयांतित्रकी, वकालत, अध्यापन तथा शिचतिकत्सा आदिद उच्च शिशक्षा के सभी क्षेत्रों में महत्वपूण) भूधिमका तिनभा रहा है तो वहीं दूसरी ओर तिनम्न या मजदूर अशिशक्षिक्षत वग) के बंगाली बन्धुओं में शिशक्षा को लेकर कोई रुझान नहीं है, इनके छोटे-छोटे बच्चे भी माता तिपता के काम में सहायता करते हैं, तथा मजदूरी करके अपने परिरवार का भरण पोर्षण करते हैं। इनके घरों में पुरुर्ष वग) बहुत ही कम पढ़ा शिलखा होता है और ये लोग प्रायः रिरक्शा चलाते हैं, और मतिहलाए ँतिवक्षिभन्न समुदाय के लोगों के घरों में काम करती हैं। ये लोग रोजगार के शिलए वाराणसी आए और कई पीदिढ़यों से यहाँ रहने के कारण अपन े को वाराणसी का नागरिरक मानन े लगे। इनकी संख्या लगभग 2000 से 3500 होगी, गंगा के तिकनारे-तिकनारे के नगवां, सामनेघाट, अस्सी आदिद इलाकों में ये लोग बसे हुए हैं।

इधर हाल के दशकों में बंगला देश से कई लाख शरणाथ� आकर बस गये हैं तिवशेर्षरूप से रेलवे स्टेशनों, साव)जतिनक पाकu के आसपास।

वाराणसी में बंगाशिलयों का आगमन उनकी सामाजिजक और सांस्कृतितक परम्पराओं के साथ हुआ। इन बंगाली बन्धुओं की भार्षा, खान-पान, पहनावा और उनका कोमल व्यवहार, इस प्रकार काशी के रंग में घुल धिमल गया, तिक बनारसी रंग और बंग दोनों ही लोगों पर एक स्थाई छाप छोड़ते हैं। चाहे आधुतिनकता का आकर्ष)ण हो या सौंदय) बोध हो, संगीत हो या पूजा-पाठ का ढंग हो सबको बंगाली जन जीवन न े अंगीकृत कर शिलया। अपनी तिवशिशd भार्षा और वेशभूर्षा को बनाए रखते हुए बंगाली समाज मन धिमजाज से बनारसी है। इसशिलए यहाँ की हर गतिततिवधिध में वह तिaयाशील एवं रचनात्मक भूधिमका तिनभाता है।

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इस शहर में तिवक्षिभन्न उद्यमों में व्यस्त रहते हुए तथा अपने घर से दूर बसे हुए बंगाशिलयों ने बड़े स्नेह तिनष्ठा से अपनी भार्षा, सातिहत्य और संस्कृतित की रक्षा की है। इसीशिलए ये लोग पुस्तकालय सम्मेलन, सातिहप्तित्यक संगोष्ठी, सांस्कृतितक प्रदश)नी, संगीत सन्ध्या गोष्ठी का आयोजन तथा पत्र पतित्रकाओं और स्मारिरकाओं का प्रकाशन करते रहते हैं।

काशी में वसंत पंचमी के दिदन सरस्वती पूजा महोत्सव तथा शारदीय नवरात्र में पंडालों में देवी दुगा) की भव्य प्रतितमाओं की स्थापना यहा ँ के बंगाली समुदाय की ही देन है। अब वाराणसी में ये समारोह बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं जिजसमें हर वग) और समुदाय के लोग बड़ी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ सन्धिम्मशिलत होते हैं।

3.3 भाषिषक व्यवहार तथा उसका समाजभाषिषक षिवशे्लषण :- संकशिलत आंकड़ों के आधार पर वाराणासी के बंगाली समुदाय के भातिर्षक व्यवहार का तिवशे्लर्षण आरम्भ करने से पहले यह बताना आवश्यक है तिक सामग्री संकलन हेतु बंगाली समुदाय से 100 सूचकों का चयन तिकया गया। इनके _ारा प्रद` जानकारी के आधार पर ही भातिर्षक तिवशे्लर्षण का काय) तिकया गया है। इन सूचकों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूण) तथ्य तिनम्नशिलखिखत हैं। लिल<ग तथा आयु के अनुसार सूचकों का वग�करण इस प्रकार है—

आयु पुरुष मषिहला कुलयोग5-25 10 15 25

25-50 25 30 5550+ 10 10 20

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0

5

10

15

20

25

30

35

5 to25 25 to 50 50+

आयु का वगv कर ण

पुरुर्षम तिहला

सूचकों की शैक्षिक्षक योग्यता की जानकारी प्रश्नावली की प्रश्न संख्या चार से प्राप्त होती है। सूचकों की शैक्षिक्षक स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है--

शिशक्षा पुरुष मषिहला कुल योगअशिशक्षिक्षत 10 10 20

अध)शिशक्षिक्षत 15 5 20शिशक्षिक्षत/उच्चशिशक्षिक्षत 25 15 40

तकनीकी 15 5 20

तिवक्षिभन्न शैक्षिक्षक वगu में तिनतिहत आंकड़ों से यह स्पd है तिक अशिशक्षिक्षत तथा अद्ध)शिशक्षिक्षत वगu की अपेक्षा शिशक्षिक्षत वग) में सूचकों की संख्या अधिधक है जिजससे यह स्पd होता है तिक बंगाली समुदाय में शिशक्षा का स्तर काफी अच्छा है।

ग्राफ़ _ारा यह तथ्य और भी सुस्पd हो जाता है--

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0

5

10

15

20

25

अशिशक्षिक्षत अध)शिशक्षिक्षत शिशक्षिक्षत तकनी तिक

पुरुर्ष म तिहला

व्यवसाय सम्बन्धी तिवक्षिभन्न वगu में सूचकों की संख्या का तिववरण अधोशिलखिखत है। सामग्री संकलन हेतु प्रयुक्त प्रश्नावली में प्रश्न संख्या 5 तथा 6 व्यवसाय तथा माशिसक आय तिवर्षयक जानकारी से सम्बद्ध हैं। नीचे दिदया गया पाई चाट) तिवक्षिभन्न व्यावसाधियक वगu के सूचकों की सहभातिगता के प्रतितशत को प्रदर्थिश<त करता है।

35%

25%10%

15%

15%म जदूरअध् यापकतिवद्याथ�गृहणी

अन् य व्य वसा य

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आगे दिदया गया पाई चाट) यह दशा)ता है तिक सूचकों में से तिकतने प्रतितशत लोगों का जन्म वाराणसी में हुआ है और तिकतने प्रतितशत बाहर से आए हैं। जैसातिक चाट) से पता चलता है तिक अधिधकांश लोगों का जन्म वाराणसी में ही हुआ है क्योंतिक इनके माता-तिपता अथवा पूव)ज तिवक्षिभन्न कारणों से कई वर्ष) पूव) वाराणसी में आकर बस गए और यहीं के स्थायी तिनवासी हो गए।

वा रा णसी में षिन वा स की स्लि� षित

80%

20%

जन् म से तिन वा स बा हर से आए

वाराणसी में रहने वाले बंगाली समुदाय के लोगों से सम्पक) करने के बाद यह तथ्य सामने आया है तिक जहाँ इनका तिनम्न वग) आज भी बंगाल से वाराणसी आकर बस रहा है, वहीं सभ्रांत घर के लोग आज अपनी शिशक्षा प्राप्त कर नौकरी प्राप्त करने बाहर जा रहे हैं। कुछ परिरवार ऐसे हैं जिजनका अपने मूल स्थान पक्षिoम बंगाल से अब सम्पक) छूट गया है, उनके सभी रिरश्तेदार यहाँ आकर बस गए हैं।

सूचकों की आय सम्बन्धी जानकारी प्रश्नावली की प्रश्न संख्या छः से प्राप्त होती है। सूचकों की आर्थिथ<क स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है—

आय पुरुष मषिहला कुल योग

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उच्च आय 18 12 30

मध्यम आय 15 15 30

तिनम्न आय 15 25 40

(क) वाराणसी के बंगलाभाषी समुदाय में षि<भाषिषकता तथा बहुभाषिषकता की स्लि�षित — वत)मान समय में एकभार्षी समाज की संकAपना एक आदश) कAपना मात्र है। आज प्रत्येक भार्षासमाज न केवल ति_भार्षी अतिपतु बहुभार्षी है और यह ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता भार्षा, बोली, कोड, शैली आदिद तिवक्षिभन्न स्तरों पर दिदखलाई देती है।

वाराणसी में रहने वाले बंगाली समुदाय का भातिर्षक व्यवहार भी ति_भार्षी तथा बहुभार्षी है। जो शिशक्षिक्षत वग) के लोग हैं उन परिरवारों में जो लोग तिकसी व्यवसाय आदिद से जुडे़ हैं वे तिहन्दी या काशिशका का प्रयोग बड़ी कुशलता के साथ करते हैं, अपने दैतिनक तिaयाकलापों में वे

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सम्प्रेर्षण का माध्यम किह<दी अथवा काशिशका को ही बनाते हैं पर अपने समुदाय में बंगला का ही प्रयोग करना उशिचत समझते हैं। मध्यम वग�य परिरवारों में यह पाया गया तिक जो लोग सन्धिम्मशिलत परिरवार में रहते हैं उन घरों में वे लोग बड़े बूढ़ों के साथ तो बंगला का प्रयोग करते हैं, तथा बच्चे स्कूलों में तथा घरों में भी कभी कभी तिहन्दी का प्रयोग कर लेते हैं । कभी कभी ये लोग आपस में भी बंगला का प्रयोग करते करते तिहन्दी के शब्दों का भी प्रयोग करजात े ह ैं और उनको इस अंतर का पता भी नही चल पाता। लंब े समय से काशी में तिनवास करने के कारण इनकी बंगला का स्वरूप परिरवर्गित<त हो गया है। बंगाली परिरवारों में बड़े बुजुग) जो तिकसी व्यवसाय या शिशक्षण से नहीं जुड़े है केवल बंगला भार्षा का ही प्रयोग करते हैं ये पत्र लेखन इत्यादिद में भी बंगला को ही प्राथधिमकता देते हैं, परन्तु जो लोग तिकसी व्यवसाय से जुड़े हैं वे बंगला के अलावा अंग्रेज़ी भार्षा को प्राथधिमकता देते हैं। इसी प्रकार तिनम्न वग�य परिरवारों में भी भातिर्षक तिवशे्लर्षण करने पर हम इस तथ्य पर पहँुचे तिक इस वग) के लोग भी ति_भार्षी या बहुभार्षी होते हैं इसका कारण वे तिवक्षिभन्न भार्षी समुदायों के घरों में काय) करते हैं तो इन्हें समे्प्रर्षण के शिलए अन्य भार्षा का सहारा लेना पड़ता है। प्राचीन समय में जो बंगाली मजदूर काशी आए थे वे या तो बंगला या टूटी-फूटी तिहन्दी का प्रयोग करते थे परन्तु उनके आगे की पीढ़ी की तिहन्दी अच्छी हो गई है। साथ ही उनके बात व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों को भी हम देख सकते हैं। इनके तिहन्दी भार्षा के उच्चारण में स्पdता का अभाव होता है अगली पीढ़ी के लोग प्रायः अपनी बातों को स्पd रूप से रखने में सक्षम हैं।

इस प्रकार यह स्पd है तिक वाराणसी का बंगलाभार्षी समुदाय भी प्रायः ति_भार्षी या बहुभार्षी है। इस समाज के भार्षायी कोश की मुख्य प्रतितभागी भार्षाए ँहैं—बंगला, अंग्रेज़ी, तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका, संस्कृत तथा उदू)। तिकन्त ु बहुभातिर्षकता का स्तर तिवक्षिभन्न वगu में अलग अलग देखने को धिमलता है। जिजसके कई कारण हैं जैसेतिक आयु, शिशक्षा, परिरवेश

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इत्यादिद। जो वग) जिजस परिरवेश में अधिधक रहता है, उसकी भातिर्षक क्षमता उसी आधार पर समृद्ध होती है। इसका तिवश्लेर्षण तिनम्नशिलखिखत है।

1. वृद्ध व्यचिक्त —

अधिधकांश परिरवारों में वृद्ध लोग घरों में ही रहते हैं, और अपनी भार्षा की रक्षा का भार इन पर ही होता है। ये अपने बच्चों से बंगला में ही बात करते हैं बल्किAक अन्य कोई भार्षा इनको आती ही नहीं, या बहुत कम आती है। ये धार्मिम<क पुस्तकें भी बंगला की पढ़ते हैं, शिचट्ठी पत्री भी बंगला में ही शिलखते हैं। इनके _ारा बोली जाने वाली बंगला सवा)धिधक शुद्ध व परिरमार्जिज<त ह ै तथा अन्य भार्षाओं स े बहुत कम प्रभातिवत है। क्योंतिक वृद्ध व्यशिक्त अन्य भार्षाओं का प्रयोग बहुत ही कम करते हैं। तिवक्षिभन्न भार्षाओं के सन्दभ) में इनकी भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित को हम इस प्रकार समझा सकते हैं—

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 बंगला कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी सामान्य अAप अAप नहीं

3 अंग्रेज़ी अAप अAप अAप नहीं

4 भोजपुरी अAप अAप नहीं नहीं

5 संस्कृत अAप नहीं अAप नहीं

6 उदू6 नहीं नहीं नहीं नहीं

2. काय6 क्षेत्र से जुqे लोग —

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इन लोगों में भार्षा का स्तर सामाजिजक परिरवेश पर तिनभ)र करता है। जो लोग तिहन्दी भार्षी काय)क्षेत्र से जुड़े हैं उनकी भातिर्षक क्षमता अलग होती है, तथा जो लोग तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में होते हुए भी अपना काम अंग्रेजी के माध्यम से या अAप तिहन्दी का प्रयोग करके तिनकाल लेते हैं उनकी भातिर्षक क्षमता अलग होती है। तिकसी संस्था में काय) करने वाले ऐसे व्यशिक्त जिजनका सम्पक) तिहन्दी भातिर्षयों से अधिधक से अधिधक रहता है वे तिहन्दी भार्षा में भी दक्षता हाशिसल कर लेते हैं पर जो लोग अपने काय) के्षत्र में अंग्रेजी के माध्यम से जुडे़ रहते हैं वे टूटी-फूटी तिहन्दी का ही प्रयोग कर पाते हैं। इसी प्रकार भोजपुरी या काशिशका के प्रयोगकता)ओं के सम्पक) में अधिधक रहने वाले व्यशिक्त भोजपुरी या काशिशका में पारंगत हो गए हैं। ऐसे ही उदू) भार्षी के्षत्रों से जुडे़ लोगों को उदू) का अच्छा ज्ञान है। काय) क्षेत्र से जुडे़ लोगों को संस्कृत का सीधिमत ज्ञान है क्योंतिक संस्कृत का प्रयोग केवल धार्मिम<क कृत्यों में ही होता है और वहाँ भी प्राधान्य बंगला भार्षा का ही है।

ताशिलका _ारा भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित को इस प्रकार दशा)या जा सकता है—

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 बंगला कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

3 अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

4 भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

5 संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

6 उदू6 सामान्य/अAप अAप नहीं नहीं

3. मषिहलाएँ —

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बंगाली मतिहलाओं की स्थिस्थतित भी कुछ ऐसी ही है। जो मतिहलाए ँतिकसी काय) के्षत्र से जुड़ी हैं वे बंगला के अलावा अन्य भार्षाओं के भी सम्पक) में रहती हैं फलस्वरूप तिवक्षिभन्न भार्षाओं में उनकी भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित क्षिभन्न है। और जो मतिहलाए ँकेवल घर परिरवार के बीच ही रहती हैं वे बंगला का ही सवा)धिधक प्रयोग करती हैं अतः उनकी भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित अलग है। इस तथ्य को दो क्षिभन्न ताशिलकाओं के _ारा भली प्रकार समझा जा सकता है---

(काय6 क्षेत्र से जुqी मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

बंगला कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

(घर में रहने वाली मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

बंगला कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल/सामान्य सामान्य सामान्य/अAप अAप

अंग्रेज़ी सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य

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भोजपुरी अAप अAप नहीं नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

इस प्रकार यह स्पd है तिक मतिहलाओं की भातिर्षक दक्षता उनकी शैक्षिक्षक स्थिस्थतित पर भी तिनभ)र करती है। जो मतिहलाए ँशिशक्षिक्षत होती हैं वे मानक किह<दी तथा अंग्रेज़ी का प्रयोग भी कुशलता पूव)क कर लेती हैं, पर जो अAप शिशक्षिक्षत होती हैं या अशिशक्षिक्षत होती हैं उनकी तिहन्दी में अनेक तु्रदिटया ँ होती ह ैं और व े अंग्रेज़ी भार्षा का भी अत्यAप प्रयोग करती हैं, उसमें भी तु्रदिटयाँ होती हैं।

4. युवा वग6 तथा बचे्च —

बंगाली समुदाय के बच्चे प्रायः दूसरे समुदाय के बच्चों के सम्पक) में अधिधक रहते हैं। घरों में तो व े बंगला बोलते हैं, पर अपना अधिधक से अधिधक समय वे खेलकूद, स्कूल आदिद में व्यतीत करते हैं। अतः घर से बाहर वे तिहन्दी या अंगे्रजी का प्रयोग अथवा धिमक्षिश्रत भार्षा का करते हैं। स्कूलों में भी शिशक्षा का माध्यम तिहन्दी या अंग्रेजी होता है। ये बच्चे बंगला भार्षा को बोल तो लेते हैं परन्तु इनको बंगला पढ़ने और शिलखने में कदिठनाई होती है।

कुछ ऐसी ही स्थिस्थतित इस समुदाय के युवा वग) की भी है। वाराणसी में रहने वाले अधिधकांश बंगाली युवा बंगला शिलखने और पढ़ने की अपेक्षा समझने तथा बोलने में अधिधक दक्ष हैं। क्योंतिक इन्हें अपनी दैतिनक शैक्षिक्षक व अन्य गतिततिवधिधयों में बंगला भार्षा को शिलखने तथा पढ़ने के अवसर सहजता से नहीं धिमल पाते हैं। अतः बंगला भार्षा शिलखने तथा पढ़ने में दक्षता अर्जिज<त करने के शिलए इन्हें तिवशेर्ष प्रयत्न करने पड़ते हैं। अपने परिरवार से भी ये बंगला का वाशिचक रूप ही अधिधक ग्रहण कर पाते हैं। पढे़ शिलखे बंगाली युवक अंगे्रज़ी भार्षा

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के प्रयोग में से तिनपुण होते हैं। किह<दी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान है। तिवक्षिभन्न भार्षाओं में इनकी दक्षता का तिववरण इस प्रकार है--

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

बंगला कुशल कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

हिहFदी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य सामान्य/अAप सामान्य/अAप

अंग्रेज़ी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

भोजपुरी अAप अAप नहीं नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

अतः हम इस तिनष्कर्ष) पर पहुँचते हैं तिक जो लोग बंगला के अलावा अन्य भार्षाओं के सम्पक) में लम्बे समय से हैं वे उन भार्षाओं में भी धीरे धीरे दक्षता हाशिसल कर चुके हैं जबतिक जो लोग अन्य भार्षाओं के सम्पक) में कम आते हैं अथवा जो लोग केवल बंगला के प्रयोग पर ही तिवशेर्ष जोर देते हैं उनका अन्य भार्षाओं का ज्ञान सीधिमत है। काय)के्षत्र से जुडे़ लोगों, युवा वग) तथा बच्चों को अंग्रेज़ी तथा किह<दी का भी अच्छा ज्ञान है। इस प्रकार यह स्पd है तिक वाराणसी का बंगाली समुदाय पूरी तरह से बहुभार्षी है।

बहुभातिर्षकता के फलस्वरूप बंगाली समुदाय _ारा प्रयुक्त तिवक्षिभन्न भार्षाओं ने परस्पर एक दूसरे को प्रभातिवत तिकया है जिजसका प्रभाव कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न, तिवक्षिभन्न स्तरों पर भातिर्षक-परिरवत)न, आगत शब्दों के प्रयोग की बहुलता के रूप में स्पd दिदखलायी पड़ता है। जिजसका तिवस्तृत तिववरण इस प्रकार है।

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(ख) कोड - मिमश्रण – वाराणसी के बंग बंधुओं की मातृभार्षा अथा)त् बंगला में आस-पास के परिरवेश के कारण स्वतः ही अन्य भार्षा के शब्दों का धिमश्रण हो गया है और इसी प्रकार उनके _ारा बोली जाने वाली किह<दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका में बंगला का प्रभाव भी स्पd रूप से दिदखलायी पड़ता है। क्योंतिक इस समुदाय के लोग अपने घर और नाते-रिरश्ते में मुख्य रूप से बंगला का प्रयोग करते हैं तथा अपने काय)स्थल में और समाज के अन्य भातिर्षक समुदायों के लोगों से वाता)लाप म ें अधिधकांशतः किह<दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी का प्रयोग करत े ह ैं जिजसके फलस्वरूप उनके भातिर्षक व्यवहार में कोड-धिमश्रण की बहुतायत है जैसे-

(बंगला वाक्य में हिहFदी तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1. तुमार तिनजेर षिकताब कोथाय ? ऐई तो टेषिबले उपोर राखा आछे।

2. डॉक्यूमेंट्री खूबी भालो छीलो, बेश मोजेदार।

3. ऐतो रूपया अमी कोथाय थेके पाबो। तिकछु तेई पॉचिसषिबल ना।

(हिहFदी वाक्य में बंगला तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1. ऐक्ज़ाम शेष हो गया क्या?

2.ताqाताqी हाथ चलाओ, लेट हो रहा है।

(क) कोड परिरवत6न —

इसी प्रकार वाराणसी के बंगला भार्षी लोगों के वाता)लाप में कोड-परिरवत)न की भी अधिधकता रहती है। क्योंतिक बहुधा ऐसा होता है तिक जब कोई बंग बंधु एक समय में अन्य समुदाय के लोगों से तिहन्दी या तिकयी अन्य भार्षा में बात कर रहा होता है और यदिद तभी कोई दूसरा बंगला भार्षी वहाँ आ जाए तो वह तुरंत बंगला भार्षा में बात करना

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शुरू कर देता है तथा तिफर पुनः समे्प्रर्षण के शिलए तिहन्दी या अंग्रेजी पर शिशफ्ट हो जाता है। ऐसी भातिर्षक स्थिस्थतित अकसर ही दिदखलायी पड़ती है।

जैसे—1) बेशी बोशिलश ना, वो लोग ठीक नहीं हैं। सब गुंडा - बदमाश हैं।

बंगला तिहन्दी

2)वो मुझे फोथ) पेपर के बारे में कुछ पूछना था। तुधिम की शोमोय दिदते पारबे ? सॉरी

तिहन्दी बंगला

तिडयर , ऐक्चुअली टुडे आई एम वेरी तिबज़ी। ताहोले कालके तिबकाले ? ठीक आछे।

अंग्रेज़ी बंगला

3) तुधिम तिनजेर माथा गोरोम कोरोना। इनका ततिबयत भी ठीक नहीं है। तिनजेके

बंगला किह<दी बंगला

शामलाओ।

(ख) इकाई संकरता तथा अन्य प्रभाव – ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता के परिरणामस्वरूप वाराणसी के बंगीय समुदाय के लोगों के भातिर्षक व्यवहार में इकाई संकरता की भी बहुलता है। यथा—

तिडपाट)मेंटे : अंग्रेज़ी + बंगला

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स्पीडे : अंग्रेज़ी + बंगला

टाइमटा : अंग्रेज़ी + बंगला

घौर : किह<दी + बंगला

रास्ताए : किह<दी + बंगला

आय) परिरवार की भार्षा होने के कारण बंगला भार्षा में संस्कृत के शब्दों की तो बहुतायत है ही मुगल तथा आंग्ल प्रभाव के कारण अरबी, फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी शब्दों की भी बहुलता है इसके साथ ही अब तिहन्दी तथा आसपास के क्षेत्रों में तिनवास करने वाले लोगों की भार्षा के शब्दों को भी इसमें स्थान धिमलने लगा है।

वाराणसी के बंगीय लोगों _ारा बोली जाने वाली बंगला के सन्दभ) में यह बात तिवशेर्ष रूप से उAलेखनीय है तिक ऐसी कई वस्तुए ँहैं जिजनके शिलए मानक बंगला में स्वतंत्र बहुप्रचशिलत शब्द तिवद्यमान हैं परन्तु तिहन्दी भार्षी के्षत्र में रहने के कारण वाराणसी के बंग बंधुओं की बंगला में उन वस्तुओं के शिलए प्रयुक्त किह<दी शब्द ही व्यवहार में आने लगे हैं।

जैसेतिक—

कोंघी (बंगला शब्द-शिचरुनी)

Mोप्पल (बंगला शब्द-चौटी)

कुटोरी (बंगला शब्द-बाटी)

वाराणसी के बंगाली समुदाय के भातिर्षक व्यवहार की एक अन्य तिवशिशdता यह है तिक इनके _ारा बोली जाने वाली किह<दी की वाक्य संरचना बंगला से प्रभातिवत होती है। साथ ही बंगला भार्षा में व्याकरक्षिणक लिल<ग-भेद न होने के कारण इनके _ारा बोली जाने वाली किह<दी में व्याकरक्षिणक लिल<ग-भेद की तु्रदिटयाँ सवा)धिधक होती हैं।

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3.4 मातृभाषा अनुरक्षणः—

वाराणसी में जिजतने भी समुदाय आकर बसे हैं, उन सभी समुदायों में मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना सबसे ज्यादा बंगाली समुदाय में है। बंगाशिलयों ने अपनी मातृभार्षा के अनुरक्षण के शिलए समुशिचत उपाय तिकए हैं। इन्होंने बंगला भार्षा शिशक्षण की भी उशिचत व्यवस्था की है। घरों में बंगला भार्षी आपस में शिसफ) बंगला भार्षा का ही प्रयोग करते हैं तथा अपने सारे तीज-त्यौहारों में पूजा पाठ इत्यादिद कृत्य बंगला तथा संस्कृत भार्षा में ही सम्पन्न करते हैं। अपने समुदाय के लोगों के साथ धिमलकर अपने सांस्कृतितक त्यौहार जैसे काली पूजा, सरस्वती पूजा बड़ े धूम धाम स े मनात े हैं। शिशक्षिक्षत वग) के लोग बच्चों से बातचीत करने में बंगला या अंग्रेजी भार्षा का प्रयोग करते हैं तथा अशिशक्षिक्षत वग) के लोग केवल बंगला का ही प्रयोग करते हैं। अपने बंगला भार्षा के ज्ञान को और सुदृढ़ बनाने के शिलए ये बंगला अखबारों, टेलीतिवज़न पर बंगला चैनल, बंगला भार्षा में शिलखी तिकताबों का सहारा लेते हैं। ये लोग दोनों तरह के संगीत में रुशिच रखते हैं पर धार्मिम<क कृत्य हो या कोई और आयोजन उसमें बंगला संगीत को प्राथधिमकता धिमलती है। बंगाली बन्धुओं में मातृभार्षा अनुरक्षण की इतनी प्रबल इच्छा होती है तिक जहाँ अन्य भार्षी समुदाय के लोग तिवराजमान हों वहा ँ एक भी बंगाली व्यशिक्त आ जाए तो धारा प्रवाह बंगला सुनन े को धिमलती है। वाराणसी में ये बंगाली परिरवार कई क्षेत्रों में समूह बनाकर रह रहे हैं, तथा परस्पर इतने घुले धिमले हैं तिक एक ही परिरवार के सदस्य प्रतीत होते हैं। जबतिक सव�क्षण _ारा यह पता चला तिक बंगाली समुदाय के अधिधकांश लोग प्रायः एकाकी परिरवार में रहना पसंद करते हैं। एक ही परिरवार के दो सदस्य अपने-अपने परिरवारों को लेकर शहर के अलग अलग तिहस्सों में रहते हैं या तिकसी तिकसी परिरवार में साथ रहने पर भी भोजन पानी अलग बनता है। अतः हम यह मान सकते हैं तिक वाराणसी में अधिधकांश बंगाली परिरवार एकाकी हैं।

सव�क्षण के आधार पर मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रवृक्षि` को हम दो वगu में बाँट सकते हैं—

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1. पूण) मातृभार्षा अनुरक्षण2. आंशिशक मातृभार्ष अनुरक्षण

हमने बंगाली समुदाय के प्रत्येक वग) के लोगों का तिवश्लेर्षण तिकया और पाया जो वग) वृद्ध हैं या घर परिरवार से अधिधक जुड़े हैं उन्होंने अपनी मातृभार्षा को पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत करके रखा है तिकसी भी बाहरी तत्व का प्रभाव उनकी अपनी मातृभार्षा पर नहीं पड़ पाया है, चाहे वे राजनीतित से जुडे़ हों या तिकसी अन्य संस्थानों से जुडे़ हों।

परन्तु वत)मान समय की पीढ़ी जो अधिधक से अधिधक अन्य समुदायों के सम्पक) म ें ह ै उनकी मातृभार्षा प्रभातिवत हो गई ह ै व े अन्य भार्षाओं के शब्दों का धिमश्रण करके अपनी भार्षा का प्रयोग करते हैं। उन्हें अपनी मातृभार्षा से लगाव तो है पर उसके मानक रूप का प्रयोग उनकी जीवनचया) का अंग नहीं है, वे उसी भार्षा का प्रयोग अधिधक करते हैं जिजस भार्षा के माध्यम से उनको अधिधक से अधिधक समे्प्रर्षण करना होता है।

भार्षा प्रभातिवत होने का कारण कुछ तो सामाजिजक दवाव कुछ मानशिसक तथा राजनैतितक दवाव हो सकता है ये अपना अधिधक से अधिधक समय अन्य समुदाय के लोगों के मध्य व्यतीत करते हैं अपने कायu को करने के शिलए जब तब तनाव पूण) स्थिस्थतितयों से गुजरते हैं। साथ ही अपने काया)लयों का काम इन्हें राजभार्षा म ें सम्पन्न करना होता ह ै अतः ये अपनी मातृभार्षा के प्रतित उतने जिजम्मेदार नहीं हो पाते। किक<तु तिफर भी अन्य समुदायों के युवा वग) तथा बच्चों की अपेक्षा इन लोगों में मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना कहीं ज्यादा है।

अतः हम कह सकत े ह ैं तिक वाराणसी म ें जो बंगाली परिरवार सबस े पहल े आए उनमें मातृभार्षा अनुरक्षण की चेdा अत्यंत प्रबल थी क्योंतिक जब कोई मनुष्य तिकसी अन्य समाज में तिवस्थातिपत होता है तो अपनी भार्षा और संस्कृतित का टकराव उस समाज की भार्षा व संस्कृतित से महसूस करता है। जिजससे उनकी अपनी भार्षा, संस्कृतित से आत्मीयता बढ़ जाती

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है। कालान्तर में इस चेdा में कमी अवश्य आई है पर अभी भी वाराणसी के अन्य भातिर्षक समुदायों की तुलना में बंगाली समुदाय अपनी मातृभार्षा अथा)त् बंगला भार्षा के अनुरक्षण हेतु सवा)धिधक सचेd है।

3.5 भाषिषक षिव�ापन का स्वरूपः— भार्षा तिवस्थापन का अथ) है अपनी पहली भार्षा छोड़कर दूसरी भार्षा पर शिशफ्ट हो जाना। दूसरी भार्षा का प्रयोग बढ़ता जाता है और पहली का छूटता जाता है। परिरस्थिस्थतित वश प्रथम भार्षा की अपेक्षा दूसरी भार्षा को प्रयोग में लाया जाता है। परिरस्थिस्थतित वश अन्य भार्षा पर अधिधक बल देना, अथा)त् अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त तिकसी दूसरी भार्षा को अधिधक प्रयोग म ें लाना। तिकसी भी ति_भार्षी अथवा बहुभार्षी समाज म ें भार्षा तिवस्थापन की प्रतिaया स्वतः होती है, मनुष्य जब तक अपने परिरवार के सम्पक) में रहता है तब तक केवल अपनी मातृभार्षा को ही पहचानता है, समझता है। परन्तु जब समाज के सम्पक) म ें आता ह ै तो समाज में बोली जान े वाली अन्य भार्षाए ँसीखता है, तथा जिजस परिरवेश के सम्पक) में अधिधक रहता है उसका भार्षायी ज्ञान उसी प्रकार तिवकशिसत होता है। यदिद हम बंगला भार्षा को प्रथम भार्षा (A) मानें, तथा अन्य भार्षा को ति_तीय भार्षा (B) तो तिवस्थापन की प्रतिaया तिनम्न चरणों में होगी। --

1. मुख्य स्थिस्थतित : A

2. सहायक स्थिस्थतित : Ab

3. परिरपूरक स्थिस्थतित : AB

4. आंशिशक प्रतितस्थापन की ओर स्थिस्थतित : aB

5. प्रतितस्थातिपत स्थिस्थतित : B

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वाराणसी में रह रहे बंगाली परिरवारों की पाँच पीदिढ़यों के माध्यम से हम यह तिवस्थापन की स्थिस्थतित स्पd कर सकते हैं। यहाँ बंगला भार्षा (A) है, तथा अन्य भार्षा (B) है—

1. मुख्य स्लि�षित : A—

बंगाल की मुख्य भार्षा बंगला है जब वे नाराणसी आकर बसे तब उनकी मातृभार्षा शुद्ध बंगला थी अतः उस समय उनकी मातृभार्षा पर तिकसी अन्य भार्षा का प्रभाव नहीं था। वे लोग शुद्ध बंगला का प्रयोग करते थे । वत)मान समय में आज भी जो बंगाली बंगला देश व कलक्तता से आ रहे हैं उनकी मातृभार्षा शुद्ध बंगला भार्षा है।

2. सहायक स्लि�षित : Ab— सबसे पहले जो पीढ़ी वाराणसी आयी उसकी तथा आगे की कुछ अन्य पीदिढ़यों की

मुख्य भार्षा बंगला थी तथा सहायक भार्षा के रूप में वे तिहन्दी या अंगे्रजी का सहारा लेते थे। अतः उनमें मातृभार्षा का स्तर अधिधक मजबूत था, तथा अन्य भार्षा का अAप। अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त समाज में भातिर्षक समे्प्रर्षण के शिलए टूटी फूटी तिहन्दी बोलने का प्रयत्न करने लगे थे धीर े धीर े तिहन्दी उनकी सहायक भार्षा बन गई। अतः बंगाली समुदाय में बंगला भार्षा मुख्य तथा तिहन्दी सहायक भार्षा के रूप में प्रयोग में लायी जाने लगी।

3. परिरपूरक स्लि�षित : AB

धीरे धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी बंगाली समुदाय के लोग तिहन्दी भार्षा के प्रयोग में मातृभार्षा के समान दक्ष हो गए। इन लोगों में पाया गया तिक वे लगभग दोनों भार्षाओं का समान रूप से प्रयोग करने में कुशल हैं, जिजस अनुपात में वे बंगला का प्रयोग करते हैं उसी अनुपात म ें व े अन्य भार्षा का प्रयोग करत े ह ैं अतः यह स्थिस्थतित परिरपूरक स्थिस्थतित है, क्योंतिक कहीं कहीं व े बंगला भार्षा के स्थान पर अन्य भार्षा का प्रयोग भी समान अधिधकार के साथ करते हैं। लम्बे समय से यहाँ की भार्षा के सम्पक) में रहने के कारण वे

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किह<दी, काशिशका या भोजपुरी में अपनी मातृभार्षा के समान ही दक्ष हैं। अपनी मातृभार्षा के समान ही भोजपुरी व तिहन्दी के मौखिखक व शिलखिखत दोनों रूपों का समान भाव से प्रयोग कर लेते हैं यह स्थिस्थतित परिरपूरक कहलाती है। 4. आंशिशक प्रषित�ाषिपत स्लि�षित : aB—

वत)मान पीढ़ी जिजसने यहीं जन्म शिलया ह ै बंगाली होत े हुए भी अपने को बनारसी मानती है। वह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग अAप करती ह ै अथा)त ् केवल परिरवार के लोगों स े या अपन े समुदाय के लोगों स े बंगला का प्रयोग करती ह ै और अधिधक से अधिधक अन्य भार्षा तिहन्दी का प्रयोग करती है। यह भार्षा आंशिशक प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित होती है। इसमें प्रथम भार्षा अथा)त् मातृभार्षा के प्रयोग का अनुपात कम होता है तथा अन्य भार्षा का प्रयोग अधिधक। यह पीढ़ी धीरे धीरे प्रतितस्थापन की ओर बढ़ रही है, हो सकता है आने वाले समय में ये पूण) रूप से प्रतितस्थातिपत हो जाए।ँ 5. प्रषित�ाषिपत स्लि�षित : B—

प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित में मातृभार्षा को पूण)तः छोड़ दूसरी भार्षा को अपना लेता है यदिद बंगाली समुदाय के लोग बंगला भार्षा का प्रयोग पूण)तः समाप्त कर दें और तिहन्दी या भोजपुरी का प्रयोग करन े लग ें तो यह स्थिस्थतित भातिर्षक प्रतितस्थापन कहलाएगी। वत)मान समय में बंगाली समुदाय ही अपनी मातृभार्षा अनुरक्षण के प्रतित अधिधक सजग है अतः आज उनमें प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित नहीं देखी जा सकती। कालान्तर में नई पीढ़ी के लोग अपनी मातृभार्षा का अनुरक्षण न कर पाए तो ऐसा स्थिस्थतित उत्पन्न हो सकती है। सव�क्षण के दौरान हमने पाया तिक वत)मान समय में इन परिरवारों के बच्चे नौकरी आदिद की तलाश में वाराणसी छोड़ अन्य शहरों में जा रहे हैं। कई लोग बंगाल की ओर भी जा रहे हैं। ऐसे में इनका पुनः अपनी मातृभार्षा से सम्पक) बढे़गा और धीरे धीरे ये अन्य भार्षा का प्रयोग कम कर देंगे तथा अपनी मातृभार्षा का अधिधक प्रयोग करेंगे। इस स्थिस्थतित को पुनःभार्षा तिवस्थापन कहा जाता है।

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परिरणामस्वरूप भाषा षिव�ापन की प्रषि�या

एकभार्षी >> सहायक >>परिरपूरक >>प्रतितस्थातिपत >>भार्षातिवस्थापन व पुनः एकभार्षी

स्थिस्थतित स्लि�षित स्लि�षित स्थिस्थतित स्थिस्थतित

A >>> Ab >>> AB >>> aB >>> B वाराणसी में तिनवास करने वाले जिजतने भी समुदाय हैं, उनमें बंगला भार्षी समुदाय में अपनी मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना अधिधक प्रबल है। परन्तु आज की नयी पीढ़ी इतनी सतक) नहीं है, वत)मान समय में नयी पीढ़ी के लोग अपनी मातृभार्षा के शिलखिखत रूप से अनक्षिभज्ञ हैं। इसका कारण यह है तिक उनका अधिधकांश समय अपने काय) के्षत्र या अन्य समाज के लोगों के सम्पक) में बीतता है अतः वे घर परिरवार के साथ एक तिनक्षिoत समय के शिलए ही सम्पक) में आते हैं। इनमें से अधिधकांश परिरवार के बच्चे बंगला भार्षा को बोल तो लेते हैं, पर शिलख नही पाते और पढ़ भी नही पाते जबतिक तिहन्दी व अंग्रेजी को पढ़-शिलख लेते हैं। इसी प्रकार इनके भार्षायी तिवस्थापन पर हम प्रकाश डाल सकते हैं। जब ये लोग काशी आए थे तब की पीढ़ी अपनी मातृ भार्षा के तीनों रूपों का भली भांतित प्रयोग कर लेती थी। धीरे धीरे तिवक्षिभन्न कारणों से इनका अपनी मातृभार्षा के मानक स्वरूप से सम्पक) कम होता गया, और आज के काशी तिनवासी जिजस बंगला भार्षा का प्रयोग करते ह ैं वह अपने मानक मूल बंगला भार्षा से काफी क्षिभन्न हो गई है। उसमें तिहन्दी के, अंग्रेजी के तथा काशिशका के काफी शब्द शाधिमल हो गए हैं। बंगाल म ें बोली जान े वाली बंगला और वाराणसी में बोली जाने वाली बंगला के लहजे में भी अन्तर आ गया है। अतः भाषिषक षिव�ापन की प्रषि�या के अनुसार वत6मान समय में वाराणसी का बंगाली समुदाय ‘सहायक स्लि�षित ‘ से ‘परिरपूरक स्लि�षित’ की ओर बढ़ रहा है।

3.6 वाराणसी में बंगला भाषा शिशक्षणः—

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वाराणसी के सभी समुदायों में बंगाली समुदाय के लोगों की संख्या सबसे अधिधक है, बंगाली समुदाय में अधिधकांश लोग शिशक्षा से जुडे़ हैं। ये तिवद्या प्राप्त करने के शिलए भी वाराणसी आए। यहाँ आकर इन्होंने बंगाली छात्रों के शिलए कई तिवद्यालयों का तिनमा)ण कराया जिजनमें बंगला भार्षा शिशक्षण की उशिचत व्यवस्था है। जिजससे वच्चों को बंगला भार्षा का भी ज्ञान दिदया जा सके। बच्चों को बंगला भार्षा पढ़ना और शिलखना आ सके। इसके शिलए अचे्छ अध्यापकों की तिनयुशिक्त की गई है जो बंगला भार्षा में तिनपुण हैं। वाराणसी में बंगला भार्षा शिशक्षण से जुड़ी प्रमुख शिशक्षण संस्थाए ँहैं—

क) तिवद्यालयः लड़कों के शिलए लड़तिकयों के शिलए

1.बंगाली टोला इंटर कॉलेज 1.दुगा)चरण गAस) इंटर कॉलेज

2.जयनारायण घोर्षाल इंटर कॉलेज 2.तिवतिपन तिबहारी गAस) इंटर कॉलेज

3.शिचन्तामक्षिण एगं्लो बंगाली

इंटर कालेज

इन तिवद्यालयों में कक्षा 5 तक बंगला भार्षा का शिशक्षण अतिनवाय) है तथा आगे की कक्षाओं में बंगला भार्षा वैकस्थिAपक तिवर्षय के रूप में पढ़ाई जाती है।

ख) तिवश्वतिवद्यालयःकाशी तिहन्दू तिवक्षिश्वद्यालय का बंगला तिवभाग

इसमें कई अध्यापक काय)रत हैं, अथा)त् छात्र छात्राओं को बंगला भार्षा की शिशक्षा प्रदान करते हैं। तिकताबों की भी उशिचत व्यवस्था है, समय समय पर सेधिमनार आदिद भी आयोजिजत होते रहते हैं।

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काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय के बंगला तिवभाग में छात्रों को बंगला भार्षा में एम.ए, पीएच.डी. के अध्ययन अध्यापन की अच्छी सुतिवधा है और छात्र छात्राओं की अच्छी संख्या रहती है।

............ ⃟⃟⃟⃟...........Mतुथ6 अध्याय

वाराणसी के मराठी समुदाय का समाजभाषिषक अनुशीलन4.1 मराठी भाषा का संशिक्षप्त परिरMयः—मराठी भी भारतीय आय) परिरवार की भार्षा है। अन्य आधुतिनक भारतीय आय) भार्षाओं के समान ही मूल रूप से संस्कृत से उद्भतू है। लौतिकक संस्कृत से कालान्तर में पाशिल, प्राकृतों तथा अपभं्रशों का तिवकास हुआ। तिवक्षिभन्न प्राकृतों तदनन्तर अपभं्रशों स े करीब दसवीं शताब्दी में मराठी, तिहन्दी, गुजराती आदिद आज की भारतीय आय)भार्षा कही जाने वाली आधुतिनक भार्षाओं का उदय हुआ। इस aम में महाराष्ट्री प्राकृत से महाराष्ट्री अपभं्रश तथा उससे मराठी भार्षा की उत्पक्षि` हुई। “मराठी भाषा और वांगमयाMा इषितहास” शिलखने वाले एस. बा. शिभडे ने भारत में भार्षा परिरवत)न के पांच पड़ाव माने हैं—

1. “वैदिदक वाणी परिरक्षिणत होकर पाक्षिणतिन की मानक संस्कृत का बनना प्रथम उaांतित है।

2. उ`र भारत में बौद्धों के कारण पाली द्रतिवड़ भार्षाओं की सीमा तक पहुँची, मराठी में पाली का बहुत प्रभाव है।

3. तिहन्दू और जैन अन्य प्राकृतों का तिवकास करते रहे।4. अपभ्रंश प्राकृत भार्षाए ँशिशdसम्मत भार्षाए ँबनीं, उनमें ग्रंथ रचना हुई। 5. दसवीं शती में अवा)चीन देशी भार्षाए ँअपभं्रश में से तिनकल कर शिशलालेखों में आनी

शुरू हुई।”Page 113

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मराठी भार्षा का तिवकास भी संस्कृत के अपभं्रश से हुआ है अतः इसमें संस्कृत के शब्दों की बहुतायत है और यही कारण है तिक यह तिहन्दी के भी करीब है। इसमें संस्कृत के साथ साथ उदू) फारसी के शब्दों का भी समावेश है। मराठी में कन्नड़, तधिमल, तेलुगु, फारसी, ग्रीक आदिद भार्षाओं के शब्द भी सन्धिम्मशिलत हैं। सब से अधिधक शब्द कन्नड़ से शिलये गये हैं। इसमें अप्प, तुप्प, उप्पीसट, पंब, तिपलू आदिद द्रतिवड़ भार्षा के शब्द हैं। प्राचीन मराठी म ें जोतड़ी, तिनसाण, मात्ककै, पेरोज, तेजी, सका, खात, सुलतान, तूरक आदिद फारसी के शब्द हैं। सेवैया, वाम और यमन तीन ग्रीक शब्द भी हैं। मुक, उदासु अंगुक नंद भार्षा के शब्द हैं। धीरे-धीरे मराठी में फारसी के शब्दों की संख्या भी बहुत बढ़ गई।

भारोपीय भार्षा परिरवार

भारत ईरानी

ईरानी दरद भारतीय आय)

वैदिदक संस्कृत लौतिकक संस्कृत-(प्राचीन भा. आ.)

पाशिल

प्राकृतें

महाराष्ट्री प्राकृत

महाराष्ट्री अपभं्रश

मराठी

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माना जाता हैतिक महाराष्ट्र की महर जातित तिवशेर्ष के नाम पर महाराष्ट्र शब्द बना है। मराठी शब्द महाराष्ट्री का सरल रूप है। महा अथा)त् महान, राष्ट्र अथा)त् देश। महाराष्ट्री अथा)त् महान देश की भार्षा। वत)मान समय में मराठी महाराष्ट्र राज्य की आधिधकारिरक भार्षा है। मराठी मुख्यरूप से महाराष्ट्र में बोली जाती है लेतिकन गुजरात, मध्यप्रदेश, गोवा, कना)टक, छ`ीसगढ़ और आंन्ध्र प्रदेश, दमन आदिद पड़ौसी राज्यों में भी बड़ी संख्या में मराठी समुदाय के लोग हैं। उज्जैन, इंदौर आदिद में तो मराठी भार्षी लोग बहुतायत में हैं। अतः इन राज्यों में भी मराठी भार्षा का काफी प्रयोग होता है। पूरे भारत में मराठी भार्षी लगभग प्रत्येक स्थान में बसे हैं, अतः मराठी भातिर्षयों की संख्या भी अच्छी खासी है। मराठी लगभग चार करोड़ लोगों की बोलचाल की भार्षा है। भारत के संतिवधान म ें 22 राजकीय भार्षाओं में से एक मराठी को भी पहचान प्राप्त है। तिवक्षिभन्न तिवश्वतिवद्यालयों में मराठी भार्षा के अलग तिवभाग स्थातिपत हैं।

मराठी भार्षा में तिवशाल सातिहत्य सृजन हुआ है। मराठी तिव_ानों ने मराठी में ही अपने तिवचार प्रकट तिकए हैं। मराठी भार्षा का सातिहत्य भी पुराना है। मराठी भार्षा में वेद पुराण आदिद की रचना भी हुई है। कतिवता, ज्योतितर्ष, गद्यसातिहत्य आदिद मराठी भार्षा में तिवद्यमान हैं। संतों की बानी, उपदेश, शिसद्धांत आदिद की व्याख्या भी मराठी में की गई है। गीता, रामायण जैसी धार्मिम<क पुस्तकों को भी मराठी भार्षा में अनुवादिदत तिकया गया, और जगह जगह इसका कथा वाचन तिकया जाता रहा है। यह तिववादास्पद है तिक सव)प्रथम मराठी सातिहत्य शिलखने की शुरुवात कहां, कब, और तिकसने की। परन्तु मराठी सातिहत्य का आधार मध्य भारतीय मराठी भार्षा को माना जाता है। तिपछले सात सौ वर्षu से मराठी सातिहत्य का केन्द्रस्थान बदलता रहा है। कभी यह नागपुर में था तो कभी यह पैठण की ओर चला गया। तिफर यह मुम्बई में आ गया। आज भी सातिहप्तित्यक मराठी का आदश) पुणें की और उसके आसपास की भार्षा है। वत)मान समय में मराठी में अखबार, पत्र-पतित्रकायें और पुस्तकें बड़ी

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मात्रा में छपती और तिबकती हैं। मराठी में कई भार्षाओं के कोश हैं एवं अन्य भार्षाओं ने भी इस भार्षा के शब्दों को अपनाया है। भार्षातिवज्ञान प्रगत अध्ययन केन्द्र, डेक्कन कालेज के पूव) तिनदेशक अशोक रामचन्द्र केलकर भार्षातिवज्ञान के अन्तर राष्ट्रीय ख्यातित के तिव_ान होने के साथ साथ मराठी के भी यशस्वी सातिहत्यकार हैं और पद्मश्री से सम्मातिनत हैं।

मराठी भार्षा अपन े शब्द आदेश, लिल<ग, संख्या प्रणाली और संस्कृत उत्स के कारण आधुतिनक भारतीय आय) भार्षाओं की प्रतिततिनधिध भार्षा की श्रेणी म ें आती है। तिकन्तु भौगोशिलक प्रभाव के कारण भी मराठी भार्षा में कुछ अंतर देखने को धिमलता है। सीमावत� द्रतिवड़ भार्षाओं ने मराठी को खासा प्रभातिवत तिकया है। मराठी भार्षा पर द्रतिवड़ परिरवार का ध्वन्यात्मक प्रभाव भी देखने को धिमलता ह ै क्योंतिक यह अन्य भारतीय आय) भार्षाओं से अलग है। मानक मराठी में नाशिसक्य शब्द उच्चारण है जबतिक इसकी उपबोशिलयों में नाशिसक्य ध्वतिनयाँ कम हैं। कृदंत प्रणाली भी मराठी भार्षा में कन्नड़ व तेलुगु भार्षा के प्रभाव के कारण दिदखती है।

मराठी की शिलतिप भी अब देवनागरी हो गई है। प्राचीन काल में इसकी शिलतिप मूढ़ी थी।

देवनागरी में इसे इस प्रकार शिलखा जाता है—

Vowels and vowel diacritics

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Consonants

मराठी गद्य का नमूना—

4.2 वाराणसी का मराठी समुदाय :-(क) ऐषितहाचिसक परिरMय -

वाराणसी अथा)त ् काशी की भौतितक एव ं ऐतितहाशिसक रचना बड़ी ही तिवलक्षण है। कई तिवशेर्षताओं को शिलए हुए काशी पूरे भारत से तिहन्दू समाज को अपनी ओर खींचती रही है। लघु भारत कहलाने वाले बनारस में एक लघु महाराष्ट्र भी बसा है। काशी भी भारत माता के समान तीनों लोकों में न्यारी है। महाराष्ट्र का जो तिवशाल रूप तुंगभद्र और नम)दा के बीच में है, उसी का छोटा रूप काशी में वरूणा और अस्सी के बीच में स्थिस्थत है। अगर हम तिवचार करें तिक महाराष्ट्र के तिनवासी काशीवास हेतु कब पधारे, तो इस प्रश्न का तिकसी के पास कोई

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तिनक्षिoत उ`र नहीं है। वाराणसी में बाहर से आकर बसने वाले तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदायों में संभवतः सबसे पहले मराठी समुदाय ही यहा ँ आकर बसा। ऐसा अनुमान ह ै तिक मराठी समुदाय के लोगों का काशी में आगमन लगभग 1500 वर्ष) पूव) हुआ होगा।

काशी के तिव_` समाज में मराठी �ाह्मण तिव_ानों का परिरचय तीसरी शताब्दी से धिमलता है। लोकमत तथा पुराने दस्तावेजों के अनुसार सव)प्रथम 879 ई. में श्री मषिहपषित तथा श्री पुराशिणक सकुटुम्ब महाराष्ट्र से आकर यहा ँ के पंचगंगा घाट पर बस गए। मतिहपतित और पुराक्षिणक एक-दूसर े के पुरोतिहत एव ं जजमान थे। श्री नारायण दOाते्रय कालेलकर के अनुसार “मध्ययुगीन ‘चरिरत्रकोर्ष’ के लेखक श्री शिसदे्धश्वर राव शिचत्राव न े शिलखा ह ै तिक पंचगंगा घाट पर तिनवास करने वाले धमा)धिधकारी तथा उनके बनकटे साथी पुराक्षिणक में से तिकसी एक को तिव. संवत् 936 के आस-पास महाराजा यशपाल ने र्षोडश संस्कार कराने के समू्पण) अधिधकार प्रदान तिकए थे। अनुमान ह ै तिक राजा यशपाल न े यह अधिधकार श्री मतिहपतित को प्रदान तिकया होगा, क्योंतिक आज भी वह घराना धमा)धिधकारी के नाम से तिवख्यात है।”

मनुस्मृतित पर ‘मनवथ6मुक्तावली’ की रचना करने वाल े श्री कुल्लक भट्ट सन ् 1150 में वाराणसी आए थे। महाराष्ट्र के सुतिवख्यात संत ज्ञानेश्वर के तिपता श्री षिवट्ठल पंत सन् 1272 में काशी आए। काशी के प्रशिसद्ध तिव_ान नारायण भट्ट के तिपता श्री रामेश्वर भट्ट 1513 में काशी आए। इस कुल में तिवलक्षण प्रतितभायुक्त कई तिव_ानों ने जन्म शिलया। कहा जाता है तिक इस परिरवार में लगातार 24 पीदिढ़यों तक लाक्षक्षिणक तिव_ान हुए हैं। इसी कुल में दिदनकर भट्ट व उनके पुत्र गागा भट्ट हुए। गागा भट्ट का वास्ततिवक नाम तिवश्वम्भर भट्ट था तिकन्तु वे गागा भट्ट के नाम से तिवख्यात हुए। श्री गागा भट्ट काशी तिवश्वनाथ मंदिदर के प्रमुख पुरोतिहत थे।17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब शिशवाजी का राज्याक्षिभर्षेक हुआ तो उनका राज्याक्षिभर्षेक करने के शिलए काशी से गागा भट्ट ही गए थे।

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aमशः सन् 1610 तथा 1636 में महाराष्ट्र से वाराणसी आए श्री कमलाकर भट्ट तथा श्री वामनराव की गणना काशी के महापस्थिण्डतों में होती है। कहा जाता है तिक श्री कृष्ण नृसिसFह शेष जिजनसे तुलसीदास जी ने दीक्षा ली थी सन् 1672 में काशी आए थे। मराठी के सुप्रशिसद्ध कतिव श्री मोरो पन्त पराqकर सन ् 1729 में काशी आए। सन ् 1734 में श्री नारायण दीशिक्षत पाटणकर काशी आए ये बड़े ही तेजस्वी पुरुर्ष थे तथा इनकी साधुता महाराष्ट्र में प्रशिसद्ध थी। श्री छत्रपतित शाहू महाराज तथा पंत प्रधान बालाजी बाजीराव पेशवा जिजनके समय में महाराधिष्ट्रयों का उ`र भारत में बड़ा प्राबAय और बहुत तिवस्तार हुआ वे भी इन्हें गुरू तुAय मानते थे।

पानीपत के तृतीय युद्ध में पराजय के पoात् अधिधकांश महाराष्ट्री लोग वाराणसी सतिहत उ`र भारत के अन्य नगरों में बस गए। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी के ही ताम्बे परिरवार में हुआ था। उनका जन्म स्थान स्मारक स्थल अस्सी घाट के पास आज भी सुरक्षिक्षत है।

महाराष्ट्री समुदाय के तिव_ान लम्बे समय से काशी की तिव_` परम्परा को गौरवाप्तिन्वत करते रहे हैं। मराठी तिव_ानों ने सदा ही काशी के तिवकास में अपना योगदान दिदया। पद्मभूर्षण बलदेव उपाध्याय ने अपनी पुस्तक काशी की पांतिडत्य परम्परा में कई मराठी तिव_ानों का सशिचत्र तिववरण दिदया है। महाराष्ट्र के तिव_ानों ने कई परम्पराओं की स्थापना की और इस समुदाय ने एक के बाद एक श्रेष्ठ तिव_ानों को जन्म दिदया। इन तिव_ानों के योगदान से ही काशी सव) तिवद्या की राजधानी मानी जाती है। आधुतिनक काल में भी मराठी तिव_ानों ने धम), शिशक्षा, कला आदिद तिवक्षिभन्न के्षत्रों में अपने योगदान से काशी के गौरव को संवर्मिध<त तिकया है। वाराणसी के तिव_ानों में इन महाराष्ट्री तिव_ानों का नाम अग्रगण्य है जैसे— पं. राजाराम शास्त्री काल�कर, उनके शिशष्य पं. श्री बाल सरस्वती रानाडे और पं. बापूदेव शास्त्री जैसे तिवश्वतिवख्यात ज्योतितर्गिव<द, पं. राजाराम शास्त्री बोड़स जैसे तिव_ान, पं. दामोदर शास्त्री सपे्र

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जैसे तिहन्दी के भारतेन्दु के सह लेखक, और पं. बाबू शास्त्री केलकर आदिद तिव_ानों ने अब तक काशी की शोभा बढ़ाई है। तिहन्दी पत्रकारिरता म ें संपादकाचाय) पं. बाबूराव तिवष्णु पराड़कर, पं. लक्ष्मीनारायण गद� को कौन नहीं जानता? संगीत जगत में पं. मुकुन्द तिवष्णु कारूतिवd, तबलावादक पं. काशीनाथ खाण्डेकर और तिवनोद लेल े उAलेखनीय हैं। इन तिव_ानों के नाम से वाराणसी में कई भवन भी तिनर्मिम<त हैं जैसे—पड़ारकर भवन, केलकर भवन आदिद।

काशी का वत)मान व्यवस्थिस्थत स्वरूप मुख्य रूप से महाराधिष्ट्रयों _ारा ही तिवकशिसत तिकया गया है। काशी के अधिधकांश सामाजिजक व धार्मिम<क स्थलों जैसेतिक मंदिदरों, घाटों व मठों आदिद का तिनमा)ण महाराष्ट्री बनु्धओं _ारा ही करवाया गया है। उदाहरणस्वरूप वाराणसी के प्राणभूत काशी तिवश्वनाथ का वत)मान मजिन्दर, लोलाक) कुण्ड का अधिधकांश भाग, अतिहAया बाई घाट और ऊपर का भव्य भवन अतिहAया बाई होAकर का है। श्री तिवश्वनाथ मजिन्दर में जो शिशवलिल<ग स्थातिपत है वह नम)दा से लाया गया है और स्थापना भट्ट घराने से हुई है। श्री अन्नपूणा) जी का मजिन्दर श्री गदे्र नामक मराठी बन्धु का है। मजिन्दर के स्थान पर पहले महाराधिष्ट्रयों के ही कई घर थे। जिजन्हें तिगराकर यह मजिन्दर बनाया गया। श्री साक्षी तिवनायक और अस्सी नाले के उस पार श्री खंडोबा का मंदिदर श्री चंद्रचूड़ का बनवाया है। भोंसले घाट भोंसले वंश का है। तित्रलोचन घाट, तित्रलोचन मंदिदर, तित्रलोचन बाजार, �म्हाघाट, नारायण दीक्षिक्षत के ही बसाये हुए हैं। नारायण दीक्षिक्षत महAले में बाड़ा की स्थापना नारायण दीक्षिक्षत पाटणकर ने की थी। वाराणसी का शीतला घाट भी इन्होंने बनवाया है। दुगा)घाट पर नानाफडनवीस का बाड़ा भी ऐतितहाशिसक है। यह एक तालाब को पाटकर बना है। टाउनहाल के पीछे की गौशाला के स्थान पर पहले भैरव बावली थी, जो तिक वैदिदक दीक्षिक्षत जोशी घराने की थी और ज्ञानवापी का मुशिक्त मण्डप बायजा बाई शिशन्दे का है। नारद घाट, अग्नेश्वर घाट, कोतिनया घाट, बाला घाट, काठ की हवेली, आनंदबाग, गणेश बाग आदिद सभी पेशवाओं _ारा बनाए गए थे।

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इसी प्रकार कालभैरव मंदिदर, वaतुण्ड बड़ागणेश मंदिदर, मक्षिणकर्णिण<का घाट आदिद का भी तिनमा)ण महाराधिष्ट्रयों _ारा ही कराया गया।

वाराणसी मंदिदरों, घाटों, तथा गशिलयों के शिलए प्रशिसद्ध रहा है। पुरानी काशी की जिजन गशिलयों का वण)न धिमलता है उनको गोरिरAला युद्ध के समय मराठाओं ने अपने परिरवारों की सुरक्षा के शिलए बनवाया था। युद्ध के समय काशीवासी अपनी रक्षा इन गशिलयों के माध्यम से ही करते थे, मराठा योद्धाओं ने अपनी सूझ-बूझ से कई वर्षu तक काशी की रक्षा की है। ये गशिलयाँ भूलभुलैया के समान हैं, पत्थर से तिनर्मिम<त ये गशिलयाँ अत्यन्त सकरी और गहरी हैं। कोई भी आसानी से बाहर नहीं तिनकल सकता। युद्ध के समय रातिनयाँ यहीं अपने को सुरक्षिक्षत महसूस करती थीं। बाद में इन स्थानों पर कई मठों व संघों की स्थापना हो गई, जिजनका संचालन आज भी मराठी बन्धु बखूबी कर रहे हैं।

यह सुस्पd ह ै तिक वाराणसी म ें मराठी समुदाय सबसे पहले आकर बसा और महाराष्ट्री बनु्धओं ने नगर के सुव्यवस्थिस्थत तिनमा)ण और उन्नतित हेतु हर संभव काय) तिकया।

(ख) शैशिक्षक तथा सामाजिजक स्लि�षित —

वाराणसी के मराठी समुदाय ने वाराणसी के सवा¶गीण तिवकास में यथा संभव योगदान तिकया और अपनी अल्किस्मता और गरिरमा को भी बनाए रखा। वाराणसी की लगभग सभी तिवधाओं में मराठी तिव_ानों का नाम सन्धिम्मशिलत है चाहे वह धार्मिम<क क्षेत्र हो, पत्रकारिरता जगत हो, वेद-पुराण हो या पास्थिण्डत्य परम्परा, संगीत परम्परा, वकालत हो या उच्च शिशक्षा के तिकसी भी क्षेत्र का ज्ञान हो। वाराणसी में लगभग सभी के्षत्रों में मराठी समुदाय का बड़ा योगदान रहा है।

वाराणसी में तिनवास करने वाले मराठी समुदाय में �ाह्मणों की संख्या हमेशा से ही अधिधक रही है। इनमें देशस्थ, कोंकणस्थ, कन्होड़ एवं यजुव�दी ये चार जातितयाँ प्रमुख हैं। इन चारों

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का खान-पान, वेशभूर्षा, कुलधम)-कुलाचार, तिववाह तथा श्राद्ध कम) इत्यादिद सभी समान होते हैं तिकन्तु कन्या का आदान-प्रदान अपनी अपनी जातित में ही होता है। समस्त समुदाय में तिववाह आदिद के शिलए पहले महाराष्ट्र से ज्यादा संबंध होते थे तिकन्तु अब मध्य प्रदेश से ज्यादा होते हैं जैसेतिक—उज्जैन, ग्वाशिलयर, इंदौर आदिद से वाराणसी के मराठी समाज में �ाह्मणों के अतितरिरक्त अन्य जातितयों के बन्धु भी हैं तिकन्तु इनकी संख्या कम है। तिवगत कुछ वर्षu से सुनार वण) के लगभग 100 पादिटल परिरवार यहाँ आकर ठठेरी बाजार, Mौक आदिद क्षेत्रों में बस गए हैं।

प्राचीन समय में मराठी समुदाय के लोगों की सवा)धिधक रिरहाइश दुगा6 घाट, �ह्माघाट,

दशाश्वमेN घाट, घाट माNवराव, गायघाट, दूNषिवनायक, मंगलागौरी, सूतटोला आदिद पक्कामहाल के इलाकों में थी। वत)मान समय में इन इलाकों के अतितरिरक्त सुन्दरपुर, साकेतनगर, डीएलडब्ल्यू, सामनेघाट आदिद इलाकों में भी मराठी समुदाय के लोग रहते हैं।

बनारस में रहने वाले महाराष्ट्रीय समुदाय के अधिधकांश लोग मुख्य रूप से शिशक्षा के क्षेत्र से जुडे़ हैं तत्पoात् पौरोतिहत्य तथा कला-संगीत आदिद के्षत्रों से जुडे़ हैं। व्यापार के क्षेत्र में मराठी समुदाय के लोग कम हैं। एक समय में वाराणसी में तिनवास करने वाले महाराष्ट्री लोगों की संख्या अच्छी खासी थी तिकन्तु अब लगभग 500 परिरवार ही हैं। आज मराठी समुदाय के केवल 4-5 हजार लोग ही यहाँ रह गए हैं। 25 वर्ष) पूव) नौकरी आदिद के कारण तेजी से पलायन हुआ। 91...... 96......2001 के बीच पलायन का प्रतितशत सवा)धिधक था।

लम्बे समय से वाराणसी में तिनवास करने के बावजूद मराठी समुदाय ने अपनी अल्किस्मता और गरिरमा को बनाए रखा है। यह सव)तिवदिदत है तिक मराठी समुदाय का तिवशेर्ष योगदान काशी की धार्मिम<क परंपरा को सवा)धिधक प्राप्त हुआ है। अतः वाराणसी में मराठी समुदाय के लोग अपने धार्मिम<क पव) तथा तीज त्यौहार भी खूब धूमधाम से मनाते हैं। इस समुदाय ने अपने

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स्तर से हर उत्सव का खूब प्रचार प्रसार तिकया है तथा वाराणसी की संस्कृतित से उसे जोड़ दिदया है। मराठी समुदायों के तिवशेर्ष पव) चैत्र मास से ही प्रारंभ हो जाते हैं। सव)प्रथम चैत्र नवरात्र की प्रतितपदा गुड़ी-पाड़वा के दिदन सांस्कृतितक काय)aमों के माध्यम से नए वर्ष) का स्वागत तिकया जाता है। चैत्र मास में ही माह के शुक्ल पक्ष से अक्षय तृतीया तक हAदी रोरी उत्सव का आयोजन होता है। यह सौभाग्यवती न्धिस्त्रयों का त्यौहार है। श्रावण मास में तो प्रतितदिदन कोई न कोई त्यौहार होता है। तिफर भी श्रावण के मंगलवार का बड़ा महत्व होता है इस दिदन नवतिववातिहताए ँगौरी का पूजन करती हैं जिजसे मंगलागौर कहते हैं। इस समाज के तिवक्षिभन्न पवu में वाराणसी के अन्य समाज के लोग भी शाधिमल होते हैं और पवu का आनन्द उठाते हैं। शारदीय नवरात्र में लशिलता पंचमी आ. शु. पाँच से आ. शु. दस तक शारदोत्सव का आयोजन तिकया जाता है। अdमी वाले दिदन महालक्ष्मी (घटत्मान महालक्ष्मी) का खेल होता है। इस दिदन महाराधिष्ट्रयों के यहां घाघरी फंूक अथा)त् गगरी को फंूक तिवशेर्ष रूप से सौभाग्यवती मतिहलाए ँदेवी का आह्वाहन करती हैं। यह उत्सव वाराणसी के �म्हाघाट स्थिस्थत ‘आंग्रे के वाड़ा’ में मनाया जाता है। मकर संaातित पव) भी मराठी समुदाय तिवशेर्ष उत्साह के साथ मनाता है।

भारत में सभी पव�त्सव अपनी अपनी मह`ा से तिकसी न तिकसी न तिकसी प्रदेश एवं धम) तिवशेर्ष को गौरवाप्तिन्वत करने में अग्रणी रहे हैं। इसी सन्दभ) में महाराष्ट्र भी गणपतित बप्पा मोरया उद्घोर्ष के साथ श्री गणेशोत्सव को राष्ट्रीय पव) के रूप में तिवकशिसत करता आ रहा है। उक्त परम्परा का आदश)भाव महाराष्ट्र आदिद दक्षिक्षण प्रांतों में देखने को धिमलता है। लोकमान्य प ं बालगंगाधर तितलक के _ारा राष्ट्रीय स्वरूप को प्राप्त भाद्रपदशुक्ल पक्ष चतुथ� का श्रीगणेशोत्सव आज न केवल महाराष्ट्र तक ही सीधिमत है अतिपतु समस्त भारत के नगरों-महानगरों में समारोह के रूप में मनाया जाने लगा है। वाराणसी में भी गणेशोत्सव भव्य रूप में मनाया जाता है। श्री गणपतित जी की पूजा-अच)ना के इस तिवशेर्ष उत्सव में सारा शहर

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बढ़-चढ़ कर भाग लेता है। इन आयोजनों की व्यवस्था तिवक्षिभन्न समीतितयाँ करती हैं जिजनमें काशी की प्राचीन स्तम्भ स्वरूप श्री गणेशोत्सव सधिमतित, नूतन बालक श्री गणेशोत्सव सधिमतित, सांगवेद तिवद्यालय श्रीगणेशोत्सव, शारदा भवन श्रीगणेशोत्सव, जंगमबाड़ी मठ श्रीगणेशोत्सव आदिद प्रमुख हैं ।

वाराणसी में रहने वाले महाराधिष्ट्रयों की संरक्षा व उन्नक्षि` तथा इस नगर के चहँुमुखी तिवकास म ें मराठी समुदाय की भागीदारी सुतिनक्षिoत करन े के शिलए और साथ ही साथ तिवक्षिभन्न प्रयोजनों स े यहा ँ समय-समय पर आने वाल े महाराष्ट्री बन्धुओं की सहायता हेत ु मराठी समाज की महाराष्ट्र समीतित, महाराष्ट्र सेवा समीतित, काशी महाराष्ट्र समाज, अखिखल भारतीय महाराष्ट्र तीथ) पुरोतिहत समीतित आदिद समीतितयाँ सतत् प्रयत्नशील हैं।

4.3 भाषिषक व्यवहार तथा उसका समाजभाषिषक षिवशे्लषण :- वाराणासी म ें तिनवास करन े वाले मराठी समुदाय के भातिर्षक व्यवहार का तिवश्लेर्षण इस समुदाय के 100 सूचकों _ारा प्रद` जानकारी व आंकड़ों तथा तिवक्षिभन्न स्रोतों से संकशिलत सामग्री के आधार पर तिकया गया है। इन सूचकों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूण) तथ्यों का तिववरण इस प्रकार है।

लिल<ग तथा आयु के अनुसार सूचकों का वग�करण तिनम्नशिलखिखत है—

आयु पुरुष मषिहला कुलयोग

5-25 10 10 2025-50 35 20 5550 + 15 10 25

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प्रश्नावली के शैक्षिक्षक स्थिस्थतित सम्वन्धी चौथे प्रश्न के अनुसार तिवक्षिभन्न आयुवग) के सूचकों की शैक्षिक्षक योग्यता का तिववरण तिनम्नवत है—

शिशक्षा पुरुष मषिहला कुल योग

अशिशशिक्षत 5 10 15

अN6शिशशिक्षत 20 5 25

शिशशिक्षत/उच्चशिशशिक्षत

30 15 45

तकनीषिक 10 5 15

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0

5

10

15

20

25

30

35

5 to25 25 to 50 50+

आयु का वगvकरण

पुरुर्षमतिहला

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0

5

10

15

20

25

30

अशिशक्षिक्षत अध)शिशक्षिक्षत शिशक्षिक्षत तकनी तिक

शिश क्षा का औसत

पुरुर्ष म तिहला

सूचकों की शैक्षिक्षक स्थिस्थतित से सम्बन्धिन्धत आंकड़ों से यह स्पd है तिक वाराणसी में तिनवास करने वाले मराठी समुदाय में शिशक्षा का स्तर बहुत अच्छा है। अशिशक्षिक्षत तथा अद्ध)शिशक्षिक्षत वगu की अपेक्षा शिशक्षिक्षत वग) में सूचकों की अधिधक संख्या इस तथ्य की पुधिd करती है।

प्रश्नावली में प्रश्न संख्या 5 तथा 6 व्यवसाय व माशिसक आय तिवर्षयक जानकारी से सम्बद्ध हैं जिजनके _ारा सूचकों के व्यवसाय तथा आर्थिथ<क स्थिस्थतित के तिवर्षय में जानकारी धिमलती है। तिवक्षिभन्न व्यवसाधियक वगu में सूचकों की संख्या का तिववरण अधोशिलखिखत है। नीचे दिदया गया पाई चाट) तिवक्षिभन्न व्यावसाधियक वगu के सूचकों की सहभातिगता के प्रतितशत को प्रदर्थिश<त करता है।

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व्य वसा य

2%

40%

20%

20%

18%

म जदूर2

अध् यापक40

तिवद्याथ�20

गृ हणी20

अन् य व्य वसा य18

आगे दिदया गया वाराणसी में तिनवास की स्थिस्थतित से सम्बन्धिन्धत पाई चाट) यह दशा)ता है तिक वाराणसी के मराठी समुदाय में अधिधकांश लोगों का जन्म वाराणसी में ही हुआ है क्योंतिक इनके माता-तिपता अथवा पूव)ज तिवक्षिभन्न कारणों से वर्षu पूव) वाराणसी में आकर बस गए और यहीं के स्थायी तिनवासी हो गए। वत)मान समय में मराठी समुदाय में बाहर से आकर वाराणसी में बसने वाले महाराधिष्ट्रयों की संख्या अपेक्षाकृत कम है।

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वा रा णसी में षिन वा स की स्लि� षित

70%

30%

जन् म से तिन वा स बा हर से आए

वाराणसी म ें रह रहे मराठी समुदाय के लोगों से सम्पक) करने पर पता चला तिक नौकरी सतिहत कई अन्य कारणों से तिवगत वर्षu में बड़ी संख्या में महाराष्ट्री परिरवारों ने वाराणसी से पलायन तिकया है। वत)मान समय में वाराणसी में तिनवास करने वाले महाराष्ट्री परिरवारों की संख्या पहले की अपेक्षा बहुत कम है।

सूचकों की आय सम्बन्धी जानकारी प्रश्नावली की प्रश्न संख्या छः से प्राप्त होती है। सूचकों की आर्थिथ<क स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है--

आय पुरुष मषिहला कुल योग

उच्च आय वग6 20 10 30

मध्यम आय वग6 25 15 40

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षिनम्न आय वग6 15 15 30

(क) वाराणसी के मराठी समुदाय में षि<भाषिषकता तथा बहुभाषिषकता की स्लि�षित — आज तिवश्व म ें एकभार्षी समाजों की संख्या बहुत ही कम या नगण्य है।

भूमण्डलीकरण के इस दौर में लगभग हर भार्षासमाज ति_भार्षी एवं बहुभार्षी है। भार्षा-सम्पक) के फलस्वरूप उद्भतू यह ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता भातिर्षक प्रकाय) के तिवक्षिभन्न स्तरों पर दिदखलाई पड़ती है।

वाराणसी म ें तिनवास करन े वाल े मराठी समाज का भातिर्षक व्यवहार भी ति_भार्षी तथा बहुभार्षी है। यहाँ के महाराष्ट्री समुदाय का हर व्यशिक्त अपने भातिर्षक व्यवहार में मराठी के साथ-साथ तिहन्दी भार्षा का प्रयोग बड़ी सहजता व कुशलता के साथ करता है। मराठी समाज के अधिधकांश लोग शिशक्षा, पौरोतिहत्य तथा कला के के्षत्र से जुड़ े हुए ह ैं और इस

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कारण य े लोग मराठी, तिहन्दी के अतितरिरक्त अंग्रेज़ी तथा संस्कृत भार्षा पर भी अच्छा अधिधकार रखते हैं।

वाराणसी के महाराष्ट्री परिरवारों म ें लोग घरों में परस्पर वाता)लाप में मराठी भार्षा का ही प्रयोग करत े हैं। तिवशेर्ष रूप स े परिरवारों की मतिहलाए ँतथा बडे़-बुजÕग) मराठी का ही सवा)धिधक प्रयोग करते हैं। इनके भातिर्षक व्यवहार में अन्य भार्षाओं के प्रयोग का प्रतितशत काफी कम है। महत्वपूण) तथ्य यह है तिक इनके _ारा व्यवहृत मराठी बहुत शुद्ध होती है। परिरवारों के वयस्क सदस्य मराठी के साथ-साथ तिहन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका आदिद अन्य भार्षाओं का प्रयोग बहुतायत से तथा सहजतापूव)क करते हैं। क्योंतिक कामकाज तथा सामाजिजक दाधियत्वों के तिनव)हन के कारण ये लोग अन्य भार्षाभार्षी लोगों के सम्पक) में अधिधक आते हैं। युवा वग) के भातिर्षक व्यवहार म ें मराठी के अतितरिरक्त तिहन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका आदिद इन अन्य भार्षाओं के प्रयोग का प्रतितशत अधिधक है। इसी प्रकार बच्चे भी अपने दैतिनक तिaयाकलापों म ें समे्प्रर्षण हेत ु मराठी के अलावा तिहन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका आदिद भार्षाओं का प्रयोग अधिधक करते हैं। क्योंतिक स्कूल तथा अन्य गतिततिवधिधयों में भागीदारी के दौरान ये अन्य भातिर्षक समुदाय के बच्चों के साथ अधिधक समय व्यतीत करते हैं। घर-परिरवार में भी बच्चे मराठी के साथ-साथ तिहन्दी तथा अंग्रेज़ी का प्रयोग करते रहते हैं। उAलेखनीय है तिक शिशक्षण संस्थाओं में इन्हें तिवर्षय अथवा माध्यम के रूप में कई भार्षाओं का ज्ञान हो जाता है।

अतः यह सुस्पd है तिक वाराणसी में तिनवास करने वाला महाराष्ट्री समुदाय प्रायः ति_भार्षी या बहुभार्षी है। इस समाज के भार्षायी कोश की मुख्य प्रतितभागी भार्षाए ँहैं—मराठी, तिहन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, भोजपुरी या काशिशका तथा उदू)। महाराष्ट्री समुदाय के लोगों का संस्कृत भार्षा का ज्ञान तथा प्रयोग का स्तर अन्य भातिर्षक समुदायों के लोगों की अपेक्षाकृत बहुत अच्छा तथा अधिधक है।

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आयु, शिशक्षा, परिरवेश इत्यादिद कारणों स े यहा ँ के मराठी समाज के तिवक्षिभन्न वगu में बहुभातिर्षकता तथा भातिर्षक सामथ्य) का स्तर अलग-अलग है। इसका तिवशे्लर्षण तिनम्नशिलखिखत है।

1.वृद्ध व्यचिक्त —

भार्षा, संस्कृतित तथा परम्पराओं के संरक्षण एव ं तिनव)हन का गुरूगम्भीर दाधियत्व सदैव समाज के बुजÕग) और वृद्ध लोगों पर ही होता है। वाराणसी के मराठी समाज के वृद्ध लोग अपनी मातृभार्षा के अनुरक्षण के प्रतित तिवशेर्ष रूप से सचेd हैं। धम), शिशक्षा तथा कला के तिवक्षिभन्न क्षेत्रों से जुड़े होने के कारण महाराष्ट्री समुदाय के बुजÕग) वग) के पुरुर्ष प्रायः बहुभार्षी हैं। तिकन्तु घर परिरवार में ये तिवशुद्ध मराठी में ही बात करते हैं एवं समुदाय के अन्य लोगों के साथ बातचीत में भी ये मराठी का ही प्रयोग करते हैं। इनके _ारा बोली जाने वाली मराठी अधिधक शुद्ध व परिरमार्जिज<त है। अन्य भार्षाओं का प्रयोग भी ये दक्षतापूव)क बड़ी सहजता से करते हैं। वृद्ध मतिहलाए ँतिवशुद्ध मराठी बोलती हैं तथा इनके _ारा अन्य भार्षाओं के प्रयोग का प्रतितशत बहुत कम है। वृद्ध वग) के लोग पत्र व्यवहार तथा शिलखने-पढ़ने के अन्य कायu में मराठी का ही प्रयोग करते हैं। धार्मिम<क कृत्यों में ये लोग मराठी के साथ-साथ संस्कृत का भी समान रूप से प्रयोग करते हैं। मराठी समुदाय का वृद्ध वग) संस्कृत का अच्छा ज्ञान रखता है तथा उसका सम्यक प्रयोग भी करता है। तिवक्षिभन्न भार्षाओं के सन्दभ) में इनकी भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित को हम इस प्रकार समझा सकते हैं—

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 मराठी कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

3 अंग्रेज़ी कुशल सामान्य सामान्य अAप

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4 भोजपुरी सामान्य सामान्य नहीं नहीं

5 संस्कृत कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

6 उदू6 नहीं नहीं नहीं नहीं

2. काय6 क्षेत्र से जुqे लोग —

तिवक्षिभन्न काय)क्षेत्रों से जुड़े लोगों में क्षिभन्न-क्षिभन्न भार्षाओं के ज्ञान तथा प्रयोग का स्तर उनके सामाजिजक परिरवेश तथा दैतिनक काय)कलाप में समे्प्रर्षण की आवश्यकता पर तिनभ)र करता है। वाराणसी जैसे तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में रहने के कारण मराठी समुदाय के लगभग सभी लोगों को तिहन्दी भार्षा का बहुत अच्छा ज्ञान ह ै तथा य े लोग अपने दैतिनक भातिर्षक व्यवहार में मराठी के बाद तिहन्दी का ही सवा)धिधक प्रयोग करते हैं। जैसातिक हम पहले भी उAलेख कर चुके हैं तिक मराठी समाज के अधिधकांश लोग नौकरीपेशा हैं और शिशक्षा के क्षिभन्न-क्षिभन्न क्षेत्रों से सम्बद्ध हैं। तिवक्षिभन्न सरकारी व गैरसरकारी सेवाओं से जुड़े महाराष्ट्री बन्धु मराठी के साथ-साथ तिहन्दी और अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार क्षिभन्न क्षिभन्न सामाजिजक सन्दभu में ये लोग भोजपुरी या काशिशका के प्रयोग में भी काफी कुशल हैं। महाराष्ट्री बनु्धओं का वैसे तो कारोबारी क्षेत्रों की ओर झुकाव कम ही होता है तिकन्तु तिफर भी जो कुछ लोग तिवक्षिभन्न व्यवसायों स े सम्बद्ध हैं। उनके भातिर्षक व्यवहार म ें मराठी के अतितरिरक्त तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका व उदू) का महत्वपूण) स्थान है। तिवक्षिभन्न काय)के्षत्रों से जुडे़ मराठी बनु्धओं की क्षिभन्नक्षिभन्न भार्षाओं में भातिर्षक दक्षता को ताशिलका के माध्यम से इस प्रकार दशा)या जा सकता है-----

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 मराठी कुशल कुशल कुशल कुशल

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2 हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल/सामान्य

3 अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

4 भोजपुरी कुशल कुशल सामान्य सामान्य

5 संस्कृत सामान्य अAप/नहीं सामान्य/अAप अAप/नहीं

6 उदू6 सामान्य/अAप अAप नहीं नहीं

3. मषिहलाएँ —

वाराणसी के महाराष्ट्री समुदाय की मतिहलाए ँस्वाभातिवक रूप से अपने भातिर्षक व्यवहार में मराठी का सवा)धिधक प्रयोग करती हैं। मातृभार्षा मराठी के अनुरक्षण का दाधियत्व वस्तुतः इन्ही पर है। मराठी के साथ-साथ तिहन्दी भार्षा का भी समुशिचत प्रयोग करती हैं। जो मतिहलाए ँतिवक्षिभन्न काय) के्षत्रों से जुड़ी हैं वे अपने दैतिनक भातिर्षक व्यवहार में मराठी, तिहन्दी के अतितरिरक्त अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करती हैं। भोजपुरी या काशिशका का भी इन्हें ज्ञान होता है। और वहीं केवल घर परिरवार के बीच ही रहने वाली महाराष्ट्री मतिहलाए ँमराठी का ही सवा)धिधक प्रयोग करती हैं। तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में रहने के कारण इन्हें तिहन्दी भार्षा का सहज ज्ञान है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग कर लेती हैं। तिकन्तु अंग्रेज़ी भार्षा का प्रयोग अAप ही करती हैं। धार्मिम<क कृत्यों व अनुष्ठानों म ें य े संस्कृत का भी प्रयोग करती हैं। अतः मराठी मतिहलाओं में भी काय)क्षेत्र से जुड़ी तथा घरपरिरवार में रहने वाली मतिहलाओं की भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित अलग-अलग है। इस तथ्य को दो क्षिभन्न ताशिलकाओं के _ारा भली प्रकार समझा जा सकता है ---

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(काय6क्षेत्र से जुqी मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

मराठी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

संस्कृत सामान्य अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

(घर में रहने वाली मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

मराठी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल/सामान्य सामान्य सामान्य/अAप अAप

अंग्रेज़ी सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप/नहीं नहीं नहीं

संस्कृत सामान्य सामान्य/अAप सामान्य अAप

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

4. युवा वग6 तथा बचे्च —

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वाराणसी के मराठी समुदाय के बच्चे मराठी बोलते ह ैं शिलख भी लेत े हैं। महाराष्ट्री बन्धु अपनी मातृभार्षा के संरक्षण के प्रतित सचेd हैं इसशिलए वे अपने बच्चों को घर में ही मराठी की समुशिचत शिशक्षा देते हैं जिजसके फलस्वरूप महाराष्ट्री समुदाय की नई पीढ़ी में बोलना, शिलखना, समझना व पढ़ना भार्षा के चारों रूप भली प्रकार जीतिवत हैं। तिकन्तु यह भी सत्य ह ै तिक य े बच्च े अपना अधिधक स े अधिधक समय स्कूल म ें खेलकूद व अन्य शैक्षक्षिणक गतिततिवधिधयों में व्यतीत करते हैं। अतः घर से बाहर वे तिहन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। स्कूलों में भी शिशक्षा का माध्यम तिहन्दी या अंग्रेजी है। इस कारण मराठी समुदाय के बच्चों को तिहन्दी तथा अंगे्रज़ी भार्षा का समुशिचत ज्ञान ह ै तथा य े इन भार्षाओं का प्रयोग अत्यन्त कुशलतापूव)क करते हैं।

वाराणसी के मराठी समाज के युवा वग) की भी स्थिस्थतित लगभग ऐसी ही है। यहाँ रहने वाले अधिधकांश महाराष्ट्री युवाओं को अपनी दैतिनक शैक्षिक्षक व अन्य गतिततिवधिधयों में मराठी भार्षा को सीखने, शिलखने तथा पढ़ने के अवसर सहजता से नहीं धिमल पाते हैं। अतः इन्हें तिवशेर्ष प्रयत्न _ारा मराठी भार्षा म ें शिलखने तथा पढ़ने म ें दक्षता अर्जिज<त करनी होती है। मराठी समुदाय के युवा प्रायः उच्च शिशक्षा ग्रहण करते हैं जिजसके कारण वे अंग्रेज़ी भार्षा के प्रयोग में तिनपुण होते हैं तथा किह<दी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान होता है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये समुशिचत प्रयोग कर लेते हैं। तिवक्षिभन्न भार्षाओं में इनकी दक्षता का तिववरण इस प्रकार है—

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

मराठी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल

अंग्रेज़ी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य सामान्य अAप नहीं

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संस्कृत सामान्य अAप/नहीं अAप अAप

उदू6 अAप अAप नहीं नहीं

इस प्रकार वाराणसी में तिनवास करने वाले मराठी समाज के तिवक्षिभन्न आयुवग) के लोगों की भातिर्षक दक्षता के तिवशे्लर्षण से यह स्पd है तिक यहाँ रहने वाले महाराष्ट्री बन्धु लम्बे समय से अन्य भार्षा भातिर्षयों के सम्पक) में हैं। अतः ये लोग अन्य भार्षाओं के प्रयोग में भी पया)प्त तिनपुण हैं। कुछ लोग जैसेतिक बडे़-बुजÕग) और मतिहलाए ँजोतिक अन्य भार्षाओं के सम्पक) में कम आते हैं तथा केवल मराठी का ही मुख्य रूप से प्रयोग करते हैं ।उनका अन्य भार्षाओं का ज्ञान सीधिमत है। तिकन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है। काय)क्षेत्र से जुडे़ लोगों युवा वग) तथा बच्चों को तिहन्दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी या काशिशका का भी अच्छा ज्ञान है। मराठी समुदाय के लोगों को पारम्परिरक रूप से संस्कृत भार्षा का भी अच्छा ज्ञान है। अतः यह सुस्पd है तिक वाराणसी का महाराष्ट्री समुदाय पूण)तया बहुभार्षी है।

बहुभातिर्षकता के परिरणामस्वरूप वाराणसी के मराठी समाज _ारा प्रयुक्त तिवक्षिभन्न भार्षाओं ने परस्पर एक दूसरे को प्रभातिवत तिकया है जिजसका प्रभाव तिवक्षिभन्न भातिर्षक स्तरों पर कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न व आगत शब्दों के प्रयोग की बहुलता के रूप में स्पd दिदखलायी पड़ता है। जिजसका तिवस्तृत तिववरण इस प्रकार है।–

(क) कोड - मिमश्रण –

लम्बे सहअल्किस्तत्व तथा अन्य भार्षाओं के पारस्परिरक प्रभाव के कारण बनारस में रहने वाले मराठी समाज की मातृभार्षा मराठी भी बहुत प्रभातिवत हुई है। बहुभातिर्षक स्थिस्थतित के कारण अन्य भार्षाओं के अनेकों शब्द यहाँ बोली जाने वाली मराठी में सहज ही घुलधिमल गए हैं। तिहन्दी भार्षा ने सबसे अधिधक प्रभातिवत तिकया है। अंगे्रज़ी तथा संस्कृत भार्षा का भी काफी प्रभाव स्पd दिदखलायी पड़ता है। इसी प्रकार महाराष्ट्री समुदाय के लोगों _ारा बोली जाने

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वाली तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका में मराठी, संस्कृत तथा अंग्रेज़ी का प्रभाव साफ नज़र आता है। क्योंतिक महाराष्ट्री बन्धु भी अपने घर-परिरवार तथा नाते-रिरश्ते व अपने समुदाय के अन्य लोगों के साथ मराठी भार्षा म ें ही बातचीत करते ह ैं तिकन्त ु अपन े काय)स्थल तथा तिवक्षिभन्न सामाजिजक अवसरों पर अन्य समुदायों के लोगों से वाता)लाप में तिहन्दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी या काशिशका का ही प्रयोग करते हैं। जिजसके कारण उनके भातिर्षक व्यवहार में कोड-धिमश्रण की प्रचुरता है। जैसे—

(मराठी वाक्य में हिहFदी तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1) वत)मान मदे महाराष्ट्री भार्षा ची कैसी स्थिस्थतित आहे।

2) आई नवीनला कमीज नेसवते।

3) त्याला घर यायला सांजावले।

4) हा रेगुलेशन फार दिदवसां पासून चालत आला आहे।

(हिहFदी वाक्य में मराठी तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1) अरे आप कहाँ चले थांबा - थांबा महाराज इनकी रिरक्वेस्ट भी तो सुन लीजिजए।

2) उसने कहा तो था तिक आएगा और मेरे साथ यूषिनवर्सिसFटी चलेगा, उसे नोंदणी के बारे में पता करना था लेतिकन परत आया ही नहीं।

3)भार्षा की स्थिस्थतित अपनी बरोबर Mांगली है, बट तिपछले कुछ सालों में थोड़ी डाउन हुई है।

(ख) कोड - परिरवत6न — Page 137

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यहाँ रहने वाले महाराष्ट्री बन्धुओं के भातिर्षक व्यवहार में कोड-परिरवत)न की भी बहुतायत है क्योंतिक स्वाभातिवक रूप से ऐसा होता है तिक यदिद कोई मराठी व्यशिक्त अपने समुदाय के तिकसी व्यशिक्त से मराठी में बात कर रहा हो और तभी कोई अन्य भार्षा भार्षी वहाँ आ जाए तो वह तुरंत तिहन्दी या तिकसी अन्य भार्षा में बात करना शुरू कर देता है तथा तिफर सम्प्रेर्षण के शिलए आवश्यकता अनुसार मराठी,तिहन्दी, भोजपुरी या अंगे्रज़ी पर शिशफ्ट होता रहता है। ऐसी भातिर्षक स्थिस्थतित अकसर ही दिदखलायी पड़ती है।

जैसे 1) मैं आपके कहने का अथ) समझ गया। आई , मूल मराठी मदे सांग।

किह<दी मराठी

5) न्यू जेनरेशन मदे जे मराठी लोक आहे त्यानची भार्षा बदल त्याना माहीती अंग्रेज़ी मराठी

हवी आहे। आपलया मदे महाराष्ट्री लोका मदे माने खासकर युवावग) में जो मराठी किह<दी

मदरटंग अवैरनेस रीसेन्टली डेवलेप हुई है वो ही तिवशेर्ष रूप से उAलेखनीय अंग्रेज़ी किह<दीहै।

(ग) अन्य प्रभाव –

दीघ)कालीन सहअल्किस्तत्व तथा भार्षा-सम्पक) की सुदीघ) स्थिस्थतित के कारण वाराणसी के अन्य भातिर्षक समुदायों की भाँतित महाराष्ट्री समुदाय भी ति_भार्षी तथा बहुभार्षी है जिजसके फलस्वरूप यहाँ के महाराष्ट्री बन्धुओं की मराठी भार्षा पर किह<दी, अंग्रेज़ी तथा काशिशका का बहुत प्रभाव पड़ा है। कोड-धिमश्रण तथा कोड-परिरवत)न के

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अतितरिरक्त कई अन्य प्रभाव भी दिदखलायी पड़त े ह ैं यथा इकाई-संकरता आदिद। इसके अतितरिरक्त वाराणसी के मराठी बन्धु अपने भातिर्षक-व्यवहार में मराठी भार्षा के बहुप्रचशिलत शब्दों को छोड़कर किह<दी के शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। जैसे—

मानक मराठी—बटाटा ची भाजी।

बनारसी मराठी—आलू ची भाजी।

वाराणसी में बोली जाने वाली मराठी में वाक्य संरचना के स्तर पर भी तिहन्दी के प्रभावस्वरूप अन्तर दिदखलायी पड़ता है।

मानक मराठी—कोनाड़ात अमुक वस्तु ठेव। बनारसी मराठी—आलां चे अमुक वस्तु दिठयुन दे।

मानक मराठी—शेगड़ी लाऊँ दे। बनारसी मराठी—चूAहा जलाऊँ दे।

मानक मराठी---- नदीला पूर आला। बनारसी मराठी ---- नदीला बाढ़ आली।वाराणसी में रहने वाले महाराष्ट्री समुदाय के लोग अपनी मातृभार्षा मराठी के भातिर्षक प्रयोग के प्रतित अत्यंत सजग ह ैं और अपने दैतिनक वाता)लाप म ें मराठी भार्षा का अधिधकाधिधक प्रयोग करते ह ैं तिकन्तु तिफर भी ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता के प्रभाव स्वरूप उनके भातिर्षक व्यवहार में कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न तथा अन्य प्रभाव स्पd दृधिdगोचर होते हैं। कालान्तर में बनारस में बसे मरादिठयों की मातृभार्षा का स्वरूप महाराष्ट्र की मानक मराठी भार्षा से खासा अलग हो जाएगा। अपने मूल क्षेत्र से बाहर दूसरे परिरवेश में बसे लोगों के शिलए अपनी भार्षा का अनुरक्षण कुछ पीदिढ़यों बाद कदिठन हो जाता है। तिफर भी अपनी

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परम्परा, अपनी संस्कृतित को बचाए रखने के शिलए अपनी भार्षा का अनुरक्षण आवश्यक होता है।

4.4 मातृभाषा अनुरक्षणःः—

वाराणसी में आकर बसने वाले भातिर्षक समुदायों में से अपनी मातृभार्षा के प्रतित अनुरक्षण की प्रबल भावना मराठी भार्षी समुदाय में देखने को धिमलती है। अपनी मातृभार्षा के प्रतित सभी लोगों का सहज लगाव होता है, अतः वे मातृभार्षा की अल्किस्मता बचाए रखने के शिलए अनेकों प्रयास करते हैं। वाराणसी के मराठी बन्धु भी अपनी भार्षा, संस्कृतित, रीतित-रिरवाज तथा संस्कारों को संरक्षिक्षत कर वाराणसी के नागरिरक कहलाने का गौरव बनाए हुए हैं। मराठी सुदाय के लोग अपनी परम्पराओं तथा रीतित-रिरवाजों का तिनष्ठा पूव)क पालन करते हैं, तथा अपने सभी त्यौहार बड़े धूमधाम स े मनात े हैं। वाराणसी में गणेशउत्सव धूम धाम से मनाया जाता है, यह मराठी बन्धुओं की देन है। इनके व्यवहार और अपनेपन के कारण स्थानीय लोग भी इनके त्यौहारों में शाधिमल होते हैं, और आनंद उठाते हैं। वाराणसी के मराठी समुदाय में अधिधकांश परिरवार शिशक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं, कुछ व्यवसाय से और कुछ मंदिदरों-मठों से। इनके पूजापाठ आदिद धार्मिम<क कायu को करने की शैली महाराष्ट्र से धिमलती है, अतः यहाँ उनके तिववाह संस्कार की रस्में, उपनयन संस्कार तथा तीज-त्यौहार मनाने की तिवधिध उनको सबसे अलग पहचान दिदलाती है। ये सभी कायu में मराठी भार्षा और संस्कृत का प्रयोग करते हैं। वाराणसी में इनके षिनवास �ान दुगा6घाट, केदारघाट, गणेशमहाल, चिसन्धि�याघाट आठिद मोहल्लों में हैं।

मराठी समुदाय के लोगों में अधिधकांश लोग अध्यापन के काय) से जुड़े हैं, अतः जिजतना समय वे अन्य भार्षा के सम्पक) में रहते हैं तिहन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, अपने समुदाय व परिरवार में मराठी का ही प्रयोग करते हैं। इनके अन्य भातिर्षक व्यवहार में भी

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अपनी मराठी शैली झलकती है और अन्य लोगों से क्षिभन्न बनाती है। इनके परिरवार एकाकी रूप में अधिधक हैं, कुछ ही परिरवार संयुक्त रूप में देखने को धिमलते हैं अतः पुरानी पीढ़ी के सम्पक) में रहने के कारण नई पीढ़ी भी अपनी मातृभार्षा से अधिधक जुड़ी रहती है। इनके अधिधकांश परिरवारों की मतिहलाए ँशिशक्षिक्षत होती हैं तिफर भी घरों वे शुद्ध मराठी भार्षा का ही प्रयोग करती हैं। ये बच्चों को अपने संस्कारों के साथ साथ परम्परा व भातिर्षक ज्ञान भी देती हैं। मतिहलाओं का पहनावा अपनी संस्कृतित की तिवशिशd पहचान होता है, परन्तु ये मतिहलाए ँसामान्यतया साड़ी का ही प्रयोग करती हैं, तिकसी तिवशेर्ष प्रोजन या अवसर पर ये पारम्परिरक लांग दार की साड़ी पहनती हैं।

मराठी संगीत का प्रचलन वाराणसी में अभी नहीं है अतः सभी प्रकार के संगीत में इनकी रुशिच रहती है। अपनी भार्षा और संस्कृतित को सुदृढ़ बनाने के शिलए ये मराठी समुदाय के लोग समय समय पर अपने मठों में तिवक्षिभन्न प्रकार के आयोजन करते ह ैं साथ ही अपने समस्त काय)aम मराठी भार्षा में शिलखवाकर बाँटते हैं। दूरदश)न पर मराठी चैनल का चलन भी बढ़ा है। मराठी भार्षा में समाचार, तिफAमों आदिद के माध्यम से ये अपनी मातृभार्षा को और सुदृढ़ बनाते हैं। मराठी समुदाय में भी मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रवृक्षि` को दो वगu में बाँटा जाकता है—

1. पूण) मातृभार्षा अनुरक्षण 2. आंशिशक मातृभार्षा अनुरक्षण

मराठी समुदाय के प्रत्येक वग) के लोगों में भातिर्षक ज्ञान का स्तर अलग अलग है। बुजुग) वग) के लोग हैं जो घर परिरवार और अपने ही समाज से अधिधक जुड़े हैं उन्होंने अपनी मातृभार्षा को पूण) रूप स े अनुरक्षिक्षत रखा है। मराठी बुजुग) मतिहलाए ँघर म ें भी पारम्परिरक वस्त्र पहनती हैं। परम्परा के साथ साथ अपनी मातृभार्षा को सुरक्षिक्षत रखन े का काय) इन

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मतिहलाओं पर होता है, जिजसका वे तिनष्ठापूव)क तिनवा)ह करती हैं। मराठी समाज के लोगों में सबसे शुद्ध मातृभार्षा पुरानी पीढ़ी की सुनने को धिमलती है, जो अधिधकांशतः अपने समुदाय के काय)aमों से जुड़े होते हैं या घर परिरवार में ही अधिधक समय व्यतीत करते हैं। जो लोग अधिधक समय से काशी में रहे हैं उनकी मातृभार्षा मूल मराठी से क्षिभन्न हो गई है। ऐसे और भी बहुत से कारण हैं जिजनके कारण इनकी मातृभार्षा प्रभातिवत हुई है, जैसै राजनैतितक, सामाजिजक गतिततिवधिधयाँ। शिशक्षा और पासपड़ोस का परिरवेश भी महत्वपूण) कारण हो सकते हैं।

नई पीढ़ी जो अधिधक स े अधिधक अन्य भातिर्षक समुदायों के सम्पक) म ें रहती ह ै उनकी मातृभार्षा सबसे अधिधक प्रभातिवत हो गई है। वे अपने दिदन भर में से अधिधकांश समय कई कारणों से घर से बाहर अन्य भार्षा-भातिर्षयों के साथ तिबताते हैं, अतः अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त दूसरी भार्षाओं जैसे तिहन्दी तथा काशिशका का प्रयोग करते हैं। इस कारण अपनी मातृभार्षा के समान ही तिहन्दी व काशिशका पर भी इनका समान अधिधकार है

1. पूण6 मातृभाषा अनुरक्षण—

वाराणसी के मराठी समुदाय को तीन वगu में बाँटा जा सकता है, क्योंतिक तीनों वगu में मातृभार्षा अनुरक्षण की स्थिस्थतित अलग अलग है। मराठी समुदाय के बुजुग) वग) में खासकर मतिहलाओं ने अपनी मातृभार्षा को लगभग पूण) रूप से सुरक्षिक्षत रखा है। इसके अलावा वाराणसी में मराठी संगठनों को स्थातिपत करने वाले लोग जो इन संस्थाओं से सतिaय रूप से जुड़े हैं उन्होंने भी अपनी मातृभार्षा को पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत तिकया है। अपनी मातृभार्षा के मौखिखक रूप के साथ साथ शिलखिखत रूप को भी अनुरक्षिक्षत तिकया है। मराठी समुदाय में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है जिजनकी मातृभार्षा पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत है, कुछ लोग ऐसे हैं जो अशिशक्षिक्षत होने के कारण मराठी भार्षा के शिलखिखत रूप से अनक्षिभज्ञ हैं वे बोलचाल की मराठी को पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत तिकए हैं परन्तु पढ़ शिलख नहीं पाते। भार्षा का

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शिलखिखत रूप मानक होता है। अशिशक्षिक्षत लोगों में भार्षागत भेदोपभेदों की बहुतायत रहती है। उनके उच्चारण और व्याकरक्षिणक संरचना में मानकता का अनुपात कम रहता है और पीढ़ी दर पीढ़ी उ`रो`र कम होता जाता है।

2. आंशिशक मातृभाषा अनुरक्षण—

वत)मान समय की पीढ़ी अपनी आवश्यकता अनुसार मातृभार्षा को महत्व देती है। स्कूल कॉलेजों में दूसरी भार्षाओं के प्रयोग के कारण ये अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर पाते हैं। आसपास की गतिततिवधिधयों में भी ये तिहन्दी या भोजपुरी का प्रयोग करते हैं अतः इनकी मातृभार्षा घरों तक ही सीधिमत हो गई है। मराठी भार्षी समुदाय की नई पीढ़ी में मातृभार्षा अनुरक्षण को आंशिशक रूप से देखा जा सकता है, ये लोग धार्मिम<क व सांस्कृतितक आयोजनों में बढ़ चढ़ कर तिहस्सा लेते हैं। मराठी समुदाय के लोग अपने बच्चों को मराठी शिलतिप व भार्षा पढ़ाने शिलखाने के शिलए कैं प का आयोजन करते हैं जिजनमें ये अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही भार्षा शिशक्षण में रुशिच लेते हैं। मध्यम उम्र वग) के लोग जो व्यवसाय आदिद से जुड़े हैं उनकी मातृभार्षा भी प्रभातिवत हो जाती है, ये लोग भी अधिधक से अधिधक दूसरे भातिर्षक समाज के मध्य लंबे समय तक रहते हैं, अतः तिहन्दी व भोजपुरी का प्रयोग मातृभार्षा की तुलना में अधिधक होता है।

मराठीभार्षी परिरवारों में मराठी भार्षा आपस में प्रयोग में लाने के बाद भी घर के प्रत्येक सदस्य को मातृभार्षा म ें तिनपुण नहीं माना जा सकता क्योंतिक प्रत्येक सदस्य अपनी आवश्यकता के अनुसार भार्षा का प्रयोग करता है, अतः मातृभार्षा से लगाव होते हुए भी ये उसके मानक रूप का प्रयोग अपनी दिदनचया) म ें शाधिमल नहीं कर पाते। अन्य भातिर्षक समुदायों के मध्य अपनी मातृभार्षा को सुरक्षिक्षत कर पाना चुनौती भरा काम है। तिफर भी अन्य भातिर्षक सुदायों की तुलना में मराठी भार्षी लोगों ने अपनी मातृभार्षा को अधिधक से अधिधक सुरक्षिक्षत रखने का प्रयास तिकया है। वाराणसी के मराठी समुदाय की मातृभार्षा तिहन्दी

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व भोजपुरी/काशिशका से अधिधक प्रभातिवत हुई है। पढे़ शिलखे लोग मातृभार्षा के प्रयोग के बीच अंग्रेजी के शब्दों को भी धिमक्षिश्रत करते हैं।

.4 5 भाषिषक षिव�ापन का स्वरूपःः— एक भार्षा के स्थान पर दूसरी भार्षा का प्रयोग आरम्भ होना भातिर्षक तिवस्थापन कहलाता है। कोई भी भार्षायी समाज अपनी आवश्यकता के शिलए अपनी मातृभार्षा के इतर अन्य तिकसी भार्षा का प्रयोग आरम्भ कर देता है यह प्रयोग इतना अधिधक होने लगता है तिक उसकी अपनी मातृभार्षा का स्थान कोई अन्य भार्षा ले लेती है। उसे भातिर्षक तिवस्थापन की संज्ञा दी जाती है।

जैसे जैस े मनुष्य मातृभार्षा के अतितरिरक्त अन्य भार्षा का प्रयोग अधिधक करता चलता है भातिर्षक तिवस्थापन स्वतः होना शुरू हो जाता है। जब मनुष्य का तिनवास स्थान तिवस्थातिपत होता ह ै तब ही भार्षा तिवस्थापन की सम्भावनाए ँबनन े लगती हैं, तिनवास स्थान जिजस भार्षाभार्षी क्षेत्र के पास होगा, आस पास की भार्षा वैसी होगी अपने दैतिनक काय) के शिलए उस के्षत्र की भार्षा को प्रयोग में लाना पड़ता है। उस भार्षा के प्रयोग पर तिनभ)र करता है तिक भातिर्षक तिवस्थापन तिकस स्तर का हो सकता है। जब वाराणसी में मराठाओं का आगमन हुआ था तब वे समूह में यहाँ आए थे अतः ये आपस में मराठी भार्षा का ही अधिधक प्रयोग करते थे। शिशक्षा से सम्बन्धिन्धत काय) संस्कृत में होता था, पूजा-पाठ इत्यादिद भी संस्कृत में होते थे। इस समय इनकी मातृभार्षा का स्तर प्रबल था तथा काशिशका या तिहन्दी सहायक भार्षा के रूप म ें होती थी। आगे चलकर मराठी समूह के लोग वाराणसी म ें ही तिवक्षिभन्न गतिततिवधिधयों से जुड़ गए और यहाँ पैदा हुई नई पीढ़ी बड़ी हो गई तब दोनों भार्षाओं पर इनका समान अधिधकार रहने लगा। ये अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त काशिशका पर भी समान अधिधकार रखने लगे। धीरे धीरे इनके आगे की पीढ़ी मराठी भार्षा शिशक्षण की उशिचत व्यवस्था

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न होने के कारण मातृभार्षा के स्थान पर अन्य भार्षा पर ज्यादा तिनभ)र रहने लगी। अतः इनमें अपनी मातृभार्षा का स्तर बहुत तिनम्न हो गया।

वाराणसी में तिनवास करने वाले मराठी भार्षी समुदाय के सन्दभ) में भी यदिद हम मराठी भार्षा को प्रथम भार्षा A तथा तिहन्दी को ति_तीय भार्षा B मानें तो तिवस्थापन प्रतिaया की स्थिस्थतित तिनम्न प्रकार की होगी।

1. मुख्य स्थिस्थतित : A2. सहायक स्थिस्थतित :Ab3. परिरपूरक स्थिस्थतित :AB4. आंशिशक प्रतितस्थापन की ओर स्थिस्थतित :aB5. प्रतितस्थातिपत स्थिस्थतित :B

वाराणसी के मराठी भार्षी समुदाय के अधिधकांश परिरवार कई पीदिढ़यों से यहाँ रह रहे हैं । इन परिरवारों की तिवक्षिभन्न पीदिढ़यों के माध्यम से भातिर्षक तिवस्थापन की स्थिस्थतित को स्पd रूप से इस प्रकार से समझा जा सकता है। जिजसमें मराठी भार्षा A तथा B तिहन्दी भार्षा है।

1. मुख्य स्लि�षित : A – महाराष्ट्र के मरादिठयों की मुख्य भार्षा मराठी है। जब वे वाराणसी आकर बस े तब उनकी मातृभार्षा शुद्ध मराठी भार्षा थी, अतः उनकी मातृभार्षा पर तिकसी अन्य भार्षा जैसे तिहन्दी या भोजपुरी का कोई प्रभाव नहीं था। ऐसी स्थिस्थतित में मराठी भार्षी अपना मातृभार्षा में दक्ष होते थे। नवागन्तुक मराठीभातिर्षयों में ऐसे दक्ष मातृभार्षी लोग अभी भी धिमलेंगे।

2. सहायक स्लि�षित : Ab -- सबसे पहले जो पीदिढ़याँ वाराणसी आयीं उनकी तथा आगे की कुछ अन्य पीदिढ़यों की मुख्य भार्षा मराठी थी तथा सहायक भार्षा के रुप

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में वे तिहन्दी या तिकसी भी अन्य भार्षा का अत्यAप प्रयोग कर अपने काय) सम्पन्न करते थे। अतः उनके भातिर्षक व्यवहार में मातृभार्षा मराठी की स्थिस्थतित अत्यन्त मजबूत थी, तथा अन्य भार्षाओं की स्थिस्थतित अतित क्षीण। वे वाराणसी में अधिधक से अधिधक मराठी भार्षा का ही प्रयोग करते थे। तिहन्दी को सहायक भार्षा के रूप में इस्तेमाल तिकया जाता था। उनके वाक्यों में मराठी भार्षा शैली और शब्दों की भी बहुतायत होती थी। तिहन्दी या काशिशका के प्रयोग करते समय वे अपने को असहज महसूस करते थे। इस स्थिस्थतित में मराठी भार्षी अपनी मातृभार्षा के दोनों रूपों शिलखिखत व मौखिखक में दक्ष होता है व तिहन्दी के केवल मौखिखक रूप का सहारा लेता है।

3. परिरपूरक स्लि�षित : AB- शनैः शनैः आगे की पीढ़ी के लोग दोनों भार्षाओं का लगभग समान रूप से प्रयोग करन े म ें दक्ष हो गए, क्योंतिक लम्ब े समय से तिवक्षिभन्न भार्षाओं के सहअल्किस्तत्व की स्थिस्थतित में रहने के कारण ये लोग भोजपुरी या काशिशका तथा तिवशेर्ष रूप से तिहन्दी के प्रयोग में अपनी मातृभार्षा मराठी के समान ही कुशल हो गए। यह स्थिस्थतित परिरपूरक स्थिस्थतित कहलाती है। ये लोग मातृभार्षा के समान तिहन्दी भार्षा को भी शिलख पढ़ लेते हैं। अतः वाराणसी म ें रहने वाला लगभग प्रत्येक मराठी भार्षी तिहन्दी का प्रयोग अपनी मातृभार्षा मराठी के समान सहज रूप से करता है। इस स्थिस्थतित तक आते आते मराठी भार्षी सहायक भार्षा तिहन्दी के भी दोनों रूपों में दक्ष हो ही जाता है, वह अपनी मातृभार्षा के समान ही तिहन्दी का मौखिखक व शिलखिखत प्रयोग कुशलता से करने लग जाता है। 4. आंशिशक प्रषित�ापन की ओर स्लि�षित : aB- आज की युवा पीढ़ी स्कूल कॉलेजों व अन्य गतिततिवधिधयों में तिहन्दी या काशिशका का प्रयोग अधिधक करती हैं व अपनी मातृभार्षा मराठी का प्रयोग अAप होता है। ये अपने घर परिरवार में तथा अपने समुदाय के अन्य लोगों के साथ वाता)लाप में मराठी भार्षा के साथ साथ तिहन्दी व भोजपुरी का प्रयोग करती हैं तथा अन्य सामाजिजक क्षेत्रों में तो स्वाभातिवक रूप से तिहन्दी

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भोजपुरी या काशिशका का प्रयोग करती है। इस प्रकार कुल धिमलाकर इनके भातिर्षक व्यवहार में मराठी भार्षा के प्रयोग का प्रतितशत तिहन्दी की तुलना में कम होता जा रहा है। मराठी भार्षा की शिलतिप देवनागरी होने के कारण इसेे आसानी से पढ़ा जा सकता है लेतिकन मराठी भार्षा के ज्ञान के अभाव के कारण इस े समझन े म ें कदिठनाई होती ह ै जिजसका सामना वत)मान समय की पीढ़ी कर रही है। नई पीढ़ी अपनी मातृभार्षा मराठी के केवल मौखिखक रूप का ही प्रयोग करती है अपने समाज में भी शिलखिखत रूप की उनको कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती इसकी तुलना में ये लोग तिहन्दी के शिलखिखत व मौखिखक दोनों रूपों में दक्ष होते हैं। अतः आज की युवा पीढ़ी मराठी से तिहन्दी पर प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित की ओर अग्रसर हो रही है। 5.प्रषित�ाषिपत स्लि�षित : B—वत)मान समय में वाराणसी के मराठी समुदाय के लोग आंशिशक रूप से आज भी अपनी मातृभार्षा मराठी का प्रयोग करते हैं, भले उन्हें अपनी मातृभार्षा पढ़ने व शिलखने में कदिठनाई हो पर वे घर परिरवार में मराठी का ही प्रयोग करते हैं। प्रतितस्थापन की दृधिd से देखा जाए तो जब कोई अपनी मातृभार्षा को पूरी तरह से छोड़कर अन्य भार्षा पर स्थातिपत हो जाता है वह प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित कहलाती है, वत)मान समय में वाराणसी में रहने वाले मराठी भातिर्षयों ने पूण) रूप से अपनी मातृभार्षा को नहीं छोड़ा है कालान्तर में यदिद मराठी भातिर्षयों ने इसी तरह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर दिदया अथवा बंद कर दिदया और अपने व्यवहार में तिहन्दी या काशिशका ले आए तब वह स्थिस्थतित पूण) प्रतितस्थातिपत कहलाएगी।

परिरणामस्वरूप भाषा षिव�ापन की प्रषि�या

एकभार्षी >> सहायक >>परिरपूरक >>प्रषित�ाषिपत >>भार्षातिवस्थापन व पुनः एकभार्षी

स्थिस्थतित स्लि�षित स्लि�षित स्लि�षित स्थिस्थतित

A >>> Ab >>> AB >>> aB >>> B

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भार्षा तिवस्थापन में समय लगता है। तिकसी भार्षाभार्षी समाज को एकभातिर्षक स्थिस्थतित A से एकभातिर्षक स्थिस्थतित B तक पहँुचाने में बीच में ति_भातिर्षकता के तिवक्षिभन्न चरणों को पार करना होता है। इस प्रतिaया की गतित धीमी अथवा तेज हो सकती है जिजसका गहरा सम्बंध उस समाज के लोगों की इच्छा अथवा भार्षाई तिनष्ठा से होता है।

वाराणसी के मराठी भार्षी आज जो मराठी भार्षा बोलते हैं उसका स्वरूप मूल मराठी से काफी क्षिभन्न है। अपनी मानक भार्षा स े प्रतितदिदन का सीधा सम्बन्ध न रहन े के कारण वाराणसी के मराठी भातिर्षयों की भार्षा दूसरी दिदशा में तिवकशिसत हो गई है, जिजसमें तिहन्दी के शब्दों और संरचना शैली के प्रयोग की बहुतायत है। अतः भातिर्षक तिवस्थापन की प्रतिaया के अनुसार वत)मान समय में वाराणसी का मराठीभार्षी समाज भी धीरे धीरे तिवक्षिभन्न कारणों से तिवस्थापन की ओर बढ़ चला है, जो तिक शिचन्ता का तिवर्षय है। यदिद समय रहत े मराठी भातिर्षयों ने अपनी मातृभार्षा अनुरक्षण की ओर ध्यान न दिदया तो उनके समाज में मराठी भार्षा पूण) रूप से समाप्त हो जाएगी। यदिद बची रहेगी तो कमोबेश उसका रूप धिमक्षिश्रत होगा।

पहले से ही मराठी समुदाय के लोगों में शिशक्षा को लेकर उत्साह रहा है। अतः वत)मान समय की पीढ़ी आइ टी के्षत्र अधिधक अपना रही है। जो लोग अपने काय) क्षेत्र या नौकरी के शिलए वापस महाराष्ट्र की ओर अग्रसर हए हैं, उनकी मातृभार्षा सुदृढ़ होती जा रही है। अतः मराठी उनकी मातृभार्षा तो थी ही परन्तु वाराणसी में उसमें क्षिभन्नता आ गई थी। यह स्थिस्थतित तिवस्थापन से पुनः स्थापन की होती है।

4.6 वराणसी में मराठी भाषा शिशक्षणःः--

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वाराणसी में जो समुदाय आकर बसे वे अपनी संस्कृतित के साथ साथ अपनी भार्षा भी यहाँ लेकर आए। शिशक्षा के प्रतित सजग इन समुदायों ने अपनी आगे की पीढ़ी के मातृभार्षा शिशक्षण के शिलए कई पाठशालाओं की स्थापना भी की। इसी प्रकार वाराणसी म ें तिवक्षिभन्न स्थानों पर मराठी पाठशालाए ँउपलब्ध थीं, वत)मान समय म ें कुछ पाठशालाए ँबंद हो गई हैं। कुछ एक ह ैं तो उनमें मराठी भार्षा अब नहीं शिलखाई पढ़ाई जाती।

मराठी शिशक्षण संस्था के संचालक श्री खतिडलकर, श्री पावगी और श्री पाटणकर आदिद हैं। इस संस्था का वत)मान तिवद्यालय श्री अण्णासाहब नेने के अनेक वर्षu के तिनःस्वाथ) शिशक्षा संबंधी तिकए गए प्रयास का फल है। पं. तिवनायक राव हड�कर भी अपनी पाठशाला बड़ी दक्षता के साथ चला रहे हैं। कुछ वर्ष) पहले मराठा स्कूल था जो हाईस्कूल होकर कुछ समय बाद बंद हो गया।

वाराणसी में मराठी समुदाय के लोग भी शिशक्षा की ओर अपनी तिवशेर्ष रुशिच रखते हैं, जिजतने भी मराठी परिरवार काशी में हैं इनमें शिशक्षिक्षतों की संख्या सबसे अधिधक है समुदाय के लोगों न े वाराणसी मराठी भार्षा शिशक्षण के शिलए कई पाठशालाओं की स्थापना की थी। सुप्रशिसद्ध पत्रकार पराड़कर जो मराठी भार्षी परिरवार से थे उनकी प्रारल्किम्भक शिशक्षा वाराणसी में हुई है। इसी प्रकार श्री लक्ष्मण नारायण गद� ने काशी के ‘आँग्रे का बाड़ा’ नामक मराठी पाठशाला में अपनी प्रारल्किम्भक शिशक्षा प्राप्त की। वाराणसी के प्रशिसद्ध तिवश्वतिवद्यालय काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय में मराठी भार्षा का एक स्वतंत्र तिवभाग है जहाँ मराठी भार्षा शिशक्षण तथा मराठी भार्षा में शोध काय) सम्पन्न कराए जाते हैं। कई मराठी छात्र तिवद्या प्राप्त करने के शिलए भी वाराणसी आए। ऐसे कई तिवद्यालयों की स्थापना वाराणसी में की गई जिजनमें छात्रों को मराठी भार्षा पढ़ना और शिलखना शिसखाया जाता था उन्हीं में से एक गणेश तिवद्या मंदिदर है।

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वत)मान समय में मराठी समुदाय के बच्चों में मराठी भार्षा सीखने में रुशिच ना होने के कारण इन तिवद्यालयों में धीरे धीरे मराठी भार्षा शिशक्षण कम हो गया है। साथ ही मराठी भार्षा पढ़ाने वाले शिशक्षकों की भी कमी हो रही है जिजससे इन तिवद्यालयों के उ¦ेयों की पूत� में कमी आ रही है। अतः मराठी समुदाय के लोग घर में ही अपने बच्चों को मराठीभार्षा की शिशक्षा देते हैं तातिक वे अपनी मातृभार्षा के स्वरूप से परिरशिचत हो सकें ।

संस्थागत शिशक्षण, अध्ययन-अध्यापन को मजबूती प्रदान करना मराठी भार्षा अनुरक्षण के शिलए आवश्यक है।

............ ⃟⃟⃟⃟...........

पंMम अध्यायवाराणसी के गुजराती समुदाय का समाजभाषिषक अनुशीलन

5.1 गुजराती भाषा का संशिक्षप्त परिरMयः –

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तिहन्दी, मराठी या बंगला की तरह ही गुजराती भी भारतीय आय)कुल की एक मुख्य भार्षा है। गुजराती भार्षा का जन्म संस्कृत के शौरसेनी और अपभं्रश सोपानों से हुआ है। इस प्रकार अन्य आधुतिनक भारतीय आय) भार्षाओं की तरह गुजराती भी अपभं्रश से तिवकशिसत हुई है।

भारोपीय भार्षा परिरवार

भारत ईरानी

ईरानी दरद भारतीय-आय)

वैदिदक संस्कृत लौतिकक संस्कृत-(प्राचीन भा. आ.)

पाशिल

प्राकृतें

शौरसेनी प्राकृत

शौरसेनी अपभं्रश

गुजराती

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गुजराती भार्षा भारतीय आय) भार्षा परिरवार के प्राचीन भारतीय आय), मध्य भारतीय आय) और नव्य भारतीय आय) इन तीन सोपानों में से तीसरे सोपान की भार्षा है। पहले सोपान में वैदिदक भार्षा, संस्कृत आदिद आती हैं, दूसरे सोपान में पाली, प्राकृत और अपभं्रश भार्षाए ंआती है, तथा तीसरे सोपान में आधुतिनक भारतीय भार्षाए ँआती हैं।

आज दुतिनया भर में गुजराती भार्षा बोलने वालों की संख्या करीब दो करोड़ पचह`र लाख है। गुजराती भार्षा गुजरात राज्य की राज भार्षा ह ै इसके अतितरिरक्त राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्येों के गुजरात से सटे के्षत्रों में भी अधिधकांशतः यह भार्षा बोली जाती है। मुंबई की जनसंख्या का एक बड़ा भाग, गुजराती भार्षा बोलतेा है। भौगोशिलक दृधिd से उ`र में कच्छ और मेवाड़- मारवाड़, दक्षिक्षण में महाराष्ट्र का थाना जिजला, पक्षिoम में अरब सागर तथा पूव) में मालवा खानदेश तक इस भार्षा का सीमा तिवस्तार है।

श्री भोलाभाई पटेल के अनुसार "गुजराती भाषा का जन्म संस्कृत से उसके शौरसेनी और अपभ्रंश सोपानों से होकर हुआ है, :लतः गुजराती में Nम6, भचिक्त, दृषि� जैसे संस्कृत तत्सम शब्द हैं और काम आग, कान जैसे तद्भव शब्द हैं। गुजराती भाषा की शब्द सम्पदा बढ़ाने में कई भाषाओं का योगदान है। प्याला, भरोसा, MमMा, दरिरया, गरीबी जैसे शब्द अरबी-:ारसी और तुक� भाषा से चिलए गए हैं। पुत6गाली भाषा के पादरी, Mाबी, तमाकु, पाटलून, बटाटा जैसे शब्द गुजराती ने अपनाए हैं। मराठी भाषा के भी कई शब्द गुजराती में हैं- षिनदान, ताबqतोब, उलट आठिद। कुछ देशज शब्द जैसे- बाप, झाq, डंुगर, पेट आठिद भी गुजराती न े अपनाए हैं। अतः सामाजिजक व राजनैषितक परिरस्लि�षितयों के कारण अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रभाव गुजराती पर पqा है। “गुजरात पर करीब साढे़ Mार सौ वष6 तक मुसलमानी शासन रहा, :ारसी राज भाषा रही। :लस्वरूप अनेक शब्द उस भाषा से आकर गुजराती में घुलमिमल गये हैं। पशिश्चम के सम्पक6 में होने के कारण अंगे्रजी भाषा का भी प्रभाव

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गुजराती पर है। शब्द-समूह ही नहीं, वाक्य रMना आठिद पर भी उसका प्रभाव हुआ है।”

(भारतीय भार्षाए,ँ रमेश नारायण तितवारी, पृ.सं.-14)

Vowels and vowel diacritics

Consonants

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गुजराती भार्षा की अपनी शिलतिप है जिजससे उसकी अल्किस्मता परिरपुd हुई है। इसकी शिलतिप भी �ाहमी से उद्भतू है। देवनागरी लेखन में वणu के ऊपर शिशरोरेखा लगती है लेतिकन गुजराती लेखन में शिशरोरेखा नहीं लगती। इसके अधिधकतर शिलतिप शिचन्ह देवनागरी शिलतिप शिचन्हों के जैसे हैं, लेतिकन छः सात शिलतिप शिचन्ह तिबAकुल अलग हैं जैसे –

गुजराती -- तिहन्दी -- क ख ज झ ण

अलग शिलतिप के कारण गुजराती का अखबार दूर से भी पहचाना जा सकता है। गुजराती शिलतिप में शिलखी तिकताब खोलकर देखने मात्र से पहचाना जा सकता है। शिलतिप भार्षा नहीं

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होती अतिपतु वह भार्षा की पहचान अवश्य सुतिनक्षिoत करती है। अब शिशक्षिक्षत लोगों में रोमन शिलतिप का प्रयोग बढ़ा है जैसे पत्रों पर पता शिलखने में, तिवजिजदिटग काड) बनवाने में।

बारहवीं शती गुजराती के प्रशिसद्ध कतिव नरसी मेहता हैं। प्रशिसद्ध प्राकृत- वैयाकरण हेमचन्द्र भी गुजराती ही थे। गुजराती में मीरा तथा अन्य कृष्ण भक्तों की कृतितयाँ धिमलती हैं। राष्ट्र-तिपता गांधी जी ने भी अपनी आत्मकथा गुजराती में शिलखी है।

5.2 वाराणसी का गुजराती समुदाय :-(क) ऐषितहाचिसक परिरMय —

वाराणसी में सबसे पहले गुजराती कब आए यह बता पाना बहुत ही मुल्किश्कल है। लेतिकन अनुमानतः भारत के सभी कोनों से जिजस समय अन्य समुदाय के लोग आकर धीरे धीरे यहाँ बस रहे थे, उसी समय गुजराती समाज के भी कुछ कुटुम्ब यहाँ आकर बस गए होंगे। भारत में प्राचीन काल से ही एक प्रान्त से दूसरे प्रान्तों में लोगों का आवागमन चलता आ रहा है। गुजरात प्रान्त के लोग भी तिवक्षिभन्न कारणों से दूसरे प्रान्तों में बस गए हैं। उन्हीं में से कुछ गुजराती परिरवार तिवक्षिभन्न उ¦ेश्यों को लेकर वाराणसी आए और यहीं आकर बस गए। कुछ परिरवार तो अपने कुटुम्ब के साथ आकर यहाँ बस गए। कुछ वानप्रस्थी मोक्ष की प्राप्तिप्त के शिलए यहाँ आए, और कुछ धनोपाज)न की दृधिd से यहाँ आए। सबसे पहले गुजरातितयों का जो कुटुम्ब यहाँ आया वह कम)काण्ड के उ¦ेश्य से आया, तदोपरान्त कुछ तिवद्याथ� के रूप में काशी आए। जो भी नए गुजराती परिरवार वाराणसी आत े उनके रहन े स े लेकर सभी आवश्यक्ताओं की पूत� यहाँ पहले से ही रह रहे गुजराती बन्धु करते थे। श्री �जबल्लभ षि<वेदी के अनुसार "काशी में गुजराती समाज का इषितहास आज से लगभग 825 वष6 पुराना माना जा सकता है। बारहवीं शताब्दी में काशी के राजा गोषिवन्दMन्द्र के

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समकालीन कषिव दामोदर पंषिडत के ग्रन्थ उचिक्त व्यचिक्त प्रकरण में एक षिव<ान के नागर परिरवार में षिववाह की MMा6 है। काशी में आकर बसे हुए नागर कुटुम्बों में से �ानेश्वर नाम के एक नागर गृह� के वंशज साढ़ और उसके पुत्र वामन और स्कंद बारहवीं शताब्दी में अजमेर के Mौहान राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज के मन्त्री और सेनापषित थे।"

(भोग-मोक्ष समभाव, बैद्यनाथ सरस्वती, पृ.सं.-75)

पंषिडत गोपीनाथ कषिवराज _ारा रशिचत ग्रन्थ काशी की सारस्वत साNना में महीधर और वेणीद` का उAलेख धिमलता है। जिजनके परिरवार की तिव_त परम्परा लगभग 425 वर्ष) लम्बी है। महीधर के शिशष्य पद्माकर त्रैतिवद्य मोढ़ �ाह्मण थे और इनहोंने काशी में रहते हुए संवत् 1664 में प्रपंMसार टीका की प्रतितशिलतिप तैयार की थी। समू्पणा)नन्द संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय के सरस्वती भवन म ें दशिक्षणामूर्वितFस्तोत्र की दवे दीनानथ कृत शेखर नामक टीका का हस्तलेख उपलब्ध है। दवे दीनानाथ जी तांतित्रक काशीनाथ भट्ट के शिशष्य थे तथा इन्होंने संवत् 1873 में काशीनाथ भट्ट के ग्रन्थ श्राद्धषिनण6यदीषिपका की प्रतितशिलतिप तैयार की थी। सत्रहवीं शताब्दी में काशी-तिनवासी देवभद्र पाठक ने श्रौतस्मात) ग्रन्थों पर अनेक भाष्य और टीकाए ं शिलखीं और वेदान्त के सुप्रशिसद्ध ग्रन्थ वेदान्तसार पर सुबोचिNनी नाम की टीका संस्कृत में शिलखी। कदाशिचत इन्हीं के वंश में आगे चलकर तिव_ान् वामनभद्र हुए जो एक तिवख्यात मंत्रशास्त्री और कम)काण्डी थ े और जिजनकी ख्यातित पेशवा के दरबार तक थी। काशी के इस पाठक कुटुम्ब में और भी अनेक तिव_ान हुए, जिजन्होंने काफी सम्पक्षि` और यश कमाया। इनके वंशज अब भी काशी में तिवद्यमान हैं। तिकतनों की यह मान्यता है तिक फारसी में औरंगजेब के समय का प्रशिसद्ध इतितहास शिलखने वाले ईश्वरदास ने अपने बहुमूAय ग्रंथ का अधिधक भाग वानप्रस्थ जीवन तिबताते हुए काशी में ही शिलखा। इस प्रकार गुजराती तिव_ानों

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_ारा सातिहत्य के क्षेत्र में सतत् योगदान की यह सुदीघ) परम्परा काशी में लम्बे समय से उनके तिनवास का सुस्पd प्रमाण है।

वाराणसी में तिनवास करने वाले गुजराती बन्धुओं के पास उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार सव)प्रथम काशी आने वाले कुटुम्ब क्षत्रीय और कम)काण्डी �ाह्मणों के हैं। वैश्य और नौकरी करने वाले लोग प्रायः मुसलमानों के समय वाराणसी आए। नौकरी के कारण ये लोग अपने प्रांत से तिनकल कर मालवा, दिदAली, आगरा और लखनऊ होकर काशी आए और यहीं बस गए। काशी के सामाजिजक व सांस्कृतितक जीवन में यहाँ का गुजराती समाज सदैव अग्रणी रहा है।

इसी प्रकार नगर के तिवकास तथा सामाजिजक उत्थान के कायu में गुजराती कुटुम्बों ने सदा बढ़-चढ़कर भाग शिलया। बनारस की साव)जतिनक संस्थाओं को चाहे वह धार्मिम<क, सामाजिजक अथवा राजनैतितक हो, गुजरातितयों से हमेशा काफी सहायता धिमली है। काशी में नागरों की दो धम)शालाए ँहैं— नया घाट पर हाटकेश्वर भवन तथा संकटाजी के पास गणेशमहाल धम)शाला। यहीं पर इनके बनवाये तिवष्णु, गंगा और तारा मंदिदर भी हैं। गुज)र पाठशाला, बAदेवदास ठाकुर दास एन्डाउमेंट ट्रस्ट आदिद की स्थापना गुजराती समुदाय _ारा ही की गई। काशी के समाजिजक एवं सांस्कृतितक जीवन में गुजरातितयों का महत्वपूण) स्थान रहा है यही कारण है तिक सव)श्री ग्वालदास साहू, मुंशी माधोलाल, सेलटजी आदिद के नाम पर नगर के मुहAलों, सड़कों और फाटकों के नाम रखे गये हैं। राजा मंुशी माधोलाल के परिरवार से काशी की जनता भलीभांतित परिरशिचत है। इनके भाई मुंशी साधोलाल ने तत्कालीन राजकीय संस्कृत महातिवद्यालय को प्रचुर धनराशिश अनुसंधान की व्यवस्था के संचालन के शिलए दी थी। संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय बनाने तक उस महातिवद्यालय में साधोलाल छात्रवृक्षि` पाकर शताधिधक छात्र अनुसंधान काय) कर चुके हैं। श्री जगन्नाथ प्रसाद मेहता काशी की नगरपाशिलका के वर्षu अध्यक्ष रहे हैं।

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इस प्रकार वाराणसी के गुजराती समुदाय ने काशी के चँहुमुखी तिवकास, आर्थिथ<क व धार्मिम<क उन्नयन तथा काशी की पांतिडत्य परम्परा के संवध)न में अभूतपूव) योगदान तिकया है।

(ख) शैशिक्षक तथा सामाजिजक स्लि�षित -

काशी में तिनवास करने वाले गुजरातितयों ने यहाँ के समाज तथा नगर के तिवकास में सदैव महत्वपूण) भूधिमका तिनभायी है। काशी के गुजरातितयों का मुख्य काम व्यापार और नौकरी है। व्यापार और नौकरी से ही तिकतनों ने बड़ी बड़ी जमीदारिरया ँ खरीद ली हैं। कुछ गुजराती बनु्धओं ने जेवरात व जवाहरात का व्यापार कर अपना नाम कमाया और इस प्रकार ये काशी के धतिनक व्यापारिरयों के रूप में जाने जाने लगे। कालान्तर में गुजरात से कई अन्य जातितयाँ और नये व्यवसायी आये। इनमें जैन, सारस्वत खत्री, पटेल, लोहाणा आदिद की तिगनती की जा सकती है। ये लोग प्रधानतः काशी के बनारसी साड़ी और वस्त्रों के, तम्बाखू और मशीनरी के व्यवसाय म ें लग े हैं। काशी म ें कुछ पारसी और मुसलमान बोहरा व्यवसाइयों के परिरवार भी बसे हुए हैं जिजनकी संस्कृतित और मातृभार्षा गुजराती है।

कुछ लोग अभी भी यजमानी और कम)काण्ड का काम करते हैं। यजमान व़क्षि` करने वाले गुजराती �ाम्हणों में पं. शंकर जी दीक्षिक्षत का कुटुम्ब उAलेखनीय है। यह कुटुम्ब बहुत पुराना है और इसे अचे्छ अचे्छ यजमानों का आश्रय धिमला। काशी के गुजराती समाज में तिव_ानों का कभी आभाव नहीं रहा। वत)मान समय में चारों वेदों का अध्ययन-अध्यापन केवल नागरों में ही प्रचशिलत है। वेदों के अतितरिरक्त ज्योतितर्ष, आयुव�द, मन्त्रशास्त्र, श्रौत-स्मात) कम)काण्ड में भी नागर तिव_ानों की प्रशिसजिद्ध रही है। यहाँ गुजरातितयों की ज्योतितर्ष तिवद्या में भी अच्छी पहुँच है, और इस काय) में वे अधिधक तिनपुण हैं। कई परिरवारों ने इस तिवद्या को ही धनोपाज)न का साधन बना शिलया।

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अन्य समुदायों के लोगों की ही भांतित गुजराती समाज के लोग भी लगभग सभी के्षत्रों में प्रशिसद्धी पायी है। वकालत से लेकर राजनीतित सभी क्षेत्रों में कई गुजराती बन्धु हैं। लाला लक्ष्मी लाल ने वकालत में अच्छा यश कमाया। काशी के प्रथम बैरिरस्टर पं. तिबहारी लालजी मेढ़ गुजराती थे। काशी म ें सव)प्रथम इम्पीरिरयल सर्गिव<स प्राप्त करन े वाल े राय बहादुर जगन्नाथ प्रसाद मेहता आज भी नौकरी से तिनवृ` होकर काशीवाशिसयों की सेवा कर रहे हैं। नवयुवकों में नौकरी करने वालों में प्रोफेसर राजेन्द्र लाल मेढ़, तिहन्दू स्कूल के अशिसस्टेन्ट हेडमास्टर पं. सम्पतराम जी आदिद के नाम उAलेखनीय है। पत्रकारों म ें लीडर पत्र के सम्पादक पं. कृष्णाराम मेहता का नाम भी उAलेखनीय है।

वाराणसी में तिनवास करने वाले गुजरातितयों की जीवन शैली परयहाँ का काफी प्रभाव पड़ा है, पर उनका रहन सहन, रीतित रिरवाज़ सब गुजरात के ही हैं। जो तिवशेर्षताए ँगुजरात में रहने वाले गुजराती परिरवार के बीच धिमलती है वही यहाँ के परिरवारों में भी धिमलती हैं। जैसे- घरों में गृहस्वाधिमनी ही प्रधान होती हैं, इनके परिरवार की मतिहलाए ँअपनी संस्कृतित में रची बसी धिमलती हैं। घर परिरवार में सभी गुजराती भार्षा का ही प्रयोग करते हैं। यदिद यह कहा जाए तिक वाराणसी में रहने वाले तिवक्षिभन्न भातिर्षक समुदायों में गुजराती समुदाय के लोगों ने अपनी संस्कृतित, परम्परओं, रीतित-रिरवाजों का संरक्षण सवा)धिधक कुशलता से तिकया है तो यह कहना अतितश्योशिक्त नहीं होगी। अपने तीज त्यौहारों में ये लोग स्थानीय लोगों को भी शाधिमल करते हैं। काशी में गुजरातितयों के �ाह्मण भोजन, उनकी ब्याह-शादी की रस्म, तथा गरबे अधिधक प्रख्यात हैं।

आज बनारस में लगभग सवा लाख गुजराती लोग रहते हैं। चार साढे़ चार हजार गुजराती परिरवार यहा ँ बसे हुए हैं। य े सभी गुजराती परिरवार प्रायः एक ही स्थान पर अपना घर बनाकर धिमल जुल कर रहते हैं, और साथ में ही अपने सभी तीज-त्यौहार, अपने उत्सव तिबना तिकसी रोक-टोक के बड़ी धूम-धाम स े मनात े हैं। गुजराती समुदाय मुख्य रूप से

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बनारस के पक्का महाल इलाके म ें बसा हुआ है।Mौखम्बा, कण6घंटा, बुलानाला, चिसद्धमाता गली, गोलघर, सूतटोला तथा गोपाल मजिन्दर के आसपास 80% गुजराती बसे हैं। ठठेरी बाजार, कंुज गली, गोलघर आदिद गुजराती बन्धुओं के मुख्य व्यवसाधियक के्षत्र हैं।

श्री श्यामलाल-भैरवलाल मेढ़ (सूचक) के अनुसार -“वाराणसी म ें इस समय गुजराषितयों के दो वण6 के लोग अचिNक हैं, �ाह्मण और वैश्य। ये सब शहर के पक्के महालों म ें ही रहत े हैं। �ाह्मणों म ें नागर, खेqावाल, औदीच्य, मोढ़ आठिद मुख्य जाषितयाँ हैं और इसी प्रकार वैश्यों में भी उपजाषितयाँ हैं।”

5.3 भाषिषक व्यवहार तथा उसका समाजभाषिषक षिवशे्लषण :-संकशिलत आंकड़ों के आधार पर वाराणासी म ें तिनवास करन े वाल े गुजराती समुदाय के भातिर्षक व्यवहार का तिवश्लेर्षण इस प्रकार है। सव)प्रथम सामग्री संकलन हेत ु गुजराती समुदाय से 100 सूचकों का चयन तिकया गया। सूचकों _ारा प्रद` जानकारी के आधार पर ही भातिर्षक तिवशे्लर्षण तिकया गया। सूचकों की आयु, शिशक्षा आदिद के सम्बन्ध में महत्वपूण) तथ्यों का तिववरण तिनम्नशिलखिखत है।

सूचकों का लिल<ग तथा आयु सम्बन्धी तिववरण इस प्रकार है—

आयु पुरुष मषिहला कुलयोग

5-25 15 15 30

25-50 25 25 50

50 + 10 10 20

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0

5

10

15

20

25

5 to25 25 to 50 50+

आयु का वगv करण

पुरुर्षम तिहला

शैक्षिक्षक योग्यता सम्बन्धी प्रश्नावली के चौथे प्रश्न के आधार पर सूचकों की शैक्षिक्षक स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है—

शिशक्षा पुरुष मषिहला कुल योग

अशिशक्षिक्षत 10 10 20

अध)शिशक्षिक्षत 15 10 25

शिशक्षिक्षत/उच्चशिशक्षिक्षत 25 20 45

तकनीतिक 6 4 10

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शैक्षिक्षक योग्यता सम्बन्धी आंकड़ों से यह तथ्य सुस्पd है तिक वाराणसी में तिनवास करने वाले गुजराती समुदाय में शिशक्षा का स्तर काफी अच्छा है क्योंतिक अशिशक्षिक्षत तथा अद्ध)शिशक्षिक्षत वगu की अपेक्षा शिशक्षिक्षत वग) में सूचकों की संख्या अधिधक है। व्यवसाय सम्बन्धी तिवक्षिभन्न वगu में सूचकों की संख्या का तिववरण अधोशिलखिखत है। सामग्री संकलन हेतु प्रयुक्त प्रश्नावली में प्रश्न संख्या 5 तथा 6 व्यवसाय तथा माशिसक आय तिवर्षयक जानकारी से सम्बद्ध हैं। नीचे दिदया गया पाई चाट) तिवक्षिभन्न व्यावसाधियक वगu के सूचकों की सहभातिगता के प्रतितशत को प्रदर्थिश<त करता है।

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0

5

10

15

20

25

अशिशक्षिक्षत अध)शिशक्षिक्षत उच्चशिशक्षिक्षत तकनीतिक

शिशक्षा का औसत

पुरुषमषिहला

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व्य वसा य

10%

20%

10%20%

40%

म जदूर10

अध् यापक20

तिवद्याथ�10

गृहणी20

अन् य व्य वसा य40

वाराणसी में तिनवास की स्थिस्थतित से सम्बन्धिन्धत पाई चाट) यह दशा)ता है तिक सूचकों में से तिकतने प्रतितशत लोगों का जन्म वाराणसी में हुआ है और तिकतने प्रतितशत बाहर से आए हैं। जैसातिक चाट) से पता चलता है तिक गुजराती समुदाय के अधिधकांश लोगों का जन्म वाराणसी में ही हुआ है क्योंतिक इनके माता-तिपता अथवा पूव)ज तिवक्षिभन्न कारणों से कई शताखिब्दयों अथवा दशकों पूव) वाराणसी में आकर बस गए और यहीं के स्थायी तिनवासी हो गए।

वा रा णसी में षिन वा स की स्लि� षित

75%

25%

जन् म से तिन वा स बा हर से आए

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वाराणसी के गुजराती समुदाय के लोगों से वाता)लाप के बाद यह तथ्य सामने आया है तिक अधिधकांश गुजराती परिरवार कई पीदिढ़यों से यहाँ तिनवास करते हैं। कई परिरवार आठ-आठ पीदिढ़यों से यहाँ तिनवास कर रहे हैं। अधिधकांश परिरवारों के तिवक्षिभन्न व्यवसायों से जुड़े होने के कारण नई पीढ़ी यहीं रह कर अपने पुश्तैनी कारोबार को ही सम्हालती है। इस प्रकार इस समुदाय के लोगों का बाहर जाकर बसने का प्रतितशत अन्य समुदायों की अपेक्षा कम है।

सूचकों की आय सम्बन्धी जानकारी प्रश्नावली की प्रश्न संख्या छः से प्राप्त होती है। सूचकों की आर्थिथ<क स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है--

आय पुरुष मषिहला कुल योगउच्च आय वग) 25 10 35

मध्यम आय वग) 30 10 40तिनम्न आय वग) 15 10 25

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(क) वाराणसी के गुजराती समुदाय म ें षि<भाषिषकता तथा बहुभाषिषकता की स्लि�षित —

वत)मान समय में प्रत्येक भार्षासमाज ति_भार्षी एवं बहुभार्षी है और यह ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता भार्षा, बोली, कोड, शैली आदिद तिवक्षिभन्न स्तरों पर दिदखलाई देती है।

वाराणसी म ें तिनवास करने वाले गुजराती समुदाय का भातिर्षक व्यवहार भी ति_भार्षी तथा बहुभार्षी है। शिशक्षिक्षत तथा व्यवसायी वग) के लोग तिहन्दी, अंग्रेज़ी तथा काशिशका का प्रयोग बड़ी कुशलता के साथ करते हैं, अपने दैतिनक तिaयाकलापों में वे समे्प्रर्षण का माध्यम किह<दी अथवा काशिशका को ही बनाते ह ैं पर अपने समुदाय म ें गुजराती का ही प्रयोग करते हैं। मध्यम वग�य परिरवारों में लोग घरों में परस्पर तथा बड़े बूढ़ों के साथ गुजराती का प्रयोग करते हैं, तिकन्तु बच्चे स्कूलों में किह<दी और अंग्रेज़ी तथा घरों में गुजराती के साथ-साथ तिहन्दी का भी प्रयोग करते हैं । गुजराती बंधु भातिर्षक व्यवहार के दौरान सहजता पूव)क गुजराती के साथ-साथ तिहन्दी का भी प्रयोग करते हैं। वस्तुतः लंबे समय से वाराणसी में तिनवास करने के कारण इनकी गुजराती भार्षा का स्वरूप बहुत अधिधक परिरवर्गित<त हो गया है। वत)मान समय में वाराणसी के गुजराती समुदाय _ारा बोली जाने वाली गुजराती भार्षा पर तिहन्दी का प्रभाव बहुत ज्यादा है। घरों के वयोवृद्ध सदस्य तथा मतिहलाऐं अपने भातिर्षक व्यवहार में गुजराती का सवा)धिधक प्रयोग करते हैं एवं इनके _ारा व्यवहृत गुजराती अपेक्षाकृत अधिधक शुद्ध होती है। परन्तु तिवक्षिभन्न व्यवसायों से जुड़े तथा नौकरीपेशा लोग गुजराती भार्षा की अपेक्षा तिहन्दी तथा अंग्रेज़ी भार्षा का प्रयोग अधिधक करते हैं। व्यवसायी वग) के लोग अपनी व्यावसाधियक आवश्यकताओं के अनुरूप प्रायः गुजराती, तिहन्दी तथा अंगे्रज़ी के अतितरिरक्त अन्य भार्षाओं में भी पारंगत होते हैं।

इस प्रकार यह स्पd है तिक वाराणसी का गुजरातीभार्षी समुदाय प्रायः ति_भार्षी या बहुभार्षी है। इस समाज के भार्षायी कोश की मुख्य प्रतितभागी भार्षाए ँहैं—गुजराती, अंग्रेज़ी, तिहन्दी,

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भोजपुरी या काशिशका, संस्कृत तथा उदू)। तिकन्तु व्यवसायी वग) के भार्षायी कोश म ें इन भार्षाओं के अतितरिरक्त तधिमल, मराठी या कन्नड़ भार्षाए ँभी प्रतितभागी होती हैं। बहुभातिर्षकता का स्तर तिवक्षिभन्न वगu में अलग अलग देखने को धिमलता है। जिजसके कई कारण हैं जैसेतिक आयु, शिशक्षा, परिरवेश इत्यादिद जो वग) जिजस परिरवेश में अधिधक रहता है, उसकी भातिर्षक क्षमता उसी आधार पर समृद्ध होती है। इसका तिवशे्लर्षण तिनम्नशिलखिखत है।

1. वृद्ध व्यचिक्त —

वृद्ध लोगों का अचिNकांश समय घर पर ही व्यतीत होता है और यही कारण है की भाषा और संस्कृषित के संरक्षण का दामियत्व इनका होता है। व्यवसायी वग6 के बुजुग6 लोग कारोबार सम्ब�ी षिवशिभन्न गषितषिवचिNयों में सषि�य भूमिमका षिनभाते हैं। अतएव गुजराती समुदाय के बुजग6 लोग प्रायः बहुभाषी हैं। षिकन्तु घर परिरवार में ये गुजराती में ही बात करते हैं एवं समुदाय के अन्य लोगों के साथ बातMीत में भी ये गुजराती का ही प्रयोग करत े हैं। य े Nार्मिमFक पुस्तकें भी गुजराती की पढ़त े हैं , चिMट्ठी पत्री भी गुजराती म ें ही चिलखते हैं। इनके <ारा बोली जान े वाली गुजराती ज्यादा शुद्ध व परिरमार्जिजFत है। अन्य भाषाओं का प्रयोग भी ये दक्षतापूव6क बqी सहजता से करते हैं। इनके भाषिषक व्यवहार में कोड - परिरवत6न की प्रवृचिO अत्यन्त सहज व बारम्बार होती है। षिवशिभन्न भाषाओं के सन्दभ6 म ें इनकी भाषिषक दक्षता की स्लि�षित को हम इस प्रकार समझा सकते हैं —

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 गुजराती कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल

3 अंग्रेज़ी कुशल सामान्य सामान्य अAप

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4 भोजपुरी सामान्य सामान्य नहीं नहीं

5 संस्कृत अAप नहीं अAप नहीं

6 उदू6 नहीं नहीं नहीं नहीं

2. काय6 क्षेत्र से जुqे लोग —

तिवक्षिभन्न काय)क्षेत्रों से जुडे़ लोगों में क्षिभन्न-क्षिभन्न भार्षाओं के ज्ञान तथा प्रयोग का स्तर उनके सामाजिजक परिरवेश पर तिनभ)र करता है। तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में रहने के कारण गुजराती समुदाय के लगभग सभी लोगों को तिहन्दी भार्षा का बहुत अच्छा ज्ञान है तथा य े लोग अपने दैतिनक भातिर्षक व्यवहार म ें गुजराती के बाद तिहन्दी का ही सवा)धिधक प्रयोग करते हैं। तिवक्षिभन्न सरकारी व गैरसरकारी सेवाओं से जुड़े गुजराती बन्धु गुजराती, तिहन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार क्षिभन्न-क्षिभन्न कारोबार तथा व्यवसायों से जुड़े लोग गुजराती तथा तिहन्दी के अतितरिरक्त कई अन्य भार्षाओं के प्रयोग में भी काफी कुशल होते हैं जैसेतिक तधिमल, कन्नड़, मराठी, तेलगु आदिद। क्योंतिक अपने कारोबार के सन्दभ) में ये लोग इन भार्षाओं के भातिर्षक के्षत्रों से लम्बे समय से जुड़े हुए हैं। व्यवसायी वग) के गुजराती बन्धुओं की अंग्रेज़ी भार्षा में दक्षता प्रायः सामान्य अथवा अAप होती है। तिकन्तु भोजपुरी या काशिशका का ये तिनपुणता पूव)क प्रयोग करते हैं। तिवक्षिभन्न काय)के्षत्रों से जुड़े गुजराती बनु्धओं की क्षिभन्न-क्षिभन्न भार्षाओं में भातिर्षक दक्षता को ताशिलका के माध्यम से इस प्रकार दशा)या जा सकता है---

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 गुजराती कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल/सामान्य

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3 अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

4 भोजपुरी कुशल कुशल सामान्य सामान्य

5 संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

6 उदू6 सामान्य/अAप अAप नहीं नहीं

जैसातिक ऊपर उAलेख तिकया जा चुका ह ै तिक वाराणसी के गुजराती समुदाय के व्यापारी बनु्धओं को इन भार्षाओं के अतितरिरक्त कुछ अन्य भार्षाओं का भी समुशिचत ज्ञान है। जिजसे तिनम्न प्रकार से समझा जा सकता है--

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 तमिमल कुशल कुशल सामान्य अAप

2 कन्नq कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य सामान्य

3 मराठी कुशल कुशल कुशल सामान्य

4 तेलगु कुशल/सामान्य सामान्य सामान्य अAप

3. मषिहलाएँ —

वाराणसी में तिनवास करने वाले गुजराती समुदाय की मतिहलाए ँअपने भातिर्षक व्यवहार में गुजराती का प्रयोग सबसे अधिधक करती हैं। अपनी मातृभार्षा गुजराती के अनुरक्षण का दाधियत्व वस्तुतः इन पर ही है। गुजराती के साथ-साथ ये तिहन्दी भार्षा का भी अत्यधिधक प्रयोग करती हैं। जो मतिहलाए ँतिवक्षिभन्न काय) क्षेत्रों से जुड़ी हैं वे अपने भातिर्षक व्यवहार में गुजराती, तिहन्दी के अतितरिरक्त अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करती

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हैं। भोजपुरी या काशिशका का भी इन्हें ज्ञान होता है। और जो गुजराती मतिहलाए ँकेवल घर परिरवार के बीच ही रहती हैं वे गुजराती का ही सवा)धिधक प्रयोग करती हैं। तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में रहने के कारण इन्हें तिहन्दी भार्षा का सहज ज्ञान होता है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग कर लेती हैं। तिकन्तु अंग्रेज़ी भार्षा का प्रयोग अAप ही करती हैं। अतः गुजराती मतिहलाओं में भी काय)क्षेत्र से जुड़ी तथा घर-परिरवार में रहने वाली मतिहलाओं की भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित अलग-अलग है। इस तथ्य को दो क्षिभन्न ताशिलकाओं के _ारा भली प्रकार समझा जा सकता है---

(काय6 क्षेत्र से जुqी मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

गुजराती कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

(घर में रहने वाली मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

गुजराती कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल/सामान्य सामान्य सामान्य/अAप अAप

अंग्रेज़ी सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्यPage 169

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भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप नहीं नहीं नहीं

अतः यह सुस्पd है तिक मतिहलाओं की भातिर्षक दक्षता उनकी शैक्षिक्षक स्थिस्थतित पर भी तिनभ)र करती है। जो मतिहलाए ँशिशक्षिक्षत होती हैं वे मानक किह<दी तथा अंग्रेज़ी का प्रयोग भी कुशलता पूव)क कर लेती हैं, पर जो अAप शिशक्षिक्षत होती हैं या अशिशक्षिक्षत होती हैं उनकी तिहन्दी में अनेक तु्रदिटयाँ होती हैं और वे अंग्रेज़ी भार्षा का भी अत्यAप प्रयोग करती हैं।

4. युवा वग6 तथा बचे्च —

गुजराती समुदाय के बच्चे घरों में तो गुजराती बोलते हैं, पर ये अपना अधिधक से अधिधक समय खेलकूद, स्कूल व अन्य शैक्षक्षिणक गतिततिवधिधयों में व्यतीत करते हैं। अतः घर से बाहर वे तिहन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। स्कूलों में भी शिशक्षा का माध्यम तिहन्दी या अंग्रेजी है। अतः गुजराती समुदाय के बच्चों को तिहन्दी तथा अंग्रेज़ी भार्षा का समुशिचत ज्ञान है तथा ये इन भार्षाओं का प्रयोग अत्यन्त कुशलतापूव)क करते हैं। ये बच्चे गुजराती भार्षा बोल तो लेते हैं तिकन्तु इनकी गुजराती पर तिहन्दी और अंग्रेज़ी का अत्यधिधक प्रभाव दिदखलायी पड़ता है। साथ ही इनको गुजराती पढ़ने और शिलखने में तिवशेर्षरूप से कदिठनाई होती है।

वाराणसी के गुजराती समुदाय के युवा वग) की भी यही स्थिस्थतित है। वाराणसी में रहने वाले अधिधकांश गुजराती युवा गुजराती शिलखने और पढ़ने की अपेक्षा समझने तथा बोलने में अधिधक कुशल हैं। क्योंतिक घर-परिरवार में ये गुजराती का वाशिचक रूप ही अधिधक ग्रहण करते हैं। एवं इन्हें अपनी दैतिनक शैक्षिक्षक व अन्य गतिततिवधिधयों में गुजराती भार्षा को शिलखने तथा

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पढ़ने के अवसर सहजता से नहीं धिमल पाते हैं। अतः गुजराती भार्षा शिलखने तथा पढ़ने में दक्षता अर्जिज<त करने के शिलए इन्हें तिवशेर्ष प्रयत्न करने पड़ते हैं, जिजनका प्रायः अभाव होता है। गुजराती समुदाय के पढे़ शिलखे युवा अंग्रेज़ी भार्षा के प्रयोग में तिनपुण होते हैं तथा किह<दी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये समुशिचत प्रयोग कर लेते हैं। तिवक्षिभन्न भार्षाओं में इनकी दक्षता का तिववरण इस प्रकार है—

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

गुजराती कुशल कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल

अंग्रेज़ी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य सामान्य अAप नहीं

संस्कृत अAप अAप/नहीं अAप नहीं

उदू6 अAप अAप नहीं नहीं

वाराणसी में रहने वाले गुजराती समुदाय के तिवक्षिभन्न आयुवग) के लोगों की भातिर्षक दक्षता के तिवशे्लर्षण से यह तिनष्कर्ष) तिनकलता है तिक गुजराती समुदाय के लोग लम्बे समय से अन्य भार्षाओं के सम्पक) में हैं अतः ये लोग अन्य भार्षाओं में भी धीरे-धीरे समुशिचत दक्षता हाशिसल कर चुके हैं। कुछ लोग जो अन्य भार्षाओं के सम्पक) में कम आते हैं अथवा जो लोग केवल गुजराती के प्रयोग पर ही तिवशेर्ष जोर देते हैं उनका अन्य भार्षाओं का ज्ञान सीधिमत है। तिकन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है। काय)क्षेत्र से जुड़े लोगों, युवा वग) तथा बच्चों को तिहन्दी तथा

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अंग्रेज़ी का भी अच्छा ज्ञान है। अतः यह स्पd है तिक वाराणसी का गुजराती समुदाय पूण)तया बहुभार्षी है।

बहुभातिर्षकता के कारण गुजराती समुदाय _ारा प्रयुक्त तिवक्षिभन्न भार्षाओं ने परस्पर एक दूसरे को प्रभातिवत तिकया ह ै जिजसका प्रभाव कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न, तिवक्षिभन्न स्तरों पर भातिर्षक-परिरवत)न, आगत शब्दों के प्रयोग की बहुलता के रूप में स्पd दिदखलायी पड़ता है। जिजसका तिवस्तृत तिववरण इस प्रकार है।

(क) कोड - मिमश्रण –

वाराणसी म ें तिनवास करनेवाल े गुजराती समुदाय की मातृभार्षा अथा)त ् गुजराती में दीघ)कालीन सहअल्किस्तत्व तथा पारस्परिरक प्रभाव के फलस्वरूप अन्य भार्षाओं के शब्दों का धिमश्रण हो गया है। सबसे ज्यादा प्रभातिवत तिहन्दी भार्षा ने तिकया है। इसी प्रकार गुजराती बनु्धओं _ारा बोली जाने वाली किह<दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका में गुजराती का प्रभाव भी स्पd दिदखलायी पड़ता है। क्योंतिक इस समुदाय के लोग अपने घर-परिरवार और नाते-रिरश्ते में मुख्य रूप से गुजराती का प्रयोग करते हैं तथा अपने काय)स्थल में और समाज के अन्य भातिर्षक समुदायों के लोगों से वाता)लाप में अधिधकांशतः किह<दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी का प्रयोग करते हैं जिजसके फलस्वरूप उनके भातिर्षक व्यवहार में कोड-धिमश्रण की बहुतायत है जैसे-

(गुजराती वाक्य में हिहFदी तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1. सांझ तो दोनों मा कॉमन छे।

2. आ गुजराती छे इतनी सारू किह<दी बोले छे, किह<दी का घंणा इन्फ्लुएन्स छे।

(हिहFदी वाक्य में गुजराती तथा अंगे्रज़ी शब्दों का प्रयोग)

1. मुझे षिडस्टब6 मत कर अभी घंणा काम बाकी है।Page 172

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2. आज अभी तक माकx ट नहीं गए, केम?

(ख) कोड परिरवत6न —

वाराणसी के गुजराती समुदाय के लोगों के भातिर्षक व्यवहार में कोड-परिरवत)न की भी बहुतायत है। क्योंतिक जब कोई गुजराती व्यशिक्त अपने समुदाय के अन्य लोगों से गुजराती में बात कर रहा होता है और यदिद तभी कोई अन्य भार्षा भार्षी वहाँ आ जाए तो वह तुरंत तिहन्दी या तिकसी अन्य भार्षा में बात करना शुरू कर देता है तथा तिफर समे्प्रर्षण के शिलए आवश्यकता अनुसार गुजराती, तिहन्दी, भोजपुरी या अंगे्रजी पर शिशफ्ट होता रहता है। ऐसी भातिर्षक स्थिस्थतित अकसर ही दिदखलायी पड़ती है।

जैसे—1) सँू बोलवानू। तुम कौनो भार्षा ठीक से नहीं बोलते हो। म्हारा नक्की बाबा।

गुजराती काशिशका गुजराती

2) समझी ग्यो की ना , इयाँ की लैंग्वेज केन इफेक्ट होई छे। कहा हो राधेश्याम , कहाँ

गुजराती

रहला बच्ची एतना दिदन ? पान - वान नाहीं खिखयईबा हमनी के , जा पाँच - छो बीड़ा पान

भोजपुरी

लेत आवा। अरे ठहरिरए महाराज पान के शिलए हमने बीस रुपए दे दिदए हैं।

तिहन्दी

3) बनारसे मा जावानू छे। जस्ट फ़ॉर अ फ़ॉम)ल तिवजिज़ट। सारू , जय श्री कृष्णा भाई जी।

गुजराती अंग्रेज़ी गुजराती

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(ग) अन्य प्रभाव –

ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता की स्थिस्थतित में दीघ)कालीन सहअल्किस्तत्व के परिरणामस्वरूप वाराणसी के गुजराती समुदाय के लोगों _ारा बोली जान े वाली गुजराती तिहन्दी स े बहुत अधिधक प्रभातिवत हो गई है। एक वयोवृद्ध सूचक श्री बलदेव दास मोढ़ जी के अनुसार आज वाराणसी में बोली जाने वाली गुजराती तिहन्दी से लगभग 75% तक प्रभातिवत हो चुकी है। अन्य सूचकों से प्राप्त आँकड़ो तथा संकशिलत जानकारी से इस बात की पुधिd हुई। वाराणसी में प्रयुक्त होने वाली गुजराती में वाक्य संरचना के स्तर पर भी तिहन्दी का प्रभाव दिदखलायी पड़ता है तथा अधिधकांश शब्द तिहन्दी के हैं। यथा—

तिहन्दी शब्द गुजराती शब्द

रोटी : रोटली

आटा : लोट

सवेरे : सवारे

दोपहर : बपोर

सांय : सांझ

शक्कर : खांड

नमक : मीठू

इस प्रकार जिजन चीजों के शिलए मानक गुजराती में स्वतंत्र बहुप्रचशिलत शब्द तिवद्यमान हैं तिहन्दी भार्षा के प्रभावस्वरूप वाराणसी का गुजराती समुदाय उन वस्तुओं के शिलए भी किह<दी शब्द ही व्यवहार में प्रयोग करने लगा है। जैसेतिक—

कौथमीर लई आवजो। ---- मानक गुजराती

धतिनया लई आवजो – बनारसी गुजरातीPage 174

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लोट आपी दिदओ --- मानक गुजराती

आटा आपी दिदओ --– बनारसी गुजराती

वाराणसी के गुजराती समुदाय के भातिर्षक व्यवहार म ें कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न, भातिर्षक आदान आदिद की मात्रा सवा)धिधक है। इससे शैलीगत तिवकAपन में वृजिद्ध होती है और अक्षिभव्यशिक्त की कारगर रणनीतित तिनधा)रिरत होती है।

5.4 मातृभाषा अनुरक्षणः--

मातृभार्षा के प्रतित सभी लोगों का सहज लगाव होता है। वाराणसी में तिनवास करने वाले अन्य भातिर्षक समुदायों के समान ही यहाँ के गुजराती समुदाय के लोगों में भी मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रबल भावना है। वाराणसी के गुजराती बन्धु भी अपनी भार्षा, संस्कृतित, रीतित-रिरवाज तथा संस्कारों के संरक्षण के प्रतित सचेd हैं। इस तिनधिम` ये अपनी परम्पराओं तथा रीतित-रिरवाजों का तिनष्ठा पूव)क पालन करते हैं अपने सभी तीज-त्यौहार बडे़ धूमधाम स े मनात े ह ैं जिजसमें य े लोग स्थानीय लोगों को भी शाधिमल करत े हैं। काशी में गुजरातितयों के �ाह्मण-भोजन, उनके तिववाह संस्कार की रस्में, तथा गरब े प्रख्यात हैं। गुजराती समुदाय के लोगों में अधिधकांश लोग व्यापारी हैं अतः जिजतना अधिधक संभव होता है। वे अन्य भार्षा के सम्पक) में रहने के बाद भी गुजराती का ही प्रयोग करते हैं। अपने समुदाय में व्यापार से लेकर परिरवार तक सभी जगह वे गुजराती का ही प्रयोग करते हैं। इनकी अपनी अलग शैली है जो इन्हें औरौं से क्षिभन्न बनाती है।

घरों में मतिहलाए ँशुद्ध गुजराती का प्रयोग करती हैं, बच्चों को अपने संस्कार के साथ-साथ भातिर्षक ज्ञान भी इन्ही से धिमलता है। अन्य समुदायों की तुलना में गुजराती मतिहलाए ँअपनी

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परम्पराओं व संस्कृतित में अधिधक रची बसी होती हैं। जैसी परम्परा गुजरात में प्रचशिलत है, वैसी ही परम्परा को इन्होंने अपने घर में भी जीतिवत रखा है। शादी ब्याह आदिद में संस्कृत भार्षा और गुजराती का प्रयोग होता है। गुजराती संगीत भी इनको पसंद है। वाराणसी में गुजरातितयों के गरबे की धूम रहती है। वाराणसी के अधिधक से अधिधक लोग इसमें शाधिमल होत े हैं, गुजराती संगीत पर सभी शिथरकते हैं। अपनी भार्षा को सुदृढ़ बनाने के शिलए ये गुजराती भार्षा म ें शिलखिखत तिकताबों तथा दूरदश)न पर गुजराती चैनल का सहारा लेत े हैं। इससे इनको गुजराती भार्षा में आने वाले बदलावों के बारे में भी पता चलता रहता है। अपने समाज के लोगों से तो ये गुजराती का ही प्रयोग करते हैं।

मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रवृक्षि` को दो वगu में बाँटा जाकता है—1.पूण) मातृभार्षा अनुरक्षण 2.आंशिशक मातृभार्षा अनुरक्षण

गुजराती समुदाय के प्रत्येक वग) के लोगों के भातिर्षक ज्ञान का स्तर अलग अलग है। बुजुग) वग) के लोग ह ैं जो घर परिरवार और अपने ही समाज स े अधिधक जुड़ े ह ैं उन्होंन े अपनी मातृभार्षा को पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत करके रखने का प्रयास तिकया है। गुजराती मतिहलाऐं सबसे अधिधक पारम्परिरक होती हैं, अतः अपनी मातृभार्षा को सुरक्षिक्षत रखने का भार इन मतिहलाओं पर भी होता है, जिजसका व े तिनष्ठापूव)क तिनवा)ह करती हैं। घर के बाहर की गतितशीलता कम होने के कारण समाज में न्धिस्त्रयों की मातृभार्षा सबसे शुद्ध सुनने को धिमलती है। तिफर भी अधिधक समय से काशी में रहने के कारण उनकी भार्षा मूल गुजराती से क्षिभन्न हो गई है। कई सामाजिजक, राजनीतितक, व धार्मिम<क कारणों से अपनी भार्षा के अतितरिरक्त दूसरी भार्षा का प्रयोग करने से इनकी मातृभार्षा प्रभातिवत हुई है। गुजराती समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो काफी हद तक अपनी मातृभार्षा की अल्किस्मता को बचाए हुए हैं।

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वत)मान समय की पीढ़ी जो शिशक्षिक्षत और कारोबारी है तथा जो अधिधक से अधिधक अन्य समुदायों के सम्पक) में है उनकी मातृभार्षा सबसे अधिधक प्रभातिवत हुई है वे अपने दिदन भर में से अधिधकांश समय अन्य भार्षा-भातिर्षयों के साथ तिबताते हैं। इस कारण वे अन्य भार्षाओं जैसे तिहन्दी तथा काशिशका पर भी मातृभार्षा के समान अधिधकार रखते हैं। लम्बे समय तक आस-पास के समाज के सम्पक) में होने के कारण अपनी मातृभार्षा का प्रयोग अन्य भार्षाओं की तुलना में कम कर पाते हैं।

1. पूण6 मातृभाषा अनुरक्षण—

गुजराती समुदाय की जो बुजुग) मतिहलाए ँहैं वे तथा वाराणसी में गुजराती संस्था को स्थातिपत करने वाले लोग जो गुजराती संस्था से जुड़े हैं वे अपनी मातृभार्षा को पूण) रूप से अनुरक्षिक्षत करते हैं, अपनी संस्कृतित, रहन सहन सभी कुछ इतने लम्बे समय के बाद भी पीढ़ी दर पीढ़ी वैसा ही आज भी रखे हैं, जैसा यहाँ के उनके पूव)जों के समय में था। जो गुजरात से वे अपने साथ लेकर आए थे। आज भी इनके _ारा बोली जाने वाली गुजराती का स्वरूप वैसा ही है जैसा उनके पुरखों के समय था। तिकन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिधक नहीं है।

2. आंशिशक मातृभाषा अनुरक्षण—

वत)मान समय में, जो बच्चे हैं वे अपनी आवश्यकता अनुसार भार्षा को महत्व देते हैं। मातृभार्षा का प्रयोग घर तक ही सीधिमत हो जाता है। ये समाज में हर तरह के आयोजनों में तिहस्सा लेत े रहते हैं। अतः इनका तिहन्दी पर भी उतना ही अधिधकार होता है, जिजतना तिक अपनी मातृभार्षा पर। इनमें मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना होती तो है पर बहुत कम। ये

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अपनी मातृभार्षा ज्ञान के शिलए अलग से शिशक्षा भी लेते हैं, पर प्रयोग कम होने के कारण मातृभार्षा के स्थान पर अधिधकांश समय तिहन्दी भार्षा को ही अधिधक धिमलता है।

यह सत्य ह ै तिक तिकसी दूसर े भातिर्षक समाज के मध्य लंब े समय तक अपनी भार्षा का अनुरक्षण कर पाना कदिठन होता है। तिकन्तु गुजराती समाज के लोगों ने पूरे प्रयत्न के साथ अपनी मातृभार्षा को अल्किस्तत्व में बनाए रखा है। परन्तु समय के साथ aमशः इन प्रयासों में कमी आती गई। जिजसके फलस्वरूप आज वाराणसी में बोली जाने वाली गुजराती भार्षा अन्य भार्षाओं तिवशेर्ष रूप से तिहन्दी से बहुत अधिधक प्रभातिवत हो गई है।

5.5 भाषिषक षिव�ापन का स्वरूपः-- अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त तिकसी अन्य भार्षा को अधिधक प्रयोग में लाना अथा)त ् एक भार्षा स े दूसरी भार्षा के प्रयोग पर अधिधक बल देना और अन्ततः मातृभार्षा का छूट जाना भातिर्षक तिवस्थापन कहलाता है। तिकसी भी ति_भार्षी अथवा बहुभार्षी समाज में भार्षा तिवस्थापन की प्रतिaया होना अत्यन्त स्वाभातिवक है। अपने घर-परिरवार में व्यशिक्त का सव)प्रथम परिरचय उसकी अपनी मातृभार्षा से होता है। aमशः जैसे-जैसे वह समाज के सम्पक) में आता है तो समाज में बोली जाने वाली अन्य भार्षाए ँसीखता है, तथा जिजस भातिर्षक-परिरवेश में वह रहता है उसका भार्षायी ज्ञान भी उसी प्रकार तिवकशिसत होता है। वाराणसी में तिनवास करने वाले गुजराती समुदाय के सन्दभ) में यदिद हम गुजराती भार्षा को प्रथम भार्षा (A) मानें, तथा तिहन्दी भार्षा को ति_तीय भार्षा (B) मानें तो तिवस्थापन की प्रतिaया तिनम्न स्थिस्थतित होगी। --

2. मुख्य स्थिस्थतित(A)3. सहायक स्थिस्थतित (Ab)4. परिरपूरक स्थिस्थतित (AB)

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5. आंशिशक प्रतितस्थापन की ओर स्थिस्थतित (aB)6. प्रतितस्थातिपत स्थिस्थतित (B)

वाराणसी के गुजराती समुदाय के अधिधकांश परिरवार लगभग आठ पीदिढ़यों से यहाँ रह रहे हैं इन गुजराती परिरवारों की तिवक्षिभन्न पीदिढ़यों के माध्यम से भातिर्षक-तिवस्थापन की स्थिस्थतित को स्पd समझा जा सकता है। यहाँ गुजराती भार्षा (A) है, तथा तिहन्दी भार्षा (B) है—

1.मुख्य स्लि�षित A— गुजरात की मुख्य भार्षा गुजराती है। वहाँ रहने वाले लोग व वहाँ से तिकसी अन्य स्थानों पर जा कर बसने वाले गुजराती बंधुओं की प्रथम भार्षा गुजराती होगी अतः जो गुजराती पहल े वाराणसी आए व े केवल गुजराती का ही प्रयोग करत े रहे। कालान्तर में आवश्यकतानुसार उन्हों ने अन्य भार्षा का प्रयोग सीखा।

2.सहायक स्लि�षित Ab— सबसे पहले जो पीदिढ़याँ वाराणसी आयीं उसकी तथा आगे की कुछ अन्य पीदिढ़यों

की मुख्य भार्षा गुजराती थी तथा सहायक भार्षा के रूप में वे तिहन्दी या तिकसी भी अन्य भार्षा का अत्यAप प्रयोग करते थे। अतः उनके भातिर्षक व्यवहार में मातृभार्षा गुजराती की स्थिस्थतित अत्यन्त मजबूत थी, तथा अन्य भार्षाओं की स्थिस्थतित अतित क्षीण।

3.परिरपूरक स्लि�षित AB— आगे आने वाली पीदिढ़यों के लोग दोनों भार्षाओं का लगभग समान रूप से प्रयोग करने में कुशल हो गए। क्योंतिक लम्बे समय से तिवक्षिभन्न भार्षाओं के सहअल्किस्तत्व की स्थिस्थतित म ें रहन े के कारण य े लोग भोजपुरी या काशिशका तथा तिवशेर्ष रूप स े तिहन्दी म ें अपनी मातृभार्षा गुजराती के समान ही दक्ष हो गए । यह स्थिस्थतित परिरपूरक स्थिस्थतित कहलाती है। अब वाराणसी में रहने वाला हर गुजराती तिहन्दी का प्रयोग अपनी मातृभार्षा के समान सहज रूप से करता है। अब शिशक्षिक्षत गुजराती लोगों में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी भार्षा का भी प्रयोग बढ़ा है।

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4. आंशिशक प्रषित�ापन की ओर की स्लि�षित aB— वत)मान समय की पीदिढ़याँ अपनी मातृभार्षा गुजराती का अAप प्रयोग करती हैं। यहीं

इनका जन्म हुआ, पालन-पोर्षण, पढ़ाई शिलखाई भी यहीं हुई। ये अपने घर-परिरवार में तथा अपने समुदाय के अन्य लोगों के साथ वाता)लाप में गुजराती के साथ-साथ तिहन्दी का प्रयोग करती हैं। तथा अन्य सामाजिजक क्षेत्रों म ें तो स्वाभातिवक रूप स े तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका का ही प्रयोग करती हैं। इस प्रकार कुल धिमलाकर इनके भातिर्षक व्यवहार में गुजराती के प्रयोग का प्रतितशत तिहन्दी की अपेक्षा कम होता जा रहा है। गुजराती से तिहन्दी पर प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित बलवती होती जा रही है। 5.प्रषित�ाषिपत स्लि�षित B—

प्रतितस्थातिपत स्थिस्थतित वह होती है जब कोई अपनी मातृभार्षा को पूरी तरह छोड़कर अन्य भार्षा पर स्थातिपत हो जाये। वत)मान समय में वाराणसी के कुछ गुजराती समुदाय के लोग आंशिशक रूप से आज भी अपनी मातृभार्षा गुजराती का प्रयोग करते हैं, भले उन्हें गुजराती पढ़ने व शिलखने में कदिठनाई हो पर वे घर परिरवार में धिमक्षिश्रत गुजराती का प्रयोग करते हैं। कालान्तर में यदिद गुजराती बन्धुओं ने इसी तरह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर दिदया अथवा बंद कर दिदया और अपने व्यवहार में तिहन्दी या काशिशका ले आए तब वह स्थिस्थतित पूण) भार्षा प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित कहलएगी।

परिरणामस्वरूप भाषा षिव�ापन की प्रषि�या

एक भातिर्षक स्थिस्थतित ति_भातिर्षकता की तिवक्षिभन्नस्थिस्थतितयाँ एक भातिर्षक स्थिस्थतित

A >>> Ab >>> AB >>> aB >>> B

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अतः यह स्पd है तिक वत)मान समय में वाराणसी का गुजराती समाज भातिर्षक तिवस्थापन की ओर बढ़ चला है। वस्तुतः आज वाराणसी के गुजराती बन्धु जिजस गुजराती भार्षा का प्रयोग करते हैं वह तिहन्दी से अत्यधिधक प्रभातिवत हो गयी है। सूचक श्री के हरिरदास जी के अनुसार अब वाराणसी में गुजराती के खाँचे में तिहन्दी बोली जाती है। नयी पीढ़ी इतनी सतक) नहीं है, वत)मान समय में नयी पीढ़ी के लोग अपनी मातृभार्षा के शिलखिखत रूप से अनक्षिभज्ञ हैं। क्योंतिक उनका अधिधकांश समय अपने काय) के्षत्र या अन्य भार्षा-भार्षी लोगों के सम्पक) में बीतता है। ज्यादातर परिरवारों के बच्चे गुजराती भार्षा बोल तो लेते हैं, पर पढ़-शिलख नहीं पाते जबतिक तिहन्दी व अंग्रेजी को बड़ी दक्षता के साथ पढ़-शिलख लेते हैं। वहीं कुछ पीदिढ़यों पहले तक के लोग अपनी मातृभार्षा के तीनों रूपों का भली भांतित प्रयोग कर लेते थे।

काशी के गुजराती भाई आज भी गुजराती भार्षा ही बोलते हैं तिकन्तु उसका स्वरूप मानक गुजराती से काफी क्षिभन्न है। मानक भार्षा से सम्बन्ध न रहने के कारण काशी की गुजराती भार्षा दूसरी दिदशा में तिवकशिसत हो रही है, जिजसमें तिहन्दी के शब्दों, संरचना शैली के प्रयोग की बहुतायत है। अतः भाषिषक षिव�ापन की प्रषि�या के अनुसार वत6मान समय में वाराणसी का गुजराती समाज बीM की षि<भाषिषकता की षिवशिभन्न स्लि�षितयों से षिव�ापन की ओर बढ़ Mला है जो षिक चिMन्ता का षिवषय है।

वस्तुतः अपने मूल क्षेत्र से बाहर के शहरों अथवा प्रदेशों में कई अन्य बड़ी प्रभुतासम्पन्न भार्षाओं के बीच बाहर से आए समाजों को अपनी भार्षा को सुरक्षिक्षत रखना बहुत कदिठन होता जाता है। अAपसंख्यक समाजों की भार्षाए ँप्रभातिवत परिरवर्गित<त होती चलती है और उनकी मौशिलक पहचान घटती जाती है। जैसे वाराणसी में गुजराती अAपसंख्यक समुदाय हैं वैसे ही अहमदाबाद अथवा सूरत में भोजपुरी भार्षी अAपसंख्यक हैं और इसी प्रकार वहाँ इनकी भोजपुरी भी कालान्तर में अपना मूल स्वरूप खोती जाएगी।

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5.6 वाराणसी में गुजराती भाषा शिशक्षणः – अन्य समुदायों के समान ही गुजराती समुदाय के लोगों ने भी वाराणसी में कई तिवद्यालयों जैसेतिक ‘गुजरात तिवद्या मंदिदर’ (लड़तिकयों के शिलए) तथा ‘सरदार वAलभ तिवद्यापीठ’ (लड़कों के शिलए) आदिद का तिनमा)ण कराया जिजनमें गुजराती भार्षा की भी शिशक्षा दी जाती थी तिकन्तु कालान्तर में aमशः गुजराती समुदाय के बच्चों का गुजराती भार्षा के अध्ययन में रुझान कम होता चला गया जिजसके फलस्वरूप तिवद्यार्थिथ<यों के अभाव में इन तिवद्यालयों में गुजराती भार्षा का शिशक्षण बन्द कर दिदया गया। यही कारण है तिक बनारस में गुजराती भार्षा का तिकसी भी तिवश्वतिवद्यालय तथा महातिवद्यालय में कोई तिवभाग स्थातिपत नहीं हो सका।

वत)मान समय में वाराणसी का गुजराती समुदाय पुनः अपनी गुजराती भार्षा के संरक्षण तथा शिशक्षण के शिलए सचेd हो रहा है। अतः अब काशी के गुजराती समाज की ओर से ग्रीष्म कालीन शिशतिवर लगाए जात े हैं, जिजनम ें बच्चों को गुजराती भार्षा शिलखना, पढ़ना शिसखाया जाता है। साथ ही धार्मिम<क ग्रंथ गीता संस्कृत आदिद श्लोकों का पाठ शिसखाया जाता है। नन्दन साहू की गली में स्थिस्थत अंग्रजी कोठी में एक प्राइमरी पाठशाला में गुजराती भार्षा का भी अध्ययन कराया जाता है। इसी से सम्बद्ध एक वाचनालय भी ज्ञानवापी के पास स्थिस्थत है जहाँ गुजराती अखबार और पुस्तकें पाठकों के शिलए उपलब्ध करायी जाती हैं।

सम्प्रतित वाराणसी में गुजराती भार्षा के शिशक्षण उन्नयन तथा अनुरक्षण के शिलए वृहद स्तर पर और अधिधक साथ)क प्रयास करने की आवश्यकता है।

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षष्ठ अध्यायवाराणसी के पंजाबी समुदाय का समाजभाषिषक अनुशीलन

6.1 पंजाबी भाषा का संशिक्षप्त परिरMयः—पंजाबी दक्षिक्षण एशिशया के पक्षिoमो`र भूभाग की प्रमुख आधुतिनक आय)भार्षा है। यह भारतवर्ष) और पातिकस्तान दोनों देशों म ें बोली जाती है। इसके अतितरिरक्त कनाडा, इंग्लैण्ड तथा अमेरिरका सतिहत तिवश्व के अनेक देशों में भी बहुतायत से बोली जाती है। 2013 के अनुमातिनत आँकड़ों के अनुसार मातृभार्षा के रूप में पंजाबी भार्षा बोलने वालों की कुल संख्या लगभग 130 धिमशिलयन है। भारोपीय भार्षा परिरवार

भारत ईरानी

ईरानी दरद भारतीय-आय)

वैदिदक संस्कृत लौतिकक संस्कृत---(प्राचीन भा. आ.)

पाशिल

प्राकृतें

पैशाची प्राकृत

पैशाची अपभं्रश

पंजाबी

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पंजाबी भार्षा बोलने वालों की यह संख्या इसे तिवश्व की “दसवीं सवा)धिधक बोली जाने वाली भार्षा” बनाती है। इसके बोलने वालों में तिहन्दू, मुस्थिस्लम, शिसख सभी हैं। पंजाबीभार्षी जो के्षत्र अब पातिकस्तान में है वहाँ की पंजाबी भार्षा में उदू) फारसी के शब्दों की बहुतायत है और जो क्षेत्र तिहन्दुस्तान में ह ै उसमें तिहन्दी के शब्द ज्यादा प्रचशिलत हैं। दोनों ही क्षेत्रों में पंजाबी भार्षा का प्रयोग करने वाले लोगों में शिसख धम) के लोगेों की संख्या सवा)धिधक है।

पंजाबी की दो उपभार्षाए ँहैं पूव� पंजाबी व पक्षिoमी पंजाबी। पूव� पंजाबी को पंजाबी तथा पक्षिoमी पजाबी को लहंदा कहते हैं। पंजाबी की तीसरी उप बोली डोगरी है जो जम्मू कश्मीर में बोली जाती है। मध्यकालीन सातिहत्य में पूव� पंजाबी का माझी रूप व्यवहृत होता था। पक्षिoमी पंजाब की बोशिलयों म ें मुलतानी, डेरावाली, अवाणकी और पोठोहारी, एव ं पूव� पंजाबी की बोशिलयों में पहाड़ी, माझी आदिद प्रशिसद्ध हैें। पक्षिoमी पंजाबी और पूव� पंजाबी की सीमारेखा रावी नदी मानी गई है।

पंजाब क्षेत्र में बोली जाने वाली भार्षा को पंजाबी कहा जाने लगा इससे पूव) इसे तिहन्दी या तिहन्दवी कहते थे। संभवतः मुसलमानों के शासन काल में शिसखों ने अपनी भार्षा को पंजाबी कहना आरंभ कर दिदया। शिसख जिजस के्षत्र में जा कर बसे वहाँ की स्थानीय भार्षा का प्रभाव इनकी भार्षा पर पड़ा। पातिकस्तान की पंजाबी भार्षा पर उदू) का प्रभाव है पंजाबी भार्षा में पुस्थिAलंग और स्त्रीलिल<ग शब्दों का बहुबचन आँ होता है— बाताँ, कुतिड़याँ, मुंड्याँ। अतः ध्वन्यात्मक दृधिd स े पंजाबी भार्षा अभी भी प्रकृत के करीब है। पंजाबी में – हत्थ, कन्न, जंघ, स`, छडणा और तिहन्दी में हाथ, कान, जाँघ, सात, छोड़ना आदिद। पूव� पंजाबी में सघोर्ष स्पश) महाप्राण ध्वतिनयेों (घ,झ,ढ़,ध,भ) का अभाव है वे अघोर्ष आरोही सुर के साथ बोली जाती हैें।

लहँदःा— लहँदा को पक्षिoमी पंजाबी, तिहन्दकी, जटकी, मुAतानी आदिद भी कहा जाता है। इसमें शिसक्ख धम) से सम्बन्धिन्धत कतितपय गद्य कथाए ँपाई जाती हैं। लहँदा भार्षी के्षत्र पहले

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कैकय देश के अन्तग)त था, और यहाँ की प्राकृत अपभ्रंश से लहँदेा का सम्बन्ध है। वत)मान समय में यह प्रदेश पातिकस्तान के अन्तग)त है। पहले सातिहत्य सृजन के शिलए इस प्रदेश में उदू), तिहन्दी तथा पूव� पंजाबी आदिद व्यवहृत होती थीं, पातिकस्तान की रिरपतु)वा में लिस<धी, पंजाबी, कश्मीरी, उदू), बलूची और द्रतिवड़ परिरवार की �ाहुई प्रमुख भार्षाए ँहैं। वहाँ पंजाबी सतिहत कई भार्षाए ँउदू) शिलतिप में शिलखी जाती हैं।

पूवv पंजाबी— पूव� पंजाबी भारत के पंजाबी प्रान्त में बोली जाती है। इसका शुद्ध रूप अमृतसर के आस पास बोला जाता है। इसकी उत्प`िे टक्क अपभं्रश से मानी जाती है, तिकन्तु शौरसेनी अपभ्रंश का भी इस पर पया)प्त प्रभाव है। इसकी कई उपशाखाए ँहैं, जिजनमें डोगरी प्रशिसद्ध है, जिजसका व्यवहार जम्मू तथा काँगड़ा में होता है। स्वतन्त्रता प्राप्तिप्त से पूव) इसकी सीमा लहँदेा की भातिर्षक सीमा से तिबAकुल धिमली हुई थी, तिकन्तु पातिकस्तान के तिनमा)ण के बाद भौगोशिलक सीमाओं में भी पाथ)क्य आ गया।

पूव� पंजाबी में शिसक्ख गुरुओं के पद धिमलते हैं, जिेनकी रचना लगभग 16 वीं शताब्दी में हुई थेी। गुरू ‘अंगद’ ने ‘लण्डा’ शिलतिप में सुधार करके ‘गुरूमुखी शिलतिप’ के तिनमा)ण का महत्वपूण) काय) तिकया। सव)प्रथम इसमें गुरुओं की बानी शिलखी गयी अथा)त् शिसक्ख धम) का सवा)धिधक महत्वपूण) धार्मिम<क ग्रन्थ “गुरुग्रन्थ साहब” की रचना गुरूमुखी शिलतिप में ही हुई है। यही कारण है तिक शिसक्खों में प्रायः गुरुमुखी पंजाबी का ही सवा)धिधक प्रचलन है। अब पंजाब प्रेान्त की सरकार ने आधिधकारिरक तौर पर गुरुमुखी पंजाबी तथा नागरी तिहन्दी, दोनों को अपने यहाँ की भार्षा स्वीकार कर शिलया है।

आधुतिनक भारतीय आय)भार्षा परिरवार में पंजाबी का महत्वपूण) स्थान है। पंजाबी भार्षा उ`र भारत की पे्रमुख भार्षाओं में से एक है। इसकी बोशिलयों म ें तिबलासपुरी, पदिट्टयानी, माँझी, राठी, जालंधरी, तिफरोजपुरी आदिद प्रधान हैं। भारत के पंजाब प्रान्त की राजभार्षा पंजाबी है। पंजाबी भार्षा की पहचान पंजाब से है,

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पंजाब राज्य का नामकरण वहाँ बहने वाली पांच नदिदयों के आधार पर हुआ है। पंजाब शब्द फारसी के दो शब्द पंज+आब से बना है। ’पंज’ का अथ) ’पाँच’ तथा ’आब’ का अथ) ’जल’ है। ये पाँच नदिदयाँ हैं— झेलम, शिचनाब, रावी, व्यास, तथा सतलज।

पंजाबी का प्रयोग वत)मान भारतीय पंजाब की भौगौशिलक सीमाओं के बाहर भी बहुतायत से होता है। पंजाब राज्य के अतितरिरक्त भारतवर्ष) म ें पंजाबी भार्षा के प्रयोगकता) दिदAली, हरिरयाणा, पक्षिoमी उ`र प्रदेश, तिहमाचल, तथा जम्मू कश्मीर राज्यों में भी बड़ी संख्या में है। इसके अलावा अन्य राज्यों में भी पंजाबी भार्षा के बोलने वाले अच्छी संख्या में मौजूद हैं। भारत के अतितरिरक्त तिवश्व के तिवक्षिभन्न देशों म ें पंजाबी भार्षाभार्षी तिनवास करत े ह ैं तिकन्तु तिवशेर्षरूप से कनाडा, यू.के.(इंग्लैण्ड) तथा अमेरिरका में पंजाबी भार्षा के वक्ता बड़ी तादात में हैं। यू.के. (इंग्लैण्ड) तथा कनाडा में पंजाबी भार्षा तीसरी सबसे अधिधक बोली जाने वाली भार्षा है।

महात्मा बुध और महावीर को हुए आज लगभग 2500 वर्ष) हो चुके हैं। उनके _ारा शिलखिखत ग्रंथों में सैकड़ों शब्द ऐसे धिमलते हैं जो ठीक उसी रूप में आज भी पंजाबेी भातिर्षयों केे दैतिनक भार्षिेक व्यवहार में प्रचशिलत हैं। तिहन्दी या बंगला में उन शब्दों का जो रूप प्रचशिलत हुआ है वह अधिधक से अधिधक एक हजार वर्ष) पुराना कहा जाता है। पंजाब के लोग तिपछले पच्चीस सौ वर्षu से दुध, नक, कन, हथ, तिपठ, सत और अठ कहते आए हैं और जो लोग उ`रप्रदेश या बंगाल में बसते हैं, उनके पूव)ज पहले पन्द्रह सौ वर्षu तक तो इन शब्दों का पंजातिबयों की भाँतित उच्चारण करते रहे, तिकन्तु तिपछले एक हजार वर्ष) से उनको तिबगाड़ कर इन्होंने दूध, नाक, कान, हाथ, पीठ, सात और आठ बोलना आरंभ कर दिदया। पंजाबी भार्षा तान (टोनल) भार्षा है।

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जैसेतिक हम पहले चचा) कर चुके हैं तिक पंजाबी भार्षा की शिलतिप गुरुमुखी है अथा)त् गुरुओं के मुख से तिनकली बानी। 16 वीं शताब्दी के दौरान पहले शिसख गुरु गुरुनानक और गुरु अंगद के _ारा गुरुमुखी वण)माला तैयार की गयी। यह शिलतिप लण्डा की वण)माला पर आधारिरत है।

गुरुमुखी शिलतिप में 35 वण) होते हैं। पहले तीन वण) तिबAकुल खास हैं क्योंतिक वे स्वर वणu के आधार होते हैं। गुरूमुखी का अथ) है गुरूओं के मुख से तिनकली हुई। अवश्य ही यह शब्द ‘वाणी’ का द्योतक रहा होगा, क्योंतिक मुख से शिलतिप का कोई संबंध नहीं है। किक<तु वाणी से चलकर अक्षरों के शिलए यह नाम रूढ़ हो गया। इस प्रकार गुरूओं ने अपने प्रभाव से पंजाब में एक भारतीय शिलतिप को प्रचशिलत तिकया। पहले लिस<ध की तरह पंजाब में भी फारसी शिलतिप का प्रचलन था अगर गुरुओं ने गुरुमुखी का तिवकास नहीं तिकया होता तो आज भारतीय पंजाब में फारसी शिलतिप का ही प्रचलन होता।

गुरुमुखी शिलतिप में तीन स्वर और 32 वं्यजन हैं। स्वरों के साथ मात्राए ँजोड़कर अन्य स्वर बना शिलए जाते हैं। इस शिलतिप की तिनम्न तिवशेर्षताए ँहैं—

गुरुमुखी शिलतिप वह शिलतिप है, जिजसमें शिसक्खों का धम)ग्रन्थ 'गुरुग्रन्थ साहब' शिलखा हुआ है।

गुरु नानक के उ`राधिधकारी गुरु अंगद ने नानक के पदों को शिलखने के शिलए गुरुमुखी शिलतिप केा तिनमा)ण तिकया, जो �ाह्मी से तिनकली थी और पंजाब में उनके समय में प्रचशिलत थी।

गुरुवाणी इसमें शिलखी गई, इसशिलए इसका नाम 'गुरुमुखी' पड़ गया।

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वास्तव में 'गुरुमुखी' शिलतिप का नाम है, परन्तु भूल से लोग इसे भार्षा भी समझ लेते हैं।

इस शिलतिप की वही वण)माला है, जो संस्कृत और भारत की अन्य प्रादेशिशक भार्षाओं की है।

Gurmukhi script (ਗੁਰਮੁਖੀ)

Vowels and Vowel diacritics (Laga Matra)

Consonants (Vianjans)

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Numerals

6.2 वाराणसी का पंजाबी समुदायः--(क) ऐषितहाचिसक परिरMय -- वाराणसी, जो काशी नाम स े लोकतिप्रय है, तिवश्व की प्राचीनतम नगरी है और भारतीय संस्कृतित का जीवन्त प्रतीक है। यह भारत की सात पुरिरयों में से एक है। भौगोशिलक दृधिdकोण से वाराणसी गंगा की उव)र मध्य घाटी में गंगा के बांयें तट पर अवस्थिस्थत है। भारत पाक तिवभाजन के बाद पंजाबी और शिसख भारत के अन्य शहरों में

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आ बसे तो बनारस अछूता क्यों रहता। यहाँ भी शिसख समाज के लोगों ने आकर जबरदस्त श्रम तिकया, उ`रो`र व्यवसाय में प्रगतित की और काशी को श्रम व ईमानदारी का संस्कार दिदया। शिसख जहाँ भी रहता है अपनी पहचान बनाकर रहता है। इसी मान्यता को शिसखों ने बनारस में भी स्थातिपत तिकया।

गुरु ग्रंथ सातिहब में मुशिक्त के साथ जीवन शब्द भी आता है। इसका अथ) है अपने जीवन में ही मुक्त होना और शिसखों ने अपने कम) से जीवंत बनारस को भी जीवन दिदया है। सेवा व शिसमरन शिसख धम) के मूल शिसद्धात हैं। शिसख समाज का काशी से गहरा नाता इसशिलए भी ह ै तिक इलाहबाद तित्रवेणी से चलकर गुरुतेगबहादुर साहब न े धिमजा)पुर, चुनार, भुइली सातिहब आदिद स्थानों से होते भाई कAयाण जी को उनके तिनवास स्थान काशी में आकर दश)न दिदया। गुरुनानक देव के बताए माग) पर चलते हुए शिसख समाज ने सच्चे सौदे का व्यापार करके सच्ची कीरत की शुरुआत की और इसी परम्परा को तिनभाते हुए शिसख समाज ने काशी के साथ पूरे देश और तिवदेश में प्रतितष्ठा प्राप्त की।

तिहन्दू धम) का प्रमुख स्थान होने के साथ-साथ बनारस शिसखों का भी मुख्य धार्मिम<क स्थान है। क्योंतिक ऋतिर्ष-मुतिनयों के इसी आदिद स्थान पर शिसख धम) के प्रवत)क गुरु नानक देव महाराज और तिहन्दी की चादर, तिहन्दू धम) के तितलक व जनेऊ के रखवाले नवम बादशाह गुरु तेग बहादुर महाराज और गुरुगोतिवन्द लिस<ह के पतिवत्र चरण भी पडे़। शिसख धम) के व्यास माने जाने वाले, भाई गुरुदास और दशमेश तिपता _ारा भेजे गये प्रथम पांच तिनम)ल संतों ने भी कभी इसी नगरी को अपना आवास बनाया था।

तिवaम संवत् 1563 महाशिशवरात्री के पावन पव) पर काशी पुरी गुरु_ारा गुरुबाग में गुरु नानक जी का आगमन हुआ था। तिवश्वेश्वरगंज के समीप जतनबर मुहAले में चेतन मठ स्थिस्थत है जहाँ छठवें गुरु हरीगोतिवन्द साहबजी के समय गुरु घराने के व्यास भाई गुरुदास

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महाराज जी काबुल से आकर काशी में ठहरे थे। इनसे प्रभातिवत होकर उस समय के काशी नरेश ने यह स्थान इन्हें समर्गिप<त कर दिदया।

काशी में गुरुनानक के आगमन के पoात् कई लोगों में आपस में ज्ञान की चचा)ए ँहुईं। लक्सा महाल (आधुतिनक गुरुबाग) में गुरुनानक देव दिटके। कबीर, रामानन्द, रतिवदास एवं अन्य भक्तों की उत्कृd वाक्षिणयों को उन्होंने एकतित्रत तिकया और लोगों को उनका सीधा-साधा, सही अथ) समझाया। श्री गुरु गोतिवन्द लिस<ह ने भी अपने पाँच शिशष्यों को काशी संस्कृत पढ़ने के शिलए भेजा जो सात वर्षu तक यहाँ रहे और तिवद्याभ्यास करते रहे। बाद में उन्होंने शिसख धम) की शिशक्षा के प्रसार में सतिaय भाग शिलया। श्री गुरू गोतिवन्द लिस<ह से पहले उनके तिपता गुरू तेगबहादुर भी काशी आये थे। उनकी याद में आज भी नीची बाग में सुन्दर गुरु_ारा है। यहा ँ गुरूजी के तपस्थल पर एक सुघड़ बावली है। कहा जाता ह ै तिक इस बावली का सीधा सम्बन्ध गंगा से है और गंगा के जल स्तर के साथ इसका जलस्तर बढ़ता-घटता रहता है।

पहले वाराणसी के आस पास के गाँवों में शिसख धम) को मानने वाले अधिधक थे। अब मुख्य रूप से वाराणसी शहर में शिसखों का अपना तिवशिशd स्थान और महत्व है। शिसखों के जीवन में समाज और धम) अलग-अलग नहीं तिकये जा सकते। धम) और समाज का इतना गहरा सम्बन्ध है तिक शिसख का हर काय) धम) की ओट से प्रारम्भ होता है। शिसख का मुख्य पे्ररणा स्रोत श्री गुरुग्रन्थ सातिहब है। यह वह शब्द गुरु है जो शिसख को सम्प्रदाय तिनरपेक्ष, स्वतंत्र, मानवतावादी और तिनभ)य रहने की प्रेरणा देता रहता है। काशी आज भी तिवद्या का महान केन्द्र है। शिसख नौजवान यहाँ से तिवद्या प्राप्त कर उस तिवद्या को सही अथu में साथ)क बनाने की शिशक्षा गुरु_ारे से लेता है। अन्य स्थानों की तरह काशी में भी काम धने्ध के तिहसाब स े कुछ श्रेक्षिणया ँ हैं। उनम ें कुछ व्यवसायी हैं, कुछ नौकरीपेशा ह ैं और कुछ छोटे मोटे दुकानदार हैं।

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काशी संगीतकारों की नगरी है। शिसखों के जीवन में भी संगीत का तिवशेर्ष महत्व है। गुरुग्रन्थ सातिहब के सभी पद गेय हैं और तिवक्षिभन्न राग-रातिगतिनयों में शिलखे गये हैं। गुरु_ारे की कीत)न परम्परा हर शिसख को तिकसी न तिकसी प्रकार इस मधुर एवं महान् लशिलत कला से सम्बद्ध तिकये हुए है। प्राचीन तिवद्या तथा संस्कृत का अध्ययन करने के शिलए गुरु गोकिव<द लिस<ह जी _ारा भेजे गये पांच शिशष्यों की परम्परा में शिसखों का तिनम)ल पंथ तिनम)ल संस्कृत तिवद्यालय तिवश्वनाथ गली के लाहौरी टोले में चल रहा है। इसमें शिशक्षिक्षत शिसख समाज के लोग बढ़ चढ़ कर अपना योगदान देते हैं।

शिसख समाज के लोग मेहनती होने के साथ साथ धम)तिनष्ठ भी होते हैं, इस कारण वाराणसी में गुरु_ार े के अलावा कुछ देवालयों के तिनमा)ण में भी इनका योगदान रहा है। वेाराणसी की कई धम)शालाओं का तिनमा)ण, यातित्रयों के ठहरने के उ¦ेश्य से शिसख समाज के लोगों न े करवाया है। गुरुबाग म ें स्थिस्थत गुरु_ार े म ें भी यातित्रयों के ठहरन े की अच्छी व्यवस्था है। जब भी अवसर धिमलता है ये गुरु_ारे में सेवा करने से पीछे नहीं हटते। इसके अलावा गुरुनानक खालसा स्कूल गुरुबाग, शिशवपुर गुरुनानक अस्पताल, गुरुबाग आदिद भी इसी कड़ी से जुडे़ हैं।

वाराणसी में पंजाबी लोग सबसे ज्यादा लाहौरी टोला, संजय नगर, गुरुबाग,

श्रीनगर, नानक नगर, गाँNी नगर, कमच्छा, नीMीबाग, कॉटन मिमल, अशोक नगर आदिद स्थानों पर बसे हुए हैं। लाहौरी टोला के आस पास बसे पंजाबी देश के बेँटवारे के समय वाराणसी आए थे। पंजाबी बन्धुओं के प्रमुख व्यावसाधियक क्षेत्र हैं—मालवीय माकx ट, मैदाषिगन, षिपप्लानी कटरा, गुरुबाग, नीMीबाग, लहरतारा, रामकटोरा, नदेसर, लहुराबीर, मलदषिहया, घौसाबाद, Mौकाघाट इत्यादिद। सही मायन े में पंजातिबयों का आगमन सन् 47 के बाद से हुआ, उस समय पंजाबी समुदाय के कुछ लोग पातिकस्तान वाले पंजाब से और कुछ लुधिधयाना से आकर यहाँ बस गए। सन् 47 से पहले

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भी कुछ शिसख धम) के लोग वाराणसी आए, परन्तु वे उ¦ेश्य पूरा होने के बाद वापस चले गए। सन ् 1950 से 1984 के बीच वाराणसी में पंजाबी समुदाय के लोग अच्छी खासी संख्या में तिनवास करते थे। तब बनारस में रहने वाले पंजातिबयों की संख्या लगभग 25000 स े 30000 के करीब थी तिकन्त ु सन ् 1984 में हुए दंगों के बाद धीरे-धीर े अधिधकांश पंजातिबयों न े वाराणसी को छोड़ दिदया। तब से लगातार पलायन होन े के कारण वत)मान समय में वाराणसी में रहने वाले पंजातिबयों की संख्या घट कर बहुत कम हो गई है। इस समय वाराणसी में बहुत कम पंजाबी ही रह गए हैं।

पंजाबी समाज के लोगेों की रुशिच नौकरी की अपेक्षा व्यवसाय में अधिधक होती है तथा ये लोग बहुत मेहनती होते हैं, अतः मेहनत कर अपने व्यवसाय को बहुत आगे बढ़ाते हैं। ये हर तरह का व्यवसाय अचे्छ से अचे्छ ढंग से करते हैं। सन् 1947 के समय जो पंजाबी यहाँ आकर बस गए, उन्होंने भी जीतिवकोपाज)न हेतु व्यवसाय को ही प्रधानता दी। वाराणसी में मीठीसौंफ, सुपारी आदिद के व्यवसाय म ें इनकेा महत्वपूण) योगदान है। यही नहीें वाराणसी के साड़ी व्यवसाय में भी इनका अधिधकार रहा है। कपड़े के व्यवसाय में पंजातिबयों ने खूब उन्नतित की। पंजाबी समाज के लेोगों ने वाराणसी में कई तरह के व्यवसाय तिकए, जिजनमें प्रमुख हैं—साइतिकल उद्योग, टायर उद्योग, ट्रान्सपोट) उद्योग, शिसलाई मशीन उद्योग, स्टेशनरी उद्योग, पेट्रोल-पंप, गैस एजेन्सी इत्यादिद। वत)मान समय में इनकी कई पीदिढ़यां यहाँ रहते रहते स्वयें को यहीं का तिनवासी मानने लगी हैं।

(ख) शैशिक्षक तथा समाजिजक स्लि�षित— वाराणसी में तिनवास करने वाले पंजाबी समुदाय के लोगों का रुझान अपने व्यवसाय की ओर अधिधक है। अतः उनमें शिशक्षा को लेकर उत्साह अन्य भातिर्षक समुदायों की तुलना म ें कम पाया गया है। वाराणसी म ें पंजातिबयों के कई शिशक्षण संस्थान हैं। पढे़ शिलखे वग) के कई लोगों ने धिमलकर वाराणसी में इन संस्थानों की स्थापना की है। पंजाबी समुदाय के लोगों को अपनी मातृभार्षा के अतितरिरक्त तिहन्दी, अंग्रेजी,

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भोजपुरी, तिबहारी भार्षाए ँभी आती हैं। पंजाबी समाज के लोगों का आगमन कुछ तो राजा रनजीत लिस<ह के साथ हुआ था जिजनका उ¦ेश्य धम) से जुड़ा हुआ था। अतः शिशक्षा के क्षेत्र में उन लोगों ने भरपूर योगदान दिदया गुरुवचनों का प्रचार प्रसार शिसफ) अपनी भार्षा में ही नहीं बल्किAक अन्य भार्षा में भी तिकया। वाराणसी में शिसख समुदाय के लगभग एक हजार परिरवार बसे हैं। इनमें से अधिधकांश व्यवसाय से जुड़े हैं कुछ शिसख बन्धु हैं जो धम) व शिशक्षा से जुड़ कर गुरु_ारे इत्यादिद में छात्रों की शिशक्षा दीक्षा में लगे हैं। अन्य भार्षा-भातिर्षयों की तुलना में पंजाबी समुदाय के कम लोग ही शिशक्षा में रुशिच लेते हैं।

पंजाबी समुदाय के लोग अधिधकांशतः संयुक्त परिरवार के रूप में रहते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवसाय को आगे बढ़ाने का काय) नवयुवकों का होता है। अतः य े लोग परिरवार में अपनी मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं तथा अपने व्यवसाय के दौरान तिहन्दी या काशिशका का प्रयोग करते हैं। परिरवार में जो बड़े बुजुग) लोग हैं उनको शुद्ध गुरुमुखी या पंजाबी का प्रयोग करते देखा जा सकता ह ै और घर की मतिहलाए ँभी अधिधकांश अपनी मातृभार्षा का ही प्रयोग करती हैं। शिशक्षा के अभाव में ये अपने धार्मिम<क ग्रंथों को भी कम ही पढ़ पाती है। गुरु_ार े जाकर पाठ सुनने का काय) य े भली भांतित करती हैं। इससे इनकी मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना देखी जा सकती है। नवयुवक अपनी मातृभार्षा के अलावा तिहन्दी, अंग्रेजी का भी प्रयोग करते हैं। कभी कभी तो ये घर परिरवार के सदस्यों से भी तिहन्दी भार्षा म ें ही बात करते हैं। इनकी पंजाबी भार्षा धिमक्षिश्रत हो गयी है। वाराणसी में आकर बसे सभी भार्षा भार्षी समुदायों में एक जैसी स्थिस्थतित बन गई है। सभी ने वाराणसी को अपना शिलया है और वाराणसी ने भी सभी को अपना शिलया है।

काशी नगरी में कभी जातितगत या भार्षागत संकीण)ता नहीं रही। यहाँ भारत का लघु रूप सरलता से देखा जा सकता है। यदिद बंगाली टोले में बंगाल से आए परिरवार रहते हैं, तो लाहौरी टोले में लाहौर से आये खत्री व पंजाबी परिरवार। हनुमान घाट में दक्षिक्षण भारतीय

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परिरवार बसे हैं, तो पंचगंगा घाट, दुगा) घाट व �म्हा घाट में महाराष्ट्र के परिरवार रहते हैं। सूतटोले और दूधतिवनायक में गुजराती रहते हैं, तो कुछ के्षत्रों में इसी प्रकार मारवाड़ी रहने लगे। मगर यह तिवभाजन तिकसी संकीण)ता के आधार पर नहीं धिमलता। मारवाड़ी के मकान में गुजराती परिरवार भी सुतिवधापूव)क रहता है और मराठी के मकान में पंजाबी परिरवार साथ-साथ रहते हुए धिमलते हैं।

6.3 भाषिषक व्यवहार तथा उसका समाजभाषिषक षिवशे्लषण :--वाराणसी म ें रहन े वाल े पंजाबी समाज के लोगों के भातिर्षक व्यवहार का तिवशे्लर्षण इस समुदाय के 100 सूचकों _ारा प्रद` जानकारी व आँकड़ों तथा अन्य तिवक्षिभन्न स्रोतों के माध्यम स े एकत्र सामग्री के आधार पर तिकया गया है। सूचकों की आय, शिशक्षा आदिद महत्वपूण) तथ्यों का तिववरण इस प्रकार है।लिल<ग तथा आय ु के आधार पर सूचकों का वग�करण तिनम्नशिलखिखत है—

आयु पुरुष मषिहला कुलयोग5-25 15 15 30

25-50 30 20 50

50 + 15 05 20

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सूचकों की शैक्षिक्षक योग्यता की जानकारी प्रश्नावली की प्रश्न संख्या चार से प्राप्त होती है। सूचकों की शैक्षिक्षक स्थिस्थतित का तिववरण तिनम्नवत है--

शिशक्षा पुरुष मषिहला कुल योग

अशिशक्षिक्षत 05 05 10

अध)शिशक्षिक्षत 40 17 57

शिशक्षिक्षत/उच्चशिशक्षिक्षत 15 10 25

तकनीतिक 05 03 08

तिवक्षिभन्न शैक्षिक्षक वगu में तिनतिहत आंकड़ों से यह स्पd है तिक अशिशक्षिक्षत, उच्चशिशक्षिक्षत तथा तकनीतिक वगu की अपेक्षा अध)शिशक्षिक्षत वग) में सूचकों की संख्या अधिधक है जिजससे यह स्पd होता है तिक पंजाबी समुदाय में शिशक्षा का स्तर बहुत अच्छा नहीं है। ग्राफ़ _ारा यह तथ्य और भी सुस्पd हो जाता है—

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0

5

10

15

20

25

30

5 to25 25 to 50 50+

आयु का वगvकरण

पुरुर्षमतिहला

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व्यवसाय सम्बन्धी तिवक्षिभन्न वगu में सूचकों की संख्या का तिववरण अधोशिलखिखत है। सामग्री संकलन हेतु प्रयुक्त प्रश्नावली में प्रश्न संख्या 5 तथा 6 व्यवसाय तथा माशिसक आय तिवर्षयक जानकारी से सम्बद्ध हैं। नीचे दिदया गया पाई चाट) तिवक्षिभन्न व्यावसाधियक वगu के सूचकों की सहभातिगता के प्रतितशत को प्रदर्थिश<त करता है।

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वाराणसी में तिनवास करने वाले पंजाबी समुदाय के लोगों की आर्थिथ<क स्थिस्थतित के तिवर्षय में जानकारी प्रश्नावली के माशिसक आय सम्बन्धी 5 वें प्रश्न से प्राप्त हुई। सूचकों _ारा दिदए गए आंकड़ों का तिववरण इस प्रकार है।–

आय पुरुष मषिहला कुल योग

उच्च आय वग6 20 10 30

मध्यम आय वग6 30 20 50

षिनम्न आय वग6 10 10 20

आगे दिदया गया पाई चाट) यह दशा)ता है तिक सूचकों में से तिकतने प्रतितशत लोगों का जन्म वाराणसी में हुआ है और तिकतने प्रतितशत बाहर से आए हैं। जैसातिक चाट) से पता चलता है तिक अधिधकांश लोगों का जन्म वाराणसी में ही हुआ है क्योंतिक इनके माता-तिपता अथवा

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पूव)ज मुख्यतया भारत पातिकस्तान तिवभाजन के कारण व अन्य तिवक्षिभन्न कारणों से कई वर्ष) पूव) वाराणसी में आकर बस गए और यहीं के स्थायी तिनवासी हो गए।

वा रा णसी में षिन वा स की स्लि� षित

60%

40% जन् म से तिन वा स बा हर से आए

वाराणसी में रह रहे पंजाबी समुदाय के लोगों से वाता)लाप करने पर तथा साक्षात्कार _ारा यह पता चला तिक सन् 1984 में हुए शिसक्ख तिवरोधी दंगों में हुए जान-माल के नुकसान के बाद तिवगत वर्षu में बड़ी संख्या में पंजाबी परिरवारों ने वाराणसी से पलायन तिकया है। वत)मान समय में वाराणसी में तिनवास करने वाले पंजाबी परिरवारों की संख्या पहले की अपेक्षा बहुत कम है।

(क) वाराणसी के पंजाबी समुदाय में षि<भाषिषकता तथा बहुभाषिषकता की स्लि�षितः --

वत)मान समय में तिवश्व में एकभार्षी समाजों की संख्या बहुत ही कम या न के बराबर है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में लगभग हर भार्षासमाज ति_भार्षी एवं बहुभार्षी है। भार्षा-सम्पक) के फलस्वरूप उद्भतू यह ति_भातिर्षकता, बहुभातिर्षकता एवं उसके कारण आदान,

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कोड-धिमश्रण तथा कोड-परिरवत)न आदिद समाजभातिर्षक प्रवृक्षि`याँ भातिर्षक प्रकाय) के तिवक्षिभन्न स्तरों पर दिदखलाई पड़ती हैं।

वाराणसी म ें तिनवास करन े वाल े पंजाबी समाज का भातिर्षक व्यवहार भी ति_भार्षी तथा बहुभार्षी है। यहाँ के पंजाबी समुदाय का हर व्यशिक्त अपने भातिर्षक व्यवहार में पंजाबी के साथ-साथ तिहन्दी भार्षा का प्रयोग बड़ी सहजता व कुशलता के साथ करता है। बनारस में रहने वाले पंजाबी समाज के अधिधकांश लोग मुख्य रूप से तिवक्षिभन्न उद्योगों व व्यवसायों से जुड़े हैं। कुछ लोग नौकरीपेशा भी हैं और कुछ तिवक्षिभन्न गुरु_ारों में धार्मिम<क गतिततिवधिधयों के संरक्षण तथा संचालन से जुडे़ हुए हैं। अतः ये लोग पंजाबी, तिहन्दी के अतितरिरक्त काशिशका या भोजपुरी तथा अंग्रेज़ी का भी व्यवहार करते हैं।

वाराणसी में तिनवास करने वाले पंजाबी परिरवारों में लोग घरों में परस्पर वाता)लाप में पंजाबी भार्षा का ही प्रयोग करते हैं। तिवशेर्ष रूप से परिरवारों की मतिहलाए ँतथा बडे़-बुजÕग) परस्पर पंजाबी भार्षा का ही सवा)धिधक प्रयोग करते हैं। इनके भातिर्षक व्यवहार में अन्य भार्षाओं के प्रयोग का प्रतितशत काफी कम है। महत्वपूण) तथ्य यह है तिक इनके _ारा व्यवहृत पंजाबी भार्षा में शुद्धता का प्रतितशत अधिधक होता है। परिरवारों के वयस्क सदस्य पंजाबी के साथ-साथ तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका, अंग्रेजी आदिद अन्य भार्षाओं का प्रयोग बहुतायत से तथा सहजतापूव)क करते हैं। क्योंतिक कामकाज तथा सामाजिजक दाधियत्वों के तिनव)हन के कारण ये लोग अन्य भार्षाभार्षी लोगों के सम्पक) में अधिधक आते हैं। युवा वग) के भातिर्षक व्यवहार म ें पंजाबी के अतितरिरक्त तिहन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका आदिद इन अन्य भार्षाओं के प्रयोग का प्रतितशत अधिधक है। इसी प्रकार बच्चे भी अपने दैतिनक तिaयाकलापों में समे्प्रर्षण हेतु पंजाबी के अलावा तिहन्दी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी या काशिशका आदिद भार्षाओं का प्रयोग अधिधक करते हैं। क्योंतिक स्कूल तथा अन्य गतिततिवधिधयों में भागीदारी के दौरान ये

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अन्य भातिर्षक समुदाय के बच्चों के साथ अधिधक समय व्यतीत करते हैं। घर-परिरवार में भी बचे्च पंजाबी के साथ-साथ तिहन्दी तथा अंग्रेज़ी का प्रयोग करते रहते हैं।

अतः यह स्पd है तिक वाराणसी में तिनवास करने वाला पंजाबी समुदाय प्रायः ति_भार्षी या बहुभार्षी है। इस समाज के भार्षायी कोश की मुख्य प्रतितभागी भार्षाए ँहैं—पंजाबी, तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका, अंग्रेज़ी तथा उदू)। पंजाबी समाज के लोगों का उदू) भार्षा का ज्ञान तथा प्रयोग का स्तर अन्य भातिर्षक समुदायों के लोगों की अपेक्षाकृत अच्छा तथा अधिधक है।

आयु, शिशक्षा, परिरवेश इत्यादिद कारणों से वाराणसी के पंजाबी समाज के तिवक्षिभन्न वगu में बहुभातिर्षकता तथा भातिर्षक सामथ्य) का स्तर अलग-अलग है। इसका तिवशे्लर्षण तिनम्नशिलखिखत है।

1.वृद्ध व्यचिक्त —

षिकसी भी समाज के बुज£ग6 और वृद्ध लोगों पर अपनी भाषा , संस्कृषित तथा परम्पराओं के संरक्षण एव ं षिनव6हन का गुरूगम्भीर दामियत्व सदैव ही होता है। वाराणसी के पंजाबी समाज के वृद्ध लोग अपनी मातृभाषा के अनुरक्षण के प्रषित षिवशेष रूप से सMे� हैं। Nम6 , शिशक्षा तथा व्यवसाय के षिवशिभन्न क्षेत्रों से जुqे होने के कारण पंजाबी समुदाय के बुज£ग6 वग6 के पुरुष प्रायः बहुभाषी हैं। षिकन्तु घर परिरवार में ये षिवशुद्ध पंजाबी में ही बात करते हैं एवं समुदाय के अन्य लोगों के साथ बातMीत में भी ये पंजाबी का ही प्रयोग करते हैं। इनके <ारा बोली जाने वाली पंजाबी अचिNक शुद्ध व परिरमार्जिजFत है। अन्य भाषाओं का प्रयोग भी ये दक्षतापूव6क बqी सहजता से करते हैं। वृद्ध मषिहलाए ँषिवशुद्ध पंजाबी बोलती हैं तथा इनके <ारा अन्य भाषाओं के प्रयोग का प्रषितशत बहुत कम है। वृद्ध वग6 के लोग पत्र व्यवहार तथा चिलखने - पढ़ने के अन्य कायw में पंजाबी तथा षिहन्दी दोनों का ही प्रयोग करते हैं। Nार्मिमFक कृत्यों में ये

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लोग केवल शुद्ध पंजाबी का प्रयोग करते हैं। पंजाबी समुदाय का वृद्ध वग6 उदू6 का भी अच्छा ज्ञान रखता है तथा उसका प्रयोग भी करता है। षिवशिभन्न भाषाओं के सन्दभ6 में इनकी भाषिषक दक्षता की स्लि�षित को हम इस प्रकार समझा सकते हैं —

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 पंजाबी कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

3 अंग्रेज़ी कुशल सामान्य सामान्य अAप

4 भोजपुरी सामान्य सामान्य नहीं नहीं

5 संस्कृत नहीं नहीं नहीं नहीं

6 उदू6 कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

2. काय6 क्षेत्र से जुqे लोग —

तिवक्षिभन्न काय)क्षेत्रों से जुड़े लोगों में क्षिभन्न-क्षिभन्न भार्षाओं के ज्ञान तथा प्रयोग का स्तर उनके सामाजिजक परिरवेश तथा दैतिनक काय)कलाप में समे्प्रर्षण की आवश्यकता पर तिनभ)र करता है। वाराणसी जैसे तिहन्दी भार्षी क्षेत्र में रहने के कारण पंजाबी समुदाय के लगभग सभी लोगों को तिहन्दी भार्षा का बहुत अच्छा ज्ञान है तथा ये लोग अपने दैतिनक भातिर्षक व्यवहार में पंजाबी के बाद तिहन्दी का ही सवा)धिधक प्रयोग करते हैं। जैसातिक हम पहले भी उAलेख कर चुके ह ैं तिक पंजाबी समाज के अधिधकांश लोग तिवक्षिभन्न व्यवसायों से जुड़े हैं। तिकन्तु कुछ पंजाबी बन्धु नौकरीपेशा भी हैं। तिवक्षिभन्न सरकारी व गैरसरकारी सेवाओं से जुड़े ये पंजाबी बन्धु पंजाबी के साथ-साथ तिहन्दी और अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार क्षिभन्न-क्षिभन्न उद्योगों तथा व्यवसायों से जुड़े लोग पंजाबी तथा तिहन्दी के अतितरिरक्त

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कई कूट भार्षाओं के प्रयोग में भी काफी कुशल होते हैं। व्यवसायी वग) के पंजाबी बनु्धओं की अंगे्रज़ी भार्षा म ें दक्षता प्रायः सामान्य अथवा अAप होती है। तिकन्त ु भोजपुरी या काशिशका तथा उदू) का ये तिनपुणता पूव)क प्रयोग करते हैं। तिवक्षिभन्न काय)क्षेत्रों से जुड़े पंजाबी बनु्धओं की क्षिभन्नक्षिभन्न भार्षाओं में भातिर्षक दक्षता को ताशिलका के माध्यम से इस प्रकार दशा)या जा सकता है--

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

1 पंजाबी कुशल कुशल कुशल कुशल

2 हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल/सामान्य

3 अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

4 भोजपुरी कुशल कुशल सामान्य सामान्य

5 संस्कृत नहीं नहीं नहीं नहीं

6 उदू6 सामान्य/कुशल सामान्य/कुशल सामान्य सामान्य

3. मषिहलाएँ —

वाराणसी के पंजाबी समुदाय की मतिहलाऐं स्वाभातिवक रूप से अपने भातिर्षक व्यवहार म ें पंजाबी का ही सवा)धिधक प्रयोग करती हैं। मातृभार्षा पंजाबी के अनुरक्षण का दाधियत्व वस्तुतः इन्ही पर है। पंजाबी के साथ-साथ तिहन्दी भार्षा का भी समुशिचत प्रयोग करती हैं। जो मतिहलाए ँतिवक्षिभन्न काय) के्षत्रों से जुड़ी हैं वे अपने दैतिनक भातिर्षक व्यवहार में पंजाबी, तिहन्दी के अतितरिरक्त अंग्रेज़ी भार्षा का भी कुशलतापूव)क प्रयोग करती हैं। भोजपुरी या काशिशका का भी इन्हें ज्ञान होता है। और वहीं केवल घर परिरवार के बीच ही

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रहने वाली पंजाबी मतिहलाए ँपंजाबी का ही सवा)धिधक प्रयोग करती हैं। तिहन्दी भार्षी के्षत्र में रहन े के कारण इन्ह ें तिहन्दी भार्षा का सहज ज्ञान है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग कर लेती हैं। तिकन्तु अंग्रेज़ी भार्षा का प्रयोग अAप ही करती हैं। धार्मिम<क कृत्यों व अनुष्ठानों म ें य े तिवशुद्ध पंजाबी का भी प्रयोग करती हैं। अतः पंजाबी मतिहलाओं में भी काय)के्षत्र से जुड़ी तथा घरपरिरवार में रहने वाली मतिहलाओं की भातिर्षक दक्षता की स्थिस्थतित अलग-अलग है। इस तथ्य को दो क्षिभन्न ताशिलकाओं के _ारा भली प्रकार समझा जा सकता है-

(काय6क्षेत्र से जुqी मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

पंजाबी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल/सामान्य कुशल सामान्य

अंग्रेज़ी कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप नहीं नहीं

संस्कृत नहीं नहीं नहीं नहीं

उदू6 सामान्य अAप अAप नहीं

(घर में रहने वाली मषिहलाओं की भाषिषक दक्षता की स्लि�षित)

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

पंजाबी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल/सामान्य सामान्य सामान्य/अAप अAपPage 204

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अंग्रेज़ी सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य अAप/सामान्य

भोजपुरी सामान्य अAप/नहीं नहीं नहीं

संस्कृत नहीं नहीं नहीं नहीं

उदू6 सामान्य सामान्य/अAप सामान्य अAप

4. युवा वग6 तथा बचे्च —

वाराणसी में रहने वाले पंजाबी समुदाय के बच्चे पंजाबी बोलते हैं और शिलख भी लेते हैं। पंजाबीभार्षी लोग अपनी मातृभार्षा के संरक्षण के प्रतित सचेd हैं इसशिलए वे अपने बच्चों को प्राथधिमक पाठशाला के अतितरिरक्त घर में भी पंजाबी की समुशिचत शिशक्षा देते हैं जिजसके कारण पंजाबी समुदाय की नई पीढ़ी में बोलना, शिलखना, समझना व पढ़ना भार्षा के चारों रूप भली प्रकार जीतिवत हैं। तिकन्तु यह भी सत्य है तिक ये बच्चे अपना अधिधक से अधिधक समय स्कूल में खेलकूद व अन्य शैक्षक्षिणक गतिततिवधिधयों में व्यतीत करते हैं। अतः घर से बाहर वे तिहन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। पंजाबी समुदाय _ारा संचाशिलत स्कूलों म ें पंजाबी भार्षा केवल प्राथधिमक स्तर तक पढ़ाई जाती है। आगे की कक्षाओं तथा अन्य स्कूलों में शिशक्षा का माध्यम तिहन्दी या अंग्रेजी ही है। इस कारणपंजाबी समुदाय के बच्चों को तिहन्दी तथा अंग्रेज़ी भार्षा का समुशिचत ज्ञान ह ै तथा य े इन भार्षाओं का प्रयोग अत्यन्त कुशलतापूव)क करते हैं।

वाराणसी के पंजाबी समाज के युवा वग) की भी स्थिस्थतित लगभग ऐसी ही है। यहाँ रहने वाले अधिधकांश पंजाबी युवाओं को अपनी दैतिनक शैक्षिक्षक व अन्य गतिततिवधिधयों में पंजाबी भार्षा को सीखने, शिलखने तथा पढ़ने के अवसर सहजता से नहीं धिमल पाते हैं। गीत-संगीत तथा तिफ़Aमों म ें पंजाबी भार्षा की अत्यधिधक लोकतिप्रयता के कारण तथा गुरु_ारों के धार्मिम<क

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कृत्यों में शुद्ध पंजाबी भार्षा के प्रयोग के कारण ये लोग पंजाबी भार्षा भली प्रकार बोलते और समझते हैं तिकन्तु पंजाबी भार्षा में शिलखने तथा पढ़ने में दक्षता इन्हें तिवशेर्ष प्रयत्न _ारा अर्जिज<त करनी होती है।पंजाबी समुदाय के उच्च शिशक्षा ग्रहण करने वाले युवा अंग्रेज़ी भार्षा के प्रयोग म ें तिनपुण होत े ह ैं तथा किह<दी का भी इन्ह ें अच्छा ज्ञान होता है। भोजपुरी या काशिशका का भी ये समुशिचत प्रयोग कर लेते हैं।

तिवक्षिभन्न भार्षाओं में इनकी दक्षता का तिववरण इस प्रकार है--

समझना बोलना पढ़ना चिलखना

पंजाबी कुशल कुशल कुशल कुशल

हिहFदी कुशल कुशल कुशल कुशल

अंग्रेज़ी कुशल कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य कुशल/सामान्य

भोजपुरी सामान्य सामान्य अAप नहीं

संस्कृत नहीं नहीं नहीं नहीं

उदू6 सामान्य अAप/सामान्य अAप अAप

इस प्रकार वाराणसी में तिनवास करने वाले पंजाबी समाज के तिवक्षिभन्न आयुवग) के लोगों की भातिर्षक दक्षता के तिवशे्लर्षण से यह स्पd है तिक यहाँ रहने वाले पंजाबी लोग लम्बे समय से अन्य भार्षा भातिर्षयों के सम्पक) में हैं। अतः ये लोग अन्य भार्षाओं के प्रयोग में भी पया)प्त तिनपुण हैं। कुछ लोग जैसेतिक बडे़-बुजÕग) और मतिहलाए ँजोतिक अन्य भार्षाओं के सम्पक) में कम आते हैं तथा केवल पंजाबी का ही मुख्य रूप से प्रयोग करते हैं उनका अन्य भार्षाओं का ज्ञान सीधिमत है। तिकन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम है। काय)क्षेत्र से जुडे़ लोगों, युवा वग) तथा बच्चों को तिहन्दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी या काशिशका का भी अच्छा ज्ञान है। पंजाबी

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समुदाय के लोगों को पारम्परिरक रूप से उदू) भार्षा का भी अच्छा ज्ञान है। अतः यह स्पd है तिक वाराणसी का पंजाबी समुदाय पूण)तया बहुभार्षी है।

बहुभातिर्षकता के फलस्वरूप वाराणसी के पंजाबी समाज _ारा प्रयुक्त तिवक्षिभन्न भार्षाओं ने परस्पर एक दूसरे को प्रभातिवत तिकया है जिजसका प्रभाव तिवक्षिभन्न भातिर्षक स्तरों पर कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न व आगत शब्दों के प्रयोग की बहुलता के रूप में स्पd दिदखलायी पड़ता है। जिजसका तिवस्तृत तिववरण इस प्रकार है।

(क) कोड मिमश्रण -

सहअल्किस्तत्व तथा अन्य भार्षाओं के पारस्परिरक प्रभाव के कारण वाराणसी में रहने वाले पंजाबी समाज की मातृभार्षा पंजाबी भी बहुत प्रभातिवत हुई है। बहुभातिर्षक स्थिस्थतित के कारण अन्य भार्षाओं के अनेकों शब्द यहा ँ बोली जाने वाली पंजाबी भार्षा में सहज ही घुलधिमल गए हैं। तिहन्दी भार्षा न े यहा ँ की पंजाबी को सबसे अधिधक प्रभातिवत तिकया है। अंग्रेज़ी तथा उदू) भार्षाओं का भी पंजाबी पर काफी प्रभाव स्पd दिदखलायी पड़ता है। इसी प्रकार पंजाबी समुदाय के लोगों _ारा बोली जाने वाली तिहन्दी, भोजपुरी या काशिशका में पंजाबी, उदू) तथा अंग्रेज़ी का प्रभाव साफ नज़र आता है। क्योंतिक पंजाबीभार्षी लोग भी अपने घर-परिरवार तथा नाते-रिरश्ते व अपने समुदाय के अन्य लोगों के साथ पंजाबी भार्षा में ही बातचीत करते ह ैं तिकन्त ु अपन े काय)स्थल तथा तिवक्षिभन्न सामाजिजक अवसरों पर अन्य समुदायों के लोगों से वाता)लाप में तिहन्दी, अंग्रेज़ी तथा भोजपुरी या काशिशका का ही प्रयोग करते हैं। जिजसके कारण उनके भातिर्षक व्यवहार में कोड-धिमश्रण की प्रचुरता है। जैसे—

(पंजाबी वाक्य में हिहFदी तथा अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग)

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1. अस्सां वी ज़माना वेखया है सानू भी सोशललाइ: दा चंगा एक्सपीरिरयंस है पु`र जी, चिMन्ता ना करो।

2. बकवास न करीं मेरे नाल, कुतिड़ए मैनु ऐठिटकेट शिसखाण दी कोई लोड़ नीं।

3. के्षक्षि` कर, की करां थ्वाडा इंटरनेट कनेक्शन वड्डा स्लो है जल्दी नीं हो सकदा।

(हिहFदी वाक्य में पंजाबी तथा अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग)

1. कल तू काफी लेट हो गई थी चल क्षचेिO गुथ कर वरना आज तो पषिनशमेंट पक्का है।

2. कोई इनटे्रस्टिस्टFग गल दस ये बात तो पुरानी हो गई।

3. इसके कई पाट्6स बदलने पड़ेंगे तिकसी वठिदयाँ कम्पनी का ही लेना अब।

(ख)कोड - परिरवत6न —

वाराणसी में रहने वाले पंजाबी लोगों के भातिर्षक व्यवहार में कोड-परिरवत)न की भी बहुतायत है क्योंतिक स्वाभातिवक रूप से ऐसा होता है तिक यदिद कोई पंजाबी व्यशिक्त अपने समुदाय के तिकसी व्यशिक्त से पंजाबी में बात कर रहा हो और तभी कोई अन्य भार्षा भार्षी वहाँ आ जाए तो वह तुरंत तिहन्दी या तिकसी अन्य भार्षा में बात करना शुरू कर देता है तथा तिफर समे्प्रर्षण के शिलए आवश्यकता अनुसार पंजाबी ,तिहन्दी, भोजपुरी या अंगे्रज़ी पर शिशफ्ट होता रहता है। ऐसी भातिर्षक स्थिस्थतित अकसर ही दिदखलायी पड़ती है। जैसेतिक—

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1. तू मेरी गल दा यकीन कर , तेनू ओथे नीं जाणा जाइदा । मुझे भी पता है तिक पंजाबी किह<दी

जमाना तिकतना खराब है तिकसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते बट वॉट वी केन डू।

किह<दी अंग्रेज़ी

2. हुण संदीप तिकत्थे वा ? मैनू उसदी बड़ी तिफकर रैंदी है। तुस्सी गुरु_ारे तों मुड़ पंजाबीआए? हाँ , लेतिकन अभी तिफर जाना है। वो मैनेजिज<ग कमेटी की एनुअल मीटिट<ग है किह<दी अंग्रेज़ीइसशिलए तिफर जाना होगा। किह<दी

इस प्रकार यह स्पd है तिक वाराणसी में रहने वाले पंजाबी समुदाय के लोग अपनी मातृभार्षा पंजाबी के भातिर्षक प्रयोग के प्रतित सजग हैं और अपने दैतिनक वाता)लाप में पंजाबी भार्षा का अधिधकाधिधक प्रयोग करत े ह ैं तिकन्त ु तिफर भी ति_भातिर्षकता तथा बहुभातिर्षकता के प्रभाव स्वरूप उनके भातिर्षक व्यवहार म ें कोड-धिमश्रण, कोड-परिरवत)न तथा अन्य प्रभाव स्पd दृधिdगोचर होते हैं।

6.4 भाषिषक षिव�ापन का स्वरूपःः-- कोई भी भार्षायी समाज जब परिरस्थिस्थतितवश अपनी आवश्यकता के तिहसाब से अपनी मातृभार्षा केो छोड़ अन्य भार्षा का प्रयोग आरम्भ कर देता ह ै तो वह भार्षातिवस्थापन

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कहलाता है। तिकसी कारण वश मातृभार्षा के इतर अन्य भार्षा का प्रयोग होता है यह प्रयोग इतना अधिधक होता है तिक मनुष्य धीरे धीरे मातृभार्षा का प्रयोग करना बंद कर देता है। कोई भी मनुष्य या समाज अपने भातिर्षक समुदाय के बाहर अन्य समुदाय के बीच रहता है तो उसे अन्य भार्षा का सहारा लेना ही पड़ता है। पहले वह ति_भार्षी बनता है तिफर धीरे धीरे उसकी भातिर्षक तिवस्थापन की प्रतिaया आरंभ हो जाती है। कुछ पीदिढ़यों बाद पूण) तिवस्थापन हो जाता है।

मनुष्य जिजस प्रकार के भातिर्षक समुदाय के बीच रहेगा उसकी मातृभार्षा पर उसी भार्षा का प्रभाव दिदखेगा। वाराणसी में पंजाबी भार्षी समुदाय का आगमन भारत पाक तिवभाजन के समय हुआ। वाराणसी तिहन्दी व भोजपुरी का गढ़ है अतः यहाँ पंजाबी भार्षी समुदाय की भार्षा पर तिहन्दी व भोजपुरी का प्रभाव देखा जा सकता है। पंजाबी भार्षी समुदाय के लोग पंजाबी, तिहन्दी, उदू) भार्षाओं का प्रयोग करते हैं। लंबे समय से वाराणसी में रहने के कारण इन लोगों का भोजपुरी पर मातृभार्षा समान अधिधकार हो गया है। घर परिरवारों में ये लोग पंजाबी भार्षा का ही प्रयोग करते हैं परन्तु व्यवसाय या अन्य गतिततिवधिधयों से जुड़े होने के कारण घर से बाहर ये तिहन्दी व भोजपुरी का प्रयोग करते हैं।

पंजाबी भार्षा टोनल भार्षा है अतः जब ये तिहन्दी या भोजपुरी का प्रयोग करते हैं तो उसमें बोलने का लहजा पंजाबी भार्षा का होता है। वाराणसी में पंजाबी समुदाय के लोगों ने अपने समुदाय के बच्चों के शिलए गुरुमुखी शिशक्षण की अच्छी व्यवस्था की है। गुरुबाग स्थिस्थत गुरु_ार े म ें गुरुग्रंथ पढ़न े की शिशक्षा दी जाती है। लगभग सभी शिसख गुरुबानी सुनत े व समझते हैं। अपनी मातृभार्षा को अनुरक्षिक्षत करने के शिलए अपने समुदाय के लोगों के बीच गुरु_ारे में कुछ न कुछ आयोजन करते हैं जिजससे आने वाली पीढ़ी के लोग अपनी मातृभार्षा व संस्कृतित से जुड़े रहें। शिसख समुदाय के लोग अधिधक परिरश्रमी होते हैं, अतः सबकी सेवा

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करना इनका धम) है। अपने आस पास के समुदायों के साथ धिमल जुल कर रहते हैं अतः इनकी मातृभार्षा अधिधक प्रभातिवत हो गई है।

वाराणसी में तिनवास करने वाल े पंजाबी भार्षी समुदाय के सन्दभ) में भी यदिद हम पंजाबी भार्षा को प्रथम भार्षा A तथा तिहन्दी को ति_तीय भार्षा B मानें तो तिवस्थापन प्रतिaया की स्थिस्थतित तिनम्न प्रकार की होगी।

1. मुख्य स्थिस्थतित : A2. सहायक स्थिस्थतित :Ab3. परिरपूरक स्थिस्थतित :AB4. आंशिशक प्रतितस्थापन की ओर की स्थिस्थतित :aB5. प्रतितस्थातिपत स्थिस्थतित :B

वाराणसी में पंजाबी भार्षी समुदाय के लोग कई पीदिढ़यों से यहाँ रह रहे हैं । इन परिरवारों की तिवक्षिभन्न पीदिढ़यों के माध्यम से भातिर्षक तिवस्थापन की स्थिस्थतित को स्पd रूप से इस प्रकार से समझा जा सकता है। जिजसमें पंजाबी भार्षा A तथा तिहन्दी B भार्षा है।

1. मुख्य स्लि�षित : A -- पंजाब में रह रहे लोगों की भार्षा लगभग शुद्ध पंजाबी है, जब वे पंजाब प्रांत छोड़कर अन्यत्र स्थातिपत हुए तो अपने साथ अपनी मातृभार्षा और मूल संस्कृतित का समृद्ध रूप साथ लेकर गए थे। वाराणसी में जब पंजातिबयों का एक बडे़ समूह के रूप में आगमन हुआ अतः शुरुवात में वे आपस में पंजाबी भार्षा का ही प्रयोग करते थे। अतः पंजाबी भार्षा के अतितरिरक्त अन्य भार्षा से उनका सम्पक) नहीं हुआ था। यह उनकी एकभातिर्षक स्थिस्थतित A है।

2. सहायक स्लि�षित : Ab --

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जो पीदिढ़याँ वाराणसी आयीं उनकी तथा आगे की कुछ पीदिढ़यों की मुख्य भार्षा पंजाबी थी तथा वे सहायक भार्षा के रूप में तिहन्दी का प्रयोग करने लगे। वाराणसी में अपने व्यवसाय आदिद को व्यवस्थिस्थत करने के शिलए समाज में तिहन्दी का प्रयोग करना आवश्यक हो गया अतः तिहन्दी का प्रयोग भी वे अपनी मातृभार्षा के शब्दों को धिमक्षिश्रत करके करते थे। सहायक भार्षा तिहन्दी म ें पंजाबी की शैली व उच्चारण शाधिमल करके धिमक्षिश्रत तिहन्दी का प्रयोग सम्प्रेर्षण के शिलए करन े लगे। इस समय पंजाबी भार्षी समुदाय म ें मातृभार्षा की स्थिस्थतित मजबूत थी तथा सहायक भार्षा की स्थिस्थतित कमजोर। यह समय ति_भातिर्षकता के प्रथम चरण का है जब मनुष्य अन्य भार्षा को गौण रूप में अपना लेता है। 3. परिरपूरक स्लि�षित : AB— आने वाले समय में पंजाबी भार्षी अपना अधिधक से अधिधक समय अन्य भातिर्षक समुदाय के बीच व्यतीत करने के कारण तिनरंतर सहायक भार्षा का प्रयोग करने लगे। धीरे धीरे अपनी मातृभार्षा के समान तिहन्दी में भी दक्ष हो गए। पंजाबी समुदाय में शिशक्षा व भातिर्षक सम्पक) के कारण नई पीढ़ी के लोग तिहन्दी व भोजपुरी पर भी मातृभार्षा के समान अधिधकार रखने लगे। तिहन्दी के मौखिखक रूप के साथ साथ शिलखिखत रूप में भी दक्षता हाशिसल कर ली। इस काल में वाराणसी में रहने वाला लगभग प्रत्येक पंजाबी भार्षी तिहन्दी भार्षा व भोजपुरी में अच्छी तरह तिनपुण हो गया है। भातिर्षक तिवश्लेर्षण की दृधिd से यह समय पंजाबी भार्षी समुदाय के ति_भार्षी हो जाने का समय है। इसे परिरपूरक स्थिस्थतित कहा जा सकता है।

4. आंशिशक प्रषित�ापन की ओर की स्लि�षित : aB— पढ़ाई- शिलखाई, खेल- कूद व अन्य गतिततिवधिधयों से जुड़े होने के कारण युवा पीढ़ी के लोग अपनी मातृभार्षा का प्रयोग बहुत कम करते हैं। इनका समय तिहन्दी

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भातिर्षयों या भोजपुरी भातिर्षयों के बीच व्यतीत होता है। अतः कभी कभी ये लोग घर परिरवार के लोगों के साथ तिहन्दी में ही वाता)लाप करते हैं। इस प्रकार इनके भातिर्षक व्यवहार में मातृभार्षा की प्रतितशत कम होता है तिहन्दी व भोजपुरी का अधिधक। इस प्रतिaया को भातिर्षक तिवस्थापन की शुरुवात कहा जा सकता है। जब मनुष्य अपनी मातृभार्षा का प्रयोग करना कम कर देता है। वत)मान समय की युवा पीढ़ी अपनी मातृभार्षा को सहायक भार्षा के रूप में प्रयोग करती है। अतः यहाँ के पंजाबी भार्षी लोग अपनी मातृभार्षा पंजाबी से तिहन्दी पर प्रतितस्थापन की ओर अग्रसर हो रहे हैं।

5.प्रषित�ाषिपत स्लि�षित : B—वत)मान समय में वाराणसी के पंजाबी भार्षी समुदाय के लोग आंशिशक रूप से आज भी अपनी मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं, भले उन्हें अपनी मातृभार्षा पढ़ने व शिलखने में कदिठनाई हो पर वे घर परिरवार में पंजाबी का ही प्रयोग करते हैं। पंजाबी समुदाय ने नई पीढ़ी के लोगों के शिलए मातृभार्षा शिशक्षण की व्यवस्था गुरु_ारे में व कुछ शिशक्षण संस्थानों में की है। अतः अAप रूप में ही सही ये लोग अपनी मातृभार्षा से जुडे़ हैं। प्रतितस्थापन की दृधिd से देखा जाए तो जब कोई अपनी मातृभार्षा को पूरी तरह से छोड़कर अन्य भार्षा पर स्थातिपत हो जाता है तो वह प्रतितस्थापन की स्थिस्थतित कहलाती है, अतः वत)मान समय में वाराणसी में रहने वाले पंजाबी भातिर्षयों ने पूण) रूप से अपनी मातृभार्षा को नहीं छोड़ा ह ै धीरे धीरे यदिद पंजाबी भातिर्षयों ने इसी तरह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर दिदया अथवा बंद कर दिदया और अपने व्यवहार में तिहन्दी या काशिशका ले आए तब वह स्थिस्थतित पूण) प्रतितस्थातिपत कहलाएगी। यहाँ रहते हुए चार पाँच पीढ़ी बाद वाले पंजातिबयों में यह तिवस्थापन दिदखाई देता है।

परिरणामस्वरूप भाषा षिव�ापन की प्रषि�या

एकभार्षी >> सहायक >>परिरपूरक >>आंशिशक षिव�ापन >>पूण)तिवस्थापन एकभार्षी

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A >>> Ab >>> AB >>> aB >>> Bएकभातिर्षक स्थिस्थतित ति_भातिर्षकता के तिवक्षिभन्न चरण एकभातिर्षकस्थिस्थतित

भार्षा तिवस्थापन एक लम्बी प्रतिaया है। तिकसी भार्षाभार्षी समाज को एकभातिर्षक स्थिस्थतित A से एकभातिर्षक स्थिस्थतित B तक पहँुचाने में बीच में ति_भातिर्षकता के तिवक्षिभन्न चरणों को पार करना होता है। इस प्रतिaया की गतित धीमी अथवा तेज हो सकती है जिजसका गहरा सम्बंध उस समाज के लोगों की आवश्यकता व भार्षाई तिनष्ठा से होता है।

वाराणसी के पंजाबी भार्षी आज जो पंजाबी भार्षा बोलते हैं उसमें तिहन्दी की झलक स्पd रूप से देखी जा सकती है। इनकी अब की मातृभार्षा का स्वरूप पंजाब की मूल पंजाबी भार्षा से काफी क्षिभन्न है। इसमें तिहन्दी के शब्दों और संरचना शैली के प्रयोग की बहुतायत है। अतः भातिर्षक तिवस्थापन की प्रतिaया के अनुसार वत)मान समय में वाराणसी का पंजाबीभार्षी समाज भी धीरे धीरे तिवक्षिभन्न कारणों से तिवस्थापन की ओर बढ़ सकता है, यदिद समय समय पर नई पीढ़ी के लोगों ने अपनी मातृभार्षा के संरक्षण के प्रतित रहत े सजगता न बरती तो। वत)मान समय में वाराणसी में रह रहे लगभग सभी पंजाबी भार्षी गुरु_ारे की गतिततिवधिधयों से जुडे़ हैं अतः अपनी मातृभार्षा से भी तिकसी न तिकसी रूप में जुडे़ हैं। ये लोग अपने बच्चों को गुरुमुखी पठन पाठन की प्रारल्किम्भक शिशक्षा देते हैं।

6.5 मातृभाषा अनुरक्षण—

वाराणसी में जिजतने भी समुदाय आकर बसे हैं, उन सभी समुदायों में मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना बसी है। अपनी आवश्यक्तानुसार व परिरस्थिस्थतित अनुरूप पंजाबी समुदाय न े भी अपनी मातृभार्षा के अनुरक्षण के शिलए समुशिचत उपाय तिकए हैं। वाराणसी में इन्होंने पंजाबी भार्षा शिशक्षण की भी उशिचत व्यवस्था की है। घरों व गुरु_ारों में पंजाबी भार्षी आपस में शिसफ) पंजाबी भार्षा का प्रयोग करते हैं तथा अध्ययन अध्यापन के

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शिलए गुरुमुखी का प्रयोग करते हैं। अपने समुदाय के लोगों के साथ धिमलकर गुरु_ारे में पाठ, कीत)न, लंगर अदिद आयोजनों को सुरुशिचपूण) ढंग से सम्पन्न करते हैं। वाराणसी में प्रभात फेरी के माध्यम से ईश्वर का शिचन्तन मनन करते ह ैं जिजसमें तिवक्षिभन्न समुदाय के लोग भी शाधिमल होते हैं। पंजाबी भार्षी समुदाय में शिशक्षिक्षत वग) के लोग बच्चों से बातचीत करने में पंजाबी या अंग्रेजी भार्षा का प्रयोग करते ह ैं तथा अAप शिशक्षिक्षत लोग पंजाबी व धिमक्षिश्रत तिहन्दी या काशिशका में बात करते हैं। अपनेी मातृभार्षा को और अधिधक सुदृढ़ बनाने के शिलए टेलीतिवज़न पर पंजाबी चैनल, व धम)ग्रन्थों का सहारा लेते हैं।

ये लोग हर तरह के संगीत में रुशिच रखते हैं परन्तु शबद कीत)न को प्रतितदिदन सुनते हैं। पंजाबी बनु्धओं में मातृभार्षा अनुरक्षण की भावना प्रबल होती ह ै बहुभार्षी समाज में रहते हुए भी अपनी मातृभार्षा का प्रयोग सवा)धिधक करते हैं। वाराणसी में पंजाबी भार्षी परिरवार कई क्षेत्रों में समूह बनाकर रह रहे हैं, तथा साथ धिमलकर सभी आयोजनों में भाग लेते हैं। पंजाबी भार्षी लोग सन्धिम्मशिलत व एकाकी दोनों तरह के परिरवारों में रहते हैं। ये लोग अधिधक कम)ठ होते हैं जिजस काय) को भी करते ह ैं अपनी मेहनत व लगन से नया आयाम देते हैं। सभी प्रकार के कायu में इनका साथ अपनी मातृभार्षा से नहीं छूटता, इस कारण वाराणसी में पंजातिबयों की अलग पहचान है। अपने समुदाय में मातृभार्षा का प्रयोग करने के अलावा ये स्कूलों में भी पंजाबी शिशक्षण पर ज़ोर देते हैं। अपने बच्चों को अपने अपने धम) से जुड़ी सभी जानकारिरयों के साथ साथ गुरुबानी के ज्ञान के शिलए गुरु_ारे भेजते हैं जहाँ गुरुग्रन्थ साहब के उपदेशों की शिशक्षा धिमलती है।

सव�क्षण के आधार पर मातृभार्षा अनुरक्षण की प्रवृक्षि` को हम दो वगu में बाँट सकते हैं—

1. पूण) मातृभार्षा अनुरक्षण2. आंशिशक मातृभार्ष अनुरक्षण

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सव�क्षण में पंजाबी समुदाय के प्रत्येक वग) के लोगों पाया जो वग) वृद्ध हैं या घर परिरवार से अधिधक जुडे़ हैं उन्होंने अपनी मातृभार्षा को सुदृढ़ रूप से अनुरक्षिक्षत करके रखा है तिकसी भी अन्य भार्षा का प्रभाव उनकी अपनी मातृभार्षा पर नहीं पड़ पाया है, चाह े सामाजिजक, राजनीतित, स्थिस्थतित जैसी भी रही हो।

परन्तु नयी पीढ़ी जो अधिधक से अधिधक अन्य भातिर्षक समुदायों के सम्पक) में है उनकी मातृभार्षा प्रभातिवत हो गई है वे अन्य भार्षाओं के शब्दों का धिमश्रण करके अपनी भार्षा का प्रयोग करते हैं। अपनी मातृभार्षा से लगाव होते हुए भी उसके मानक रूप का प्रयोग कम कर पात े हैं। नवुवक उसी भार्षा का प्रयोग अधिधक करत े ह ैं जिजस भार्षा के माध्यम से उनको अधिधक से अधिधक समे्प्रर्षण करना होता है।

मातृभार्षा प्रभातिवत होने का कारण शैक्षिक्षक, सामाजिजक दवाव कुछ मानशिसक तथा राजनैतितक दवाव हो सकता है ये अपना अधिधक से अधिधक समय अन्य समुदाय के लोगों के मध्य व्यतीत करते हैं अपने व्यवसाय, शिशक्षा आदिद के कारण अपनी मातृभार्षा के इतर अन्य भार्षा का प्रयोग करते हैं, साथ ही अपने काया)लयों का काम इन्हें राजभार्षा में सम्पन्न करना होता है अतः ये अपनी मातृभार्षा के प्रतित उतने जिजम्मेदार नहीं हो पाते। तिफर भी जिजतना अधिधक हो सकता है अपने समुदाय से जुड़ी गतिततिवधिधयों में अपनी मातृभार्षा का ही प्रयोग करते हैं।

अतः यह कहा जा सकता है तिक वाराणसी में जो पंजाबी परिरवार सबसे पहले आए उनमें मातृभार्षा अनुरक्षण की चेdा अत्यंत प्रबल थी। जब कोई मनुष्य तिकसी अन्य समाज में तिवस्थातिपत होता ह ै तो अपनी भार्षा और संस्कृतित का टकराव उस समाज की भार्षा व संस्कृतित से महसूस करता है। इसकारण उसकी अपनी भार्षा व संस्कृतित से आत्मीयता बढ़ जाती है, और वह अपनी मातृभार्षा के अनुरक्षण के उपाय करने लगता है। वाराणसी के

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अन्य भातिर्षक समुदायों की तुलना में पंजाबी भार्षी समुदाय ने भी अपनी मातृभार्षा अथा)त् पंजाबी भार्षा के अनुरक्षण हेतु सव�`म उपाय तिकए हैं।

6.6 वराणसी में पंजाबी भाषा शिशक्षणःः-- वाराणसी म ें जिजतने भी भातिर्षक समुदाय आकर बसे वे अपनी संस्कृतित के साथ साथ अपनी भार्षा भी यहाँ लेकर आए। शिशक्षा के प्रतित सजग इन समुदायों ने अपनी आगे की पीढ़ी के मातृभार्षा शिशक्षण के शिलए कई पाठशालाओं की स्थापना भी की। वाराणसी में तिवक्षिभन्न स्थानों पर पाठशालाओं में पंजाबी शिशक्षण की व्यवस्था की गई। वत)मान समय म ें जो पाठशालाए ँहैं उनमें पंजाबी भार्षा की प्राथधिमक स्तर तक शिशक्षा दी जाती है, उच्च कक्षाओं में पंजाबी भार्षा को वैकस्थिAपक तिवर्षय के रूप में कर दिदया है। जो बच्चे आगे भी पंजाबी को एक तिवर्षय के रूप में पढ़ना चाहते ह ैं उनके शिशक्षण के शिलए अलग से व्यवस्था की गई है।

गुरुमुखी शिशक्षण की व्यवस्था गुरु_ारे में भी की गयी है। इसप्रकार यह कहा जा सकता है तिक पंजाबी भार्षी समुदाय अपनी मातृभार्षा शिशक्षण के प्रतित सजग व प्रयत्न शील है।

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वाराणसी में उच्च कक्षाओं में पंजाबी भार्षाशिशक्षण की व्यवस्था नहीं है। जिजतने भी स्कूल कालेज हैं उनमें प्राथधिमक कक्षाओं तक ही पंजाबी पढ़ाई जाती है।

वाराणसी में पंजाबी भार्षा शिशक्षण से जुड़ी प्रमुख शिशक्षण संस्थाए ँतिनम्नशिलखिखत हैं—

1. गुरुनानक खालसा गAस) इंटर कालेज।2. खालसा ब्वायज़ इंटर कालेज।3. तिनम)ल संस्कृत तिवद्यालय (तिवश्वनाथ गली)।

............ ⃟⃟⃟⃟...........उपसंहार

अन्य भार्षाभार्षी समुदायों के मध्य रहत े हुए अपनी मातृभार्षा की अल्किस्मता को बचाए रखना कमोबेश मुल्किश्कल होता जाता है। जब कई भार्षाए ँसहअल्किस्तत्व में होती हैं तो उनमें प्रकायu का बँटवारा सा हो जाता है। कुछ कामों के शिलए एक भार्षा का प्रयोग होता है, तो कुछ दूसरे प्रकार के कामों के शिलए दूसरी भार्षा का। उस समाज अथवा शहर के भातिर्षक रिरपतु)आ म ें शाधिमल सभी भार्षाओं का प्रकाया)त्मक महत्व बराबर नहीं होता। सातिहत्य सृजन, प्रशासन तथा जनसंचार, शिशक्षण की माध्यम भार्षा का वच)स्व हो जाना स्वाभातिवक होता है। ति_भार्षी या बहुभार्षी समाज में रहने वाले मनुष्य की मातृभार्षा में आदान, कोड-धिमश्रण स्वतः होने लगता है। उसे अपने दैतिनक तिaयाकलापों हेत ु अपनी मातृभार्षा छोड़ अन्य भार्षाओं का प्रयोग करना पड़ता है, फलस्वरूप वह अपनी मातृभार्षा का प्रयोग कम कर पाता है। मातृभार्षा का प्रयोग घर परिरवार व अपने भातिर्षक समुदाय तक सीधिमत हो जाता है। कालान्तर में पीढ़ी दर पीढ़ी घर परिरवार में भी बच्चे अपनी मातृभार्षा का प्रयोग ना कर सम्पक) भार्षा का प्रयोग करने लग जात े हैं, जिजससे धीरे-धीर े उनकी मातृभार्षा का

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प्रयोग कम होता है और मातृभार्षा का अल्किस्तत्व खतरे में पड़ जाता है। मातृभार्षा अनुरक्षण के शिलए आवश्यक है तिक भार्षा को तिनरंतर प्रयोग में लाया जाय। यह देखा गया है तिक जो परिरवार करीब 20-30 वर्षu से अपने मूल भातिर्षक समाज से दूर रह रहे हैं उनमें मातृभार्षा सुरक्षिक्षत नहीं धिमलती। इस प्रकार मातृभार्षा अनुरक्षण उ`रो`र अधिधक कदिठन होता जाता है। वैस े प्रत्येक भार्षा भार्षी समाज अपनी मातृभार्षा अनुरक्षण के शिलए प्रयत्न करता है, कोशिशश करता है तिक अपन े मातृभार्षी लोगों से तथा घर परिरवार में वह मातृभार्षा का ही प्रयोग करे। यह सहज स्वाभातिवक भी है।

भार्षा ही मनुष्य की अक्षिभव्यशिक्त का माध्यम है, अतः उसका समाज में जिजस रूप में अधिधक व्यवहार होता है वह तदनुरूप आकार प्रकार ग्रहण कर लेती है। अपनी मातृभार्षा तो मनुष्य तिबना व्याकरण बोध के सीख लेता ह ै परन्त ु अन्य भार्षा सीखने के शिलए उसका व्याकरण और मानक उच्चारण संबंधी ज्ञान आवश्यक होता है, जिजस े औपचारिरक रूप स े शिशक्षण संस्थाओं स े प्राप्त करना होता है। समाज म ें भार्षा अनुरक्षण और परिरवृक्षि` के कई कारण हो सकत े हैं—सामाजिजक, मनौवैज्ञातिनक, सांस्कृतितक, राजनीतितक, या आर्थिथ<क। हर भातिर्षक समुदाय की अपनी परिरस्थिस्थतितयाँ होती हैं जिजनके कारण उसके वक्ताओं के भातिर्षक व्यवहार में तिवतिवधता देखने को धिमलती है।

वाराणसी के अल्पसंख्यक भाषाभाषी समाजः --

वाराणसी नगर में पूरे देश की तिवक्षिभन्न संस्कृतितयों का समन्वय है। इस शहर में तिहन्दू, मुसलमान, शिसक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और तिवक्षिभन्न धमu को मानन े वाल े लोग साथ-साथ रहत े हैं। ऐस े ही मराठी, नेपाली, गुजराती, बंगाली, कश्मीरी, मारवाड़ी, शिसन्धी, पंजाबी, मैशिथल, मलयाली, तधिमल, तेलुगु, कन्नड़ आदिद

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तिवक्षिभन्न भार्षाभार्षी लोग लम्बे समय से एक साथ रह रहे हैं। बंगाल, महाराष्ट्र, दक्षिक्षण भारत आदिद के्षत्रों के लोग अपने अपने मुहAले बनाकर बड़ी संख्या में यहाँ रह रहे हैं।

जब दो क्षिभन्न भार्षाभार्षी समुदाय एक दूसरे के सम्पक) में आते हैं तब उनकी भार्षाओं का प्रभातिवत होना और अपने अनुपात में सम्पक) भार्षाओं को प्रभातिवत करना सामान्य प्रतिaया है। स्थायी रूप से बस जाने के कारण भार्षायी सम्पक) भी स्थायी हो जाता है। वाराणसी में लंबे समय से ये सभी भातिर्षक समुदाय एक क्षेत्र में एक साथ रहते चले आ रहे हैं। अतः सभी भार्षा भार्षी समुदायों की मातृभार्षा प्रभातिवत हुई है।

वाराणसी में तिवक्षिभन्न भार्षाभार्षी समुदायों ने अपनी मातृभार्षा को तिवक्षिभन्न मनोवैज्ञातिनक व सामाजिजक दबावों के उपरांत भी सुरक्षिक्षत रखने का प्रयास तिकया है। प्रस्तुत शोध प्रबंध इस तथ्य को प्रकाशिशत करता ह ै तिक वाराणसी के बंगाली, मराठी, गुजराती एव ं पंजाबी भार्षी समुदायों म ें स े तिकस भातिर्षक समुदाय ने अपनी मातृभार्षा को अधिधक सुरक्षिक्षत रखा है, व तिकस भातिर्षक समुदाय की मातृभार्षा अधिधक प्रभातिवत हुई है। उनके भातिर्षक अनुरक्षण और परिरवृक्षि` का तुलनात्मक अध्ययन तिवशे्लर्षण करके तिववरणात्मक वण)न प्रस्तुत तिकया गया है।

तुलनात्मक समाजभाषिषक अध्ययनः --

सभी भार्षाभार्षी समुदाय अपनी मातृभार्षा की अल्किस्मता बचाए रखने के शिलए उसका अधिधक से अधिधक प्रयोग करते हैं। लंबे समय से वाराणसी में पीढ़ी दर पीढ़ी रहते चले आ रहे समुदायों में बनारसी भार्षा काशिशका का प्रभाव देखने को धिमलता है। यह अंतर यहाँ के तिवस्थातिपत तिनवासी और अपने मूल स्थानों के तिनवासी लोगों के भातिर्षक तिवशे्लर्षण से सामने आया है। यहा ं रहने वाले लोगों की चाहे व े तिहन्दू हों अथवा

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मुसलमान, अपनी एक बनारसी बोली है जिजसे काशिशका कहते हैं। काशिशका भोजपुरी का ही एक प्रतितधिष्ठत मानक है। यहां के लोग औपचारिरक सन्दभu में खड़ी बोली तिहन्दी का व्यवहार करते हैं। पढे़ शिलखे और संभ्रात वग) के लोग आवश्यकतानुसार अंग्रेजी भार्षा का भी प्रयोग करत े हैं। मराठी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती आदिद तिवक्षिभन्न भार्षाभार्षी समुदाय के लोग अपने मुहAलों तथा घर परिरवार म ें अपनी अपनी मातृभार्षा का प्रयोग करते हैं। धार्मिम<क अनुष्ठान व कम)काण्ड में संस्कृत भार्षा का प्रयोग होता है। मुस्थिस्लम समुदाय के शिशक्षिक्षत व सभ्रांत लोग उदू)-फारसी का भी प्रयोग करत े हैं। तिवक्षिभन्न क्षेत्रों स े सम्बद्ध लोग अपनी सामुदाधियक सीमाओं से बाहर आकर आपस में बनारसी बोली तथा तिहन्दी का प्रयोग करते हैं।

आज लगभग सभी भातिर्षक समुदायों में अंतरजातीय तिववाह होने लगे हैं अथा)त् अपने समाज के बाहर भी लोग तिववाह करने लगे हैं। ऐसे में एक ही परिरवार में दो अथवा अधिधक भार्षाओं के लोग रहते है। अतः बच्चों को जन्म से ही दो से तीन भार्षाए ँप्रथमभार्षा के रूप में धिमलती हैं। शिशक्षिक्षत, शहरी और मध्यवग�य बहुभार्षी समाजों में इस प्रवृक्षि` की शुरुवात हो चुकी है। वाराणसी जैसे दृढ़ परम्परावादी क्षेत्र में भी अब के्षत्रीयता, धम) और जातितबंधन की वज)नाए ँ टूट रही हैं। यहा ँ पहल े शादी-तिववाह, खानपान में ये वज)नाए ँबहुत सख्त हुआ करती थीं। वाराणसी शहर के वैवातिहक तिवज्ञापनों में जब तब देखने को धिमलता है तिक ‘धम) और जातित बंधन नहीं’ अथा)त ् न केवल क्षिभन्न भार्षाभातिर्षयों में तिववाह होने लगे हैं, बल्किAक देशी तिवदेशी लोगों में भी तिववाह होने लगे है। वैवातिहक रिरसेप्शन अथवा भोज समारोहों म ें भी तिवक्षिभन्न जातित धमu के लोग और देसी तिवदेसी लोग देखे जा सकते हैं।

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प्रस्तुत शोध के भातिर्षक तिवशे्लर्षण में यह बात सामने आई है तिक आज की युवा पीढ़ी धिमक्षिश्रत कोड अथवा अंगे्रजी को महत्व दे रही है, जिजसका कारण प्रायः उच्च शिशक्षा, सामाजिजक प्रतितष्ठा, रोजी रोटी प्राप्त करने की आकांक्षा होती है।

एक यह तथ्य भी उजागर हुआ है तिक आज की युवा पीढ़ी अपने दादा-दादी, नाना-नानी से मातृभार्षा में तिहन्दी के शब्दों को धिमक्षिश्रत करके बात करती है। वाराणसी में पंजाबी व गुजराती समाजों में और कुछ हद तक मराठी समाज में भी आज बच्चे तिहन्दी भोजपुरी ही मातृभार्षा के रूप म ें सीखने लगे है, वाराणसी के इन भातिर्षक समुदायों के समाजभातिर्षक तिवशे्लर्षण से यह तथ्य सामने आया है।

वाराणसी के बंगाली, मराठी गुजराती व पंजाबी भातिर्षयों का भातिर्षक तिवशे्लर्षण करने पर तिनम्नशिलखिखत प्रमुख तथ्य उभर कर सामने आए हैं—

(क) भाषिषक परिरवृचिO की स्लि�षित —

वाराणसी के चारों भार्षाभार्षी समुदायों में भातिर्षक परिरवृक्षि` की स्थिस्थतित क्षिभन्न-क्षिभन्न है। बंगाली समुदाय में भातिर्षक परिरवृक्षि` सबसे कम देखने को धिमली। बंगाली भार्षी समुदाय के लोग अपनी मातृभार्षा की तुलना में अन्य भार्षा का प्रयोग कम से कम करने का प्रयास करते हैं। मराठी भार्षी समुदाय के लोगों में भातिर्षक परिरवृक्षि` कम धिमली, परन्तु बंगाशिलयों की तुलना में इनमें भातिर्षक परिरवृक्षि` अधिधक हुई है। गुजराती भार्षी परिरवारों ने भी काशिशका या भोजपुरी को अपनी मातृभार्षा में धिमक्षिश्रत कर शिलया है। बंगाली व मराठी भार्षी समुदायों की तुलना में गुजराती भार्षी समुदाय में भातिर्षक परिरवृक्षि` का प्रतितशत अधिधक है तिकन्तु पंजाबी भातिर्षयों की तुलना म ें कम है। अतः बंगाली, मराठी, गुजराती व पंजाबी चारों भातिर्षक समुदायों में पंजाबी भार्षी समुदाय भातिर्षक परिरवृक्षि` की ओर अधिधक अग्रसर हो गया है। वाराणसी के पंजाबी भार्षी समुदाय में भातिर्षक परिरवृक्षि` सवा)धिधक देखने को धिमली।

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आगे दिदए गए ग्राफ _ारा इन चारों भातिर्षक समुदायों में भातिर्षक परिरवृक्षि` की स्थिस्थतित और भी स्पd हो जाएगी--

(क) भाषा अनुरक्षण — वाराणसी में चारों भार्षाभार्षी समुदायों में बंगाली समुदाय के लोगों ने अपनी मातृभार्षा का सबसे अधिधक अनुरक्षण तिकया है। अपनी मातृभार्षा के प्रतित बंग समाज के लोग अधिधक सचेत हैं। गुजराती भार्षी समुदाय के लोगों ने भी अपनी मातृभार्षा के अनुरक्षण का प्रयत्न तिकया है पर वे अधिधक सफल नहीं हो पाए हैं और उनकी मातृभार्षा काफी हद तक प्रभातिवत हो गई है। वहीं मराठी भातिर्षयों नें अपनी मातृभार्षा व संस्कृतित दोनों को संजोकर रखा है। मराठी समुदाय म ें मातृभार्षा अनुरक्षण का प्रतितशत गुजराती भातिर्षयों की तुलना म ें अधिधक तथा बंगाशिलयों की तुलना म ें कम है। पंजाबी भार्षी समुदाय के लोग सबसे अAप मात्रा म ें अपनी मातृभार्षा पर ध्यान दे पाए हैं, उनकी पंजाबी जो वे व्यवहार में प्रयोग करते हैं तिहन्दी व भोजपुरी से सवा)धिधक प्रभातिवत हुई है।

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अतः चारों भार्षाभार्षी समुदायों म ें पंजाबी भार्षी समुदाय की मातृभार्षा सबस े कम अनुरक्षिक्षत है।

वाराणसी के बंगाली, मराठी, गुजराती व पंजाबी भार्षी समुदायों के समाज तिर्षक तिवश्लेर्षण _ारा कुछ अन्य महत्वपूण) तथ्य भी प्रकाश में आए। जिजनका तिववरण तिनम्नशिलखिखत है—

(ग) उस्लिल्लखिखत भाषिषक समुदायों में पलायन की स्लि�षित —

वत)मान समय में वाराणसी के इन चारों भार्षाभार्षी समुदायों में सबसे अधिधक जनसंख्या बंगलाभार्षी समुदाय की है। वाराणसी म ें इस समुदाय के लोग कई मुहAलों में बसे हैं अतः एक साथ एक जुट होकर रहने के कारण ये अपनी मातृभार्षा को भी अचे्छ से अनुरक्षिक्षत कर पाते हैं। वत)मान समय की पीढ़ी पढ़ाई-शिलखाई व नौकरी व्यवसाय की दृधिd से वाराणसी के बाहर जा रही है परन्तु उससे अधिधक अनुपात में बंगाल से लोगों

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का आगमन भी हो रहा है। अतः वाराणसी से बंगाली समुदाय के लोगों के पलायन का प्रतितशत कम है।

वाराणसी में इस समय गुजराती समुदाय के लोगों की संख्या भी अच्छी खासी है एवं इस समुदाय में भी पलायन की स्थिस्थतित नगण्य है। गुजरातेी समाज केे 80% लोग व्यवसायेी हैं और 20% नौकरीपेशा। इस समुदाय में पलायन की स्थिस्थतित कम होने का यही प्रमुख कारण है। व्यवसाय से जुड़े होने के कारण ये अपने मूल गुजरात से भी जुडे़ रहते हैं जिजससे इनकी संस्कृतित सुदृढ़ होती रहती है। जो परिरवार शिशक्षा से जुड़े हैं उनमें से कुछ एक वाराणसी के बाहर जा कर नौकरी कर रहे हैं।

प्राचीनकाल में वाराणसी में मराठी भार्षी समुदाय के लोगों की संख्या सबसे अधिधक थी परन्तु तिवक्षिभन्न कारणों से वत)मान समय में काशी में तिनवास करने वाले मराठी बनु्धओं की संख्या बहुत कम हो गई है। वाराणसी से मराठी समुदाय के लोगों के पलायन के कई कारण हैं जिजनमें प्रमुख है बनारस में अच्छी नौकरिरयों का अभाव। मराठी समुदाय में प्रायः सभी लोग उच्च शिशक्षा ग्रहण करते हैं और उच्चशिशक्षिक्षत होने पर उन्हें अच्छी नौकरिरयाँ अधिधकांशतः बेंगलोर, हैदराबाद, पूना, मुम्बई आदिद बड़े शहरों में अथवा तिवदेशों में ही धिमलती हैं जिजसके कारण उन्हें वाराणसी से पलायन करना पड़ता है। वाराणसी में इस तरह की नौकरिरयों का अभाव है। पहले महाराष्ट्री �ाह्मणों की बड़ी संख्या वाराणसी म ें रहकर राजकीय संरक्षण म ें पौरोतिहत्य-कम), संस्कृत तथा वेद-वेदान्त के अध्ययन-अध्यापन का काय) करती थी। कालान्तर में सामाजिजक परिरस्थिस्थतितयों में परिरवत)न के कारण इस परम्परा का ह्रास हो गया और बहुत से मराठी परिरवारों को वाराणसी से पलायन करना पड़ा। आज भी वाराणसी में रह रहे अधिधकांश मराठी परिरवारों के लोग यहाँ के मंदिदरों से सम्बद्ध हैं, कुछ व्यवसायी हैं व बाकी यहाँ के तिवक्षिभन्न सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थानों में काय)रत हैं।

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वाराणसी के पंजाबी समुदाय की स्थिस्थतित भी मराठी भार्षी समुदाय के समान ही है। एक समय में बड़ी संख्या में पंजाबी समुदाय के लोग वाराणसी में तिनवास करत े थ े और बनारस के औद्योतिगक व व्यवसाधियक क्षेत्रों म ें इनका वच)स्व था। लेतिकन 1984 में हुए शिसक्ख तिवरोधी दंगों में हुई जान-माल की भारी क्षतित के बाद पंजाबी समुदाय के लोगों ने बड़ी तेजी से वाराणसी से पलायन तिकया। वत)मान समय में वाराणसी में इनकी संख्या लगभग पाँच हजार के करीब ही रह गई है। इस प्रकार चारों भार्षाभार्षी समुदायों में पंजाबी भार्षी समुदाय के लोगों की संख्या वाराणसी में सबसे कम है।

(घ) सभी भाषिषक समुदायों की आर्सिथFक स्लि�षित —

वाराणसी के शिशक्षिक्षत वग) में बंगाली समुदाय के लोगों का नाम भी शाधिमल है। अतः वाराणसी के चारों भातिर्षक समुदायों बंगाली, मराठी, गुजराती व पंजाबी में बंगाली भार्षी लोग अध्ययन अध्यापन काय) स े अधिधक जुड़ े हैं। कुछ सभ्रांत बंगाली परिरवार के लोग तिवदेशों में नौकरी कर रहे हैं तो कुछ वाराणसी में ही आई टी आदिद के्षत्रों में अपना योगदान

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दे रह े हैं। इनकी आय का मुख्य साधन शिशक्षा है, अतः यहा ँ प्रशासतिनक सेवाओं में और शिशक्षण संस्थाओं में इनकी स्थिस्थतित अच्छी है।

मराठी समुदाय के लोगों में कुछ शिशक्षा से कुछ व्यवसाय से व कुछ धार्मिम<क कायu से जुड़े हैं। मराठी भार्षी समुदाय के लोगों में भी शिशक्षा का प्रतितशत बेहतर है, तिफर ये धार्मिम<क कायu में भी ह ैं और सबसे कम व्यवसाय में। अतः कुछ एक को छोड़ कर वाराणसी में इनकी आर्थिथ<क स्थिस्थतित सामान्य कही जा सकती है।

वाराणसी के सबसे धनाड्य वग) म ें गुजराती बंधुओं का नाम शुमार है। गुजराती परिरवारों में सबसे अधिधक व्यापारिरयों की संख्या है, इनका व्यापार वाराणसी के बाहर भी फैला है। वाराणसी में प्रकाशन क्षेत्र तथा कपड़े के व्यवसाय पर गुजराती समुदाय के लोगों ने अपनी मेहनत व लगन से अपना वच)स्व कायम तिकया है। आर्थिथ<क स्थिस्थतित की दृधिd से ये सबसे अच्छी स्थिस्थतित में हैं।

वाराणसी में पंजाबी भार्षी समुदाय के लोगों ने भी व्यवसाय को ही चुना। पंजाबी स्वभाव से ही मेहनती होते हैं। इन्हों ने छोटे स्तर से अपना व्यवसाय शुरु कर अपनी मेहनत व लगन से उसका अच्छा तिवस्तार तिकया है। वाराणसी में इनका व्यवसाय अच्छा जम गया है, इनका व्यवसाय मशीनरी आदिद क्षेत्रों से जुड़ा है। अतः इनकी आर्थिथ<क स्थिस्थतित भी अच्छी है।

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(ङ) सभी भाषिषक समुदायों की शैशिक्षक स्लि�षित —

बंगाली, मराठी गुजराती व पंजाबी चारों भातिर्षक समुदायों में शिशक्षा का अनुपात अलग-अलग है। बंगाली व मराठी समुदाय के लोगों न े शिशक्षा को अधिधक महत्व दिदया है। वहीं गुजराती व पंजाबी समुदाय के लोगों ने व्यवसाय को अधिधक महत्व दिदया है। बंगाली व मराठी भार्षी समुदाय के लोगों का उ¦ेश्य उच्च शिशक्षा प्राप्त करना है पर गुजराती व पंजाबी भार्षी समुदायों के शिलए शिशक्षा केवल उतनी ही आवश्यक है जिजतने से उनके व्यवसाय में मदद धिमले। उच्च शिशक्षा प्राप्त करना उनका ध्येय नहीं है।

इस प्रकार शैक्षिक्षक दृधिd से चारों भातिर्षक समुदायों में बंगाली, मराठी, पंजाबी तिफर गुजरातितयों का aम आता है।

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(M) षिवशिभन्न भाषाभाषी समुदायों के शिशक्षण सं�ानों की स्लि�षित —

वाराणसी में बंगाली, मराठी, गुजराती व पंजाबी चारों भार्षाभार्षी समुदायों के शिशक्षण संस्थान हैं। इससे पता चलता है तिक कौन सा भातिर्षक समुदाय अपनी मातृभार्षा के प्रतित तिकतना सचेत है।

बंगाली समुदायः—वाराणसी में बंगाली समाज के कई शिशक्षण संस्थान हैं जिजनमें आज भी बंगला भार्षा की शिशक्षा दी जाती है। बंगाली समुदाय _ारा स्थातिपत तिवक्षिभन्न तिवद्यालयों में प्राथधिमक स्तर तक बंगला भार्षा का अध्ययन सभी तिवद्यार्थिथ<यों के शिलए अतिनवाय) है। जैसे :-

1. बंगाली टोला इंटर कॉलेज

2.जयनारायण घोर्षाल इंटर कॉलेज

3.शिचन्तामक्षिण एगं्लो बंगाली इंटर कॉलेज

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4. दुगा)चरण गAस) इंटर कॉलेज

5. तिवतिपन तिबहारी गAस) इंटर कॉलेज

6. काशी तिहन्दू तिवश्वशिशद्यालय में बंगला तिवभाग

इस प्रकार यह स्पd ह ै तिक वाराणसी म ें बंगला भार्षा शिशक्षण का काय) तिवद्यालय, महातिवद्यालय एवं तिवश्वतिवद्यालय तीनों स्तर पर पर तिकया जाता है।

मराठी समुदायः— मराठी भार्षी समुदाय के भी कई तिवद्यालय वाराणसी में हैं परन्तु अब इन में मराठी भार्षा नहीं पढ़ायी जाती। मराठी भार्षा शिशक्षण का काय) वत)मान समय में केवल तिवश्वतिवद्यालय स्तर पर ही होता है।

1. गणेश तिवद्यामंदिदर2. मराठा स्कूल3. काशी तिहन्दू तिवश्वतिवद्यालय का मराठी तिवभाग

इस के अतितरिरक्त आजकल मातृभार्षा के अनुरक्षण के प्रतित सजग कुछ मराठी बन्धु ग्रीष्म-शिशतिवर, मराठी-शिशक्षण काय)aम आदिद के आयोजन _ारा प्राथधिमक स्तर पर मराठी भार्षा शिशक्षण को पुनः प्रारम्भ करने का सत्प्रयास कर रहे हैं।

गुजराती समुदायः-- गुजरातीभार्षी समाज के लोगों ने भी अपने समुदाय के बच्चों के शिलए कई पाठशालाए ँबनवाईं थीं जिजनम ें गुजराती भार्षा पढ़ाई जाती थी। वत)मान समय में गुजराती समाज _ारा स्थातिपत कुछ पाठशालाए ँतो हैं पर अब उनमें गुजराती भार्षा शिशक्षण बंद हो गया है।

1. गुजरात तिवद्या मंदिदर2. सरदार बAलभ तिवद्यापीठ

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गुजराती समाज ने वाराणसी में कई अचे्छ पुस्तकालय भी बनवाए थे जिजनमें गुजराती भार्षा एवं सातिहत्य से सम्बन्धिन्धत प्रचुर सामग्री एवं समसामधियक गुजराती पत्र-पतित्रकाए ँउपलब्ध थीं। तिकन्तु समुशिचत प्रबन्धन के अभाव में कालान्तर में ये पुस्तकालय एक-एक कर बन्द हो गए।

पंजाबी समुदायः- पंजाबी समाज के लोगों ने भी वाराणसी में पंजाबी भार्षा शिशक्षण की व्यवस्था की थी। वत)मान समय में उनमें से कुछ एक में ही अब पंजाबी पढ़ायी जाती है। इनका तिववरण इस प्रकार है।

4. गुरुनानक खालसा गAस) इंटर कालेज।5. खालसा ब्वायज़ इंटर कालेज।6. तिनम)ल संस्कृत तिवद्यालय (तिवश्वनाथ गली)।

वत)मान समय में इन तिवद्यालयों में पंजाबी भार्षा की प्राथधिमक स्तर तक शिशक्षा दी जाती है, उच्च कक्षाओं में पंजाबी भार्षा को वैकस्थिAपक तिवर्षय के रूप में रखा गया है। जो बच्चे आगे भी पंजाबी को एक तिवर्षय के रूप म ें पढ़ना चाहत े ह ैं उनके शिशक्षण के शिलए अलग से व्यवस्था की गई है।

............ ⃟⃟⃟⃟...........वाराणसी शहर के मुख्य अल्पसंख्यक भाषाभाषी स माजों का

स माजभाषिषक अनुशीलन

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शोNकाय6 हेतु प्रश्नावलीभाग—1

व्यचिक्तगत परिरMय

(क) (1) नाम :-------------------------(2) लिल<ग :------------(3) उम्र :

(4) शिशक्षा :------------------------(5) व्यवसाय :----------

(6) माशिसकआय :------------------

(ख) (7) जन्म तितशिथ :-------------------------------

(8) वत)मान स्थान :-----------------------------

(9) मातृ भूधिम / मूल स्थान :-----------------------ग्रमीण--------/

शहरी------------

(10) जन्म स्थान :-------------------------------

(11) माता तथा तिपता का जन्मस्थान :-------------------------------------

(12) मातृभार्षा :----------------------------------

(13) धम) व जातित :-------------------------------

(14) क्या आप वाराणसी के मूलतिनवासी हैं ? (हाँ)--------------(नहीं)----------------

(15) यदिद नहीं तो आपके परिरवार में कौन यहाँ सव)प्रथम आया ? आप / माता-तिपता/- --------------------------- आपके पूव)ज -----------------------------

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(16) स्थानान्तरण का कारण :--------------------------

(17) स्थानान्तरण का वर्ष) :-----------------------------

(18) पूव) तिनवास स्थान :--------------------------------

(19) क्या आपके सह तिनवासी इस स्थान पर अभी भी स्थातिपत हो रहे हैं ?

(हाँ)----------------(नहीं)-------------

(20) क्या आप रहते हैं ? एकाकी परिरवार में------- संयुक्त परिरवार में--------

(21) क्या आप वर / वधू की तलाश अपने मूल स्थान में करते हैं ?

(हाँ)------------ (नहीं)-----------

(22) आपके भातिर्षक समुदाय के लोग वाराणसी में तिकन स्थानों में अधिधक संख्या में तिनवास करते हैं ? क)----------------ख)-------------------ग)--------------------

घ)-----------------

(23) आपके के्षत्र में तिनवास करने वाले अन्य भातिर्षक समुदाय कौन से हैं ?

(क)-----------------------

(ख)-----------------------

(ग)-----------------------

(24) आप तिवशेर्षकर तिकस भातिर्षक समाज के सम्पक) में रहते हैं ? इसकी प्रकृतित एवं सम्पक) समयावधिध भी बताए।ँ

भातिर्षक समाज सम्पक) -समय प्रकृतित

(क)

(ख)

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(ग)

(घ)

भाग--2

भाषा-योर्ग्यूयता

(1) आपने तिकस भार्षा / तिकन भार्षाओं को सव)प्रथम बोलना सीखा ?

क)---------------ख)----------------ग)----------------घ)-----------------

(2) आप अपनी मातृभार्षा में तिकतने दक्ष हैं—

कुशल सामान्य अAप

1 समझना

2 बोलना

3 पढ़ना

4 शिलखना

(3) अन्य भार्षाए,ँ जो आपको आती हैं—

क)---------------ख)----------------ग)----------------घ)-----------------

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(4) अन्य भार्षाओं में दक्षता का स्तर—

भार्षाएँ दक्षता अच्छा सामान्य अAप

1. 1.समझना

2.बोलना

3.पढ़ना

4.शिलखना

2. 1.समझना

2.बोलना

3.पढ़ना

4.शिलखना

3. 1.समझना

2.बोलना

3.पढ़ना

4.शिलखना

4. 1.समझना

2.बोलना

3.पढ़ना

4.शिलखना

(5) आपने भार्षाए ँकहाँ से सीखीं—

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शिशक्षण—स्थल भार्षा-1 भार्षा-2 भार्षा-3 भार्षा-4

परिरवार में

स्कूल में

पड़ोस में

काय)-स्थल पर

धिमत्रों से

पुस्तकों से

भार्षा शिशक्षण संस्थान

अन्य तिकसी माध्यम से

(6) आप तिनम्न कायu के शिलए तिकस भार्षा / तिकन भार्षाओं में दक्ष हैं—

काय) भार्षा-1 भार्षा-2 भार्षा-3 भार्षा-4

गणना में

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वाता)लप में

बाजार में

गाली-गलौज में

गाना गाने में

कहानी सुनाने में

चचा) में

प्राथ)ना में

नौकर से बातचीत में

धिमत्रों से बातचीत में

(9) अन्ताक्षरी के शिलए आप तिकस भार्षा को चुनेंगे—

1)----------------------2)------------------3)-----------------------

(10) अनुवाद के शिलए तिकस भार्षा को चुनेंगे?

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-----------------का-------------- --------------------का--------------

1.2.3.4.5.

भाग--3

भाषा-अपसरण

(1) क्या आपकी भार्षा के्षत्र में बोली जाने वाली भार्षा से साम्यता रखती है?

(हाँ)------------------------- (नहीं)------------------------

(2) क्या आप तिनम्न समानताओं को उपयुक्त मानते हैं?

सुतिवधाएँ हाँ नहीं

1.समान शब्द

2.समान शिलतिप

3.समान के्षत्र में रहना

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4.अन्य कोई

(3) क्या आप सामान्यतया अपनी भार्षा बोलते हुए उसमें अन्य भार्षा के तत्वों को धिमलाते हैं ? (हाँ)------------------------(नहीं)----------------------

(4) यदिद हाँ, तो आपके तिवचार से इस धिमश्रण के क्या कारण हैं?

कारण अत्यधिधक थोड़ा बहुत तिबAकुल नहीं

1.अन्य भार्षा में तिवचार व्यक्त करने के शिलए उपयुक्त शब्द धिमल जाते हैं।

2. अन्य भार्षा में तिनक्षिoत तिवर्षय पर बात करना सरल है।

3. अन्य भार्षा का प्रयोग करना गौरव की बात है।

4.यह एकता का द्योतक होता है।

5.सभी भार्षाओं की जानकारी का होना।

(5) आपके तिवचार से भार्षा में धिमश्रण करने के क्या प्रभाव होते हैं?

प्रभाव अत्यधिधक थोड़ा तिबAकुल नहीं

1. भार्षा को सम्बद्ध

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करता है।

2. भार्षा की शुद्धता को नd करता है।

3. भार्षा को समझने के योग्य बनाता है।

4. अन्य भार्षाओं से एकदम धिमलती जुलती है

(6) क्या आपके अनुसार अन्य भार्षा-भार्षी भी अपनी भार्षा में आपकी भार्षा का धिमश्रण करते हैं?

(हाँ)-------------------------- (नहीं)-------------------------

भाग--4

बहुभाषिषक-अध्ययन

A. व्यशिक्त परिरचय—

(1) नाम :

(2) लिल<ग :

(3) पता :

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(4) जन्म तितशिथ :

(5) उम्र :

(6) जन्म स्थान :

(7) तिनवास स्थान :

स्थान------------------- उम्र(--से---तक)----------वर्ष)--------------

(8) मातृ भार्षा :

(9) ज्ञात भार्षाए ँ—

बोलना------------ पढ़ना--------------- शिलखना---------------

(10) शिशक्षा—

स्कूल-------------------------------कालेज-----------------------------

(11) तिपता की शिशक्षा —

(12) माता की शिशक्षा—

(13) पतित / पन्धित्न की शिशक्षा व मातृ भार्षा-------------------------------------------

(14) व्यवसाय-----------------------------

(15) आय---------------------------------

(16) पारिरवारिरक व्यवसाय------------------

B. भार्षाओं का काया)नुसार तिवभाजन—

(1) (क) समाचार पत्र पढ़ना--------------- --------------------

(ख) पतित्रकाए ँपढ़ना----------------- -------------------

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(ग) प्रशिसद्ध सातिहत्य पढ़ना------------ -------------------

(2) पत्र शिलखते हैं (तिकस भार्षा में)—

(क) माता-तिपता को ----------------- -----------------------

(ख) अन्य सम्बन्धिन्धयों को------------ -----------------------

(ग) बच्चों को------------------------ -----------------------

(घ) औपचारिरक----------------------- -----------------------

(3) भार्षा उपयोग—

सदस्य पारिरवारिरक तिवर्षय औपचारिरक

1) माता-तिपता

2) पतित-पन्धित्न

3) बचे्च

4) पड़ौसी

5) चाचा – चाची

6) अन्य

7) भाई – बहन

8) धिमत्रों से

9) सब्जी तिवaेता

10) दुकान पर

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11) काय)-स्थल पर

1.-बड़ों से

2.-समान लोगों से

3.-छोटों से

(4) भातिर्षक दृधिdकोण :

1) आपकी मनपसंद भार्षा----------------------

2) सबसे उपयोगी भार्षा------------------------

1. नौकरी के शिलए------------------------

2. सामाजिजक स्थान----------------------

3. तिववाह आदिद के शिलए------------------

3) भार्षा उपयोग—

1. गणना में

2. सोचने में

4) स्वयं को क्या मानते हैं—

1. बनारसी :

2. भोजपुरी तिहन्दी वक्ता :

3. बंगाली :

4. दक्षिक्षण भारतीय :

5. गुजराती :

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6. पंजाबी :

7. उदू) वक्ता :

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5. बोरा राजमल, गणेश मराठी भार्षा और सातिहत्य, नेश्नल

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तितवारी उदयनारायण,1984 भारतीय आय) भार्षाए,ँ भारती भण्डार, इलाहबाद

10. शमा), हरीश, 1997 भार्षातिवज्ञान की रूपरेखा, अधिमत प्रकाशन,

गाजिजयाबाद।

11. तितवारी, भोलानाथ 1986 भार्षातिवज्ञान, तिकताब महल, 15 थान)तिहल

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तितवारी भोलानाथ, लिस<ह कमल तिहन्दी और भारतीय भार्षाए,ँ प्रभात

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12. श्री कृष्ण 1986 भार्षा अनुरक्षण एवं भार्षा तिवस्थापन

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रस्तोगी, कतिवता 2010 समसामधियक अनुप्रयुक्त भार्षातिवज्ञान, अतिवराम प्रकाशन, दिदAली

23. धिमश्र, रामबख्श 2003 समाजभार्षातिवज्ञान एक संक्षिक्षप्त परिरचय, स्वल्किस्त प्रकाशन

24. चaवत� अनीता तिहन्दी और बंगला की सहायक तिaयाओं का

तुलनात्मक अध्ययन, गीता प्रकाशन हैदराबाद

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31. ति_वेदी, देवीशंकर 1974 भार्षा और भातिर्षकी, प्रशान्त प्रकाशन

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33. उपाध्याय, बलदेव 1984 काशी की पास्थिण्डत्य परम्परा,

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35. श्रीवास्तव रतिवन्द्रनाथ भार्षातिवज्ञान सैद्धांतितक शिचन्तन,

बीना श्रीवास्तव 1997 राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट

शिलधिमटेड, दरिरयागंज नई दिदAली-0236. गुप्त मोतीलाल, भटनागर आधुतिनक भार्षातिवज्ञान की भूधिमका,

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302004

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37. शमा) राजमक्षिण, 2000 आधुतिनक भार्षातिवज्ञान, वाणी प्रकाशन,

पटना।

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पदिटयाला हाउस, नई दिदAली।

पत्र व पषित्रकाएँ

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2. नरेन्द्रनाथ धिमश्र, 2010 सोच तिवचार काशी अंक,

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3. नरेन्द्रनाथ धिमश्र, 2011 सोच तिवचार काशी अंक 2,

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4. नी. पु. जोशी दूवा¶कर (वाराणसी)

अप्रकाशिशत शोN प्रबंN

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3. शुक्ला, सुमेधा 2007 लखनऊ के तिहन्दी भार्षा भातिर्षयों में भार्षा अनुरक्षण एवं परिरवृक्षि`, भार्षातिवज्ञान तिवभाग, लखनऊ तिवश्वतिवद्यालय।

आलेख

1. श्री शमा) तिवनयमोहन तिहन्दी और मरठी का संबन्ध,गवेर्षणा संचयन

(संकलन शंभुनाथ)

2. श्री तेजनारायण लाल तिहन्दी-बंगला के कुछ वाक्य साँचों का तिवश्लेर्षण

गवेर्षणा संचयन (संकलन शंभुनाथ)

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सहायक वेबसाइट—www.linguislist.orgwww.languageinindia.comwww.upgov.nic.in

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