प्रेमचंद - kishore karuppaswamy · web viewवरद न 1 व र ग य 5 नय...

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प्रेमचंद

वरदान 1वैराग्य 5

नये पड़ोसि�यों �े मेल-जोल 11एकता का �म्बन्ध पुष्ट होता है 14

शि ष्ट-जीवन के दृश्य 19डि%प्टी श्यामाचरण 23डिनठुरता और प्रेम 30

�खि-याँ 33

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1वरदान

वि�न्घ्याचल प�त मध्यरावि� के वि�वि�ड़ अन्धकार में काल दे� की भांवित खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे �ृक्ष इस प्रकार दष्टि,गोचर होते थे, मा�ो ये उसकी जटाए ं है और अ,भुजा दे�ी का मन्दिन्दर न्दिजसके कलश पर शे्वत पताकाए ं�ायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस दे� का मस्तक है मंदिदर में एक न्दि:लष्टिमलाता हुआ दीपक था, न्दिजसे देखकर विकसी धंुधले तारे का मा� हो जाता था।

अधरावि� व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भया�ह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें प�त के �ीचे सुखद प्र�ाह से बह रही थीं। उ�के बहा� से एक म�ोरंजक राग की ध्�वि� वि�कल रही थी। ठौर-ठौर �ा�ों पर और विक�ारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिदखायी देती थी। ऐसे समय में एक शे्वत �स्�धारिरणी स्�ी अ,भुजा दे�ी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भा�ों से कुली�ता प्रकट होती थी। उस�े देर तक सिसर :ुकाये रह�े के पश्चात कहा।

‘माता! आज बीस �र्ष से कोई मंगल�ार ऐसा �हीं गया जबविक मैं�े तुम्हारे चरणो पर सिसर � :ुकाया हो। एक दिद� भी ऐसा �हीं गया जबविक मैं�े तुम्हारे चरणों का ध्या� � विकया हो। तुम जगतारिरणी महारा�ी हो। तुम्हारी इत�ी से�ा कर�े पर भी मेरे म� की अभिभलार्षा पूरी � हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ ?’

‘माता। मैं�े सैकड़ों व्रत रखे, दे�ताओं की उपास�ाए ंकी’, तीथयाञाए ंकी, परन्तु म�ोरथ पूरा � हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुम�े सदा अप�े भक्तो की इच्छाए ंपूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से वि�राश हो जाऊं?’

सु�ामा इसी प्रकार देर तक वि��ती करती रही। अकस्मात उसके सिचत्त पर अचेत कर�े �ाले अ�ुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और का� में ध्�वि� आयी

‘सु�ामा! मैं तु:से बहुत प्रसन्न हंू। मांग, क्या मांगती है?सु�ामा रोमांसिचत हो गयी। उसका हृदय धड़क�े लगा। आज बीस �र्ष के पश्चात

महारा�ी �े उसे दश� दिदये। �ह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, �ह महारा�ी देंगी’ ?‘हां, ष्टिमलेगा।’‘मैं�े बड़ी तपस्या की है अतए� बड़ा भारी �रदा� मांगूगी।’‘क्या लेगी कुबेर का ध�’?‘�हीं।’‘इन्द का बल।’‘�हीं।’‘सरस्�ती की वि�द्या?’‘�हीं।’‘विaर क्या लेगी?’‘संसार का सबसे उत्तम पदाथ।’‘�ह क्या है?’‘सपूत बेटा।’

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‘जो कुल का �ाम रोश� करे?’‘�हीं।’‘जो माता-विपता की से�ा करे?’‘�हीं।’‘जो वि�द्वा� और बल�ा� हो?’‘�हीं।’‘विaर सपूत बेटा विकसे कहते हैं?’‘जो अप�े देश का उपकार करे।’‘तेरी बुविद्व को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

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2वैराग्य

मुंशी शासिलग्राम ब�ारस के पुरा�े रईस थे। जी��-�ृवित �कालत थी और पैतृक सम्पभित्त भी अष्टिधक थी। दशाश्वमेध घाट पर उ�का �ैभ�ान्विन्�त गृह आकाश को स्पश करता था। उदार ऐसे विक पचीस-तीस हजार की �ाविर्षक आय भी व्यय को पूरी � होती थी। साधु-ब्राहमणों के बडे़ श्रद्वा�ा� थे। �े जो कुछ कमाते, �ह स्�यं ब्रह्रमभोज और साधुओं के भंडारे ए�ं सत्यकाय में व्यय हो जाता। �गर में कोई साधु-महात्मा आ जाये, �ह मुंशी जी का अवितसिथ। संस्कृत के ऐसे वि�द्वा� विक बडे़-बडे़ पंविडत उ�का लोहा मा�ते थे �ेदान्तीय सिसद्वान्तों के �े अ�ुयायी थे। उ�के सिचत्त की प्र�ृवित �ैराग्य की ओर थी।

मुंशीजी को स्�भा�त: बच्चों से बहुत पे्रम था। मुहल्ले-भर के बचे्च उ�के पे्रम-�ारिर से अभिभसिसंसिचत होते रहते थे। जब �े घर से वि�कलते थे तब बालाकों का एक दल उसके साथ होता था। एक दिद� कोई पार्षाण-हृदय माता अप�े बच्�े को मार थी। लड़का विबलख-विबलखकर रो रहा था। मुंशी जी से � रहा गया। दौडे़, बचे्च को गोद में उठा सिलया और स्�ी के सम्मुख अप�ा सिसर :ुक दिदया। स्�ी �े उस दिद� से अप�े लड़के को � मार�े की शपथ खा ली जो म�ुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्�ेही हो, �ह अप�े बालक को विकत�ा प्यार करेगा, सो अ�ुमा� से बाहर है। जब से पु� पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कायu से अलग हो गये। कहीं �े लड़के को हिहंडोल में :ुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। कहीं �े उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी में बैठाकर स्�यं खींच रहे हैं। एक क्षण के सिलए भी उसे अप�े पास से दूर �हीं करते थे। �े बचे्च के स्�ेह में अप�े को भूल गये थे।

सु�ामा �े लड़के का �ाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा �ाम था �ैसे ही उसमें गुण भी थे। �ह अत्यन्त प्रवितभाशाली और रुप�ा� था। जब �ह बातें करता, सु��े �ाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पु, विक विद्वगुण डील�ाले लड़कों को भी �ह कुछ � सम:ता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा दिदव्य और ज्ञा�मय था विक यदिद �ह अचा�क विकसी अपरिरसिचत म�ुष्य के साम�े आकर खड़ा हो जाता तो �ह वि�स्मय से ताक�े लगता था।

इस प्रकार हंसते-खेलते छ: �र्ष व्यतीत हो गये। आ�ंद के दिद� प�� की भांवित सन्न-से वि�कल जाते हैं और पता भी �हीं चलता। �े दुभाग्य के दिद� और वि�पभित्त की रातें हैं, जो काटे �हीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी विकत�े दिद� हुए। बधाई की म�ोहारिरणी ध्�वि� का�ों मे गूंज रही थी छठी �र्षगांठ आ पहुंची। छठे �र्ष का अंत दुर्दिदं�ों का श्रीगणेश था। मुंशी शासिलग्राम का सांसारिरक सम्बन्ध के�ल दिदखा�टी था। �ह वि�ष्काम और वि�स्सम्बद्व जी�� व्यतीत करते थे। यद्यविप प्रकट �ह सामान्य संसारी म�ुष्यों की भांवित संसार के क्लेशों से क्लेसिशत और सुखों से हर्षिर्षंत दृष्टि,गोचर होते थे, तथाविप उ�का म� स�था उस महा� और आ�न्दपू� शांवित का सुख-भोग करता था, न्दिजस पर दु:ख के :ोंकों और सुख की थपविकयों का कोई प्रभा� �हीं पड़ता है।

माघ का मही�ा था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगाविड़यों में या�ी रुई की भांवित भर-भरकर प्रयाग पहुंचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के �ृद्व-न्दिज�के सिलए �र्षu से उठ�ा कदिठ� हो रहा था- लंगड़ाते, लादिठयां टेकते मंन्दिजल तै करके प्रयागराज को जा रहे

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थे। बडे़-बडे़ साधु-महात्मा, न्दिज�के दश�ो की इच्छा लोगों को विहमालय की अंधेरी गुaाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवि�� तरंगों से गले ष्टिमल�े के सिलए आये हुए थे। मुंशी शासिलग्राम का भी म� ललचाया। सु�ाम से बोले- कल स्�ा� है।

सु�ामा - सारा मुहल्ला सू�ा हो गया। कोई म�ुष्य �हीं दीखता।मुंशी - तुम चल�ा स्�ीकार �हीं करती, �हीं तो बड़ा आ�ंद होता। ऐसा मेला तुम�े

कभी �हीं देखा होगा।सु�ामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है।मुंशी - मेरा जी तो �हीं मा�ता। जब से सु�ा विक स्�ामी परमा�न्द जी आये हैं तब से

उ�के दश� के सिलए सिचत्त उविद्वग्� हो रहा है।सु�ामा पहले तो उ�के जा�े पर सहमत � हुई, पर जब देखा विक यह रोके � रुकें गे,

तब वि��श होकर मा� गयी। उसी दिद� मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्हों�े प्रताप के मुख का चुम्ब� विकया और स्�ी को पे्रम से गले लगा सिलया। सु�ामा �े उस समय देखा विक उ�के �ेञ सजल हैं। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चै� मास में काली घटाओं को देखकर कृर्षक का हृदय कॉंप�े लगता है, उसी भाती मुंशीजी �े �े�ों का अश्रुपूण देखकर सु�ामा कम्पिम्पत हुई। अश्रु की �े बूंदें �ैराग्य और त्याग का अगाघ समुद्र थीं। देख�े में �े जैसे �न्हे जल के कण थीं, पर थीं �े विकत�ी गंभीर और वि�स्तीण।

उधर मुंशी जी घर के बाहर वि�कले और इधर सु�ामा �े एक ठंडी श्वास ली। विकसी �े उसके हृदय में यह कहा विक अब तु:े अप�े पवित के दश� � होंगे। एक दिद� बीता, दो दिद� बीते, चौथा दिद� आया और रात हो गयी, यहा तक विक पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशी जी � आये। तब तो सु�ामा को आकुलता हो�े लगी। तार दिदये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता � चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्� में समाप्त हो गया। मुंशी जी के लौट�े की जो कुछ आशा शेर्ष थी, �ह सब ष्टिमट्टी में ष्टिमल गयी। मुंशी जी का अदृश्य हो�ा उ�के कुटुम्ब मा� के सिलए ही �हीं, �र� सारे �गर के सिलए एक शोकपूण घट�ा थी। हाटों में दुका�ों पर, हथाइयो में अथात चारों और यही �ातालाप होता था। जो सु�ता, �ही शोक करता- क्या ध�ी, क्या वि�ध�। यह शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्साह aैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। न्दिज� गसिलयों से �े बालकों का :ुण्ड लेकर वि�कलते थे, �हां अब धूल उड़ रही थी। बचे्च बराबर उ�के पास आ�े के सिलए रोते और हठ करते थे। उ� बेचारों को यह सुध कहां थी विक अब प्रमोद सभा भंग हो गयी है। उ�की माताए ं ऑंचल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मा�ों उ�का सगा पे्रमी मर गया है।

�ैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जा�े का रो�ा सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढे़ आंसू, उ� आढवितयों और महाज�ों के �े�ों से विगरते थे, न्दिज�के ले�े-दे�े का लेखा अभी �हीं हुआ था। उन्हों�े दस-बारह दिद� जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के प� दिदखा�े लगे। विकसी ब्रहृ�भोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य �हीं दिदया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है। मन्दिन्दर ब��ाते समय एक महाज� के बीस सहस्र ऋण सिलया था, �ह अभी �ैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा विक एक उत्तम गृह और तत्सम्बम्पिन्ध�ी सामविग्रयों के अवितरिरक्त कोई �स्त � थी, न्दिजससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पभित्त बेच�े के अवितरिरक्त अन्य कोई उपाय � था, न्दिजससे ध� प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।

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बेचारी सु�ामा सिसर �ीचा विकए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अप�े लकड़ी के घोडे़ पर स�ार आंग� में टख-टख कर रहा था विक पण्डिण्डत मोटेराम शास्�ी - जो कुल के पुरोविहत थे - मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर वि�राश सु�ामा चौंककर उठ बैठी विक शायद यह कोई शुभ समाचार लाये हैं। उ�के सिलए आस� विबछा दिदया और आशा-भरी दृष्टि, से देख�े लगी। पण्डिण्डतजी आसा� पर बैठे और संुघ�ी संूघते हुए बोले तुम�े महाज�ों का लेखा देखा?

सु�ामा �े वि�राशापूण शब्दों में कहा-हां, देखा तो।मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी �े आगा-पीछा कुछ � सोचा, अप�े यहां कुछ

विहसाब-विकताब � रखा।सु�ामा-हां अब तो यह रकम गहरी है, �हीं तो इत�े रुपये क्या, एक-एक भोज में

उठ गये हैं।मोटेराम-सब दिद� समा� �हीं बीतते।

सु�ामा-अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हंू।मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुम�े भी कुछ सोचा है ?सु�ामा-हां गां� बेच डालूंगी।मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूष्टिम विबक गयी, तो विaर बात क्या रह

जायेगी?मोटेराम- भला, पृथ्�ी हाथ से वि�कल गयी, तो तुम लोगों का जी�� वि��ाह कैसे

होगा?सु�ामा-हमारा ईश्वर मासिलक है। �ही बेड़ा पार करेगा।मोटेराम यह तो बडे़ अaसोस की बात होगी विक ऐसे उपकारी पुरुर्ष के लड़के-बाले

दु:ख भोगें।सु�ामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो विकसी का क्या बस?मोटेराम-भला, मैं एक युसिक्त बता दंू विक सांप भी मर जाए और लाठी भी � टूटे।सु�ामा- हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।मोटेराम-पहले तो एक दरख्�ास्त सिलख�ाकर कलक्टर साविहब को दे दो

विक मालगुलारी माa की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आंच �ा आ�े पायेगी।

सु�ामा-कुछ प्रकट भी तो हो, आप इत�े रुपये कहां से लायेंगी?मोटेराम- तुम्हारे सिलए रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के �ाम पर विब�ा सिलखा-पढ़ी

के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जा�ा कोई बड़ी बात �हीं है। सच तो यह है विक रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुंह से ‘हां’ वि�कल�े की देरी है।

सु�ामा- �गर के भद्र-पुरुर्षों �े एक� विकया होगा?मोटेराम- हां, बात-की-बात में रुपया एक� हो गया। साहब का इशारा बहुत था।सु�ामा-कर-मुसिक्त के सिलए प्राथ�ा-पञ मु:से � सिलख�ाया जाएगा और मैं अप�े

स्�ामी के �ाम ऋण ही ले�ा चाहती हंू। मैं सबका एक-एक पैसा अप�े गां�ों ही से चुका दंूगी।

यह कहकर सु�ामा �े रुखाई से मुंह aेर सिलया और उसके पीले तथा शोकान्विन्�त बद� पर क्रोध-सा :लक�े लगा। मोटेराम �े देखा विक बात विबगड़�ा चाहती है, तो संभलकर

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बोले- अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती �हीं है। मगर यदिद हम�े तुमको विकसी प्रकार का दु:ख उठाते देखा, तो उस दिद� प्रलय हो जायेगा। बस, इत�ा सम: लो।

सु�ामा-तो आप क्या यह चाहते हैं विक मैं अप�े पवित के �ाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूं? मैं इसी घर में जल मरंुगी, अ�श� करते-करते मर जाऊंगी, पर विकसी की उपकृत � ब�ंूगी।

मोटेराम-सिछ:सिछ:। तुम्हारे ऊपर वि�होरा कौ� कर सकता है? कैसी बात मुख से वि�कालती है? ऋण ले�े में कोई लाज �हीं है। कौ� रईस है न्दिजस पर लाख दो-लाख का ऋण � हो?

सु�ामा- मु:े वि�श्वास �हीं होता विक इस ऋण में वि�होरा है।मोटेराम- सु�ामा, तुम्हारी बुविद्व कहां गयी? भला, सब प्रकार के दु:ख उठा लोगी पर

क्या तुम्हें इस बालक पर दया �हीं आती?मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सु�ामा सजल�य�ा हो गई। उस�े पु� की

ओर करुणा-भरी दृष्टि, से देखा। इस बचे्च के सिलए मैं�े कौ�-कौ� सी तपस्या �हीं की? क्या उसके भाग्य में दु:ख ही बदा है। जो अमोला जल�ायु के प्रखर :ोंकों से बचाता जाता था, न्दिजस पर सूय की प्रचण्ड विकरणें � पड़�े पाती थीं, जो स्�ेह-सुधा से अभी सिसंसिचत रहता था, क्या �ह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुर:ायेगा? सु�ामा कई ष्टिम�ट तक इसी सिचन्ता में बैठी रही। मोटेराम म�-ही-म� प्रसन्न हो रहे थे विक अब सaलीभूत हुआ। इत�े में सु�ामा �े सिसर उठाकर कहा-न्दिजसके विपता �े लाखों को न्दिजलाया-खिखलाया, �ह दूसरों का आभिश्रत �हीं ब� सकता। यदिद विपता का धम उसका सहायक होगा, तो स्�यं दस को खिखलाकर खायेगा। लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तवि�क यहां आओ। कल से तुम्हारी ष्टिमठाई, दूध, घी सब बन्द हो जायेंगे। रोओगे तो �हीं?’ यह कहकर उस�े बेटे को प्यार से बैठा सिलया और उसके गुलाबी गालों का पसी�ा पोंछकर चुम्ब� कर सिलया।

प्रताप- क्या कहा? कल से ष्टिमठाई बन्द होगी? क्यों क्या हल�ाई की दुका� पर ष्टिमठाई �हीं है?

सु�ामा-ष्टिमठाई तो है, पर उसका रुपया कौ� देगा?प्रताप- हम बडे़ होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा

तेज घोड़ा है।सु�ामा की आंखों में विaर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस सौन्दय और सुकुमारता की

मूर्षितं पर अभी से दरिरद्रता की आपभित्तयां आ जायेंगी। �हीं �हीं, मैं स्�यं सब भोग लूंगी। परन्तु अप�े प्राण-प्यारे बचे्च के ऊपर आपभित्त की परछाहीं तक � आ�े दंूगी।’ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अप�े हठी और मुंहजोर घोडे़ पर चढ़�े में पूण शसिक्त से ली� हो रहा था। बचे्च म� के राजा होते हैं।

अभिभप्राय यह विक मोटेराम �े बहुत जाल aैलाया। वि�वि�ध प्रकार का �ाक्चातुय दिदखलाया, परन्तु सु�ामा �े एक बार ‘�हीं करके ‘हां’ � की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार न्दिजस�े सु�ा, धन्य-धन्य कहा। लोगों के म� में उसकी प्रवित,ा दू�ी हो गयी। उस�े �ही विकया, जो ऐसे संतोर्षपूण और उदार-हृदय म�ुष्य की स्�ी को कर�ा उसिचत था।

इसके पन्द्रह�ें दिद� इलाका �ीलामा पर चढ़ा। पचास सहस्र रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका दिदया गया। घर का अ�ा�श्यक सामा� बेच दिदया गया। मका� में भी सु�ामा �े

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भीतर से ऊंची-ऊंची दी�ारें खिखंच�ा कर दो अलग-अलग खण्ड कर दिदये। एक में आप रह�े लगी और दूसरा भाडे़ पर उठा दिदया।

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3नये पड़ोसि�यों �े मेल-जोल

मुंशी संजी��लाल, न्दिजन्हों�े सु�ाम का घर भाडे़ पर सिलया था, बडे़ वि�चारशील म�ुष्य थे। पहले एक प्रवितष्टि�त पद पर वि�युक्त थे, विकन्तु अप�ी स्�तं� इच्छा के कारण अaसरों को प्रसन्न � रख सके। यहां तक विक उ�की रु,ता से वि��श होकर इस्तीaा दे दिदया। �ौकर के समय में कुछ पंूजी एक� कर ली थी, इससिलए �ौकरी छोड़ते ही �े ठेकेदारी की ओर प्र�ृत्त हुए और उन्हों�े परिरश्रम द्वारा अल्पकाल में ही अच्छी सम्पभित्त ब�ा ली। इस समय उ�की आय चार-पांच सौ मासिसक से कम � थी। उन्हों�े कुछ ऐसी अ�ुभ�शासिल�ी बुविद्व पायी थी विक न्दिजस काय में हाथ डालते, उसमें लाभ छोड़ हावि� � होती थी।

मुंशी संजी��लाल का कुटुम्ब बड़ा � था। सन्ता�ें तो ईश्वर �े कई दीं, पर इस समय माता-विपता के �य�ों की पुतली के�ल एक पुञी ही थी। उसका �ाम �ृजरा�ी था। �ही दम्पवित का जी��ाश्राम थी।

प्रतापचन्द्र और �ृजरा�ी में पहले ही दिद� से मै�ी आरंभ हा गयी। आधे घंटे में दो�ों सिचविड़यों की भांवित चहक�े लगे। वि�रज� �े अप�ी गुविड़या, खिखलौ�े और बाजे दिदखाये, प्रतापचन्द्र �े अप�ी विकताबें, लेख�ी और सिच� दिदखाये। वि�रज� की माता सुशीला �े प्रतापचन्द्र को गोद में ले सिलया और प्यार विकया। उस दिद� से �ह वि�त्य संध्या को आता और दो�ों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था विक दो�ों भाई-बविह� है। सुशीला दो�ों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घंटों टकटकी लगाये दो�ों बच्चों को देखा करती, वि�रज� भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। वि�पभित्त की मारी सु�ामा उसे देखकर अप�ा दु:ख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सु�कर अप�ा म� बहलाती।

एक दिद� मुंशी संजी��लाल बाहर से आये तो क्या देखते हैं विक प्रताप और वि�रज� दो�ों दफ्तर में कुर्सिसंयों पर बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और वि�रज� ध्या� लगाये सु� रही है। दो�ों �े ज्यों ही मुंशीजी को देखा उठ खडे़ हुए। वि�रज� तो दौड़कर विपता की गोद में जा बैठी और प्रताप सिसर �ीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा गुण�ा� बालक था। आयु अभी आठ �र्ष से अष्टिधक � थी, परन्तु लक्षण से भा�ी प्रवितभा :लक रही थी। दिदव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव्र सिचत��, काले-काले भ्रमर के समा� बाल उस पर स्�च्छ कपडे़ मुंशी जी �े कहा- यहां आओ, प्रताप।

प्रताप धीरे-धीरे कुछ विहचविकचाता-सकुचाता समीप आया। मुंशी जी �े विपतृ�त् पे्रम से उसे गोद में बैठा सिलया और पूछा- तुम अभी कौ�-सी विकताब पढ़ रहे थे।

प्रताप बोल�े ही को था विक वि�रज� बोल उठी- बाबा। अच्छी-अच्छी कहावि�यां थीं। क्यों बाबा। क्या पहले सिचविड़यां भी हमारी भांवित बोला करती थीं।

मुंशी जी मुस्कराकर बोले-हां। �े खूब बोलती थीं।अभी उ�के मुंह से पूरी बात भी � वि�कल�े पायी थी विक प्रताप न्दिजसका संकोच अब

गायब हो चला था, बोला- �हीं वि�रज� तुम्हें भुलाते हैं ये कहावि�या ब�ायी हुई हैं।मुंशी जी इस वि�भ�कतापूण खण्ड� पर खूब हंसे।

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अब तो प्रताप तोते की भांवित चहक�े लगा-स्कूल इत�ा बड़ा है विक �गर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दी�ारें इत�ी ऊंची हैं, जैसे ताड़। बलदे� प्रसाद �े जो गेंद में विहट लगायी, तो �ह आकाश में चला गया। बडे़ मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी ब�ात विबछी हुई है। उस पर aूलों से भरे विगलास रखे हैं। गंगाजी का पा�ी �ीला है। ऐसे जोर से बहता है विक बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाये। �हां एक साधु बाबा है। रेल दौड़ती है स�-स�। उसका इंन्दिज� बोलता है :क-:क। इंन्दिज� में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिदखायी देते हैं।

इस भांवित विकत�ी ही बातें प्रताप �े अप�ी भोली-भाली बोली में कहीं वि�रज� सिच� की भांवित चुपचाप बैठी सु� रही थी। रेल पर �ह भी दो-ती� बार स�ार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञात � था विक उसे विकस�े ब�ाया और �ह क्यों कर चलती है। दो बार उस�े गुरुजी से यह प्रश्न विकया भी था परन्तु उन्हों�े यही कह कर टाल दिदया विक बच्चा, ईश्वर की मविहमा कोई बड़ा भारी और बल�ा� घोड़ा है, जो इत�ी गाविडयों को स�-स� खींचे।सिलए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो वि�रज� �े विपता के गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी प्रताप की विकताब पढ़ेंगे।

मुंशी-बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह तो भार्षा है।वि�रज�-तो मैं भी भार्षा ही पढंूगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहावि�यां हैं। मेरी

विकताब में तो भी कहा�ी �हीं। क्यों बाबा, पढ़�ा विकसे कहते है ?मुंशी जी बंगले :ांक�े लगे। उन्हों�े आज तक आप ही कभी ध्या� �ही दिदया था विक

पढ़�ा क्या �स्तु है। अभी �े माथ ही खुजला रहे थे विक प्रताप बोल उठा- मु:े पढ़ते देखा, उसी को पढ़�ा कहते हैं।

वि�रज�- क्या मैं �हीं पढ़ती? मेरे पढ़�े को पढ़�ा �हीं कहतें?वि�रज� सिसद्वान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप �े कहा-तुम तोते की भांवित रटती हो।

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4एकता का �म्बन्ध पुष्ट होता है

कुछ काल से सु�ामा �े द्रव्याभा� के कारण महारान्दिज�, कहार और दो महरिरयों को ज�ाब दे दिदया था क्योंविक अब � तो उसकी कोई आ�श्यकता थी और � उ�का व्यय ही संभाले संभलता था। के�ल एक बुदिढ़या महरी शेर्ष रह गयी थी। ऊपर का काम-काज �ह करती रसोई सु�ामा स्�यं ब�ा लेगी। परन्तु उस बेचारी को ऐसे कदिठ� परिरश्रम का अभ्यास तो कभी था �हीं, थोडे़ ही दिद�ों में उसे थका� के कारण रात को कुछ ज्�र रह�े लगा। धीरे-धीरे यह गवित हुई विक जब देखें ज्�र वि�द्यमा� है। शरीर भु�ा जाता है, � खा�े की इच्छा है � पी�े की। विकसी काय में म� �हीं लगता। पर यह है विक सदै� वि�यम के अ�ुसार काम विकये जाती है। जब तक प्रताप घर रहता है तब तक �ह मुखाकृवित को तवि�क भी मसिल� �हीं हो�े देती परन्तु ज्यों ही �ह स्कूल चला जाता है, त्यों ही �ह चद्दर ओढ़कर पड़ी रहती है और दिद�-भर पडे़-पडे़ कराहा करती है।

प्रताप बुविद्वमा� लड़का था। माता की दशा प्रवितदिद� विबगड़ती हुई देखकर ताड गया विक यह बीमार है। एक दिद� स्कूल से लौटा तो सीधा अप�े घर गया। बेटे को देखते ही सु�ामा �े उठ बैठ�े का प्रयत्� विकया पर वि�बलता के कारण मूछा आ गयी और हाथ-पां� अकड़ गये। प्रताप �े उसं संभाला और उसकी और भत्स�ा की दृष्टि, से देखकर कहा-अम्मा तुम आजकल बीमार हो क्या? इत�ी दुबली क्यों हो गयी हो? देखो, तुम्हारा शरीर विकत�ा गम है। हाथ �हीं रखा जाता।

सु�ाम �े हंस�े का उद्योग विकया। अप�ी बीमारी का परिरचय देकर बेटे को कैसे क, दे? यह वि�:सृ्पह और वि�:स्�ाथ पे्रम की पराका,ा है। स्�र को हलका करके बोली �हीं बेटा बीमार तो �हीं हंू। आज कुछ ज्�र हो आया था, संध्या तक चंगी हो जाऊंगी। आलमारी में हलु�ा रखा हुआ है वि�काल लो। �हीं, तुम आओ बैठो, मैं ही वि�काल देती हंू।

प्रताप-माता, तुम मु: से बहा�ा करती हो। तुम अ�श्य बीमार हो। एक दिद� में कोई इत�ा दुबल हो जाता है?

सु�ाता- (हंसकर) क्या तुम्हारे देख�े में मैं दुबली हो गयी हंू।प्रताप- मैं डॉक्टर साहब के पास जाता हंू।सु�ामा- (प्रताप का हाथ पकड़कर) तुम क्या जा�ों विक �े कहां रहते हैं?ताप- पूछते-पूछते चला जाऊंगा।सु�ामा कुछ और कह�ा चाहती थी विक उसे विaर चक्कर आ गया। उसकी आंखें

पथरा गयीं। प्रताप उसकी यह दशा देखते ही डर गया। उससे और कुछ तो � हो सका, �ह दौड़कर वि�रज� के द्वार पर आया और खड़ा होकर रो�े लगा।

प्रवितदिद� �ह इस समय तक वि�रज� के घर पहुंच जाता था। आज जो देर हुई तो �ह अकुलायी हुई इधर-उधर देख रही थी। अकस्मात द्वार पर :ांक�े आयी, तो प्रताप को दो�ों हाथों से मुख ढांके हुए देखा। पहले तो सम:ी विक इस�े हंसी से मुख सिछपा रखा है। जब उस�े हाथ हटाये तो आंसू दीख पडे़। चौंककर बोली- लल्लू क्यों रोते हो? बता दो।

प्रताप �े कुछ उत्तर � दिदया, �र�् और सिससक�े लगा।वि�रज� बोली- � बताओगे! क्या चाची �े कुछ कहा ? जाओ, तुम चुप �ही होते।

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प्रताप �े कहा- �हीं, वि�रज�, मां बहुत बीमार है।यह सु�ते ही �ृजरा�ी दौड़ी और एक सांस में सु�ामा के सिसरहा�े जा खड़ी हुई। देखा

तो �ह सुन्न पड़ी हुई है, आंखे मुंद हुई हैं और लम्बी सांसे ले रही हैं। उ�का हाथ थाम कर वि�रज� झि:ं:ोड़�े लगी- चाची, कैसी जी है, आंखें खोलों, कैसा जी है?

परन्तु चाची �े आंखें � खोलीं। तब �ह ताक पर से तेल उतारकर सु�ाम के सिसर पर धीरे-धीरे मल�े लगी। उस बेचारी को सिसर में मही�ों से तेल डाल�े का अ�सर � ष्टिमला था, ठण्डक पहुंची तो आंखें खुल गयीं।

वि�रज�- चाची, कैसा जी है? कहीं दद तो �हीं है?सु�ामा- �हीं, बेटी दद कहीं �हीं है। अब मैं विबल्कुल अच्छी हंू। भैया कहां हैं?वि�रज�-�ह तो मेर घर है, बहुत रो रहे हैं।सु�ामा- तुम जाओ, उसके साथ खेलों, अब मैं विबल्कुल अच्छी हंू।अभी ये बातें हो रही थीं विक सुशीला का भी शुभागम� हुआ। उसे सु�ाम से ष्टिमल�े

की तो बहुत दिद�ों से उत्क�ा थी, परन्तु कोई अ�सर � ष्टिमलता था। इस समय �ह सात्��ा दे�े के बहा�े आ पहुंची।वि�रज� �े अप� माता को देखा तो उछल पड़ी और ताली बजा-बजाकर कह�े लगी- मां आयी, मां आयी।

दो�ों स्�ीयों में सिश,ाचार की बातें हो�े लगीं। बातों-बातों में दीपक जल उठा। विकसी को ध्या� भी � हुआविक प्रताप कहां है। थोड़ देर तक तो �ह द्वार पर खड़ा रोता रहा,विaर :टपट आंखें पोंछकर डॉक्टर विकचलू के घर की ओर लपकता हुआ चला। डॉक्टर साहब मुंशी शासिलग्राम के ष्टिमञों में से थे। और जब कभी का पड़ता, तो �े ही बुलाये जाते थे। प्रताप को के�ल इत�ा वि�दिदत था विक �े बर�ा �दी के विक�ारे लाल बंगल में रहते हैं। उसे अब तक अप�े मुहल्ले से बाहर वि�कल�े का कभी अ�सर � पड़ा था। परन्तु उस समय मातृ भक्ती के �ेग से उविद्वग्� हो�े के कारण उसे इ� रुका�टों का कुछ भी ध्या� � हुआ। घर से वि�कलकर बाजार में आया और एक इक्के�ा� से बोला-लाल बंगल चलोगे? लाल बंगला प्रसाद स्था� था। इक्का�ा� तैयार हो गया। आठ बजते-बजते डॉक्टर साहब की विaट� सु�ामा के द्वार पर आ पहुंची। यहां इस समय चारों ओर उसकी खोज हो रही थी विक अचा�क �ह स�ेग पैर बढ़ाता हुआ भीतर गया और बोला-पदा करो। डॉक्टर साहब आते हैं।

सु�ामा और सुशीला दो�ों चौंक पड़ी। सम: गयीं, यह डॉक्टर साहब को बुला�े गया था। सु�ामा �े पे्रमाष्टिधक्य से उसे गोदी में बैठा सिलया डर �हीं लगा? हमको बताया भी �हीं यों ही चले गये? तुम खो जाते तो मैं क्या करती? ऐसा लाल कहां पाती? यह कहकर उस�े बेटे को बार-बार चूम सिलया। प्रताप इत�ा प्रसन्न था, मा�ों परीक्षा में उत्तीण हो गया। थोड़ी देर में पदा हुआ और डॉक्टर साहब आये। उन्हों�े सु�ामा की �ाड़ी देखी और सांत्��ा दी। �े प्रताप को गोद में बैठाकर बातें करते रहे। और्षष्टिधयॉ साथ ले आये थे। उसे विपला�े की सम्मवित देकर �ौ बजे बंगले को लौट गये। परन्तु जीणज्�र था, अतए� पूरे मास-भर सु�ामा को कड़�ी-कड़�ी और्षष्टिधयां खा�ी पड़ी। डॉक्टर साहब दो�ों �क्त आते और ऐसी कृपा और ध्या� रखते, मा�ो सु�ामा उ�की बविह� है। एक बार सु�ाम �े डरते-डरते aीस के रुपये एक पा� में रखकर साम�े रखे। पर डॉक्टर साहब �े उन्हें हाथ तक � लगाया। के�ल इत�ा कहा-इन्हें मेरी ओर से प्रताप को दे दीन्दिजएगा, �ह पैदल स्कूल जाता है, पैरगाड़ी मोल ले लेगा।

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वि�रज� और उ�की माता दो�ों सु�ामा की शुश्ररू्षा के सिलए उपण्डिस्थत रहतीं। माता चाहे वि�लम्ब भी कर जाए, परन्तु वि�रज� �हां से एक क्षण के सिलए भी � टलती। द�ा विपलाती, पा� देती जब सु�ामा का जी अच्छा होता तो �ह भोली-भोली बातों द्वारा उसका म� बहलाती। खेल�ा-कूद�ा सब छूट गया। जब सु�ाम बहुत हठ करती तो प्रताप के संग बाग में खेल�े चली जाती। दीपक जलते ही विaर आ बैठती और जब तक वि�द्रा के मारे :ुक-:ुक � पड़ती, �हां से उठ�े का �ाम � लेती �र� प्राय: �हीं सो जाती, रात को �ौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। � जा�े उसे कौ�-सी धु� स�ार हो गयी थी।

एक दिद� �ृजरा�ी सु�ामा के सिसरहा�े बैठी पंखा :ल रही थी। � जा�े विकस ध्या� में मग्� थी। आंखें दी�ार की ओर लगी हुई थीं। और न्दिजस प्रकार �ृक्षों पर कौमुदी लहराती है, उसी भांवित भी�ी-भी�ी मुस्का� उसके अधरों पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी ध्या� � था विक चाची मेरी और देख रही है। अचा�क उसके हाथ से पंखा छूट गया। ज्यों ही �ह उसको उठा�े के सिलए :ुकी विक सु�ामा �े उसे गले लगा सिलया। और पुचकार कर पूछा-वि�रज�, सत्य कहो, तुम अभी क्या सोच रही थी?

वि�रज� �े माथा :ुका सिलया और कुछ लण्डि�त होकर कहा- कुछ �हीं, तुमको � बतलाऊंगी।

सू�ामा- मेरी अच्छी वि�रज�। बता तो क्या सोचती थी?वि�रज�-(लजाते हुए) सोचती थी विक.....जाओ हंसो मत......� बतलाऊंगी।सु�ामा-अच्छा ले, � हसूंगी, बताओ। ले यही तो अब अच्छा �ही लगता, विaर मैं

आंखें मूंद लूंगी।वि�रज�-विकस से कहोगी तो �हीं?सु�ामा- �हीं, विकसी से � कहूंगी।वि�रज�-सोचती थी विक जब प्रताप से मेरा वि��ाह हो जायेगा, तब बडे़ आ�न्द से

रहंूगी।सु�ामा �े उसे छाती से लगा सिलया और कहा- बेटी, �ह तो तेरा भाई हे।वि�रज�- हां भाई है। मैं जा� गई। तुम मु:े बहू � ब�ाओगी।सु�ामा- आज लल्लू को आ�े दो, उससे पूछँू देखंू क्या कहता है?वि�रज�- �हीं, �हीं, उ�से � कह�ा मैं तुम्हारे पैरों पडंू।सु�ामा- मैं तो कह दंूगी।वि�रज�- तुम्हे हमारी कसम, उ�से � कह�ा।

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5शि ष्ट-जीवन के दृश्य

दिद� जाते देर �हीं लगती। दो �र्ष व्यतीत हो गये। पण्डिण्डत मोटेराम वि�त्य प्रात: काल आत और सिसद्वान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उ�का आ�ा के�ल वि�यम पाल�े के हेतु ही था, क्योविक इस पुस्तक के पढ़� में अब वि�रज� का जी � लगता था। एक दिद� मुंशी जी इंजीवि�यर के दaतर से आये। कमरे में बैठे थे। �ौकर जूत का aीता खोल रहा था विक रष्टिधया महर मुस्कराती हुई घर में से वि�कली और उ�के हाथ में मुह छाप लगा हुआ सिलaाaा रख, मुंह aेर हंस�े लगी। सिसर�ा पर सिलखा हुआ था-श्रीमा� बाबा साह की से�ा में प्राप्त हो।

मुंशी-अरे, तू विकसका सिलaाaा ले आयी ? यह मेर �हीं है।महरी- सरकार ही का तो है, खोले तो आप।मुंशी-विकस�े हुई बोली- आप खालेंगे तो पता चल जायेगा।मुंशी जी �े वि�स्मिस्मत होकर सिलaाaा खोला। उसमें से जो पञ-वि�कला उसमें यह

सिलखा हुआ था-बाबा को वि�रज� क प्रमाण और पालाग� पहुंचे। यहां आपकी कृपा से कुशल-मंगल

है आपका कुशल श्री वि�श्व�ाथजी से सदा म�ाया करती हंू। मैं�े प्रताप से भार्षा सीख ली। �े स्कूल से आकर संध्या को मु:े वि�त्य पढ़ाते हैं। अब आप हमारे सिलए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंविक पढ़�ा ही जी का सुख है और वि�द्या अमूल्य �स्तु है। �ेद-पुराण में इसका महात्मय सिलखा है। म�ुर्षय को चाविहए विक वि�द्या-ध� त�-म� से एकञ करे। वि�द्या से सब दुख हो जाते हैं। मैं�े कल बैताल-पचीस की कहा�ी चाची को सु�ायी थी। उन्हों�े मु:े एक सुन्दर गुविड़या पुरस्कार में दी है। बहुत अच्छी है। मैं उसका वि��ाह करंुगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पण्डिण्डतजी से � पढंूगी। मां �हीं जा�ती विक मैं भार्षा पढ़ती हंू।

आपकी प्यारीवि�रज�

प्रशस्मिस्त देखते ही मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद हो�े लगी।विaर तो उन्हों�े एक ही सांस में भारी सिचट्रठी पढ़ डाली। मारे आ�न्द के हंसते हुए �ंगे-पां� भीतर दौडे़। प्रताप को गोद में उठा सिलया और विaर दो�ों बच्चों का हाथ पकडे़ हुए सुशीला के पास गये। उसे सिचट्रठी दिदखाकर कहा-बू:ो विकसी सिचट्ठी है?

सुशीला-लाओ, हाथ में दो, देखंू।मुंशी जी-�हीं, �हीं से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।सुशीला-बू:् जाऊं तो क्या दोगे? मुंशी जी-पचास रुपये, दूध के धोये हुए।सुशीला- पविहले रुपये वि�कालकर रख दो, �हीं तो मुकर जाओगे।मुंशी जी- मुकर�े �ाले को कुछ कहता हंू, अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपँुन्दिजया

सम: सिलया है ?यह कहकर दस रुपये का एक �ोट जेसे वि�कालकर दिदखाया।सुशीला- विकत�े का �ोट है?

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मुंशीजी- पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।सुशीला- ले लूंगी, कहे देती हंू।मुंशीजी- हां-हां, ले ले�ा, पहले बता तो सही।सुशीला- लल्लू का है लाइये �ोट, अब मैं � मा�ंूगी। यह कहकर उठी और मुंशीजी

का हाथ थाम सिलया।मुंशीजी- ऐसा क्या डकैती है? �ोट छी�े लेती हो।सुशीला- �च� �हीं दिदया था? अभी से वि�चल�े लगे।मुंशीजी- तुम�े बू:ा भी, स�था भ्रम में पड़ गयीं।सुशीला- चलो-चलो, बहा�ा करते हो, �ोट हड़प� की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी

ही सिचट्ठी है �?प्रताप �ीची दृष्टि, से मुंशीजी की ओर देखकर धीरे-से बोला-मैं�े कहां सिलखी?मुंशीजी- लजाओ, लजाओ।सुशीला- �ह :ूठ बोलता है। उसी की सिचट्ठी है, तुम लोग गँठकर आये हो।प्रताप-मेरी सिचट्ठी �हीं है, सच। वि�रज� �े सिलखी है।सुशीला चविकत होकर बोली- वि�जर� की? विaर उस�े दौड़कर पवित के हाथ से सिचट्ठी

छी� ली और भौंचक्की होकर उसे देख�े लगी, परन्तु अब भी वि�श्वास आया।वि�रज� से पूछा- क्यें बेटी, यह तुम्हारी सिलखी है?

वि�रज� �े सिसर :ुकाकर कहा-हां।यह सु�ते ही माता �े उसे क� से लगा सिलया।अब आज से वि�रज� की यह दशा हो गयी विक जब देखिखए लेख�ी सिलए हुए पने्न

काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उस पहले ही कुछ प्रयोज � था, सिलख�े का आ�ा सो�े में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्ली�ता देख-देखकर प्रमुदिदत होती विपता हर्ष से aूला � समाता, वि�त्य ��ी� पुस्तकें लाता विक वि�रज� सया�ी होगी, तो पढे़गी। यदिद कभी �ह अप�े पां� धो लेती, या भोज� करके अप�े ही हाथ धो�े लगती तो माता महरिरयों पर बहुत कुद्र होती-आंखें aूट गयी है। चब� छा गई है। �ह अप�े हाथ से पा�ी उंडे़ल रही है और तुम खड़ी मुंह ताकती हो।

इसी प्रकार काल बीतता चला गया, वि�रज� का बारह�ां �र्ष पूण हुआ, परन्तु अभी तक उसे चा�ल उबाल�ा तक � आता था। चूल्हे के साम�े बैठ� का कभी अ�सर ही � आया। सु�ामा �े एक दिद� उसकी माता �े कहा- बविह� वि�रज� सया�ी हुई, क्या कुछ गु�-ढंग सिसखाओगी।

सुशीला-क्या कहूं, जी तो चाहता है विक लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हंू।

सु�ामा-क्या सोचकर रुक जाती हो ?सुशीला-कुछ �हीं आलस आ जाता है।सु�ामा-तो यह काम मु:े सौंप दो। भोज� ब�ा�ा स्वि�यों के सिलए सबसे आ�श्यक

बात है।सुशीला-अभी चूल्हे के साम� उससे बैठा � जायेगा।सु�ामा-काम कर�े से ही आता है।सुशीला-(:ेंपते हुए) aूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।

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सु�ामा- (हंसकर) विब�ा aूल के मुर:ाये कहीं aल लगते हैं? दूसरे दिद� से वि�रज� भोज� ब�ा�े लगी। पहले दस-पांच दिद� उसे चूल्हे के साम�े

बैठ�े में बड़ा क, हुआ। आग � जलती, aंूक�े लगती तो �ेञों से जल बहता। �े बूटी की भांवित लाल हो जाते। सिच�गारिरयों से कई रेशमी साविड़यां सत्या�ाथ हो गयीं। हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दूर हो गये। सु�ामा ऐसी सुशीला स्ञी थी विक कभी रु, � होती, प्रवितदिद� उसे पुचकारकर काम में लगाय रहती।

अभी वि�रज� को भोज� ब�ाते दो मास से अष्टिधक � हुए होंगे विक एक दिद� उस�े प्रताप से कहा- लल्लू,मु:े भोज� ब�ा�ा आ गया।

प्रताप-सच।वि�रज�-कल चाची �े मेर ब�ाया भोज� विकया था। बहुत प्रसन्न।प्रताप-तो भई, एक दिद� मु:े भी �े�ता दो।वि�रज� �े प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।दूसरे दिद� �ौ बजे वि�रज� �े प्रताप को भोज� कर�े के सिलए बुलाया। उस�े जाकर

देखा तो चौका लगा हुआ है। ��ी� ष्टिमट्टी की मीटी-मीठी सुगन्ध आ रही है। आस� स्�च्छता से विबछा हुआ है। एक थाली में चा�ल और चपावितयाँ हैं। दाल और तरकारिरयॉँ अलग-अलग कटोरिरयों में रखी हुई हैं। लोटा और विगलास पा�ी से भरे हुए रखे हैं। यह स्�च्छता और ढंग देखकर प्रताप सीधा मुंशी संजी��लाल के पास गया और उन्हें लाकर चौके के साम�े खड़ा कर दिदया। मुंशीजी खुशी से उछल पडे़। चट कपडे़ उतार, हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी वि�रज� क्या जा�ती थी विक महाशय भी विब�ा बुलाये पाहु�े हो जायेंगे। उस�े के�ल प्रताप के सिलए भोज� ब�ाया था। �ह उस दिद� बहुत लजायी और दबी ऑंखों से माता की ओर देख�े लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुस्कराकर मुंशीजी से बोली-तुम्हारे सिलए अलग भोज� ब�ा है। लड़कों के बीच में क्या जाके कूद पडे़?

�ृजरा�ी �े लजाते हुए दो थासिलयों में थोड़ा-थोड़ा भोज� परोसा।मुंशीजी-वि�रज� �े चपावितयाँ अच्छी ब�ायी हैं। �म, शे्वत और मीठी। प्रताप-मैं�े ऐसी चपावितयॉँ कभी �हीं खायीं। साल� बहुत स्�ादिद, है।‘वि�रज� ! चाचा को शोर�ेदार आलू दो,’ यह कहकर प्रताप हँ�े लगा। वि�रज� �े

लजाकर सिसर �ीचे कर सिलया। पतीली शुष्क हो रही थी।सुशीली-(पवित से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अडे़ बैठे हो! मुंशीजी-क्या तुम्हारी राल टपक रही है?वि�दा� दो�ों रसोई की इवितश्री करके उठे। मुंशीजी �े उसी समय एक मोहर

वि�कालकर वि�रज� को पुरस्कार में दी।

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6डि%प्टी श्यामाचरण

विडप्टी श्यामाचरण की धाक सारे �गर में छायी हई थी। �गर में कोई ऐसा हाविकम � था न्दिजसकी लोग इत�ी प्रवित�ा करते हों। इसका कारण कुछ तो यह था विक �े स्�भा� के ष्टिमल�सार और सह�शील थे और कुछ यह विक रिरश्वत से उन्हें बडी घृणा थी। न्याय-वि�चार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे विक दस-बाहर �र्ष के भीतर कदासिचत उ�के दो-ही चार aैसलों की अपील हुई होगी। अंग्रेजी का एक अक्षर � जा�ते थे, परन्तु बैरन्विस्टरों और �कीलों को भी उ�की �ैवितक पहुंच और सूक्ष्मदर्सिशंता पर आश्चय होता था। स्�भा� में स्�ाधी�ता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के अवितरिरक्त विकसी �े उन्हें और कहीं आते-जाते �हीं देखा। मुशीं शासिलग्राम जब तक जीवि�त थे, या यों कविहए विक �तमा� थे, तब तक कभी-कभी सिचतवि��ोदाथ उ�के यह चले जाते थे। जब �े लप्त हो गये, विडप्टी साहब �े घर छोडकर विहल�े की शपथ कर ली। कई �र्ष हुए एक बार कलक्टर साहब को सलाम कर�े गये थे खा�सामा �े कहा- साहब स्�ा� कर रहे हैं दो घंटे तक बरामदे में एक मोढे पर बैठे प्रतीक्षा करते रहे। तद�न्तर साहब बहादुर हाथ में एक टेवि�स बैट सिलये हुए वि�कले और बोले-बाबू साहब, हमको खेद है विक आपको हामारी बाट देख�ी पडी। मु:े आज अ�काश �हीं है। क्लब-घर जा�ा है। आप विaर कभी आ�ें।

यह सु�कर उन्हों�े साहब बहादुर को सलाम विकया और इत�ी-सी बात पर विaर विकसी अंग्रेजी की भेंट को � गये। �ंश, प्रवित�ा और आत्म-गौर� पर उन्हें बडा अभिभमा� था। �े बडे ही रसिसक पुरूर्ष थे। उ�की बातें हास्य से पूण होती थीं। संध्या के समय जब �े कवितपय वि�सिश, ष्टिम�ों के साथ द्वारांगण में बैठते, तो उ�के उच्च हास्य की गूंजती हुई प्रवितध्�वि� �ादिटका से सु�ायी देती थी। �ौकरो-चाकरों से �े बहुत सरल व्य�हार रखते थे, यहां तक विक उ�के संग अला� के बेठ�े में भी उ�को कुछ संकोच � था। परन्तु उ�की धाक ऐसी छाई हुई थी विक उ�की इस सज�ता से विकसी को अ�ूसिचत लाभ उठा�े का साहस � होता था। चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोअ-पतलू� से उन्हें घृणा थी। बट�दार ऊंची अचकय�, उस पर एक रेशमी काम की अबा, काला ण्डिश्मला, ढीला पाजामा और दिदल्ली�ाला �ोकदार जूता उ�की मुख्य पोशाक थी। उ�के दुहरे शरीर, गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर न्दिजत�ी यह पोशाक शोभा देती थी, उ�की कोट-पतलू�से सम्भ� � थी। यद्यविप उ�की धाक सारे �गर-भर में aैली हई थी, तथाविप अप�े घर के मण्डलान्तगत उ�की एक � चलती थी। यहां उ�की सुयोग्य अद्वांविग�ी का साम्राज्य था। �े अप�े अष्टिधकृत प्रान्त में स्�च्छन्दतापू�क शास� करती थी। कई �र्ष व्यतीत हुए विडप्टी साहब �े उ�की इच्छा के वि�रूद्व एक महरान्दिज� �ौकर रख ली थी। महरान्दिज� कुछ रंगीली थी। पे्रम�ती अप�े पवित की इस अ�ुसिचत कृवित पर ऐसी रू, हुई विक कई सप्ताह तक कोपभ�� में बैठी रही। वि�दा� वि��श होकर साहब �े महरान्दिज� को वि�दा कर दिदया। तब से उन्हें विaर कभी गृहस्थी के व्य�हार में हस्तक्षेप कर�े का साहस � हुआ।

मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका साधाचरण गत �र्ष विडग्री प्राप्त करके इस समय रूडकी कालेज में पढाता था। उसका वि��ाह aतहपुयर-सीकरी के एक रईस के यहां हआ था। मं:ली लडकी का �ाम से�ती था। उसका भी वि��ाह प्रयाग के एक

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ध�ी घरा�े में हुआ था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक अवि��ाविहत था। पे्रम�ती �े बचप� से ही लाड-प्यार करके उसे ऐसा विबगाड दिदया था विक उसका म� पढ�े-सिलख�े में तवि�क भी �हीं लगता था। पन्द्रह �र्ष का हो चुका था, पर अभी तक सीधा-सा प� भी � सिलख सकता था। इससिलए �हां से भी �ह उठा सिलया गया। तब एक मास्टर साहब वि�युक्त हुए और ती� मही�े रहे परन्तु इत�े दिद�ों में कमलाचरण �े कदिठ�ता से ती� पाठ पढे होंगें। वि�दा� मास्टर साहब भी वि�दा हो गये। तब विडप्टी साहब �े स्�यं पढा�ा वि�भिश्चत विकया। परन्तु एक ही सप्ताह में उन्हें कई बार कमला का सिसर विहला�े की आ�श्यकता प्रतीत हुई। साभिक्षयों के बया� और �कीलों की सूक्ष्म आलोच�ाओं के तत्� को सम:�ा कदिठ� �हीं है, न्दिजत�ा विकसी वि�रूत्साही लडके के यम� में सिशक्षा-रूसिचत उत्पन्न कर�ा है।

पे्रम�ती �े इस मारधाड पर ऐसा उत्पात मचाया विक अन्त में विडप्टी साहब �े भी :ल्लाकर पढा�ा छोड दिदया। कमला कुछ ऐसा रूप�ा�, सुकुमार और मधुरभार्षी था विक माता उसे सब लडकों से अष्टिधक चाहती थी। इस अ�ुसिचत लाड-प्यार �े उसे पंतंग, कबूतरबाजी और इसी प्रकार के अन्य कुव्यस�ों का पे्रमी ब�ा दिदया था। सबरे हआ और कबूतर उडाये जा�े लगे, बटेरों के जोड छूट�े लगे, संध्या हई और पंतग के लम्बे-लम्बे पेच हो�े लगे। कुछ दिद�ों में जुए का भी चस्का पड चला था। दपण, कंघी और इ�-तेल में तो मा�ों उसके प्राण ही बसते थे।

पे्रम�ती एक दिद� सु�ामा से ष्टिमल�े गयी हुई थी। �हां उस�े �ृजरा�ी को देखा और उसी दिद� से उसका जी ललचाया हआ था विक �ह बहू ब�कर मेरे घर में आये, तो घर का भाग्य जाग उठे। उस�े सुशीला पर अप�ा यह भा� प्रगट विकया। वि�रज� का तेरहॅ�ा आरम्भ हो चुका था। पवित-पत्�ी में वि��ाह के सम्बन्ध में बातचीत हो रही थी। पे्रम�ती की इच्छा पाकर दो�ों aूले � समाये। एक तो परिरसिचत परिर�ार, दूसरे कली� लडका, बूविद्वमा� और सिशभिक्षत, पैतृक सम्पवित अष्टिधक। यदिद इ�में �ाता हो जाए तो क्या पूछ�ा। चटपट रीवित के अ�ुसार संदेश कहला भेजा।

इस प्रकार संयोग �े आज उस वि�र्षैले �ृक्ष का बीज बोया, न्दिजस�े ती� ही �र्ष में कुल का स��ाश कर दिदया। भवि�ष्य हमारी दृष्टि, से कैसा गुप्त रहता है ?

ज्यों ही संदेशा पहुंचा, सास, ��द और बहू में बातें हो�े लगी। बहू(चन्द्रा)-क्यों अम्मा। क्या आप इसी साल ब्याह करेंगी ?पे्रम�ती-और क्या, तुम्हारे लालाली के मा��े की देर है। बहू-कूछ वितलक-दहेज भी ठहरा पे्रम�ती-वितलक-दहेज ऐसी लडविकयों के सिलए �हीं ठहराया जाता। जब तुला पर लडकी लडके के बराबर �हीं ठहरती,तभी दहेज का पासंग ब�ाकर

उसे बराबर कर देते हैं। हमारी �ृजरा�ी कमला से बहुत भारी है। से�ती-कुछ दिद�ों घर में खूब धूमधाम रहेगी। भाभी गीत गायेंगी। हम ढोल बजायेंगें।

क्यों भाभी ?चन्द्रा-मु:े �ाच�ा गा�ा �हीं आता। चन्द्रा का स्�र कुछ भद्दा था, जब गाती, स्�र-भंग हो जाता था। इससिलए उसे गा�े से

सिचढ थी। से�ती-यह तो तुम आप ही करो। तुम्हारे गा�े की तो संसार में धूम है।

19

चन्द्रा जल गयी, तीखी होकर बोली-न्दिजसे �ाच-गाकर दूसरों को लुभा�ा हो, �ह �ाच�ा-गा�ा सीखे।

से�ती-तुम तो तवि�क-सी हंसी में रूठ जाती हो। जरा �ह गीत गाओं तो—तुम तो श्याम बडे बेखबर हो’। इस समय सु��े को बहुत जी चाहता है। मही�ों से तुम्हारा गा�ा �हीं सु�ा।

चन्द्रा-तुम्ही गाओ, कोयल की तरह कूकती हो।से�ती-लो, अब तुम्हारी यही चाल अच्छी �हीं लगती। मेरी अच्छी भाभी, तवि�क

गाओं। चन्द्रमा-मैं इस समय � गाऊंगी। क्यों मु:े कोई डोम�ी सम: सिलया है ?से�ती-मैं तो विब� गीत सु�े आज तुम्हारा पीछा � छोडंूगी। से�ती का स्�र परम सुरीला और सिचताकर्षक था। रूप और आकृवित भी म�ोहर,

कुन्द� �ण और रसीली आंखें। प्याली रंग की साडी उस पर खूब खिखल रही थी। �ह आप-ही-आप गु�गु�ा�े लगी:

तुम तो श्याम बडे बेखबर हो...तुम तो श्याम। आप तो श्याम पीयो दूध के कुल्हड, मेरी तो पा�ी पै गुजर-पा�ी पै गुजर हो। तुम तो श्याम...दूध के कुल्हड पर �ह हंस पडी। पे्रम�ती भी मुस्करायी, परन्तु चन्द्रा रू, हो गयी।

बोली –विब�ा हंसी की हंसी हमें �हीं आती। इसमें हंस�े की क्या बात है ?से�ती-आओ, हम तुम ष्टिमलकर गायें। चन्द्रा-कोयल और कौए का क्या साथ ?सेती-क्रोध तो तुम्हारी �ाक पर रहता है। चन्द्रा-तो हमें क्यों छेडती हो ? हमें गा�ा �हीं आता, तो कोई तुमसे वि�न्दा कर�े तो

�हीं जाता। ‘कोई’ का संकेत राधाचरण की ओर था। चन्द्रा में चाहे और गुण � हों, परन्तु पवित

की से�ा �ह त�-म� से करती थी। उसका तवि�क भी सिसर धमका विक इसके प्राण वि�कला। उ�को घर आ�े में तवि�क देर हुई विक �ह व्याकुल हो�े लगी। जब से �े रूडकी चले गये, तब से चन्द्रा यका हॅस�ा-बोल�ा सब छूट गया था। उसका वि��ोद उ�के संग चला गया था। इन्हीं कारणों से राधाचरण को स्�ी का �शीभूत ब�ा दिदया था। पे्रम, रूप-गुण, आदिद सब �ुदिटयों का पूरक है।

से�ती-वि�न्दा क्यों करेगा, ‘कोई’ तो त�-म� से तुम पर री:ा हुआ है। चन्द्रा-इधर कई दिद�ों से सिचट्ठी �हीं आयी। से�ती-ती�-चार दिद� हुए होंगे।चन्द्रा-तुमसे तो हाथ-पैर जोड़ कर हार गयी। तुम सिलखती ही �हीं। से�ती-अब �े ही बातें प्रवितदिद� कौ� सिलखे, कोई �यी बात हो तो सिलख�े को जी भी

चाहे। चन्द्रा-आज वि��ाह के समाचार सिलख दे�ा। लाऊं कलम-द�ात ?से�ती-परन्तु एक शत पर सिलखंूगी। चन्द्रा-बताओं। से�ती-तुम्हें श्याम�ाला गीत गा�ा पडे़गा।

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चन्द्रा-अच्छा गा दंूगी। हॅस�े को जी चाहता है � ?हॅस ले�ा। से�ती-पहले गा दो तो सिलखंू। चन्द्रा-� सिलखोगी। विaर बातें ब�ा�े लगोगी। से�ती- तुम्हारी शपथ, सिलख दंूगी, गाओ। चन्द्रा गा�े लगी-

तुम तो श्याम बडे़ बेखबर हो। तुम तो श्याम पीयो दूध के कूल्हड़, मेरी तो पा�ी पै गुजरपा�ी पे गुजर हो। तुम तो श्याम बडे बेखबर हो।

अन्विन्तम शब्द कुछ ऐसे बेसुरे वि�कले विक हॅसी को रोक�ा कदिठ� हो गया। से�ती �े बहुत रोका पर � रुक सकी। हॅसते-हॅसते पेट में बल पड़ गया। चन्द्रा �े दूसरा पद गाया:

आप तो श्याम रक्खो दो-दो लुगइयॉ, मेरी तो आपी पै �जर आपी पै �जर हो। तुम तो श्याम....‘लुगइयां’ पर से�ती हॅसते-हॅसते लोट गयी। चन्द्रा �े सजल �े� होकर कहा-अब तो

बहुत हॅस चुकीं। लाऊं कागज ?से�ती-�हीं, �हीं, अभी तवि�क हॅस ले�े दो। से�ती हॅस रही थी विक बाबू कमलाचरण का बाहर से शुभागम� हुआ, पन्द्रह सोलह

�र्ष की आयु थी। गोरा-गोरा गेहंुआ रंग। छरहरा शरीर, हॅसमुख, भड़कीले �स्�ों से शरीर को अलंकृत विकये, इ� में बसे, �े�ो में सुरमा, अधर पर मुस्का� और हाथ में बुलबुल सिलये आकर चारपाई पर बैठ गये। से�ती बोली’-कमलू। मुंह मीठा कराओं, तो तुम्हें ऐसे शुभ समाचार सु�ायें विक सु�ते ही aड़क उठो।

कमला-मुंह तो तुम्हारा आज अ�श्य ही मीठा होगा। चाहे शुभ समाचार सु�ाओं, चाहे � सु�ाओं। आज इस पठे �े यह वि�जय प्राप्त की है विक लोग दंग रह गये।

यह कहकर कमलाचरण �े बुलबुल को अंगूठे पर विबठा सिलया। से�ती-मेरी खबर सु�ते ही �ाच�े लगोगे। कमला-तो अच्छा है विक आप � सु�ाइए। मैं तो आज यों ही �ाच रहा हंू। इस पठे �े

आज �ाक रख ली। सारा �गर दंग रह गया। ��ाब मुने्नखां बहुत दिद�ों से मेरी आंखों में चढे़ हुए थे। एक पास होता है, मैं उधर से वि�कला, तो आप कह�े लगे-ष्टिमयॉ, कोई पठा तैयार हो तो लाओं, दो-दो चौंच हो जायें। यह कहकर आप�े अप�ा पुरा�ा बुलबुल दिदखाया। मै�े कहा- कृपावि�धा�। अभी तो �हीं। परन्तु एक मास में यदिद ईश्वर चाहेगा तो आपसे अ�श्य एक जोड़ होगी, और बद-बद कर आज। आगा शेरअली के अखाडे़ में बदा� ही ठहरी। पचाय-पचास रूपये की बाजी थी। लाखों म�ुष्य जमा थे। उ�का पुरा�ा बुलबुल, वि�श्वास मा�ों से�ती, कबूतर के बराबर था। परन्तु �ह भी के�ल aूला हुआ � था। सारे �गर के बुलबुलो को परान्दिजत विकये बैठा था। बलपू�क लात चलायी। इस�े बार-बार �चाया और विaर :पटकर उसकी चोटी दबायी। उस�े विaर चोट की। यह �ीचे आया। चतुर्दिदंक कोलाहल मच गया- मार सिलया मार सिलया। तब तो मु:े भी क्रोध आया डपटकर जो ललकारता हंू तो यह ऊपर और �ह �ीचे दबा हआ है। विaर तो उस�े विकत�ा ही सिसर पटका विक ऊपर आ जाए, परन्तु इस शेयर �े ऐसा दाबा विक सिसर � उठा�े दिदया। �बाब साहब स्�यं उपण्डिस्थत थे। बहुत सिचल्लाये, पर क्या हो सकता है ? इस�े उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज

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सिचविडया को। आखिखर बगटुट भागा। इस�े पा�ी के उस पार तक पीछा विकया, पर � पा सका। लोग वि�स्मय से दंग हो गये। ��ाब साहब का तो मुख मसिल� हो गया। ह�ाइयॉ उड�े लगीं। रूपये हार�े की तो उन्हें कुछ सिचंन्ता �हीं, क्योंविक लाखों की आय है। परन्तु �गर में जो उ�की धाक जमी हुई थी, �ह जाती रही। रोते हुए घर को सिसधारे। सु�ता हंू, यहां से जाते ही उन्हों�े अप�े बुलबुल को जीवि�त ही गाड़ दिदया। यह कहकर कमलाचरण �े जेब ख�ख�ायी।

से�ती-तो विaर खडे़ क्या कर रहे हो ? आगरे �ाले की दुका� पर आदमी भेजो। कमला-तुम्हारे सिलए क्या लाऊं, भाभी ?से�ती-दूध के कुल्हड़। कमला-और भैया के सिलए ?से�ती-दो-दो लुगइयॉ।यह कहकर दो�ों ठहका मारकर हॅस�े लगे।

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7डिनठुरता और पे्रम

सु�ामा त�-म� से वि��ाह की तैयारिरयां कर�े लगीं। भोर से संध्या तक वि��ाह के ही धन्धों में उल:ी रहती। सुशीला चेरी की भांवित उसकी आज्ञा का पाल� विकया करती। मुंशी संजी��लाल प्रात:काल से सां: तक हाट की धूल छा�ते रहते। और वि�रज� न्दिजसके सिलए यह सब तैयारिरयां हो रही थी, अप�े कमरे में बैठी हुई रात-दिद� रोया करती। विकसी को इत�ा अ�काश � था विक क्षण-भर के सिलए उसका म� बहलाये। यहॉ तक विक प्रताप भी अब उसे वि�ठुर जा� पड़ता था। प्रताप का म� भी इ� दिद�ों बहुत ही मसिल� हो गया था। सबेरे का वि�कला हुआ सॉ: को घर आता और अप�ी मुंडेर पर चुपचाप जा बैठता। वि�रज� के घर जा�े की तो उस�े शपथ-सी कर ली थी। �र� जब कभी �ह आती हुई दिदखई देती, तो चुपके से सरक जाता। यदिद कह�े-सु��े से बैठता भी तो इस भांवित मुख aेर लेता और रूखाई का व्य�हार करता विक वि�रज� रो�े लगती और सु�ामा से कहती-चाची, लल्लू मु:से रू, है, मैं बुलाती हंू, तो �हीं बोलते। तुम चलकर म�ा दो। यह कहकर �ह मचल जाती और सु�ामा का ऑचल पकड़कर खींचती हुई प्रताप के घर लाती। परन्तु प्रताप दो�ों को देखते ही वि�कल भाग्ता। �ृजरा�ी द्वार तक यह कहती हुई आती विक-लल्लू तवि�क सु� लो, तवि�क सु� लो, तुम्हें हमारी शपथ, तवि�क सु� लो। पर जब �ह � सु�ता और � मुंह aेरकर देखता ही तो बेचारी लड़की पृथ्�ी पर बैठ जाती और भली-भॉती aूट-aूटकर रोती और कहती-यह मु:से क्यों रूठे हुए है ? मै�े तो इन्हें कभी कुछ �हीं कहा। सु�ामा उसे छाती से लगा लेती और सम:ाती-बेटा। जा�े दो, लल्लू पागल हो गया है। उसे अप�े पु� की वि�ठुरता का भेद कुछ-कुछ ज्ञात हो चला था।

वि�दा� वि��ाह को के�ल पांच दिद� रह गये। �ातेदार और सम्बन्धी लोग दूर तथा समीप से आ�े लगे। ऑग� में सुन्दर मण्डप छा गया। हाथ में कंग� बॅध गये। यह कच्चे घागे का कंग� पवि�� धम की हथकड़ी है, जो कभी हाथ से � वि�कलेगी और मंण्डप उस पे्रम और कृपा की छाया का स्मारक है, जो जी��पयन्त सिसर से � उठेगी। आज संध्या को सु�ामा, सुशीला, महारान्दिज�ें सब-की-सब ष्टिमलकर दे�ी की पूजा कर�े को गयीं। महरिरयां अप�े धंधों में लगी हुई थी। वि�रज� व्याकुल होकर अप�े घर में से वि�कली और प्रताप के घर आ पहुंची। चतुर्दिदंक सन्नाटा छाया हुआ था। के�ल प्रताप के कमरे में धंुधला प्रकाश :लक रहा था। वि�रज� कमरे में आयी, तो क्या देखती है विक मेज पर लालटे� जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा है। धंुधले उजाले में उसका बद� कुम्हलाया और मसिल� �जर आता है। �स्तुऍ सब इधर-उधर बेढंग पड़ी हुई है। जमी� पर मा�ों धूल चढ़ी हुई है। पुस्तकें aैली हुई है। ऐसा जा� पड़ता है मा�ों इस कमरे को विकसी �े मही�ों से �हीं खोला। �ही प्रताप है, जो स्�च्छता को प्राण-विप्रय सम:ता था। वि�रज� �े चाहा उसे जगा दंू। पर कुछ सोचकर भूष्टिम से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रख�े लगी। मेज पर से धूल :ाडी, सिच�ों पर से गद का परदा उठा सिलया। अचा�क प्रता� �े कर�ट ली और उ�के मुख से यह �ाक्य वि�कला-‘वि�रज�। मैं तुम्हें भूल �हीं सकता’’। विaर थोडी देर पश्चात-‘वि�रज�’। कहां जाती हो, यही बैठो ? विaर कर�ट बदलकर-‘� बैठोगी’’? अच्छा जाओं मैं भी तुमसे � बोलूंगा। विaर कुछ ठहरकर-अच्छा जाओं, देखें कहां जाती है। यह कहकर �ह लपका, जैसे विकसी

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भागते हुए म�ुष्य को पकड़ता हो। वि�रज� का हाथ उसके हाथ में आ गया। उसके साथ ही ऑखें खुल गयीं। एक ष्टिम�ट तक उसकी भा�-शून्य दृविर्षट वि�रज� के मुख की ओर गड़ी रही। विaर अचा�क उठ बैठा और वि�रज� का हाथ छोड़कर बोला-तुम कब आयीं, वि�रज� ? मैं अभी तुम्हारा ही स्�प्न देख रहा था।

वि�रज� �े बोल�ा चाहा, परन्तु कण्ठ रंूध गया और आंखें भर आयीं। प्रताप �े इधर-उधर देखकर विaर कहा-क्या यह सब तुम�े साa विकया ?तुम्हें बडा क, हुआ। वि�रज� �े इसका भी उतर � दिदया।

प्रताप-वि�रज�, तुम मु:े भूल क्यों �हीं जातीं ?वि�रज� �े आद्र �े�ों से देखकर कहा-क्या तुम मु:े भूल गये ?प्रता� �े लण्डि�त होकर मस्तक �ीचा कर सिलया। थोडी देर तक दो�ों भा�ों से भरे

भूष्टिम की ओर ताकते रहे। विaर वि�रज� �े पूछा-तुम मु:से क्यों रू, हो ? मै�े कोई अपराध विकया है ?

प्रताप-� जा�े क्यों अब तुम्हें देखता हंू, तो जी चाहता है विक कहीं चला जाऊं। वि�रज�-क्या तुमको मेरी तवि�क भी मोह �हीं लगती ? मैं दिद�-भर रोया करती हंू।

तुम्हें मु: पर दया �हीं आती ? तुम मु:से बोलते तक �हीं। बतलाओं मै�े तुम्हें क्या कहा जो तुम रूठ गये ?

प्रताप-मैं तुमसे रूठा थोडे ही हंू। वि�रज�-तो मु:से बोलते क्यों �हीं। प्रताप-मैं चाहता हंू विक तुम्हें भूल जाऊं। तुम ध��ा� हो, तुम्हारे माता-विपता ध�ी हैं,

मैं अ�ाथ हंू। मेरा तुम्हारा क्या साथ ?वि�रज�-अब तक तो तुम�े कभी यह बहा�ा � वि�काला था, क्या अब मैं अष्टिधक

ध��ा� हो गयी ?यह कहकर वि�रज� रो�े लगी। प्रताप भी द्रवि�त हुआ, बोला-वि�रज�। हमारा तुम्हारा

बहुत दिद�ों तक साथ रहा। अब वि�योग के दिद� आ गये। थोडे दिद�ों में तुम यहॉ �ालों को छोड़कर अप�े सुसुराल चली जाओगी। इससिलए मैं भी बहुत चाहता हंू विक तुम्हें भूल जाऊं। परन्तु विकत�ा ही चाहता हंू विक तुम्हारी बातें स्मरण में � आये, �े �हीं मा�तीं। अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्�स्प� देख रहा था।

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8�खि-याँ

विडप्टी श्यामाचरण का भ�� आज सुन्दरिरयों के जमघट से इन्द्र का अखाड़ा ब�ा हुआ था। से�ती की चार सहेसिलयॉ-रूण्डिक्मणी, सीता, रामदैई और चन्द्रकंु�र-सोलहों सिसंगार विकये इठलाती विaरती थी। विडप्टी साहब की बविह� जा�की कंु�र भी अप�ी दो लड़विकयों के साथ इटा�े से आ गयी थीं। इ� दो�ों का �ाम कमला और उमादे�ी था। कमला का वि��ाह हो चुका था। उमादे�ी अभी कंु�ारी ही थी। दो�ों सूय और चन्द्र थी। मंडप के तले डौमवि�यां और ग�वि�हारिर�े सोहर और सोहाग, अलाप रही थी। गुलविबया �ाइ� और जम�ी कहारिर� दो�ों चटकीली साविडयॉ पविह�े, मांग सिसंदूर से भर�ाये, विगलट के कडे़ पविह�े छम-छम करती विaरती थीं। गुलविबया चपला ��यौ��ा थी। जमु�ा की अ�स्था ढल चुकी थी। से�ती का क्या पूछ�ा? आज उसकी अ�ोखी छटा थी। रसीली आंखें आमोदाष्टिधक्य से मत�ाली हो रही थीं और गुलाबी साड़ी की :लक से चम्पई रंग गुलाबी जा� पड़ता था। धा�ी मखमल की कुरती उस पर खूब खिखलती थी। अभी स्�ा� करके आयी थी, इससिलए �ाविग�-सी लट कंधों पर लहरा रही थी। छेड़छाड़ और चुहल से इत�ा अ�काश � ष्टिमलता था विक बाल गुंथ�ा ले। महरान्दिज� की बेटी माध�ी छींट का लॅहगा पह�े, ऑखों में काजल लगाये, भीतर-बाहर विकये हुए थी।

रूण्डिक्मणी �े से�ती से कहा-सिसतो। तुम्हारी भा�ज कहॉ है ? दिदखायी �हीं देती। क्या हम लोगों से भी पदा है ?

रामदेई-(मुस्कराकर)परदा क्यों �हीं है ? हमारी �जर � लग जायगी?से�ती-कमरे में पड़ी सो रही होंगी। देखों अभी खींचे लाती हंू। यह कहकर �ह चन्द्रमा से कमरे में पहुंची। �ह एक साधारण साड़ी पह�े चारपाई पर

पड़ी द्वार की ओर टकटकी लगाये हुए थी। इसे देखते ही उठ बैठी। से�ती �े कहा-यहॉ क्या पड़ी हो, अकेले तुम्हारा जी �हीं घबराता?

चन्द्रा-उंह, कौ� जाए, अभी कपडे़ �हीं बदले। से�ती-बदलती क्यों �हीं ? सखिखयॉ तुम्हारी बाट देख रही हैं। चन्द्रा-अभी मैं � बदलंूगी। से�ती-यही हठ तुम्हारा अच्छा �हीं लगता। सब अप�े म� में क्या कहती होंगी ?चन्द्रा-तुम�े तो सिचटठी पढी थी, आज ही आ�े को सिलखा था � ?से�ती-अच्छा,तो यह उ�की प्रतीक्षा हो रही है, यह कविहये तभी योग साधा है। चन्द्रा-दोपहर तो हुई, स्यात् अब � आयेंगे। इत�े में कमला और उपादे�ी दो�ों आ पहुंची। चन्द्रा �े घूंघट वि�काल सिलया और a श

पर आ बैठी। कमला उसकी बड़ी ��द होती थी। कमला-अरे, अभी तो इन्हों�े कपडे़ भी �हीं बदले। से�ती-भैया की बाट जोह रही है। इससिलए यह भेर्ष रचा है। कमला-मूख हैं। उन्हें गरज होगी, आप आयेंगे। से�ती-इ�की बात वि�राली है।

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कमला-पुरूर्षों से पे्रम चाहे विकत�ा ही करे, पर मुख से एक शब्द भी � वि�काले, �हीं तो व्यथ सता�े और जला�े लगते हैं। यदिद तुम उ�की उपेक्षा करो, उ�से सीधे बात � करों, तो �े तुम्हारा सब प्रकार आदर करेगें। तुम पर प्राण समपण करेंगें, परन्तु ज्यो ही उन्हें ज्ञात हुआ विक इसके हृदय में मेरा पे्रम हो गया, बस उसी दिद� से दृष्टि, विaर जायेगी। सैर को जायेंगें, तो अ�श्य देर करके आयेगें। भोज� कर�े बैठेगें तो मुहं जूठा करके उठ जायेगें, बात-बात पर रूठेंगें। तुम रोओगी तो म�ायेगें, म� में प्रसन्न होंगे विक कैसा aंदा डाला है। तुम्हारे सम्मुख अन्य म्पिस्�यों की प्रशंसा करेंगें। भा�ाथ यह है विक तुम्हारे जला�े में उन्हें आ�न्द आ�े लगेगा। अब मेरे ही घर में देखों पविहले इत�ा आदर करते थे विक क्या बताऊं। प्रवितक्षण �ौकरो की भांवित हाथ बांधे खडे़ रहते थे। पंखा :ेल�े को तैयार, हाथ से कौर खिखला�े को तैयार यहॉ तक विक (मुस्कराकर) पॉ� दबा�े में भी संकोच � था। बात मेरे मुख से वि�कली �हीं विक पूरी हुई। मैं उस समय अबोध थी। पुरुर्षों के कपट व्य�हार क्या जा�ूं। पटी में आ गयी। जा�ते थे विक आज हाथ बांध कर खड़ी होगीं। मै�े लम्बी ता�ी तो रात-भर कर�ट � ली। दूसरे दिद� भी � बोली। अंत में महाशय सीधे हुए, पैरों पर विगरे, विगड़विगड़ाये, तब से म� में इस बात की गांठ बॉध ली है विक पुरूर्षों को पे्रम कभी � जताओं।

से�ती-जीजा को मै�े देखा है। भैया के वि��ाह में आये थे। बडं़ हॅसमुख म�ुष्य हैं। कमला-पा�ती उ� दिद�ों पेट में थी, इसी से मैं � आ सकी थी। यहॉ से गये तो लगे

तुम्हारी प्रशंसा कर�े। तुम कभी पा� दे�े गयी थी ? कहते थे विक मै�े हाथ थामकर बैठा सिलया, खूब बातें हुई।

से�ती-:ूठे हैं, लबारिरये हैं। बात यह हुई विक गुलविबया और जमु�ी दो�ों विकसी काय से बाहर गयी थीं। मॉ �े कहा, �े खाकर गये हैं, पा� ब�ा के दे आ। मैं पा� लेकर गयी, चारपाई पर लेटे थे, मु:े देखते ही उठ बैठे। मै�े पा� दे�े को हाथ बढाया तो आप कलाई पकड़कर कह�े लगे विक एक बात सु� लो, पर मैं हाथ छुड़ाकर भागी।

कमला-वि�कली � :ूठी बात। �ही तो मैं भी कहती हंू विक अभी ग्यारह-बाहरह �र्ष की छोकरी, उस�े इ�से क्या बातें की होगी ? परन्तु �हीं, अप�ा ही हठ विकये जाये। पुरूर्ष बडे़ प्रलापी होते है। मै�े यह कहा, मै�े �ह कहा। मेरा तो इ� बातों से हृदय सुलगता है। � जा�े उन्हें अप�े ऊपर :ूठा दोर्ष लगा�े में क्या स्�ाद ष्टिमलता है ? म�ुष्य जो बुरा-भला करता है, उस पर परदा डालता है। यह लोग करेंगें तो थोड़ा, ष्टिमथ्या प्रलाप का आल्हा गाते विaरेगें ज्यादा। मैं तो तभी से उ�की एक बात भी सत्य �हीं मा�ती।

इत�े में गुलविबया �े आकर कहा-तुमतो यहॉ ठाढी बतलात हो। और तुम्हार सखी तुमका आंग� में बुलौती है।

से�ती-देखों भाभी, अब देर � करो। गुलविबया, तवि�क इ�की विपटारी से कपडे़ तो वि�काल ले।

कमला चन्द्रा का श्रृगांर कर�े लगी। से�ती सहेसिलयों के पास आयी। रूण्डिक्मणी बोली-�ाह बविह, खूब। �हॉ जाकर बैठ रही। तुम्हारी दी�ारों से बोले क्या ?

से�ती-कमला बविह� चली गयी। उ�से बातचीत हो�े लगीं। दो�ों आ रही हैं। रूण्डिक्मणी-लड़कोरी है � ?से�ती-हॉ, ती� लड़के हैं।

रामदेई-मगर काठी बहुत अच्छी है।चन्द्रकंु�र-मु:े उ�की �ाक बहुत सुन्दर लगती है, जी चाहता है छी� लूं।

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सीता-दो�ों बविह�े एक-से-एक बढ़ कर है। से�ती-सीता को ईश्वर �े �र अच्छा दिदया है, इस�े सो�े की गौ पूजी थी। रूण्डिक्मणी-(जलकर)गोरे चमडे़ से कुछ �हीं होता। सीता-तुम्हें काला ही भाता होगा। से�ती-मु:े काला �र ष्टिमलता तो वि�र्ष खा लेती। रूण्डिक्मणी-यो कह�े को जो चाहे कह लों, परन्तु �ास्त� में सुख काले ही �र से

ष्टिमलता है। से�ती-सुख �हीं धूल ष्टिमलती है। ग्रहण-सा आकर सिलपट जाता होगा।रूण्डिक्मणी-यही तो तुम्हारा लड़कप� है। तुम जा�ती �हीं सुन्दर पुरुर्ष अप�े ही

ब�ा�-सिसंगार में लगा रहता है। उसे अप�े आगे स्�ी का कुछ ध्या� �हीं रहता। यदिद स्�ी परम-रूप�ती हो तो कुशल है। �हीं तो थोडे ही दिद�ों �ह सम:ता है विक मैं ऐसी दूसरी म्पिस्�यों के हृदय पर सुगमता से अष्टिधकार पा सकता हंू। उससे भाग�े लगता है। और कुरूप पुरूर्ष सुन्दर स्�ी पा जाता है तो सम:ता है विक मु:े हीरे की खा� ष्टिमल गयी। बेचारा काला अप�े रूप की कमी को प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है विक मैं तवि�क भी इससे खटा पड़ा तो यह मु:से घृणा कर�े लगेगी।

चन्द्रकंु�-दूल्हा सबसे अच्छा �ह, जो मुंह से बात वि�कलते ही पूरा करे। रामदेई-तुम अप�ी बात � चलाओं। तुम्हें तो अचे्छ-अचे्छ गह�ों से प्रयोज� है, दूल्हा

कैसा ही हो। सीता-� जा�े कोई पुरूर्ष से विकसी �स्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या संकोच �हीं

होता ?रूण्डिक्मणी-तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे ?सीता-मेरी तो उन्हें देख�े से ही तृन्विप्त हो जाती है। �स्�ाभूर्षणों पर जी �हीं चलता।इत�े में एक और सुन्दरी आ पहुंची, गह�े से गोंद�ी की भांवित लदी हुई। बदिढ़या जूती

पह�े, सुगंध में बसी। ऑखों से चपलता बरस रही थी। रामदेई-आओ रा�ी, आओ, तुम्हारी ही कमी थी। रा�ी-क्या करंू, वि�गोडी �ाइ� से विकसी प्रकार पीछा �हीं छूटता था। कुसुम की मॉ

आयी तब जाके जूड़ा बॉधा। सीता-तुम्हारी जाविकट पर बसिलहारी है। रा�ी-इसकी कथा मत पूछो। कपड़ा दिदये एक मास हुआ। दस-बारह बार दज� सीकर

लाया। पर कभी आस्ती� ढीली कर दी, कभी सीअ� विबगाड़ दी, कभी चु�ा� विबगाड़ दिदया। अभी चलते-चलते दे गया है।

यही बातें हो रही थी विक माध�ी सिचल्लाई हुई आयी-‘भैया आये, भैया आये। उ�के संग जीजा भी आये हैं, ओहो। ओहो।

रा�ी-राधाचरण आये क्या ?से�ती-हॉ। चलू तवि�क भाभी को सन्देश दे आंऊ। क्या रे। कहां बैठे है ?माध�ी-उसी बडे़ कमरे में। जीजा पगड़ी बॉधे है, भैया कोट पविह�े हैं, मु:े जीजा �े

रूपया दिदया। यह कहकर उस�े मुठी खोलकर दिदखायी। रा�ी-सिसतो। अब मुंह मीठा कराओ। से�ती-क्या मै�े कोई म�ौती की थी ?

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यह कहती हुई से�ती चन्द्रा के कमरे में जाकर बोली-लो भाभी। तुम्हारा सगु� ठीक हुआ।

चन्द्रा-कया आ गये ? तवि�क जाकर भीतर बुला लो। से�ती-हॉ मदा�े में चली जाउं। तुम्हारे बह�ाई जी भी तो पधारे है। चन्द्रा-बाहर बैठे क्या यकर रहे हैं ? विकसी को भेजकर बुला लेती, �हीं तो दूसरों से

बातें कर�े लगेंगे।अचा�क खडाऊं का शब्द सु�ायी दिदया और राधाचरण आते दिदखायी दिदये। आयु

चौबीस-पच्चीस बरस से अष्टिधक � थी। बडे ही हॅसमुख, गौर �ण, अंग्रेजी काट के बाल, फ्रें च काट की दाढी, खडी मूंछे, ल�ंडर की लपटें आ रही थी। एक पतला रेशमी कुता पह�े हुए थे। आकर पंलंग पर बैठ गए और से�ती से बोले-क्या सिसतो। एक सप्ताह से सिचठी �हीं भेजी ?से�ती-मै�ें सोचा, अब तो आ रहें हो, क्यों सिचठी भेजू ? यह कहकर �हां से हट गयी।

चन्द्रा �े घूघंट उठाकर कहा-�हॉ जाकर भूल जाते हो ?राधाचरण-(हृदय से लगाकर) तभी तो सैकंडों कोस से चला आ रहा हँू।

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