सूर्य ससद्धान्त का काल तथा ...प रर जन भ व...

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सूय सात का काल तथा शुता अरण कु मार उपाा . भूसमका-सभी मूल वा जैसे पुराण, मृसतशाᳫ कᳱ तरह सूय सात का काल भी बेटले आᳰि ने १२-१३व शतािी करने कᳱ चेा कᳱ है। उस सम असिकाश भारत परतथा, सभी सवाल-सव᳡सवाल, पुतकाल पूणय ऱप से कर जला ᳰिे जा चुके थे। के वल ᳰकसी गाव सिपे ᳰकसी सि ᳇ारा हठात् का कᳱ माप, पृवी के चतुिक् थान का िशातर आᳰि के वल ान ᳇ारा नह पता चलेगा। इसके सले एक पूरी राी वथा ᳇ारा माप कᳱ जऱरत है तथा सविेशी सहोग कᳱ भी आवकता है। महाभारत के बाि अमेᳯरका से सपकय भी नह था, उस सम वहा के सपुर का थान सूयसात वामीᳰक रामाण ᳰकसकिा काड (४०/६४, ६४) अचूक सथसत के साथ वणयन सभव नह है। पृवी के सवसभ थान कᳱ सथसत जानने पर ही िथान से एक साथ चर को िखकर उसकᳱ िरी सनकाली जा सकती है। माप (map) के सले नर िखकर अाश-िशातर-ᳰिशा (सरासिका) का सनिायरण करना पड़ता है , अतः इसे नशा (नार) कहते ह। . मासुर का सूय -सात-इसी पुतक ᳰिे सववरण के अनुसार असुर ने सुग समासे अप (१३१ वय , =, =. =) सम पूवय रोमक पन सवववान् के सूय सात का सशोिन ᳰका सजसम बहत सम बीतने के कारण अशुता गी थी। सूय सात के थम अा के कु ि ोक नीचे ᳰिे जाते - - अपावसशे तु कृते मो नाम महासुरः। रह परम पु सजासुायनमुमम्॥२॥ वेिागमसखल ोसता गसतकारणम्। आरािसवववत तपतेपे सुिुककरम्॥३॥ तोसततपसा तेन ीततमै वराᳶथने। हाणा चᳯरत ािामा सवता वम्॥४॥ तमात् वा पुर गि तर ानम् ििसम ते। रोमके नगरे ᳬशापान् लेिावतार िक् ॥ (पूना, आनिाम सत) शृवैकमनाः पूवं िु ि ानमुमम्। ुगे ुगे महीणा वमेव सवववता॥८॥ शाᳫमा तिेवेि पूवं ाह भाकरः। ुगाना पᳯरवतेन कालभेिोऽर केवलम्॥९॥ नवम ोक कᳱ गूढ़ाथय -कासशका टीका रगनाथ जी ने सलखा है -तथा कालवशेन हचारे ᳰकसि᳇ैल भवतीसत ुगातरे तिनतर हचारेु सा तकालसथत लोकवहाराथं शाᳫातरसमव कृ पालु रिवासनसभनात शाᳫाणा वैयम्। एवि मा वतयमान ुगी सूोि शाᳫ सहचारमगीकृ सूोि शाᳫसहचार

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  • सरू्य ससद्धान्त का काल तथा शुद्धता

    अरुण कुमार उपाध्र्ार्

    १. भूसमका-अन्र् सभी मूल वाङ्मर्ों जैसे पुराण, स्मृसतशास्त्रों की तरह सूर्य ससद्धान्त का काल

    भी बेण्टले आदि ने १२-१३वीं शताब्िी में करने की चेष्टा की ह।ै उस समर् असिकाांश भारत

    परतन्र था, सभी सवद्यालर्-सवश्वसवद्यालर्, पुस्तकालर् पूणय रूप स ेनष्ट कर जला दिर्े जा

    चुके थे। केवल दकसी गाांव में सिपे दकसी व्यसि द्वारा हठात् ग्रह कक्षा की माप, पृथ्वी के

    चतुर्दिक् स्थानों का िशेान्तर आदि केवल ध्र्ान द्वारा नहीं पता चलेगा। इसके सलर्े एक पूरी

    राष्ट्रीर् व्यवस्था द्वारा माप की जरूरत ह ै तथा सविशेी सहर्ोग की भी आवश्र्कता ह।ै

    महाभारत के बाि अमेररका स े सम्पकय भी नहीं था, उस समर् वहाां के ससद्धपुर का स्थान

    सूर्यससद्धान्त र्ा वाल्मीदक रामार्ण दकसककन्िा काण्ड (४०/६४, ६४) में अचूक सस्थसत के

    साथ वणयन सम्भव नहीं ह।ै पृथ्वी के सवसभन्न स्थानों की सस्थसत जानने पर ही िो स्थानों से

    एक साथ चन्र को िखेकर उसकी िरूी सनकाली जा सकती ह।ै माप (map) के सलर्े नक्षर

    िखेकर अक्षाांश-िशेान्तर-दिशा (सरप्रश्नासिकार) का सनिायरण करना पड़ता ह,ै अतः इस ेनक्शा

    (नाक्षर) कहते हैं।

    २. मर्ासरु का सरू्य-ससद्धान्त-इसी पुस्तक में दिर्े सववरण के अनुसार मर् असुर ने सत्र्र्ुग

    समासि से अल्प (१३१ वर्य, अ=१, ल=३. प=१) समर् पूवय रोमक पत्तन में सववस्वान् के सूर्य

    ससद्धान्त का सांशोिन दकर्ा सजसमें बहुत समर् बीतने के कारण अशुद्धता आ गर्ी थी। सूर्य

    ससद्धान्त के प्रथम अध्र्ार् के कुि श्लोक नीचे दिर्े जाते हैं- -

    अल्पावसशष्ट ेत ुकृते मर्ो नाम महासुरः। रहस्र्ां परमां पुण्र्ां सजज्ञासुज्ञायनमुत्तमम्॥२॥

    वेिाङ्गमग्र्र्सखलां ज्र्ोसतर्ाां गसतकारणम्। आरािर्सन्ववस्वन्तां तपस्तेपे सुिकुकरम्॥३॥

    तोसर्तस्तपसा तेन प्रीतस्तस्मै वरार्थथने। ग्रहाणाां चररतां प्रािान्मर्ार् ससवता स्वर्म्॥४॥

    तस्मात् त्वां स्वाां पुरीं गच्ि तर ज्ञानम् ििासम ते। रोमके नगरे ब्रह्मशापान् म्लेच्िावतार िृक्॥

    (पूना, आनन्िाश्रम प्रसत)

    शृण्वैकमनाः पूवं र्ििुां ज्ञानमुत्तमम्। र्ुगे र्ुगे महर्ीणाां स्वर्मेव सववस्वता॥८॥

    शास्त्रमाद्यां तिवेेिां र्त्पूवं प्राह भास्करः। र्ुगानाां पररवतेन कालभेिोऽर केवलम्॥९॥

    नवम श्लोक की गूढ़ाथय-प्रकासशका टीका में रङ्गनाथ जी ने सलखा ह-ैतथा च कालवशेन ग्रहचारे

    दकसिद्वलैक्ष्र्ण्र्ां भवतीसत र्ुगान्तरे तत्तिनन्तरां ग्रहचारेर्ु प्रसाध्र् तत्कालसस्थत

    लोकव्यवहाराथं शास्त्रान्तरसमव कृपालु रुिवासनसभनान्त शास्त्राणाां वैर्थ्र्यम्। एवि मर्ा

    वतयमान र्ुगीर् सूर्ोि शास्त्र ससद्धग्रहचारमङ्गीकृत्र् सूर्ोि शास्त्रससद्धां ग्रहचारां च

  • प्रर्ोजनाभावािपुेक्ष्र् तििुमेवत्र्ाां प्रत््पसवश्र्त इसत भावः। एवि र्ुग मध्र्ेऽप्र्वान्तर काले

    ग्रहचारेकवन्तर िशयने तत्तत्काले तिन्तरां असाध्र् ग्रन्थास्तकाल वतयमानासभर्ुिाः कुवयसन्त।

    तदििमन्तरां पूवय ग्रन्थ े वीजसमत्र्ामनसन्त। पूवयग्रन्थानाां लुित्वात् सू्र्यर्थर् सांवािोऽपीिानीं न

    िकृर्त इसत। तिप्रसससद्धरागम प्रामाण्र्ाच्च नाशांक्र्ा।

    सुरासुराणामन्र्ोन्र्महोरारां सवपर्यर्ात्। र्ट् र्सष्टसांगुणां दिव्यां वर्यमासुरमेव च॥१४॥

    तद्द्वािशसहस्रासण चतुर्ुयगमुिाहृतम्। सूर्ायब्िसांख्र्र्ा सद्वसरसागरैरर्ुताहतैः॥१५॥

    सन्ध्र्ासन्ध्र्ाांशससहतां सवज्ञेर्ां तच्चतुर्ुयगम्। कृतािीनाां व्यवस्थेर्ां िमयपािव्यवस्थर्ा॥१६॥

    र्ुगस्र् िशमो भागः चतुसस्त्रद्व्य़ेक सांगुणः। क्रमात्कृतर्ुगािीनाां र्ष्ाांऽशः सन्ध्र्र्ोः स्वकः॥१७॥

    र्ुगानाां सिसतस्सैका मन्वन्तरसमहोच्र्ते। कृताब्िसङ्ख्र्ा तस्र्ान्ते ससन्िः प्रोिो

    जलप्लवः॥१८॥

    इत्थां र्ुगसहस्रेण भूतसांहारकारकः। कल्पो ब्राह्ममहः प्रोिां शवयरी तस्र् तावती॥२०॥

    परमार्ुश्शतां तस्र् तर्ाऽहोरारसङ्ख्र्र्ा। आर्ुर्ोऽियसमतां तस्र् शेर्ात्कल्पोऽर्मादिमः॥२१॥

    कल्पािस्माच्च मनवः र्ड् व्यतीतास्ससन्िर्ः। वैवस्वतस्र् च मनोः र्ुगानाां सरघनो गतः॥२२॥

    अष्टाववशादु्यगािस्माद्यातमेकां कृतां र्ुगम्। अतः कालां प्रसांख्र्ार् सांख्र्ामेकर सपण्डर्ेत्॥२३॥

    ग्रहक्षयिवेितै्र्ादि सृजतोऽस्र् चराचरम्। कृतादरवेिा दिव्याब्िाः शतघ्ना वेिसो गताः॥२४॥

    इन उद्धरणों से सनम्न तथ्र् र्ा सांशर् होते हैं-

    (१) ज्र्ोसतर् का ज्ञान सववस्वान् ने समर् समर् पर महर्थर्र्ों को दिर्ा था। (श्लोक ८) र्हाां

    प्रत्र्ेक र्ुग के सलर्ॆ अलग-अलग ज्ञान िनेे की बात ह।ै अतः प्रत्र्ेक र्ुग के सलर्े अलग गणना

    पद्धसत होगी, जो अगले श्लोक ९ में भी स्पष्ट ह।ै र्हाां र्ुग का क्र्ा मान होगा र्ह सवचारणीर्

    ह।ै सूर्य ससद्धान्त में १२००० दिव्य वर्ों के र्ुग के अनुसार ग्रहगसत की गणना ह,ै जहाां दिव्य

    वर्य = ३६० वर्य (श्लोक १४-१५) अतः सजस र्ुग में गणना मे सांशोिन करना ह,ै वह कोई

    िोटा र्ुग ह।ै एक सम्भावना ह ैदक इस र्ुग में दिव्य वर्य का अथय सौर वर्य ह,ै सजस चक्र में

    बीज सांस्कार की चचाय ब्रह्मगुि तथा भास्कर-२ ने की ह-ै

    खाभ्रखाकै (१२०००) हृताः कल्पर्ाताः समाः शेर्कां भागहारात् पृथक् पातर्ेत्।

    र्त्तर्ोरल्पकां ति ्सद्वशत्र्ा (२००) भजेसल्लसिकाद्यां तत् सरसभः सार्कैः (५)॥

    पि पिभूसमः (१५) करा (२) भर्ाां हतां भानुचन्रजे्र्शुके्रन्ितुुङ्गेकवृणम्।

    इन्िनुा (१) िस्रबाणैः (५२) करा (२)भर्ाां कृतभौमसौम्र्ेन्िपुातार्दकर्ु स्वां क्रमात्। (ससद्धान्त

    सशरोमसण, भूपररसि-७,८)

  • स्वोपज्ञ भाकर्-अरोपलसब्िरेव वासना। र्द्वर्य सहस्रर्ट्कां र्ावुपचर्स्ततोऽपचर् इत्र्रागम एव

    प्रमाणां नान्र्त् कारणां विुां शक्र्त इत्र्थयः।

    ब्रह्मगुि-खखखाकय (१२०००) हृताब्िभेर्ो गतगम्र्ाल्पाः खशून्र्र्मल (२००) हृताः।

    लब्िां सर (३) सार्कां (५) हतां कलासभरूनौ सिाऽकेन्ि ू॥६०॥

    शसशवत् जीवे सद्वहतां चन्रोचे्च सतसथ (१५) हतां तु ससतशीघ्रे।

    द्वीर्ु (५२) हतां च बुिोचे्च सद्व (२) कु (१) विे हतां च पात कुज शसनर्ु॥६१॥

    (ब्राह्मस्फुट ससद्धान्त, सुिाकर सद्ववेिी सांस्करण, मध्र्मासिकार)

    (२) र्ह आद्य ससद्धान्त ह।ै इसके पूवय ब्रह्मा का सपतामह ससद्धान्त था, वह ब्रह्मा के काल में था

    दकन्तु आकाश के सूर्य की गसत पर ही आिाररत था, र्ा सजसने इस ससद्धान्त की व्याख्र्ा की

    उसे उस र्ुग का सूर्य माना गर्ा, भास्कर =सूर्य, वराहसमसहर (समसहर =सूर्य) आदि। र्ह

    पूवयवती सपतामह ससद्धान्त के सवरुद्ध नहीं ह,ै उसी की परम्परा में ह,ै अतः इसे आद्य कहा गर्ा

    ह।ै

    (३) श्लोक २ में कहा ह ैदक सत्र्र्ुग में अल्प काल बाकी था। पर श्लोक २३ में सत्र्र्ुग के अन्त

    तक गणना िी गर्ी ह।ै इसका सम्भासवत अथय ह ै दक सत्र्र्ुग से कुि पूवय मर् असुर ने र्ह

    ससद्धान्त सनकाला पर उसका व्यवहार सत्र्र्ुग की समासि से हुआ।

    (४) प्रसत र्ुग में महर्थर्र्ों को ही सूर्य ज्ञान ितेे थे, पर इस बार मर् असुर को क्र्ों ज्ञान दिर्ा?

    महर्थर् केवल भारत र्ा िवे जासत में ही नही, वरन ्असुरों में भी हो सकते हैं। प्रह्लाि तथा

    सवभीर्ण को भी परम भागवत कहा गर्ा ह।ै ज्र्ोसतर् में सवश्व के सभी भागों के स्थानों का

    सववरण ह,ै जो परस्पर ९०० अांश िशेान्तर पर हैं। र्ह भी दिखाता ह ैदक पूरे सवश्व का सहर्ोग

    तथा मानसचर आवश्र्क ह ैसजसके सबना चन्र तथा अन्र् ग्रहों की िरूी नहीं ज्ञात हो सकती।

    (५) पुराणों में ९०-९० अांश िशेान्तर के अन्र् स्थानों की चचाय ह,ै जो इससे पूवय काल का ह।ै

    (६) श्लोक १८ में मन्वन्तर की ससन्ि के बाि जल-प्लव सलखा ह।ै आिुसनक ज्र्ोसतर् के

    समलाांकोसवच ससद्धान्त के अनुसार र्ह २१६०० वर्ों के चक्र में ह।ै पर भारतीर् र्ुग व्यवस्था

    में १२-१२००० वर्ों का अवसर्थपणी तथा उत्सर्थपणी र्ुग लेने पर र्ह केवल २४००० वर्ों

    का ह।ै जल-प्रलर् उत्तरी गोलािय की घटना ह ै सजसमें स्थल भाग असिक ह।ै आर्यभटीर् के

    अनुसार भी उत्तरी धु्रव जल भाग ह ैजो स्थल स ेसघरा ह।ै इसके सवपरीत िसक्षणी धु्रव स्थल

    पर ह ैतथा जल स ेसघरा ह।ै उत्तरी धु्रव जब सूर्य की दिशा में झुका होता ह,ै तब वहाां असिक

    गमी होगी। इसके साथ र्दि पृथ्वी भी सूर्य के सनकट (मन्ि-नीच सवन्ि ुपर) हो, तो और असिक

  • गमी होगी। अतः जल-प्लव तब होगा जब उत्तरी गोलािय का सूर्य दिशा में झुकाव तथा पृथ्वी

    की मन्िनीच सस्थसत एक साथ हो। उत्तरी धु्रव की दिशा २६००० वर्य के चक्र में सवपरीत

    दिशा में घूमती ह,ै सजसे प्रीसेसन र्ा भारतीर् ज्र्ोसतर् में अर्न-चलन कहा गर्ा ह।ै सीिी

    दिशा में मन्िोच्च की गसत का १ लाख वर्य में चक्र होता ह।ै अतः इनका सांर्ुि चक्र २१६००

    वर्य में होगा जो जल-प्रलर् का चक्र होगा। (१/२१६०० = १/१००००० + १/२६०००).

    दकन्तु अर्न-चक्र की गसत तथा पृथ्वी का कक्षा-तल पर झुकाव बिलता रहता ह ैसजसके कारण

    वास्तसवक जल-प्रलर् चक्र भारतीर् र्ुग गणना के २४००० वर्ों का ह।ै र्ुग चक्र से स्पष्ट ह ै

    दक र्ह प्रसत रेता में आता ह।ै

    (७) मर् असुर ने स्पष्टतः सत्र्र्ुग के अन्त में इसका प्रणर्न दकर्ा सजसके पूवय सत्र्र्ुग के

    आरम्भ में जल प्रलर् हुआ था। आिुसनक भूगभय-शास्त्र के अनुसार प्रार्ः १०००० ईसा पूवय में

    जल-प्रलर् हुआ था, जो १०००-१५०० वर्ों तक था। र्ह १२+१२००० वर्ों के र्ुगचक्र के

    अनुसार ह,ै जो बाि में बर्थणत ह।ै

    (८) सूर्यससद्धान्त वर्थणत र्ुग चक्र के ३ अथय हैं-(क) इस काल में शसन तक ग्रहों की पररक्रमा का

    चक्र। सूर्य स ेउसके १००० व्यास तक के के्षर को सूर्य रथ का चक्र र्ा िवे-रथ कहा गर्ा ह।ै

    इसी को पुरुर् सूि में सौर-मण्डल के सन्िभय में सहस्राक्ष कहा गर्ा ह।ै र्हाां तक के ग्रहों का

    पृथ्वी की गसत पर िशृ्र् प्रभाव पड़ता ह,ै अतः र्हाां तक के ग्रहों की ही गणना जरूरी ह,ै तथा

    र्ह सौरमण्डल का चक्र ह।ै

    १०० व्यास तका सूर्य का ताप र्ा असि के्षर, ३६० व्यास तक वार्ु तथा १००० व्यास तक

    आदित्र् र्ा तेज के्षर ह-ै

    शत र्ोजने ह वा एर् (आदित्र्) इतस्तपसत। (कौर्ीतदक ब्राह्मण उपसनर्ि ्८/३)

    स एर् (आदित्र्ः) एकशतसविस्तस्र् रश्मर्ः, शतसविा एर् एवैकशततमो र् एर् तपसत।

    (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)

    र्सष्टश्च ह वैरीसण च शतान्र्ादित्र्ां नाव्याः समन्तां पररर्सन्त। (शतपथ ब्राह्मण १०/५/४/१४)

    तद्यितेां शतशीर्ायणां रुरमेतेनाशमर्ांस्तस्माच्ितशीर्यरुरशमनीर्ां शतशीर्यरुर शमनीर्ां ह व ै

    तच्ितरुदरर्समत्र्ाचक्षते परोऽअक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण ९/१/१/७)

    रसश्मक्षेर-र्ुिा ह्यस्र् (इन्रस्र्) शतािशेसत। सहस्रां हतै आदित्र्स्र् रश्मर्ः (इन्रः =आदित्र्ः)-

    (जैसमनीर् उपसनर्ि ्ब्राह्मण १/४४/५) िवेरथो व ैरथन्तरम्। (ताण्य महा ब्राह्मण ७/७/१३) असौ र्स्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः।

  • र्े चैनां रुरा असभतो दिक्षुसश्रताः सहस्रशोऽवैर्ाां हडे ईमह॥े (वाजसनेसर् र्जुवेि १६/६)

    (ख) पृथ्वी की सतह पर पररवतयन तथा महाद्वीपों की गसत इसी चक्र में ह ैसजसका वार्ु पुराण

    आदि में उल्लेख ह ै।

    (ग) पृथ्वी के चुम्बकीर् धु्रवों की गसत भी इसी चक्र में ह।ै

    (९) सृसष्ट सनमायण में श्लोक २४ के अनुसार ४७४०० दिव्य वर्य लगे। र्ह अन्र् ससद्धान्त ग्रन्थों

    ब्राह्म-स्फुट-ससद्धान्त र्ा ससद्धान्त-सशरोमसण आदि में वर्थणत नहीं ह।ै सम्भवतः जल-प्रलर् के

    आि गणना को ठीक करने के सलर्े मर् असुर द्वारा गसणत सूर के सांशोिन के सलर्े ह,ै

    वास्तसवक सृसष्ट सनमायण काल नहीं ह\ै

    (१०) पूरे सवश्व में सवय-सम्मसत से सूर्य ससद्धान्त के माप तथा गसणत सवसिर्ाां मानी जाती थीं।

    मर् असुर का सांशोिन भी रोमक पत्तन में होने के बावजूि सवश्व में स्वीकृत हुआ तथा भारत

    में अभी भी प्रचसलत ह।ै इसके सलर्े दकसी शसिशाली राज्र् के नेतृत्व में सवश्व सम्मेलन

    अपेसक्षत ह।ै सवश्व माप के ४ केन्र लांका र्ा उज्जैन, उससे ९० अांश िरूी पसश्चम रोमक-पत्तन,

    १८० अांश पसश्चम र्ा पूवय ससद्धपुर तथा ९० अांश पूवय र्मकोरटपत्तन थे। जल-प्रलर् के तुरत

    बाि भारत में सभर्ता का पुनः आरम्भ ऋर्भिवे जी द्वारा हुआ, जो स्वार्म्भुव मनु की तरह

    आरम्भ कार्य करने के कारण उनके वांशज कह ेगर्े हैं तथा जैन िमय के प्रथम तीथंकर हैं। वार्ु,

    मत्स्र्, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में २८ व्यासों की सगनती में स्वार्म्भुव मनु प्रथम तथा

    ऋर्भिवे ११वें कह ेगर्े हैं।

    (११) सांशोिन के २ कारण सनर्दिष्ट हैं-र्ह एक र्ुग के सलर्े ही बना ह,ै अतः प्रत्र्ेक र्ुग में सूर्य

    द्वारा महर्थर्र्ों को उपिशे दिर्ा जाता ह।ै उनके र्ा मर् असुर द्वारा तप का अथय ह ैज्ञान की

    सािना-सैद्धासन्तक तथा प्रार्ोसगक सवज्ञान में अनुसन्िान। र्ह सौरमण्डल की ग्रह-गसत स े

    सम्बद्ध ह,ै अतः र्ह सूर्य द्वारा प्रित्त ह।ै तात्कासलक कारण ह ैदक र्ह सत्र्र्ुग के अन्त में था

    जब जलप्रलर् कुि काल पहले बीता था। जलप्रलर् के समर् धु्रवीर् बफय सवर्ुव रेखा के सनकट

    आता ह ैसजससे पृथ्वी के अक्ष-भ्रमण पर भार पड़ता ह ैऔर वह िीमा हो जाता ह।ै हमारे माप

    की इकाई दिन होने के कारण दिन-मान बढ़ने से उस माप से कल्प मान िोटा ओ जार्ेगा।

    कुि िीमापन सिाहोता ह,ै चन्र आकर्यण स े सम्ि का ज्वार पृथ्वी गसत पर ब्रेक का काम

    करता ह ैसजसके कारण अक्ष-भ्रमण की गसत प्रसत वर्य सेकण्ड के ५ लाखवें भाग बढ़ रहा ह।ै

    िीमी िसैनक गसत के कारण गणना के सलर्े सृसष्ट-काल कुि कम करना पड़ेगा क्र्ोंदक नर् े

    दिनमान से कल्प बड़ा हो गर्ा ह।ै

  • (१२) १ र्ुग =१२००० वर्य के बाि पुनः सांशोिन की आवश्र्कता होगी। क्र्ा पुनः सूर्य का

    अवतार होगा? रांगनाथ जी के अनुसार नहीं। सांशोिन कत्ताय ही सूर्य का अवतार ह।ै

    ३. र्गु-चक्र-(१) दिव्य वर्य-महार्ुग १२००० दिव्य वर्ों का कहा गर्ा ह।ै र्हाां दिव्य वर्य का

    अथय ३६० सौर वर्य ह ै (श्लोक १४-१५)। र्हाां सूर्य की उत्तरार्ण गसत िवेों का दिन तथा

    िसक्षणार्न रासर ह।ै र्ह स्पष्टतः ॠत ुवर्य ह,ै नाक्षर वर्य नहीं। ऐसे ३६० दिन र्ा ३६० ऋत ु

    वर्य का १ दिव्य वर्य ह।ै दकन्तु पुराणों में सिर्थर् वर्य मान को ३०३० मानुर् वर्य र्ा २७००

    दिव्य वर्य कहा गर्ा ह।ै र्हाां मानुर् वर्य का अथय चन्र द्वारा पृथ्वी की १२ पररक्रमा ह।ै प्रसत

    पररक्रमा में २७.३ दिन लगते हैं। हम सािारणतः चन्र कला के चक्र को चान्रमास मानते हैं

    जो चन्र-सूर्य गसतर्ों के अन्तर स े होता ह।ै चन्रमा मन का कारक ह,ै अतः इसकी १२

    पररक्रमा का काल १२ x २७.३ = ३२७.५३६४ दिन १ मानुर् वर्य हुआ। सौर वर्य को ही

    र्हाां दिव्य वर्य कहा गर्ा ह।ै भास्कराचार्य के समान र्हाां फल की उपलसब्ि ही वासना ह ै

    (१२००० वर्य बीज सम्स्कार चक्र के सन्िभय में)।-रीसण वर्य सहस्रासण मानुर्ेण प्रमाणतः ।

    वरशिसिकासन तु मे मतः सिर्थर् वत्सरः॥

    (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२९/१६, वार्ुपुराण, ५७/१७)

    सिववशसत पर्यन्ते कृत्ने नक्षर मण्डले । सिर्यर्स्तु सतष्न्ते पर्ायर्ेण शतां शतम्॥

    (वार्ु पुराण, ९९/४१९) सिर्थर् वर्य का मान ३०३० मानुर् वर्य =३२७.५३६४ x ३०३० दिन र्ा ३६५.२५ से भाग

    िनेे पर २७१७.१४ सौर वर्य। र्दि केवल २७ पूणय दिनों का मानुर् मास सलर्ाजार् तो १२

    मास ३२४ दिनों के होंगे। तब ३०३० मानुर् वर्ों में २६८७.८ सौर वर्य होंगे।

    (२) २४०००वर्य का चक्र-२६००० वर्ों के अर्न-चक्र को ही ब्रह्माण्ड पुराण में मन्वन्तर

    कहा गर्ा ह-ै

    र्ड् ववशसत सहस्रासण वर्ायसण मानुर्ासण तु ।

    वर्ायणाां र्ुगां ज्ञेर्ां दिव्यो ह्येर् सवसिः स्मृतः॥ (ब्रह्माण्ड पुराण,१/२/२९/१९)

    स व ैस्वार्म्भुवः पूवं पुरुर्ो मनुरुच्र्ते। तस्र्ैकसिसत र्ुगां मन्वन्तरसमहोच्र्ते॥

    (ब्रह्माण्ड पुराण,१/ २/९/३६,३७)

    र्हाां सौर वर्य के दिनों को वर्य मानने स ेवह दिव्य वर्य का र्ुग होता ह-ै

    ७१x ३६५.२५ = २५९३२.७५ र्ा प्रार्ः २६००० वर्य।

  • र्ुग चक्र की गणना में सुसविा के सलर्े ३६५.२५ के बिले ३६० सलर्ा जाता ह,ै जो वत्सर के

    दिन होते हैं। इसमें ३० दिनों के १२ मास होंगे। वर्य के बाकी ५ र्ा ६ दिन पािरार र्ा र्डाह

    होंगे।

    मत्स्र् पुराण, अध्र्ार् २७३ में भी कहा ह ैदक स्वार्म्भुव मनु के ४३ र्ुग बाि वैवस्वत मनु

    हुर्े सजनके बाि २८ र्ुग बीत चुके हैं -कसल आरम्भ (३१०२ ईसा पूवय) तक जब सूत द्वारा

    पुराणों का प्रणर्न हुआ-

    अष्टाववश समाख्र्ाता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते िवेगणैः सािं सशष्टा र् ेतासन्नबोित॥७७॥

    चत्वाररशत् रर्श्चैव भसवतास्ते महात्मनः (स्वार्म्भुवः)। अवसशष्टा र्ुगाख्र्ास्ते ततो वैवस्वतो

    ह्यर्म् ॥७८॥

    भसवकर् पुराण में भी स्वार्म्भुव मनु को बाइसबल वर्थणत आिम कहा ह ैसजसके १६००० वर्य

    बाि वैवस्वत मनु हुर्े-

    आिमो नाम पुरुर्ो पत्नी हव्यवती तथा। ... र्ोडशाब्ि सहस्रे च तिा द्वापरे र्ुगे।

    (भसवकर् पुराण, प्रसतसगय पवय १/४/१६,२६)

    स्वार्म्भुव मनु को ब्रह्मा र्ा प्रथम व्यास कहा गर्ा ह।ै कृकण द्वपैार्न र्ा बािरार्ण २८ वें

    व्यास थे, उसके बाि अन्र् कोई व्यास अभी तक नहीं हुआ ह ैअतः अभी भी २८वाां र्ुग ही

    माना जाता ह।ै वैवस्वत मनु से पररवतय र्ुग की गणना लेने पर बािरार्ण का काल २८ र्ुग

    बाि था।

    स्वार्म्भुव मनु से वैवस्वत मनु=१६००० वर्य = ३६० x ४३

    वैवस्वत मनु से कृकणद्वपैार्न २८ र्ुग = प्रार्ः १०००० वर्य। दकन्तु र्ुग व्यवस्था वैवस्वत मनु

    से हुई सजसमें सत्र्, रेता, द्वापर का र्ोग ४८००+३६००+२४०० = १०८०० होता ह।ै

    (३) २४००० वर्य चक्र को भसवकर् पुराण (प्रसतसगय १/१/३) में ब्रह्माब्ि (अभी तीसरा दिन र्ा

    र्ुग) तथा वार्ु पुराण (३१/२९) में अर्नाब्ि र्ुग कहा गर्ा ह-ै

    रेता र्ुगमुखे पूवयमासन् स्वार्म्भुवेऽन्तरे। ... र्े वै ब्रजकुलाख्र्ास्तु आसन् स्वार्म्भुवेऽन्तरे।

    कालेन बहुनातीतार्नाब्ि र्ुगक्रमैः (वार्ु पुराण ३१/३, २९)

    कल्पाख्र्े शे्वत वाराहे ब्रह्माब्िस्र् दिनरर्े । (भसवकर् पुराण, प्रसतसगय १/१/३)

    वेिों में भी िवेों का काल ३ र्ुग पूवय कहा गर्ा ह-ै

    र्ा ओर्िीः पूवाय जाता िवेेभर्सस्त्रर्ुगां पुरा।

    (ऋग्वेि १०/९७/३, वाजसनेसर् र्जु १२/७५, तैसत्तरीर् सांसहता ४/२/६/१, सनरुि ९/२८)

    र्ुग गणना वैवस्वत मनु से आरम्भ होने के कारण उनके पूवय के चक्र में ब्रह्मा आद्य रेता में थ।े

    ब्रह्मा से वतयमान गणना वाला र्ुग आरम्भ होता तो उनसे सत्र् र्ुग का आरम्भ होता।

  • तस्मािािौ त ुकल्पस्र् रेता र्ुगमुखे तिा (वार्ु पुराण ९/४६)

    रेता र्ुगमुखे पूवयमासन् स्वार्म्भुवेऽन्तरे। (वार्ु पुराण ३१/३)

    स्वार्म्भुवेऽन्तरे पूवयमादे्य रेता र्ुगे तिा। (वार्ु पुराण ३३/५)

    (४) २४००० वर्ों के २ खण्ड दकर्े गर्े हैं-अवसर्थपणी तथा उत्सर्थपणी। इन सवभागों का वणयन

    जैन शास्त्रों में ह ैदकन्तु आर्यभट ने भी उल्लेख दकर्ा ह,ै अवसर्थपणी को अपसर्थपणी सलखा ह।ै

    दकसी भी चक्र गसत को पररसि स ेिखेने पर अिय भाग में िरू जाने की तथा बाकी भाग में

    सनकट आने की गसत होती ह।ै चान्र मास में भी सूर्य से िरू जाने पर शुक्ल पक्ष तथा पुनः उसके

    सनकट जाने पर कृकण पक्ष होता ह।ै दकसी भी चक्र के इन सवपरीत भागों को चान्र मास की

    तरह िशय-पूणय मास, सनकट-िरू गसत के कारण अवसर्थपणी-उत्सर्थपणी, सांकोच-प्रसार के अथय में

    उद्ग्राभ-सनग्राभ कहा गर्ा ह।ै

    उत्सर्थपणी र्ुगािं पश्चािपसररणी र्ुगािं च।

    मध्र्े र्ुगस्र् सुर्माऽऽिावन्ते िकुर्मेन्िचू्चात्॥ (आर्यभटीर्, कालदक्रर्ापाि २/९) तद्यिनेा उरसस (इन्रः) न्र्ग्रहीत तस्मासन्नग्राभर्ा नाम।

    (शतपथ ब्राह्मण ३/९/४/१५) उद्ग्राभेणोिग्रभीत् (वाज.र्जु.१७/६३, तैसत्तरीर् सांसहता

    १/१/१३/१, ६/४/२, ४/६/३/४, मैरार्णी सांसहता १/१/१३, ८/१३, ३/३/८, ४१/९,

    काण्व सांसहता १/१२, १८/३, २१/८, शतपथ ब्राह्मण ९/२/३/२१)

    एर् वै पूणयमाः। र् एर् (सूर्यः) तपत्र्हरहह्येवैश पूणोऽथैर् एव िशो र्च्चन्रमा ििशृ इव ह्येर्ः।

    अथोऽइतरथाहुः। एर् एव पूणयमा र्च्चन्रमा एतस्र् ह्यन ु पूरनां पौणयमासीत्र्ाचक्षते ऽथैर् एर्

    िर्ो र् एर् (सूर्यः) तपसत ििशृ इव ह्येर्ः। (शतपथ ब्राह्मण ११/२/४/१-२)

    सवृत (=चक्रीर्) र्ज्ञो वा एर् र्द्दशयपूणयमासौ। (गोपथ उत्तर २/२४)

    िशयपूणयमासौ वा अश्वस्र् मेध्र्स्र् पि।े (तैसत्तरीर् ब्राह्मण ३/९/२३/१)

    र्ुग सवभाग के प्रसांग में अवसर्थपणी का अथय ह ैघटते मान वाले र्ुग-क्रम-सत्र् = ४८०० वर्य,

    रेता = ३६००, द्वापर = २४००, कसल = १२०० वर्य। उत्सर्थपणी में र्ुग सवपरीत क्रम में

    बढ़ते हुर्े होंगे-कसल, त्द्वापर, रेता, सत्र् र्ुग। वैवस्वत मनु के काल से अवसर्थपणी क्रम सलर्ा

    गर्ा ह।ै उसके पूवय आद्य र्ुग के रेता में ब्रह्मा थे। बह्मा से पूवय साध्र्, मसणजा आदि का काल

    था जो ब्रह्माब्ि का प्रथम दिन कहा जा सकता ह।ै आज की भार्ा में र्ह प्रागैसतहाससक र्ुग ह।ै

    इसमें अभी तीसरा दिन चल रहा ह।ै िवे र्ुग के पूवय साध्र् र्ुग का उल्लेख पुरुर् सूि, ऋक्

    १६ में ह-ै

  • र्ज्ञेन र्ज्ञमर्जन्त िवेास्तासन िमायसण प्रथमान्र्ासन्। ते ह नाकां मसहमानः सचन्तः र्र पूव े

    साध्र्ाः ससन्त िवेाः॥ (वाज. र्ज.ु ३१/१६)

    र्गु-चक्र चक्र क्रम ई.प.ूवर्य र्गु आरम्भ सहम-चक्र (ग्लेससअल) रटप्पणी

    ६१,९०२ सत्र् शीत र्ुग ६९२०० (पूवय काल का रेता)

    अवरोही ५७,१०२ रेता जलप्लावन ५८,१००-मसणजा र्ुग, च्र्ुसत गणना के अनुसार

    कई सूिों का काल

    ५३,५०२ द्वापर (पां. िीनानाथ शास्त्री चुलेट का वेि-काल-सनणयर्, इन्िौर,

    १९२५)

    अन्िर्ुग ५१,१०२ कसल

    (प्रथम) ४९,९०२ कसल

    आरोही ४८,७०२ द्वापर

    ४६,३०२ रेता शीतर्ुग ४५,५००

    ४२,७०२ सत्र्

    ३७,९०२ सत्र्

    अवरोही ३३,१०२ रेता जलप्लावन ३१,२००

    २९,५०२ द्वापर आद्य रेता-ब्रह्मा (२९.१०२)-वराह कल्प

    आद्य र्ुग २७,१०२ कसल २७,३७६-धु्रव सनिन-०धु्रव सांवत्सर

    (स्वार्म्भुव) २५,९०२ कसल

    सद्वतीर् २४,७०२ द्वापर (४३x३६० =१६०००)

    आरोही २२,३०२ रेता शीतर्ुग २०,००० १८२७६- धु्रव -१, क्रौि प्रभुत्व

    १८,७०२ सत्र्

    १३,९०२ सत्र् १३९०२-वैवस्वत मनु

    अवरोही ९,१०२ रेता जलप्लावन ९,२०० ११,१७६-धु्रव-२, ८४७६-इक्ष्वाकु,

    सिर्थर्-१

    ५,५०२ द्वापर २८x ३६०= १०,८०० ५,७७६-सिर्थर्-२

    वतयमान ३१०२ कसल ३१०२-कसल ३०७६-लौदकक र्ा सिर्थर्-३

    (वैवस्वत) १,९०२ कसल-इसके ठीक पूवय महावीर जन्म ११-२-१९०५ ई.पू., ३१-३-

    १८८७ ससद्धाथय बुद्ध जन्म

  • तृतीर् ७०२ द्वापर ७५६-शूरक, ६१२-चाहमान, ४५६-श्रीहर्य, ५७ सवक्रम् सांवत्

    आरोही १,६९९ ई. रेता ७८ ई.-शासलवाहन सक, २८वाां आन्ध्र राजा ३७६ ई.पू.-सिर्थर्-१

    ५,२९९ ई. सत्र् १७००-रेता सन्ध्र्ा-औद्योसगक क्रासन्त, २०००-रेता-सूचना सवज्ञान

    (५) वार्ु पुराण आदि में ब्रह्मा के पूवय मसणजा जासत का उल्लेख ह।ै उस काल में िवेों को र्ाम

    कहते थे। ४ वणों को साध्र्, महारासजक, आभास्वर तथा तुसर्त कहते थे सजनका अमरकोर् में

    भी गण-िवेता के रूप में उल्लेख ह-ै

    आदित्र् सवश्व-वसवस्तुसर्ताभास्वरासनलाः। महारासजक साध्र्ाश्च रुराश्च गणिवेताः॥

    (अमरकोर् १/१/१०)

    रेता र्ुगमुखे पूवयमासन् स्वार्म्भुवेऽन्तरे। िवेा र्ामा इसत ख्र्ाताः पूवं र्े र्ज्ञसूनवः॥

    असजता ब्राह्मणः पुरा सजता सजिसजताश्च र्े। पुराः स्वार्म्भुवस्र्ैते शुक्र नाम्ना तु सवश्रुताः॥

    तृसिमन्तो गणा ह्येते िवेानाां तु रर्ः स्मृताः। तुसर्मन्तो गणा ह्येते वीर्यवन्तो महाबलाः॥

    ते व ैब्रजकुलाख्र्ास्तु आसन् स्वार्म्भुवेऽन्तरे। कालेन बहुनाऽतीता अर्नाब्िर्ुगक्रमैः॥

    (वार्ु पुराण ३१/३-२१)

    (६) र्हाां जलप्रलर् तथा शीत र्ुग का चक्र आिुसनक अनुमानों के आिार पर ह।ै इनसे र्ह

    स्पष्ट ह ैदक सभी जल प्रलर् अवसर्थपणी (अवरोही) रेता में तथा शीत र्ुग उत्सर्थपणी (आरोही)

    रेता में हैं। अतः भारतीर् र्ुग व्यवस्था आिुसनक समलाांकोसवच ससद्धान्त से असिक शुद्ध ह।ै

    (७) मन्िोच्च का पूणय मान १ लाख वर्य का चक्र लेने पर २१६०० वर्य का जल-प्लावन चक्र

    आता ह।ै २४००० वर्य के चक्र के सलर्े २६००० वर्य की अर्न गसत में मन्िोच्च का ३१२०००

    वर्य का िीघयकासलक चक्र जोड़ना पड़ेगा।

    १/२४००० = १/२६००० + १/३१२०००

    मन्िोच्च का िीघयकासलक चक्र समलाकर के असतररि उसका कुि और भाग सूर्य भगण में

    समलार्ा गर्ा ह।ै उस मन्िोच्च गसत की तुलना में सौर वर्य थोड़ा कम होगा तथा अर्न गसत

    कुि असिक होगी। अतः ५० सवकला के बिले सूर्य ससद्धान्त में ६० सवकला अर्न गसत ली

    गर्ी ह।ै इन मानों को सनकालने पर १ कल्प में मन्िोच्च का ३८७ भगण होता ह-ैप्राग्गते

    सूर्यमन्िस्र् कल्प ेसिाष्टवह्नर्ः॥ (सूर्य ससद्धान्त १/४१)

    इस र्ुग-चक्र के अनुसार मर्ासुर का सूर्य-ससद्धान्त ९१०२+१३१=९२४४ ईसा पूवय में हुआ,

    जब जलप्लावन समाि हुआ तथा उसके बाि ९१०२ ईसा पूवय में इसके अनुसार पांचाांग आरम्भ

    हुआ।

    (८) इस र्ुग चक्र के अनुसार जल-प्रलर् र्ा सहमर्ुग आते हैं। अतः इसी के अनुसार र्ुगों के

    ऐसतहाससक लक्षण िीखेंगे। महाभारत, शासन्त पवय (२३२/३१-३४ के अनुसार रेता में ही र्ज्ञ

  • र्ा उत्पािन का सवकास होता ह ैजैसा दक वतयमान काल के रेता में १६९९ ईस्वी से िीख रहा

    ह-ै

    रेता र्ुगे सवसिस्त्वेर् र्ज्ञानाां न कृते र्ुगे। द्वापरे सवप्लवां र्ासन्त र्ज्ञाः कसलर्ुगे तथा।

    रेतार्ाां तु समस्ता र् ेप्रािरुासन् महाबलाः। सन्र्न्तारः स्थावराणाां जङ्गमानाां च सवयशः॥

    ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/६) में भी पूवय र्ुग में िवेताओं द्वारा सवमान के प्रर्ोग का वणयन ह।ै सूर्य

    के असिक िाह के कारण जल प्रलर् तथा इस र्ुग का अन्त हुआ।

    अस्मात् कल्पात्ततः पूवं कल्पातीतः पुरातनः॥ चतुर्ुयगसहस्रासण सह मन्वन्तरैः पुरा॥१५॥

    क्षीणे कल्प े ततस्तसस्मन् िाहकाल उपसस्थते। तसस्मन् काले तिा िवेा आसन् वैमासनकस्तु

    वै॥१६॥

    एकैकवस्मस्तु कल्प े व ै िवेा वैमासनका स्मृताः॥१९॥आसिपत्र्ां सवमाने व ै ऐश्वर्ेण त ु

    तत्समाः॥३२॥

    ते तुल्र् लक्षणाः ससद्धाः शुद्धात्मनो सनरञ्जनाः॥३८॥

    ततस्तेर्ु गतेर्ूध्वं रैलोक्र्ेर्ु महात्मसु। एत्तैः सािं महलोकस्तिानासादितस्तु वै॥४२॥

    तसच्िकर्ा व ै भसवकर्सन्त कल्पिाह उपसस्थते। गन्िवायद्याः सपशाचाश्च मानुर्ा

    ब्राह्मणािर्ः॥४३॥

    सहस्रां र्त्तु रश्मीनाां स्वर्मेव सवभाव्यते। तत् सि रश्मर्ो भूत्वा एकैको जार्ते रसवः॥४५॥

    क्रमेणोसत्तष्मानास्ते रींल्लोकान्प्रिहांत्र्ुत। जांगमाः स्थावराश्चैव नद्यः सवे च पवयताः॥४६॥

    शुककाः पूवयमनावृकया सू्र्ैस्ते च प्रिूसपताः। तिा तु सववशाः सवे सनियग्िाः

    सूर्यरसश्मसभः॥४७॥

    जांगमाः स्थावराश्चैव िमायिमायत्मकास्तु वै। िग्ििहेास्तिा ते तु िूतपापा र्ुगान्तरे॥४८॥

    उसर्त्वा रजनीं तर ब्रह्मणोऽव्यिजन्मनः। पुनः सगे भवन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥

    ततस्तेर्ूपपन्नेर्ु जनैस्त्रैलोक्र्वाससर्ु। सनियग्िेर्ु च लोकेर्ु तिा सू्र्ैस्तु सिसभः॥५१॥

    वृकया सक्षतौ प्लासवतार्ाां सवजनेकवणयवेर्ु च। सामुराश्चैव मेघाश्च आपः सवायश्च पार्थथवाः॥५२॥

    ४. मर्ासरु पवूय का पिाङ्ग- सूर्य-ससद्धान्त में अहगयण सनकालने की जो सवसि ह ै उसके अनुसार कल्प का आरम्भ चैर शुक्ल प्रसतपिा रसववार को माना गर्ा ह।ै बाि के ससद्धान्त

    ग्रन्थों में र्ह स्पष्ट रूप से कहा गर्ा ह ै दक कल्पारम्भ में लांका में चैर शुक्ल प्रसतपिा का सूर्ोिर् तथा रसववार था -

    ब्राह्म-स्फुट-ससद्धान्त (ब्रह्मगुि), मध्र्मासिकारः-ब्रह्मणोिां ग्रहगसणतां महता कालेन र्त ्

    सखलीभूतम्।

    असभिीर्ते स्फुटां तसज्जकणुसुत ब्रह्मगुिेन॥२॥

    धु्रवताराप्रसतबद्धां ज्र्ोसतश्चक्रां प्रसतक्षणगमािौ। पौकणासश्वन्र्न्तस्थैः सह ग्रहबै्रयह्मणा सृकतम्॥३॥

    चैरससतािरेुिर्ाि ्भानोर्दिनमासर्ुगकल्पाः। सृकयािौ लांकार्ाां समां प्रवृत्ता दिनेऽकय स्र्॥४॥

  • आर्यभटीर्, कालदक्रर्ापाि-र्ुगवर्यमासदिवसाः समां प्रवृत्तास्तु चैरशुक्लािःे।

    कालोऽर्मनाद्यन्तो ग्रहभैरनुमीर्ते क्षेरे॥१॥

    महाससद्धान्त (आर्यभट-२), अध्र्ार्१-अन्र्ाशाख्र्ास्तराक्षाांशा लङ्कापुरे प्रवृसत्तदिने।

    कल्पर्ुगवर्यमासाश्चैरससतािेररनोिर्ादु्यगपत्॥५॥

    ससद्धान्त शेखर (श्रीपसत), अध्र्ार् १-धु्रवद्वर्ी मध्र्गतारकासश्रतां चलभचक्रां जलर्न्रवत् सिा।

    सवसिः ससजायसश्वनपौकणमध्र्गैग्रयहःै सहोपर्ुयपरर व्यवसस्थतैः॥९॥

    मिुससतप्रसतपदद्दवसादितो, रसवदिने दिनमासर्ुगािर्ः।

    िशसशरः पुरर सूर्य समुद्गमात्, समममी भवसृसष्टमुखेऽभवन्॥१०॥

    ससद्धान्तसशरोमसण (भास्कर-२) अध्र्ार् १-

    लङ्कानगर्ायमुिर्ाच्च भानोस्तस्र्ैव वारे प्रथमां बभूव।

    मिोः ससतािेर्दिनमासवकर्ुयगादिकानाां र्ुगपत् प्रवृसत्तः॥१५॥

    दकन्तु वेिाङ्ग ज्र्ोसतर् में र्ह स्पष्ट रूप से कहा गर्ा ह ै दक वर्य का आरम्भ माघ शुक्ल

    प्रसतपिा से था-

    ऋग ्ज्र्ोसतर् (३२, ५,६) र्ाजुर् ज्र्ोसतर् (५-७)

    माघशुक्ल प्रपन्नस्र् पौर्कृकण समासपनः। र्ुगस्र् पिवर्यस्र् कालज्ञानां प्रचक्षते॥५॥

    स्वराक्रमेते सोमाकौ र्िा साकां सवासवौ। स्र्ात्तिादि र्ुगां माघः तपः शुक्लोऽर्नां ह्र्ुिक्॥६॥

    प्रपदे्यते श्रसवष्ािौ सूर्ायचन्रमसावुिक्। सापायिे िसक्षणाकय स्तु माघश्रवणर्ोः सिा॥७॥

    र्ह माघ से आरांभ वर्य ब्रह्मा के समर् से था, जब सूर्य का प्रवेश असभसजत् नक्षर में होता था।

    स्वार्म्भुव मनु काल में असभसजत् (श्रवण-िसनष्ा का मध्र् श्रसवष्ा) से उत्तरार्ण होताथा, र्ह

    २९१०२ ईसा पूवय में था। प्रार्ः १६००० ईसा पूवय में असभसजत् नक्षर से उत्तरी धु्रव िरू हो

    गर्ा सजसे उसका पतन कहा गर्ा ह।ै तब इन्र ने कार्थत्तकेर् से कहा दक ब्रह्मा से सवमशय कर

    काल सनणयर् करें-

    महाभारत, वन पवय (२३०/८-१०)-

    असभसजत् स्पियमाना तु रोसहण्र्ा अनुजा स्वसा। इच्िन्ती ज्र्ेष्ताां िवेी तपस्तिुां वनां गता॥८॥

    तर मूढोऽसस्म भरां ते नक्षरां गगनाच्र्ुतम्। कालां सत्वमां परां स्कन्ि ब्रह्मणा सह सचन्तर्॥९॥

    िसनष्ादिस्तिा कालो ब्रह्मणा पररकसल्पतः। रोसहणी ह्यभवत् पूवयमेवां सांख्र्ा समाभवत्॥१०॥

    उस काल में िसनष्ा में सूर्य के प्रवेश के समर् वर्ाय का आरम्भ होता था, जब िसक्षणार्न

    आरम्भ होता था। कार्थत्तकेर् के पूवय असुरों का प्रभुत्व था, अतः िसक्षणार्न को असुरों का दिन

    कहा गर्ा ह-ै

  • सूर्य ससद्धान्त, अध्र्ार् १-मासैद्वायिशसभवयर्ं दिव्यां तिह उच्र्ते॥१३॥

    सुरासुराणामन्र्ोन्र्महोरारां सवपर्यर्ात्। र्ट् र्सष्टसङ्गुणां दिव्यां वर्यमासुरमेव च॥१४॥ वर्ाय से आरम्भ होने के कारण सम्वत्सर को वर्य कहा गर्ा ह।ै सजस भौगोसलक के्षर में एक

    वर्ाय चक्र का प्रभाव ह ैउसे भी वर्य जैसे भारत-वर्य कहा गर्ा। उसकी सीमा सस्थत पवयतों को

    वर्य-पवयत कहा गर्ा। प्रार्ः १५८०० ईसा पूवय में िसनष्ा में सूर्य के प्रवेश करने पर िसक्षणार्न

    होता था, जो कार्थत्तकेर् का काल ह।ै उससे पूवय क्रौि का प्रभुत्व था, अतः उस काल में धु्रव

    सम्वत्सर को वार्ु पुराण में क्रौि सम्वत्सर कहा गर्ा ह-ै

    नव र्ासन सहस्रासण वर्ायणाां मानुर्ासन तु। अन्र्ासन नवसतश्चैव धु्रवः सम्वत्सरः स्मृतः।

    (ब्रह्माण्ड पुराण १/२/२९/१८)

    ९०९० मानुर् वर्य =३ सिर्थर् वर्य = ८१०० सौर वर्य।

    इस ेही वार्ु पुराण (५७/१८) में क्रौि सम्वत्सर कहा गर्ा ह-ै

    नव र्ासन सहस्रासण वर्ायणाां मानुर्ासन तु। अन्र्ासन नवसतश्चैव क्रौिः सम्वत्सरः स्मृतः।

    आर्यभट न े३६० कसल के अपने ग्रन्थों में वेिाङ्ग ज्र्ोसतर् के प्रचलन की कोई चचाय नहीं की

    ह,ै केवल पराशर तथा आर्य (सपतामह) मत का ही महाभारत काल में प्रचलन बतार्ा ह-ै

    आर्यभट-महाससद्धान्त-पराशरमताध्र्ार् (२)

    कसलसांज्ञे र्ुगपाि ेपाराशर्ं मतां प्रशस्तमतः। वक्ष्र् ेतिहां तन्मम मततुल्र्ां मध्र्मान्र्र॥१॥

    एतसत्सद्धान्तद्वर्मीर्द्याते कलौ र्ुगे जातम्। स्वस्थाने िक्ृ तुल्र्ा अनेन खेटाः स्फुटाः

    कार्ायः॥२॥

    पराशर मत सवकणु पुराण में ह,ै सजसका अनुकरण ब्रह्मगुि ने दकर्ा ह।ै

    श्री सवकणुपुराण, प्रथम अांश, अध्र्ार् १-

    ॐ पराशरां मुसनवरां कृतपौवायसह्नकदक्रर्ाम्। मैरेर्ः पररपप्रच्ि प्रसतपत्र्ासभवाद्य च॥१॥

    र्न्मर्ां च जगि ्ब्रह्मन्र्तश्चैतश्चराचरम्। लीनमासीद्यथा र्र लर्मेतासन र्र च॥५॥

    र्त ्प्रमाणासन भूतासन िवेािीनाां च सम्भवम्। समुरपवयतानाां च सांस्थानां च र्था भुवः॥६॥

    सूर्ायिीनाां च सांस्थानां प्रमाणां मुसनसत्तम। िेवािीनाां तथा वांशान्मनून्मन्वन्तरासण च॥७॥

    कल्पान् कल्पसवभागाांश्च चातुर्ुयगसवकसल्पतान्। कल्पान्तस्र् स्वरूपां च र्ुगिमांश्च कृत्नशः॥८॥

    आर्यभटीर्, कालदक्रर्ापाि-

    र्कयब्िानाां र्सभभर्यिा व्यतीतास्त्रर्श्च र्ुगपािाः। त्र्र्सिका ववशसतरब्िास्तिहे मम

    जन्मनोऽतीताः॥१०॥

    आर्यभटीर्, गोलपाि-सिसज्ज्ञानसमुरात् समुद्विृतां ब्रह्मणः प्रसािने। सज्ज्ञानोत्तमरत्नां मर्ा

    सनमिां स्वमसतनावा॥४९॥

    आर्यभटीर्ां नाम्ना पूवं स्वार्म्भुवां सिा सनत्र्म्। सुकृतार्ुर्ोः प्रणाशां कुरुते प्रसतकञ्चुकां

    र्ोऽस्र्॥५०॥

  • र्हाां ’र्कयब्िानाां र्सभभर्यिा’ में र्सभभः तृतीर्ा सवभसि ह ैजो व्याकरण के अनुसार उसचत्

    ह।ै पर ३६० कसल को ३६०० कसल करन े के सलर्े र्सभभः को र्सष्टः दकर्ा गर्ा जो प्रथमा

    सवभसि ह ैतथा व्याकरण से अशुद्ध ह।ै गुणन में तृतीर्ा सवभसि होती ह।ै आर्यभट ने स्पष्टतः

    कसल के सनकट काल की चचाय की ह।ै उस काल में कसल वर्ों के बाि ६० वर्य का चक्र जानना

    ही पर्ायि था। र्दि व े३६०० कसल में होते, तो उनको जैन र्ुसिसष्र शक (२६३४ ई.पू.), नन्ि

    शक (१६३४ ई.पू.), शूरक शक (७५६ ई.पू.), चाहमान शक (६१२ ई.पू.-बृहत ् सांसहता

    १३/३), श्रीहर्य शक (४५६ ई.पू.), सवक्रम सम्वत् (५७ ई.पू.), शासलवाहन शक (७८ ई.),

    कलचुरर र्ा चेदि शक (२१८ ई.) र्ा वलभी भांग शक (३१९ ई.) में कम से कम दकसी एक का

    ज्ञान रहता तथा गणना के सलर्े दकसी सनकटवत्ती शक का व्यवहार हरते। उस काल में

    कुसुमपुर केवल सशक्षा केन्र था, राज्र् का केन्र राजगृह था। र्ह पाटसलपुर के रूप में उिासर्

    के शासन के चतुथय वर्य में ही राजिानी बना। उसके बहुत बाि होने पर वे कुसुमपुर के बिल े

    पाटसलपुर का उल्लेख करते। सबसे महत्त्वपूणय ह ैदक दकसी िशेमें एक ही समर् ज्र्ोसतर् के २

    अलग अलग मान र्ा माप नहीं हो सकते। िशे का मानसचर, ग्रहों की िरूी र्ा पिाङ्ग का

    प्रचलन राज्र् की नीसत र्ा कार्य होता ह,ै दकसी व्यसि का असभमत नहीं।

    आर्यभटसस्त्वह सनगिसत सत्र्ां कुसुमपुरेभर्र्थचतां ज्ञानम्। (आर्यभटीर्, गसणत पाि, २/१)

    स्वर्ां महाभारत में कहीं भी वेिाङ्ग ज्र्ोसतर् के प्रचलन का कोई उल्लेख नहीं ह,ै सवशेर्कर

    भीकम का िहेान्त माघ मास में हुआ सजसे वर्ायरम्भ कहना चासहर्े था-

    महाभारत, शासन्त पवय (४७/३)-शुक्लपक्षस्र् चाष्टम्र्ाां माघमासस्र् पार्थथव। प्राजापत्र्े च

    नक्षरे मध्र्ां प्रािे दिवाकरे॥

    सनवृत्तमारे त्वर्न उत्तरे व ैदिवाकरे। समावेशर्िात्मानमात्मन्र्ेव समासहतः॥३॥

    अनुशासन पवय (१६७/५) पररवृत्तो सह भगवान् सहस्राांशुर्दिवाकरः॥२६॥

    अष्टपिाशतां रात्र्र्ः शर्ानस्र्ाद्य मे गताः। शरेर्ु सनसशताग्रेर्ु र्था वर्यशतां तथा॥।२७॥

    माघोऽर्ां समनुप्रािो मासः सौम्र्ो र्ुसिसष्र। सरभागशेर्ः पक्षोऽर्ां शुक्लां भासवतुमहयसत ॥२८॥

    उद्योग पवय(१४२/१८) सिमाच्चासप दिवसािमावास्र्ा भसवकर्सत। सांग्रामो र्ुज्र्ताां तस्र्ाां

    तामाहुः शक्रिवेताम्॥

    भीकमपवय (३/३२)-चतुियशीं पििशीं भूतपूवां च र्ोडर्ीम् ।

    इमाां तु नासभजाने ऽहममावास्र्ाां रर्ोिशीम्। चन्रसूर्ायवुभौ ग्रस्तावेकमासीं रर्ोिशीम्।।३२॥

    अपवयसण ग्रहणेैतौ प्रजाः सांक्षपसर्कर्तः। माांसपवं पुनस्तीव्रमासीत् कृकण चतुियशीम्॥३३॥

    ५. ज्र्ोसतर् का विेाङ्गत्व-वेि के ६ अङ्गों में ज्र्ोसतर् को वेि का चक्ष ुकहा गर्ा ह-ै

    तरापरा ऋग्वेिो र्जुवेिः, सामवेिो, अथवयवेिः, सशक्षा, कल्पो, व्याकरणां, सनरुिां , िन्िो,

    ज्र्ोसतर्समसत। (मुण्िकोपसनर्ि ्१/१/५)

  • वेिास्तावत् र्ज्ञकमयप्रवृत्ता र्ज्ञाः प्रोिास्ते तु कालाश्रर्ेण। शास्त्रािस्मात् कालबोिो र्तः

    स्र्ाद्विेाङ्गत्वां ज्र्ौसतर्स्र्ोिमस्मात्॥९॥

    शब्िशास्त्रां मुखां ज्र्ौसतर्ां चक्षुर्ी श्रोरमुिां सनरुिां च कल्पः करौ।

    र्ा तु सशक्षाऽस्र् वेिस्र् सा नाससका पािपद्मद्वर्ां िन्ि आदै्यबुयिैः॥१०॥

    (भास्कराचार्य, ससद्धान्त सशरोमसण, मध्र्मासिकार, कालमानाध्र्ार्)

    वेिाङ्ग ज्र्ोसतर् के नाम से ३ ग्रन्थ प्रससद्ध हैं-ऋक्, र्ाजुर् तथा आथवयण। ऋक् तथा र्ाजुर्

    द्वारा १९ वर्य चक्र में ७ असिक मासों की गणना सवसि ह,ै। आथवयण में मुहूत्तय सवचार भी ह।ै

    पर ग्रहगसणत र्ा सृसष्ट सवज्ञान नहीं ह।ै दकसी भी कल्प ग्रन्थ में इनके आिार पर र्ज्ञ का काल

    सनिायरण नहीं सलखा ह।ै सूर्य ससद्धान्त में भी मुख्र्तः शसन तक के ग्रहों की गसत की गणना ह।ै

    सांक्षेप में सृसष्ट सवज्ञान की भी चचाय १२ वें अध्र्ार् में ह-ैसजनका आिार साांख्र्, पािरार तथा

    पुरुर्-सूि ह।ै दकन्तु उससे लोकों, मण्डलों का ज्ञान नहीं होता, सजनकी वेिों में चचाय ह।ै ७

    लोकों का वणयन केवल पुराणों में ह।ै स्वर्म्भू, परमेष्ी, सौर, चान्र मण्डलों तथा सृसष्ट के १०

    सगों का वणयन भी वहीं ह।ै अतः सूर्य ससद्धान्त के साथ पुराण समलाने पर ही वेि के पूणय

    ज्र्ोसतर् का ज्ञान होता ह।ै

    गसणत ज्र्ोसतर् का उपर्ोग भूत-भसवकर् जानने में भी ह-ैइसके सलर्े होरा (व्यसिगत अल)

    तथा सांसहता (िशे का बसवकर्, मुहूत्तय) हैं। इनको समलाने पर ही ज्र्ोसतर् पूणय वेिाङ्ग हो

    सकता ह ैक्र्ोंदक वेि द्वारा भूत-भसवकर् का भी ज्ञान होता ह-ैपुरुर् एवेिां सवं र्ि ्भूतां र्च्च

    भाव्यम्। (पुरुर् सूि, वाजसनेसर् र्जु.३१/२) चातुवयण्र्ं रर्ो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्। भूतां भव्यां भसवकर्ां च सवं वेिात्प्रससध्र्सत॥

    (मनुस्मृसत १२/९७)

    र्हाां ३ लोकों का ज्ञान पुराणों स ेतथा भूत-भसवकर् का ज्ञान होरा-सांसहता से होता ह।ै ६. मर्ासरु के बाि का सूर्य ससद्धान्त-मर्ासुर के बाि सम्वत्सर आरम्भ के समर् गणना के

    परीक्षण की आवश्र्कता पड़ती ह।ै शक का अथय ह ै दकसी सनर्दिष्ट काल से दिनों की गणना

    सजससे ग्रह गसत आदि सनकाली जा सकती ह।ै शक शब्ि का अथय ह ै१-१ का समूह। १ का

    सचह्न कुश ह,ै उनका समूह शसिशाली होने से शक हो जाता ह।ै बड़े आकार का कुश जैसा

    वृक्ष भी शक ह,ै जैसे उत्तर भारत में साल (शक = सखुआ) ह।ै सालवन के के्षर में रहने के

    कारण सूर्यवांश की शाखा शाक्र् कही जाती थी, इसमें जन्म होने के कारण ससद्धाथय को

    शाक्र्मुसन कहा गर्ा। िसक्षण भारत का शक वृक्ष शक-वन र्ा सागवान ह।ै दकतु समाज सजन

    सनर्मों से चलता ह ैउसका सनिायरण करने का कालमान सम्वत्सर ह।ै ऋतु पररवतयन होने के

    समर् इसकी आवश्र्कता होती ह।ै सूर्य ससद्धान्त में सांशोिन की आवश्र्कता इन कालों में हुई-

  • (१) १३९०२ ई.पू.-सववस्वान् द्वारा मूल ससद्धान्त। उससे २१०० वर्य पूवय कार्थत्तकेर् द्वारा

    िसनष्ा र्ा माघ मास (वर्ाय) से वर्य आरम्भ हुआ।

    (२) ९२३३ ई.पू.-मर् असुर द्वारा सांशोिन। ४६६९ वर्य अन्तर तथा जल प्रलर् के कारण अक्ष

    भ्रमण की गसत में अन्तर। १-११-८४७६ ई.पू. में इक्ष्वाकु शासन आरम्भ-मेर् सूर्य के चैर मास

    का आरम्भ।

    (३) ६१७७ ई.पू.-परशुराम के सनिन पर कलम्ब (कोल्लम्) सम्वत्। परशुराम १९वें रेता में

    थे। र्हाां १ र्ुग खण्ड ३६० वर्ों का ह।ै रेता में १० खण्ड होंगे। प्रथम १० खण्ड सववस्वान् के

    पूवय बीत गर्े। उनके बाि के रेता में ११वाां खण्ड आरम्भ हुआ, तभी १० से असिक खण्ड

    सम्भव हैं। िसूरा रेता ९१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ, उसमें ८ रेता ९१०२ -८ ३६० =

    ६२२२ ई.पू. में बीते। उससे ३६० वर्ों के भीतर परशुराम का काल ह।ै सहस्र वर्ों को िोड़ने

    पर ८२४ ई. में कोल्लम सम्वत् आरम्भ हुआ, अतः परशुराम काल ७०००-८२३ में होगा(०

    वर्य नहीं सगना जाता ह)ै। इसका अन्र् प्रमाण ह ैदक मेगास्थनीज ने ससकन्िर से ६४५१ वर्य ३

    मास पूवय अथायत् ६७७७ ई.पू. अप्रैल मास में डार्ोसनसस का भारत आक्रमण सलखा ह ैसजसमें

    पुराणों के अनुसार सूर्यवांशी राजा बाहु मारा गर्ा थ। उससे १५ पीढ़ी बाि हरकुलस (सवकणु-

    पृथ्वी को िरण करने वाला-पृसथवी त्वर्ा िृता लोकाः, िसेव त्वां सवकणुना िृता) का जन्म हुआ।

    इस काल के सवकणु अवतार परशुराम थे। उनका काल प्रार्ः ६०० वर्य बाि आता ह ैजो १५

    पीढ़ी का काल ह।ै मर्ासुर के ३०४४ वर्य बाि ऋतु १.५ मास पीिे सखसक गर्ा था अतः नर्े

    सम्वत् का प्रचलन हुआ।

    (४) ३१०२ ई.पू. -पुनः ३०७५ वर्य के बाि कसल सम्वत् र्ा ३१०० वर्य बाि लौदकक र्ा

    सिर्थर् वर्य आरम्भ हुआ।

    (५) कसल आरम्भ के ३०४४ वर्य बाि सवक्रमादित्र् ने सम्वत् आरम्भ दकर्ा। उसी काल में

    ज्र्ोसतर् के मुख्र् ग्रन्थ सलखे गर्े-वराहसमसहर की बृहत्-सांसहता, बृहज्जातक, पिससद्धासन्तका

    -४२७ शक से गणना, सजस शक का आरम्भ ६१२ ई.पू. र्ा र्ुसिसष्र शक २५२६ में हुआ।

    ब्रह्मगुि के सपता सजकणुगुि इनके समकालीन थे। अतः ब्रह्मगुि का ब्राह्म स्फुट-ससद्धान्त ५५०

    शक (६१२-५५०= ६२ ई.पू.) में हुआ। इन िोनों के िहेान्त के बहुत बाि सवक्रमादित्र् के पौर

    शासलवाहन द्वारा ७८ ई. में शक आरम्भ हुआ सजसका प्रर्ोग उनके द्वारा सम्भव नहीं ह।ै

    सवक्रमादित्र् काल मे�