अथ श्री गजानन विजय ग्रंथ प्रारंभ...॥ श र...

225
॥ Ȣ गजȡनन िजय थ ॥ 1 अथ ी गजानन विजय ंथ ारंभ (ǑȲदȣ गɮय अन Ǖ िȡद ) ल लेखक ह. भ. प. संतकवि ी दासगण महाराज

Upload: others

Post on 21-Feb-2020

28 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 1

    अथ श्री गजानन विजय ग्रंथ प्रारंभ

    (ह िंदी गद्य अनिुाद )

    मूल लेखक

    ह. भ. प. संतकवि श्री दासगणू महाराज

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 2

    श्री गणेशाय नमः

    श्री गजानन विजय (हहदंी) ग्रंथ प्रारंभ

    पहला अध्याय १

    श्री गणेशाय नमः। े गौरीपतु्र गणपती, मयरेूश्िर आपकी जय ो । आप प्रचिंड प्रतापी तथा उदारकीर्ति ै । आपका स्मरण – कायािरिंभ में- साधपूरुुष तथा विद्िान करत ेआये ै। े दयाघन जैसे अग्नन के सामने तणृ की कोई गणना न ीिं िसेै ी आपकी कृपाशग्तत इतनी अगाध ै कक सारे विघ्न भस्म ो जाते ै । इसीलिये य दासगणू आपके चरणों में िन्दना करता ै की ग्जससे उसके मखु से रसयतुत रचना ो । मझुमे कोई काव्य प्रर्तभा न ीिं ै मैं मर्तमिंद और अज्ञानी ूूँ । ककन्त ुआपका हृदय में िास ोने पर मेरा कायि परूा ोगा । अब म ैब्रह्म की प्रकृर्तस्िरुप आहद माया- कवि शे्रष्ठों द्िारा ध्यात ब्रह्मकुमारी शारदा का ििंदन करता ूूँ। उस माता जगदिंबा को मेरा साष््ािंग प्रणणपात । मैं अज्ञानी बािक ूूँ इस दृग्ष्् से मेरे सा स का अलभमान ि करे। े माता तुम् ारी कृपा से जो कक अगाध ै, पिंगु प ाड़ पर चढ़ सकता ै, और गूिंगा धारा प्रिाह त भाषण सभा मे दे सकता ै । ऐसी जो आपकी

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 3

    मह मा ै उसमे न्यनूता न आने पािे इसलिये दासगण ूका इस ग्रिंथ रचना मे स ाय करें। े दीनबिंधो-परुाणपरुुष पिंढरीनाथ मेरी रक्षा करें। आप सििसाक्षी और जगत के आश्रयभतू ैं। आप सििव्यापी चराचर में र नेिािे सिेश्िर और कताि-धताि सब कुछ आप ी ैं। े मातावपता आप ी जगत जनता जनादिन ैं। केिि आप ी पररपणूि ैं। आप सगणु तथा र्नगुिण दोनो मे ैं। आपकी मह मा िेद शास्त्रों से भी न ीिं जानी जाती। किर दासगण ूकी तया गगनती। ककिं त ुराम की मह मा से मकि ् अपार शग्ततशािी ो गये और कृष्णकृपा से यमनुातीर के ग़ोपाि अपररलमत बिशािी ो गये। किर आपकी कृपा के लिये धन की आिश्यकता न ीिं। अनन्य शरणगर्त से आपकी कृपा स जतया प्राप्त ोती ैं, इसी भरोसे पर मैं आपके द्िार आया ूूँ और आप मझु ेविन्मखु न करें। मैं य सिंत चररत्र लिखने के लिये प्रितृ्त ुआ ूूँ सो े पिंढरीनाथ, आप इसे पणूि करने मे स ायभतू ो। े भि भिान्तक भिानी पती र्निकिं ठ; स्िगि से गीरनेिािी गिंगा को धारण करनेिािे गिंगाधर। ॐ कार स्िरुप त्र्यिंबकेश्िर। आप अपना िरद स्त मेरे लसरपर रणखये, जो सबकुछ देनेिािा ैं। आपकी स ायता ोने पर मझु ेकाि का भी भय न ीिं। तयोंकक पारस पत्थर िो े को भी सोना बना देता ैं। आपका ाथ ीिं पारस ैं और दासगण ूिो ा ैं । अतः इस बािक की स ायता करे। दरू मत ढकेलिये। आपके लिये कुछ भी असम्भि न ीीँ। सब कुछ आपके पास ैं। इस बािक केँ लिये दौडकर आईये और इस ग्रिंथ रचना को स ाय कररये। कोल् ापरू र्निासीनी म ािक्ष्मी मेरी कुिदेिता ै, ग्जसके चरणकमिोंमे मैं अपना मस्तक रखता ूूँ। ि मेरा मिंगि करे। े तुिजा भिानी मङृानी ( रुद्रपत्नी ) अिंब,े अपणे -दगेु। इस दासगण ूके मस्तक पर अपना िरद स्त रणखये। े दयाघन दत्तात्रये आपके चरण कमिों की मैं िन्दना करता ूूँ। आप प्रसन्न ोकर मझु ेगजानन चररत्र िेखन मेँ स ायता करें। इसके पश्चात ऋवषशे्रष्ठ

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 4

    शािंडडल्य (भग्तत के परमाचायि) िलसष्ठ गौतम -पाराशर (बादरायण व्यास ब्रह्मसतू्रम ाभारत - परुाणकताि ) आहद को िन्दन करता ूूँ। ज्ञान के आकाश में ग्जनका सयूि के समान प्रकाश ैं ऐसे भगिान शिंकराचायि को मेरा नमस्कार। उसी तर सारे सिंत म िंतो को दासगणू की ििंदना। ि ेसब मेरे इस ग्रिंथ रचना मे स ायता करे। ग नीनाथ र्निगृ्त्तनाथ -ज्ञाननाथ -दे ूर्निासी तकुाराम - जो इस भिसागर तरने के लिये नौकारूप ै ऐसे सिंत रामदास को मेरा प्रणाम। े लशरडीके र्निासी साईसमथि तथा पणु्यिान िामनशास्त्री को मेरा प्रणाम। ये सब ये सब दासगणू को स ायक ो। आप िोगों की कृपा से तथा स ायता से य कायि मैं कर सकूूँ गा। दासगण ूअज्ञानी बािक ै , उसकी इस उद्दिंडता के बारे मे आप िोग कठोर न बने । आप िोगों का मेरा सम्बन्ध माता और पतु्र के समान ै। आदशि माता ी बािक को बोिना लसखाती ै। िेखनी िेखन का र्नलमत्तमात्र ोती ै। उसका स्ियिं का कोई बि न ीिं ोता। े सिंतगण य दासगणू िेखनी के सामान ै। आप िोग उसके द्िारा रसमय चररत्रका िेखन करे। अब श्रोतागण आप िोग सािधान ोकर अपने कल्याण की कामना से सिंत चररत्रका श्रिण कीग्जये। इस भमूीपर सिंत मरू्तिमान चित े-बोित े ुए ईश्िर ी ैं। िे िरैानय के सागर तथा मोक्षपद दाता ोते ैं। सत्य –नीती के मरु्तिमान प्रर्तक तथा कल्याण - मङ्गि के ा् ोत े ैं। ऐसे सिंतचररत्र का आप िोग एकाग्र मनसे श्रिण करें। सिंत ककसीको धोखा न ीिं देते। सिंत भगिन मागि के पथ प्रदशिक तथा ज्ञान के भिंडार ोते ै। ग्जन् ोंने सिंतों का आश्रय लिया। उनके ऋणी साक्षात भगिान श्रीकृष्ण ोत े ैं। इसलिये मनोविके्षपाहद रह त सिंत चररत्रका श्रिण कीग्जए।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 5

    इस भारतिषिमें अनेक सिंत ो गये और द्िीपान्तरों कप ऐसा सौभानय न ीिं प्राप्त ुआ। य जम्बदु्िीप प िे से ी पणु्यिान -धन्य ै। य ाूँ पर ककसी प्रकारकी सखुोंकी न्यनूता कभी न ीिं थी। य ी कारन ै कक इस भमूीपर अनिंतकािसे सिंतचरणोंका स्पशि ोता र ा ै। नारद, ध्रिु, कयाधपूतु्र प्रल् ाद -परमभतत उद्धि सदुामा, अजुिन, म ाबिी अिंजनीपतु्र नमुान, अजातशत्र ुधमिराज। शरणागतोंके कल्पिकृ्ष अध्यात्मविद्याके म ामेरु जगद्गुरु शिंकराचायि इसी देशमें ुये। द्ितैमत प्रस्थापक मध्िाचायि, विलशष््द्ितै मतप्रस्थापक रामानजुाचायि शदु्धाद्ितै मतप्रस्थापक िल्िभाचायि आहद सिंप्रदाय प्रितिक इसी देशमें ुए ग्जनके ऋणी प्रत्यक्ष भगिान विष्ण ु ै। तयोंकक इन् ोने ी धमिप्रितिन कर सनातन धमिकी रक्षा की। गजुरातके प्रलसद्ध सिंत नरसी मे ता। मानसके रचयीता परमभतत सिंत तिुसीदास। कबीर -कमाि - सरुदास - मधरुाभग्तत के प्रितिक म ाप्रभ ु-गौरािंग अथाित चतैन्यम ाप्रभ ुग्जनकी िीिाओिंका िणिन न ीिं ककया जा सकता, इसी देशमें ुये। राजकुिोत्पन्न पे्रम परायणा मीरा। ग्जसकी भततीकी चा न ीिं जानी जा सकती। तयोंकक उसके लिये साक्षात भगिान विष्णुने विष पान ककया। योग -योगेश्िर गोरक्षनाथ -मग््छिंद्रनाथ जाििंदरनाथ - आहदनाथोंकी िीिाका समग्र िणिन निनाथ भग्ततसार नामके ग्रिंथमें ै। ग्जन् ोंने केिि ररभग्ततका आश्रय िेकर भगिान प्राप्ती की , ऐसे सिंत नामदेि -नर री सोनार - जनाबाई -कान् ोपात्रा -सिंतसखुबाई -चोखामेळा- साितामाळी - कूमिदास -दामाजीपिंत, म ान पणु्यराशी सिंत थे ग्जनके लिये िेदिणणित भगिान पिंढरीनाथने विठू म ारका रूप धारण करके उन् ें छुड़ाया। भततराज -मकुुिं दराज -जनादिन - इन सब सिंतोंका चररत्र म ीपतीन ेअपने ग्रिंथमे ककया ै।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 6

    मैं उन सबके नाम य ाूँ न ीिं देता, तयोंकक भग्ततविजय ग्रिंथमे सिंतोंका चररत्र म ीपती ने गाया ै। उसे आप िोग पढ़ें। उसी प्रकार नाथादासजी ने अपने 'भततमािा ' ग्रिंथमे सिंत चररत्रोंका िणिन विस्तार से ककया ैं। इनके बारेमे जो म ान सिंत ुये उनके चररत्रोंका िणिन मैंने अपने तीन ग्रिंथोमें ककया ै आप िोग अििोकन करे। इन् ी सिंतोंकी पिंग्ततमें सिंत श्री गजानन म ाराज ो गये। ग्जनका िोकोत्तुर प्रभाि था और िे अितारी परुुष थे। मैंने ग्जन सिंत चररत्रोंका गायन ककया उसका र्नदेश मात्र आप िोगोंके लिये ककया ै। मेरे सौभानयसे श्री सिंत गजानन म ाराजके कथन योग आया ै। सो े श्रोतागण ! उसे मैं विस्तारपिूिक क ूूँगा, आप िोग अ्छी तर से सनेु। इस चररत्र िेखनके समय मेरी ऐसी ग्स्थती ो गई ै कक ग्जन् े मैंने आको् के पास देखा, उनका ी चररत्र पीछे र गया। तयोंकक जैसे मािा गूिंथते समय अन्य मणी गूिंथने पर मेरुमणी मािाके शीषिस्थान में गूूँथा जाता ै। बराड़मे शगेाूँि नामक एक प्रलसद्ध गाूँि ै। जो बिुडाना मिंडि में ै य ाूँ बड़ा व्यापार चिता ै और श्री गजानन म ाराजकी िज से य परेु भारतिषि में प्रलसद्ध ो गया। इस शगेाूँिरूपी सरोिरमें श्री गजाननरूपी सगुिंगधत कमिसे सारे ब्रह्माण्डका िक्ष्य इस तरि आकवषित ो गया। इस शगेाूँिरूपी खानका गजाननरूपी ीरा ग्जसका अप्रर्तम प्रकाश -प्रभाि ै ि मई अपनी अल्प मर्तके अनसुार िणिन करूूँ गा। उसका आप िोग श्रिण करें और उनके चरणोंमें पे्रम ककग्जए र्नश्चतया आप िोगोंका उद्धार ोगा। गजानन चररत्ररूपी म ामेघकी िषािसे आप सब मयरूगण षिसे नाचेंगे , इसमें कोई शिंका न ीिं। शगेाूँि के पौरगण (र्निासी ) अत्यिंत भानयिान ै ग्जन् े श्री गजानन रूपी श्री सिंत रत्नका िाभ ुआ।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 7

    राम से अगधक राम का दास ऐसा सिंत तिुसीदासने क ा ै. जब अत्यिंत पणु्य उहद्दत ोता ै तब सिंत चरणोंकी प्राग्प्त ोती ै। रामचिंद्र पा्ीिने मझुसे पिंढरपरुमें कार्तिकी यात्रा के समय सिंत चररत्र लिखने की प्राथिना की। मेरा मनोदय प िेसे ी श्रीगजानन चररत्र गाना का था। ककन्तु उसकी सिंगती न ीिं जम र ी थी। उससे मेरी मनोकामनाकी पतूी करनेके लिये श्री समथि गजानन म ाराजने रामचिंद्र पा्ीिको पे्रररत ककया। श्री गजानन म ाराज सिंत चड़ूामणी थे। सिंतोंका मनोदय कोई न ीिं जान सकता। इस म ापरुुषका इर्त ासकी दगॄ्ष््से नाूँि -गाूँि -जार्त का कुछ पता न ीिं ै। ग्जस प्रकार ब्रह्माजीका -स्थान -इत्याहद कोई बता न ीिं सकता - ब्रह्माजीको देखकर ी उनके अग्स्तत्िका ज्ञान ककया जा सकता ै। ग्जस प्रकार तेजस्िी ीरे को देखकर ी उसके तजेस्िीता का ज्ञान ोता ै और द्रष््ा उस तेजसे प्रभावित ोकर तल्िीन ो जाता ै। और ि ककस खानसे पदैा ुआ ै य जानने की जरुरत न ीिं र जाती, उसी प्रकार सिंतोंका प्रभाि ी उनका पररचय ैं अन्य उपागधयाूँ गौण ोती ैं। माघ िदय सप्तमी शके १८०० के समय श्रीगजानन म ाराज ग्राम मे अपनी तरुणािस्था में आये। कोई क त े ै ि ेश्री समथि रामदासजी के सज्जनगडसे य ाूँ आये। यदयवप कोई सबि प्रमाण न ीिं किरभी िोकोततीका कुछ तो अथि ोता ै। सब िोग भ्रष्् ो गये। अनेक यातनाओिंसे पीडड़त और त्रस्त थे। ऐसे समय में श्री समथिजीने ऐसा कौतकु ककया। िे जगतका उद्धार करने के लिये श्रीगजाननरूपमे पनुः अितीणि ुए। योगी परुुष ककसीभी - शरीर में प्रिेश कर सकता ै। तयोंकक ऐसा उद ारण जगद्गुरु शिंकराचायिजीने ककया था। म ायोगी -गोरखनाथ -कूड़ाकरक् से प्रक् ुये थे।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 8

    कार्नफ़नाथ ाथी के कानसे और चािंगदेि- नारायण- भूँिर से- अयोर्नज प्रग् ुए थे । इसी प्रकार की िीिा श्रीगजानन म ाराज के विषयमे ुई ोगी, तयोंकक उन् ें योग के सब अिंगोंका ज्ञान था। (यमर्नयमासिंन, प्राणायाम , प्रत्या ार , धारणाध्यान , समागधध्योsष््ािङगार्न ) योग की मह मा अगाध ै। उसकी तुिना अन्य ककसी मागिसे न ीिं की जा सकती। य सब आपको म ाराज के चररत्रस ेज्ञात ोगा। पदनतोंका उद्धार करन ेके लिये ज्ञानराशी श्री गजानन माघ िदय सप्तमीको प्रक् ुए। ि प्रसिंग म ैआप िोगोंको बताता ूूँ। शगेाूँि में देिीदास नामके पातूरकर कुिोत्पन्न माध्यिंहदन शाखा के एक सज्जन मठागधपती थे। उनके िड़केकी ऋतुशािंर्तके र्नलमत्त उनके घर भोजन का प्रयोजन था। िोगोन ेभोजनके बादम ेजुठी पत्तिों को बा र िें क दी थी। उसी जग पर समथि लसद्धयोगी गजानन म ाराज एक ि्ी परुानी कपडकेी बर्नयान प ने बठेै थे। अन्य काई सामग्री उनके पास न थी केिि -पानी पीनेके लिये एक तुिंबा था। और उनके साथ में र्नज -र्नलमित क्ची गचिम। जो ककसी कुम् ारके भ््ीम ेपतकी न ीिं थी। उनकी अिंगकािंर्त पिूि हदशामें उहदत बािसयूिित थी -नासाग्र दगॄ्ष््- यतु शािंत मदु्रा और तपःपञु्ज काग्न्तस ेिे यतुत थे ग्जसका मेरेसे िणिन न ीिं ककया जा सकता। म ाराज हदगिंबर अिस्थामें थे। ग्जसे आप -पर का भेद न ीिं ोता - सिित्र सब प्राणीमात्र में समदृग्ष्् रखनेिािा ी हदगिंबर अिस्थामें र ता ै। म ाराज पत्तिोंके पास बठैकर उनमेंसे बच े ुए अन्नकणों का ग्र ण कर र े थे। य उनकी िीिा मात्र थी। भात का कण हदखते ी मुखमें डाि देते थे। िस्तुतः म ाराज का य कायि अन्न परब्रह्म ै। य बतानेके ेतु ी था। तयोंकक उपर्नषद श्ररु्त गजि कर बता र ी ै "अन्नम्ब्रह्मेर्त" य लसद्धान्त लसद्ध करनेके लिए ी दयाघन य िीिा कर र े थे। सामान्य जनोंको इस बातका कोई ज्ञान न ीिं पत्ता चिा। बिंक्िाि अग्रिाि अपने एक लमत्र दामोदरपिंतके साथ उस रास्तेसे जा र े थे। उन् ोंन ेय िीिा देखी। दोनों म ाराजकी इस कियाको देखकर आश्चयि

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 9

    चकीत ो गये। और आपसमें बातचीत करन ेिगे। इन मरू्तिका य कायि पागिोंकी तर हदखता ै , तयोंकक अगर िे कु्षधािान्त ोत ेतो देिीदासके पास अन्नकी याचना करत ेऔर ि भी सज्जन ै। आये ुए अर्तगथको विन्मखु न ीिं कर सकता। इस कृर्तके बारे में कोई तकि न ीिं चिती। बिंक्िािने अपने लमत्रसे क ाूँ म िोग य ी खड़ े ोकर कायिका र्नरीक्षण करेंगे। श्रीमत भागितमे व्यासजीका िचन ै कक स्च ेसाध ुजगत में उन्मत्तित र त े ै। कृतीसे य मरू्ति पागिोंकी तर हदखती ै ककिं त ुय प्रत्यक्ष ज्ञानयोगी ैं। जैसे ह रेको प चाननेके लिये रत्न -परखनेिािी व्यग्तत ी चाह ये। रास्तेसे जारो िोग गये ककन्त ुककसीका ध्यान म ाराजकी ओर आकवषित न ीिं ुआ - ये दोनोका ी िक्ष म ाराजकी ओर जानकेा कारण सज्जन िोग ी जान सकत े ैं ह रे तथा गार- पत्थर लमिाकर रख हदये जाय तो रत्न परखनेिािा ह रोंको चनुकर गार -पत्थर छोड़ देगा। इस प्रसिंगमे म ाराजको विनयपिूिक पछूनेके लिये बिंक्िाि अग्रिाि सामन ेआये। उन् ोंन ेप्राथिना की म ाराज - अन्नके लिये आप पत्तिोंको तयों ढूूँढ र े ैं ? अगर अन्नकी इ्छा ो तो म उसका प्रबिंध कर देत े ै। ऐसा बिंक्िािके पछूनेपर म ाराजन ेउनके प्रश्नका कोई उत्तर न ीिं हदया। केिि उपरकी ओर देखकर उन दोनोंकी ओर देखा। म ाराज विशाि -िकृ्षस्थियतुत तथा तेजपुिंज कािंर्तयतुत सदुृढ़ स्नायिुािे भजुदिंड -र्नजानिंदमे िििीन योगी थे। उनको मौन धारण करके बिंक्िािने गचत्तमेँ सिंतोष धारण कर प्रणाम ककया। और देिीदाससे क ा - म ाराज एक पत्ति आप लशघ्र ब ार परोलसये। देिीदासन ेउनके कथनानसुार एक पत्ति भरके म ाराजके सामन ेरख्खा। उस परोसे ुए पत्तिपर बठैकर म ाराज उसे पान ेिगे। ग्जसको ककसी स्िादकी आकािंक्षा न ीिं उसे लमष््ान्नसे तया रूची ? जो ब्रह्मरस पी करके तपृ्त ै तया िे राबको सेिन करेगा ? जो साििभौम राज्यका अगधपर्त ै तया ि जागीरकी कामना करेगा? म ाराजन ेसब पतिान्न एकम ेलमिाकर जठराग्नन शािंत की। य घ्ना सामान्यतः दसूरे प्र रके

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 10

    समय की ै। बिंक्िािने अपने लमत्रसे क ाूँ की म िोग इन् े उन्मत्त समझ र े ै ि मारी भिू ै। सभुद्राको पान ेके लिये अजुिन िेषािंतर करके उन्मत्तित ितिन कर र ा था। ये ज्ञानसागर मोक्षरुपी सभुद्राको प्राप्त करन ेके लिये इस प्रकारका आचरण कर र े ै। मारा य शगेाूँि धन्य ै ग्जसे भगिान विष्णुने ऐसा र्नरर्छ योगीराज हदया। सयूि मध्यान् मे आगसे सब भभूाग तप्त ो गया और पक्षीगण आश्रयके लिये अपने अपने नीड़ में जा र्छपे। ऐसे तप्त धाममे ये योगीराज आनिंदपिूिक ग्स्थत ै सो ये साक्षात ब्रह्म ै। इन् े ककसी प्रकारका भय न ीिं ै। इन् ोन ेयथे्छ भोजन तो ककया ककिं त ुतुिंबोमे पानी न ीिं ै , सो म िोग इन् े जि िाकर देंगे। उस विषयमें उन् ोंन ेम ाराजसे पछूा , "भगिन तया म िोग जि आपके लिये िे आये ?" तब म ाराज ूँसकर क ने िगे," अगर आप िोगोंको आिश्यकता ै तो िे आईये "। िस्तुतः आप िोगोंमें और ममें कोई भेद न ीिं ै। ककन्त ुजगद्व्यि ार की दृग्ष््से आप िोगोंकी किया सत्य ै।

    दे ने अन्न ग्र ण ककया सो उसे जिकी आिश्यकता ै ी। अगर आप िोग चा ते ै तो जिकी व्यिस्था कीग्जये ग्जससे कायिकी पतूिता ो जाय। य सनुकर बिंक्िािने पिंतसे क ा , पिंत अपना य सौभानय ै। ऐसा क कर दामोदरपिंत जि िेन ेअिंदर गये। इतन ेमें म ाराज समीपस्थ कुएूँ के साथ पशओुिं के पीन ेके लिये कुिं ड बना था उसी मे जि पीन ेिगे। तब तक पिंत िो्ा भर जि िेकर सामन ेआये और म ाराज से क ने िगे ," म ाराज ि पशओुिंके लिये जि ै। उसे आप न वपये। मैं य िो्ा िेके आया ूूँ। य ी पीन ेयोनय ै। इसमे उशीर औषगध डािकर य लशति ककया गया ै। य सनुकर म ाराजन ेक ा, य व्याि ाररक बात े मसे न कह ये। य चराचर जगत िस्तुजात ब्रह्मव्याप्त ै उसमे जिमें पिंङ्क यतुत - र्नमिि -सिुालसत ऐसी कोई उपागध न ीिं ै। जि ब्रह्म ी ै पिंङ्क यतुत - र्नमिि -सिुालसत- दगुधंयतुत भेद उपागधजन्य ै परमाथितः न ीिं। पीनेिािा उसके पथृक न ीिं ै।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 11

    य ईशिीिा मानिके लिए अगाध ै। उसे न ीिं जान। उपागधसे य सब प्रतीत ोता ै ? य जगत ककससे ुआ। ऐसे सनुनेपर दोनों भािगद्गद ोकर श्री चरणोमे िे्ने िगे। उनका ेतु जानकर म ाराज ि ाूँसे पिायन कर गये। उनकी िायगुर्तको भिा कौन रोक सकता ै? अगिी कथा आप िोगों की दसूरे अध्याय मे र्निेदन करूूँ गा। एकग्रता से आप िोग सनुें। य श्री गजानन विजयग्रिंथ – भाविकों को आनिंहदत करनेिािा ो ऐसी प्राथिना भगिानसे दासगण ूकरता ै।

    ।। शभुिंभित ु।। श्री रर रापिणमस्तु ।। ।। इर्त श्री गजानन विजयग्रन्थस्य प्रथमोध्याय समाप्तः।।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 12

    ॥ अध्याय २ ॥

    श्री गणेशाय नमः । े चन्द्रभागा त्पर वि ार करनेिािे दीनबिंध ू-अज - अग्जत -सिेश्िर पणूिब्रह्म- रूि ग्तमणीके पर्त आपकी जय ो। आपकी कृपाके बबना सब पररश्रम व्यथि ै। जैसे शरीरमें प्राण न र नेपर शरीर पे्रतमात्र ै। सरोिर जिसे सशुोलभत ोता ै। े पद्मनाभी ! बाह्य किचसे िि के अन्तरगत रसकी शोभा ोती ै। उसी प्रकार आपकी कृपा शरणागतको सामर्थयि देती ै- पाप तथा बत्रविध -ताप और (आध्यग्त्मक -आगधभौर्तक -आगधदैविक ) दीनता का र्निारण करे य ी मेरी प्राथिना ै। वपछिे अध्यायकी कथामे बताया की म ाराज ि ाूँसे चिे गयें। ग्जसकी व्यथा बिंक्िािको दःुखी करने िगी। उन् ें भोजन और जि भी अ्छा न ीिं िगता था। उन् ें गजानन म ाराजके रुपका सतत ध्यास -मनमें - आ र ा था। िे ग्जधर देखत ेउधर म ाराजकी अनपुम मरू्तिका भास ोता था। े श्रोतागण इसे ी ध्यास क त े ै जो योगशास्त्रानसुार धारणा क िाता ै। जैसे गायका बछड़ा अपनी अप्राप्त माताका ध्यास करत ेर ता ै, ि ी अिस्था बिंक्िािजीकी ो गई। य अिंतव्यिथा बतानकेे लिये उनके पास कोई स्थान न ीिं था। ग्जसके पास ि व्यतत करत ेऔर अपने वपतासे क नेका धयैि उनमे न ीिं था। ऐसी अिस्थामे उन् ोँने समग्र शगेाूँिमें म ाराजको ढूिंढ़ा ककन्तु क ीिं पता न ीिं चिा। घरमें आनेपर उनके वपता भिानीरामने उनसे पछूा, बे्ा,आज तुम् ारा मखुमण्डि म्िान ो गया ै, तुम व्यग्रसे हदखाई पड़ र े ो, तया कारण ै ?तुम यिुा ो, घरमें ककसी िस्तकुी कमी न ीिं ै किर तुम् े ककस बातकी गचन्ता ै, ग्जससे तुम् ारी य अिस्था ो गई ?

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 13

    तया तुम ककसी रोगसे पीडड़त ो तो लशघ्र बताओ तयोंकक वपतासे कुछ र्छपाना न ीिं चाह ये। ऐसा वपताके पछूनेपर बिंक्िािने इधर -उधरकी बात बताकर वपताका समाधान ककया और किरसे म ाराजको शगेाूँिमें ढूिंढना शरुू ककया। बिंक्िािके पड़ोसमें एक जागीरदार रामाजीपिंत देशमखु थे। िे बड़ ेसज्जन थे। उन् ें ककसी प्रकारका अलभमान न ीिं था। बिंक्िािने उनसे सब कथा क ीिं। तब उन् ोंन ेउत्तर हदया, बिंक्िाि, तुम् ारे कथनसे पता िगता ै कक, िे म ापरुुष कोई योगी ै। ऐसे कमि और िक्षण, पिूिसकृुत प्राप्त योगी में ी ोत े ै; अन्यथा इन िक्षणोंका अिंशात्मक दशिनभी ोना दिुिभ ै। तुम् े ऐसे परुुषका दशिन ुआ य तुम् ारा म ाभानय ै। तुम धन्य ो। तुम् े दशिन ोनेपर साथ मझुभेी दशिनाथि िे चिना। ऐसी अिस्थामे बिंक्िाि के चार हदन और बीत गये ककन्त ुम ाराजका ितृान्त र्तिभरभी मनसे न ीिं ्ा। श्री गोवि िंदबिुा ्ाकिीकर नामके उस समय एक बड़ ेकीतिनकार थे। ग्जनके कीतिनमे साक्षात श्री भगिान विष्ण ुप्रसन्न गचत्त ोते थे। बरारमे उनकी बड़ी ख्यार्त थी। उनका कीतिन लशिमिंहदरमे र्नग्श्चत ककया गया। िे देशा्न करने शगेाूँि प ुूँच ेथे। गाूँिके सभी िोग स्त्री परुुष कीतिन सनुनेकी इ्छासे मिंहदरमे इकठ्ठा ुए। बिंक्िाि उनका कीतिन सनुने मिंहदरमे आ र े थे तब उन् ें रास्तेमें पीतािंबर नामका एक दजी लमिा। य पीतािंबर बड़ा भाविक था। उसको बिंक्िािन ेम ाराजका समाचार सनुाया। दोनों जब मिंहदरके वपछिे िरसीपर म ाराज बठेै हदखाई पड़।े कफ़र ककतिन का ेका- ि दौडकर उनके समीप गया । जैसे कोई कृपण व्यग्तत धनके िंडकेो देखकर दौड़ता ै। जैसे चातक पक्षी स्िाती नक्षत्रके बादिोंको देखकर वषित ोता ै। मेघके दशिनसे मोर-या चन्द्रमा के दशिनसे चकोर पक्षी वषित ोता ै, ऐसेह बिंक्िाि म ाराजको देखकर वषित ुआ। दोनों - म ाराजसे कुछ अिंतरपर खड़ े ोकर विनयपिूिक पूिंछने िगे। "म ाराज, तया म आपके लिये भोजन सामग्री िे आिे ?" तब म ाराजने उत्तर हदया " िगता ै तो

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 14

    बेसन रो्ी मािीन के घरसे िे आिो "। झ्से बिंक्िािने बेसन और आधी रो्ी िाकर योगेश्िरजीके ाथपर रख्खी। बेसन रो्ी क ते समय म ाराज पीतािंबरसे बोिे,"य तुिंबा-नालिसे भरकर िे आिो। सनुकर पीतािंबर ने उत्तर हदया, म ाराज तुिंबा डुबे इतना पानी नािेमे न ीिं ै। साथ जाने -आनेिािे िोग तथा पशओुिंने य पानी खराब कर हदया ै। "ि पेय न ीिं ै। मैं अन्य जग से पानी िे आता ूूँ। उसपर म ाराजने क ा," में दसूरी जग का पानी न ीिं चाह ये। य तुिंबा डुबाकर नािेका पानी िे आओ। अिंजुिीसे न ीिं भरना। " तत्काि पीतािंबर नािेपर गया ककन्त ुतुिंबा भरे ऐसा जि उसे क ीिं न हदखा। पीतािंबरकी ग्स्थर्त बड़ी विगचत्र ो गई। नािेमे परैके तिएुभी न ीिं डूबत े थे। म ाराजकी आज्ञानसुार उसने धयैि धारणकर तुिंबा सीधा पानीमें डुबोया। तुरिंत ि जिसे भर गया। ि ज ाूँ ज ाूँ तुिंबा डुबाता ि ी ि जिसे भर जाता। नािोका गिंदा पानी तुिंबे मे स्िह्कमणीके समान स्ि्छ र्नमिि ो जाया करता। य देखकर पीतािंबर आश्चयिचककत ो गया। उसने मनमें अनमुान ककया की य योगेश्िरकी शग्ततसे ी ऐसा ोता ै। इसमे कोई सिंदे की जग न ीिं। उसने तुिंबा िाकर म ाराजको हदया और उन् ोंने भोजनके बाद उसका पान ककया। इसके बाद म ाराजने बिंक्िािसे सपुारी माूँगी और क ा की तया मािीन के बेसन रो्ीसे ी मेरी सेिा करता ै ? णखसेमेँसे सपुारी र्नकािकर का् कर दो। य सनुकर बिंक्िािको बड़ी प्रसन्नता ुई। उन् ोंने सपुारीके साथ ददुिंडी तािंबेके दो पसेै म ाराजके ाथ पर रखे। उस समय बरारमे मसुिमानी लसतके - खड़कु - ददुिंडी- व्याघ्रािंबरी आहद व्यि ारमें प्रचलित थे। म ाराजको बिंक्िािने व्याघ्रािंबरी ददुिंडी लसतके हदये। उन् ें देखकर म ाराज ूँसे और बोिे, तया में व्यापारी समझते ो, जो ये लसतके अपिण कर र े ो? ये लसतके तुम् ारे व्यि ारके ै, में इनका कोई प्रयोजन न ीिं। म तो भािभग्ततके लसतके चा त े ैं। तुम् ारे पास भाि ै इलसिीये पनुःदशिन ुए। अब जाकर तुम िोग कीतिन सनुो। मैं य ी नीमके पेड़के नीच ेबठैकर कीतिन सनुता ूूँ। म ाराज के आदेशसे दोनों कीतिनमे आये।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 15

    कीतिनमे गोवि िंदबिुा ने भागित के नयार िे स्किं ध की िंसगीताका एक श्िोक र्नरूपणके लिये लिया था। आरिंभमे जैसे ी बिुाने श्िोक का पिूािधि उ्चारण ककया उसके बाद म ाराजने झ्से उत्तराधि उ्चारण ककया। ि सनुकर गोवि िंदबिुा मनमें साशङ्ककत ो गये। उन् ोंने िोगोसे क ाूँ उत्तराधि का उ्चारण करनेिािा ि व्यग्तत र्नग्श्चत ी अगधकारी परुुष ै। आपिोग उन् ें मिंहदरमें िे आईऐ। ये सनुते ी बिंक्िाि -पीतािंबर इत्याहद िोग समथिको िाने के लिये गये, ककन्त ुप्राथिना करनेपरभी िे अपनी जग से ह िे न ीिं। स्ियिं गोवि िंदबिुा ्ाकिीकर ाथ जोड़कर म ाराजसे प्राथिना करन ेिगे, म ाराज एक बार कीतिनके लिये आप मिंहदरमे पधाररये। आप साक्षात लशि ै। आपके बबना मिंहदर शनू्य ै। आपका बा र बठैना ठीक न ीिं। मेरा पिूिजन्मका सकृुत उहदत ुआ, य ी कारण ै कक आपके चरणकमिोंका मझु ेदशिन ुआ। आज मझु ेकीतिनका िि प्राप्त ो गया। गुरुदेि, आप लशघ्र मग्न्दरमे मेरे साथ चिें। तब म ाराजने क ा," अरे गोवि िंद, अपने प्रर्तपादन और आचरणमे एक िातयता रखो। अभी तो तुमने प्रर्तपादन ककया की सिित्र ईश्िर व्याप्त ै, किर अिंदर -बा र क ाूँ र ा। किर य ठ ककसलिये ?ग्जसन ेजैसा प्रर्तपादन ककया उसे िसैा ी आचरण करना चाह ये। साधकको चाह ये कक ि शब्दछि कदावप न करें। भागितके श्िोकका प्रर्तपादन करत े ो और उसके विरुद्ध आचरण करत े ो, य कीतिनकारी पद्धती ठीक न ीिं। उदरभरण कीतिनकार तुम् े भमूीपर न ीिं ोना था| जाओ, कीतिन समाप्त करो। मैं य ी बठैकर सनुता ूूँ। तब बिुा मिंहदरमे आकर उ्चस्िरसे बोिे, श्रोताओिं, शगेाूँिमें य अनमोि रत्न प्राप्त ुआ ै। आप िोग इन् े सम् ािो। य शगेाूँि ना र ा अवपतु साक्षात भगिान विठ्ठि के र्निाससे पिंढरपरू ो गया। इनकी देखभाि करो, सेिा करो, और इनकी आज्ञाको िेदिातय समझकर लशरोधायिकर पािन करो। इसीसे तुम् ारा र्नग्श्चत कल्याण ोगा। य र्नगध अनायास तुम िोगोंको लमिी ैं इसे सम् ािो। कीतिन बड़ा अ्छा ुआ। बिंक्िािको बड़ा षि ुआ।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 16

    घरपर आकर अपने वपताजीसे सारा ितृािंत क ा और क ा वपताजी म ाराजको अपने घर िे आओ। पतु्रका ितृान्त सनुकर भिानीरामने क ा," बे्ा, तु ी जाकर म ाराजको िे आओ। "वपताजीकी अनजु्ञा लमिनेपर उन् ें बड़ी उत्किं ठा ुई की कब और क ाूँ गुरुमरू्ति लमिेगी, ग्जन् े म ैघर िा सकूूँ । चौथे हदन सद्गुरुनाथ माणणकचौकमे बिंक्िाि को लमिे। उस समय सयूािस्त ो र ा था। इधर सयूािस्त ुआ और उधर ज्ञानसयूिका उदय ुआ माणणक चौक रूपी पग्श्चममे बिंक्िािके भानयसे। गोपाि िोग गौंअे िेकर गाूँिमें आने िगे। गौंअे श्री समथिके पास जमा ोने िगी। मानो उनको ऐसा िगा कक निंदकुमार श्रीकृष्ण ि ाूँ आ गये ैं। उसी प्रकार िकृ्षोंपर पक्षीगण मधरु ककिबबि करने िगे। दकुानदार िोग हदया-बत्तीकी तैयारी कर र े थे। ऐसे समय बिंक्िािजी म ाराजको िेकर घर प ुूँच।े मरू्ति देखकर उनके वपताको अत्यानिंद ुआ। उन् ोंने म ाराजको साष््ािंग प्रणणपात ककया और पीढेपर बबठाया और ाथ जोड़कर प्राथिना की, "म ाराज ! आप साक्षात पािितीपर्त शिंकर ी ै, जो प्रदोष कािमे य ाूँ पधारे। अतः आप मेरे य ाूँ भोजन कररये। मैंने स्किं दपरुाणमे कथा सनुी ैं कक, ग्जसे प्रदोष कािमे लशिजीका पजून करनेका अिसर प्राप्त ोता ै ि भानयशािी ोता ैं। ऐसा क कर तत्काि एक बबल्िपत्र िाकर म ाराजके लसरपर परमभग्ततसे रखा। किर मनमें विचार करने िगे। कक म ाराजको भोजनके लिये तो क हदया ककन्त ुरसोईकी तो अभी कोई लसद्धता न ीिं और रसोई बनने तक म ाराज रुकें गे की न ीिं य शिंका भी ै। प्रदोषकािमें यहद भगिान लशि भोजन ककये बबना िौ् जात े ै तो बड़ा अनथि ोगा। म ाराजको आया जानकर बड़ाभारी जनसमदुाय -जमा ोन ेिगा। म ाराजको देखन ेएििं दशिन के लिये। बड़ ेधमि सिंक् की बात ै। अन्तमे र्नणिय लिया कक दोप रमे परुी बनाई ुई ैं ि बासी न ीिं समझी जाती, दसूरी परुी पतकी रसोई ैं उसमे दोष न ीिं ऐसा विचार करके थािीमे परूरयाूँ रखकर म ाराजके सामने रख्खी। मेरा भाि शदु्ध ै और र्नष्कप् भािसे भगिान शिंकर प्रसन्न ोते ैं। परुरयोंके साथ बादाम -खारीक, केिा -मोसिंबी -तथा मिूक साथमे परोसे। म ाराजके ििा्पर -बतुका िगाया।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 17

    गिेमें पषु्पमािा अपिण की। म ाराज प्रसन्न ोकर सब पाने िगे। बड़ ेआनिंदसे सब पदाथोंका सेिन ककया जो जो पदाथि थािमें परोसा जाता, लशघ्रतासे म ाराज उसका ग्र ण करते। इस प्रकार साधारण तीसरे प्र र अन्नका ग्र ण म ाराजन ेककया और रातको ि ी आराम ककया। दसूरे हदन बिंक्िािने म ाराजको प्रातः मङ्गिस्नान कराया। सौ घड़ ेकदोष्ण जिके लसद्ध करके म ाराजको स्नान करान ेिगे। ग्जसमे ग्स्त्रयाूँ भी थी। कोई म ाराजको लशकाकाई िगाने िगे कोई साबनु शरीरपर िगाने िगे, कोई बड़ ेप्रेमसे म ाराजके चरणकमिको पकड़कर धोन ेिगे। कोई दनक िगा र ा ै, कोई ीना अत्तर रगड़ र ा ै, कोई चमेिीका तिे िगा र ा ै। इस प्रकार अनेक प्रकारके अङ्गरागोसे म ाराजको मिंगि स्नान करिाकर पीतािंबर प नाकर बड़ ेसन्मानसे आसान पर बबठाया। बिंक्िािके य ाूँ ईश्िरकृपासे सिंपन्नता थी। ककसी प्रकारकी न्यनूता न ीिं थीिं। इसके बाद योगगराजको आसनपर बबठाकर मस्तकमें केशरर्तिक िगाया। अनेक पषु्प ार गिेमें डािे। कुछ िोग म ाराजके मस्तकपर तुिसी मिंजरी चढाने िगे। म ाराजको अनेक प्रकारके निेैद्य अपिण ककये। इसप्रकार बिंक्िािका भानय उहदत ुआ। उसहदन बिंक्िािका घर मानो साक्षात द्िारकानगरी ो गया । ककन्तु ि हदन लशिजीका सोमिार था। सब िोगोंने अपने मनोरथ परेु ककये। केिि बिंक्िािके बिंध ूइ्छारामजी शषे र गये। ये बिंक्िािके चचरेे भाई थे। ये भगिान शिंकरके भतत थे। ये बड़ ेभाविक थे। प्रातःकािका उत्सि देखकर इनके मनमें भाि जागतृ ुआ की आज सोमिार ै। साक्षात भगिान शिंकर ी य ाूँ घरपर उपग्स्थत ुए ैं सो अस्तके समय प्रदोष कािमे म ाराजकी यथासाङ्ग पजूा करके पारणा करना चाह ये। अस्तका समय ो गया। सयूि भगिान अस्त ो गये। इधर ई्छारामने स्नान ककया। प्रदोषका समय देखकर पजूनकी सामग्री िेकर बड़ ेपे्रमसे म ाराजकी पजूा की। और ाथ जोड़कर बबनती की - म ाराज। दोप रमे आपका भोजन ो गया ै। ककिं त ुसायिं आप थोड़ा तो भी ग्र ण करें। तयोंकक मेरा उपिास ै। जबतक आप कुछ ग्र ण न ीिं करेंगे, मैं

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 18

    प्रसाद न ीिं पा सकता। आपने सब भततोंका मनोरथ पणूि ककया। मैं ी एक भानय ीन बचा ूूँ सो मेरी मनोकामना पणूि कररये। सब िोग कुत ूि पिूिक देखने िगे की अब म ाराज तया करते ै। ऐसेमें ी इ्छाराम एक थाि परोसकर िे आये। ग्जसमे बासमतीका भात दो ,कूर तथा नानाविध पकिान थे। जिेबी -राघिदास -मोतीचरू -गोझीया-अनारस े-घीिर आहद लमष््ान्न थे ग्जनको मैं िणिन न ीिं कर सकता। अनेक प्रकारके अििे -अचार तथा द ी पास में रख्खा था। पररपणूि थािको देखकर म ाराज अपने आपसे बोिे, भोजन -चाह ये भोजन चाह ये, ऐसा रातहदन घोकत े ो, िो, अब खाओ। अरे अघोरी, अब इसका अपमान न करो। तुम् ारा अघोरी कृत देखनेके लिये ी ये सब िोग य ाूँ जमे ुऐ ैं। ऐसा र्नश्चयकर म ाराजने सब थाि खाकर समाप्त कर हदया। य ाूँ तक की नमक और नीिंबभूी न ीिं छोड़ा। म ाराजकी इस िीिाका दसूरा उदे्दश य था कक भोजनके लिये आिश्यकतासे अगधक आग्र कभी न ीिं करना चाह ये। उसका पररणाम म ाराज िोगोंको बताना चा त ेथे? भोजनोपरािंत म ाराजको ड्डडाकर उल््ी ो गई, ग्जससे सारा अन्न बा र आ गया। इस प्रकारकी घ्ना एकबार श्री समथि रामदास के जीिनमें घ्ी थी। एक बार समथि रामदास स्िामी को पायस खानेकी िासना ुई। जो साधकेु लिये ठीक न ीिं। तो उन् ोंने दिंडडत करनेके मनीषासे खीर का आकिं ठ पान ककया। ग्जससे उन् ें िमन ो गई तब किर ि ेउसे भी खाने िगे। ताकी पनुः उसकी िासना न ो। इसी प्रकार गजानन म ाराजने िोकग्राह्के र्नग्र के लिये य िीिा की, ताकक भािी पीढीको लशक्षारूपय ज्ञात ो, कक दरुाग्र का पररणाम तया ोता ै। अस्तु। िोगोंने िमनका स्थि साि ककया, म ाराजको स्नान करिाया और साि सथुरे आसन पर बबठाया। जारो िोग म ाराजके दशिनको आये। म ाराजकी आनिंदीिगृ्त्त चलित न ीिं ुई अथाित म ाराज चा ते तो सब अन्न योगसामर्थयि से पचा जात ेककन्तु िोग लशक्षाके लिये य िीिा करनी पड़ी। उसी समय म ाराज के पास दो भजन मिंडिीयाूँ आयी

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 19

    और बड़ ेप्रेमसे ि ाूँ रातभर भजन करते र े। म ाराजभी अिंगुिी च्काकर अपना वप्रय भजन "गणगण गणािंते बोत े"आनिंदसे रातभर गाते र े। म ाराज सदैि गणगण गणािंत बोते, ऐसा भजन करत ेथे। इसीलिये सब िोग उन् ें गजानन नामसे पकुारने िगे। िस्तुतः नामरूपाहद उपागधयाूँ प्रकृर्तके आश्रयाधीन ै। जो स्ियिं ब्रह्म स्िरुप ै उसको ये नामरूपकी उपागध कैसे िग सकती ै? उपर्नषद इस बातका उद्घोष करता ै 'िाचारम्भणिं विकारो नाम धेयिं मगृ्त्तकेत्येि सत्यम " अथाित घ्की नाम -रूप -आिगृ्त्त आहद उपागधयाूँ केिि प्राकृर्तक ै। िस्तुतः ि मगृ्त्तका ी ै। इसी प्रकार नाम रुपाहद उपागध ब्रह्मकक न ीिं ोती। इस तर म ाराज अपने र्नजानिंदमे िीन र त े थे। उन योगेश्िरका - अग्स्त -भाती -प्रीय आहद प्रकृर्त विकारोंसे कोई सम्बन्ध न ीिं था। तयोंकक ये सब प्राकृर्तक उपागधयाूँ ै। जैसे आषाढ़ी एकादशीको पिंढरपरूमे भततोंकी भीड़ ोती ै। लसिं स्थपिि कुिं भमें गोदािरी त्स्थ नालसकके्षत्र में िसैी ी भीड़ ोती ै जो भीड़ ररद्िारमें ोती ै उसी प्रकार शगेाूँिमें बिंक्िािके घरमे दरूदशी आनेिािे दशिनागथियोंकी भीड़ ोने िगी। य ाूँ के श्रीमान स्िामी गजानन ये ी विठ्ठि थे और र्नश्चय रूपके इिं् ऊपर खड़ े ोकर बिंक्िािके घरमे जनसमदुायको दशिन देने िगे। ग्जसने ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया उसके लिये जार्त क ाूँ शषे र ती ै। जसेै सयूिके प्रकाशके लिये सब स्थि समान ै। शगेाूँिमें रोज नई यात्रा ोने िगी। जारो पजूायें म ाराजकी ोने िगी, ग्जसका िणिन भगिान शषेभी न ीिं कर सकते। िे भी श्रान्त ो जायेंगे। किर दासगणकूी, जो एक कु्षद्र की्कके समान ै। तया गगनती ै। गजानन म ाराज ी मेरे मखुको र्नलमत्त कारण बनाकर िीिाओिंका बखान कर र े ै। म ाराजकी गाथा गानेका मझु पामरमे सामर्थयि क ाूँ? जो अगाध ै। किरभी यथामती हदनचयाि िणिन करनेका प्रयत्न करता ूूँ। कभी तो म ाराज मिंगिालभषेक करत,े कभी कीचड़में िे् जाते। कभी गिंदा जि प्राशन करत।े जैसे िायकुी गती

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 20

    बताई न ीिं जा सकती, उसी प्रकार म ाराजकी हदनचयािका कोई र्नग्श्चत र्नयम न ीिं था। म ाराजको गचिमसे बड़ा पे्रम था। ि उन् ें बार बार िगती थी। ककन्त ुउसपर भी आसग्तत न ीिं थी, केिि िौककक दृग्ष््से ि ेिीिा बतात ेथे। अ्छा, अब अगिा अध्याय श्रिणके लिये एकाग्र ोईये। य गजानन म ाराजका चररत्र िोगोंके लिये आदशिभतू ो; ऐसी भगिान से दासगणू प्राथिना करता ै।

    ।। रर रापिणमस्त ु।। शभुिंभितु ।। ।। इर्त श्री गजानन विजयग्रिंथस्य ग्व्दर्तयोध्याय समाप्तः।।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 21

    ॥ अध्याय ३ ॥

    श्री गणेशाय नमः। े सग््चदानिंद श्री रर, आपकी जय ो। आपके चरण कमिों मे आगश्रत जनोंपर आप कभी कठोर न ी ोत।े आप करुणाके सागर ो। आप हदनजनोंके पाईक ो। भततजनोंके लिये आप कल्पिकृ्ष तथा गचिंतामणी ो। ऐसी आपकी अगाध मह मा सिंतगण गात े ै सो े मयािदा परुषोत्तम राघि। आप लशघ्र प्राप्त ोईये विििंब न कीग्जये। इसप्रकार साक्षत्कारी हदन -दबुििोंके -रक्षक श्री गजानन म ाराज बिंक्िािके घर र ने िगे। दरूदरूसे भततगण म ाराजकी चरण ििंदनाको आत।े जैसे -ज ाूँ मध ु ोता ै ि ाूँ मक्षक्षका जमती ी ै उनको र्नमिंबत्रत करनेकी आिश्यकता न ीिं पड़ती। एक हदन की कथा ै कक, म ाराज आनिंदपिूिक अपने आसनपर बठेै थे। ि प्रभातका समय था। पिूिहदशा आरतत ो गई थी। पक्षीगण िकृ्षोंपर ककिबबिा ् कर र े थे। िधृ्दगण शय्यापर बठैकर नामस्मरण कर र े थे। शीति -मिंद पिन ब र ी थी। कुतकु् उ्च स्िरसे ध्िर्न कर र े थे। उदयाचिपर भगिान नारायण को उहदत ोता देख अिंधकारने गुिाओिंकी शरण िी। ित्स -क्षीरपानके लिये गायोंकी ओर ुिंकार र े थे। सौभानयिती ग्स्त्रयाूँ - सम्माजिनमें व्यस्त थी। ऐसे रम्य समयमें शगेाूँिमें एक साध ूगजानन म ाराजके दशिनको आया। य गुसाई सरपर कषाय गचिंधी िपे्े था, उसीप्रकार एक झोिी बायें काूँखमें थी। मगृ चमिका िपे्ा पीठपर बूँधा था। ऐसा य गुसाई एक ककनारे बठैा था। म ाराजके दशिन के लिये अपार भीड़ िगी थी। ऐसी ग्स्थतीमें मझु ेम ाराज के चरण कमिोंका दशिन असम्भि ै। ऐसा विचार इस गुसाईके मनमे आया। समथिजीकी कीर्ति मैंने िाराणसी में सनुी और म ाराजको भिंग चढानेका सिंकल्प ि ाूँ ककया था। िेककन य ाूँ मेरा सिंकल्प परूा ोना कहठन िगता ै। य ाूँ सब

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 22

    धनिान और प्रर्तग्ष्ठत िोग ै। उसमें मेरी याद क ाूँ? य ाूँ शािंभिीका कोईभी पे्रमी न ीिं हदखता। सो मैं अपनी मनोकामना ककससे क ूूँ? सामान्यतः ग्जसको जो िस्तु वप्रय ोती ै ि अपने इष््को ि ी चढ़ानेका सिंकल्प करता ै। ऐसे अनेक विचारोंसे गुसाई म ाराजके दशिनको उत्किं हठत ो र ा था। उसका सिंकल्प म ाराजने जान लिया और िोगोंसे बोि,े अरे उस िाराणसीके गुसाईको िे आओ। य सनु उसे अत्यानिंद ुआ। उसने मनमें विचार ककया कक ये बत्रकािज्ञ सिंत ै। मेरे मनका सिंकल्प इन् े ज्ञात ो गया। ज्ञानेश्िरीके छठे अध्यायमें ज्ञानेश्िर म ाराजने योगीकी मह माका िणिन करते समय क ा ै कक स्िगि िोककी कथायें भी योगी जान िेता ै। इस बातकी प्रत्यक्षानभुतूी आज मझु े ो गई। ये बत्रकािज्ञ म ात्मा धन्य ैं। बताये बबना मेरा सिंकल्प ये जान जायेंगे। इसको स्पष्् ोनेमें अब ब ुत थोड़ा समय बाकी ै। िोगों द्िारा गोसाईको िाकर म ाराजके सामने खड़ा करते ी म ाराजने क ा," झोिीकी पडुड़याूँ र्नकािो ग्जस पडुड़योंका रक्षण आपने वपछिे तीन मह नेसे ककया, उसे आज साथिक ोने दो'। सनुते ी गुसाई बािकोंकी तर गद्गद किं ठसे म ाराजके चरणोंमें िो्ने िगा। म ाराजने क ा, 'ठीक ै। अब उठकर बठैो और झोिीकी पडुड़याूँ र्नकािो। जब तुमने सिंकल्प ककया तब िज्जा न ीिं िगी और अब व्यथि अि ेिना करनेसे तया िाभ?' गुसाई बड़ा धतूि था। ाथ जोड़कर डरते डरत ेबोिा। भगिान, मैं झोिीकी पडुड़याूँ र्नकािता ूूँ तथा सिंकल्पपरू्ति करता ूूँ ककन्तु उसके लिये आप एक िरदान मझु ेदीग्जये। इस अज्ञानी बािकके बु् ीका सदैि आपको स्मरण र े। ग्जससे इस बािकका स्मरण र ेगा। म ैजानता ूूँ आपको बु् ीसे कोई प्रयोजन न ीिं। ककन्त ुइस बािकका स्मरणरूप इस बु् ीको स्िीकार िीग्जये। भतत ग्जसप्रकारकी इ्छा करते ै, देिता उसकी पतूी करत े ै। आप अिंजनीका ितृान्त स्मरण कीग्जये। अिंजनी िानरी थी। उसने इ्छा की, साक्षात भगिान शिंकर मेरे गभिसे जन्म िे। उसकी प्राथिना स्िीकारकर भगिान शिंकर -अिंजनीके गभिसे म ारुद्र नमुानके रूपमें प्रक् ुए। ि ाूँ िानर भी आड़ ेन ीिं आया। आप तो साक्षात कपूिरगौर भगिान शिंकर ी ै और य बू् ी आपको वप्रय ै। अन्य जनोंको यद्यवप य व्यसन ै तथापी

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 23

    आपके लिये य ज्ञानिल्िी ै। य आपको भषूण ै। आप इसकी अि ेिना न करें। म ाराज ककिं गचत असमिंजस में पड़ े ककन्त ुमाता जैसे बािकके ्ेढ़ेमेढ़े ठको परूा करती ै िसेै ी म ाराजने ूँसकर क ा, ठीक ैं। गसुाईने बु् ी र्नकाि कर म ाराजके ाथपर रखी। गुसाईने उसे धोकर गचिममें भरकर एििं जिाकर म ाराजको वपिाई। इस प्रकार कारण सह त मैंने बु् ीकी कथा क ी। आप िोक उसका विचार करे (इसीलिये प्रर्तज्ञा -िश म ाराज गचिम पीत ेथे। )कुछ हदन गुसाई शगेाूँिमे र ा और अपनेको कृतकृत्य मानकर रामेश्िर दशिनके लिये चिा गया। य ी कारण ै की समथिको गािंजाकी प्रथा पड़ी। ककन्तु ि िरके कारण थी ना की व्यसनाधीनताके कारण। म ाराज म ान विभतूी थे। कमिपत्र जैसे जिमें र कर भी अलिप्त र ता ै (पद्मपत्रलमिाम्भसा गीतािं) िसेै ी म ाराज व्यि ारमें र ते ुऐ भी अलिप्त थे। कभी कभी िे शदु्ध स्िरमे उदात्त -अनदुात्त- स्िररत सह त िेद ऋचाओिंका उ्चारण करत ेथे। कभी उसका नामभी न िेते थे। िेद ऋचाओिंको सनुकर िहैदक ब्राह्मण साशिंक ो जात ेथे और अनमुान करते थे, कक गजानन म ाराज ब्राह्मण थे। कभी कभी कसे ुये गायकके समान एक ी पद अनेक रागोंमें म ाराज गा कर बतात ेथे। "चिंदन चािि बिे की पतीया " इन पदोंपर म ाराजको अत्यिंत प्रेम था। आनिंदमे आकर िे इन पदोंका गायन करत।े कभी गणगण का भजन करते, कभी मौन धारण करत ेऔर कभी र्नश्चषे्् ोकर शय्यापर पड़ ेर ते। कभी पागि जैसे व्यि ार करत।े कभी जिंगिोंमें भ्कते र ते। कभी अचानक ककसी घरमें घसु जाते। अस्तु। । शगेाूँिमें एक जानराि नामक प्रलसद्ध देशमखु र ता था। उसका अग्न्तम समय आ गया शरीरमें रोगकी प्रबिता बढ़ गई। ि अत्यिंत दबुिि ो गया। िदै्योंके अनेक प्रयत्न करनेपर भी कुछ िाभ न ीिं ुआ। िदै्योने उसकी नाड़ी देखकर सम्बिंधीयोंको सिंकेत कर हदया की इनका बचना असम्भि ै। म िोगोंने ब ुत प्रयत्न ककये ककन्त ुउनकी तीिभरभी व्यथा न ीिं गई। अब इन् े र्नच ेकम्बिपर सिुा दीग्जये य ी ठीक ोगा। य सनुकर सगेसिंबन्धी अत्यिंत दःुखमे डूब

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 24

    गये। ि ेिोग क ने िगे ाय- ाय रे दैि! म िोगोंने कई देि देिता मनाये िेककन जानरािको उसका कुछ िाभ न ीिं ुआ। आणखर आप म िोगोंको छोड़ कर जा र े ो। सब प्रयत्न बेकार गये। िदै्योने ाथ ्ेक हदये ककन्त ुएक अिंर्तम उपाय सझु र ा ै। ि करके देखेंगे। बिंक्िािके घर एक साक्षात्कारी साध ू ै। ग्जनकी िज से शगेाूँि पिंढरपरू के्षत्र बन गया ै। साध ुके मनमें िानेपर उनके लिये कुछ असाध्य न ीिं। श्री ज्ञानेश्िर म ाराजने सग््चदानिंदको उठाया। जल्दीस,े समय न ीिं ै जल्दीसे कोई जाकर म ाराजसे प्राथिना करो य सनुकर एक सम्बन्धी बिंक्िािके घर गया और जानराि देशमखुकी अिस्था बतायी। आप कृपा करके म ाराजका चरणतीथि दीग्जये जो जानराि को अमतृ लसद्ध ोगा। ऐसा में िगता ै। बिंक्िािने क ाूँ, य मेरे बसकी बात न ीिं, मेरे वपताजीसे प्राथिना कररये, तद्नसुार उसने भिानीरामजीसे कीकत बताई। िे बड़ ेसज्जन थे भिानीरामने तत्काि एक पात्रम ेपानी भरकर म ाराजके चरणोंको छुिाया और प्राथिना की, म ाराज य चरणतीथि जानराि को देता ूूँ। म ाराजने गदिन ह िाकर सिंमर्त हदखाई। सम्बन्धीने तीथि िेकर जानरािको वपिाया। ग्जससे उनके गिेकी घरुघरुा ् बिंद ो गई। उन् ोंने ककिं गचत आूँखे खोिी और ाथ ह िाया। तीथिके प्रभािसे जानरािकी प्रकृतीमे िरक पड़ने िगा। य प्रमाण देखकर सारे नर -नारी आनिंहदत ो गये और सबको सत्परुूषका अगधकार ज्ञात ुिा। उसके बाद सब औषगधयाूँ िेना बिंद करके केिि तीथि ी िेते र े, ग्जससे जानराि आरोनयसिंपन्न ो गये। आठ हदनमे जानराि प िे जैसा स्िस्थ ो गया और भिानीरामके घर म ाराजके दशिनको आया। देणखये, सिंतचरणतीथि साधनद्िारा साक्षात अमतृ ो गया। ये केिि सिंत न ीिं अवपत ुकलियगुके साक्षात देिता ी थे। इस कथाको सनुनेंके बाद स जतया एक शिंका उद्भतू ोती ै कक सिंत गजानन म ाराज जैसे सिंत शगेाूँिमें र नेपर कोईभी प्राणी यमिोक न ीिं जाना चाह ये।

  • ॥ श्री गजानन विजय ग्रन्थ ॥ 25

    ककन्त ुय कुतकि ै, तयो�