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उत्तरांचल

देवप्रतिमायें

कुमाऊँ मंडल में मूर्ति शिल्प अपने भव्य रुप से मौजूद रहा है।  यहाँ प्राप्त प्रतिमाओं में से अधिकांश मंदिरों के गर्भगृह में पूजित है।  कुछ प्रतिमायें गाँवों में स्थानीय लोक देवताओं के मंदिर में रखी हुई है।  कुछ अपने मूल स्थानों से उठाकर अन्य स्थानों पर लाकर रख दी गयी है।  कुछ प्रतिमायें छायादार वृक्ष के नीचे किसी लोक देवता/ग्राम देवता के नाम से पूजी जा रही है।  कुछ खंडित प्रतिमायें किसी गुहा, शैलाश्रय के नीचे रखी दी गयी हैं।  वैसे भी पूजन की दृष्टि खंडित प्रतिमाओं का अर्चन नहीं किया जा सकता, इसलिए इन्हें सम्भवत: किसी निर्जन स्थान पर गुहा या कन्दरा में रख दिया जाता होगा।  ध्वंस हुए मंदिरों की अनेक प्रतिमायें धरा के गर्भ में समा गयीं जो मकान बनाते समय, नींव की खुदाई करते या हल चलाते समय जब-तब मिलती हैं।

कुमाऊँ मंडल में सबसे अधिक संख्या पाषाण प्रतिमाओं की है जो अधिकांश मंदिरों में देवता के स्थान पर पूजित होती है।  कुछ धातु निर्मित मुखौटों तथा राजाओं की प्रतिमायें जागेश्वर, कटारमल इत्यादि से प्राप्त हुई परन्तु उनकी संख्या अपेक्षाकृत सबसे कम है।  दारु अथवा काष्ट की पुरानी प्रतिमाये उपलब्ध नहीं हैं।  दारु निर्मित एकमात्र प्रतिमा चम्पावत से प्राप्त हुई जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ काष्ट से प्रतिमायें बनाने की परम्परा काफी पल्लवित रही होगी।

शिव :

हमें पुरतात्विक एवं ऐतिहासिक स्रोतों से यह भली भाँति ज्ञात हो चुका है कि समूचे भारत में शिवलिंगोपासना बहुत पुरातन है।  शिव सृष्टि कर्ता आदि देव हैं।  इसीलिए इन्हें महादेव कहा गया है।  वे ही परमेश्वर हैं, वे ही रुद्र हैं तथा वे निर्विकार भी हैं।  वे ही चराचर जगत की सृष्टि जगत करते हैं, अन्त में कुत्सित मनोवृतियों के बढ़ने पर उसका संहार कर डालते हैं तथा उन्हें के द्वारा पुन: सृष्टि का सृजन होता है।

शिव के इस सरल रुप को, उनके सृष्टि कर्ता स्वरुप को शक्ति प्रदान करती हैं-महादेवी।  शिव-शक्ति के तात्विक मिलन को ही लिंग पुजन के माध्यम से ही व्यक्त किया गया है।  लिंग वेदी महादेवी हैं, लिंग साक्षात महेश्वर हैं।  सृष्टि को अपने में समाहित कर लेने से ही उनका नाम लिंग है।  प्रलयकाल में सम्पूर्ण विश्व में लय हो जाएगा-लयं गच्छन्ति भूतानी संहारे निखिल यत:।

यहाँ दो प्रकार के लिंग प्राप्त हैं - पहला सादे लिंग जिन्हें निष्कल लिंग कहा जाता है और दूसरे वे जिन पर मुख सदृश आकृतियाँ बनी हों वे सकल लिंग कहे जाते हैं।  सादे लिंगों को निष्कल स्थाणु भी कहा जाता है।  कुमाऊँ मंडल के सभी शैव मंदिरों में निष्कल लिंगों की अभिकता है।  नारायाण - काली, जोगेश्वर आदि स्थानों पर तो निष्कल लिंगों के समूह के समहू ही हैं।  लिंग पुराम के मतानिसार सादे लिंगों की पूजा ही श्रेष्ठ है।  यही पूजन शिव का वास्तविक पूजन है।  इसी से शिव की कृपा प्राप्त होती है।  इसलिए समूचे भारत में मुखलिंग की अपेक्षा निष्कल लिंग ही सर्वाधिक संख्या में पाये जाते हैं।  विद्वान मुखलिंग को मिश्र लिंग की श्रेणी में भी रखते हैं क्योंकि यह दोनों प्रकार के लिंग में निष्कल और सकल (प्रतिमा) का सम्मिश्रण है।

 

कृति :

मुख की आकृति लिंगों कुमाऊँ मंडली में कम पाये जाते लिंगों में शिव लिंग - विग्रह और पुरुष - विग्रह का प्रतीक है।  मध्य कुषाम काल में लिंग स्तम्भकार से कुछ छोटे आकार के बनाये गये तथा इन पर मुख अंकित किये गये।  एक मुखी शिवलिंग को मूर्ति फलकों पर, प्राय: पीपल वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर, लिंग मुख सामने की ओर तथा पृष्ठ भाग वृक्ष के#े तने की ओर स्थापित किया गया है।

गुप्त काल से ही मुखलिंग का प्रचलन उत्तर भारत में मिलता है।  इस काल में प्रतिमाओं के साथ ही लिंग पूजन हेतु मुखलिंगों का भी अर्चन व्यापक रुप से हुआ।  उत्तर गुप्तकाल आते आते लिंग पर बनी प्रतिमा सर्पों से वेष्ठित करने की प्रक्रिया में सपंकुन्डल से अलंकृत तथा सर्पों से सज्जित करने का शिल्प में विधान किया गया।  अभी तक मुख लिंगों की जो प्राचीनता सामने आयी है उससे प्रतीत होता है कि ई. पू. प्रथम शती का मुखलिंग गुउडिमल्लम आन्ध्र प्रदेश में है जबकि भीटा का पंचमुखी शिवलिंग प्राचीनतम है।

कुमाऊँ मंडल में भी अनेक एकमुखी, चतुर्मुखी तथा पंचायतन लिंग प्रकाश में आये हैं।  इनमें जागेश्वर, नारायकाली, बाणेश्वर आदि ग्रामों से शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण लिंग प्रकाश में आये हैं।  जागेश्वर के कादार मंदिर में स्थापित एकमुकी लिंग प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

नारयणकाली मंदिर समूह में एक लघु मंदिर में भी एक एकमुखी शिवलिंग स्थापित किया गया है।  इसमें शिव मुख जटामिक कर्णकुंडल एवं एकावलि से साधारण किन्तु आकर्षक ढ़ंग से सजाया जाता है।  इसके मस्तक पर तीसरा नेत्र विराजमान है।

महाभारत के आदिपर्व के अनुसार देवमंडली को देखने और उनकी प्रदक्षिणा करने वाली तिलोत्तमा का दर्शन करने के लिए शिव ने चारों दिशाओं में चार मुख प्रकट किये।  शिव के ये रुप तत्पुरुष, सद्योजात वामदेव और अघोरुप हैं।  पाँवा मुख ऊशान कहलाता है।  नागों का मानना है कि ये चार मुख ब्रह्मा, विष्णु सीर्य और रुद्र के हैं।  ईशाल मुख ब्रह्मांड का प्रतीक है।

प्राणी मात्र के अर्विभाव के लिए पृथ्वी, जल-अग्नि, वायु एवं आकाश का मुख्य योगदान माना जाता है।  इन्हीं पंचभूतों को सद्योजात-पृथ्वी, वामदेव-जल, अघोर-अग्नि, तत्पुरुष-वायु तथा ईशान का आकाश के रुप में निरुपण किया गया है।  इसी क्रम में नारायणकाली में पशुपतिनाथ मंदिर के सामने एक चतुर्मुखी शिवलिंग विराजमान है।  यह शिवलिंग अत्यंत सुन्दर एवं कलात्मक है।  अन्य परम्परागत शिवलिंगों  के अनुरुप इस मुखलिंग में भी पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं में क्रमश: शिव के चार रुप दर्शनीय है।  त्रिनेत्रधारी अघोरमुख, जटाजूट, सपंकुंडल, एकावलि से अलंकृत है।  जटाजूट के मध्य मानवमुँड दर्शनीय है।  अन्यमुख किरीट मुकुट, चक्रकुंडल एवं एकावली से युक्त है।  लघु मंदिर के शिवलिंग पर निरुपित शिवमुख, जटा मुख, कर्णकुंडल एवं एकावली साधारण परन्तु आकर्षक ढ़ंग से सजाया गया है।  मस्तक पर तीसरा नेत्र भी विराजमान है।

यहाँ से एक अन्य विलक्षण शिवलिंग की जानकारी प्राप्त होती है।  यह लिंग दो भागों में विभाजित है।  ऊपरी भाग तो सामान्य लिंग के अनुरुप है किन्तु निचले चौकोर भाग में चतुर्भुजी आसनस्थ गणेक का अंकन है।  उनका दायाँ हाथ अभयमुद्रा में दर्शित है।  अन्य हाथों में क्रमश: परशु, अंकुश: एवं मोदक मात्र सुशोभित है।  लम्बोदर, एकदंत, सूपंकर्ण गणेश की सूँड वामावर्त है।  लिंग के आदार पर गणेश को निर्मित किये जाने का उदाहरण अन्य जगहों से नहीं पाये जाते हैं।

गोमती नदी के तट पर बैजनाथ - बागेश्वर मार्ग पर बाणेश्वर ग्राम में कभी प्राचीन देवालयों का एक पूरा समूह अवस्थित रहा होगा जिसकी मूर्तियाँ पास के खेत से उठाकर एक नये देवालय में रख दी गयी है।

इस देवालय में एक विलक्षण पंचायतन शिवलिंग रखा हुआ है इसके पूजा भाग में द्विमुखी देवी, कार्तिकेय लकुलिश तथा शिव के घोर रुप को दर्शाया गया है।

द्विभुज देवी पद्मपीठ पर, प्रलम्ब मुद्रा में आसनस्थ है।  इनके दोनों घुटनों पर योगप बंधा है।  पारम्परिक आभूषणों कंठमाला, एक लड़ी का हार - एकावली तता पैरों में पायजेब से वे अलंकृत है।  मणिमाला से उनका प्रभा मंडल आलोकित है। जबकि कार्तिकेय सुखासन में बैठे हुए हैं, जिनके वामहस्त में शक्ति तता दक्षिम हाथ में सनाल कमल शोभित है।  वे जटामुख, वृत कुँडल, कंठहार, कंकण तता नुपूर आदि आभूषणों सं अलंकृत हैं।  उनके बायें स्कन्ध पर कुंडल झूल रहा है।  कुमार के दायें घुटने पर तीन धारियों से युक्त योगप बंधा हुआ है।  लकुलीश योगासन में बैठे हैं।  उनका उर्ध्वलिंग तथा बायें कंधे के सहारे दंड स्पष्ट दृष्टिगोचर है।  ऊपर उठे वाम हस्त में अस्पष्ट वस्तु हैं।  दायाँ हाथ खण्डित है।  शीर्ष पर कुंचित केश तथा गले में मणियों की माला शोभायमान है।  शिव के घोर रुप में ललितासन में बैठे देव के दायें घुटने पर अर्धयोगपट्ट है, इनके मुख के बाहर निकले दांत लम्बे हैं।  विस्फारित नेत्र, मोटे होंठ के कारण उनकी मुखाकृति उग्र हो गची है।  उठे घुटने पर अवस्थित दायें हाथ में खपंर तथा बायें हाथ में सम्भवत: दंड त्रिशूल रुपी आयुध धारण किये हैं।

 

कुमाऊँ क्षेत्र में पूजा

अर्चना का प्रचलन प्रारम्भ से ही हो रहा है।  सादे लिंगों का पूजा आनादि काल से अर्वाचीन समय तक निरन्तर चला आ रहा है।  एकमुखी, चतुरमुखी तता पंचायतन शिवलिंग के निर्माण में प्राचीन परम्परा का निर्वाह किया गया है।  सादा जटामुकुट, त्रिनेत्र तथा त्रिवलय युक्त ग्रीवा सहित शिवमुख लगभग १० वीं शती तक बनते रहे।  यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि शिव देवालयों में चतुर्मुख शिवलिंग अधिक संख्या में प्राप्त होते हैं।  गुप्त काल में यद्यपि प्रतिमा पूजना का बाहुल्य था तो भी मुखलिंगों की लोकप्रियता कम नहीं हुई।  अन्तर केवल इतना आया कि इनका लम्बाई कम और मोटाई अधिक हो गयी।  कुषाणकाल वाला शिवत्रिनेत्र क्षैतिज के स्थान पर उर्ध्व हो गया।  शिव के केश सज्जायें भी इसी समय बनायी गयीं।  उत्तर गुप्त काल में सपं से सम्बन्धित कर जाने के कारण सपं कुँडल, सर्पाहार तथा लिंग पर सपं बनाये जाने लगे।

यहाँ शिव की अनेक प्रतिमायें प्राप्त होती हैं।  यह प्राय: मंदिरों की शुकनास के अग्रभाग में, स्वतन्त्र, परिकर खंडों में अथवा समूचे परिवार के साथ दृष्टिगोचर होती है।  विशाल शिव प्रतिमाओं की संख्या कम है। पाँचवी शती के पश्चात शिव प्रतिमाओं का व्यापक निर्देशन हुआ है।

सभी शैव केन्द्रों में शिवत्रिमुख का प्रचलन प्रमुखता से मिलता है।  मंदिर की शुकनास पर शिव के इस रुप को सर्वाधिक स्थान मिला।  इसके पश्चात वे मंदिर के शिखर पर स्थापित किये गये।  जोगेश्वर के मृत्युंजय मंदिर की शुकनास पर शिव त्रिमुख का आकर्षण अंकन किया गया है।  इन्हें शिव के रुद्र रुप से पहचान की गयी है।

नटराज शिव का अंकन यहाँ बहुत कम देखने को मिलता है।  जोगेश्वर तथा कपिलेश्वर मंदिरों की शुकनास पर नटराज शिव का अंकन हुआ है।  अकेले कपिलेश्वर महादेव मंदिर समूह से ही नटराज शिव की तीन प्रतिमायें प्रकाश में आ चुकी हैं।  चम्पावत से भी नटराज शिव प्राप्त हुए हैं।  वैसे भी शिव ही नृत्य के प्रवर्तक हैं।  शिव की नटराज मुद्राओं में भारतीय काल को आद्योपांत प्रभावित किया है।

लकुलीश की प्रतिमायें यहाँ प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है।  कत्यूरी शासक आचार्य लकुलीश के माहेश्वर सम्प्रदाय में ही दीक्षित थे।  इसलिए कत्यूरी शासकों के समय लकुलीश सम्प्रदाय अत्याधिक फला-फूला।  लकुलीश को शिव का अट्ठाइसवां अवतार माना जाता है।  उर्ध्व लिंग, एक हाथ में लकुट (डंडा) लिये देवता का अंकन मंदिरों की शुकनास पर, रथिकाओं में अथवा स्वतंत्र रुप से किया जाता रहा।  पाताल भुवनेश्वर, जोगेश्वर कपिलेश्वर से लकुलीश की प्रतिमायें मिलती हैं।

कुमाऊँ मंडल से व्याख्यान दक्षिणामूर्ति, त्रिपुरान्तक  मूर्ति, भैरव आदि भी पर्याप्त संख्या में मिले हैं।  लेकिन उमा-महेश की प्रतिमा सर्वाधिक संख्या में मिलती है।  इन प्रतिमाओं में शिव अपना वामांगी पार्वती के साथ प्रदर्शित किये जाते हैं; शिव का बायाँ हाथ देवी के स्कन्ध या कार्ट परखा रहता है।  देवा का दाहिना हाथ भी शिव के स्कन्ध पर होता है।  पद्म प्रभा मंडल शोभित रहता है। 

यहाँ शिव की जंघा पर आसनस्य उमा को आलिंगनबद्ध दर्शाया गया है।  शिव परम्परागत अलंकरण जटाजूट से सज्जित, ग्रैवेयक (गले का चपटा कंठा), कंठ में पड़े हार, बाजू-बंध तथा कुण्डलों से सुशोभित होते हैं।  नारायण काली, पावनेश्वर, नकुलेश्वर आदि अनेक स्थानों से उमा महेश की प्रतिमायें मिलती हैं।

शिव परिवार में गणेश के बाद लोकप्रियता की दृष्टि से कुमार कार्तिकेय का निर्देसन हुआ है।  शिव पुत्र कुमार स्कन्द ही कार्तिकेय नाम से जाने गये।  भविष्य पुराण के अनुसार देवासुर संग्राम में सूर्य की रक्षार्थ उन्हें सूर्य के निचले पा में स्थापित किया गया।  वरद अथवा अभय मुद्राओं वाले कुमार को शक्ति, खड्ग, शूल, तीर, ढाल सहित दो अथवा अधिक हाथों सहित निर्देशित किया जाने की परम्परा है।

कुमाऊँ क्षेत्र में मयूरारुढ़़, शूलधारी कुमार की स्वतन्त्र प्रतिमायें प्रकाश में आ चुकी है।  उनके नाम से स्वतंत्र मंदिर भी अस्तित्व में है।  स्वतन्त्र प्रतिमायें नौदेवल (अल्मोड़ा), नारायणकाली आदि से प्रकाश में आयी है।  जबकि उमा-महेश के साथ भी उनकी प्रतिमायें अधिक संख्या में प्राप्त होती है।  बैजनाथ से उनकी चतुर्मुखी प्रतिमा मिलती है।

कुमाऊँ मंडल से रावणानुग्रह प्रतिमायें भी प्राप्त होती हैं।  गरुड़ के एक मंदिर के शुकनास पर यह दृश्य उकेरा गया है।  कथा है कि एक बार मदान्ध रावण अपने बाहुबल से समूचा कैलाश ही उठाकर ले चलने को तत्पर हुआ।  परन्तु कैलाश पर विराजमान शिव ने अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को तनिक सा दबाया तो व नीचे से निकल न सका।  लाचार रावण ने हजारों वर्ष तक शिव कि स्तुति कर मुक्ती पायी।  शिल्प में इस कथा को बहुत लोकप्रियता मिली।  परवर्ती काल में मंदिरों की शुकनास पर इस कथा का अंकन बहुत विचित्र ढ़ंग से दर्शाया गया है।

पूर्व मध्यकाल में वीणाधारी शिव का पर्याप्त प्रचलन हुआ।  किन्तु इसकाल में भी सर्वाधिक प्रतिमायें उमा-महेश की प्राप्त होती है।  इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सत्यम-शिवम-सुन्दरम का सम्पूर्ण सार कलाकार द्वारा इन्हीं प्रतिमाओं में संजोकर रख दिया गया।  द्विभुजी एवं अलंकरणों से युक्त शिव एवं उमा की प्रतिमा, नदी की नंगी पीठ पर आलिंगनबद्ध मुद्रा में आसनस्थ प्रतिमायें, अपनी विकास की गति को स्वयं अभिव्यक्त करती हैं।  मध्यकाल में प्रतिमा कला के ह्रास के साथ चेहरे पर भावों के अंकन में कमी तथा कामोत्तेजना के भावों में वृद्धि अधिक प्रतीत होती है।  पूर्व में शिव का पार्वती के कन्धों पर रखा हाथ इस काल में उनके वक्ष पर पहुँच गया।  गढ़ने में भी बारीकी के स्थान पर स्थूलता आती चली गयी।  इस काल में आभूषणों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि देखने को मिलती है।

 

विष्णु :

विष्णु का वाहन गरुड़ है, वे एकमुखी, चतुर्भुजी या अधिक हाथ वाले हों, उनके दायें हाथ में तीर, अक्षमाला, गदा तथा बायें हाथ में वस्र तथा गांडीव हो।  वह चक्र तथा गदा भी धारण कर सकते हैं।  चक्र संसार की गतिक अवस्था का भी प्रतीक है, वह धर्मचक्र, समय चक्र अथवा ग्रह चक्र को निदर्शित करता है।  विनीता एवं कश्यप पुत्र गरुड़ मस्तिष्क का प्रतीक है जो सभी प्राणियों का नियंत्रण करता है।  विश्व में मानव-मस्तिष्क से तीव्र कल्पना की उड़ान भरने में सक्षम कोई वस्तु नहीं है।  विष्णु भुजायें दिशाओं को इंगित करती हैं।  जबकि शंख आकाश का, चक्र वायु का, गदा प्रकाश एवं पद्म जल का प्रतिनिधित्व करता है।  वे श्रीवत्स धारण किये हों, अतसी पुष्प के समान श्यमा वर्ण हों तथा प्रसन्नमुख देवता, पीताम्बर, कुँडल एवं किरीट मुकुट धारण किये हों ऐसा रुप प्रतिमा निर्देशन का अनिवार्य अंग होना चाहिए।  यद्यपि विष्णु की चार प्रकार की प्रतिमायें - योग, भोग, वीर तथा अभिचारक शास्रों में वर्णित हैं तथापि कुमाऊँ मंडल में उनकी आसन, शयन तथा स्थानक प्रकार की प्रतिमायें मिलती हैं।  इनमें भी खड़े हुए विष्णु तथा शयन मुद्रायें अधिक देखने को मिलती है।

स्थानक प्रतिमाओं में अल्मोड़ा जनपद के बद्रीनाथ मंदिर की विष्णु प्रतिमा शिल्प की दृष्टि से बहुत महत्व रखती है।  बारहवीं शती की यह प्रतिमा यद्यपि भग्न है तो भी इसका शिल्प सौन्दर्य कहीं हल्का नहीं पड़ता।  इस प्रतिमा में विष्णु किरीट-मकुकट, कर्णकुँडल, कंठहार, बाजूबन्ध, यज्ञोपवीत आदि से अलंकृत है।  उनका एक हाथ वरद मुद्रा में उठा हुआ है।  इस पर भी मंगल चिन्ह बनाया गया है।  विष्मु अपने परम्परागत आयुधों से शोभित हैं।  शंख, चक्र, गदा, पद्म में से केवल शंक का ही अभाव है।  उनकी आराधना करते हुए दो उपसाक दर्शाये गये हैं।  जिनमें एक स्री है और दूसरा पुरुष।  कृपाधारी उपासिका अग्नि वलयों का प्रभाव मंडल धारण किये हैं।  ऊपर की ओर मालाधारी विधाधर निरुपित किये गये हैं।  परिकर के निचले हिस्से में गज, सिंह, व्याल आदि आकृतियाँ दर्शित हैं।  इनमें मांगलिक कलश धारिणी परिचालिका भी है।  विष्णु के दो अन्य अवतार वाराह तथा नृसिंह अवतार लघु रथिकाओं में बनाये गये हैं।  इनके बीच में मत्स्यावता को स्थान दिया गया है।  उनके पाश्रवों में दायें से बायें क्रमश: नवग्रह और व्याल भी दर्शाये गये हैं।  इस प्रतिमा में विष्णु के अन्य अवतार भी मिलते हैं।

समपाद मुद्रा में आभूषणों से सज्जित विष्णु के दोनों ओर के नीचे की तरफ नमस्कार मुद्रा में बैठे परिचारक - परिचाकायें तथा मानवदेहधारी गरुड़ दर्शाये गये हैं।  यह नवीं शती की महारुर्द्रेश्वर गरुड़ मंदिर में रखी प्रतिमा में मिलती है।

कासानी के मंदिर के विष्णु भी परम्परागत आभूषणों से सज्जित हैं।  ऐसी तीन अन्य प्रतिमायें  भी ज्ञात हैं।  इनमें एक प्रतिमा बयाला, जिला अल्मोड़ा दूसरी पिथौरागढ़ तथा तीसरी आदि बद्री मंदिर की हैं।  कासनी की यह प्रतिमा हरित पत्थर से निर्मित हैं।  यह चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा है।  समभंग मुद्रा में खड़े हुए विष्णु के दायें हाथ में प्रफुल्लित वदम्, और बायें हाथ में शंख दर्शित है।  उनके दे आयुधों का मानवीकरण कर दिया गया है।  त्रिभंग मुद्रा में गदादेवी और चक्रपुरुष दिखाये गये हैं।  उनके वक्ष पर मणि है।  मस्तक प्रभामंडल से आलेकित है।  मालाधारी विधाधरों ने प्रतिमा की शोभा और बढ़ा दी है।  गरुड़ का अंकन भी मानव के रुप में प्राप्त होता है।

गरुड़ त्रिभंग मुद्रा में खड़े हैं।  वे कर्णकुडंल, बाजूबन्ध, उत्तरीय आदि से अलंकृत है जबकि दूसरा हाथ कट्यावलम्बित है।  चक्र पुरुष के बायीं ओर पीछे एक स्री आकृति दर्शायी गयी है सम्भवत: यह परिचारिका रही होगी।  गदादेवी और चक्रपुरुष के पारों के पास एक-एक उपासक नमन मुद्रा में है।

अल्मोड़ा जनपद में खूंट गांव में जलदे का नौला स्थित है।  इसमें शेषदायी विष्णु की हरे प्रस्तर से निर्मित प्रतिमा है।  विष्णु नारायण चतुर्भुजी है।  उनके अगले दायें हाथ में शंख शोभित है इसी से वे अपने मस्तक को सहारा दे रहे हैं।  शेष दोनों हाथों में पद्म और गदा है।  शेषनाकग के सप्त फणों ने उनके ऊपर छाया कर रखी है।  पाद संवाहन मुद्रा में श्री देवी प्रदर्शित है।  विष्णु की नाभि से निकले कमल पर पितामह ब्रह्मा विराजमान रहे होंगे, लेकिन वर्तमान में यह भाग भग्न हो गया है।  परिकर के ऊपर का ओर नवग्रह दर्शाये गये हैं।  यह ११वीं शती की है।

विष्णु की लक्ष्मी का साथ प्रदर्शित अन्य आकर्षक प्रतिमाओं में जनपद पिथौरागढ़ के मारसोलि ग्राम की १२वीं शती की लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा शिल्प की दृष्टि से आकर्षक है।  इस प्रतिमा के विष्णु किरीट-मुद्रा से शोभित हैं।  उनके कानों में कुँडल, गले में कंठहार है।  परम्परागत अलंकरणों से सज्जित किये गये हैं।  वे ललितासन में बैठे हैं।  बाँया पैर आसन की मुद्रा बनाते हुए तथा दायाँ पैर चरणचौकी पर है।  चरम चौकी पद्म की बनायी गयी है।  एक हाथ लक्ष्मी की कटि पर अवलम्बित देवता के शेष तीन हाथों में शंख, पद्म तथा गदा है।  लक्ष्मी भी विष्णु के स्कन्ध पर अपना दायाँ हाथ रखे हैं।  उनके दाँये हाथ में पुष्प गुच्छ है।  विष्णु का वाहन गरुड़ विशालकाय डैनों सहित दर्शाया गया है।  शिल्पी ने शंख पुरुष और गदादेवी को देवता के दायें-बायें विराजमान किया है।  जिस प्रतिमा का परिकर शीर्ष कूर्चधारी पितामह तथा सारंगीधारी शिव से अलंकृत किया गया है।

खूँट गाँव में स्थित जलदे का नौला के बगल में भी एक लक्ष्मी-नारायण की आकर्षक प्रतिमा है।  इसमें ललितासन में बैठे देव की जंघा पर लक्ष्मी को आरुढ़ किया गया है।  लक्ष्मी के कट्यावलम्बित हाथ के अतिरिक्त शेषा हाथों में पदम् और चक्र है तथा दायें हाथ में शंख शोभित है।  लक्ष्मी का हाथ विष्णु के कन्धे पर रखा है।  विष्णु का दायां पैर लक्ष्मी का बायां पैर पद्म पुष्पों से बनी पद्मपीठ पर रखा है।  उनके पीछे दो स्तरों में प्रभा मंडल बनाया गया है जो पद्मपुष्पों का है।  मारसोली की प्रतिमा की ही तरह यहाँ भी परिकर खंड में ऊपर की ओर ब्रह्मा और शिव दर्शाये गये हैं।  गरुड़ यहाँ भी मानवरुप धारी है।  त्रिनेत्रेश्वर महादेव अल्मोड़ा से प्रकाश में आयी लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा में पादपीठ पर एक अस्पष्ट लेख उत्कीर्ण है।

९वीं शती की तरह की ही एक दर्शनीय प्रतिमा जनपद के कुंवाली मंदिर की ही बाह्य रथिकाओं में है।  इसमें उनके पिछले दायें हाथ में चक्र तथा पिछले बायें हाथ में शंख प्रदर्शित है।  उनका बायाँ पैर नागराज के फण पर आधारित है तथा दायाँ हाथ कट्यावलम्बित है।  वे बायें हाथ की कुहनी से पृथ्वी देवी को उठाये हुए हैं।  परम्परागत आभूषणों से सज्जित हैं और पद्मछत्र के नीचे खड़े हैं।  कच्छधारी नृवराह के पैरों में झांवर सदृश आभूषण है।  निचले पार्श्व में करवद्ध उपासिका प्रदर्शित है।  कुंडल आदि से आभूषित पृथ्वी देवी पद्मासन में बैठी हुई है।  उनके हाथ नमस्कार मुद्रा में हैं।  इस प्रतिमा के अतिरिक्त भी इस मंदिर में नृवराह की एक अन्य प्रतिमा भी रखी है।

कुमाऊँ क्षेत्र में विष्णु की प्रतिमाओं का निर्माण प्राचीन परम्पराओं के अनुसार होता रहा किन्तु लगभग १०वीं शती तक वे गुप्त कला के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी।  लगभग ११वीं शती से विष्णु प्रतिमाओं में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है।  इन प्रतिमाओं पर उमा-महेश की प्रतिमाओं की सीधी छाप है।  इस काल खंड में शेषशायी विष्णु की प्रतिमायें भी अधिक प्राप्त होती है।  लगभग १४वीं शती से विष्णु प्रतिमाओं में पुन: परिवर्तन परिलक्षित होने लगा।  परिकर युक्त स्थानक विष्णु प्रतिमाओं के निर्माण का अवसान होने लगा।  लक्ष्मी-नारायण की स्थानिक तथा गरुडारुढ़ प्रतिमायें अधिक बनने लगीं। मुक्त मणियों से गुँथे विपुल हारों से विभूषित विष्णु एवं लक्ष्मी के ऊँचे-ऊँचे मुकुट एक समान बनाने की परम्परा हो गयी।  कला के ह्रास स्पष्ट परिलक्षित होने लगा।  परिणाम स्वरुप इस काल की विष्णु प्रतिमाओं पर स्थानीय लोक कला का प्रभाव अदिक दिखने लगा।  इन सबसे लगता है कि कुमाऊँ क्षेत्र में विष्णु प्रतिमाओं के विकास की स्वतंत्र सोपान विद्यमान है। 

 

ब्रह्मा :

ब्रह्मा के चार मुख चार वेदों के प्रतीक हैं।  उन्हें वैदिक यज्ञों से सम्बन्धित कर वृद्धि और ज्ञान रुप में हँस कर आरुढ़, पुस्तक, स्रुक, कमण्डलु तथा अक्षमाला सहित निरुपित करने का विधान हुआ।  रजोगुण के प्रतीक इस देवता को जटाजूट से मंदित, एक हाथ में अक्षमाला तथा दूसरे हाथ में कमण्डलु लिए ध्यान अवस्था में प्रदर्शित करने का विधान है।  समूचा ब्रह्मांड जल धारण करते हैं।  अक्षमाला समय की, सप्त हँस सात लोक के तथा विष्णु नाभि से निकला कमल पृथ्वी का प्रतीक है।  पृथ्वी पर उपलब्ध औषधियाँ ही उनका जटायें हैं।  मेरु पर्वत कमल की पंखुड़ियाँ स्थिरता का प्रतीक है।

समूचे कुमाऊँ मंडल में भी ब्रह्मा की स्वतन्त्र प्रतिमाओं की संख्या कम है।  इस मंडल में उनकी तीन तरह की प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं।  वे प्राय: स्वतन्त्र, शेषशायी विष्णु के नाभि-कमल पर तथा प्रतिमाओं के परिकर खंडों में विराजमान मिलते हैं।  स्वतन्त्र प्रतिमा के रुप में पुभाऊँ से प्राप्त प्रतिमा शास्रोक्त लक्षण लाँछनों से युक्त है।  द्विभुजी देवता शीर्ष पर जटाजुट धारण किये हैं।  एक लड़ी का हार, चपटा कंठा-ग्रैवेयक, यज्ञोपवीत, हाथों में बाजूबन्ध से सुसज्जित देव के मुख पर लम्ब कूर्च शोभित है।  वरद मुद्रा में एक हाथ उठा हुआ है जबकि अन्य हाथों में स्रुक, कमण्डल एवं पुस्तक है।  पाश्वों में शिव-विष्णु के अतिरिक्त सेवक-सेविकायें निरुपित की गयी हैं।  डूगरी मंदिर से चतुर्मुखी ब्रह्मा की भग्न प्रतिमा भी प्रकाश में आयी है।  कासनी मंदिर की विष्णु प्रतिमा के परिकर खंड में चतुर्भुजी कूर्चधारी ब्रह्मा विद्यमान हैं।  नकुलेश्वर मंदिर की उमा-महेश प्रतिमा के परिकर खंड में भी ब्रह्मा विद्यमान हैं।  कपीना के नौले में शेषशायी विष्णु के नाबि कमल पर ब्रह्मा उपस्थित है।  जहाँ चतुरानन देव-चतुर्भुजी वरद मुद्र में पद्दासनस्थ दर्शाये गये हैं।

 

सूर्य :

कुमाऊँ मंडल में सूर्य की उपासना व्यापक परम्परा थी।  क्षेत्र का सबसे बड़ा सूर्य मंदिर कटारमाल अल्मोड़ा में ही है।  आदित्यथान से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमा न केवल क्षेत्र की बड़ी प्रतिमा है, वरन यह प्रतिमा भव्यता की दृष्टि से भी उचित स्थान रखता है।

आकाश में दिखाई देने वाले ज्योति पिंड के रुप में सूर्य की उपासना का क्रम वैदिक काल से चला आ रहा है।  सूर्य और उसके विविध रुपों की पूजा उत्तर वैदिक काल में भी पल्लवित होती रही।  वेदोत्तर काल में इसा और भी विस्तार हुआ।  गुप्त काल और परवर्ती साहित्य से ज्ञात होता है कि सूर्य उपासकों का एक पृथक में सम्प्रदाय था।  भविष्य पुराण में उल्लेखित कथा के अनुसार कृष्ण के जामवंती से उत्पन्न पुत्र सामब ने सबसे पहले चन्द्रभागा नदी (चिनाब) के तट पर मूल स्थान (वर्तमान मुल्तान) में ईरान से मगों को लाकर सूर्य मंदिर की स्थापना की थी।  इस मंदिर को हेनसांग ने भी देखा था।

उत्तराखंड में प्राप्त अधिकांश सूर्य प्रतिमाऐं उत्तर भारतीय शैली की ही मिली हैं।  आदित्य (महर), रमकादित्य (काली कुमाऊँ) बेलादित्य (बेलपत्ती) बड़ादिल (कटारमल) भीमादित्य (बागेश्वर) आदि की सूर्य प्रतिमाऐं उत्तरी परम्परा की हैं।  इस परम्परा के अन्तरगत उपानह धारण किये द्विभुजी सूर्य पूर्ण विकसित सनाल पद्म धारण किये जाते हैं।  सनाल कमल स्कन्धों से ऊपर प्रदर्शित होते हैं।

गुरुड़ से लगभग ६ कि.मी. पश्चिम में गरुड़-चौखुटिया मार्ग पर देवनाई ग्राम में कमलासन पर विराजमान उदीच्यव्लारी सूर्य की स्थानक प्रतिमा है।  कन्धों तक उठे हुए उनके दोनों हाथों में पूर्ण कमल है।  दोनों बाहों में घुटनें तक लहराता उत्तरीय तथा कमर में कटिसूत्र से बंधा ढ़ीला चोगा, घुटनों तले नीचे तक लटका हुआ है।  वे सिर पर किरीट मुकुट, कानों में मकर कुंडल, गले में कंठहार तथा पाँवों में ऊँचे उपानह धारण किये हुए हैं।  शीर्ष के पीछे पद्म प्रभामंडल विद्यमान है।  उनके दोनों ओर उदीच्यवेष में दंड एवं पिंगल खड़े हुए हैं।  यह प्रतिमा लगभग नहीं शती की है।

पावनेश्वर मंदिर पुभाऊँ से सूर्य की तीन प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं।  इनमें लक्ष्मी मंदिर के गर्भ गृह में रखी सूर्य की रथारुढ़ प्रस्तरप्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है।  अत्यंत सुन्दर अलंकरणों से अलंकृत इस प्रतिमा को मुकुट, कंठहार, ग्रैवेयक, यज्ञोपवीत, कंकम, उदरबंध, कटिसीत्र, वनमाला, और उत्तरीय से सुसज्जित की गयी है।  सूर्य की दो भुजायें दर्शायी गयी हैं।  लम्बाचोलक पहने और उपानह धारण किये सूर्य के वक्ष पर कौस्तुभमणि दर्शित है।  वनमाला की विशेषता है - इसके दोनों किनारों पर शंख का उत्कीर्ण होना।  नीचे की ओर महाश्वेतादेवी अंकित है।  सूर्य के अनुचर दंड और पिंगल भी उत्कीर्ण किये गये हैं।  महाश्वेता देवी को अभयमुद्रा में प्रदर्शित किया गया है।  जबकि पिंगल को परम्परागत चिन्हों पुस्तक एवं लेखनी से सज्जित किया गया है।  अश्विनी देवता अश्वमुखी हैं।  परिकर खंड में ब्रह्मा और विष्णु दर्शाये गये हैं।  ब्रह्मा और विष्मु भी क्रमश: अभयमुद्रा, स्रुक, पुस्तक तथा पात्र और पद्म, गदा चक्र एवं शंख से शोभित है।  चरणचौकी में सप्ताश्व निरुपित किया गया है।

गढ़वाल और कुमाऊँ मंडल के विभिन्न भागों में सूर्य की प्रतिमाऐं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।  पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और ठंड के कारण प्रकाश और उष्मा के लिए भी सूर्यदेव पर अवलम्बित होना जरुरी था।  यद्यपि हिमालयी क्षेत्र में १६वीं शती तक की प्रतिमाओं का क्रमिक विस्तार देखा जा सकता है।  इस क्षेत्र से प्रकाश में आयी सूर्य की प्रतिमाऐं स्थानक, सम्पाद अथवा बैठी मुद्रा में प्रदर्शित हैं।  सूर्यदेव की शास्रों में वर्णित सप्त अश्वों के रथ पर खड़ा अथवा बैठा दिखाया गया है।  सूर्य को बौने रुप में भी विष्णु की भांति प्रदिर्शित करने का प्रयास हुआ है।  गढ़सेर तथा बमनसुआल से प्रकाश में लायी गयी सूर्य की प्रतिमायें इसी प्रकार की हैं।  इस प्रतिमा में मुकुट और शारीरिक बनावट का अनुपात अपेक्षाकृत छोटे आकार का जान पड़ता है।  चोलक, उपनाह और कटार से विभूषित कन्धों तक उठे दोनों हाथों में पुष्पगुच्छ धारण किये सूर्य के साथ निचले पाश्वों में मिलने वाले दंड और पिंगल यहाँ नहीं हैं।  ऐसी ही प्रतिमा अल्मोड़ा जनपद के खूँट गाँव में नौले की दीवार में जड़ी देखी गयी।  सूर्य की प्रतिमाऐं नवग्रहों तथा देव प पर भी जड़ी देखी गयी हैं।  बमन सुआल की सूर्य नीचे तक मोटे वस्रों से ढके हैं, जबकि उनके हाथों में पद्म जैसा ही पुष्पगुच्छ है।

भारत मौर्य काल से ही मानव रुप में सूर्य अंकन प्रारम्भ हो गया था।  किन्तु कुमाऊँ क्षेत्र में लगभग आठवीं शती से सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया जान पड़ता है।  यहाँ जो प्रतिमाऐं प्राप्त हुई हैं वे प्राय: आठवीं शती अथवा उसके बाद निर्मित जान पड़ती है।  इस क्षेत्र में स्थानक के अतिरिक्त भी स्थानक रथारुढ़ सूर्य की प्रतिमाऐं बनाने की परम्परा थी।  यद्यपि इन प्रतिमाओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है।  वर्तमान समय तक कटारमल, पुभाऊँ और बागेश्वर से ही रथारुढ़ सूर्य की प्रतिमाऐं प्राप्त हुई हैं।  पूर्व मध्यकाल की प्रतिमाओं में प्राचीन परम्पराओं का प्रभाव अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता है।   अलंकृत टोपी से युक्त शीर्ष के पृष्ठ भाग में पद्मपत्र एवं मुक्तावलियों आदि  से सुसज्जित विशाल प्रभामंडल दोनों हाथों में विशाल पद्मगुच्च अथवा कोई स्थानीय पुष्प, अधोवस्र के रुप में ढ़ीला चोला तथा वाम पा में लटकटी कटार, सात स्थानीय पुष्प, अधोवस्र में जुता एक चक्र का रथा तथा ऊँचे उपानह कुषाम काल की प्राचीन परम्पराओं के द्योतक हैं। दोनों पाश्वों में दंड तथा पिंगल तथा प्रफुल्लित पद्मपुष्प गुप्तकाल की कला का प्रभाव दर्शाते हैं।  मध्यकाल में सूर्य के परिवार में वृद्धि के परिणाम स्वरुप अश्विनी कुमार, ऊषा, प्रत्युषा, संज्ञा, भूदेवी, महाश्वेता, रेवन्त, सारथी अरुण आदि का अंकन प्रारम्भ हो गया।  सूर्य की ऊषा में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देने लगा।  किरीट मुकुच, चुस्त पाजामा, भारी चोगा, चौड़ी मेखला तथा शीर्ष के पीछे लघु प्रभामंडल बनने आरम्भ हुए।

 

गणपति :

ॠग्वेद में सबसे पहले गणपति शब्द का प्रयोग हुआ है जिसमें उन्हें समस्त ब्रह्मों का अधिपति माना गया है।  वैदिक देवता होते हुए भी वैदिक साहित्य में उन्हें कभी भी गणेश नहीं माना गया।  सर्वप्रथम आर्य देवताओं के रुप में वे विनायक के रुप में ही आये होगें। लगभग तीसरी-चौथी शती ई. से गणेश की प्रतिमायें प्राप्त होना प्रारम्बब होती हैं।  इस काल की प्रतिमायें संकीसा तथा मथुरा से प्राप्थ भी हो चुकी है।

गुप्तकाल में वे द्विभुजी थे जो उत्तर गुप्तकाल में चतुर्भुजी हो गये तथा मध्यकाल आते-आते उनका निदर्शन आम जन के बीच हो गया।  शिव पुत्र के रुप भी वे परवर्ती काल में ही लोकप्रिय हुए।  वृहतसंहिता के अनुसार गणों के अधिपति को एकदंत, लम्बोदर, गजमुख, परशु और मुलकंद धारी निर्मित करना चाहिए।  गजमुख, एकदंत, लम्बोदर उनके ऐसे लक्षण हैं जो प्राचीन और परवर्ती साहित्य दोनों के समान रुप से पाये जाते हैं।  पौराणिक साहित्य में गणपति की प्रतिमा चुतुर्भुजी निरुपित की गयी है।  लक्षण लांछनों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि त्रिशूल, अक्षमाला, मोदक, परशु, स्वदंत, कमल, कपित्य, अंकुश, नाग, फल आदि से युक्त हों तथा उनका वाहन मूषक प्रदर्शशित होना चाहिए।  गणपति पत्नियों के विभिन्न नाम उल्लेखित हैं।  त्रिनेत्रधारी, व्याघ्रचर्म पर आसीन, सपं का यज्ञोपवीत पहने किरीट अथवा करंड मुकुट से सुशोभित सर्वाभरणभूषित गणेश प्रतिमा एकदन्त, लम्बोदर, गजमुखी होना चाहिए।

कुमाऊँ मंडल में गणेश की प्रतिमाऐं स्वतन्त्र, मंदिरों के ललाट बिम्ब अथवा उतरंग पर मात्रकाओं के साथ अथवा शिव परिवार में बहुतायत से मिलता है।  वे स्थानक, आसनस्थ तथा मृत्तमुद्राओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ।  कई बार उनको वाराही अथवा विष्णु के साथ भी निरुपित किया जाता है।  प्राय: सभी प्रतिमाओं में उनका वाहन मूषक उनके साथ मिलता है।

द्विभुजी गणेश की एक आकर्षक प्रतिमा चौना जिला अल्मोड़ा से प्रकाश में आयी है।  यह प्रतिमा परम्परागत लक्षण लांछनों से युक्त है।  एक दकदंत, लम्बोदर, गजबदन, गणपति की यह प्रतिमा बाजूबन्ध, सपंयज्ञोपवीत, नुपूर आदि से अलंकृत है।  ललितासन में बैठे देवता का बाँया पैर चरणचौकी पर अवस्थित है।  दायें पैर के नीचे ही उनका वाहन मूषक अंकित किया गया है।  इसी प्रकार की एक प्रतिमा बागेश्वर तहसील के गढ़सेर गाँव से भी प्रकाश में आयी है।  इसमें देवता की चार भुजायें प्रदर्शित की गयी हैं।  वे सूर्यकर्ण, लम्बोदर, एकदंत हैं।  ललितासन में बैठे गणेश पद्मपीठ पर अवस्थित हैं।  उनके हाथों में सपं, चंवर, अक्षमाला तथा परशु एवं मोदक पात्र दिखाये गये हैं।  उनकी सज्जा भी विशेष दर्शनीय है।  मस्तक पर तीसरा नेत्र शोभित है।  ग्रैवेयक, भुजबंध, कंकण, सपं के यज्ञोपवीत तता नुपूर से वे अलंकृत हैं।  बारहवीं शती की यह प्रस्तर निर्मित है।

कुमाऊँ मंडल से ज्ञात नृतगणपति की रतौड़ा जिला अल्मोड़ा की प्रतिमा शिल्प शास्र की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।  यह प्रतिमा चतुर्भुजी निदर्शित है।  एकदंत, लम्बोदर, सूपंकर्ण गणेश ने दाहिने हाथ में अलंकृत परशु धारण किया है।  उनके ऊपरी बायें हाथ में अंकुश तथा अधोवाम हस्त में मोदक पात्र है।  गणेश अलंकरण रहित पाद पीठिका पर खड़े हैं।  वे अत्यन्त सुन्दर मुकुट धारण किये हैं, मोतियों की माला पहने हैं तथा सपं क यज्ञोपवीत धारण किये हैं।  मणिकटिसूत्र तता पैर में रुनझून करती पायल से अलंकृत हैं।  उनकी भौहों के बीच में बिन्दी जैसी उर्णा सुशोभित है।  वक्ष पर मांगलिक चिन्ह श्रीवत्स का अलंकरण साफ देका जा सकता है।  उनका नृत्य लयबद्ध प्रतीत होता है।  इसलिए दायाँ पैर कुछ मुड़कर उठा हुआ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जबकि एक पैर जमीन पर अवलम्बित है उनकी देह को देखकर लगता है जैसे वे उन्मत होकर एकाग्र भाव से नृत्यय में खो गये हैं। गणपति का वाहन मूषक भी नृत्य को गति देता हुआ जान पड़ता है।  उसके भी अगले दोनों पैर उठे हुए हैं।  बायें पाशर्व में एक स्री दृष्टिगोचर हो रही है।  यह स्री भी नृत्य मुद्रा में हैं।  प्रतिमा लगभग १२-१३वीं शती ई. में निर्मित जान पड़ती है।

पिथौरागढ़ जनपद के धामी गाँव में शिव मंदिर के द्वार के पास उतरंग पर गणेश का भव्य अंकन है।  पिथौरागढ़ के चौपाता गाँव के सूर्य मंदिर के ललाटबिम्ब पर भी गणेश का अंकन किया गया है।

राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा द्वारा क्रय की गयी प्रतिमाओं में एक महत्वपूर्ण प्रतिमा शिव-गणेश की है।  प पर निर्मित इस प्रतिमा में ललितासन में विराजमान शिव अगले दोनों हाथों में वीणा वादन कर रहे हैं।  उनका दाहिना अग्रहस्त खंडित है।  जबकि वामहस्त से वे सपंफन पकड़ रहे हैं।  जटाजूटधारी सपंकुंडल से वेष्ठित कंकण, कंठहार अधोवस्र धारी शिव के मस्तक पर तीसरा नेत्रर विराजमान है।  शिव के बायें और ललितासन में चतुर्भुजी गणेश का अंकन है।  बागेश्वर एवं नारायणकाली मंदिर के शिवलिंग पर भी गणेश का अंकन मिला है।  पिथौरागढ़ जनपद के ही नकुलेश्वर मंदिर में रखे मत्रिका प में वाराही, इन्द्राणी, चामुंडा एवं गणेश का अंग मिलता है।  इस मात्रका पट्ट में लम्बोदर गणपति को चतुर्भुजी दर्शाया गया है।  वे ललितासन में बैठे हैं तथा मुकुट सपंबाजूबन्ध, कंकण और नुपूर से सज्जित हैं।

कुमाऊँ मंडल से प्राप्त गणपति प्रतिमाओं में अधिकांश वामावर्त हैं।  वे शास्रों में वर्णित मुकुट, कुंडल, बाजूबन्ध सपं यज्ञोपवित से वेष्ठित हैं।  सामान्यत: उनका वाहन मूषक उनके साथ ही दर्शाया गया है।  मंदिर के उत्तरंग पर इनका निदर्शन १०वीं शती ई. के बाद ही हुआ है।

 

महिषमर्दिनी :

शक्ति का अर्थ है - सामर्थ्युक्त होना।  प्राचीन भारतीय वाड़मय में शक्ति उपासना की परम्परा के उद्देश्य से ही की जाती होगी।  साहित्यिक स्रोतों एवं पुरातात्विक उत्खनन के आधार पर शक्ति के उपासना की परम्परा एवं विकास का विधिवत पता चलता है।

सिन्धु सभ्यता में शक्ति की उपासना मातृदेवी के रुप में थी।  सिन्धुघाटी में बसे नगरों के नागरिक अपने घर में मातृदेवी गा मृण प्रतिमा रखते थे।  सिन्धु सभ्यता के केन्द्रों में ऐसी मृणनिर्मित नग्न प्रतिमाऐं प्राप्त भी हुई है जिनमें मातृदेवी को वनस्पति से जुड़ा हुआ प्रदर्शित किया गया है।  यद्यपि इस काल में पुरुष देवताओं की प्रधानता थी तथापि वैदिक काल में वेदों की ॠचाओं में शक्ति की स्तुति कर उन्हें अदिति, ऊषा, पृथ्वी, वाक्, सरस्वती, रात्रि आदि नामों से सुशोभित किया गया है।  ॠग्वेद में सरस्वती का नदी के रुप में वर्णन कर उन्हें ज्ञान, समृद्धि, अमरत्व, शक्ति आदि के लिए उल्लेखित किया गया है।

कुमाऊँ एवं गढ़वाल मंडलों के पुरातात्विक सर्वेक्षणों में सर्वाधिक शक्ति प्रतिमाऐं महिषासुर मर्दिनी की ही प्रकाश में आयी हैं।  उनमें जोगेश्वर व बैजनाथ की दिप दिप करती महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमायें सम्भवत: इस क्षेत्र की दुर्लभ निधि हैं।  इनके अतिरिक्त भी नारायणकाली, गंगोलीहाट, त्रिनेत्रेस्वरमहादेव, डिंगास जिला पिथौरागढ़ आदि से महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाऐं प्रकाश में आयी हैं।  इनमें मुकुट, कर्णकुंडल, कंठहार, एकावलि, बाजूबंद, कंकण, उदरबंध और नुपूर से अलंकृतदेवी को महिषासुर का वध करता हुआ प्रदर्शित किया गया है।  त्रिशूल का प्रहार महिषासुर पर करती देवी पदाघात मुद्रा में एक हाथ से महिषासुर के केश पकड़े हैं।  सारी की सारी प्रतिमाऐं ८वीं शती ई. से लेकर १५वी. शती के मध्य निर्मित जान पड़ती हैं।

८वीं शती ई. में निर्मित उत्तराखंड की दुर्लभ कला सम्पदा के रुप में जोगेश्वर के पुष्टिदेवी मंदिर में स्थापित महिषासुर मर्दिनी इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं।  चतुर्भुजी, सिंह पर आरुढ़, एकावलि, कंगन, कंठहार, उदरबंध, मुकुट से सुसज्जित, पुष्ट शरीर वाली, देवी महिषासुर का संहार करते हुए प्रदर्शित हैं।  उनका वाहन सिंह महिषासुर  को छेदती देवी का बायाँ हस्त महिष शरीर से मानव रुप में निकलते महिषासुर के केश थामे हैं।  जबकि देवी के दायें हाथ में खड्ग प्रदर्शित है। एक आयुध सम्भवत: भग्न हो गया है।

नकुलेश्वर महादेव पिथौरागढ़ की महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा भी प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।  इसमें महिषमर्दिनी दुर्गा के ऊँचे केसपाश, कुंडल, एकावली, बाजूबन्ध, कंकण, उदरबंध और साड़ी से सज्जित दिखाया गया है।  उनके अगले हाथ में कृपाण है पिछले दायें हाथ से वे महिष के पृष्ठ भाग पर त्रिशूल से प्रहार कर रही हैं।  त्रिशूल का अगला भाग महिषासुर की पीठ में धंसा है, पिछले बायें हाथ में खेटक दर्शाया गया है।  चौथे हाथ से देवी ने महिषासुर के केश पकड़ रखे हैं।  रौद्ररुपी देवी दायें पैर से महिष पर पदाघात कर रही हैं।  उनका वाहन सिंह मुँह से महिष को दबाये हुए है।  महिष की ग्रीवा से निकलते हुए महिषासुर के हाथ में कृपाण है।  ऊपरी भाग भग्न इस प्रतिमा का काल निर्धारण १०वीं शती ई. किया जा सकता है।

जिला पिथौरागढ़ से ही प्रकाश में आयी महिषमर्दिनी दुर्गा की एक अन्य प्रतिमा भी आकर्षक है।  इसमें देवी के हाथों में क्रमश: त्रिशूल, कृपाण और खेटक प्रदर्शित है।  आकर्षक केशपाश और मुकुट से सज्जित सुरुपा देवी के दायें कर्ण में वृत कुंडल और बायें में सपं कुंडल, गले में कंठ हार तथा कटि तक लटकती माला शोभित है।  कंकण, उदरबंध, मेखला और साड़ी से सज्जित देवी दायें पैर से महिषासुर के पृष्ठ भाग पर प्रहार करती हुई निदर्शित की गयी हैं।  देवी ने बायें हाथ से महिष की ग्रीवा से निकलते हुए महिषासुर के केश थाम रखे हैं।  प्रतिमा के उर्ध्व पाश्वों में मालाधारी वीधाधर निरुपति हैं।  इस खंडित परिकर का शीर्ष पत्रवल्ली से अलंकृत है।

पिथौरागढ़ जनपद की ही एक अन्य महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा भी महत्वपूर्ण है।  धातु निर्मित इस प्रतिमा में सिंह पर आरुढ़ महिष का वध करती हुई अष्टभुजी दुर्गा अंकित है।  उनके आठ हाथों में वज्र, कृपाण, बाण आदि प्रदर्शित हैं।

कुमाऊँ मंडल से प्रकाश में आयी महिषासुरमर्दिनी की अधिकांश प्रतिमायें भग्न हैं।  सर्वेक्षण में आयी प्रतिमायें किसी अन्य देवता के साथ स्थापित न होकर प्राय: स्वतन्त्र है।  सारी की सारी प्रतिमायें या तो मूल विग्रह के रुप में पूजित है या फिर वे परिवार देवता के साथ मंदिरों में स्थापित है।  जरुरी नहीं कि वे सभी जगह महिषासुर मर्दिनी के नाम से ही पूजी जा रही हैं, कहीं दुर्गा, कहीं काली तो कहीं पुष्टि देवी के रुप में उनके मन्दिर हैं।  महिषासुर मर्दिनी की अधिकांश प्रतिमायें शैव केन्द्रों में स्थापित हैं।  सभी प्रतिमाओं में उनके रुपायन को निखारने में कलाकार ने अपनी प्रतिभा और हस्तलाघव झोंक दिया है।  इसलिए भुजाओं और आयुधों में संगति प्रतिमाविज्ञान के अनुरुप है।  सर्वाभरणभूषिता, पुष्ट शरीर वाली देवी कहीं दायीं ओर तो कहीं बायीं ओर अधोभाग में सिंह से आक्रान्त महिषासुर देवी विग्रह के मुकाबले अत्यंत लघु आकार में ही निदर्शित है।  पर्वतीय नारी सी मुख मंडल की छवि अनेक प्रतिमाओं में स्थानीय प्रभाव के निरुपित करती है।  प्राय: सभी प्रतिमाओं के मुख मंडल शिल्प्यिों ने निर्लिप्त और निर्विकार भाव के प्रदर्शित करने वाले ही गढ़े हैं।  प्रतिमाओं के अवलोकन से प्रतीत होता है कि मानो कलाकार का यह सन्देश देना चाहता हो कि मनुष्य की आसुरी प्रवृत्तियाँ विनास करने योग्य हैं और क्रोधरुपी महिश का संहार करने व