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भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी— मार्क टली

युनिवर्सिटी प्रेस, मैकमिलन आदि समेत अंग्रेज़ी के भारतीय प्रकाशक। भारतीय भाषाओं के लिए केवल एक हॉल था। दिल्ली में, जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेज़ी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिंदी की एक भी नहीं। हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचारपत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज़्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेज़ी अख़बारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं।

इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है। हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी समझते हैं। कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।

इंग्लैंड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।

आइए शुरू से विचार करते हैं। सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ।

कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।

चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए? नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी), दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।

संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है।

यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्योंकि कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते।

भारत की भाषा समस्या और उसके संभावित समाधान— अजय कुलश्रेष्ठ

 सार-विश्व के तेज़ी से प्रगति कर रहे सभी विकासशील देश ऐसा, अंग्रेज़ी अपनाए बिना, निज भाषाओं के माध्यम से कर रहे हैं। भारत में स्थिति उलटी है. . .यहाँ अंग्रेज़ी की जकड़ बढ़ रही है और भारतीय भाषाएँ चपरासियों की भाषाएँ ही चली हैं। इसका प्रमुख कारण है हमारी भाषाओं का आपसी वैमनस्य! इसके निराकरण के लिए अच्छा हो, यदि सभी भारतीय भाषाएँ एक लिपि अपनाएँ जो वर्तमान विभिन्न लिपियों को मिला-जुला रूप हो। पर सबसे महत्वपूर्ण कदम होगा दक्षिण की चार भाषाओं को उत्तर भारत में मान्यता। साथ ही हिंदी के पाठ्यक्रम में दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ रचनाएँ जोड़ी जाएँ ताकि छात्र इन भाषाओं की निकटता से परिचित हों। वे भाषाएँ भी ऐसी ही नीति अपनाएँ।

अंग्रेज़ी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाषा है पर वाइसरायों के ज़माने से चला आ रहा हमारा आंग्ल-पाठ्यक्रम विवेकशून्य और आत्मघाती है। हम अंग्रेज़ी ऐसे पढ़ाएँ जैसे किसी भी अन्य देश में एक विदेशी भाषा पढ़ाई जाती है।

भारत को अपने व्यापक पिछड़ेपन से यदि कभी उबरना है, विभिन्न वर्गों की घोर असमानता यदि कभी कम करनी है तो ज़रूरी होगा कि हम एक आम आदमी को उसी की भाषा में शिक्षा और शासन दें. . .जैसा कि हर विकसित देश में होता है।

. . .

भारत में ऐसे जानकार हर गली-नुक्कड़ पर मिलते हैं जो अंग्रेज़ी को प्रगति का पर्याय मानें, कोई उन्हें झकझोरे और बताए कि उन्नति का स्रोत आंग्ल भाषा नहीं। वह ज्ञान है जिसे अंग्रेज़ी से अनूदित कर जापान, कोरिया और चीन जैसे देश जन-सामान्य तक पहुँचाते हैं, उसका विकास करते हैं और अपना विकास करते हैं।

क्या भारतीय भाषाएँ चीनी, जापानी आदि भाषाओं की तुलना में इतनी अक्षम हैं कि अंग्रेज़ी से अनुवाद न किया जा सके? स्वयं अंग्रेज़ी में निरंतर पारिभाषिक शब्द गढ़े जाते हैं जो प्रायः ग्रीक और लैटिन भाषाओं पर आधारित होते हैं। संस्कृत का शब्द-भंडार इन दो प्राचीन भाषाओं से अधिक समृद्ध हैं। हमें पारिभाषिक शब्द बनाने में कठिनाई क्यों हो? जापानी, कोरिआई आदि भाषाओं की तुलना में हमें अधिक सुभीता होना चाहिए।

पर किस भाषा में अनुवाद? यह ''अंग्रेज़ी की महत्ता क्यों और कितनी?'' से भी बड़ा प्रश्न है. . .भारतीय भाषाओं के आपसी वैमनस्य के कारण पहले इसका हल ढूँढ़े।

भारतीय भाषाओं को दो भागों में बाँटा जाता है। उत्तर और मध्य भारत की भाषाएँ सीधे संस्कृत पर आधारित है। दक्षिण की चार भाषाओं का मूल भिन्न है पर उन पर भी संस्कृत का यथेष्ट प्रभाव है।

उत्तर भारत की भाषाएँ गिनते समय प्रायः लोग लिपियों पर ध्यान देते हैं पर लिपियाँ भाषाओं की भिन्नता का सदा सही माप नहीं देती। यदि भोजपुरी की अपनी लिपि होती तो वह भी पंजाबी की तरह एक अलग भाषा मानी जाती। ऐसे कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं, शायद इसी कारण विनोबा भावे ने कई दशक पूर्व आग्रह किया था कि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत की लिपि यानी देवनागरी अपनाएँ। उनका यह सुझाव आया गया हो गया क्योंकि इसके अंतर्गत हिंदी और मराठी को छोड़कर अन्य सभी भाषाओं को झुकना पड़ता। समाधान ऐसा हो कि देश के भाषायी समन्वय के लिए हर भाषा को किंचित त्याग करना पड़े।

ऐसा संभव हैं क्योंकि सभी भारतीय लिपियों की उत्पत्ति ब्राम्ही लिपि से हुई हैं। यदि हम इस ब्राम्ही लिपि का ऐसा आधुनिक सरलीकरण और ''त्वरित उद्भव'' करें कि वह प्रचलित विभिन्न लिपियों का मिथज (hybrid) लगे तो उसे अपनाने में भिन्न भाषाओं को कम आपत्ति होगी। (इस लिपि में कई अक्षर ऐसे होंगे जिनका प्रयोग कुछेक भाषा ही करेंगी।)

कुछ संभावनाएँ -

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पर क्या अपनी लिपि का लगाव छोड़ा जा सकेगा? प्रथम तो यह कि मिश्रज लिपि पूरी तरह अपरिचित अथवा विदेशी न होगी। दूसरे, यदि कुछ कठिनाई होगी भी तो लाभ बड़े और दूरगामी हैं, यह भी ध्यान देने की बात है कि अंकों के मामले में ऐसा पहले ही हो चुका है - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संसार की सभी लिपियों, अंकों के लिए अब 1,2,3,4,5. . .का प्रयोग करती हैं।

बात अंतर्राष्ट्रीयता की आई है तो कुछ लोग कहेंगे कि क्यों न हम अंग्रेज़ी की रोमन लिपि अपनाएँ?

ऐसा करना अनर्थकारी और हास्यास्पद होगा। भारतीय वर्णमाला को विश्व का अग्रणी ज्ञानकोश - इंसायक्लोपीडिया ब्रिटेनिका - भी ''वैज्ञानिक'' कहता है। (ऐसा अभिमत किसी दूसरी वर्णमाला के लिए व्यक्त नहीं किया गया।) भारतीय लिपियाँ पूरी तरह ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) हैं अर्थात उच्चारण और वर्तनी (स्पेलिंग) में कोई भेद नहीं। (आश्चर्य नहीं कि मेरे एक ब्राज़ीली मित्र ने मात्र एक दिन में देवनागरी पढ़ना सीख लिया था) ऐसी लिपि प्रणाली को छोड़कर यूरोपीय लिपि अपनाना सर्वथा अनुचित होगा।

इस समय हमारी लिपियों की संसार में कोई पूछ नहीं हैं। यदि सभी भारतीय भाषाएँ एक लिपि का प्रयोग करें तो शीघ्र ही इस लिपि को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलेगी जैसी कि चीनी, अरबी आदि लिपियों को आज प्राप्त हैं। एकता में बल है।

एक-लिपि हो जाने पर भी भारतीय भाषाएँ भिन्न बनी रहेंगी। दूसरा कठिन कदम होगा एक भाषा को समस्त भारत में प्रधान बनाने का। यह हिंदी होगी पर विशालहृदया हिंदी! (इस विशालहृदया का विस्तार आगे. . .) साथ ही, हिंदी के दक्षिण भारत में प्रसार के लिए आवश्यक हैं कि दक्षिण की चार भाषाओं को उत्तर भारत में मान्यता मिले। यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है! हिंदी भाषियों की संकीर्णता ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में सबसे बड़ी अड़चन रही है। दक्षिणी भाषाओं के प्रति उत्तर भारत में कोई जिज्ञासा नहीं हैं। यदि है तो एक हापडिल्ले सापडिल्ले वाली उपहास-वृत्ति। आश्चर्य नहीं कि स्वाभिमानी दक्षिण भारतीय, जिनकी भाषाओं का लंबा इतिहास और अपना साहित्य हैं, हिंदी प्रसार प्रयत्नों को इकतरफ़ा और हेकड़ी भरा कहकर उसका विरोध करें।

भारतीय सेना में दक्षिण भारत की सेना-टुकड़ियों के उत्तर भारतीय अफ़सरों को चार दक्षिणी भाषाओं में से एक सीखनी पड़ती है। उत्तर भारत की शिक्षा प्रणाली में ऐसा ही कुछ किया जाना नितांत आवश्यक हैं। जैसे, हर माध्यमिक स्कूल में छँठी कक्षा से एक दक्षिण भारतीय भाषा पढ़ाने की व्यवस्था हो। ऐसा होने पर उत्तर-दक्षिण का भाषायी वैमनस्य जाता रहेगा और तदजनित सद्भाव के वातावरण में सहज ही हिंदी को दक्षिण भारत में स्वीकृति मिलेगी।

उत्तर भारत की दूसरी भाषाओं के प्रति हिंदी को विशालहृदया भी होना होगा। बंगाली, गुजराती, उड़िया आदि के शीर्षस्थ साहित्यकारों की रचनाएँ हिंदी पाठ्यक्रम में जोड़ी जाएँ, इससे छात्रों पर अतिशय भार न पड़ेगा। इन हिंदीतर भाषाओं के अनेक पद्यों की भाषा हिंदी की खड़ी बोली से लगभग उतनी ही दूर है जितनी रामचरितमानस की अवधी। ''वैष्णव जन तो तेने रे कहिए, जे पीड़ परायी जाणे रे'' का अर्थ समझने के लिए किस हिंदी भाषी को कुंजी उठानी होगी? संस्कृत गर्भित होने पर यह दूरी और भी कम हो जाती है जैसा कि ''जन गण मन'' और ''वंदे मातरम'' जैसी रचनाओं में देखा जा सकता है। गद्य पाठन भी मुश्किल न होगा। ''शांतता, कोर्ट चालू आहे'' का अर्थ एक बार जान लेने पर क्या किसी उत्तर भारतीय के लिए याद रखना कठिन है?

उत्तर भारत की भाषाओं के सामीप्य के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं - मीराबाई के भजन हिंदी में जितने लोकप्रिय हैं उतने ही गुजराती में। - बिहार के विद्यापति को हिंदी और बंगाली भाषी दोनों ही अपना मानते हैं। - पंजाबी के '' गुरु ग्रंथ साहिब'' में मराठी कवि ''नामदेव'' के अनेक पद हैं। (यह भी कि नानक देव के अधिकांश दोहों की भाषा ऐसी है कि यदि वे ''गुरुमुखी'' में लिखे जाएँ तो पंजाबी कहलाएँगे और देवनागरी में लिखे जाएँ तो हिंदी)

उत्तर भारतीय भाषाओं के पाठ्यक्रम में दूसरी सहोदरी भाषाओं की श्रेष्ठ रचनाओं को समाहित कर लेने से छात्र स्वयं इस भाषायी-निकटता से अवगत होंगे। हमारी सांस्कृतिक धरोहर में भिन्न क्षेत्रों के साहित्य का जो योगदान है उससे उनका परिचय होगा। भाषायी-सौहार्द तो बढ़ेगा ही।

यों देश में आज भी दूसरी भारतीय भाषाओं की कुछेक रचनाएँ पढ़ाई जाती हैं - पर अंग्रेज़ी के माध्यम से! इस पर कुछ कहने से पहले हम ''अंग्रेज़ी की महत्ता'' के बड़े विषय को लें।

निस्संदेह वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, व्यावसायिक आदि क्षेत्रों में नई खोजों, नए विचारों की भाषा प्रायः अंग्रेज़ी होती है। सबसे उन्नत देश अमेरिका की भाषा अंग्रेज़ी है। ज्ञान-विज्ञान की जितनी पुस्तकें, पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में उपलब्ध हैं उतनी किसी और भाषा में नहीं।

पर क्या इन ज्ञान को आत्मसात करने के लिए हम अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेज़ी को अंगीकार करें? भारत में आज ऐसा ही हो रहा है। अंग्रेज़ों के जाते समय अंग्रेज़ी भाषा की जितनी महत्ता थी, उससे अधिक आज है। क्या हमारा यह अंग्रेज़ी अनुराग हमारे देश के उत्थान में सहायक हुआ है अथवा इस विदेशी भाषा पर अधिकार करने के अर्धसफल या असफल प्रयास में हम पीढ़ी दर पीढ़ी अपार समय और ऊर्जा गँवा रहे हैं?

उच्च शिक्षा के लिए जितने छात्र भारत से प्रतिवर्ष अमेरिका जाते हैं, लगभग उतने ही ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से, जहाँ विश्वविद्यालयों में विज्ञान तथा तकनीकी विषय भी चीनी, कोरियाई जैसी भाषाओं में पढ़ाए जाते हैं। (यह भी ध्यान दे कि हमारी जनसंख्या ताईवान की जनसंख्या से 40 गुनी और दक्षिणी कोरिया की जनसंख्या से 20 गुनी है!) हमारे अंग्रेज़ी-दक्ष इंजीनियर कोरिया के लोगों को कार, टी.वी. बनाना नहीं सिखाते। उनके टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलने वाले इंजीनियर हमें, और बाकी दुनिया को, ऐसा सामान बनाकर बेचते हैं।

इन अंग्रेज़ी-मोह से मुक्त देशों की सफलता का कारण समझना कठिन नहीं हैं। वहाँ अंग्रेज़ी की पुस्तकों का स्वदेशी भाषा में अनुवाद करके उस ज्ञान को जन-साधारण के लिए सुलभ कर देते हैं। जो छात्र उच्चतर अध्ययन के लिए विदेश जाना चाहते हैं, अथवा जो दूसरे कारणों से अंग्रेज़ी में रुचि रखते हों, केवल वे ही अंग्रेज़ी पढ़ते हैं। शेष छात्र इस भार से लगभग मुक्त।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इन देशों में विदेशी साहित्य और संस्कृति के प्रति रुचि न हों। टैगोर की कविताओं से इन एशियाई देशों के छात्र जितने परिचित हैं उतने भारत के नहीं। वहाँ महाकवि का काव्य अपनी बोली में भाषांतर करके पढ़ाया जाता है। हमारे यहाँ करोड़ों अ-बंगाली विद्यार्थी उन्हीं कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ते हैं जो कुँजियों की मदद से आधा-अधूरा किसी के पल्ले पड़ जाय तो बहुत समझिए।

बात हमारे अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम की आई है तो उसके अन्य आयाम भी देख लें। भारत में अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जाती। इसका पठन-पाठन कुछ ऐसा है मानों हम सब लंदन के निवासी हों!

वे छात्र जो अभी अंग्रेज़ी व्याकरण सीख ही रहे होते हैं और जो अपने मन के एक-दो सहज विचारों को ठीक तरह अंग्रेज़ी में व्यक्त करने में असमर्थ हैं, उनसे कहा जाता है कि वे अंग्रेज़ी में गद्य तथा पद्य की संदर्भ सहित व्याख्या करें! संसार का शायद ही कोई दूसरा देश एक विदेशी भाषा को सीखने में ऐसी कमअक़्ली दिखाता हो! यह शिक्षा-पद्धति ब्रिटिश-राज की देन हैं जिससे हम आज भी स्वतंत्र नहीं हो पाए हैं। स्वयं भारत के महानगरों में, जहाँ फ़्रांसीसी, जर्मनी आदि भाषाएँ सिखाई जाती हैं वहाँ ज़ोर व्याकरण की पक्की नींव डालने और शब्द ज्ञान बढ़ाने पर होता है। उस भाषा के साहित्य का अध्ययन-अनुशीलन तो बहुत बाद में और अधिकांश छात्रों की उसकी आवश्यकता ही नहीं। यह उस साहित्य की अवहेलना नहीं, अपनी सीमाएँ समझने और प्राथमिकता निर्धारित करने की बात हैं। कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में सफल होने के लिए, अंग्रेज़ी साहित्य तो छोड़िए, उसके व्याकरण के विशेष ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं!

अंग्रेज़ी में ऐसे अनेक उच्च कोटि के कवि और लेखक हैं जिनकी कुछेक रचनाओं से परिचित होना किसी भी शिक्षित भारतीय के लिए ज़रूरी है। पर अंग्रेज़ी साहित्य विश्व साहित्य नहीं हैं! अन्य विदेशी भाषाओं में भी प्रथम स्तर के बहुतेरे साहित्यकार हैं। वास्तव में ताल्सतॉय, चेखव और दॉस्तोयव्स्की जैसे रूसी दिग्गजों के आगे अंग्रेज़ी का कोई कथाकार नहीं ठहरता। हम क्यों न सभी श्रेष्ठतम विदेशी साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ें - पर अपनी भाषा में अनूदित करके, जैसा कि संसार के लगभग हर दूसरे देश में होता हैं। हमारे वर्तमान आंग्ल-पाठयक्रम में फ्रांसीसी मोपासां और रूसी चेखव की कहानियाँ कुछ ऐसे प्रस्तुत की जाती हैं मानों वे अंग्रेज़ी के लेखक हों! बंगाली के टैगोर का क्षोभनीय उदाहरण तो हम देख ही चुके हैं।

यदि हमारे देश से कभी अंग्रेज़ी का दबदबा हटा तो कुछ समस्याएँ भी उठ खड़ी होंगीः

समृद्ध परिवारों की नाकारा निकल गई कुछेक संतानों को, जितनी एक मात्र योग्यता अंग्रेज़ी में गिटपिटाना हैं, फिर नौकरियाँ कौन देगा? हिंदी के फ़िल्म जगत में तो बिल्कुल उथल-पुथल मच जाएगी। वहाँ जो कुछ हिंदी बोली जाती हैं वह पर्दे पर कैमरा हटते ही उन अधपढ़ों की भीड़ में जो जितनी अमेरिकी-ढरक से अंग्रेज़ी बोलता है, अपने आप को उतना ही कुलीन समझता है। यदि अंग्रेज़ी की महत्ता गई तो इस उद्योग के लोग अपना उथलापन, अपनी अभद्रता कहाँ कैसे छिपाएँगे?

ऐसी दिक़्क़तें तो होंगी. . .कुछ और वर्ग भी विरोध करेंगे मानो समर्थ अंग्रेज़ी का प्रभुत्त जाते ही देश बेसहारा हो जाएगा। अच्छा हो यदि ये लोग स्वयं अंग्रेज़ी भाषा का अपना इतिहास जान लें -आज से 500 वर्ष पहले विश्व की भाषाओं में अंग्रेज़ी की कोई गिनती नहीं थीं।इसको बोलने वाले दो-एक टापू तक सीमित थे और वहाँ भी विद्वानों की भाषा लैटिन थीं। शासक वर्ग में लैटिन की पुत्री इतालवी को सीखने का लोगों को सबसे अधिक चाव था, पर इंग्लैंडवासी इस विदेशी-भाषा-भक्ति से ऊपर उठे। उन्होंने उस समय के सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों का - बाइबिल जिनमें प्रमुख थी - अपनी बोली में अनुवाद प्रारंभ किया। विदेशी पुस्तकों, कथाओं आदि के आधार पर अपनी भाषा में साहित्य रचा। उनकी भाषा समृद्ध और सशक्त हुई और साथ ही सबल हुआ वह समाज। उनके उत्कर्ष की शेष कहानी तो हम जानते ही है।

पाँच सदी पूर्व की अंग्रेज़ी की तुलना में हमारी भाषाओं की वर्तमान स्थिति श्रेयस्कर हैं। संस्कृत की विपुल शब्द संपदा हमारी थाती है। अगर कमी है तो केवल इच्छाशक्ति की, एक संकल्प की, आपसी भाषायी राग-द्वेश को मिटाकर आगे बढ़ने की. . .

आज देश में जो भी प्रगति हो रही हैं उसका लाभ प्रायः उच्च मध्यवर्गीय 20 करोड़ लोगों तक सीमित हैं, शेष 80 प्रतिशत के पास अपना जीवनस्तर सुधारने के बहुत कम रास्ते हैं, जिसका एक कारण अंग्रेज़ी की प्रभुसत्ता है। (और ऊपर का वह 20 प्रतिशत भी, अंग्रेज़ी भाषा-ज्ञान बढ़ाने में सतत समय गँवाता, दूसरे एशियाई देशों की तुलना में फिसड्डी लगता है।)

यदि भारत को कभी उन्नत देशों की श्रेणी में गिना जाना है तो ज़रूरी है कि हम अंग्रेज़ी की बेड़ियों से मुक्त हों। उसे एक अतिथि-सा सम्मान दें। गृहस्वामिनी न मानें। आम आदमी को उसी की भाषा में शिक्षा और शासन दिया जाय।

हम अन्य देशों से सीखें। आज चीन जिस तरह दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की कर रहा है, आश्चर्य नहीं कि इस शताब्दी के मध्य तक चीनी भाषा विश्व में उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाय जितनी अंग्रेज़ी।(इसके संकेत अमेरिका में अभी से दिखने लगे हैं।) तब हम और दयनीय लगेंगे।

हमें समय रहते चेतना चाहिए।

दिल की तहों को खोलिए जनाबअजी हिंदी में कुछ बोलिए जनाबअपनी जुृबां से अनबोला नहीं अच्छाजुबां की ताकत को तोलिए जनाब.

13 से 15 जुलाई तक न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ और इतिहास में पहली बार यूएन के सभागार में हिंदी इतने जोरदार ढंग से इतनी देर तक गूंजी। इस हिंदी दिवस पर यही केंद्रीय उपलब्धि हमारे सामने है। संयुक्त राष्ट्र सात भाषाओं को आधिकारिक मान्यता दे सकता है और छह भाषाएं पहले ही इस सूची में शामिल हैं। अब कवायद शुरू हुई है हिंदी को सातवीं भाषा बनाने की। इसके लिए हमें 96 देशों का समर्थन चाहिए और करीब 100 करोड़ रुपए का आर्थिक सहारा। हमें ही बीड़ा उठाना होगा कामयाब होने का। विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे देश के कुछ हिंदी लेखकों से भास्कर डॉट कॉम ने हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी के आधुनिक परिदृश्य पर बातचीत की।

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भारतीय बाज़ार में हिंदी

आईटी को हिंदी का दामन पकड़ना ही होगाबालेंदु शर्मा दाधीच

'इंफोर्मेशन टेक्नॉलॉजी की शुरुआत भले ही अमेरिका में हुई हो, भारत की मदद के बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती थी।' गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक श्मिट ने कुछ महीने पहले यह कर के ज़बर्दस्त हलचल मचा दी थी कि आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं- हिंदी, मैंडरिन और इंग्लिश।

श्मिट के बयान से हमारे उन लोगों की आँखें खुल जानी चाहिए जो यह मानते हैं कि कंप्यूटिंग का बुनियादी आधार इंग्लिश है। यह धारणा सिरे से ग़लत है। कंप्यूटिंग की भाषा अंकों की भाषा हैं और उसमें भी कंप्यूटर सिर्फ़ दो अंकों- एक और जीरो, को समझाता है। बहरहाल, कोई भी तकनीक, कोई भी मशीन उपभोक्ता के लिए हैं, उपभोक्ता तकनीक के लिए नहीं। कोई भी तकनीक तभी कामयाब हो सकती है जब वह उपभोक्ता के अनुरूप अपने आप को ढाले।

भारत के संदर्भ में कहें तो आईटी के इस्तेमाल को हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में ढलना ही होगा। यह अपरिहार्य है। वजह बहुत साफ़ है और वह यह कि हमारे पास संख्या बल है। हमारे पास पढ़े-लिखे, समझदार और स्थानीय भाषा को अहमियत देने वाले लोगों की तादाद करोड़ों में है। अगर इन करोड़ों तक पहुँचना है, तो आपको भारतीयता, भारतीय भाषा और भारतीय परिवेश के हिसाब से ढलना ही होगा। इसे ही तकनीकी भाषा में लोकलाइज़ेशन कहते हैं। हमारे यहाँ भी कहावत है- जैसा देश, वैसा भेष। आईटी के मामले में भी यह बात सौ फीसदी लागू होती है।

सॉफ्टवेयर क्षेत्र की बड़ी कंपनियाँ अब नए बाज़ारों की तलाश में है, क्योंकि इंग्लिश का बाज़ार ठहराव बिंदु के क़रीब पहुँच गया है। इंग्लिश भाषी लोग संपन्न हैं और कंप्यूटर आदि ख़रीद चुके हैं। अब उन्हें नए कंप्यूटर की ज़रूरत नहीं।

लेकिन हम हिंदुस्तानी अब कंप्यूटर ख़रीद रहे हैं, और बड़े पैमाने पर ख़रीद रहे हैं। हम अब इंटरनेट और मोबाइल तकनीकों को भी अपना रहे हैं। आज कम्युनिकेशन के क्षेत्र में हमारे यहाँ क्रांति हो रही है। भारत मोबाइल का सबसे चमकीला बाज़ार बन गया है। ये आँकड़ें किसी भी मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव को ललचाने के लिए काफ़ी हैं। जो भी तकनीक आम आदमी से जुड़ी है, उसमें असीम बढ़ोतरी की हमारे यहाँ गुंजाइश है। हमारी इकॉनॉमी उठान पर है, लिहाज़ा तकनीक का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद में जैसे विस्फोट-सा हुआ है। बाज़ार का कोई भी दिग्गज भारत की अनदेखी करने की ग़लती नहीं कर सकता। वह भारतीय भाषाओं की अनदेखी भी नहीं कर सकता।

वे इन भाषाओं को अपनाने भी लगे हैं। हिंदी के पोर्टल भी अब व्यावसायिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रहे हैं। डॉटकॉम जलजले को भुलाकर कई भाषायी वेबसाइटें अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा रही हैं और रोज़ाना लाखों लोग उन पर पहुँच रहे हैं। पिछले दस बरसों में किसी अंतर्राष्ट्रीय आईटी कंपनी ने हिंदी इंटरनेट के क्षेत्र में दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन अब वे हिंदी के बाज़ार में कूद पड़ी हैं। उन्हें पता है भारतीय कंपनियों ने अपनी मेहनत से बाज़ार तैयार कर दिया है। चूँकि अब हिंदी में इंटरनेट आधारित या सॉफ्टवेयर आधारित परियोजना लाना फ़ायदे का सौदा है, इसलिए उन्होंने भारत आना शुरू कर दिया है। चाहे वह याहू हो, चाहे गूगल हो या फिर एमएसएन, सब हिंदी में आ रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट के डेस्कटॉप उत्पाद हिंदी में आ गए हैं। आईबीएम, सन माइक्रोसिस्टम और ओरेकल ने हिंदी को अपनाना शुरू कर दिया है। लिनक्स और मैंकिंटोश परह भी हिंदी आ गई है। इंटरनेट एक्सप्लोरर, नेटस्केप, मोजिला और ओपेरा जैसे इंटरनेट ब्राउजर हिंदी को समर्थन देने लगे हैं। ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी हिंदी की धूम है। आम कंप्यूटर उपभोक्ता के कामकाज से लेकर डाटाबेस तक में हिंदी उपलब्ध हो गई है। यह अलग बात है कि अब भी हमें बहुत दूर जाना है, लेकिन एक बड़ी शुरुआत हो चुकी है। और इसे होना ही था।

यह दिलचस्प संयोग है कि इधर यूनिकोड नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को इंग्लिश के समान ही सक्षम बना दिया है और लगभग इसी समय भारतीय बाज़ार में ज़बर्दस्त विस्तार आया है। कंपनियों के व्यापारिक हितों और हिंदी की ताक़त का मेल ऐसे में अपना चमत्कार दिखा रहा है। इसमें कंपनियों का भला है और हिंदी का भी। फिर भी चुनौतियों की कमी नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मानकीकरण (स्टैंडर्डाइजेशन) आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड के ज़रिए हम मानकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ी छलाँग लगा चुके हैं। उसने हमारी बहुत सारी समस्याओं को हल कर दिया है। संयोगवश यूनिकोड के मानकीकरण को भारतीय आईटी कंपनियों का जितना समर्थन मिला, उतना की-बोर्ड के मानकीकरण को नहीं मिला। भारत का आधिकारिक की-बोर्ड मानक इनस्क्रिप्ट है। यह एक बेहद स्मार्ट किस्म की, अत्यंत सरल और बहुत तेज़ी से टाइप करने वाली की-बोर्ड प्रणाली है। लेकिन मैंने जब पिछली गिनती की थी तो हिंदी में टाइपिंग करने के कोई डेढ़ सौ तरीके, जिन्हें तकनीकी भाषा में की-बोर्ड लेआउट्स कहते हैं, मौजूद थे। फ़ॉटों की असमानता की समस्या का समाधान तो पास दिख रहा है, लेकिन की-बोर्डों की अराजकता का मामला उलझा हुआ है। ट्रांसलिटरेशन जैसी तकनीकों से हम लोगों को हिंदी के क़रीब तो ला रहे हैं, लेकिन की-बोर्ड के मानकीकरण को उतना ही मुश्किल बनाते जा रहे हैं। यूनिकोड को अपनाकर भी हम अर्ध मानकीकरण तक ही पहुँच पाए हैं। हिंदी में आईटी को और गति देने के लिए हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग की ट्रेनिंग की ओर भी अब तक ध्यान नहीं दिया गया है। फिलहाल लोग इंग्लिश में कंप्यूटर सीखते हैं और बाद में तुक्केबाज़ी के ज़रिए हिंदी में थोड़ा-बहुत काम निकालते हैं। सरकार चाहे तो की-बोर्ड पर इंग्लिश के साथ-साथ हिंदी के अक्षर अंकित करने का आदेश देकर इस समस्या का समाधान निकाल सकती है। अगर आईटी में हिंदी का पूरा फ़ायदा उठाना है, तो बहुत सस्ती दरों पर सॉफ्टवेयर मुहैया कराए जाने की भी ज़रूरत है। ग़ैर-समाचार वेबसाइटों के क्षेत्र में हिंदी को अपनाने की तरफ़ कम ही लोगों का ध्यान गया है। सिर्फ़ साहित्य या समाचार आधारित हिंदी पोर्टलों, वेबसाइटों या ब्लॉगों से काम नहीं चलेगा। तकनीक, साइंस, ई-कॉमर्स, ई-शिक्षा, ई-प्रशासन आदि में हिंदी वेबसाइटों को बढ़ावा देना होगा। लाखों इंग्लिश वेबसाइटों को हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लाने की चुनौती को भी हल करना होगा।

साहित्यिक निबंध

हिंदी दिवस केअवसर पर विशेष

 

एक और हिंदी दिवस-आशीष गर्ग

चौदह सितंबर समय आ गया है एक और हिंदी दिवस मनाने का आज हिंदी के नाम पर कई सारे पाखंड होंगे जैसे कि कई सारे सरकारी आयोजन हिंदी में काम को बढ़ावा देने वाली घोषणाएँ विभिन्न तरह के सम्मेलन इत्यादि इत्यादि। हिंदी की दुर्दशा पर घड़ियाली आँसू बहाए जाएँगे, हिंदी में काम करने की झूठी शपथें ली जाएँगी और पता नहीं क्या-क्या होगा। अगले दिन लोग सब कुछ भूल कर लोग अपने-अपने काम में लग जाएँगे और हिंदी वहीं की वहीं सिसकती झुठलाई व ठुकराई हुई रह जाएगी।

ये सिलसिला आज़ादी के बाद से निरंतर चलता चला आ रहा है और भविष्य में भी चलने की पूरी पूरी संभावना है। कुछ हमारे जैसे लोग हिंदी की दुर्दशा पर हमेशा रोते रहते हैं और लोगों से, दोस्तों से मन ही मन गाली खाते हैं क्योंकि हम पढ़े-लिखे व सम्मानित क्षेत्रों में कार्यरत होने के बावजूद भी हिंदी या अपनी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के हिमायती हैं। वास्तव में हिंदी तो केवल उन लोगों की कार्य भाषा है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं है या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है और ऐसे लोगों को सिरफिरे पिछड़े या बेवक़ूफ़ की संज्ञा से सम्मानित कर दिया जाता है।

सच तो यह है कि ज़्यादातर भारतीय अंग्रेज़ी के मोहपाश में बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। आज स्वाधीन भारत में अंग्रेज़ी में निजी पारिवारिक पत्र व्यवहार बढ़ता जा रहा है काफ़ी कुछ सरकारी व लगभग पूरा ग़ैर सरकारी काम अंग्रेज़ी में ही होता है, दुकानों वगैरह के बोर्ड अंग्रेज़ी में होते हैं, होटलों रेस्टारेंटों इत्यादि के मेनू अंग्रेज़ी में ही होते हैं। ज़्यादातर नियम कानून या अन्य काम की बातें किताबें इत्यादि अंग्रेज़ी में ही होते हैं, उपकरणों या यंत्रों को प्रयोग करने की विधि अंग्रेज़ी में लिखी होती है, भले ही उसका प्रयोग किसी अंग्रेज़ी के ज्ञान से वंचित व्यक्ति को करना हो। अंग्रेज़ी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी हो गई है। हिंदी (या कोई और भारतीय भाषा) के नाम पर छलावे या ढोंग के सिवा कुछ नहीं होता है।

माना कि आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं और सूचना प्रौद्योगिकी की इस अंधी दौड़ की वजह से बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। सारे विद्यार्थी प्रोग्रामर ही बनना चाहते हैं, किसी और क्षेत्र में कोई जाना ही नहीं चाहता है। क्या इसी को चहुँमुखी विकास कहते हैं? ख़ैर ये सब छोड़िए समझदार पाठक इस बात का आशय तो समझ ही जाएँगे। दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है। यहाँ तक कि कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अंग्रेज़ी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहाँ ही हमारी भाषाओं में काम करने को छोटा समझा जाता है।

हमारे यहाँ बड़े-बड़े नेता अधिकारीगण व्यापारी हिंदी के नाम पर लंबे-चौड़े भाषण देते हैं किंतु अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़ाएँगे। उन स्कूलों को बढ़ावा देंगे। अंग्रेज़ी में बात करना या बीच-बीच में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग शान का प्रतीक समझेंगे और पता नहीं क्या-क्या।

कुछ लोगों का कहना है कि शुद्ध हिंदी बोलना बहुत कठिन है, सरल तो केवल अंग्रेज़ी बोली जाती है। अंग्रेज़ी जितनी कठिन होती जाती है उतनी ही खूबसूरत होती जाती है, आदमी उतना ही जागृत व पढ़ा-लिखा होता जाता है। शुद्ध हिंदी तो केवल पोंगा पंडित या बेवक़ूफ़ लोग बोलते हैं। आधुनिकरण के इस दौर में या वैश्वीकरण के नाम पर जितनी अनदेखी और दुर्गति हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की हुई है उतनी शायद हीं कहीं भी किसी और देश में हुई हो।

भारतीय भाषाओं के माध्यम के विद्यालयों का आज जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है। सरकारी व सामाजिक उपेक्षा के कारण ये स्कूल आज केवल उन बच्चों के लिए हैं जिनके पास या तो कोई और विकल्प नहीं है जैसे कि ग्रामीण क्षेत्र या फिर आर्थिक तंगी। इन स्कूलों में न तो अच्छे अध्यापक हैं न ही कोई सुविधाएँ तो फिर कैसे हम इन विद्यालयों के छात्रों को कुशल बनाने की उम्मीद कर सकते हैं और जब ये छात्र विभिन्न परीक्षाओं में असफल रहते हैं तो इसका कारण ये बताया जाता है कि ये लोग अपनी भाषा के माध्यम से पढ़े हैं इसलिए ख़राब हैं। कितना सफ़ेद झूठ? दोष है हमारी मानसिकता का और बदनाम होती है भाषा। आज सूचना प्रौद्योगिकी के बादशाह कहलाने के बाद भी हम हमारी भाषाओं में काम करने वाले कंप्यूटर नहीं विकसित कर पाए हैं। किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखना तो आजकल शायद ही देखने को मिले। बच्चों को हिंदी की गिनती या वर्णमाला का मालूम होना अपने आप में एक चमत्कार ही सिद्ध होगा। क्या विडंबना है? क्या यही हमारी आज़ादी का प्रतीक है? मानसिक रूप से तो हम अभी भी अंग्रेज़ियत के गुलाम हैं।

अब भी वक्त है कि हम लोग सुधर जाएँ वरना समय बीतने के पश्चात हम लोगों के पास खुद को कोसने के बजाय कुछ न होगा या फिर ये भी हो सकता है कि किसी को कोई फ़र्क न पड़े। सवाल है आत्मसम्मान का, अपनी भाषा का, अपनी संस्कृति का। जहाँ तक आर्थिक उन्नति का सवाल है वो तब होती है जब समाज जागृत होता है और विकास के मंच पर देश का हर व्यक्ति भागीदारी करता है जो कि नहीं हो रहा है। सामान्य लोगों को जिस ज्ञान की ज़रूरत है वो है तकनीकी ज्ञान, व्यवहारिक ज्ञान जो कि सामान्य जन तक उनकी भाषा में ही सरल रूप से पहुँचाया जा सकता है न कि अंग्रेज़ी के माध्यम से।

वर्तमान अंग्रेज़ी केंद्रित शिक्षा प्रणाली से न सिर्फ़ हम समाज के एक सबसे बड़े तबक़े को ज्ञान से वंचित कर रहे हैं बल्कि हम समाज में लोगों के बीच आर्थिक सामाजिक व वैचारिक दूरी उत्पन्न कर रहे हैं, लोगों को उनकी भाषा, उनकी संस्कृति से विमुख कर रहे हैं। लोगों के मन में उनकी भाषाओं के प्रति हीनता की भावना पैदा कर रहे हैं जो कि सही नहीं है। समय है कि हम जागें व इस स्थिति से उबरें व अपनी भाषाओं को सुदृढ़ बनाएँ व उनको राज की भाषा, शिक्षा की भाषा, काम की भाषा, व्यवहार की भाषा बनाएँ।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि भावी पीढ़ी को अंग्रेज़ी से वंचित रखा जाए, अंग्रेज़ी पढ़ें सीखें परंतु साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि अंग्रेज़ी को उतना ही सम्मान दें जितना कि ज़रूरी है, उसको सम्राज्ञी न बनाएँ, उसको हमारे दिलोदिमाग़ पर राज करने से रोकें और इसमें सबसे बड़े योगदान की ज़रूरत है समाज के पढ़े-लिखे वर्ग से ,युवाओं से, उच्चपदों पर आसीन लोगों से, अधिकारी वर्ग से बड़े औद्योगिक घरानों से। शायद मेरा ये कहना एक दिवास्वप्न हो क्योंकि अभी तक तो ऐसा हो नहीं रहा है और शायद न भी हो। पर साथ-साथ हमको महात्मा गांधी के शब्द 'कोई भी राष्ट्र नकल करके बहुत ऊपर नहीं उठता है और महान नहीं बनता है' याद रखना चाहिए।

हिंदी दिवस केअवसर पर विशेष

 

हिंदी संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बन कर रहेगी -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

मारीशस हो या सूरिनाम हो, हिंदी का वह तीर्थ धाम हो।कोटि-कोटि के मन में मुखरित, हिंदी का चहुओर नाम हो।।

हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। यह बहुत दु:ख की बात है कि अनेक प्रयासों के बावजूद हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में अभी तक स्थान नहीं प्राप्त हुआ है।

विश्व के चार बहुचर्चित एवं सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में भारत का नाम और स्थान महत्वपूर्ण होने के बाद भी उसकी एक अरब जनता की राष्ट्रभाषा हिंदी को नज़रंदाज़ किया जा रहा है जो उचित नहीं है।हिंदी को विश्व भाषा बनाने के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में दो बातों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला हमारी सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ में इसे मान्यता दिलाए, दूसरे सभी लोग सरकारी और रोज़मर्रा के जीवन में हिंदी को अपनाएँ और अपने बच्चों और विदेशियों को हिंदी प्रयोग में प्रोत्साहन दें।

यह हिंदी और भारत ही नहीं, पूरे विश्व के लिए बहुत गर्व का विषय है कि हमारे प्रधानमंत्री हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता हैं, सहृदय कवि हैं तथा उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए एक अच्छी राशि को मंजूरी दी है। इतना ही नहीं हमारे विदेश राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह का बयान कि सरकार हिंदी के संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनने पर सौ करोड़ रुपये खर्च करेंगे तथा सरकार दूसरे देशों से सहयोग लेने के लिए लाबी कार्य भी करेगी। यह हर भारतीय, देश-विदेश के हिंदी प्रेमियों, विद्वानों और शिक्षकों के लिए गर्व की बात है।

एक बात की कमी है कि आयोजक सदस्यों में हमारे जैसे विदेशों में हिंदी सेवियों को, जो हिंदी और भारत के साथ पूरी निष्ठा के साथ कार्य कर रहे हैं बहुत ज़्यादा अनदेखा किया जाता है जो न्यायसंगत नहीं है। हिंदी की अनेक वेब पत्रिकाएँ निकलती हैं। भारत कंप्यूटर और वेब सेवा में विश्व का महत्वपूर्ण देश है जिससे पूरी दुनिया से निजी और सरकारी कंपनियाँ सेवा प्राप्त कर रही हैं।

सम्मेलन के पूर्व भारत में छपे लेखों में यह बात उठाई गई थी कि हिंदी सम्मेलन की आयोजन समिति में नई तकनीक को सम्मिलित किया जाए तथा समय के साथ चला जाए न कि पुराने ज़माने की तरह। सम्मेलन में रजिस्ट्रेशन कराने वाले प्रतिनिधियों और भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के लेख प्रकाशित किए जाएँ और स्मारिका में सम्मेलन के आरंभ से पहले ही उनके लेख प्रकाशित कर दिए जाएँ ताकि पत्र भेजने वालों को जवाब मिले।

सम्मेलन के लिए जो फ़ोन नंबर दिए गए हैं पता नहीं कब वह फ़ैक्स बन जाते हैं और व्यस्त रहते हैं। जो कई ई मेल पते दिए गए हैं। उनमें कुछ काम नहीं करते। जो आयोजक समिति के सदस्य हैं सभी हिंदी के अच्छे जानकार हैं उसके प्रति निष्ठा भी है पर न तो वे कंप्यूटर के जानकार हैं न ही इस कार्य का अनुभव है। सूचनाएँ लेने के बाद सूचना का उत्तर नहीं मिलता बल्कि जब वह अपनी बात कहते हैं तो सिस्टम को दोष देते हैं।

जो भी हो हम सभी के लिए गर्व की बात है कि सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम की धरती पर हो रहा है। सारे विश्व के हिंदी प्रेमियों की निगाहें इस सम्मेलन पर टिकी हैं। पूरे विश्व से हिंदी के विद्वान एकत्र हो रहे हैं। भारत के विद्वान भी हिस्सा ले रहे हैं। वेब पत्रिकाएँ अपने विशेष अंक, लेख, साक्षात्कार प्रकाशित कर रही हैं और इस विश्व हिंदी यज्ञ में अपनी-अपनी आहुति दे रही हैं। विदेशों में रहने वाले हिंदी प्रेमी उस देश की राजनीति में भी हिस्सा लें ताकि अपनी माँगें मनवाई जा सकें तथा हिंदी व भारतीय संस्कृति की पताका को उसका अपना हक मिल सके।

पिछले विश्व हिंदी सम्मेलनों के कुछ प्रसंग- शंकर दयाल सिंह एक लेखक होने के साथ-साथ राज्यसभा सदस्य थे। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जब विभिन्न विषयों पर सत्र चल रहे होते थे तब हमारे नेतागण घूम रहे होते थे। जब विदेशों में हिंदी पत्रकारिता पर सत्र था तब मेरा नाम ग़ायब था। सत्र का संचालन कर रहे थे भारत के सुप्रसिद्ध संपादक स्व. नरेंद्र मोहन। जब स्थिति से उन्हें अवगत कराया तो पहले वह असहमत थे और बाद में सहमत ही नहीं हुए बल्कि मित्र हो गए। सरकारी और ग़ैरसरकारी प्रतिनिधिमंडल दोनों का यह दायित्व होता है कि वे पूरे सम्मेलन को गंभीरता से लें।

चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जब रिज़ोलेशन समिति की बैठक चल रही थी हिंदी के सुप्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र जी को, जो समिति के सदस्य थे, समिति के सदस्यों ने बुलाना उचित नहीं समझा। तब मैं आदरणीय मिश्र जी को आग्रह करके ले गया जहाँ बैठक चल रही थी। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन की प्रदर्शनी का हाल यह था कि बहुत से महत्वपूर्ण लेखकों की तस्वीरें, दुनिया के विभिन्न देशों में छपने वाली पत्रिकाओं से ग़ायब थीं। मेरे साथ विजयेंद्र स्नातक जी भी बातचीत करते हुए प्रदर्शनी का अवलोकन कर रहे थे।

पर चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में सभी के आदर सत्कार का बहुत ध्यान दिया जा रहा था। वहाँ के मंत्री हम सभी प्रतिनिधियों से बहुत घुल- मिल गए थे। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जर्मनी, इटली, रूस, पोलैंड, ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने अपनी व्यक्तिगत समस्याओं और कार्यक्रम की अनियमितताओं को सुलझाने के लिए मुझे आगे रखा। मॉरिशस के सरकारी-ग़ैर सरकारी प्रतिनिधियों (जो लेखक, शिक्षक और अपनी भाषा संस्कृति के लिए योगदान दे रहे जिनमें दोनों पुरुष और नारी सम्मिलित थे।) ने भरपूर सहयोग ही नहीं दिया बल्कि यात्रा की दो तीन अनियमितताओं को भी तुरंत दूर कर दिया। उन्होंने टैक्सी और दूसरे बिलों का भुगतान भी कराया। यह बहुत काबिले-तारीफ़ है। जबकि 1983 में दिल्ली में संपन्न हुए तीसरे विश्व हिंदी सम्मेलन में उपेंद्रनाथ अश्क जी के कपड़ों को लेकर कुछ लेखकों के व्यवहार की निंदा 80 से अधिक लेखकों ने लिखित रुप से की थी। शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले लेखकों में धर्मवीर भारती, हरिवंश राय बच्चन जी भी थे। शिकायत का विरोध करने वाले अभी भी अपनी हरकत से बाज नहीं आते उनका कार्य केवल एक दूसरे के सुझावों को चुगली की तरह व्यक्त करना है ऐसे लोगों को मॉरिशस से बहुत कुछ सीखना चाहिए।

जहाँ तक लंदन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन की बात है उसमें अनेक सुधार हो चुके थे। सभी खुश और नाखुश तथा सत्र में सम्मिलित और सत्र में शामिल न हो पाने वाले सभी लेखकों, विद्वानों को अपनी बात कहने का अवसर मिला। इसका कारण आयोजक समिति में अकादमिक, संगठन और प्रबंधन ने भरपूर तालमेल होना था।

एक बात मुझे लंदन में मज़ेदार लगी जब भोजन करने के बाद या आयोजन के बाद प्रतिनिधि सड़क पर चहल-कदमी करने लगते तो दो तीन प्रतिनिधि यह कहते सुने जाते थे कि बाहर मत जाएँ पुलिस आ जाएगी। इस चेतावनी ने अच्छा काम किया। इससे सभी झुंड में रहे। लोगों के मन में अभी भी भारतीय पुलिस और अंग्रेज़ों की गुलामी का ख़ौफ़ था। पर लोग यह भूल गए कि अब ब्रिटेन में वह ज़माना नहीं रहा। बहुत कुछ बदल गया है। यहाँ (ब्रिटेन) की पुलिस को देखकर सुरक्षा का अहसास होता है क्योंकि वह आपको रास्ता बताती है, फ़ोन के लिए पैसे नहीं हैं, फ़ोन करवाती है। आप भूखे, बीमार हैं उसके निदान में सहायता करती है। स्कैन्डिनेवियन देशों में