अर्जुन उवाच - hemantlodha.com · कर्ु कार् के...

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उवाच संयासय महाबाहो तवममछावेदित म् यागय षीके श थके मशनिष िि सयास का तव या, के शव कह दो ान। षीके श है याग या, लेना चाह ान ॥१८१॥ ीभगवान वाच कायािां कममणां यासं संयासं कवयो वि सवमकमफलयागं hi ाह यागं वचणा कु का के याग को, कहते है सयास। कु फल के याग को, ानी कहते यास ॥१८२॥ यायं िषवदियेके कमाह मिीवषण यिाितपकमि यायममनत चापरे यागो सभी सका कु , कहे हान। दान तप यागगये , ानी का ान ॥१८३॥ निचयं मे यागे भरतसम यागो दह रषया वध संकीनतमत भरतेठ झसे नो, याग वषय का ान। याग तीन कार के , सहप रष ान ॥१८४॥ यिाितपकमि यायं कायमेव तत ्

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अर्जनु उवाच

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वममच्छामम वेदितुम ्।

त्यागस्य च हृषीकेश पथृक्केमशनिषूिि ॥

सन्यास का तत्व क्या, केशव कह दो ज्ञान।

ह्रषीकेश है त्याग क्या, लेना चाह ूँ र्ान ॥१८– १॥

श्रीभगवानजवाच

काम्यािा ंकममणा ंन्यासं संन्यासं कवयो वविुुः ।

सवमकममफलत्यागंhi प्राहुस्त्यागं ववचक्षणाुः ॥

कर् ुकार् के त्याग को, कहते है सन्यास।

कर् ुफल के त्याग को, ज्ञानी कहते न्यास ॥१८– २॥

त्याज्यं िोषवदित्येके कमम प्राहुममिीवषणुः ।

यज्ञिाितपुःकमम ि त्याज्यममनत चापरे ॥

त्यागो सभी सकार् कर्,ु र्न कज छ कहे र्हान।

यज्ञ दान तप न त्यागगये, ज्ञानी र्न का र्ान ॥१८– ३॥

निश्चयं शणुृ मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।

त्यागो दह पुरुषव्याघ्र त्रत्रववधुः संप्रकीनतमतुः ॥

भरतशे्रष्ठ र्जझसे सजनो, त्याग ववषय का ज्ञान।

त्याग तीन प्रकार के, ससिंहपजरुष त र्ान ॥१८– ४॥

यज्ञिाितपुःकमम ि त्याज्यं कायममेव तत ्।

यज्ञो िािं तपश्चवै पाविानि मिीवषणाम ्॥

यज्ञ दान तप कर् ुका, करो कभी ना त्याग।

यज्ञ दान तप ननश्चय ही, ज्ञानी का भी राग ॥१८– ५॥

एतान्यवप तु कमामणण सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।

कतमव्यािीनत मे पाथम निश्श्चतं मतमुत्तमम ्॥

प र् ुकरो सब कर् ुये,फल इच्छा को नोच।

भाव पार् ुकतवु्य रहे, ऐसी र्ेरी सोच ॥१८– ६॥

नियतस्य तु संन्यासुः कममणो िोपपद्यते ।

मोहात्तस्य पररत्यागस्तामसुः पररकीनतमतुः ॥

ननयत कार् को त्याग र्त, ऐसा ले त र्ान।

त्याग र्ोहवश र्ो करे, तर्ोगजर्ी त र्ान ॥१८– ७॥

िुुःखममत्येव यत्कमम कायक्लेशभयात्त्यजेत ्।

स कृत्वा राजस ंत्यागं िैव त्यागफलं लभेत ्॥

करें त्याग दजख को सर्झ , भय काया या क्लेष।

ऐसा त्याग रर्ोगजर्ी, त्याग लाभ ना शषे ॥१८– ८॥

कायमममत्येव यत्कमम नियतं क्रियतेऽजुमि ।

सङ्गं त्यक्त्वा फल ंचवै स त्यागुः साश्त्त्वको मतुः ॥

ननयत कर् ुकतवु्य सर्झ, अर्जनु करता कार्।

फल आसक्क्त त्याग कर, सतगजर् का यह कार् ॥१८– ९॥

ि द्वेष्ट्यकुशल ंकमम कुशले िािुषज्जते ।

त्यागी सत्त्वसमाववष्टटो मेधावी नछन्िसंशयुः ॥

घरृ्ा अशजभ कर्ठु नही, शजभ र्े नही लगाव।

ज्ञानी त्यागी सतगजर्ी, सिंशय का नही भाव ॥१८– १०॥

ि दह िेहभतृा शक्यं त्यक्तुं कमामण्यशषेतुः ।

यस्तु कममफलत्यागी स त्यागीत्यमभधीयते ॥

प र् ुत्याग सिंभव नहीिं, कार् देह की चाह।

कर् ुफल का त्याग करे, त्यागी की यह राह ॥१८– ११॥

अनिष्टटममष्टटं ममश्र ंच त्रत्रववध ंकममणुः फलम ्।

भवत्यत्यागगिां प्रेत्य ि तु संन्यामसिां क्वगचत ्॥

सर्श्रर् ननष्ट अननष्ट या , तीन कर् ुफल र्ान।

सिंसारी छ टे नहीिं, त्यागी ईश्वरवान ॥१८– १२॥

पञ्चतैानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।

सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि मसद्धये सवमकममणाम ्॥

कारर् पाूँच र्हाबली, र्जझसे ले त र्ान।

सािंख्य भी र्ाने इन्हें, कर् ुससद्गि त र्ान ॥१८– १३॥

अगधष्टठािं तथा कताम करणं च पथृश्ववधम ्।

ववववधाश्च पथृक्चषे्टटा िैवं चवैात्र पञ्चमम ्॥

देह कता ुस्र्ान अरु, इक्न्िय कई प्रकार।

तरह तरह की चषे्टा, दैवीय चर्त्कार ॥१८– १४॥

शरीरवाङ््‌मिोमभयमत्कमम प्रारभते िरुः ।

न्याय्यं वा ववपरीतं वा पञ्चतैे तस्य हेतवुः ॥

देह वचन र्न करर् कर, र्ानव करता कार्।

उगचत सिंग अनजगचत रहे, पाूँच करर् का कार् ॥१८– १५॥

तत्रवैं सनत कतामरमात्मािं केवलं तु युः ।

पश्यत्यकृतबुद्गधत्वान्ि स पश्यनत िमुमनतुः ॥

र्ो कता ुखजद को कहे , कारर् पाूँच न र्ान।

बजद्गि उसकी भ्रष्ठ रहे, खजद से ही अन्र्ान ॥१८– १६॥

यस्य िाहंकृतो भावो बुद्गधयमस्य ि मलप्यते ।

हत्वावप स इमााँल्लोकान्ि हश्न्त ि निबध्यते ॥

बजद्गि से र्ो सलप्त नहीिं, अहिंकार नही भाव।

र्ारे पर र्ारे नही, बिंिन नही प्रभाव ॥१८– १७॥

ज्ञाि ंज्ञेयं पररज्ञाता त्रत्रववधा कममचोििा ।

करण ंकमम कतेनत त्रत्रववधुः कममसंग्रहुः ॥

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता बने, कर् ुप्रेरर्ा तीन।

कर्,ु कता ुइक्न्ियािं, कर् ुघटक है तीन ॥१८– १८॥

ज्ञाि ंकमम च कताम च त्रत्रधवै गुणभेितुः ।

प्रोच्यते गुणसंख्यािे यथावच्छृणु तान्यवप ॥

ज्ञान, कर् ु कताु सदा, तीन तरह के भेद।

सभन्न सगजर् अनजरूप है, सजन र्जझसे ये वेद ॥१८– १९॥

सवमभूतेष ुयेिैकं भावमव्ययमीक्षते ।

अववभक्तं ववभक्तेषु तज्ज्ञािं ववद्गध साश्त्त्वकम ्॥

सब र्ीवों को एक सा, हो अववनाशी भाव।

अलग अलग पर है नहीिं, वो है सत्य स्वभाव ॥१८– २०॥

पथृक्त्वेि तु यज्ज्ञािं िािाभावान्पथृश्ववधाि ्।

वेवत्त सवेष ुभूतेषु तज्ज्ञािं ववद्गध राजसम ्॥

सभन्न सभन्न र्ो र्ीव र्ें, सलये सभन्नता ज्ञान।

रर्ोगजर्ी उसको सर्झ, क्र्सको ऐसा ज्ञान ॥१८– २१॥

यत्त ुकृत्स्िविेकश्स्मन्काये सक्तमहैतुकम ्।

अतत्त्वाथमविल्पं च तत्तामसमुिाहृतम ्॥

प र् ुरुप र्ो सलप्त हो, बबना हेतज का कार्।

सब कज छ सर्झ ेतजच्छ को, तर्ोगजर्ी है नार् ॥१८– २२॥

नियतं सङ्गरदहतमरागद्वषेतुः कृतम ्।

अफलप्रेप्सुिा कमम यत्तत्साश्त्त्वकमुच्यते ॥

राग द्वेष का त्याग करे, सदा करे र्ो कार्।

फल की इच्छा ना करे, सतोगजर्ी का कार् ॥१८– २३॥

यत्त ुकामेप्सुिा कमम साहंकारेण वा पुिुः ।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुिाहृतम ्॥

रहे सदा फल कार्ना, अहिंकार का भाव।

कार् करे भरप र र्ो, रर्ोंगजर्ी कहलाव ॥१८– २४॥

अिुबन्ध ंक्षयं दहसंामिवेक्ष्य च पौरुषम ्।

मोहािारभ्यते कमम यत्तत्तामसमुच्यते ॥

हहिंसा फल सोच ेनहीिं, करता है र्ो कार्।

कर् ुर्ोहवश र्ो करे, तर्ोगजर्ी है नार् ॥१८– २५॥

मुक्तसङ्गोऽिहंवािी धतृ्युत्साहसमश्न्वतुः ।

मसद्ध्यमसद्ध्योनिमववमकारुः कताम साश्त्त्वक उच्यते ॥

अहिंकार से र्जक्त रहे, र्ोश भरा भरप र।

हार र्ीत गचिंता नहीिं, सतोगजर्ी वो श र ॥१८– २६॥

रागी कममफलप्रेप्सुलुमब्धो दहसंात्मकोऽशुगचुः ।

हषमशोकाश्न्वतुः कताम राजसुः पररकीनतमतुः ॥

कर् ुफलों का लोभ रखे, अशजद्ि हहिंसावान।

सजखदजख र्ब ववचसलत करे, रर्गजर् हो बलवान ॥१८– २७॥

अयुक्तुः प्राकृतुः स्तब्धुः शठो िैष्टकृनतकोऽलसुः ।

ववषािी िीर्मसूत्री च कताम तामस उच्यते ॥

कपटी वविोही हठी, आलस कर अपर्ान।

खखन्न र्ना करते ववलम्ब, तर्ोगजर्ी त र्ान ॥१८– २८॥

बुद्धेभेिं धतृेश्चवै गुणतश्स्त्रववध ंशणुृ ।

प्रोच्यमािमशषेेण पथृक्त्विे धिंजय ॥

ियै,ु बजद्गि भी तीन गजर्ी, अर्जनु र्जझसे र्ान।

र्ैं कहता ववस्तार से, अलग अलग गजर् ज्ञान ॥१८– २९॥

प्रववृत्त ंच निववृत्त ंच कायामकाये भयाभये ।

बन्ध ंमोक्ष ंच या वेवत्त बुद्गधुः सा पाथम साश्त्त्वकी ॥

क्या करें क्या नहीिं करें, भयो अभय का ज्ञान।

सर्झ ेबिंिन र्ोक्ष का , सतोगजर्ी त र्ान ॥१८– ३०॥

यया धमममधम ंच काय ंचाकायममेव च ।

अयथावत्प्रजािानत बुद्गधुः सा पाथम राजसी ॥

िर् ुअिर् ुका भेद नहीिं, नहीिं कर् ुका ज्ञान।

बजद्गि न ये सर्झ ेकभी, रर्ोगजर्ी पहचान ॥१८– ३१॥

अधम ंधममममनत या मन्यते तमसावतृा ।

सवामथामश्न्वपरीतांश्च बुद्गधुः सा पाथम तामसी ॥

अिर् ुको ही िर् ुकहे, अिंिकार को ज्ञान।

बजद्गि र्हाूँ उल्टी चले, तर्ोगजर्ी पहचान ॥१८– ३२॥

धतृ्या यया धारयते मिुःप्राणेश्न्द्रयक्रियाुः ।

योगेिाव्यमभचाररण्या धनृतुः सा पाथम साश्त्त्वकी ॥

सिंकल्पो का िारर् करे, वश र्े र्न सह प्रार्।

योग ननरिंतर भी कर, पार् ुसाक्त्वक बार् ॥१८– ३३॥

यया त ुधममकामाथामन्धतृ्या धारयतेऽजुमि ।

प्रसङ्गेि फलाकाङ्क्षी धनृतुः सा पाथम राजसी ॥

िर् ुकार् और अर् ुर्ें, सलप्त हजआ कौन्तेय।

फल की आशा र्ें बूँिा, रर् ही उसका ध्येय ॥१८– ३४॥

यया स्वप्िं भयं शोकं ववषािं मिमेव च ।

ि ववमुञ्चनत िमुेधा धनृतुः सा पाथम तामसी ॥

सपना, शोक, ववषाद, भय, सलप्त र्ोह र्ें र्ान।

दजबजदु्गि त्यागे नहीिं, उसे तार्सी र्ान ॥१८– ३५॥

सुख ंश्त्विािी ंत्रत्रववध ंशणुृ मे भरतषमभ ।

अभ्यासाद्रमते यत्र िुुःखान्तं च निगच्छनत ॥

तीन तरह का सजख सजनो, भरत ऋषभ यह ज्ञान।

रर्ता र्ो अभ्यास से, दजख का अिंत हो र्ान ॥१८– ३६॥

यत्तिगे्र ववषममव पररणामेऽमतृोपमम ्।

तत्सुख ंसाश्त्त्वकं प्रोक्तमात्मबुद्गधप्रसािजम ्॥

आदी र् ेववष सा लगे, अिंत हो सजिा सर्ान।

उसे सतगजर्ी सजख कहो, प्रखर बजद्गि सिंतान ॥१८– ३७॥

ववषयेश्न्द्रयसंयोगाद्यत्तिगे्रऽमतृोपमम ्।

पररणाम ेववषममव तत्सुख ंराजसं स्मतृम ्॥

ववषयक इिंहिय योग से, अर्तृ रहे सर्ान।

ज़हर सर्ले पररर्ार् र्ें, रर्सजख उसको र्ान ॥१८– ३८॥

यिगे्र चािुबन्धे च सुख ंमोहिमात्मिुः ।

निद्रालस्यप्रमािोत्थ ंतत्तामसमुिाहृतम ्॥

अिंत या आरिंभ रहे, र्ोहभरा सजख पाय।

नीिंद र्ोह आलस सर्ले, यही तर्स कहलाय ॥१८– ३९॥

ि तिश्स्त पगृथव्यां वा दिवव िेवेषु वा पुिुः ।

सत्त्वं प्रकृनतजैमुमक्त ंयिेमभुः स्याश्त्त्रमभगुमणैुः ॥

नहीिं ककसी भी लोक र्े, देव हदव्य आलोक।

तीन गजर्ों से र्जक्त रहे, कोई नही है लोक ॥१८– ४०॥

ब्राह्मणक्षत्रत्रयववशा ंशूद्राणां च परन्तप ।

कमामणण प्रववभक्तानि स्वभावप्रभवैगुमणैुः ॥

क्षत्रीय ब्राह्र्र् वैश्य या, रहे श ि का भाव।

कर् ुववभाक्र्त ही करता, गजर् की तरह स्वभाव ॥१८– ४१॥

शमो िमस्तपुः शौच ंक्षाश्न्तराजमवमेव च ।

ज्ञाि ंववज्ञािमाश्स्तक्यं ब्रह्मकमम स्वभावजम ्॥

शािंत सिंयर् तप ननर्लु, सत्य सहहष्र्ज स्वभाव।

ज्ञान िर् ुववज्ञान का, ब्राह्र्र् रखता भाव ॥१८– ४२॥

शौय ंतेजो धनृतिामक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायिम ्।

िािमीश्वरभावश्च क्षात्र ंकमम स्वभावजम ्॥

यजद्ि वीरता दक्षता, , िीरर् ना डर भाव।

दानवीर नेता बने, क्षबत्रय का स्वभाव ॥१८– ४३॥

कृवषगौरक्ष्यवाणणज्य ंवैश्यकमम स्वभावजम ्।

पररचयामत्मकं कमम शूद्रस्यावप स्वभावजम ्॥

गौ रक्षा खेती ििंिा, वैश्य कर् ुके भाव।

कार् र्ो सेवा का करे, वो ही शजि स्वभाव ॥१८– ४४॥

स्वे स्व ेकममण्यमभरतुः संमसद्गध ंलभते िरुः ।

स्वकममनिरतुः मसद्गध ंयथा ववन्िनत तच्छृणु ॥

अपने अपन ेकरर् से, ससद्गि पात नर र्ात ।

ससद्गि सर्ले स्वकर् ुसे, सजन र्जझसे यह बात ॥१८– ४५॥

यतुः प्रववृत्तभूमतािां येि सवमममिं ततम ्।

स्वकममणा तमभ्यच्यम मसद्गध ंववन्िनत मािवुः ॥

र्ो उद्भव सब र्ीव का, फैला र्ो हर ओर।

प र्ा कर स्व कर् ुकी, सर्ले ससद्गि नर ठौर ॥१८– ४६॥

शे्रयान्स्वधमो ववगुणुः परधमामत्स्विुश्ष्टठतात ्।

स्वभावनियतं कमम कुवमन्िाप्िोनत क्रकश्ल्बषम ्॥

शे्रष्ठ स्विर् ुअप र् ुभी, प र्ु रहे पर कार्।

कररये कर् ु स्वभाव से, हो न पाप का नार् ॥१८– ४७॥

सहजं कमम कौन्तेय सिोषमवप ि त्यजेत ्।

सवामरम्भा दह िोषेण धमूेिाश्विररवावतृाुः ॥

अर्जनु कर् ुन त्यागगये , चाहे उसर्ें दाग।

दोष रहे हर कार् र्ें, िजूँआ ढकता आग ॥१८– ४८॥

असक्तबुद्गधुः सवमत्र श्जतात्मा ववगतस्पहृुः ।

िैष्टकम्यममसद्गध ंपरमां संन्यासेिागधगच्छनत ॥

राग नहीिं सिंयर् सही, रहे न इच्छा नार्।

परर् ससद्गि उसको सर्ले, सन्यासी सा कार् ॥१८– ४९॥

मसद्गध ंप्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्िोनत निबोध मे ।

समासेिैव कौन्तेय निष्टठा ज्ञािस्य या परा ॥

ससद्गि सर्ले तो ब्रह्र् सर्ले, र्जझसे त यह र्ान।

सार र् ैतजझसे कह ूँ, परर् यही है ज्ञान ॥१८– ५०॥

बुद्ध्या ववशुद्ध्या युक्तो धतृ्यात्मािं नियम्य च ।

शब्िािीश्न्वषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युिस्य च ॥

शजद्ि बजद्गि व ियै ुसे, खजद पर सिंयर् होय।

शब्द, ववषय का त्याग करे, रागद्वेष को खोय ॥१८– ५१॥

ववववक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमािसुः ।

ध्याियोगपरो नित्यं वैरावय ंसमुपागश्रतुः ॥

भोर् अल्प एकािंत हो, वश र्न वचन व काय।

ध्यान योग पर ननत्य रहे, वरैागी र्न पाय ॥१८– ५२॥

अहंकारं बल ंिप ंकाम ंिोध ंपररग्रहम ्।

ववमुच्य निमममुः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

कार् क्रोि बल दप ुनही, वस्तज अहिं का त्याग।

शािंत रहे, र्ै कज छ नहीिं, सर्ले ब्रह्र् का भाग ॥१८– ५३॥

ब्रह्मभूतुः प्रसन्िात्मा ि शोचनत ि काङ्क्षनत ।

समुः सवेष ुभूतेषु मद्भश्क्तं लभते पराम ्॥

ब्रह्र् सर्ले आनिंद सर्ले, ना इच्छा ना शोक।

भाव सभी पर सर् रहे, सर्ले परर् र्र् ्लोक ॥१८– ५४॥

भक्त्या माममभजािानत यावान्यश्चाश्स्म तत्त्वतुः ।

ततो मा ंतत्त्वतो ज्ञात्वा ववशते तििन्तरम ्॥

हो भक्क्त तो र्ान र्जझ,े र्ेरा सत्य स्वरूप।

सत्य र्ेरा र्ो र्ान ले, आन सर्ले र्र् ्रूप ॥१८– ५५॥

सवमकमामण्यवप सिा कुवामणो मद्व्यपाश्रयुः ।

मत्प्रसािािवाप्िोनत शाश्वतं पिमव्ययम ्॥

कार् सभी करते रहे, रख कर र्ेरा ध्यान।

र्र् प्रसाद सर्लता रहे, िार् सर्ले र्र् ्र्ान ॥१८– ५६॥

चतेसा सवमकमामणण मनय संन्यस्य मत्परुः ।

बुद्गधयोगमुपागश्रत्य मश्च्चत्तुः सततं भव ॥

चतेन र्न से कर् ुकरो, रख कर र्ेरा ध्यान।

योगबजद्गि र्जझर्ें रखो, सदा करो र्र् ्ध्यान ॥१८– ५७॥

मश्च्चत्तुः सवमिगुामणण मत्प्रसािात्तररष्टयमस ।

अथ चते्त्वमहंकारान्ि श्रोष्टयमस वविङ्क्ष्यमस ॥

सर्ट र्ाये बािा सभी, र्ब र्जझर्ें हो ध्यान।

अहिंकार र्ें रहे अगर, नष्ट सभी हो ज्ञान ॥१८– ५८॥

यिहंकारमागश्रत्य ि योत्स्य इनत मन्यसे ।

ममथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृनतस्त्वां नियोक्ष्यनत ॥

र्ाने झ ठे अहिं को , र्ो डाले हगर्यार।

सर्थ्या हो सिंकल्प सभी, ना कज दरत के यार ॥१८– ५९॥

स्वभावजेि कौन्तेय निबद्धुः स्वेि कममणा ।

कतु ंिेच्छमस यन्मोहात्कररष्टयस्यवशोऽवप तत ्॥

अर्जनु बिंिे स्वभाव से, लड़ना तेरा कार्।

ककया र्ोहवश र्ो नही, कफर भी ना आरार् ॥१८– ६०॥

ईश्वरुः सवमभूतािां हृद्िेशऽेजुमि नतष्टठनत ।

भ्रामयन्सवमभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

ईश्वर है सब र्ीव र्ें, अर्जनु र्न र्ें वास।

हर र्ीवन र्ें है वही ,यन्त्र चसलत हर श्वास ॥१८– ६१॥

तमेव शरणं गच्छ सवमभाविे भारत ।

तत्प्रसािात्परां शाश्न्तं स्थािं प्राप्स्यमस शाश्वतम ्॥

र्ाता र्ो उसकी शरर्, भारत भाव सर्ान ।

प्रभज शािंती देते परर्, परर् बनाये स्र्ान ॥१८– ६२॥

इनत त ेज्ञािमाख्यातं गुह्याद््‌गुह्यतरं मया ।

ववमशृ्यैतिशषेेण यथेच्छमस तथा कुरु ॥

बता हदया र्ैंने तजझ,े परर् ग ढ़ यह ज्ञान।

प र् ुरूप गचिंतन करो, कफर लो तजर् सिंज्ञान ॥१८– ६३॥

सवमगुह्यतम ंभूयुः शणुृ मे परमं वचुः ।

इष्टटोऽमस मे दृढममनत ततो वक्ष्यामम ते दहतम ्॥

ग ढ़ बात तजर् पजन: सजनो, परर् वचन यह र्ान।

तजर् र्ेरे वप्रयतर् सखा, अपना हहत पहचान ॥१८– ६४॥

मन्मिा भव मद्भक्तो मद्याजी मा ंिमस्कुरु ।

मामेवैष्टयमस सत्यं ते प्रनतजािे वप्रयोऽमस मे ॥

कर गचिंतन र्र् ्भक्त बनो, नर्न करो हर बार।

आना र्ेरे पास है, वचन करो स्वीकार ॥१८– ६५॥

सवमधमामन्पररत्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा ंसवमपापेभ्यो मोक्षनयष्टयामम मा शुचुः ॥

सब िर्ों को त्याग के, शरर् रहो र्र् ्पास।

र् ैपापों से र्जक्त करूूँ , र्जझ पर हो ववश्वास ॥१८– ६६॥

इिं ते िातपस्काय िाभक्ताय किाचि ।

ि चाशुश्रषूव ेवाच्यं ि च मां योऽभ्यसूयनत ॥

सिंयर् भक्क्त नार् नहीिं, उसको नही बताय।

द्वेष र्ाने बबन करे, र्त उसको सर्झाय ॥१८– ६७॥

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तषे्टवमभधास्यनत ।

भश्क्तं मनय परा ंकृत्वा मामेवैष्टयत्यसंशयुः ॥

भक्तों को अवगत करे, परर् ग ढ़ यह बात।

र्जझ र्ें आ कर वो सर्ले, परर् भक्त की र्ात ॥१८– ६८॥

ि च तस्मान्मिुष्टयेष ुकश्श्चन्मे वप्रयकृत्तमुः ।

भववता ि च मे तस्मािन्युः वप्रयतरो भुवव ॥

उससे ज़्यादा हो नही, वप्रयतर् र्ेरा दास।

न होगा ना र्ो नही हजआ, उससे ज़्यादा खास ॥१८– ६९॥

अध्येष्टयते च य इमं धम्य ंसंवािमावयोुः ।

ज्ञाियज्ञेि तेिाहममष्टटुः स्याममनत मे मनतुः ॥

पाठ रहे सिंवाद के, बड़ ेिर् ुकी बात।

ज्ञान यज्ञ र्ेरी भक्क्त, र्ानो र्ेरी बात ॥१८– ७०॥

श्रद्धावाििसूयश्च शणुृयािवप यो िरुः ।

सोऽवप मुक्तुः शुभााँल्लोकान्प्राप्िुयात्पुण्यकममणाम ्॥

भक्क्त सजन ेर्ो द्वेषरहहत, वो र्न ऐसा र्ान।

र्जक्त सर्ले शजभ लोक र्ें, पजननत आत्र् र्न र्ान ॥१८– ७१॥

कश्च्चिेतच्ुतं पाथम त्वयैकागे्रण चतेसा ।

कश्च्चिज्ञािसंमोहुः प्रिष्टटस्ते धिंजय ॥

पार् ुक्या तजर्न ेसजना, चतेन र्न व ध्यान ।

द र हजआ अर्जनु कहो, र्ोह और अज्ञान ॥१८– ७२॥

अर्जनु उवाच

िष्टटो मोहुः स्मनृतलमब्धा त्वत्प्रसािान्मयाच्युत ।

श्स्थतोऽश्स्म गतसन्िेहुः कररष्टये वचिं तव ॥

र्ोह द र, बजद्गि सर्ली, आप कृपा भगवान।

दृढ़ ह ूँ र्ैं सिंशय नहीिं, आज्ञा तेरी र्ान ॥१८– ७३॥

सञ्जय उवाच

इत्यहं वासुिेवस्य पाथमस्य च महात्मिुः ।

संवािममममश्रौषमद्भुत ंरोमहषमणम ्॥

वासजदेव हे अर्जनु भी, आत्र्ा र्ान र्हान

सजनकर बातें अद्भ त यह, रोर्ािंगचत र्न र्ान ॥१८– ७४॥

व्यासप्रसािाच्ुतवािेतद्गुह्यमहं परम ्।

योगं योगेश्वरात्कृष्टणात्साक्षात्कथयतुः स्वयम ्॥

व्यासर्ी ने कृपा कर , सजना ग ढ़ यह ज्ञान।

योगेश्वर श्रीकृष्र् से, सीिा उतरा ज्ञान ॥१८– ७५॥

राजन्संस्मतृ्य संस्मतृ्य संवािममममद्भुतम ्।

केशवाजुमियोुः पुण्यं हृष्टयामम च मुहुमुमहुुः ॥

याद रार्न र्ब करता, वह अद्भ त सिंवाद।

गदगद होता हष ुसे, केशव अर्जनु वाद ॥१८– ७६॥

तच्च संस्मतृ्य संस्मतृ्य रूपमत्यद्भुतं हरेुः ।

ववस्मयो मे महाि ्राजन्हृष्टयामम च पुिुः पुिुः ॥

याद रूप अद्भ त करूूँ , हरर का वो आकार।

ववक्स्र्त होता रार्न र्ैं, पजलककत बारिंबार ॥१८– ७७॥

यत्र योगेश्वरुः कृष्टणो यत्र पाथो धिुधमरुः ।

तत्र श्रीववमजयो भूनतर्ध्ुमवा िीनतममनतममम ॥

योगेश्वर श्रीकृष्र् र्हाूँ, वही िनजिरु दास।

शक्क्त ववर्य ऐश्वय ुवहाूँ, यह र्ेरा ववश्वास ॥१८– ७८॥

ॐ तत्सहदनत श्रीर्द्भगवद्गीतास पननषत्सज ब्रह्र्ववद्यायािं योगशास्त्र े

श्रीकृष्र्ार्जनुसिंवादे र्ोक्षसिंन्यासयोगो नार्ाष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥

Dohe written by CA Hemant C. Lodha and edited by Shri Avinash Bagde