ौी रामचिरत मानस · पर िहत हािन लाभ...

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।।ौी गणे शाय नमः ।। जानकीवलभो िवजयते रामचिरत मानस

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  • ।।ौी गणेशाय नमः ।। ौीजानकीवल्लभो िवजयते ौी रामचिरत मानस

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    बालकाण्ड ूथम सोपान

    श्लोक

    वणार्नामथर्संघानां रसानां छन्दसामिप। मङ्गलानां च कत्तार्रौ वन्दे वाणीिवनायकौ।।1।।

    भवानीशङ्करौ वन्दे ौद्धािवश्वासरूिपणौ। याभ्यां िवना न पँयिन्त िसद्धाःःवान्तःःथमीश्वरम।।् 2।।

    वन्दे बोधमयं िनत्यं गुरंु शङ्कररूिपणम।् यमािौतो िह वबोऽिप चन्िः सवर्ऽ वन्द्यते।।3।।

    सीतारामगुणमामपुण्यारण्यिवहािरणौ। वन्दे िवशुद्धिवज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।।

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    उद्भविःथितसंहारकािरणीं क्लेशहािरणीम।् सवर्ौयेःकरीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम।।् 5।।

    यन्मायावशवितर्ं िवश्वमिखलं ॄह्मािददेवासुरा यत्सत्वादमषैृव भाित सकलं रज्जौ यथाहेॅर्मः। यत्पादप्लवमेकमेव िह भवाम्भोधेिःततीषार्वतां

    वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हिरम।।् 6।।

    नानापुराणिनगमागमसम्मतं यद् रामायणे िनगिदतं क्विचदन्यतोऽिप। ःवान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषािनबन्धमितमञ्जुलमातनोित।।7।।

    सो0-जो सुिमरत िसिध होइ गन नायक किरबर बदन। करउ अनुमह सोइ बुिद्ध रािस सुभ गनु सदन।।1।।

    मूक होइ बाचाल पंग ुचढइ िगिरबर गहन। जासु कृपाँ सो दयाल िवउ सकल किल मल दहन।।2।।

    नील सरोरुह ःयाम तरुन अरुन बािरज नयन। करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन।।3।।

    कंुद इंद ुसम देह उमा रमन करुना अयन। जािह दीन पर नेह करउ कृपा मदर्न मयन।।4।।

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    बंदउ गरुु पद कंज कृपा िसंधु नररूप हिर। महामोह तम पुंज जासु बचन रिब कर िनकर।।5।।

    -बंदउ गरुु पद पदमु परागा। सुरुिच सुबास सरस अनुरागा।। अिमय मूिरमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज पिरवारू।। सुकृित संभु तन िबमल िबभूती। मंजुल मंगल मोद ूसूती।।

    जन मन मंज ुमुकुर मल हरनी। िकएँ ितलक गनु गन बस करनी।। ौीगुर पद नख मिन गन जोती। सुिमरत िदब्य ििष्टृ िहयँ होती।।

    दलन मोह तम सो सूकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।। उघरिहं िबमल िबलोचन ही के। िमटिहं दोष दखु भव रजनी के।।

    सूझिहं राम चिरत मिन मािनक। गपुुत ूगट जहँ जो जेिह खािनक।।

    दो0-जथा सुअंजन अंिज दृग साधक िसद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूिर िनधान।।1।।

    गुरु पद रज मदृ ुमंजुल अजंन। नयन अिमअ दृग दोष िबभंजन।। तेिहं किर िबमल िबबेक िबलोचन। बरनउँ राम चिरत भव मोचन।।

    बंदउँ ूथम महीसुर चरना। मोह जिनत संसय सब हरना।। सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ ूनाम सूेम सुबानी।।

    साधु चिरत सुभ चिरत कपासू। िनरस िबसद गनुमय फल जासू।। जो सिह दखु परिछि दरावा।ु बदंनीय जेिहं जग जस पावा।। मुद मंगलमय संत समाज।ू जो जग जगंम तीरथराजू।। राम भिक्त जहँ सुरसिर धारा। सरसइ ॄह्म िबचार ूचारा।।

    िबिध िनषेधमय किल मल हरनी। करम कथा रिबनंदिन बरनी।।

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    हिर हर कथा िबराजित बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।। बटु िबःवास अचल िनज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।। सबिहं सुलभ सब िदन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।। अकथ अलौिकक तीरथराऊ। देइ सद्य फल ूगट ूभाऊ।।

    दो0-सुिन समुझिहं जन मुिदत मन मज्जिहं अित अनुराग। लहिहं चािर फल अछत तनु साधु समाज ूयाग।।2।।

    मज्जन फल पेिखअ ततकाला। काक होिहं िपक बकउ मराला।। सुिन आचरज करै जिन कोई। सतसंगित मिहमा निहं गोई।। बालमीक नारद घटजोनी। िनज िनज मुखिन कही िनज होनी।। जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।।

    मित कीरित गित भूित भलाई। जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई।। सो जानब सतसंग ूभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।

    िबनु सतसंग िबबेक न होई। राम कृपा िबनु सुलभ न सोई।। सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल िसिध सब साधन फूला।। सठ सुधरिहं सतसंगित पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।

    िबिध बस सुजन कुसंगत परहीं। फिन मिन सम िनज गनु अनुसरहीं।। िबिध हिर हर किब कोिबद बानी। कहत साधु मिहमा सकुचानी।। सो मो सन किह जात न कैसें। साक बिनक मिन गनु गन जसैें।।

    दो0-बंदउँ संत समान िचत िहत अनिहत निहं कोइ। अंजिल गत सुभ सुमन िजिम सम सुगधं कर दोइ।।3(क)।।

    संत सरल िचत जगत िहत जािन सुभाउ सनेह।ु बालिबनय सुिन किर कृपा राम चरन रित देह।।ु 3(ख)।।

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    बहिरु बंिद खल गन सितभाएँ। जे िबनु काज दािहनेहु बाएँ।। पर िहत हािन लाभ िजन्ह केरें। उजरें हरष िबषाद बसेरें।। हिर हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।।

    जे पर दोष लखिहं सहसाखी। पर िहत घतृ िजन्ह के मन माखी।। तेज कृसानु रोष मिहषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।। उदय केत सम िहत सबही के। कंुभकरन सम सोवत नीके।।

    पर अकाज ुलिग तनु पिरहरहीं। िजिम िहम उपल कृषी दिल गरहीं।। बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा।।

    पुिन ूनवउँ पथुृराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।। बहिरु सब सम िबनवउँ तेही। संतत सुरानीक िहत जेही।। बचन बळ जेिह सदा िपआरा। सहस नयन पर दोष िनहारा।।

    दो0-उदासीन अिर मीत िहत सुनत जरिहं खल रीित। जािन पािन जुग जोिर जन िबनती करइ सूीित।।4।।

    मैं अपनी िदिस कीन्ह िनहोरा। ितन्ह िनज ओर न लाउब भोरा।। बायस पिलअिहं अित अनुरागा। होिहं िनरािमष कबहुँ िक कागा।। बंदउँ संत असज्जन चरना। दखूदु उभय बीच कछु बरना।। िबछरतु एक ूान हिर लेहीं। िमलत एक दखु दारुन देहीं।।

    उपजिहं एक संग जग माहीं। जलज जोंक िजिम गुन िबलगाहीं।। सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलिध अगाधू।। भल अनभल िनज िनज करतूती। लहत सुजस अपलोक िबभूती।। सुधा सुधाकर सुरसिर साधू। गरल अनल किलमल सिर ब्याधू।। गुन अवगनु जानत सब कोई। जो जेिह भाव नीक तेिह सोई।।

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    दो0-भलो भलाइिह पै लहइ लहइ िनचाइिह नीचु। सुधा सरािहअ अमरताँ गरल सरािहअ मीचु।।5।।

    खल अघ अगुन साधू गनु गाहा। उभय अपार उदिध अवगाहा।। तेिह तें कछु गनु दोष बखाने। संमह त्याग न िबनु पिहचाने।। भलेउ पोच सब िबिध उपजाए। गिन गनु दोष बेद िबलगाए।। कहिहं बेद इितहास परुाना। िबिध ूपंचु गनु अवगुन साना।। दखु सुख पाप पुन्य िदन राती। साधु असाधु सुजाित कुजाती।। दानव देव ऊँच अरु नीचू। अिमअ सुजीवनु माहरुु मीचू।। माया ॄह्म जीव जगदीसा। लिच्छ अलिच्छ रंक अवनीसा।। कासी मग सुरसिर बमनासा। मरु मारव मिहदेव गवासा।। सरग नरक अनुराग िबरागा। िनगमागम गनु दोष िबभागा।।

    दो0-जड़ चेतन गनु दोषमय िबःव कीन्ह करतार। संत हंस गुन गहिहं पय पिरहिर बािर िबकार।।6।।

    अस िबबेक जब देइ िबधाता। तब तिज दोष गनुिहं मनु राता।। काल सुभाउ करम बिरआई। भलेउ ूकृित बस चुकइ भलाई।।

    सो सुधािर हिरजन िजिम लेहीं। दिल दखु दोष िबमल जसु देहीं।। खलउ करिहं भल पाइ सुसंग।ू िमटइ न मिलन सुभाउ अभंग।ू। लिख सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष ूताप पूिजअिहं तेऊ।। उधरिहं अतं न होइ िनबाह।ू कालनेिम िजिम रावन राह।।ू िकएहुँ कुबेष साधु सनमानू। िजिम जग जामवंत हनुमानू।। हािन कुसंग सुसंगित लाह।ू लोकहुँ बेद िबिदत सब काह।।ू

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    गगन चढ़इ रज पवन ूसंगा। कीचिहं िमलइ नीच जल संगा।। साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुिमरिहं राम देिहं गिन गारी।। धूम कुसंगित कािरख होई। िलिखअ पुरान मंज ुमिस सोई।। सोइ जल अनल अिनल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता।।

    दो0-मह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। होिह कुबःतु सुबःतु जग लखिहं सुलच्छन लोग।।7(क)।।

    सम ूकास तम पाख दहुुँ नाम भेद िबिध कीन्ह। सिस सोषक पोषक समुिझ जग जस अपजस दीन्ह।।7(ख)।।

    जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जािन। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोिर जुग पािन।।7(ग)।।

    देव दनुज नर नाग खग ूेत िपतर गंधबर्। बंदउँ िकंनर रजिनचर कृपा करहु अब सबर्।।7(घ)।।

    आकर चािर लाख चौरासी। जाित जीव जल थल नभ बासी।। सीय राममय सब जग जानी। करउँ ूनाम जोिर जगु पानी।। जािन कृपाकर िकंकर मोह।ू सब िमिल करहु छािड़ छल छोह।।ू िनज बुिध बल भरोस मोिह नाहीं। तातें िबनय करउँ सब पाही।। करन चहउँ रघुपित गुन गाहा। लघु मित मोिर चिरत अवगाहा।।

    सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मित रंक मनोरथ राऊ।। मित अित नीच ऊँिच रुिच आछी। चिहअ अिमअ जग जरुइ न छाछी।।

    छिमहिहं सज्जन मोिर िढठाई। सुिनहिहं बालबचन मन लाई।। जौ बालक कह तोतिर बाता। सुनिहं मुिदत मन िपतु अरु माता।।

    हँिसहिह कूर कुिटल कुिबचारी। जे पर दषनू भूषनधारी।। िनज किवत केिह लाग न नीका। सरस होउ अथवा अित फीका।।

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    जे पर भिनित सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहतु जग नाहीं।। जग बहु नर सर सिर सम भाई। जे िनज बािढ़ बढ़िहं जल पाई।। सज्जन सकृत िसंधु सम कोई। देिख पूर िबधु बाढ़इ जोई।।

    दो0-भाग छोट अिभलाषु बड़ करउँ एक िबःवास। पैहिहं सुख सुिन सुजन सब खल करहिहं उपहास।।8।।

    खल पिरहास होइ िहत मोरा। काक कहिहं कलकंठ कठोरा।।

    हंसिह बक दादरु चातकही। हँसिहं मिलन खल िबमल बतकही।। किबत रिसक न राम पद नेह।ू ितन्ह कहँ सुखद हास रस एह।।ू भाषा भिनित भोिर मित मोरी। हँिसबे जोग हँसें निहं खोरी।।

    ूभु पद ूीित न सामुिझ नीकी। ितन्हिह कथा सुिन लागिह फीकी।। हिर हर पद रित मित न कुतरकी। ितन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की।। राम भगित भूिषत िजयँ जानी। सुिनहिहं सुजन सरािह सुबानी।। किब न होउँ निहं बचन ूबीनू। सकल कला सब िबद्या हीनू।। आखर अरथ अलंकृित नाना। छंद ूबंध अनेक िबधाना।। भाव भेद रस भेद अपारा। किबत दोष गनु िबिबध ूकारा।। किबत िबबेक एक निहं मोरें। सत्य कहउँ िलिख कागद कोरे।।

    दो0-भिनित मोिर सब गनु रिहत िबःव िबिदत गनु एक। सो िबचािर सुिनहिहं सुमित िजन्ह कें िबमल िबवेक।।9।।

    एिह महँ रघुपित नाम उदारा। अित पावन पुरान ौिुत सारा।। मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सिहत जेिह जपत पुरारी।।

    भिनित िबिचऽ सुकिब कृत जोऊ। राम नाम िबनु सोह न सोऊ।।

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    िबधुबदनी सब भाँित सँवारी। सोन न बसन िबना बर नारी।। सब गनु रिहत कुकिब कृत बानी। राम नाम जस अंिकत जानी।। सादर कहिहं सुनिहं बुध ताही। मधुकर सिरस संत गनुमाही।। जदिप किबत रस एकउ नाही। राम ूताप ूकट एिह माहीं।। सोइ भरोस मोरें मन आवा। केिहं न सुसंग बडप्पनु पावा।। धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु ूसंग सुगधं बसाई।।

    भिनित भदेस बःतु भिल बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।

    छं0-मंगल करिन किल मल हरिन तुलसी कथा रघुनाथ की।। गित कूर किबता सिरत की ज्यों सिरत पावन पाथ की।। ूभु सुजस संगित भिनित भिल होइिह सुजन मन भावनी।। भव अंग भूित मसान की सुिमरत सुहाविन पावनी।।

    दो0-िूय लािगिह अित सबिह मम भिनित राम जस संग। दारु िबचारु िक करइ कोउ बंिदअ मलय ूसंग।।10(क)।। ःयाम सुरिभ पय िबसद अित गुनद करिहं सब पान।

    िगरा माम्य िसय राम जस गाविहं सुनिहं सुजान।।10(ख)।।

    मिन मािनक मुकुता छिब जैसी। अिह िगिर गज िसर सोह न तैसी।। नपृ िकरीट तरुनी तनु पाई। लहिहं सकल सोभा अिधकाई।।

    तैसेिहं सुकिब किबत बुध कहहीं। उपजिहं अनत अनत छिब लहहीं।। भगित हेतु िबिध भवन िबहाई। सुिमरत सारद आवित धाई।। राम चिरत सर िबनु अन्हवाएँ। सो ौम जाइ न कोिट उपाएँ।।

    किब कोिबद अस हृदयँ िबचारी। गाविहं हिर जस किल मल हारी।। कीन्हें ूाकृत जन गनु गाना। िसर धुिन िगरा लगत पिछताना।।

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    हृदय िसंधु मित सीप समाना। ःवाित सारदा कहिहं सुजाना।। जौं बरषइ बर बािर िबचारू। होिहं किबत मुकुतामिन चारू।।

    दो0-जुगिुत बेिध पिुन पोिहअिहं रामचिरत बर ताग। पिहरिहं सज्जन िबमल उर सोभा अित अनुराग।।11।।

    जे जनमे किलकाल कराला। करतब बायस बेष मराला।। चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर किल मल भाँड़ें।। बंचक भगत कहाइ राम के। िकंकर कंचन कोह काम के।।

    ितन्ह महँ ूथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी।। जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार निहं लहऊँ।। ताते मैं अित अलप बखाने। थोरे महुँ जािनहिहं सयाने।।

    समुिझ िबिबिध िबिध िबनती मोरी। कोउ न कथा सुिन देइिह खोरी।। एतेहु पर किरहिहं जे असंका। मोिह ते अिधक ते जड़ मित रंका।। किब न होउँ निहं चतुर कहावउँ। मित अनुरूप राम गनु गावउँ।। कहँ रघुपित के चिरत अपारा। कहँ मित मोिर िनरत संसारा।। जेिहं मारुत िगिर मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केिह लेखे माहीं।। समुझत अिमत राम ूभुताई। करत कथा मन अित कदराई।।

    दो0-सारद सेस महेस िबिध आगम िनगम पुरान। नेित नेित किह जासु गनु करिहं िनरंतर गान।।12।।

    सब जानत ूभु ूभुता सोई। तदिप कहें िबनु रहा न कोई।। तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन ूभाउ भाँित बहु भाषा।। एक अनीह अरूप अनामा। अज सिच्चदानंद पर धामा।।

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    ब्यापक िबःवरूप भगवाना। तेिहं धिर देह चिरत कृत नाना।। सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल ूनत अनुरागी।।

    जेिह जन पर ममता अित छोह।ू जेिहं करुना किर कीन्ह न कोह।।ू गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल सािहब रघुराज।ू।

    बुध बरनिहं हिर जस अस जानी। करिह पुनीत सुफल िनज बानी।। तेिहं बल मैं रघुपित गनु गाथा। किहहउँ नाइ राम पद माथा।।

    मुिनन्ह ूथम हिर कीरित गाई। तेिहं मग चलत सुगम मोिह भाई।।

    दो0-अित अपार जे सिरत बर जौं नपृ सेतु करािहं। चिढ िपपीिलकउ परम लघु िबनु ौम पारिह जािहं।।13।।

    एिह ूकार बल मनिह देखाई। किरहउँ रघुपित कथा सुहाई।। ब्यास आिद किब पुगंव नाना। िजन्ह सादर हिर सुजस बखाना।। चरन कमल बंदउँ ितन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।।

    किल के किबन्ह करउँ परनामा। िजन्ह बरने रघुपित गनु मामा।। जे ूाकृत किब परम सयाने। भाषाँ िजन्ह हिर चिरत बखाने।। भए जे अहिहं जे होइहिहं आगें। ूनवउँ सबिहं कपट सब त्यागें।।

    होहु ूसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भिनित सनमानू।। जो ूबंध बुध निहं आदरहीं। सो ौम बािद बाल किब करहीं।।

    कीरित भिनित भूित भिल सोई। सुरसिर सम सब कहँ िहत होई।। राम सुकीरित भिनित भदेसा। असमंजस अस मोिह अँदेसा।। तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। िसअिन सुहाविन टाट पटोरे।।

    दो0-सरल किबत कीरित िबमल सोइ आदरिहं सुजान। सहज बयर िबसराइ िरपु जो सुिन करिहं बखान।।14(क)।।

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    सो न होइ िबनु िबमल मित मोिह मित बल अित थोर। करहु कृपा हिर जस कहउँ पुिन पुिन करउँ िनहोर।।14(ख)।।

    किब कोिबद रघुबर चिरत मानस मंज ुमराल। बाल िबनय सुिन सुरुिच लिख मोपर होहु कृपाल।।14(ग)।।

    सो0-बंदउँ मुिन पद कंज ुरामायन जेिहं िनरमयउ। सखर सुकोमल मंज ुदोष रिहत दषनू सिहत।।14(घ)।।

    बंदउँ चािरउ बेद भव बािरिध बोिहत सिरस। िजन्हिह न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर िबसद जसु।।14(ङ)।।

    बंदउँ िबिध पद रेनु भव सागर जेिह कीन्ह जहँ। संत सुधा सिस धेनु ूगटे खल िबष बारुनी।।14(च)।।

    दो0-िबबुध िबू बुध मह चरन बंिद कहउँ कर जोिर। होइ ूसन्न पुरवहु सकल मंज ुमनोरथ मोिर।।14(छ)।।

    पुिन बंदउँ सारद सुरसिरता। जगुल पुनीत मनोहर चिरता।। मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अिबबेका।। गुर िपतु मातु महेस भवानी। ूनवउँ दीनबंधु िदन दानी।।

    सेवक ःवािम सखा िसय पी के। िहत िनरुपिध सब िबिध तुलसीके।। किल िबलोिक जग िहत हर िगिरजा। साबर मंऽ जाल िजन्ह िसिरजा।।

    अनिमल आखर अरथ न जापू। ूगट ूभाउ महेस ूतापू।। सो उमेस मोिह पर अनुकूला। किरिहं कथा मुद मंगल मूला।। सुिमिर िसवा िसव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचिरत िचत चाऊ।।

    भिनित मोिर िसव कृपाँ िबभाती। सिस समाज िमिल मनहुँ सुराती।। जे एिह कथिह सनेह समेता। किहहिहं सुिनहिहं समुिझ सचेता।।

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    होइहिहं राम चरन अनुरागी। किल मल रिहत सुमंगल भागी।।

    दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोिह पर जौं हर गौिर पसाउ। तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भिनित ूभाउ।।15।।

    बंदउँ अवध पुरी अित पाविन। सरज ूसिर किल कलुष नसाविन।। ूनवउँ पुर नर नािर बहोरी। ममता िजन्ह पर ूभुिह न थोरी।। िसय िनंदक अघ ओघ नसाए। लोक िबसोक बनाइ बसाए।। बंदउँ कौसल्या िदिस ूाची। कीरित जासु सकल जग माची।।

    ूगटेउ जहँ रघुपित सिस चारू। िबःव सुखद खल कमल तुसारू।। दसरथ राउ सिहत सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरित मानी।। करउँ ूनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी।।

    िजन्हिह िबरिच बड़ भयउ िबधाता। मिहमा अविध राम िपतु माता।।

    सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य ूेम जेिह राम पद। िबछरतु दीनदयाल िूय तनु तनृ इव पिरहरेउ।।16।।

    ूनवउँ पिरजन सिहत िबदेह।ू जािह राम पद गढ़ू सनेह।।ू जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम िबलोकत ूगटेउ सोई।।

    ूनवउँ ूथम भरत के चरना। जासु नेम ॄत जाइ न बरना।। राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।। बंदउँ लिछमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता।। रघुपित कीरित िबमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका।। सेष सहस्तर्सीस जग कारन। जो अवतरेउ भूिम भय टारन।। सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपािसंधु सौिमिऽ गनुाकर।। िरपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी।।

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    महावीर िबनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना।।

    सो0-ूनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन। जासु हृदय आगार बसिहं राम सर चाप धर।।17।।

    किपपित रीछ िनसाचर राजा। अंगदािद जे कीस समाजा।। बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम िजन्ह पाए।। रघुपित चरन उपासक जेते। खग मगृ सुर नर असुर समेते।। बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे िबनु काम राम के चेरे।।

    सुक सनकािद भगत मुिन नारद। जे मुिनबर िबग्यान िबसारद।। ूनवउँ सबिहं धरिन धिर सीसा। करहु कृपा जन जािन मुनीसा।। जनकसुता जग जनिन जानकी। अितसय िूय करुना िनधान की।। ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ िनरमल मित पावउँ।। पुिन मन बचन कमर् रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक।। रािजवनयन धरें धनु सायक। भगत िबपित भंजन सुख दायक।।

    दो0-िगरा अरथ जल बीिच सम किहअत िभन्न न िभन्न। बदउँ सीता राम पद िजन्हिह परम िूय िखन्न।।18।।

    बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु िहमकर को।।

    िबिध हिर हरमय बेद ूान सो। अगनु अनूपम गुन िनधान सो।। महामंऽ जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुित हेतु उपदेसू।। मिहमा जासु जान गनराउ। ूथम पूिजअत नाम ूभाऊ।। जान आिदकिब नाम ूतापू। भयउ सुद्ध किर उलटा जापू।।

    सहस नाम सम सुिन िसव बानी। जिप जेई िपय संग भवानी।।

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    हरषे हेतु हेिर हर ही को। िकय भूषन ितय भूषन ती को।। नाम ूभाउ जान िसव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

    दो0-बरषा िरतु रघुपित भगित तुलसी सािल सुदास।। राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।19।।

    आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन िबलोचन जन िजय जोऊ।। सुिमरत सुलभ सुखद सब काह।ू लोक लाहु परलोक िनबाह।।ू

    कहत सुनत सुिमरत सुिठ नीके। राम लखन सम िूय तुलसी के।। बरनत बरन ूीित िबलगाती। ॄह्म जीव सम सहज सँघाती।। नर नारायन सिरस सुॅाता। जग पालक िबसेिष जन ऽाता।।

    भगित सुितय कल करन िबभूषन। जग िहत हेतु िबमल िबधु पूषन । ःवाद तोष सम सुगित सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के।। जन मन मंज ुकंज मधुकर से। जीह जसोमित हिर हलधर से।।

    दो0-एकु छऽु एकु मुकुटमिन सब बरनिन पर जोउ। तुलसी रघुबर नाम के बरन िबराजत दोउ।।20।।

    समुझत सिरस नाम अरु नामी। ूीित परसपर ूभु अनुगामी।। नाम रूप दइु ईस उपाधी। अकथ अनािद सुसामुिझ साधी।। को बड़ छोट कहत अपराधू। सुिन गनु भेद समुिझहिहं साधू।। देिखअिहं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान निहं नाम िबहीना।। रूप िबसेष नाम िबनु जानें। करतल गत न परिहं पिहचानें।। सुिमिरअ नाम रूप िबनु देखें। आवत हृदयँ सनेह िबसेषें।।

    नाम रूप गित अकथ कहानी। समुझत सुखद न परित बखानी।।

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    अगुन सगनु िबच नाम सुसाखी। उभय ूबोधक चतुर दभाषी।।ु

    दो0-राम नाम मिनदीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहिस उिजआर।।21।।

    नाम जीहँ जिप जागिहं जोगी। िबरित िबरंिच ूपंच िबयोगी।। ॄह्मसुखिह अनुभविहं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा।। जाना चहिहं गढ़ू गित जेऊ। नाम जीहँ जिप जानिहं तेऊ।। साधक नाम जपिहं लय लाएँ। होिहं िसद्ध अिनमािदक पाएँ।। जपिहं नामु जन आरत भारी। िमटिहं कुसंकट होिहं सुखारी।। राम भगत जग चािर ूकारा। सुकृती चािरउ अनघ उदारा।। चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी ूभुिह िबसेिष िपआरा।। चहुँ जुग चहुँ ौिुत ना ूभाऊ। किल िबसेिष निहं आन उपाऊ।।

    दो0-सकल कामना हीन जे राम भगित रस लीन। नाम सुूेम िपयूष हद ितन्हहुँ िकए मन मीन।।22।।

    अगुन सगनु दइु ॄह्म सरूपा। अकथ अगाध अनािद अनूपा।।

    मोरें मत बड़ नामु दहूु तें। िकए जेिहं जगु िनज बस िनज बूतें।। ूोिढ़ सुजन जिन जानिहं जन की। कहउँ ूतीित ूीित रुिच मन की।।

    एकु दारुगत देिखअ एकू। पावक सम जगु ॄह्म िबबेकू।। उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ॄह्म राम तें।। ब्यापकु एकु ॄह्म अिबनासी। सत चेतन धन आनँद रासी।।

    अस ूभु हृदयँ अछत अिबकारी। सकल जीव जग दीन दखारी।।ु नाम िनरूपन नाम जतन तें। सोउ ूगटत िजिम मोल रतन तें।।

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    दो0-िनरगुन तें एिह भाँित बड़ नाम ूभाउ अपार। कहउँ नामु बड़ राम तें िनज िबचार अनुसार।।23।।

    राम भगत िहत नर तनु धारी। सिह संकट िकए साधु सुखारी।। नामु सूेम जपत अनयासा। भगत होिहं मुद मंगल बासा।। राम एक तापस ितय तारी। नाम कोिट खल कुमित सुधारी।। िरिष िहत राम सुकेतुसुता की। सिहत सेन सुत कीन्ह िबबाकी।। सिहत दोष दखु दास दरासा।ु दलइ नामु िजिम रिब िनिस नासा।।

    भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम ूतापू।। दंडक बनु ूभु कीन्ह सुहावन। जन मन अिमत नाम िकए पावन।।। िनिसचर िनकर दले रघुनंदन। नामु सकल किल कलुष िनकंदन।।

    दो0-सबरी गीध सुसेवकिन सुगित दीिन्ह रघुनाथ। नाम उधारे अिमत खल बेद िबिदत गनु गाथ।।24।।

    राम सुकंठ िबभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ।। नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर िबिरद िबराजे।।

    राम भालु किप कटकु बटोरा। सेतु हेतु ौमु कीन्ह न थोरा।। नामु लेत भविसंधु सुखाहीं। करहु िबचारु सुजन मन माहीं।। राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सिहत िनज पुर पगु धारा।। राजा रामु अवध रजधानी। गावत गनु सुर मुिन बर बानी।। सेवक सुिमरत नामु सूीती। िबनु ौम ूबल मोह दलु जीती।। िफरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम ूसाद सोच निहं सपनें।।

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    दो0-ॄह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दािन। रामचिरत सत कोिट महँ िलय महेस िजयँ जािन।।25।।

    मासपारायण,पहला िवौाम

    नाम ूसाद संभु अिबनासी। साज ुअमंगल मंगल रासी।। सुक सनकािद िसद्ध मुिन जोगी। नाम ूसाद ॄह्मसुख भोगी।। नारद जानेउ नाम ूतापू। जग िूय हिर हिर हर िूय आपू।। नामु जपत ूभु कीन्ह ूसाद।ू भगत िसरोमिन भे ूहलाद।।ू ीुवँ सगलािन जपेउ हिर नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ।। सुिमिर पवनसुत पावन नामू। अपने बस किर राखे रामू।।

    अपतु अजािमलु गज ुगिनकाऊ। भए मुकुत हिर नाम ूभाऊ।। कहौं कहाँ लिग नाम बड़ाई। रामु न सकिहं नाम गनु गाई।।

    दो0-नामु राम को कलपतरु किल कल्यान िनवासु। जो सुिमरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।26।।

    चहुँ जुग तीिन काल ितहुँ लोका। भए नाम जिप जीव िबसोका।।

    बेद पुरान संत मत एह।ू सकल सुकृत फल राम सनेह।।ू ध्यानु ूथम जुग मखिबिध दजें।ू द्वापर पिरतोषत ूभु पूजें।। किल केवल मल मूल मलीना। पाप पयोिनिध जन जन मीना।। नाम कामतरु काल कराला। सुिमरत समन सकल जग जाला।। राम नाम किल अिभमत दाता। िहत परलोक लोक िपतु माता।। निहं किल करम न भगित िबबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।। कालनेिम किल कपट िनधानू। नाम सुमित समरथ हनुमानू।।

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    दो0-राम नाम नरकेसरी कनककिसपु किलकाल। जापक जन ूहलाद िजिम पािलिह दिल सुरसाल।।27।।

    भायँ कुभायँ अनख आलसहँ।ू नाम जपत मंगल िदिस दसहँ।।ू सुिमिर सो नाम राम गनु गाथा। करउँ नाइ रघुनाथिह माथा।। मोिर सुधािरिह सो सब भाँती। जासु कृपा निहं कृपाँ अघाती।। राम सुःवािम कुसेवकु मोसो। िनज िदिस दैिख दयािनिध पोसो।। लोकहुँ बेद सुसािहब रीतीं। िबनय सुनत पिहचानत ूीती।। गनी गरीब मामनर नागर। पंिडत मूढ़ मलीन उजागर।।

    सुकिब कुकिब िनज मित अनुहारी। नपृिह सराहत सब नर नारी।। साधु सुजान सुसील नपृाला। ईस अंस भव परम कृपाला।।

    सुिन सनमानिहं सबिह सुबानी। भिनित भगित नित गित पिहचानी।। यह ूाकृत मिहपाल सुभाऊ। जान िसरोमिन कोसलराऊ।। रीझत राम सनेह िनसोतें। को जग मंद मिलनमित मोतें।।

    दो0-सठ सेवक की ूीित रुिच रिखहिहं राम कृपालु। उपल िकए जलजान जेिहं सिचव सुमित किप भालु।।28(क)।।

    हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास। सािहब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।।28(ख)।।

    अित बिड़ मोिर िढठाई खोरी। सुिन अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।

    समुिझ सहम मोिह अपडर अपनें। सो सुिध राम कीिन्ह निहं सपनें।। सुिन अवलोिक सुिचत चख चाही। भगित मोिर मित ःवािम सराही।। कहत नसाइ होइ िहयँ नीकी। रीझत राम जािन जन जी की।।

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    रहित न ूभु िचत चूक िकए की। करत सुरित सय बार िहए की।। जेिहं अघ बधेउ ब्याध िजिम बाली। िफिर सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली।।

    सोइ करतूित िबभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम िहयँ हेरी।। ते भरतिह भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने।।

    दो0-ूभु तरु तर किप डार पर ते िकए आपु समान।। तुलसी कहूँ न राम से सािहब सीलिनधान।।29(क)।।

    राम िनकाईं रावरी है सबही को नीक। जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।29(ख)।। एिह िबिध िनज गुन दोष किह सबिह बहिरु िसरु नाइ।

    बरनउँ रघुबर िबसद जसु सुिन किल कलुष नसाइ।।29(ग)।।

    जागबिलक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुिनबरिह सुनाई।। किहहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुख ुमानी।। संभु कीन्ह यह चिरत सुहावा। बहिरु कृपा किर उमिह सुनावा।। सोइ िसव कागभुसंुिडिह दीन्हा। राम भगत अिधकारी चीन्हा।।

    तेिह सन जागबिलक पुिन पावा। ितन्ह पुिन भरद्वाज ूित गावा।। ते ौोता बकता समसीला। सवँदरसी जानिहं हिरलीला।।

    जानिहं तीिन काल िनज ग्याना। करतल गत आमलक समाना।। औरउ जे हिरभगत सुजाना। कहिहं सुनिहं समुझिहं िबिध नाना।।

    दो0-मै पुिन िनज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी निह तिस बालपन तब अित रहेउँ अचेत।।30(क)।।

    ौोता बकता ग्यानिनिध कथा राम कै गूढ़। िकिम समुझौं मै जीव जड़ किल मल मिसत िबमूढ़।।30(ख)

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    तदिप कही गरु बारिहं बारा। समुिझ परी कछु मित अनुसारा।। भाषाबद्ध करिब मैं सोई। मोरें मन ूबोध जेिहं होई।।

    जस कछु बुिध िबबेक बल मेरें। तस किहहउँ िहयँ हिर के ूेरें।। िनज संदेह मोह ॅम हरनी। करउँ कथा भव सिरता तरनी।।

    बुध िबौाम सकल जन रंजिन। रामकथा किल कलुष िबभंजिन।। रामकथा किल पंनग भरनी। पुिन िबबेक पावक कहुँ अरनी।। रामकथा किल कामद गाई। सुजन सजीविन मूिर सुहाई।।

    सोइ बसुधातल सुधा तरंिगिन। भय भंजिन ॅम भेक भुअिंगिन।। असुर सेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन।। संत समाज पयोिध रमा सी। िबःव भार भर अचल छमा सी।।

    जम गन मुहँ मिस जग जमुना सी। जीवन मुकुित हेतु जनु कासी।। रामिह िूय पाविन तुलसी सी। तुलिसदास िहत िहयँ हलसीु सी।। िसवूय मेकल सैल सुता सी। सकल िसिद्ध सुख संपित रासी।। सदगुन सुरगन अबं अिदित सी। रघुबर भगित ूेम परिमित सी।।

    दो0-राम कथा मंदािकनी िचऽकूट िचत चारु। तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहारु।।31।।

    राम चिरत िचंतामिन चारू। संत सुमित ितय सुभग िसंगारू।। जग मंगल गनु माम राम के। दािन मुकुित धन धरम धाम के।। सदगुर ग्यान िबराग जोग के। िबबुध बैद भव भीम रोग के।।

    जनिन जनक िसय राम ूेम के। बीज सकल ॄत धरम नेम के।। समन पाप संताप सोक के। िूय पालक परलोक लोक के।। सिचव सुभट भूपित िबचार के। कंुभज लोभ उदिध अपार के।।

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    काम कोह किलमल किरगन के। केहिर सावक जन मन बन के।। अितिथ पूज्य िूयतम पुरािर के। कामद घन दािरद दवािर के।। मंऽ महामिन िबषय ब्याल के। मेटत किठन कुअंक भाल के।। हरन मोह तम िदनकर कर से। सेवक सािल पाल जलधर से।। अिभमत दािन देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हिर हर से।। सुकिब सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से।। सकल सुकृत फल भूिर भोग से। जग िहत िनरुपिध साधु लोग से।।

    सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से।।

    दो0-कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दंभ पाषंड। दहन राम गुन माम िजिम इंधन अनल ूचंड।।32(क)।।

    रामचिरत राकेस कर सिरस सुखद सब काह।ु सज्जन कुमुद चकोर िचत िहत िबसेिष बड़ लाह।।ु 32(ख)।।

    कीिन्ह ूःन जेिह भाँित भवानी। जेिह िबिध संकर कहा बखानी।।

    सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाूबंध िबिचऽ बनाई।। जेिह यह कथा सुनी निहं होई। जिन आचरज ुकरैं सुिन सोई।।

    कथा अलौिकक सुनिहं जे ग्यानी। निहं आचरज ुकरिहं अस जानी।। रामकथा कै िमित जग नाहीं। अिस ूतीित ितन्ह के मन माहीं।।

    नाना भाँित राम अवतारा। रामायन सत कोिट अपारा।। कलपभेद हिरचिरत सुहाए। भाँित अनेक मुनीसन्ह गाए।।

    किरअ न संसय अस उर आनी। सुिनअ कथा सारद रित मानी।।

    दो0-राम अनंत अनंत गनु अिमत कथा िबःतार। सुिन आचरज ुन मािनहिहं िजन्ह कें िबमल िबचार।।33।।

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    एिह िबिध सब संसय किर दरी।ू िसर धिर गुर पद पंकज धूरी।। पुिन सबही िबनवउँ कर जोरी। करत कथा जेिहं लाग न खोरी।। सादर िसविह नाइ अब माथा। बरनउँ िबसद राम गुन गाथा।। संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हिर पद धिर सीसा।। नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चिरत ूकासा।।

    जेिह िदन राम जनम ौिुत गाविहं। तीरथ सकल तहाँ चिल आविहं।। असुर नाग खग नर मुिन देवा। आइ करिहं रघुनायक सेवा।। जन्म महोत्सव रचिहं सुजाना। करिहं राम कल कीरित गाना।।

    दो0-मज्जिह सज्जन बृंद बहु पावन सरज ूनीर। जपिहं राम धिर ध्यान उर संुदर ःयाम सरीर।।34।।

    दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना।। नदी पुनीत अिमत मिहमा अित। किह न सकइ सारद िबमलमित।। राम धामदा पुरी सुहाविन। लोक समःत िबिदत अित पाविन।। चािर खािन जग जीव अपारा। अवध तजे तनु निह संसारा।। सब िबिध पुरी मनोहर जानी। सकल िसिद्धूद मंगल खानी।। िबमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसािहं काम मद दंभा।। रामचिरतमानस एिह नामा। सुनत ौवन पाइअ िबौामा।।

    मन किर िवषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एिहं सर परई।। रामचिरतमानस मुिन भावन। िबरचेउ संभु सुहावन पावन।।

    िऽिबध दोष दखु दािरद दावन। किल कुचािल कुिल कलुष नसावन।। रिच महेस िनज मानस राखा। पाइ सुसमउ िसवा सन भाषा।। तातें रामचिरतमानस बर। धरेउ नाम िहयँ हेिर हरिष हर।।

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    कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।।

    दो0-जस मानस जेिह िबिध भयउ जग ूचार जेिह हेतु। अब सोइ कहउँ ूसंग सब सुिमिर उमा बषृकेतु।।35।।

    संभु ूसाद सुमित िहयँ हलसी।ु रामचिरतमानस किब तुलसी।। करइ मनोहर मित अनुहारी। सुजन सुिचत सुिन लेहु सुधारी।। सुमित भूिम थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदिध घन साधू।। बरषिहं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी।।

    लीला सगनु जो कहिहं बखानी। सोइ ःवच्छता करइ मल हानी।। ूेम भगित जो बरिन न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई।। सो जल सुकृत सािल िहत होई। राम भगत जन जीवन सोई।।

    मेधा मिह गत सो जल पावन। सिकिल ौवन मग चलेउ सुहावन।। भरेउ सुमानस सुथल िथराना। सुखद सीत रुिच चारु िचराना।।

    दो0-सुिठ संुदर संबाद बर िबरचे बुिद्ध िबचािर। तेइ एिह पावन सुभग सर घाट मनोहर चािर।।36।।

    सप्त ूबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन िनरखत मन माना।। रघुपित मिहमा अगनु अबाधा। बरनब सोइ बर बािर अगाधा।। राम सीय जस सिलल सुधासम। उपमा बीिच िबलास मनोरम।। पुरइिन सघन चारु चौपाई। जगुुित मंज ुमिन सीप सुहाई।। छंद सोरठा संुदर दोहा। सोइ बहरंगु कमल कुल सोहा।। अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा।।

    सुकृत पुंज मंजुल अिल माला। ग्यान िबराग िबचार मराला।।

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    धुिन अवरेब किबत गुन जाती। मीन मनोहर ते बहभाँती।।ु अरथ धरम कामािदक चारी। कहब ग्यान िबग्यान िबचारी।। नव रस जप तप जोग िबरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।। सुकृती साधु नाम गनु गाना। ते िबिचऽ जल िबहग समाना।। संतसभा चहुँ िदिस अवँराई। ौद्धा िरतु बसंत सम गाई।।

    भगित िनरुपन िबिबध िबधाना। छमा दया दम लता िबताना।। सम जम िनयम फूल फल ग्याना। हिर पत रित रस बेद बखाना।।

    औरउ कथा अनेक ूसंगा। तेइ सुक िपक बहबरनु िबहंगा।।

    दो0-पुलक बािटका बाग बन सुख सुिबहंग िबहारु। माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।।37।।

    जे गाविहं यह चिरत सँभारे। तेइ एिह ताल चतुर रखवारे।। सदा सुनिहं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अिधकारी।।

    अित खल जे िबषई बग कागा। एिहं सर िनकट न जािहं अभागा।। संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न िबषय कथा रस नाना।। तेिह कारन आवत िहयँ हारे। कामी काक बलाक िबचारे।।

    आवत एिहं सर अित किठनाई। राम कृपा िबनु आइ न जाई।। किठन कुसंग कुपंथ कराला। ितन्ह के बचन बाघ हिर ब्याला।। गहृ कारज नाना जजंाला। ते अित दगर्मु सैल िबसाला।। बन बहु िबषम मोह मद माना। नदीं कुतकर् भयंकर नाना।।

    दो0-जे ौद्धा संबल रिहत निह संतन्ह कर साथ। ितन्ह कहुँ मानस अगम अित िजन्हिह न िूय रघुनाथ।।38।।

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    जौं किर कष्ट जाइ पुिन कोई। जातिहं नींद जड़ुाई होई।। जड़ता जाड़ िबषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।। किर न जाइ सर मज्जन पाना। िफिर आवइ समेत अिभमाना।। जौं बहोिर कोउ पूछन आवा। सर िनंदा किर तािह बझुावा।। सकल िबघ्न ब्यापिह निहं तेही। राम सुकृपाँ िबलोकिहं जेही।। सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर ऽयताप न जरई।।

    ते नर यह सर तजिहं न काऊ। िजन्ह के राम चरन भल भाऊ।। जो नहाइ चह एिहं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई।।

    अस मानस मानस चख चाही। भइ किब बुिद्ध िबमल अवगाही।। भयउ हृदयँ आनंद उछाह।ू उमगेउ ूेम ूमोद ूबाह।।ू

    चली सुभग किबता सिरता सो। राम िबमल जस जल भिरता सो।। सरज ूनाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला।।

    नदी पुनीत सुमानस नंिदिन। किलमल तनृ तरु मूल िनकंिदिन।।

    दो0-ौोता िऽिबध समाज पुर माम नगर दहुुँ कूल। संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल।।39।।

    रामभगित सुरसिरतिह जाई। िमली सुकीरित सरज ुसुहाई।। सानुज राम समर जसु पावन। िमलेउ महानद ुसोन सुहावन।। जुग िबच भगित देवधुिन धारा। सोहित सिहत सुिबरित िबचारा।। िऽिबध ताप ऽासक ितमुहानी। राम सरुप िसंधु समुहानी।।

    मानस मूल िमली सुरसिरही। सुनत सुजन मन पावन किरही।। िबच िबच कथा िबिचऽ िबभागा। जनु सिर तीर तीर बन बागा।।

    उमा महेस िबबाह बराती। ते जलचर अगिनत बहभाँती।।ु रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।।

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    दो0-बालचिरत चहु बंधु के बनज िबपुल बहरंग।ु नपृ रानी पिरजन सुकृत मधुकर बािरिबहंग।।40।।

    सीय ःवयंबर कथा सुहाई। सिरत सुहाविन सो छिब छाई।। नदी नाव पटु ूःन अनेका। केवट कुसल उतर सिबबेका।। सुिन अनुकथन परःपर होई। पिथक समाज सोह सिर सोई।। घोर धार भगृुनाथ िरसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी।।

    सानुज राम िबबाह उछाह।ू सो सुभ उमग सुखद सब काह।।ू कहत सुनत हरषिहं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुिदत नहाहीं।। राम ितलक िहत मंगल साजा। परब जोग जनु जरेु समाजा।। काई कुमित केकई केरी। परी जासु फल िबपित घनेरी।।

    दो0-समन अिमत उतपात सब भरतचिरत जपजाग। किल अघ खल अवगनु कथन ते जलमल बग काग।।41।।

    कीरित सिरत छहूँ िरतु रूरी। समय सुहाविन पाविन भूरी।।

    िहम िहमसैलसुता िसव ब्याह।ू िसिसर सुखद ूभु जनम उछाह।।ू बरनब राम िबबाह समाजू। सो मुद मंगलमय िरतुराजू।। मीषम दसहु राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू।। बरषा घोर िनसाचर रारी। सुरकुल सािल सुमंगलकारी।।

    राम राज सुख िबनय बड़ाई। िबसद सुखद सोइ सरद सुहाई।। सती िसरोमिन िसय गनुगाथा। सोइ गनु अमल अनूपम पाथा।।

    भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरिन न जाई।।

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    दो0-अवलोकिन बोलिन िमलिन ूीित परसपर हास। भायप भिल चहु बंधु की जल माधुरी सुबास।।42।।

    आरित िबनय दीनता मोरी। लघुता लिलत सुबािर न थोरी।। अदभुत सिलल सुनत गनुकारी। आस िपआस मनोमल हारी।। राम सुूेमिह पोषत पानी। हरत सकल किल कलुष गलानौ।। भव ौम सोषक तोषक तोषा। समन दिरतु दखु दािरद दोषा।। काम कोह मद मोह नसावन। िबमल िबबेक िबराग बढ़ावन।। सादर मज्जन पान िकए तें। िमटिहं पाप पिरताप िहए तें।। िजन्ह एिह बािर न मानस धोए। ते कायर किलकाल िबगोए।।

    तिृषत िनरिख रिब कर भव बारी। िफिरहिह मगृ िजिम जीव दखारी।।ु

    दो0-मित अनुहािर सुबािर गनु गिन मन अन्हवाइ। सुिमिर भवानी संकरिह कह किब कथा सुहाइ।।43(क)।।

    अब रघुपित पद पंकरुह िहयँ धिर पाइ ूसाद । कहउँ जुगल मुिनबजर् कर िमलन सुभग संबाद।।43(ख)।।

    भरद्वाज मुिन बसिहं ूयागा। ितन्हिह राम पद अित अनुरागा।। तापस सम दम दया िनधाना। परमारथ पथ परम सुजाना।। माघ मकरगत रिब जब होई। तीरथपितिहं आव सब कोई।। देव दनुज िकंनर नर ौनेी। सादर मज्जिहं सकल िऽबेनीं।। पूजिह माधव पद जलजाता। परिस अखय बटु हरषिहं गाता।। भरद्वाज आौम अित पावन। परम रम्य मुिनबर मन भावन।। तहाँ होइ मुिन िरषय समाजा। जािहं जे मज्जन तीरथराजा।। मज्जिहं ूात समेत उछाहा। कहिहं परसपर हिर गनु गाहा।।

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    दो0-ॄह्म िनरूपम धरम िबिध बरनिहं तत्त्व िबभाग। कहिहं भगित भगवंत कै संजुत ग्यान िबराग।।44।।

    एिह ूकार भिर माघ नहाहीं। पुिन सब िनज िनज आौम जाहीं।। ूित संबत अित होइ अनंदा। मकर मिज्ज गवनिहं मुिनबृंदा।। एक बार भिर मकर नहाए। सब मुनीस आौमन्ह िसधाए।। जगबािलक मुिन परम िबबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी।। सादर चरन सरोज पखारे। अित पुनीत आसन बैठारे।।

    किर पूजा मुिन सुजस बखानी। बोले अित पुनीत मदृ ुबानी।। नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें।।

    कहत सो मोिह लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा।।

    दो0-संत कहिह अिस नीित ूभु ौिुत पुरान मुिन गाव। होइ न िबमल िबबेक उर गरु सन िकएँ दराव।।ु 45।।

    अस िबचािर ूगटउँ िनज मोह।ू हरहु नाथ किर जन पर छोह।।ू रास नाम कर अिमत ूभावा। संत पुरान उपिनषद गावा।। संतत जपत संभु अिबनासी। िसव भगवान ग्यान गुन रासी।। आकर चािर जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं।। सोिप राम मिहमा मुिनराया। िसव उपदेसु करत किर दाया।। रामु कवन ूभु पूछउँ तोही। किहअ बुझाइ कृपािनिध मोही।। एक राम अवधेस कुमारा। ितन्ह कर चिरत िबिदत संसारा।। नािर िबरहँ दखुु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा।।

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    दो0-ूभु सोइ राम िक अपर कोउ जािह जपत िऽपुरािर। सत्यधाम सबर्ग्य तुम्ह कहहु िबबेकु िबचािर।।46।।

    जैसे िमटै मोर ॅम भारी। कहहु सो कथा नाथ िबःतारी।। जागबिलक बोले मुसुकाई। तुम्हिह िबिदत रघुपित ूभुताई।। राममगत तुम्ह मन बम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी।। चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीिन्हहु ूःन मनहुँ अित मूढ़ा।। तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।। महामोहु मिहषेसु िबसाला। रामकथा कािलका कराला।।

    रामकथा सिस िकरन समाना। संत चकोर करिहं जेिह पाना।। ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी।।

    दो0-कहउँ सो मित अनुहािर अब उमा संभु संबाद। भयउ समय जेिह हेतु जेिह सुनु मुिन िमिटिह िबषाद।।47।।

    एक बार ऽेता जगु माहीं। संभु गए कंुभज िरिष पाहीं।।

    संग सती जगजनिन भवानी। पूजे िरिष अिखलेःवर जानी।। रामकथा मुनीबजर् बखानी। सुनी महेस परम सुख ुमानी।। िरिष पूछी हिरभगित सुहाई। कही संभु अिधकारी पाई।।

    कहत सुनत रघुपित गनु गाथा। कछु िदन तहाँ रहे िगिरनाथा।। मुिन सन िबदा मािग िऽपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।। तेिह अवसर भंजन मिहभारा। हिर रघुबंस लीन्ह अवतारा।। िपता बचन तिज राज ुउदासी। दंडक बन िबचरत अिबनासी।।

    दो0-अदयँ िबचारत जात हर केिह िबिध दरसनु होइ।

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    गुप्त रुप अवतरेउ ूभु गएँ जान सबु कोइ।।48(क)।।

    सो0-संकर उर अित छोभु सती न जानिहं मरमु सोइ।। तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।।48(ख)।।

    रावन मरन मनुज कर जाचा। ूभु िबिध बचनु कीन्ह चह साचा।। जौं निहं जाउँ रहइ पिछतावा। करत िबचारु न बनत बनावा।। एिह िबिध भए सोचबस ईसा। तेिह समय जाइ दससीसा।। लीन्ह नीच मारीचिह संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।। किर छलु मूढ़ हरी बैदेही। ूभु ूभाउ तस िबिदत न तेही।।

    मगृ बिध बन्धु सिहत हिर आए। आौमु देिख नयन जल छाए।। िबरह िबकल नर इव रघुराई। खोजत िबिपन िफरत दोउ भाई।। कबहूँ जोग िबयोग न जाकें । देखा ूगट िबरह दखु ताकें ।।

    दो0-अित िविचऽ रघुपित चिरत जानिहं परम सुजान। जे मितमंद िबमोह बस हृदयँ धरिहं कछु आन।।49।।

    संभु समय तेिह रामिह देखा। उपजा िहयँ अित हरपु िबसेषा।। भिर लोचन छिबिसंधु िनहारी। कुसमय जािनन कीिन्ह िचन्हारी।। जय सिच्चदानंद जग पावन। अस किह चलेउ मनोज नसावन।। चले जात िसव सती समेता। पुिन पुिन पुलकत कृपािनकेता।। सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु िबसेषी।।

    संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुिन सब नावत सीसा।। ितन्ह नपृसुतिह नह परनामा। किह सिच्चदानंद परधमा।।

    भए मगन छिब तासु िबलोकी। अजहुँ ूीित उर रहित न रोकी।।

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    दो0-ॄह्म जो व्यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद। सो िक देह धिर होइ नर जािह न जानत वेद।। 50।।

    िबंनु जो सुर िहत नरतनु धारी। सोउ सबर्ग्य जथा िऽपुरारी।। खोजइ सो िक अग्य इव नारी। ग्यानधाम ौीपित असुरारी।। संभुिगरा पुिन मषृा न होई। िसव सबर्ग्य जान सबु कोई।। अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ ूबोध ूचारा।। जद्यिप ूगट न कहेउ भवानी। हर अतंरजामी सब जानी।।

    सुनिह सती तव नािर सुभाऊ। संसय अस न धिरअ उर काऊ।। जासु कथा कुभंज िरिष गाई। भगित जासु मैं मुिनिह सुनाई।। सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जािह सदा मुिन धीरा।।

    छं0-मुिन धीर जोगी िसद्ध संतत िबमल मन जेिह ध्यावहीं। किह नेित िनगम पुरान आगम जासु कीरित गावहीं।। सोइ रामु ब्यापक ॄह्म भुवन िनकाय पित माया धनी। अवतरेउ अपने भगत िहत िनजतंऽ िनत रघुकुलमिन।।

    सो0-लाग न उर उपदेसु जदिप कहेउ िसवँ बार बह।ु बोले िबहिस महेसु हिरमाया बलु जािन िजयँ।।51।।

    जौं तुम्हरें मन अित संदेह।ू तौ िकन जाइ परीछा लेह।।ू

    तब लिग बैठ अहउँ बटछािहं। जब लिग तुम्ह ऐहहु मोिह पाही।। जैसें जाइ मोह ॅम भारी। करेहु सो जतनु िबबेक िबचारी।। चलीं सती िसव आयसु पाई। करिहं िबचारु करौं का भाई।।

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    इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ निहं कल्याना।। मोरेहु कहें न संसय जाहीं। िबधी िबपरीत भलाई नाहीं।।

    होइिह सोइ जो राम रिच राखा। को किर तकर् बढ़ावै साखा।। अस किह लगे जपन हिरनामा। गई सती जहँ ूभु सुखधामा।।

    दो0-पुिन पुिन हृदयँ िवचारु किर धिर सीता कर रुप। आगें होइ चिल पंथ तेिह जेिहं आवत नरभूप।।52।।

    लिछमन दीख उमाकृत बेषा चिकत भए ॅम हृदयँ िबसेषा।।

    किह न सकत कछु अित गभंीरा। ूभु ूभाउ जानत मितधीरा।। सती कपटु जानेउ सुरःवामी। सबदरसी सब अतंरजामी।।

    सुिमरत जािह िमटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना।। सती कीन्ह चह तहँहुँ दराऊ।ु देखहु नािर सुभाव ूभाऊ।।

    िनज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले िबहिस रामु मदृ ुबानी।। जोिर पािन ूभु कीन्ह ूनामू। िपता समेत लीन्ह िनज नामू।। कहेउ बहोिर कहाँ बषृकेतू। िबिपन अकेिल िफरहु केिह हेतू।।

    दो0-राम बचन मदृ ुगढ़ू सुिन उपजा अित सं