धूपछ ांव [ य त्र सांस्मरण भ ग 3 ] · 2020-03-15 ·...

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प-छव [ य समरण भग 3 ] लसी देवी ततवरी बह दोपहर की ओर बढ़ रही थी अभी तक पेट प जा नही ह ई थी। हमने मददर के पास की द कान से हका-फ का भोजन मगवा लिया। इस समय कमरा गमी से तप रहा था। इतना कक जी बेचैन हो रहा था। योगेश ने हमारे लिए ऊपर ही एक बड़ा कमरा िे लिया था जजसम कई पिग बबछ सकते ह। हमारे लिए चार पिग बतर सदहत लमि गया था। पखा चि रहा था ककत वह भी गरम हवा उगि रहा था। हमने ातःकाि स खाये गये अपने कपड़े उठाकर रखा। आज की शाम आस-पास के दशशनीय थि को देखने का कायशम बनाया गया। स बह वािे ऑटो चािक मोद शमाश का नबर योगे श के पास था, उसे ब िलिया गया। हम िोग तीन बजे के िगभग तैयार होकर कमरे से बाहर नकिे। लिस चैकी के पास शमाश खड़ा लमि गया। ‘‘कधर चिगे सर जी’’ ? उसने योगेश से प छा। ‘‘आप यहा के रहने वािे ह , अपनी समझ से हम मथ रा दशशन करा दीजजए’’योगेश ने उसे वववास म िेते ह ए कहा। ‘‘ठीक है चलिए पहिे वाररकाधीश जी के मददर चिते ह ’’। उसने अपनेपन से कहा। ऑटो म बैठे हम मथ रा की सड़के उसके दोन ओर सजी द कान , जथे के जथे आते जाते दशशनाथी सब क छ देख रहे थे। वारकाधीश का मददर प रानी मथ रा नगरी म है। सड़क अधधक चैड़ी नही है। एक मोड़ पर शमाश ने हमे उतार ददया - ‘‘बस अब इसके आगे ऑटो एिाऊ नही है ’’। आप िोग पैदि चिे जाये या ररशा िि ’’हम िोग काफी द र पैदि चिे पता चिा कक मददर अभी एक किोमीटर द है। हमारी हाित देखकर योगेश ने दोन बच के साथ म झे ररशे पर बैठा ददया और

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  • धूप-छ ांव [ य त्र सांस्मरण – भ ग 3 ]

    तुलसी देवी ततव री

    सुबह दोपहर की ओर बढ़ रही थी अभी तक पेट पूजा नहीीं हुई थी। हमने मींददर के पास की दकुान से हल्का-फुल्का भोजन मींगवा लिया। इस समय कमरा गमी से तप रहा था। इतना कक जी बेचनै हो रहा था। योगेश ने हमारे लिए ऊपर ही एक बड़ा कमरा िे लिया था जजसमें कई पिींग बबछ सकते हैं। हमारे लिए चार पिींग बबस्तर सदहत लमि गया था। पींखा चि रहा था ककन्तु वह भी गरम हवा उगि रहा था। हमने प्रातःकाि सुखाये गये अपने कपड़ ेउठाकर रखा।

    आज की शाम आस-पास के दशशनीय स्थिों को देखने का कायशक्रम बनाया गया। सुबह वािे ऑटो चािक प्रमोद शमाश का नींबर योगेश के पास था, उसे बुिा लिया गया। हम िोग तीन बजे के िगभग तैयार होकर कमरे से बाहर ननकिे।

    पुलिस चकैी के पास शमाश खड़ा लमि गया। ‘‘ककधर चिेंगे सर जी’’ ? उसने योगेश से पूछा।‘‘आप यहााँ के रहने वािे हैं, अपनी समझ से हमें मथरुा दशशन करा दीजजए’’।

    योगेश ने उसे ववश्वास में िेते हुए कहा।‘‘ठीक है चलिए पहिे द्वाररकाधीश जी के मींददर चिते हैं’’। उसने अपनेपन

    से कहा। ऑटो में बैठे हम मथरुा की सड़के उसके दोनों ओर सजी दकुानें, जत्थे के जत्थे आते जाते दशशनाथी सब कुछ देख रहे थे। द्वाररकाधीश का मींददर पुरानी मथरुा नगरी में है। सड़क अधधक चड़ैी नहीीं है। एक मोड़ पर शमाश ने हमे ंींउतार ददया - ‘‘बस अब इसके आगे ऑटो एिाऊ नहीीं है’’। आप िोग पैदि चिे जायींंे या ररक्शा िे िें’’।

    हम िोग काफी दरू पैदि चिे पता चिा कक मींददर अभी एक ककिोमीटर दरू है। हमारी हाित देखकर योगेश ने दोनों बच्चों के साथ मुझ ेररक्श ेपर बैठा ददया और

    https://sahityasudha.com

  • स्वयीं अननता के साथ पैदि-पैदि आने िगे। हमन ेरास्ते में कई ऑटो देखे जो ननबाशध आना-जाना कर रहे थे। हमें शमाश पर गुस्सा आ रहा था। ‘‘हमें बेवकूफ बना रहा है िगता है, मैंने सोचा। गिी में जहााँ द्वाररकाधीश जी का मींददर है मैं अमन नमन के साथ खड़ी होकर अपने बेटे बहू की प्रतीक्षा करती रही। मींददर के बाहरी भाग का दशशन सुिभ था मेरे लिए। िगभग आठ फुट की कुसी पर श्री द्वाररकाधीश जी का भव्य मींददर ननलमशत है। ऐनतहालसक तथ्य है कक श्रीकृष्ण जन्मभूलम का मींददर जब औरींगजेब ने तोड़ ददया, तब उसके ववकल्प के रुप में गुजराती वैश्य श्री गोकुिदास पाररख ने असकुण्डा घाट के पास सन ्अठारह सौ चदैह पन्रह के िगभग इसका ननमाशण कराया। इस मींददर के पास पयाशप्त अचि सम्पवि है, मींददर के चारों ओर दकुानें हैं जजनके ककराये से द्वाररकाधीश जी की सेवा पूजा ननबाशध रूप से होती रहती है। मन प्रेम मग्न हो रहा था। बच्च ेसाथ थे इसलिए मैंने अपनी भावनाओीं को ननयींबित कर रखा था। मींददर में भीड़ बढ़ती जा रही थी। सीदढ़यों पर चप्पि, जूतों के अींबार िग गये थे। कुछ सुवेशी बुजुगश सीदढ़यों पर बैठकर इनकी सुरक्षा की जजम्मेदारी का ननवशहन कर रहे थे। जी उकता रहा था मेरे बेटे बहू दरू से नजर आये। हमने ननयमानुसार जूते, चप्पि सीढ़ी पर उतारे और माथा टेककर मींददर में प्रवेश ककया। किात्मक ववशाि द्वार पारकर हमने मींददर की स्थापत्य किा के दशशन ककये, अनेक मजबूत खींभों के ऊपर मध्य में ववस्ततृ मींडप है। जजसमें ववववध वणी किाकृनतयााँ एवीं शीश ेका काम देखकर मन वहीीं रम जाने का हो रहा था। हमारे सम्मुख द्वाररकाधीश जी महराज की श्याम वणी स्वणाशभूषणों, सुन्दर वस्िों से सुसजजजत मूनत श ववराज रही थी। प्रभु की शजक्त सम्पन्न चारों भजुाएाँ ददव्य आयुधों से सुसजजजत थीीं। उनकी बाईं ओर श्वते स्फदटक की रूकमणी जी की ददव्य प्रनतमा स्थावपत है। हमने नतमस्तक होकर ववश्ववपता एवीं ववश्वमाता के दशशन ककये। हमारे आगे पीछे बहुत से दशशनाथी थे, उन्हें भी प्रभु के दशशन की उत्सुकता थी, मन में द्वाररकाधीश की छवव बसाये हम िोग मींददर से बाहर आने िगे। पुजष्टमागीय गोसाई प्रभु की सेवा पूजा में सींिग्न थे। पाकशािा से क्षुधावधशक सुगन्ध आ रही थी, प्रभु के लिए भोग ननलमशत हो रहा था। हम िोग ररक्शें से वहााँ आये जहााँ शमाश को ऑटो के साथ छोड़ा था ‘‘अरे यार ! ऑटो ररक्शा सब तो आ जा रहे है तुम कैसे रुक गये’’। योगेश ने जैस ेमेरे मुाँह की बात छीन िी। ‘‘सर जी, मैं अभी अभी िखनऊ से आया हूाँ पुलिस वािे मााँ बहन एक करते हैं अपने से सहन नहीीं होता, होर िोगाींंे न ेसेदटींग कर रखी है, इसीलिए जाते हैं’’। शमाश ने अपनी वववशता स्पष्ट की। शमाश आगे हमें दसभुजी ववनायक मींददर, माता कािी जी के मींददर के दशशन कराता ववश्राम घाट िे आया।

  • दो वषश पहिे मैंने यमुनोिी जाकर यमुना जी के अवतरण का अद्भुत दृश्य देखा था। गगनचुींबी ऊाँ चाई से धगरता जि, अजग्नकुीं ड में उबिता पानी जजसमें कच्च ेचावि से भात बनाकर प्रसाद बनाया जाता है। दो वषश पहिे ही ददल्िी में यमुना नदी के दशशन कर रो पड़ी थी, वह गींदे से नािे जैसी ददख रही थी जैसे अपनी सुन्दर सी बेटी को ककसी ने ननदशयतापूवशक घूरे पर फें क ददया हो। मैंने सुन रखा था कक मथरुा में भी यमुना प्रदवुषत हो गई है। प्रदषुण रूपी कालियानाग यमुना जि को जहरीिा कर रहा है। प्रभ ुको कफर आना पड़गेा यमनुा का उद्धार करने, उम्मीद अच्छी नहीीं थी ककन्तु ववश्राम घाट पर जाकर देखा तो िबािब भरी श्यामवणी यमुना, उस पर तैरती सुसजजजत नौकाएाँ, नौका ववहार करते सैिानी, भीड़ भाड़, िोग सीदढ़यों पर बैठे यमुना जी की आरती की प्रतीक्षा कर रहे थे। वषाशऋत ु होने के कारण अथवा ककसी अन्य प्रबींध के कारण यमुना जी नीर आपूररत अपने भक्तों के मन में आनींद का सींचार कर रहीीं थीीं। पींड ेअपने रोजी रोजगार में सींिग्न थे, ‘‘आईये माता जी यमुना जी की पूजा कर िीजजए, बड़ी पूजा 2100 रू. में होगी सामान पूरा यहीीं स ेलमिेगा’’। हमने ववस्तार में न जाकर 101 रू. में साधारण पूजन ककया। दक्षक्षणा देकर पींड ेमहराज को सींतुष्ट ककया। ववश्राम घाट पर बने यमुना जी के मींददर के दशशन कर मैंन ेयमुना जी के उस पार देखने का प्रयास ककया, एक ववशाि द्वार दृजष्टगोचर हुआ, धींं ुधिा सा। पता चिा कक यहीीं से वसुदेव ने नवजात पुि के साथ यमुना पार कर उसे गोकुि पहुाँचाया था। बाद में कीं स वध के पश्चात ्कृष्ण ने यहीीं ववश्राम ककया था। इस घाट का पौराणणक महत्व समझ में आया। उस पार गोकुि बसा था इस पार मथरुा। ग्रीष्म में जब जि कम रहता होगा िोग पैदि आवागमन करते होंगे। भरी बरसात में वसुदेव जी अपने हृदय के टुकड़ ेको िेकर पैदि ही यमुना पार हुए थे। उधर गोकुि, यहााँ असींख्य गायें, पािी जातीीं थीीं, दधू, दही, धतृ, कर के रूप में कीं स को दे ददया जाता था। छाछ गोपािों के दहस्से आती थी। माखन चोरी के बहाने कान्हा ने वास्तववक अधधकारी को उसका अधधकार ददिाया बचपन से मुझ े लशकायत थी कक गोववन्द अपनी मााँ से लमिन ेदबुारा नहीीं आये हैं। बड़ी कू्ररता की यशोदा जैसी ममतमयी माता को सन्तान ववयोग देकर। राधा की ववरह ववदग्ध पुकार उन्हें कणश गोचर क्यों नहीीं हुई ? यही स्वयीं को भक्त वत्सि कहते हैं? परन्तु अब उम्र के इस पड़ाव पर समझ में आ रहा है कक वनृ्दावन से कीं स के बुिाने पर मथरुा आन ेके बाद कृष्ण बिराम ककन झींझटों में फीं स गये थे ? कीं स का वध, नाना शूरसेन का अलभषेक उसके तत्काि बाद मगध नरेश जरासींध का आक्रमण जो कीं स का श्वसुर था िगातार 17 आक्रमण। प्रजा को बचायें या नगर को। धन बचायें या अपना स्वालभमान ! दरू ! बहुत दरू! समरु के अन्दर द्वाररका नगरी बसाना, सारी प्रजा, पशुधन, किा सींस्कृनत के साथ मथरुा से पिायन, राजनैनतक कारणों से बढ़ते वववादों की सींख्या, सोिह हजार एक सौ आठ पटराननयों

  • की व्यवस्था पथृक भवन, दास-दालसयों, नात-ेररश्तेदारों, सबका योगक्षेप वहन करत ेकृष्ण, बुआ के पररवार की पींचायत, भीषण महाभारत, मााँ ने तो पुि को पाि ददया उसका दानयत्व समाप्त, पुि तो बींध गया जींजीरों से। अब चाहे वह साधारण मानव हो या सबकी जींजीरे काटने वािा परब्रम्ह परमेश्वर हो, यदद सींसार में आया है तो िे िे आनींद इस िोक का भी। यशोदा के आाँचि की छाींव हेतु तरसता तो था उनका मन ! पररस्थनतयों न ेउनको वेणु िेकर वन में भागने से रोक ददया। सब कुछ तब अधधक समझ में आया जब वपताजी की बीमारी के समय मैं चाहकर भी उतनी सेवा न कर सकी जजतने के वे अधधकारी थे। पररजस्थनतयों ने जाि बबछाया चहार दीवारी की एक दीवार अपने आप धगर गई, जो अन्दर ही अन्दर मन को डराने िगी ‘‘कहीीं वपताजी के प्रयाण का समय तो नहीीं आ गया’’? नहीीं....नहीीं..... इस अशुभ दीवार को कि ही ठीक करा दूाँगी। ईट सीमेन्ट, रेत, मजदरू, सब तरफ दौड़ो, वपताजी की तरफ दौड़ो! क्या कर रहे हैं? सो रहे है।, कपड़ ेबटोर कर पिींग पर इकट्ठा कर लिया है। यह क्या नतरछे हो गये हैं’’। सांीधा कर दूाँ, चादर ठीक कर लसर के नीच ेतककया िगा दूाँ , चादर ओढ़ा दूीं ! ...हााँ अब उधर देखूाँ, भोजन का क्या हुआ....अरे तकदीर की मार ! रोज भोजन बनाने वािी भोजन नहीीं बना रही है इन ददनों, ककसी के बाप का ठेका थोड़ ेही िे रखा है, ककसी ने’’? और भी कतशव्य हैं पनत उम्रदराज, बच्च,े नौकरी, व्यवसाय वािे, भोजन के बबना ककतने ददन चिेगा ? अरे... घींटे भर हो गया क्या कर रहे होंगें वपताजी? चक्कर धधन्नी बन गयी थी पूरी तरह। ‘‘अब तो िगता है, सब कुछ छोड़कर उनके साथ ही रही होती तो ककतना अच्छा िगता उन्हें’’ ? मोहन के साथ तो पूरे ववश्व की समस्यायें थीीं अब ककस मुाँह से उन्हें ननमोही कहूाँ ? हम िोग आरती के समय तक नहीीं रुक पाये शमाश आना-कानी कर रहा था, हम िोग भी पुण्य िाभ से अधधक मथरुा के भूगोि से पररधचत होने के आकाींक्षी थे अतः हम वहााँ चि पड़ ेजहााँ शमाश ऑटो िेंेकर खड़ा था, चाय, कां फी की आवश्यकता अनुभव हो रही थी, गलियों में घुमते मुड़ते मुख्य मागश पर पहुाँच।े उस समय तो मन बड़ा णखन्न हुआ,जब बड़ ेसुन्दर-सुन्दर मींददरों एवीं भवनो को भग्नावथा में देखा पर अब याद आ रही है, बाढ़ के कारण ये भवन टूटे होंगे, केदारनाथ, गींगोिी, यमुनोिी का प्रियकारी जि आणखर मैदानों सें होकर ही तो सागर सखा से लमिने गया होगा?

    एक छोटे से ठेिे में दोहरे बदन के गौराींग बुजुगश बैठे थे माथे पर रक्त चींदन का नतिक शोभा पा रहा था। चहेरे की रींगत देखकर िगता था हवा के स्पशश से ही रक्त छिक पड़गेा। उन्होंने िक-दक सफेद रींग की धोती और बींडी पहन रखी थी। सामने स्टोव्ह के साथ ही चाय बनाने का सामान रखा था।

  • ‘‘भैया, कां फी चाय लमिेगी’’ ? मैंने सकुचाते हुए पूछा। ‘‘हााँ क्यों नहीीं ? ककतने बनाऊाँ ’’ उन्होंने सहज ढींग से पूछा। ‘‘एक कां फी, चार चाय’’। मैंने बताया। ‘‘मााँ! िगता है कहीीं के महींत हैं, बेच रहे हैं चाय’’ मुझ जैसे ही ववचार योगेश के मन में भी उथि पुथि मचा रहे थे। ‘‘सब गोववन्द की माया है बेटा ! यहााँ के लभखाररयों पर भी उनकी ववशषे कृपा सदा रहती आयी है। ये चाय से ही इतना कमा िेते होंगे कक आराम से योगक्षेम का ननवशहन हो जाय’’। मैंने धीमे स्वर में कहा। पहिे उन्होंने मुझ ेकां फी का कुल्हड़ पकड़ाया, कफर सभी को चाय दी। चाय कां फी बेहद स्वाददष्ट थी, हमने नवीन स्फुनतश का अनुभव ककया। इसके बाद हमने अपने ठहरने के स्थान अथाशत ्अन्तराशष्ट्रीीय धमशशािे का रुख ककया। िींबी यािा से हम सभी थके हुए थे। अतः नगर का भ्रमण करते हुए रास्ते से ही कुछ खाते पीते वापस आये। राबि के प्रथम प्रहर तक हम िोग जन्मभूलम के पास पहुाँच गये थे। मींददर से सींध्या आरती की पावन ध्वनन गूींजजत हो रही थी। आज का ददन गलमशयों की भाींनत गमश रहा, सारा कमरा गमी से तप रहा था। पींखे की हवा भी आग उगि रही थी। कफर भी हम िोग कुछ देर िेट गये। अननता एक कुशि गहृणी है उसने बच्चों को कुछ णखिाया-वपिाया मुाँह हाथ धुिाकर आराम करने को कह ददया। ‘‘सोना तो रोज है, प्रभु के साननध्य में चिना चादहए, ऐसा सोचकर मैंने एक बार पुनः स्नान ककया, हृदय की थािी में भावों के पुष्प सजाये अकेिी ही मींददर की ओर चि पड़ी। इस समय पींजक्त स्थि िगभग खािी ही था, मदहिाओीं की ओर जाकर मैंन ेमोबाईि, केमरा, आदद जमा करा ददया। मदहिा पुलिस की आपविजनक जााँच बरदास्त की और अन्दर प्रववष्ट हो गई। इस समय मन प्रातः की भााँनत व्यग्र न था, आराम से एक-एक सींरचना देखने, एक-एक मूनत श की आाँखों में झााँकने का ववचार था मेरे मन में। केशवदेव के दशशन करते हुए मैंने मााँ महामाया, गभशगहृ, तथा, भागवत ्भवन को नयन भरकर देखा। इतनी महान ्पुण्यभूलम ने जब इतने बुरे ददन देखे तो मनुष्य क्या है ? आक्रान्ता इस बात से लभज्ञ थे कक मनोबि टूट जाने से आदमी जजन्दा रहते हुए भी मुदाश हो जाता है इसीलिए अवतारों के जन्म स्थान भग्न कर वहााँ अपने धालमशक स्थि बना लिए, केशवदेव मींददर के सामने एक बजुगशवार जन्मभूलम से सींबींधधत सादहत्य बेच रहे थे, मैंने अवविींब उन्हें क्रय कर लिया, पररसर का एक-एक अींग दधुधया रोशनी से जगमगा रहा था। सभी मींददरों से आरती प्राथशना आदद की ध्वनन मन मोह रही थी। ऐसे समय कोई भजन भी तो याद नहीीं आता जजसे गाकर अपन ेभाव व्यक्त ककया जा सके।

  • चतैन्य महाप्रभू के दशशन करते मैंन ेभागवत ्भवन में प्रवेश ककया। यहााँ की व्यवस्था, भव्यता एवीं पवविता मन को आनींद ववभोर करने वािी थी। स्वामी अखींडानींद सरस्वती जी के सभापनतत्व में मथरुा के युवकों ने 15 अक्टूबर 1953 से श्रमदान के रूप में कटरा केशवदेव के पुनरूत्थान का कायश प्रारींभ ककया। वषों श्री बाबूिाि बजाज तथा फूिचींद खण्डिेवाि के नेततृ्व में कायश चिता रहा। बाद में गभशगहृ तथा भव्य भागवत ्भवन का पुरूद्धार व ननमाशण कायश प्रारींभ होकर फरवरी 1982 में पूणश हुआ। यह भागवत ्भवन भारतीय नीनत, धमश, सींस्कृनत और दशशन का साकार ववग्रह जान पड़ता है। यहााँ प्रवेश द्वार पर दाईं ओर गद्दी िगी है जजस पर पींडडत जी बैठे थे व भक्तों को वाींनछत जानकारी प्रदान कर रहे थे। बाईं ओर श्री बिराम, सुभरा, श्री जगन्ननाथ का काष्ट ववग्रह जगन्नाथ पुरी पहुाँचने की अनुभूनत प्रदान कर रहा था। इन ववग्रहों के सम्मुख ही भावपूणश मुरा में चैतन्य महाप्रभू ववराजमान हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार ववग्रह का ननमाशण उसी भगवत ्कृपा पाि कारीगर ने ककया है जो पुरी में ववग्रह ननमाशण करता है। काष्ट भी ननम्ब का है। मध्य में श्री राधा कृष्ण युगि सरकार का मानवाकार श्वेत सींगमरकर ननलमशत, अद्भुत लसींगाररत ववग्रह ववराज रहा है जजसके दशशन माि से िय तापों का शमन हो जाता है। मैं आाँखें फाड़ ेववश्व माता-वपता के दशशन कर रही थी जो पनत-पत्नी नहीीं हैं परन्तु उनका प्रेम, उनकी सेवा, उनकी शजक्त, उनके ववचार इस कदर घुिे लमिे हैं कक दोनों को पथृक करना असींभव है। एक भजन में ठीक ही गया है - राधा रानी, लमसरी तो स्वाद हैं बबहारी राधे, राधे राधारानी गींगा तो धार हैं बबहारी। राधारानी फूि हैं तो खशुबू बबहारी।। राधा रानी जजींदगी तो प्राण है बबहारी।। राधे, राधे अतुिनीय मैिी, अतुिनीय सामींजस्य जहााँ लभन्नता चाहे जैसी भी हो, िैंधगक हो, चाहे जानत, धमश, वगश आदद की हो अपना अजस्तत्व खो देती है। राधा रानी, कान्हा से बड़ी थीीं, ररश्ते में मामी िगती थीीं सहज सख्य भाव ववकलसत करने वािा ररश्ता था दोनों में, पुतना, अधासुर, वकासुर, कालिया मदशन, गोचारण, माखन चोरी आदद िीिाओीं की सहज समधथशका, वे भी मानतीीं थीीं कक आतताई का राजय समाप्त होना चादहए। आत्मरक्षा में वध पाप नहीीं, जि प्रदषुण करने वािेाीं पयाशवरण को हानन पहुाँचाने वािों का ववरोध हो। गोपािक समुदाय के बच्चों का दधू माखन पर पहिा अधधकार हो। गोवधशन पूजा के समय उन्होंने सम्पूणश गोकुि वालसयों को उत्सादहत कर पशु, अस्ि-शस्ि, जीवनोपयोगी वस्तुओीं के साथ गोवधशन की छाया में पहुाँचाया जजसे मोहन ने अपनी कननजष्टका पर उठा रखा था। दसूरे हाथ में बाींसुरी थी, जो होठों से िगकर

  • मोहक धनु उत्पन्न कर रही थी, गोकुिवालसयों के लिए तो यह उत्सव और आनींददायक हो उठा था। कीं स के कपटपूणश आमींिण पर सबके साथ राधा ने भी अश्रपुूणश नेिों से उन्हें ववदा ककया। न मागश रोका, न प्रेम की शपथ दी, न भिा-बुरा कहा बस मोहन के कत्र्तव्य का मागश प्रशस्त ककया। उनके जाने के पश्चात ्ववरहदग्ध गोप गोवपयों, माता यशोदा, नींदबाबा को भााँनत-भााँनत से धयैश देती, उनकी सेवा में सींिग्न रही। अपनी पीड़ा िेकर नहीीं बैठी बजल्क मोहन के वप्रयजनों में उन्हें देखकर जीने िगी, उनके एक-एक वववाह की सूचना पाकर मींगिदीप जिाये, एक एक सफिता पर हषश के आाँसू बहाये, राधा रानी ने अन्य जस्ियों की भाींनत, पत्नी की गररमा या मोहन के सींतनत की माता होने का गवश, आधथशक, सामाजजक सुरक्षा और तो और प्रेम के प्रनतदान की वाींछा भी नहीीं की। माता कीं स से िलसत थीीं, उन्हें पुि से अपने उद्धार की अपेक्षा थी, यहााँ तक महारानी रूक्मणी ने भी अवाींनछत पनत से सुरक्षा हेतु श्रीकृष्ण के लिए प्राथशना पि भेजकर उन्हें आमींबित ककया था। कान्हा ने वववाह के बाद सभी के साथ उधचत व्यवहार ककया, उनकी अपेक्षाएाँ पूरी करते रहे। एक अच्छे पिु, एक अच्छे, पनत, वपता, राजय सींरक्षक, धमश सींस्थापक, अलभन्न सखा, युद्ध नीनत के पींडडत, योगेश्वर श्री कृष्ण। परन्तु कृष्ण को समझने वािी तो राधे जी ही थीीं, तभी तो उनका स्थान कान्हा के पाश्र्व में है। कोई अन्य स्िी इस स्थान की अधधकाररणी नहीीं हो सकी। न माताएाँ, न धमश पजत्नयााँ, राधा जी के त्याग ने उन्हें कृष्णमय बना ददया, जहााँ ववयोग का कोई स्थान नहीीं था। स्िी पुरूष सख्य को शीषश स्थान पर स्थावपत करने की यह एक अद्ववतीय कथा है। जजसने कुछ नहीीं चाहा उन्हें सबसे ऊाँ चा स्थान ददया भक्तों ने, भजक्त का साकार ववग्रह राधा रानी, जजनके बारे यह टीका, ये बबजन्दयों की सजावट, दोनों के मध्य वेणु ! कृष्ण के कीं धे की ओर ककीं धचत झुका राधा जी का लसर ! िगता है जैसे, जीवन सींग्राम में ववजयी, दघुषश योद्धा जो ववजय से सींतुष्ट ककन्तु अववराम सींघषश से स्िथ ककीं धचत ववश्राम हेतु अपने परम आश्राय का सहारा िे रहा हो। मेरा मन िोट-िोटकर राधा रानी के प्रेम का, उनके त्याग का, उनके समपशण का गुणगान करना चाह रहा था, जजह्वा मूक थी, आाँखें नम थीीं, कभी आाँखें खोिकर ददव्य छवव का रसपान करती कभी नैन पट बन्द कर उन्हें मानस में बींदी बनाने का असफि प्रयास करती। आरती हो रही थी, श्री ववग्रह को इतना बड़ा हार पहनाया गया कक घुटनों से नीच ेतक आ रहा था। िोग झाींझ मींजीरे के साथ आरती गा रहे थे - आरती कुीं ज बबहारी की, धगरधर कृष्ण मुरारी की, जहााँ से प्रकट भई गींगा, किुष किी हाररणी श्री गींगा,शींख, घडड़याि की ध्वनन मुझ ेककसी अन्य िोक में िे जा रही थी। भजक्तमय वातावरण में िग रहा था जैसे साक्षात ् राधे कृष्ण मुस्करा रहे हों सम्मुख। अपने सींबींध में मेरे ववचारों से अवगत

  • होकर। जब आरती और जयकारे का कायशक्रम सम्पन्न हो गया तब मुझ े वववशतः अन्य श्रद्धािुओीं के लिए स्थान ररक्त करना पड़ा। केन्रीय ववग्रह के दादहनी ओर श्री सीता राम - िक्ष्मण जी ववराजमान हैं। श्री राम मींददर के एकदम सामने भक्त लशरोमणण पवनपुि करबद्ध ववराज रहे हैं जजनके समान भजक्त का अन्य उदाहरण दिुशभ है। बाल्यकाि में नाच-नाचकर प्रभू को ररझाया, जहााँ वाहन की आवश्कता हुई पीठ पर चढ़ा लिया, वानरराज सुग्रीव से मैिी स्थावपत करायी, जजसकी सेना, बबना आवास, भोजन के प्रभु कायश हेतु तत्पर हुई। सीता की खोज से िेकर प्रबि शि ु रावण, मेघनाथ, कुीं भकणश से रक्षा की युजक्त के सफि प्रयोगकताश, सींजीवनी िाकर िक्ष्मण के प्राणों की रक्षा करने वािे, नागपाश से छुड़ान ेके लिए गरुड़ को िाने वािे, अदहरावण के बींधन से दोनों भाइयों को छुड़ाने वािे वीर हनुमान ्राजयालभषेक के पश्चात ्श्रीराम के चरणों में रहकर उनके राजय, प्रजा और वींश का सींरक्षण करते रहे, अपने लिए तो जीवन का एक पि भी व्यतीत नहीीं ककया। तभी तो माता जानकी ने ‘अजर-अमर सुत होहू तुम्ह, बिबुद्धध ननधान’ का वर दे ददया। हम उनकी कृपा के द्वारा ही प्रभु तक पहुाँच सकते हैं क्योंकक प्रभु श्रीराम कहते हैं पहिे भक्त तब भगवान।् आगे भगवान ् केशवेश्वर का अद्भुत पारदलिींग भक्तों के दशनाथश स्थावपत है वनजस्पनतयों के रस को ठोस ककया गया है, जजससे इस लिींग को आकार ददया गया है। भोिेबाबा की कृपा के बबना अवाींनछत का सींहार न राम कर सकते थे न कृष्ण क्योंकक वे ही तो महाकाि हैं, जो ववषमताओीं को नष्ट कर नवीन ननमाशण का मागश प्रशस्त करते हैं। कक्ष धीरे-धीरे ववरि होता जा रहा था। आरती के पश्चात ्प्रसाद िेकर िोग अन्य दशशनीय ववग्रहों की ओर जा रहे थे। मुझ ेिगा कक वविींब हो रहा है। मेरा पुि मेरे लिए धचजन्तत होगा। राबि भोजन की भी व्यवस्था करनी थी। घर तो था नहीीं जहााँ मेरी बहू मन भावन रसोई तैयार कर देती। मैं वापसी के लिए मुड़ी ककन्तु बार-बार मुड़-मुड़कर देख रही थी। धमशशािे आकर हमने हल्का-फुल्हा आहार लिया, बच्च े बहुत थके हुए थे, वे जल्दी सो गये। अननता को घर से ही सदी जुकाम था, यहााँ आकर और बढ़ गया था। वह दवा िे रही थी ककन्तु खाींसी थी कक उसे सााँस भी िेने नहीीं दे रही थी। एक नये स्थान पर राबि में मैं कुछ भी नहीीं कर पा रही थी। गमी के कारण कक्ष में रहना बड़ा कष्टप्रद था, मैं बरामदे में जािी वािी उस खिुी णखड़की के पास आकर बैठ गई जो एक छोर से दसूरे तक चिी गई थी, वहााँ स ेसामने का सब कुछ स्पष्ट ददखाई दे रहा था। कचनार की छाया के नीच ेबने चबुतरों पर अब याबियों का दसूरा दि आ चुका था, वे भोजन कर रहे थे। चेक पोस्ट पर

  • आगन्तुकों की जााँच हो रही थी। पुष्ट कृष्ण वषृभ पररसर में अिमस्त टहि रहा था। कचनार के सारे पिे जस्थर थे जैसे कुछ ववचार कर रहे हों। एक बूढ़ी सी मदहिा बड़ी तेजी से अपना ट्रीािी बगै लिए आई और झटपट एक चटाई डािकर बैग लसर के नीच ेिगाकर िेट गई। मैं अचींभे में पड़ी सब कुछ देख रही थी। इतनी सहजता से तो कोई आज के युग में अपने घर के आाँगन में भी नहीीं सोता होगा। मेरे मन में बार बार ववचार आ रहा थ कक मैं भी एक तककया िेकर जहााँ बैठी हूाँ वहीीं सो जाऊाँ , परन्तु सींकोच ने मुझ ेऐसा करने न ददया, शायद सोने चााँदी के आभूषणों के िुट जाने का भय हो या नीींद में शरीर अनावतृ हो जाने का, आणखर वह एक सावशजननक धमशशािा थी। कभी अपने पररवार की याद आकर मन के द्वार खटखटा जाती, कभी बी.ई.ओ. साहब की आवाज हृदय छेद जाती ‘तुम्हें देखकर मुझ ेसररम आती है, ककसने चुन लिया तुम्हें राष्ट्रीपनत पुरस्कार के लिए’। कभी पनत की प्रसन्नता भरी आाँखें याद आतीीं, जजन्होंने मेरी तरक्की के लिए अपने सुखों का त्याग ककया, मुझ ेलशखर पर देखकर उनकी दशा का वणशन मुजश्कि हो रहा था और बच्च ेजो अनजाने ही रूष्ट हो गये थे, मेरे मन में पीड़ा का सींचार हो रहा था, घड़ी-घड़ी रूप बदि-बदिकर। जागते झपकी िेते ही रात कटी। ददनींंाक 1-9-2014 प्रातः पााँच बजे से ही मींददर से आने वािी भजन की ध्वनन ने जैसे मुझ ेपुकारा, अननता को कुछ समय पूवश ही थोड़ा आराम लमिा था, वह सो रही थी, मैं जल्दी उठी ननत्य कक्रया से ननविृ हो पुनः मींददर में पहुाँच गई। इस समय मींददर में कुछ लभन्न अनुभूनत हो रही थी, जयादा भीड़ भाड नहीीं थी, सूयशबािाएाँ आदहस्ता आदहस्ता धरती पर पग रख रही थीीं, शायद उन्हें डर था कक उनकी पग ध्वनन सुनकर पुष्पों का रसापान करते भ्रमर उड़ जायेंगे। मींददर की स्वच्छता का कायश पूणश हो चकुा था। चटाइयााँ बबछ गईं थीीं। आज मैं पुनः केशवदेव मींददर की तरफ वािी सीदढ़यों से ही ऊपर चढ़ी। सीदढ़यों के दादहनी ओर 30 ग 50 फीट की एक ववस्ततृ छत है, छत पर िगे बगीच ेसे जुड़ी हुई, वहााँ का दृश्य देखकर मैं आनींद से बाविी हो गई। हजारों की सींख्या में स्िेटी रींग, पूींछ पर कािी सफेद धाररयों वािे कबूतर वहााँ बैठे हुए थे। बगि में ही कबूतरों का दाना बबक रहा था। जैसे ही कोई दाना फें कता कबूतर एक साथ पींख फड़फड़ाते आकाश में उड़ जाते। दसूरे ही पि छत पर उतर आत,े झटपट दाना चगुते, ककिो दो ककिो दाना चगुने में उन्हें एक लमनट भी नहीीं िगता, कफर पींख फड़ फड़ाकर, कुछ वकृ्षेाीं पर, कुछ मींददरों की छतों पर और सबसे जयादा मजस्जद पर जाकर बैठ जाते। कुछ पि सब कुछ देख समझ कर मैंने भी कबूतरों को दाना डािा, उन्हें उड़ते देखा ‘‘ये ही अच्छे हैं, न मजस्जद बनाने के लिए ककसी मींददर को तोड़त ेहैं, न ककसी के दाने को अछूत का

  • समझकर खाने से मना करते हैं। इनके लिए दोनों बराबर हैं, ये ही ईश्वर के सच्च ेभक्त हैं।’ छत पर गेहूाँ की दलिया, जवार, बाजरा, जोन्धरी बबखरी हुई थी कबूतर आ रहे थे, खाकर उड़ रहे थे और िोग उनकी प्रसन्नता देखकर अपने जीवन में सखु-शाींनत का अनुभव कर रहे थे। मैं बड़ी देर तक देखती और सोचती रही, क्या क्या नहीीं समेटा है जन्मभूलम सींस्थान ने ? धमश, दशशन, सींस्कृनत, पयाशवरण, सेवा, धचककत्सा, ननराधश्रतों को आश्रय, किा का सम्मान, समदृ्ध वाचनािय, जहााँ इनतहास पुराण की दिुशभ पुस्तकें सींगदृहत हैं, बच्चों की पाठशाि,सब कुछ बड़ा अच्छा िगा देख समझकर, ये ही तो कुछ ऐसे सींस्थान हैं जजन्होंने दहन्द ूधमश को जीववत रखा हुआ है। मुझ ेअपने आप पर गवश हुआ कक मैं इन सबका एक दहस्सा हूाँ। समय का ध्यान आते ही मैं केशवदेव मींददर की ओर मुड़ गई। उस ददन प्रभु का गुिाबी रींग का लसींगार था मनमोहक छवव हृदय के आकाश में उतरती जा रही थी। कहीीं का दि था जो इस समय गा बजा रहा था, झूम झूमकर नतृ्य करन ेवािी गोपी, ततृीय लिींग की थी ककन्तु श्रृींगार ऐसा था कक शक करना मुजश्कि था। उसकी त्वरा देखकर ही भान होता था कक यह शजक्त स्िी सुिभ नहीीं है। कन्हैया तूने चनुरी मोरी लभगाई, िाख टके की अींधगया भीींग गई, अींचरा मोर रींगाई कन्हैया तूने चनुरी मोरी लभगाई उसका समपशण देख मन सींसार की सुध-बुध भूिने िगा था। कुछ मदहिाएाँ सामने चबुतरे पर बैठी गा रहीीं थीीं, मैं दरवाजे से धचपकी सब कुछ देख-देखकर अपना जीवन धन्य करती रही। आज गवाक्ष में एक युवा पींडडत बैठे हुए था, जजनका रींग गोरा, माथा ऊाँ चा, चहेरा गोि था। माथे पर बैष्णवी बिपुण्ड शोभा दे रहा था। वे दशशनाधथशयों को पींचामतृ तुिसी दि देते जा रहे थे। मेरे हाथ में एक पेज का कागज था, मैं पेन से कुछ आवश्यक जानकाररयााँ लिखती जा रही थी। पींडडत जी को प्रणाम कर जब मैंने उनसे कुछ पूछा तब उन्होंने अनत प्रसन्न होकर पूछा - ‘‘आप क्या लिख रही हैं ?’’ ‘‘जी महाराज! मैं एक िेणखका हूाँ यहााँ से जाने के पश्चात ् यािा सींस्मरण लिखूींगी इसीलिए जानकारी एकि कर रही हूाँ।’’ मैंने सींकोच सदहत अपना उद्देश्य स्पष्ट ककया। ‘‘अच्छा तो आप िेणखका हैं’’ ? मेरी पत्नी को भी लिखने का बड़ा शौक है, माता जी, मैं आपसे उनकी भेंट कराना चाहता हूाँ’’। उनके अींग अींग से उल्िास झर रहा हो जैसे।

  • ‘‘मुझ ेबड़ी प्रसन्नता होगी अपनी बहन से लमिकर, बताइये कब ऐसा सींयोग बनेगा’’ ? मैं भी उत्सुक हो उठी। ‘‘यदद समय हो तो आज ही बुिा िूाँ उन्हें पास में ही हमारा घर है।’’ ‘‘आज तो क्षमा करें , हमें आगरे के लिए ननकिना है। यदद समय रहते वापस आ गये तो शाम को लमिवा दीजजए’’। मैंने नम्रतापूवशक उिर ददया। ‘‘ठीक है मेरा नींबर नोट कर िीजजए सूचना लमिते ही मैं उन्हें बुिवा िूाँगा। आप िोग घर जाकर आराम से लमि िीजजएगा’’। उन्होंने स्वीकार कर लिया। उनका नाम कृष्ण बबहारी पाठक ज्ञात हुआ। उपिब्ध सूचनाएाँ सींगदृहत कर मैं बाहर ननकिी। इस मींददर के बगि में ही धगरीराज जी महराज का मींददर है। उस समय वहााँ पूजा अचशना हो रही थी। भक्त श्री गोवधशन जी की पररक्रमा के साथ आरती गा रहे थे। उनका ववग्रह श्वते सींगमरमर पर कािे पत्थर से बना है। पररक्रमा पथ बना हुआ है जजसकी पररक्रमा कर गोवधशन महराज की पररक्रमा का फि प्राप्त हो सकता है। पररक्रमा पथ में दीवारों पर प्रभु के गोचारण की िीिाओीं के धचि बने हुए हैं। मींददर के समक्ष एक छोटी सी पुष्प वादटका है, जजसमें भााँनत-भााँनत के पुष्प मुस्करा रहे थे। भौंरे नततलियााँ उनका मुख चींं ुबन कर गुनगुना रहे थे। मैंने पूजा में भाग लिया। इसके बाद महामाया मााँ के दशशन करते हुए गभशगहृ से होती भागवत ्भवन में आई। यहााँ भी इस समय राधे कृष्ण की आरती हो रही थी। भक्तगण वाद्य सींगीत में अपने कीं ठस्वर लमिा रहे थे। मैंने श्री ववग्रह की अनोखी सुन्दरता अपनी आाँखों में भर िी यह भवन आधनुनक भवन ननमाशण किा का अन्यतम ्उदाहरण है। 3 ग 3 की चड़ैाई, िींबाई वािे स्तींभों पर पूरी छत दटकी हुई है। स्तींभों पर अत्यींत उच्चकोदट की किाकारी दृष्टव्य है। सारी दीवारों पर देश भर के प्राचीन कववयों िेखकों, भक्तों एवीं अवतारों की सधचि कथाएाँ वणणशत है। रेखाधचिों के द्वारा ऐसी भाव व्यींजना अन्यि दिुशभ है। मुख्य द्वार की बाईं ओर मााँ जगदम्बा का मनोहर मींददर है। जजनकी एक झिक माि से ही प्राणी का उद्धार हो जाता है। मींददर की दीवार पर बाईं ओर राजा सुरथ और दायीीं और समाधध वैश्य की मूनत शयााँ स्थावपत हैं। खींभों के ऊध्र्व भाग में श्री कृष्ण िीिा की सुन्दर धचिकारी देखते ही बनती है। मधाई का ननत्यानींद पर प्रहार, रामानुजाचायश ननम्वाकाशचायश, माधवाचायश, कबीर, स्वामी रामदास, स्वामी रामतीथश, मधमुींगि सखा, स्वामी रामकृष्ण परम हींस, देवी महाकािी, महािक्ष्मी, महा सरस्वती के साथ ही सीता जी के भाई िक्ष्मीननधध और भाभी लसद्धध कुआरी, कमैनतन बाई, मीराबाई, शखबुाई, कन्नड़ रामायण के रचनयता कुमार बाजल्मकी, श्री नरहरर, तलमि रामायण के रचनयता कवव सम्राट कम्बन, उपेन्र भींज (उडड़या के भानुभक्त) आदद महान ्किाकार व्यजक्तयों के धचि देखकर अपने िेणखका होने पर गवश हो आया क्षण भर को

  • कक्ष के अींत में एक चबुतरा है, उस पर श्री जुगि ककशोर बबड़िा, महामना मदन मोहन मािवीय जी, हनुमान ्प्रसाद पोद्दार, अखींडानींद सरस्वती जी की आदमकद मूनत शयााँ रखी गईं हैं। जन्मभूलम के पुनरुद्धार हेतु जो तप इन महानुभावों ने ककया उसके लिए ववश्व भर के दहन्द ूइनके आभारी हैं। अब दशशन करते हुए मैं दसूरी दीवार पर बने धचिों के दशशन करती राधे कृष्ण मींददर की तरफ आने िगी। दीवारों पर, भक्त रैदास, गाींधी जी द्वारा कुष्ठ रोगी की सेवा, श्री दिािये एवीं व्याघ्रपाद, श्रीमती तुींग ववद्या जी वीणा वादन करती हुईं। हनुमान जी की प्रभु के ध्यान में ननमग्न मूनत श, राम वनवास के समय स्वयीं के वस्ि बुनत ेभरत जी धचबित हैं। पररक्रमा पथ में ताम्रपि पर लिणखत श्रीमद् भागवत ् के दशशन हुए। सब ओर से आकर रस से भरी राधा रानी के सामने खड़ी हो गई। आरती के पश्चात ्प्रसाद बींट रहा था। भक्तजन ढोि मींजीरे के साथ भजन गाने बैठ गये थे। आज हमे आगरे के लिए ननकिना है यह ध्यान आते ही मैंने स्वयीं को सचते ककया और जल्दी ही धमशशािे आ पहुाँची। यहााँ सब िोग तैयार हो चकेु थे। योगेश ने शमाश जी को पहिे ही फोन करके बुिा लिया था। नाश्ता आदद रास्ते में करने का ववचार कर, पानी की बोतिे और बबस्कुट के साथ हम िोग ववश्व के आश्चयाशंेंीं में एक, ताजमहि देखने आगरे के लिए ननकि पड़।े चेकपोस्ट के अन्दर ऑटो आना वजजशत था, इसलिए शमाश वहीीं खड़ा था। उसने समय से हमें रेिवे स्टेशन पहुाँचा ददया। ‘‘बेटा प्रभात को फोन कर दो कक हम मथरुा में उतर गये हैं, नाहक ही धचन्ता कर रहा होगा’’। डडब्बे में व्यवजस्थत बैठ जाने के बाद मैंने कहा। ‘‘मााँ मैंने कि रात ही उसे बता ददया था’’। टे्रीन ने गनत पकड़ िी, आजकि टी.वी. में जोधा अकबर सीररयि आ रहा है। मुझ ेयह इतना पसींद है कक कहीीं से भी समय पर आकर देख िेती हूाँ। झगड़ा करने से भी पीछे नहीीं हटती। टी.वी. पर सयाने और बच्चों का अधधकार रहता है। सयाने कक्रकेट मैच और समाचार के दीवाने हैं, बच्च ेकाटूशन के। इसके अलभनेता अलभनेिी दोनों ही महान ् किाकार हैं। सीररयि ऐनतहालसक दृजष्ट से भिे ही 99 प्रनतशत झूठ हो, उस समय की पररजस्थनतयों का धचिण बहुत ही सटीक कर रहा है। उसे देख-देखकर आगरा देखने की िािसा बिवती होती जा रही थी। यूाँ तो फरवरी 2012 में एक बार आगरा घूम गई थी, जब ववश्व पुस्तक मेिे में मेरी पााँच पुस्तकों का ववमोचन और मेरा सम्मान हुआ था, परन्तु उस समय हम िोग गुड़गााँव से आगरा कार से गये थे। पूरे रास्ते मुझ ेउजल्टयााँ होतीीं रहीीं, शरीर का हाि-बेहाि था, न तो ककसी प्रकार की जानकारी नोट कर पाई और न वह सुखानुभूनत प्राप्त कर सकी जो मुझे आगरे का ताज देखकर लमिनी थी। इस बार इसीलिए हमने टे्रीन की यािा पसींद की।

  • उस आगरे को ददि में बैठाना चाहती थी जहााँ ‘सूयश’ के समान तेजस्वी कवव सूरदास ने जन्म िेकर श्री कृष्ण की बाि िीिाओीं का जीवन्त वणशन ककया, ऐसा कक िोगों को उनके नेिहीन होने पर सींदेह होता है। उनके पद आज भी वात्सल्य रस की धार बहा रहे हैं। उनके कारण ही सादहत्य के नौ रसों में एक दसवा रस बात्सल्य रस जुड़ गया। कैसी मेधा होगी भइया तुम्हारी, जजसके आगे रामचररत के रचनयता महाकवव तुिसीदास चााँद जैसे कम प्रकाशवान कहे गये ?

    कवव रत्न सत्यनारायण की नगरी आगरा, राजा िक्ष्मण लसींह सदि लमश्र, िल्िू िाि जी जजन्होंने पहिी दहन्दी कहानी की रचना करने का गौरव प्राप्त ककया। महाकवव गींग ने यहााँ अपने काव्य की धारा प्रवादहत की, आधनुनक युग में भी आगरा की पुण्यभूलम ने कई सादहत्यकारों को जन्म ददया जैसे - बाबू गुिाब राय,कुीं अर हनुमन्त लसींह, रघु पींडडत शींकर शमाश, सोम ठाकुर, शैि चतुवेदी आदद। ‘‘क्या कभी उनकी तरह मुझ ेभी सादहत्य जगत ्में स्थान लमि पायेगा’’? सींकोच सदहत प्रश्न उठा मेरे मन में। डडब्बे में बैठने का स्थान लमि गया था, मेरे दोनों बच्च ेखेिने िगे थे। नमन अपने स्कूि के बाि गीत गान ेिगा था। मैं णखड़की से बाहर भू-रचना,वनस्पनतयों आदद का अध्ययन कर रही थी।खेत समति और जयादातर हरे-भरे ददखाई दे रहे थे। गन्ने की खेती जयादा ददखाई दी। बरसात का समय था इसलिए हररयािी थी। कि कारखाने थोड़ी थोड़ी दरू पर ददख जाते थे। मथरुा से महज 57 ककिोमीटर दरू आगरा, घींटे भर से कुछ अधधक में हम िोग आगरा केन्ट पर उतरकर इधर-उधर के वातावरण पर दृजष्ट डाि रहे थे। कोई बहुत बड़ा स्टेशन नहीीं ददखा, ककन्तु ऑटो की सींख्या बहुत जयादा थी। हमन ेआगरा के प्रमुख दशशनीय स्थिों को घूमने के बाद सींध्या काि स्टेशन तक छोड़ने के लिये ऑटो कर लिया।खाने-पीने िायक कुछ खास नहीीं ददखा। दरअसि हम िोग मुख्य स्टेशन छोड़कर उतरे थे, जहााँ से सीदढ़यााँ चढ़े उतरे बबना कुछ कदम चि कर ही हम ऑटो स्टेण्ड पर पहुाँच सकते थे। बच्चों को बबस्कुट आदद देकर अननता ने मना ददया।

    क्रमश:

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