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सांख्य दर्शन …पर जाएँअनुक्रम1 प्राचीनता और परम्परा 2 ' सांख्य ' र्शब्द का अर्थ 3 सांख्य दर्शन की वेदमूलकता

प्राचीनता और परम्परामहाभारत* में र्शान्ति&तपव के अ&तर्गत सृष्टि*, उत्पत्ति., स्थि0तित, प्रलय और मोक्ष तिवषयक अष्टि5कांर्श मत सांख्य ज्ञान व र्शास्त्र के ही हैं जिजससे यह सिसद्ध होता है तिक उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतितष्टि>त, सुव्यवस्थि0त और लोकतिप्रय एकमात्र दर्शन के रूप में 0ातिपत हो चुका र्था। एक सु0ातिपत दर्शन की ही अष्टि5काष्टि5क तिववेचनाए ँहोती हैं, जिजसके परिरणामस्वरूप व्याख्या-तिनरूपण-भेद से उसके अलर्ग-अलर्ग भेद दिदखाई पड़ने लर्गते हैं। इसीसिलए महाभारत में तत्त्वर्गणना, स्वरूप वणन आदिद पर मतों की तिवतिव5ता दृष्टि*र्गोचर होती है। यदिद इस तिवतिव5ता के प्रतित साव5ानी न बरती जाय तो कोई भी व्यसिN प्रैंकसिलन एडर्गर्टन की तरह यही मान लेर्गा तिक महाकाव्य में सांख्य संज्ञा तिकसी दर्शन तिवरे्शष के सिलए नहीं वरन मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के सिलए ही प्रयुN हुआ है।* इस प्रकार की भ्रान्ति&त से बचने के सिलए सांख्य दर्शन की तिववेचना से पूव 'सांख्य' संज्ञा के अ5 पर तिवचार करना अपेत्तिक्षत है। 'सांख्य' र्शब्द का अर्थसांख्य र्शब्द की तिनष्पत्ति. संख्या र्शब्द से हुई है। संख्या र्शब्द 'ख्या' 5ातु में सम् उपसर्ग लर्गाकर वु्यत्पन्न तिकया र्गया है जिजसका अर्थ है 'सम्यक् ख्यातित'। संसार में प्रात्तिणमात्र दु:ख से तिनवृत्ति. चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे तिकस तरह सदा के सिलए दूर तिकया जा सकता है- ये ही मनुष्य के सिलए र्शाश्वत ज्वल&त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उ.र ढँूढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कतिपल दर्शन' में प्रकृतित-पुरुष-तिववेक-ख्यातित (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषा&यर्थाख्यातित' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानव5क ख्यातित ही 'संख्या' में तिनतिहत 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या र्शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अ5 में भी रृ्गहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या तिनरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है। 'सांख्य' र्शब्द की तिनष्पत्ति. र्गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई तिवसंर्गतित भी नहीं है। डॉ॰ आद्याप्रसाद ष्टिमश्र सिलखते हैं-'ऐसा प्रतीत होता है तिक जब तत्त्वों की संख्या तिनत्तिgत नहीं हो पाई र्थी तब सांख्य ने सवप्रर्थम इस दृश्यमान भौतितक जर्गत की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास तिकया र्था जिजसके फलस्वरूप उसके मूल में वतमान तत्त्वों की संख्या सामा&यत: चौबीस तिन5ारिरत की र्गई।*' लेतिकन आचाय 'उदयवीर र्शास्त्री' र्गणनार्थक तिनष्पत्ति. को युसिNसंर्गत नहीं मानते 'क्योंतिक अ&य दर्शनों में भी पदार्थl की तिनयत र्गणना करके उनका तिववेचन तिकया र्गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है र्गणनार्थक नहीं।*'हमारे तिवचार में र्गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उदे्दश्य-प्रान्तिप्त में तिवतिव5 रूप में 'र्गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार तिकया जा सकता है। र्शान्ति&तपव में दोनों ही अर्थ एक सार्थ स्वीकार तिकये र्गये हैं।* संख्यां प्रकुवते चैव प्रकृतितं च प्रचक्षते।तत्त्वातिन च चतुर्विंवंर्शत् तेन सांख्या: प्रकीर्तितंता:॥* प्रकृतित पुरुष के तिववेक-ज्ञान का उपदेर्श देने, प्रकृतित का प्रतितपादन करने तर्था तत्त्वों की संख्या चौबीस तिन5ारिरत करने के कारण ये दार्शतिनक 'सांख्य' कहे र्गये हैं। 'संख्या' का अर्थ समझाते हुए र्शांतित पव में कहा र्गया है- दोषाणां च र्गुणानां च प्रमाणं प्रतिवभार्गत:। कंसिचद5मष्टिमपे्रत्य सा संख्येत्युपा5ायताम्॥* अर्थात जहाँ तिकसी तिवरे्शष अर्थ को अभी* मानकर उसके दोषों और र्गुणों का प्रमाणयुN तिवभाजन (र्गणना) तिकया जाता है, उसे संख्या समझना चातिहए। स्प* है तिक तत्त्व-तिवभाजन या र्गणना भी प्रमाणपूवक ही होती है। अत: 'सांख्य' को र्गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्र5ान होता है। तिनष्कषत: हम कह सकते हैं तिक 'सांख्य' र्शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और र्गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है तिक संस्कृत वाङमय में 'सांख्य' र्शब्द तिकसी भी प्रकार के मोक्षो&मुख ज्ञान के सिलए प्रयुN हुआ है या कतिपल प्रणीत सांख्य दर्शन के सिलए प्रयुN हुआ है? इसके उ.र के सिलए कतितपय प्रसंर्गों पर चचा अपेत्तिक्षत है। श्री पुसिलन तिबहारी चक्रवतw ने चरक संतिहता के दो प्रसंर्गों को उद्धतृ करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना तिनष्कष प्रस्तुत तिकया। वे उद्धरण हैं- सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनवसुम्।जर्गतिzतार्थ पप्रच्छ वष्टि|वंर्श: स्वसंर्शयम्॥यर्था वा आदिदत्यप्रकार्शकस्तर्था सांख्यवचनं प्रकार्शष्टिमतित

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अयनं पुनराख्यातमेतद ्योर्गस्ययोतिर्गत्तिभ:।संख्यात5म}: सांख्यैg मुNौम~क्षस्य चायनम्॥सवभावस्वभावज्ञो यर्था भवतित तिनसृ्पह:। योर्गं यर्था सा5यते सांख्य सम्पद्यते यर्था॥ प्रर्थम प्रसंर्ग में श्री चक्रवतw संख्या को सम्यक-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुN मानते हैं और तिzतीय प्रसंर्ग में स्प*त: सांख्य दर्शनबो5क। यहाँ यह तिवचारणीय है तिक चरक संतिहताकार के समय तक एक व्यवस्थि0त दर्शन के रूप में कतिपलोN दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतितष्टि>त र्था और चरक संतिहताकार इस तथ्य से परिरसिचत रे्थ। तब प्रर्थम प्रसंर्ग में 'सांख्य' र्शब्द के उपयोर्ग के समय एक दर्शन सम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उN र्शब्द का उपयोर्ग तिकया र्गया होर्गा। संभव है कतिपलप्रोN दर्शन मूल में सिचतिकत्सकीय र्शास्त्र में भी अपनी भूष्टिमका तिनभाता रहा हो और उस दृष्टि* से सिचतिकत्सकीय र्शास्त्र को भी सांख्य कहा र्गया हो।* इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत ष्टिमलता है* अत: दोनों प्रसंर्गों में तिवzान, ज्ञान आदिद र्शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है। अतिहबुध्&यसंतिहता के बारहवें अध्याय में कहा र्गया है- सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कतिपलादृषे:। उदिदतो यादृर्श: पूव� तादृरं्श शृ्रणु मेऽ5ुना॥18॥षष्टि*भेदं स्मृतं त&तं्र सांख्यं नाम महामुने:॥19॥ यहाँ 'सांख्य' र्शब्द को सम्यक ज्ञान व कातिपल दर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थl में ग्रहण तिकया जा सकता है। सांख्य रूप में (सम्यक ज्ञान रूप में) पूव में कतिपल zारा संकल्प जिजस रूप में प्रस्तुत तिकया र्गया है- 'मुझसे सुनो। महामुतिन का साठ पदार्थl के तिववेचन से युN र्शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थl में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत र्शांतितपव का यह कर्थन तिक 'अमूत परमात्मा का आकार सांख्य र्शास्त्र है'- से पयाप्त साम्य स्मरण हो आता है। शे्वताश्वतर उपतिनषद में प्रयुN 'सांख्ययोर्गाष्टि5र्गम्यम्*' की व्याख्या तत्0ाने न कर र्शारीरक भाष्य* में रं्शकर ने 'सांख्य' र्शब्द को कतिपलप्रोN र्शास्त्र से अ&यर्था व्याख्याष्टियत करने का प्रयास तिकया। रं्शकर कहते हैं- 'य.ु दर्शनमुNं तत्कारणं सांख्य- योर्गात्तिभपन्नम् इतित, वैदिदकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोर्गर्शब्दाभ्यामत्तिभलप्यते' संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई तिवसंर्गतित नहीं होर्गी तिक यहाँ सांख्य पद वैदिदक ज्ञान के सिलए प्रयुN हुआ है। लेतिकन तिकस प्रकार के वैदिदक ज्ञान का लक्ष्य तिकया र्गया है, यह तिवचारणीय है। शे्वताश्वतर उपतिनषद में जिजस दर्शन को प्रस्तुत तिकया र्गया है वह 'भोNा भोग्यं प्रेरिरतारं' के त्रैत का दर्शन है। ॠग्वेद के 'zा सुपणा'- म&त्रांर्श से भी तित्रतिव5 अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्य दर्शन भी प्रायर्श: तै्रतवादी ही है। डॉ॰ आद्याप्रसाद ष्टिमश्र ने ठीक ही कहा है- 'तै्रत मौसिलक सांख्य की अपनी तिवसिर्श*ता र्थी, इससे स्प* होता है तिक मौसिलक सांख्य दर्शन के इसी त्रैतवाद की पृ>भूष्टिम में श्वेताश्वतर की रचना हुई।*' अत: इस अर्थ में सांख्य र्शब्द 'वैदिदकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण तिकया जाये तब भी तिनष्कष में इसका लक्ष्यार्थ कतिपलोN दर्शन ही र्गृहीत होता है। भर्गवद्गीता में सांख्य-योर्ग र्शब्दों का प्रयोर्ग भी तिवचारणीय है क्योंतिक तिवzानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। तिzतीय अध्याय के उ&चालीसवें श्लोक में कहा र्गया है- 'एषा तेऽत्तिभतिहता सांख्ये बुजिद्धय~र्गे न्तित्वमां श्रृणु'। अत्तिणमा सेनर्गुप्ता का मत है तिक यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्रान्तिप्त के अतितरिरN अ&य तिकसी रूप में व्याख्याष्टियत नहीं तिकया जा सकता।* जबतिक आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने बडे़ तिवस्तार से इसे कतिपलप्रोN 'सांख्य' के अर्थ में तिनरूतिपत तिकया। उN श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं तिक यह सब सांख्य बुजिद्ध (ज्ञान) कहा है अब योर्ग बुजिद्ध (ज्ञान) सुनो। यहाँ तिवचारणीय यह है तिक यदिद 'सांख्य' र्शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-तिवरे्शष नहीं, तव सांख्य 'बुजिद्ध' कहकर पुनरूसिN की आवश्यकता क्या र्थी? बुजिद्ध र्शब्द से कर्थनीय 'ज्ञान' का भाव तो सांख्य के 'ख्यातित' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुजिद्ध में यह ध्वतिनत होता है तिक 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है, उसकी बुजिद्ध या 'ज्ञान' की बात कही र्गई है। वह सिच&तन की प्रणाली या मार्ग र्गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होर्गा। र्गीता में जिजस मुN भाव से सांख्य दर्शन के पारिरभातिषक र्शब्दों या अव5ारणाओं का प्रयोर्ग तिकया र्गया है उससे यही स्प* होता है तिक वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य र्शब्द को र्गीता का एक पारिरभातिषक र्शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कतिपल का सांख्य र्शास्त्र ही तिनरूतिपत होता है। भर्गवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' र्शब्द का प्रयोर्ग हुआ है। कहा र्गया है- लोकेऽस्मिस्मन्द्वि&zतिव5ा तिन>ा पुरा प्रोNा मयानघ। ज्ञानयोर्गेन सांख्यानां कमयोर्गेन योतिर्गनाम्॥ र्गीता 3।3॥ यहाँ भी दो प्रकार के मार्गl या तिन>ा की चचा की र्गई हैं- ज्ञानमार्ग कम-मार्ग। तिवचारणीय यह है तिक जब 'कमयोरे्गन योतिर्गनां' कहा जा सकता है तब 'ज्ञानयोर्गेन ज्ञातिनना' न कहकर 'सांख्यानां' क्यों कहा र्गया? तिनgय ही 'ज्ञानयोतिर्गयों' के 'ज्ञान' के तिवर्शेष स्वरूप का उल्लेख अभी* र्था। वह तिवर्शेष ज्ञान कतिपलोN र्शास्त्र ही है,

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यह र्गीता तर्था महाभारत के र्शान्ति&त पव से स्प* हो जाता है। 'यदेव योर्गा: पश्यन्ति&त सांख्यैस्तदनुर्गम्यते*' इसीसिलए र्शान्ति&त पव में वसिस> की ही तरह र्गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं- 'सांख्ययोर्गौ पृर्थग्बाला: प्रवदन्ति&त न पस्थि�डता:।*' र्शांतितपव तर्था र्गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही र्गई है- 'एकं साख्यं च योरं्ग च य: पश्यतित स पश्यतित।*' र्गीता महाभारत का ही अंर्श है। अत: प्रचसिलत र्शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण तिकया जाना उसिचत है। र्गीता में प्रयुN 'सांख्य' र्शब्द भी चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो, कतिपलप्रोN र्शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चातिहए। महाभारत के र्शांतितपव में प्रयुN 'सांख्य' र्शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्प* है तिक उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इतना ही उल्लेखनीय है तिक कतिपल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्य दर्शन की र्शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है तिक यह एक अत्य&त युसिNसंर्गत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर तिवzानों का आकृ* होना, उस पर तिवचार करना और अपने तिवचारों को उN दर्शन से समर्थिर्थंत या संयुN बताना बहुत स्वाभातिवक है। जिजस तरह वेदा&त दर्शन की प्र0ानत्रयी में र्गीता का इतना महत्त्व है तिक प्राय: सभी आचायl ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को र्गीतानुसार बताने का प्रयास तिकया। इसी तरह ज्ञान के तिवत्तिभन्न पक्षों में रुसिच रखने वाले तिवzानों ने अपने तिवचारों को सांख्य रूप ही दे दिदया हो तो क्या आgय? ऐसे तिवकास की प्रतिक्रया में मूल दर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का ज&म भी हो जाना स्वाभातिवक है। अपनी रुसिच, उदे्दश्य और आवश्यकता के अनुसार तिवzान तिवत्तिभन्न पक्षों में से तिकसी को र्गौण, तिकसी को महत्त्वपूण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थ रचना भी करते हैं। अत: तिकसी एक मत को मूल कहकर रे्शष को अ&यर्था घोतिषत कर देना उसिचत प्रतीत नहीं होता। समस्त वैदिदक सातिहत्य वेदों की मह.ा, उपयोतिर्गता और आवश्यकतानुसार तिवत्तिभन्न कालों में प्रस्तुतित ही है। कभी कम यज्ञ आदिद को महत्त्वपूण मानकर तो कभी जीव&त जिजज्ञासा को महत्त्वपूण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत तिकया र्गया। इससे तिकसी एक पक्ष को अवैदिदक कहने का तो कोई औसिचत्य नहीं। परमर्तिषं कतिपल ने भी वेदों को दार्शतिनक ज्ञान को तक बुजिद्ध पर आ5ारिरत करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास तिकया। इसमें तक बुजिद्ध की पहुँच से परे तिकसी तिवषय को छोड़ दिदया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कतिपल दर्शन को अवैदिदक नहीं कहा जा सकता। सांख्य दर्शन की वेदमूलकतासांख्य दर्शन की वैदिदकता पर तिवचार करने से पूव वैदिदक का अत्तिभप्राय स्प* करना अभी* है। एक अ5 वैदिदक कहने का तो यह है तिक जो दर्शन वेदों में है वही सांख्य दर्शन में भी हो। वेदों में बताये र्गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के सिलए स्वतंत्र रूप से तिवचार तिकया र्गया हो, तो यह भी वैदिदक ही कहा जायेर्गा। अब वेदों में तिकस प्रकार का दर्शन है, इस तिवषय में मतभेद तो संभव है लेतिकन परस्पर तिवरो5ी मतवैत्तिभ&&य हो, तो तिनgय ही उनमें से अवैदिदक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टि*कता परमात्मा की स्वरूप चचा में, जर्गत जीव के सार्थ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिदक कहे जा सकते हैं, यदिद वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेतिकन यदिद कोई दर्शन परमात्मा की स.ा को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की स.ा को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही तिकया जाता है। इस मत में तिकतनी सत्यता या प्रामात्तिणकता है यह सांख्य दर्शन के स्वरूप को स्प* करने पर स्वत: स्प* हो जावेर्गा। महाभारत र्शान्ति&तपव में कहा र्गया है तिक वेदों में, सांख्य में तर्था योर्ग र्शास्त्र में जो कुछ भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आर्गत है। इसे अतितरंजिजत कर्थन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्प* है तिक महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतितरिरN सांख्य र्शास्त्र और योर्ग र्शास्त्र भी प्रतितष्टि>त हो चुके रे्थ और उनमें तिवचार साम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो ष्टिमलती ही है तिक वेद और सांख्य परस्पर तिवरो5ी नहीं हैं। र्शान्ति&त पव में ही कतिपल-स्यूमरस्थिश्म का संवाद* प्राचीन इतितहास के रूप में भीष्म ने प्रस्तुत तिकया। इसमें कतिपल को सत्त्वरु्गण में स्थि0त ज्ञानवान कहकर परिरसिचत कराया र्गया। महाभारतकार ने कतिपल का सांख्य-प्रवतक के रूप में उल्लेख तिकया, सांख्याचायl की सूची में भी एक ही कतिपल का उल्लेख तिकया और 'स्यूमरस्थिश्म-संवाद' में उस्थिल्लन्द्विखत कतिपल का सांख्य-प्रणेता कतिपल से पार्थक्य दिदखाने का कोई संकेत नहीं दिदया, तब यह मानने में कोई अनौसिचत्य नहीं है तिक यह कतिपल सांख्य-प्रणेता कतिपल ही हैं।[1] उपयुN संवाद में स्यूमरस्थिश्म zारा कतिपल पर वेदों की प्रामात्तिणकता पर संदेह का आके्षप लर्गाने पर कतिपल कहते हैं- 'नाहं वेदान् तिवतिन&दाष्टिम*' इसी संवाद क्रम में कतिपल पुन: कहते हैं 'वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृ>त: कृता:*' तिफर वेदों की मतिहमा का वणन करते हुए कहते हैं।* वेदांg वेदिदतव्यं च तिवदिदत्वा च यर्थास्थि0तितम्।एवं वेद तिवदिदत्याहुरतोऽ&य वातरेचक:॥सव� तिवदुव�दतिवदो वेदे सव� प्रतितष्टि>तम्।वेदे तिह तिन>ा सवस्य यद ्यदस्मिस्त च नास्मिस्त च॥

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उN तिवचारयुN कतिपल को अवैदिदक कहना कदातिप उसिचत प्रतीत नहीं होता। तिफर, कतिपल प्रणीत सूत्र zारा वेद के स्वत:प्रामा�य को स्वीकार तिकया र्गया है- 'तिनजर्शक्यत्तिभव्यNे स्वत:प्रमा�यम्*' इस सूत्र में अतिनरुद्ध, तिवज्ञानत्तिभकु्ष आदिद भाष्यकारों ने स्वत:प्रामा�य को स्प* तिकया है। सांख्यकारिरका में 'आप्तश्रुतितराप्तवचनम्*' कहकर वेद प्रामा�य को स्वीकार तिकया र्गया है। 5 वीं कारिरका के भाष्य में वाचस्पतित ष्टिमश्र कहते हैं- 'तच्च स्वत:प्रामा�यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजतिनतत्वेन सकलदोषार्शंकातिवतिनमुत्वेन युNं भवतित।' इतना ही नहीं, 'वेदमूलस्मृतीतितहासपुराणवाक्यजतिनतमतिप ज्ञानं युNं भवतित' कहा है। वेदात्तिश्रत स्मृतित, इतितहास, पुराण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब तिनद~ष माना जाता है, तब वेद की तो बात ही क्या? इसी कारिरका की वृत्ति. में माठर कहते है- 'अत: ब्रह्मादय: आचाया:, श्रुतितव�दस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्।' इस तरह सांख्य र्शास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत: प्रामा�य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्य र्शास्त्र को अवैदिदक या वेद तिवरुद्ध कहना कर्थमतिप समीचीन नहीं जान पड़ता। सांख्य दर्शन में प्रचसिलत पारिरभातिषक र्शब्दावली भी इसे वैदिदक तिनरूतिपत करने में एक महत्त्वपूण साक्ष्य है। 'पुरुष' र्शब्द का उपयोर्ग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदिद के अ5 में वैदिदक वाङमय में अनेक 0लों पर उपलब्ध है। लेतिकन 'पुरुष' र्शब्द का दर्शन र्शास्त्रीय प्रयोर्ग करते ही जिजस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्य दर्शन है। इसी तरह अव्यN, महत, त&मात्र, तित्रर्गुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदिद र्शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इ&हीं र्शब्दों में प्रस्तुत तिकया र्गया है। अत: चाहे वैदिदक सातिहत्य से ये र्शब्द सांख्य में आए हों या सांख्य परम्परा से इनमें र्गए हों, इतना तिनष्कष तो तिनकाला ही जा सकता है तिक सांख्य दर्शन वैदिदक है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदी5 परम्परा में इसे आस्मिस्तक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिदकता का स्प* उद्घोष ही है। र्गौडपाद भाष्यसांख्यकारिरकाओं की र्टीकाओं में संभवत: भाष्य नाम से यही ग्रंर्थ उपलब्ध है। परमार्थ कृत चीनी भाषा में र्टीका, सांख्यवृत्ति., सांख्य सप्ततितवृत्ति. तर्था माठर वृत्ति. से इसका पयाप्त साम्य है। तिवरे्शषकर सुवणसप्ततित र्शास्त्र (चीनी र्टीका का संस्कृत रूपांतर) के सप्ततत्त्वात्मक सूक्ष्म र्शरीर की मा&यता के समान आठ तत्त्वों के र्शरीर की चचा मात्र र्गौडपाद भाष्य में ही उपलब्ध है। र्गौडपाद भाष्य केवल 69 कारिरकाओं पर ही उपलब्ध है। सांख्यकारिरका तर्था मा�डूक्यकारिरका के भाष्यकार एक ही र्गौडपाद है या त्तिभन्न, यह भी असंदिदग्5त: नहीं कहा जा सकता। जयमंर्गलायद्यतिप इसके रचनाकाल के बारे में भी अतिनgय की स्थि0तित है, तर्थातिप तिवत्तिभन्न तिनष्कषl के आ5ार पर इसका रचनाकाल 600 ई. या इसके बाद माना र्गया*है। उदयवीर र्शास्त्री इसे 600 ई. तक सिलखा जा चुका मानते हैं*। र्गोपीनार्थ कतिवराज के अनुसार इसके रचष्टियता बौद्ध रे्थ। रचष्टियता का नाम रं्शकर (रं्शकराचाय या रं्शकराय) है। ये र्गोतिव&द आचाय के सिर्शष्य रे्थ- ऐसा जयमंर्गला के अ&त में उपलब्ध वाक्य से ज्ञात होता है। जयमंर्गला भी सांख्यकारिरका की व्याख्या है। तत्त्वकौमुदीयह सांख्यकारिरका की तिवख्यात र्टीका है। इसके रचनाकार मैसिर्थल ब्राह्मण वाचस्पतित ष्टिमश्र हैं। वाचस्पतित ष्टिमश्र षड्दर्शनों के व्याख्याकार हैं। सार्थ ही रं्शकर दर्शन के तिवख्यात आचाय भी हैं जिजनकी 'भामती' प्रसिसद्ध है। तत्त्वकौमुदी का प्रकार्शन डॉ॰ रं्गर्गानार्थ झा के सम्पादन में 'ओरिरय�र्टल बुक एजे&सी, पूना' zारा 1934 ई. में हुआ। तत्त्वकौमुदी का एक संस्करण हम्बर्ग से 1967 ई. में प्रकासिर्शत हुआ, जिजसे श्री एस.ए. श्रीतिनवासन ने 90 पा�डुसिलतिपयों की सहायता से तैयार तिकया। वाचस्पतित ष्टिमश्र ईसा के नवम र्शतक में तिकसी समय रहे हैं। तत्त्वकौमुदी सांख्यकारिरका की उपलब्ध प्राचीन र्टीकाओं में अ&यतम 0ान रखती है। कारिरका-व्याख्या में कहीं भी ऐसा आभास नहीं ष्टिमलता जो वाचस्पतित के अzैतवाद का प्रभाव स्प* करता हो। यह वाचस्पतित ष्टिमश्र की तिवरे्शषता कही जा सकती है तिक उ&होंने तर्ट0भावेन सांख्यमत को ही युसिNसंर्गत दर्शन के रूप में दिदखाने का प्रयास तिकया। डॉ॰ उमेर्श ष्टिमश्र के तिवचार में सांख्य रहस्य को स्प* करने में कौमुदीकार सफल नहीं रहे। लर्गभर्ग ऐसा ही मत ए&सायक्लोपीतिडया में भी व्यN तिकया र्गया, जबतिक डॉ॰ आद्या प्रसाद ष्टिमश्र के अनुसार यह र्टीका मूल के अनुक रहस्यों के उद्घार्टन में समर्थ हुई है। तत्त्वकौमुदी की र्टीकाए*ँ

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तत्त्वतिवभाकर- वंर्शी5र ष्टिमश्र कृत यह र्टीका संभवत: 1750 ई. सन के लर्गभर्ग सिलखी र्गई। इसका प्रकार्शन 1921 ई. में हुआ। तत्त्वकौमुदी व्याख्या- भारतीयतित कृत व्याख्या बाबू कौलेश्वर सिसंह पुस्तक तिवके्रता वाराणसी zारा प्रकासिर्शत। आवरणवारिरणी- कौमुदी की यह र्टीका महामहोपाध्याय कृष्णनार्थ &यायपंचानन रसिचत हैं। तिवz.ोतिषणी- बालराम उदासीन कृत कौमुदी व्याख्या मूलत: अपूण है, तर्थातिप पंतिडत रामावतार र्शमा zारा पूण की र्गई। रु्गणमयी- तत्त्वकौमुदी की यह र्टीका महामहोपाध्याय रमेर्शचंद्र तक तीर्थ की रचना है। पूर्णिणंमा- पंचानन तक रत्न की कृतित है। तिकरणावली- श्री कृष्ण वल्लभाचाय रसिचत। सांख्यतत्त्व कौमुदी प्रभा- डॉ॰ आद्या प्रसाद ष्टिमश्र तत्त्वप्रकासिर्शका- डॉ॰ र्गजानन र्शास्त्री मुसलर्गांवकर सारबोष्टि5नी- सिर्शवनारायण र्शास्त्री सुषमा- हरिरराम रु्शक्ल तत्त्वकौमुदी पर इतनी व्याख्याए ँउसकी प्रसिसजिद्ध और मह.ा का स्प* प्रमाण हैं। माठरवृत्ति.सांख्यकारिरका की एक अ&य र्टीका है जिजसके र्टीकाकार कोई माठरचाय हैं। माठर वृत्ति. की, र्गौडपाद भाष्य तर्था सुवणसप्ततित र्शास्त्र (परमार्थकृत चीनी अनुवाद) से काफ़ी समानता है। इस समानता के कारण आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने इसे ही चीनी अनुवाद का आ5ार माना है। संभवत: इसीसिलए उ&होंने सुवणसप्ततित र्शास्त्र में सूक्ष्म र्शरीर तिवषयक तत्त्वात्मक वणन को अठारह तत्त्वों के संघात की मा&यता के रूप में दर्शाने का प्रयास तिकया। यद्यतिप सुवणसप्ततितकार के मत का माठर से मतभेद अत्य&त स्प* है। माठर वृत्ति. में पुराणादिद के उद्धरण तर्था मोक्ष के संदभ में अzैत वेदा&तीय 5ारणा के कारण डा. आद्या प्रसाद ष्टिमश्र भी डॉ॰ उमेर्श ष्टिमश्र, डॉ॰ जानसन, एन. अय्यास्वामी र्शास्त्री की भांतित माठरवृत्ति. को 1000 ई. के बाद की रचना मानते है। ई.ए. सोलोमन zारा सम्पादिदत सांख्य सप्ततितवृत्ति. के प्रकार्शन से दोनों की समानता एक अ&य संभावना की ओर अस्प*त: संकेत करती है तिक वतमान माठर वृत्ति. सांख्यसप्ततित वृत्ति. का ही तिवस्तार है। इस संभावना को स्वीकार करने का एक संभातिवत कारण सूक्ष्म र्शरीर तिवषयक मा&यता भी मानी जा सकती है। 40 वीं कारिरका की र्टीका में माठर सूक्ष्म र्शरीर में त्रयोदर्शकरण तर्था पंचत&त्र मात्र स्वीकार करते हैं। यही परम्परा अ&य व्याख्याओं में स्वीकार की र्गई है। जबतिक सुवणसप्ततित में सात तत्त्वों का उल्लेख है। जो हो, अभी तो यह र्शो5 का तिवषय है तिक माठर वृत्ति. तर्था सुवणसप्ततित का आ5ार सप्ततितवृत्ति. को माना जाय या इन तीनों के मूल तिकसी अ&य ग्रन्थ की खोज की जाय। युसिNदीतिपका / YuktideepikaयुसिNदीतिपका भी सांख्यकारिरका की एक प्राचीन व्याख्या है तर्था अ&य व्याख्याओं की तुलना में अष्टि5क तिवस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में तिनgयपूवक कुछ कह पाना कदिठन है। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने जय&तभट्ट की &यायमंजरी में 'य.ु राजा व्याख्यातवान्-प्रतितरात्तिभमुख्ये वतते' तर्था युसिNदीतिपका में 'प्रतितना तु अत्तिभमुख्यं' – के साम्य तर्था वाचस्पतित ष्टिमश्र zारा 'तर्था च राजवार्तितंकं' (72 वीं कारिरका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युसिNदीतिपका के आरंभ में दिदए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धतृ करते देख युसिNदीतिपकाकार का नाम 'राजा' संभातिवत माना है। सार्थ ही युसिNदीतिपका का अ&य प्रचसिलत नाम राजवार्तितंक भी रहा होर्गा* *सुरे&द्रनार्थदास रु्गप्त भी राजा कृत कारिरकार्टीका को राजवार्तितंक स्वीकार करते हैं जिजसका उद्धरण वाचस्पतित ष्टिमश्र ने दिदया है*। उदयवीर र्शास्त्री के अनुसार युसिNदीतिपकाकार का संभातिवत समय ईसा की चतुर्थ र्शती है। जबतिक डॉ॰ रामच&द्र पा�डेय इसे दिदङ्नार्ग (6 वीं र्शती) तर्था वाचस्पतित ष्टिमश्र (नवम र्शती) के मध्य मानते हैं। युसिNदीतिपका में सांख्य के तिवत्तिभन्न आचायl के मतों के सार्थ-सार्थ आलोचनाओं का समा5ान भी प्रस्तुत तिकया है। यदिद युसिNदीतिपका की रचना र्शंकराचाय के बाद हुई होती तो रं्शकर कृत सांख्य ख�डन पर युसिNदीतिपकाकार के तिवचार होते। अत: युसिNदीतिपकाकार को र्शंकरपूववतw माना जा सकता है। युसिNदीतिपका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लर्गने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अष्टि5क सही अनुमान लर्गाया जा सके। युसिNदीतिपका में अष्टि5कांर्श कारिरकाओं को सूत्र रूप में तिवचे्छद करके उनकी अलर्ग-अलर्ग व्याख्या की र्गई है। युसिNदीतिपका में समस्त कारिरकाओं को चार प्रकरणों में तिवभN तिकया र्गया है। प्रर्थम प्रकरण 1 से 14 वीं कारिरका तक, तिzतीय 15 से 21 वीं कारिरका तक, तृतीय प्रकरण 22 से 45 वीं कारिरका तक तर्था रे्शष कारिरकाए ँचतुर्थ प्रकरण में। प्रत्येक प्रकरण को आष्टि|कों में बांर्टा र्गया है। कुल आष्टि|क हैं। कारिरका 11,12, 60-63 तर्था 65, 66 की व्याख्या उपलब्ध नहीं है। सार्थ ही कुछ व्याख्यांर्श खस्थि�डत भी हैं। सांख्य सातिहत्य में युसिNदीतिपका अत्य&त महत्त्वपूण है। सांख्य के प्राचीन आचायl के तिवत्तिभन्न मतों का संकेत युसिNदीतिपका में उपलब्ध है। वाषर्ग�य-जिजनकी कोई कृतित आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सवाष्टि5क परिरचय युसिNदीतिपका में ही उपलब्ध है।

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इसी तरह तिवन्ध्यवासी, पौरिरक, पंचाष्टि5करण इत्यादिद प्राचीन आचायl के मत भी युसिNदीतिपका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति. महत से मानी र्गई है, लेतिकन तिवंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतितरिरN पंचत&मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22 वीं कारिरका की युसिNदीतिपका में तिवन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा र्गया है। 'महत: षाड्तिवर्शेषा:सृज्य&ते त&मात्रा�यहंकारgेतित तिवंध्यवासिसमतम्' पंचाष्टि5करण इजि&द्रयों को भौतितक मानते हैं- 'भौतितकानीजि&द्रयाणीतित पंचाष्टि5करणमतम्' (22 वीं कारिरका पर युसिNदीतिपका) संभवत: वाषर्ग�य ही ऐसे सांख्याचाय हैं जो मानते हैं तिक प्र5ानप्रवृत्ति.रप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिरर्गृह्यमाणाऽदिदसर्ग� वत&ते*' सार्थ ही वाषर्ग�य के मत में एकादर्शकरण मा&य है जबतिक प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदर्शकरण को मानती है युसिNदीतिपका के उN उल्लेखों से यह स्प* हो जाता है तिक उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचसिलत हो चुके रे्थ। संस्कृत में सांख्य दर्शनहम उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्य दर्शन का परिरचय प्रस्तुत करेर्गें जिज&हें सांख्य सम्प्रदाय के ग्रन्थ मानने की परम्परा नहीं है लेतिकन जिजनमें सांख्य दर्शन का उल्लेख व परिरचय प्राप्त होता है। ऐसे भी ग्रन्थ है जिजनमें प्रस्तुत दर्शन सांख्यीय मा&यताओं के अनुरूप सांख्य सम्प्रदाय की र्शब्दावली में ही है। इस प्रकार के ग्रन्थों में प्रमुख है- अतिहबुध्&यसंतिहता में सांख्य दर्शन महाभारत में सांख्य दर्शन (तिवरे्शष रूप से र्शांतितपव) श्रीमद्भार्गवत में सांख्य दर्शन भर्गवद्गीता में सांख्य दर्शन पुराण में सांख्य दर्शन उपतिनषद में सांख्य दर्शन सिचतिकत्सकीय र्शास्त्र आदिद में सांख्य दर्शन बुद्धचरिरतम में सांख्य दर्शन सांख्य चजि&द्रकासांख्यकारिरका की एक अवाचीन व्याख्या है जिजसके व्याख्याकार नारायणतीर्थ हैं। नारायणतीर्थ सत्रहवीं र्शती के हैं। इ&हें अ&य भारतीय दर्शनों का भी अच्छा ज्ञान र्था। सांख्य-चंदिद्रका ही संभवत: एक मात्र व्याख्या है जिजसमें छठी कारिरका में 'सामा&यतस्तु दृ*ात' का अर्थ सामा&यतोदृ* अनुमान न लेकर 'सामा&यत: तु दृ*ात्' अर्थ में ही स्वीकार तिकया। सांख्य तरु वस&तयह सांख्यकारिरका की अवाचीन व्याख्या है। इसमें तिवज्ञानत्तिभकु्ष की ही तरह परमात्मा की स.ा को स्वीकार तिकया र्गया है। सांख्य तर्था वेदा&त सम&वय के रूप में इस व्याख्या को जाना जाता है। तीसरी कारिरका की व्याख्या के प्रसंर्ग में तरु वस&तम् में सिलखा है- पुरुष एक: सनातन: स तिनर्तिवंरे्शष: सिचतितरूप.... पुमान्अतिवतिवN संसार भुक् संसार पालकgेतित तिzकोदिर्ट0ो वतत�। तिवतिवN: परम: पुमानेक एव । स आदौ सर्गमूलतिनवाहाय ज्ञानेन तिवतिवNौऽतिप इच्छया अतिवतिवNो भवतित। इन तिवचारों का समर्थन श्री अभय मजूमदार ने भी तिकया है*। तरु वसंत के रचष्टियता मुडुम्ब नरसिसंह स्वामी है। इसका प्रकांर्शन डॉ॰ पी.के. र्शसिर्श5रन के सम्पादन में मदुरै कामराज तिवश्वतिवद्यालय zारा 1981 में हुआ। अतिहबुध्&यसंतिहता / Ahirbudhany Sanhitaअतिहबुध्&यसंतिहता* पांचरात्र सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के 12 वें अध्याय के 18 वें श्लोक में सांख्य दर्शन को तिवष्णु के संकल्प रूप में बताकर कहा र्गया है- षष्टि*भेदस्मृतं त&त्रं सांख्यं नाम महामुने। प्राकृतं वैकृतं चेतित म�डले zे समासत:॥ कतिपल के सांख्य दर्शन में साठ (पदार्थl) के भेद का तिववेचन है (ऐसा) कहा जाता है। संक्षेप में प्राकृत तर्था वैकृत म�डल (भार्ग) है। प्राकृत म�डल में 32 तर्था वैकृत म�डल में 28 पदार्थ हैं।

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प्रर्थम म�डल के पदार्थ 'त&त्र' और तिzतीय म�डल के पदार्थ 'का�ड' कहे र्गए। प्राकृत म�डल में तिनम्नसिलन्द्विखत पदार्थ हैं- ब्रह्मतंत्र, पुरुषतंत्र, र्शसिN, तिनयत, कालतंत्र, रु्गणतंत्र, अक्षरतंत्र, प्राणतंत्र, कतृतंत्र सष्टिमत (स्वाष्टिम) त&त्र, ज्ञानतिक्रया, मात्रत&त्र तर्था भूतत&त्र। इनमें र्गुणत&त्र में सत्त्व, रजस, तमस ज्ञानत&त्र में पंचज्ञान सा5न, तिक्रयात&त्र में पंचकमसा5न, मात्रत&त्र में पंवत&मात्र, भूतत&त्र में पंच0ूलभूत तिनतिहत मानें तो कुल 32 पदार्थ हो जाते हैं। वैकृत म�डल में 28 पदार्थ तिनम्नासिलन्द्विखत हैं- कृत्यका�ड में पांच, भोर्गका�ड, वृ.का�ड में एक-एक, क्लेर्शका�ड में पांच, प्रमाणका�ड में तीन, तर्था ख्यातित, 5म, वैराग्य, ऐश्वय र्गुण, सिलंर्ग, दृष्टि*, आनुश्रतिवक, दुख, सिसजिद्ध, काषाय, समय तर्था मोक्षका�ड। षष्टि*त&त्र के तिवत्तिभन्न साठ पदार्थl की इस प्रकार की र्गणना, सांख्य के प्रचसिलत व उपलब्ध ग्रन्थों में उस्थिल्लन्द्विखत साठ पदार्थl की र्गणना से त्तिभन्न तो प्रतीत होती है तर्थातिप सांख्यत्तिभमत के सवर्था अनुकूल है। सांख्यर्शास्त्रीय परम्परा में पांच तिवपयय, नौ तुष्टि*याँ, आठ सिसजिद्धयाँ, अट्ठाइस अर्शसिNयाँ तर्था दस मौसिलकार्थ-इस प्रकार साठ पदार्थ माने जाते है। सांख्यदर्शन, परम्परा में परिरर्गत्तिणत 20 तत्त्व (ज्ञानेजि&द्रय, कम�जि&द्रय, त&मात्र तर्था 0ूलभूत प्राकृत म�डल में सम्मिम्मसिलत हैं। सार्थ ही पुरुष और तित्रर्गुण भी सम्मिम्मसिलत हैं। संतिहता में तीनों रु्गणों के रु्गणत&त्र के अ&तर्गत रखा र्गया लेतिकन प्रकृतित की पृर्थक् र्गणना नहीं की र्गई। प्राकृतत&त्र में मन, बुजिद्ध, अहंकार का संकेत स्प* नहीं है, ऐसा उदयवीर र्शास्त्री स्वीकार करते हैं। तिक&तु अत्तिणमा सेनर्गुप्ता के अनुसार कतृत&त्र में इनका अ&तभाव तिकया जा सकता है। क्योंतिक ये तीन अ&त:करण पुरुष के समस्त भोर्ग कम के आ5ारभूत हैं*। वैकृत म�डल में प्रस्तुत अट्ठाइस पदार्थl में कुछ का सांख्य दर्शन में प्रसंर्गवर्श उल्लेख तो होता हैं तर्थातिप इ&हें पृर्थक् तत्त्वरूप में नहीं जाना जाता। तित्रतिव5 प्रमाण, बुजिद्ध के आठ भावों में से सास्मित्त्वक भाव ज्ञान (ख्यातित), 5म, वैराग्य, ऐश्वय, सिसजिद्ध, (सिसजिद्धका�ड) मोक्ष आदिद की चचा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। पुरुषार्थ रूप भोर्ग का भी वैकृत म�डल में उल्लेख है। पंचतिवपयय कलेर्श रूप में उस्थिल्लन्द्विखत है। प्रकृतित, परमात्मा तर्था जीवात्मा (दो चेतन तत्त्वों) की मा&यता संतिहताकार की जानकारी में रही

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होर्गी ऐसा माना जा सकता है*। यहाँ ब्रह्म र्शब्द प्रकृतित के अर्थ में सिलए जाने की संभावना युसिNसंर्गत इससिलए नहीं कही जा सकती, क्योंतिक प्रकृतित और रु्गणत्रय की तान्तित्वक अत्तिभन्नता है और र्गुणतंत्र की र्गणना भी प्राकृत म�डल में है। प्राकृत म�डल में उस्थिल्लन्द्विखत तिनयतित, काल, अक्षर, साष्टिम पदार्थl का स्प* कर्थन सांख्य सातिहत्य में नहीं पाया जाता, तर्थातिप इनके तिक&हीं अर्थl को सांख्य दर्शन में मा&य तत्त्वों के सार्थ सामंजस्य रूप में स्वीकार अवश्य तिकया जा सकता है। पुरुष और प्रकृतित स.ा की दृष्टि* से अक्षर कहे जा सकते हैं।* इसी तरह साष्टिम (स्वामी) अष्टि5>ानुभूत परमात्मा के सम्बन्ध में समझा जा सकता हैं।*तिनयतित यदिद स्वभाव के अर्थ में सिलया जाय तो सृष्टि* वैषम्य की स्वाभातिवता प्रकृतित में तर्था भोर्गापवर्ग~&मुखता जीवात्मा पुरुष के स्वभाव के रूप में सिलया ही जा सकता है। अतिहबुध्&यसंतिहता के इस षष्टि*भेद के बारे में उदयवीर र्शास्त्री का मत है तिक 'वाषर्ग�य के योर्ग संबं5ी व्याख्या-ग्रन्थों के आ5ार पर और कुछ इ5र-उ5र से सुन-जानकर संतिहताकार ने साठ पदार्थl की संख्या पूरी तिर्गनाने का प्रयास तिकया*'। दूसरी ओर अत्तिणमा सेनरु्गप्ता का मत है तिक संतिहताकार व्यसिNर्गत (साक्षात्) रूप से षष्टि*त&त्र के तिवषयवस्तु से परिरसिचत रहे होंरे्ग। अत: यह (संतिहता) कतिपल के मूल तिवचारों पर ही आ5ृत कही जा सकती है*। संतिहताकार षष्टि*त&त्र से सुपरिरसिचत या अल्पपरिरसिचत रहा हो या यत्र-तत्र उपलब्ध जानकारी के आ5ार पर साठ पदार्थl की र्गणना की हो- एक तथ्य स्प* है तिक षष्टि*त&त्र के कतिपलप्रोN सांख्य दर्शन का नाम होने के तिवषय में संदेह मात्र भी न र्था। यह सम्भवत: उसके अ&तर्गत प्रचसिलत हो र्गई हो जैसा तिक भार्गवत और र्शांतितपव में भी परिरलत्तिक्षत होता है। उपतिनषदों में सांख्य दर्शन / Sankhya and Upnishadzा सुपणा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिरषस्वजाते। तयोर&य: तिपप्पलं स्वाzत्त्यनश्नन्न&यो अत्तिभचाकर्शीतित॥समाने वृक्षे पुरुषों तिनमग्नोऽनार्शया र्शोचतित मुह्यमान:। ज*ंु यदा पश्यत्य&यमीर्शमस्य मतिहमानष्टिमतित वीतर्शोक:॥यदा पश्य: पश्यते रुक्मवण� कतारमीर्शं पुरुषं ब्रह्मयोतिनम्। तदा तिवzा&पु�यपापे तिव5ूय तिनरंजन: परमं साम्यमुपैतित॥ - मु�डकोपतिनषद 3/1/1-3 दो सु&दर वण वाले पक्षी एक ही वृक्ष पर सखा-भाव से सदा सार्थ-सार्थ रहते हैं। उनमें से एक तो फल भोर्ग करता है और दूसरा भोर्ग न करते हुए देखता रहता है। एक ही वृक्ष पर रहने पर भी वृक्ष पर 'ईर्शत्व' न होने से मोतिहत होकर सिचन्ति&तत रहता है। वह जिजस समय अपने से त्तिभन्न ईश्वर और उसकी मतिहमावान र्शोकरतिहत पक्षी देखता है, जब जर्गत्कता ईश्वर पुरुष को देखता है तब वह तिवzान पु�य-पाप त्यार्ग कर उसके समान र्शुद्ध और परम साम्य को प्राप्त हो जाता है। आलंकारिरक काव्यमय रूप से महाभारत में प्रस्तुत तै्रतवादी सांख्य का इस म&त्र में स्प* तिनरूपण दीखता है। वृक्ष(प्रकृतित) पर बैठे दो पक्षी हैं। एक वृक्ष के फलों का भोर्ग कर रहा है। (जीवात्मा) दूसरा र्शोक रतिहत भाव से देख रहा है परमात्मा। इस तरह प्रकृतित और परमात्मा-जीवात्मा तिनरूपण ही वास्तव में कतिपल सांख्य का आ5ार बना। इस तै्रत को शे्वताश्वतर उपतिनषद में इस प्रकार प्रस्तुत तिकया र्गया- 'यहाँ दो चेतन तत्त्वों का उल्लेख है एक अनीर्श और भोNा है और दूसरा तिवश्व का ईर्श, भता है। एक प्रकृतित है जो जीवात्मा के भोर्ग के सिलए तिनयुN है। इस तरह तीन अज अतिवनार्शी तत्त्व हैं, र्शाश्वत तत्त्व (ब्रह्म) है इ&हें जानकर (व्यNाव्यNज्ञतिवज्ञानात्) मुसिN प्राप्त होती है। शे्वताश्वतर में इस प्रसंर्ग में एक अ&य रूप से सांख्य सम्मत तै्रतावाद का उल्लेख है- अजामेकां लोतिहतरु्शक्लकृष्णां वह्वी: प्रजा सृजामानां सरूपा:। अजो तिह एको जुषमाणोऽनुर्शेते जहात्येनां भुNभोर्गामजोऽ&य:॥* यहाँ लोतिहत र्शुक्ल कृष्ण वण क्रमर्श: रजस, सत्त्व तर्था तमस-तित्रर्गुण के सिलए प्रयुN है। इन तीन र्गुणों से युN एक अजा (अज&मा) तत्त्व है। इसका भोर्ग करता हुआ एक अज तत्त्व है तर्था भोर्ग रतिहत एक और अज तत्त्व (परमात्मा) है। इस प्रकार यह उपतिनषदवाक्य तित्ररु्गणात्मक प्रसव5र्मिमं (सृजन करने वाली) प्रकृतित का उल्लेख भी करती है। परमात्मा को मायावी कहकर प्रकृतित को ही माया कहा र्गया है।* इस प्रसंर्ग में पुन: मायावी और माया से बने्ध हुए अ&य तत्त्व जीवात्मा का उल्लेख भी है।* सांख्यसम्मत तत्त्वों का सांख्य परम्परा की पदावली में ही 'कठोपतितषद' इस प्रकार वणन करती है।* इजि&द्रयेम्य: परं मनो मनस: सत्त्वमु.मम्। सत्त्वादष्टि5महानात्मा महतोऽव्यNमु.मम्। अव्यNा.ु पर: पुरुषो व्यापकोऽसिलंर्ग एव च॥यं ज्ञात्वा मुच्यते ज&तुरमृतत्त्वं च र्गच्छतित। (कठोपतिनषद- 2।3।7-8) इन समस्त इजि&द्रयों से युN आत्मा-जीवात्मा-को भोNा कहा र्गया है। सांख्य दर्शन में तो पुरुष के अस्मिस्तत्व हेतु दी र्गई युसिNयों में भोNृत्व को पुरुष का लक्षण भी माना र्गया है। इन र्शब्दों के प्रयोर्ग से तर्था उN वणन से इन उपतिनषदों पर सांख्यदर्शन के प्रभाव का पता चलता है। छा&दोग्योपतिनषद में सृष्टि* रचना के संदभ में कहा र्गया है तिक पहले सत ही र्था। उसने ईक्षण तिकया- 'मैं बहुत हो जाऊँ' य उसने तेज का सृजन तिकया। इसी तरह तेज से अप् तर्था अप् से अन्न के सृजन का वणन है। इस वणन से यह बात स्प* हो जाती है तिक

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सत् तेज या अप् नहीं हो र्गया वरन सत् सृजन तिकया। अत: उसे ही उपादान मान लेने का कोई ठोस आ5ार नहीं है। वास्तव में सत् में अव्यN भाव से स्थि0त तेज अप् अन्न का सृजन तिकया- ऐसा भाव है। तेज अप्, अन्न क्रमर्श: सांख्योN सत्त्व, रजस व तमस ही है। इस प्रसंर्ग में बताया र्गया तेजस अन्द्विग्नरूप रN वण का, अप् रु्शक्ल वण का तर्था अन्न कृष्ण वण का है। प्रत्येक पदार्थ में ये तीनों ही सत्य हैं। रे्शष वाचारम्मणं तिवकार मात्र हैं। इन तीन का सृजन करके वह जीवात्मा से उसमें प्रतिव* हुआ। प्रवेर्श से चेतन-अचेतन zैत की सांख्यसम्मत मा&यता की 0ापना ही होती है। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने इस प्रसंर्ग को 'अनेन तर्था अनुप्रवेश्य' र्शब्दों के आ5ार पर परमात्मा तर्था जीवात्मा दो चेतन तत्त्वों का अर्थ ग्रहण तिकया।* इसी प्रसंर्ग में जिजस 'तित्रवृत' की चचा की र्गई है वह तित्रर्गुण की परस्पर तिक्रया के रूप में ही समझी जा सकती है। मैत्र्युपतिनषद में तो सांख्य तत्त्वों का उ&हीं र्शब्दों में उल्लेख है। पुरुषgेता प्र5ानाना&त:0: स एव भोNा प्राकृतमन्नं भुङNा इतित... प्राकृतमन्न तित्रर्गुणभेद परिरणामात्मा&महदादं्य तिवर्शेषा&तं सिलंर्गम्, आदिद उपतिनषदों में सांख्य सिसद्धा&तों का ष्टिमलना इस बात का सूचक है तिक सांख्य पर उपतिनषत प्रभाव है और सांख्य र्शास्त्र का उपतिनषदों पर प्रभाव है। सांख्य दर्शन और र्गीता / Sankhya and Gitaभर्गवद्गीता में सांख्य दर्शन भर्गवद्गीता में तिवत्तिभन्न दार्शतिनक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का अ&वेषण तिकया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेतिकन जिजन सिसzा&तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाष्टि5कार माना जाता है। उनका र्गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिजसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है तिक जो तिवzान सांख्य दर्शन को तिनरीश्वरवादी या अवैदिदक मानकर तिवचार करते हैं वे अवश्य ही र्गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिजसका महाभारत में सिचत्रण है, अवश्य ही र्गीता में स्वीकार तिकया जाता है। भर्गवद्गीता में कहा र्गया है- प्रकृतितं पुरुषं चैव तिवद्धयनादी उभावतित। तिवकारांg र्गुणांgैव तिवजिद्ध प्रकृतितसंभवान्॥13/19

कायकरणकतृत्वे हेतु: प्रकृतितरुच्यते। पुरुष: सुखदु:खानां भौNृत्वे हेतुरुच्यते॥20॥ प्रकृतित और पुरुष दोनों अनादिद हैं, समस्त तिवकास और र्गुण प्रकृतित से उत्पन्न हैं। कायकारणकतृव्य (परिरणाम) का हेतु प्रकृतित तर्था सुख-दु:ख भोNृत्व का हेतु पुरुष है।

मयाध्यक्षेण प्रकृतित: सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौ&तेय जर्गतिzपरिरवतते॥ मेरी (परमात्मा की) अध्यक्षता (अष्टि5>ातृत्व) में ही प्रकृतित चराचर जर्गत की सृष्टि* करती है। इस प्रकार भर्गवद्गीता तीन तत्त्वों को मानती है- प्रकृतित, पुरुष एवं परमात्मा। वैदिदक सातिहत्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्व के सिलए प्रयुN होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व तिनरूतिपत होते हैं। र्गीता में सृष्टि* का मूलकारण प्रकृतित को ही माना र्गया है। परमात्मा उसका अष्टि5>ान है- इस अष्टि5>ातृत्व को तिनष्टिम. कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृतित के रूप में जीव-प्रकृतित को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की र्गई है। परमात्मा स्वयं इस जर्गत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति. और प्रलय का तिनयंत्रण करता है।* र्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृ. होते हैं। मैं उनमें नहीं बस्मिल्क वे मुझमें हैं। इन तित्ररु्गणों से मोतिहत हुआ यह जर्गत मुझे अतिवनार्शी को नहीं जानता। इस दैवी रु्गणमयी मेरी माया के जाल से तिनकलना कदिठन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से तिनकल जाते हैं*।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृतित से सम्बन्ध की सूचना ष्टिमलती है वहीं संबं5 के सिलए अतिनवाय त्तिभन्नता का भी संकेत ष्टिमलता है। परमात्मा प्रकृतित में अ&तव्याप्त और बतिहव्याप्त है। इसीसिलए परमात्मा के व्यN होने या अव्यN रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यN अव्यN सापेक्षार्थक र्शब्द है। परमात्मा के व्यN होने की कल्पना को र्गीताकार अबुजिद्धपूव कर्थन मानते हैं*। अत: जब परमात्मा की माया से सृ*युत्पत्ति. कही जाती है तब उसका आर्शय यह नहीं होता तिक परमात्मा अपनी चमत्कारी र्शसिN से व्यN होता है, बस्मिल्क यह तिक उसकी अव्यN नाम्नी माया या तित्ररु्गणाम्मित्मका प्रकृतित ही व्यN होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृतित की पृर्थक् स.ा की स्वीकृतित झलकती है। परमात्मा स्वयं जर्गदरूप में नहीं आता बस्मिल्क जर्गत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है*। समस्त काय (तिक्रया) प्रकृतित zारा ही तिकए जाते हैं। परमात्मा अनादिद, तिनर्गुण, अव्यय होने से र्शरीर में रहते हुए भी अकता-असिलप्त रहता है*। (यह) र्शरीर के्षत्र है और इसका ज्ञाता के्षत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त के्षत्रों का के्षत्रज्ञ है*। इससे भी जीव तर्था देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्प* होता है।

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सांख्य र्शास्त्र में मा&य तित्ररु्गणात्मक प्रकृतित र्गीता को भी मा&य है। सृष्टि* का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृतित के तीन रु्गणों से रतिहत हो*। र्शांतित पव में प्रस्तुत सांख्य तर्था तत्त्वसमासोN अ*प्रकृतित को भी र्गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (त&मात्र), बुजिद्ध, अहंकार तर्था मन इन आठ को अ*प्रकृतित के रूप में कहा र्गया है*। सांख्यर्शास्त्र में मा&य अ*प्रकृतित के अ&तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। र्गीता में मन को सम्मिम्मसिलत कर, मूलप्रकृतित का लोप कर दिदया र्गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृतित कहना संर्गत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहाँ मन का अर्थ प्रकृतित सिलया जाय अर्थवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचसिलत रे्थ उनमें से एक भेद यहाँ स्वीकार कर सिलया जाये। प्रकृतितरूप के्षत्र के तिवकार, उनके रु्गण5म आदिद की चचा करते हुए कहा र्गया है- महाभूत, अहंकार, बुजिद्ध, एकादर्श इजि&द्रय तर्था पांच इजि&द्रय तिवषय इनका कारणभूत- सब के्षत्र के स्वरूप में तिनतिहत है। इसे अव्यN कहा र्गया है। क्षर तर्था अक्षर तत्त्व का तिनरूपण करते हुए कहा र्गया है क्षररूप प्रकृतित अष्टि5भूत है तर्था पुरुष अष्टि5दैवत है और समस्त देह में परमात्मा अष्टि5यज्ञ है*। सृष्टि* रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के सिलए भोर्ग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के सिलए है और इसका उदे्दश्य परमात्मा की प्रान्तिप्त है। इसीसिलए परमात्मा की भी पृर्थक् स.ा की मा&यता प्रस्तुत की र्गई है। एक 0ल पर कहा र्गया है तिक इस संसार में क्षर तर्था अक्षर या नार्शवान परिरवतनर्शील तर्था जीवात्मा अक्षर है उ.म पुरुष अ&य है जिजसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेर्श कर सबका पालन करता है, वह अतिवनार्शी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उ.म है उसे पुरुषो.म कहा जाता है*। इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया र्गया। कायकारण-श्रृंखला में व्यN समस्त जर्गत का मूल हेतु प्रकृतित है और जीवात्मा सुख दु:खादिद के भोर्ग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भता भोNा है। इस तरह जो जान लेता है वह मुN हो जाता है। प्रकृतित0 हुआ पुरुष रु्गण संर्ग होकर प्रकृतित के रु्गणों का भोर्ग करता हुआ र्शुभार्शुभ योतिनयों में ज&म लेता रहता है*। सत्त्व रजस प्रकृतित से व्यN रु्गण ही अव्यय पुरुष को देह में बां5ते हैं*। इन र्गुणों के अतितरिरN कता अ&य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब सा5क जान लेता है तो र्गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है*। इस तरह र्गीता व्यNाव्यNज्ञ ज्ञान से मुसिN का तिनरूपण करती है। र्गीता दर्शन का सांख्य रूप तिववेचन उदयवीर र्शास्त्री ने अत्य&त तिवस्तार से तिकया है*। तिनष्कषत: कहा जा सकता है तिक महाभारत के अंर्गभूत होने से र्शांतितपवा&तर्गत सांख्य दर्शन का ही र्गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचसिलत तिवzान मा&यतानुसार तिनरीश्वर सांख्य र्गीता को इ* नहीं है। सांख्य दर्शन और सिचतिकत्सा / Sankhya and Therapyचरक संतिहता में सांख्य दर्शनअतितप्राचीन काल में ही सांख्य दर्शन का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से ज्ञान के सभी पक्षों से संबंष्टि5त र्शास्त्रों में सांख्योN तत्त्वों की स्वीकृतित तर्था प्रकृतित-पुरुष संबं5ी मतों का उल्लेख है। चरक संतिहता में र्शारीर0ानम् में पुरुष के संबं5 में अनेक प्रश्न उठाकर उनका उ.र दिदया र्गया है। जिजसमें सांख्य दर्शन का ही पूण प्रभाव परिरलत्तिक्षत होता है। र्शारीर0ानम् के प्रर्थम अध्याय में प्रश्न तिकया र्गया*- कतित5ा पुरुषों 5ीमन्! 5ातुभेदेन त्तिभद्यते। पुरुष: कारणं कस्मात् प्रभव: पुरुषस्य क:॥तिकमज्ञो ज्ञ: स तिनत्य: तिकमतिनत्यो तिनदर्थिर्शंत:। प्रकृतित: का तिवकारा: के, तिकं सिलंरं्ग पुरुषस्य य॥ इनके अतितरिरN पुरुष की स्वतंत्रता, व्यापकता, तिनम्मिष्क्रयता, कतृत्व, सात्तिक्षत्व आदिद पर प्रश्न उठाए र्गए। उनका उ.र इस प्रकार दिदया र्गया*।खादयgेतना ष>ा 5ातव: पुरुष: स्मृत:। चेतना5ातुरप्येक: स्मृत: पुरुषसंज्ञक:॥पुनg 5ातुभेदेन चतुर्तिवरं्शतितक: स्मृत। मनोदरे्शजि&द्रया�यर्था: प्रकृतितgा*5ातुकी॥ यहाँ पुरुष के तीन भेद बताए र्गए हैं- षड्5ातुज, चेतना 5ातुज तर्था चतुर्तिवंर्शतिततत्त्वात्मक। षड्5ातुज पुरुष वास्तव में चेतनायुN पञ्चतत्त्वात्मक है। पांच महाभूत रूपी पुरिर में रहने वाला आत्मतत्त्व, चेतना सिचतिकत्सकीय दृष्टि* से प्रयोत्य है। दूसरा पुरुष एक 5ातु अर्थात चेतना तत्त्व मात्र है। तीसरा पुरुष चौबीस तत्त्वयुN है। चौबीस तत्त्वयुN इस पुरुष को ही 'रासिर्शपुरुष' भी कहा र्गया है। इस रासिर्श पुरुष में कम, कमफल, ज्ञान सुख-दु:ख, ज&म-मरण आदिद घदिर्टत होते हैं*। इन तत्त्वों के संयुN न रहने पर अर्थात मात्र चेतन तत्व की अव0ा

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में तो सुख-दु:खादिद भोर्ग ही नहीं होते* और नही चेतन तत्त्व का अनुमान ही संभव हैं। इस प्रकार से कसिर्थत पुरुष के मुख्य रूप से दो ही भेद माने जा सकते हैं। षड्5ातुज का तो चतुर्विंवंर्शतितक में या रासिर्शपुरुष रूप में अ&तभाव हो जाता है। एक 5ातु रूप चेतन तत्त्व दूसरा पुरुष है इन दोनों की उत्पत्ति. के प्रश्न का उ.र देते हुए कहा र्गया- प्रभवो न ह्यनादिदत्वातिzद्यते परमात्मन:। पुरुषो रासिर्शसंज्ञस्तु मोहेच्छाzेषकमज:॥* अनादिद:पुरुषो तिनत्यो तिवपरीतस्तु हेतुज:सदकारणवष्टिन्नत्यं दृ*ं हेतुजम&यर्था॥1/59अव्यषNमात्मा क्षेत्रज्ञ: र्शाश्वतो तिवभुश्व्यय:। तस्म्माद्यद&य.द्व्यNं वक्ष्यते चापरं zयम्॥61 अनादिदपुरुष (परमात्मा) तर्था रासिर्शपुरुष का यह वै5म्य तिवचारणीय है। ईश्वरकृष्ण की कारिरका में पुरुष को व्यN के समान तर्था तिवपरीत भी कहा र्गया है। व्यN को हेतुमत आदिद कहकर तदनुरूप पुरुष है ततिzपरीत भी पुरुष है। न तो कारिरका में और न ही र्शारीर0ानम् के उपयुN वणन में इ&हें एक ही पुरुष के लक्षण मानने का आग्रह संकेत है। सांख्य दर्शन और पुराण / Sankhy and Puranभार्गवत पुराण तिवzानों के सिलए ऐतितहासिसक ग्रन्थ मात्र नहीं वरन जनसामा&य श्रद्धालुओं में भी अत्य&त ख्यातितलब्ध है। अत: उN ग्रन्थ का पृर्थक् उल्लेख तिकया र्गया। सृष्टि* प्रलयादिद तिवषयों पर सभी पुराणों में मतैक्य है। अत: यहाँ प्रमुखत: तिवष्णु पुराण के ही अंर्श, जिजनसे सांख्य दर्शन का स्वरूप परिरचय हो सके-प्रस्तुत तिकए जा रहे हैं- तदब््रह्म परमं तिनत्यमजमक्षय्यमव्ययम्। एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च तिनमलम्॥तदेव सवमेवैतद ्व्यNाव्यNस्वरूपवत्। तर्था पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थि0तम्॥* यह ब्रह्म तिनत्य अज&मा अक्षय अव्यय एकरूप और तिनमल है। वही इन सब व्यN-अव्यN रूप (जर्गत्) से तर्था पुरुष और काल रूप से स्थि0त है। अव्यNं कारणं य.त्प्र5ानमृतिषस.मै:। प्रोच्यते प्रकृतित: सूक्ष्मा तिनत्यं सदसदात्मकम्।* प्रकृतितया मया ख्याता व्यNाव्यNस्वरूतिपणी। पुरुषgाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मतिन॥परमात्मा च सव�षामा5ार: परमेश्वर:॥*

व्यN जर्गत का अव्यN कारण सदसदात्मक प्रकृतित कही जाती है। प्रकृतित और पुरुष दोनों ही (प्रलय काले) परमात्मा में लीन हो जाते हैं। प्रकृतित का स्वरूप बताया र्गया है:-

सत्वं रजस्तमgेतित रु्गणत्रयमुदाहतम्। साम्यावस्थि0तितमेतेषामव्यNां प्रकृतितं तिवदु:॥* प्र5ानपुरुषौ चातिप प्रतिवश्यात्मेच्छया हरिर:। क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥29॥यर्था सष्टिन्नष्टि5मात्रेण र्गन्ध: क्षोभाय जायते। मनसो नोपकतृत्वा.र्थाऽसौ परमेश्वर:॥30॥प्र5ानतत्त्वमुद्भतंू महा&तं तत्समावृणोत्। सास्मित्त्व को राजसgैव तामसg तित्र5ा महान्॥34॥वैकारिरकस्तैजसg भूतादिदgैव तामस:॥35॥तित्रतिव5ोऽयमहंकारो मह.त्त्वादजायत॥36॥त&मात्रा�यतिवर्शात्तिण अतिवर्शेषास्ततो तिह ते ।45। न र्शा&ता नातिप 5ोरास्ते न मूढाgतिवरे्शतिषण:। भूतत&मात्रसर्ग~ऽयमंहकारा.ु तामसात्॥46॥तैजसानीजि&द्रया�याहुद�वा वैकारिरका दर्श। एकादर्शं मनgात्र देवा वैकारिरका: स्मृता:॥46पुरुषाष्टि5ष्टि>तत्वाच्च प्र5ानानुग्रहेण च।

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महदाद्या तिवर्शेषा&ता ह्य�डमुत्पादयन्ति&त ते॥54॥तस्मिस्मन्न�डेऽभवतिzप्र सदेवासुरमानुष:॥58॥-तिव.पु. प्रर्थम अंर्श तिzतीय अध्यायआध्याम्मित्मकादिद मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बु5:। उत्पन्नज्ञानवैराग्य: प्राप्नोत्यात्यन्ति&तकं लयम्॥* परमात्मा प्र5ान या प्रकृतित और पुरुष में प्रवेर्श करके उ&हें प्रेरिरत करता है। तब सर्ग तिक्रया आरंभ होती है। यद्यतिप मूलत: प्रकृतित, पुरुष, काल, तिवष्णु के ही अ&य रूप हैं, तर्थातिप सर्ग-चचा में पे्ररिरता तर्था प्र5ान पुरुष को त्तिभन्न तिक&तु अपृर्थक् ही ग्रहण तिकया जाता है। त&मात्र अतिवर्शेष हैं जिजनकी उत्पत्ति. तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूतित त&मात्रों की नहीं होती। ये जब तिवर्शेष इजि&द्रय zारा ग्राह्य होते हैं। आर्शय यह है तिक ये अतिवर्शेष तिवरे्शष के तिबना नहीं जाने जाते है। राजस अहंकार से पञ्चकम�जि&द्रयाँ तर्था पञ्चज्ञानेजि&द्रयाँ उत्पन्न होती हैं तर्था वैकारिरक अर्थवा सास्मित्त्वक अहंकार से मन की उत्पत्ति. का समर्थन तिवज्ञान त्तिभक्षु भी करते है। तर्थातिप कारिरका मत में सास्मित्त्वक अहंकार से एकादर्शेजि&द्रय की उत्पत्ति. मानी र्गई है। भार्गवत में सांख्य दर्शनमाता देतहूतित की जिजज्ञासा को र्शा&त करते हुए परमर्तिषं कतिपल बताते हैं* - अनादिदरात्मा पुरुषो तिनर्गुण: प्रकृते: पर:। प्रत्याग्5ामास्वयंज्योतितर्तिवंशं्व येन समन्ति&वतम्॥कायकारणकतृत्वे कारणं प्रकृतितं तिवदु:। भोNृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्।य.म्मित्त्रर्गुणमव्यNं तिनत्यं सदसदात्मकम्।प्र5ानं प्रकृतितं प्राहुरतिवरे्शषं तिवरे्शषवत्। पञ्चत्तिभ: पञ्चत्तिभब्रह्य चतुर्णिभंदर्शत्तिभस्तर्था॥एतच्चतुर्विंवंर्शतितकं र्गणं: प्रा5ातिनकं तिवदु:॥प्रकृतेरु्गणसाम्यस्य तिनर्तिवंरे्शषस्य मानतिव। चे*ा यत: स भर्गवान् काल इत्युपलत्तिक्षत:॥ इसके अन&तर महदादिद तत्त्वों की उत्पत्ति. कही र्गई। सांख्यकारिरकोN मत से त्तिभन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहाँ उल्लेख है। यहाँ वैकारिरक अहंकार से मन की उत्पत्ति. कही र्गई है। कारिरका में भी मन को सान्तित्वक अहंकार से उत्पन्न माना र्गया है। तिफर तेजस अहंकार से बुजिद्ध तत्त्व की उत्पत्ति. कही र्गई। इससे पूव परमात्मा की तेजोमयी माया से मह.त्त्व की उत्पत्ति. कही र्गई। ऐसा प्रतीत होता है तिक भार्गवतकार महत तर्था बुजिद्ध को त्तिभन्न मानते हैं, जबतिक सांख्य र्शास्त्र में महत और बुजिद्ध को पयायार्थक माना र्गया। तेजस अहंकार से इजि&द्रयों की उत्पत्ति. बताई र्गई है जबतिक कारिरकाकार ने मन सतिहत समस्त इजि&द्रयों को सास्मित्त्वक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से त&मात्रोत्पत्ति. भार्गवत तर्था सांख्यर्शास्त्रीय मत में समान है। त्तिभन्नता यह है तिक भार्गवत में तामसाहंकार से र्शब्द त&मात्र से आकार्श तर्था आकार्श से श्रोते्रजि&द्रय की उत्पत्ति. कही र्गई। इसी तरह क्रमर्श: त&मात्रोत्पत्ति. को समझाया र्गया है।* सांख्य दर्शन में पुरुष को अकता, तिनर्गुण, अतिवकारी माना र्गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृतित के तिवकारों से तिनर्थिलंप्त माना र्गया है। तर्थातिप अज्ञानतावर्श वह रु्गण कतृत्व को स्वयं के कतृत्व के रूप में देखने लर्गता है। और देह संसर्ग से तिकए हुए पु�य पापादिद कमl के दोष से तिवत्तिभन्न योतिनयों में ज&म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभार्गवत में कही र्गई है*। प्रकृतित0ोऽतिप पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:।अतिवकारादकतृत्वाष्टिन्नरु्गणत्वाज्जलाक वत्॥स एष यर्तिहं प्रकृतेर्गुष्णत्तिभतिवषज्जते। अहंतिक्रयातिवमूढात्मा कताऽस्मीत्यत्तिभम&यते॥ भार्गवत के एकादर्श स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलर्ग-अलर्ग संख्या में र्गणना का सु&दर सम&वय करते हुए यह बतलाया र्गया है तिक मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह सम&वय उसिचत और सरल हो या न हो, इतना तो स्प* है तिक सांख्य के तिवत्तिभन्न रूप प्रचसिलत हो चले रे्थ और भार्गवतकार इ&हें तिवषमता न मानकर कतिपल के दर्शन के ही रूप मानते रे्थ। सांख्य दर्शन और बुद्ध / Sankhya and Buddhaबुद्धचरिरतम में सांख्य दर्शन प्रसिसद्ध बौद्ध आचाय अश्वघोष की काव्य रचना 'बुद्धचरिरतम्' में भी सांख्य दर्शन आचाय अराठ के दर्शन के रूप में ष्टिमलता है। अश्वघोष का जीवनकाल ईसा की प्रर्थम र्शतान्द्विब्द में माना जाता है। बुद्धचरिरतम् में सांख्य र्शब्द से तिकसी दर्शन का उल्लेख न होने पर अराड दर्शन के सांख्य दर्शन कहने में कोई असंर्गतित नहीं है।

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बुद्धचरिरतम् के अनुसार अराड कतिपल की दर्शन-परम्परा के आचाय रे्थ। अराड जिजस सिसद्धा&त को प्रस्तुत करते हैं उसे प्रतितबुद्ध कतिपल का कहते हैं। 'ससिर्शष्य: कतिपलgेह प्रतितबुद्ध इतित स्मृत:*' अपने दर्शन के प्रवNा के रूप में वे जैर्गीषव्य जनक वृद्ध पारार्शर के प्रतित भी सम्मान व्यN करते हैं इसके अतितरिरN अराड दर्शन में प्रस्तुत व प्रयुN पदावली भी महाभारत में प्रस्तुत सांख्य का ही स्मरण कराती है। बुद्धचरिरतम् में सांख्य दर्शन को इस प्रकार प्रस्तुत तिकया र्गया है- श्रूयतामयमस्माकम् सिसद्धा&त: श्रृ�वतां वर। यर्था भवतित संसारो यर्था चैव तिनवतते॥प्रकृतितg तिवकारg ज&म मृत्युजरैव च। तत्वावसत्वष्टिमत्युNं स्थि0रं सत्वं परे तिह तत्॥तत्र तु प्रकृतितनाम तिवजिद्ध प्रकृतितकोतिवद। पञ्चभूता&यहंकारं बुजिद्धमव्यNमेव च॥अस्य के्षत्रस्य तिवज्ञानात् इतित संसिज्ञ च। के्षत्रज्ञ इतित चात्मानं कर्थय&त्यात्मसिचंतका:॥अज्ञान कनंम तृषणा च ज्ञेया: संसारहेतव:। स्थि0तोऽस्मिस्म&स्त्रये ज&तुस्तत् सत्त्वं नात्तिभवतते॥इत्यतिवद्या तिह तिवzान् स पञ्चपवा समीहते। तमो मोह महामोह ताष्टिमस्त्रzयमेव च॥द्र*ा श्रोता च म&ता च कायकारणमेव च। अहष्टिमत्येवमार्गम्य संसारे परिरवतते॥* व्यN, अव्यN और ज्ञ के भेदज्ञान से अपवर्ग प्रान्तिप्त सांख्य का मा&य सिसद्धा&त है। बुद्धचरिरतम् के अनुसार प्रतितबुजिद्ध, अबुद्ध, व्यN तर्था अव्यN के सम्यक् ज्ञान से पुरुष को संसारचक्र से मुसिN ष्टिमलती है मोक्षाव0ा र्शाश्वत और अपरिरवतनर्शील है। इस अव0ा में वह दुख और अज्ञान से मुN होता है। (परमात्मा) को तिनत्य तर्था व्यN पुरुष को अतिनत्य कहा र्गया है। अठारहवीं कारिरका में पुरुषबहुत्व के सिलए दिदए र्गए हेतु जीवात्मा के सिलए ही है। जिजस के तिवपयास से साक्षी अक ता आदिद लक्षण वाला पुरुष सिसद्ध होता है। चरक संतिहता के उपयुN उल्लेख तर्था कारिरका के दर्शन के उN 0लों पर अभी पयाप्त सूक्ष्म स्प*ीकरण अपेत्तिक्षत है। र्शारीर0ानम् में तिकतने पुरुष है? प्रश्न के उ.र में पुरुष के भेद बताये र्गये हैं। इस प्रसंर्ग में ये एक ही पुरुषतत्त्व या चेतनतत्त्व के त्तिभन्न-त्तिभन्न रूप हैं- ऐसा संकेत न होने से अनादिद पुरुष जो तिक तिनत्य अकारण (अहेतुक) है तर्था आदिद पुरुष (रासिर्शपुरुष) जो अतिनत्य है ऐसे दो भेद तो ग्रहण तिकए जा सकते हैं। इस प्रसंर्ग में जो पुरुषसंबं5ी बातें कही र्गई हैं। उ&हें रासिर्शपुरुषसंबं5ी ही समझना चातिहए क्योंतिक सिचतिकत्सकीय र्शास्त्र का संबं5 उस पुरुष से ही है। प्रकृतित और तिवकारों के संबं5 में पूछे र्गए प्रश्नों के उ.र में कहा है- खादीतिन बुजिद्धरव्यNमहंकारस्तर्थाऽ*म:। भूतप्रकृतितरुदिद्द*ा सिचकाराgैव षोडर्श॥बुद्धीजि&द्रयात्तिण पञ्चार्था तिवकारा इतित संसिज्ञता:॥*जायते बुजिद्धरव्यNताद ्बुद्धयाहष्टिमतित म&यते। परम् खादी&यहंकारादुत्पद्य&ते यर्थाक्रमम्॥ 66॥ यहाँ 'उदिद्द*ा', 'संसिज्ञता', 'म&यते', आदिद पद यह सूसिचत करते हैं तिक उपरोN मत पूव में ही 0ातिपत और प्रचसिलत रे्थ। 'यर्थाक्रम' भी सूसिचत करता है तिक इससे पूव में ही एक क्रम तत्त्वोत्पत्ति. का 0ातिपत हो चुका र्था और यहाँ उसका अनुकरण ही तिकया र्गया है। स्प* है पूव में ही 0ातिपत यह मत सांख्य दर्शन का है। चरक संतिहता के र्शारीर0ानम् के पांचवे अध्याय में मोक्ष संबं5ी तिवचार इस प्रकार प्रस्तुत तिकया र्गया है- मोहेच्छाzेषकममूला प्रवृत्ति.:...एवमहंकारादिदत्तिभदोष}:भ्राम्यमाणो नातितवतते प्रवृत्ति.ं: सा च मूलमघस्य॥10

तिनवृत्ति.रपवर्ग: तत्परं प्रर्शा&तं तदक्षरं तदब््रह्म स मोक्ष: ॥11॥सवभाव स्वभावज्ञो यर्था भवतित तिनस्पृह:योर्गं यर्था सा5यते सांख्यं संपद्यते यर्था॥16॥

पश्यत: सवभावान् तिह सवाव0ासु सवदा। ब्रह्मभूतस्य संयोर्गो न रु्शद्धस्योपपद्यते॥21॥

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नात्मन: करणाभावास्थिल्लर्गमप्युपलभ्यते। स सवकारणत्यार्गा&मुN इत्यत्तिभ5ीयते॥22॥ सांख्य दर्शन और भार्गवत / Sankhya and Bhagvatभार्गवत में सांख्य दर्शन माता देतहूतित की जिजज्ञासा को र्शा&त करते हुए परमर्तिषं कतिपल बताते हैं* - अनादिदरात्मा पुरुषो तिनर्गुण: प्रकृते: पर:। प्रत्याग्5ामास्वयंज्योतितर्तिवंशं्व येन समन्ति&वतम्॥कायकारणकतृत्वे कारणं प्रकृतितं तिवदु:। भोNृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्।य.म्मित्त्रर्गुणमव्यNं तिनत्यं सदसदात्मकम्।प्र5ानं प्रकृतितं प्राहुरतिवरे्शषं तिवरे्शषवत्। पञ्चत्तिभ: पञ्चत्तिभब्रह्य चतुर्णिभंदर्शत्तिभस्तर्था॥एतच्चतुर्विंवंर्शतितकं र्गणं: प्रा5ातिनकं तिवदु:॥प्रकृतेरु्गणसाम्यस्य तिनर्तिवंरे्शषस्य मानतिव। चे*ा यत: स भर्गवान् काल इत्युपलत्तिक्षत:॥ इसके अन&तर महदादिद तत्त्वों की उत्पत्ति. कही र्गई। सांख्यकारिरकोN मत से त्तिभन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहाँ उल्लेख है। यहाँ वैकारिरक अहंकार से मन की उत्पत्ति. कही र्गई है। कारिरका में भी मन को सान्तित्वक अहंकार से उत्पन्न माना र्गया है। तिफर तेजस अहंकार से बुजिद्ध तत्त्व की उत्पत्ति. कही र्गई। इससे पूव परमात्मा की तेजोमयी माया से मह.त्त्व की उत्पत्ति. कही र्गई। ऐसा प्रतीत होता है तिक भार्गवतकार महत तर्था बुजिद्ध को त्तिभन्न मानते हैं, जबतिक सांख्य र्शास्त्र में महत और बुजिद्ध को पयायार्थक माना र्गया। तेजस अहंकार से इजि&द्रयों की उत्पत्ति. बताई र्गई है जबतिक कारिरकाकार ने मन सतिहत समस्त इजि&द्रयों को सास्मित्त्वक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से त&मात्रोत्पत्ति. भार्गवत तर्था सांख्यर्शास्त्रीय मत में समान है। त्तिभन्नता यह है तिक भार्गवत में तामसाहंकार से र्शब्द त&मात्र से आकार्श तर्था आकार्श से श्रोते्रजि&द्रय की उत्पत्ति. कही र्गई। इसी तरह क्रमर्श: त&मात्रोत्पत्ति. को समझाया र्गया है।* सांख्य दर्शन में पुरुष को अकता, तिनर्गुण, अतिवकारी माना र्गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृतित के तिवकारों से तिनर्थिलंप्त माना र्गया है। तर्थातिप अज्ञानतावर्श वह रु्गण कतृत्व को स्वयं के कतृत्व के रूप में देखने लर्गता है। और देह संसर्ग से तिकए हुए पु�य पापादिद कमl के दोष से तिवत्तिभन्न योतिनयों में ज&म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभार्गवत में कही र्गई है*। प्रकृतित0ोऽतिप पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:।अतिवकारादकतृत्वाष्टिन्नरु्गणत्वाज्जलाक वत्॥स एष यर्तिहं प्रकृतेर्गुष्णत्तिभतिवषज्जते। अहंतिक्रयातिवमूढात्मा कताऽस्मीत्यत्तिभम&यते॥ भार्गवत के एकादर्श स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलर्ग-अलर्ग संख्या में र्गणना का सु&दर सम&वय करते हुए यह बतलाया र्गया है तिक मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह सम&वय उसिचत और सरल हो या न हो, इतना तो स्प* है तिक सांख्य के तिवत्तिभन्न रूप प्रचसिलत हो चले रे्थ और भार्गवतकार इ&हें तिवषमता न मानकर कतिपल के दर्शन के ही रूप मानते रे्थ। सांख्य दर्शन और महाभारत (र्शांतितपव) / Sankhya and Mahabharatमहाभारत के र्शांतित पव में सांख्य दर्शन के तिवत्तिभन्न रूपों का तिवस्तृत व स्प* परिरचय ष्टिमलता है। तत्व र्गणना का रूप यहाँ सांख्य र्शास्त्र के प्रचसिलत रूप में अनुकूल ही है। इसके अतितरिरN सांख्य-परम्परा के अनेक प्राचीन आचायl तर्था उनके उपदेर्शों का संकलन भी र्शांतित पव में उपलब्ध है। जिजस स्प*ता के सार्थ सांख्य-मतिहमार्गान यहाँ तिकया र्गया है, उससे महाभारतकार के सांख्य के प्रतित रुझान का संकेत ष्टिमलता है। पुराणों की ही तरह महाभारत में भी दर्शन के रूप में सांख्य को ही प्रस्तुत तिकया र्गया है। अत: यदिद महाभारत के र्शांतितपव को हम सांख्य दर्शन का ही एक प्राचीन ग्रन्थ कहें तो अतितर्शयोसिN न होर्गी। महाभारत के र्शांतित पव के अ&तर्गत सांख्य दर्शन के कुछ प्रसंर्गों पर तिवचार करने के उपरा&त हम उसमें प्रस्तुत सांख्य-दर्शन की स्प* रूपरेखा प्रस्तुत करेंर्गे। अध्याय 300 र्शांतित पव में युष्टि5ष्टि>र zारा सांख्य और योर्ग में अ&तर पूछने पर भीष्म उ.र देते हैं। अनीश्वर: करं्थ मुच्येदिदत्येवं र्शतु्रकषन। वदन्ति&त कारणै: श्रैषं्ठ्य योर्गा: सम्यक् मनीतिषण:॥3॥

वदन्ति&त कारणं चेदं सांख्या: सम्यन्द्विग्वजातय:। तिवज्ञायेह र्गती: सवा तिवरNो तिवषयेषु य: ॥4॥

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ऊध्व� स देहात् सुव्यNं तिवमुच्येदिदतित ना&यर्था। एतदाहुमहाप्राज्ञा: सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ॥5॥ इसके उपरा&त कहते हैं- 'र्शौच, तप, दया, व्रतों के पालन आदिद में दोनों समान हैं केवल दर्शन (दृष्टि* या पद्धतित) में अ&तर है।' इस पर युष्टि5ष्टि>र पुन: प्रश्न करते हैं तिक जब व्रत, पतिवत्रता आदिद में दोनों दर्शन समान हैं और परिरणाम भी एक ही है तब दर्शन में समानता क्यों नही हैं? इसके उ.र में भीष्म योर्ग का तिवस्तृत परिरचय देने के उपरा&त सांख्य तिवषयक जानकारी देते हैं। उN जानकारी के कुछ प्रमुख अंर्श इस प्रकार हैं- प्रकृतितं चाप्यतितक्रम्य र्गच्छत्यात्मानमव्ययम्। परं नारायणात्मानं तिनz&zं प्रकृते: परम्॥* अर्थात जब जीवात्मा प्रकृतित (और उसके तिवकारों) का अतितक्रमण कर लेता है तब वह z&zरतिहत, प्रकृतित से परे नारायण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। तिवमुN: पु�यपापेभ्य: प्रतिव*स्तमनामयम्। परमात्मानमर्गुणं न तिनवततित भारत ॥97

सिर्श*: तत्र मनस्तात इजि&द्रयात्तिण च भारतआर्गच्छन्ति&त यर्थाकालं र्गुरो: स&देर्शकारिरण:॥98 भावार्थ यह है तिक पु�यपाप से तिवमुN (सा5क) अनामय अर्गुण परमात्मा में प्रतिव* हो जाता है, वह तिफर से इस संसार में नहीं लौर्टता। इस प्रकार जीवात्मा प्रारब्धवर्श र्गुरु के आदेर्श पालन कारने वाले सिर्शष्य की भांतित यर्था समय र्गमनार्गमन करते हैं। अक्षरं ध्रुवमेवोNं पूण� ब्रह्म सनातनम्।101अनादिदमध्यतिन5नं तिनz&zं कतृ र्शाश्वतम्।

कूर्ट0ं चैव तिनत्यं च यद ्वदन्ति&त मनीतिषण: ॥102॥

यत: सवा: प्रवत&ते सर्गप्रलयतिवतिक्रया:। 103 इसके बाद इस 0ल पर सांख्य र्शास्त्र की प्रर्शंसा, मतिहमा का वणन है। इस प्रसंर्ग पर ध्यान देने से यह बात स्प* हो जाती है तिक सांख्य र्शास्त्र में जीवात्मा, परमात्मा तर्था प्रकृतित-तीन तत्त्वों को मा&यता प्राप्त है। अत: आरम्भ में जो अनीश्वर र्शब्द का प्रयोर्ग हुआ है वह सांख्य की अनीश्वरवादिदता का द्योतक न होकर मोक्ष में उसकी उपयोतिर्गता की अस्वीकृतित मात्र है। सांख्य दर्शन में तिववेक-ज्ञान ही मोक्ष में प्रमुख है। अध्याय 302 से 308 तक कराल-जनक और वसिस>-संवाद के रूप में सांख्य और योर्गदर्शन के तिवस्तृत परिरचय का प्रसंर्ग है। इस संवाद को प्राचीन इतितहास के रूप में प्रस्तुत करते हुए पहले क्षर और अक्षर तत्त्व का भेद, वर्गwकरण, लक्षण आदिद का उल्लेख करके योर्ग का परिरचय देने के उपरा&त सांख्य र्शास्त्र का वणन। अध्याय 306 में वसिस>- संवाद इस प्रकार प्रस्तुत तिकया र्गया है- सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्याष्टिम परिरसंख्यानदर्शनम्॥26॥

अव्यNमाहु: प्रकृतितं परा प्रकृतितवादिदन:। तस्मा&महत् समुत्पन्नं तिzतीयं राजस.म॥27॥

अहंकारस्तु महतस्तृतीयष्टिमतित न: श्रुत:। पञ्चभूता&यहंकारादाहु: सांख्यात्मदर्थिर्शंन:॥28॥

एता: प्रकृतयgा*ौ तिवकाराgातिप षोडर्श। पञ्च चैव तिवर्शेषा वै तर्था पञ्चेजि&द्रयात्तिण च ॥29॥

तत्त्वातिन चतुर्विंवंर्शत् परिरसंख्याय तत्त्वत:। सांख्या: सह प्रकृत्या तु तिनस्तत्त्व: पञ्चतिवंर्शक:॥43॥ यहाँ सांख्यर्शास्त्रीय परम्परा के अनुसार तत्त्वों का उल्लेख तिकया र्गया है। इस वणन में 'सांख्यकारिरका' से अतित प्राचीन 'तत्त्वसमाससूत्र' की झलक ष्टिमलती है। अ*ौ प्रकृतय:* को यहाँ 'प्रकृतय: च अ*ौ' के रूप में तर्था षोडर्श तिवकारा:* को तिवकाराg षोडर्श के रूप में प्रस्तुत तिकया र्गया। लर्गभर्ग इसी तरह सांख्य तत्त्वों का वणन 310 वें अध्याय में भी आता है। अध्याय 318 में तिवश्वावसु प्रश्न करता है तिक पच्चीसवें तत्त्व रूप जीवात्मा परमात्मा से अत्तिभन्न है अर्थवा त्तिभन्न है। इसके उ.र में याज्ञवल्क्य कहते हैं-

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अबुध्यमानां प्रकृतितं बुध्यते पंचतिवर्शक:। न तु बुध्यतित र्गं5व प्रकृतित: पञ्चतिवंर्शकम्॥70॥

पश्यंस्तरै्थव चापgन् पश्यत्य&य: सदानघ। षडतिवंर्शं पञ्चतिवंर्शं च चतुर्तिवंरं्श च पश्यतित॥72॥

न तु पश्यतित पश्यंस्तु यgैनमनुपश्यतित। पञ्चतिवंर्शोऽत्तिभम&येत ना&योऽस्मिस्त परतो मम॥73॥

यदा तु म&यतेऽ&योऽहम&य एष इतित तिzज:। तदा स केवलीभूत: षडतिवंर्शमनुपश्यतित ॥77॥

अ&यg राजन्नयवरस्तर्था&य: पञ्चतिवंर्शक:। तत्0ानाच्चानुपश्यन्ति&त एक एवेतित सा5व:॥78॥ संत्तिक्षप्तार्थ इस प्रकार है- अचेतन प्रकृतित को पच्चीसवां तत्त्वरूप पुरुष तो जानता है तिक&तु प्रकृतित उसे नहीं जानती। छब्बीसवां तत्त्व चौबीसवें तत्व (प्रकृतित) पच्चीसवें तत्त्व (जीवात्मा) को जानता है। जब (जीवात्मा) यह समझ लेता है तिक मैं अ&य हूं और यह (प्रकृतित) अ&य है तब केवल (प्रकृतितसंसर्गरतिहत) हो, छब्बीसवें तत्त्व को देखता है। र्शांतितपव में दर्शन और अध्यात्म के तिवत्तिभन्न उल्लेखों में सांख्य दर्शन &यूनाष्टि5क उपयुN प्रसंर्गों के ही अनुरूप है। उपयुN वणन के आ5ार पर सांख्य दर्शन की जो रूपरेखा बन सकती है, वह इस प्रकार है- सांख्य दार्शतिनक चौबीस, पच्चीस, छब्बीस तत्वों को मानते हैं। तदनुसार प्रकृतित, जिजसे अव्यN भी कहा जाता है एक तत्त्व है। प्रकृतित से महत, अहंकार, पञ्चभूत (त&मात्र) मन, पांच ज्ञानेजि&द्रयाँ, कम�जि&द्रयाँ पांच 0ूल भूत-इस तरह चौबीस तत्त्व हैं। प्रचसिलत सांख्य, परम्परा में 'पुरुष' भी तत्त्व रूप में तिबना जाता है जिजसे यहाँ तिनस्तत्त्व मानकर पञ्चतिवंर्शक रूप में स्वीकार तिकया र्गया। इस तरह चौबीस अर्थवा पच्चीस के र्गणना भेद में परम्परा या कोई दोष नहीं हैं और कोई प्रचसिलत र्गणना से तिवरो5 भी नहीं हैं। छब्बीसवें तत्त्व कहने में चौबीस तर्था पच्चीस की र्गणना से सामंजस्य स्प* हो जाता है। महाभारतकार को यह पूरी र्गणना सांख्य दर्शन के रूप में स्वीकार करने में संकोच नहीं र्था।* इसका अर्थ यह है तिक उसके अनुसार सांख्य दर्शन में परमात्मा की स.ा मा&य है।* अव्यNात्मा पुरुषो व्यNकमासोऽव्यNतत्त्वं र्गच्छतित अ&तकाले।* पुरुष का वास्ततिवक स्वरूप अव्यN है और कम व्यN रूप है। अत: अ&तकाल में वह अव्यN भाव को प्राप्त हो जाता है।

अव्यNाद ्व्यNमुत्पन्नं व्यNाzस्तु परोऽक्षर:। यस्मात्परतरं नास्मिस्त तमस्मिस्म र्शरणं र्गत:॥* जिजस अव्यN से व्यN उत्पन्न होता है जो व्यN से परे व अक्षर है, जिजससे परे अ&य कुछ भी नहीं है मैं उसकी र्शरण में जाता हूँ।

रु्गणादिदतिनर्गुणस्चाद्यो लक्ष्मीवांgेतनो व्ह्यज:। सूक्ष्म: सवर्गतो योर्गी स महात्मा प्रसीदतु॥71॥

सांख्ययोर्गg ये चा&ये सिसद्धाg परमाषय:। यं तिवदिदत्वा तिवभुच्य&ते स महात्मा प्रसीदतु॥72॥

अव्यN: समष्टि5>ाता ह्यसिच&त्य: सदसत्पर:। आस्थि0तित: प्रकृतितश्रे>: स महात्मा प्रसीदतु॥73॥

अर्शरीर: र्शरीर0ं समं सव�षु देतिहषु॥

पश्यन्ति&त योर्गा: सांख्याg स्वर्शास्त्रकृतलक्षणा:। इ*ातिन*तिवमुNं तिह त0ौ ब्रहृमपरात्परम्॥*

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उपयुN उद्धरणों में ब्रह्म, अव्यN, प्रकृतितश्रे>, तिनर्गुण, चेतन अज, अष्टि5>ाता, सदसत्पर: (कायकारण प्रकर्ट अप्रकर्ट से परे) आदिद समस्त पद परमात्मा की ही ओर लत्तिक्षत हैं। तिफर परमात्मा अर्शरीरी है लेतिकन 'देह5ारिरयों' में स्थि0त है। इस परमात्मा को ही अव्यN प्रकृतित तिवकारादिद में व्याप्त भी कहा र्गया है। अव्यN र्शब्द को यद्यतिप सांख्य दर्शन में प्रायर्श: प्रकृतित के सिलए प्रयुN माना र्गया है, लेतिकन महाभारत में प्रयुN र्शब्द के प्रयोर्ग के आ5ार पर श्री सुरे&द्रनार्थ दासर्गुप्त इसे पुरुष के सिलए भी प्रयुN मानते हैं।* सांख्य र्शास्त्रीय प्रकृतित और उसकी तित्रर्गुणात्मकता का उल्लेख भी महाभारत में अनेकत्र हुआ है। एते प्र5ानस्य रु्गणास्त्रय*,तित्रर्गुणा5मया*, तमोरजस्तर्था सत्वंर्गुणान्*,आदिद प्रयोर्गों से तर्था सत्त्व रजस व तमस र्शब्दों के सांख्यीय अर्थ के अनेकर्श: प्रयोर्गों से तर्था सृष्टि*क्रम सम्बन्धी अष्टि5कांर्श वणनों में सांख्यदर्शन का ही उल्लेख व प्रभाव परिरलत्तिक्षत होता है। अध्याय 210 का यह सृष्टि*वणन द्र*व्य है- पुरुषाष्टि5ष्टि>तान् भावान् प्रकृतित: सूयते सदा। हेतुयुNमत: पूव� जर्गत् सम्परिरवतते॥25॥ यहाँ प्रकृतित की पुरुषाष्टि5ष्टि>तता और जर्गत् (व्यN) की हेतुम.ा में सांख्य सूत्र 'त&सष्टिन्न5ानादष्टि5>ातृत्वं*' माठर तर्था र्गौडपाद zारा उद्धतृ षष्टि>तंत्र के सूत्र 'पुरुषाष्टि5ष्टि>तं प्र5ानं प्रवततते' तर्था 'हेतुमदतिनत्यं*' स्प* प्रतितध्वतिनत होते हैं- मूलप्रकृतितयों ह्य*ौ* तत्त्वसमाससूत्र का संकेत देता है। इसी क्रम में आरे्ग षोडर्शतिवकारों का वणन सांख्यनुसार है। इसी संवादक्रम में 211 वें अध्याय में 4 र्था श्लोक सांख्य सूत्र 1/164 की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत है। र्शांतित पव श्लोक- तzदव्यNजा भावा: कतृकारणलक्षणा:। अचेतनाgेतष्टियतु: कारणादत्तिभसंतिहता:॥ सांख्य सूत्र हैं- 'उपरार्गात्कतृत्वं सिचत्साष्टिन्नध्यास्थिच्चध्यात्'। महाभारत में सत्त्व, रजस व तमस की सुख-दु:ख मोहात्मकता अर्थवा प्रीत्यप्रीतित तिवषादात्मकता का भी तिवस्तृत वणन होता है*। तर्थातिप यहाँ र्गुणों का उल्लेखतिवस्तार तत्त्वमीमांसीय दृष्टि* के सार्थ मनोवैज्ञातिनक भाव अर्थवा र्गुणों के रूप में अष्टि5क पाया जाता है। मोक्षप्रान्तिप्त में हेतु महाभारत में प्राय: सांख्यानुरूप ही है। सांख्य परम्परा में व्यN, अव्यN और 'ज्ञ' के तिववेक से मुसिN की बात कहीं र्गई है, र्शांतित पव अध्याय में कहा र्गया है- तिवकारं प्रकृतितं चैव पुरुषं च सनातनम्। यो यर्थावतिzजानातित स तिवतृष्णो तिवमुच्यते॥* ज्ञानवान पुरुष जब यह जान लेता है तिक 'मैं' अ&य हंू यह प्रकृतित अ&य है- तब वह प्रकृतितरतिहत र्शुद्ध स्वरूप0 हो जाता है* इस प्रकार महाभारत में प्रस्तुत दर्शन पूणत: सांख्य दर्शन ही है। जो प्रमुख अ&तर दोनों में प्रतीत होता है वह है परमात्मा ब्रह्म या पुरुषो.म की स्वीकृतित। सांख्य प्रवचन भाष्यसांख्य प्रवचन सूत्र पर आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष का भाष्य है। आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने सांख्यमत पुन: प्रतितष्टि>त तिकया। तिवज्ञानत्तिभक्षु का समय आचाय उदयवीर र्शास्त्री के अनुसार सन 1350 ई. के पूव का होना चातिहए। अष्टि5कांर्श तिवzान इ&हें 15 वीं-16 वीं र्शताब्दी का मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष की कृतितयों में सांख्यप्रवचनभाष्य के अतितरिरN योर्गवार्तितंक, योर्गसार संग्रह, तिवज्ञानामृतभाष्य, सांख्यसार आदिद प्रमुख रचनायें हैं। सांख्य दर्शन की परंपरा में तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने ही सवप्रर्थम सांख्यमत को श्रुतित और स्मृतितसम्मत रूप में प्रस्तुत तिकया। सांख्य दर्शन पर लरे्ग अवैदिदकता के आके्षप का भी इ&होंने सफलता पूवक तिनराकरण तिकया। अपनी रचनाओं के माध्यम से आचाय ने सांख्य दर्शन का जो अत्य&त प्राचीन काल में सुप्रतितष्टि>त वैदिदक दर्शन माना जाता र्था, का तिवरो5 परिरहार करते हुए परिरमाजन तिकया। सांख्यकारिरका-व्याख्या के आ5ार पर प्रचसिलत सांख्यदर्शन में कई स्प*ीकरण व संर्शो5न तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने तिकया। प्राय: सांख्यदर्शन में तीन अंत:करणों की चचा ष्टिमलती है। सांख्यकारिरका में भी अ&त:करण तित्रतिव5* कहकर इस मत को स्वीकार तिकया। लेतिकन तिवज्ञानत्तिभकु्ष अ&त:करण को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार 'यद्यप्येकमेवा&त:करणं वृत्ति.भेदेन तित्रतिव5ं लाघवात्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष से पूव कारिरकाव्याख्याओं के आ5ार पर प्रचसिलत दर्शन में दो ही र्शरीर सूक्ष्म तर्था 0ूल मानने की परम्परा रही है। लेतिकन आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष तीन र्शरीरों की मा&यता को युसिNसंर्गत मानते हैं। सूक्ष्म र्शरीर तिबना तिकसी अष्टि5>ान के नहीं रहा सकता, यदिद सूक्ष्म र्शरीर का आ5ार 0ूल र्शरीर ही हो तो 0ूल र्शरीर से उत्क्रान्ति&त के पgात लोका&तर र्गमन सूक्ष्म र्शरीर तिकस प्रकार कर सकता है? तिवज्ञानत्तिभकु्ष के अनुसार सूक्ष्म र्शरीर तिबना अष्टि5>ान र्शरीर के नहीं रह सकता अत: 0ूल र्शरीर को छोड़कर र्शरीर ही है*। । 'अङर्गु>मात्र:पुरुषोऽ&तरात्मा सदा जना हृदये सष्टिन्नतिव*:*', अङु्ग>मातं्र पुरुषं स*- आदिद श्रुतित-स्मृतित के प्रमाण से अष्टि5>ान र्शरीर की सिसजिद्ध करते हैं। अ&य सांख्याचायl से सिलंर्ग र्शरीर के तिवषय में तिवज्ञानत्तिभक्षु त्तिभन्न मत रखते हैं। वाचस्पतित ष्टिमश्र, माठर, रं्शकराचाय आदिद की तरह अतिनरुद्ध तर्था महादेव वेदा&ती ने भी सिलंर्ग र्शरीर को अट्ठारह तत्त्वों का स्वीकार तिकया। इनके तिवपरीत तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने सूत्र 'सप्तदरै्शकम् सिलंर्गम्*' की व्याख्या करते हुए 'सत्रह' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्वीकार करते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष अतिनरुद्ध की इस

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मा&यता की तिक सांख्यदर्शन अतिनयतपदार्थवादी है- करु्ट र्शब्दों में आलोचना करते हैं* अतिनरुद्ध ने कई 0लों पर सांख्य दर्शन को अतिनयत पदार्थवादी कहा है। 'तिकं चातिनयतपदार्थवादास्माकम्*', 'अतिनयतपदार्थवादिदत्वात्सांख्यानाम्*' इसकी आलोचना में तिवज्ञानत्तिभकु्ष इसे मूढ़ प्रलाप घोतिषत करते हैं। उनका कर्थन है तिक -'एतेन सांख्यानामतिनयतपदार्थाभ्युपर्गम इतित मूढ़प्रलाप उपेक्षणीय:*' । तिवज्ञानत्तिभक्षुकृत यह दिर्टप्पणी उसिचत ही है। सांख्यदर्शन में वर्ग की दृष्टि* से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृष्टि* से भोNा, भोग्य और पे्ररक तर्था समग्ररूप से तत्त्वों की संख्या 24, 25 वा 26 आदिद माने र्गए हैं। अत: सांख्य को अतिनयतपदार्थवादी कहना ग़लत है। हां, एक अर्थ में यह अतिनयत पदार्थवादी कहा जा सकता है यदिद पदार्थ का अर्थ इजि&द्रय जर्गत् में र्गोचन नानातिवष्टि5 वस्तु ग्रहण तिकया जाय। सत्त्व रजस् तमस् की परस्पर अत्तिभनव, जनन, ष्टिमरु्थन, प्रतिततिक्रयाओं से असंख्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिजनके बारे में तिनयतरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। अतिनरुद्ध प्रत्यक्ष के दो भेद-तिनर्तिवंकल्प तर्था सतिवकल्प, की चचा करते हुए सतिवकल्प प्रत्यक्ष को स्मृतितज&य अत: मनोज&य, मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष इसका ख�डन करते हैं। तिवज्ञानत्तिभक्षु अतिनरुद्धवृत्ति. को लक्ष्य कर कहते हैं- 'कत्तिg.ु सतिवकल्पकं तु मनोमात्रज&यष्टिमतित' लेतिकन 'तिनर्तिवंकल्पकं सतिवकल्पकरूपं तिzतिव5मप्यैजि&द्रकम्' हैं। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने भोर्ग तिवषयक अतिनरुद्ध मत का भी तिवज्ञान त्तिभक्षु की मा&यता से भेद का उल्लेख तिकया है*। तदनुसार अतिनरुद्ध ज्ञान भोर्ग आदिद का संपाइन बुजिद्ध में मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष उN मत उपेक्षणीय कहते हुए कहते हैं। 'एवं तिह बुजिद्धरेव ज्ञातृत्वे सिचदवसानो भोर्ग: इत्यार्गामी सूत्रzयतिवरो5: पुरुषों प्रभाणाभावg। पुरुषसिलंर्गस्य भोर्गस्य बुद्धावेव स्वीकारात्*'। यदिद ज्ञातृत्व भोNृत्वादिद को बृजिद्ध में ही मान सिलया र्गया तब सिचदवसानो भोर्ग:* व्यर्थ हो जायेर्गा। सार्थ ही भोNृभावात् कहकर पुरुष की अस्मिस्तत्वसिसजिद्ध में दिदया र्गया प्रमाण भी पुरुष की अपेक्षा बुजिद्ध की ही सिसजिद्ध करेर्गा। तब पुरुष को प्रमात्तिणत तिकस तरह तिकया जा सकेर्गा। सांख्य दर्शन को स्वतंत्र प्र5ान कारणवादी घोतिषत कर सांख्यतिवरो5ी प्रकृतित पुरुष संयोर्ग की असंभावना का आके्षप लर्गाते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष प्रर्थम सांख्याचाय है, जिज&होंने संयोर्ग के सिलए ईश्वरेच्छा को माना। तिवज्ञानत्तिभकु्ष ईश्वरवादी दार्शतिनक रे्थ। लेतिकन सांख्य दर्शन में ईश्वर प्रतितषे5 को वे इस दर्शन की दुबलता मानते हैं*। तिवज्ञानत्तिभक्षु के अनुसार सांख्य दर्शन में ईश्वर का ख�डन प्रमाणापेक्षया ही है। ईश्वर की सिसजिद्ध प्रमाणों (प्रत्यक्षानुमान) से नहीं की जा सकती इससिलए सूत्रकार ईश्वरासिसदे्ध:* कहते है। यदिद ईश्वर की स.ा की अस्वीकृत वांसिछत होती तो 'ईश्वराभावात्'- ऐसा सूत्रकार कह देते। इस प्रकार तिवज्ञानत्तिभक्षु सांख्य दर्शन में ईश्वर की स.ा को स्वीकार करके योर्ग, वेदा&त तर्था श्रुतित-स्मृतित की 5ारा में सांख्य दर्शन को ला देते हैं, जैसा तिक महाभारत पुराणादिद में वह उपलब्ध र्था। इस तरह तिवज्ञानत्तिभक्षु सांख्य दर्शन को उसकी प्राचीन परम्परा के अनुसार ही व्याख्याष्टियत करते हैं। ऐसा करके वे सांख्य, योर्ग तर्था वेदा&त के प्रतीयमान तिवरो5ों का परिरहार कर सम&वय करते हैं। प्रतितपाद्य तिवषय में प्रमुखता का भेद होते हुए भी सिसद्धा&तत: ये तीनों ही दर्शन शु्रतित-स्मृतित के अनुरूप तिवकसिसत दर्शन हैं। अzैताचाय र्शंकर ने तिवत्तिभन्न आस्मिस्तक दर्शनों का ख�डन करते हुए जिजस तरह अzैतावाद को ही श्रुतितमूलक दर्शन बताया उससे यह मा&यता प्रचसिलत हो चली र्थी तिक इनका वेदा&त से तिवरो5 है। तिवज्ञानत्तिभक्षु ही ऐसे प्रर्थम सांख्याचाय हैं जिज&होंने तिकसी दर्शन को 'मल्ल' घोतिषत न कर एक ही 5रातल पर समन्ति&वत रूप में प्रस्तुत तिकया। सांख्यसूत्रवृत्ति.सार-अतिनरुद्धवृत्ति. का सारांर्श ही है जिजसके रचष्टियता महादेव वेदा&ती हैं। भाष्यसार तिवज्ञानत्तिभकु्षकृत सांख्यप्रवचनभाष्य का सार है जिजसके रचष्टियता नार्गेर्श भट्ट हैं। सव~पकारिरणी र्टीका यह अज्ञात व्यसिN की तत्त्वसमास सूत्र पर र्टीका है। सांख्यसूत्रतिववरण तत्व समास सूत्र पर अज्ञात व्यसिN की र्टीका है। क्रमदीतिपका भी तत्त्वसमास सूत्र की र्टीका है कता का नाम ज्ञात नही है। तत्त्वायार्थाथ्यदीपन- तत्वसमास को यह र्टीका तिवज्ञानत्तिभक्षु के सिर्शष्य भावार्गणेर्श की रचना है यह त्तिभक्षु तिवचारानुरूप र्टीका है। सांख्यतत्त्व तिववेचना- यह भी तत्वसमास सूत्र की र्टीका है जिजसके रचष्टियता तिषमान&द या के्षमे&द्र हैं। सांख्यतत्त्वालोक- सांख्ययोर्ग सिसद्धा&तों पर हरिरहरान&द आर�य की कृतित है। पुराणेतितहासयो: सांख्ययोर्ग दर्शनतिवमर्श: - नामक पुस्तक पुराणों में उपलब्ध सांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्तुतित है। इसके लेखक डा. श्रीकृष्णमत्तिण तित्रपाठी हैं। और इसका प्रकार्शन, सम्पूणान&द संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय से सन् 1979 ई. में हुआ। सांख्ययोर्गकोर्श:- लेखक आचाय केदारनार्थ तित्रपाठी वाराणसी से सन् 1974 ई. में प्रकासिर्शत। श्रीरामरं्शकर भट्टाचाय ने सांख्यसार की र्टीका तर्था तत्त्वयार्थाथ्यदीपन सदिर्टप्पण की रचना की। दोनों ही पुस्तकें प्रकासिर्शत हैं*। सांख्यसप्ततितवतृ्ति.ई.ए. सोलोमन zारा सम्पादिदत दूसरी पुस्तक है। यह भी सांख्यसप्ततित की र्टीका है। इस पुस्तक का रचनाकाल भी प्राचीन माना र्गया। संभावना यह व्यN की र्गई तिक सांख्यवृत्ति. के तिनकर्ट परवतw काल की यह रचना होर्गी। इसके रचष्टियता का पूरा नाम पा�डुसिलतिप में उपलब्ध नहीं है। केवल 'मा' उपलब्ध है। यह मा5व या माठर हो सकता है। अनुयोर्ग zार सूत्र में सांख्याचायl की सूची में मा5व का उल्लेख ष्टिमलता है। यह माठर ही रहा होर्गा*।

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यह 5 वीं र्शताब्दी से पूव रहा होर्गा। सांख्यसप्ततित वृत्ति. 'माठरवृत्ति.' के लर्गभर्ग समान है। सोलोमन के अनुसार वतमान माठरवृत्ति. इसी सांख्यकारिरकावृत्ति. का तिवस्तार प्रतीत होता है। माठरवृत्ति. में पुराणों को अष्टि5क उद्धतृ तिकया र्गया है जबतिक इस पुस्तक में आयुव�दीय ग्रंन्थों के उद्धरण अष्टि5क हैं। माठरवृत्ति. की ही तरह इसमें भी 63 कारिरकाए ँहैं*। सांख्य सातिहत्यअनुक्रम1 सांख्य सातिहत्य 2 सांख्यप्रवचनभाष्य 3 र्टीका दिर्टप्पणी

सांख्यसूत्र, तत्त्वसमाससूत्र तर्था सांख्यकारिरका सांख्य दर्शन के मूल प्रामत्तिणक ग्रन्थ हैं। सांख्य सातिहत्य का अष्टि5कांर्श इनकी र्टीकाओं, भाष्यों आदिद के रूप में तिनर्मिमंत हैं। चंूतिक अतिनरुद्ध के पूव सांख्य सूत्रों पर भाष्य आज उपलब्ध नहीं है जबतिक कारिरका-भाष्य उपलब्ध है अत: पहले कारिरका के भाष्य अर्थवा र्टीकाओं का उल्लेख करके तब सूत्रों की र्टीकाओं का उल्लेख तिकया जायेर्गा। र्गौडपाद भाष्य जयमंर्गला तत्त्वकौमुदी माठर वृत्ति. युसिNदीतिपका सांख्य चजि&द्रका सांख्य तरु वस&त सांख्य प्रवचन भाष्य सांख्य सप्ततितवृत्ति. सांख्य सूत्र वृत्ति. सांख्यवृत्ति. सुवणसप्ततित र्शास्त्र सांख्यप्रवचनभाष्यसांख्यप्रवचनसूत्र पर आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष का भाष्य है। आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने सांख्यमत पुन: प्रतितष्टि>त तिकया। तिवज्ञानत्तिभक्षु का समय आचाय उदयवीर र्शास्त्री के अनुसार सन 1350 ई. के पूव का होना चातिहए। अष्टि5कांर्श तिवzान इ&हें 15 वीं-16 वीं र्शताब्दी का मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष की कृतितयों में सांख्यप्रवचनभाष्य के अतितरिरN योर्गवार्तितंक, योर्गसार संग्रह, तिवज्ञानामृतभाष्य, सांख्यसार आदिद प्रमुख रचनायें हैं। सांख्य दर्शन की परंपरा में तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने ही सवप्रर्थम सांख्यमत को श्रुतित और स्मृतितसम्मत रूप में प्रस्तुत तिकया। सांख्य दर्शन पर लरे्ग अवैदिदकता के आके्षप का भी इ&होंने सफलता पूवक तिनराकरण तिकया। अपनी रचनाओं के माध्यम से आचाय ने सांख्य दर्शन का जो अत्य&त प्राचीन काल में सुप्रतितष्टि>त वैदिदक दर्शन माना जाता र्था, का तिवरो5 परिरहार करते हुए परिरमाजन तिकया। सांख्यकारिरका-व्याख्या के आ5ार पर प्रचसिलत सांख्यदर्शन में कई स्प*ीकरण व संर्शो5न तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने तिकया। प्राय: सांख्यदर्शन में तीन अंत:करणों की चचा ष्टिमलती है। सांख्यकारिरका में भी अ&त:करण तित्रतिव5* कहकर इस मत को स्वीकार तिकया। लेतिकन तिवज्ञानत्तिभकु्ष अ&त:करण को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार 'यद्यप्येकमेवा&त:करणं वृत्ति.भेदेन तित्रतिव5ं लाघवात्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष से पूव कारिरकाव्याख्याओं के आ5ार पर प्रचसिलत दर्शन में दो ही र्शरीर सूक्ष्म तर्था 0ूल मानने की परम्परा रही है। लेतिकन आचाय तिवज्ञानत्तिभकु्ष तीन र्शरीरों की मा&यता को युसिNसंर्गत मानते हैं। सूक्ष्म र्शरीर तिबना तिकसी अष्टि5>ान के नहीं रहा सकता, यदिद सूक्ष्म र्शरीर का आ5ार 0ूल र्शरीर ही हो तो 0ूल र्शरीर से उत्क्रान्ति&त के पgात लोका&तर र्गमन सूक्ष्म र्शरीर तिकस प्रकार कर सकता है? तिवज्ञानत्तिभकु्ष के अनुसार सूक्ष्म र्शरीर तिबना अष्टि5>ान र्शरीर के नहीं रह सकता अत: 0ूल र्शरीर को छोड़कर र्शरीर ही है*। । 'अङर्गु>मात्र:पुरुषोऽ&तरात्मा सदा जना हृदये सष्टिन्नतिव*:*', अङु्ग>मातं्र पुरुषं स*- आदिद श्रुतित-स्मृतित के प्रमाण से अष्टि5>ान र्शरीर की सिसजिद्ध करते हैं। अ&य सांख्याचायl से सिलंर्ग र्शरीर के तिवषय में तिवज्ञानत्तिभक्षु त्तिभन्न मत रखते हैं। वाचस्पतित ष्टिमश्र, माठर, रं्शकराचाय आदिद की तरह अतिनरुद्ध तर्था महादेव वेदा&ती ने भी सिलंर्ग र्शरीर को अट्ठारह तत्त्वों का स्वीकार तिकया। इनके तिवपरीत तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने सूत्र

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'सप्तदरै्शकम् सिलंर्गम्*' की व्याख्या करते हुए 'सत्रह' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्वीकार करते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष अतिनरुद्ध की इस मा&यता की तिक सांख्यदर्शन अतिनयतपदार्थवादी है- करु्ट र्शब्दों में आलोचना करते हैं* अतिनरुद्ध ने कई 0लों पर सांख्य दर्शन को अतिनयत पदार्थवादी कहा है। 'तिकं चातिनयतपदार्थवादास्माकम्*', 'अतिनयतपदार्थवादिदत्वात्सांख्यानाम्*' इसकी आलोचना में तिवज्ञानत्तिभकु्ष इसे मूढ़ प्रलाप घोतिषत करते हैं। उनका कर्थन है तिक -'एतेन सांख्यानामतिनयतपदार्थाभ्युपर्गम इतित मूढ़प्रलाप उपेक्षणीय:*' । तिवज्ञानत्तिभक्षुकृत यह दिर्टप्पणी उसिचत ही है। सांख्यदर्शन में वर्ग की दृष्टि* से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृष्टि* से भोNा, भोग्य और पे्ररक तर्था समग्ररूप से तत्त्वों की संख्या 24, 25 वा 26 आदिद माने र्गए हैं। अत: सांख्य को अतिनयतपदार्थवादी कहना ग़लत है। हां, एक अर्थ में यह अतिनयत पदार्थवादी कहा जा सकता है यदिद पदार्थ का अर्थ इजि&द्रय जर्गत् में र्गोचन नानातिवष्टि5 वस्तु ग्रहण तिकया जाय। सत्त्व रजस् तमस् की परस्पर अत्तिभनव, जनन, ष्टिमरु्थन, प्रतिततिक्रयाओं से असंख्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिजनके बारे में तिनयतरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। अतिनरुद्ध प्रत्यक्ष के दो भेद-तिनर्तिवंकल्प तर्था सतिवकल्प, की चचा करते हुए सतिवकल्प प्रत्यक्ष को स्मृतितज&य अत: मनोज&य, मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष इसका ख�डन करते हैं। तिवज्ञानत्तिभक्षु अतिनरुद्धवृत्ति. को लक्ष्य कर कहते हैं- 'कत्तिg.ु सतिवकल्पकं तु मनोमात्रज&यष्टिमतित' लेतिकन 'तिनर्तिवंकल्पकं सतिवकल्पकरूपं तिzतिव5मप्यैजि&द्रकम्' हैं। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने भोर्ग तिवषयक अतिनरुद्ध मत का भी तिवज्ञान त्तिभक्षु की मा&यता से भेद का उल्लेख तिकया है*। तदनुसार अतिनरुद्ध ज्ञान भोर्ग आदिद का संपाइन बुजिद्ध में मानते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष उN मत उपेक्षणीय कहते हुए कहते हैं। 'एवं तिह बुजिद्धरेव ज्ञातृत्वे सिचदवसानो भोर्ग: इत्यार्गामी सूत्रzयतिवरो5: पुरुषों प्रभाणाभावg। पुरुषसिलंर्गस्य भोर्गस्य बुद्धावेव स्वीकारात्*'। यदिद ज्ञातृत्व भोNृत्वादिद को बृजिद्ध में ही मान सिलया र्गया तब सिचदवसानो भोर्ग:* व्यर्थ हो जायेर्गा। सार्थ ही भोNृभावात् कहकर पुरुष की अस्मिस्तत्वसिसजिद्ध में दिदया र्गया प्रमाण भी पुरुष की अपेक्षा बुजिद्ध की ही सिसजिद्ध करेर्गा। तब पुरुष को प्रमात्तिणत तिकस तरह तिकया जा सकेर्गा। सांख्य दर्शन को स्वतंत्र प्र5ान कारणवादी घोतिषत कर सांख्यतिवरो5ी प्रकृतित पुरुष संयोर्ग की असंभावना का आके्षप लर्गाते हैं। तिवज्ञानत्तिभकु्ष प्रर्थम सांख्याचाय है, जिज&होंने संयोर्ग के सिलए ईश्वरेच्छा को माना। तिवज्ञानत्तिभकु्ष ईश्वरवादी दार्शतिनक रे्थ। लेतिकन सांख्य दर्शन में ईश्वर प्रतितषे5 को वे इस दर्शन की दुबलता मानते हैं*। तिवज्ञानत्तिभक्षु के अनुसार सांख्य दर्शन में ईश्वर का ख�डन प्रमाणापेक्षया ही है। ईश्वर की सिसजिद्ध प्रमाणों (प्रत्यक्षानुमान) से नहीं की जा सकती इससिलए सूत्रकार ईश्वरासिसदे्ध:* कहते है। यदिद ईश्वर की स.ा की अस्वीकृत वांसिछत होती तो 'ईश्वराभावात्'- ऐसा सूत्रकार कह देते। इस प्रकार तिवज्ञानत्तिभक्षु सांख्य दर्शन में ईश्वर की स.ा को स्वीकार करके योर्ग, वेदा&त तर्था श्रुतित-स्मृतित की 5ारा में सांख्य दर्शन को ला देते हैं, जैसा तिक महाभारत पुराणादिद में वह उपलब्ध र्था। इस तरह तिवज्ञानत्तिभक्षु सांख्य दर्शन को उसकी प्राचीन परम्परा के अनुसार ही व्याख्याष्टियत करते हैं। ऐसा करके वे सांख्य, योर्ग तर्था वेदा&त के प्रतीयमान तिवरो5ों का परिरहार कर सम&वय करते हैं। प्रतितपाद्य तिवषय में प्रमुखता का भेद होते हुए भी सिसद्धा&तत: ये तीनों ही दर्शन शु्रतित-स्मृतित के अनुरूप तिवकसिसत दर्शन हैं। अzैताचाय र्शंकर ने तिवत्तिभन्न आस्मिस्तक दर्शनों का ख�डन करते हुए जिजस तरह अzैतावाद को ही श्रुतितमूलक दर्शन बताया उससे यह मा&यता प्रचसिलत हो चली र्थी तिक इनका वेदा&त से तिवरो5 है। तिवज्ञानत्तिभक्षु ही ऐसे प्रर्थम सांख्याचाय हैं जिज&होंने तिकसी दर्शन को 'मल्ल' घोतिषत न कर एक ही 5रातल पर समन्ति&वत रूप में प्रस्तुत तिकया। सांख्यसूत्रवृत्ति.सार-अतिनरुद्धवृत्ति. का सारांर्श ही है जिजसके रचष्टियता महादेव वेदा&ती हैं। भाष्यसार तिवज्ञानत्तिभकु्षकृत सांख्यप्रवचनभाष्य का सार है जिजसके रचष्टियता नार्गेर्श भट्ट हैं। सव~पकारिरणी र्टीका यह अज्ञात व्यसिN की तत्त्वसमास सूत्र पर र्टीका है। सांख्यसूत्रतिववरण तत्व समास सूत्र पर अज्ञात व्यसिN की र्टीका है। क्रमदीतिपका भी तत्त्वसमास सूत्र की र्टीका है कता का नाम ज्ञात नही है। तत्त्वायार्थाथ्यदीपन- तत्वसमास को यह र्टीका तिवज्ञानत्तिभक्षु के सिर्शष्य भावार्गणेर्श की रचना है यह त्तिभक्षु तिवचारानुरूप र्टीका है। सांख्यतत्त्व तिववेचना- यह भी तत्वसमास सूत्र की र्टीका है जिजसके रचष्टियता तिषमान&द या के्षमे&द्र हैं। सांख्यतत्त्वालोक- सांख्ययोर्ग सिसद्धा&तों पर हरिरहरान&द आर�य की कृतित है। पुराणेतितहासयो: सांख्ययोर्ग दर्शनतिवमर्श: - नामक पुस्तक पुराणों में उपलब्ध सांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्तुतित है। इसके लेखक डा. श्रीकृष्णमत्तिण तित्रपाठी हैं। और इसका प्रकार्शन, सम्पूणान&द संस्कृत तिवश्वतिवद्यालय से सन् 1979 ई. में हुआ। सांख्ययोर्गकोर्श:- लेखक आचाय केदारनार्थ तित्रपाठी वाराणसी से सन् 1974 ई. में प्रकासिर्शत। श्रीरामरं्शकर भट्टाचाय ने सांख्यसार की र्टीका तर्था तत्त्वयार्थाथ्यदीपन सदिर्टप्पण की रचना की। दोनों ही पुस्तकें प्रकासिर्शत हैं*। सांख्य सूत्र वृत्ति. / Sankhya sutra Vrattiकतिपल प्रणीत सूत्रों की व्याख्या की यह पहली उपलब्ध पुस्तक है। इसका 'वृत्ति.' नाम स्वयं रचष्टियता अतिनरुद्ध zारा ही दिदया र्गया है*। अतिनरुद्ध सूत्रों को सांख्यप्रवचनसूत्र भी कहते हैं जिजसे बाद के व्याख्याकारों, र्टीकाकारों ने भी स्वीकार तिकया। वृत्ति.कार तिवज्ञानत्तिभकु्ष से पूववतw है ऐसा प्राय: तिवzान स्वीकार करते हैं तर्थातिप इनके काल के तिवषय में मतभेद है। सांख्यसूत्रों के व्याख्याचतु*य के सम्पादक जनादन र्शास्त्री पा�डेय अतिनरुद्ध का समय 11 वीं र्शती स्वीकार करते हैं जैसा तिक उदयवीर र्शास्त्री प्रतितपादिदत करते हैं प्राय: तिवzान् इसे 1500 ई. के आसपास का मानते हैं। रिरचाड र्गाब� सांख्यसूत्रवृत्ति. के रचष्टियता को ज्योतितष

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ग्रन्थ 'भास्वतितकरण' के रचष्टियता भावसमन् पुत्र अतिनरुद्ध से अत्तिभन्न होने को भी संभातिवत समझते हैं जिजनका ज&म 1464 ई. में माना जाता है। अतिनरुद्ध सांख्य दर्शन को अतिनयतपादार्थवादी कहते हैं*। अतिनयतपादार्थवादी का यदिद यह आर्शय है तिक तत्त्वों की संख्या तिनयत नहीं है, तो अतिनरुद्ध का यह मत उसिचत नहीं प्रतीत होता, क्योंतिक सांख्य में 25 तत्त्व 60 पदार्थ आदिद तिनयत र्गणना तो प्रचसिलत है तिह। यदिद पदार्थl के स्वरूप की अतिनयतता से आर्शय है तो यह सांख्य तिवरुद्ध नहीं होर्गा, क्योंतिक सत्व रजस तमस के अत्तिभनव, आश्रय, ष्टिमरु्थन, जनन तिवष्टि5 से अनेकर्श: पदार्थ रचना संभव है और इसका तिनयत संख्या या स्वरूप बताया नहीं जा सकता। इसके अतितरिरN अतिनरुद्धवृत्ति. की एक तिवर्शेषता यह भी हे तिक उसमें सूक्ष्म या सिलंर्ग र्शरीर 18 तत्त्वों का (सप्तदर्श+एकम्) माना र्गया है। तिफर भोर्ग और प्रमा दोनों को ही अतिनरुद्ध बुजिद्ध में स्वीकार करते हैं। अतिनरुद्ध zारा स्वीकृत सूत्र पाठ तिवज्ञानत्तिभकु्ष के स्वीकृत पाठों से अनेक 0लों पर त्तिभन्न हैं। अतिनरुद्धवृत्ति.* में 'सौक्ष्म्यादनुलपस्मिब्ध' है, जब त्तिभकु्षभाष्य में 'सौक्ष्यम्यातदनुपसिलस्मिब्ध' पाठ है। यद्यतिप अर्थ दृष्ट्या इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता तर्थातिपत ईश्वरकृष्ण की 8 वीं कारिरका के आ5ार पर 'सौक्ष्zम्या.दनुपलस्मिब्ध' का प्रचलन हो र्गया- ऐसा कहा जा सकता है। ध्यातव्य है तिक सूत्र 1/124 में अतिनरुद्धवृत्ति. के अनुसार 'अव्यातिप' र्शब्द नहीं ष्टिमलता न ही उसका अतिनरुद्ध zारा अर्थ तिकया र्गया, जबतिक तिवज्ञानत्तिभकु्ष के सूत्रभाष्य में न केवल 'अव्यातिप' र्शब्द सूत्रर्गत है अतिप तु त्तिभकु्ष ने कारिरका को उद्धतृ करते हुए 'अव्यातिप' का अर्थ भी तिकया है। इसी तरह सूत्र 3/73 में अतिनरुद्धवृत्ति. में 'रूपै:सप्तत्तिभ... तिवमोच्यत्येकेन रूपेण' पाठ है जबतिक त्तिभकु्षकृत पाठ कारिरका 63 के समान 'तिवमोच्यत्येकरूपेण' है। ऐसा प्रतीत होता है तिक सांख्यसूत्रों का प्राचीन पाठ अतिनरुद्धवृ.् में यर्थावत् रखा र्गया जबतिक तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने कारिरका के आ5ार पर पाठ स्वीकार तिकया। सार्थ ही यह भी ध्यातव्य है तिक अतिनरुद्ध ने कारिरकाओं को कहीं भी उद्धतृ नहीं तिकया तर्थातिप कहीं-कहीं कारिरकार्गत र्शब्दों का उल्लेख अवश्य तिकया है यर्था सूत्र 1/108 की वृत्ति. में 'अतितसामीप्यात्' 'मनोऽनव0ानात्' 'व्यव5ानात्' आदिद। जबतिक तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने प्राय: सभी समान प्रसंर्गों पर कारिरकाओं को उद्धतृ तिकया है। सांख्यवृत्ति.यह सांख्यकारिरका की वृत्ति. है। इसका प्रकार्शन सन 1973 में रु्गजरात तिवश्वतिवद्यालय zारा तिकया र्गया। इसका सम्पादन ई.ए. सोलोमन ने तिकया। उनके अनुसार यह सांख्यकारिरका की प्राचीनतम र्टीका है। इसके रचष्टियता का नामोल्लेख नहीं है। सोलोमन के अनुसार यह संभवत: स्वयं कारिरकाकार ईश्वरकृष्ण की रचना है और परमार्थ कृत चीनी अनुवाद का यह आ5ार रहा है। परमार्थ कृत चीनी भाषा के अनुवाद में 63 वीं कारिरका नहीं पाई जाती जबतिक सांख्यवृत्ति. में यह कारिरका भाष्य सतिहत उपलब्ध है। सांख्यवृत्ति. में 71 वीं कारिरका तक ही भाष्य तिकया र्गया है। 27 वीं कारिरका प्रचसिलत कारिरका जैसी न होकर इस प्रकार है- संकल्पमत्र मनस्तचे्चजि&द्रयमुभयर्था समाख्यातम्। अ&तम्मिस्त्रकालतिवषयं तस्मादुभयप्रचारं तत्॥ ऐसा ही रूप युसिNदीतिपका में भी है। सांख्यवृत्ति. का संभातिवत रचनाकाल ईसा की 6 वीं र्शताब्दी है। सुवणसप्ततित र्शास्त्रयह बौद्ध त्तिभक्षु परमार्थ zारा 550 ई.-569 ई. के मध्य चीनी भाषा में अनुवादिदत सांख्यकारिरका का भाष्य है। तिकस भाष्य का यह चीनी अनुवाद है- इस पर कुछ तिववाद है। आचाय उदयवीर र्शास्त्री के अनुसार यह 'माठरवृत्ति.' के नाम से उपलब्ध र्टीका का अनुवाद है। इस मत का आ5ार चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ तर्था माठरवृत्ति. में आgयजनक समानता है। *एस.एस. सूयनारायण र्शास्त्री ने परमार्थ और माठर की र्टीकाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह तिनष्कष तिनकाला तिक दोनों में महत्त्वपूण मुद्दों पर असमानता है। अत: माठरवृत्ति. को परमार्थ कृत र्टीका का आ5ार नहीं कहा जा सकता। चीनी भाषा से उN र्टीका का संस्कृत रूपांतरण श्री एन.अय्यास्वामी र्शास्त्री ने तिकया जो तितरुमल तितरुपतित देव0ान पे्रम zारा 1944 ई. में प्रकासिर्शत हुआ। इसकी भूष्टिमका में श्री र्शास्त्री अनुयोर्गzार सूत्र तर्था रु्गणरत्न कृत षड्दर्शनसमुच्चय के आ5ार पर तिकसी प्राचीन माठरवृत्ति. या भाष्य के अस्मिस्तत्व की संभावना को माने जाने तर्था वतमान माठरवृत्ति. को 1000 ई. से पूव की रचना नहीं माने जाने का समर्थन करते हैं।

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ए.बी. कीर्थ तर्था सूयनारायण र्शास्त्री के अनुसार वतमान माठरवृत्ति. तर्था परमार्थ कृत चीनी अनुवाद तिकसी अ&य प्राचीन माठरभाष्य पर आ5ारिरत है। इस तिवषय पर अब तक प्राप्त तथ्यों के आ5ार पर प्राय: यह माना जाता है तिक परमार्थ कृत चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ जिजसका संस्कृत रूपा&तरण सुवणसप्ततित के नाम से हुआ है- ही सांख्य कारिरका पर उपलब्ध प्राचीनतम भाष्य है। सुवणसप्ततित के अ&तवस्तु में उल्लेखनीय यह है तिक इसके अनुसार सांख्य ज्ञान का प्रणयन चार वेदों से भी पूव हो चुका र्था। वेदों सतिहत समस्त सम्प्रदायों का दर्शन सांख्य पर ही अवलम्मिम्बत है। सुवणसप्ततित सूक्ष्म (सिलंर्ग) र्शरीर को सात तत्त्वों का संघात मानती है। वे सात तत्त्व हैं- महत, अहंकार तर्था पंच त&मात्र। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने इस मा&यता को भ्रमवर्श 0ातिपत माना है। उनके अनुसार सुवणसप्ततित र्शास्त्र में 40 वें कारिरका की र्टीका में 'एतातिन सप्त सूक्ष्मर्शरीरष्टिमत्युच्यते' सिलखा है। इस पर श्री र्शास्त्री का कर्थन है तिक यदिद अ&य कहीं भी एकादर्श इजि&द्रयों का तिनद�र्श न होता तो सप्त तत्व का सूक्ष्मर्शरीर माना जा सकता र्था। उ.वी. र्शास्त्री ने कुछ उद्धरण सुवणसप्ततितर्शास्त्र से उद्धतृ करते हुए यह दिदखाने का प्रयास तिकया तिक र्टीकाकार अठारह तत्त्वों का सूक्ष्म र्शरीर स्वीकार करते हैं। लेतिकन र्शास्त्री जी zारा प्रस्तुत उद्धरण उनके तिवचार की पुष्टि* नहीं करते। वे उद्धरण इस प्रकार हैं- त्रयोदर्शतिव5करणै: सूक्ष्मर्शरीरं संसारयतित तस्मात् सूक्ष्मर्शरीरं तिवहाय, त्रयोदर्शकं न 0ातंु क्षमते॥ इदं सूक्ष्मर्शरीरं त्रयोदर्शकेन सह ... संसरतित पंचत&मात्ररूपं सूक्ष्मर्शरीरं त्रयोदर्शतिव5करणैयुN-तित्रतिव5लोकसर्गान् संसरतित। सभी उद्धरणों में त्रयोदर्श करणों के सार्थ सूक्ष्म र्शरीर के संसरण की बात कहीं र्गई है। अत: त्रयोदर्श करण तर्था सूक्ष्म र्शरीर का पार्थक्य-स्वीकृतित स्प* है। चौरे्थ उद्धरण में तो स्प*त: 'पंचत&मात्ररूपं सूक्ष्मर्शरीरं' कहा र्गया है। हां एक बात अवश्य तिवचारणीय है, जिजसकी चचा र्शास्त्री जी ने की है तिक 'यदिद व्याख्याकार सूक्ष्म र्शरीर में केवल सात तत्त्वों को मानता तो उसका यह-एकादर्श इजि&द्रयों के सार्थ बुजिद्ध और अहंकार को जोड़कर त्रयोदर्श करण का सूक्ष्म र्शरीर के सार्थ तिनदेर्श करना सवर्था असंर्गत हो जाता है*'। यहाँ यह कहा जा सकता है तिक र्टीकाकार ने चंूतिक कारिरकाकार का आर्शय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म र्शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादरे्शजि&द्रय की अतिनवायता को स्वीकार तिकया।[1] लेतिकन कारण के रूप में 'त्रयोदर्शकरण' के मानने का कारिरकाकार का स्प* मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख तिकया। यह भी कहा जा सकता है तिक बुजिद्ध और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोर्ग र्शरीर या संसरण र्शरीर उपस्थि0त हो। अत: संसरण के प्रसंर्ग में त्रयोदर्शकरण कहना और सूक्ष्म (सिलंर्ग) र्शरीर के रूप में बुजिद्ध और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंर्गत नहीं है। अर्थवा यदिद यह असंर्गत है भी तो इसे असंर्गत कहना ही पयाप्त है। व्याख्याकार पर अ&य मत का आरोपण संर्गत नहीं कहा जाएर्गा। सांख्य प्रमाण मीमांसाअनुक्रम1 सांख्य प्रमाण मीमांसा 2 सांख्य दर्शन की प्रमाण - मीमांसा 3 प्रत्यक्ष प्रमाण 4 अनुमान प्रमाण 5 र्शब्द प्रमाण 6 सदसत्ख्यातितवाद 7 प्रमेय मीमांसा 8 प्रकृतित 9 रु्गण 10 प्रकृतित के तिवकार 11 महत या बुजिद्ध 12 अहंकार 13 पंचत&मात्र 14 पुरुष 15 मोक्ष मीमांसा 16 सांख्य दर्शन में ईश्वरवाद 17 सांख्य दर्शन समा5ान

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भारतीय दर्शन की एक सामा&य तिवरे्शषता है उसका मानव केजि&द्रत होना। सांख्य दर्शन भी मानव केजि&द्रत है। तत्त्व र्गणना या तिववेचना साध्य नहीं है। यह सा5न है मानव के अ&तर्तिनंतिहत और स्प* उदे्दश्य की प्रान्तिप्त का। उदे्दश्य संसार के दु:खों से स्वयं को मुN करने की मानवी प्रवृत्ति. ही रही है। अत: तदनुरूप ही सांख्याचायl ने उन तिवषयों की तिववेचना को अष्टि5क महत्व दिदया, जिजनसे उनके अनुसार उदे्दश्य की प्रान्तिप्त हो सके। मानव मात्र दु:ख से तिनवृत्ति. चाहता है। संसार में दु:ख है- इस ज्ञान के सिलए तिकसी प्रमाण की आवश्यकता नही है, दुख से मुसिN हेतु प्रवृत्ति. भी प्रमाणापेक्षी नहीं है। दु:खतिनवृत्ति. के मानवकृत सामा&य प्रयासों से तात्कासिलक तिनवृत्ति. तो होती है लेतिकन ऐकान्ति&तक और आत्यन्ति&तक तिनवृत्ति. नहीं होता। दु:ख क्यों होता है, कैसे उत्पन्न होता है, मानव दु:ख से क्यों मुN होना चाहता है- आदिद प्रश्न र्गंभीर सिच&तनापेक्षी और उ.रापेक्षी हे। यह सिच&तन और तदनुसार उ.र ही दु:ख तिनवृत्ति. में सा5क हो सकते हैं। यह के्षत्र ही 'ज्ञान' का है। अत: सांख्याचाय अपनी दार्शतिनक तिववेचना का आरंभ ही दु:ख-तिववेचना से करते हैं। अर्थ तित्रतिव5दु:खात्यन्ति&तकतिनवृत्ति.रत्य&तपुरुषार्थ:* दु:खत्रयात्तिभघातास्थिज्जज्ञासा तदत्तिभघातके हेतौ॥* दु:खतिनवृत्ति. की जिजज्ञासा ज्ञाता-जिजज्ञासु की अभीप्सा है कुछ जानने की। लेतिकन कुछ जाना जा सकता है, जाना र्गया कुछ सत्य है, प्रामात्तिणक है- ऐसा मानने के सिलए ज्ञान की सीमा और ज्ञान की सा5नभूत कसौदिर्टयों का तिन5ारण आवश्यक है। यही प्रमाण मीमांसा का क्षेत्र है। सांख्य दर्शन की प्रमाण-मीमांसाzयोरेकतरस्य वाप्यसष्टिन्नकृ*ार्थपरिरस्थिच्छत्ति.: प्रमातत्सा5कतमं य.त् तित्रतिव5ं प्रमाणम्॥* बुजिद्ध और पुरुष दोनों में से एक का पूव से अनष्टि5र्गत अर्थ का अव5ारण प्रमा है और उस प्रमा (यर्थार्थ ज्ञान) का जो अतितर्शय सा5क (करण) है; उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमा अर्थात ज्ञान की परिरभाषा में अनष्टि5र्गत और अव5ारण दो महत्वपूण र्शत� हैं। यर्थार्थ ज्ञान या प्रमा होने में। अनष्टि5र्गत या जो पहले से ज्ञात नहीं है- उसे ही जाना जाता है। यदिद पहले से ही ज्ञात हो तो उसकी स्मृतित होर्गी यर्थार्थ ज्ञान नहीं। तिफर अव5ारणा अर्थात भली-भांतित या तिनgयात्मक रूप से 5ारण करना भी एक र्शत है। अतिनत्तिgत ज्ञान संर्शय रूप होर्गा। अत: परिरस्थिच्छत्ति. या अव5ारणा प्रमा से संर्शय को पृर्थक् करता है। यर्थार्थ ज्ञान की परिरभाषा में इसे बुजिद्ध और पुरुष दोनों में से 'एक' का भी कहा है। इसका आर्शय यह है तिक ज्ञान बुजिद्ध को भी होता है पुरुष को भी। दोनों ही दर्शाओं में बुजिद्ध पुरुष संयोर्ग अतिनवाय है। पुरुष र्शुद्ध चैत&य है, असंर्ग है। अत: तिवषय अव5ारण तो बुजिद्ध में ही होता है। लेतिकन पुरुष में उपचरिरत होता है। तिवचारणीय यह है तिक बुजिद्ध तो अचेतन या जड़ है, उसे ज्ञान होता है, कहना भी संर्गत नहीं होर्गा। अत: ज्ञान तो पुरुष को ही होता है- ऐसा मानना होर्गा। तिफर, समस्त तिवकार पुरुषार्थ हेतुक हैं। अत: बुजिद्धवृत्ति. भी सा5न ही कही जाएर्गी पुरुषार्थ के सिलए। सूत्रकार बुजिद्ध और पुरुष दोनों के 'ज्ञान' की संभावना को स्वीकार करते हैं। तिवज्ञान त्तिभकु्ष इस स्थि0तित को प्रमाता-साक्षी-भेद करके स्प* करते हैं। उनके अनुसार पुरुष प्रमाता नहीं बस्मिल्क प्रमा का साक्षी है। प्रमा चाहे बुजिद्धतिन> (बुजिद्धवृत्ति.) हो चाहे पुरुषतिन> या पौरुषेयबो5 या दोनों का हो, प्रमा का जो सा5कतम करण होर्गा, उसे ही प्रमाण कहा जाएर्गा और यदिद बुजिद्धवृत्ति. को प्रमा कहें तब इजि&द्रय सष्टिन्नकष को प्रमाण कहा जाएर्गा। तीन प्रकार के प्रमाण सांख्य को अभी* है- प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण तर्था र्शब्द प्रमाण। प्रत्यक्ष प्रमाणयत् सम्बदं्ध सत् तदाकारोल्लेन्द्विख तिवज्ञानं तत् प्रत्यकं्ष*— जिजसके सार्थ सम्बद्ध होता हुआ उसी के आकार को तिनद�सिर्शत करने वाला जो तिवज्ञान (बुजिद्धवृत्ति.) है वह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष की इस परिरभाषा से सूत्रकार बुजिद्धवृत्ति. को प्रमाण रूप में स्वीकार करते प्रतीत होते हैं अर्थात वे प्रमा पौरुषेय बो5 को मानते प्रतीत होते हैं क्योंतिक इजि&द्रय का तिवषय से सष्टिन्नकष होने पर इजि&द्रय तिवषयाकार नहीं होती वरन् बुजिद्ध तिवषयाकार होती है। बुजिद्ध का तिवषयाकार होना ही बुजिद्धवृत्ति. है। ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिरका में भी इसी तरह प्रत्यक्ष तिनरूपण तिकया है। कारिरका में कहा र्गया है 'प्रतिततिवषयाध्यवसायो दृ*ं*' अध्यवसाय बुजिद्ध का व्यापार है। तिवषय सष्टिन्नकष इजि&द्रयों का होता है। मात्र इजि&द्रय-तिवषय-सष्टिन्नकष प्रत्यक्ष नहीं कहलाएर्गा। यह केवल 'संवेदना' की स्थि0तित है। जब इस सष्टिन्नकष में बुजिद्धवृत्ति. इजि&द्रय माध्यम से तिवषयाकार हो और तिनgयात्मक अव5ारण (अध्यवसय) हो, तभी वह प्रत्यक्ष कहा जाएर्गा। इस तरह संर्शय या भ्रमरूप या सदोष सष्टिन्नकष प्रत्यक्ष की कोदिर्ट में नहीं रखा जा सकेर्गा। भ्रम आदिद को भी प्रत्यक्ष के रूप मानने पर प्रत्यक्ष को प्रमाण यर्थार्थ ज्ञान कराने वाला करण नहीं का जा सकेर्गा। प्रत्यक्ष की यह प्रतिक्रया बाह्या&त:करण की युर्गपत प्रतिक्रया कही र्गई है। ईश्वरकृष्ण 30 वीं कारिरका में कहते हैं- 'युर्गपच्चतु*यस्य तु वृत्ति.: क्रमर्शg तस्य तिनर्दिदं*ा।' चतु*यस्य में तित्रतिव5 अ&त:करण तर्था कोई एक ज्ञानेजि&द्रय तिनतिहत है। 'चतु*यस्य' कहने में एक अ&य भाव तिनतिहत प्रतीत होता है जिजसका स्प*ीकरण युर्गपत र्शब्द zारा

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दिदया र्गया। इस कारिरकांर्श का अर्थ है तिक प्रत्यक्ष में तिवषय की ओर व्यापार कभी चारो (बुजिद्ध, अहंकार, मन तर्था एक ज्ञानेजि&द्रय) का एक सार्थ होता है तो कभी क्रमर्श:। चकु्ष जब तिकसी तिवषय को ग्रहण करती है तब मन का संकल्पतिवकल्पात्मक व्यापार, अहंकार का अत्तिभमान तर्था बुजिद्ध का अध्यवसाय व्यापार घदिर्टत होता है। तब यह रजत है ऐसा ज्ञान होता है। यहाँ यह ध्यान रखना होर्गा तिक इस पूरी प्रतिक्रया में अहंकार का अत्तिभमान व्यापार भी तिनतिहत है। अत: 'यह रजत' में 'अहं जानाष्टिम' का भाव भी तिनतिहत रहता है। तर्थातिप नैसर्तिर्गंक, स्प* और लोक प्रसिसद्ध होने से अत्तिभव्यसिN में 'अहं जानाष्टिम' का लोप हो जाता है। यह भी ध्यान में रखना होर्गा तिक कायकारण संबं5 होने से बुजिद्ध, अहंकार और मन सवर्था पृर्थक् कभी नहीं रहते हैं। लेतिकन इनका व्यापार '0ूल से सूक्ष्म' के क्रम से ही होता है। इससिलए इनके व्यापार को युर्गपत के सार्थ-सार्थ क्रमर्श: भी कहा र्गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण समस्त प्रमाण-प्रतिक्रया में प्रार्थष्टिमक तर्था महत्वपूण है। लेतिकन बाह्य तिवषयों या प्रमेयों के ज्ञान में प्रत्यक्ष की अपयाप्तता कई कारणों से सिसद्ध होती है। *तिवषयोऽतिवषयोऽप्यतितदूरादेहानोपादानाभ्याष्टिमजि&द्रयस्य।* अत्य&त दूर आदिद के कारण तर्था इजि&द्रय की हातिन तर्था व्यव5ान आदिद कारणों से तिवषय अतिवषय प्रतीत होते हैं। 'अतितदूरादे: के आदे:' का तिवस्तार ईश्वरकृष्णकृत कारिरका-में तिकया र्गया है। अतितदूरात् सामीप्यादिदजि&द्रयघाता&मेनोऽनव0ानात्। सौक्ष्म्याद्व्यव5ानादत्तिभभवात् समानात्तिभहाराच्च॥* वस्तु के अत्य&त दूर, अत्य&त समीप होने से, इजि&द्रय र्शसिN की हातिन, मन के तिवचसिलत होने पर, वस्तु के अत्य&त सूक्ष्म होने, इजि&द्रय और तिवषय के बीच व्यव5ान होने से, एक वस्तु के अत्तिभभूत होने से, तर्था तिकसी वस्तु के सजातीय सम्मिम्मश्रण के कारण प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। अर्थवा अर्शुद्ध प्रमाण प्रस्तुत होता है। प्रकृतित आदिद प्रमेय अत्य&त सूक्ष्म और समीप होने से ही उपलब्ध प्रतीत नहीं होते। यद्यतिप काय के आ5ार पर उनकी उपलस्मिब्ध अनुमेय है। जयमंर्गलाकार ने कारिरका भाष्य में प्रत्यक्ष के दो भेद स्वीकार तिकया है- रु्शद्ध और अर्शुद्ध प्रत्यक्ष। अतिनरुद्ध तर्था तिवज्ञानत्तिभक्षु ने सतिवकल्प तर्था तिनर्तिवंकल्प भेद प्रत्यक्ष को स्वीकार तिकए हैं। सांख्यर्शास्त्रीय सातिहत्य में प्रत्यक्ष प्रमाण पर तिवस्तृत एवं पूण चचा उपलब्ध नहीं है। इसका कारण सांख्य दर्शन का प्रमुख लक्ष्य आत्म साक्षात्कार और प्रकृतित-पुरुष-तिववेक है। दूसरी ओर सवसा5ारण से लेकर दार्शतिनकों तक यह मूलप्रमाण है। रे्शष प्रमाणों का तिकसी न तिकसी रूप में यह आ5ार है, जबतिक प्रत्यक्ष अ&य तिकसी प्रमाण पर आत्तिश्रत नहीं है। अनुमान प्रमाणप्रतितबन्धदृर्श: प्रतितबद्धानमनुमानम्* इसकी व्याख्या में तिवज्ञानत्तिभकु्ष सिलखते हैं- 'व्यान्तिप्तदर्शनाद ्व्यापकज्ञानं वृत्ति.रूपमनुमानम्'- प्रतितबन्ध दो पदार्थl के बीच तिनयम सम्बन्ध या व्यान्तिप्त के आ5ार पर व्यापक का ज्ञान होता है उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं। केवल प्रतितबन्ध या सिलंर्ग-सिलंर्गी सम्बन्ध पूवक ज्ञान-अनुमान है। अनुमान में प्रत्यक्ष तो सदा तिनतिहत आ5ार होता है। अनुमान काल में तो प्रत्यक्ष आ5ार बनता ही है। सार्थ ही पूव में प्रत्यक्षीकृत ज्ञान की स्मृतित भी अनुमान में होती है। अत: अनुमान को व्यान्तिप्तज्ञानस्मरणपूवक व्याप्य से व्यापक का ज्ञान* कहा जा सकता है। वाचस्पतित ष्टिमश्र अनुमान का सामा&य लक्षण बताते हैं- व्याप्य (सिलंर्ग) और व्यापक (सिलंर्गी) के व्यान्तिप्त ज्ञान तर्था सिलंर्ग के पक्ष5मता ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान अनुमान प्रमाण है। सिलंर्ग-सिलंर्गी या व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध दो प्रकार का होता है- समव्यान्तिप्त तर्था तिवषमव्यान्तिप्त। जहां हेतु और साध्य में तिनयम साहचय रूप स्वाभातिवक सम्बन्ध हो, जिजसे अ&वय और व्यतितरेक के zारा समान रूप से बताया जा सके, वहां उस व्यान्तिप्त को समव्यान्तिप्त कहा जाएर्गा। जैसे वृक्ष के प.ों को तिहलते देखकर वायु के प्रवातिहत होने का अनुमान तिकया जा सकता है और प.ों के न तिहलने से वायु का प्रवाह न होने का अनुमान भी तिकया जा सकता है। लेतिकन ऐसे भी उदाहरण बताये जा सकते हैं जहां ऐसा नहीं होता। 5ूम को देखकर अन्द्विग्न के होने का तो अनुमान तिकया जा सकता है तर्थातिप अन्द्विग्न को देखकर 5ूम के होने का अनुमान नहीं तिकया जा सकता। र्गीली लकड़ी में आर्ग लर्गने पर 5ुआं दिदखाई देर्गा अ&यर्था नहीं। इस प्रकार की व्यान्तिप्ततिवषम व्यान्तिप्त कही जाएर्गी। अनुमान के भेदों का उल्लेख सांख्य सूत्र में नहीं है। तर्थातिप कारिरका में 'तित्रतिव5मनुमानम्' कहकर अनुमान के तीन भेदों को स्वीकार तिकया है। सभी भाष्यकारों ने रे्शषवत, पूववत तर्था सामा&यतोदृ* भेदों की चचा की है।

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तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने 'प्रत्यक्षीकृतजातीयतिवषयं पूववत' कहकर पूववत अनुमान को स्प* तिकया है। अर्थात प्रत्यक्षीकृत तिवषय के सजातीय या उससे उत्पन्न तिवषय का अनुमान पूववत कहा जाता है। अन्द्विग्न से 5ूम की उत्पत्ति. का प्रत्यक्ष रसोई आदिद में तिकया जा चुका है और अब 5ूम को देखकर अन्द्विग्न का अनुमान करना पूववत अनुमान है। वाचस्पतित ष्टिमश्र के अनुसार 'दृ*स्वलक्षण-सामा&य तिवषयं यत् तत्पूववत्*' अर्थात ऐसी तिकसी वस्तु का सामा&य रूप तिवषय जिजसका प्रत्यक्ष पूव में ही हो चुका हो-पूववत कहलाता है। रे्शषवत अनुमान में तिकसी समूह या तिवस्तृत तिवषय के अंर्श के प्रत्यक्ष के आ5ार पर र्शेष का अनुमान तिकया जाता है। समुद्र के एक बंूद जल को चखकर सारे समुद्र के जल के खारेपन का अनुमान र्शेषवत अनुमान का रूप है। वाचस्पतित ष्टिमश्र व्यतितरेकी अनुमान को र्शेषवत मानते हैं। 'व्यसिNरेकमुखेन प्रवतमानं तिनषे5कम्... रे्शषवत्' व्यापक के तिनषे5 zारा व्याप्य का पक्ष में तिनषे5ज्ञान रे्शषवत अनुमान है। 'सामा&यतोदृ*' अनुमान का तीसरा प्रकार है। सांख्य सूत्र के अनुसार सामा&यतोदृ*ादुभयसिसजिद्ध:* सामा&यतोदृ* अनुमान से दोनों (प्रकृतित और पुरुष या अचेतन और चेतन) की सिसजिद्ध हो जाती है जिजसका तिवसिर्श* या सा5ारण रूप पूवदृ* न हो।* तिक्रया होने से इनका कारण भी होर्गा-इस प्रकार इजि&द्रयों का ज्ञान होना सामा&यतोदृ* अनुमान है।* तिवज्ञानत्तिभकु्ष के अनुसार 'अप्रत्यक्षजातीय पदार्थ का अनुमान सामा&यतोदृ* अनुमान है। प्रत्येक काय स्वसजातीयकारण से उत्पन्न होता है। 'र्शNस्य र्शक्यकारणात्* में यही भाव है। यह सत्कायवादी मा&यता है जिजसके अनुसार काय-कारण र्गुणात्मक होता है। अत: काय को देखकर कारण तित्ररु्गणात्मक (सुख-दु:ख-मोहात्मक) होता है। अत: इनका कारण रूप अव्यN भी ऐसा ही होर्गा। इस तरह प्रकृतित की तित्रर्गुणात्मकता का अनुमान होता है। इसी तरह संघात की परार्थता (चेतनार्थता) देखकर चेतन का भी अनुमान होता है। र्शब्द प्रमाणआप्तोपदेर्श: र्शब्द:।* आप्त व्यसिN के उपदेर्श वचन को र्शब्द प्रमाण कहा जाता है। तिवज्ञान त्तिभकु्ष 'आन्तिप्त' को योग्यता के अर्थ में स्वीकार करते हैं। तिवज्ञानत्तिभक्षु के सिर्शष्य भावार्गणेर्श 'स्वकम�यत्तिभयुNो रार्गzेषरतिहतो ज्ञानवान् र्शीलसम्पन्न:*' को आप्त कहते हैं। उन आप्तों के वचनों का र्शब्द कहा जाता है। तिवज्ञानत्तिभक्षु योग्य र्शब्द से उत्पन्न ज्ञान को र्शब्द प्रमा और कारण भूत र्शब्द को प्रमाण कहते हैं। ईश्वरकृष्ण 'आप्तश्रुतितराप्तवचनं' के रूप में र्शब्द प्रमाण को स्प* करते हैं। यहाँ श्रुतित को वाचस्पतित ष्टिमश्र 'वाक्यजतिनतं वाक्यार्थज्ञानम्' कहते हैं और इसे (श्रुतित प्रमाण को) स्वत: प्रमाण कहते हैं। यह स्वत: या स्वतंत्र प्रमाण 'अपौरुषेयवेद वाक्यजतिनतत्वेन सकलदोषारं्शका तिवतिनमुNेत्युNं*' होता है। न केवल सकल दोषार्शंका रतिहत होने से अपौरुषेय वेद वाक्य जतिनत ज्ञान स्वत: प्रमाण होता है अतिपतु वेदमूलक स्मृतित, इतितहास पुराणादिद के वाक्य भी र्शब्द प्रमाण होते हैं। र्शब्द प्रमाण की यह स्वत: प्रमाणता र्शब्द की अपना ज्ञान कराने की र्शसिN के कारण हैं। सांख्य दर्शन में तीन की प्रमाण माने र्गए हैं, क्योंतिक सांख्यों के अनुसार समस्त प्रमेयों का ज्ञान इन तीन प्रमाणों से हो जाता है। अ&य कसिर्थत प्रमाणों का भी तिवलय इ&हीं के अ&तर्गत हो जाता है। अब एक प्रश्न यह उठता है तिक व्यNाव्यNज्ञ अर्थात व्यN जर्गत के पदार्थl का 0ूल से सूक्ष्म की ओर क्रम से प्रत्यक्ष और अनुमान से ज्ञान होता है, प्रकृतित पुरुष तिववेक भी सामा&यतोदृ* अनुमान प्रमाणर्गम्य माना र्गया है। तब र्शब्द, आप्तोपदेर्श या वेद या श्रुतित प्रमाण के सिलए प्रमेय ही क्या रे्शष रहा? डॉ॰ रामर्शंकर भट्टाचाय ने संभवत इसीसिलए कहा है तिक 'अनापेत्तिक्षक दृष्टि* से ऐसा कोई भी सत पदार्थ नहीं है जो आप्तवचनामात्र र्गम्य हो। यही कारण है तिक हम समझते हैं तिक आपेत्तिक्षक दृष्टि* से ही 'तस्मादतिप चासिसद्धम्' का तात्पय लेना चातिहए, जो तिकसी पदार्थ को न दृष्टि* से न अनुमान से जान सकता है वह उसे उपदेर्श के माध्यम से जान सकता हैं।* डॉ॰ सिर्शवकुमार का मत है तिक वेदों के ज्ञानपक्ष की अस्वीकृतित का सांख्य पर आरोपण न हो सके, इससिलए तर्था सांख्याचायl के वचनों की आप्तता के सिलए या स्वर्गादिद जैसे तिवषयों के ज्ञान कराने के सिलए, तातिक उनकी वास्ततिवक स्थि0तित जानकर, लोर्ग सांख्य मार्ग का अवलम्बन कर सके, सार्थ ही सृष्टि*-प्रतिक्रया में तत्त्वोत्पत्ति. क्रम तर्था पुरुष के मुNाव0ा के स्वरूप ज्ञान के सिलए आप्त प्रमाण को स्वीकार तिकया र्गया।* डॉ॰ भट्टचाय के मत के तिवषय में इतना ही वNव्य है तिक सूत्र और कारिरका में तित्रतिव5 प्रमाणों का उल्लेख तिकया है और माना है समस्त प्रमेयों की सिसजिद्ध इनसे हो जाती है। प्रमाणों का यह उल्लेख प्रमेयों के संदभ में है न तिक प्रमाता या ज्ञाता के संदभ में। अत: जिजसे एक प्रमाण से ज्ञान नहीं होता उसे अ&य प्रमाण से ज्ञान होर्गा ऐसा भाव ग्रहण करना समीचीन नहीं है। प्रमाणों के वर्गwकरण में प्रमाताओं का वर्गwकरण ग्रहण करने का कोई संकेत यहाँ नहीं है। डॉ॰ सिर्शवकुमार का मत अष्टि5क ग्राह्य प्रतीत होता है। यदिद इतना और जोड़ दिदया जाये तिक परमात्मा का ज्ञान भी आप्तप्रमाण या वेदप्रमाणर्गम्य है तो अनुसिचत नहीं होर्गा, सार्थ ही अष्टि5क सार्थक भी होर्गा। प्रकृतित के तिवकारों का और पुरुष के प्रकृतित से त्तिभन्नत्व का ज्ञान तो अनुमान से भी सिसद्ध होता है। इसी से पुरुष के मुNस्वरूप का भी ज्ञान हो जाता है। यदिद इसमें आपत प्रमाण भी प्रयुN हो तो अनुमान से प्राप्त तिनष्कष की पुष्टि* हो जाती है। लेतिकन प्रत्यक्ष और अनुमान से भी जो सिसद्ध न हो-ऐसे प्रमेय की मा&यता की ओर संकेत करता है जो केवल र्शब्द, आप्त या वेद प्रमाणर्गम्य हो ऐसा तत्त्व परमात्मा ही है। सदसत्ख्यातितवाद

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भारतीय दर्शन में ख्यातितवाद भ्रम संबं5ी मत के सिलए प्रचसिलत हो र्गया है। भ्रम के स्वरूप के वणन भेद से ख्यातित भेद भी हैं। भ्रम के एक उदाहरण के माध्यम से तिवत्तिभन्न ख्यातित संबं5ी मतों के भेद को स्प* तिकया जा सकता है। रज्जु-सप-भ्रम का दृ*ा&त भारतीय दर्शन में बहुत प्रचसिलत है। तिकसी 0ान पर पडे़ हुए रज्जु को सप समझ लेना भ्रम है। ऐसा क्यों होता है कैसे होता है- इन प्रश्नों का उ.र तिनम्नसिलन्द्विखत रूप में दिदया जा सकता है- भ्रम0ल पर सप नहीं है तिफर भी प्रतीत हो रहा है यह असत सप है। कहीं न कहीं तो सप है सत है जिजसकी प्रतीतित हो रही है। भ्रम0ल पर स्थि0तित रज्जु अ&यर्था (सप) प्रतीत हो रही है। भ्रम0ल पर सप न तो सत है न असत है अत: अतिनवचनीय सप की प्रतीतित हो रही है। प्रतीतित सत और असत दोनों है। सांख्य दर्शन सत्कायवादी है अत: उसके अनुसार असत की प्रतीतित हो नहीं सकती है, अत: भ्रम0ल पर 'असत सप है' कहना मा&य नहीं होर्गा। सार्थ ही बा5 हो जाने पर वह सत भी नहीं है। सत और असत है और नहीं है एक सार्थ संभव नहीं है और वस्तु के बारे में इनके अतितरिरN अ&य कुछ कहा भी नहीं जा सकता है। अत: अतिनवचनीय सप की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भ्रम0ल पर जो वस्तु पड़ी है उसके 0ान पर अ&य वस्तु है कहना आत्मतिवरो5ी स्थि0तित होर्गी। यह रज्जु है, यह ज्ञान भ्रम0ाल पर होता है अत: भ्रम0ल सप या ऐसा नहीं कहा जा सकता अत: सांख्य मत में सत और असत दोनों का एक सार्थ मानना ही संभव प्रतीत होता है। सांख्य सूत्र कहता है- सदसत्ख्यातितबा5ाबा5ात्।* भ्रम0ल पर वस्त्फरूपता का बा5 नहीं होता लेतिकन वस्तुतिवर्शेष का बा5 भी होता है, अत: बा5-अबा5 दोनों होने से सदसत्ख्यातित मा&य है। भ्रमकाल में 'अयं सप:' का ज्ञान होता है। इसमें 'इद' का ज्ञान वस्तुरूप या वस्तुस.ा का ज्ञान है- इसका बा5 नहीं होता है। सार्थ ही 'सप' का ज्ञान भी होता है जो तत्काल वास्तव में नहीं होता जिजसका बा5 हो जाता है। लेतिकन यह बा5 सप का बा5 न होकर 0ल तिवर्शेष पर सप का बो5 होता है। इस तरह सांख्यमत में सदसत्ख्यातित को स्वीकार तिकया जाता है। सांख्यकारिरका में कहा र्गया है तिक सत का ज्ञान उसके अत्य&त सूक्ष्म, दूर, समीप होने से अर्थवा अ&यमनस्कता के कारण व्यव5ान, अत्तिभभव तर्था साम्यग्रहण के कारण ही नहीं हो पाता है- रज्जु में उसकी लम्बाई, वक्राकार में पडे़ रहना आकृतित दृ*ता समानात्तिभहार होने से, तर्था अपयाप्त प्रकार्शादिद व्यव5ान से सप प्रतीत होता है। सप भी पूव में प्रत्यक्ष तिकया र्गया है और आकृतितरूप में रज्जु के सार्थ साम्य होने से स्मृतित प्रत्यक्ष को अत्तिभभूत कर लेता है। इसीसिलए सपज्ञान होता है। भ्रम की इस प्रतिक्रया को एक अ&य रीतित से भी समझा जा सकता है। रज्जु की आकृतित और लम्बाई आदिद का ज्ञान हो तो जाता है तर्थातिप उसके अ&य लक्षणों का ज्ञान नहीं होता है इससिलए भ्रम हो जाता है इस तरह अपूण ज्ञान ही भ्रम है। अपूरृण ज्ञान भी सत ही होता है, असत नहीं। इस अपूण ज्ञान में स्मृतित ज्ञान ष्टिमला दिदया जाय तो भ्रम का सदस्त रूप सामने आ जाता है। इस प्रकार सांख्यमत में सत्ख्यातितवाद भी मा&य हो सकता है। सत्ख्यातित तर्था सदसत्ख्यातित जिजस रूप में सांख्यसम्मत है- उसमें उसिNभेद तो है तर्थातिप तिवरो5 नहीं है। सांख्यमत में प्रकृतित का तिवकार रूप बुजिद्ध सत है ओर सुख-दु:ख-मोहात्मक है, पुरुष भी सत है, असंर्ग है। लेतिकन इसके अपूण ज्ञान के कारण तर्था अभेद ज्ञान के कारण चैत&य में सुख-दु:खादिद का बो5 होने लर्गता है। जब पूण ज्ञान हो जाय और भेद या तिववेकज्ञान हो जाय तब पुरुष तित्रर्गुणसंर्ग से रतिहत केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्रमेय मीमांसाप्रमेयों के बारे में तिवचार करने से पूव सत्कायवाद पर चचा अपेत्तिक्षत है। सभी दर्शन-सम्प्रदाय प्राय: सृष्टि* को काय या परिरणाम के रूप में ग्रहण करते हैं और इसके मूल कारण की खोज करते हैं। मूल कारण की खोज करने से पूव एक तथ्य तिवश्वास के रूप में होना अतिनवाय है। कारण की खोज करने से पूव कारण का अस्मिस्तत्व है, ऐसा तिवश्वास यदिद न हो तो कारण की खोज तिनरर्थक होर्गी। कारण के अस्मिस्तत्व का यह तिवश्वास प्रत्यक्ष पर आ5ृत अनुमान का ही रूप है। मृत्ति.का से घर्ट तर्था तितल से तेल का उत्पन्न होना प्रत्यक्ष सिसद्ध है। यदिद कुछ उत्पन्न हुआ है तो उत्पन्न होने से पूव उसकी कोई अव0ा अवश्य रहनी चातिहए। जिजस तरह 'घर्ट' बनने से पूव 'मृत्ति.का' घर्ट की पूवाव0ा होती है, उसी तरह हर काय की उत्पत्ति. तिकसी न तिकसी कारण से ही होनी चातिहए। यदिद काय नहीं है या असत है तो उसकी उत्पत्ति. की चचा भी तिनरर्थक होर्गी। अत: काय के सत होने या मानने पर ही कारण चचा या उत्पत्ति. चचा का औसिचत्य है। सृष्टि* के स्वरूप, लक्षण, 5म आदिद की चचा अवश्य की जा सकती है। भर्गवान कतिपल कहते हैं- नासदुत्पादो नृश्रृंर्गवत्*। मनुष्य के सींर्ग के समान असत वस्तु की उत्पत्ति. नहीं होती। सांख्य दर्शन के सत्कायवाद का यही आ5ार है। सत्कायवाद के सिसद्धा&त को सिसद्ध करने के सिलए अ&य चार हेतु सूत्रकार ने प्रस्तुत तिकया है- उपादानतिनयमात्, सवत्र सवदा सवासम्भवात्।र्शNस्य र्शक्यकरणात् तर्था कारणभावात्।* प्रत्येक काय का उपादान तिनयम होने से, सवत्र, हमेर्शा तिकसी भी एक कारण से सभी काय~ की उत्पत्ति. न होने से, तिवरे्शष र्शसिN से सम्पन्न कारण ही तिवर्शेष काय को उत्पन्न करने में सक्षम होने से तर्था काय का कारण भावात्मक होने से सत्कायवाद की सिसजिद्ध

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होती है। काय यदिद है तो वह कभी असत नहीं हो सकता। अत: काय सत है। सार्थ ही काय अपनी उत्पत्ति. से पूव तिकसी रूप में या अव0ा में असत है तब भी काय की उत्पत्ति. नहीं हो सकती। अत: काय कारण रूप में भी पूव से ही स.ावान है। मृत्ति.का से घर्ट उत्पन्न होता है, लेतिकन घर्ट की उत्पत्ति. जल से नहीं होती। तिफर मृत्ति.का के अभाव में कंुभकार घर्ट तिनमाण भी नहीं कर सकता। अत: घर्ट की उत्पत्ति. के सिलए उपादान जो घर्ट में परिरणत हो सके-होना आवश्यक तो है सार्थ ही, पद आदिद अ&य कायl के सिलए पृर्थक्-पृर्थक् उपादान की व्यव0ा है, इसीसिलए यह भी लोकप्रसिसद्ध है तिक सभी कारणों से सभी काय हमेर्शा उत्पन्न नहीं होते हैं। काय उत्पन्न करने की तिवर्शेष क्षमता होने पर ही तिवर्शेष काय सम्पन्न होते हैं। यद्यतिप मृत्ति.का से घर्ट उत्पन्न करने की तिवरे्शष क्षमता होने पर ही तिवर्शेष काय सम्पन्न होते हैं। यद्यतिप मृत्ति.का से घर्ट उत्पन्न होता है तर्थातिप पर्थरीली सूखी ष्टिमट्टी घर्ट रूप में परिरणत नहीं की जा सकती। मृत्ति.का को एक तिवर्शेष रूप से साफ करके र्गीला करने पर ही 'घर्ट' तिनमाण होर्गा। घर्ट बन जाने के बाद मृत्ति.का का नार्श नही हो जाता। मृत्ति.का ही घर्ट रूप में परिरणत होती है। अत: काय में कारण के र्गुण भी तिवद्यमान रहते हैं ऐसा मानना होर्गा। इन सभी प्रत्यक्ष तथ्यों से यह सिसद्ध होता है तिक काय उत्पत्ति. की र्शतl तर्था कारण-काय सम्बन्ध के स्वरूप के आ5ार पर काय सत है ऐसा सिसद्ध होता है। इसीसिलए सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष के तिवषयों के कारणों की खोज में काय के आ5ार पर न केवल कारण का अनुमान करते हैं वरन कारण के लक्षणों या 5म~ का अनुमान करते हैं। समस्त प्रमेयों को सांख्य दर्शन में व्यN प्रकर्ट अव्यN अप्रकर्ट तर्था 'ज्ञ' इन तीन वर्गl में बांर्टा र्गया है। तिफर व्यN तर्था अव्यN में सा5म्य की चचा करते हुए पुरुष के सार्थ उनका सा5म्य-वै5म्य भी बताया र्गया। प्रकर्ट व्यN अप्रकर्ट अव्यN तर्था 'ज्ञ' रूप में प्रमेयों का वर्गwकरण प्रमाणों की ओर भी संकेत करता है। प्रत्यक्ष के zारा व्यN, अनुमान के zारा अव्यN, तर्था 'ज्ञ' या के्षत्रज्ञ (हमारे मत में सवज्ञ परमात्मा भी) का ज्ञान र्शब्दप्रमाण zारा होता है। प्राय: तिवzान अव्यN तर्था व्यN पदों को सवत्र प्रकृतित और उसके काय के ही अर्थ में ग्रहण करते हैं। क्योंतिक अव्यN को पारिरभातिषक र्शब्द समझा जाता है प्रकृतित के अर्थ में। यह जानना रोचक होर्गा तिक समू्पण सांख्य सूत्र ग्रन्थ में केवल एक बार ही इस र्शब्द का प्रयोर्ग हुआ है।* प्र5ान और प्रकृतित का प्रयोर्ग अनेकर्श: हुआ है। जिजस सूत्र में अव्यN र्शब्द का प्रयोर्ग हुआ है वहां यह नपुसंकसिलंर्गी प्रयोर्ग है जिजसका अर्थ अप्रकर्ट है। वहां कहा र्गया है (तित्रर्गुणात्मक सिलंर्ग जो तिक प्रर्थम व्यNतत्व है) से अव्यN (अप्रकर्ट कारण) का अनुमान होता है। इससे पूव सूत्र में कहा है- 'कायात् कारणानुमानं तत्सातिहत्यम्*' इससे अव्यN का अप्रकर्ट अर्थवा कारण अर्थ ही स्प* होता है। 'तित्रर्गुणात्' पद अव्यN रूप कारण को प्रकृतित के अर्थ में ग्रहण कराने के सिलए है। सांख्यकारिरका में 'अव्यNम्' र्शब्द का प्रयोर्ग 5 0ानों पर हुआ है। जिजनमें से दूसरी दसवी तर्था चौदहवीं कारिरका में अप्रकर्ट के ही अर्थ में हुआ है। सोलहवीं कारिरका में 'तित्रर्गुणत:' र्शब्द के प्रयोर्ग से अप्रकर्ट प्रकृतित के अर्थ में, अठावनवीं कारिरका में 'पुरुषस्य तिवमोक्षार्थ' होने से अप्रकर्ट प्रकृतित के अर्थ में प्रयुN हुआ है। अत्तिभप्राय यह है तिक सूत्र/कारिरका में प्रयुN अव्यN पद अप्रकर्ट के अर्थ में हुआ है। प्रकृतित के सिलए इसका प्रयोर्ग तित्रर्गुणसाम्याव0ा के अर्थ में तिकया र्गया है। उपयुN उल्लेख का आर्शय यह बताना मात्र है तिक जहां भी अव्यN र्शब्द दिदखे, उसे सी5े प्रकृतित के अर्थ में ग्रहण न कर, अप्रकर्ट के अर्थ में ग्रहण करने पर कारिरका दर्शन की ऐसी व्याख्या संभव है जो महाभारत, र्गीता आदिद में वर्णिणंत सांख्य दर्शन के अनुरूप हो। सार्थ ही सांख्य तत्त्वों या प्रमेयों का उनके इ* प्रमाणों से सी5े संर्गतित भी स्प* हो सके। प्रत्यक्ष केवल व्यN का होता है यद्यतिप व्यN केवल प्रत्यक्ष तक सीष्टिमत नहीं है; अव्यN तो अनुमान का तिवषय है ही। इसीसिलए समस्त प्रमेयों को व्यN-अव्यN दो वर्गl में बांर्टा र्गया। इनके लक्षण इस प्रकार बताए र्गए हैं*- व्यN हेतुमत् (कारणयुN) अतिनत्य, अव्यातिप, अनेक, आत्तिश्रत, लीन होने वाला, सावयव, परतंत्र है। इसके तिवपरीत लक्षणों वाला अव्यN है अर्थात अव्यN अहेतुमत् (जिजसका कोई कारण न हो) तिनत्य व्यापी, अतिक्रय, एक, अनात्तिश्रत (अपनी सला के सिलए अ&य पर आत्तिश्रत न होना) असिलंर्ग, (लीन न होने वाला) तिनरवयव, स्वतंत्र है। व्यN के अ&य लक्षण हैं तित्रर्गुणत्व, अतिववेतिकत्व, तिवषयत्व, सामा&यत्व, अचेतनत्व और प्रसव5र्मिमंता। प्र5ान में भी ये लक्षण हैं। पुरुष उसके तिवपरीत है और समान भी। ग्यारहवीं कारिरकोN 'ततिzपरीतस्तर्थाच पुमान्' की व्याख्या-संर्गतित में प्राय: व्याख्याकार अस्प* प्रतीत होते हैं। अव्यN से पुरुष का सा5म्य –तिनरूपण करते समय व्यN के अनेक के तिवपरीत अव्यN को 'एक' कहकर पुरुष को अनेक कह दिदया। अर्थात 'एकत्व' के अतितरिरN र्शेष सभी लक्षण पुरुष पर घदिर्टत तिकए र्गए। ऐसा पुरुषबहुत्व की 0ातिपत सांख्याव5ारणा के कारण तिकया र्गया प्रतीत होता है। इससे तो माठर और र्गौडपाद भी परिरसिचत रहे होंरे्ग। लेतिकन इन दोनों व्याख्याकारों ने अव्यN के सभी लक्षणों को पुरुष पर घदिर्टत तिकया। माठर का कर्थन है- तर्था प्र5ानस5मा पुरुष:। तर्था तिह ..तिनम्मिष्क्रय एको 7 नात्तिश्रता.. र्गौडपाद का कर्थन है- अनेकं व्यNमेकमव्यNं तर्था च पुमानप्येक:। ऐसा प्रतीत होता है तिक इन दोनों व्याख्याकारों को पुरुष की एकता और बहुत्व में कोई असंर्गतित नहीं प्रतीत हुई होर्गी। ऐसा दो कारणों से हो सकता है। एक तो यह तिक एकत्व से इनका अत्तिभप्राय प्रत्येक पुरुष के अनेक ज&मों में एक बना रहना या तिफर पुरुष की दो अव0ाए ँया दो प्रकार के पुरुष तत्व को ये सांख्यसम्मत समझते हों। पहले अर्थ में र्शान्द्विब्दक खींचतान ही अष्टि5क प्रतीत होता है। जबतिक दूसरे अर्थ को स्वीकार करने पर सांख्यदर्शन का रूप वेदा&त सदृर्श ही हो जाता है तिक अव्यNाव0ा में पुरुष एक रहता है। और व्यNाव0ा में अनेक रूप प्रतीत होने लर्गता है*

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एक तीसरी संभावना कारिरकोN दर्शन के त्रेतवादी तिनरूपण का है*। यहाँ इतना ही ध्यातव्य है तिक व्यN-अव्यN सा5म्य-वै5म्य की प्रचसिलत परिरपार्टी तिनद~ष नहीं है। सांख्यात्तिभमत प्रमेयों के प्रमाण वर्ग के आ5ार पर वर्गwकरण करने के उपरा&त अब सांख्यसम्मत 25 तत्त्वों की चचा की जाएर्गी। 'सत्वरजस्तमसां साम्याव0ा प्रकृतित: प्रकृतेमहान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चत&मात्रा�युभयष्टिमजि&द्रयं, त&माते्रभ्य: 0ूलभूतातिन पुरुष इतित पचतिवंर्शतितर्गण:*' मूलप्रकृतितरतिवकृतितमहदाद्या: प्रकृतिततिवकृतय: सप्त। षोडषकस्तु तिवकारो ने प्रकृतितन तिवकृतित: पुरुष:॥*अ*ौ प्रकृतय: ॥ षोडषतिवकारा: ॥ पुरुष: ॥* सत्व, रजत् तर्था तमस की साम्याव0ा प्रकृतित है, महत, अहंकार, पञ्च&मात्राए,ँ एकादर्शेजि&द्रय, पंच0ूलभूत तर्था पुरुष ये सांख्यसम्मत पच्चीस तत्त्व हैं। प्रकृतित-पुरुष-तिववेक (भेद) कहें या व्यNकव्यNज्ञ कहें-इनमें ये पच्चीस तत्त्व ही प्रमेय कहे र्गए हैं। तित्रर्गुण की साम्याव0ा प्रकृतित है- ऐसा सांख्यकारिरका में उल्लेख नहीं ष्टिमलता। संभवत: कारिरका- रचना से पूव तक प्रकृतित की अव्यN रूप 'रु्गणसाम्य' के रूप में प्रसिसजिद्ध हो जाने के कारण कारिरकाकार को ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं रही होर्गी। यद्यतिप मूलप्रकृतित के सिलए अतिवकृतित पद के प्रयोर्ग में यह अर्थ भी तिनतिहत है। 'महाभारत' के प्रकृतित तिवषयक उल्लेखों में तर्था 'तत्त्वसमाससूत्र' में अ*प्रकृतित की मा&यता का पता चलता है। कारिरका में मूलप्रकृतित के सार्थ सात और तत्त्वों को तिवकृतित के सार्थ-सार्थ प्रकृतित कहकर मा&यता के सार्थ सामजस्य रखा र्गया है। षोडर्श तिवकारों के समूह का उल्लेख तत्त्वसमाससूत्र, महाभारत आदिद तर्था सांख्यकारिरका में उपलब्ध है। पुरुष न तो प्रकृतित (कारण) है न तिवकृतित (काय) अब इन तत्त्वों का परिरचय दिदया जा रहा है। प्रकृतिततिवज्ञानत्तिभकु्ष के अनुसार 'प्रकृ*ा कृतित: परिरणामरूपा अस्या इतित व्युत्पते:'। प्रकृतित के पयाय र्शसिN अजा, प्र5ान, अव्यN, तम, माया, अतिवद्या, ब्रह्म, अक्षर, के्षत्र हैं*। प्रकृतित को सवत्र 'तित्रर्गुणात्मक' कहा र्गया है। इसका अर्थ यह नहीं है तिक प्रकृतित नामक तत्त्व में तीन रु्गण हैं। भावार्गणेर्श इसे स्प* करते हैं तिक 'सत्त्वादिदरु्गणवती सत्त्वाद्यतितरिरNा प्रकृतितरिरतित तु न र्शङ्कनीयम्, तिक&तु र्गुण एव प्रकृतित:*....। र्गुणों की साम्याव0ा प्रकृतित की अव्यNाव0ा है। प्रकृतित तिकसी अ&य का काय या तिवकार नहीं है। इसीसिलए इसे अतिवकृतित कहा र्गया है। यह समस्त अचेतन तिवकारों का मूल उपादान है। तित्रर्गुणसाम्य की अव0ा प्रकृतित कही र्गई है। साम्याव0ा प्रकृतित की अव्यNाव0ा है। साम्य-भंर्ग या वैषम्याव0ा प्रकृतित का नार्श नहीं, व्यNो&मुखता है। व्यNाव0ा काय रूप है और अव्यNाव0ा कारण रूप है। दोनों ही अव0ाओं में अव0ाभेद के कारण वैषम्य भी है और उपादानता के कारण साम्य भी। व्यNाव्यN सा5म्य तित्ररु्गणत्व अतिववेतिकत्व, तिवषयरूपता, अचेतनत्व सामा&यत्व तर्था प्रसवात्मकता की दृष्टि* से है।* यही लक्षण व्यN पदार्थl में सवत्र पाए जाते हैं। अत: एतद्दव्ारा कारण रूप में भी इन लक्षणों का होना अनुमानर्गम्य है। सृष्टि* कायाव0ा है, इस आ5ार पर कारणाव0ा के अनुमान में पांच हेतु दिदए जाते हैं।* जर्गत के समस्त पदार्थ परिरष्टिमत या सीष्टिमत हैं अत: इस सबका कारण अपरिरष्टिमत या असीम, व्यापक होना चातिहए। समस्त पदार्थ सुख दु:ख मोहात्मक हैं। अत: इनका कारण भी तित्रर्गुणात्मक होना चातिहए। काय कारण की र्शसिN से उत्पन्न होता है अत: र्शसिNमती कारण होना चातिहए। कायकारण भेद लोक प्रसिसद्ध है। सृष्टि* कायरूप है, अत: कारण की इससे त्तिभन्न स.ा होनी चातिहए। जर्गत् के समस्त पदार्थ स्वरूपदृष्ट्या एक हैं। अत: इस नानात्व का कारण भी एक होना चातिहए। इस तरह न केवल काय से कारण की स.ा सिसद्ध होती है वरन काय के लक्षणों के ही आ5ार पर कारण के लक्षणों का भी अनुमान हो जाता है। अव्यN रूप में प्रकृतित एक है लेतिकन व्यN रूप में वह अनेक है। व्यN रूप में अनेक कहने का आर्शय यह है तिक तित्ररु्गण परस्पर तिक्रया से अनेकार्श: तत्त्वोत्पत्ति. करते हैं। अव्यN प्रकृतित एक है या अनेक-संख्यात्मक दृष्टि* से इस प्रश्न का उ.र देना संभव नहीं है। तालाब में एकत्र जल को एक कहें या अनेक? जलकण अनेक होते हुए भी तालाब में दो जल हैं, तीन जल है या असंख्य जल हैं कहना जिजतना तिवसिचत्र है उतना ही तिवसिचत्र प्रकृतित को एक या असंख्य कहना है। सार की दृष्टि* से एकरूपता अवश्य कही जा सकती है। रु्गणप्रकृतित तित्रर्गुणात्मक कही र्गई है। यदिद र्गुणों में परस्पर एकरूपता और सा5म्य हो तो तिवषम सृष्टि* संभव नहीं होर्गी, काय के कारण रु्गणात्मक होने से। लेतिकन तिवषम सृष्टि* तो प्रत्यक्ष सिसद्ध है। अत: कारणभूत र्गुणों में भी वैषम्य अनुष्टिमत है। इससिलए इस वैषम्य या वै5म्य का तिनरूपण करते हुए ईश्वरकृष्ण कहते हैं- प्रीत्यप्रीतिततिवषादात्मका: प्रकार्शप्रवृसिलतिनयमार्था:। अ&यो&यात्तिभभमवाश्रयजननष्टिमरु्थनवृ.यg रु्गणा:॥ -(कारिरका-12) प्रीतित, अप्रीतित, तिवषाद आदिद* से प्रतीत होता है तिक सूत्रकार प्रीतित-अप्रीतित के अतितरिरN अ&य लक्षणों की ओर सकेत कर रहे हैं। र्शांतित पव अध्याय 212 में तीन र्गुणों के अ&य लक्षणों को इस प्रकार बताया र्गया है-

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सम्मोहकं तमो तिवद्यात् कृष्णमज्ञानसम्भवम्। प्रीतितदु:खतिनब&द्धाg समस्तांस्त्रीनर्थो रु्गणान्॥21॥सत्त्वस्य रजसgैव तमसg तिनबो5 तान्। प्रसादो हषजाप्रीतितरसंदेहो 5ृतित: स्मृतित:॥एतान् सत्त्वरु्गणान् तिवद्यादिदमान् राजसतामसान्॥22॥कामक्रो5ौ प्रमादg लोभमोहौ भयं क्लम:। तिवषादर्शोकावरतितमानदपावनायता ॥23॥प्रव.मानं रजस्तद्भावेनानुवतते। प्रहष: प्रीतितरान&द: सुखं सर्शा&तसिचलता॥25॥करं्थसिचदुपपद्य&ते पुरुषे सास्मित्त्वका र्गुणा:। परिरदाहस्तर्था र्शोक: संतापो पूतितरक्षमा॥26॥सिलंर्गातिन रजस स्तातिन दृश्य&ते हेत्वहेतुत्तिभ:।अतिवद्यारार्गमोहौ च प्रमाद: स्तब्धता भयम्॥27॥असमृजिद्धस्तर्था दै&यं प्रमोह: स्वप्नतजि&द्रता। करं्थसिचदुपवत&ते तिवतिव5ास्तामता र्गुणा:॥28॥ इस तरह प्रीतित आदिद का अर्थ प्रीतित, हष, आन&द, सुख, र्शा&तसिचत्रता आदिद, अप्रीतित आदिद में अप्रीतित के सार्थ र्शोक स&ताप, दु:ख, काम, क्रो5, आदिद, अतिवद्या, रार्ग, मोह, तिवषाद, आदिद तिवषादादिद से ग्रहण करना चातिहए। र्गुणों के ये असंख्य रूप संसार में मनुष्य zारा ज्ञेय या अनुभूयमान हैं। इ&हें मुख्यरूप से तीन वर्गl में बांर्टा र्गया है। सत्त्व, रजस, तमस इनके नाम हैं। ये र्गुण जब तिक्रयार्शील या प्रवृ. होते हैं तब एक दूसरे के सार्थ प्रतिततिक्रया करते हुए नानातिव5 कायl को उत्पन्न करते हैं। मुख्यरूप से इन र्गुणों का स्वरूप लक्षण क्रमर्श: प्रकार्शन, प्रव.न और तिनयमन हैं। तीनों रु्गण दीपक (कपास तेल-अन्द्विग्न के मेल) की तरह काय करते हैं। इनकी काय-प्रणाली को अ&यो&य आश्रय, अ&यो&य अत्तिभभव, जनन, ष्टिमरु्थन और अ&यो&य व्यापार zारा समझाया र्गया। जैसे सत्त्व रु्गण अ&य दोनों र्गुणों को अत्तिभभूत करके अपने स्वभाव को उन पर आवृत कर देता है, उसी तरह तीनों रु्गण परस्पर आश्रय लेकर नए स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं। तीनों रु्गण परस्पर ष्टिमलकर तिकसी एक रु्गण प्र5ान वाले काय को उत्पन्न करते हैं। कभी-कभी ये रु्गण एक दूसरे की वृत्ति.यों के अनुसार काय करने लर्गते हैं। इस तरह सृष्टि* के समस्त कायl में तीनों र्गुण अतिनवायत: तिवद्यमान रहते हैं। प्रकृतित के तिवकारप्रकृतित अव्यN है। उसके व्यN होने की प्रतिक्रया र्गुणक्षोम या साम्यभंर्ग से रु्शरु होती है। न तो कारिरका में न ही सूत्रों में र्गुणक्षोभ का कहीं उल्लेख है। संभवत: बहुप्रचसिलत होने से उल्लेख आवश्यक न समझा र्गया हो। अव्यN के व्यN होने में प्रर्थम सोपान महत या बुजिद्ध तत्त्व है। महत से अहंकार, अहंकार से सोलह तिवकार, तर्था उनमें से पंचत&मात्र से पांच 0ूलभूत व्यN होते हैं। सांख्य सूत्र में 'पंचत&मात्रात्तिण उभयष्टिमजि&द्रयं' कहकर* पांच और ग्यारह तत्त्वों के दो समूह को स्वीकार तिकया है। कारिरका में भी अहंकार से सोलह तत्त्वों का समूह उत्पन्न होना बताकर उनमें से पांच से पंचभूत कहा र्गया है। लेतिकन अहंकार में 'तिzतिव5: प्रवतते सर्ग:*' कहकर षोडर्श तिवकारों को दो वर्गl में बांर्टा र्गया है। इस तरह षोडर्श तिवकारों को दो समूहों में बांर्टने का तिवरे्शष उदे्दश्य होना चातिहए। हमारे तिवचार से यह वर्गwकरण दो आ5ारों पर तिकया र्गया है। एक तो तत्त्वों के स्वरूप के आ5ार पर। स्वरूपत: पंचत&मात्र काय होने के सार्थ-सार्थ कारणरूप भी है। जबतिक एकादरे्शजि&द्रय केवल कायरूप हैं। दूसरा आ5ार उत्पत्ति. के उपादान की त्तिभन्नता। एकादर्शेजि&द्रय का प्रमुख उपादान सत्त्व रु्गण है जबतिक त&मात्र का प्रमुख उपादान तमोरु्गण है। महत या बुजिद्धप्रकृतित का प्रर्थम तिवकार महत या बुजिद्ध है। सत्त्व प्र5ान होने से यह अ&य तत्त्वों की तुलना में अष्टि5क पारदर्शw होती है। इसीसिलए पुरुष के भोर्ग-ज्ञान होनों ही बुजिद्ध zारा सम्पादिदत तिकए जाते है। तिवत्तिभन्न इजि&द्रयों के त्तिभन्न-त्तिभन्न तिवषय होने से, तिवषय तिवरे्शष तक इजि&द्रय र्शसिN के सीष्टिमत होने से, समग्र रूप से ज्ञान बुजिद्ध वृत्ति. के ही रूप में संभव है। इन &यूनतम जर्गत-ज्ञान के तिबना भोर्ग संभव नहीं है। यही कारण है तिक सवप्रर्थम काय के रूप में बुजिद्ध को स्वीकार तिकया र्गया है। सार्थ ही अव्यN से व्यN 0ूलभूत तक सूक्ष्म से 0ूल की ओर सर्ग प्रतिक्रया भी प्रत्यक्षर्गम्य दृ*ा&तों zारा 0ातिपत की जा सकती है। बीज सूक्ष्म वस्तु है और उत्पन्न वृक्ष क्रमर्श: तिवकसिसत काय है। बुजिद्ध को अध्यवसायात्मक स्वीकार तिकया है। अध्यवसाय अर्थात तिनgय करना बुजिद्ध का लक्षण है।* तिनgय ही मूल्यदृष्टि* या मूल्य-अंकन उसके र्गुणों (सत्त्वादिद) के आ5ार पर तिकया जा सकता है। तिनgय का यह मूल्यांतिकत रूप ही बुजिद्ध के काय* अर्थवा रूप* कहे जा सकते हैं। सत्त्वाष्टि5क्य तिनgय के रूप है ज्ञान, वैराग्य, 5म और ऐश्वय। तमोरु्गण प्र5ान तिनgय के रूप हैं अज्ञान, रार्ग, अनैश्वय।

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बुजिद्ध या महत एक है या अनेक इस पर सूत्र अर्थवा कारिरका में कोई स्प* तिवचार प्राप्त नहीं होता है। लेतिकन पुरुष बहुत्व के आ5ार पर बुजिद्धतत्त्व का संयोर्ग हो जाता है। बुजिद्ध और पुरुष के इस संयोर्ग के उपरा&त ही भोNा पुरुष के सिलए भोर्ग सा5न (इजि&द्रय) और भोर्ग तिवषयों की उत्पत्ति. होती है। बुजिद्ध और पुरुष का यह संयोर्ग सर्गकाल में बना ही रहता है। केवल एक ही अव0ा में, जब पुरुष केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब ही लक्ष्य पूरा हो जाने या पुरुषार्थ रूप प्रयोजन सिसद्ध हो जाने से बुजिद्ध अपने मूल कारण में लीन हो जाती है।* हमारे तिवचार से सर्गकाल में तो पुरुष और बुजिद्ध के संयोर्गहीन अव0ा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। र्शांतित पव* में यही बात कही र्गई है- पृर्थग्भूतौ प्रकृत्या तौ सम्प्रयुNौ च सवदा। यर्था मत्स्योऽजिद्भर&य: स्यात् सम्प्रयुNौ तरै्थव तौ अहंकारमहत से या महत के अन&तर अहंकार की उत्पत्ति. होती है। इसका लक्षण है अत्तिभमान।* बुजिद्ध में 'मैं-मेरा' का भाव ही अत्तिभमान है। इसका अर्थ यह होर्गा तिक अहंकार बुजिद्ध की ही एक तिवरे्शष अत्तिभव्यसिN है। अहंकार तित्ररु्गणात्मक अचेतन तत्त्व है। अत्तिभमान करना अचेतन का लक्षण नहीं हो सकता। अत्तिभमान 'मैं' की ज्ञानपूवक अव0ा है। बुजिद्ध भी अचेतन तत्त्व है। अत: उसे भी सी5े अहंकार उत्पन्न करने वाला नहीं कहा जा सकता। तर्थातिप उपादान रूप में स्वीकार तिकया जा सकता है। सांख्यसूत्रों तर्था कारिरकाओं के सभी व्याख्याकारों ने अत्तिभमान को समझने के सिलए 'मैं हँू' 'मैं कता हूँ' आदिद प्रकार के भावों को ही प्रस्तुत तिकया। श्रीर्गजानन र्शास्त्री मुसलर्गांवकर के अनुसार 'अहम् यानी मैं' की भावना को जो पैदा करता है उसे अहंकार कहा र्गया है।* इन सभी कर्थनों में 'अहम्' भाव अहंकार नामक अचेतन तत्त्व का लक्षण स्वीकार तिकया र्गया है। लेतिकन क्या वास्तव में ऐसा है? 'अहम्' भाव पुरुष का एक प्रकार का भाव है। पुरुष का स्व-अस्मिस्तत्व-बो5 ही अहंभाव है। तब इसे अचेतन का लक्षण कहना उसिचत नहीं प्रतीत होता। हमारे तिवचार से पुरुष का बुजिद्ध से संयोर्ग होने पर पुरुष को होने वाला सवप्रर्थम ज्ञान 'अहम्बो5' है। सांख्यदर्शन में 'ज्ञान' पौरुषेय बो5 तो है ही। अत: अत्तिभमान पुरुषबो5 के रूप में स्वीकार करना होर्गा। सांख्यमत में अहंकार की उत्पत्ति. बुजिद्ध से बताई र्गई है। अत: यह कहा जा सकता है तिक बुजिद्ध से चेतन पुरुष-संयोर्ग होने पर बुजिद्ध की पुरुषतिवषयक जो वृत्ति. होती है वही अत्तिभमान है। अत: अहंकार वस्तुत: बुजिद्ध ही है। दोनों में भेद उपादान भूत र्गुण सत्त्वादिद के भेद से है। सार्थ ही बुजिद्ध अचेतन है जबतिक अहंकार सिचज्जड़ रूप है। अहंकार में सिचदंर्श पुरुष का है और जडांर्श तित्रर्गुणात्मक है। पुरुष चंूतिक स्वरूपत: भोNा है अत: बुजिद्ध से संयुN होते ही उसमें भोर्गो&मुख योग्यता प्रसु्फदिर्टत होने लर्गती है जिजसके परिरणामस्वरूप ही भोर्ग सा5नभूत अ&य तत्त्वों की उत्पत्ति. आरंभ होती है। इसके परिरणाम स्वरूप अकता होते हुए भी पुरुष कता हो जाता है और अचेतन होते हुए भी सिलर्गम या बुजिद्ध चेतनावत हो जाती है।* अहंकार के जड़ांर्श से दो प्रकार की सृष्टि* होती है। प्रर्थम प्रकार तो अतिवरे्शष रूप त&मात्र सर्ग है जो तामस अहंकार से व्यN होता है और तिzतीय एकादरे्शजि&द्रय की सृष्टि* है जिजसे सास्मित्त्वक अहंकार से उत्पन्न कहा र्गया है।* राजस अहंकार से दोनों की ही उत्पत्ति. कही र्गई है। एकादर्शेजि&द्रय— पांच ज्ञानेजि&द्रयाँ, पांच कम�जि&द्रयाँ, तर्था मन ये ग्यारह इजि&द्रयाँ अहंकार से होने वाली एक प्रकार की सृष्टि* है। सांख्यकारिरका के सभी र्टीकाकारों ने इ&हें सान्तित्वक अहंकार या वैकृत अहंकार से उत्पन्न माना है, जबतिक तिवज्ञानत्तिभकु्ष न केवल मन को सान्तित्वक अहंकार तर्था अ&य दस इजि&द्रयों को राजस अहंकार से उत्पन्न माना है। उ&होंने 'एकादर्शकम्' को 'ग्यारह' के बजाये 'ग्यारहवां' के अर्थ में ग्रहण तिकया और ग्यारहवां इजि&द्रय मन को ही सास्मित्त्वक माना है।* अपने मत के समर्थन में उ&होंने भार्गवत पुराण तर्था सांख्यकारिरका दोनों को उद्धतृ तिकया है। तिवज्ञानत्तिभकु्षकृत ऐसा अर्थ न तो कारिरका सम्मत है और न ही सूत्र सम्मत। सांख्यसूत्र* में अहंकार के काय के बारे में एकादर्श पंचत&मात्र ऐसा कहा र्गया। इससे सूत्रकार की यह भावना स्प* हो जाती है तिक उनका आग्रह एकादर्श इजि&द्रयों को एक ही समूह में रखने का है। तब दस और एक के दो समूह या र्गण मानने का औसिचत्य नहीं रह जाता। तिफर, सूत्रकार ने राजस अहंकार से अ&य दस इजि&द्रयों की उत्पत्ति. कहीं नहीं दिदखाई। इजि&द्रयों के उत्पत्ति. ज्ञापक एक ही सूत्र है जिजसमें एकादर्श इजि&द्रयों की ही उत्पत्ति. बताई र्गई है। कारिरका में जो 'तैजसादुभयम्' कहा र्गया है उससे ज्ञानेजि&द्रय तर्था कम�जि&द्रय 'उभय' का अर्थ ग्रहण नहीं होता, क्योंतिक इससे पूव की कारिरका में स्प*त: तिzतिव5 सर्ग की उत्पत्ति. स्वीकार की र्गई। तिफर 'तेजसादुभयम्' सास्मित्त्वक और तामस सर्ग के बाद उल्लेख के बाद कहा र्गया है। इससे यही अर्थ तिनकलता है तिक सास्मित्त्वक और तामस अहंकार से जो तिzतिव5 सर्ग प्रवर्तितंत होते होते हैं, वे दोनों ही राजस (तेजस) से उत्पन्न होते हैं। चकु्ष, श्रोत्र, जिजह्वा (रसना) घ्राण तर्था त्वक- ये पांच ज्ञानेजि&द्रयाँ हैं। जिजनके तिवषय क्रमर्श: रूप, र्शब्द, रस, र्गन्ध तर्था स्पर्श हैं। वाक्, पात्तिण, पाद, पायु तर्था उप0- ये पांच कम�जि&द्रयाँ हैं जिजनके काय क्रमर्श: वचन, ग्रहण या पकड़ना र्गमन चलना, मलोत्सर्ग तर्था प्रजनन है। मन को ज्ञानेजि&द्रय तर्था कम�जि&द्रय दोनों ही कहा र्गया है।*

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बुजिद्ध, अहंकार तर्था एकादर्श इजि&द्रयों को करण या सा5न कहा जाता है। इनमें से बुजिद्ध अहंकार तर्था मन-इन तीनों को अ&त:करण कहा र्गया है र्शेष दस बाह्य करण हैं।* इन करणों के काय हैं आहरण (ग्रहण करना), 5ारण करना तर्था बुजिद्ध का काय प्रकासिर्शत करना है। ये त्रयोदर्श करण अपनी-अपनी स्वाभातिवक वृत्ति. के अनुसार स्वयं ही काय करते हैं। पंचत&मात्रतामस अहंकार से पंचत&मात्रों की उत्पत्ति. होती है। त&मात्र वास्तव में केवल 'है' कहे जा सकते हैं। इनमें रूपादिद तिवर्शेष लक्षण नहीं होते वरन तिवषयों की ये सूक्ष्म अव0ाए ँहैं। इससिलए इ&हें अतिवरे्शष कहा जाता है। ये पांच त&मात्र हैं र्शब्द, रूप, रस, र्गन्ध तर्था स्पर्श। इन अतिवर्शेष त&मात्रों से 0ूल भूतों की उत्पत्ति. होती है। ये 0ूल भूत इजि&द्रयग्राह्य तिवषय होते हैं। र्शब्द त&मात्र से आकार्श, रूप त&मात्र से तेज, रस से अप (जल) र्गन्ध से पृथ्वी तर्था स्पर्श त&मात्र से वायु की उत्पत्ति. होती है। उपयुN तत्त्वों में से सत्रह तत्त्वों का संघात (बुजिद्ध, अहंकार, पञ्च त&मात्र तर्था दस इजि&द्रयाँ) सूक्ष्म र्शरीर कहा जाता है। 0ूलभूत युN होने पर यह र्शरीर 0ूल र्शरीर कहलाता है। 0ूल भूत तर्था एकादर्श इजि&द्रयाँ केवल काय हैं कारण नहीं। इस प्रकार मूल प्रकृतित से लेकर पांच 0ूल भूत तक चौबीस तत्त्व प्रकृतित और उसके तिवकार है और पच्चीसवां तत्त्व पुरुष है। पुरुषसांख्य दर्शन में जड़ और चेतन दो मूल तत्त्वों को स्वीकार तिकया र्गया है। इसीसिलए तत्त्वमीमांसीय दृष्टि* से इसे zैतवादी कहा जाता है। जड़ या अचेतन तत्त्व को प्रकृतित कहा र्गया है। नाना रूपात्मक तिवषम सृष्टि* में प्रकृतित या मूल अचेतन तत्त्व को सक्षम मानते हुए भी चेतन के साष्टिन्नध्य, पे्ररणा, या साहाय्य के तिबना अचेतन स्वत: प्रवृ. होता है, ऐसा सांख्यदर्शन में नहीं माना जाता। इसीसिलए भारतीय दर्शन-परम्परा में इसे जड़वादी नहीं माना र्गया। उस चेतन तत्त्व को सांख्यदर्शन में पुरुष कहा र्गया है। र्शरीर रूपी पुर में तिनवास करने वाला तत्त्व होने से र्शरीरत्तिभन्न स.ा को पुरुष या पुमान कहा र्गया है।* सांख्य र्शास्त्रीय सातिहत्य में चेतन या आत्मा के सिलए पुरुष र्शब्द के प्रयोर्ग का आग्रह अष्टि5क देखा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है तिक सांख्यदर्शन में तिनरपेक्ष चेतना को प्रमेय रूप में स्वीकार करने में संकोच तिकया जाता है। तिबना अचेतन र्शरीर के चेतना का अनुमान संभव नहीं है। सांख्य चंूतिक मुख्य रूप से प्रत्यक्षानुमानात्तिश्रत तक मूलक दर्शन है, अत: उसकी यह तिववेचना-तिवष्टि5 उसिचत ही है। चेतना के बारे में जब भी कुछ कहा जाएर्गा; वह अचेतन की अपेक्षा से ही कहा जाएर्गा। सांख्यसूत्र और कारिरका में पुरुष के अस्मिस्तत्व में दिदए र्गए हेतुओं से यह बात स्प* हो जाती है। पुरुष या पुमान् को व्यN के समान तर्था तिवपरीत भी कहा र्गया है।* तित्रर्गुण अचेतन, तिवषय, सामा&य, तर्था प्रसव5मw के तिवपरीत पुरुष अतित्ररु्गणादिद है। पुरुष के अस्मिस्तत्व की सिसजिद्ध में हेतु इस प्रकार दिदए र्गए हैं।* संघातपरार्थत्वात्— संघात रूप समसत पदार्थ हमेर्शा अ&य के सिलए होने से वह अ&य संघात से त्तिभन्न होना चातिहए। वह चेतन पुरुष है। संसार में देखा जाता है तिक तिबस्तर, खार्ट आदिद अचेतन पदार्थl की संतिहतित स्वयं उनके सिलए नहीं बस्मिल्क अ&य के सिलए होती है। उसी प्रकार तित्रर्गुण संतिहतित, महत, अहंकार, त&मात्रादिद की संहतित भी स्वयं उनके प्रयोजन के सिलए न होकर अ&य के सिलए होती है। वह अ&य ही पुरुष कहा जाता है। तित्रर्गुणादिदतिवपययात्- वह 'अ&य' जिजसके सिलए तित्ररु्गणादिद संहतित होती है तित्रर्गुणादिद से तिवपरीत होना चातिहये। लोक में यह देखा जाता है तिक मेज, कुसw के सिलए, या तिबस्तर खार्ट के सिलए नहीं होते हैं। इनका उपयोर्ग करने वाला इनके लक्षणों के तिवपरीत ही होता है, अर्थात चेतन ही होता है। अत: अचेतन तित्रर्गुणात्मक से तिवपरीत होने से पुरुष की सिसजिद्ध होता है। अष्टि5>ानात्- अचेतन की प्रवृत्ति. के सिलए चेतन अष्टि5>ान की अपेक्षा होने से भी चेतन पुरुष की सिसजिद्ध होत है। इस तीसरे हेतु के बाद सांख्यसूत्र में हेतु समाप्त सूचक 'चेतित' को जोड़ा र्गया है (अष्टि5>ानात्)। प्रश्न उठता है तिक यदिद पुरुष के अस्मिस्तत्व की सिसजिद्ध में पांच हेतु देना अभी* र्था, तब तीन हेतुओं के बाद समान्तिप्त बो5क पदों का उपयोर्ग क्यों तिकया र्गया? सांख्यप्रज्ञा के लेखक के अनुसार इन तीनों हेतुओं में भोNृभाव तर्था कैवल्यार्थ प्रवृत्ति. अतिनवायत: तिनतिहत नहीं है। जिजस प्रकार इनकी व्याख्या प्रचसिलत है, इसमें अवश्य भोNृभाव तिनतिहत है। तब सूत्रकार को हेतु-समान्तिप्त का संकेत देना ही नहीं र्था। वास्तव में ये हेतु अतिनवायत: जीवात्मबो5क नहीं है, जबतिक र्शेष दोनों हेतु* स्प* भोNा चैत&य की सिसजिद्ध करते हैं। इस 0ल पर कारिरका व्याख्या में 'प्रज्ञाकार' परमात्मा जीवात्मा दोनों की सिसजिद्ध मानते हैं।* र्गजाननर्शास्त्री मुसलर्गांवकर तित्रर्गुणादिद तिवपययात् तर्था अष्टि5>ानाचे्चतित सूत्रों से जीवात्मा और परमात्मा दोनों की सिसजिद्ध मानते हैं।* भोNृभावात्- चेतन प्रात्तिण मात्र में भोNृभाव होने से भी भोNा जो तिक तिनत्तिgत रूप से अचेतन नहीं होता-का चेतन अस्मिस्तत्व सिसद्ध होता है। कैवल्यार्थ प्रवृ.ेg- तित्रर्गुणात्मक पदार्थ तो सुख-दु:ख मोहात्मक है। अत: भोNृभाव उनमें हो तो दु:ख-तिनवृत्ति. हेतु प्रवृत्ति. ही नहीं होर्गी। लेतिकन प्रात्तिणमात्र दु:ख-तिनवृत्ति. हेतु प्रवृ. होता है। अस्तु दु:खतिनवृत्ति. या कैवल्यप्रान्तिप्त के सिलए प्रवृत्ति. पायी जाने से भी केवल स्वरूप चेतन तत्व की सिसजिद्ध होती है।

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सांख्यकारिरका तर्था सांख्यसूत्रों के प्राय: व्याख्याकार इन पांच हेतुओं से जीवात्मा-पुरुष की स.ा की सिसजिद्ध को तिनरूतिपत करते हैं। सांख्य मत में पुरुष बहुत्व को स्वीकार तिकया जाता है* तदनुसार ज&म-मरण तर्था इजि&द्रयों की व्यव0ा प्रत्येक र्शरीर की स्वतंत्र होने के पुरुष बहुत्व की सिसजिद्ध होती है* सार्थ ही तित्रर्गुण तर्था उनके अ&यो&य प्रवृत्ति. से जो त्तिभन्न-त्तिभन्न पुरुषों में त्तिभन्न रु्गण परिरलत्तिक्षत होते हैं, इससे भी पुरुष बहुत्व का तिनरूपण होता है।* प्रचसिलत व्याख्याओं के अनुसार इस प्रसंर्ग में सांख्यकारिरका में केवल पुरुष के बहुत्व की सिसजिद्धमात्र है, उसके स्वरूप का तिनरूपण नहीं। एक ज&म, मृत्यु इजि&द्रय से युसिN (र्शरीर) के आ5ार पर एक ओर जहां पुरुष बहुत्व की सिसजिद्ध की र्गयी है, वहीं यह तिनरूपण भी स्वयमेव हो जाता है तिक पुरुष ज&म, मृत्यु और तित्रर्गुण से प्रभातिवत होता है। सांख्यमत में पुरुष और कैवल्य हेतु र्शरीरों में संसरणर्शील है। इससे उसके चैत&य स्वरूप पर आक्षेप नहीं होता* पुरुष का असंर्ग और केवल होना ही उसकी तित्रर्गुण त्तिभन्नता का द्योतक मात्र है। तित्ररु्गण के सार्थ संयुसिN में अर्थवा भोर्गापवर्गप्रवृत्ति. में चैत&य स्वरूप में तिवकृतित नहीं आ जाती। अस्तु, जिजन हेतुओं से पुरुष बहुत्व की सिसजिद्ध की र्गई उ&हें केवल बद्ध पुरुष की ही सिसजिद्ध मानना उसिचत प्रतीत नहीं होता। ईश्वरकृष्णकृत 19 वीं कारिरका में पुरुष में कैवल्य, माध्यस्थ्य सात्तिक्षत्व, द्र*ृत्व, अकतृत्व आदिद की सिसजिद्ध की र्गई है। प्रचसिलत मतानुसार यह पुरुष जिजनके बहुत्व की सिसजिद्ध 18 वीं कारिरका में की र्गई है- के ही 5मl का तिनरूपण है। यहाँ उसके मुNस्वरूप का वणन तिकया र्गया है। ऐसा संभवत: इससिलए माना जाता है, क्योंतिक केवल अकता, साक्षीभाव आदिद स्वरूप वाले पुरुष का ज&म, मृत्यु आदिद के आ5ार पर बहुत्वसिसजिद्ध असंर्गत प्रतीत होती है। प्रकृतित-पुरुष-संयोर्ग— सांख्यार्शास्त्र के प्रचसिलत व्याख्या-ग्रन्थों के अनुसार प्रकृतित और पुरुष में पंर्गु-अन्धवत संयोर्ग होता है और इस संयोर्ग से सर्गारम्भ होता है। जिजस तरह पंर्गु और अन्ध दोनों परस्परापेक्षी होकर र्ग&तव्य की ओर अग्रसर होते हैं, उसी तरह प्रकृतित और पुरुष परस्परापेक्षी होकर सर्ग~&मुख होते हैं। भोNृभाव होने से पुरुष की सर्ग~&मुखता वास्तव में भोर्गो&मुखता ही है। व्यN होना प्रकृतित की सर्ग~&मुखता है। पुरुष पंरु्ग (अतिवकारी) है अत: नानातिव5 पदार्थl का वह कता नहीं है। वह अने्ध (जो चलने वाला है) के आश्रय से संसरण करता है। प्रकृतित अन्धी है। अत: लक्ष्य (उदे्दश्य) का उसे ज्ञान नहीं होता। वह तिवकारी है, अत: पंर्गु के मार्गदर्शन में वह काय करती है। सांख्य के इस दृ*ा&त की आलोचना प्राय: यह कहकर की जाती है तिक पंर्गु और अन्ध दोनों ही चेतन है जबतिक प्रकृतित और पुरुष परस्पर तिवपरीत 5म वाले हैं। अत: दृ*ा&त अनुपयुN है। वास्तव में दृ*ा&त केवल यह बताने के सिलए दिदया र्गया है तिक पंर्गु और अन्ध की तरह प्रकृतित-पुरुष परस्परापेक्षी है। इससे अष्टि5क साम्य दिदखाना अभी* नहीं है। अत: आलोचना सार्थक नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रचसिलत मतानुसार सांख्य दर्शन में असंर्ग तित्ररु्गणातीत चैत&य स्वरूप स.ा पुरुष स्वीकाय है। यहाँ पुरुष को भोNारूप में स्वीकार तिकया र्गया है। सार्थ ही भोNृभाव के अवास्ततिवक या ष्टिमथ्या होने का संकेत भी कहीं नहीं है। सांख्यमत में तो सिचत या चैत&य में तिवषयों का अवसान ही भोर्ग है। अत: 'भोर्ग' से सिचदंर्श को अलर्ग नहीं तिकया जा सकता। तिफर भोNृत्व पुरुष के अस्मिस्तत्व में हेतु है और तिकसी अवास्ततिवक या ष्टिमथ्या लक्षण को हेतु बनाया र्गया होर्गा- ऐसा मानना भी उसिचत नहीं है। सत्कायवादी के सिलए यदिद पुरुष स्वरूपत: भोNा नहीं है तो उसमें भोNृभाव कस्थिल्पत भी नहीं तिकया जा सकता है। लेतिकन यदिद पुरुष सत्य ही भोNा है तब सांख्यदर्शन के प्रचसिलत मत पुरुष न बं5ता है न संसरण करता है न ही मुN होता है- अवश्य ही तिवचारणीय होना चातिहए। मोक्ष मीमांसादु:खों की अत्य&त तिनवृत्ति. रूप पुरुषार्थ ही तिववेक का के&द्रीय लक्ष्य है। लेतिकन इसका यह आर्शय नहीं है तिक सांख्य दर्शन संसार को केवल दु:खमय मानकर संसार से ही तिनवृत्ति. को लक्ष्य मानता हो। सुख मात्रा व तीव्रता में तिकतना भी अल्प क्यों न हो, उसे त्याज्य नहीं कहा र्गया। सार्थ ही एक तक प्र5ान दर्शन से ऐसी अपेक्षा भी नहीं को जानी चातिहए तिक वह ऐसा लक्ष्य स्वीकार करे जो कहीं प्रत्यक्ष में संकेतितत न होता है। जीवेषणा और सुख-भोर्गेच्छा तो चेतना-स्वभाव है। स्वभाव के त्यार्ग को कल्पना भी भला की जा सकती है? हां, प्राणी मात्र की दु:ख से तिनवृत्ति. हेतु व्याकुलता अवश्य प्रत्यक्ष सिसद्ध है। अत: सांख्य दर्शन में मोक्ष का अर्थ दु:ख तिनवृत्ति. ही है। इसे कुछ पाने के रूप में लेकर कुछ त्यार्गने के अर्थ में ग्रहण करना चातिहए। न तो पुरुष का प्रकृतित से संयोर्ग बन्धन है और न ही प्रकृतित-पुरुष-तिवयोर्ग मोक्ष है। जीवन के लक्ष्य या पुरुषार्थ रूप मोक्ष केवल दु:ख से मुसिN मात्र है। सांख्य मत में तित्रतिव5 दु:ख कहे र्गए हैं- आध्याम्मित्मक, आष्टि5दैतिवक तर्था आष्टि5भौतितक। आध्याम्मित्मक दु:ख दो प्रकार का है- र्शरीरिरक तर्था मानसिसक* वात, तिप., कफ की तिवषमता से उत्पन्न दु:ख र्शारीरिरक दु:ख है।*

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सांख्यकारिरका के व्याख्याकारों ने मानसिसक दुख के अ&तर्गत काम, क्रो5ादिद से उत्पन्न दु:ख, तिप्रय से तिवयोर्ग तर्था अतिप्रय से संयोर्ग आदिद के कारण उत्पन्न दु:खों को सम्मिम्मसिलत तिकया है। दु:खों के समस्त वर्गwकरण दु:ख उत्पादक कारणों के वर्गwकरण पर आ5ारिरत है अ&यर्था समस्त दु:ख तो मन के अनुभव रूप ही हैं।* सृष्टि* में पुरुष के सिलए दु:ख स्वभातिवक है। ईश्वरकृष्ण कहते हैं- तत्र जरामरणकृतं दुखं प्राप्नोतित चेतन: पुरुष:। सिलंर्गस्यातिवतिनवृ.ेस्तस्माद ्दुखं स्वभावेन॥* तत्र (सृष्टि* में) सिलंर्ग या सिलंर्ग र्शरीर या बुजिद्ध से तिनवृत्ति. पय&त पुरुष के सिलए दु:ख स्वाभातिवक है। बन्धन-जिजस अव0ा से मुसिN का लक्ष्य पुरुषार्थ है वही अव0ा बन्धना है। सांख्यमत में तिनर्तिवंवादत: दु:ख से मुसिN को लक्ष्य माना र्गया है। अत: दु:ख ही बन्धन है। पुरुष को असंर्ग, अपरिरणामी चैत&यस्वरूप कहा र्गया है। अत: ऐसे स्वरूप वाले पुरुष का दु:खी होना या बन्धन में पड़ना संभव नहीं है। दूसरी ओर दु:खों को भोNा होना भी कैवल्यार्थप्रवृत्ति. से स्प* है। तब बन्धन का स्वरूप क्या होर्गा? सांख्यमत में प्रकृतित-पुरुष-तिववेक से दु:ख तिनवृत्ति. होती है। अत: अतिववेक को ही दु:ख का ही कारण समझना होर्गा। लेतिकन तिवज्ञानत्तिभक्षु के अनुसार अतिववेक भी संयोर्ग zारा ही बन्धन का कारण बनता है।* सांख्यमत में अतिववेक का अर्थ है अभेद। अत: तिववेक का अर्थ है भेद। जीवात्मा का प्रकृतित और उसके तिवकारों से भेद न करने पर प्रकृतित के र्गुणों के प्रभावों को पुरुष अत्तिभमानवर्श स्वयं में मानने लर्गता है। अहंकार रजस प्र5ान है और रजोर्गुण दु:खात्मक। अत: पुरुष दु:ख रूप बन्धन में स्वयं को पाता है। तत्त्वसमाससूत्र में 'तित्रतिव5ो बन्ध:*' की व्याख्या में भावार्गणेर्श ने पञ्चसिर्शख के मतानुसार प्राकृतितक, वैकृतितक तर्था दत्तिक्षण-तीन प्रकार के बन्धनों का उल्लेख तिकया है। अ* प्रकृतितयों में अत्तिभमान से प्राकृतितक बन्ध होता है। प्रकृतित के तिवकारों को ही अन्ति&तम मानने पर उ&हें ही श्रेयस मानने पर वैकृतितक या वैकारिरक बन्ध होता है तर्था दान-दत्तिक्षणा देने से दत्तिक्षणा बन्ध होता है। मोक्ष अपवर्ग या कैवल्य-प्रान्तिप्त सांख्य मत में मोक्ष, अपवर्ग और कैवल्य दु:ख तिनवृत्ति. रूप ही है। जब पुरुष को यह ज्ञान हो जाता है तिक दु:ख तो रजोर्गुण का 5म है और प्रकृतित तित्रर्गुणाम्मित्मका है अत: प्रकृतित के तिवकारों में दु:ख तो रहेर्गा ही। तब वह यह भी जान लेता है तिक वह (पुरुष) न सृष्टि*कता (रु्गणकता) है, न वह स्वयं र्गुण स्वरूप है और न ही तित्रर्गुण उसके हैं* तब वह प्रकृतित और उसके तिवकारों का तर्ट0 द्र*ा होकर रह जाता है। यही मोक्ष है। प्रारब्धवर्श जब तक र्शरीर है तब तक वह संसार में रहता है। (र्शरीरपात) प्रारब्धक्षय के उपरा&त उसे आत्यन्ति&तक और ऐकान्ति&तक मुसिN की प्रान्तिप्त हो जाती है। पुरुष के भोर्ग और अपवर्ग रूपी प्रयोजन (पुरुषार्थ) की सिसजिद्ध हो जाने पर प्रकृतित उससे उपरष्टिमत हो जाती है। बन्ध-मोक्ष पुरुष का ही पुरुषों न बध्यते सवर्गतत्वात्, अतिवकारिरत्वात्, तिनम्मिष्क्रयत्वात् अकतृत्वात्। यस्मान्न बध्यते तस्मान्न मुच्यते।* बन्धाभावान्न बध्यते तिवमुच्यते नातिप संसरतित तिनम्मिष्क्रयत्वात्।* पुरुष के तिनम्मिष्क्रय, असंर्गत्व, अतिवकारिरत्व आदिद के कारण तर्था ईश्वरकृष्ण रसिचत 62 वीं कारिरका की व्याख्याओं के आ5ार पर ऐसा माना जाता है तिक पुरुष का बन्ध-मोक्ष व्यावहारिरक है, वास्तव में बन्ध-मोक्ष तो प्रकृतित का ही होता है। एक ओर भोर्ग-अपवर्ग को पुरुषार्थ कहा र्गया।* चेतना में अवसान को भोर्ग माना र्गया* यह भी कहा र्गया तिक चेतन पुरुष ही दु:ख प्राप्त करता है।* तब बन्ध-मोक्ष पुरुष का न मानना उसिचत नहीं प्रतीत होता। आचाय उदयवीर र्शास्त्री ने सतिवस्तर इस मा&यता का तिनराकरण करते हुए आत्मा या पुरुष के ही बन्ध और मोक्ष को सांख्य सम्मत माना है।* सांख्य दर्शन में ईश्वरवादसांख्य कारिरका के भाष्यों के आ5ार पर तिवzानों की यह 5ारणा बन र्गई है तिक सांख्य दर्शन तिनरीश्वरवादी ही है। यद्यतिप कारिरका पूवदर्शन या प्राचीन सांख्य को महाभारत आदिद ग्रन्थों के आ5ार पर ईश्वरवादी या परमात्मवादी मान लेने में तिवzानों को आपत्ति. नहीं होती, तर्थातिप प्रामात्तिणक दर्शन र्शास्त्र के रूप में इसे तिनरीश्वरवादी ही माना जाता है। ऐसा इससिलए तिक आ5ुतिनक तिवzान सांख्यकारिरका को ही सांख्य दर्शन की उपलब्ध प्राचीनत रचना मानते हैं और उपलब्ध भाष्य, र्टीका, वृत्ति. आदिद में कहीं भी ईश्वर (परमात्मा) का तिनरुपण प्राप्त नहीं होता। सांख्य दर्शन के बारे में सूसिचत करने वाले प्राचीन ग्रन्थों में अर्तिहंबुध्&यसंतिहता, महाभारत, भर्गवद्गीता, कतितपय उपतिनषदों आदिद में सांख्यदर्शन परमात्मवादी ही प्रतीत होता है। इसे वहां कतिपल प्रणीत दर्शन ही माना र्गया है। लेतिकन सांख्यग्रन्थ रूप में मा&य सांख्यसूत्र तर्था सांख्यकारिरका में भाष्यकारों के मतानुसार परमात्मा की स.ा स्वीकृत न होने से आ5ुतिनक तिवzानों ने सांख्यदर्शन को तिवकास के तीन चरणों में तिवभाजिजत तिकया है। तदनुसार प्राचीन सांख्य ईश्वरवादी र्था। तिzतीय चरण में वह तिनरीश्वरवादी हो र्गया जिजसके अ&तर्गत सूत्र-कारिरका सम्मिम्मसिलत है तर्था तृतीय चरण में तिवज्ञानत्तिभकु्ष ने सांख्य को पुन: प्राचीन रूप में प्रतितष्टि>त करने का प्रयास तिकया, तर्थातिप सांख्य ग्रन्थों में ईश्वर-प्रतितषे5 है- ऐसा वे भी स्वीकार करते हैं। इसीसिलए वे इस अंर्श में सांख्यदर्शन को दुबल मानते हैं। उनका मत है तिक सांख्यदर्शन में प्रौदिढवादी से व्यावहारिरक ईश्वर का ही प्रतितषे5 है।* अत: यद्यतिप तिवज्ञानत्तिभकु्ष को ईश्वरवादी माने जाने पर भी तिवज्ञानत्तिभक्षु सांख्य सूत्र में ईश्वर का ख�डन तिकया जाना स्वीकार करते हैं। लेतिकन उनके अनुसार यह ख�डन ईश्वर का ख�डन न होकर एक देर्शीयों के प्रौदिढवादी से तिकया र्गया ख�डन है। अ&यर्था 'ईश्वर सिसजिद्ध' के 0ान पर 'ईश्वराभावात्' सूत्र होता।*

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आचाय तिवज्ञानत्तिभक्षु के अनुसार तिनर्गुण अपरिरणामी चेतन तत्त्व का सृष्टि*कतृत्व मा&य नहीं, क्योंतिक इसमें कोई प्रमाण नहीं। 'अहंकाररूपो य: कता तद5ीनैव कायसिसजिद्ध: सृष्टि*संहारतिनष्पतितभवतित.. अनहंकृतसृ*त्वे तिनत्येश्वरे च प्रमाणाऽभावात् अहंकारोपाष्टि5क ब्रह्मरुद्रयो: सृष्टि*संहारकतृत्वं शु्रतितस्मृतितसिसद्धम्*' तिवज्ञानत्तिभकु्ष के उN कर्थन से तर्था सांख्यसूत्रों के ईश्वरप्रतितषे5परक अंर्शों से तिनर्गुण अपरिरणाम साक्षी चैत&य स्वरूप स.ा का तिनषे5 सिसद्ध नहीं होता, अतिपतु उसमें सृष्टि*कतृत्व का तिनषे5 सिसद्ध होता है। यह तिनषे5 भी उपादान दृष्ट्या ही है। सांख्यदर्शन में चेतना के सष्टिन्न5ान से प्रकृतित में प्रवृत्ति. को संभव माना र्गया है। उदयवीर र्शास्त्री के अनुसार सांख्यमत में प्रकृतित की पे्ररणा अर्थवा तिनयंत्रण के सिलए परमात्मा का अष्टि5>ातृत्व स्वीकृत है जीवात्मा का नहीं है।* सांख्यकारिरका के व्याख्याकारों ने भी कारिरका में ईश्वर की स.ा को तिनराकरण नहीं तिकया। यही नहीं, व्याख्याकारों ने ईश्वरकारणता की अस्वीकृतित का कारण जिजस प्रकार स्प* तिकया है उससे सांख्यमत में ईश्वर की स.ा की स्वीकृतित का संकेत ष्टिमलता है। माठर-वृत्ति. में सिलखा है- 'सांख्य वदन्ति&त। ईश्वर: कारणं न भवतित। कस्मात्? तिनर्गुणत्वात्। इमा: सरु्गणा: प्रजा:। सत्त्वरजस्तमांसिस त्रयो र्गुणा:। प्रकृतेरिरमा:समुत्पन्न: प्रजा:। यदीश्वरं कारणं स्या.तो तिनर्गुणादीश्वरा-र्तितं्रर्गुणा एव प्रजा:। न चैवम्। तस्मादीश्वर: कारणं न भवतित।* ऐसा ही र्गौडपादभाष्य, सांख्यवृत्ति., सुवणसप्ततित आदिद में भी कहा र्गया है। यहाँ सांख्य को 'ईश्वर की स.ा मा&य नहीं है' ऐसा नही कहा र्गया। सार्थ ही ईश्वर की जर्गत कारणता का तिनराकरण जिजस तरह तिकया है, वह उसके परिरणाष्टिमता के तिनषे5 से सम्बद्ध है। ईश्वर तिनर्गुण है और जर्गत तित्रर्गुणात्मक है। सांख्य की मा&यता है तिक पुरुष अतित्ररु्गण है अत: तित्रर्गुणात्मक जर्गत उसका परिरणाम या तिवकार नहीं हो सकता। उपयुN कर्थन में जिजस कारण का संकेत है वह तित्ररु्गणात्मक व्यN पदार्थ रूपी परिरणाम का उपादान रूप कारण है। तिनष्टिम. या अष्टि5>ातृत्व रूप कारण का नहीं। अत: सांख्यसूत्र अर्थवा कारिरका पर तिनरीश्वरवादी होने का मतारोपण उसिचत नहीं है। सांख्य दर्शन के आ5ुतिनक भारतीय तिवzान श्रदे्धय उदयवीर र्शास्त्री तर्था डॉ॰ र्गजाननर्शास्त्री मुसलर्गांवकर, श्री अभय कुमार मजूमदार सांख्यदर्शन की मुख्य परम्परा को सेश्वर ही मानते हैं। डॉ॰ आद्या प्रसाद ष्टिमश्र कतिपलोपदिद* सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी मानते हैं। उनके अनुसार सांख्यसूत्र के ईश्वर प्रतितषे5क सूत्रों को वे व्याख्यापेक्षया सेश्वर तिनरीश्वर दोनों संभव मानते हैं तर्थातिप ईश्वरकृष्ण की कारिरकाओं में ईश्वर-ख�डन न होने पर भी ईश्वर की स.ा की तिववेचना या मह.ा का उल्लेख न होने से उसे वे अनीश्वरवादी ही मानते हैं*। अष्टि5कांर्श तिवzान सांख्यकारिरका को तिनरीश्वरवादी मानते हैं। सांख्यसूत्र तो अवाचीन माने जाते हैं। अत: कारिरकाओं के आ5ार पर इ&हें भी तरै्थव ही माना जाता है। सांख्यकारिरका की एक अवाचीन व्याख्या सांख्यतरुवस&त के रचष्टियता मुडुम्ब नरसिसंह स्वामी सांख्य को वेदा&तीय रूप में प्रस्तुत करते हैं। सांख्यमत को वे श्रुतित से असंर्गत या तिवरो5ी नहीं मानते। तीसरी कारिरका के भाष्य में वे कहते हैं- 'प्रकृतितपुरुषौ zौ च तत्त्वष्टिमतित कतिपलमते नास्त्येव श्रुतिततिवसंवाद:पुरुष एक: सनातन: स तिनर्तिवंरे्शष: सिचतितरूप:.............पुमान् अतिवतिवN संसारभुक् संसारपालकgेतित तिzकोदिर्ट0ो वतते। संसारभुजो वयं, तत्पालका: ब्रह्मरुदे्र&द्रादय:। तिवतिवN:परम: पुमानेक एव। स आदौ सर्गमूलतिनवाहाय ज्ञानेन तिवतिवNोऽतिप इच्छया अतिवतिवNो भवतित। स एव नारायणादिदर्शब्दैरुच्यते। मुडुम्ब नरसिसंह स्वामी ने यह मत अपने भाष्य में अवश्य कहा है पर&तु वे तिकसी कारिरका में इस मत का दर्शन नहीं करा सके। डा. रामरं्शकर भट्टाचाय का मत है तिक सांख्य को सेश्वर-तिनरीश्वररूपेण तिवभN नहीं तिकया जा सकता। सांख्यदृष्टि* में अनेक प्रकार के ईश्वर हैं और प्रत्येक प्रकार में ईश्वर व्यसिNयों की संख्या अव5ारणीय नहीं है।* इस तिवरे्शष प्रकार के ईश्वर की मा&यता के होने या न होने के आ5ार पर सांख्य दर्शन को तिनरीश्वरवादी नहीं कहा जाता है। वैदिदक दर्शनों में मा&य परमात्मा या सृष्टि*कता सवव्यापी, सवा&तयामी तिनत्य स.ा रूप ईश्वर की मा&यता के न होने की 5ारणा के कारण सांख्यदर्शन को तिनरीश्वरवादी कहा जाता है। सांख्यदर्शन ईश्वरवादी है या नहीं- इस पर तिवचार करते समय कुछ प्रश्नों के उ.र के तिवषय में स्प* समा5ान और समा5ान की स्वीकृतित तर्था सहमतित आवश्यक है। वे प्रश्न और संभातिवत समा5ान इस प्रकार हैं- क्या कतिपल का दर्शन ईश्वरवादी र्था? यदिद कतिपल का दर्शन तिनर्तिवंवादत: तिनरीश्वरवादी र्था तब तो सांख्यसूत्र और कारिरकाओं की तिनरीश्वरवादी व्याख्याए ँयुसिNसंर्गत मानी जाएरं्गी। लेतिकन प्राचीन ग्रन्थों में सांख्य दर्शन का जो रूप ष्टिमलता है उससे यह स्वीकार करने के अष्टि5क और प्रबल प्रमाण हैं तिक कतिपल का दर्शन मूलत: ईश्वरवादी र्था। अत: ऐसा कोई भी ग्रन्थ जिजसे कतिपल दर्शन का ग्रन्थ माना जाता हो की व्याख्या ईश्वरवादीही होनी चातिहए। सांख्यसूत्रों में ईश्वर प्रतितषे5परक प्रसंर्गों से दो बातें सामने आती हैं। एक तो यह तिक सूत्रकार ईश्वर की सिसजिद्ध प्रमाणों zारा संभव नहीं मानते और दूसरा यह तिक ईश्वर की स.ा का ख�डन न करके

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सूत्रकार उसके सृष्टि*कतृत्व, कमफलदाता आदिद रूपों का ख�डन करते हैं। दोनों की तथ्य सांख्यसूत्र के दर्शन को तिनरीश्वरवादी तिनरूतिपत करने के सिलए सुतिनत्तिgत आ5ार नहीं है। क्या भारत के इतितहास से यह प्रमात्तिणत हो सकता है तिक कोई वैदिदक दर्शन तिनरीश्वरवादी रहा हो और तब भी सुप्रतितष्टि>त, तिवख्यात और लोकतिप्रय रहा हो? न तो प्राक् बौद्ध-जैन-काल में ऐसे दर्शन के अस्मिस्तत्व का प्रमाण है और न ही प्राचीन भारतीय समाज की प्रवृत्ति. ऐसी रही है, जहां नास्मिस्तक दर्शन लोकतिप्रय हो सकते हों। इस बात के प्रबल प्रमाण (अतिहबुध्&संतिहता, महाभारत, र्गीता, पुराण आदिद में) हैं जो यह सिसद्ध करते हैं तिक सांख्य दर्शन अत्य&त प्राचीन काल से ही सुप्रतितष्टि>त, समादृत और लोकतिप्रय दर्शन रहा है। जैन, बौद्ध आदिद अवैदिदक और तिनरीश्वरवादी दर्शन भी र्थोडे़ से समय के सिलए लोकतिप्रय होकर सिसमर्ट र्गए। अत: इतना सुप्रतितष्टि>त और लोकतिप्रय दर्शन तिनरीश्वरवादी रहा होर्गा- यह संदेहास्पद तो है सार्थ ही भारतीय समाज की प्रकृतित को देखते हुए असंभव भी लर्गता है। बौद्ध दर्शन के प्रभावकाल और उसके उपरा&त रचे र्गए दर्शन-सातिहत्य में ही प्राय: सांख्यदर्शन को तिनरीश्वरवादी रूप में ख्यातित क्यों ष्टिमली? कहीं सांख्यकारिरका का तिनरीश्वरवादी रूप में व्याख्याष्टियत होना बौद्ध प्रभाव का परिरणाम तो नहीं? आचाय उदयवीर र्शास्त्री के इस कर्थन को हम उसिचत समझते हैं तिक 'जब उन तिवचारों (बौद्ध तिवचारों) को दर्शन का रूप दिदया जाने लर्गा तब इसका अनुभव हुआ तिक मूल रूप में ईश्वर के अस्मिस्तत्व की अनावश्यकता का कोई प्राचीन आ5ार होना चातिहए। तिवचार और प्रतित>ा की दृष्टि* से सांख्यदर्शन का 0ान तिवzत्समाज में सदा मूद्ध&य रहा है, और उस समय तो वह अपने पूव प्रकार्श में तिवद्यमान र्था। बौद्ध तिवzानों का ध्यान उस ओर जाना स्वाभातिवक र्था। उ&होंने तिवचारों की दृष्टि* से सांख्य के अ&तर्गत वाषर्ग�य के सिसद्धा&तों को अपने बहुत समीप देखा। उ&होंने इसी को अपने दर्शन का प्रर्थम आ5ार बनाकर, जर्गत्सर्ग-प्रतिक्रया में ईश्वर के अस्मिस्तत्व को अनावश्यक बताकर उसे अलर्ग तिनकाल फें का तर्था वाषर्ग�य के एतत्सम्बन्धी सिसद्धा&तों को सांख्य के नाम पर प्रबल प्रयत्न के सार्थ प्रचारिरत तिकया। र्शतान्द्विब्दयों के इस प्रचार का यह परिरणाम हुआ तिक सांख्य पर तिनरीश्वरवादिदता दृढरूप में आरोतिपत कर दी र्गई और इसी सिलए सांख्यकारिरका की तिनरीश्वरवादी व्याख्याए ँही अष्टि5क प्रामात्तिणक मान ली र्गई।*' आ5ुतिनक तिवzान सांख्यकारिरका को ही सांख्यदर्शन की उपलब्ध प्राचीन प्रामात्तिणक रचना मानते हैं। सांख्यकारिरका के ही साक्ष्य से यह स्प* होता है तिक कारिरकोN दर्शन कतिपल दर्शन है। कतिपल का दर्शन जब ईश्वरवादी है तब कारिरकादर्शन तिनरीश्वरवादी क्यों मान सिलया र्गया? बौद्ध प्रभावकाल में सिलखी र्गई कारिरका व्याख्याओं से स्वतंत्र कोई व्याख्या 15 वीं र्शताब्दी तक सिलखी ही नहीं र्गई है जो उपलब्ध हो। क्या सांख्यदर्शन को ईश्वरवादी मानकर कारिरकाओं की व्याख्या करना संभव नहीं र्था? उपयुN तिवचारों के प्रकार्श में यदिद सूत्र-कारिरका पर स्वतंत्र रूप से तिवचार तिकया जाय और प्राचीन सांख्यदर्शन के उपलब्ध तिवचारों के अनुरूप उनकी व्याख्या की जाय तो इ&हें भी ईश्वरवादी तिनरूतिपत तिकया जा सकता है। इस तरह की व्याख्या के तीन प्रयासों की हमें जानकारी है। मुडुम्ब नरसिसंह स्वामी का 'सांख्यतरुवस&त' तर्था अभय कुमार मजूमदार का समीक्षात्मक ग्रन्थ 'सांख्य क&सप्र्ट आफ पसनासिलर्टी' में पुरुष के एकत्व का तिनरूपण तिकया र्गया। उनके अनुसार परमार्थत: या कारण रूप या अव्यN रूप में पुरुष एक है और व्यवहारत: कायरूप या व्यN रूप में पुरुष अनेक है। श्री मजूमदार अट्ठारहवीं कारिरकार्गत पुरुष बहुत्व की सिसजिद्ध को पुरुष बहुतत्व के बजाय 'उपाष्टि5 बहुत्व' की सिसजिद्ध मानते हैं। उनके मत में पुरुष की सिसजिद्ध सम्भव नहीं।* लेतिकन कारिरका में स्प*त: पुरुष की सिसद्ध कही र्गई है। अत: श्री मजूमदार एकत्व और बहुत्व का समायोजन यह मानकर करते हैं तिक एक ही पुरुष सत् है (जोतिक परमसत् परमपुरुष है) और उसका उपाष्टि5भेद से, या वैयNीकरण से बहुत्व है। यह ठीक है तिक बहुत्व कल्पना उपाष्टि5 या पुरिर के zारा ही होती है। लेतिकन कारिरकाकार उपाष्टि5 के बहुत्व की सिसजिद्ध न करके पुरुष (पुरिर नहीं) का बहुत्व सिसद्ध कर रहे हैं। अत: ऐसा समायोजन जिजसमें पुरुष बहुत्व पारमार्थिर्थंक न हो, सांख्यीय समायोजन नहीं कहा जा सकता। सांख्यदर्शन के ईश्वरवादी तिनरूपण का एक रूप 'तै्रतवादी' भी है। भोNा, भोग्य पे्ररिरता 'zा सुपणा आदिद सांख्यत्तिभमतानुसार ही है। यह तै्रत मौसिलक सांख्य की अपनी तिवसिर्श>ता र्थी*। आचाय उदयवीर र्शास्त्री*, डॉ॰ र्गजाननर्शास्त्री मुसलर्गांवकर* सांख्यदर्शन को तै्रतवादी मानते हैं। तै्रतवादी का स्प* संकेत हमें सांख्यसूत्रों तर्था कारिरका दोनों में ही ष्टिमलते हैं। यदिद प्राचीन सांख्य के अनुरूप इन ग्रन्थों की व्याख्या की जाए तो इनकी न केवल संर्गतित तिनरूतिपत होती अतिप तु प्रचसिलत तिवसंर्गतितयाँ भी तिनराकृत हो जाती हैं। पुरुष की अस्मिस्तत्वसिसजिद्ध में जो हेतु सांख्यसूत्रवर्णिणंत हैं, उनकी प्रचसिलत व्याख्याओं से तो हेतुओं की पुनरावृत्ति. संर्गत नहीं कही जाएर्गी। ईश्वरकृष्णकृत कारिरकाए ँचंूतिक तिवर्शाल ग्रन्थ की संके्षप में प्रस्तुतित र्थीं, वहां भी पुनरावृत्ति. असंर्गत ही कही जाएर्गी। 'संघातपरार्थत्वात्' की व्याख्या में भोNृभाव तो अ&तर्तिनतंिहत है तिफर अलर्ग से भोNृभावात् कहकर पुनरुसिN का कोई औसिचत्य नहीं। तिफर सांख्यसूत्र में तीन हेतुओं के उपरा&त प्रकरण समान्तिप्तसूचक 'चेतित' का भी कोई औसिचत्य नहीं रह जाता यदिद हम पांचों हेतुओं को जीवात्म पुरुष सा5क ही मानें। सूत्र 1/140-142 तो परमात्मा और जीवात्मा दोनों का ही तिनरूपण करते हैं। सूत्र 1/143, 144 केवल जीवात्मा का तिनरूपण करते हैं। सांख्यकारिरका में 11 वीं कारिरकोN ततिzपरीतस्तर्था च पंुमान्'य की युसिNसंर्गत व्याख्या भी दो प्रकार के चेतन तत्व या पुरुष के तिनरूपणार्थ ग्रहण करने पर ही संभव है। सांख्य दर्शन समा5ानसांख्यदर्शन एक अत्य&त प्राचीन दर्शन होने से तर्था सूत्र और कारिरका के रू्गढार्थक होने से उनकी व्याख्याओं के आ5ार पर सांख्यदर्शन की पयाप्त आलोचनाए ँकी र्गई हैं। यहाँ कुछ प्रमुख आलोचनाओं के समा5ान का सांख्यसम्मत प्रयास तिकया र्गया है।

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सांख्य का प्रमुख दोष उसका zैतवाद है। प्रकृतित और पुरुष को दो तिनता&त त्तिभन्न और स्वतंत्र तत्त्व मानना सांख्य की प्रमुख भूल है। यदिद पुरुष और प्रकृतित दो स्वतंत्र और तिनरपेक्ष तत्व हैं तो उनका तिकसी प्रकार संयोर्ग नहीं हो सकता और संयोर्ग के अभाव में सर्ग नहीं हो सकता।* क्या zैतवाद को दोष कहा जा सकता है? सृष्टि* में जहां तक मानवी बुजिद्ध के तक तिवचार-प्रणाली का के्षत्र है वहां तक &यूनतम zैत ही 0ातिपत है। सांख्यदर्शन तक बुजिद्ध और युसिNसंर्गत सिच&तन-प्रणाली है। प्रत्यक्ष से सृष्टि* में जड़ चेतन सिसद्ध होता है। सृष्टि* में व्यN जड़ चेतन परस्पर इतने त्तिभन्न हैं तिक इनमें तिकसी एक को मूल कारण मानने का कोई युसिNसंर्गत आ5ार तो हो ही नहीं सकता। हां, यह माना जा सकता है तिक जड़ और चेतन कामूल कारण अ&य कोई ऐसा तत्व हो सकता है जिजससे इन दोनों की उत्पत्ति. होती हो, जो न तो जड़ कहा जा सकता है और न चेतन। लेतिकन तब उसमें जड़ और चेतन की उत्पत्ति. का उपादान भूत कुछ अवश्य स्वीकार करना पडे़र्गा। दर्शन के अब तक के सातिहत्य में जड़ चेतन से त्तिभन्न तिकसी तीसरे तत्व की स्वीकृतित का कोई प्रमाण नहीं ष्टिमलता। सृष्टि* का मूल कारण जड़ या चेतन एक ही कारण तिकसी भी युसिN से सिसद्ध नहीं होता। हां, मान लेने की बात अलर्ग है। मूल कारण यदिद बुजिद्ध की तक प्रणाली से परे का तिवषय है और उसे केवल मान लेना ही संभव है तब प्रत्यक्षानुमान से र्गम्य आ5ार पर तदनुसार मानना ही युसिN संर्गत है। जड़ से चेतन या चेतन से जड़ की उत्पत्ति. अकल्पनीय है। अत: जड़ चेतन zैतवाद ही युसिNसंर्गत है। यह दोष लेर्शमात्र भी नहीं है। प्रकृतित और पुरुष दो सवर्था त्तिभन्न और स्वंतत्र तत्व हैं- ऐसा मानने पर उनमें संयोर्ग संभव नहीं है, इस प्रकार की आलोचना भी सांख्यमत को सही रूप में न समझ पाने के कारण ही है। सांख्यमत में प्रकृतित और पुरुष अपनी स.ा के सिलए परस्परात्तिश्रत नहीं है। न प्रकृतित पुरुष को उत्पन्न करती है ओर न पुरुष प्रकृतित को। स.ा की दृष्टि* से स्वंतत्र और त्तिभन्न होने हुए भी ये प्रर्थक नहीं रहते। ये दोनों तत्त्व परस्पर असंयुN रहते हैं- ऐसा सांख्य कभी नहीं कहता। अत: संयोर्ग संभव है या नहीं- ऐसा प्रश्न ही तिनमूल है। संयोर्ग तो है। जब संयोर्ग है तो तिनgय ही प्रकृतित और पुरुष में इसकी योग्यता भी है। अत्तिभव्यसिN के सिलए दोनों तत्त्व परस्परापेक्षी हैं- यह सांख्य का स्प* मत है। डॉ॰ च&द्र5र र्शमा सिलखते हैं तिक प्रकृतित अचेतन है और पुरुष उदासीन है और इन दोनों को ष्टिमलाने वाला कोई तत्त्व नहीं है। अत: दोनों का ष्टिमलन असम्भव है। इस प्रकार की आलोचना प्रकृतित-पुरुष के अ&य लक्षणों को अनदेखा करके ही की जा सकती है। पुरुष में भोNृभाव और कैवल्यार्थप्रवृ.् को सांख्यमत में स्वीकार तिकया र्गया है। अत: पुरुष की उदासीनता को तिवरे्शष अर्थ में ही समझना होर्गा। उदासीनता का पुरुष में उल्लेख कतृत्व तिनषे5परक है*। डॉ॰ मुसलर्गांवकर ने ठीक ही कहा है-'सूत्रकार ने आत्मा को उदासीन अर्थात् अकता कहकर उसके अपरिरणाष्टिमत्वरूप है अद्र*ृत्वरूप नहीं*'। सांख्य को तिनरीश्वर मानने पर संयोर्ग का कारण पुरुष के भोNृस्वरूप तर्था प्रकृतित का तिवषयरूप होना बताया जा सकता है। प्राचीन प्रमाणों से यह स्प* है तिक सांख्यमत में पुरुष (जीवात्मचेतना) प्रकृतित में संयोर्ग हेतु तीसरा तत्त्व मा&य है। दोनों स्थि0तितयों में प्रकृतित-पुरुष-संयोर्ग तो है। इनके क्रमर्श: अचेतन तर्था उदासीनता के सार्थ जो अ&य लक्षण बताये र्गये हैं। उनसे इनके ष्टिमलन की संभावना स्प* है। सांख्य ने प्रकृतित में कतृत्व तर्था पुरुष में भोNृत्व का आरोप करके कमवाद को ठुकरा दिदया है और कृतनार्श और अकृतार्गम के दोषों को तिनम&त्रण दिदया है।* इस आलोचना का आ5ार सांख्य पर असांख्यीय मतारोपण ही हो सकता है। प्रकृतित में जिजस कतृत्व को सांख्यदर्शन में स्वीकार तिकया र्गया है वह नानावष्टि5 अनेकरूप व्यN का कतृत्व है। प्रकृतित तित्रर्गुणात्मक है। तीनों र्गुणों के परस्पर संघात की अनेकतिव5ता के कारण सृष्टि* में भी अनेकता, तिवषमता है। इस अनेकता और तिवषमता का कारण तित्रर्गुण है। पुरुष चंूतिक अतित्ररु्गण और अपरिरणामी अतिवकारी है अत: तिवषमता या अनेकता का वह उपादान नहीं बन सकता। पुरुष अचेतन सृष्टि* का प्रयोNा है। प्रयुक्त्यनुसार भोर्ग है। अतिववेकवर्श वह प्रकृतित-कतृत्व को अपना कतृत्व मान बैठता है। इससिलए दु:ख भोर्गता है। वास्तव में पुरुष का भोर्ग प्रकृतित के कतृत्व के कारण नहीं वरन स्वयं पुरुष के भोNृस्वरूप के कारण है। अत: कमवाद का उल्लंघन सांख्यदर्शन में नहीं है। तिफर; कमवाद में कम का जो रूप है वह प्रकृतित कममात्र नहीं वरन कम का पुरुष-सम्बन्धरूप है। इस सम्बन्ध के zारा ही फल का रूप भी तिन5ारिरत होता है। अत: कृतनार्श और अकृतार्गत की प्रससिN ही नहीं होती। सांख्यदर्शन की एक भूल की चचा करते हुए डॉ॰ र्शमा कहते हैं- सांख्य तिवरु्शद्ध चैत&य स्वरूप पुरुष में तर्था अ&त:करण प्रतिततिबम्मिम्बत चैत&य रूप जीव में भेद नहीं करता। बन्धन, संसरण और मोक्ष जीवों के होते हैं, तिक&तु सांख्य पुरुष और जीव के भेद को भूलकर पुरुष को अनेक मानता है। साक्षी और तिनर्तिवंकार पुरुष में भोNृत्व की कल्पना करता है। तिनत्य पुरुष को ज&म मरणर्शील मानता है।* इस प्रसंर्ग में भी सांख्यदर्शन में भूल या दोष नहीं है। जीव और पुरुष में भेद तो है, लेतिकन यह भेद अस्मिस्तत्वभेद नहीं है। तिबना पुरुषसंयुसिN प्रतिततिबम्बन या सष्टिन्नष्टि5 के जीव की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। केवल अ&त:करणोपाष्टि5 जीव नहीं कहा जाता। संसरण आदिद में अ&त:करणादिद तो वाहन रूप सा5न है। संसरण तो पुरुष ही का होता है। पुरुष के तिनत्य तिनर्तिवंकार होने में और संसरणर्शील होने में कोई तिवरो5 नहीं है। अ&त:करणयुN होने पर पुरुष तिवकृत नहीं होता। वह चैत&य स्वरूप ही रहता है। तिनत्य पुरुष के ज&ममरण का अर्थ पुरुष का उत्पत्ति.-तिवनार्श नहीं हैं। र्शरीर में व्यN होना ज&म है और ऐसा न होना अर्थात 0ूल र्शरीर अलर्ग हो जाना मृत्यु। ज&म और मृत्यु र्शरीर में प्रवेर्श करने और तिनकल जाने को कहते हैं। प्रवेर्श करने वाले तत्त्व की तिनत्यता की इसमें हातिन नहीं होती है। सांख्य दर्शन भारत के ही नहीं तिवश्व के दार्शतिनक सिच&तन के इतितहास में प्राचीनतम दर्शन है। केवल दर्शन ही नहीं ज्ञान की अ&य भारतीय तिव5ाओं पर सांख्यदर्शन का प्रचुरता से प्रभाव परिरलत्तिक्षत होता है। सांख्य के प्रकृतित, पुरुष, तिव5ाओं पर सांख्यदर्शन का

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प्रचुरता से प्रभाव परिरलत्तिक्षत होता है। सांख्य के प्रकृतित, पुरुष, तित्रर्गुण, महत आदिद पारिरभातिषक र्शब्दों का संस्कृत सातिहत्यकारों की रचनाओं में भी यर्थार्थ प्रयोर्ग दिदखता है। सांख्य जड़-चेतन-भेद से zैतवादी तर्था अजातिवनार्शी तत्त्वों के भेद से तै्रतवादी है।