कफ़न ·  · 2016-09-26कफ़न प्रt]चंद झोंडt क द्वा y_...

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कन ेमच झपडे के ार पर बाप और बेटा दोन एक झे हुए अलाव के सामने पचाप बैठे हुए और अदर बेटे की जवान बीवी धिया सव-वेदना से पछाड खा रही थी। रह-रह कर उसके से ऐसी धदल धहला देने वाली आवाज धनकलती थी धक दोन कलेजा थाम लेते थे। जाड की रात थी, कृ धत सनाटे बी हुई। सारा गाव िकार लय हो गया था। घीस ने कहा, "माल होता है बचेगी नह। सारा धदन दौडते ही गया, जा, देख तो आ।" मािव धच कर बोला, "मरना ही है तो जदी मर नह जाती, देख कर या कर ?" "बडा बेददहै बे! साल-भर धजसके साथ -चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!" "तो झसे तो उसका तडपना और हाथ-पाव पटकना नह देखा जाता।" चमार का नबा था और सारे गाव बदनाम। घीस एक धदन काम करता तो तीन धदन आराम। मािव इतना कामचोर था धक आि टे काम करता तो टे -भर धचलम पीता। इसधलए उह कह मजद री नह धमलती थी। घर -भर भी अनाज मौज हो, तो उनके धलए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते , घीस पेड पर चकार लकधडया तोड लाता और मािव बाजार बेच आता और जब तक वे पैसे रहते , दोन इिर-उिर मारे -मारे धफरते। जब फाके की नौबत जाती, तो धफर लकधडया तोडते या मजद री तलाश करते। गाव काम की कमी थी। धकसान का गाव था, मेहनती आदमी के धलए पचास काम थे। मगर इन दोन को लोग उसी लाते , जब दो आदधमय से एक का काम पाकर भी सतोष कर लेने के धसवा और कोई चारा होता। धवधच जीवन था इनका! घर धमी के दो-चार बतदन के धसवा कोई सपधि नह। फटे चीथड से अपनी ननता को ढके हुए धजए जाते थे। सार की धचताओ से कजद से लदे हुए। गाधलया भी खाते , मार भी खाते , मगर कोई भी गम नह। दीन इतने धक वस ली की आशा रहने पर भी लोग इह --कजद दे देते थे। मटर-आल की फसल सर

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Page 1: कफ़न ·  · 2016-09-26कफ़न प्रt]चंद झोंडt क द्वा Y_ [ा औ [टा दनों एक [nझtहुए अलाव क सानt

कफ़न पे्रमचंद

झोंपडे के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बझेु हुए अलाव के सामने चपुचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे

की जवान बीवी बधुिया प्रसव-वेदना से पछाड खा रही थी। रह-रह कर उसके मुुँह से ऐसी धदल धहला दनेे

वाली आवाज धनकलती थी धक दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाडों की रात थी, प्रकृधत सन्नाटे में डूबी हुई।

सारा गाुँव अंिकार में लय हो गया था।

घीस ूने कहा, "मालमू होता ह ैबचेगी नहीं। सारा धदन दौडते ही गया, जा, दखे तो आ।"

मािव धचढ़ कर बोला, "मरना ही ह ैतो जल्दी मर क्यों नहीं जाती, दखे कर क्या करुँ ?"

"त ूबडा बेददद ह ैबे! साल-भर धजसके साथ सखु-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!"

"तो मझुसे तो उसका तडपना और हाथ-पाुँव पटकना नहीं दखेा जाता।"

चमारों का कुनबा था और सारे गाुँव में बदनाम। घीस ूएक धदन काम करता तो तीन धदन आराम। मािव

इतना कामचोर था धक आि घंटे काम करता तो घंटे-भर धचलम पीता। इसधलए उन्हें कहीं मजदरूी नहीं

धमलती थी। घर में मठु्ठी-भर भी अनाज मौजदू हो, तो उनके धलए काम करन ेकी कसम थी।

जब दो-चार फाके हो जाते, घीस ूपेड पर चढ़कार लकधडयाुँ तोड लाता और मािव बाजार में बेच आता

और जब तक वे पैस े रहते, दोनों इिर-उिर मारे-मारे धफरते। जब फाके की नौबत आ जाती, तो धफर

लकधडयाुँ तोडते या मजदरूी तलाश करते। गाुँव में काम की कमी न थी। धकसानों का गाुँव था, मेहनती

आदमी के धलए पचास काम थे। मगर इन दोनों को लोग उसी वक्त बलुाते, जब दो आदधमयों से एक का

काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के धसवा और कोई चारा न होता। धवधचत्र जीवन था इनका! घर में धमट्टी के

दो-चार बतदनों के धसवा कोई सम्पधि नहीं। फटे चीथडों से अपनी नग्नता को ढुँके हुए धजए जाते थे। संसार

की धचन्ताओ ंसे मकु्त। कजद से लद ेहुए। गाधलयाुँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं। दीन इतने

धक वसलूी की आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कजद द ेदतेे थे। मटर-आल ूकी फसल में दसूरों

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के खेतों से मटर या आल ूउखाड लाते और भनू-भानकर खा लेते, या दस-पाुँच ऊस उखाड लाते और रात

को चसूते।

घीस ूने आकाश-वधृि से साठ साल की उम्र काट दी और मािव भी सपतू बेटे की तरह बाप ही के पदधचह्नों

पर चल रहा था, बधल्क उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने

बैठकर आल ूभनू रह ेथे, जो धक धकसी के खेत से खोद लाए थे। घीस ूकी स्त्री का तो बहुत धदन हुए दहेान्त

हो गया था। मािव का ब्याह धपछल ेसाल हुआ था। जब से यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में

व्यवस्था की नींव डाली थी। धपसाई करके या घास छीलकर वह सेर-भर आटे का इन्तजाम कर लेती थी

और इन दोनों बेगैरतों का दोज़ख भरती रहती थी। जब से वह आई, ये दोनों और भी आलसी और

आरामतलब हो गए थे, बधल्क कुछ अकडन ेभी लगे थे। कोई कायद करन ेको बलुाता, तो धनव्यादज भाव से

दगुनुी मजदरूी माुँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और ये दोनों शायद इसी इन्तजार में थे

धक वह मर जाय, तो आराम से सोएुँ।

घीस ूने आल ूधनकालकर छीलते हुए कहा, "जाकर दखे तो क्या दशा ह ैउसकी? चडैुल का धफ़साद होगा,

और क्या? यहाुँ तो ओझा भी एक रुपया माुँगता ह!ै"

मािव को भय था धक वह कोठरी में गया, तो घीस ूआलओु ंका बडा भाग साफ कर दगेा। बोला, "मझेु

वहाुँ जाते डर लगता ह।ै"

"डर धकस बात का ह,ै मैं तो यहाुँ ह ुँ ही!"

"तो तमु्हीं जाकर दखेो न?"

"मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन धदन तक उसके पास से धहला तक नहीं था। और मझुसे लजाएगी धक

नहीं? धजसका कभी मुुँह नहीं दखेा, आज उसका उघडा हुआ बदन दखेूुँ! उसे तन की सिु भी तो न होगी।

मझेु दखे लेगी तो खलुकर हाथ-पाुँव भी न पटक सकेगी।"

"मैं सोचता ह ुँ कोई बाल-बच्चा हो गया तो क्या होगा? सोंठ, गडु, तोल, कुछ भी तो नहीं घर में!"

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"सब-कुछ आ जाएगा। भगवान दें तो। जो लोग अभी एक पैसा नहीं द ेरह ेह,ै वे ही कल बलुाकर देंगे। मेरे

नौ लडके हुए, घर में कभी कुछ न था, मगर भगवान ने धकसी तरह बेडा पार ही लगाया।"

धजस समाज में रात-धदन मेहनत करन ेवालों की हालत उनकी हालत से बहुत कुछ अच्छी नहीं न थी और

धकसानों के मकुाबले में वे लोग, जो धकसानों की दबुदलताओ ंसे लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न

थे, वहाुँ इस तरह मनोवधृि का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे घीस ूधकसानों से

कहीं ज्यादा धवचारवान था, जो धकसानों के धवचार शनू्य समहू में शाधमल होन ेके बदल ेबैठकबाज़ों की

कुधससत मंडली में जा धमला था। हाुँ, उसमें यह शधक्त न थी धक बैठकबाजों के धनयम और नीधत का पालन

करता। इसधलए जहाुँ उसकी मंडली के और गाुँव के सरगना और मधुखया बन ेहुए थे, उस पर सारा गाुँव

अुँगलुी उठाता था। धफर भी उसे यह तकसीन तो थी धक अगर वह फ़टेहाल ह ैतो कम-से-कम उसे धकसानों

की-सी जी-तोड मेहनत तो नहीं करनी पडती। उसकी सरलता और धनरीहता से दसूरे लोग बेजा फायदा तो

नहीं उठाते।

दोनों आल ूधनकाल-धनकालकर जलते-जलते खान ेलगे। कल से कुछ नहीं खाया। इतना सब्र न था धक उन्हें

ठंडा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गई।ं धछल जान ेपर आल ूका बाहरी धहस्सा तो बहुत ज्यादा

गरम न मालमू होता, लेधकन दाुँतों के तले पडते ही अन्दर का धहस्सा जबान, हलक और ताल ूको जला

दतेा था और उस अंगारे को मुुँह में रखने से ज्यादा खैररयत इसी में थी धक वह अन्दर पहुुँच जाए। वहाुँ उस े

ठंडा करन ेके धलए काफी सामान थे इसधलए दोनों जल्द-जल्द धनगल जाते। हालाुँधक इस कोधशश में उनकी

आुँखों से आुँस ूधनकल आते।

घीस ूको उस वक्त ठाकुर की बरात याद आई, धजसमें बीस साल पहल ेवह गया था। उस दावत में उसे जो

तधृि धमली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी और आज भी उसकी याद ताजा थी।

बोला, "वह भोज नहीं भलूता। तब से धफर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं धमला। लडकी वालों ने

सबको भरपेट परूरयाुँ धखलाई थीं, सबको! छोटे-बडे सबन ेपरूरयाुँ खाई ंऔर असली घी की! चटनी, रायता,

तीन तरह के सखेू साग, एक रसेदार तरकारी, दही, धमठाई। अब क्या बताऊुँ धक इस भोज में क्या स्वाद

धमला! कोई रोक-टोक नहीं थी। जो चीज माुँगो और धजतना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया,

धकसी से पानी न धपया गया। मगर परोसने वाले हैं धक पिल में गरम-गरम, गोल-गोल सवुाधसत कचौररयाुँ

डाल दतेे हैं। मना करते हैं धक नहीं चाधहए, पिल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वे हैं धक धदए जाते हैं और जब

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मुुँह िो धलया, तो पान-इलायची भी धमली, मगर मझेु पान लेने की कहाुँ सिु थी! खडा न हुआ जाता था।

चटपट जाकर अपन ेकंबल पर लेट गया। ऐसा धदल-दररयाव था वह ठाकुर!"

मािव ने इन पदाथों का मन-ही-मन मज़ा लेते हुए कहा, "अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं धखलाता।"

"अब कोई क्या धखलाएगा? वह जमाना दसूरा था। अब तो सबको धकफायत सझूती ह।ै

शादी-ब्याह में मत खचद करो, धिया-कमद में मत खचद करो! पछूो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाुँ

रखोगे! बटोरन ेमें कमी नहीं हैं। हाुँ, खचद में धकफायत सझूती ह।ै"

"तमु़ने बीस-एक परूरयाुँ खाई होंगी?"

"बीस से ज्यादा खाई थीं।"

"मैं पचास खा जाता।"

"पचास से कम मैंन ेभी न खाई होंगी। अच्छा पठ्ठा था। त ूतो मेरा आिा भी नहीं ह।ै"

आल ूखाकर दोनों ने पानी धपया और वहीं अलाव के सामने अपनी िोधतयाुँ ओढ़ कर, पाुँव पेट में डाल ेसो

रह।े जैसे दो बडे-बडे अजगर, गेंडुधलयाुँ मारे पडे हों।

और बधुिया अभी तक कराह रही थी।

सबेरे मािव ने कोठरी में जाकर दखेा तो, उसकी स्त्री ठण्डी हो गई थी उसके मुुँह पर मधक्खयाुँ धभनक रही

थीं। पथराई हुई आुँखें ऊपर टुँगी हुई थीं। सारी दहे िलू से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया

था।

मािव भागा हुआ घीस ूके पास आया। धफर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने लगे और छाती पीटने लगे।

पडोस वालों ने यह रोना-िोना सनुा तो दौडे हुए आए और परुानी मयाददा के अनसुार इन अभागों को समझाने

लगे।

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मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न और लकडी की धफि करनी थी। पर घर में तो पैसा इस

तरह गायब था धक जैसे चील के घोंसल ेमें माुँस।

बाप-बेटे रोते हुए गाुँव के जमींदार के पास गए। वह इन दोनों की सरुत से नफरत करते थे। कई बार इन्हें

अपन ेहाथों पीट चकेु थे चोरी करन ेके धलए, वाद ेपर काम पर न आन ेके धलए।

पछूा, " क्या ह ैबे धघसआु, रोता क्यों ह?ै अब तो त ूकहीं धदखाई भी नहीं दतेा! मालमू होता ह,ै इस गाुँव

में रहना नहीं चाहता।"

घीस ू ने जमीन पर धसर रखकर आुँखों में आुँस ूभरे हुए कहा, "सरकार! बडी धवपधसि में ह ुँ। मािव की

घरवाली रात को गजुर गई। रात-भर तडपती रही, सरकार! हम दोनों उसके धसरहान ेबैठे रह।े दवा-दार जो

कुछ हो सका, सब-कुछ धकया, मदुा वह हमें दगा द ेगई। अब कोई एक रोटी देन ेवाला भी न रहा, माधलक!

तबाह हो गए। घर उजड गया। आपका गलुाम ह ुँ। अब आपके धसवा कौन, उसकी धमट्टी उठेगी। आपके धसवा

धकसके द्वार पर जाऊुँ ?"

जमींदार साहब दयाल ूथे। मगर घीस ूपर दया करना काल ेकंबल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह

दें चल, दरू हो यहाुँ से! यों तो बलुाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पडी, तो आकर खशुामद कर रहा

ह।ै हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेधकन यह िोि या दडं का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपए

धनकालर फें क धदए। मगर सान्सवना का एक शब्द भी मुुँह से न धनकाला। उसकी तरफ ताका भी नहीं। जैस े

धसर का बोझ उतारा हो।

जब जमींदार साहब ने दो रुपए धदए, तो गाुँव के बधनये-महाजनों को इन्कार का साहस कैसे होता? घीस ू

जमींदार के नाम का धढंढोरा भी पीटना खबू जानता था। धकसी ने दो आन ेधदए, धकसी ने चार आने। एक

घंटे में घीस ूके पास पाुँच रुपए की अच्छी रकम जमा हो गई। कहीं से अनाज धमल गया, कहीं से लकडी।

और दोपहर को घीस ूऔर मािव बाजार से कफ़न लान ेचले। इिर लोग बाुँस काटन ेलगे।

गाुँव की नरम-धदल धस्त्रयाुँ आ-आकर लाश को देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूुँद आुँस ूधगराकर

चली जाती थीं।

"कैसा बरुा ररवाज ह ैधक धजसे जीते-जी तन ढाुँकने को चीथडा भी न धमले, उसे मरने पर कफन चाधहए।"

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"कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता ह!ै"

"और क्या रखा रहता ह?ै यहीं पाुँच रुपए पहल ेधमलते, तो कुछ दवा-दार कर लेते।"

दोनों एक-दसूरे के मन की बात ताड रह ेथे। बाजार में इिर-उिर घमूते रह।े कभी इस बजाज की दकूान पर

गये, कभी उसकी दकूान पर। तरह-तरह के कपडे, रेशमी और सतूी दखे,े मगर कुछ जुँचा नहीं। यहाुँ तक धक

शाम हो गई। तब दोनों न जाने धकस दवैी प्रेरणा से एक मिशुाला के सामने जा पहुुँचे और जैसे धकसी पवूद-

धनधित योजन से अन्दर चल ेगए। वहाुँ जरा दरे तक दोनों असमंजस में खडे रह।े धफर घीस ूने गद्दी के सामने

जा कर कहा, "साह जी, एक बोतल हमें भी दनेा।"

इसके बाद कुछ धचखौना आया, तली हुई मछधलयाुँ आई और दोनों बरामद ेमें बैठकर शाधन्तपवूदक पीन ेलगे।

कई कुधज्जयाुँ ताबडतोड पीन ेके बाद दोनों सरर में आ गए।

घीस ूबोला, "कफ़न लगान ेसे क्या धमलता ह?ै आधखर जल ही तो जाता, कुछ बह के साथ तो न जाता।"

मािव आसमान की तरफ दखेकर बोला, मानो दवेताओ ंको अपनी धनष्पापता का साक्षी बना रहा हो,

"दधुनया का दस्तरू ह,ै नहीं लोग बामनों को हजारों रुपए क्यों द ेदतेे हैं! कौन दखेता ह,ै परलोक में धमलता

ह ैया नहीं!"

"बडे आदधमयों के पास िन ह,ै चाह ेफूुँ के। हमारे पास फूुँ कने को क्या ह?ै"

"लेधकन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पछूेंगे नहीं, कफन कहाुँ ह?ै"

घीस ूहुँसा, "अबे कह देंग ेधक रुपए क़मर से धखसक गए। बहुत ढूुँढ़ा धमले नहीं। लोगों को धवश्वास तो न

आएगा, लेधकन धफर वही रुपए देंगे।"

मािव भी हुँसा, इस अनपेधक्षत सौभाग्य पर बोला, "बडी अच्छी थी बेचारी! मरी तो भी खबू धखला-

धपलाकर!"

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अभी बोतल से ज्यादा उड गई। घीस ूने दो सेर परूरयाुँ मुँगाई। चटनी, अचार, कलेधजयाुँ। शराबखाने के सामने

ही दकुान थी। मािव लपककर दो पिलों में सारा सामान ले आया। परूा डेढ़ रुपया और खचद हो गया। धसफद

थोडे-से पैस ेबच रह।े

दोनों इस वक्त शान से बैठे हुए परूरयाुँ खा रह ेथे, जैसे जंगल में कोई शेर अपना धशकार उडा रहा हो। न

जवाबदहेी का खौफ़ था, न बदनामी की धफि। इन भावनाओ ंको उन्होंने बहुत पहल ेही जीत धलया था।

घीस ूदाशदधनक भाव से बोला, "हमारी आसमा प्रसन्न हो रही ह,ै तो क्या उसे पनु्न न होगा?"

मािव ने श्रद्धा से धसर झकुाकर तसदीक की, "जरर से जरर होगा। भगवान तमु अन्तयादमी हो। उसे बैकंुठ

ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीवादद द ेरह ेहैं। आज जो भोजन धमला, वह कभी उम्र भर न धमला था।"

एक क्षण के बाद मािव के मन में एक शंका जागी। भोला, "क्यों दादा, हम लोग भी तो एक-न-धदन वहाुँ

जाएुँगे ही।"

घीस ूने इस भोल-ेभाल ेसवाल का कुछ उिर न धदया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बािा

न डालना चाहता था।

"जो वहाुँ वह हम लोगों से पछेू धक तमुने कफ़न क्यों नहीं धदया तो क्या कहेंगे?"

"कहेंगे तमु्हारा धसर!"

"पछेूगी तो जरर!"

"त ूजानता ह ैधक उसे कफ़न न धमलेगा? त ूमझेु ऐसा गिा समझता ह?ै साठ साल क्या दधुनया में घास

खोदता रहा ह ुँ! उसको कफ़न धमलेगा और इसस ेबहुत अच्छा धमलेगा।"

मािव को धवश्वास न आया। बोला, "कौन दगेा? रुपए तो तमुने चट कर धदए। वह तो मझुसे पछेूगी। उसकी

माुँग में धसंदरु तो मैंन ेही डाला था।"

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घीस ूगरम होकर बोला, "मैं कहता ह ुँ, उसे कफ़न धमलेगा! त ूमानता क्यों नहीं?"

"कौन दगेा, बताते क्यों नहीं?"

"वही लोग देंगे, धजन्होंन ेइस बार धदया। हाुँ, अबकी रुपए हमारे हाथ न आएुँग।े"

ज्यों-ज्यों अुँिेरा बढ़ता था और धसतारों की चमक तेज होती थी, मिशुाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी।

कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपन ेसंगी के गले धलपटा जाता था। कोई अपन ेदोस्त के मुुँह से

कुल्हड लगाए दतेा था।

वहाुँ के वातावरण में सरर था, हवा में नशा। धकतने तो यहाुँ आकर एक चलु्ल ूमें मस्त हो जाते। शराब से

ज्यादा वहाुँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बािाएुँ खींच लती थीं, और कुछ दरे के धलए वे

भलू जाते थे धक वे जीते हैं या मरते हैं! या, न जीते हैं न मरते हैं।

और ये दोनों बाप-बेटा अब भी मज ेले-लेकर चसुधकयाुँ ले रह ेथे। सबकी धनगहें इनकी ओर जमी हुई थीं।

दोनों धकतन ेभाग्य के बली हैं। परूी बोतल बीच में हैं।

भरपेट खाकर मािव ने बची हुई परूरयों का पिल उठाकर एक धभखरी को द ेधदया, जो खडा इनकी ओर

भखूी आुँखों से दखे रहा था। और 'दनेे' के गौरव, आनन्द और उल्लास का उसन ेअपन ेजीवन में पहल ेबार

अनभुव धकया।

घीस ूने कहा, "ले, जा खबू खा और आशीवादद द!े धजसकी कमाई ह,ै वह तो मर गई। पर तेरा आधशवादद

उसे जरर पहुुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीवादद द,े बडी गाढ़ी कमाई के पैस ेहैं!"

मािव ने धफर आसमान की तरफ दखेकर कहा, "वह वैकुण्ठ में जायेगी दादा, वह वैकुण्ठ की रानी बनेगी।"

घीस ूखडा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला, "हाुँ, बेटा वैकुण्ठ में जायेगी। धकसी

को सताया नहीं, धकसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी धजन्दगी को सबस ेबडी लालसा परूी कर गई। वह

न वैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएुँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लटूते हैं और अपन ेपाप

को िोने के धलए गंगा में नहाते हैं और मधन्दरों में जल चढ़ाते हैं!"

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श्रद्धालतुा का यह रंग तरुन्त ही बदल गया। अधस्थरता नशे की खाधसयत ह।ै द:ुख और धनराशा का दौरा

हुआ।

मािव बोला, "मगर दादा, बेचारी ने धजन्दगी में बडा द:ुख भोगा।

धकतना द:ुख झेलकर मरी!"

वह आुँखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चींखें मार-मारकर।

घीस ूने समझाया, "क्यों रोता ह ैबेटा, खशु हो धक वह माया-जाल से मकु्त हो गई। जंजाल से छूट गई। बडी

भाग्यवान थी जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्िन तोड धदए।"

और दोनों खडे होकर गाने लगे,

"ठधगनी क्यों नैना झमकावै? ठधगनी!"

धपयक्कडों की आुँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और ये दोनों अपन ेधदल में मस्त गाते जाते थे।

धफर दोनों नाचने लगे। उछल ेभी, कूद ेभी। धगरे भी, मटके भी। भाव भी बनाये, अधभनय भी धकए और

आधखर नशे से बदमस्त होकर वहीं धगर पडे।

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