गांधी कथा - m. k. gandhiहै। और मlने उसका पालन...

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  • गांधी कथा (गांधीदश�न परी�ा के िलए खास संि�� आवृि�)

    उमाशंकर जोशी

    मुक और �काशक

    िववेक िजते� देसाई

    नवजीवन मु#णालय

    नवजीवन �काशन मंिदर

    अहमदाबाद ‐ ३८० ०१४

  • गांधी कथागांधी कथागांधी कथागांधी कथा | www.mkgandhi.org

    कपूर के दीये

    महा/ा गांधी से बंगाल म0 िकसी भाई ने कोई संदेश माँगा तब बापू ने बां5ा म0 चार श7

    कहे, “आमार जीबोन आमार बानी”‐ मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इस तरह वे चाहते थे

    िक उनके श7ो ंके बजाय उनके काय? म0, उनके आचरण म0 उनके जीवन के संदेश ढँूढे

    जाएँ। उनके जीवन की छोटी‐छोटी घटनाओ ंम0 Eकट होनेवाली जीवन की िकसी न िकसी

    िवल�णता का पFरचय कराने के िलए "गांधी कथा' की १२५ घटनाएँ EKुत की जा रही

    हL। हर घटना कपूर का एक दीया है, जो जल जाने के बाद भी गांधीजी Mारा जीवन भर

    पल‐पल तराशी Nई अपनी भO संुदर जीवनाकृित का िविशP दश�न कराए तो बNत है।

    अभय, सQिEयता, अिहंसा हर एक से संबंिधत घटनाएँ अलग‐अलग गुRो ंम0 एक साथ

    भी दी जा सकती हL, िकतु एक ही घटना अभय और अिहसा दोनो ंकी हो सके, इसिलए

    उT0 िवषयो ंम0 िवभािजत नही ंिकया गया। घटनाएँ काल‐Vमानुसार भी दी जा सकती थी,ं

    पर सवाल यह उठता िक बीच के कुछ बरसो ंकी घटनाएँ Xो ंनही ंहL? जो ज़[री नही ंहै

    उसे यहाँ नही ंिदया गया, Xोिंक पूरे जीवन को काल‐Vमानुसार देने का िवचार नही ंथा।

    घटनाएँ जैसे िलखी जाती गईं और “सं\ृित” म0 १९६९ के शता7ी वष� म0 जैसे‐जैसे छपती

    गईं वैसे ही यहाँ EKुत की जा रही हL।

    गांधीजी िकसी भी घटना की Eामािणकता के आ_ही थे, अतः मLने भी Eामािणकता की

    ओर िवशेष aान िदया है। घटनाओ ंके िलए मLने बापू के लेखो ंका उपयोग िकया है। इसके

    अलावा महादेव भाई की डायरी के १ से ९ खंड, cगdय रावजीभाई पटेल की िकताब0,

    काका कालेलकर और मनुबहन की िकताब0, Eभुदास गांधी की ‘जीवन की भोरʼ, c.

    रामदास गांधी के संhरण और शंकरलाल बLकर के ‘गांधीजी और राPi ीय Eवृि�', इQािद

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    _ंथो ंका उपयोग मLने िकया है। मL इन सभी लेखको ंका ॠणी kँ। इन सब पुKको ंके

    Eकाशको ंतथा नवजीवन Eकाशन के Eित भी मL आभार Eकट करता kँ। कुछ घटनाएँ

    मुझे कुछ Omnयो ं से िमली हL, िजनम0 से oीमती िवजयाबहन पांचोली, oीमती

    Eभावतीबहन नारायण और मदालशाबहन नारायण का म0 िवशेष कृतp kँ।

    कुलपित िनवास उमाशंकर जोशी

    गुजरात िवqापीठ

    अहमदाबाद ‐ ३८० ००९

    गांधी जrशता7ी िदवस ‐ २ अsूबर १९६९

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    �काशक का िनवेदन

    गांधी जrशता7ी वष� म0 cगdय oी उमाशंकर जोशी ने अपनी पिtका ‘सं\ृितʼ म0

    जनवरी से अsूबर तक गांधीजी के जीवन के १२५ Eसंग Eकािशत िकए। इन Eसंगो ंको

    जब ‘गांधी कथाʼ नाम से पुKक [प म0 Eकािशत िकया गया तब जोशी जी ने ‘कपूर के

    दीयेʼ के [प म0 इनकी पहचान कराई।

    यह पुKक िफ़लहाल अEाv थी। ‘गांधी जीवन पFरचय परी�ाʼ के िलए यह िकताब

    उपलw हो यह इRा गांधी‐hृित के परी�ा संयोजक oी अंधाFरया ने On की। नवजीवन

    ने उT0 सूिचत िकया, यिद लेखक की अनुमित िमले तो हम उसे अवx Eकािशत कर0 गे।

    oीमती cाितबहन उमाशंकर जोशी ने अनुमित Eदान कर Eकाशन को आसान बना

    िदया।

    यह आवृि� उन १२५ कपूर के दीये वाली ‘गांधी कथाʼ नही ंहै। oी अंधाFरया जी ने परी�ा

    की yिP से िसफ� ६० Eसंग चुन िलये हL। इस तरह यह पुKक परी�ािथ�यो ंके िलए तैयार

    की गई ‘गांधी कथाʼ की िविशP आवृि� है। oीमती cाितबहन ने इन Eसंगो ंको इस [प

    म0 Eकािशत करने की अनुमित Eदान कर हम पर अहसान िकया है। हम आशा करते हL

    िक यह ‘गांधी कथा' साधारण पाठको ंको भी आनंद Eदान करेगी।

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    (१)

    न{ हा मोहन अकेले अंधेरे म0 जाने से डरता था। उसका िदल धड़कने लगता था। उसे लगता

    िक दाईं ओर से भूत आएगा और बाईं ओर से Eेत।

    पर एक बार अंधेरे म0 अकेले जाना ही पड़ गया, पर मोहन जाए तब तो ! डरपोको ंका

    बादशाह था न{ हा मोहन। पास म0 ही खड़ी थी घर की दाई र~ा। उसने धीरे‐से

    कहा,“डरता यो ंहै? अंधेरा हो या कुछ भी हो अगर हम राम का नाम लेकर चल0गे तो

    हमारा बाल भी बांका नही ंहोगा।” मोहन आगे बढ़ा, उसकी ज़बान पर और उसके िदल

    म0 राम का नाम था। उसी िदन से मोहन का डर जाता रहा। राम नाम ने मोहन को इतना

    िनभ�य बना िदया िक उसने चालीस करोड़ भारतीयो ंको ही नही,ं दुिनया के हर इंसान को

    िनभ�यता से जीने की राह िदखाई। जीवन के आmखरी पल म0 भी उसकी ज़बान पर वही

    एक श7 था – राम !

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    (२)

    अभी नया‐नया ही सेवा_ाम आoम शु[ Nआ था। [ई धुनना और सूत कातना सीखने के

    िलए आस‐पास के गाँवो ंसे छोटे‐छोटे बे आते और शाम तक दो पैसे कमा लेते।

    वे सुबह आते तो शाम को जाते। एक बार बापू ने िवजया से पूछा िक बे दोपहर को या

    खाते हL?

    िवजया को पता रहता िक बे या खाते हL। दोपहर को जब वह बा‐बापू और अपने

    कपड़े बालटी म0 भरकर उT0 धोने के िलए कुएँ पर जाती थी तब वही ंबे खाना खाते थे।

    कई बार वह बो ंसे पूछती िक आज या खा रहे हो तो जवाब िमलता, “रोटी‐सी” |

    िवजया ने बापू को यह सब बताया।

    बापू ने पूछा ‐ “हमारे यहाँ छाँछ बची रहती है ?”

    िवजया ने कहा ‐ “हाँ !”

    बापू ‐ “तो कल से बो ंको छाँछ भी देना।”

    और छाँछ देने की िज़ेदारी िवजया ने संभाल ली।

    तीन िदन बाद बापू ने िफर पूछा ‐“बो ंको छाँछ देती हो न ?”

    िवजया ‐ “मL तो भूल गई, बापू। मुझसे गलती हो गई।”

    बापू कुछ पल चुप रहे, िफर बड़े vार से िवजया को समझाया ‐ “नही,ं तू भूली नही,ं

    Xोिंक भूलना तेरा cभाव नही ंहै।

    मेरे िजतने भी काम तेरे िज़े हL उT0 तू बड़ी सावधानी से करती है। टहलने िनकलँू, ठीक

    से साफ िकए Nए चल करीने से रखे रहते हL। उसी के पास मेरी लाठी भी रखी रहती

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    है। तू भूलड़ नही ंहै। मेरे सारे छोटे‐बड़े काम तू िबना भूले करती है, Xोिंक मL महा/ा

    kँ न ! महा/ा के काम तो हम नही ंभूलते हL, पर मासूम बो ंके काम हम भूल जाते हL।

    पर मेरा ऐसा मानना है िक तू मेरे काम भूल जाय तो कोई बात नही,ं पर इन बो ंके काम

    पूरी सावधानी और vार से करोगी तो मुझे बNत खुशी होगी।”

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    (३)

    सेवा_ाम आoम म0 एक लड़का इधर‐उधर भटकता था। िवजया ने उसे देखा और उसके

    बारे म0 पूछा। उसने बताया ‐“मेरा नाम सोमा है, पहले साबरमती आoम म0 रहता था अब

    यहाँ रहना चाहता kँ |”

    िवजया उसे बापू के पास ले गई, बापू ने पहचान िलया। िवजया को कुछ िहदायत0 देते Nए

    कहा िक यह हFरजन बालक है, उसे यहाँ रहने िदया जाय। उसे कुछ काम बता देना और

    उसका ख़याल रखना। साबरमती आoम म0 सोमा कभी कुछ चीज़0 चुरा लेता था।

    सोमा फ़ैज़पुर अिधवेशन म0 गया था और वहाँ से खाली हाथ यहाँ आया है। िसफ़� नेकर

    और बिनयान पहन रखी थी। िवजया ने उसे खाना िदया और सोने के िलए अपने पास की

    दरी दी। कKूरबा ने ओढ़ना िदया।

    उस िदन रिववार था। रिववार रात से सोमवार शाम तक बापू का मौन रहता था। रात सोने

    जाने से पहले बापू ने इशारे से पूछा ‘उस बे का या Nआ ?ʼ िवजया ने बताया िक सारी

    Oवथा कर दी गई है। बापू ने वह Oवथा देखनी चाही। िवजया ने काफ़ी समझाया िक

    उसे खाना mखलाकर ठीक से सुलाया गया है, पर बापू कहाँ मानने वाले थे। वे आए और

    देखा िक सोमा बरामदे म0 ठीक से ओढ़कर सोया है। बापू िवजया को अपने कमरे म0 ले

    गए। वहाँ खँूटी पर एक पोटली लटक रही थी। इशारे से उसे उतारने के िलए कहा। िफर

    नीचे बैठकर उसम0 से कुछ ढँूढ़ने लगे। पोटली म0 बापू की पुरानी धोितयाँ आिद तह करके

    रखी गई थी।ं उTी ंम0 से कुछ कपड़े लेकर बापू उठे, बरामदे म0 आकर सोमा के चेहरे से

    ओढ़ना हटाया, तह िकए Nए कपड़े तिकए की तरह उसके िसर के नीचे रख िदए और

    उसे ओढ़ाकर सोने चले गए। सोमा गहरी नीदं म0 था और एक महा/ा का वा भरा

    ेह उसके िसरहाने धरा था।

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    (४)

    सन् १९२२ म0 अं_ेज सरकार ने गांधीजी को छह साल की सज़ा सुनाई। अपने बयान म0

    गांधीजी ने कहा था ‐ सरकार की िनगाह म0 जो अपराध है, मानवता की नज़र म0 वह धम�

    है। और मLने उसका पालन िकया है। यिद यह गलत है तो मुझे उसकी सज़ा ज़[र दी

    जाय।

    यह ख़बर देश के कोने‐कोने म0 फैल गई। बंगाल के एक गाँव म0 यह ख़बर सुनकर एक

    मुसलमान रो पड़ा। उसके मकान म0 oी द� रहते थे, जो िहंसक Vांित का समथ�न करते

    थे। उTोनें पूछा, “Xो ंरोते हो, भाई ?”

    उस मुmम चौकीदार के हाथ म0 बां5ा अख़बार था, िजसम0 गांधीजी के मुकदमे की ख़बर

    छपी थी। वह बोला, “मेरी जाित के एक आदमी को सज़ा Nई है। छह साल की सज़ा। बूढ़ा

    है। ५३ साल का। देखो यह अख़बार।”

    अख़बार म0 िलखा था िक गांधीजी ने अपना Oवसाय खेती और बुनकरी बताया था।

    मुसलमान चौकीदार जाित का बुनकर था। अत: उसे लगा िक उसकी जाित का आदमी

    जेल चला गया। oी द� अपने संhरणो ंम0 िलखते हL, “हम कहाँ के Vांितकारी? Vांितकारी

    तो गांधीजी हL जो पूरे देश के साथ एकाकार हो गए हL। मL िकसान kँ, बुनकर kँ ‐ उनकी

    यह आवाज़ देश भर म0 पNँच गई होगी। करोड़ो ंको लगा होगा िक हमम0 से ही कोई जेल

    गया, जो जनता से एकाकार Nआ जो जनता से जुड़ा वही देश को मुn कर सकता है।

    उस से Vांितकारी को Eणाम।”

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    (५)

    बापू के शरीर पर कुता� भी नही ंथा। यह देखकर एक छोटे िवqाथd ने बापू से पूछा, “बापू,

    आप कुता� यो ंनही ंपहनते ?”

    बापू ने जवाब िदया, “मेरे पास पैसे कहाँ है ?”

    िवqाथd बोला, “मL अपनी माँ से कkँगा, वे आपके िलए कुता� िसलवा द0गी। तब तो पहन0गे

    ना ?”

    बापू ‐ “िकतने कुत िसलवा देगी ?”

    िवqाथd ‐ “आपको िकतना चािहए ? एक...दो....तीन...”

    बापू ‐“मL अकेला थोड़े ही kँ ? अकेले मL कैसे पहन सकता kँ ?”

    िवqाथd ‐ “तो िकतने लोगो ंके िलए चािहए ?”

    बापू ‐ “मेरे चालीस करोड़ भाई‐बहन हL, कया तुारी माँ उन सबके िलए िसलवा देगी ?

    मेरी बारी तो उन सबके बाद आएँगी।”

    िवqाथd दुिवधा म0 पड़ गया। मासूम बा बापू को vार से कुता� देने गया और बापू ने

    उसके कोमल मन को, पूरे िव को अपना पFरवार समझने की िश�ा दे दी।

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    (६)

    ढेर सारे कामो ंके बीच भी बापू हर सवेरे एक घंटा अवx घूमने जाते थे, जबिक उनके

    राजनीितक गु गोखले इस तरह घूमने नही ंजाते थे। शायद यही कारण था िक उनकी

    सेहत भी कुछ ठीक नही ंरहती थी और बापू इस बारे म0 अपनी vार भरी नाराज़गी On

    िकया करते थे। घूमने के िलए आoम से िनकलते व बापू के साथ कई लोग होते। िकसी

    को कोई ख़ास बात करनी होती तो बापू उसे िमलने के िलए, सुबह घूमने जाते व बुला

    लेते। वे चलते‐चलते ही बात0 करते जाते।

    लेिकन बापू पर सबसे पहला हक़ था बो ंका। बापू उनके साथ ख़ूब मKी करते। एक

    बार एक शरारती बे ने पूछा, “बापू, एक बात पूछँू?” बापू ने कहा, “पूछो”। थोड़ा आगे

    बढ़कर बापू के सामने जाकर वह बोला, “अिहंसा का यही अथ� है ना िक दूसरो ंको दुख

    न िदया जाय ?”

    बापू ने कहा, “हाँ”।

    बे ने तुरंत पकड़ िलया, “तो िफर हँसते‐हँसते, आप हमारे गालो ंपर जो िचकोटी काटते

    हो वह िहंसा कहलाएगी या अिहंसा ?”

    बापू बोले, “खड़ा रह शैतान कही ंका।” और उसे पकड़कर ज़ोर‐से िचकोटी काटी। सारे

    बे हँस‐हँसकर ताली बजाने लगे ‐ “बापू को िचढ़ाया, बापू को िचढ़ाया।” इस सारे हँसी‐

    मज़ाक म0 सबसे बड़ा ठहाका ख़ुद बापू का ही सुनाई पड़ रहा था।

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    (७)

    गांधीजी एक बड़े आदमी के यहाँ ठहरे थे। शाम की Eाथ�ना का व था और काफ़ी लोग

    Eाथ�ना म0 जमा Nए थे। Eाथ�ना शु[ करने का व Nआ। गांधीजी ने कहा ‐ “िबजली का

    mcच बंद कर दो। जहाँ िबजली का cीच था, वही ंघर के मािलक बैठे थे, पर अपनी

    आदत के अनुसार उTोनें नौकर को आवाज़ लगाई। इतने म0 जी‐से गांधीजी ख़ुद ही

    खड़े Nए और mcच बंद कर िदया। Eाथ�ना के बाद रोज़ की तरह सवाल‐जवाब Nए। िकसी

    ने कताई के बारे म0 सवाल िकया, तब जवाब म0 'गीता' का िज़V करते Nए गांधीजी बोले

    ‐ “जो यथाथ� कम� नही ंकरते वे चोर हL।”

    Eाथ�ना के बाद लोग जाने लगे। कोने म0 रखी मेज़ को िकसी का धा लगा और उस पर

    रखा शो‐पीस िगरकर दूट गया। इतने म0 घर के मािलक ख़ुद दौड़कर वहाँ पNँचे और

    टुकड़ो ंको चुनने लगे। नौकर को पुकारने की आदत कहाँ गई ! पलभर म0 यह कैसा

    पFरवत�न !

    यह उस महान अितिथ के आचरण का जादू था।

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    (८)

    न{ हा मोहन \ूल से छूटते ही घर भागता। आस‐पास देखता भी नही।ं मन म0 रहता की

    कही ंकोई मेरा मज़ाक उड़ा दे तो ! \ूल खुलते पNँच जाना और छूटते ही घर। यही

    उसका रोज़ का Vम था। शमdला cभाव। अपने काम से काम। न िकसी से दोKी न

    िकसी से बातचीत। िश�को ंके Eित मन म0 आदरभाव रखता था। इसिलए उT0 ठगने के

    बारे म0 सोच भी नही ंसकता था।

    हाइ\ूल म0 परी�ा थी। िश�ा िवभाग के इ{ेsर जाइ मुआयने के िलए आए थे।

    उTोनें पहले दज के लड़को ंको अं_ेज़ी के पाँच श7 िलखवाए। मोहन ने 'केटलʼ श7

    की ेिलंग गलत िलखी। िश�क ने जूते की नोक से इशारा िकया, पर मोहन समझे तब

    न। वह तो यह सोच भी नही ंसकता था िक िश�क उसे सामने के लड़के की लेट देखकर

    गलती सुधारने को कह रह थे। वह तो यह मान बैठा था िक िश�क वहाँ इसिलए हL िक

    िवqाथd एक‐दूसरे की नकल न कर सक0 । सारे लड़को ंके पाँचो ंश7 सही िनकले िसफ़�

    मोहन बेवकूफ़ सािबत Nआ। बाद म0 िश�क ने मोहन को उसकी मूख�ता समझाई पर बापू

    तो कहते हL ‐“मेरे मन पर उनके समझाने का कोई Eभाव नही ंNआ। मुझे दूसरे बो ंसे

    चोरी करना कभी नही ंआया।”

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    (९)

    अपने सफ़र के दौरान गांधीजी एक आoम पाठशाला म0 गए। बरसात हो रही थी। बो ं

    को सुबह आने म0 देर हो गई। गांधीजी को दूसरी जगह जाना था, अत: बो ंके साथ कुछ

    पल ही िबता पाए। गांधीजी ने बात शु[ की‐“तुम सब सूत कातते हो और खादी पहनते

    हो, पर मुझे यह बताओ िक तुमम0 से िकतने हमेशा सच बोलते हL यानी झठू कभी नही ं

    बोलते।”

    थोड़े‐से बो ंने हाथ ऊपर उठाए।

    तब गांधीजी ने दूसरा सवाल िकया ‐ “अRा तो अब कभी‐कभी जो झठू बोलते हL ऐसे

    िकतने हL ?”

    दो बो ंने हाथ उठाया।

    िफर तीन....

    िफर चार....

    िफर तो हाथ ही हाथ िदखाई दे रहे थे। लगभग सभी बो ंने हाथ उठा रखे थे।

    गांधीजी ने उनसे कहा‐ “जो बे जानते हL और मानते हL िक वे कभी‐कभार झठू बोल

    लेते हL, उनके िलए तो हमेशा उीद है। पर िजT0 ऐसा लगता है िक वे कभी झठू नही ं

    बोलते, उनकी राह मुmल है, जबिक मL दोनो ंकी कामयाबी चाहता kँ। और उTोनें

    बो ंसे इजाज़त ली।

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    (१०)

    गांधीजी का हKा�र लेने के िलए िकसी ने उT0 ऑटो_ाफ़ बुक दी। उTोनें उसके पे

    पलटे। एक पे पर दुिनया के महान िVकेट mखलािड़यो ंके एम.सी.सी. दल के सदो ंकी

    कतार म0 करीब सोलह हKा�र थे। इसी के आिख़र म0 गांधीजी ने अपने हKा�र िकए।

    गांधीजी भी तो एक mखलाड़ी थे।

    िहंद के महान िVकेट mखलाड़ी नवाब पटौदी एक बार उनसे िमलने गए। गांधीजी ने कहा,

    मLने िनण�य िकया है िक िVकेट म0 हम दोनो ंलोग अकेले‐अकेले आमने‐सामने खेल0।

    पटौदी ने कहा ‐ एक शत� पर, मैच पूरा होते ही राजनीित म0 मL आपको चुनौती दँू इसकी

    इजाज़त दीिजए। गांधीजी ने cीकार कर िलया। तब नवाब पटौदी गंभीरता से बोले ‐

    “देmखए, मुझे पूरा यकीन है िक िVकेट म0 आप मुझे बुरी तरह हरा द0 पर साथ ही मुझे

    भरोसा है िक राजनीित म0 मL आपको परािजत कर दँूगा। गांधीजी बो ंकी तरह mखल‐

    mखलाकर हँस पड़े और नवाब की पीठ थपथपाकर बोले ‐“नवाब साहब, आपने तो अभी

    से मुझे बो  करके मेरी िवकेट िगरा दी।

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    (११)

    राजकोट के अ¡¢ेड हाइ\ूल के हेडमा£र दोरबजी एडलजी िगमी ने ऊँची क�ाओ ंके

    िवqािथ�यो ंके िलए खेल अिनवाय� कर िदया। न{ हा मोहन, जो पहले खेल‐कूद म0 भाग नही ं

    लेता था, अब खेलने जाने लगा। एक िदन हेडमा£र ने बुलाया‐“तुम शिनवार शाम खेल

    म0 यो ंनही ंआए ?”

    मोहन बोला िक वह आया तो था पर खेल के मैदान म0 कोई नही ंथा।

    “देर से यो ंआए ?” हेडमा£र गु¤ाए।

    मोहन ने सफाई दी िक उसके पास घड़ी नही ंथी और बादल छाए रहने के कारण समय

    का पता न चला। हेडमा£र को यह बहानेबाज़ी लगी। उTोनें मोहन को दो आने जुमा�ने

    का दंड िदया। मोहन को बNत बुरा लगा‐“मL गलत कहलाया। कैसे सािबत क[ँ िक मL

    गलत नही ंkँ।” पर कोई उपाय न था। मन‐ही‐मन म0 दुखी Nआ और ख़ूब रोया। उसी िदन

    नTे मोहन ने तय कर िलया िक हमारा सही होना ही काफ़ी नही ंहै, सQ का आचरण

    करने वालो ंको हमेशा सावधान भी रहना चािहए। खेल के मैदान से जीवन के महान खेल

    के िलए नTे बालक ने एक िनयम बनाया, जो उसे जीवन भर काम देता रहा।

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    (१२)

    गांधीजी सवेरे जी उठ जाते। उठकर तुरंत मँुह धोते और दातून करते, इसके िलए पानी

    का छोटा लोटा और पीकदानी िबKर के पास ही रखते, िजससे दोनो ंकाम वही ंिनपटा

    सक0 । मोहनलाल पंडया ने कहा‐ “बापू, पानी की Xा कमी है। साबरमती तो सामने बह

    रही है। पानी की कंजूसी यो ंकरते हो ?” जवाब म0 गांधीजी ने उनसे पूछा‐“पहले यह

    बताओ, मेरा मँुह साफ Nआ है या नही ं?”

    पं¥ाजी ने कहा ‐ “साफ तो है ही।”

    गांधीजी ‐ “तो परेशानी िकस बात की। तुम लोटे भर‐भरकर पानी का उपयोग करते हो,

    लेिकन भीगे हाथ, मँुह पर घुमाते रहते हो। मL इतने ही पानी से मँुह ठीक से साफ कर लेता

    kँ, तो मेरे िलए इतना ही पानी पया�� है।”

    पं¥ा ‐ “पर नदी म0 इतना सारा पानी हL और...।”

    गांधीजी ‐ “नदी का पानी िकसके िलए है? मेरे अकेले के िलए ?”

    पं¥ाजी ‐ “सबके िलए है। हमारे िलए भी है...”

    गांधीजी ‐ “ठीक ! नदी का पानी सारे पशु, प�ी, मानव, जीव‐जंतु सभी के िलए है, मेरे

    अकेले के िलए नही।ं मL अपनी ज़[रत भर लँू तो ठीक है, पर अिधक लेने का मुझे हक

    नही ंहै। साझी संपि� म0 से ज़[रत से ¦ादा हम नही ंले सकते।”

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    (१३)

    एक बार अपने एक साथी को िम§ी का बड़ा ढेला ले आते देख गांधीजी ने पूछा‐“ढेला यो ं

    लाए ?”

    उTोनें जवाब िदया ‐“लोटा धोने के िलए !” “इतना बड़ा?”

    “बड़ा िमला तो बड़ा लाया।”

    “पूरे ढेले से धोओगे? बचेगा तो या करोगे ?”

    “जैसे वहाँ पड़ा था, वैसे यहाँ पड़ा रहेगा।”

    “वहाँ तो अपनी जगह पर था, यहाँ तो गंदगी करेगा। एक तो तुम यहाँ कचरा करोगे और

    दूसरे यह िक तुम जीवन के बारे म0 सोचने की आदत नही ंडालते।”

    साथी सोच म0 पड़ गया। छोटी‐छोटी बातो ंसे जीवन महान बनता है। गांधीजी के साथी को

    कूड़े‐कचरे की अपनी Oा¨ा समझाई। यिद सोने की जंज़ीर ितजोरी के बजाय घर म0 यँू

    ही पड़ी रहे तो वह भी कूड़ा‐कचरा समझी जाती है। कूड़े‐कचरे का अथ� है िक िकसी भी

    चीज़ का सही जगह पर न होना।

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    (१४)

    बालक मोहन माँ की सेवा के िलए हमेशा तैयार रहता। माँ पुतलीबाई एक सा©ी थी।ं पूजा‐

    पाठ करने के बाद ही वे कुछ खाती‐पीती थी।ं चौमासे म0 एक ही बार भोजन करती थी।ं

    किठन से किठन ªत रखना और उसे पूण� करना उनके िलए अQंत सहज था। बीमार

    पड़ने पर भी ªत नही ंछोड़ती।ं एक साथ दो‐तीन िदन का उपवास भी उनके िलए मामूली‐

    सी बात थी। एक बार बरसात के िदनो ंम0 उTोनें ऐसा ªत िलया िक सूय� दश�न के बाद ही

    खाना खाएँगी। छोटे बे घर के बाहर खड़े होकर आसमान देखते रहते िक सूरज कब

    िदखे और माँ खाना खाएँ। लेिकन बरसात के िदनो ंम0 सूय� का दश�न बNत मुmल हो

    जाता है। बादलो ंम0 ज़रा‐सा सूरज िदखा िक नTा मोहन माँ को बताने के िलए दौड़ता ‐

    “माँ‐माँ सूय� िनकला !” माँ जी‐जी घर से िनकलकर बाहर आती,ं तब तक सूय� िछप

    जाता। और वे यह कहते Nए लौट जाती ं‐“कोई बात नही ंआज खाना नही ंहै।” और जाकर

    अपने काम म0 लग जाती।ं इस सा©ी माता के सहज तपcी जीवन की छाप बालक मोहन

    के «दय पर हमेशा के िलए अंिकत हो गई।

    गांधीजी को धािम�क जीवन का Eथम पाठ माँ से िमला। आचार, िन¬ा और तपcी जीवन

    के बारे म0 माँ ही उनकी गु बनी।ं

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    (१५)

    बापू ने दि�ण अ¢ीका म0 फ़ीिन आoम की थापना की। वहाँ उTोनें बो ंके िलए

    पाठशाला भी शु[ की। बो ंको सही िश�ा िमले इसके िलए वे हमेशा Eय® करते रहे।

    परी�ा के अंक देने म0 बापूजी का तरीका अलग ही था। एक ही सवाल सभी से पूछे जाते

    थे। एक ही क�ा के िवqािथ�यो,ं िजसने ¦ादा अRे उ�र िलख0 हो, उT0 कम अंक और

    िजसने कम अRे उ�र िलख0 हो, उT0 वे ¦ादा अंक देते थे।

    इस वजह से कुछ बे नाराज़ हो जाते थे। बापूजी उT0 अRी तरह से समझाते ‐ “एक

    िवqाथd से दूसरा िवqाथd तेज़ है ऐसा अनुमान मुझे नही ंलगाना है। मुझे तो यह देखना है

    िक EQेक िवqाथd जो है उससे वह िकतना बेहतर Nआ है। बुm¯मान बा कम बुm¯मान

    बे के साथ अगर अपनी तुलना करके गव� करता िफरे तो उसकी बुm¯ तेज़ नही ंरहेगी।

    वह पढ़ने म0 कम मेहनत करेगा और अंत म0 पीछे ही रहेगा। मL तो उसे ही अंक दँूगा जो

    ¦ादा मेहनत से और लगन से काम करेगा।”

    ¦ादा अंक Eा� करने वाले िवqाथd का भी िवकास हो रहा है या नही ंइस पर बापू की

    हमेशा नज़र बनी रहती। दूसरे कम तेज़ िवqािथ�यो ंसे ¦ादा अंक िमलने के कारण वह

    फूला न समाए तो उसम0 उसका या भला होगा? यह बात उसके मन म0 िबठा देना चाहते

    थे। कम तेज़ िवqाथd एक बार कम अंक पाए िकंतु बाद म0 मेहनत करके यिद वह ¦ादा

    अंक लाता है तो उसकी इस Eगित के िलए उसकी पीठ थपथपाने को बापू हमेशा तैयार

    रहते थे।

    दूसरे से धा� म0 ख़ुद को ऊँचा या नीचा िदखाने म0 नही,ं बm° हम ख़ुद जहाँ हL वहाँ से

    सही मायने म0 िकतना आगे बढ़े हL उसे देखना ही सही िश�ा है। यह बात बापूजी ने परी�ा

    के तरीके म0 एक छोटा‐सा, िकंतु मह±पूण� बदलाव लाकर सबको समझाई।

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    (१६)

    एक बार फ़ीिन की पाठशाला म0 बो ंको 'पहला सQा_ही कौन ?” िवषय पर िनबंध

    िलखने को कहा गया।

    िकसी बे को लगा िक थंबी नायडु पहला सQा_ही था, Xोिंक उसने दि�ण अफ़ीका

    की Eारंिभक लड़ाई म0 भाग िलया था।

    दूसरे को लगा िक पहला सQा_ही तो cयं बापूजी हL।

    तीसरे ने देशाटन म0 शहीद Nए नारायण cामी को पहला सQा_ही माना।

    सभी िनबंध जाँच कर वापस िदए गए। “ठीक है' ऐसा Eमाणपt भी िदया गया।

    पर बापूजी ने तो सभी बो ंको अनु�ीण� ठहहराया। सभी के मन िवचिलत Nए। तो िफर

    पहला सQा_ही कौन ?

    बापू ने कहा ‐ “पहला सQा_ही हमारा थंबी नायडु नही,ं भn E²ाद है।”

    अथा�त बापूजी कुछ नया नही ंकह रहे थे। िसफ़� अपने से पूव� जो महान सQा_ही हो चुके

    थे, उनका अनुसरण कर रहे थे। यह बात बापूजी जीवन भर ज़ोर देकर कहते रहे ‐ “मुझे

    कुछ नया नही ंकहना। सQ और अिहंसा पहाड़ो ंकी तरह पुराने हL।” इतना ही नही ंमानव

    जीवन के संदभ� म0 वे सQ और अिहंसा को Oवहार म0 लाते थे, जीकर िदखाते थे। यह

    उनकी अनोखी मौिलकता थी।”

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    (१७)

    एक बार कूड़ेदान म0 Eभावतीबहन कुछ ढँूढ़ रही थी।ं माँ कKुरबा ने उT0 देखा और उनके

    पास जाकर पूछा ‐“बहन, या ढँूढ रही हो ?”

    Eभावती ‐ “बा, एक छोटा, हरा कागज़ ढँूढ रही kँ।”

    बा ‐ “ऐसा कौन‐सा कागज़ है, िजसे इस तरह ढँूढ रही हो ? कोई लेख है ?”

    Eभावती ‐ नही,ं आँखो ंपर रोशनी न आए इसिलए लालटेन के आगे रखने का छोटा‐सा

    हरा कागज़ है। वह बापू का है। लालटेन साफ करते समय मुझसे िगर गया। वही ढँूढ़ रही

    kँ।

    बा बापू के पास गईं। बा को बापू के साथ लड़ने का अिधकार था। उTोनें बापू से गु¤े म0

    पूछा ‐ “छोटी बी को परेशान कर रहे हो? कब से एक छोटा‐सा कागज़ ढँूढ रही है।”

    बापू ‐ “छोटा कागज़ है बात सही हL। लेिकन इसीिलए उसका काय� छोटा नही ंहो जाता।

    वह अपने थान पर अQंत मह±पूण� था। उसे फ0 कने की या ज़[रत थी? उसे दँूढकर

    उसकी सही जगह पर रखना ही चािहए। ढँूढ़ने दो। अRा ही कर रही है।”

    Eभावती को वह कागज़ िमला। उसे उसकी जगह रखा गया।

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    (१८)

    बालक मोहन और उसके भाई ने अपने एक दोK की दोKी के कारण माँसाहार शु[

    कर िदया। cाद के िलए या िफर शौक के िलए माँसाहार नही ंकरना था। मज़बूत बनने,

    िवदेिशयो ं से न दबने, अं_ेज़ो ंको हराकर आज़ाद होने के िलए माँसाहार शु[ िकया।

    बालक मोहन वै³व सं\ार म0 पला‐बढ़ा था। माँस खा तो िलया, पर बालक मोहन को

    पूरी रात ऐसा लगा मानो शरीर के भीतर बकरा िज़ंदा है और रो रहा है। िफर भी बालक

    मोहन का यह Eयोग साल भर तक चलता रहा। पाँच‐छह बार माँसाहार िकया। ऐसे अवसर

    पर ‘आज भूख नही ंहैʼ वैसा झठू बोलना मोहन को िसर पर भारी आघात करने जैसा लगता

    था। झठू, सो भी माँ के सामने। इस तरह मन रोता रहता। माता‐िपता को धोखा देना और

    झठू बोलना माँस खाने से भी ¦ादा बुरा है, ऐसा िवचार मोहन के मन म0 आया। मोहन ने

    यह िन´य िकया िक उनके मरने के बाद cतंt होने पर खुले [प म0 माँसाहार कर0 गे, तब

    तक माँसाहार का Qाग कर0 गे। यह फ़ैसला अपने िमt को सुना िदया। इस तरह वे

    माँसाहार से मुn Nए।

    दूसरे एक Fरµेदार की संगत म0 िसगरेट पीने का शौक Nआ। पहले तो संठा ढँूढ़कर

    फँूकना शु[ िकया। उस समय उT0 लगा की िसफ़� धुआँ िनकालने म0 ही िकतना मज़ा

    आता है ! एक पौधे की टहिनयो ंसे धुआँ िनकलता था, उसे आज़माकर देखा। नौकरो ंके

    पास से पैसे चुराना शु[ िकया। ऐसे काय? के िलए पैसे नही ं िमलते, इसिलए बड़ो ंकी

    N¶शाही खलने लगी। ऊबकर आ/हQा करने का िनण�य िकया। धतूरे के बीज ज़हरीले

    होते हL। उसे खाने के िलए भगवान के दश�न कर िनकले। मौत का डर लगा। िहत नही ं

    Nई। भगवान का दश�न कर शांत होकर घर वापस आ गए।

    इस चोरी के दोष से मुn Nए, वह भी िपतृभmn की सहायता से। िपता को ठगना नही ं

    चािहए, ऐसा उTोनें cयं िन´य िकया। माँसाहारी भाई ने पीस पए का कज़� ले िलया

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    था। कज़� को कैसे चुकाया जाय यह दोनो ंभाइयो ंके िलए समा थी। भाई के हाथ म0 सोने

    का कड़ा था। उसम0 से तोला भर सोना कटवाकर कज़� अदा िकया गया।

    नTे मोहन का मन बेचैन था। आज से चोरी न करने का संक· िकया। लेिकन इतना

    पया�� नही ंथा। उT0 लगा िक पहले की गई गलितयाँ भी िपता के पास जाकर cीकार

    करनी चािहए। कुछ भी कर0 , पर ज़बान न खुलती थी। िपताजी गु¤ा होगें ? वे या सज़ा

    द0गे ? िबना माफ़ी माँगे मन शांत होने वाला नही ंथा। पt िलखकर काँपते हाथो ंसे िपताजी

    के हाथो ंम0 िदया। पt म0 सब दोष cीकार िकए और दंड माँगा। यह िवनती की िक मेरे

    अपराध के िलए अपने को कP म0 न डाल0 और Eितpा की िक भिव¸ म0 िफर ऐसा अपराध

    नही ंक[ँगा।

    िपताजी ने पt पढ़ा। आँखो ंसे मोती की दो बँूद0 टपकी।ं पt भीग गया। �णभर तक आँख0

    मंूद ली।ं पt फाड़ डाला।

    पढ़ने को बैठे थे। पुन: लेट गए। मोहन की आँख म0 भी आँसू आ गए। बड़े होकर उTोनें

    िलखा ‐ उन मोती [पी अoु िबदुओ ंके Eेमबाण ने मुझे वेध िदया था। मL शु¯ हो गया।

    इस Eेम को तो अनुभवी ही जान सकता है। ....यह मेरे िलए अिहंसा का Eथम पाठ था। मL

    जानता kँ िक मेरे Mारा गलती कबूल कर लेने से िपताजी मेरे िवषय म0 िनभ�य हो गए। मुझ

    पर उनका महान Eेम और बढ़ गया।

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    (१९)

    एक बार बा बीमार पड़ी थी।ं मुmल से बची थी।ं बीमारी का दौरा िफर पड़ा। कोई भी

    उपचार काम न आया, तो बापूजी ने िनसग¹पचार की बात की। बा से नमक और िMदल

    छोड़ने की िवनती की। उस िवषय के Eिस¯ लेख पढ़ाए, समझाए। िकतु बा नही ंमानी।ं

    बा ने कहा ‐ “यिद आपको कोई िMदल और नमक छोड़ने को कहा जाय तो आप भी नही ं

    छोड़0गे।”

    यह सुनकर बापू को बNत दुख Nआ। अपना Eेम On करने का यह अवसर देख उT0

    हष� भी Nआ। बोले ‐ “मLने तो एक वष� के िलए िMलल और नमक दोनो ंछोड़ िदए। तुम

    छोड़ो या न छोड़ो।”

    बा को गहरा प´ाताप Nआ। वे बोली ं‐ “मुझे माफ़ कर0 । आपका cभाव जानते Nए भी

    मँुह से िनकल गया। आज से मL नमक और िMदल नही ंखाऊँगी। आप अपना वचन वापस

    ले ल0। यह मेरे िलए एक कड़ी सज़ा होगी।”

    बापू ‐ “तुम नमक‐िMदल छोड़ोगी तो तुारी सेहत के िलए अRा होगा। मुझे िवास है

    उससे तु0 लाभ होगा। पर ली Nई Eितpा मुझसे तोड़ी नही ंजाएगी। मुझे तो लाभ ही होगा।

    तुमने जो छोड़ने का िन´य िकया है उस पर कायम रहने म0 तु0 मदद िमलेगी।”

    बा ‐ “आप तो बड़े िज़ºी हL। िकसी की सुनते ही नही।ं”

    बा रोकर शांत Nईं। पित‐प®ी के बीच की इस घटना से बापू को सQा_ह की चाभी िमल

    गई। Eेम Mारा िकए गए Qाग से सामने वाले का िदल जीता जा सकता है। उसके जीवन

    म0 काणकारी पFरवत�न लाने म0 सहायक होना ही सQा_ह का उºेx है। बापू इस घटना

    के बारे म0 कहते हL, “मL उसे अपने जीवन के मधुर संhरणो ंम0 से एक मानता kँ।”

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    (२०)

    १५ अगK, १९४७, भारत की आज़ादी का िदन। सातो ं समंदर पर िजसका रा¼ था,

    िजसके सा½ा¼ का सूय� कभी अK नही ंहोता था, उस ि¾िटश सा½ा¼ की शांितपूव�क

    िवदाई Nई। भारतवािसयो ंने स�ा की बागडोर संभाली।

    इस ऐितहािसक िदन राPi िपता कहाँ थे ? उस िदन को पाने के िलए िजसने सबसे ¦ादा

    योगदान िदया, वे उस िदन या कर रहे थे ? आज़ादी िमल गई। अभी भी बNत काम

    करना बाकी है। अब तक भारतवािसयो ंम0 कौमी स¿ाव नही ंपनपा। गांधीजी राPi िपता थे।

    वे दुखी देशवािसयो ंके साथ थे। कलक�े म0 कौमी दंगे हो रहे थे। बापूजी उस कौमी आग

    म0 आम जनता के साथ अिडग खड़े रहे।

    आज़ादी की रात बापू िकसके घर सोए ? बेिलयाघाट कलक�ा का बNत ग़रीब और

    खतरनाक इलाका था। ग़रीबो ंके बेली (मददगार) बापू ने वहाँ जाकर रहना पसंद िकया।

    एक छोटे‐से मकान म0 उनका िनवास था।

    बापू का िबKर चारपाई पर लगाया गया। शेष सभी ने वहाँ जो कुछ भी िमला उसे ज़मीन

    पर िबछाकर सोने की तैयारी की।

    बापू आए। सोने की Oवथा देखकर बोले ‐ “आप सभी ज़मीन पर सोएँगे। मL चारपाई पर

    सोरऊँ, यह कैसे हो सकता है ? मेरा िबKर भी ज़मीन पर लगाओ।”

    पुरानी चारपाई भी बापू को रास न आई। चारपाई छtपलंग जैसी लगी। सबके साथ अपना

    िबKर ज़मीन पर लगवाकर ही सोए।

    राजधानी िद¡ ली के साथ ही देश भर म0 आज़ादी का जÁ मनाया जा रहा था। ऐसे समय

    राPi िपता बापू को भी Xा‐Xा करना रह गया है, यह दीन‐दुmखयो,ं वे गरीबो ंके साथ

    रहकर EQ� आचरण से िदखा रहे थे।

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    (२१)

    गांधीजी िवलायत से बैFर£र बनकर आए थे। वकालत नही ं चली, इसिलए जवान

    मोहनदास को आजीिवका के साधन ढँूढ़ने की नौबत आई। वकील होने के कारण ठीक‐

    ठाक अिज़�याँ िलख लेते थे। मुÂ म0 अजd िलखने से गुज़ारा कैसे होता ?

    अदालत म0 खड़े होकर दलील देना रास नही ंआया। वकालत के अलावा दूसरा Oवसाय

    ढँूढ़ने की नौबत आई।

    बापू को ऐसा लगता था िक वे िश�क बन सकते हL। अं_ेज़ी का अRा‐ख़ासा अÃास

    िकया है, ऐसा उनका मानना था। िकसी \ूल म0 दसवी ंकी क�ा म0 अं_ेज़ी पढ़ाने को

    िमले तो वे पढ़ाने के िलए तैयार भी थे, िजससे भूखो ंमरना न पड़े।

    एक िदन अख़बार म0 एक िवpापन देखा िक फ़लाँ हाइ\ूल म0 अं_ेज़ी के एक िश�क की

    दैिनक एक घंटे की आवxकता है। तनÄाह ७५ /‐ पए है। उTोनें अज़d की।

    सा�ाÆार के िलए बुलाया गया। जवान वकील िश�क बनने की लालच से उाहपूव�क

    गए। परंतु जब Eाचाय� को पता चला िक युवक बी.ए. नही ंहै तो उTोनें दुख जताया और

    नसीहत दी।

    युवक ‐ “पर मLने लंदन की मैिटiक पास की है। लैिटन मेरी दूसरी भाषा थी।”

    Eाचाय� ‐ “पर हम0 _ै¼ुएट ही चािहए।”

    बैFर£र गांधी \ूल िश�क होने के िलए अयोÇ ठहरे।

    गांधीजी म0 बैFर£र होने के बावजूद आजीिवका के िलए िश�क या दूसरा कोई भी

    Eामािणक काय� करने के पीछे नÈता, सरलता और सी OावहाFरकता थी। उनम0 सारी

    मानवजाित के िश�क होने के बीज पड़े थे।

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    (२२)

    आगा ख़ाँ महल म0 बा‐बापू नज़रबंद थे। उनके साथी और जेल के अिधकारी oी कटेली

    ७५ साल की बा के साथ कैरम खेलते थे। बा को िजताने के िलए सभी Eयासरत रहते थे।

    कभी‐कभी बापू भी खेल देखने के िलए खड़े रहते। बीच म0 एकाध बार खेल लेते।

    कुछ Oायाम हो इसिलए खुले वातावरण म0 खेलने का काय�Vम था। बरसात म0 जेल

    अिधकारी ने एक कमरे म0 टेबल टेिनस खेलने की सुिवधा कर दी।

    सभी ने तय िकया की इस नए खेल का शुभारंभ बा‐बापू से करवाया जाय।

    हाथ म0 रैकेट पकड़े दोनो ंmखलािड़यो ंकी तरह खड़े Nए। बापू ने न जाने िकतने बरसो ंबाद

    हाथ म0 रैकेट पकड़ा होगा। पहली बारी बा की थी।

    बा ‐ “देखो, बेईमानी मत करना।”

    बापू ‐ “तुमसे मL हारता ही kँ। तुमसे हारने म0 मुझे बड़ा मज़ा आता है।” सभी mखल‐

    mखलाकर हँस िदए।

    बापू ने सभी से कहा ‐ “यिद मिहलाओ ंसे पुष अपनी थोड़ी‐सी हार मान ल0, तो मिहलाओ ं

    की शmn का दुगुना फ़ायदा होता है। समाज के कई EÁ सुलझ जाते हL।”

    बा की ओर घूमकर बापू ने कहा ‐ “तुमसे हारने म0 मुझे सफलता ही िमलती है। तुारे

    साथ होने से ही मेरी शोभा है।”

    एक‐दूसरे से हार cीकार कर िवजयी होने वाले इस अनोखे दÉि� की ओर सभी Eसता

    से देखते रहे थे।

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    (२३)

    गांधीजी का अथ� है काम का िनया_ा जलEपात। साथ ही आराम कर लेने की उनम0 अ¿ुत

    शmn थी। थकने पर थोड़ी देर के िलए सो जाते। कुछ ही पलो ंम0 िफर से काम के िलए

    तरोताज़ा।

    सुबह मािलश करवाने के बाद पानी के टब म0 ही थोड़ी देर सो जाते। इसी बीच मनुबहन

    को उनकी दाढ़ी बनाने का काम िनबटाना होता।

    मनुबहन को लगता िक बापू मुmल से सोए हL। जाग जाएँगे यह सोचकर हजामत का

    काम रोक देती।ं बापू काम िनकलवाने म0 बड़े मािहर। उTोनें मनुबहन को समझाया ‐

    “यिद मL सो भी जाता kँ तो भी तु0 हजामत करनी चािहए। तभी मL ¦ादा सो पाऊँगा।

    मेरा काम भी हो जाएगा। पर अभी तुमने यह नही ंसीखा। इसिलए उसका फल मुझे

    भुगतना है। जागते रहना है। काम के नही ंइसकी चेतावनी भी देते रहना है।”

    “इस तरह जब तक सो सकता kँ तब तक िचंता नही।ं सोने की यह शmn िजस िदन चली

    जाएगी, तब तुम समझना िक मेरा पतन है। और मL समझूँगा िक यह पतन मुझम0 रहे दंभ

    के कारण है। रामनाम मेरे «दय म0 नही ंहै। जब तक इस तरह सोने की शmn ईर देता

    है, तब तक मुझे िचंता नही ं है। ईर पर o¯ा रखकर तु0 अपना काम जारी रखना

    चािहए। सब पर दया करने वाला वह है। वह िकसी का बुरा नही ंकरता। मनु¸ ख़ुद ही

    अपना बुरा करता है और कहता है ईर ने बुरा िकया |

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    (२४)

    एक बार देशबंधु िच�रंजनदास दाजdिलंग म0 गंभीर [प से बीमार थे। उनका हाल‐चाल

    पूछने गांधीजी वहाँ गए Nए थे। लौटते समय ‘ढाका मेल' पकड़कर बापू को नवाबगंज गाँव

    म0 एक काय�Vम म0 जाना था। राKे म0 पहाड़ का थोड़ा िह¤ा रेल की पटरी पर टूटकर

    िगरने से ‘ढाका मेलʼ छूटने की संभावना थी। समय पर न पNँचना गांधीजी को मंज़ूर नही ं

    था।

    एक साथी ने ख़ास गाड़ी के िवषय म0 बताया। उTोनें cीकार कर िलया। वाइसराय को

    िदया Nआ समय िजतनी सÊती से िनभाता kँ, उतनी सÊती से मुझे अपने लोगो ंको िदए

    गए समय को भी िनभाना चािहए।

    ख़ास गाड़ी का िकराया १,१४०/‐ पए अदा िकए और िनि´त काय�Vम म0 सही समय पर

    उपmथत Nए।

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    (२५)

    गांधीजी िबहार के चंपारण िजले म0 याtा कर रहे थे। उTोनें कई cयं सेवको ंको आस‐

    पास के गाँवो ंम0 \ूल खोलने और चलाने के काय� म0 लगाया।

    एक बार बापू ने बा से कहा ‐ “बो ंके िलए तुम भी यहाँ \ूल शु[ करो।”

    बा ‐ “\ूल खोलकर मL या क[ँ ? या इन बो ंको गुजराती पढ़ाऊँ ? उनकी भाषा

    मुझे नही ंआती है। मL उनके साथ बात कैसे क[ँगी ?

    बापू ‐ “बो ंकी िश�ा का पहला पाठ cRता है। िकसानो ंके बो ंको इकËा करो।

    उनके आँख‐दाँत देखो। उT0 ान कराओ। सफाई की आदत डालो। यह कम िश�ा नही ं

    है। यह आज से ही शु[ कर सकती हो।”

    इस तरह बा की भी पाठशाला शु[ Nई।

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    (२६)

    यरवदा जेल म0 रोटी बनाने वालो ंने िबÌी पाली थी। उसने दो बे िदए थे।

    िबÌी अर आकर बापू के खुले मुलायम पैरो ंके पास िलपटकर बैठती। अब उसके

    बे भी साथ आने लगे। एक बा vार से खेलने लगा। िबÌी की पँूछ को चूहा मानकर

    दूर से आता और पँूछ को मँुह म0 ले लेता। उस समय बापू रm\न बॉÎ की िकताब पढ़

    रहे थे। पढ़ना बंद करके देखने लगे।

    धीरे‐धीरे िबÌी के बे बापू से िहल‐िमल गए। Eाथ�ना के समय बापू की गोद म0 बैठते।

    सबके साथ खेलते। खाने के समय उछल‐कूद करते और Ïाऊँ‐Ïाऊँ का शोर मचा

    देते।

    सरदार वÌभभाई पटेल बो ंको ज़रा िचढ़ाते। खाना ढँकने की तार की जाली बो ंपर

    रख देते। अंदर बे घबरा जाते।

    एक बार एक बा बNत घबरा गया। जाली को िसर मारते‐मारते बरामदे के छोर तक ले

    गया। वहाँ उसके नीचे से बाहर िनकला। नTे बे की बुm¯ को देखकर सभी Eभािवत

    Nए। अभी भी उसकी घबराहट शांत नही ंNई थी। बापू को दया आई।

    थोड़ी दूर जाकर उसने शौच की तैयारी की। ज़मीन खोदकर गड् डा िकया। िफर िम§ी से

    ढँक िदया। वहाँ िम§ी ¦ादा नही ंथी, इसिलए दूसरी जगह गया। वहाँ िVया पूरी तरह से

    पूण� की। गÐा ढँकने म0 दूसरे बे ने उसकी मदद की।

    िबÌी के बो ंMारा cRता का Eयास देख बापू ने कहा – “इन बो ंपर आकाश से

    पुÑवृिP करनी चािहए।”

    मीराबहन को खत िलखा। उसम0 िबÌी के बो ंकी cRता की िश�ा के बारे म0 िलखे

    िबना नही ंरह सके।

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    “हमारे यहाँ िबÌी के दो vारे से बे हL। माता के मूक आचरण से वे िश�ा लेते हL। माता

    सारे समय उनकी आँखो ंके सामने रहती है। उनकी मूल वKु आचरण है।”

    (२७)

    यरवदा जेल म0 गांधीजी के साथ सरदार वÌभभाई पटेल और महादेवभाई भोर म0 चार

    बजे उठकर Eाथ�ना करते थे। Eाथ�ना के बाद नीबूं और शहद का पानी पीते थे। शहद और

    नीबूं के रस पर गरमा‐गरम पानी डाला जाता था। उसके ठंडा होने तक राह देखनी होती

    थी। इस दौरान पढ़ने का काय�Vम चलता। गांधीजी गरम पानी पर कपड़े का टुकड़ा रखना

    शु[ कर देते।

    एक िदन उTोनें कहा ‐ “महादेव, पानी को इस टुकड़े से यो ंढँकता kँ ? छोटे‐छोटे इतने

    सारे कीटाणु हवा म0 होते हL िक उनका पानी की भाँप के कारण अंदर िगरना संभव है।

    इसिलए इस कपड़े से ढँकता kँ, तािक बचा जा सके।”

    यह सुनकर सरदार वÌभभाई से रहा नही ंगया। वे बोले ‐ “बापू, इतनी हद तक हम

    अिहंसा का पालन नही ंकर सकते।”

    गांधीजी ने हँसकर कहा ‐ “अिहंसा न सही, cRता का पालन तो कर सकते हL।”

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    (२८)

    ‘सं_ह िकया साँप भी काम काʼ यह मुहावरा कहाँ से आया इस पर यरवदा जेल म0 एक

    बार चचा� चली।

    बापू ने एक कहानी कही ‐ “एक बुिढ़या के घर साँप िनकला। लोगो ंने उसे मार डाला।

    बुिढ़या ने उसे दूर फ0 कने के बजाय घर की छत पर डाला। आसमान म0 एक चील उड़ रही

    थी। वह कही ं से मोती की माला लाई थी। उसने साँप को देखा। उसे माला से ¦ादा

    कीमती वKु जानकर माला को छत पर डाल साँप उठा ले गई। वृ¯ा ने मरे साँप को

    संभाल कर माला पाई।”

    सरदार ने दूसरी कहानी कही ‐ “एक बिनये के यहाँ साँप िनकला। उसे मारने वाला कोई

    नही ंिमला। िकसी की मारने की िहत नही ंNई। इसिलए बिनया ने साँप को पतीले के

    नीचे ढँक िदया। रात को चोर आए। पतीले के नीचे कुछ होगा सोचकर खोलते ही अपने

    Eाणो ंसे हाथ धो बेठे।”

    इस तरह हर एक ने अपने cभाव अनुसार िविशP कहानी कही।

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    (२९)

    जोहािनसबग� म0 गांधीजी भोर म0 ही Eाथ�ना करते। कभी च की पर गेkँ पीसते, चूÒा जलाते

    या केतली म0 पानी गरम करने के िलए रखते।

    मकान के पाखाने की बाÓी से छह से दस फीट ऊँची एक टंकी साफ होती थी। नहाने‐

    धोने का पानी भी उसी म0 इकËा होता था। उस टँकी को खाली करने के िलए हÂे म0 एक

    बार Ïुिनिसपािलटी की दो घोड़ो ंसे खीचंी जाने वाली लोहे की टँकी लेकर हmÔयो ंकी

    एक टुकड़ी आती थी।

    सफाई का काम पूरा होते ही cR होकर, सदd के मौसम म0 कपड़ो ंकी कमी के कारण

    काँपते Nए हÔी गांधीजी के पास आते। उनके टमलर म0 अपने हाथ से बनाई Nई गरमा‐

    गरम चाय केतली से डालने का काम गांधीजी िकया करते थे।

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    (३०)

    सेवा_ाम म0 एक बार अमेFरकी िमशनरी डॉज़ॉन मॉट ने गांधीजी से पूछा ‐ “आपके जीवन

    का सबसे सृजना/क अनुभव कौन‐सा है, िजससे एक नए जीवन का िनमा�ण हो सकता

    है ? उस अनुभव के बारे म0 कुछ बताइए।”

    गांधीजी ने कहा िक ऐसे अनुभव तो बNत हL। मेरे जीवन की राह बदलने वाली एक hृित

    इस समय याद आ रही है।”

    इतना कहकर बापू ने मेFरबग� की एक घटना का वण�न िकया। वे चौबीस साल के जवान

    बैFर£र थे। दि�ण अ¢ीका म0 सेठ अ7ुÌा के केस के िसलिसले म0 बुलाने पर डब�न

    पNँचे। एक स�ाह बाद सेठ ने उT0 िEटोFरया भेजा।

    पहले दज का िटकट लेकर उT0 गाड़ी म0 िबठाया गया। लगभग नौ बजे गाड़ी नाताल की

    राजधानी मेFरबग� पNँची। एक गोरा याtी िडÕे म0 चढ़ा। वह 'रंग‐िबरंगे” गांधीजी को

    देखकर िझझक गया। बाहर जाकर एक दो अमलदार को साथ ले आया। गांधीजी कुछ

    नही ंबोले। दूसरा एक अमलदार आया। उसने गांधीजी को आिख़री िडÕे म0 जाने के िलए

    कहा।

    गांधीजी ने कहा ‐ “मेरे पास पहले दज का िटकट है।”

    “उससे या होता है? मL तुमसे कहता kँ िक तु0 गाड़ी के अंितम िडÕे म0 जाना ही होगा!”

    “मुझे इस िडÕे म0 डब�न से िबठाया गया है। मL इसी म0 जाना चाहता kँ।”

    “यह नही ंहो सकता। तु0 उतरना ही पड़ेगा। यिद नही ंउतरोगे तो िसपाही तु0 उतारेगा।”

    “िसपाही भले उतार0 , पर मL cयं नही ंउत[ँगा।” युवक गांधी ने yढ़ता से जवाब िदया।

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    िसपाही आया। उसने गांधीजी का हाथ पकड़ा और धा मारकर उT0 िडÕे से नीचे

    उतार िदया। उTोनें दूसरे िडÕे म0 जाने से इनकार कर िदया। गाड़ी रवाना Nई।

    गांधीजी Eती�ालय गए। बठुआ अपने हाथ म0 रखा। दूसरे सामान को उTोनें छुआ तक

    नही।ं रेलवे वालो ंने उसे हटवाकर कही ंरखा।

    कड़ाके की सदd थी और वह भी दि�ण अ¢ीका के पहाड़ी Eदेश की। ओवरकोट सामान

    के साथ था। उसे मँगाने की िहत नही ंNई। िफर अपमान होगा। सदd बढ़ रही थी। युवक

    गांधी का आ/मंथन और धम�मंथन चल रहा था। अपने अिधकार के िलए लडँू या यही ंसे

    देश वापस चला जाऊँ ? या ऐसे अपमानो ंको सहन करते Nए केस ख़/ कर वतन लौट

    जाऊँ ? केस छोड़कर वापस जाना नामदd होगी। यह जो अपमान सहा वह ऊपरी दद� है,

    भीतर के महारोग का िचÖमाt। महारोग तो रंगMेष है। यिद उस महारोग को िमटाने की

    शmn है, तो उस शmn का उपयोग करना होगा। ऐसा करते Nए cयं पर जो भी कP

    आएँ, उT0 बदा�µ करना होगा। ऐसा िन´य कर वे दूसरी गाड़ी म0 जैसे‐तैसे आगे बढ़ने के

    िलए तैयार हो गए।

    डॉ. मॉट से गांधीजी ने आगे कहा ‐ “इसम0 सृजना/क अनुभव यह है िक मुझम0 जीवन के

    Eित डर बैठ गया था। मL अंधेरे Eती�ालय म0 दाmखल Nआ, वहाँ एक गोरा था। मुझे उससे

    डर लगा। मेरा धम� या है ? मLने अपने आप से सवाल पूछा। मुझे अपने वतन वापस जाना

    चािहए या ईर के सहारे आगे बढ़ना चािहए ? मLने िन´य िकया िक रहना और सहना