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उउउउउउ / Upnishad उउउ उउ उउ उउउ उउउउउउ उउउउउउउ उउउउ उउ उउउउउउउउउउ उउउउउउ उउ उउ उउउउउउउउ उउ उउउ उउ उउ उउ उउउउउउउउ उउउउउउ उउ उउउउउउउउउ उउ उउउउउ उउउउ उउउउउउ उउउ उउ, 'उउउउउउ' उउउउउउ उउ उउउ उउ उउ उउउ उउउउ उउउ उउउउउउ उउउ उउ, उउउउउ उउ उउउ उउउउउउ- उउउ उउ उउउ उउउउ उउउउउउ उउ उउउउउउउ उउउ उउउउउउ उउउउउउ उउ उउउ उउ उउउउउ उउउउउउ उउउउउउ उउउ, उउउउउ उउ उउउ उउउउउउउउ (उउउउउउउउ, उउउउउउउउउउ, उउउउउउउउउ, उउउउउउउउउ उउउ)- उउ उउउउउउ उउउउउ उउ उउउ उउउउउउ–उउउ उउउ उउउउउउ उउउ, उउउउ उउउउ उउ उउउउउउ उउउउउउउउ उउउ उउ उउउ उउउ उउ उउउउउउ , उउउउउउउ उउ उउउउउउउउउ उउ उउउउ उउ उउउउउउ उउउउउउ उउ उउ उउउ उउ उउउउउउ उउउउ उउउउउउ उउउ उउउउ उउउउउउउ उउउउउ उउ उउउउउ उउउ उउ उउउउउउ -उउउ उउउ, उउ उउउउ उउउउउउ उउउ उउउउउउउउउ उउउ उउउउ उउउ उउउउउउ उउउउउउ उउ उउउ उउ उउ उउउउउउ -उउउउउउ उउ उउउउउउ उउउउउउ उउउ, उउउ उउ उउउउ उउउउउ उउउउउउ उउउउउउ उउउउउउ -उउउउउउउउ उउ उउउउउउ उउउ उउ उउउउउ 10 उउउ उउउउउउउउउ उउउ उउउउ उउउउउउउउ 5 उउ उउउउउउ (उउउउउउउउउउउउउउ), उउउ उउ उउउउउउउउ उउ उउउउउउ उउउ उउउउउउ-उउउउउउ उउउ उउउउउ उउउ, उउउउ उउउउ उउउ उउ 15 उउ उउउउउउउउ उउ उउउउउउ उउउउउउ उउउ, उउउउ उउउउउउ उउउउउउउउ उउउ उउउउउउउउउउउउउ उउउ उउ उउउउउउउउउ उउउउ उउ उउ उउ उउउउउ उउउ उउ उउउउ उउ उउ उउउउ उउउउउउउउउउ उउउउउउ उउ उउउउउउउउउउ उउउउउउउउउउउउ उउउउउउउउ, उउउउउ, उउउउ:उउउउउउ उउउ-उउउउ-उउउउ उउ उउउउउउउ उउउउउउउउ उउउउउ उउउउउउउ [उउउउ ] 1 उउउउउउ / Upnishad 2 उउउउउउ उउउउउ 3 उउउउउउउ 4 उउउउउउ उउउउ उउ उउउउउउउउउउउ 5 उउउउउउउउ उउउउउउ उउउउउउउउउ उउ उउउउउउ उउउ उउउउउउ 6 उउउउउउउउउ उउउउउउउउउ उउ उउउउउउ उउउ उउउउउउ 7 उउउउउउउउ उउ उउउउउउउ

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उपनि�षद / Upnishadवेद का वह भाग जि�समें निवशुद्ध रीनि� से आध्यात्मि�मक चि न्�� को ही प्रधा��ा दी गयी है और फल सम्बन्धी कम- के दृढा�ुराग को चिशचि0ल कर�ा सुझाया गया है, 'उपनि�षद' कहला�ा है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परं�ु यह बा� स्पष्ट-रूप से समझ ले�ी ानिहये निक व�:मा� में उपनि�षद संज्ञा के �ाम से जि���े ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उ�में से कुछ उपनि�षदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, �ैत्तिGरीय, छान्दोग्य आदिद)- को छोड़कर बाक़ी के सभी उपनि�षद–भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बा� �हीं है। शाखाग� उपनि�षदों में से कुछ अंश को सामयियक, सामाजि�क या वैयचिQक आवश्यक�ा के आधार पर उपनि�षद संज्ञा दे दी गयी है। इसीचिलए इ�की संख्या एवं उपलब्धिब्धयों में निवनिवध�ा यिमल�ी है। वेदों में �ो उपनि�षद-भाग हैं, वे अप�ी शाखाओं में सव:0ा अक्षुण्ण हैं। उ�को �0ा उन्हीं शाखाओं के �ाम से �ो उपनि�षद-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दो�ों को एक �हीं समझ�ा ानिहये। उपलब्ध उपनि�षद-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादिद 10 उपनि�षद �ो सव:मान्य हैं। इ�के अनि�रिरQ 5 और उपनि�षद (शे्व�ाश्व�रादिद), जि�� पर आ ाय- की टीकाए ँ�0ा प्रमाण-उद्धरण आदिद यिमल�े हैं, सव:सम्म� कहे �ा�े हैं। इ� 15 के अनि�रिरQ �ो उपनि�षद उपलब्ध हैं, उ�की शब्दग� ओ�ब्धिस्व�ा �0ा प्रनि�पाद�शैली आदिद की निवत्तिभन्न�ा हो�े पर भी यह अवश्य कहा �ा सक�ा है निक इ�का प्रनि�पाद्य ब्रह्म या आ�म�त्त्व नि�श्चयपूव:क अपौरूषेय, नि��य, स्व�:प्रमाण वेद-शब्द-राचिश से सम्बद्ध है।

उपनि�षद परिर यअ�ुक्रम[छुपा]1 उपनि�षद / Upnishad 2 उपनि�षद परिर य 3 परिरभाषा 4 उपनि�षद शब्द की व्यु�पत्तिG 5 प्रचिसद्ध भार�ीय निवद्वा�ों की दृयिष्ट में उपनि�षद 6 पाश्चा�य निवद्वा�ों की दृयिष्ट में उपनि�षद 7 उपनि�षदों के स्त्रो� और उ�की संख्या 8 उपनि�षदों का र �ाकाल 9 उपनि�षदों का प्रनि�पाद्य निवषय 10 उपनि�षदों की भाषा - शैली 11 उपनि�षदों का मह�व 12 सम्बंयिध� लिलंक

भार�ीय-संस्कृनि� की प्रा ी��म एवं अ�ुपम धरोहर के रूप में वेदों का �ाम आ�ा है। 'ॠग्वेद' निवश्व-सानिह�य की प्रा ी��म पुस्�क है। म�ीनिषयों �े 'वेद' को ईश्वरीय 'बोध' अ0वा 'ज्ञा�' के रूप में पह ा�ा है। निवद्वा�ों �े उपनि�षदों को वेदों का अन्तिन्�म भाष्य 'वेदान्�' का �ाम दिदया है। इससे पूव: वेदों के चिलए 'संनिह�ा' 'ब्राह्मण' और 'आरण्यक' �ाम भी प्रयुQ निकये �ा�े हैं। उपनि�षद ब्रह्मज्ञा� के ग्रन्थ हैं। परिरभाषाउपनि�षद शब्द 'उप' और 'नि�' उपसग: �0ा 'सद' धा�ु के संयोग से ब�ा है। 'सद' धा�ु का प्रयोग 'गनि�',अ0ा:� गम�,ज्ञा� और प्राप्� के सन्दभ: में हो�ा है। इसका अ0: यह है निक जि�स निवद्या से परब्रह्म, अ0ा:� ईश्वर का सामीप्य प्राप्� हो, उसके सा0 �ादा�म्य स्थानिप� हो,वह निवद्या 'उपनि�षद' कहला�ी है। उपनि�षद में 'सद' धा�ु के �ी� अ0: और भी हैं - निव�ाश, गनि�, अ0ा:� ज्ञा� -प्रान्तिप्� और चिशचि0ल कर�ा । इस प्रकार उपनि�षद का अ0: हुआ-'�ो ज्ञा� पाप का �ाश करे, सच्चा ज्ञा� प्राप्� कराये, आ�मा के रहस्य को समझाये �0ा अज्ञा� को चिशचि0ल करे, वह उपनि�षद है।' अष्टाध्यायी* में उपनि�षद शब्द को परोक्ष या रहस्य के अ0: में प्रयुQ निकया गया है। कौदिटल्य के अ0:शास्त्र में युद्ध के गुप्� संके�ों की ा: में 'औपनि�षद' शब्द का प्रयोग निकया गया है। इससे यह भाव प्रकट हो�ा है निक उपनि�षद का �ा�पय: रहस्यमय ज्ञा� से है। अमरकोष उपनि�षद के निवषय में कहा गया है-उपनि�षद शब्द धम: के गूढ़ रहस्यों को �ा��े के चिलए प्रयुQ हो�ा है।* उपनि�षद शब्द की वु्य�पत्तिGनिवद्वा�ों �े 'उपनि�षद' शब्द की व्यु�पत्तिG 'उप'+'नि�'+'सद' के रूप में मा�ी है। इ�का अ0: यही है निक �ो ज्ञा� व्यवधा�-रनिह� होकर नि�कट आये, �ो ज्ञा� निवचिशष्ट और समू्पण: हो �0ा �ो ज्ञा� सच्चा हो, वह नि�त्तिश्च� रूप से उपनि�षद ज्ञा� कहला�ा है। मूल भाव यही है निक जि�स ज्ञा� के द्वारा 'ब्रह्म' से साक्षा�कार निकया �ा सके, वही 'उपनि�षद' है। इसे अध्या�म-निवद्या भी कहा �ा�ा है। प्रचिसद्ध भार�ीय निवद्वा�ों की दृयिष्ट में उपनि�षदस्वामी निववेका�न्द—'मैं उपनि�षदों को पढ़�ा हूँ, �ो मेरे आंसू बह�े लग�े है। यह निक��ा महा� ज्ञा� है? हमारे चिलए यह आवश्यक है निक उपनि�षदों में सयिन्ननिह� �े�ब्धिस्व�ा को अप�े �ीव� में निवशेष रूप से धारण करें। हमें शचिQ ानिहए। शचिQ के निब�ा

काम �हीं लेगा। यह शचिQ कहां से प्राप्� हो? उपनि�षदें ही शचिQ की खा�ें हैं। उ�में ऐसी शचिQ भरी पड़ी है, �ो सम्पूण: निवश्व को बल, शौय: एवं �व�ीव� प्रदा� कर सकें । उपनि�षदें निकसी भी देश, �ानि�, म� व सम्प्रदाय का भेद निकये निब�ा हर दी�, दुब:ल, दुखी और दचिल� प्राणी को पुकार-पुकार कर कह�ी हैं- उठो, अप�े पैरों पर खडे़ हो �ाओ और बन्ध�ों को काट डालो। शारीरिरक स्वाधी��ा, मा�चिसक स्वाधी��ा, अध्यात्मि�मक स्वाधी��ा- यही उपनि�षदों का मूल मन्त्र है।' कनिव रनिवन्द्र�ा0 टैगोर–' कु्ष-सम्पन्न व्यचिQ देखेगें निक भार� का ब्रह्मज्ञा� समस्� पृचि0वी का धम: ब��े लगा है। प्रा�ः काली� सूय: की अरुत्तिणम निकरणों से पूव: दिदशा आलोनिक� हो�े लगी है। परन्�ु �ब वह सूय: मध्याह्र गग� में प्रकाचिश� होगा, �ब उस समय उसकी दीन्तिप्� से समग्र भू-मण्डल दीन्तिप्�मय हो उठेगा।' डा॰ सव:पल्ली राधाकृष्ण�–'उपनि�षदों को �ो भी मूल संस्कृ� में पढ़�ा है, वह मा�व आ�मा और परम स�य के गुह्य और पनिवत्र सम्बन्धों को उ�ागर कर�े वाले उ�के बहु� से उद्गारों के उ�कष:, काव्य और प्रबल सम्मोह� से मुग्ध हो �ा�ा है और उसमें बह�े लग�ा है।' सन्� निव�ोवा भावे— 'उपनि�षदों की मनिहमा अ�ेकों �े गायी है। निहमालय �ैसा पव:� और उपनि�षदों- �ैसी कोई पुस्�क �हीं है, परन्�ु उपनि�षद कोई साधारण पुस्�क �हीं है, वह एक दश:� है। यद्यनिप उस दश:� को शब्दों में अंनिक� कर�े का प्रय�� निकया गया है, �0ानिप शब्दों के क़दम लड़खड़ा गये हैं। केवल नि�ष्ठा के चि न्ह उभरे है। उस नि�ष्ठा के शब्दों की सहाय�ा से ह्रदय में भरकर, शब्दों को दूर हटाकर अ�ुभव निकया �ाये, �भी उपनि�षदों का बोध हो सक�ा है । मेरे �ीव� में 'गी�ा' �े 'मां का स्था� चिलया है। वह स्था� �ो उसी का है। लेनिक� मैं �ा��ा हंू निक उपनि�षद मेरी मां की भी है। उसी श्रद्धा से मेरा उपनि�षदों का म��, नि�दिदध्यास� निपछले बGीस वष- से ल रहा है।*' गोनिवन्दबल्लभ –'उपनि�षद स�ा�� दाश:नि�क ज्ञा� के मूल स्त्रो� है। वे केवल प्रखर�म बुजिद्ध का ही परिरणाम �हीं है, अनिप�ु प्रा ी� ॠनिषयों की अ�ुभूनि�यों के फल हैं।' भार�ीय म�ीनिषयों द्वारा जि���े भी दश:�ों का उल्लेख यिमल�ा है, उ� सभी में वैदिदक मन्त्रों में नि�निह� ज्ञा� का प्रादुभा:व हुआ है। सांख्य �0ा वेदान्� (उपनि�षद) में ही �हीं, �ै� और बौद्ध-दश:�ों में भी इसे देखा �ा सक�ा है। भार�ीय संस्कृनि� से उपनि�षदों का अनिवच्छि�न्न सम्बन्ध है। इ�के अध्यय� से भार�ीय संस्कृनि� के अध्यात्मि�मक स्वरूप का सच्चा ज्ञा� हमें प्राप्� हो�ा है। पाश्चा�य निवद्वा�ों की दृयिष्ट में उपनि�षदकेवल भार�ीय जि�ज्ञासुओं की ध्या� ही उपनि�षदों की ओर �हीं गया है, अ�ेक पाश्चा�य निवद्वा�ों को भी उपनि�षदों को पढ़�े और समझ�े का अवसर प्राप्� हुआ है। �भी वे इ� उपनि�षदों में चिछपे ज्ञा� के उदाG स्वरूप से प्रभानिव� हुए है। इ� उपनि�षदों की समुन्न� निव ारधारा, उदाG चि न्��, धार्मिमंक अ�ुभूनि� �0ा अध्यात्मि�मक �ग� की रहस्यमयी गूढ़ अत्तिभच्छि��Qयों से वे म�कृ� हो�े रहे हैं और मुQ कण्ठ से इ�की प्रशंसा कर�े आये हैं। अरबदेशीय निवद्वा� अलबरु�ी—'उपनि�षदों की सार-स्वरूपा 'गी�ा' भार�ीय ज्ञा� की महा��ा र �ा है।' दारा चिशकोह— 'मै�े कु़रा�, �ौरे�, इञ्जील, �ुबर आदिद ग्रन्थ पढे़। उ�में ईश्वर सम्बन्धी �ो वण:� है, उ�से म� की प्यास �हीं बुझी। �ब निहन्दुओं की ईश्वरीय पुस्�कें पढ़ीं। इ�में से उपनि�षदों का ज्ञा� ऐसा है, जि�ससे आ�मा को शाश्व� शान्तिन्� �0ा आ�न्द की प्रान्तिप्� हो�ी है। हज़र� �बी �े भी एक आय� में इन्हीं प्रा ी� रहस्यमय पुस्�कों के सम्बन्ध में संके� निकया है।*' �म:� दाश:नि�क आ0:र शोपे� हॉवर— 'मेरा दाश:नि�क म� उपनि�षदों के मूल �त्त्वों के द्वारा निवशेष रूप से प्रभानिव� है। मैं समझ�ा हूं निक उपनि�षदों के द्वारा वैदिदक-सानिह�य के सा0 परिर य हो�ा, व�:मा� श�ाब्दी का स�से बड़ा लाभ है, �ो इससे पहले निकसी भी श�ाब्दी को प्राप्� �हीं हुआ। मुझे आशा है निक ौदहवीं श�ाब्दी में ग्रीक-सानिह�य के पु��ा:गरण से यूरोपीय-सानिह�य की �ो उन्ननि� हुई 0ी, उसमें संस्कृ�-सानिह�य का प्रभाव, उसकी अपेक्षा कम फल दे�े वाला �हीं 0ा। यदिद पाठक प्रा ी� भार�ीय ज्ञा� में दीत्तिक्ष� हो सकें और गम्भीर उदार�ा के सा0 उसे ग्रहण कर सकें , �ो मैं �ो कुछ भी कह�ा ाह�ा हूं, उसे वे अ�ी �रह से समझ सकें गे उपनि�षदों में सव:त्र निक��ी सुन्दर�ा के सा0 वेदों के भाव प्रकाचिश� हैं। �ो कोई भी उपनि�षदों के फ़ारसी, लैदिट� अ�ुवाद का ध्या�पूव:क अध्यय� करेगा, वह उपनि�षदों की अ�ुपम भाव-धारा से नि�त्तिश्च� रूप से परिरचि � होगा। उसकी एक-एक पंचिQ निक��ी सुदृढ़, सुनि�र्दिदंष्ट और सुसमञ्जस अ0: प्रकट कर�ी है, इसे देखकर आंखें खुली रह �ा�ी है। प्र�येक वाक्य से अ�यन्� गम्भीर भावों का समूह और निव ारों का आवेग प्रकट हो�ा ला �ा�ा है। सम्पूण: ग्रन्थ अ�यन्� उच्च, पनिवत्र और एकान्तिन्�क अ�ुभूनि�यों से ओ�प्रो� हैं। सम्पूण: भू-मण्डल पर मूल उपनि�षदों के समा� इ��ा अयिधक फलो�पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही �हीं हैं। इन्हों�े मुझे �ीव� में शान्तिन्� प्रदा� की है और मर�े समय भी यह मुझे शान्तिन्� प्रदा� करेंगे।' शोपे� हॉवर �े आगे भी कहा— 'भार� में हमारे धम: की �डे़ कभी �हीं गड़ेंगी। मा�व-�ानि� की ‘पौरात्तिणक प्रज्ञा’ गैलीचिलयो की घट�ाओं से कभी नि�राकृ� �हीं होगी, वर� भार�ीय ज्ञा� की धारा यूरोप में प्रवानिह� होगी �0ा हमारे ज्ञा� और निव ारों में आमूल परिरव�:� ला देगी। उपनि�षदों के प्र�येक वाक्य से गह� मौचिलक और उदाG निव ार प्रसु्फदिट� हो�े हैं और सभी कुछ एक निवचि त्र, उच्च, पनिवत्र और एकाग्र भाव�ा से अ�ुप्रात्तिण� हो �ा�ा है। समस्� संसार में उपनि�षदों-�ैसा कल्याणकारी व आ�मा को उन्न� कर�े वाला कोई दूसरा ग्रन्थ �हीं है। ये सव�च्च प्रनि�भा के पुष्प हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था के आधार ब�कर रहेंगे।' शोपे� हॉवर के उपरान्� अ�ेक पाश्चा�य निवद्वा�ों �े उपनि�षदों पर गह� निव ार निकया और उ�की मनिहमा को गाया। इमस:�— 'पाश्चा�य निव ार नि�श्चय ही वेदान्� के द्वारा अ�ुप्रात्तिण� हैं।'

मैक्समूलर— 'मृ�यु के भय से ब �े, मृ�यु के चिलए पूरी �ैयारी कर�े और स�य को �ा��े के इ�ुक जि�ज्ञासुओं के चिलए, उपनि�षदों के अनि�रिरQ कोई अन्य-माग: मेरी दृयिष्ट में �हीं है। उपनि�षदों के ज्ञा� से मुझे अप�े �ीव� के उ�कष: में भारी सहाय�ा यिमली है। मै उ�का ॠणी हूं। ये उपनि�षदें, आत्मि�मक उन्ननि� के चिलए निवश्व के समस्� धार्मिमंक सानिह�य में अ�यन्� सम्मा�ीय रहे हैं और आगे भी सदा रहेंगे। यह ज्ञा�, महा�, म�ीनिषयों की महा� प्रज्ञा का परिरणाम है। एक-�-एक दिद� भार� का यह श्रेष्ठ ज्ञा� यूरोप में प्रकाचिश� होगा और �ब हमारे ज्ञा� एवं निव ारों में महा� परिरव�:� उपच्छिस्थ� होगा।' प्रो॰ ह्यूम— 'सुकरा�, अरस्�ु, अफ़ला�ू� आदिद निक��े ही दाश:नि�क के ग्रन्थ मैं�े ध्या�पूव:क पढे़ है, परन्�ु �ैसी शान्तिन्�मयी आ�मनिवद्या मैं�े उपनि�षदों में पायी, वैसी और कहीं देख�े को �हीं यिमली।*' प्रो॰ �ी॰ आक: — 'म�ुष्य की आत्मि�मक, मा�चिसक और सामाजि�क गुब्धि�यां निकस प्रकार सुलझ सक�ी है, इसका ज्ञा� उपनि�षदों से ही यिमल सक�ा है। यह चिशक्षा इ��ी स�य, चिशव और सुन्दर है निक अन्�रा�मा की गहराई �क उसका प्रवेश हो �ा�ा है। �ब म�ुष्य सांसरिरक दुःखो और चि न्�ाओं से यिघरा हो, �ो उसे शान्तिन्� और सहारा दे�े के अमोघ साध� के रूप में उपनि�षद ही सहायक हो सQे है।*' पॉल डायस�— 'वेदान्� (उपनि�षद-दश:�) अप�े अनिवकृ� रूप में शुद्ध �ैनि�क�ा का सशQ�म आधार है। �ीव� और मृ�यु निक पीड़ाओं में सबसे बड़ी सान्�व�ा है।‘ डा॰ ए�ीबेसेंट— ‘भार�ीय उपनि�षद ज्ञा� मा�व े��ा की सव�च्च दे� है।' बेबर— 'भार�ीय उपनि�षद ईश्वरीय ज्ञा� के महा��म ग्रन्थ हैं। इ�से सच्ची आत्मि�मक शान्तिन्� प्राप्� हो�ी है। निवश्व-सानिह�य की ये अमूल्य धरोहर है।*' उपनि�षदों के स्त्रो� और उ�की संख्याप्रायः उपनि�षद वेदों के मन्त्र भाग, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ आदिद से सम्बत्मिन्ध� हैं। कनि�पय उGर वैदिदककाल के ॠनिषयों द्वारा अब्धिस्��व में आये हैं, जि��का स्व�न्त्र अब्धिस्��व है। ‘मुचिQकोपनि�षद’ में,(श्लोक संख्या 30 से 39 �क) 108 उपनि�षदों की सू ी दी गयी है। इ� 108 उपनि�षदों में से— ‘ॠग्वेद’ के 10 उपनि�षद है। ‘शुक्ल य�ुव�द‘ के 19 उपनि�षद हैं। ‘कृष्ण य�ुव�द’ के 32 उपनि�षद हैं। ‘सामवेद’ के 16 उपनि�षद हैं। ‘अ0व:वेद’ के 31 उपनि�षद हैं। ‘मुचिQकोपनि�षद’ में ारों वेदों की शाखाओं की संख्या भी दी है और प्र�येक शाखा का एक-एक उपनि�षद हो�ा ब�ाया है। इस प्रकार ारों वेदों की अ�ेक शाखाए ंहै और उ� शाखाओं की उपनि�षदें भी अ�ेक हैं। निवद्वा�ों �े ॠग्वेद की इक्कीस शाखाए,ं य�ुव�द की एक सौ �ौ शाखाए,ं सामवेद की एक हज़ार शाखाए ं�0ा अ0व:वेद की प ास हज़ार शाखाओं का उल्लेख निकया हैं। इस दृयिष्ट से �ो सभी वेदों की शाखाओं के अ�ुसार 1,180 उपनि�षदें हो�ी ानिहए, परन्�ु प्रायः 108 उपनि�षदों का उल्लेख प्राप्� हो�ा है। इ�में भी कुछ उपनि�षद �ो अ�यन्� लघु हैं। उपनि�षदों का र �ाकालउपनि�षदों के र �ाकाल के सम्बन्ध में निवद्वा�ों का एक म� �हीं है। कुछ उपनि�षदों को वेदों की मूल संनिह�ाओं का अंश मा�ा गया है। ये सवा:यिधक प्रा ी� हैं। कुछ उपनि�षद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश स्वीकार निकये गये हैं। इ�का र �ाकाल संनिह�ाओं के बाद का है। कुछ उपनि�षद स्व�न्त्र रूप से र े गये हैं। वे सभी बाद में चिलखे गये हैं। उपनि�षदों के काल-नि�ण:य के चिलए मन्त्रों को आधार मा�ा गया है। उ�में— भौगोचिलक परिरच्छिस्थनि�यां सूय:वंशी- न्द्रवंशी रा�ाओं या ॠनिषयों के �ाम और खगोलीय योगों के निववरण आदिद प्राप्� हो�े हैं। उ�के द्वारा उपनि�षदों के र �ाकाल की सम्भाव�ा अत्तिभव्यQ की �ा�ी है, परन्�ु इ�से र �ा�मक का सटीक नि�रूपण �हीं हो पा�ा; क्योंनिक भौगोचिलक परिरच्छिस्थनि�यों में जि�� �दिदयों आदिद के �ाम निग�ाये �ा�े हैं, उ�के उद्भव का काल ही नि�त्तिश्चG �हीं है। इसी प्रकार रा�ाओं और ॠनिषयों के एक-�ैसे निक��े ही �ाम बार-बार ग्रन्थों में प्रयोग निकये �ा�े हैं। वे कब और निकस युग में हुए, इसका सही आकल� ठीक प्रकार से �हीं हो पा�ा। �हां �क खगोलीय योगों के वण:� का प्रश्न है, उसे भी कुछ सीमा �क ही सुनि�त्तिश्च� मा�ा �ा सक�ा है। उपनि�षदों का प्रनि�पाद्य निवषयउपनि�षदों के रचि य�ा ॠनिष-मुनि�यों �े अप�ी अ�ुभुनि�यों के स�य से ��-कल्याण की भाव�ा को सव�परिर महत्त्व दिदया है। उ�का र �ा-कौशल अ�यन्� सह� और सरल है। यह देखकर आश्चय: हो�ा है निक इ� ॠनिषयों �े कैसे इ��े गूढ़ निवषय को, इसके निवनिवधापूण: �थ्यों को, अ�यन्� 0ोडे़ शब्दों में �0ा एक अ�यन्� सह� और सशQ भाषा में अत्तिभव्यQ निकया है। भार�ीय दश:� की ऐसी कोई धारा �हीं है, जि�सका सार �त्त्व इ� उपनि�षदों में निवद्यमा� � हो। स�य की खो� अ0वा ब्रह्म की पह ा� इ� उपनि�षदों का प्रनि�पाद्य निवषय है। �न्म और मृ�यु से पहले और बाद में हम कहां 0े और कहां �ायेंगे, इस सम्पूण: सृयिष्ट का

नि�यन्�ा कौ� है, यह रा र �ग� निकसकी इ�ा से परिर ाचिल� हो रहा है �0ा हमारा उसके सा0 क्या सम्बन्ध है— इ� सभी जि�ज्ञासाओं का शम� उपनि�षदों के द्वारा ही सम्भव हो सका है। उपनि�षदों की भाषा-शैलीउपनि�षदों की भाषा देववाणी संस्कृ� है। इस देवभाषा के सा0 भावों का बड़ी सह��ा के सा0 सामञ्जस्य हुआ है। ॠनिषयों की सह� और गह� अ�ुभुनि�यों को अत्तिभव्यQ कर�े में इस भाषा �े गागर में सागर भर�े-�ैसा काय: निकया है। उ� ॠनिषयों �े अप�े भाषा-ज्ञा� को च्छिक्लष्ट, आडम्बरपूण: अरु गूढ़ ब�ाकर अध्ये�ाओं पर 0ोप�े का निकच्छिञ्ज� भी प्रयास �हीं निकया है। उन्हों�े अप�े अ�ुभव�न्य ज्ञा� को अ�यन्� सह� रूप से, �क: सम्म�, समीक्षा�मक, क0ोपक0�, उदाहरण और समया�ुकूल उपयोग कर�े हुए, अप�े भावों को सह� ही बोधगम्य ब�ा�े का उन्हों�े प्रयास निकया है। उपनि�षदों की शैली अद्भ�ु है। यद्यनिप उन्हों�े गूढ़ रहस्यों को समझ�े की �ीव्र उ�कण्ठा और अ�ुभूनि� की गह� क्षम�ा को अत्तिभव्यQ कर�े में सह��ा का सहारा चिलया है, �0ानिप स्था�-स्था� पर सांकेनि�क रहस्या�मक�ा से पीछा छुड़ा�े में वे निववश दिदखाई पड़�े है। इसके अ�ेक कारण हो सक�े है। अ�यन्� गूढ़ ज्ञा� को सुगम ब�ा�े में भाषा सा0 छोड़ �ा�ी है। गूंगे के गुड़ की भांनि� उ�का रसास्वाद� ‘संके�’ �ो दे�ा है, पर शब्दों के य� में वे निववश हो �ा�े हैं। इसके अनि�रिरQ अध्ये�ा की अप�ी भी बुजिद्ध-सीमा हो�ी है �ो उसे ग्रहण कर�े में सहायक �हीं हो पा�ी। उपनि�षदों का मह�वउपनि�षदों में ॠनिषयों �े अप�े �ीव�-पय:न्� अ�ुभवों का नि� ोड़ डाला है। इसी कारण निवश्व सानिह�य में उपनि�षदों का मह�व सव�परिर स्वीकार निकया गया है। �ीव� के सभी निव ार और चि न्�� बेमा�ी चिसद्ध हो सक�े हैं, निकन्�ु �ीव और परमा�मा के यिमल� के चिलए निकया गया अध्यात्मि�मक चि ब्�ब कभी बेमा�ी �हीं हो सक�ा। वह शाश्व� है, स�ा�� है और �ीव� के महा��म लक्ष्य पर पहुं ा�े वाला सारचि0 है। जि�स प्रकार महाभार� में कृष्ण �े अ�ु:� के चिलए सारचि0 का काय: सम्पन्न निकया 0ा, उसी प्रकार ��-�� के चिलए उपनि�षदों �े यह महा� का काय: सम्पन्न निकया है। वह आलोक है, �ो समस्� मा�व�ा के अज्ञा�पूण: अन्धकार को दूर कर�े के चिलए ॠनिषयों द्वारा अव�रिर� कराया गया है। इसीचिलए उपनि�षदों का मह�व, सव:-कल्याण का श्रेष्ठ�म प्र�ीक है।

RIGVED KE UPANISHADऐ�रेयोपनि�षददूसरे ऋग्वेदीय आरण्यक के ौ0े, पां वें और छठे अध्याय में 'ब्रह्मनिवद्या' का प्रमुख रूप से उल्लेख यिमल�ा है। इसीचिलए इसे 'ऐ�रेयोपनि�षद' की मान्य�ा दी गयी है। इसमें �ी� अध्याय हैं। प्र0म अध्यायइस उपनि�षद के प्र0म अध्याय में �ी� खण्ड हैं पहले खण्ड में सृयिष्ट का �न्म, दूसरे खण्ड में मा�व-शरीर की उ�पत्तिG और �ीसरे खण्ड में उपास्य देवों की क्षुधा-�ृन्तिप्� के चिलए अन्न के उ�पाद� का वण:� निकया गया है। प्र0म खण्ड / सृयिष्ट की उ�पत्तिGप्र0म खण्ड में ऋनिष कह�ा है निक सृयिष्ट के आरम्भ में एकमात्र 'आ�मा' का निवराट ज्योनि�म:य स्वरूप निवद्यमा� 0ा। �ब उस आ�मा �े निव ार निकया निक सृयिष्ट का सृ�� निकया �ाये और निवत्तिभन्न लोक ब�ाये �ायें �0ा उ�के लोकपाल नि�त्तिश्च� निकये �ायें। [1] ऐसा निव ार कर आ�मा �े 'अम्भ', 'मरीचि ', 'मर' और 'आप : ' लोकों की र �ा की। दु्यलोक से परे स्वग: की प्रनि�ष्ठा रख�े वाले लोक को 'अम्भ' कहा गया। मरीचि को अन्�रिरक्ष, अ0ा:� प्रकाश लोक (दु्यलोक) कहा गया, पृचि0वी लोक को मर, अ0ा:� मृ�युलोक �ाम दिदया गया,

पृचि0वी के �ी े �लीय गभ: को पा�ाललोक (आप:) कहा गया।अ�ुक्रम[छुपा]1 ऐ�रेयोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 प्र0म खण्ड / सृयिष्ट की उ�पत्तिG 4 निद्व�ीय खण्ड / मा�व - शरीर की उ�पत्तिG 5 �ृ�ीय खण्ड / अन्न की उ�पत्तिG 6 निद्व�ीय अध्याय 7 म�ुष्य के �ी� �न्म 8 �ृ�ीय अध्याय 9 आ�मा का स्वरूप

10 टीका दिटप्पणी और संदभ: 11 सम्बंयिध� लिलंक

ॠग्वेद में आप: को सृयिष्ट के मूल निक्रयाशील प्रवाह के रूप में व्यQ निकया है। वही निहरण्यगभ: रूप है। इस निहरण्यगभ: रूप में ब्रह्म का संकल्प बी� पककर निवश्व-रूप ब��ा है। इसी निहरण्यगभ: से निवराट पुरुष एवं उसकी इजिन्द्रयों की उ�पत्तिG हो�ी है और उसकी इजिन्द्रयों से देव�ाओं का सृ�� हो�ा है। यही �ीव� का निवकास-क्रम है। वेद निहरण्यगभ: रूप को पृचि0वी और दु्यलोक का आधार स्वीकार कर�े हैं- यह निहरण्यगभ: रूप ही 'आप:' के मध्य से �न्म ले�ा है। अ�: सृयिष्ट का आधारभू� हव्य है। [2] लोकों की र �ा कर�े के उपरान्� परमा�मा �े लोकपालों का सृ�� कर�े की इ�ा से आप: (�लीय गभ:) से 'निहरण्य पुरुष' का सृ�� निकया। सव:प्र0म निहरण्यगभ: से अण्डे के रूप का एक मुख प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से 'अग्निग्�' उ�पन्न हुई। �दुपरान्� �ाक के चिछद्र प्रकट हुए। �ाक के चिछद्रों से 'प्राण' और प्राण से 'वायु' उ�पन्न हुई। निफर �ेत्र उ�पन्न हुए। �ेत्रों से कु्ष (देख�े की शचिQ) प्रकट हुए और क्षु से 'आदिद�य' प्रकट हुआ। निफर '�व ा', �व ा से 'रोम' और रोमों से व�स्पनि�-रूप 'औषयिधयां' प्रकट हुईं। उसके बाद 'हृदय', हृदय से 'म�, 'म� से ' न्द्र' उदिद� हुआ। �दुपरान्� �ात्तिभ, �ात्तिभ से 'अपा�' और अपा� से 'मृ�यु' का प्रादुभा:व हुआ। निफर '���ेजिन्द्रय, '���ेजिन्द्रय से 'वीय:' और वीय: से 'आप:' (�ल या सृ��शील�ा) की उ�पत्तिG हुई। यहाँ वीय: से पु�: 'आप:' की उ�पत्तिG कही गयी है। यह आप: ही सृयिष्टक�ा: का आधारभू� प्रवाह है। वीय: से सृयिष्ट का 'बी�' �ैयार हो�ा है। उसी के प्रवाह में े��ा-शचिQ पु�: आकार ग्रहण कर�े लग�ी है। सव:प्र0म यह े��ा-शचिQ निहरण्य पुरुष के रूप में साम�े आयी। इस प्रकार प्र0म खण्ड में सृयिष्ट की उ�पत्तिG और उसकी निवकास-प्रनिक्रया का बी�ारोपण अ�यन्� वैज्ञानि�क ढंग से प्रस्�ु� निकया गया है। निद्व�ीय खण्ड / मा�व-शरीर की उ�पत्तिGनिद्व�ीय खण्ड में, मा�व-शरीर की र �ा का उल्लेख निकया गया है। परमेश्वर द्वारा र े गये अग्निग्� आदिद देव�ा इस महासृयिष्ट के अ�न्� सागर में डूब�े-उ�रा�े लगे। परमा�मा �े उन्हें भूख-प्यास से मुQ कर दिदया। �ब देवों की या �ा पर परमा�मा �े मा�व-शरीर की र �ा की। यह मा�व-शरीर उ�के चिलए आश्रयस्थल ब� गया। अग्निग्�देव वाकेजिन्द्रय के माध्यम से म�ुष्य के मुख में प्रनिवष्ट हो गये। वायु �े प्राण वायु के रूप में �ाचिसका के चिछद्रों में अप�ा आश्रयस्थल ब�ा चिलया। सूय: देव�ा �े �ेत्रों में अप�ा स्था� ग्रहण निकया। दिदक्पाल, अ0ा:� दिदशाओं के स्वामी म�ुष्य के का�ों में प्रवेश कर गये। औषयिधयों व व�स्पनि�यों �े �व ा के रोमों में अप�ा स्था� ब�ा चिलया। न्द्रमा म� के रूप में हृदय में प्रनिवष्ट कर गया और मृ�यु देव�ा अपा�वायु के रूप में गुदामाग: से शरीर में प्रवेश करके �ात्तिभप्रदेश पर च्छिस्थ� हो गया �0ा �ल देव�ा वीय: के रूप में ���ेजिन्द्रयों में प्रवेश कर गये। इस प्रकार ईश्वर द्वारा उ�पन्न सृयिष्ट के सभी देव�ा और लोकपाल मा�व-शरीर पर अप�ा अयिधकार �माकर बैठ गये। ठीक उसी प्रकार, �ैसे 'निहरण्य पुरुष' से उ�का �न्म हुआ 0ा, मा�व-शरीर में वे उन्हीं स्था�ों पर समानिवष्ट हो गये। उ�की भूख-प्यास भी उन्हीं अंगों के माध्यम से पूरी हो�े लगी। वस्�ु�: भूख-प्यास का कोई स्व�न्त्र अब्धिस्��व �हीं है। वह निवत्तिभन्न अंगों-अवयवों में च्छिस्थ� देव-शचिQयों के सा0 ही संयुQ है। �ृ�ीय खण्ड / अन्न की उ�पत्तिG�ृ�ीय खण्ड में देव�ाओं, अ0ा:� लोकपालों के चिलए अन्न की व्यवस्था कर�े का उल्लेख है। सा0 ही 'आ�मा' के मा�व-शरीर में प्रवेश का माग: ब�ाया गया है। परमा�मा �े देव�ाओं की भूख-प्यास की सन्�ुयिष्ट के चिलए अन्न की उ�पत्तिG का नि�ण:य निकया। पृचि0वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश, इ� पं महाभू�ों को पकाकर अन्न का सृ�� निकया गया। प्रारम्भ में इस अन्न को देव�ाओं �े म�ुष्य की निवत्तिभन्न इजिन्द्रयों द्वारा ग्रहण कर�े का प्रय�� निकया, परन्�ु वे इसे स्वीकार �हीं कर सके। �ब अन्� में मुख के द्वारा इसे ग्रहण कर�ा सम्भव हो सका। �भी परमा�मा को लगा निक इसमें उसका अंश कहां है। �ब ब्रह्म �े मा�व-शरीर के चिसर की कठोर सीमा को ीरकर उसमें प्रवेश निकया। उसके प्रवेश कर�े ही समू्पण: शरीर और शरीर में च्छिस्थ� सभी देवगण ै�न्य हो उठे। बालक के चिसर में �ो कोमल स्था� है, उसे ही आ�मा के प्रवेश का माग: कहा �ा�ा है। कपाल के इसी स्थल पर 'ब्रह्मरन्ध्र' का स्था� है, �हां पहुं �े के चिलए योगी योग-साध�ा कर�े हैं। इसे सहस्त्रार, अ0ा:� दल कमल भी कह�े हैं। इसे 'निवदृनि�' �ाम से भी �ा�ा �ा�ा है; क्योंनिक इस स्थल को निवदीण: करके ही परमा�मा �े अप�े प्रवेश का माग: ब�ाया 0ा। �ब मा�व-देह में उ�पन्न हुए उस �ीव �े परब्रह्म परमेश्वर का सूक्ष्म रूप पह ा�ा और कहा 'इदन्द्र' (इदम्+द=इसको मैं�े देख चिलया), अ0ा:� परमा�मा से साक्षा�कार को ही 'इदन्द्र' कहा गया। इसी का दूसरा रूप 'इन्द्र' है, अ0ा:� ऐसी अगो र वस्�ु, जि�से आंखों से देखा � �ा सके, केवल हृदय में जि�सका अ�ुभव निकया �ा सके। यह शरीर नि�त्तिश्च� रूप से परमा�मा का आवास है। इस शरीर में �ी� स्व ाचिल� �न्त्र और �ी� ग्रत्मिन्थयों में आ�मा का सीधा नि�यन्त्रण रह�ा है- मब्धिस्�ष्क में सहस्त्रार, हृदय �0ा �ात्तिभ ग्रत्मिन्थ। इन्हें ही शरीर, ब्रह्माण्ड और परम व्योम, सू्थल, सूक्ष्म �0ा पाल� का आधार मा�ा �ा सक�ा है। निद्व�ीय अध्यायनिद्व�ीय अध्याय में एक ही खण्ड है। इसमें �ीव के �ी� �न्मों का निववरण प्राप्� हो�ा है।

जि�स प्रकार पक्षी को 'निद्व�' कहा �ा�ा है, अ0ा:� दो बार �न्म ले�े वाला। एक बार वह अण्डे के रूप में मा�ा के गभ: से बाहर आ�ा है, निफर वह अण्डे से बाहर आ�ा है। ऐसे ही म�ुष्य के भी �ी� �न्म हो�े हैं। म�ुष्य के �ी� �न्मपुरुष के शरीर में च्छिस्थ� वीय: में �ो शुक्राणु हैं, वे पुरुष की �ीव�ी-शचिQ के पंु� हैं पहले पुरुष उन्हें अप�े शरीर में ही पोनिष� कर�ा है। �दुपरान्� वह उस वीय: को स्त्री के गभ: में प्रवेश करा�ा है। गभ: में प्रवेश कर�े पर �ीव का यह 'प्र0म �न्म' हो�ा है। पुरुष के गभ: में पुरुष का परिरपाक, यह उपनि�षद की दृयिष्ट है। इसे मौचिलक दृयिष्ट कहा �ा सक�ा है। स्त्री के गभ: में स्थानिप� पुरुष पुरुष का वीय:-रूप �ीवा�मा श�ै:-श�ै: पोनिष� होकर आकार ग्रहण कर�ा है। पूण: पोनिष� हो�े पर स्त्री प्रसव द्वारा बालक को �न्म दे�ी है। यह �ीव का 'दूसरा �न्म' हो�ा है। यह �ीव अप�े निप�ा के प्रनि�नि�यिध के रूप में संसार में आयु-भर अप�े सम्पूण: दायिय�वों को पूण: कर�ा है। �दुपरान्� वह वयोवृद्ध होकर, अप�े समस्� लौनिकक क�:व्यों को पूण: करके इस लोक से प्रस्था� कर�ा है। संसारी लोग इसे मृ�यु का �ाम दे�े हैं, परन्�ु उपनि�षद इसे �ीव का पु��:न्म, अ0ा:� '�ीसरा �न्म' मा��े हैं। यही बा� ऋनिष वामदेव �े कही 0ी-'मैं�े गभ: में ही देव�ाओं के �न्म रहस्य को �ा� चिलया 0ा। मैं सैकड़ों लोहे की सलाखों वाले पिपं�रे में बन्द 0ा। अब मुझे �त्त्वज्ञा� प्राप्� हो गया है। अ�: मैं बा� पक्षी की भांनि� उस पिपं�रे को भेदकर बाहर आ गया हंू।' ऋनिष वामदेव यह �त्त्वज्ञा� प्राप्� करके स्वग: में समस्� सुखों को भोग�े हुए अमर हो गये 0े। �ृ�ीय अध्याय�ृ�ीय अध्याय में उपास्य देव के स्वरूप को नि�त्तिश्च� निकया गया है। जि�स आ�मा की हम उपास�ा कर�े हैं, वह कौ� है? जि�सके द्वारा यह प्राणी देख�ा है, सु��ा है, निवनिवध ग्रन्थों को संूघ�ा है, बोल�ा है �0ा स्वाद का रसास्वाद� कर�ा है, वह आ�मा कौ� है? आ�मा का स्वरूपयह आ�मा हृदय और म� का ही रूप है। सम्यक ज्ञा�, निवज्ञा�, आदेश, �वरिर� �ा� ले�े की शचिQ, बुजिद्ध, दृयिष्ट, धैय:, म�ीषा, वेग, स्मृनि�, संकल्प-शचिQ, म�ोर0, भोग, प्राण-शचिQ, ये सभी उसी एक परमा�म-शचिQ का संज्ञा� करा�े हैं, जि�से 'आ�मा' कहा गया है। यह आ�मा ही ब्रह्म का स्वरूप है। यही इन्द्र है और प्र�ापनि� है। यही समस्� देवगण हैं और यही पं महाभू� (पृचि0वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश) हैं। यही समस्� �ड़- े�� में समानिह� है। समस्� लोक उसी के आत्तिश्र� हैं। प्रज्ञा ही उसका निवलयस्थल है। अ�: प्रज्ञा� ही ब्रह्म है। �ो व्यचिQ परमेश्वर को इस प्रकार �ा� ले�ा है, वह इस लोक से सीधे स्वग:लोक �ाकर दिदव्य भोगों को प्राप्� कर, अन्� में अमर�व प्राप्� कर�ा है। आ�मबोधोपनि�षद'ॠग्वेद' से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में दो अध्याय हैं। प्र0म अध्याय में 'ॐकार'-रूपी �ारायण की उपास�ा की गयी है। दूसरे अध्याय में आ�म साक्षा�कार प्राप्� साधकों की अध्या�म सम्बन्धी अ�ुभूनि�यों का उल्लेख है। आ�मा�ुभूनि� की इस अवस्था में समस्� लौनिकक बन्ध�ों और भेद-भावों का अब्धिस्��व समाप्� हो �ा�ा है �0ा अहम का �ाश हो�े ही साधक मोक्ष प्राप्� कर ले�ा है। प्र0म अध्यायइसमें साधक प्रा0:�ा कर�ा है-शंख, क्र एवं गदा को धारण कर�े वाले प्रभु! आप �ारायण स्वरूप हैं। आपको �मस्कार। 'ॐ �मो �ारायणाय' �ामक मन्त्र का �ाप कर�े वाला व्यचिQ प्रभु के वैकुण्ठधाम को प्राप्� कर�ा है। हमारा हृदय-रूपी कमल ही 'ब्रह्मपुर' है। यह सदैव दीपक की भांनि� प्रकाशमा� रह�ा है। कमल �ेत्र भगवा� निवष्णु ब्राह्मणों के शुभचि न्�क हैं। समस्� �ीवों में च्छिस्थ� रह�े वाले भगवा� �ारायण ही कारण-रनिह� परब्रह्म निवराट-रूप पुरुष हैं। वे प्रणव-रूप 'ॐकार' हैं। [1] भगवा� निवष्णु का ध्या� कर�े वाला, समस्� शोक-मोह से मुQ हो �ा�ा हैं। मृ�यु का भय उसे कभी �हीं स�ा�ा। हे प्रभु! जि�स लोक में सभी प्रात्तिणयों की आ�माए ंआपकी दिदव्य ज्योनि� में च्छिस्थर रह�ी हैं, आप उस लोक में मुझे भी स्था� प्रदा� करें। दूसरा अध्यायइस अध्याय में आ�म साक्षा�कार कर�े वाला साधक अहंकार से मुQ हो �ा�ा है। उसके सम्मुख �ग� और ईश्वर का भेद यिमट �ा�ा है। वह परा�पर ब्रह्म के ज्ञा�-स्वरूप को प्राप्� कर ले�ा है। वह अ�र-अमर हो �ा�ा है। वह शुद्ध, अदै्व� और आ�म��व हो �ा�ा है। आ�न्द का साक्षा� प्रनि�रूप ब� �ा�ा है-मैं पनिवत्र, अन्�रा�मा हूं �0ा मैं ही स�ा�� निवज्ञा� का पूण: रस 'आ�म�त्त्व' हूं। शोध निकया �ा�े वाला परा�पर आ�म�त्त्व हंू और मैं ही ज्ञा� एवं आ�न्द की एकमात्र मूर्ति�ं हूं।[2] वास्�व में आ�म साक्षा�कार कर ले�े वाला प्राणी संसार के समस्� प्रपं ों से मुQ हो �ा�ा है। निवषय-वास�ाओं की उसे इ�ा �ही रह�ी। निवष और अमृ� को देखकर वह निवष का परिर�याग कर दे�ा है। परमा�मा का साक्षी हो �ा�े के उपरान्�, शरीर के �ष्ट हो�े पर भी वह �ष्ट �हीं हो�ा।

वह नि��य, नि�र्तिवंकार और स्वयं प्रकाश हो �ा�ा है। �ैसे दीपक की छोटी-सी ज्योनि� भी अन्धकार को �ष्ट कर दे�ी है। वह स�य-स्वरूप आ�न्दघ� ब� �ा�ा है। ऋनिष का कह�ा है निक इस आ�मबोध उपनि�षद का �ो व्यचिQ कुछ क्षण के चिलए भी स्मरण कर�ा है, वह �ीव�मुQ होकर आवागम� के क्र से सदैव के चिलए छूट �ा�ा है। कौषी�निक ब्राह्मणोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 कौषी�निक ब्राह्मणोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 निद्व�ीय अध्याय 4 �ीसरा अध्याय 5 ौ0ा अध्याय 6 टीका दिटप्पणी और संदभ: 7 सम्बंयिध� लिलंक

यह उपनि�षद ॠग्वेद के कौषी�निक ब्राह्मण का अंश है। इसमें कुल ार अध्याय हैं। इस उपनि�षद में �ीवा�मा और ब्रह्मलोक, प्राणोपास�ा, अग्निग्�होत्र, निवनिवध उपास�ाए,ं प्राण��व की मनिहमा �0ा सूय:, न्द्र, निवदु्य� मेघ, आकाश, वायु, अग्निग्�, �ल, दप:ण और प्रनि�ध्वनि� में निवद्यमा� ै�न्य ��व की उपास�ा पर प्रकाश डाला गया है। अन्� में 'आ�म�त्त्व' के स्वरूप और उसकी उपास�ा से प्राप्� फल पर निव ार निकया गया है। प्र0म अध्यायप्र0म अध्याय में गौ�म ऋनिष (उद्दालक) एवं गग: ऋनिष के प्रपौत्र चि त्र के संवादों द्वारा 'ब्रह्मज्ञा�' के चिलए निकये �ा�े वाले अग्निग्�होत्र �0ा उसकी फलश्रुनि� पर प्रकाश डाला गया है। �ब मृ�यु के उपरान्� साधक ब्रह्मलोक पहंु �ा हैं, �ो उसका साम�ा अप्सराओं और एक निवचि त्र पंलग (पय°क) पर बैठे ब्रह्मा�ी से हो�ा है। वह उ�से बा�ें कर�ा है। इस वा�ा:लाप को 'पय°क-निवद्या' भी कह�े हैं। गग: ऋनिष के प्रपौत्र, महर्तिषं चि त्र, यज्ञ कर�े का नि�श्चय करके अरुण के पुत्र महा�मा उद्दालक (गौ�म) को प्रधा� ऋन्ति�वक के रूप में आमन्तिन्त्र� कर�े हैं, परन्�ु मुनि� उद्दालक स्वयं � �ाकर अप�े पुत्र शे्व�के�ु को यज्ञ सम्पन्न करा�े के चिलए भे� दे�े हैं। श्वे�के�ु अप�े निप�ा की आज्ञा�ुसार वहां पहुं कर एक ऊं े आस� पर निवरा�मा� हो�े हैं। �ब चि त्र उससे प्रश्न कर�ा है-'हे गौ�मकुमार! इस लोक में कोई ऐसा आवरणयुQ स्था� है, �हां �ुम मुझे ले �ाकर रख सक�े हो या निफर उसमें भी कोई ऐसा सव:0ा पृ0क् और निवलक्षण आवरण से शून्य पद है, जि�सको �ा�कर �ुम उसी लोक में मुझे प्रनि�यिष्ठ� कर सक�े हो?'चि त्र की बा� सु�कर शे्व�के�ु �े महर्तिषं चि त्र से कहा-'हे भगव�! मैं यह सब �हीं �ा��ा। मेरे निप�ा आ ाय: हैं। मैं उन्हीं से इस प्रश्न को पूछंूगा।'ऐसा कहकर श्वे�के�ु यज्ञ का आस� छोड़कर ले गये और अप�े निप�ा से प्रश्न निकया-'हे निप�ाश्री! महर्तिषं चि त्र �े �ो प्रश्न मुझसे निकया है, उसका उGर में कैसे दंू?' शे्व�के�ु �े चि त्र का प्रश्न अप�े निप�ा के साम�े दोहरा दिदया। �ब उद्दालक ऋनिष �े कहा-'पुत्र! मैं भी इसका उGर �हीं �ा��ा। हम दो�ों महर्तिषं चि त्र की यज्ञशाला में लकर व इसका अध्यय� करके ही इस निवद्या को प्राप्� करेंगे।'�द�न्�र दो�ों निप�ा-पुत्र प्रचिसद्ध आरूत्तिण मुनि� के हा0 से सयिमधा ग्रहण करके जि�ज्ञासु-भाव से महर्तिषं चि त्र के पास गये और कहा निक वे निवद्या-प्रान्तिप्� हे�ु उ�के पास आये हैं। चि त्र �े कहा-'हे गौ�म! आप ब्राह्मणों में अनि� पू��ीय हैं और ब्रह्मनिवद्या के अयिधकारी है; क्योंनिक मेरे पास आ�े हुए आपके म� में अप�ी श्रेष्ठ�ा का �नि�क-भी अत्तिभमा� �हीं है। मैं नि�श्चय ही आपको इसका बोध कराऊंगा।'महर्तिषं चि त्र �े कहा-'हे निवप्रवर! �ो व्यचिQ अग्निग्�होत्रादिद स�काय- का अ�ुष्ठा� कर�े वाले हैं, वे सभी इस लोक से न्द्रलोक, अ0ा:� स्वग:लोक की ओर गम� कर�े हैं, लेनिक� �ो व्यचिQ स्वग²य सुख के प्रनि� आसQ होकर न्द्रलोक स्वीकार कर ले�ा है, उसके सभी पुण्य �ष्ट हो �ा�े हैं और वह पु�: इस धर�ी पर वापस आ निगर�ा है, अ0ा:� उसका निफर से पु��:न्म हो �ा� है। उसे मोक्ष �हीं यिमल पा�ा।'महर्तिषं चि त्र के ऐसा कह�े पर गौ�म मुनि� �े निफर पूछा-'हे भगव�! मुझे ब�ायें निक मैं कौ� हूँ? मुझे इस भवसागर से पार हो�े का वह उपाय ब�ायें, जि�ससे मैं समस्� भव-बन्ध�ों से मुQ हो सकंू?'ब्रह्मज्ञा� क्या हैं?�ब महर्तिषं चि त्र �े उसे 'ब्रह्मज्ञा�' का उपदेश दिदया और सव:प्र0म ब�ाया निक �ीवा�मा इस लोक से परलोक अ0वा 'ब्रह्मलोक' �क दो माग- से ही �ा सक�ा है। एक 'निप�ृया�' माग: है और दूसरा 'देवया�' माग:। निप�ृया� माग: से �ा�े वाले साधक का बार-बार �न्म हो�ा है, उसे मोक्ष प्राप्� �हीं हो�ा, परन्�ु देवया� माग: से �ा�े वाले साधक का पु��:न्म �हीं हो�ा, उसे मोक्ष प्राप्� हो �ा�ा है। स्वग: व �रक के वास्�निवक स्वरूप को �ा�कर, �ो साधक निवरQ हो �ा�ा है, वही गुरु से 'ब्रह्मनिवद्या' पा�े का अयिधकारी हो�ा है।

महर्तिषं चि त्र �े कहा-'हे गौ�म! देवया� माग: से �ा�े वाला साधक क्रमश: अग्निग्�लोक, वायुलोक, सूय:लोक, वरुणलोक, इन्द्रलोक व प्र�ापनि�लोक आदिद छह लोकों में से हो�ा हुआ 'ब्रह्मलोक' में प्रवेश कर पा�ा है। 'ब्रह्मलोक' के प्रवेश द्वार पर 'अर' �ाम का एक बड़ा �लाशय है। यह �लाशय काम, क्रोध, मोह आदिद शतु्रओं द्वारा नि�र्ति�ं� है। यहाँ पल-भर का भी अहंकार और काम, क्रोध, लोभ आदिद का बन्ध�, साधक के सभी पुण्यों को �ष्ट कर डाल�ा है। 'इष्ट' की प्रान्तिप्� में यह �लाशय सबसे बड़ी बाधा है, परन्�ु �ो इसे पार कर ले�ा है, वह निफर से पाव� निवर�ा �दी के निक�ारे पहुं �ा�ा है। उसका समस्� श्रम और वृद्धावस्था, निवर�ा �दी के दश:� मात्र से ही दूर हो �ा�े हैं। उसमें आगे 'इल्य' �ामक वृक्ष (पृचि0वी का एक �ाम इला भी है) आ�ा है। यहीं पर अ�ेक देव�ाओं के सुन्दर उपव�ों, उद्या�ों, बावली, कूप, सरोवर, �दी और �लाशय आदिद से युQ �गर है, �ो निवर�ा �दी और अध: न्द्राकार परकोटे से यिघरा है। ये सभी म� को बार-बार मोह�े के चिलए साम�े आ�े हैं, निकन्�ु �ो साधक इ�में चिलप्� � होकर आगे बढ़ �ा�ा है, उसे साम�े ही ब्रह्मा �ी का एक निवशाल देवालय दिदखाई पड़�ा है। इस देवालय का �ाम 'अपराजि��ा' है। सूय: की प्रखर रच्छिश्मयों से युQ हो�े के कारण इसे निवजि�� कर�ा अ�यन्� कदिठ� है। इसकी रक्षा मेघ, यज्ञ से उपलत्तिक्ष� वायु �0ा आकाश-स्वरूप इन्द्र एवं प्र�ापनि� द्वारा की �ा�ी है, परन्�ु �ो उन्हें पराजि�� कर ले�ा है, वह ब्रह्मलोक में प्रवेश कर �ा�ा है। वहां एक निवशाल वैभव-सम्पन्न सभा-मण्डप के मध्य 'निव क्षणा' (अध्यात्मि�मक) �ामक वेदी ( बू�रा) पर सव:शचिQमा� प्राणस्वरूप ब्रह्मा �ी एक अनि� सुन्दर लिसंहास� (पंलग) पर निवरा�मा� दिदखाई पड़�े हैं। निवश्व ���ी अम्बा और अम्बवयवी �ामक अप्सराए ंउ�की सेवा में र� हैं, �ो ब्रह्मवेGा साधक का स्वाग� कर�ी हैं और उसे अलंकृ� करके ब्रह्मा �ी के सम्मुख उपच्छिस्थ� कर�ी हैं।'इस उपनि�षद में एक अ�यन्� सुन्दर रूपक बांधकर देवया� माग: से ब्रह्मलोक �क पहुं �े का माग: दिदखाया गया है। यहीं पर ऋनिष कह�ा है निक र0 में बैठकर यात्रा कर�े वाला पुरुष, जि�स प्रकार र0 के पनिहयों को दौड़�े हुए �ो देख�ा है, परन्�ु वह पनिहयों की गनि� के भूयिम से हो�े वाले संयोग को �हीं देख पा�ा। इसी प्रकार ब्रह्मलोक की यात्रा कर�े वाला साधक र0 पर बैठकर दिद� और रा� को �ो देख�ा है, काल की गनि� को भी देख�ा है, पाप-पुण्य को भी देख�ा है, परन्�ु वह उ�में चिलप्� �हीं हो�ा। वह उ�से दूर रहकर ही 'ब्रह्म' को प्राप्� कर�ा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार उसके माग: के बाधक �हीं ब��ा।महर्तिषं चि त्र आगे ब�ा�े हैं-'हे गौ�म! ब्रह्मवेGा ब� साधक अप�ी समू्पण: इजिन्द्रयों में ब्रह्मगन्ध, ब्रह्मरस, ब्रह्म�े�, ब्रह्मयश �0ा ब्रह्म�ाद का अ�ुभव कर�ा है। �ब ब्रह्मा �ी उस ब्रह्मज्ञा�ी से प्रश्न कर�े हैं-'�ुम कौ� हो?' उस समय ब्रह्मा �ी द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उGर ब्रह्मज्ञा�ी को इस प्रकार दे�ा ानिहए—'मैं वसन्� ऋ�ु-रूप, स्वयं प्रकाश परब्रह्म का ही अंश हूं। �ो आप हैं, वही मैं हूं।' इस पर ब्रह्मा�ी पूछ�े हैं-'मैं कौ� हूं?'ब्रह्मवेGा उGर दे�ा है-'आप स�य हैं।'ब्रह्मा �ी पूछ�े हैं-'जि�से �ुम स�य कह�े हो, वह क्या है?'ब्रह्मवेGा का उGर-'�ो समस्� देव�ाओं एवं प्राणों से भी सव:0ा त्तिभन्न एवं निवशेष लक्षणों से युQ है, वह 'स�्' है और �ो देव�ा प्राणस्वरूप है, वह '�य' है। वाणी के द्वारा जि�स �त्त्व को 'स�य' कह�े हैं, वह यही है। यह और आप सभी कुछ हैं। अ�: आप ही 'स�य' हैं।'ब्रह्मा �ी पूछ�े हैं-'�ुम मेरे पुरुषवा क �ामों को निकससे ग्रहण कर�े हो?'साधक का उGर-'प्राण से।'ब्रह्मा �ी का प्रश्न-'स्त्रीवा क �ामों को निकससे ग्रहण कर�े हो?'साधक का उGर-'वाणी से।'प्र.-'�पुंसकवा ी �ामों को निकससे ग्रहण कर�े हो?'उ.-'म� से।'प्र.-'गन्ध का अ�ुभव निकससे कर�े हो?'उ.-'प्राण से- घ्राणेजिन्द्रय से।'प्र.–'रूपों को निकससे ग्रहण कर�े हो?'उ.-'�ेत्रों से।'प्र.-'शब्दों को निकससे सु��े हो?'उ.-'का�ों से।'प्र.-'अन्न का आस्वाद� निकससे कर�े हो?'उ.-'जि�ह्वा से।'प्र.-'कम: निकससे कर�े हो?'उ.-'हा0ों से।'प्र.-'सुख-दु:ख का अ�ुभव निकससे कर�े हो?'उ.-'शरीर से।'प्र.-'रनि� का आ�न्द एवं प्र�ो�पत्तिG का सुख निकससे उठा�े हो?'

उ.-'उपस्थ से, अ0ा:� इन्द्री से।'प्र.-'गम�-निक्रया निकससे कर�े हो?'उ.-'दो�ों पैरों से।'प्र.-'बुजिद्ध-वृत्तिGयों को, ज्ञा�व्य निवषयों को और म�ोर0ों को निकससे ग्रहण कर�े हो?'उ.-'प्रज्ञा से।'इस प्रकार ब्रह्मा �ी के सभी प्रश्नों का उGर दे�े के उपरान्� स्वयं ब्रह्मा �ी साधक से कह�े हैं निक '�ल' आदिद प्रचिसद्ध पां महाभू� मेरे स्था� हैं। अ�: यह मेरा लोक भी �ल आदिद �त्त्व द्वारा प्रधा� है। �ुम मुझसे अत्तिभन्न मेरे उपासक हो। अ�: यह �ुम्हारा भी लोक है।'इस प्रकार वह साधक ब्रह्मा की 'जि�नि�' (निव�य प्राप्� कर�े की शचिQ) और 'व्ययिष्ट' (सव:व्यापक शचिQ), दो�ों को प्राप्� कर ले�ा है।'महर्तिषं चि त्र �े इस प्रकार 'ब्रह्मज्ञा�' का उपदेश देकर गौ�म ऋनिष को अत्तिभभू� निकया। ऋनिष गौ�म अप�े पुत्र श्वे�के�ु के सा0 महर्तिषं चि त्र को प्रणाम करके वापस लौट गये। निद्व�ीय अध्यायइस अध्याय में 'प्राण�त्त्व' की उपास�ा और 'ब्रह्मनिवद्या' के व्यावहारिरक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है। इसके अनि�रिरQ अप�े पापों को �ष्ट कर�े के चिलए 'सूय�पास�ा' पुत्र की कुशल-मंगल काम�ा और सुरक्षा के चिलए, ' न्द्रोपास�ा,' अ�े स्वास्थ्य के चिलए 'सोमोपास�ा,'मोक्ष-प्रान्तिप्� के चिलए 'प्राणोंपास�ा' �0ा पुत्र को अप�े सम्पूण: �ीव� का दायिय�व-भार सौंप�े समय 'सम्प्रदा� कम:' का बड़ा ही सांगोपांग वण:� निकया है।प्राण�त्त्व की उपास�ाइस अध्याय में 'प्राण' को ही 'ब्रह्म' का रूप मा�ा है। प्राण की कल्प�ा रा�ा के रूप में की गयी है। 'म�' उसका दू� है, 'वाणी' उसकी रा�ी है, ' कु्ष' उसकी सुरक्षा कर�े वाले मन्त्री हैं, 'कण�जिन्द्रय' सन्देश ग्रहण कर�े वाले द्वारपाल हैं। प्राण के आ�े ही समस्� इजिन्द्रयों की सेवा प्राण-रूपी रा�ा को स्व�: ही प्राप्� हो �ा�ी है। सुप्रचिसद्ध महा�मा शुष्कभृंगार 'प्राण' को ही ब्रह्म का रूप स्वीकार कर�े हैं। अ�: प्राण की उपास�ा ही इष्ट चिसजिद्धयों को दे�े वाली है। �ीव� में श्रेष्ठ�ा, सुख-समृजिद्ध, यश, �े�ब्धिस्व�ा �0ा ज्ञा� प्राणोपास�ा द्वारा हो सक�ा है।सूय�पास�ाकौषी�निक ऋनिष �े अप�े अ�ुभव से सूय�पास�ा �ी� बार-प्रा�:काल, मध्याह्नकाल और सांयकाल- कर�े की बा� कही है। उन्हों�े कहा है निक प्रा�:काल यज्ञोपवी� को सव्य भाव से बाए ंकने्ध पर रखकर आ म� करें। निफर �लपात्र को �ी� बार शुद्ध �ल से भरकर, उदय हो�े हुए सूय: को अर्घ्यय: प्रदा� करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें—'ॐ वग�ऽचिस पाप्मा�ं मे वृडयिध।'[1] इस प्रकार मध्याह्नकाल में, भगवा� भास्कर को स्मरण करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें-'ॐ उद्वग�ऽचिस पाप्मा�ं में संवृडयिध।'[2] इसी प्रकार सांयकाल में, अस्� हो�े हुए सूय: की उपास�ा करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें- 'ॐ संवग�ऽचिस पाप्मा�ं मे संवृडयिध।'[3] इस प्रकार सूय�पास�ा कर�े से म�ुष्य के दिद�-रा� के सारे पापों का शम� हो �ा�ा है, पाप कम: � कर�े की शचिQ उ�पन्न हो �ा�ी है। न्द्रोपास�ाअमावस्या में, �ब सूय: पत्तिश्चम भाग में च्छिस्थ� हो �0ा न्द्रमा सुषुम्�ा �ामक रच्छिश्म में न्द्रमा च्छिस्थ� हो, �ब इस निवयिध से न्द्रोपास�ा कर�ी ानिहए। अर्घ्यय: दे�े वाले पात्र में दो हरी दूवा: के अंकुर भी अवश्य रख लें। �ब अर्घ्यय: दे�े हुए इस मन्त्र का उच्चारण करें-'यGे सुसीमं हृदयमयिध न्द्रमचिसत्तिश्र�ं �े�ामृ��वस्येशा�े माऽहं पौत्रमदं्य रूदम्।' [4] इस प्रकार की प्रा0:�ा से उपासक पुत्र शोक से ब ा रह�ा है �0ा पुत्र � हो�े की च्छिस्थनि� में पुत्र-र�� प्राप्� कर ले�ा है।सोमोपास�ाऋनिष �े सोमोपास�ा को स्वस्थ शरीर का कारण मा�ा है। वह सोम से प्रा0:�ा कर�ा है-'हे स्त्री-रूपी सोम! �ुम पुरुष-रूपी सूय: के प्रकाश से निवकास को प्राप्� हो। �ुम सभी ओर से अन्न की प्रान्तिप्� में सहायक ब�ो। हे सोम! �ुम सौम्य गुणों से युQ हो। �ुम्हारा दिदव्य रस सूय: के �े� को प्राप्� करके पुरुष मात्र के चिलए अ�यन्� निह�कारी हो �ा�ा है। �ुम इस दिदव्य रस का सेव� कर�े वाले पुरुषों को पुयिष्ट दो और उ�के सभी शत्रुओं का पराभव करा�े में पूरी �रह से सहायक ब�ो। हे सोम! �ुम आग्�ेय �े� से प्रसन्न�ा को प्राप्� कर�े हुए, अमृ�व की प्रान्तिप्� में सहयोग प्रदा� करो और स्वयं अप�े यश को स्वग:लोक में च्छिस्थर करो। हे सोम! मैं �ुम्हारी ही गनि� का अ�ुगम� कर�े हुए अप�ी दानिह�ी भु�ा को बार-बार घुमा�ा हूं।' ऋनिष �े सोम को पां मुख वाला प्र�ापनि� कहा है। उसका एक मुख 'ब्राह्मण' है, दूसरा मुख 'क्षनित्रय' हैं, �ीसरा मुख 'बा�' पक्षी है, ौ0ा मुख 'अग्निग्�' है। और पां वां मुख �ुम 'स्वयं' हो। इस प्रकार सोम की प्रा0:�ा कर�े के उपरान्� गभा:धा� के चिलए ��पर स्त्री के पास बैठ�े से पहले उसके हृदय का स्पश: करें और इस मन्त्र का पाठ करें—'यGे सुमीमे हृदये निह�मन्�: प्र�ाप�ौ मन्येऽहं मां �निद्वद्वांसं �े� माऽहं पौत्रमधं रूदम्।'[5] इस प्रकार की गयी प्रा0:�ा से साधक को कभी पुत्र शोक �ही झेल�ा पड़�ा। ऋनिष का संके� उस मा�ा की ओर है, �ो अप�ा दूध अप�ी सन्�ा� को निपला�ी है। उसके दूध में सोमरस-�ैसी रक्षा�मक शचिQ निवद्यमा� हो�ी है। उसी से

बालक स्वस्थ रह�ा है। मा�ा का दूध बालक के चिलए �ैसर्तिगकं प्रनिक्रया है। प्रकृनि� का निवरोध अ�ेका�ेक भया�क परिरणामों का कारण ब� �ा�ा है।मोक्ष हे�ु प्राणोपास�ामोक्ष के चिलए प्राण�त्त्व की उपास�ा के सन्दभ: में, ऋनिष �े एक सुन्दर रूपक द्वारा प्राणों के मह�व को दशा:या है। एक समय वाणी आदिद समस्� देव�ा अहंकार के वशीभू� होकर अप�ी-अप�ी महG चिसद्ध कर�े के चिलए परस्पर निववाद कर�े लगे। प्राण के सा0 सभी �े शरीर से बनिहग:म� कर दिदया। उ�के नि�कल �ा�े से शरीर काष्ठ की भांनि� े��ा-रनिह� होकर सो गया। 'वाणी' �े अप�ा व :स्व चिसद्ध कर�े के चिलए शरीर में अकेले ही प्रवेश निकया। वाणी के प्रवेश कर�े ही शरीर वाणी से बोल�े लगा, लेनिक� वह अप�े स्था� से उठ �हीं सका। इसके बाद '�ेत्रेजिन्द्रय' देव�ा �े शरीर में प्रवेश निकया। �ब वह वाणी से बोल�े और �ेत्रों से देख�े लगा, परन्�ु इस बार भी वह उठ �हीं सका। निफर 'श्रो�ेजिन्दय' देव�ा �े शरीर में प्रवेश निकया। वह सु��े लगा, बोल�े भी लगा और देख�े भी लगा। लेनिक� इस बार भी वह उठ �हीं सका, नि�श्चेष्ट ही पड़ा रहा। ��पश्चा�् उस शरीर में 'म�' �े प्रवेश निकया। म� के द्वारा वह सो �े योग्य �ो हो गया, पर इस बार भी वह उठ �हीं सका। �ब सबसे अन्� में 'प्राण' �े उस शरीर में प्रवेश निकया। उस प्राण�त्त्व के प्रवेश कर�े ही वह शरीर उठकर बैठ गया। इससे प्राणों का महत्त्व सव�परिर चिसद्ध हो गयां सभी अन्य इजिन्द्रयों �े प्राण में ही, मोक्ष आदिद साध�ा की शचिQ को स्वीकार निकया। उन्हों�े �ा�ा निक प्राणों के द्वारा ही अमृ�व गुण को प्राप्� निकया �ा सक�ा है और यह शरीर ऊपर उठकर स्वग:लोक की ओर �ा सक�ा है। प्राणों के द्वारा ही, शरीर की समस्� े��ाए ंऔर इजिन्द्रयां काय: कर�ी हैं। अ�: प्राणों की उपास�ा द्वारा ही ब्रह्म से संयोग का कारण ब��ा है। प्राणों के द्वारा ही निवचिशष्ट ज्ञा�-स्वरूप परब्रह्म को प्राप्� निकया �ा सक�ा है।निप�ा द्वारा सम्प्रदा�-कम: (उGरायिधकार दे�ा) कर�ाइस अध्याय में निप�ा द्वारा अप�े पुत्र को उGरायिधकारी ब�ा�े की प्रनिक्रया का सांगोपांग उल्लेख निकया गया है। ऋनिष का कह�ा है निक अप�ा अन्तिन्�म समय आया �ा�कर, निप�ा को अप�े सम्पूण: उGरदायिय�वों से मुQ हो �ा�ा ानिहए और �ो कुछ भी उसके पास है, उसे अप�े पुत्र को सौंप दे�ा ानिहए। पुत्र को भी अप�े निप�ा द्वारा छोडे़ गये दायिय�व को सहष: स्वीकार कर ले�ा ानिहए। निप�ा को ानिहए निक शुभ्र वस्त्र धारण करके अप�े पुत्र को अप�े पास बुलाये और उससे कहे-'हे पुत्र! मैं �ुम्हें अप�ी वाक् शचिQ, अप�े प्राण, अप�े �ेत्र, अप�े का�, अप�े रसास्वाद�, अप�े समस्� श्रेष्ठ कम:, अप�े सुख-दु:ख, अप�ी मै0ु��न्य शचिQ �0ा रनि�-सुख, अप�ी गनि�शील�ा, अप�ी समस्� इ�ाए,ं अप�ी बुजिद्ध, अप�ा यश, ब्रह्म�े� औ अप�ा श्रेष्ठ स्वास्थ्य �0ा अन्न को प ा�े की शचिQ आदिद सभी सद्गणु प्रदा� कर�ा हंू या �ुम्हारे भी�र प्रनि�यिष्ठ� कर�ा हूँ।' निप�ा द्वारा ऐसा कह�े पर पुत्र निव�म्र�ा से उन्हें स्वीकार करे और अप�े बाए ंकन्धे की ओर दृयिष्ट करके हा0 से ओट करके कहे-'निप�ाश्री! आप अप�ी इ�ा�ुसार काम�ायुQ स्वग: को �0ा वहां के समस्� भोगों को प्राप्� करें।' इसके उपरान्�, यदिद निप�ा नि�रोग हो, �ो वह अप�े पुत्र को घर का स्वामी ब�ाकर अ0वा मा�कर उसके सा0 नि�वास करे या निफर सभी कुछ �यागकर व घर छोड़कर संन्यास का �ीव� निब�ाये। ऐसा निप�ा उचि � समय के आ�े पर दिदव्यलोक को गम� कर�े वाला हो�ा है। वास्�व में उGरायिधकार का सही नि�यम यही है। �ीसरा अध्यायइस अध्याय में ऋनिष �े प्राण, प्रज्ञा और इजिन्द्रयों का निवषद वण:� कर�े हुए उ�के पारस्परिरक सम्बन्धों का निवशे्लषण निकया है। इसके चिलए संवाद-शैली का सहारा चिलया गया है। यहाँ इन्द्र और दिदवोदास रा�ा के पुत्र प्र�द:� के पारस्परिरक संवादों द्वारा प्राण को प्रज्ञा का स्वरूप ब�ाया है और कहा है निक इस प्रज्ञा से ही लोकनिह� सम्भव है। लोक-कल्याण का अयिधकारी कौ� है?एक बार देवासुर संग्राम में, देवा�ाओं की सहाय�ा के चिलए रा�ा दिदवोदास के पुत्र प्र�द:� स्वग:लोक गये 0े। वहां उ�की अनिद्व�ीय युद्धकला एवं शौय: से प्रसन्न होकर इन्द्र �े उन्हें वरदा� दे�ा ाहा 0ा। इस पर प्र�द:� �े कहा-'हे देवरा�! जि�स श्रेष्ठ वर को आप मा�व-�ानि� के चिलए परम कल्याणयुQ मा��े हों, वैसा ही कोई श्रेष्ठ वर आप स्वयं ही मुझे प्रदा� करें।'प्र�द:� की बा� सु�कर देवरा� इन्द्र �े कहा-'रा��! इस संसार में कोई भी ऐसा व्यचिQ �हीं है, �ो दूसरों के सुख के चिलए वर मांग�ा हो। आप कोई ऐसा वर मांगें, �ो आपके अप�े चिलए हो?'इस पर प्र�द:� �े कोई भी वर ग्रहण कर�े से इंकार कर दिदया। रा�ा प्र�द:� को स�य का आरूढ़ देखकर देवरा� इन्द्र �े कहा-'हे रा��! �ुम मुझे ही, मेरे य0ा0: रूप को �ा�ो? यही मा�व-�ानि� के चिलए श्रेष्ठ वरदा� है।'देवरा� के इस क0� में प्र�द:� �े पह ा�ा निक इन्द्र �े � �ा�े निक��े प0भ्रष्ट असुरों और ऋनिष-मुनि�यों को दण्ड दिदया, पर अहंकारनिवही� और नि�ष्कामी हो�े के कारण इन्द्र का बाल भी बांका �हीं हुआ। �ब उस�े समझा निक नि�ष्काम कम: कर�े हुए और अहंकार का सव:0ा �याग कर�े हुए, �ो �ीव� जि�या �ा�ा है, वह मा�व-कल्याण के चिलए ही हो�ा है। अ�: लोक-कल्याणकारी व्यचिQ के चिलए नि�रत्तिभमा�ी और नि�ष्काम कम² हो�ा परम आवश्यक है। ऐसा व्यचिQ ही इन्द्र, अ0ा:� प्रज्ञा-रूपी प्राण-�त्त्व के य0ा0: स्वरूप को प्राप्�� कर सक�ा है और बडे़-से-बड़ा पापकम: भी उसे प्रभानिव� �हीं कर सक�ा। यदिद दैनिवक प्रवृत्तिGयों की रक्षा के चिलए निकसी आ��ायी व्यचिQ का वध भी कर�ा पडे़, �ो उसका भी पाप �हीं लग�ा।प्रज्ञा-स्वरूप प्राण कौ� है?देवरा� इन्द्र �े प्र�द:� को उपदेश दे�े हुए कहा निक �ो भी मेरे स�य स्वरूप को पह ा� �ा�ा है, उसे कभी पाप �हीं लग�ा;

क्योंनिक, 'मैं स्वयं ही प्रज्ञा-स्वरूप प्राण हूं।'[6] इन्द्र आगे कह�ा है निक उस प्राण �0ा श्रेष्ठ ज्ञा� से युQ आ�मस्वरूप के रूप में प्रख्या�, मुझ इन्द्र की, �ुम आयु औ अमृ�-रूप से उपास�ा करो। वह स्पष्ट कर�ा है निक आयु ही प्राण है, प्राण ही आयु है और प्राण ही अमृ���व है। इस शरीर में �ब �क प्राण है, �भी �क आयु है। इस प्राण�त्त्व के द्वारा ही साधक दूसरे लोक में �ाकर अमृ��त्त्व के निवशेष सुख को प्राप्� कर�ा है। �ो व्यचिQ 'आयु' और 'अमृ�' के रूप में इन्द्र की उपास�ा कर�ा है, वह इस लोक में पूणा:यु को प्राप्� कर�ा है और स्वग: के सुखों का पा� कर�ा है। शरीर में प्राण का महत्त्व ही सव�परिर है। यदिद प्राण के रह�े शरीर का कोई अंग �ष्ट हो �ाये, �ो भी शरीर �ीनिव� रह�ा है, परन्�ु प्राण के � रह�े पर, एक क्षण भी शरीर का �ीनिव� रह�ा असम्भव है। निक्रया शचिQ का बोध करा�े वाला प्राण ही है। प्राण ही ज्ञा� में प्रवृत्तिG हो�े की शचिQ दे�ा है। इसे ही 'प्रज्ञा-स्वरूप प्राण' अ0वा 'आ�मा' कहा गया है। अ�: �ीव� के उ�ा� के चिलए प्रज्ञा-स्वरूप इस प्राण की ही उपास�ा कर�ी ानिहए। शरीर में प्रज्ञा और प्राण, दो�ों सा0-सा0 नि�वास कर�े हैं �0ा �ीवा�मा के सा0 यिमलकर एक सा0 ही इस शरीर को छोड़�े हैं। प्राणमय परब्रह्म का यही दश:� (ज्ञा�) है और यही निवज्ञा� है। इसी की उपास�ा ��-कल्याण का मुख्य स्त्रो� है।प्राण, प्रज्ञा और इजिन्द्रयों का सम्बन्धसुषुप्� अवस्था में, �ब म�ुष्य सोया हुआ हो�ा है, �ब सभी इजिन्द्रयां और ज्ञा�, प्राण में समानिह� हो �ा�े हैं। लेनिक� �ब वह �ाग�ा है, �ब सभी प्रकार का ज्ञा�, प्राण से नि�कलकर अप�ी-अप�ी इजिन्द्रयों में समा �ा�ा है और सुषुप्� इजिन्द्रयां स�ग हो �ा�ी हैं। इसे उपनि�षद में मरणासन्न व्यचिQ के उदाहरण से समझाया है। एक व्यचिQ, �ो मरणासन्न अवस्था में है, उसकी समस्� े��ा शचिQ इजिन्द्रयों का सा0 छोड़कर प्राण में समा �ा�ी है। उस समय वह � �ो सु��ा है, � देख�ा है, � बोल�ा है, �े हा0-पैर निहला पा�ा है, � उसका मब्धिस्�ष्क ही काम कर�ा है। यही च्छिस्थनि� ध्या�स्थ योगी की हो�ी है। परन्�ु �ब वह मरणासन्न व्यचिQ रोगों से छुटकारा पाकर पु�: �ीनिव� हो उठ�ा है अ0वा वह ध्या�स्थ योगी निफर से सह� �ीव� में लौट आ�ा है, �ब उ�की समस्� इजिन्द्रयां अप�े-अप�े स्वभाव के अ�ुसार निफर से स�ग हो उठ�ी हैं। म� के द्वारा नि�द�चिश� हो�े लग�ी हैं। प्राण ही सव:प्र0म 'म�' को �ाग्र� कर�ा है। वही सम्पूण: इजिन्द्रयों को नि�यन्तिन्त्र� और अनि�यन्तिन्त्र� कर�ा है। म� का सीधा सम्बन्ध 'प्रज्ञा' से है और प्रज्ञा का प्राण से। इस प्रकार प्राण, प्रज्ञा और इजिन्द्रयों का अन्योन्यात्तिश्र� सम्बन्ध है। प्राण��व से ही प्रज्ञा है और प्रज्ञा से ही समस्� इजिन्द्रयों को सं ाल� हो�ा है। शरीर से उन्मुQ हो�े वाला 'प्राण' �ब उ�क्रमण कर�ा है, �ब वह उस समय इ� सभी इजिन्द्रयों-सनिह� ही उ�क्रमण कर�ा है। वाणी सभी �ामों का, �ाक सभी गन्धों का, कु्ष सभी रूपों का, का� सभी ध्वनि�यों का और म� सभी ध्या�स्थ निवषयों का परिर�याग कर दे�ा है। अ�: शरीर में प्राण ही वह प्रज्ञा है और प्रज्ञा ही वह प्राण है, �ो एक सा0 इस शरीर में नि�वास कर�े हैं। शरीर की समस्� इजिन्द्रयों का परिर ाल� इन्हीं के द्वारा हो�ा है। प्रज्ञा के द्वारा ही वह समस्� इजिन्द्रयों के स्वभाव के अ�ुरूप अ�ुभूनि� को प्राप्� कर�ा है। प्रज्ञा के अभाव में सभी का अब्धिस्��व �गण्य हो �ा�ा है। प्राण अ0वा प्रज्ञा के निब�ा निकसी भी रूप, निवषय अ0वा इजिन्द्रय की चिसजिद्ध �हीं हो सक�ी। जि�स प्रकार र0 की �ेयिम अरों के और अरे र0 की �ात्तिभ के आत्तिश्र� हो�े हैं, उसी प्रकार के समस्� इजिन्द्रयाँ, प्रज्ञा के द्वारा ही निवद्यमा� हैं। यह प्रज्ञा अ0वा प्राण ही परमा�मा का आ�न्दस्वरूप और अ�र-अमर रूप है। यह � �ो अ�े काम से वृजिद्ध पा�ा है औ � बुरे काय: से संकुचि � हो�ा है। यह समदश² है। यह समस्� लोकों का अयिधपनि� है और सबका स्वामी है। यह प्राण ही हमारा आ�मा है। इसे �ा�कर ही परमा�मा की उपच्छिस्थनि� को अ�ुभव निकया �ा सक�ा है। ौ0ा अध्यायइस अध्याय में गाग्य: �ामक ब्राह्मण ऋनिष और काशी के निवद्वा� रा�ा अ�ा�शतु्र के मध्य हुए वा�ा:लाप को आधार ब�ाकर संवाद-शैली में ब्रह्माण्ड की निवनिवध शचिQयों का उल्लेख निकया गया है �0ा 'आ�मा' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार निकया है।ब्रह्माण्ड की शचिQयांगग: गोत्र में उ�पन्न बलाका ऋनिष के पुत्र का �ाम गाग्य: ऋनिष के �ाम से प्रचिसद्ध 0ा। वे ारों वेदों के प्रकाण्ड निवद्वा� 0े। उशी�र प्रदेश उ�का नि�वासस्था� 0ा। वे प्राय: देश के निवत्तिभन्न प्रदेशों में भ्रमण कर�े रह�े 0े। कभी म�स्य देश में, �ो कभी कुरु-पां ाल में रह�े पहुं �ा�े 0े। एक बार वे घूम�े-घूम�े काशी के निवद्वा� रा�ा अ�ा�शतु्र के दबार में पहंु े। वहां वे अ�यन्� अहंकारपूण: वाणी में रा�ा से बोले-'हे रा��! मैं आपको 'ब्रह्म��व' का उपदेश दंूगा।' गाग्य: ऋनिष के ऐसा कह�े पर काशी �रेश अ�ा�शतु्र �े कहा-'हे निवप्रवर! आपके इस उपदेश के चिलए मैं आपको एक सहस्त्र उGम कुल वाली गौए ंप्रदा� करंूगा। मुझे �ो प्रसन्न�ा है निक अब �क ब्रह्मनिवद्या के श्रो�ा और दा�ी के रूप में यिमचि0ला �रेश ��क का ही �ाम 0ा। आ� आप�े हमारे पास आकर निवदेह रा� ��क की भांनि� हमारा गौरव बढ़ाया है।' 'ब्रह्म�त्त्व' का उपदेश दे�े हुए ऋनिष गाग्य: और अ�ा�शतु्र के मध्य इस सप्रकार वा�ा:लाप हुआ-ऋनिष गाग्य:—'हे रा��! इस सूय:मण्डल में �ो अन्�या:मी परमेश्वर च्छिस्थ� है, मैं ब्रह्मबुजिद्ध से उसी की साध�ा कर�ा हूं।'अ�ा�शतु्र—'हे ब्रह्म�! ऐसा �हीं है। यह शे्व� वस्त्रधारी सूय: �ो सभी से महा� है। यह सबसे उच्च च्छिस्थनि� में केजिन्द्र�, सबका शीश है। �ो म�ुष्य इस निवराट पुरुष की इस प्रकार से आराध�ा कर�ा है, वह सबसे उच्च च्छिस्थनि� में पहुं �ा है।'ऋनिष गाग्य:-'हे रा��! न्द्र मण्डल में �ो यह अन्�या:मी निवराट पुरुष है, मैं उसे ब्रह्मरूप में मा�कर उसकी उपास�ा कर�ा हंू।'अ�ा�शतु्र-'हे निवप्रवर! ऐसा �हीं है। यह �ो सोम रा�ा है और अन्न की आ�मा भी यही है। मैं इसी प्रकार इसकी उपास�ा कर�ा हूं। �ो भी इस प्रकार इसकी उपास�ा कर�ा है, वह नि�त्तिश्चय ही अन्न की आ�मा हो �ा�ी है �0ा ध� धान्य से भर �ा�ा है।'

ऋनिष गाग्य:-'हे रा��! निवदु्य� मण्डल के अन्�ग:� यह �ो अन्�या:मी निवराट परब्रह्म है, मैं उसी का उपासक हूं।'अ�ा�शतु्र-'हे निवप्रवर! ऐसा �हीं है। मैं इस निवदु्य� को 'प्रकाश की आ�मा' मा�कर इसकी उपास�ा कर�ा हंू। �ो भी इस प्रकार इसकी उपास�ा कर�ा है, वह स्वयं प्रकाश-स्वरूप 'आ�मा' हो �ा�ा है।'ऋनिष गाग्य:-' हे रा��! मेघ मण्डल में ग�:�ा के रूप में निवद्यमा� उस अन्�या:मी ईश्वर को मैं साक्षा� ब्रह्म मा��ा हूं।'अ�ा�शतु्र-'हे निवप्रवर! ऐसा � कहें। मैं शब्द की आ�मा समझकर ही इस श्रेष्ठ �त्त्व की उपास�ा कर�ा हंू। �ो इस प्रकार इसकी उपास�ा कर�ा है, वह स्वयं ही शब्द की आ�मा के रूप में परिरण� हो �ा�ा है।'ऋनिष गाग्य: �े निफर कहा-'हे रा��! आकाश मण्डल में प्रनि�यिष्ठ� परब्रह्म परमेश्वर की मैं अनिव�ाशी ब्रह्म के रूप में उपास�ा कर�ा हूं।'अ�ा�शतु्र �े उGर दिदया-'हे निवप्रवर! मैं इस निवषय में कुछ �हीं कह�ा ाह�ा। यह �ो पूण:, प्रवृत्तिG-रनिह� (निक्रया-रनिह�) ब्रह्म, सभी से निवशाल है। अवश्य ही मैं इसी रूप में इसकी उपास�ा कर�ा हंू। �ो ऐसे दिदव्य ब्रह्म की उपास�ा कर�ा है, वह समस्� प्रात्तिणयों में नि�र्तिवंकार हो �ा�ा है। समय से पूव: उसकी मृ�यु �हीं हो�ी।'इसी प्रकार वा�ा: को आगे बढ़ा�े हुए गाग्य: ऋनिष �े वायुमण्डल में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को ब्रह्म कहा, पर अ�ा�शतु्र �े उसे इन्द्र के श्रेष्ठ ऐश्वय: से युQ वैकुण्ठ कहा, �हां कुण्ठाए ं�ष्ट हो �ा�ी हैं औ वह सदैव अपराजि�� रह�ा है। उसके बाद ऋनिष �े अग्निग्� मण्डल में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को, �लमण्डल में उपच्छिस्थ� निवराट पुरुष को, दप:ण में प्रनि�निबत्मिम्ब� निवराट पुरुष को, प्रनि�ध्वनि� में च्छिस्थ� ध्वनि� को, गनि�शील निवराट पुरुष के पीछे उठ�े वाले ध्वन्या�मक शब्द को, शरीरधारी की छाया को, शरीर में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को, प्रज्ञा से युQ प्राण-स्वरूप आ�मा को, दानिह�े �ेत्र में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को, बाए ं�ेत्र में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को अनिव�ाशी ब्रह्म के रूप में उपच्छिस्थ� करके, उसकी उपास�ा कर�े की बा� कही। परन्�ु अ�ा�शतु्र �े क्रमश: सभी को �कार�े हुए अग्निग्� को दूसरों का प्रहार सह� कर�े वाला 'निवषासनिह,' �ल में च्छिस्थ� ब्रह्म को �ामधारी �ीवा�मा, प्रनि�निबम्ब को प्रनि�रूप, प्रनि�ध्वनि� को गनि� का अभावयुQ, ध्वन्या�मक शब्द को 'प्राणस्वरूप', शरीर की छाया को मृ�यु-रूप, शरीर में च्छिस्थ� निवराट पुरुष को प्र�ापनि� का स्वरूप, प्रज्ञा से युQ आ�मा को यम का स्वरूप, दानिह�े �ेत्र में च्छिस्थ� पुरुष को �ाम, अग्निग्� और ज्योनि� की आ�मा, बाए ं�ेत्र में च्छिस्थ� पुरुष को स�य, निवदु्य� और �े� का आ�मा ब�ाया और उसी रूप में उ�की उपास�ा कर�े की बा� कही। अ�ा�शत्रु की बा� सु�कर गाग्य: ऋनिष मौ� हो गये और उन्हों�े अ�ा�शतु्र को अप�ा गुरु स्वीकार कर चिलया, परन्�ु क्षनित्रय हो�े के कारण अ�ा�शतु्र �े ब्राह्मण गाग्य: को चिशष्य ब�ा�ा स्वीकार �हीं निकया। हां, एकान्� में उन्हें उन्हें ब्रह्म का ज्ञा� अवश्य कराया। वे उन्हें लेकर एक सो�े हुए व्यचिQ के पास गये और उसे अ�ेक �ामों से पुकार कर �गा�े का प्रय�� निकया, परन्�ु �ब वह �हीं �ागा, �ो अ�ा�शतु्र �े छड़ी से ोट मारकर उसे उठाया। उसके �ाग�े पर अ�ा�शतु्र �े ऋनिष गाग्य: से कहा-'हे निवप्रवर! यह व्यचिQ इस प्रकार अ े� होकर कहां सो�ा 0ा और निकस प्रदेश में यह 0ा और अब �ाग�े के बाद यह कहां आ गया है?' ऋनिष गाग्य: इस रहस्य को �हीं समझ सके, �ो रा�ा अ�ा�शतु्र �े पु�: कहा-'ऋनिषवर! यह पुरुष �हां सो�ा 0ा, वह स्था� प्राण-रूपी हृदयकमल है। वहां 'निह�ा' �ाम की प्रचिसद्ध �ाड़ी है। उसके द्वारा हृदय का निवस्�ार सम्पूण: �ानिड़यों �क है, �ो बाल के हज़ारवें भाग से भी सूक्ष्म है। इ� �ानिड़यों में पुरुष सो�े समय च्छिस्थ� रह�ा है। इस सोये हुए पुरुष के हृदय में च्छिस्थ� 'प्राण' का सभी इजिन्द्रयों से समभाव है। यह प्राण ही 'आ�मा' का खोल है। यह प्रज्ञावा� आ�मा इसी खोल में सूक्ष्म रूप से उसी प्रकार निवरा�मा� रह�ी है, �ैसे लकड़ी की म्या� में �लवार रह�ी है। पुरुष के �ाग�े पर यह 'आ�मा' सम्पूण: 'प्राण�त्त्व' को सनिक्रय कर दे�ी है। �ब उस 'साक्षी-रूप आ�मा' का सभी इजिन्द्रयां अ�ुम� सेवक की भांनि� अ�ुसरण कर�ी हैं।' इसी 'आ�मा' को �ा��े वाला ज्ञा�ी, इन्द्र की भांनि� अप�े सभी शतु्र असुरों अ0वा पापों को �ष्ट करके नित्रलोकी का सव:श्रेष्ठ पद प्राप्� कर�ा है। अ�: 'आ�मा' को �ा��े के चिलए अहंकार का �याग परम आवश्यक है। �भी वह अप�े पापों कों �ष्ट कर सक�ा है। नि�वा:णोपनि�षद'ॠग्वेद' से सम्बत्मिन्ध� यह उपनि�षद �ीव� के परम लक्ष्य �0ा आवागम� से मुQ हो�े के साध�ाभू� 'नि�वा:ण', अ0ा:� 'मोक्ष' के निवषय पर निवशद निववे � प्रस्�ु� कर�ा है। इस उपनि�षद में परमहंस-संन्यासी के गूढ़ चिसद्धान्�ों को सूत्रा�मक पद्धनि� द्वारा निववेचि � निकया गया है। सव:प्र0म संन्यासी का परिर य, निफर उसकी दीक्षा, देवदश:�, क्रीड़ा, गोष्ठी, त्तिभक्षा �0ा आ रण आदिद का उसके चिलए क्या स्वरूप है, इसकी निववे �ा की गयी है। इससे आगे संन्यासी के चिलए मठ, ज्ञा�, ध्येय, गुदड़ी, आस�, पटु�ा, �ारक उपदेश, नि�यम-अनि�यम, यज्ञोपवी�, चिशखा-बन्ध� �0ा मोक्ष आदिद का स्वरूप कैसा हो�ा ानिहए, उसका उल्लेख है। इ� सभी का नि�रूपण कर�े हुए 'नि�वा:ण' के �त्त्वदश:� को ब�ाया गया है। यह �त्त्वदश:� निकसे दे�ा ानिहए और निकसे �हीं, यह समझाया गया है। यहाँ इस बा� का भी उल्लेख है निक सामान्य �� को इस �त्त्वदश:� से कोई लाभ प्राप्� �हीं हो�ा। संन्यासी का परिर य'नि�वा:ण,'अ0ा:� मोक्ष की प्रान्तिप्� के चिलए प्रय��शील साधक संन्यासी कहला�ा है। उसका लक्ष्य 'परब्रह्म' को प्राप्� कर�ा हो�ा है। ईश्वर के सा0 संयोग ही उसकी दीक्षा है। संसार से मुQ हो�ा उसका उपदेश है। दीक्षा लेकर सन्�ोष कर�ा, पाव� कम: है। दया उसकी क्रीड़ा है और आत्मि�मक आ�न्द उसकी माला है। एकान्� में मुQ होकर बैठ�ा उसकी गोष्ठी है। मांगकर प्राप्� निकया

भो�� उसकी त्तिभक्षा है। आ�मा ही उसका प्रनि�पाद� हंस है। धैय: उसकी गुदड़ी, उदासी� प्रवृत्तिG लंगोटी, निव ार दण्ड और सम्पदा उसकी पादुकाए ंहैं। ईश्वर से योग उसकी नि�द्रा है और वही उसका लक्ष्य भी है। इजिन्द्रयों पर अंकुश उसका माग: और स�य �0ा चिसद्ध हुआ योग ही उसका मठ है। भय, मोह, शोक और क्रोध का परिर�याग उसका �याग है �0ा इजिन्द्रय-नि�ग्रह नि�यम है। ब्रह्म या:श्रम में अध्यय� के उपरान्� लौनिकक ज्ञा� का परिर�याग ही संन्यास है। चिशष्य अ0वा पुत्र को ही नि�वा:ण के इस रहस्य को प्रदा� कर�ा ानिहए। नि�वा:ण-प0 का यह ��वदश:� समस्� संशयों को �ष्ट कर दे�ा है। �ादनिबन्दूपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 �ादनिबन्दूपनि�षद 2 ॐकार प्रणव - रूप ' हंस ' है 3 ॐकार की बारह मात्राएं 4 बारह कलाओं की मात्राएं 5 परब्रह्म का ' �ाद ' स्वरूप 6 टीका दिटप्पणी और संदभ: 7 सम्बंयिध� लिलंक

इस उपनि�षद के प्रारम्भ में 'ॐकार' को हंस के रूप में अत्तिभव्यQ निकया है और उसके निवनिवध अंगों का निवश्लेषण निकया गया है। उसके बाद 'ॐ ' की बारह मात्राओं का उल्लेख कर�े हुए उ�के सा0 प्राण के निवनि�योग (सम्बन्ध) का फल स्थानिप� निकया है। �दुपरान्� अ�ेक प्रकारों और साध�ा के द्वारा '�ाद' अ�ुभूनि� के स्वरूप को समझाया गया है। अन्� में म� के लय हो�े की च्छिस्थनि� का वण:� हैं। ॐकार प्रणव-रूप 'हंस' हैहंस का दत्तिक्षण पंख 'अकार' है और उGर पंख (बायां पंख) 'उकार' है �0ा उसकी पंूछ 'मकार' है और अध:मात्रा उसका शीष:भाग है। ओंकाररूपी हंस के दो�ों पैर 'र�ोगुण' एवं '�मोगुण' हैं और उसका शरीर 'स�ोगुण' कहा गया है। उसकी दाईं आंख 'धम: है और बाई आंख 'अधम:' है। हंस के दो�ों पैरों में भू-लोक (पृचि0वी) च्छिस्थ� है। उसकी �ंघाओं में भुव:लोक (अन्�रिरक्ष) केजिन्द्र� है। स्व:लोक (स्वग:-ऊध्व:) उसका कदिट प्रदेश है और मह:लोक (आ�न्दलोक) उसकी �ात्तिभ में च्छिस्थ� है। उसके हृदयस्थल में ��लोक और कण्ठ में �पोलोक का वास है। ललाट और भौहों के मध्य में 'स�यलोक' च्छिस्थ� है। इस प्रकार निवद्वा� साधक प्रणव-रूपी हंस पर आसी� होकर, अ0ा:� ओंकार का ज्ञा� प्राप्� कर कमा:�ुष्ठा� �0ा ध्या� आदिद के द्वारा 'ॐ' का चि न्��-म�� कर�ा हुआ, सहस्त्रों-करोंड़ों पापों से मुQ होकर 'मोक्ष' को प्राप्� कर ले�ा है। ॐकार की बारह मात्राएंओंकार की प्र0म मात्रा आग्�ेयी है, दूसरी मात्रा वायव्या (वायु की भांनि�) है, �ीसरी मात्रा मकार सूय: मण्डल के समा� है, ौ0ी मात्रा अध:मात्रा है, जि�से वारूणी भी कहा �ा�ा है। इ� ारों मात्राओं में से प्र�येक मात्रा के �ी�-�ी� काल, अ0ा:� कला-रूप हैं। इसीचिलए ॐकार को बारह कलाओं से युQ कहा गया है। ॐकार की साध�ा मात्र मन्त्रों के उच्चारण कर�े से पूरी �हीं हो�ी। इसे 'दिदव्य प्राण-रूप' समझकर अप�ी अ�ुभूनि� से �ा��े का प्रयास कर�ा ानिहए। बारह कलाओं की मात्राएंइ� बारह कलाओं की मात्राओं में प्र0म मात्रा को घोनिषणी कहा गया है। दूसरी मात्रा को निवदु्यन्मात्रा, �ीसरी को पा�ंगी, ौ0ी को वायुवेनिग�ी, पां वीं को �ामधेया, छठी से ऐन्द्री, सा�वीं को वैष्णवी, आठवीं को शांकरी, �ौवीं को मह�ी, दसवीं को धृनि�, ग्यारहवीं को �ारी और बारहवीं को ब्राह्मी के �ाम से �ा�ा �ा�ा है। यदिद साधक ॐकार की प्र0म मात्रा में अप�े प्राणों का परिर�याग कर दे�ा है, �ो वह भार�वष: का साव:भौयिमक क्रव�² सम्राट हो सक�ा हैं। [1] यदिद साधक दूसरी मात्रा में प्राणों का उ�सग: कर�ा है, �ो वह महा� मनिहमामच्छिण्ड� 'यक्ष' के रूप में उ�पन्न हो�ा है। �ीसरी मात्रा में प्राण �याग�े पर 'निवद्याधर' के रूप में �न्म ले�ा है, ौ0ी मात्रा में प्राण �याग�े पर वह 'गन्धव:' के रूप में, पां वीं मात्रा में '�ुनिष�' �0ा छठी मात्रा में देवरा� इन्द्र के 'सायुज्य पद' को प्राप्� कर�ा है। इसी प्रकार सा�वीं मात्रा में भगवा� निवष्णु के 'वैकुण्ठधाम' को, आठवीं मात्रा में पशुपनि� भगवा� चिशव के 'रुद्रलोक' को, �वीं मात्रा में 'आ�न्दलोक' को, दसवीं मात्रा में '��लोक' को, ग्यारहवीं मात्रा में '�पोलोक' को और बारहवीं मात्रा में प्राण �याग�े पर शाश्व� 'ब्रह्मलोक' को प्राप्� कर�ा है। इस परम 'ब्रह्मलोक' से ही अग्निग्�, सूय: और न्द्र आदिद ज्योनि�यों का प्रादुभा:व हुआ है। �ब कोई श्रेष्ठ साधक अप�े म� को नि�यन्तिन्त्र� करके समस्� इजिन्द्रयों एवं 'स�', 'र�' और '�म' आदिद �ी�ों गुणों से परे होकर 'परम�त्त्व' में निवली� हो �ा�ा है, �ब वह उपमारनिह�, कल्याणकारी और शान्�-स्वरूप हो �ा�ा है। 'योगी' साधक इन्हें ही कहा �ा�ा है। [2] ऐसा साधक अ0वा योगी नि�म:ल कैवल्य पद को प्राप्� कर स्वयं ही परमा�म स्वरूप हो �ा�ा है और ब्रह्म-भाव से असीम अ�न्द की अ�ुभूनि� कर�ा है। अ�: कहा भी है- [3] हे ज्ञा�वा� पुरुष! �ुम स��

प्रय�� कर�े हुए 'आ�मा' के स्वरूप को पह ा��े का प्रयास करो। उसी चि न्�� में अप�े समय को लगाओं। प्रारब्ध और कमा:�ुसार �ो भी कष्ट अ0वा कदिठ�ाइयां साम�े आयें, उन्हें भोग�े हुए ग्निखन्न अ0वा दुखी �ही हो�ा ानिहए। परब्रह्म का '�ाद' स्वरूप'�ाद' ध्वनि� को कह�े हैं। ॐकार-स्वरूप ब्रह्म का आ�मा के सा0 �ादा�म्य स्थानिप� हो�े ही, चिशव के कल्याणकारी स्वयं प्रकाश '�ाद-रूप' की अ�ुभूनि� हो�े लग�ी है। अभ्यास द्वारा '�ाद' को अ�ुभूनि��न्य ब�ा�े के चिलए योगी अ0वा साधक 'अकार' और 'मकार' को �ी�कर सम्पूण: 'ॐकार' को श�ै:-श�ै: आ�मसा� कर ले�ा है और '�ुया:वस्था' को प्राप्� कर ले�ा है। अभ्यास की प्रारब्धिम्भक अवस्था में यह 'महा�ाद' (अ�ाह� ध्वनि�) निवत्तिभन्न स्वरों में सु�ाई पड़�ी है। श�ै:-श�ै: अभ्यास से इसके सूक्ष्म भेद स्पष्ट हो�े लग�े हैं। प्रारम्भ में यह ध्वनि� समुद्र, मेघ, भेरी �0ा झर�ों से उ�पन्न ध्वनि�यों के समा� सु�ाई पड़�ी है। कुछ समय बाद यह ध्वनि� मृदंग, घण्टे और �गाडे़ की भांनि� सु�ाई पड़�ी है। अन्� में यह पिकंनिकणी, वंशी, वीणा एवं भ्रमर की मधुर ध्वनि� के समा� सु�ाई पड़�ी है। संयमी पुरुष को ानिहए निक �ाद-श्रवण से त्तिभन्न निवषय-वास�ाओं को उपेत्तिक्ष� करके स�� अभ्यास द्वारा म� को उसी '�ाद' में लगाये और उसी में रमण कर�ा रहे—[4] अ0ा:� योगी साधक को स�� चि न्�� कर�े हुए समस्� चि न्�ाओं का परिर�याग कर, सभी �रह को ेष्टाओं से म� को �टस्थ कर, उस '�ाद' का ही अ�ुसन्धा� कर�े रह�ा ानिहए, क्योंनिक इससे चि G सह� ही '�ाद' में लय हो �ा�ा है। जि�स प्रकार फूलों का रस ग्रहण कर�ा हुआ भ्रमर, पुष्प-गन्ध की अपेक्षा �हीं कर�ा, उसी प्रकार स�� '�ाद-लय' में डूबा हुआ साधक निवषय-वास�ाओं की आकांक्षा �हीं कर�ा। वह नि�:शब्द हो �ा�ा है और उसका म� परमब्रह्म के परमा�म��त्त्व का अ�ुभव कर�े लग�ा है। �ब �क �ाद है, �भी �क म� का अब्धिस्�त्त्व है। �ाद के समाप� हो�े पर म� भी 'अम�,'अ0ा:� 'शून्यव�' हो �ा�ा है- [5] इस प्रकार स�� �ाद का अभ्यासर� योगी �ाग्र�, स्वप्न �0ा सुषन्तिप्� आदिद अवस्थाओं से मुQ होकर सभी प्रकार की चि न्�ाओं से मुQ हो �ा�ा है और मा�-अपमा� से परे होकर समायिध द्वारा समस्� �ड़-संगम का परिर�याग कर 'ब्रह्ममय' हो �ा�ा है-[6] '�ादनिबन्दूपनि�षद' का यही रहस्या�मक ज्ञा� है, जि�से साधक को सह� भाव से ग्रहण कर�ा ानिहए। सौभाग्यलक्ष्म्युपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 सौभाग्यलक्ष्म्युपनि�षद 2 प्र0म खण्ड 3 श्रीमहालक्ष्मी का दिदव्य - रूप 4 दूसरा खण्ड 5 �ीसरा खण्ड 6 सम्बंयिध� लिलंक

इस उपनि�षद में 'श्रीसूQ' के वैभव-सम्पन्न अक्षरों को आधार मा�कर देवी मन्त्र और क्र आदिद को प्रकट निकया गया है। यहाँ देवसमूह और श्री �ारायण के मध्य हुए वा�ा:लाप को इस उपनि�षद का आधार ब�ाया गया है। यह उपनि�षद �ी� खण्डों में निवभाजि�� है। प्र0म खण्ड में सौभाग्यलक्ष्मी निवद्या की जि�ज्ञासा, ध्या�, क्र, एकाक्षरी मन्त्र का ऋनिष, लक्ष्मी मन्त्र, श्रीसूQ के ऋनिष आदिद का नि�रूपण निकया गया है। दूसरे खण्ड में ज्ञा�योग, प्राणायामयोग, �ाद के आनिवभा:व से पूव: की �ी� ग्रत्मिन्थयों का निववे �, अखण्ड ब्रह्माकार वृत्तिG, नि�र्तिवंकल्प भाव �0ा समायिध के लक्षण ब�ाये गये हैं। �ीसरे खण्ड में �व क्रों का निवस्�ृ� वण:� और उपनि�षद की फलश्रुनि� का उल्लेख निकया गया है। [संपादिद� करें] प्र0म खण्डएक बार समस्� देव�ाओं �े भगवा� श्री �ारायण से सौभाग्य लक्ष्मी निवद्या के बारे में जि�ज्ञासा प्रकट की। �ब श्री �ारायण �े श्रीलक्ष्मीदेवी के निवषय में उन्हें ब�ाया निक यह देवी सू्थल, सूक्ष्म और कारण-रूप, �ी�ों अवस्थाओं से परे �ुरीयस्वरूपा, �ुरीया�ी�, सव��कट-रूपा (कदिठ�ाई से प्राप्�) समस्� मन्त्रों को अप�ा आस� ब�ाकर निवरा�मा� है। वह �ुर भु�ाओं से सम्पन्न है। उ� श्री लक्ष्मी के श्रीसूQ की पन्द्रह ऋ ाओं के अ�ुसार सदैव स्मरण कर�े से श्री-सम्पन्न�ा आ�े में निवलम्ब �हीं लग�ा है। [संपादिद� करें] श्रीमहालक्ष्मी का दिदव्य-रूपऋनिषयों �े श्रीमहालक्ष्मी को कमलदल पर निवरा�मा� �ुभु:�ाधारिरणी कहा है। यह मन्त्र दृष्टव्य हैं-अरुणकमलसंस्था �द्र�: पुञ्जवणा: करकमलधृ�ेष्टाऽयिमनि�युग्माम्बु�ा ।मत्तिणकटकनिवचि त्रालंकृ�ाकल्प�ालै: सकलभुव�मा�ा सं��ं श्री त्तिश्रयै �:॥अ0ा:� श्री लक्ष्मी अरुण वणा: (हलके लाल रंग के) नि�म:ल कमल-दल पर आसी�, कमल-पराग की राचिश के सदृश पी�वण:, ारों हा0ों में क्रमश: वरमुद्रा, अभयमुद्रा �0ा दो�ों हा0ों में कमल पुष्प धारण निकये हुए, मत्तिणयुQ कंकणों द्वारा निवचि त्र शोभा को धारण कर�े वाली �0ा समस्� आभूषणों से सुशोत्तिभ� एवं सम्पूण: लोकों की मा�ा, हमें सदैव श्री-सम्पन्न ब�ायें। इस देवी की आभा �प्� स्वण: के समा� है। शुभ्र मेघ-सी आभा वाले दो हाचि0यों की संूड़ों में ग्रहण निकये कलाशों के फल से जि��का अत्तिभषेक हो रहा है, लाल रंग के मात्तिणम्यादिद र��ों से जि��का मुकुट चिसर पर शोभायमा� हो रहा है, जि�� श्री देवी के परिरधा� अ�ययिधक

स्व� हैं, जि��के �ेत्र पद्म के समा� हैं, ऋ�ु के अ�ुकूल जि��के अंग न्द� आदिद सुवाचिस� पदा0- से युQ हैं, क्षीरशायी भगवा� निवष्णु के हृदयस्थल पर जि��का वास हा, हम सभी के चिलए वे श्रीलक्ष्मीदेवी ऐश्वय: प्रदा� कर�े वाली हों। ईश्वर से यही हमारी प्रा0:�ा है। कहा भी है—'नि�ष्कामा�ामेव श्रीनिवद्याचिसजिद्ध: । � कदानिप सकामा�ायिमनि�॥12॥'अ0ा:� नि�ष्काम (काम�ानिवही�) उपासकों को ही श्रीलक्ष्मी और निवद्या की चिसजिद्ध प्राप्� हो�ी है। सकाम उपासकों को इसकी चिसजिद्ध पिकंचि � मात्र भी प्राप्� �हीं हो�ी। [संपादिद� करें] दूसरा खण्डइस खण्ड में प्राणायाम निवयिध का निवस्�ार से वण:� है �0ा षट् क्रभेद� और समायिध पर प्रकाश डाला गया है। इस समायिध द्वारा म� का निवलय आ�मा में उसी सप्रकार हो �ा�ा है, �ैसे �ल में �मक घुल �ा�ा है। 'प्राणायाम' के अभ्यास से प्राणवायु पूरी �रह से कुम्भक में च्छिस्थ� हो �ा�ी है �0ा मा�चिसक वृत्तिGयां पूण:�: चिशचि0ल पड़ �ा�ी हैं। उस समय �ेल की धारा के समा� आ�मा के सा0 चि G का एका�म भाव 'समायिध' कहला�ा है। '�ीवा�मा' और 'परमा�मा' का सा0 इस समायिध �0ा प्राणायाम निवयिध द्वारा ही सम्भव है। ऐसा हो�े पर समस्� भवबन्ध� और कष्ट �ष्ट हो �ा�े हैं। [संपादिद� करें] �ीसरा खण्ड�ीसरे खण्ड में कुण्डचिल�ी �ागरण द्वारा मूलाधार, स्वायिधष्ठा�, मत्तिणपूर व निवशुद्ध आदिद �व क्रों का निववे � निकया गया है। �ारायण �े देव�ाओं को ब�ाया निक मूलाधार क्र में ही ब्रह्म क्र का नि�वास है। वह योनि� के आकार के �ी� घेरों में च्छिस्थ� हैं। वहां पर महाशचिQ कुण्डचिल�ी सुषुप्�ावस्था में निवद्यमा� रह�ी है। उसकी उपास�ा से सभी भोगों को प्राप्� निकया �ा सक�ा है। यह कुण्डचिल�ी शचिQ �ाग्र� हो�े पर स्वायिधष्ठा� क्र, �ात्तिभ क्र, हृदय क्र, निवशुद्धाख्य क्र, �ालु क्र, भू्र क्र (आज्ञा क्र) से हो�ी हुई नि�वा:ण क्र, अ0ा:� 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुं �ी है। ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर उठकर �वम 'आकाश क्र' में पहुँ कर परमा�मा का सायिन्नध्य प्राप्� कर�ी है। यहाँ पहुं कर साधक को समस्� काम�ाओं की चिसजिद्ध हो �ा�ी है। इ� पन्द्रह ऋ ाओं का कम-से-कम पन्द्रह दिद� �क नि�ष्काम भाव से ध्या� कर�े पर श्री लक्ष्मी की चिसजिद्ध हो �ा�ी है। बहवृ ोपनि�षदॠग्वेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में आद्यशचिQ देवी 'अम्बा' की उपास�ा की गयी है। यह 'चि �् शचिQ' कहला�ी है। इसी 'चि �् शचिQ' से ब्रह्मा, निवष्णु और रुद्र का प्रादुभा:व हुआ है और सभी �ड़-संगम का �न्म सम्भव हो सका है। यह ब्रह्मस्वरूपा है। सृयिष्ट की र �ा से पहले यही शचिQ निवद्यमा� 0ीं यह देवी 'काम-कला' और 'श्रृंगार-कला' के �ाम से प्रख्या� है। यह अपरा शचिQ कहला�ी है। इसे ही निवद्या की देवी 'सरस्व�ी' कहा गया है। यह स�्-चि �् आ�न्दमयी देवी है। महानित्रपुरसुन्दरी के रूप में प्र�येक े��ा, देश, काल एवं पात्र में यह रहस्यमय रूप में च्छिस्थ� है। �ो पुरुष इस रहस्यमयी देवी के स्वरूप को �ा� ले�ा है, वह सदैव के चिलए इस 'चि �्-शचिQ' में प्रनि�यिष्ठ� हो �ा�ा है। मुदगलोपनि�षद / Mrudgalopnishadअ�ुक्रम[छुपा]1 मुदगलोपनि�षद / Mrudgalopnishad 2 प्र0म खण्ड 3 दूसरा खण्ड 4 �ीसरा खण्ड 5 ौ0ा खण्ड 6 सम्बंयिध� लिलंक

इस उपनि�षद में ार खण्ड हैं। प्र0म खण्ड में य�ुव�दोQ पुरुष सूQ के सोलह मन्त्र हैं। दूसरे खण्ड में भगवा� द्वारा शरणाग� इन्द्र को दिदये गये उपदेश हैं। इसी में उसके अनि�रुद्ध पुरुष द्वारा ब्रह्मा�ी को अप�ी काया को हव्य मा�कर व्यQ पुरुष को अग्निग्� में हव� कर�े का नि�द�श है। �ीसरे खण्ड में निवत्तिभन्न योनि�यों के साधकों द्वारा निवत्तिभन्न रूपों में उस पुरुष की उपास�ा की गयी है। ौ0े खण्ड में उQ पुरुष की निवलक्षण�ा �0ा उसके प्रकट हो�े के निवनिवध घटकों का वण:� कर�े हुए साध�ा द्वारा पुरुष-रूप हो �ा�े का क0� है। अन्� में इस गूढ़ ज्ञा� को प्रकट कर�े के अ�ुशास� का उल्लेख है। [संपादिद� करें] प्र0म खण्ड'पुरुष सूQ' के प्र0म मन्त्र में भगवा� निवष्णु की सव:व्यापी निवभूनि� का निवशद वण:� है। शेष मन्त्रों में भी लोक�ायक निवष्णु की शाश्व� उपच्छिस्थनि� का उल्लेख यिमल�ा है। उन्हें सव:कालव्यापी कहा गया है। निवष्णु मोक्ष के दे�े वाले हैं। उ�का स्वरूप �ुव्यू:ह है। यह रा र प्रकृनि� उ�के अधी� है। �ीव� के सा0 प्रकृनि� (माया) का गहरा सम्बन्ध है। सम्पूण: �ग� की उ�पत्तिG श्रीहरिर निवष्णु द्वारा ही हुई है। �ो साधक इस 'पुरुष सूQ' को ज्ञा� द्वारा आ�मसा� कर�ा है, वह नि�त्तिश्च� रूप से मुचिQ प्राप्� कर�ा है। [संपादिद� करें] दूसरा खण्ड

प्र0म खण्ड के 'पुरुष सूQ' में जि�स निवचिशष्ट वैभव का वण:� निकया गया है, उसे उपदेश द्वारा वासुदेव �े इन्द्र को प्रदा� निकया 0ा। इस खण्ड में पु�: दो खण्डों द्वारा उस परम कल्याणकारी रहस्य को भगवा� �े इन्द्र को दिदया। वह पुरुष (परमा�मा) �ाम-रूप और ज्ञा� से परे हो�े के कारण निवश्व के समस्� प्रात्तिणयों के चिलए अगम्य है। निफर भी अप�े अ�ेक रूपों द्वारा वह समस्� लोकों में प्रकट हो�ा है। वह पुरुष-रूप में अव�ार लेकर सभी कालों में '�ारायण' के रूप में अत्तिभव्यQ हो�ा है और �ीवों का कल्याण कर�ा है। वह सव:शचिQमा� है। उसका �ुभु:� स्वरूप परमधाम वैकुण्ठ में सदैव नि�वास कर�ा है। उसी �े प्रकृनि� का प्रादुभा:व निकया। इस खण्ड में �ीव और आ�मा के यिमल� द्वारा 'मोक्ष' की प्रान्तिप्� का वण:� है। [संपादिद� करें] �ीसरा खण्डइस खण्ड में परमा�मा के अ�न्मे स्वरूप का वण:� है, �ो निवत्तिभन्न रूपों में अप�े अंश को प्रकट कर�ा रह�ा है। उस निवराट पुरुष की उपास�ा सभी साधकों �े अग्निग्�देव के रूप में की है। य�ुव�दीय याचिज्ञक उसे 'यह य�ु है' ऐसा मा��े हैं और उसे सभी यज्ञीय कम- में नि�योजि�� कर�े हैं। देवगण उसे 'अमृ�' के रूप में ग्रहण कर�े हैं और असुर 'माया' के रूप में �ा��े हैं। �ो भी जि�स-जि�स भाव�ा से उसकी उपास�ा कर�ा है, वह परम�त्त्व उसके चिलए उसी भाव का हो �ा�ा है। ब्रह्मज्ञा�ी उसे 'अहम् ब्रह्माब्धिस्म' के रूप में स्वीकार कर�े हैं। इस भाव से वह उन्हीं के अ�ुरूप हो �ा�ा है। [संपादिद� करें] ौ0ा खण्डवह ब्रह्म �ी�ों �ापों, छह कोशों, छह उर्मिमयंों और सभी प्रकार के निवकारों से रनिह� निवलक्षण हैं ये �ी� �ाप 'अध्यात्मि�मक', 'आयिधभौनि�क' और 'आयिधदैनिवक' हैं। वह उ�से परे है। छह कोश, म:, मांस, अच्छिस्थ, स्�ायु, रQ औ मज्जा कहे गये हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मा�सय:, छह शत्रु हैं। अन्नमय, प्राणमय, म�ोमय, निवज्ञा�मय और आ�न्दमय- ये पां शरीर के कोश हैं। इसी प्रकार छह भाव निवकार क्रमश: निप्रय हो�ा, प्रादुभू:� हो�ा, वर्द्धिद्धं� हो�ा, परिरवर्ति�ं� हो�ा, क्षय �0ा निव�ाश हो�ा ब�ाये गये हैं। छह उर्मिमयंां- कु्षधा, निपपासा, शोक, मोह, वृद्धावस्था और मृ�यु को कहा गया है। छह भ्रम— कुल, गोत्र, �ानि�, वण:, आश्रम और रूप हैं। वह परमा�मा इ� सभी के योग से �ीव के शरीर में प्रवेश कर�ा है और इ� सभी भावों से �टस्थ भी रह�ा है। ऐसी सामथ्य: निकसी अन्य में �हीं है। �ो व्यचिQ प्रनि�दिद� इस उपनि�षद का पारायण कर�ा है, वह अग्निग्� की भांनि� पनिवत्र हो �ा�ा है �0ा वायु की भांनि� शुद्ध हो �ा�ा हैं वह आदिद�य के समा� प्रखर हो�ा है। वह सभी रोगों से रनिह� हो �ा�ा है। वह श्री-सम्पन्न और पुत्र-पौत्रादिद से समृद्ध हो �ा�ा है। वह सभी निवकारों से मुQ हो �ा�ा है। ऐसा ज्ञा� प्राप्� कर�े वाला गुरु और चिशष्य, दो�ों ही इसी �न्म में पूण: पुरुष का पद प्राप्� कर�े में सफल हो �ा�े हैं। अक्षमाचिलकोपनि�षद / Akshmalikopnishadअक्षरों की माला �ो 'अ' वण: से प्रारम्भ होकर 'क्ष' वण: पर समाप्� हो�ी है, उसे 'अक्षमाला' कहा �ा�ा है। यह उपनि�षद ॠग्वेद से सम्बत्मिन्ध� है। इसमें प्र�ापनि� ब्रह्मा और कुमार कार्ति�ंकेय (गुह) के प्रश्नोGर को गूं0ा गया है। इसमें सव:प्र0म 'अक्षमाला' के निवषय में जि�ज्ञासा की गयी है निक यह क्या है, इसके निक��े लक्षण हैं, निक��े भेद है, निक��े सूत्र हैं, इसे निकस प्रकार गंू0ा �ा�ा है �0ा इसके अयिधष्ठा�ा देव�ा कौ� हैं? इ� सभी प्रश्नों का उGर इस उपनि�षद में दिदया गया है। सा0 ही फलश्रुनि� का निववे � भी निकया गया है। प्रश्नोGर प्रारम्भ कर�े से पहले ऋनिष शान्तिन्�पाठ कर�े हैं और परमा�मा से नित्रनिवध �ापों की शान्तिन्� के चिलए प्रा0:�ा कर�े हैं। प्रारम्भ में प्र�ापनि� ब्रह्मा भगवा� गुह (कार्ति�ंकेय) से प्रश्न कर�े हैं-'हे भगव�! आप कृपा करके अक्षनिवयिध ब�ा�े की कृपा करें निक इसका लक्षण क्या हैं? इसके भेद, सूत्र, गंू0�े का प्रकार, अक्षरों का महत्त्व और फल का निववे � करें।' अक्षमाला क्या है?�ब भगवा� गुह उGर दे�े हैं-'हे ब्राह्मण! यह अक्षमाला, प्रवाल (मूंगा), मो�ी, स्फदिटक, शंख, ांदी स्वण:, न्द�, पुत्र�ीनिवका, कमल एवं रुद्राक्ष द्वारा ब�ायी �ा�ी है। इसे 'अ' से 'क्ष' �क के अक्षरों से युQ करके निवयिधपूव:क धारण निकया �ा�ा है। इसमें स्वण:, ांदी और �ांबे से नि�र्ति�ं� �ी� सूत्र हो�े हैं। म�कों के निववर (छेद) में साम�े की ओर स्वण:, दानिह�े भाग में ांदी �0ा बाए ंभाग में �ांबा लगाया �ा�ा है। इ� म�कों के मुख से मुख को और पृष्ठ भाग से पृष्ठ भाग को �ोड़�ा ानिहए।' इ�के भी�र का सूत्र 'ब्रह्म' है। दानिह�े भाग में 'चिशव' है और बायें भाग में 'निवष्णु' है। मुख 'सरस्व�ी' है और पृष्ठभाग 'गायत्री' है। चिछद्र 'निवद्या' है, गांठ 'प्रकृनि�' है, स्वर सान्ति�वक हो�े के कारण शुभ्र-शे्व� हैं और �ो म�कों का स्पश: है, वह सान्ति�वक और �ामचिसक भावों का यिमत्तिश्र� स्वरूप है �0ा इ�के अनि�रिरQ सभी कुछ रा�सी वृत्तिGयों का कारण है। इस उपनि�षद में आगे ब�ाया गया है निक शुद्ध म� से स्�ा�ादिद करके म� को पं ामृ� में धोकर, म� को स्पश: करके मृ�यु को �ी��े वाले सव:रक्षक और सव:व्यापी परमा�मा का ध्या� कर�ा ानिहए। परमेश्वर का ध्या� कर�े हुए एक-एक म�के को छोड़कर अगले म�के पर बढ़�े �ा�ा ानिहए। माला पूण: हो�े पर पृथ्वी के समस्� देव�ाओं को प्रणाम कर�ा ानिहए। �दुपरान्� इस लोक की समस्� ौंसठ कलाओं को �मस्कार करें और उ�की शचिQयों का आह्वा� करें। ब्रह्मा, निवष्णु और रुद्र का बार-बार वन्द� करें। समस्� शैव, वैष्णव और शाQ म�ावलत्मिम्बयों को �मस्कार करें और अन्� में ईश्वर से कहें निक इस

अक्षमाचिलका में जि���े भी म�के हैं, प्रभु आप उ�के द्वारा अप�े सभी उपासकों को सुख-समृजिद्ध प्रदा� करें। इ� म�कों को इसी क्रम में बढ़ाकर इ�की संख्या एक सौ आठ कर�ी ानिहए। मेरू में पूवा:Q की भांनि� 'क्ष' अक्षर ही रहेगा। इस प्रकार म�कों को एक सूत्र में निपरोकर माला �ैयार करें। अक्षमाचिलका की स्�ुनि� कर�े के पश्चा� उसे उठाकर व प्रदत्तिक्षणा करके पु�: हा0 �ोड़कर प्रा0:�ा करें-'हे भगव�ी मा�ृशचिQ! �ुम सभी को वश में कर�े वाली हो। हम �ुम्हें बार-बार �म� कर�े हैं। हे अक्षमाले! �ुम सभी की गनि� को स्�ब्धिम्भ� कर�े वाली हो, �ुम मृ�यंु�य-स्वरूनिपणी हो, �ुम सभी लोकों की रक्षक हो, समस्� निवश्व की प्राणशचिQ हो, �ुम समस्� प्रकृनि� में निवद्यमा� हो, �ुम सम्पूण: शचिQयों को दे�े वाली हो, हम �ुम्हें बार-बार �मस्कार कर�े हैं।' इस उपनि�षद का प्रा�: काल के समय में पाठ कर�े वाला रानित्र में निकये गये पाप कृ�यों से मुQ हो �ा�ा है। सायंकाल में पाठ कर�े वाला दिद�-भर में निकये पापों से मुQ हो �ा�ा है। �ो दो�ों समय पाठ कर�ा है, उसके सभी पाप �ष्ट हो �ा�े हैं। राधोपनि�षदऋग्वेदीय परम्परा के इस उपनि�षद में स�कादिद ऋनिषयों �े ब्रह्मा�ी से 'परम शचिQ' के निवषय में प्रश्न निकया है। ब्रह्मा �ी �े वासुदेव कृष्ण को सव:प्र0म देव�ा स्वीकार करके उ�की निप्रय शचिQ श्रीराधा को सव:श्रेष्ठ शचिQ कहा है। भगवा� श्रीकृष्ण द्वारा आरायिध� हो�े के कारण उ�का �ाम 'रायिधका' पड़ा। इस उपनि�षद में उसी राधा की मनिहमामयी शचिQयों को उल्लेख है। उसके चि न्��-म�� से मोक्ष-प्रान्तिप्� की बा� कही गयी है। स�कादिद ऋनिषयों द्वारा पूछ �ा�े पर ब्रह्मा �ी उन्हें ब�ा�े हैं निक वृन्दाव� अधीश्वर श्री कृष्ण ही एकमात्र सव�श्वर हैं। वे समस्� �ग� के आधार हैं। वे प्रकृनि� से परे और नि��य हैं। उस सव�श्वर श्री कृष्ण की आह्लादिद�ी, सत्मिन्ध�ी, ज्ञा� इ�ा, निक्रया आदिद अ�ेक शचिQयां हैं। उ�में आह्लादिद�ी सबसे प्रमुख है। वह श्री कृष्ण की अं�रंगभू�ा 'श्री राधा' के �ाम से �ा�ी �ा�ी हैं। श्री राधा �ी की कृपा जि�स पर हो�ी हैं, उसे सह� ही परम धाम प्राप्� हो �ा�ा है। श्री राधा �ी को �ा�े निब�ा श्री कृष्ण की उपास�ा कर�ा, महामूढ़�ा का परिर य दे�ा है। [संपादिद� करें] श्रीराधा�ी के 28 �ामश्री राधा �ी के जि�� 28 �ामों से उ�का गुणगा� निकया �ा�ा है वे इस प्रकार हैं- राधा, रासेश्वरी, रम्या, कृष्णमत्रायिधदेव�ा, सवा:द्या, सव:वन्द्या, वृन्दाव�निवहारिरणी, वृन्दाराधा, रमा, अशेषगोपीमण्डलपूजि��ा, स�या, स�यपरा, स�यभामा, श्रीकृष्णवल्लभा, वृषभा�ुसु�ा, गोपी, मूल प्रकृनि�, ईश्वरी, गान्धवा:, रायिधका, रम्या, रुच्छिक्मणी , परमेश्वरी, परा�पर�रा, पूणा:, पूण: न्द्रनिवमा��ा, भुचिQ-मुचिQप्रदा और

भवव्यायिध-निव�ाचिश�ी। यहाँ 'रम्या' �ाम दो बार प्रयुQ हुआ है। ब्रह्मा�ी का कह�ा है निक राधा के इ� म�ोहारिरणी स्वरूप की स्�ुनि� वेदों �े भी गायी है। �ो उ�के इ� �ामों से स्�ुनि� कर�ा है, वह �ीव� मुQ हो �ा�ा है। यह शचिQ �ग� की कारणभू�ा स�, र�, �म के रूप में बनिहरंग हो�े के कारण �ड़ कही �ा�ी है। अनिवद्या के रूप में �ीव को बन्ध� में डाल�े वाली 'माया' कही गयी है। इसचिलए इस शचिQ को भगवा� की निक्रया शचिQ हो�े के कारण 'लीलाशचिQ' के �ाम से पुकारा �ा�ा है। इस उपनि�षद का पाठ कर�े वाले श्रीकृष्ण और श्रीराधा के परम निप्रय हो �ा�े हैं और पुण्य के भागीदार ब��े हैं। व�:मा� कनि�पय निवद्वा� 'राधा' का अ0: 'कृनिष' से भी लगा�े हैं, निकन्�ु यह उपनि�षद का निवषय �हीं है।

SHUKLA YAJURVED KE UPANISHADत्तिभकु्षकोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 त्तिभक्षुकोपनि�षद 2 कुटी क्र 3 बहूदक 4 हंस 5 परमहंस 6 सम्बंयिध� लिलंक

शुक्ल य�ुव�दीय इस उपनि�षद में आ�म-कल्याण और लोक-कल्याण हे�ु त्तिभक्षा द्वारा �ीव�-याप� कर�े वाले संन्याचिसयों का संके्षप में वण:� निकया गया है। इस उपनि�षद में कुल पां मन्त्र हैं। इस उपनि�षद में ब�ाया गया है निक मोक्ष की काम�ा रख�े वाले त्तिभक्षुओं की ार शे्रत्तिणयां हो�ी हैं-'कुटी क, बहूदक, हंस और परमहंस।' कुटी क्रत्तिभक्षु गौ�म, भारद्वा�, याज्ञवल्क्य और वचिसष्ठ आदिद के समा� आठ ग्रास भो�� लेकर योगमाग: से मोक्ष के चिलए प्रय�� कर�े हैं। इसमें मात्र शरीर की रक्षा के चिलए न्यू��क भो�� ग्रहण कर�े का निवधा� है। बहूदकत्तिभक्षु नित्रदण्ड, कमण्डलु, चिशखा, यज्ञोपवी� और काषाय वस्त्र धारण कर�े हैं। मधु-मांस आदिद का पूण:�: �याग कर�े हैं। निकसी सदा ारी व्यचिQ के घर से त्तिभक्षा द्वारा आठ ग्रास भो�� ग्रहण करके योगमाग: द्वारा मोक्ष की प्रान्तिप्� के चिलए प्रय��शील हो�े हैं। हंसत्तिभक्षु निकसी गांव में एक रानित्र, �गर में पां रानित्र, �ी0:क्षेत्र में सा� रानित्र से अयिधक नि�वास �हीं कर�े। वे गोमूत्र और गोबर का आहार ग्रहण कर�े हुए नि��य ान्द्रायण व्र� का पाल� करके योगमाग: से मोक्ष की खो� कर�े हैं। परमहंसत्तिभक्षु संव�:क, आरूत्तिण, शे्व�के�ु, �ड़भर�, दGाते्रय, शुकदेव, वामदेव और हारी�क आदिद की भांनि� आठ ग्रास भो�� ग्रहण करके योगमाग: में निव रण कर�े हुए मोक्ष-प्रान्तिप्� के चिलए प्रय��शील रह�े हैं। इ�का नि�वास निकसी वृक्ष के �ी े, निकसी शून्य गृह में या निफर श्मशा� में हो�ा है। उ�के चिलए 'दै्व� भाव' का कोई अत्तिभम� �हीं हो�ा। यिमट्टी और सो�े में कोई भेद �हीं हो�ा। वे सभी वण- में समा� भाव से त्तिभक्षावृत्तिG कर�े हैं और सभी �ीवों में अप�ी 'आ�मा' के दश:� कर�े हैं। वे शुद्ध म� से परमहंस वृत्तिG का पाल� कर�े हुए शरीर का �याग कर�े हैं। अध्या�मोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में 'आ�म�त्त्व' से साक्षा�कार का निवषय उठाया गया। अ�न्मा रूप में वह 'पदब्रह्म' समस्� रा र प्रकृनि� में संव्याप्� है, निकन्�ु �ीव उसकी सGा को भुलाये बैठा रह�ा है। इसीचिलए ऋनिषयों �े इस उपनि�षद में 'सोऽहम' एवं '�त्त्वमचिस' आदिद सूत्रों से उसे समझा�े का प्रयास निकया है। 'सोऽहम' का अ0: है- 'वह मैं हूं' और '�त्त्वमचिस' का अ0: है- 'वह �ुम हो।' निवकारों से मुQ होकर �0ा अप�ी इजिन्द्रयों को नि�यन्तिन्त्र� कर�े वाला साधक ही उसे प्राप्� कर पा�ा है, उसके मम: को समझ पा�ा है। यहाँ �ीव�-मुQ अवस्था का वण:� कर�े हुए, उस च्छिस्थनि� में �ब साधक भाग्य से प्राप्� कम:फलों को भोग रहा है, मुचिQ पा�े का सुझाव दिदया गया है। गुरु द्वारा दिदखाये माग: पर लकर साधक हर प्रकार के कम:फलों से मुQ हो �ा�ा है और परमा�मा का साक्षा�कार कर�ा है। वह अ�न्मा ब्रह्म कहां है?हमारे इस भौनि�क �श्वर शरीर में वह अ�न्मा ब्रह्म सदैव निवद्यमा� रह�ा है। वह - पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश - सभी पं �त्त्वों में नि�वास कर�ा है। वह म� में, बुजिद्ध में, अहंकार में, चि G में, अव्यQ में, अक्षर में, मृ�यु में और सभी �ड़- े�� पदा0- �0ा �ीवों में नि�वास कर�ा है और कोई भी उसे �हीं �ा��ा; क्योंनिक वह सबसे �टस्थ रह�ा है। उसके �ा�े ही सभी

कुछ �ष्ट हो �ा�ा है। साध�ा के द्वारा साधक उसे �ा��े का प्रयास कर�ा है। यही अध्या�म का निवषय है। �ो साधक सब ओर 'ब्रह्म की सGा' को ही देख�ा है, उसकी वास�ाओं का स्व�: ही लय हो �ा�ा है। वह 'निवदेह' हो �ा�ा है। जि�सका 'आ�म�त्त्व' एकमात्र 'ब्रह्म' में ली� हो �ा�ा है।, वह नि�र्तिवंकार और नि�त्मिष्क्रय हो �ा�ा है। आवागम� के क्र से मुQ होकर वह 'मोक्ष' प्राप्� कर ले�ा है। 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञा� हो �ा�े पर करोड़ों कल्पों से अर्द्धि�ं� कम: �ष्ट हो �ा�े हैं। प्रारब्ध (भाग्य) कम: उसी समय चिसद्ध हो�ा है, �ब देह में आ�म-भाव का उदय हो�ा है, परन्�ु देह से परे आ�मबुजिद्ध का परिर�याग करके ही समस्� कम- का परिर�याग कर�ा ानिहए। उसे सदैव यही सो �ा ानिहए निक मैं-अम�ा:ऽहमभोQाऽमनिवकारोऽहमव्यय:।शुद्धों बोधस्वरूपोऽहंकेवलोऽहम्सदाचिशव:॥70॥ अ0ा:� मैं अक�ा: हूं, अभोQा हूँ, अनिवकारी और अव्यय हूँ। मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाचिशव हँू। इस निवद्या को पहले सदाचिशव �े अपान्�र�म �ामक देवपुत्र को दिदया। निफर अपान्�र�म �े ब्रह्मा को दी। ब्रह्मा �े घोर आंनिगरस ऋनिष को दी। घोर आंनिगरस �े रैक्व �ामक गाड़ीवा� को दी। रैक्व �े परशुराम को दी। परशुराम �े इसे समस्� प्रात्तिणयों को दिदया। अध्या�म द्वारा मोक्ष-प्रान्तिप्� का यही वैदिदक आदेश है। बृहदारण्यकोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 बृहदारण्यकोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 दूसरा अध्याय 4 �ीसरा अध्याय 5 ौ0ा अध्याय 6 पां वां अध्याय 7 छठा अध्याय 8 सम्बंयिध� लिलंक

यह उपनि�षद शुक्ल य�ुव�द की काण्व-शाखा के अन्�ग:� आ�ा है। 'बृह�' (बड़ा) और 'आरण्यक' (व�) दो शब्दों के मेल से इसका यह 'बृहदारण्यक' �ाम पड़ा है। इसमें छह अध्याय हैं और प्र�येक अध्याय में अ�ेक 'ब्राह्मण' हैं। प्र0म अध्यायइसमें छह ब्राह्मण हैं। प्र0म ब्राह्मण में, सृयिष्ट-रूप यज्ञ' को अश्वमेध यज्ञ के निवराट अश्व के समा� प्रस्�ु� निकया गया है। यह अ�यन्� प्र�ीका�मक और रहस्या�मक है। इसमें प्रमुख रूप से निवराट प्रकृनि� की उपास�ा द्वारा 'ब्रह्म' की उपास�ा की गयी है। दूसरे ब्राह्मण में, प्रलय के बाद 'सृयिष्ट की उ�पत्तिG' का वण:� है। �ीसरे ब्राह्मण में, देव�ाओं और असुरों के 'प्राण की मनिहमा' और उसके भेद स्पष्ट निकये गये हैं। ौ0े ब्राह्मण में, 'ब्रह्म को सव:रूप' स्वीकार निकया गया है और ारों वण- (ब्राह्मण, क्षनित्रय, वैश्य और शूद्र) के निवकास क्रम को प्रस्�ु� निकया गया है। पां वें ब्राह्मण में, सा� प्रकार के अन्नों की उ�पत्तिG का उल्लेख है और सम्पूण: सृयिष्ट को 'म�, वाणी और प्राण' के रूप में निवभाजि�� निकया गया है। छठे ब्राह्मण में, '�ाम, रूप और कम:' की ा: की गयी है।प्र0म ब्राह्मणइस ब्राह्मण में प्रकृनि� के निवराट रूप की �ुल�ा 'अश्वमेध यज्ञ' के घोडे़ से की गयी है। उसके निवनिवध अंगों में सृयिष्ट के निवनिवध स्वरूपों की कल्प�ा की गयी है। 'अश्व' शब्द शचिQ और गनि� का परिर ायक हैं। यह सम्पूण: ब्राह्मण भी नि�रन्�र स�� गनि�शील है। इस प्रकार वैदिदक ऋनिष अश्वमेध के अश्व के माध्यम से सम्पूण: सृयिष्ट को उस अज्ञा� शचिQ द्वारा स�� गनि�शील चिसद्ध कर�े हैं। 'अश्व' उस रा�ा की शचिQ का प्र�ीक है, �ो क्रव�² कहला�ा ाह�ा हैं इसी भांनि� यह सम्पूण: सृयिष्ट उस परब्रह्म की शचिQ का प्र�ीक है। जि�स प्रकार अश्वमेध यज्ञ में 'अश्व' की पू�ा की �ा�ी है और बाद में उसकी बचिल ढ़ा दी �ा�ी है, उसी प्रकार साधक इस सृयिष्ट की उपास�ा कर�ा है, निकन्�ु अन्� में इस सृयिष्ट को �श्वर �ा�कर छोड़ दे�ा है और इससे परे उस 'ब्रह्म' को ही अ�ुभव कर�ा है, �ो इस सृयिष्ट का नि�यन्�ा है। �ैसे लोनिकक �ग� में सभी 'अश्व' से परे उस 'रा�ा' को देख�े हैं, जि�सके यज्ञ का वह घोड़ा है �0ा 'रा�ा' ही प्रमुख हो�ा है, वैसे ही अध्यात्मि�मक �ग� में वह 'ब्रह्म' है। उदाहरण के रूप में ऋनिषयों की इस कल्प�ा का अवलोक� करें- यह यज्ञीय अश्व या निवश्वव्यापी शचिQ प्रवाह का चिसर 'उषाकाल' है। आदिद�य (सूय:) �ेत्र हैं, वायु प्राण है, खुला मुख 'आ�मा' है, अन्�रिरक्ष उदर है, दिद� और रानित्र दो�ों पैर हैं, �क्षत्र समूह अच्छिस्थयां हैं और आकाश मांस है। मेघों का ग�:� उसकी अंगड़ाई है और �ल-वषा: उसका मूत्र है और शब्द घोष (निह�निह�ा�ा) वाणी है। वास्�व में ये उपमाए ंउस निवराट सृयिष्ट का केवल बोध करा�ी हैं। दूसरे शब्दों में ऋनिषगण मू�: प्र�ीकों के द्वारा अमू�: ब्रह्म की निवराट सं े��ा का दिदग्दश:� करा�े हैं। वही उपास�ा के योग्य है।

दूसरा ब्राह्मणइसमें सृयिष्ट के �न्म की अद्भ�ु कल्प�ा की गयी है। कोई �हीं �ा��ा निक सृयिष्ट का नि�मा:ण और निवकास कैसे हुआ, निकन्�ु वैदिदक ऋनिषयों �े अ�यन्� वैज्ञानि�क ढंग से सृयिष्ट के निवकास-क्रम को प्रस्�ु� निकया है। उ�का कह�ा है निक सृयिष्ट के प्रारम्भ में कुछ �हीं 0ा। केवल एक 'स�्' ही 0ा, �ो प्रलय-रूपी मृ�यु से ढका हुआ 0ा। �ब उस�े संकल्प निकया निक उसे पु�: उदिद� हो�ा है। उस संकल्प के द्वारा आप: (�ल) का प्रादुभा:व हुआ। इस �ल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो �ा�े से पृथ्वी की उ�पत्तिG हुई। उसके उपरान्� सृयिष्ट के सृ��क�ा: के श्रम-स्वरूप उसका �े� अग्निग्� के रूप में प्रकट हुआ। �दुपरान्� परमेश्वर �े अप�े अग्निग्�-रूप के �ृ�ीयांश को सूय:, वायु और अग्निग्� �ी� भागों में निवभQ कर दिदया। पूव: दिदशा उसका शीष: भाग (चिसर), उGर-दत्तिक्षण दिदशाए ंउसका पाश्व: भाग औ दु्यलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्�रिरक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्निग्� �त्त्व उस निवराट पुरुष की आ�मा ब�े। यही प्राण�त्त्व कहलाया। इसके बाद इस निवराट पुरुष की इ�ा हुई निक अन्य शरीर उ�पन्न हों। �ब यिम0ु�ा�मक सृयिष्ट का नि�मा:ण प्रारम्भ हुआ। �र-�ारी, पशु और पत्तिक्षयों �0ा �ल रों में �र-मादा के युग्म ब�े और उ�के यिम0ु�-संयोग से �ीव� का क्रयिमक निवकास हुआ। निफर इसके पाल� के चिलए अन्न से म� और म� से वाणी का सृ�� हुआ। वाणी से ऋक्, य�ु, साम का सृ�� हुआ।�ीसरा ब्राह्मणयहाँ प्र�ापनि�-पुत्रों के दो वग- का उल्लेख है। एक देवगण, दूसरे असुर। देवगण संख्या में कम 0े और असुरगण अयिधक। दो�ों में प्रनि�स्पद्धा: हो�े लगी। देव�ाओं �े नि�श्चय निकया निक वे यज्ञ में 'उद्गी0' (सामूनिहक मन्त्रगा�) द्वारा असुरों पर हावी हो�े का प्रय�� करें। ऐसा निव ार करके उन्हों�े, पहले वाक् से, निफर प्राण, कु्ष, का�, म�, मुख प्राण आदिद से उद्गी0 पाठ कर�े का नि�वेद� निकया। सभी �े देव�ाओं के चिलए 'उद्गी0' निकया, परन्�ु हर बार असुरगणों �े उन्हें पाप से मुQ कर दिदया। इस कारण वाणी, प्राण-शचिQ, कु्ष, का� या म� दूनिष� हो गये, निकन्�ु मुख में नि�वास कर�े वाले प्राण को वे दूनिष� �हीं कर सके। वहां असुरगण पूरी �रह पराजि�� हो गये। इस मुख में समस्� अंगों का रस हो�े के कारण इसे 'आंनिगरस' भी कहा �ा�ा है। इस प्राण-रूप देव�ा �े इजिन्द्रयों के समस्� पापों को �ष्ट करके उन्हें शरीर की सीमा से बाहर कर दिदया। �ब उस प्राणदेव�ा �े वाग्देव�ा (वाणी), कु्ष, घ्राण-शचिQ, श्रवण-शचिQ, म�-शचिQ आदिद से मृ�यु-भय को दूर कर दिदया और निफर प्राण-शचिQ को भी मृ�यु-भय से दूर कर दिदया। समस्� देवगुण प्राण में प्रवेश कर गये और अभय हो गये। यह प्राण ही 'साम' है। वाक् ही 'सा' और प्राण ही 'अम' है। दो�ों के सहयोग से 'साम' ब��ा है, अ0ा:� यदिद प्राण�त्त्व से गाय� निकया �ाये, �ो वह �ीव�-साध�ा को सफल ब�ा�ा है। वाणी और हृदयग� भावों का संयोग सामगा� को अमर ब�ा दे�ा है। ऐसा गा� कर�े वाला ध�-धान्य व ऐश्वय: से सम्पन्न हो�ा है। उसे प्रनि�ष्ठा प्राप्� हो�ी है। ौ0ा ब्राह्मणयहाँ 'ब्रह्म' की एकांगी�ा पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म के चिसवा सृयिष्ट में कोई दूसरा �हीं है। उसके चिलए यही कहा �ा सक�ा है- 'अहब्धिस्म, 'अ0ा:� मैं हूं। इसीचिलए ब्रह्म को अहम संज्ञक कहा �ा�ा है। एकाकी हो�े के कारण वह रमा �हीं। �ब उस�े निकसी अन्य की आकांक्षा की। �ब उस�े अप�े को �ारी के रूप में निवभQ कर दिदया। 'अद्ध:�ारीश्वर' की कल्प�ा इसीचिलए की गयी है। पुरुष और स्त्री के यिमल� से मा�व-�ीव� का निवकास हुआ। प्र0म रण में प्रकृनि� संकल्प करके सवं्य को जि�स-जि�स पशु-पक्षी आदिद �ीवों के रूप में ढाल�ी गयी, उसका वैसा-वैसा रूप ब��ा गया और उसी के अ�ुसार उ�के युग्म ब�े और मै0ु�ी सृयिष्ट से �ीव� के निवनिवध रूपों का �न्म हुआ। सबसे पहले ब्रह्म 'ब्राह्मण' वण: में 0ा। पु�: उस�े अप�ी रक्षा के चिलए क्षनित्रय वण: का सृ�� निकया। निफर उस�े वैश्य वण: का सृ�� निकया और अन्� में शूद्र वण: का सृ�� निकया और उन्हीं की प्रवृत्तिGयों के अ�ुसार उ�के काय- का निवभा�� निकया। कम: का निवस्�ार हो�े के उपरान्� 'धम:' की उ�पत्तिG की। धम: से श्रेष्ठ कुछ भी �हीं हे। धम: की स�या है। इसी �े 'आ�मा' से परिर य करायां यह 'आ�मा' ही समस्� �ीवों को आश्रय प्रदा�ा है। यज्ञ द्वारा इसी 'आ�माय को प्रसन्न कर�े से देवलोक की प्रान्तिप्� हो�ी है।पां वां ब्राह्मणपरमानिप�ा �े सृयिष्ट का सृ�� करके कु्षधा-�ृन्तिप्� के चिलए ार प्रकार के अन्नों का सृ�� निकया। उ�में एक प्रकार का अन्न सभी के चिलए, दूसरे प्रकार का अन्न देव�ाओं के चिलए, �ीसरे प्रकार का अन्न अप�े चिलए �0ा ौ0े प्रकार का पशुओं के चिलए निव�रिर� कर दिदया। धर�ी से उ�पन्न अन्न सभी के चिलए है। उसे सभी को समा� रूप से उपभोग कर�े का अयिधकार है। हव� द्वारा दया �ा�े अन्न देव�ाओं के चिलए है। पशुओं को दिदया �ा�े वाला खाद्यान्न दूध उ�पन्न कर�ा है। यह दूध सभी के पी�े योग्य हे। शीघ्र उ�पन्न हुए ब ् को स्��पा� से दूध ही दिदया �ा�ा है। कहा गया निक एक वष: �क दूध से नि�रन्�र अग्निग्�होत्र कर�े पर मृ�यु भी वश में हो �ा�ी हे। उस पुरुष �े �ी� अन्नों का य� अप�े चिलए निकया। ये �ी� अन्न-'म�, 'वाणी' और 'प्राण' हैं वाणी द्वारा पृथ्वीलोक को, म� द्वारा अन्�रिरक्षलोक को और प्राण द्वारा स्वग:लोक को पाया �ा सक�ा है। वाणी ॠग्वेद, म� य�ुव�द और प्राण सामवेद है। �ो कुछ भी �ा��े योग्य है, वह म� का स्वरूप है। वाणी ज्ञा�-स्वरूप होकर �ीवा�मा की रक्षा कर�ी है और �ो कुछ अ��ा�ा है, वह प्राण-स्वरूप है। इस निवश्व में �ो कुछ भी स्वाध्याय या ज्ञा� है, वह सब 'ब्रह्म' से ही एकीकृ� है। वस्�ु�: यह सूय: नि�त्तिश्च� रूप से प्राण से ही उदिद� हो�ा है और प्राण में ही समा �ा�ा है।छठा ब्राह्मण

इस संसार में �ो कुछ भी है, वह �ाम, रूप और कम:, इ� �ी�ों का ही समुदाय है। इ� �ामों का उपादा� 'वाणी' हैं। समस्� �ामों की उ�पत्तिG इस वाणी द्वारा ही हो�ी है। समस्� रूपों का उपादा� ' कु्ष' है। समस्� सूय: इस क्षु से ही उ�पन्न हो�े हैं। समस्� रूपों को धारण कर�े से कु्ष ही इ� रूपों का प्राण है, 'ब्रह्म' है। समस्� कम- का उपादा� यह 'आ�मा' है। समस्� कम: शरीर से ही हो�े हैं और उसकी पे्ररणा शरीर में च्छिस्थ� यह आ�मा ही दे�ी है। यह 'आ�मा' ही सब कम- का 'ब्रह्म' है। आ�मा द्वारा ही �ाम, रूप और कम: उ�पन्न हुए हैं। अ�: ये �ी�ों अलग हो�े हुए भी एक आ�मा ही हैं। यह आ�मा स�य से आ�ादिद� है। यही अमृ� है। प्राण ही अमृ�-स्वरूप है। �ाम और रूप ही स�य हैं। अमृ� और स�य से ही प्राण आ�न्न है, ढका हुआ है, अज्ञा� है। दूसरा अध्यायदूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्र0म ब्राह्मण में डींग हांक�े वाले, अ0ा:� बहु� बढ़- ढ़कर बोल�े वाले गाग्य: बालानिक ऋनिष एवं निवद्वा� रा�ा अ�ा�शत्रु के संवादों द्वारा 'ब्रह्म' व 'आ�म�त्त्व' को स्पष्ट निकया गया है। दूसरे और �ीसरे ब्राह्मण में 'प्राणोपास�ा' �0ा ब्रह्म के दो मूG:-अमूG: रूपों का वण:� निकया गया है। इन्हें 'साकार' और 'नि�राकार' ब्रह्म भी कहा गया है। ौ0े ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैते्रयी संवाद हैं। पां वें और छठे ब्राह्मण में 'मधुनिवद्या' औ उसकी परम्परा का वण:� है।प्र0म ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'ब्रह्मज्ञा�' का उपदेश दे�े एक बार गग: गोत्रीय बालानिक �ामक ऋनिष वेद प्रवQा काशी �रेश अ�ा�शतु्र के दरबार में पहुं �े हैं। वहां वे अहंकारपूण: वाणी में 'ब्रह्मज्ञा�' का उपदेश दे�े की बा� कर�े हैं इस पर निवद्वा�् अ�ा�शतु्र बदले में उन्हें एक सहस्त्र गौए ंप्रदा� कर�े की बा� कर�े हैं, परन्�ु बालानिक मुनि� अ�ा�शतु्र को सन्�ुष्ट �हीं कर पा�े।दूसरा ब्राह्मणयहाँ निवराट 'ब्रह्माण्ड' और 'मा�व' की समा��ा का बोध कराया गया है। �ो ब्राह्मण में है, वही मा�व-शरीर में निवद्यमा� है। कहा भी है- यद ्निपण्डे �त्त्ब्रह्माण्डे, अ0ा:� �ो कुछ भी सू्थल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में निवद्यमा� है, वही इस निवराट ब्रह्माण्ड में च्छिस्थ� है। वास्�व में इस निवशाल सृयिष्ट का अनि�सूक्ष्म रूप परमा�मा �े इस मा�व-शरीर में स्थानिप� निकया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शचिQ के रूप में निवरा�मा� है। इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है निक जि�स�े आधा� (आधार), प्र�याधा� (शीष:), सू्थणा (खंूटा, अ0ा:� अन्न और �ल से प्राप्� हो�े वाली �ीव�ी-शचिQ) और दाम (बांध�े की रस्सी, अ0ा:� वह �ाल जि�ससे चिशशु मा�ा के सा0 �ुड़ा रह�ा है) को समझ चिलया, वह परमज्ञा� को प्राप्� कर ले�ा है। यहाँ चिशशु के रूपक द्वारा 'प्राण' को चिशशु का रूप ब�ाया गया है। यह चिशशु अ0वा 'प्राण' मा�व-शरीर का आधार हैं 'शीष:', अ0ा:� पां ों ज्ञा�ेजिन्द्रयों- आंख, का�, �ाक, जि�ह्वा और म�-प्र�याधा� हैं। श्वास की स्थूणा है और दाम 'अन्न' है। प्राण�त्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है। इसके निब�ा शरीर की सनिक्रय�ा अ0वा गनि�शील�ा की कल्प�ा ही �हीं की �ा सक�ीं इसीचिलए इसे शरीर का आधार मा�ा गया है। 'शीष:' ही समस्� ज्ञा�ेजिन्द्रयों का नि�यन्त्रण कर�ा है और 'श्वास' ही प्राण की सू्थणा शचिQ है। प्राण का आधार 'अन्न' है। चिशशु की ऊपरी पलक 'दु्यलोक' है और नि� ली पलक 'पृथ्वीलोक' है। पलकों का झपक�ा रा� और दिद� है। आंखों के लाल डोरे रुद्र अ0वा अग्निग्��त्त्व है। �ेत्रों का गीलाप� �ल�त्त्व है, सफेद भाग आकाश है, काली पु�ली पृथ्वी-�त्त्व है और पु�ली के मध्य च्छिस्थ� �ारा सूय: है, आंखों के चिछद्र वायु�त्त्व हैं। इस रहस्य को समझ�े वाला साधक �ीव� में कभी अभावग्रस्� �हीं हो�ा। हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी �ट पर 'सप्� ऋनिष' निवद्यमा� हैं दो का�, दो �ेत्र, दो �ाचिसका चिछद्र और एक रस�ा, ये सा� ऋनिष हैं। इ�के सा0 संवाद कर�े वाली आठवीं 'वाणी' है। ये दो�ों का� गौ�म और भारद्वा� ऋनिष हैं ये दो�ों �ेत्र ही निवश्वायिमत्र और �मदग्निग्� ऋनिष हैं, दो�ों �ाचिसका चिछद्र वचिसष्ठ और कश्यप हैं और वाक् ही सा�वें अनित्र ऋनिष हैं। �ो ऐसा �ा��ा है, वह समस्� अन्न भोगों का स्वामी हो�ा है।�ीसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' कें दो रूपों-'मू�:य और 'अमू�:,' अ0ा:� 'व्यQ' और 'अव्यQ' स्वरूपों का वण:� निकया गया है। �ो मू�: या व्यQ है, वह च्छिस्थर, �ड़ और �ाशवा� है, मारणधमा: है, निकन्�ु �ो अमू�: या अव्यQ है, वह सूक्ष्म, अनिव�ाशी और स�� गनि�शील है। आदिद�य मण्डल में �ो निवचिशष्ट �े�स्-स्वरूप पुरुष है, वह अम�य: और अव्यQ भू�ों का सार-रूप है। वायु और अन्�रिरक्ष भी अव्यQ और अम�य: हैं। वे नि�रन्�र गनि�शील हैं। मा�व-शरीर में आकाश और प्राण�त्त्व से त्तिभन्न �ो पृथ्वी, �ल, अग्निग्� का अंश निवद्यमा� है, वह मू�: और मरणधमा: है। �ेत्र इस स�् का सार-रूप है। 'ब्रह्म' के चिलए सव�Gम उपदेश '�ेनि�-�ेनि�' है, अ0ा:� उस परब्रह्म के य0ा0: रूप को पूण: रूप से कोई भी आ� �क �हीं �ा� सका। उसे 'स�य' �ाम से �ा�ा �ा�ा हैं यह प्राण ही नि�श्चय रूप से 'स�य' है और वही 'ब्रह्म' का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्� ब्रह्माण्ड समाया हुआ है। ौ0ा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में, महर्तिषं याज्ञवल्क्य व उ�की धम:प��ी मैते्रयी में 'आ�म�त्त्व' को लेकर संवाद है। एक बार महर्तिषं याज्ञवल्क्य �े गृहस्थ आश्रम छोड़कर वा�प्रस्थ आश्रम में �ा�े की इ�ा व्यQ कर�े हुए अप�ी प��ी से कहा निक वे अप�ा सब कुछ उसमें और अप�ी दूसरी प��ी का�याय�ी में बांट दे�ा ाह�े हैं। इस पर मैते्रयी �े उ�से पूछा निक क्या इस ध�-सम्पत्तिG से अमृ�व की आशा की �ा सक� है? क्या वे उसे अमृ�व-प्रान्तिप्� का उपाय ब�ायेंगे?इस पर महर्तिषं याज्ञवल्क्य �े कहा-'हे देवी! ध�-सम्पत्तिG से अमृ�व प्राप्� �हीं निकया �ा सक�ा। अमृ�व के चिलए आ�मज्ञा� हो�ा अनि�वाय: है; क्योंनिक आ�मा द्वारा ही आ�मा को ग्रहण निकया �ा सक�ा है।'उन्हों�े कहा-'हे मैत्रेयी! पनि� की आकांक्षा-पूर्ति�ं के

चिलए, पनि� को प��ी निप्रय हो�ी है। इसी प्रकार निप�ा की आकांक्षा के चिलए पुत्रों की, अप�े स्वा0: के चिलए ध� की, ज्ञा� की, शचिQ की, देव�ाओं की, लोकों, की और परिर��ों की आवश्यक�ा हो�ी है। इसी प्रकार, 'आ�म-दश:�' के चिलए श्रवण, म�� और ज्ञा� की आवश्यक�ा हो�ी है। कोई निकसी को आ�म-दश:� �हीं करा सक�ा। इसका अ�ुभव स्वयं ही अप�ी आ�मा में कर�ा हो�ा है।'उन्हों�े अ�ेक दृष्टान्� देकर इसे समझाया-'हे देवी! जि�स प्रकार '�ल' का आश्रय समुद्र है, 'स्पश:' का आश्रय �व ा है, 'गन्ध' का आश्रय �ाचिसका है, 'रस' का आश्रय जि�ह्वा है, 'रूपों' का आश्रय कु्ष हैं, 'शब्द' का आश्रय श्रोत्र (का�) हैं, सभी 'संकल्पों' का आश्रय म� है, 'निवद्याओं का आश्रय हृदय है, 'कम-' का आश्रय हा0 हैं, समस्� 'आ�न्द' का आश्रय उपस्थ (इन्द्री) है, 'निवस�:�' का आश्रय पायु (गुदा) है, समस्� 'माग�' का आश्रय रण हैं और समस्� 'वेदों' काक आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी 'आ�माओं' का आश्रय 'परमा�मा' है।' उन्हों�े आगे ब�ाया-'हे मैत्रेयी! जि�स प्रकार �ल में घुले हुए �मक को �हीं नि�काला �ा सक�ा, उसी प्रकार उस महाभू�, अन्�ही�, निवज्ञा�घ� परमा�मा में सभी आ�मांए समाकर निवलुप्� हो �ा�ी हैं। �ब �क 'दै्व�' का भाव ब�ा रह�ा है, �ब �क वह परमा�मा दूरी ब�ाये रख�ा है, निकन्�ु 'अदै्व�' भाव के आ�े ही आ�मा, परमा�मा में ली� हो �ा�ा है, अ0ा:� उसे अप�ी आ�मा से ही �ा��े का प्रय�� करो।'पां वां ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'मधुनिवद्या, 'अ0ा:�' आ�मनिवद्या' का वण:� है। इस मधुनिवद्या का उपदेश ऋनिष आ0व:ण दध्यंग �े सव:प्र0म अत्तिश्व�ीकुमारों को दिदया 0ा। मन्त्र दृष्ट �े कहा निक परब्रह्म �े सव:प्र0म दो पैर वाले और ार पैर वाले शरीरों का नि�मा:ण निकया 0ा। उसके पश्चा� वह निवराट पुरुष उ� शरीरों में प्रनिवष्ट हो गया। उस�े कहा निक शरीरधारी को उसके य0ा0: रूप में प्रकट कर�े के चिलए वह पुरुष शरीरधारी के प्रनि�रूप �ल, वायु, आकाश आदिद की भांनि� हो �ा�ा है। वह परमा�मा एक हो�े हुए भी माया के कारण अ�ेक रूपों वाला प्रनि�भाचिस� हो�ा है। वस्�ु�: समस्� निवषयों का अ�ुभव कर�े वाला 'आ�मा' ही 'ब्रह्मरूप' है। यह समस्� पृथ्वी, समस्� प्राणी, समस्� �ल, समस्� अग्निग्�, समस्� वायु, आदिद�य, दिदशाए,ं न्द्रमा, निवदु्य�, मेघ, आकाश, धम:, स�य और म�ुष्य मधु-रूप हैं, अ0ा:� आ�मरूप है। सभी में वह निव�ाशरनिह�, �े�स्वी 'आ�मा' निवद्यमा� है। वही सव:व्यापी परमा�मा का सूक्ष्म अंश है। यह 'आ�मा' समस्� �ीवों का मधु है और �ीव इस आ�मा के मधु हैं। इसी में वह �े�स्वी वर अनिव�ाशी पुरुष 'परब्रह्म' के रूप में च्छिस्थ� है। वह 'ब्रह्म' कारणनिवही�, काय:निवही�, अन्�र और बाहर से निवही�, अमू�: रूप है। इसी ब्रह्म स्वरूप 'आ�मा' को �ा��े अ0वा इसके सा0 साक्षा�कार कर�े का उपदेश सभी वेदान्� दे�े हैं अ�: मधु'प उस आ�मा का चि न्�� करके ही, परमा�मा �क पहुं �ा ानिहए।छठा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'मधुकाण्ड' की गुरु-चिशष्य परम्परा का वण:� निकया गया है। यहाँ केवल ज्ञा� प्राप्� कर�े वाले ऋनिषयों की परम्परा का उल्लेख निकया गया है। उस सव:शचिQमा� परमा�मा की जि�स-जि�स �े अ�ुभूनि� की, उसे उस�े उसी प्रकार अप�े चिशष्य को दे दिदया। निकसी �े भी उस पर एकायिधकार कर�े का प्रय�� �हीं निकया। इस परम्परा में कनि�पय प्रचिसद्ध ऋनिष गौपव�, कौचिशक, गौ�म, शाच्छिण्डल्य, पराशर, भारद्वा�, आंनिगरस, आ0व:ण, अत्तिश्व�ीकुमार आदिद का उल्लेख है। �ीसरा अध्याय�ीसरे अध्याय में �ौ ब्राह्मण हैं। इ�के अन्�ग:� रा�ा ��क के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋनिष से निवत्तिभन्न �त्त्ववेGाओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उ�के उGर प्राप्� निकये गये हैं। गाग² द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ �ा�े पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानि�� करके रोक दे�े हैं। पु�: सभा की अ�ुमनि� से उसके द्वारा प्रश्न पूछे �ा�े हैं। वह उ�से अप�ी परा�य स्वीकार कर ले�ी है। इसी प्रकार शाकल्य ऋनिष अनि�प्रश्न कर�े के कारण अपमानि�� हो�े हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोGर रूप में यहाँ निकया गया है। इ�में भार�ीय '�त्त्व-दश:�' का नि� ोड़ प्राप्� हो�ा है।प्र0म ब्राह्मणएक बार निवदेहरा� ��क �े एक महा� यज्ञ निकया। उस यज्ञ में कुरु औ पां ाल प्रदेशों के बहु� से निवद्वा� पधारे। रा�ा �े यह �ा��े के चिलए निक इ�में सव��कृष्ट निवद्वा� कौ� है, अप�ी गौशाला से एक सहस्त्र स्वस्थ गौओं के सीगों में लगभग 100 ग्राम स्वण: बंधवा दिदया और सभी को सम्बोयिध� करके कहा निक �ो भी सवा:यिधक ब्रह्मनि�ष्ठ है, वह इ� गौओं को ले �ाये। उ� ब्राह्मणों में से निकसी का भी साहस �हीं हुआ, �ो महर्तिषं याज्ञवल्क्य �े अप�े एक चिशष्य सामश्रवा से उ� गौओं को हांक ले �ा�े के चिलए कहा। इससे अन्य ब्राह्मण क्रोयिध� हो उठे और ीख�े-चि ल्ला�े लगे निक यह हमसे सव:श्रेष्ठ कैसे हे? �ब उ�के मध्य शास्त्रा0: हुआ। सबसे पहले यज्ञ के हो�ा अश्वल �े प्रश्न निकया और याज्ञवल्क्य �े उसके प्रश्नों का उGर दिदया-अश्वल-'हे मुनि�वर! �ब यह सारा निवश्व मृ�यु के अधी� है, �ब केवल य�मा� ही निकस प्रकार मृ�यु के बन्ध� का अनि�क्रमण कर सक�ा है?'याज्ञवल्क्य— हो�ा �ामक ऋन्ति�वक वाक् (वाणी) और अग्निग्� है। वह इ� दो�ों शचिQयों के द्वारा मृ�यु को पार कर सक�ा है। वही मुचिQ और अनि�मुचिQ है। इसका भाव यही है निक �ो 'हो�ा' वाणी द्वारा उद्भ�ू मन्त्रों और यज्ञ की अग्निग्� के द्वारा परम 'ब्रह्म' का ध्या� कर�े हुए '�ाद-ध्वनि�' उ�पन्न कर�ा है, वह उस '�ाद-ध्वनि�' (�ाद-ब्रह्म) द्वारा मृ�यु को भी �ी� ल�ा है। 'हो�ा' यज्ञ का पुरोनिह� हो�ा है, वह यज्ञ में वाणी द्वासरा अक्षर-ब्रह्म की ही साध�ा कर�ा है। उसकी साध�ा कर�े वाला चिसद्ध पुरोनिह� मृ�यु को

भी अप�े वश में कर�े वाला हो�ा है। ऋनिष का संके� उसी ओर है। अश्वल—'हे मुनि�वर! समस्� दृश्य �ग� दिद� और रानित्र के अधी� है। इसका अनि�क्रमण कैसे निकया �ा सक�ा है, अ0ा:� इस पर निव�य का उपाय क्या है?'याज्ञवल्क्य—'ऋन्ति�वक �ेत्र और सूय: के माध्यम से मुQ हो सक�ा है, अ0ा:� रा� और दिद� पर निव�य पा सक�ा है। अध्वयु: ही यज्ञ का क्षु है। अ�: �ेत्र ही आदिद�य है और वही अध्वयु: है। मुचिQ और अनि�मुचिQ भी वही है।' इसका अ0: यह है निक अध्वयु: ऋन्ति�वक का काय: निवयिधव� मन्त्रोच्चार कर�े हुए यज्ञ में आहुनि� दे�ा हो�ा है। दूसरे, ' कु्ष' का �ा�पय: भौनि�क क्षुओं से � होकर म� की आंखों से है। एक योगी म� की इन्हीं आंखों से 'इड़ा' ( न्द्र) और पिपंगला (सूय:) �ानिड़यों का भेद� करके सुषुम्�ा में ली� होकर �ीवन्मुQ हो �ा�ा है। उसे रा� का अन्धकार और दिद� का प्रकाश एक समा� ही प्र�ी� हो�ा है। यह एक योनिगक प्रनिक्रया है।अश्वल—'हे मुनि�वर! सब कुछ 'कृष्ण पक्ष' और 'शुक्ल पक्ष' के अधी� है। निफर य�मा� निकस प्रकार इ�से मुQ हो सक�ा है?'याज्ञवल्क्य—'ऋन्ति�व�्, उद्गा�ा, वायु और प्राण के माध्यम से मुQ हो सक�ा है। उद्गा�ा को यज्ञ का प्राण कहा गया है �0ा यह प्राण ही वायु और उद्गा�ा है। यही मुQ और अनि�मुचिQ का स्वरूप हैं।' यहाँ इ� दो�ों पक्षों का �ा�पय: स्वर-निवज्ञा� पर आधारिर� है। प्राणायाम में प्राणवायु की गनि� को चिसद्ध करके म� को शान्� निकया �ा�ा है। उसके द्वारा मृ�यु की गनि� भी रोकी �ा सक�ी है। �ो योगी प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को �ी� ले�ा है, उसके समस्� भौनि�क निवकार �ष्ट हो �ा�े है। इ� निवकारों का �ष्ट हो�ा ही मृ�यु पर निव�य पा�ा है।अश्वल—'हे ऋनिषवर! यह �ो अन्�रिरक्ष है, नि�रालम्ब, अ0ा:� आधारही� प्र�ी� हो�ा है। निफर य�मा� कैसे स्वग:रोहण कर�ा है?'याज्ञवल्क्य—'ऋन्ति�व�, ब्रह्मा और न्द्रमा के द्वारा स्वगा:रोहण कर�ा है। म� ही न्द्रमा है। म� ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृचिQ, अनि�मुचिQ भी वही है।'यहाँ म� और म� में उठे निव ारों की अ�यन्� �ीव्र और अ�न्� गनि� की ओर संके� है। म� और म� के निव ारों को घ�ीभू� करके कुछ भी प्राप्� निकया �ा सक�ा है। उसे निकसी आधार की आवश्यक�ा �हीं हो�ी। अश्वल—'हो�ा ऋन्ति�वक आ� यज्ञ में निक��ी ऋ ाओं का उपयोग करेगा?'याज्ञवल्क्य-'�ी� ऋ ाओं का।'अश्वल-'उ� ऋ ाओं के �ाम क्या है?'याज्ञवल्क्य-'पहली पुरो�ुवाक्या (यज्ञ से पहले), दूसरी याज्मा (यज्ञ के समय उच्चरिर�) और �ीसरी शस्या (यज्ञ के बाद की स्�ुनि�यां) है।'अश्वल-'इ�से निकसे �ी�ा �ा�ा है?'याज्ञवल्क्य-'समस्� प्रात्तिण समुदाय को।'अश्वल-'आ� यज्ञ में निक��ी आहुनि�यां डाली �ायेगी?'याज्ञवल्क्य-'�ी�।'अश्वल-'�ी� कौ�-कौ� सी?'याज्ञवल्क्य-'पहली वह, �ो होम कर�े पर प्रज्ज्वचिल� हो�ी है। दूसरी वह, �ो होम कर�े पर शब्द कर�ी है और �ीसरी वह, �ो होम कर�े पर पृथ्वी में समा �ा�ी है। इ�से यज्ञमा� 'देवलोक', 'निप�ृलोक' और 'मृ�युलोक' को �ी� ले�ा है।अश्वल-'हे मुनि�वर! आ� उद्गा�ा इस यज्ञ में निक��े स्�ोत्रों का गाय� करेगा?'याज्ञवल्क्य-'�ी� स्�ोत्रों का। वे �ी� स्�ोत्र हैं- पुरो�ुवाक्या, याज्या और शस्या।'अश्वल-'इ�में से कौ� म�ुष्य के शरीर में रह�े वाले हैं?'याज्ञवल्क्य-'पुरो�ुवाक्या से पृथ्वी लोक पर, याज्या से अन्�रिरक्ष लोक पर और शस्या से दु्यलोक पर निव�य प्राप्� की �ा सक�ी है।'याज्ञवल्क्य के उGर सु�कर अश्वल ुप हो गये और ब्रह्मऋनिष की शे्रष्ठ�ा स्वीकार करके पीछे हट गये। �ब ऋनिष �े दूसरे ब्राह्मणों की ओर दृयिष्टपा� निकया निक अब वे प्रश्न पूछ सक�े हैं।दूसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में �र�कारू के पुत्र आ�:भाग और ऋनिष याज्ञवल्क्य के मध्य हुए शास्त्रा0: का वण:� है।आ�:भाग—'ऋनिषवर! ग्रहों और अनि�ग्रहों की संख्या निक��ी है? वे ग्रह और अनि�ग्रह कौ�-कौ� से हैं?'याज्ञवल्क्य—'ग्रह आठ हैं और आठ ही अनि�ग्रह भी हैं। 'प्राण' ग्रह है और 'अपा�' अनि�ग्रह है, 'वाक्शचिQ' ग्रह है और '�ाम' अनि�ग्रह है, 'रस�ा' ग्रह है और 'रस' अनि�ग्रह है, '�ेत्र' ग्रह है और 'काम�ा' अनि�ग्रह है, 'हा0' ग्रह है और 'कम:' अनि�ग्रह है, '�व ा' ग्रह है और 'स्पश:' अनि�ग्रह है। ये आठों ग्रह और आठों अनि�ग्रह एक-दूसरे के पूरक हैं; क्योंनिक 'अपा�' से संूघ�े का, '�ाम' से उच्चारण का, 'रस' से स्वाद का काय: हो�ा है और 'रूप' दो�ों द्वारा ही देखा �ा�ा है, 'शब्द' का� द्वारा सु�ा �ा�ा है, 'काम�ाएं' म� में ही उदिद� हो�ी हैं, 'कम:' हा0ों से ही निकये �ा�े हैं, 'स्पश:' का अ�ुभव �व ा ही कर�ी है।'आ�:भाग—'हे याज्ञवल्क्य! इस सृयिष्ट में �ो कुछ भी है, सभी मृ�यु का ग्रास है। अ�: वह कौ�-सा देव�ा है, मृ�यु जि�सका भो�� है?'

याज्ञवल्क्य—'अग्निग्� ही मृ�यु है और वह �ल का भो�� है। इस �थ्य को �ा��े वाला मृ�यु पर निव�य प्राप्� कर ले�ा है।'आ�:भाग—'मृ�यु के समय क्या प्राण शरीर छोड़ �ा�े हैं?'याज्ञवल्क्य—'प्राण शरीर �हीं छोड़�ा। 'आ�म�त्त्व' शरीर छोड़ �ा�ा है। शेष प्राण शरीर में रहकर वायु को शरीर में खीं �ा है। इसी से शरीर फूल �ा�ा है।'आ�:भाग—'मर�े के बाद भी पुरुष को क्या �हीं छोड़�ा?'याज्ञवल्क्य—'�ाम पुरुष को �हीं छोड़�ा। उसका �ाम उसके शुभ-अशुभ कम- से �ुड़ा रह�ा है।'आ�:भाग—'जि�स समय इस पुरुष की वाणी अग्निग्� में निवली� हो �ा�ी है और प्राण वायु में, कु्ष आदिद�य में, म� न्द्रमा में, श्रोत्र दिदशाओं में, शरीर पृथ्वी में, आ�मा आकाश में, लोभ समूह औषयिधयों में, केश व�स्पनि�यों में �0ा रQ व रे�स (वीय:) �ल में निवली� हो �ा�ा है, उस समय वह पुरुष कहां नि�वास कर�ा है?'याज्ञवल्क्य—'सौम्य आ�:भाग! �ुम मुझे अप�ा हा0 पकड़ाओं। हम दो�ों को ही इस प्रश्न का उGर समझ�ा होगा, निकन्�ु इस ��सभा के मध्य �हीं।'कुछ देर के चिलए दो�ों �े सभा से बाहर एकान्� में �ाकर चि न्�� निकया और लौटकर दो�ों कम: के निवषय में प्रशंसा कर�े लगे। याज्ञवल्क्य �े कहा-'नि�त्तिश्च� ही पुण्यकृ�यों से पुण्य और पापकृ�यों से पाप कमाया �ा�ा है। मृ�यु के उपरान्� म�ुष्य अप�े इन्हीं कम- में रह�ा है।'�ीसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में लाह्य के पुत्र भुज्यु ऋनिष याज्ञवल्क्य से प्रश्न कर�े हैं। इ� प्रश्नों में कोई निवशेष चि न्�� योग्य प्रश्न �हीं है। इसमें परिरत्तिक्ष�ों की ा: है। ौ0ा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में क्र-पुत्र उषस्� ऋनिष याज्ञवल्क्य से प्रश्न कर�े है। उषस्�—'हे ऋनिषवर! �ो प्र�यक्ष और साक्षा�् 'ब्रह्मा' है और समस्� �ीवों में च्छिस्थ� 'आ�मा' है, उसके निवषय में ब�ाइये?'याज्ञवल्क्य—'�ुम्हारी आ�मा ही सभी �ीवों के अन्�र में निवरा�मा� है। �ो प्राण के द्वारा �ीव�-प्रनिक्रया है, वही प्र�यक्ष ब्रह्म का स्वरूप' आ�मा' है।'उषस्�—'आप हमें साक्षा� प्र�यक्ष 'ब्रह्म' को और सवा:न्�र 'आ�मा' को स्पष्ट करके ब�ायें।'याज्ञवल्क्य—'�ुम्हारी आ�मा ही सवा:न्�र में प्रनि�यिष्ठ� है। दृयिष्ट दे�े वाले दृष्टा को देख सक�ा, श्रुनि� के श्रो�ा को सु� सक�ा, मनि� के मन्�ा को म�� कर�ा, निवज्ञानि� के निवज्ञा�ा को �ा� सक�ा �ुम्हारे चिलए असम्भव है। �ुम्हारी 'आ�मा' ही सवा:न्�र ब्रह्म है और शेष सब कुछ �ाशवा� है।' यह सु��े के बाद उषस्� मौ� हो गये।पां वां ब्राह्मणइस ब्राह्मण में कहोल और याज्ञवल्क्य के मध्य शास्त्रा0: का निववरण है। इसमें पु�: 'ब्रह्म' के अपरोक्ष रूप और 'आ�मा' के सवा:न्�र रूप के निवषय में प्रश्न हैं। इसका उGर दे�े हुए याज्ञवल्क्य कह�े हैं निक �ुम्हारा आ�मा ही सवा:न्�र में प्रनि�यिष्ठ� है। आ�मा भूख, प्यास, �रा, मृ�यु, शोक और मोह से परे है। इसे �ा��े के उपरान्� कोई इ�ा शेष �हीं रह�ी।छठा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में व कु्रसु�ा गाग² और ऋनिष याज्ञवल्क्य के मध्य प्रश्नोGर है।गाग²—'�ब सभी कुछ �ल में ओ�-प्रो� है, �ब �ल निकसमें ओ�-प्रो� है?' इसी क्रम में उस�े एक में से एक प्रश्न नि�कालकर पूछे। याज्ञवल्क्य—'�ल वायु में, वायु अन्�रिरक्षलोक में, अन्�रिरक्ष गन्धव:लोक में, गन्धव:लोक आदिद�यलोकों में, आदिद�यलोक न्द्रलोकों में, न्द्रलोक �क्षत्र लोकों में, �क्षत्रलोक देवलोकों में, देवलोक इन्द्रलोक में, इन्द्रलोक प्र�ापनि�लोक में �0ा प्र�ापनि�लोक ब्रह्मलोक में ओ�-प्रो� है।'निकन्�ु �ब गाग² �े पूछा निक ब्रह्मलोक निकस में ओ�-प्रो� है, �ो याज्ञवल्क्य �े उसे रोक दिदया और कहा-'गाग²! जि�से वाणी से व्यQ �हीं निकया �ा सक�ा, उसके निवषय में अहंकारपूण: �क: कर�ा उचि � �हीं है। कहीं ऐसा � हो निक अ�ग:ल प्रश्नों के कारण �ुम्हें अप�ा मस्�क निगरा�ा पडे़, अ0ा:� अपमानि�� हो�ा पडे़। याज्ञवल्क्य के द्वारा ल�ाड़�े पर गाग² ुप हो गयी।सा�वां ब्राह्मणइस ब्राह्मण में आरूत्तिण-पुत्र उद्दालक और महर्तिषं याज्ञवल्क्य के बी शास्त्रा0: है। इसमें उद्दालक काप्य प�ं�ल की प��ी पर आये गन्धव: से 'लोक-परलोक' के निवषय में पूछ गये प्रश्नों के सन्दभ: में पूछ�े हैं निक क्या वे उस सूत्र को �ा��े हैं, �ो गन्धव: �े काप्य प�ं�ल मुनि� को ब�ाया 0ा? इस पर याज्ञवल्क्य कह�े हैं निक वे उस सूत्र को �ा��े हैं वह सूत्र 'वायु सूत्र' है; क्योंनिक इहलोक, परलोक और समस्� प्राणी इस वायु के द्वारा ही गंु0े हुए हैं। इसके अनि�रिरQ, �ो इस पृथ्वी में संव्याप्� है, पृथ्वी ही जि�सका शरीर है, पर पृथ्वी उसे �हीं �ा��ी, �ो उसके भी�र बैठा हुआ सभी कुछ नि�यन्त्रण कर रहा है। वस्�ु�: यह �ुम्हारा 'आ�मा' है, �ो अनिव�ाशी है और अन्�या:मी है। वह �ल में, अग्निग्� में, अन्�रिरक्ष में, वायु में, दु्यलोक में, आदिद�य में, समस्� दिदशाओं में, न्द्र में, �ारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्� भू�ों (�ीवों) में, प्राण में, वाणी में, �ेत्रों में, का�ों में, म� में, �व ा में, निवज्ञा� में और वीय: के सूक्ष्म रूप में नि�वास कर�ा है। वह अ�श्वर है, '�ेनि� �ेनि�' है। केवल 'आ�मा' द्वारा ही उस अन्�या:मी और

अनिव�ाशी 'ब्रह्म' को �ा�ा �ा सक�ा है। ऐसा सु�कर उद्दालक मुनि� मौ� हो गये।आठवां ब्राह्मणसभा की अ�ुमनि� लेकर वा क्रवी गाग² �े दो प्रश्न याज्ञवल्क्य से पु�: पूछे। यहाँ उन्हीं का वण:� है। गाग²—'हे ऋनिषवर! �ो दु्यलोक से ऊपर है और पृथ्वी लोक से �ी े है �0ा 'दु्य' और 'पृथ्वी' के मध्य भाग में च्छिस्थ� है और �ो स्वयं 'दु्य' और 'पृथ्वी' है �0ा �ो स्वयं भू�, भनिवष्य और व�:मा� है, वह निकसमें ओ�-प्रो� है?'याज्ञवल्क्य—'हे गाग²! दु्यलोक से ऊपर, पृथ्वी से �ी े �0ा 'दु्य' औ पृथ्वी के मध्य भाग में �ो च्छिस्थ� है और �ो स्वयं भी 'दु्य' और 'पृथ्वी' है और �ो भू�, भनिवष्य और व�:मा� कहला�ा है, वह आकाश में ओ�-प्रो� है।' गाग²—'हे ऋनिषवर! �ो निफर यह आकाश निकसमें ओ�प्रो� है?'याज्ञवल्क्य—'हे गाग²! उस �त्त्व को ब्रह्मवेGा 'अक्षर' कह�े हैं। वह � स्थूल है, � सूक्ष्म है, � छोटा है, � लम्बा है, � लाल है, � चि क�ा है, � छाया है, � अन्धकार है, � वायु है और � आकाश है। वह गन्ध और रस से ही� है। वह निब�ा �ेत्रों के, निब�ा का�ों के, निब�ा वाणी के, निब�ा म� के, निब�ा �े� के, निब�ा प्राण है और उसका � कोई मुख है, � उसका कोई माप है और उसका आदिद-अन्� भी �हीं है। वह � भी�र है, � बाहर है, � कुछ खा�ा है और � कोई उसे भक्षण कर सक�ा है। हे गाग²! इस 'अक्षरब्रह्म' के अ�ुशास� में सूय:, न्द्र, दु्यलोक, पृथ्वी, नि�मेष, मुहू�:, रा�-दिद�, अध:मास, मास, ऋ�ु संव�सर आदिद च्छिस्थ� हैं। इसी अक्षर के अ�ुशास� में निवत्तिभन्न �दिदयां पव:�ों से नि�कलकर पूव:-पत्तिश्चम दिदशाओं में बह�ी हैं। इस अक्षरब्रह्म के अ�ुशास� में ही उस 'परब्रह्म' की- मा�व ही �हीं- देव�ा भी प्रशंसा कर�े हैं।'याज्ञवल्क्य �े पु�: कहा-'हे गाग²! इस 'अक्षरब्रह्म' को � �ा�कर, �ो इस लोक में यज्ञादिद कम:काण्ड कर�ा है, हज़ारों वष- �क �प करके पुण्य अर्द्धि�ं� कर�े हैं, वे सभी �ाशवा� हैं। इस 'अक्षरब्रह्म' (अनिव�ाशी) को �ा�े निब�ा, �ो इस लोक से �ा�े हैं, वे 'कृपण' हैं, निकन्�ु �ो इसे �ा�कर इस लोक से प्रयाण कर�े हैं, वे 'ब्राह्मण' हैं। हे गाग²! यह 'अक्षरब्रह्म' स्वयं दृयिष्ट का निवषय �हीं है, निकन्�ु सभी को देख�े वाला है। वह सबकी सु��ा है, सबका ज्ञा�ा है। इसी 'अक्षरब्रह्म' में यह आकाश �त्त्व ओ�-प्रो� है।'�ब गाग² �े सभासदों से कहा निक आप में से निकसी में इ��ी सामथ्य: �हीं है, �ो इस ब्रह्मज्ञा�ी को �ी� सके। ऐसा कहकर वह मौ� हो गयी। गाग² के क0� को सभी �े स्वीकार निकया, निकन्�ु शाकल्य निवदग्ध �हीं मा�े। �ौवां ब्राह्मणशाकल्य निवदग्ध अ�यन्� अत्तिभमा�ी 0े। उन्हों�े अंहकार में भरकर याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न कर�े प्रारम्भ कर दिदये?'शाकल्य—'देवगण निक��े हैं?'याज्ञ.—'�ी� और �ी� सौ, �ी� और �ी� सहस्त्र, अ0ा:� �ी� हज़ार �ी� सौ छह (3,306)।'शाकल्य—'देव�ा निक��े हैं?'याज्ञ.—'�ें�ीस (33)।'शाकल्य �े इसी प्रश्न को बार-बार पां बार और दोहराया। इस पर याज्ञवल्क्य �े हर बार संख्या घटा�े हुए देव�ाओं की संख्या क्रमश: छह, �ी�, दो, डेढ़ और अन्� में एक ब�ायी। शाकल्य—'निफर वे �ी� हज़ार �ी� सौ छह देवगण कौ� हैं?'याज्ञ.-'ये देव�ाओं की निवभूनि�यां हैं। देवगण �ो �ें�ीस ही हैं।'शाकल्य-'वे कौ� से हैं?'याज्ञ.-'आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदिद�य, इन्द्र और प्र�ापनि�।'शाकल्य-'आठ वसु कौ� से है?'याज्ञ.-'अग्निग्�, पृथ्वी, वायु, अन्�रिरक्ष, आदिद�य, दु्यलोक, न्द्र और �क्षत्र। �ग� के सम्पूण: पदा0: इ�में समाये हुए हैं। अ�: ये वसुगण हैं।' शाकल्य—'ग्यारह रुद्र कौ� से हैं?'याज्ञ.-'पुरुष में च्छिस्थ� दस इजिन्द्रयां, एक आ�मा। मृ�यु के समय ये शरीर छोड़ �ा�े हैं और निप्रय�� को रूला�े हैं। अ�: ये रुद्र हैं।'शाकल्य-'बारह आदिद�य कौ� से है?'याज्ञ.-'वष: के बारह मास ही बारह आदिद�य हैं।'शाकल्य—'इन्द्र और प्र�ापनि� कौ� हैं?'याज्ञ.-'ग�:� कर�े वाले मेघ 'इन्द्र' हैं और 'यज्ञ' ही 'प्र�ापनि�' है। ग�:�शील मेघ 'निवदु्य�' है और 'पशु' ही यज्ञ है।'शाकल्य—'छह देवगण कौ� से हैं?'याज्ञ.-'पृथ्वी, अग्निग्�, वायु, अन्�रिरक्ष, द्यौ और आदिद�य।'शाकल्य—'�ी� देव कौ� से हैं?'याज्ञ.-'�ी� लोक- पृथ्वीलोक, स्वग:लोक, पा�ाललोक। ये �ी�ों देव�ा हैं। इन्हीं में सब देवगण वास कर�े हैं।'शाकल्य-'दो देव�ा कौ� से हैं?'याज्ञ.-'अन्न और प्राण ही वे दो देव�ा हैं।'शाकल्य-'वह डेढ़ देव�ा कौ� है?'

याज्ञ.-'वायु डेढ़ देव�ा है; क्योंनिक यह बह�ा है और इसी में सब की वृजिद्ध है।'शाकल्य-'एक देव कौ� सा है?'याज्ञ-'प्राण ही एकल देव�ा है। वही 'ब्रह्म' है, वही ��् (वह) है।'शाकल्य-'पृथ्वी जि�सका शरीर है, अग्निग्� जि�सका लोक है, म� जि�सकी ज्योनि� है और �ो समस्� �ीवों का आ�मा है, आश्रय-रूप है, ब्रह्मज्ञ है, उस पुरुष को �ा��े हो?'याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वही इस शरीर में व्याप्� है।'शाकल्य-'उसका देव�ा कौ� है?'याज्ञ.-'उसका देव�ा 'अमृ�' है।'शाकल्य-'काम जि�सका शरीर है, हृदय जि�सका लोक है, म� ही जि�सकी ज्योनि� है, �ो समस्� �ीवों का आ�मा है, उसे �ा��े वाला ब्रह्मज्ञा�ी कहला�ा है। उसे �ा��े हो?'याज्ञ-'�ा��ा हूं। वह 'काममय' पुरुष है और उसका देव�ा 'त्मिस्त्रयां' हैं।'शाकल्य-'रूप ही जि�सका शरीर है, �ेत्र ही लोक हैं, म� ही ज्योनि� है, �ो सभी का आश्रय-रूप है, उसे �ा��े वाला सव:ज्ञा�ा हो�ा है। क्या �ुम उसे �ा��े हो? याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वह पुरुष 'आदिद�य' है और 'स�य' ही उसका देव�ा है।'शाकल्य-'आकाश जि�सका शरीर है, श्रोत्र जि�सका लोक, है, म� जि�सकी ज्योनि� है, उस सव:भू�ा�मा को �ा��े वाला ब्रह्मज्ञा�ी हो�ा है। उसे �ा��े हो?'याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वह 'प्रानि�शु्र�क' पुरुष है और 'दिदशाए'ं उसकी देव�ा है।'शाकल्य-'अन्धकार जि�सका शरीर है, हृदय जि�सका लोक है, म� जि�सकी ज्योनि� है, उस सव:भू�ा�मा को �ा��े वाला ब्रह्मज्ञा�ी हो�ा है। उसे �ा��े हो?'याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वह 'छायामय' पुरुष है और 'मृ�यु' उसका देव�ा है।'शाकल्य-'रूप जि�सका शरीर है, कु्ष देख�े की शचिQ है, म� ज्योनि� है, सव:भू�ों में च्छिस्थ� आ�मा है, उसे �ा��े पर 'सव:ज्ञ' की संज्ञा प्राप्� हो�ी है। उसे �ा��े हो?'याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वह वही पुरुष है, �ो दप:ण में दिदखाई दे�ा है। उसका देव�ा 'प्राण' है।'शाकल्य-'वीय: जि�सका शरीर है, हृदय लोक है और म� ज्योनि� है। उस सव:भू�ाश्रय पुरुष को �ा��े वाला सव:ज्ञा�ा हो�ा है। उसे �ा��े हो?'याज्ञ.-'�ा��ा हूं। वह 'पुत्र' रूप में पुरुष है। 'प्र�ापनि�' उसका देव�ा है।'शाकल्य-'आप कुरु और पां ालप्रदेश के ब्राह्मणों का नि�रस्कार करके स्वयं को ब्रह्मवेGा कह�े हैं। क्या यह उचि � है?'याज्ञ.-'मुझे देव�ाओं की प्रनि�ष्ठा के अ�ुसार दिदशाओं का ज्ञा� है।'शाकल्य-'निफर ब�ाइये निक पूव: में आप निकस देव�ा से युQ हैं और वह निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'वहां मैं आदिद�य देव�ा के सा0 युQ हूं और वह आदिद�य ' कु्ष' में �0ा क्षु 'रूप' में च्छिस्थ� है। वह रूप 'हृदय' में च्छिस्थ� है; क्योंनिक हृदय के द्वारा ही पुरुष को रूपों का ज्ञा� हो�ा है।'शाकल्य-'हे याज्ञवल्क्य! आप स�य कह�े हैं। दत्तिक्षण दिदशा में आप निकस देव�ा से युQ हैं और वह देव�ा निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'यम देव�ा से और यम 'श्रद्धा' में च्छिस्थ� है और श्रद्धा 'हृदय' में च्छिस्थ� है; क्योंनिक हृदय के द्वारा ही पुरुष श्रद्धा को �ा��ा है।'शाकल्य-'स�य है। पत्तिश्चम दिदशा में आप निकस देव�ा से युQ हैं और वह देव�ा निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'वरुण देव�ा से युQ हूं और वरुण देव�ा '�ल' में �0ा �ल 'वीय:' में च्छिस्थ� है। यह वीय: 'हृदय' में च्छिस्थ� है; क्योंनिक निप�ा की इ�ा�ुसार ही पुत्र का �न्म हो�ा है।'शाकल्य-'ठीक है। उGर दिदशा में आप निकस देव�ा से संयुQ हैं और वह देव�ा निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'सोम देव�ा से और सोम 'दीक्षा' में, दीक्षा 'स�य' में और स�य 'हृदय' में च्छिस्थ� है; क्योंनिक व्यचिQ हृदय से ही स�य को �ा� पा�ा है।'शाकल्य-'आप ध्रुव दिदशा में निकस देव�ा से युQ हैं और वह निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'अग्निग्�देव से और अग्निग्�देव 'वाक्' (वाणी) में, वाक् 'हृदय' में च्छिस्थ� है; क्योंनिक हृदय से ही वाणी उ�पन्न हो�ी है।'शाकल्य-'यह हृदय निकसमें च्छिस्थ� है?'याज्ञ.-'अरे पे्र�! �ू हृदय को हमसे पृ0क् मा��ा है? मूख:! हृदयही� शरीर को �ो कुGे और पक्षी �ों -�ों कर खा �ा�े हैं।'शाकल्य-'आप क्रोयिध� � हों। यह ब�ायें निक यह शरीर और हृदय (आ�मा) निकसमें प्रनि�यिष्ठ� हैं?'याज्ञ.-'ये प्राण में च्छिस्थ� हैं। प्राण 'अपा�' में, अपा� 'व्या�' में, व्या� 'उदा�' में, उदा� 'समा�' में च्छिस्थ� है। यह 'आ�मा' �ेनि�-�ेनि� कहा �ा�ा है। इसे � �ो ग्रहण निकया �ा सक�ा है, � निव�ष्ट निकया �ा सक�ा हैं यह संग-रनिह�, अव्यवच्छि�0� और अपिहंचिस� है। इसके आठ शरीर, आठ देव�ा और आठ पुरुष हैं। यह व्ययिष्ट-रूप होकर, इ� पुरुषों को अप�े हृदय में रखकर सभी उपायिध-

रूप धम- का अनि�क्रमण निकये रह�ा है। उपनि�षद द्वारा ज्ञा� उस पुरुष के बारे में आप मुझे ब�ायें, अन्य0ा आपका मस्�क निगर �ायेगा।'शाकल्य उस पुरुष के निवषय में कुछ �हीं ब�ा सकां इसचिलए उसका मस्�क निगर गया, अ0ा:� वह भरी सभा में अपमानि�� हो गया। निफर निकसी का भी साहस याज्ञवल्क्य से प्रश्न कर�े का �हीं हुआ। ौ0ा अध्यायइस अध्याय में महर्तिषं याज्ञवल्क्य और रा�ा ��क के मध्य हुए संवादों का उल्लेख निकया गया है। सा0 ही याज्ञवल्क्य और मैते्रयी के संवाद भी इसमें हैं। अन्� में इस काण्ड की परम्परा को दोहराया गया है। इस अध्याय में छह ब्राह्मण हैं।प्र0म ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' के निवचिशष्ट स्वरूपों की व्याख्या निवदेहरा� ��क याज्ञवल्क्य को सु�ा�े हैं। उन्हों�े ब�ाया निक चिशचिलक ऋनिष के पुत्र जि��वा ब्रह्म को 'वाक्' (वाणी) रूप में मा��े हैं। इसी प्रकार शुल्व ऋनिष के पुत्र उदंक �े 'प्राण' को ब्रह्म मा�ा है। इसी प्रकार वृष्णा के पुत्र वकु: �े ' कु्ष' को ब्रह्म स्वीकार निकया है। याज्ञवल्क्य �े ब्रह्म के �ी�ों रूपों का सम0:� कर�े हुए उसे स�य मा�ा।दूसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में निवदेहरा� ��क याज्ञवल्क्य के पास �ाकर उपदेश की काम�ा कर�े हैं। याज्ञवल्क्य पहले रा�ा से उसका गन्�व्य पूछ�े हैं, पर �ब रा�ा अप�े गन्�व्य के निवषय में � �ा��े की बा� कह�ा है, �ो वे गूढ अ0: में योनिगक निक्रयाओं द्वारा उसे 'ब्रह्मरन्ध्र' में पहुं �े के चिलए कह�े हैं। उ�का भाव यही है निक दो�ों आंखों के बी में 'आज्ञा क्र' का स्था� है। उसका ध्या� कर�े से रोम-रोम में व्याप्� 'प्राण' की वास्�निवक अ�ुभूनि� हो�े लग�ी है, �ो उसे मोक्ष की प्रान्तिप्� हो�ी है। 'ब्रह्मरन्ध्र' में काशी का वास ब�ाया गया है। इसी माग: से आ�मा शरीर में प्रवेश कर�ी है और इस माग: से प्राण छोड़�े पर सीधे मोक्ष प्राप्� हो�ा है।�ीसरा ब्राह्मणयहाँ रा�ा ��क और याज्ञवल्क्य ऋनिष के मध्य 'आ�मा' के स्वरूप को लेकर ा: की गयी है। रा�ा ��क ऋनिष याज्ञवल्क्य से पूछ�े हैं निक यह पुरुष सभी कुछ प्रकाश के माध्यम से इस दृश्य �ग� को देख�ा है और सो �ा है निक यह ज्योनि� निकसकी है? यह कहां से आ�ी है और कहां ली �ा�ी है?' इस पर याज्ञवल्क्य रा�ा ��क को ब�ा�े हैं निक यह ज्योनि� 'आदिद�य', अ0ा:� सूय: से ही आ�ी है। उसी से यह म�ुष्य इस दृश्य �ग� को देख पा�ा है। उसके अस्� हो�े पर ' न्द्रमा' के प्रकाश से देख�ा है। �ब न्द्रमा अस्� हो �ा�ा है (कृष्ण पक्ष में), �ो यह 'अग्निग्�' का सहारा ले�ा है। �ब अग्निग्� भी शान्� पड़ �ा�ी है, �ब यह वाणी का सहारा ले�ा है। लेनिक� �ब सूय:, न्द्र, अग्निग्� �0ा वाणी, ये ारों भी � हों, �ो वह 'योग-साध�ा' के द्वारा सबको देख�ा है और ै�न्य रह�ा हैं उस समय उसके पास आ�म-ज्योनि� हो�ी है, जि�ससे वह देख�ा-सु��ा है। याज्ञवल्क्य उसे 'आ�मा' के निवषय में ब�ा�े हुए कह�े हैं निक म� और बुजिद्ध की वृत्तिGयों के अ�ुरूप शरीर के भी�र च्छिस्थ� निवज्ञा�मय, आ�न्दस्वरूप ज्योनि�, प्राणों के द्वारा घ�ीभू� होकर सूक्ष्म रूप में हृदय में च्छिस्थ� हो �ा�ी है। यही 'आ�मा' है। यही शरीर की �ीव�ी-शचिQ है। यह शरीर में रह�े हुए भी उससे नि�र्लिलंप्� रह�ा है। यह निव ारों की सृ�� कर�ा है, इजिन्द्रयों की शचिQ ब��ा है। गह� नि�द्रा के काल में यह शरीर में रहकर भी लोक-लोकान्�रों की यात्रा कर�ा है। उस समय 'आ�मा' स्वयं अप�े म� से अप�े चिलए सूक्ष्म शरीर धारण् कर ले�ा है और भौनि�क शरीर को स्वप्नों के संसार की सैर करा�ा है। यह 'आ�मा' दुष्कम- की मार से शरीर छोड़�े में पिकंचि � भी निवलम्ब �हीं कर�ा। वह देह से पूण:�: नि�र्लिलंप्� रह�ा है। ौ0ा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में शरीर �याग�े से पूव: 'आ�मा' और 'शरीर' की �ो च्छिस्थनि� हो�ी है, उसका निववे � निकया गया है। याज्ञवल्क्य ऋनिष ब�ा�े हैं निक �ब आ�मा शरीर छोड़�े लग�ा है, �ब वह इजिन्द्रयों में व्याप्� अप�ी समस्� शचिQ को समेट ले�ा है और हृदय के्षत्र में समानिह� होकर एक 'लिलंग शरीर' का सृ�� कर ले�ा है। यह लिलंग शरीर ही आ�मा को अप�े सा0 लेकर शरीर छोड़�ा है। यह जि�स माग: से नि�कल�ा है, वह अंग �ीव्र आवेग से खुला रह �ा�ा है। उस समय आ�मा पूरी �रह े��ामय हो�ा है। उसमें �ीव की प्रबल�म वास�ाओं और संस्कारों का आवेग रह�ा है। उन्हीं काम�ाओं के आधार पर वह �या शरीर धारण कर�ा है। �ैसे स्वण:कार स्वण: को निपघलाकर एक रूप की र �ा कर�ा है, उसी प्रकार 'आ�मा' पं भू�ों के यिमश्रण से एक �ये शरीर की र �ा कर ले�ा है। �ो पुरुष नि�ष्काम भाव से शरीर छोड़�े हैं, वे �ीव�-मरण के क्र से छूटकर मुQ हो �ा�े हैं और सदैव के चिलए ब्रह्म की दिदव्य ज्योनि� में निवली� हो �ा�े हैं। पां वां ब्राह्मणयहाँ याज्ञवल्क्य और मैते्रयी संवाद में 'आ�म�त्त्व' की ा: की गयी है। छठा ब्राह्मणइसमें याज्ञवल्कीय काण्ड की गुरु-चिशष्य परम्परा का वण:� है। उसमें कौचिशक, शाच्छिण्डल्य, गौ�म, उद्दालक, �ाबाचिल , पराशर, आते्रय, गालव, अत्तिश्व�ीकुमार और दधीचि आदिद का निवशेष वण:� है। पां वां अध्याय

इस अध्याय में 'ब्रह्म' की निवनिवध रूपों में उपास�ा की गयी है। सा0 ही म�ोमय 'पुरुष' और 'वाणी' की उपास�ा भी की गयी है। मृ�यु के उपरान्� ऊध्व:गनि� �0ा 'अन्न' और 'प्राण' के निवनिवध रूपों की उपास�ा-निवयिध समझाई गयी है। इसके अनि�रिरQ 'गायत्री उपास�ा' में �प कर�े योग्य �ी� रणों के सा0 ौ0े 'दश:�' पद का भी उल्लेख निकया गया है। इसमें पन्द्रह ब्राह्मणों की ा: है।प्र0म ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' के सम्पूण: रूप का निववे � निकया गया है। कहा है-'ॐ पूण:मद: पूण:यिमदं पूणा�पूण:मुदच्य�े। पूण:स्य पूण:मादाय पूण:मेवावचिशष्य�े॥ ॐ 3 खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खयिमनि� ह स्माह कौर व्यायणीपुत्रों वेदो यें ब्राह्मण निवदुव�दै�े� यदे्वदिद�व्यम्॥1॥' अ0ा:� वह ब्रह्मण पूण: है, यह �ग�ी पूण: है। उस पूव: ब्रह्म से ही यह पूण: निवश्व प्रादुभू:� हुआ है। उस पूण: ब्रह्म में से इस पूण: �ग� को नि�काल ले�े पर पूण: ब्रह्म ही शेष रह�ा है। ॐ अक्षर से सम्बोयिध� अ�न्� आकाश या परम व्योम ब्रह्म ही है। यह आकाश स�ा�� परमा�म-रूप है। जि�स आकाश में वायु निव रण कर�ा है, वह आकाश ही ब्रह्म है। ऐसा कौरव्यायणी पुत्र का क0� है। यह ओंकार-स्वरूप ब्रह्म ही वेद है। इस प्रकार सभी ज्ञा�ी ब्राह्मण �ा��े हैं; क्योंनिक �ो �ा��े योग्य है, वह सब इस ओंकार-रूप वेद से ही �ा�ा �ा सक�ा है।दूसरा ब्राह्मणइस बाह्मण में प्र�ापनि� के पुत्र देवगण, असुर और म�ुष्य ब्रह्म य: व्र� का पाल� कर�े के उपरान्� प्र�ापनि� से उपदेश ले�े �ा�े हैं। वहां वे उ�के सम्मुख 'द' अक्षर का उपदेश दे�े हैं और उ�से पूछ�े हैं निक वे इससे क्या समझे। देव�ाओं �े कहा निक उन्हों�े इसका अर् 'दम�' समझा है। वे अप�ी चि Gवृत्तिGयों और इजिन्द्रयों का दम� करके सान्ति�वक भाव�ाओं को �न्म दें। असुरों �े कहा निक उन्हों�े इसका अ0: 'दया' समझा है। वे अप�ी पिहंसा�मक वृत्तिGयों को छोड़कर �ीवों पर दया कर�ा सीखें और अप�ी �ामचिसक वृत्तिGयों पर अंकुश लगायें। म�ुष्यों �े कहा निक उन्हों�े इसका अ0: 'दा�' समझा है। वे अप�ी संग्रह कर�े की प्रवृत्तिG से ऋनिषयों और ब्राह्मणों को दा� दें और अप�ी रा�चिसक प्रवृत्तिGयों के सा0 न्याय करें। प्र�ापनि� �ी�ों का उGर सु�कर सन्�ुष्ट हुए और उन्हें आशीवा:द दिदया।�ीसरा और ौ0ा ब्राह्मणइ� दो�ों ब्राह्मणों में 'हृदय' और 'स�य' का निवश्लेषण संत्तिक्षप्� रूप से निकया है। यह हृदय प्र�ापनि� है। इसके �ी� अक्षरों का अ0:- 'हृ' से हरणशील है, अ0ा:� यह कहीं से भी अभीष्ट पदा0: का हरण कर�ा है। 'द' अक्षर का अ0: दा� से है और 'यम्' अक्षर का अ0: गानि� से हैं यह �ा��े वाला स्वग: को प्राप्� कर�ा है। यह हृदय ही स�य-स्वरूप 'ब्रह्म' है। �ो इस प्रकार �ा��ा है, वह समस्� लोकों को �ी� ले�ा है।पां वे से बारहवें ब्राह्मण �कपां वें से आठवें ब्राह्मण �क 'स�य' को आदिद�य-रूप ब्रह्म के रूप में प्रनि�यिष्ठ� निकया गया है। �दुपरान्� उसे म�ोमय पुरुष, निवदु्य� वाक्, गाय, अग्निग्�, मरणोGर ऊध्व: गनि�, अन्न व प्राण-रूप में 'ब्रह्म' को स्वीकार कर उसकी उपास�ा की बा� कही गयी है। �ेरहवां ब्राह्मणयहाँ 'उक्0,' अ0ा:� 'स्�ोत्र' की प्राण-रूप में उपास�ा कर�े की बा� कही गयी है; क्योंनिक प्राण ही सभी प्रात्तिणयों को ऊपर उठा�ा है। प्राण की उपास�ा योग (य�ु:) के रूप में करें। प्राण ही 'य�ु':' है, प्राण ही 'साम' है, प्राण ही बल है। ौदहवां ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'गायत्री' के �त्त्वज्ञा� एवं माहा�म्य का वण:� निकया गया है। उपनि�षद गायत्री के �ी� रणों की ही उपास�ा की बा� कह�े हैं ौ0ा रण 'दश:�' रण है, अ0ा:� देखा �ा�े वाला। उसे अ�ुभूनि�गम्य कहा गया है। यह पद स�य में च्छिस्थ� है। गायत्री प्राण में च्छिस्थ� है। इस गायत्री �े गयों, अ0ा:� प्राणों का त्राण निकया है। इसीचिलए इसे 'गायत्री' कह�े हैं। गायत्री महाशचिQ का मुख 'अग्निग्�' है। गायत्री निवद्या में नि�ष्णा� व्यचिQ के समस्� पाप भस्म हो �ा�े हैं। वह शुद्ध, पनिवत्र व अ�र-अमर हो �ा�ा है।

पन्द्रहवां ब्राह्मणइस ब्राह्मण में ब�ाया गया है निक स�य-रूपी 'ब्रह्म' का मुख ज्योनि�म:य स्वण:पात्र से आ�ादिद� है। हे निवश्वदेव! हे निवश्व के पोषक सूय:देव! स�य-धम: के दश:� के चिलए मैं उसे देख सकंू, इसचिलए आप उस पर पडे़ आवरण को हटा दीजि�ये। यहाँ इसी भाव की उपास�ा की गयी है। हे अग्निग्�देव! आप हमें कम:फल की प्रान्तिप्� हे�ु सुन्दर प0 पर ले लें। हे देव! हमारे कुदिटल पापों को �ष्ट करें। हम बार-बार आपका �म� कर�े हैं। छठा अध्यायइस अध्याय में 'प्राण' की श्रेष्ठ�ा, 'पं ाग्निग्� निवद्या' का निववरण, 'मन्थ-निवद्या' का उपदेश �0ा 'सन्�ा�ो�पत्तिG-निवज्ञा�' का सुन्दर वण:� निकया गया है। सबसे अन्� में समस्� प्रकरण की आ ाय:-परम्परा का उल्लेख निकया गया है। इस अध्याय में पां ब्राह्मण हैं।

पहला ब्राह्मणयहाँ 'प्राण' की सव:श्रेष्ठ�ा का प्रनि�पाद� निकया गया है। छान्दोग्य उपनि�षद में भी इसी भांनि� 'प्राण�त्त्व' की श्रेष्ठ�ा दशा:यी गयी

है। अन्य सभी इजिन्द्रयों से 'प्राण' ही सव:शे्रष्ठ ह॥ छान्दोग्य उपनि�षद के पां वे अध्याय में भी इसका व�:� है। दूसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में 'पं ाग्निग्� निवद्या' को �ा��े और उसके प्रनि�फल पर प्रकाश डाला गया है। इसमें श्वे�के�ु और प्रवाहण के संवादों से 'पं ाग्निग्� निवद्या' की गनि� ब�ायी गयी है। छान्दोग्य उपनि�षद के ौ0े अध्याय में दसवें से सत्रहवें खण्ड �क इस पर निवस्�ार से प्रकाश डाला गया हैं।�ीसरा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में मन्थ निवद्या का वण:� हैं। इसका ज्ञा� हो�े पर म�ोकाम�ा अवश्य पूरी हो�ी है। पुत्र-लाभ, रोग-लाभ, �ीव� में श्रीवृजिद्ध, मृ�यु-भय-नि�वारण आदिद में इस निवद्या से लाभ हो�ा है। छान्दोग्य उपनि�षद में पां वें अध्याय के दूसरे खण्ड में इसका निववे � निकया गया है। इस निवयिध का उपयोग निकसी ज्ञा�ी व्यचिQ द्वारा ही करा�ा ानिहए, अन्य0ा अ0: का अ�0: भी हो सक�ा है। मन्त्रों का पाठ शुद्ध हो�ा अनि�वाय: है। ौ0ा ब्राह्मणइस ब्राह्मण में म�ोवांचिछ� सन्�ा� की प्रान्तिप्� के चिलए निकये गये मन्त्रों का निववे � है। मन्त्र द्वारा गभा:धा� कर�ा, गभ:नि�रोध कर�ा �0ा स्त्री प्रसंग को भी यज्ञ-प्रनिक्रया के रूप में वर्णिणं� निकया गया है। इसमें कहीं भी अश्लील�ा-�ैसी कोई बा� �हीं है। सृयिष्ट का सृ�� और उसके निवकास की प्रनिक्रयायों को शुद्ध और पनिवत्र �0ा �ैसर्तिगकं मा�ा गया है। पं भू�ों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस �ल है, �ल का रस औषयिधयां हैं, औषयिधयों का रस पुष्प हैं, पुष्पों का रस फल हैं, फलों का रस पुरुष है और पुरुष का सार�त्त्व वीय: है। �ारी की योनि� यज्ञ वेदी है। �ो व्यचिQ प्र��� की इ�ा से, उसकी समस्� मया:दाओं को भली प्रकार समझ�े हुए रनि�-निक्रया में प्रवृG हो�ा है, उसे प्र��� यज्ञ का पुण्य अवश्य प्राप्� हो�ा है। भार�ीय संस्कृनि� में इस प्र��� यज्ञ को सवा:यिधक श्रेष्ठ यज्ञ का स्था� प्राप्� है। यहाँ 'काम' का अमया:दिद� आवेग �हीं है। ऐसी अमया:दिद� रनि�-निक्रया कर�े से पुण्यों को क्षय हो�ा मा�ा गया है। ऐसे लोग सुकृ�ही� होकर परलोक से पनि�� हो �ा�े हैं। यशस्वी पुत्र-पुत्री के चिलए प्र��� यज्ञ-ऋ�ु धम: के उपरान्� यशस्वी पुत्र की प्रान्तिप्� के चिलए रनि�-कम: कर�े से पूव: यह मन्त्र पढ़ें-'इजिन्द्रयेण �े यशसा यश आदधायिम।'इस मन्त्र का आस्थापूव:क म�� कर�े से नि�श्चय ही यशस्वी पुत्र की प्रान्तिप्� होगी। यदिद पुरुष गौरवण: पुत्र की इ�ा रख�ा हो, �ो उसे ऋ�ु धम: के उपरान्� सम्भोग �क अप�ी प��ी को घी यिमलाकर दूध- ावल की खीर ग्निखला�ी ानिहए और स्वयं भी खा�ी ानिहए। इससे पुत्र गौरवण:, निवद्वा� और दीघा:यु होगा। इसके अलावा दही में ावल पकाकर खा�े से व �ल में ावल पकाकर व घी में यिमलाकर खा�े से भी पुत्र-र�� की ही प्रान्तिप्� होगी। यदिद पनि�-प��ी निवदुषी कन्या की काम�ा कर�े हों, �ो नि�ल के ावल की ग्निख ड़ी ब�ाकर खा�ी ानिहए।गभ: नि�रोध का उपाययदिद पनि�-प��ी दो�ों सन्�ा� �हीं ाह�े या कुछ काल �क 'गभ:नि�रोध' ाह�े हैं, �ो रनि�-निक्रया में परस्पर मुख से मुख लगाकर इस मन्त्र का उच्चारण करें-'इजिन्द्रयेण �े रे�सा रे� आददे।' इससे कभी गभ: स्थानिप� �हीं होगा। र�स्वला स्त्री को �ी� दिद� �क कांसे के पात्र में खा�े का भी नि�षेध है। अयिधक शी� और उष्ण�ा से भी ब �ा ानिहए। मा�ा को अप�ी सन्�ा� को स्��पा� करा�े से भी �हीं ब �ा ानिहए। यह धम:-निवरुद्ध है और स्वास्थ्य के चिलए भी हानि�कारक है।पां वां ब्राह्मण इस ब्राह्मण में गुरु-चिशष्य परम्परा का वण:� मात्र है। ईशावास्योपनि�षद / Ishvasyopnishdयह शुक्ल य�ुव�द का ालीसवां अध्याय है, जि�से 'ईशावास्योपनि�षद' कहा गया है। उपनि�षद श्रृंखला में इसे प्र0म स्था� प्राप्� है। इस उपनि�षद में ईश्वर के गुणों का वण:� है, अधम: �याग का उपदेश है। सभी कालों में स�काम- को कर�े की आवश्यक�ा पर बल दिदया गया है। परमेश्वर के अनि�सूक्ष्म स्वरूप का वण:� इस उपनि�षद में दिदया गया है। सभी प्रात्तिणयों में 'आ�मा' को परमा�मा का अंश �ा�कर अंनिहसा की चिशक्षा दी गयी है। समायिध द्वारा परमेश्वर को अप�े अन्�:करण में �ा��े और शरीर की �श्वर�ा का उल्लेख निकया गया है। प्र0म मन्त्र में ही �ीव� और �ग� को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह निकसका ध� है?' प्रश्न द्वारा ऋनिष �े म�ुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का �याग कर�े का सूत्र दिदया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्ध�मुQ कम:, अ�ुशास� और शरीर के �श्वर हो�े का बोध कराया गया है। यहाँ �ो कुछ है, परमा�मा का है, यहाँ �ो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ �हीं है- ॐ ईशावास्ययिमदम् सव° यत्कि�कं �ग�यां �ग�। �े��येQे� भुञ्जी0ा मा गृध: कस्य ब्धिस्वद्ध�म॥1॥ [1] यहाँ इस �ग� में सौ वष: �क कम: कर�े हुए �ी�े की इ�ा कर�ी ानिहए- कुव:न्नेवेह कमा:त्तिण जि��ीनिवषे��ँ् समा:।एवं �वयिय �ान्य0े�ोऽब्धिस्� � कम: चिलप्य�े �रे॥2॥[2] अनिव ल परमा�मा एक ही है। वह म� से भी अयिधक वेगवा� है। वह दूर भी है और नि�कट भी है। वह �ड़- े�� सभी में सूक्ष्म रूप में च्छिस्थ� है। �ो ऐसा मा��ा है, वह कभी भ्रयिम� �हीं हो�ा। वह शोक-मोह से दूर हो �ा�ा है।

परमा�मा सव:व्यापी है। वह परमा�मा देह-रनिह�, स्�ायु-रनिह� और चिछद्र-रनिह� है। वह शुद्ध और नि�ष्पाप है। वह सव:�यी है और स्वयं ही अप�े आपको निवनिवध रूपों में अत्तिभव्यQ कर�ा है। ज्ञा� के द्वारा ही उसे �ा�ा �ा सक�ा है। मृ�यु-भय से मुचिQ पाकर उपयुQ नि�मा:ण कला से मुचिQ प्राप्� की �ा सक�ी है। उस परमा�मा का मुख सो�े के मकदार पात्र से ढका हुआ है-निहरण्मये� पाते्रण स�यस्यानिपनिह�ं मुखम्।�त्त्वं पूषन्नपा�ृणु स�यधमा:य दृष्टये॥15॥ [3] इसका अ0: यही है निक परब्रह्म सूय:मण्डल के मध्य च्छिस्थ� है, निकन्�ु उसकी अ�यन्� प्रखर निकरणों के �े� से हमारी ये भौनि�क आंखें उसे �हीं देख पा�ीं। �ो परमा�मा वहां च्छिस्थ� है, वही मेरे भी�र निवद्यमा� है। मैं ध्या� द्वारा ही उसे देख पा�ा हूं। हे अग्�े! हे निवश्व के अयिधष्ठा�ा! आप कम:-माग- के श्रेष्ठ ज्ञा�ा हैं। आप हमें पाप कम- से ब ायें और हमें दिदव्य दृयिष्ट प्रदा� करें। यही हम बार-बार �म� कर�े हैं। टीका दिटप्पणी और संदभ:↑ अ0ा:� इस सृयिष्ट में �ो कुछ भी �ड़- े��ा है, वह सब ईश्वर का ही है, उसी के अयिधकार में है। केवल उसके द्वारा सौंपे गये का ही उपयोग करो, अयिधक का लाल म� करो; क्योंनिक 'यह ध� निकसका है?' अ0ा:� निकसी का �हीं, केवल ईश्वर का है। ↑ अ0ा:� यहाँ ईश्वर के द्वारा अ�ुशाचिस� �ग� में कम: कर�े हुए सौ वष: �क �ी�े की काम�ा करें। अ�ुशाचिस� रह�े से कम: म�ुष्य को निवकारों में चिलप्� �हीं कर�े। निवकार-युQ �ीव� के चिलए ईश्वर द्वारा यह माग:दश:� निकया गया है। इसके अनि�रिरQ कल्याण का कोई अन्य माग: �हीं है। ↑ अ0ा:� सो�े के मकदार लुभाव�े पात्र से स�य (आदिद�यमण्डल के मध्य ब्रह्म) का मुख ढका हुआ है। हे पूष� (सूय:)! मुझे स�यान्वेषण कर�े के चिलए, अ0ा:� आ�मावलोक� के चिलए आप उस आवरण को हटा दें।हंसोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में कुल इक्कीस मन्त्र हैं। इसमें ऋनिष गौ�म और स��कार के प्रश्नोGर द्वारा 'ब्रह्मनिवद्या' के बारे में ब�ाया गया है। एक बार महादेव �े पाव:�ी से कहा निक 'हंस' (�ीवा�मा) सभी शरीरों में निवद्यमा� है, �ैसे काष्ठ में अग्निग्� और नि�लों में �ेल। उसकी प्रान्तिप्� के चिलए योग द्वारा 'षट् क्रभेद�' की प्रनिक्रया अप�ा�ी पड़�ी है। ये छह क्र प्र�येक म�ुष्य के शरीर में निवद्यमा� हैं। सव:प्र0म व्यचिQ गुदा को खीं कर 'आधा क्र' से वायु को ऊपर की ओर उठाये और 'स्वायिधष्ठा� क्र' की �ी� प्रदत्तिक्षणाए ंकरके 'मत्तिणपूरक क्र' में प्रवेश करे। निफर 'अ�ाह� क्र' का अनि�क्रमण करके 'निवशुद्ध क्र' में प्राणों को नि�रुद्ध करके 'आज्ञा क्र' का ध्या� करे। �दुपरान्� 'ब्रह्मरन्ध्र' का ध्या� कर�ा ानिहए। इस प्रकार नित्रमात्र आ�मा से एकाकार करके योगी 'ब्रह्म' में ली� हो �ा�ा है। इसके ध्या� से '�ाद' की उ�पत्तिG कही गयी है, जि�सकी अ�ेक ध्वनि�यों में अ�ुभूनि� हो�ी है। इस गुह्य ज्ञा� को गुरुभQ चिशष्य को ही दे�ा ानिहए। हंस-रूप परमा�मा में एकाकार हो�े पर संकल्प-निवकल्प �ष्ट हो �ा�े हैं। �ाबालोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द के इस उपनि�षद में कुल छह खण्ड हैं। प्र0म खण्ड में भगवा� बृहस्पनि� और ऋनिष याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा प्राण-निवद्या का निववे � निकया गया है। निद्व�ीय खण्ड में अनित्र मुनि� और याज्ञवल्क्य के संवाद द्वारा 'अनिवमुQ' के्षत्र को भृकुदिटयों के मध्य ब�ाया गया है। �ृ�ीय खण्ड में ऋनिष याज्ञवल्क्य द्वारा मोक्ष-प्रान्तिप्� का उपाय ब�ाया गया है। �ु0: खण्ड में निवदेहरा� ��क के द्वारा संन्यास के निवषय में पूछे गये प्रश्नों का उGर याज्ञवल्क्य दे�े हैं। पं म खण्ड में अनित्र मुनि� संन्यासी के यज्ञोपवी�, वस्त्र, त्तिभक्षा आदिद पर याज्ञवल्क्य से माग:दश:� प्राप्� कर�े हैं और षष्ठ खण्ड में प्रचिसद्ध संन्याचिसयों आदिद के आ रण की समीक्षा की गयी है और दिदगम्बर परमंहस का लक्षण ब�ाया गया है।

प्र0म खण्ड / प्राण- निवद्या का स्था� कहां है?अ�ुक्रम[छुपा]1 �ाबालोपनि�षद 2 प्र0म खण्ड / प्राण - निवद्या का स्था� कहां है ? 3 निद्व�ीय खण्ड / ' आ�मा ' को कैसे �ा�ें ? 4 �ृ�ीय खण्ड / मोक्ष कैसे प्राप्� हो ? 5 �ु0: खण्ड / संन्यास क्या है ? 6 पं म खण्ड / ब्राह्मण कौ� है ? संन्यासी कौ� है ? 7 षष्ठ खण्ड / परमहंस संन्यासी कौ� है ? 8 सम्बंयिध� लिलंक

याज्ञवल्क्य ऋनिष �े प्राण का स्था� ब्रह्मसद� या 'अनिवमुQ' (ब्रह्मरन्ध्र काशी) के्षत्र ब�ाया है। उसे ही इजिन्द्रयों का देवय�� कहा है। इसी ब्रह्मसद� की उपास�ा से 'मोक्ष' प्राप्� निकया �ा सक�ा है। निद्व�ीय खण्ड / 'आ�मा' को कैसे �ा�ें?

'आ�मा' को �ा��े के चिलए 'अनिवमुQ' (ब्रह्मरन्ध्र)की ही उपास�ा कर�ी ानिहए; क्योंनिक वह अ�न्�, अव्यQ आ�मा यहीं पर प्रनि�यिष्ठ� है। यह 'वरणा' और '�ासी' के मध्य निवरा�मा� है। इजिन्द्रयों द्वारा निकये समस्� पापों का नि�वरण 'वरणा' कर�ी है और उ� पापों को �ष्ट कर�े का काय: '�ासी' कर�ी है। भृकुदिट और �ाचिसका के सत्मिन्धस्थल पर इ�का स्था� है। यही 'दु्यलोक' और 'परलोक' का संगम है। ब्रह्मनिवद्या में 'आ�मा' की उपास�ा इसी सत्मिन्धस्थल पर की �ा�ी है। �ृ�ीय खण्ड /मोक्ष कैसे प्राप्� हो?ऋनिष याज्ञवल्क्य �े ब्रह्म ारी चिशष्यों को ब�ाया निक 'श�रुद्रीय' �प कर�े से 'मोक्ष' प्राप्� निकया �ा सक�ा है। इसके द्वारा साधक मृ�यु पर निव�य प्राप्� कर ले�ा है। �ु0: खण्ड / संन्यास क्या है?इस खण्ड में ऋनिष रा�ा ��क को संन्यास के निवषय में ब�ा�े हुए 'ब्रह्म य:' को संन्यासी के चिलए सव:प्र0म श�: ब�ा�े हैं। ब्रह्म य: के उपरान्� गृहस्थी, उसके बाद वा�प्रस्थी और निफर प्रव्रज्या ग्रहण करके संन्यास ग्रहण कर�ा ानिहए। निवषयों से निवरQ हो�े के उपरान्� निकसी भी आश्रम के उपरान्� संन्यासी ब�ा �ा सक�ा है। संन्यासी को मोक्ष मन्त्र 'ॐ' का �ाप हर पल कर�ा ानिहए। वही 'ब्रह्म' है और उपास�ा के योग्य है। पं म खण्ड / ब्राह्मण कौ� है? संन्यासी कौ� है?अनित्र मुनि� के इस प्रश्न का उGर दे�े हुए ऋनिष याज्ञवल्क्य कह�े हैं निक ब्राह्मण वही है, जि�सका आ�मा ही उसका यज्ञोपवी� है। �ो �ल से �ी� बार प्रक्षाल� और आ म� करे, भगवा वस्त्र धारण करे, अपरिरग्राही ब�कर लोक-मंगल के चिलए त्तिभक्षा-वृत्तिG से �ीव�-याप� करे, म� और वाणी से निवषयों का �याग करे, वही संन्यासी है, लोक-निह�ैषी है। षष्ठ खण्ड / परमहंस संन्यासी कौ� है?संव�:क, आरूत्तिण, शे्व�के�ु, दुवा:सा, ऋभु, नि�दाघ, �ड़भर�, दGाते्रय और रैव�क आदिद परमहंस संन्यासी हुए हैं। वे सभी संन्यास के चि ह्नों से रनिह� 0े। वे भी�र से उन्मG � हो�े हुए भी बाहर से उन्मG लग�े 0े। ऐसे संन्यासी नि�श्छल और नि�सृ्पह हो�े हैं। वे नि�द्व:न्द्व, अपरिरग्रही, �त्त्व-ब्रह्म में नि�रन्�र गनि�मा� �0ा शुद्ध म� वाले हो�े हैं। वे �ीवन्मुQ, मम�ा-रनिह�, सान्ति�वक, अध्या�मनि�ष्ठ, शुभ-अशुभ कम- को नि�मू:ल मा��े वाले हो�े हैं। वे परमहंस हो�े हैं। [संपादिद� करें] मन्तिन्त्रकोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में, उपनि�षदकार का कह�ा यह है निक '�ीवा�मा' स्वयं को परमा�मा का अंश अ�ुभव कर�ा हुआ भी उसे सह� रूप से देख �हीं पा�ा। �ब इस शरीर का मोह और अहंकार हट�ा है, �भी उसे अ�ुभव कर पा�ा सम्भव है। प्राय: सामान्य साधक अनिव�ाशी और अनिव ल माया का ही ध्या� कर�े हैं। उसमें संव्याप्� परमा�मा का अ�ुभव कर�े का प्रयास �हीं कर�े, �बनिक ध्या� उसी का निकया �ा�ा ानिहए। उपनि�षदों में उसी को दै्व�-अदै्व�, व्यQ-अव्यQ, सूक्ष्म और निवराट रूपों में गाया गया है। सभी मन्त्रों का मम: वही 'ब्रह्म' है। यहाँ उसे ब्रह्म ारी, स्�म्भ की भांनि� अनिडग, संसार में समस्� श्रीवृजिद्ध को दे�े वाला और निवश्व-रूपी छकडे़ (गाड़ी) को खीं �े वाला कहा गया है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं।यब्धिस्मन्सव:यिमदं प्रो�ं ब्रह्म स्थावर�ंगमम्। �ब्धिस्मन्नेव लयं यान्तिन्� स्त्रवन्�य: सागरे य0ा॥17॥यब्धिस्मन्भावा: प्रलीयन्�े ली�ाश्चाव्यQ�ां ययु:।पश्यन्तिन्� व्यQ�ां भूयो �ायन्�े बुद्बदुा इव॥18॥अ0ा:� यह सम्पूण: �ड़- े�� �ग� उस 'ब्रह्म' में ही समाया हुआ है जि�स प्रकार बह�ी हुई �दिदयां समुद्र में ली� हो �ा�ी हैं, उसी प्रकार यह सम्पूण: �ग� भी उस 'ब्रह्म' में लय हो �ा�ा है। जि�स प्रकार पा�ी का बुलबुला पा�ी से उ�पन्न हो�ा है और पा�ी में ही लय हो �ा�ा है, उसी प्रकार जि�ससे सम्पूण: �ीव-पदा0: �न्म ले�े हैं, उसी में लय होकर अदृश्य हो �ा�े हैं। ज्ञा�ी�� उसी को 'ब्रह्म' कह�े हैं। �ो निवद्वा�, अ0ा:� ब्रह्मवेGा उस ब्रह्म को �ा��े हैं, वे उसी में ली� हो �ा�े हैं। उसमें ली� होकर वे अव्यQ रूप से सुशोत्तिभ� हो�े हैं। नि�रालम्बोपनि�षदशुक्ल य�ुव�दीय इस उपनि�षद में ब्रह्म, ईश्वर, �ीव, प्रकृनि�, �ग�, ज्ञा� व कम: आदिद का सुन्दर निवव े� निकया गया है। इस उपनि�षद में निक��े ही प्रश्न उठाये गये हैं, य0ा-ब्रह्म क्या है? ईश्वर कौ� है? �ीव, प्रकृनि�, परमा�मा, ब्रह्मा, निवष्णु, रुद्र, इन्द्र, सूय:, यम, न्द्र आदिद देवगण कौ� हैं? असुर-निपशा कौ� है? म�ुष्य, स्त्री, पशु आदिद क्या हैं? �ानि�, कम:-अकम: क्या हैं? ज्ञा�-अज्ञा� क्या है? सुख-दु:ख क्या है। स्वग:-�रक, बन्ध� और मुचिQ क्या है? चिशष्य,निवद्वा� और मूख: कौ� हैं? �प और परम पद क्या है? संन्यासी कौ� है? आदिद-आदिद। इ� प्रश्नों का उGर इस उपनि�षद में दिदया गया है। महा� �त्त्व, अहम्, पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु, आकाश, समस्� ब्रह्माण्ड को धारण कर�े वाला, कम: और ज्ञा� को दे�े वाला, �ाम, रूप और उपायिधयों से रनिह�, सव:शचिQमा�, आदिद-अन्�निवही�, शुद्ध, चिशव, शान्�, नि�गु:ण और अनि�व: �ीय �े�स्वी ै�न्य स्वरूप ब्रह्म, परमा�मा �0ा ईश्वर कहला�ा है। �ब वह ै�न्य-स्वरूप 'ब्रह्म' अ�ेक देवी-देव�ाओं �0ा लौनिकक शरीरों की त्तिभन्न�ा में �ीव�ी-शचिQ के रूप में अप�े आपको अत्तिभव्यQ कर�ा है, �ब यह '�ीव' कहला�े लग�ा है। ब्रह्म की प्रेरणा से चि त्र-निवचि त्र संसार को र �े वाली शचिQ प्रकृनि� कहला�ी है। कहा भी है- यह निवश्व ही 'ब्रह्म' है, इसके अनि�रिरQ कुछ भी �हीं है-

सव° खच्छिल्वदं ब्रह्म �ेह �ा�ाब्धिस्� पिकं �॥9॥ शरीर का म:, रQ, मांस, अच्छिस्थयां, 'आ�मा' �हीं हो�ीं। इसी भांनि� इजिन्द्रयों द्वारा की �ा�े वाली निक्रयाओं को कम: कह�े हैं। 'ब्रह्म' द्वारा नि�र्मिमं� निवत्तिभन्न �ीव-रूपों में भेद मा��ा अज्ञा� कहला�ा है। स�-चि �-आ�न्द-स्वरूप परमा�मा के ज्ञा� से �ो आ�न्दपूण: च्छिस्थनि� ब��ी है, वही सुख है। �श्वर निवषयों का निव ार कर�ा दु:ख कहला�ा है। स�य और स�संग का समागम ही स्वग: है। और �श्वर संसार के मोह-बन्ध� में पडे़ रह�ा ही �रक है। 'मैं हंू' का निव ार ही बन्ध� है। सभी प्रकार का योग, वण: और आश्रम-व्यवस्था �0ा धम:-कम: के संकल्प भी बन्ध�-स्वरूप हैं। मोक्ष पर निव ार कर�ा, आ�मगुणों का संकल्प, यज्ञ, व्र�, �प, दा� आदिद का निवयिध-निवधा� आदिद भी बन्ध� के ही रूप हैं।

�ब सभी नि��य-अनि��य, सुख-दु:ख, मोह-मम�ा आदिद �ष्ट हो �ायें, �ब उस च्छिस्थनि� को मोक्ष कह�े हैं। जि�सके हृदय में ब्रह्मरूप ज्ञा� ही शेष रह �ाये, उसे चिशष्य और आ�म�त्त्व के निवज्ञा�मय स्वरूप को �ा��े वाला निवद्वा� अ0वा गुरु हो�ा है। �ो 'मैं ही कर�ा हूं' या 'मैं�े निकया है' भाव से चिलप्� रह�ा है, वह मूख: है। 'ब्रह्म स�यं �गत्मिन्मथ्या' के भाव को धारण करके की �ा�े वाली साध�ा, �प कहला�ी है। प्राण, इजिन्द्रय, अन्�:करण आदिद से त्तिभन्न सच्छिच्चदा�न्दस्वरूप और नि��य, मुQ, ब्रह्म का स्था� परमपद कहा �ा�ा है। �ो समस्� धम- �0ा कम- में मम�ा एवं अहंकार का परिर�याग करके 'ब्रह्म' की शरण में �ाकर उसी को सब कुछ समझ�ा है, वह साधक या पुरुष संन्यासी कहला�ा है। वही मुQ, पूज्य, योगी, परमहंस, अवधू� और ब्राह्मण हो�ा है। उसका पु�राव:�� �हीं हो�ा। यही इस उपनि�षद का रहस्य है। 'नि�रावलम्ब, 'अ0ा:� ब्रह्म के अनि�रिरQ निकसी अन्य के अधी� �ो �हीं हो�ा, वही 'मोक्ष' का अयिधकारी हो�ा है। पैंगलोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 पैंगलोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 दूसरा अध्याय 4 �ीसरा अध्याय 5 ौ0ा अध्याय 6 सम्बंयिध� लिलंक

यह भी शुक्ल य�ुव�दीय उपनि�षद है। इसमें कुल ार अध्याय हैं। इसमें ऋनिष पैंगल और महर्तिषं याज्ञवल्क्य के प्रश्नोGर के माध्यम से परम कैवल्य (ब्रह्म) का रहस्य वर्णिणं� हैं। प्र0म अध्यायइस अध्याय में 'सृयिष्ट के सृ��' का बड़ा ही वैज्ञानि�क और स्पष्ट निववे � निकया गया है। ऋनिष याज्ञवल्क्य �े पैंगल ऋनिष को ब�ाया निक पूव: में केवल 'स�' ही 0ा। वही नि��य, मुQ, अनिवकारी, स�य, ज्ञा� और आ�न्द से पूरिर� स�ा�� एकमात्र अदै्व� ब्रह्म है। वह अप�े भी�र निवली� सम्पूण: �ग� का आनिवभा:व कर�े वाला है। निहरण्यगभ: में नि�वास कर�े वाले उस 'ब्रह्म' �े अप�ी निवशेष शचिQ से, �मोगुण वाली अहंकार �ामक स्थूल शचिQ को प्रकट निकया। उसमें �ो प्रनि�निबत्मिम्ब� है, वही निवराट ै�न्य है। उसी �े पं �त्त्वों के रूप में अप�े आपको प्रकट निकया व उ�से अ�न्� कोदिट ब्रह्माण्डों और लोकों की सृयिष्ट की। पं भू�ों के र�ोगुणयुQ अंश से ार भाग करके �ी� भागों से पां प्रकार के 'प्राणों' का सृ�� निकया और ौ0े अंश से 'कम�जिन्द्रयां' ब�ायीं। इसी प्रकार पं भू�ों के स�ोगुण युQ अंश को ार भागों में निवभाजि�� करके उसके �ी� भागों से पं वृ�या�मक' अन्�:करण' ब�ाये औ ौ0े अंश से 'ज्ञा�ेजिन्द्रयों' का सृ�� निकया है। उस�े अप�ी सत्त्व समयिष्ट से पां ों इजिन्द्रयों के पालक देव�ाओं का नि�मा:ण निकया और उन्हें ब्रह्माण्डों में स्थानिप� कर दिदया। ब्रह्माण्ड में च्छिस्थ� देवगण उस ब्रह्म की इ�ा के निब�ा स्पन्द�ही� ही ब�े रहे। �ब उस ब्रह्म �े उन्हें ै�न्य निकया। वह स्वयं ब्रह्माण्ड, ब्रह्मरन्ध्र और समस्� व्ययिष्ट के मस्�क को निवदीण: करके उसी में प्रवेश कर गया। उ�के ै�न्य हो�े ही सभी कम: में प्रवृG हो गये। यह े��ा-शचिQ ही 'आ�म-शचिQ' कहलाई। इसे ही '�ीव' कहा गय। दूसरा अध्यायपैंगल ऋनिष �े पूछा-'समस्� लोकों की सृयिष्ट, उ�का पाल� और अन्� कर�े वाला ईश्वर निकस प्रकार �ीव-भाव को प्राप्� हो�ा है?'याज्ञवल्क्य �े उGर दिदया-'सू्थल, सूक्ष्म और कारण शरीर का नि�मा:ण पं ीकृ� पं महाभू�ों-पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश द्वारा निकया गया है। पृथ्वी से कपाल, म:, अच्छिस्थ, मांस और �ाखू़� आदिद ब�े, �ल से रQ, मूत्र, लार, पसी�ा आदिद ब�ा, अग्निग्� से भूख-प्यास, उष्ण�ा, मोह, मै0ु� आदिद ब�े, वायु से ल�ा (गनि�) उठ�ा-बैठ�ा, श्वास आदिद ब�े और आकाश से काम, क्रोध आदिद ब�े। सबके समुच्चय का सू्थल रूप 'शरीर' है।'ऋनिष �े आगे ब�ाया निक अपं�ीकृ� महाभू�ों के र�ोगुण अंश से �ी� भागों में 'प्राण' का सृ�� निकया गया। प्राण, अपा�, व्या�, उदा� और समा�- ये पां 'प्राण' हैं। �ाग, कूम:, कृकर, देवदG और ध�ं�य- पां 'उपप्राण' हैं। हृदय, आस�(मूलाधार), �ात्तिभ, कण्ठ और सवा°ग उस प्राण के स्था� हैं। आकाश आदिद पं महाभू�ों के र�ोगुण युQ अंश के ौ0े भाग से कम�जिन्द्रयों का नि�मा:ण निकया। इसके स�व अंश के ौ0े भाग से पां ज्ञा�ेजिन्द्रयों का नि�मा:ण निकया।

दिदशाएं, वायु, सूय: , वरुण, अत्तिश्व�ीकुमार, अग्निग्�, इन्द्र, उपेन्द्र, यम, न्द्र, निवष्णु, ब्रह्मा और चिशव आदिद सभी देवगण इ� इजिन्द्रयों के स्वामी हैं। इसके उपरान्� 'अन्नमय, 'प्राणमय,' 'म�ोमय,' 'निवज्ञा�मय' और 'आ�न्दमय' ये पां कोश हैं। ईश्वर शरीर में च्छिस्थ� होकर इन्हीं समस्� इजिन्द्रयों, कोशों और प्राण�त्त्व के द्वारा �ीव का पाल� कर�ा है। मृ�यु के उपरान्� ये सभी निक्रयाए ं�ष्ट हो �ा�ी हैं और �ीव उसी परमा�मा का अंश ब�कर पु�: परमा�मा की दिदव्य ज्योनि� में समा �ा�ा है। �ीसरा अध्यायइस अध्याय में पैंगल ऋनिष �े महावाक्यों का निववरण समझा�े के चिलए कहा, �ो याज्ञवल्क्य �े कहा निक 'वह �ुम हो' (�त्त्वमचिस)', '�ुम वह हो' (�वं �दचिस), '�ुम ब्रह्म हो' (�वं ब्रह्माचिस), 'मैं ब्रह्म हूं' (अहं ब्रह्माब्धिस्म) ये महावाक्य हैं। '��वमचिस'- से सव:ज्ञ, मायावी, सच्छिच्चदा�न्द, �ग� योनि� अ0ा:� मूल कारण अव्यQ ईश्वर का बोध हो�ा है। '�त्त्वमचिस' और 'अहं ब्रह्माब्धिस्म' के अ0: पर निव ार कर�ा श्रवण कहला�ा है। श्रवण निकये अ0: का एकान्� में अ�ुसन्धा� म�� कहला�ा है। दो�ों के द्वारा एकाग्र�ापूव:क चि G का स्थाप� नि�दिदध्यास� कहला�ा है। �ब चि Gवृत्तिG केवल ध्येय में च्छिस्थर हो �ाये, �ब वह अवस्था समायिध कहला�ी है। 'ब्रह्म' का साक्षा�कार हो�े ही योगी �ीवन्मुQ हो �ा�ा है। ौ0ा अध्यायइस अध्याय में 'ज्ञानि�यों के कम-' के निवषय में प्रश्न निकया गया है। उसके उGर में ऋनिष याज्ञवल्क्य कह�े हैं निक 'इजिन्द्रय' और 'म�' से युQ होकर ही यह 'आ�मा' भोQा ब� �ा�ा है। इसके बाद हृदय में साक्षा� �ारायण प्रनि�यिष्ठ� हो�े हैं। यह शरीर �ाशवा� है। इसका मोह व्य0: है। अ�: �ब �क इस शरीर के सा0 सांसारिरक उपायिधयां �ुड़ी हैं, �ब �क ज्ञा�ी व्यचिQ को गुरु की सेवा कर�ी ानिहए। ज्ञा�ामृ� से �ृप्� योगी के चिलए कोई क�:व्य शेष �हीं रह �ा�ा। यदिद कोई क�:व्य शेष है, �ो वह �त्त्वनिवद ्�हीं है। �ब ज्ञा� के द्वारा देह में च्छिस्थ� अत्तिभमा� �ष्ट हो �ा�ा है और बुजिद्ध अखण्ड सृयिष्ट में ली� हो �ा�ी है, �ब ज्ञा�ी पुरुष 'ब्रह्मज्ञा�-रूपी' अग्निग्� से समस्� कम:-बन्ध�ों को भस्म कर दे�ा है। ज्ञा�ी कहीं भी और कैसे भी मृ�यु को प्राप्� करे, वह हर च्छिस्थनि� में 'ब्रह्म' में लय हो �ा�ा है।मैं ब्रह्म हूं (अहम् ब्रह्माऽब्धिस्म) यही भाव महा�मा पुरुषों के मोक्ष का आधार है। बन्ध� और मोक्ष के कारण-रूप, ये दो पद हैं। 'यह मेरा है,' 'बन्ध�' है और 'यह मेरा �हीं है', 'मोक्ष' है। �ब दै्व� भाव समाप्� हो �ा�ा है, �भी परमपद प्राप्� हो�ा है। �ो यह �हीं �ा��ा, उसकी मुचिQ आकाश में मुयिष्टप्रहार के समा� है। �ो इस उपनि�षद का पाठ कर�ा है, वह अग्निग्�, वायु, आदिद�य, ब्रह्म, निवष्णु और रुद्र के समा� पनिवत्र हो�ा है। उसे दस सहस्त्र 'प्रणव' (ओंकार) �ाम के �प का फल प्राप्� हो�ा हैं। ज्ञा�ी �� निवश्वव्यापी भगवा� निवष्णु के परमपद के दु्यलोक में व्याप्� दिदव्य प्रकाश की भांनि� देख�े हैं-�निद्वष्णों: परमं पदं सदा पश्यन्तिन्� सूरय:।दिदवीब कु्षरा��म् ॥30॥इस प्रकार ब्रह्मनि�ष्ठ �ीव�-याप� कर�े वाले ज्ञा�ी पुरुष प्रमादादिद से रनिह� होकर सदैव श्रेष्ठ कम: कर�े वाले निवष्णु के परमपद को प्राप्� कर�े हैं। इस उपनि�षद का यही सार �त्त्व है। परमहंसोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द के इस उपनि�षद में महामुनि� �ारद �े ब्रह्मा�ी से 'परमहंस' की च्छिस्थनि� और उसके माग: के निवषय में प्रश्न निकया 0ां इसमें कुल ार मन्त्र हैं। ब्रह्मा �े ब�ाया निक परमहंस का माग: इस �ग� में अनि� दुल:भ है। ऐसे वेद पुरुष का चि G सदैव मुझमें ही अयिधयिष्ठ� रह�ा है और मैं उस महापुरुष के हृदय में रह�ा हंू। परमहंस संन्यासी अप�े समस्� लौनिकक सम्बन्धों और कम:काण्डों का परिर�याग कर लोकनिह� के चिलए शरीर की रक्षा कर�ा है। सभी प्रकार के सुख-दु:ख में वह समदश² रह�ा है। वह अप�े शरीर का भी कुछ मोह �हीं रख�ा। वह संशय और यिमथ्या-भाव से दूर रह�ा है। वह नि��य बोध-स्वरूप हो�ा है, उसे निकसी सांसारिरक पदा0: की काम�ा �हीं हो�ी। ऐसा परमहंस व्यचिQ समस्� काम�ाओं का �याग करके अदै्व� परब्रह्म के स्वरूप में च्छिस्थ� रह�ा है। वह नि�र्तिवंकार भाव से स्वे�ापूव:क 'त्तिभक्षु' ब��ा है। ब्रह्म के अनि�रिरQ उसका आह्वा�, निवस�:�, मन्त्र, ध्या�, उपास�ा, लक्ष्य-अलक्ष्य कुछ भी �हीं हो�ा। उसे कोई वस्�ु आकष:क अ0वा अ�ाकष:क प्र�ी� �हीं हो�ी। वह स्वण: से पे्रम �हीं कर�ा। उसकी इजिन्द्रयां अनि�शय शान्� हो �ा�ी हैं। वह अप�े 'आ�म�त्त्व' में ही नि�मग्� रह�ा है। वह अप�े आपको सदा पूणा:�न्द, पूण:बोधस्वरूप 'ब्रह्म' ही समझ�ा है। वह समस्� �ीवों में अप�ा ही प्रनि�निबम्ब देख�ा है। नित्रचिशग्निखब्राह्मणोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में अष्टांग योग द्वारा ब्रह्म-प्रान्तिप्� का वण:� है। इस उपनि�षद का प्रारम्भ नित्रचिशखी �ामक ब्राह्मण और भगवा� आदिद�य के बी 'आ�मा' और 'ब्रह्म' निवषयक प्रश्नोGर से हो�ा है। इसके बाद इसमें चिशव��व की निवद्यमा��ा, 'ब्रह्म' से अग्निखल निवश्व की उ�पत्तिG, एक ही निपण्ड के निवभा�� से सृयिष्ट का नि�मा:ण, आकाश का अंश-भेद, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म �ीव में 'ब्रह्म' का स्था�, ब्रह्म से लेकर पं ीकरण �क सृयिष्ट का निवकास, सृयिष्ट में �ड़-

े�� की च्छिस्थनि�, मुचिQप्रदायक अध्यात्मि�मक ज्ञा�, कम:योग, ज्ञा�योग, अष्टांगयोग, ब्रह्मयोग, हठयोग, प्राणायाम, �ाड़ी क्र, कुण्डचिल�ी-�ागरण, योगाभ्यास, ध्या� और धारणा आदिद का निवशद निववे � निकया गया है। इस उपनि�षदकार का कह�ा है निक ब्रह्म से अव्यQ, अव्यQ से मह�, मह� से अहंकार, अहंकार से पं �न्मात्राए,ं पं �न्मात्राओं से पं महाभू� और पं महाभू�ों (पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश) से यह समू्पण: निवश्व उदिद� हुआ है। ब्रह्म से साक्षा�कारइस उपनि�षद की मुख्य बा� यही है निक निवश्व-रूप देव का �ो कुछ भी स्थूल, सूक्ष्म या निफर अन्य कोई भी रूप है, योगी अप�े हृदय में इसका ध्या� कर�ा है और वह स्वयं साक्षा� वैसा ही हो �ा�ा है, �ैसा निक 'ब्रह्म' उसे दिदखाई दे�ा है। '�ीवा�मा' और 'परमा�मा' दो�ों का ज्ञा� प्राप्� कर ले�े के उपरान्�, साधक 'मैं ब्रह्म हूं' की च्छिस्थनि� �क पहुं �ा�ा है। उस च्छिस्थनि� को 'समायिध' कह�े हैं। इस प्रकार �ो योगी उस परब्रह्म का साक्षा�कार कर ले�ा है, वह अप�ी सम्पूण: इ�ाओं का �याग कर 'ब्रह्ममय' हो �ा�ा है और उसका पु��:न्म �हीं हो�ा। ऐसा श्रेष्ठ योगी अ0वा साधक, नि�वा:ण के पद पर आसी� होकर 'कैवल्यावस्था' की च्छिस्थनि� में पहुं �ा�ा है। सुबालोपनि�षद / Subalopnishadअ�ुक्रम[छुपा]1 सुबालोपनि�षद / Subalopnishad 2 पहला और दूसरा खण्ड 3 �ीसरा खण्ड 4 ौ0ा खण्ड 5 पां वां खण्ड 6 छठा खण्ड 7 सा�वां खण्ड 8 आठवां खण्ड 9 �ौवां खण्ड 10 दसवां खण्ड 11 ग्यारहवां खण्ड 12 बारहवां और �ेरहवां खण्ड 13 ौदहवां खण्ड 14 पन्द्रहवां खण्ड 15 सोलहवां खण्ड 16 सम्बंयिध� लिलंक

शुक्ल य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में कुल सोलह खण्ड हैं। इ�में प्रश्नोGर शैली में अध्या�मदश:� के गूढ़ �त्त्वों का निववे � निकया गया है। [संपादिद� करें] पहला और दूसरा खण्डइ� दो�ों खण्डों में रैक्व ऋनिष के द्वारा प्रश्न पूछे �ा�े पर घोर आंनिगरस ऋनिष �े सृयिष्ट की प्रनिक्रया के निवषय में निववे � कर�े हुए निवराट ब्रह्म द्वारा सभी वण-, प्राण, वेदों, वृक्षों, पशु-पत्तिक्षयों �0ा समस्� �ीवों के सृ�� का उल्लेख निकया है। छान्दोग्य उपनि�षद के छठे अध्याय में इसका पूरा वण:� है। [संपादिद� करें] �ीसरा खण्डइस खण्ड में, 'आ�म�त्त्व' के स्वरूप को ब�ा�े हुए उसे �ा��े की निवयिध ब�ायी गयी है। इसका पहले भी उल्लेख निकया �ा ुका है। बृहदारण्यकोपनि�षद के �ीसरे अध्याय के आठवें ब्राह्मण में 'अक्षरब्रह्म' के प्रसंग में इसका निवस्�ृ� निववे � हैं। [संपादिद� करें] ौ0ा खण्डइस खण्ड में, हृदय में आ�मा की च्छिस्थनि� ब�ायी गयी है। यह 'आ�मा' शरीर की बहGर हज़ार �ानिड़यों में निवद्यमा� है। [संपादिद� करें] पां वां खण्डइस खण्ड में, अ�र-अमर आ�मा की उपास�ा का उल्लेख आंख, �ाक, का�, जि�ह्वा, �व ा, म�, बुजिद्ध, अहंकार, चि G, वाणी, हा0, पैर, पायु और उपस्थ आदिद शारीरिरक अंगों के द्वारा निकया गया है। यहाँ इ� सभी अंगों को अध्या�म की संज्ञा दी गयी है। [संपादिद� करें] छठा खण्डइस खण्ड में, आंख, का�, �ाचिसका, जि�ह्वा आदिद इजिन्द्रयों को आदिद�य, रुद्र, वायु ब�ाया है और ॠग्वेद, सामवेद, य�ुव�द आदिद को �ारायण-रूप मा�ा है। [संपादिद� करें] सा�वां खण्डइस खण्ड में, पृथ्वी, �ल, वायु, �े� आदिद में निवद्यमा� उस े��ा-शचिQ का उल्लेख है, जि�से पृचि0वी, �ल, वायु, म�, �े�, बुजिद्ध आदिद �ा� �हीं पा�े। वह �ारायण-रूप है।

[संपादिद� करें] आठवां खण्डइस खण्ड में, हृदय-रूपी गुफ़ा में च्छिस्थ� आ�न्द-स्वरूप आ�म�त्त्व का उल्लेख निकया गया है। [संपादिद� करें] �ौवां खण्डइस खण्ड में ब�ाया गया है निक �ग� के समस्� पदा0:, कु्ष, श्रोत्र, �ाचिसका आदिद से हो�े हुए अन्��: �ुरीय (�ीव्र गनि�शील ब्रह्म) में निवली� हो �ा�े हैं। [संपादिद� करें] दसवां खण्डइस खण्ड में, सभी �ीवों और पदा0- को निवत्तिभन्न लोकों में प्रनि�यिष्ठ� हो�े हुए, अन्� में आ�म-रूप ब्रह्म में प्रनि�यिष्ठ� हो�े हुए ब�ाया गया है। [संपादिद� करें] ग्यारहवां खण्डइस खण्ड में ब�ाया गया है निक मृ�यु के उपरान्� आ�मा शरीर से निकस प्रकार नि�कल �ा�ा है। आंनिगरस ब�ा�े हैं निक हृदय में एक शे्व� कमल है। उसके मध्य समुद्र और समुद्र में कोश है। उसमें ार प्रकार की �ानिड़यां- रमा, अरमा, इ�ा और अपु�भ:वा हैं। रमा �ाड़ी द्वारा पुण्यलोक, अरमा द्वारा पापलोक, इ�ा �ाड़ी द्वारा इच्छि��लोक, अपु�भ:वा �ाड़ी द्वारा हृदय में च्छिस्थ� कोश प्राप्� हो�ा है। कोश को पार कर मब्धिस्�ष्क में 'ब्रह्मरन्ध्र' को खोला �ा�ा है। �दुपरान्� शीष: (ब्रह्मरन्ध्र) से पृथ्वी को, पृथ्वी से �ल को, �ल से प्रकाश को, प्रकाश से वायु को, वायु से आकाश को, आकाश से म� को, म� से अहंकार को, अहंकार से महा��ा को, महा��ा से प्रकृनि� को, प्रकृनि� से अक्षर को व अक्षर से मृ�यु का भेद� करके आ�मा 'ब्रह्म' में ली� हो �ा�ा है। यहाँ आकर स�-अस� का भेद यिमट �ा�ा है। [संपादिद� करें] बारहवां और �ेरहवां खण्डइस खण्ड में, मोक्षा0² संन्यासी के आहार-निवहार और चि न्��-म�� का ढंग वर्णिण�ं निकया गया है। [संपादिद� करें] ौदहवां खण्डइस खण्ड में परस्पर एक-दूसरे के 'अन्न' अ0वा 'भक्ष्य' का उल्लेख कर�े हुए मृ�यु को परमा�मा के सा0 एकाकार कर�े हुए ब�ाया गया है। [संपादिद� करें] पन्द्रहवां खण्डइस खण्ड में आ�म�त्त्व के उपरान्�, निवज्ञा� शरीर के दग्ध कर�े में निक�-निक� पदा0- को दग्ध कर�ा है, इसका उल्लेख है। पं �त्त्व निकस प्रकार शून्य में निवली� हो �ा�े हैं, इसका वण:� है। अन्� में केवल 'स�' ब �ा है। [संपादिद� करें] सोलहवां खण्डइस खण्ड में उपनि�षद की महGा और फलशु्रनि� का वण:� है। यहाँ सुबाल को ब्रह्म का बी� ब�ाया ब�ाया गया है। इस उपनि�षद को चिशष्य, पुत्र और अनि�शय शान्� व्यचिQ को ही दे�ा ानिहए। यही नि�वा:ण हैं। अद्वय�ारकोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 अद्वय�ारकोपनि�षद 2 कुण्डचिल�ी शचिQ 3 �ारक योग 4 शाम्भवी मुद्रा 5 सम्बंयिध� लिलंक

शुक्ल य�ुव�द के इस उपनि�षद में 'रा�योग' का निवस्�ारपूव:क वण:� निकया गया है। इसका मुख्य ध्येय 'ब्रह्म' की प्रान्तिप्� है। इसमें '�ारक योग' की व्याख्या, स्वरूप, लक्ष्य, निवयिध, चिसजिद्ध, मुद्रा और फलश्रुनि� आदिद के निवषय में ब�ाया गया है। इसमें ब�ाया गया है निक '�ारक-ब्रह्म' की साध�ा से �ीव भवसागर से पार हो सक�ा है। कुण्डचिल�ी शचिQप्रारम्भ में ब�ाया गया है निक योगी के शरीर के मध्य 'सुषुम्�ा' �ामक �ाड़ी न्द्रमा की भांनि� प्रकाशमा� है। वह 'मूलाधार क्र' से 'ब्रह्मरन्ध्र' �क निवद्यमा� है। इस �ाड़ी के बी में निवदु्य� के समा� �े�ोमयी सर्तिपंणी की भांनि�, कुण्डली मारे हुए, 'कुण्डचिल�ी शचिQ' निवरा�मा� है। उस कुण्डचिल�ी शचिQ का ज्ञा� हो�े ही साधक समस्� पापों से मुQ होकर 'मोक्ष' का अयिधकारी हो �ा�ा है। मब्धिस्�ष्क के ऊपर च्छिस्थ� �े�ामय '�ारक-ब्रह्म' के सा0 इस कुण्डचिल�ी शचिQ का योग हो�े ही साधक चिसद्ध हो �ा�ा है। भौनि�क सुखों की काम�ा में र� म�ुष्य नि�रन्�र पापकम- की ओर प्रवृG रह�ा है, परन्�ु हृदय में कुण्डचिल�ी शचिQ का दश:� कर�े मात्र से ही साधक श्रेष्ठ�म आ�न्द के स्त्रो� को अप�े भी�र ही प्राप्� कर ले�ा है। �ारक योग'�ारक योग' की दो निवयिधयां ब�ाई गयी हैं- 'पूवा:द्ध:' और

'उGराद्ध:' पूव: को '�ारक' कह�े हैं और उGर को 'अम�स्क' (म� का शून्य हो�ा) कहा गया है। हम अप�ी आंखों की पु�चिलयों (�ारक) से सूय: व न्द्र का दश:� कर�े हैं। �ैसे आंखों के �ारकों से ब्रह्माण्ड में प्रकाशमा� �ारों को, सूय: को और न्द्रमा को देख�े हैं, वैसे ही अप�े मब्धिस्�ष्क-रूपी ब्रह्माण्ड में 'ब्रह्म' के प्रकाशमा� सूय: और न्द्र आदिद �क्षत्रों का दश:� कर�ा ानिहए। बाह्य और अन्�: में दो�ों को एक रूप मा�कर ही चि न्�� कर�े की प्रनिक्रया '�ारक योग' कहला�ी है। इसे समस्� इजिन्द्रयों का दम� कर अन्�: दृयिष्ट से म�ो-रूपी ब्रह्माण्ड में '�ारक-ब्रह्म' का चि न्�� कर�ा कह�े हैं । �ारक योग की दो निवयिधयों में प्र0म 'मू�:' कहला�ी है और निद्व�ीय 'अमू�:' हो�ी है। दो�ों �ारकों के मध्य ऊध्व: भाग में ज्योनि�-स्वरूप 'ब्रह्म' का नि�वास है। यह ब्रह्म शुभ्र-रूप �े�स्वी है और सदैव प्रकाशमा� रह�ा है। उस ब्रह्म को म� सनिह� �ेत्रों की अन्�:दृयिष्ट से देख�ा ानिहए। अमू�: �ारक भी इसी निवयिध से म� और संयुQ �ेत्रों से ज्ञा� निकया �ा�ा है। इसमें 'एकाग्र�ा' और 'ध्या�' अनि�वाय: हैं। �ो साधक आन्�रिरक दृयिष्ट के द्वारा दो�ों भृकुदिटयों के मध्य 0ोड़ा ऊपर की ओर ध्या� केजिन्द्र� करके ब्रह्म के �े�ोमय प्रकाश के दश:� कर�ा है, वही '�ारक योगी' कहला�ा है। �ारक का 'पूवा:द्ध: योग' यही है। 'उGराद्ध: योग' में �ालु-मूल के ऊध्व: भाग में महा� ज्योनि� का 'निकरण मण्डल' च्छिस्थ� है। उसी का ध्या� �ारक योगी अमूर्ति�ं रूप से कर�ा है। उससे अ�ेक चिसजिद्धयां प्राप्� हो�ी है। शाम्भवी मुद्रायोगी साधक की भी�री और बाहरी लक्ष्य-सन्धा� की सामथ्य: दृयिष्ट, �ब च्छिस्थर हो �ा�ी है, �ब वह च्छिस्थनि� ही 'शाम्भवी मुद्रा' कहला�ी है। इससे योगी परम सदगुरु का स्था� प्राप्� कर ले�ा है। �ो अज्ञा�-रूपी अन्धकार को रोक�े में सम0: हो�ा है, वही सच्चा और सदा ारी गुरु कहला�ा है।गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गनि�:।गुरुरेव परा निवद्या गुरुरेव परायणम्॥17॥ अ0ा:� गुरु ही 'परमब्रह्म' परमा�मा है, गुरु की परम (श्रेष्ठ) गनि� है, गुरु परा-निवद्या है और गुरु ही परायण (उGम आश्रय) है। इस उपनि�षद का पाठ कर�े से साधक को मोक्ष प्राप्� हो �ा�ा है और �न्म-�न्मान्�र के पाप ��काल �ष्ट हो �ा�े हैं �0ा समस्� इ�ाओं की पूर्ति�ं सह� ही हो �ा�ी है। �ुरीया�ी�ोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द के इस उपनि�षद में निप�ामह ब्रह्मा �0ा आदिद�ारायण के प्रश्नोGर हैं। इसमें ब्रह्मा �ी �ारायण से �ुरीया�ी�-अवधू� का माग: पूछ�े हैं। आदिद�ारायण इस माग: पर ल�े वालों की कदिठ�ाई और अवधू� के आ रण-व्यवहार, चि न्��-म�� आदिद की काय:-पद्धनि� ब�ा�े हैं, जि�स पर लकर व्यचिQ �ीव� का रम लक्ष्य प्राप्� कर ले�ा है। अवधू� माग:यह माग: अ�यन्� कदिठ� है। इस पर ल�े वाला दुल:भ ही हो�ा है। �ो हो�ा है, वह नि��य पनिवत्र, वैराग्य की प्रनि�मूर्ति�ं, ज्ञा�ी व वेदों का �ा�कार हो�ा है। वह समस्� प्रात्तिणयों में अप�ी छनिव देख�ा है और उस छनिव में परब्रह्म की छनिव का अवलोक� कर�ा है। वह हंस ब�कर परमहंस ब��े का स�� प्रयास कर�ा है। वह सव:प्र0म अप�े आपको �ा��े का प्रय�� कर�ा है। अप�े भी�र च्छिस्थ� 'आ�मा' से �ादा�म्य स्थानिप� कर�ा है और समस्� मायावी प्रप ों को �ा�कर, दण्ड, कमण्डलु, कदिटसूत्र, कौपी�, आ�ाद� वस्त्र और निवयिधपूव:क की �ा�े वाली नि��यनिक्रयाओं को �ल में निवसर्द्धि�ं� कर दे�ा है। वह दिदगम्बर होकर �ीण: वल्कल और मृग म: के परिरग्रह का भी �याग कर दे�ा है। वह शरीर के समस्� प्रसाध�ों को �याग कर दे�ा है। वैदिदक-लौनिकक कम- का उपसंहार करके सव:त्र पुण्य-अपुण्य को भी छोड़कर, ज्ञा�-अज्ञा� को भी छोड़ दे�ा है। वह समस्� ऋ�ुओं के �ाप और शील को �ी� ले�ा है। वह शरीर की समस्� वास�ाओं का �याग करके, �ो यिमल �ा�ा है, उसी से अप�ा �ीव� ला�ा है। वह पूण:�: �टस्थ हो �ा�ा है �0ा सवा:�मक रूप 'अदै्व�' की कल्प�ा करके यह मा��ा है निक उसके अनि�रिरQ कुछ �हीं है। वह राग-दे्वष से अलग समदश² रह�ा है। �ग� के समस्� उपकरणों से उसका कोई �ा�ा �हीं हो�ा। वह स�� निव रणशील रह�ा है। वह सदैव 'ब्रह्मरूप' होकर अप�े शरीर में रह�ा है। वह आ�मनि�ष्ठ होकर सबकों भुला दे�ा है। इस प्रकार �ुरीया�ी� अवधू� के वेश वाला, स�� अदै्व� नि�ष्ठा में चिलप्� होकर 'प्रणव' भाव से शरीर का �याग कर दे�ा है। याज्ञवल्क्योपनि�षदशुक्ल य�ुव�द का यह उपनि�षद रा�ा ��क और याज्ञवल्क्य के बी हुए 'संन्यास धम:' की ा: को अत्तिभव्यQ कर�ा है। याज्ञवल्क्य �ी रा�ा ��क को ब�ा�े हैं निक ब्रह्म य:, गृहस्थ व वा�प्रस्थ आश्रम में �ीव� व्य�ी� कर�े के उपरान्� 'सन्यास आश्रम' आ�ा है, परन्�ु भाव-प्रवण�ा की च्छिस्थनि� में कभी भी संन्यास चिलया �ा सक�ा है। संन्यासी को चिशखा, यज्ञोपवी� और गृह का �याग कर�ा अनि�वाय: है। 'ॐकार' ही संन्यासी का यज्ञोपवी� है। �ारी, संन्यासी को प0भ्रष्ट कर�े की सबसे बड़ी आधार है। सन्�ा� के मोह और �ारी के मोह में पड़कर कभी संन्यास ग्रहण �हीं निकया �ा सक�ा। संन्यासी को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्या:, अहंकार आदिद का �याग पूण: रूप से कर�ा ानिहए। संन्यासी का एकमात्र चि न्��-म�� का आधार 'परब्रह्म' हो�ा है। उसी की साध�ा से वह मोक्ष प्राप्� कर सक�ा है। उसके चिलए वही सव:शे्रष्ठ है। शाट्याय�ीयोपनि�षद

शुक्ल य�ुव�दीय इस उपनि�षद में 'त्तिभक्षुकोपनि�षद' की भांनि� ही कुटी क्र, बहूदक, हंस और परमहंस, इ� ारों प्रकार के संन्याचिसयों की �ीव�शैली और योग-साध�ा आदिद का चि त्रण है। इसमें ालीस मन्त्र हैं। इस उपनि�षद में सव:प्र0म म� को बन्ध� और मोक्ष का कारण ब�ाया गया है। उसके बाद निववेक, वैराग्य, शमादिद, सम्पत्तिG और मोक्ष-साध�ा का माग: ब�ाया गया है। अन्� में निवष्णुलिलंग संन्यासी की फलश्रुनि� का उल्लेख निकया गया है। निवष्णुलिलंग संन्यासी 'व्यQ' और 'अव्यQ' दो प्रकार के कहे गये हैं। नित्रदण्ड धारण कर�े वाला संन्यासी वैष्णवलिलंग मा�ा �ा�ा है। ऐसा संन्यासी, ब्राह्मणों का उद्धार कर�े वाला हो�ा है।

चिशवसंकल्पोपनि�षदशुक्ल य�ुव�द के इस उपनि�षद में कुल छह मन्त्र हैं, जि��में म� की अद्भ�ु सामथ्य: का वण:� कर�े हुए, म� को 'चिशवसंकल्पयुQ' ब�ा�े की प्रा0:�ा की गयी है। मन्त्रों का गठ� अ�यन्� सारगर्णिभं� है।ये�ेदं भू�ं भुव�ं भनिवष्य�् परिरगृही�ममृ�े� सव:म्। ये� यज्ञस्�ाय�े सप्�हो�ा �न्मे म�: चिशवसंकल्पमस्�ु॥4॥अ0ा:� जि�स अनिव�ाशी म� की सामथ्य: से सभी कालों का ज्ञा� निकया �ा सक�ा है �0ा जि�सके द्वारा सप्� हो�ागण यज्ञ का निवस्�ार कर�े हैं, ऐसा हमारा म� श्रेष्ठ कल्याणकारी संकल्पों से युQ हो।

KRISHNA YAJURVED KE UPANISHADअत्तिक्ष उपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 अत्तिक्ष उपनि�षद 2 प्र0म खण्ड 3 दूसरा खण्ड 4 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में महर्तिषं सांकृनि� और आदिद�य के मध्य प्रश्नोGर के मध्यम से ' कु्ष-निवद्या' �0ा 'योग-निवद्या' पर प्रकाश डाला गया है। यह उपनि�षद दो खण्डों में निवभाजि�� है। प्र0म खण्डइस खण्ड में भगवा� सांकृनि� उपास�ा करके सूय: से �ेत्र-ज्योनि� को शुद्ध और नि�म:ल कर�े की प्रा0:�ा कर�े हैं वे कह�े हैं-'हे स�वगुण स्वरूप, �ेत्रों के प्रकाशक और सव:त्र हज़ारों निकरणों से �ग� को आभायुQ कर�े वाले सूय:देव! हमें अस� से स�प0 की ओर ले लों, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले लो। हमें मृ�यु से अमृ� की ओर ले लो।' 'ॐ अस�ो मा सद्गमय। �मसो मा ज्योनि�ग:मय। मृ�युमा:ऽमृ�ं गमय।' ऋनिष ज्योनि�-स्वरूप सूय: से अप�ी आंखों की नि�रोग रख�े की प्रा0:�ा कर�े हैं। �ो ब्राह्मण प्रनि�दिद� सूय: के चिलए इस ाक्षुष्म�ी-निवद्या का पाठ कर�ा है, उसे �ेत्र रोग कभी �हीं हो�े और � उसके वंश में कोई अन्ध�व को ही प्राप्� हो�ा है। दूसरा खण्डइस खण्ड में ऋनिषवर सूय: से 'ब्रह्म-निवद्या' का उपदेश दे�े की प्रा0:�ा कर�े हैं। आदिद�य देव (सूय:देव) उGर दे�े हुए कह�े हैं-'हे ¬ऋनिषवर! आप समस्� प्रात्तिणयों की भांनि� अ�न्मा, शान्�, अ�न्�, ध्रुव, अव्यQ �0ा �त्त्वज्ञा� से ै�न्य-स्वरूप परब्रह्म को देख�े हुए शान्तिन्� और सुख से रहें। आ�मा-परमा�मा के अनि�रिरQ इस �ग� में अन्य निकसी का आभास � हो, इसी को 'योग' कह�े हैं। इस योगकम: को समझ�े हुए सदैव अप�े क�:व्यों का पाल� कर�ा ानिहए।' योग की ओर प्रवृG हो�े पर, अन्�:करण दिद�-प्रनि�दिद� समस्� भौनि�क इ�ाओं से दूर हो �ा�ा है। साधक लोक-निह� के काय: कर�े हुए सदैव हष: का अ�ुभव कर�ा है। वह सदैव पुण्यकम- के संकल� में ही लगा रह�ा है। दया, उदार�ा और सौम्य�ा का भाव सदैव उसके काय- का आधार हो�ा है। वह मृदुल वाणी का प्रयोग कर�ा है और सदैव सदसं्गनि� का आश्रय ग्रहण कर�ा है। अमृ�निबन्दु उपनि�षदअमृ�निबन्दु उपनि�षद उपनि�षदों में कृष्ण य�ुव�दीय उपनि�षद है। यह एक परव�² छोटी उपनि�षदें है। �ो प्राय: दै�जिन्द� �ीव� की आ ार नि�यमावली सदृश हैं। इन्हें दो समूहों में बाँटा �ा सक�ा है:- एक संन्यासपरक और दूसरा योगपरक। अमृ�पिबंदु उपनि�षद दू्सरी श्रेणी में आ�ा है �0ा ूचिलका का अ�ुसरण कर�ी है।

अमृ��ादोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 अमृ��ादोपनि�षद 2 प्राणोपास�ा 3 योग - साध�ा ( प्राणायाम ) 4 टीका दिटप्पणी 5 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द शाखा के इस उपनि�षद में 'प्रणवोपास�ा' के सा0 योग के छह अंगों- प्र�याहार, धारणा, ध्या�, प्राणायाम, �क: और समायिध आदिद- का वण:� निकया गया है। योग-साध�ा के अन्�ग:� 'प्राणायाम' निवयिध, ॐकार की मात्राओं का ध्या�, पं प्राणों का स्वरूप, योग कर�े वाले साधक की प्रवृत्तिGयां �0ा नि�वा:ण-प्रान्तिप्� से ब्रह्मलोक �क �ा�े वाले माग: का दिदग्दश:� कराया गया है। इस उपनि�षद में उन्�ालीस मन्त्र हैं। प्राणोपास�ा'प्रणव,' अ0ा:� 'ॐकार' का चि न्�� समस्� सुखों को दे�े वाला है। ॐकार के र0 पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुं ा �ा सक�ा है-ॐकार-रूपी र0 पर आरूढ़ होकर और भगवा� निवष्णु को सारचि0 ब�ाकर ब्रह्मलोक का चि न्�� कर�े हुए ज्ञा�ी पुरुष देवायिधदेव भगवा� रुद्र की उपास�ा में नि�रन्�र �ल्ली� रहें। �ब ज्ञा�ी पुरुष का प्राण नि�त्तिश्च� रूप से 'परब्रह्म' �क पहुं �ा�ा है। [1] योग-साध�ा (प्राणायाम)�ब म� अ0वा प्राण नि�यन्त्रण में �हीं हो�ा, �ब निवषय-वास�ाओं की ओर भटक�ा है। निवषयी व्यचिQ पापकम- में चिलप्� हो �ा�ा है। यदिद 'प्राणयाम' निवयिध से प्राण का नि�यन्त्रण कर चिलया �ाये, �ो पाप की सम्भाव�ा �ष्ट हो �ा�ी है। आस�, मुद्रा, प्र�याहार, प्राणायाम, ध्या� और समायिध हठयोग के छह कम: मा�े गये हैं। इ�के प्रयोग से शरीर का शोध� हो �ा�ा है। च्छिस्थर�ा, धैय:, हलकाप�, संसार-आसचिQनिवही� और आ�मा का अ�ुभव हो�े लग�ा है। सामान्य व्यचिQ 'प्राणायाम' का अ0: वायु को अन्दर खीं �ा, रोक�ा और नि�काल�ा मात्र समझ�े हैं। यह भ्रामक च्छिस्थनि� है। प्राण-शचिQ संसार के कण-कण में व्याप्� है। वायु में भी प्राण-शचिQ है। इसीचिलए प्राणायाम द्वारा वायु में च्छिस्थ� प्राण-शचिQ को नि�यन्तिन्त्र� निकया �ा�ा है प्राण पर नि�यन्त्रण हो�े ही शरीर और म� पर नि�यन्त्रण हो �ा�ा है। प्राणायाम कर�े वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा आरोग्य, बल, उ�साह और �ीव�ी-शचिQ को श्वास द्वारा अप�े भी�र ले �ा�ा है, उसे कुछ देर भी�र रोक�ा है और निफर उसी वायु को बाहर की ओर नि�कालकर अन्दर के अ�ेक रोगों और नि�ब:ल�ाओं को बाहर फें क दे�ा है। 'प्राणायाम' के चिलए साधक को स्था�, काल, आहार, आदिद का पूरा ध्या� रख�ा ानिहए। 'शुद्ध�ा' इसकी सबसे बड़ी श�: है। 'प्राणायाम' कर�े समय �ी� च्छिस्थनि�यां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रे क' हो�ी हैं। 'पूरक' का अ0: है- वायु को �ाचिसका द्वारा शरीर में भर�ा, 'कुम्भक' का अ0: है- वायु को भी�र रोक�ा और 'रे क' का अ0: है- उसे �ाचिसका चिछद्रों द्वारा शरीर से बाहर नि�काल�ा। सीधे हा0 के अंगूठे से �ाचिसका के सीधे चिछद्र को बन्द करें और बाए ंचिछद्र से श्वास खीं ें, बायां चिछद्र भी अंगुली से बन्द करके श्वास को रोकें , निफर दानिह�े चिछद्र से वायु को बाहर नि�काल दें। इस बी 'ओंकार' का स्मरण कर�े रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ा�े �ायें। इसी प्रकार बायां चिछद्र बन्द करके दानिह�े चिछद्र से श्वास खीं ें, रोकें और बाए ंचिछद्र से नि�काल दें। अभ्यास द्वारा इसे घण्टों �क निकया �ा सक�ा है। श�ै:-श�ै: आ�मा में ध्या� केजिन्द्र� हो �ा�ा है। नि�यमपूव:क निकये गये अभ्यास द्वारा �ी� माह में ही 'आ�मज्ञा�' की प्रान्तिप्� सम्भव है और �न्म-मरण के क्र से मुQ होकर 'मोक्ष' प्राप्� हो �ा�ा है। अमृ��ादोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 अमृ��ादोपनि�षद 2 प्राणोपास�ा 3 योग - साध�ा ( प्राणायाम ) 4 टीका दिटप्पणी 5 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द शाखा के इस उपनि�षद में 'प्रणवोपास�ा' के सा0 योग के छह अंगों- प्र�याहार, धारणा, ध्या�, प्राणायाम, �क: और समायिध आदिद- का वण:� निकया गया है। योग-साध�ा के अन्�ग:� 'प्राणायाम' निवयिध, ॐकार की मात्राओं का ध्या�, पं प्राणों का स्वरूप, योग कर�े वाले साधक की प्रवृत्तिGयां �0ा नि�वा:ण-प्रान्तिप्� से ब्रह्मलोक �क �ा�े वाले माग: का दिदग्दश:� कराया गया है। इस उपनि�षद में उन्�ालीस मन्त्र हैं। प्राणोपास�ा

'प्रणव,' अ0ा:� 'ॐकार' का चि न्�� समस्� सुखों को दे�े वाला है। ॐकार के र0 पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुं ा �ा सक�ा है-ॐकार-रूपी र0 पर आरूढ़ होकर और भगवा� निवष्णु को सारचि0 ब�ाकर ब्रह्मलोक का चि न्�� कर�े हुए ज्ञा�ी पुरुष देवायिधदेव भगवा� रुद्र की उपास�ा में नि�रन्�र �ल्ली� रहें। �ब ज्ञा�ी पुरुष का प्राण नि�त्तिश्च� रूप से 'परब्रह्म' �क पहुं �ा�ा है। [1] योग-साध�ा (प्राणायाम)�ब म� अ0वा प्राण नि�यन्त्रण में �हीं हो�ा, �ब निवषय-वास�ाओं की ओर भटक�ा है। निवषयी व्यचिQ पापकम- में चिलप्� हो �ा�ा है। यदिद 'प्राणयाम' निवयिध से प्राण का नि�यन्त्रण कर चिलया �ाये, �ो पाप की सम्भाव�ा �ष्ट हो �ा�ी है। आस�, मुद्रा, प्र�याहार, प्राणायाम, ध्या� और समायिध हठयोग के छह कम: मा�े गये हैं। इ�के प्रयोग से शरीर का शोध� हो �ा�ा है। च्छिस्थर�ा, धैय:, हलकाप�, संसार-आसचिQनिवही� और आ�मा का अ�ुभव हो�े लग�ा है। सामान्य व्यचिQ 'प्राणायाम' का अ0: वायु को अन्दर खीं �ा, रोक�ा और नि�काल�ा मात्र समझ�े हैं। यह भ्रामक च्छिस्थनि� है। प्राण-शचिQ संसार के कण-कण में व्याप्� है। वायु में भी प्राण-शचिQ है। इसीचिलए प्राणायाम द्वारा वायु में च्छिस्थ� प्राण-शचिQ को नि�यन्तिन्त्र� निकया �ा�ा है प्राण पर नि�यन्त्रण हो�े ही शरीर और म� पर नि�यन्त्रण हो �ा�ा है। प्राणायाम कर�े वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा आरोग्य, बल, उ�साह और �ीव�ी-शचिQ को श्वास द्वारा अप�े भी�र ले �ा�ा है, उसे कुछ देर भी�र रोक�ा है और निफर उसी वायु को बाहर की ओर नि�कालकर अन्दर के अ�ेक रोगों और नि�ब:ल�ाओं को बाहर फें क दे�ा है। 'प्राणायाम' के चिलए साधक को स्था�, काल, आहार, आदिद का पूरा ध्या� रख�ा ानिहए। 'शुद्ध�ा' इसकी सबसे बड़ी श�: है। 'प्राणायाम' कर�े समय �ी� च्छिस्थनि�यां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रे क' हो�ी हैं। 'पूरक' का अ0: है- वायु को �ाचिसका द्वारा शरीर में भर�ा, 'कुम्भक' का अ0: है- वायु को भी�र रोक�ा और 'रे क' का अ0: है- उसे �ाचिसका चिछद्रों द्वारा शरीर से बाहर नि�काल�ा। सीधे हा0 के अंगूठे से �ाचिसका के सीधे चिछद्र को बन्द करें और बाए ंचिछद्र से श्वास खीं ें, बायां चिछद्र भी अंगुली से बन्द करके श्वास को रोकें , निफर दानिह�े चिछद्र से वायु को बाहर नि�काल दें। इस बी 'ओंकार' का स्मरण कर�े रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ा�े �ायें। इसी प्रकार बायां चिछद्र बन्द करके दानिह�े चिछद्र से श्वास खीं ें, रोकें और बाए ंचिछद्र से नि�काल दें। अभ्यास द्वारा इसे घण्टों �क निकया �ा सक�ा है। श�ै:-श�ै: आ�मा में ध्या� केजिन्द्र� हो �ा�ा है। नि�यमपूव:क निकये गये अभ्यास द्वारा �ी� माह में ही 'आ�मज्ञा�' की प्रान्तिप्� सम्भव है और �न्म-मरण के क्र से मुQ होकर 'मोक्ष' प्राप्� हो �ा�ा है। ब्रह्म उपनि�षद'ब्रह्मा' के सम्बन्ध में एक मह�वपूण: चिसद्धान्�, �ो छान्दोग्य उपनि�षद [1] , के एक संवाद का निवषय है, ब्रह्मोपनि�षद कहला�ा है। संन्यास माग² एक उपनि�षद है। इसका प्रारब्धिम्भक भाग �ो कम से कम उ��ा ही प्रा ी� है जि���ा निक मैत्रायणी उपनि�षद, निकन्�ु उGरभाग आरुणेय, �ाबाल, परमहंस उपनि�षदों का समसामयियक है। दत्तिक्षणामूर्ति�ं उपनि�षदकृष्ण य�ुव�दीय परम्परा से �ुडे़ इस उपनि�षद में 'चिशव�त्त्व' का निववे � निकया गया है। महर्तिषं शौ�क आदिद और माक: ण्डेय ऋनिष के मध्य प्रश्नोGर के रूप में इसकी र �ा की गयी है। माक: ण्डेय ऋनिष इसमें 'चिशव��व' का बोध करा�े हैं, जि�ससे दीघ: आयु प्राप्� हो�ी है। एक बार ब्रह्माव�: देश में महाभाण्डीर �ामक वटवृक्ष के �ी े शौ�कादिद महर्तिषंयों �े दीघ:काल �क ल�े वाले यज्ञ का प्रारम्भ निकया। उस समय शौ�कादिद ऋनिषयों �े '�त्त्वज्ञा�' प्राप्� कर�े के चिलए चि रं�ीवी माक: ण्डेय ऋनिष से चि रं�ीवी हो�े का कारण पूछा। �ब उन्हों�े ब�ाया निक उ�के दीघा:यु हो�े का कारण चिशव��व का ज्ञा� है। उस ज्ञा� के निवषय में ब�ा�े हुए उन्हों�े कहा निक जि�स साध�ा के द्वारा दत्तिक्षणामुख चिशव का प्रकटीकरण हो�ा है, वही परम रहस्यमय चिशव�त्त्व का ज्ञा� है। उन्हों�े कहा-'सबसे पहले 'ॐ �म:' शब्द का उच्चारण करके 'भगव�े' पद का उच्चारण करें। पु�: 'दत्तिक्षणा' पद कहें, निफर 'मू�:ये' पद कहें, निफर 'अस्मद' शबद के �ु0² का एक व � 'महं्य' पद कहें �0ा बाद में 'मेधां प्रज्ञां' पदों का उच्चारण करें। पु�: 'प्र' का उच्चारण करके वायु बी� 'य' का उच्चारण कर आगे '�' पद बोलें। सबसे अन्� में अग्निग्� का स्त्री पद 'स्वाहा' कहें। इस प्रकार ौबीस अक्षर का यह म�ु मन्त्र है। यह पूरा इस प्रकार ब��ा है—'ॐ �मो भगव�े दत्तिक्षणामू�:ये मह्यं मेधां प्रज्ञां प्रय� स्वाहा।''इस प्रकार मन्त्र बोलकर ध्या� करें- मैं स्फदिटक मत्तिण एवं र�� सदृश शुभ्र वण: वाले दत्तिक्षणमूर्ति�ं भगवा� चिशव की स्�ुनि� कर�ा हूँ।'ये चिशव ज्ञा�मुद्रा को धारण कर�े वाले हैं, अमृ��त्त्व को दे�े वाले हैं, गले में अक्ष (रुद्राक्ष) माला धारण कर�े हैं, जि��के �ी� �ेत्र है, भाल पर न्द्रमा का नि�वास है और कदिट में सप: चिलपटे हुए हैं �0ा �ो निवत्तिभन्न वेष धारण कर�े में चिसद्धहस्थ हैं।माक: ण्डेय मुनि� �े निफर कहा—'इसके उपरान्� �वाक्षरी मन्त्र का उच्चारण करें-

'ॐ दत्तिक्षणामूर्ति�ं�रों।'उसके बाद अट्ठारह अक्षर का म�ु मन्त्र बोलें-'ॐ ब्लंू �मो ह्रीं ऐं दत्तिक्षणामू�:ये ज्ञा�ं देनिह स्वाहा।''सभी मन्त्रों में यह अनि� गोप�ीय मन्त्र है। इसमें चिशव का ध्या� कर�े हुए देखें निक उ�के समस्� शरीर पर भस्म का लेप है, मस्�क पर न्द्रकला है, कर-कमलों में रुद्राक्ष की माला, वीणा, पुस्�क �0ा ज्ञा�मुद्रा है, सप- से सुशोत्तिभ� काया है, व्याघ्र म:धारी भगवा� चिशव की यह दत्तिक्षणामूर्ति�ं है। वे सदैव हमारी रक्षा करें।'माक: ण्डेय मुनि� बोले-'चिशव के सव:रक्षक स्वरूप का ध्या� कर�े हुए इ� मन्त्रों को बोलें—ॐ ह्रीं श्रीं साम्बचिशवाय �ुभ्यं स्वाहा।ॐ �मो भगव�े �ुभ्यं वटमूलवाचिस�े वागीशाय महाज्ञा�दायिय�े मायिय�े �म:।'सभी मन्त्रों में शे्रष्ठ यह 'आ�ुषु्टभमन्त्ररा�' है। भगवा� चिशव की मौ�, शान्� मुद्रा मृ�युपय:न्� ब�ी रहे, इसी की काम�ा कर�ी ानिहए।माक: ण्डेय मुनि� �े निफर कहा—'प्रभु दश:� के चिलए ज्ञा�, भचिQ और वैराग्य की आवश्यक�ा हो�ी है। इसके द्वारा अज्ञा�-रूपी अन्धकार �ष्ट हो �ा�ा है और आ�मा-रूपी दीपक प्रज्वचिल� हो उठ�ा है।'आ�म��व' का बोध हो�े से ही परमा�मा के परम आ�न्द में प्रवेश हो �ा�ा है। इसीचिलए ब्रह्मज्ञानि�यों �े उसी 'दत्तिक्षणामुखी चिशव' की उपास�ा पर बल दिदया है। इससे समस्� भव-बन्ध� और पाप �ष्ट हो �ा�े हैं। साधक 'मोक्ष' को प्राप्� कर ले�ा है।' ध्या�निबन्दु उपनि�षदकृष्ण य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में 'ध्या�' पर निवशेष प्रकाश डाला गया हैं इसका प्रारम्भ 'ब्रह्म ध्या�योग' से हो�ा है। उसके बाद 'ब्रह्म' की सूक्ष्म�ा, सव:व्यापक�ा, ओंकार स्वरूप, ओंकार की ध्या�-निवयिध, प्राणायाम द्वारा ओंकार का ध्या�, ब्रह्म का ध्या�, हृदय में ब्रह्म का ध्या�, योग द्वारा ध्या�, कुण्डचिल�ी से मोक्ष-प्रान्तिप्�, हंसनिवद्या, ब्रह्म य:, �ादब्रह्म का ध्या�, आ�मदश:�, साध�ा-चिसजिद्ध आदिद का व्यावहारिरक निववे � निकया गया है। ऋनिष का कह�ा है निक 'ध्या�-योग' से पव:�ों से भी ऊं े पापों का निव�ाश हो �ा�ा है। बी�ाक्षर 'ॐ' से परे 'निबन्दु' और उसके ऊपर '�ाद' निवद्यमा� है। उस मधुर �ाद-ध्वनि� के अक्षर में निवलय हो �ा�े पर, �ो शब्दनिवही� च्छिस्थनि� हो�ी है, वही 'परम पद' है। उससे भी परे, �ो परम कारण 'नि�र्तिवंशेष ब्रह्म' है, उसे प्राप्� कर�े के उपरान्� सभी संशय �ष्ट हो �ा�े हैं। �ो सूक्ष्म से भी अनि�सूक्ष्म शेष है, वही ब्रह्म की सGा है। पुष्प में गन्ध की भांनि�, दूध में घी की भांनि�, नि�ल में �ेल की भांनि� ही आ�मा का अब्धिस्�त्त्व है। उसी 'आ�मा' के द्वारा 'ब्रह्म' का साक्षा�कार या अ�ुभव निकया �ा सक�ा है। 'मोक्ष' प्राप्� कर�े वाले सभी साधकों का लक्ष्य 'ॐकार' रूपी एकाक्षर 'ब्रह्म' रहा है। �ो साधक ओंकार से अ�त्तिभज्ञ हैं, वे 'ब्राह्मण' कहला�े के योग्य �हीं हैं। ओंकार से ही सब देव�ाओं की उ�पत्तिG और समस्� �ड़-�ंगम पदा0- का अब्धिस्��व है। हृदयकमल की कर्णिणकंा के मध्य में च्छिस्थ� ज्योनि�चिशखा के समा� अंगुष्ठमात्र आकार के नि��य 'ॐकार' रूप परमा�मा का सदा ध्या� कर�े से, समस्� पाप �ष्ट हो �ा�े हैं। योग द्वारा ध्या� कर�े हुए �0ा कुण्डचिल�ी- �ागरण के द्वारा सहस्त्रदल कमल पर निवरा�मा� परमा�मा को प्राप्� कर�ा ानिहए। इस निवद्या का प्रयोग निकसी चिसद्धहस्� योगी के सायिन्नध्य में ही कर�ा ानिहए, अन्य0ा हानि� हो�े की सम्भाव�ा रह�ी है। कैवल्योपनि�षदकृष्ण य�ुव�दीय इस उपनि�षद में महर्तिषं आश्वलाय� द्वारा ब्रह्मा �ी के सम्मुख जि�ज्ञासा प्रकट कर�े पर 'कैवल्य पद-प्रान्तिप्�' के मम: को समझाया गया है। इस 'ब्रह्मानिवद्या' की प्रान्तिप्� कम:, ध�-धान्य या सन्�ा� के द्वारा असम्भव है। इसे श्रद्धा, भचिQ, ध्या� और योग के द्वारा प्राप्� निकया �ा सक�ा है। इसमें स्वयं को ब्राह्मी े��ा से अत्तिभन्न अ�ुभव कर�े की बा� कही गयी है, अ0ा:� सबको स्वयं में और स्वयं को सब में अ�ुभव कर�े हुए नित्रदेवों, रा र सृयिष्ट के पं भू�ों आदिद में अभेद की च्छिस्थनि� का वण:� निकया गया है। इसमें छब्बीस मन्त्र हैं। महर्तिषं आश्वलाय� के पूछ�े पर ब्रह्मा �ी �े कहा-'हे मुनि�वर! उस अनि�श्रेष्ठ परा�पर �त्त्व को श्रद्धा, भचिQ, ध्या� और योगाभ्यास द्वारा �ा�ा �ा सक�ा है। उसे � �ो कम: से, � सन्�ा� से और � ध� से पाया �ा सक�ा है। उसे योगी�� ही प्राप्� कर सक�े हैं। वह परा�पर पुरुष ब्रह्मा, चिशव और इन्द्र है और वही अक्षर-रूप में ओंकार-स्वरूप परब्रह्म है। वही निवष्णु है, वही प्राण�त्त्व है, वही कालाग्निग्� है, वही आदिद�य है और न्द्रमा है। �ो म�ुष्य अप�ी आ�मा को समस्� प्रात्तिणयों के समा� देख�ा है और समस्� प्रात्तिणयों में अप�ी आ�मा का दश:� कर�ा है, वही साधक 'कैवल्य पद' प्राप्� कर�ा है। यह कैवल्य पद ही आ�मा से साक्षा�कार है। �ाग्र�, स्वप्न और सुषुन्तिप्�, �ी�ों अवस्थाओं में �ो कुछ भी भोग-रूप में है, उ�से �टस्थ साक्षी-रूप में सदाचिशव मैं स्वयं हंू। मुझसे ही सब कुछ प्रादुभ:� हो�ा है और सब कुछ मुझसे ही ली� हो �ा�ा है।' 'ऋनिषवर ! मैं अणु से भी अणु, अ0ा:� परमाणु हूं। मैं स्वयं निवराट पुरुष हँू और निवचि त्र�ाओं से भरा यह समू्पण: निवश्व मेरा ही स्वरूप है। मैं पुरा�� पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही निहरण्यगभा: हूँ और मैं ही चिशव-रूप परम��व हँू।' कालाग्निग्�रुद्रोपनि�षद

कृष्ण य�ुव�दीय इस उपनि�षद में ब्रह्म ज्ञा� के साध�ा भू� 'नित्रपुण्ड्र' धारण की निवयिध का उल्लेख निकया गया है। यह उपनि�षद स��कुमार और कालाग्निग्�रुद्र के बी हुए प्रश्नोGर के रूप में है। इसमें ब�ाया गया है निक �ो म�ुष्य इस उपनि�षद का अध्यय� कर�ा है, वह चिशव-रूप हो �ा�ा है। इसमें मात्र दस मन्त्र हैं। स��कुमार के पूछ�े पर कालाग्निग्�रुद्र 'नित्रपुण्ड्र-निवयिध' ब�ा�े हुए कह�े हैं। निक 'नित्रपुण्ड्र' के चिलए अग्निग्�होत्र की भस्म का प्रयोग निकया �ा�ा है। इस भस्म को 'सद्यो�ा�ादिद' पं ब्रह्म मन्त्रों का उच्चारण कर�े हुए ग्रहण कर�ा ानिहए। ये पं ब्रह्म मन्त्र- अग्निग्�रिरनि� भस्म, वायुरिरनि� भस्म, खयिमनि� भस्म, �लयिमनि� भस्म और स्थलयिमनि� भस्म हैं। दो�ों भौहों के मध्य में �ी� रेखाओं द्वारा ललाट पर नित्रपुण्ड्र धारण करें। ये �ी�ों रेखाए ंमहेश्वरदेव के रूप को व्याख्यायिय� कर�ी हैं। ये 'ॐ' की प्र�ीक हैं। �ो ब्रह्म ारी इसे धारण कर�ा है, वह सभी पा�कों से मुQ हो �ा�ा है; क्योंनिक 'ॐ' ही स�य है और वही चिशव-रूप है। कठोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 कठोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 2.1 पहला वरदा� 2.2 दूसरा वरदा� 2.3 �ीसरा वरदा� 3 दूसरा अध्याय 4 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द शाखा का यह उपनि�षद अ�यन्� महत्त्वपूण: उपनि�षदों में है। इस उपनि�षद के र यिय�ा कठ �ाम के �पस्वी आ ाय: 0े। वे मुनि� वैशम्पाय� के चिशष्य �0ा य�ुव�द की कठशाखा के प्रवृG:क 0े। इसमें दो अध्याय हैं और प्र�येक अध्याय में �ी�-�ी� वच्छिल्लयां हैं, जि��में वा�श्रवा-पुत्र �चि के�ा और यम के बी संवाद हैं। प्र0म अध्यायइस अध्याय में �चि के� अप�े निप�ा द्वारा प्र�ानिड़� निकये �ा�े पर यम के यहाँ पहंु �ा है और यम की अ�ुपच्छिस्थनि� में �ी� दिद� �क भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रह�ा है। �ी� दिद� बाद �ब यम लौटकर आ�े हैं, �ब उ�की प��ी उन्हें ब्राह्मण बालक अनि�चि0 के निवषय में ब�ा�ी है। यमरा� बालक के पास पहंु कर अप�ी अ�ुपच्छिस्थनि� के चिलए �चि के�ा से क्षमा मांग�े हैं और उसे इसके चिलए �ी� वरदा� दे�े की बा� कह�े हैं। वे उसे उचि � सम्मा� देकर व भो�� आदिद कराके भी सन्�ुष्ट कर�े का प्रय�� कर�े हैं। �दुपरान्� �चि के�ा द्वारा वरदा� मांग�े पर 'अध्या�म' के निवषय में उसकी जि�ज्ञासा शान्� कर�े हैं।प्र0म वल्लीक0ा इस प्रकार है निक निकसी समय वा�श्रवा ऋनिष के पुत्र वा�श्रवस उद्दालक मुनि� �े निवश्वजि�� यज्ञ करके अप�ा समू्पण: ध� और गौए ंदा� कर दीं। जि�स समय ऋन्ति�व�ों द्वारा दत्तिक्षणा में प्राप्� वे गौए ंले �ाई �ा रही 0ीं, �ब उन्हें देखकर वा�श्रवस उद्दालक मुनि� का पुत्र �चि के�ा सो में पड़ गया; क्योंनिक वे गौए ंअ�ययिधक ��:र हो ुकी 0ीं। वे � �ो दूध दे�े योग्य 0ीं, � प्र��� के चिलए उपयुQ 0ीं। उस�े सो ा निक इस प्रकार की गौओं को दा� कर�ा दूसरों पर भार लाद�ा है। इससे �ो पाप ही लगेगा।ऐसा निव ार कर �चि के�ा �े अप�े निप�ा से कहा-'हे �ा�! इससे अ�ा �ो 0ा निक आप मुझे ही दा� कर दे�े।'बार-बार ऐसा कह�े पर निप�ा �े क्रोयिध� होकर कह दिदया-'मैं �ुझे मृ�यु को दे�ा हूं।'निप�ा की आज्ञा का पाल� कर�े के चिलए �चि के�ा यम के द्वार पर �ा पहुं ा और �ी� दिद� �क भूखा-प्यासा पड़ा रहा। �ब यम �े उसे वरदा� दे�े की बा� कही, �ो उस�े पहला वरदा� मांगा। पहला वरदा�'हे मृ�युदेव! �ब मैं आपके पास से लौटकर घर �ाऊं, �ो मेरे निप�ा क्रोध छोड़, शान्� चि G होकर, मुझसे पे्रमपूव:क व्यवहार करें और अप�ी शेष आयु में उन्हें कोई चि न्�ा � स�ाये �0ा वे सुख से सो सकें ।' यमरा� �े '�0ास्�ु, 'अ0ा:� 'ऐसा ही हो' कहकर पहला वरदा� दिदया। दूसरा वरदा�'हे मृ�युदेव! आप मुझे स्वग: के साध�भू� उस 'अग्निग्�ज्ञा�' को प्रदा� करें, जि�सके द्वारा स्वग:लोक को प्राप्� हुए पुरुष अमर�व को प्राप्� कर�े हैं।' यमरा� �े �चि के�ा को उपदेश दे�े हुए कहा-'हे �चि के�ा! �ुम इस 'अग्निग्�निवद्या' को एकाग्र म� से सु�ो। स्वग:लोक को प्राप्� करा�े वाली यह निवद्या अ�यन्� गोप�ीय है।' �दुपरान्� यमरा� �े �चि के�ा को समझाया निक ऐसा यज्ञ कर�े के चिलए निक��ी ईंटों की वेदी ब�ा�ी ानिहए और यज्ञ निकस निवयिध से निकया �ाये �0ा कौ�-कौ� से मन्त्र उसमें बोले �ायें। अन्� में �चि के�ा की परीक्षा ले�े के चिलए यमरा� �े उससे अप�े द्वारा ब�ाये यज्ञ का निववरण पूछा, �ो बालक �चि के�ा �े अक्षरश: उस निवयिध को दोहरा दिदया। उसे सु�कर यमरा� बालक की स्मरणशचिQ और प्रनि�भा को देखकर बहु� प्रसन्न हुए। उन्हों�े कहा-'हे �चि के�ा! �ेरे मांगे गये �ी� वरदा�ों के अनि�रिरQ मैं �ुम्हें एक वरदा� अप�ी ओर से यह दे�ा हूं निक मेरे द्वारा कही गयी यह 'अग्निग्�निवद्या' आ� से �ुम्हारे �ाम से �ा�ी �ायेगी। �ुम इस अ�ेक रूपों वाली, ज्ञा�-�त्त्वमयी माला को स्वाकर करो।'

�चि के�ा को दिदव्य 'अग्निग्�निवद्या' प्राप्� हुई। इसचिलए उस निवद्या का �ाम '�चि के�ाग्निग्�' (चिलप्� � हो�े वाले की निवद्या) पड़ा। इस प्रकार की नित्रनिवध '�चि के�' निवद्या का ज्ञा�ा, �ी� सत्मिन्धयों को प्राप्� कर, �ी� कम: सम्पन्न करके �न्म-मृ�यु से पार हो �ा�ा है और परम शान्तिन्� प्राप्�

कर�ा है। आ ाय- �े �चि के� निवद्या को 'प्रान्तिप्�,' 'अध्याय�' और 'अ�ुष्ठा�' �ी� निवयिधयों से युQ कहा है। साधक को इ� �ी�ों के सा0 आ�म- े��ा की सत्मिन्ध कर�ी पड़�ी है, अ0ा:� स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को इस निवद्या से अ�ुप्रात्तिण� कर�ा पड़�ा है। इस प्रनिक्रया को 'नित्रसत्मिन्ध' प्रान्तिप्� कहा �ा�ा है। कुछ आ ाय: मा�ा-निप�ा और गुरु से युQ हो�े को नित्रसत्मिन्ध' कह�े हैं। इ� सभी को दिदव्याग्निग्� के अ�ुरूप ढाल�े हुए साधक �न्म-मरण के क्र से मुQ हो �ा�ा है। अब उस�े यमरा� से �ीसरा वर मांगा। �ीसरा वरदा�'हे मृ�युदेव! म�ुष्य के मृ� हो �ा�े पर आ�मा का अब्धिस्�त्त्व रह�ा है, ऐसा ज्ञानि�यों का क0� है, परन्�ु कुछ की मान्य�ा है निक मृ�यु के बाद आ�मा का अब्धिस्��व �हीं रह�ा। आप मुझे इस सन्देह से मुQ करके ब�ायें निक मृ�यु के पश्चा� आ�मा का क्या हो�ा है?' �चि के�ा के �ीसरे वरदा� को सु�कर यमरा� �े उसे समझाया निक यह निवषय अ�यन्� गूढ़ हैं इसके बदले वे उसे समस्� निवश्व की सम्पदा और साम्राज्य �क दे सक�े हैं, निकन्�ु वह यह � पूछे निक मृ�यु के बाद आ�मा का क्या हो�ा है; क्योंनिक इसे �ा��ा और समझ�ा अ�यन्� अगम्य है, परन्�ु �चि के�ा निकसी भी रूप में यमरा� के प्रलोभ� में �हीं आया और अप�े मांगे हुए वरदा� पर ही अड़ा रहा।निद्व�ीय वल्लीयमरा� �े �चि के�ा के हठ हो देखा, �ो कहा-'हे �चि के�ा!'कल्याण' और 'सांसारिरक भोग्य पदा0-' का माग: अलग-अलग है। ये दो�ों ही माग: म�ुष्य के सम्मुख उपच्छिस्थ� हो�े हैं, निकन्�ु बुजिद्धमा� �� दो�ों को भली-भांनि� समझकर उ�में से एक अप�े चिलए ु� ले�े हैं। �ो अज्ञा�ी हो�े हैं, वे भोग-निवलास का माग: ु��े हैं और �ो ज्ञा�ी हो�े हैं, वे कल्याण का माग: ु��े हैं। निप्रय �चि के�ा! श्रेष्ठ आ�मज्ञा� को �ा��े का सुअवसर बड़ी कदिठ�ाई से प्राप्� हो�ा है। इसे शुष्क �क: निव�क: से �हीं �ा�ा �ा सक�ा।' यमरा� �े ब�ाया-'निप्रय �चि के�ा! 'ॐ' ही वह परमपद है। 'ॐ' ही अक्षरब्रह्म है। इस अक्षरब्रह्म को �ा��ा ही 'आ�माज्ञा�' है। साधक अप�ी आ�मा से साक्षा�कार करके ही इसे �ा� पा�ा है; क्योंनिक आ�मा ही 'ब्रह्म' को �ा��े का प्रमुख आधार है। एक साधक मा�व-शरीर में च्छिस्थ� इस आ�मा को ही �ा��े का प्रय�� कर�ा है।''� �ाय�े यिम्रय�े वा निवपत्तिश्चन्नायं कु�त्तिश्चन्न बभूव कत्तिश्च�्।अ�ो नि��य: शाश्व�ोऽयं पुराणों � हन्य�े हन्यमा�े शरीरे॥' 1/2/18॥ अ0ा:� यह नि��य ज्ञा�-स्वरूप आ�मा � �ो उ�पन्न हो�ा है और � मृ�यु को ही प्राप्� हो�ा है। यह आ�मा � �ो निकसी अन्य के द्वारा �न्म ले�ा है और � कोई इससे उ�पन्न हो�ा है। यह आ�मा अ�न्मा, नि��य, शाश्व� औ क्षय �0ा वृजिद्ध से रनिह� है। शरीर के �ष्ट हो�े पर भी यह निव�ष्ट �हीं हो�ा। 'हे �चि के�ा! परमा�मा इस �ीवा�मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अनि�सूक्ष्म और महा� से भी अनि�महा� रूप में निवरा�मा� हैं। नि�ष्काम कम: कर�े वाला �0ा शोक-रनिह� कोई निवरला साधक ही, परमा�मा को कृपा से उसे देख पा�ा है। दुष्कम- से युQ, इजिन्द्रयासQ और सांसारिरक मोह में फंसा ज्ञा�ी व्यचिQ भी आ�म�त्त्व को �हीं �ा� सक�ा।'�ृ�ीय वल्ली'हे �चि के�ा! �ो निववेकशील है, जि�स�े म� सनिह� अप�ी समस्� इजिन्द्रयों को वश में कर चिलया है, �ो सदैव पनिवत्र भावों को धारण कर�े वाला है, वही उस आ�म-�त्त्व को �ा� पा�ा है; क्योंनिक—'एष सव�षु भू�ेषु गूढा�मा � प्रकाश�े। दृश्य�े �वग्र�या बुजिद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्लिशंत्तिभ:॥' 1/3/12॥ अ0ा:� समस्� प्रात्तिणयों में चिछपा हुआ यह आ�म�त्त्व प्रकाचिश� �हीं हो�ा, वर�् यह सूक्ष्म दृयिष्ट रख�े वाले �त्त्वदर्लिशंयों को ही सूक्ष्म बुजिद्ध से दिदखाई दे�ा है। दूसरा अध्यायदूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्रान्तिप्� में �ो बाधाए ंआ�ी हैं, उ�के नि�वारण और हृदय में उ�की च्छिस्थनि� का वण:� निकया गया है। परमा�मा की सव:व्यापक�ा और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का निववे �, योग-साध�ा, ईश्वर-निवश्वास और मोक्षादिद का वण:� है। अन्� में ब्रह्मनिवद्या के प्रभाव से �चि के�ा को ब्रह्म-प्रान्तिप्� का उल्लेख है। प्र0म वल्लीपरमा�मा �े समस्� इजिन्द्रयों का मुख बाहर की ओर निकया है, जि�ससे �ीवा�मा बाहरी पदा0- को देख�ा है और सांसारिरक भोग-निवलास में ही उसका ध्या� रमा रह�ा है। वह अन्�रा�मा की ओर �हीं देख�ा, निकन्�ु मोक्ष की इ�ा रख�े वाला साधक अप�ी समस्� इजिन्द्रयों पर नि�यन्त्रण करके अन्�रा�मा को देख�ा है। यह अन्�रा�मा ही ब्रह्म �क पहंु �े का माग: है। �हां से सूय:देव उदिद� हो�े हैं और �हां �क �ाकर अस्� हो�े हैं, वहां �क समस्� देव शचिQयां निवरा�मा� हैं। उन्हें कोई भी �हीं लांघ पा�ा। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को �ा��े के चिलए स�य और शुद्ध म� की आवश्यक�ा हो�ी है। यमरा� �चि के�ा को ब�ा�े हैं-'हे �चि के�ा! शुद्ध �ल को जि�स पात्र में भी डालो, वह उसी के अ�ुसार रूप ग्रहण कर ले�ा है। पौधों में वह रस, प्रात्तिणयों में रQ और ज्ञानि�यों में े��ा का रूप धारण कर ले�ा है। उसमें कोई निवकार उ�पन्न �हीं हो�ा। वह शुद्ध रूप से निकसी के सा0 भी एकरूप हो �ा�ा हैं �ो साधक सभी पदा0- से अचिलप्� होकर परमा�म�त्त्व से चिलप्� हो�े का प्रयास कर�ा है, उस साधक को ही स�य प0 का पचि0क �ा�कर 'आ�म�त्त्व' का उपदेश दिदया �ा�ा है।'निद्व�ीय वल्ली'हे �चि के�ा! उस ै�न्य और अ�न्मा परब्रह्म का �गर ग्यारह द्वारों वाला है- दो �ेत्र, दो का�, दो �ाचिसका रन्ध्र, एक मुख, �ात्तिभ, गुदा, ���ेजिन्द्रय और ब्रह्मरन्ध्र। ये सभी द्वार शरीर में च्छिस्थ� हैं। कम:-बन्ध�ों से मुQ होकर, �ो साधक द्वारों के मोह से सव:0ा अचिलप्� रहकर �गर में प्रवेश कर�ा है, वह नि�श्चय ही परमा�मा �क पहु �ा हैं शरीर में च्छिस्थ� एक देह से दूसरी देह में गम� कर�े के स्वभाव वाला यह �ीवा�मा, �ब मृ�यु के उपरान्� दूसरे शरीर में ला �ा�ा है, �ब कुछ भी शेष �हीं रह�ा। यह गम�शील �त्त्व ही ब्रह्म है। यही �ीव� का आधार है। प्राण और अपा� इसी के आश्रय में रह�े हैं। अब मैं �ुम्हें ब�ाऊंगा निक मृ�यु के उपरान्� आ�मा का क्या हो�ा है, अ0ा:� वह कहां ला �ा�ा है।'यमरा� �े आगे कहा-

'योनि�मन्ये प्रपद्यन्�े शरीर�वाय देनिह�:। स्थाणुमन्येऽ�ुसंयन्तिन्� य0ाकम: य0ाशु्र�म्॥2/2/7॥'अ0ा:� अप�े-अप�े कम: और शास्त्राध्यय� के अ�ुसार प्राप्� भावों के कारण कुछ �ीवा�मा �ो शरीर धारण कर�े के चिलए निवत्तिभन्न योनि�यों को प्राप्� कर�े हैं और अन्य अप�े-अप�े कमा:�ुसार �ड़ योनि�यों, अ0ा:� वृक्ष, ल�ा, पव:� आदिद को प्राप्� कर�े हैं। 'हे �चि के�ा! समस्� �ीवों के कमा:�ुसार उ�की भोग-व्यवस्था कर�े वाला परमपुरुष परमा�मा, सबके सो �ा�े के उपरान्� भी �ाग�ा रह�ा है। वही निवशुद्ध �त्त्व परब्रह्म अनिव�ाशी कहला�ा है, जि�से कोई लांघ �हीं सक�ा। समस्� लोक उसी का आश्रय ग्रहण कर�े हैं। जि�स प्रकार एक ही अग्निग्���व समू्पण: ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्र�येक आधारभू� वस्�ु के अ�ुरूप हो �ा�ा है, उसी प्रकार समस्� प्रात्तिणयों में च्छिस्थ� अन्�रा�मा(ब्रह्म) एक हो�े पर भी अ�ेक रूपों में प्रनि�भाचिस� हो�ा है। वही भी�र है और वही बाहर है।'एकोवशी सव:भू�ान्�रा�मा एकं रूपं बहुधा य: करोनि�।'�ृ�ीय वल्लीइस वल्ली में यमरा� ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से कर�े हैं, �ो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है। जि�सकी �डे़ ऊपर की ओर हैं और शाखाए ं�ी े की ओर लटकी हैं या फैली हुई हैं। यह वृक्ष सृयिष्ट का स�ा�� वृक्ष है। यह निवशुद्ध, अनिव�ाशी और नि�र्तिवंकल्प ब्रह्म का ही रूप है। यमरा� ब�ा�े हैं निक यह सम्पूण: निवश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट हो�ा है और नि�रन्�र गनि�शील रह�ा है। �ो ऐसे ब्रह्म को �ा��े हैं, वे ही अमृ�य, अ0ा:� मोक्ष को प्राप्� कर�े हैं इस परब्रह्म के भय से ही अग्निग्�देव �प�े हैं, सूय:देव �प�े हैं। इन्द्र, वाय ुऔर मृ�युदेव�ा भी इन्हीं के भय से गनि�शील रह�े हैं। 'हे �चि के�ा ! मृ�यु से पूव:, �ो व्यचिQ ब्रह्म का ज्ञा� प्राप्� कर ले�ा है, वह �ीव समस्� बन्ध�ों से मुQ हो �ा�ा है, अन्य0ा निवत्तिभन्न योनि�यों में भटक�ा हुआ अप�े कम- का फल प्राप्� कर�ा रह�ा है। यह अन्�:करण निवशुद्ध दप:ण के समा� है। इसमें ही ब्रह्म के दश:� निकये �ा सक�े हैं। �ब म� के सा0 सभी इजिन्द्रयां आ�म�त्त्व में ली� हो �ा�ी हैं और बुजिद्ध भी ेष्टारनिह� हो �ा�ी हे, �ब इसे �ीव की 'परमगनि�' कहा �ा�ा है। इजिन्द्रयों का संयम करके आ�मा में ली� हो�ा ही 'योग' है। हृदय की समस्� ग्रत्मिन्थयों के खुल �ा�े से मरणधमा: म�ुष्य अमृ�व, अ0ा:� 'मोक्ष' को प्राप्� कर ले�ा है।' ऐसी निवद्या को �ा�कर �चि के�ा बन्ध�मुQ होकर मोक्ष को प्राप्� हो गया। कठरुद्रोपनि�षदकृष्ण य�ुव�दीय शाखा के इस उपनि�षद में देव�ाओं द्वारा भगवा� प्र�ापनि� से 'ब्रह्मनिवद्या' �ा��े की जि�ज्ञासा की गयी है। प्रारम्भ में संन्यास ग्रहण कर�े की निवयिध ब�ायी गयी है। संन्यास ग्रहण कर�े के उपरान्� निवनिवध अ�ुशास�ों का वण:� है। उसके बाद 'ब्रह्म' और 'माया' का वण:� है। अन्� में वेदान्� का सार ब�ाया गया है। प्र�ापनि� देव�ाओं को ब�ा�े हैं निक संन्यास ग्रहण कर�े वाले साधक को मुण्ड� कराके व अप�े परिरवार से अ�ुमनि� लेकर ही संन्यास माग: ग्रहण कर�ा ानिहए। उसे सभी प्रकार के अलंकरणों का �याग कर दे�ा ानिहए। समस्� प्रात्तिणयों के कल्याण हे�ु ही आ�म�त्त्व का चि न्�� कर�ा ानिहए। उसे समस्� आलस्य प्रमाद आदिद का �याग करके संयमपूव:क ब्रह्म य: का पाल� कर�ा ानिहए। �ो �ग� को प्रकाश दे�े वाला है, नि��य प्रकाश स्वरूप हे, वह समस्� �ग� का साक्षी, नि�म:ल आकृनि� वाला सभी का 'आ�मा' है। वह ज्ञा� और स�य-रूप में अनिद्व�ीय 'परब्रह्म' है। वही सबका आश्रय-स्थल है। वह सबका सार रस-स्वरूप है। �ो इस अदै्व�-रूप' 'ब्रह्म' को प्राप्� कर�े की साध�ा कर�ा है, वही 'संन्यासी' है। बुजिद्धमा� पुरुष अप�े आपको 'मैं सब उपायिधयों से मुQ हूं' ऐसा मा�कर मुQावस्था का स�� चि न्�� कर�े हैं। यही वेदान्� का रहस्य है। �ीव अप�े कम- से ही उ�पन्न हो�ा है और स्वयं ही मृ�यु को प्राप्� हो�ा है। कु्षरिरकोपनि�षदकृष्ण य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद के मन्त्र '�त्त्व-ज्ञा�' के प्रनि� बन्धक घटकों को काट�े में कु्षरिरका (छुरी- ाकू़) के समा� सम0: हैं। योग के अष्टांगों में से 'धारणा' अंग की चिसजिद्ध और उसके प्रनि�फल की यहाँ निवशेष रूप से ा: की गयी है। इसमें कुल पच्चीस मन्त्र हैं। यहाँ कहा गया है निक सबसे पहले योग-साध�ा के चिलए स्व� आस� और स्था� पर बैठकर 'प्राणायाम' की निवशेष निक्रयाओं- पूरक, कुम्भ और रे क-का अभ्यास करके शरीर के सभी मम:स्था�ों में प्राण का सं ार कर�ा ानिहए। उसके उपरान्� �ी े से ऊपर की ओर उठ�े हुए 'ब्रह्मरन्ध्र' में च्छिस्थ� परब्रह्म �क पहुं �े का प्रयास कर�ा ानिहए। ऋनिष का कह�ा है निक योग की चिसजिद्ध के चिलए 'धारणा-रूपी' छुरी का प्रयोग कर�ा ानिहए। इससे �ीव आवागम� के बन्ध� से मुQ हो �ा�ा है। 'धारणा' के प्रभाव से सांसारिरक बन्ध� चिछन्न-त्तिभन्न हो �ा�े हैं। 'ध्या�योग' के द्वारा समस्� �ानिड़यों को छेद� निकया �ा सक�ा है, निकन्�ु सुषुम्�ा �ाड़ी का �हीं, परन्�ु योगी पुरुष धारणा-रूपी छुरी से सैकड़ों �ानिड़यों का भी छेद� कर सक�ा है। वैराग्य-रूपी प�र पर 'ॐकार' युQ प्राणायाम से यिघसकर �े� की गयी धारणा-रूपी छुरी से सांसारिरक निवषय-भोगों के समस्त्र सूत्रों को काट दे�ा ानिहए। �भी वह अमृ�व प्राप्� कर सक�ा है। जि�स प्रकार मकड़ी अप�े द्वारा नि�र्मिमं� अनि�सूक्ष्म �न्�ुओं पर गनि�शील रह�ी है, उसी प्रकार प्राण का सं ार समस्� �ानिड़यों के भी�र हो�ा ानिहए। प्राण की गनि�शील�ा योग-साध�ा से ही �वरिर� की �ा सक�ी है। �ब प्राण��व शरीर की समस्� �ानिड़यों का भेद� कर�े हुए 'आ�म�त्त्व' �क पहुं �े में सफल हो पा�ा है। �ैसे दीपक बुझ�े के समय, अ0ा:� प्राणो�सग: के समय, �ेल-

बा�ी �लकर �ष्ट हो �ा�ी है और दीपक की ज्योनि� परम�त्त्व में निवली� हो �ा�ी है, उसी प्रकार आ�म-ज्ञा� के समय साध�ा से सभी सांसारिरक बन्ध� कटकर निगर �ा�े हैं और प्राण��व आ�मा के सा0 संयुQ होकर 'परब्रह्मा' के पास पहुं �ा�ा है। �ारायणोपनि�षदकृष्ण य�ुव�दीय इस लघु उपनि�षद में ारों वेदों का उपदेश सार मस्�क के रूप में वर्णिण�ं है। प्रारम्भ में '�ारायण' से ही समस्� े��-अ े�� �ीवों और पदा0- का प्रादुभा:व ब�ाया गया है। बाद में �ारायण की सव:व्यापक�ा और सभी प्रात्तिणयों में �ारायण को ही आ�मा का रूप ब�ाया है। �ारायण और प्रणव (ॐकार) को एक ही मा�ा है। आदिदकाल में �ारायण �े ही संकल्प निकया निक वह प्र�ा या �ीवों की र �ा करे। �ब उन्हीं से समस्� �ीवों का उदय हुआ। �ारायण ही समयिष्टग� प्राण का स्वरूप है। उन्हीं के द्वारा 'म�' और 'इजिन्द्रयों' की र �ा हुई। आकाश, वायु, �ल, �े� और पृथ्वी उ�पन्न हुए। निफर अन्य देव�ा उदिद� हुए। भगवा� �ारायण ही 'नि��य' हैं। ब्रह्मा, चिशव, इन्द्र, काल, दिदशाए ंआदिद सभी �ारायण हैं। 'ओंकार' के उच्चारण से ही '�ारायण' की चिसजिद्ध हो�ी है। �ो साधक '�ारायण' का स्मरण कर�ा है, उसके सभी पाप �ष्ट हो �ा�े हैं। योगी साधक �न्म-मृ�यु के बन्ध�ों से छूटकर 'मोक्ष' प्राप्� कर ले�ा है। रुद्रहृदयोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 रुद्रहृदयोपनि�षद 2 सव�शे्रष्ठ देव�ा कौ� ? 3 ब्रह्मा , निवष्णु और चिशव की एकरूप�ा 4 परा - अपरा निवद्या 5 चिशव कौ� है ? 6 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�दीय इस उपनि�षद में 'चिशव' और 'निवष्णु' की अत्तिभन्न�ा दशा:ई गयी है। शुकदेव �ी और व्यास �ी के मध्य हुए प्रश्नोGर के रूप में इस उपनि�षद का प्रारम्भ निकया गया है। शुकदेव �ी व्यास �ी से पूछ�े हैं निक सभी देवों में सव:श्रेष्ठ देव कौ� है? जि�सका उGर व्यास �ी 'रुद्र' के रूप में दे�े हैं। उसके बाद चिशव और निवष्णु की अत्तिभन्न�ा, आ�मा, परमा�मा और अन्�रा�मा की निवनिवध�ा, रुद्र की नित्रमूर्ति�ं- ब्रह्मा, निवष्णु, महेश- का निववे �, रुद्र-की�:� से समस्� पापों का निव�ाश, परा-अपरा निवद्या का स्वरूप, अक्षरब्रह्म, अ0ा:� परम स�य के ज्ञा� द्वारा संसार-मोह से मुचिQ, मोक्ष की इ�ा रख�े वाले साधकों के चिलए प्रणवोंपास�ा का महत्त्व, �ीव और ईश्वर का काल्पनि�क भेद �0ा अदै्व� ज्ञा� से समस्� शोकों और मोह आदिद से पूण: रूप से नि�वृत्तिG आदिद का वण:� निकया गया है। यह उपनि�षद 'निवभेद बुजिद्ध' के स्था� पर 'अभेद बुजिद्ध' का ज्ञा� करा�े में सम0: है। आ� के दिदग्भ्रयिम� समा� के चिलए यह उपनि�षद अ�यन्� उपयोगी है। शान्तिन्�पाठ के उपरान्� शुकदेव �ी अप�े निप�ा कृष्णदै्वपाय� व्यास �ी से सव:क्षेष्ठ देव�ा के निवषय में अप�ी जि�ज्ञासा प्रकट कर�े हैं। इस पर व्यास�ी उGर दे�े हैं- [संपादिद� करें] सव�श्रेष्ठ देव�ा कौ�?'हे शुकदेव! भगवा� 'रुद्र' में सभी देव�ा समानिह� हैं। वे सभी रुद्र-रूप हैं। उ�के दत्तिक्षण में सूय:, ब्रह्मा �0ा �ी� प्रकार की अग्निग्�याँ- गाह:प�य, दत्तिक्षणाग्निग्� और आह्व�ीय-निवद्यमा� हैं। वाम पाश्व: में भगव�ी उमा, भगवा� निवष्णु और सोम ये �ी� देव शचिQयां निवद्यमा� हैं। उमा ही भगवा� निवष्णु और न्द्रमा हैं �ो भचिQ-भाव से भगवा� शंकर का �म� कर�े हैं, वे निवष्णु की ही अ :�ा कर�े हैं और �ो निवष्णु को �म� कर�े हैं, वे भगवा� रुद्रदेव (चिशव) की ही प्रा0:�ा कर�े हैं।' उन्हों�े आगे कहा-'वस्�ु�: �ो लोग भगवा� शंकर से दे्वष-भाव रख�े हैं, वे निवष्णु के कृपापात्र कदानिप �हीं ब� सक�े। दो�ों का स्वरूप एक ही है।' [संपादिद� करें] ब्रह्मा, निवष्णु और चिशव की एकरूप�ाइस उपनि�षद में यह मन्त्र दिदया गया है, �ो �ी�ों की एक�ा को प्रकट कर�ा है-रुद्रा�प्रव�:�े बी ं बी�योनि��:�ाद:�:।यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हु�ाश�:॥7॥ अ0ा:� रुद्र ही प्रात्तिणयों की उ�पत्तिG के बी�रूप हैं �0ा उस बी�रूप की योनि� उमा, अ0ा:� भगवा� निवष्णु हैं। �ो रुद्रदेव हैं, वे स्वयं ब्रह्मा हैं और �ो ब्रह्मा हैं, वे ही अग्निग्�देव हैं। अग्निग्� और सोम से युQ यह सम्पूण: �ग� ब्रह्मा, निवष्णु और चिशव-स्वरूप रुद्रमय ही है। सभी �ड़- े��-स्वरूप रुद्र और उमा के संयोग से ही �न्म ले�े हैं। उमा और चिशव का यिमल� ही निवष्णु कहला�ा है। 'अन्�रा�मा' ब्रह्मा है, 'परमा�मा' महेश्वर चिशव है और सभी प्रात्तिणयों की स�ा�� 'आ�मा' भगवा� निवष्णु हैं। अन्�रा�मा भवेदब््रह्मा परमा�मा महेश्वर:।सव�षामेव भू�ा�ां निवष्णुरा�मा स�ा��:॥14॥

इस नित्रलोक-रूपी निवश्व में �ी�ों का ही रूप निवद्यमा� है। काय:-रूप में निवष्णु, निक्रया-रूप में ब्रह्मा और कारण-रूप में स्वयं महेश्वर चिशव हैं। यही इ�का 'नित्रमूर्ति�ं' रूप है। धम:-रूप रुद्र, �ग�-रूप निवष्णु और ज्ञा�-रूप ब्रह्मा है। इ�की उपास�ा इस प्रकार कर�ी ानिहए-'रुद्रो �र उमा �ारी �स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी �स्मै �स्मै �मो �म:॥रुद्रो निवष्णुरूमा लक्ष्मीस्�स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्र: सूया: उमा छाया �स्मै �स्यै �मो �म:॥रुद्रो सोम उमा �ारा �स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्रो दिदवा उमा रानित्रस्�स्मै �स्यै �मो �म:॥रुद्रो यज्ञ उमा वेदिदस्�स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्रो वयिह्नरूमा स्वाहा �स्मै �स्यै �मो �म:॥रुद्रो वेद उमा शास्त्रं �स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली �स्मै �स्यै �मो �म:॥रुद्रो गन्ध उमा पुष्पं �स्मै �स्यै �मो �म:। रुद्रोऽ0: अक्षर: सोमा �स्मै �स्यै �मो �म:॥रुद्रो लिलंगयुमा पींठ �स्मै �स्यै �मो �म:। सवदेवा�मकं रुदं्र �मस्कुया:�पृ0म्पृ0क्॥' (17 से 23 �क— रुद्रहृदयोपनि�षद) 'हे शुकदेव! सबके आश्रयदा�ा, सच्छिच्चदा�न्द स्वरूप, म� और वाणी से अगो र �ो स�ा�� ब्रह्म है, उसे �ा� ले�े पर सभी रहस्य निवदिद� हो �ा�े हैं, क्योंनिक उस 'ब्रह्म' से पृ0क् कुछ भी �हीं है।' [संपादिद� करें] परा-अपरा निवद्या'हे शुकदेव! परा निवद्या' के अन्�ग:� आ�मज्ञा� प्राप्� हो�ा है और 'अपरा निवद्या' के अन्�ग:� ऋक् (स�य), य�ुष, साम और अ0व: वेदों की चिशक्षा, कल्प, व्याकरण, नि�रूQ, छन्द और ज्योनि�ष आदिद का ज्ञा� प्राप्� हो�ा है। एक साधक को ये दो�ों निवद्याए ंअवश्य �ा��ी ानिहए।' व्यास�ी �े कहा—'व�स! सभी निवद्याओं का आश्रयस्थल 'ब्रह्म' ही है। ज्ञा� ही जि�सका �प है, उसी से भोQा एवं अन्न-रूप इस �ड़- े�� �ग� की उ�पत्तिG हुई है।'य: सव:ज्ञ: सव:निवद्यो यस्य ज्ञा�मयं �प:।�स्मादत्रान्नरूपेण �ाय�े �गदावचिल:॥33॥[संपादिद� करें] चिशव कौ� है?व्यास�ी �े कहा-'हे शुकदेव! चि दृरूप �ीवा�मा स्वयं ही साक्षा� चिशव है। �ीव और ईश्वर में चि न्मय उपायिध से युQ आकार-भेद के कारण ही त्तिभन्न�ा प्र�ी� हो�ी है, स्वरूप से �हीं। स�य-रूप ईश्वर ही �ग� का आधार है। म�ीषी �� स्वयं को ही परमा�मा मा�कर 'मैं ब्रह्म हूं' (अहम ब्रह्माब्धिस्म) नि�श्चय करके शोक-रनिह� हो �ा�े हैं। आ�म-स्वरूप ज्ञा� से युQ ऐसे चिसद्ध पुरुष का पु��:न्म �हीं हो�ा। वह अप�े ही स्वरूप में च्छिस्थ� होकर, स्वयं ही सच्छिच्चदा�न्द स्वरूप 'ब्रह्म' हो �ा�ा है।' शारीरिरकोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 शारीरिरकोपनि�षद 2 पं महाभू�ों का समुच्चय 3 पां ज्ञा�ेजिन्द्रयां 4 पां कम�जिन्द्रयां 5 ार अन्� : करण निबन्दु 6 पं महाभू�ों के अंश और गुण 7 �ी� गुण कौ� से हैं ? 8 ार अवस्थाएं 9 सूक्ष्म शरीर क्या है ? 10 आठ निवकार क्या हैं ? 11 अन्य निवकार कौ� से हैं ? 12 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� यह उपनि�षद सृयिष्ट-प्रनिक्रया का निवशद वण:� कर�ा है। शरीर में निवद्यमा� पं �त्त्वों का इसमें परिर य दिदया गया है �0ा शरीर च्छिस्थ� सभी इजिन्द्रयों से परिरचि � कराया गया है। शरीर में अन्�:करण के ार निबन्दु कहां पर च्छिस्थ� हैं �0ा अ�ेका�ेक �त्त्वों का निववे � भी इस उपनि�षद में निकया गया है। '�त्त्वबोध' की दृयिष्ट से इस उपनि�षद का निवशेष महत्त्व है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं। [संपादिद� करें] पं महाभू�ों का समुच्चयहमारा यह शरीर पां महाभू�ों- पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश का सन्�ुचिल� समुच्चय है। इ�का सन्�ुचिल� यिमश्रण ही शरीर का आकार ग्रहण कर�ा है। इसमें छठा �त्त्व 'प्राण' है, जि�ससे यह �ीवन्� हो उठ�ा है। शरीर का ठोस पदा0: पृचि0वी�त्त्व है, द्रव्य पदा0:-�ल�त्त्व है, उष्मा- अग्निग्��त्त्व है, स�� गनि�शील- वायु�त्त्व है और चिछद्रयुQ ख़ाली स्था�- आकाश�त्त्व है। ये पां ों �त्त्व 'प्राण' द्वारा ही सनिक्रय हो पा�े हैं। उससे पूव: शरीर का कोई महत्त्व �हीं है।

[संपादिद� करें] पां ज्ञा�ेजिन्द्रयांआंख, का�, �ाक, �व ा और जि�ह्वा पां ज्ञा�ेजिन्द्रयां हैं, जि��का सं ाल� 'म�' के द्वारा हो�ा है। [संपादिद� करें] पां कम�जिन्द्रयांवाणी, हा0, पैर, गुदा और उपस्थ (���ेजिन्द्रय) पां ही कम�जिन्दयां हैं। इ�का सं ाल� भी 'म�' द्वारा हो�ा है। [संपादिद� करें] ार अन्�:करण निबन्दु'म�,' 'बुजिद्ध, 'चि G' (हृदय) और 'अहंकार, 'ये ार अन्�:करण निबन्दु कहे गये हैं। म� के द्वारा संकल्प-निवकल्प निकया �ा�ा है। बुजिद्ध द्वारा नि�श्चय निकया �ा�ा है, चि G द्वारा अवधारणा और अहंकार द्वारा अत्तिभमा� प्रकट निकया �ा�ा है। म� का स्था� गले का ऊपरी भाग, बुजिद्ध का स्था� मुख, चि G का स्था� �ात्तिभ और अहंकार का स्था� हृदय है। [संपादिद� करें] पं महाभू�ों के अंश और गुणअब्धिस्�, �व ा, �ाड़ी, रोम कूप �0ा मांस पृथ्वी �त्त्व के अंश और शब्द, स्पश:, रूप, रस और गन्ध गुण हैं। मूत्र, कफ, रQ, शुक्राणु �0ा श्वेद (पसी�ा) �ल �त्त्व के अंश हैं और शब्द, स्पश:, रूप और रस गुण हैं। कु्षधा (भूख), निपपासा (प्यास), आलस्य, मोह और मै0ु� अग्निग्� �त्त्व के अंश हैं और शब्द, स्पश: और रूप, ये �ी� गुण हैं। फैला�ा, दौड़�ा, गनि�, उड़�ा, पलकों आदिद का सं ाल� वायु �त्त्व के अंश हैं और शब्द �0ा स्पश: गुण हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह और भय आदिद आकाश �त्त्व के अंश हैं और 'शब्द' एकमात्र गुण है। [संपादिद� करें] �ी� गुण कौ� से हैं?'सान्ति�वक', 'रा�चिसक' �0ा '�ामचिसक' �ी� गुण हैं। 'सान्ति�वक' गुणों में, अपिहंसा, स�य, अस्�ेय ( ोरी � कर�ा), ब्रह्म य:, अपरिरग्रह, क्रोध � कर�ा, गुरु की सेवा, शुचि �ा, सन्�ोष, सरल�ा, संवेद�ा, दम्भ � कर�ा, आब्धिस्�क�ा आदिद गुण आ�े हैं। 'रा�चिसक' गुणों में, भोग-निवलास की प्रवृत्तिG, शचिQ-मद, वाणी-मद, वैभव-लालसा आदिद गुण आ�े हैं। '�ामचिसक' गुणों में, नि�द्रा, आलस्य, मोह, आसचिQ, मै0ु�, ोरी कर�ा, पिहंसा कर�ा, स�ा�ा आदिद कम: आ�े हैं। सव:शे्रष्ठ गुण 'सान्ति�वक' ही मा�े गये हैं। 'ब्रह्मज्ञा�' सान्ति�वक मा�ा �ा�ा है। 'धम:ज्ञा�' रा�चिसक प्रवृत्तिG मा�ी �ा�ी है और 'अज्ञा�' �ामसी प्रवृत्तिG का द्यो�म है। [संपादिद� करें] ार अवस्थाएं'�ाग्र�', 'स्वप्न','सुषुन्तिप्�' और '�ुरीय'- ये ार अवस्थाए ंहैं। '�ाग्र�' अवस्था में ज्ञा�ेजिन्द्रय, कम�जिन्द्रय �0ा ार अन्�:करण यिमलकर ौदह करण (सनिक्रय) रह�े हैं। 'स्वप्नावस्था' में ार अन्�:करण संयुQ रूप से सनिक्रय रह�े हैं। 'सुषुन्तिप्�' अवस्था में केवल चि � ही सनिक्रय रह�ा है। '�ुरीयावस्था' में केवल �ीवा�मा सनिक्रय रह�ा है। [संपादिद� करें] सूक्ष्म शरीर क्या है?ज्ञा�ेजिन्द्रय, कम�जिन्दय, पां प्राण, म� �0ा बुजिद्ध, इ� सत्रह का 'सूक्ष्म स्वरूप लिलंग शरीर' कहा गया है। [संपादिद� करें] आठ निवकार क्या हैं?म�, बुजिद्ध, अहंकार, आकाश, वायु, अग्निग्�, �ल और पृथ्वी, ये आठ प्रकृनि� के निवकार कहे गये हैं। [संपादिद� करें] अन्य निवकार कौ� से हैं?उपयु:Q आठ निवकारों के अनि�रिरQ पन्द्रह अन्य निवकारों में –का�, �व ा, आंख, जि�ह्वा, �ाक, गुदा, उपस्थ (���ेजिन्द्रय), हा0, पैर, वाणी, शब्द, स्पश:, रूप, रस और गन्ध आदिद हैं। इ�के सा0 उपयु:Q आठ निवकारों को यिमला�े से ये �ेईस �त्त्व हो �ा�े हैं। इ�से अलग अव्यQ �त्त्व 'प्रकृनि�' का है। उससे भी अलग �त्त्व 'पुरुष' (ब्रह्म) का है। इस प्रकार सभी पच्चीस �त्त्वों का योग हो �ा�ा है। इ� पच्चीस �त्त्वों के योग से ही समस्� ब्रह्माण्ड की र �ा हुई है। शुकरहस्योपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 शुकरहस्योपनि�षद 2 ॐ प्रज्ञा�ं ब्रह्म 3 ॐ अहं ब्रह्माऽब्धिस्म 4 ॐ �त्त्वमचिस 5 ॐ अयमा�मा ब्रह्म 6 सम्बंयिध� लिलंक

इस कृष्ण य�ुव�दीय उपनि�षद में महर्तिषं व्यास �ी के आग्रह पर भगवा� चिशव उ�के पुत्र शुकदेव को ार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में दे�े हैं। वे ार महावाक्य- #ॐ प्रज्ञा�ं ब्रह्म, ॐ अहं ब्रह्माब्धिस्म,

ॐ �त्त्वमचिस और ॐ अयमा�मा ब्रह्म हैं। [संपादिद� करें] ॐ प्रज्ञा�ं ब्रह्मइस महावाक्य का अ0: है- 'प्रकट ज्ञा� ब्रह्म है।' वह ज्ञा�-स्वरूप ब्रह्म �ा��े योग्य है और ज्ञा� गम्य�ा से परे भी है। वह निवशुद्ध-रूप, बुजिद्ध-रूप, मुQ-रूप और अनिव�ाशी रूप है। वही स�य, ज्ञा� और सच्छिच्चदा�न्द-स्वरूप ध्या� कर�े योग्य है। उस महा�े�स्वी देव का ध्या� करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्� कर सक�े हैं। वह परमा�मा सभी प्रात्तिणयों में �ीव-रूप में निवद्यमा� है। वह सव:त्र अखण्ड निवग्रह-रूप है। वह हमारे चि � और अहंकार पर सदैव नि�यन्त्रण कर�े वाला है। जि�सके द्वारा प्राणी देख�ा, सु��ा, संूघ�ा, बोल�ा और स्वाद-अस्वाद का अ�ुभव कर�ा है, वह प्रज्ञा� है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। [संपादिद� करें] ॐ अहं ब्रह्माऽब्धिस्मइस महावाक्य का अ0: है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अब्धिस्म' शब्द से ब्रह्म और �ीव की एक�ा का बोध हो�ा है। �ब �ीव परमा�मा का अ�ुभव कर ले�ा है, �ब वह उसी का रूप हो �ा�ा है। दो�ों के मध्य का दै्व� भाव �ष्ट हो �ा�ा है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्माब्धिस्म' कह उठ�ा है। [संपादिद� करें] ॐ �त्त्वमचिसइस महावाक्य का अ0: है-'वह ब्रह्म �ुम्हीं हो।' सृयिष्ट के �न्म से पूव:, दै्व� के अब्धिस्�त्त्व से रनिह�, �ाम और रूप से रनिह�, एक मात्र स�य-स्वरूप, अनिद्व�ीय 'ब्रह्म' ही 0ा। वही ब्रह्म आ� भी निवद्यमा� है। उसी ब्रह्म को '�त्त्वमचिस' कहा गया है। वह शरीर और इजिन्द्रयों में रह�े हुए भी, उ�से परे है। आ�मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अ�ुभव हो�ा है, निकन्�ु वह अंश परमा�मा �हीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूण: �ग� में प्रनि�भाचिस� हो�े हुए भी उससे दूर है। [संपादिद� करें] ॐ अयमा�मा ब्रह्मइस महावाक्य का अ0: है- 'यह आ�मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाचिश� परोक्ष (प्र�यक्ष शरीर से परे) �त्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रनि�पादिद� निकया गया है। अहंकार से लेकर शरीर �क को �ीनिव� रख�े वाली अप्र�यक्ष शचिQ ही 'आ�मा' है। वह आ�मा ही परब्रह्म के रूप में समस्� प्रात्तिणयों में निवद्यमा� है। सम्पूण: र-अ र �ग� में �त्त्व-रूप में वह संव्याप्� है। वही ब्रह्म है। वही आ�म�त्त्व के रूप में स्वयं प्रकाचिश� 'आ�म�त्त्व' है। अन्� में भगवा� चिशव शुकदेव से कह�े हैं-'हे शुकदेव! इस सच्छिच्चदा�न्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, �ो �प और ध्या� द्वारा प्राप्� कर�ा है, वह �ीव�-मरण के बन्ध� से मुQ हो �ा�ा है।' भगवा� चिशव के उपदेश को सु�कर मुनि� शुकदेव समू्पण: �ग� के स्वरूप परमेश्वर में �न्मय होकर निवरQ हो गये। उन्हों�े भगवा� को प्रणाम निकया और सम्पूण: प्ररिरग्रह का �याग करके �पोव� की ओर ले गये। �ैत्तिGरीयोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 �ैत्तिGरीयोपनि�षद 2 चिशक्षावल्ली 3 ब्रह्मा�न्दवल्ली 4 भृगुवल्ली 5 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द शाखा का यह उपनि�षद �ैत्तिGरीय आरण्यक का एक भाग है। इस आरण्यक के सा�वें, आठवें और �ौवें अध्यायों को ही उपनि�षद की मान्य�ा प्राप्� हैं इस उपनि�षद के र यिय�ा �ैत्तिGरिर ऋनिष 0े। इसमें �ी� वच्छिल्लयां- 'चिशक्षावल्ली,' 'ब्रह्मा�न्दवल्ली' और 'भृगुवल्ली' हैं। इ� �ी� वच्छिल्लयों को क्रमश: बारह, �ौ �0 दस अ�ुवाकों में निवभाजि�� निकया गया है। �ो साधक 'ज्ञा�,' 'कम:' और उपास�ा' के द्वारा इस भवसागर से पार उ�र कर मोक्ष की प्रान्तिप्� कर�ा है अ0वा योनिगक-साध�ा के द्वारा 'ब्रह्म' के �ी� 'वैश्वा�र', '�े�स' और 'प्रज्ञा�' स्वरूपों को �ा� पा�ा है और सच्छिच्चदा�न्द स्वरूप में अवगाह� कर�ा है, वही 'नि�त्तिGरिर' है। वही मोक्ष का अयिधकारी है। इस उपनि�षद द्वारा �ैत्तिGरिर ऋनिष �े अप�े पूव:व�² आ ाय: स�यव ा रा0ी�र, �पोनि�ष्ठ पौरूचिशयिष्ट, �ाकमोद्गल्य और नित्रशंकु आदिद आ ाय- के उपदेशों को मान्य�ा देकर अप�ी सौ�न्य�ा का निव�म्र परिर य दिदया है। इसे �ृ�ीय वल्ली में भृगु-वारूत्तिण संवाद के रूप में प्रस्�ु� निकया है। चिशक्षावल्लीइस वल्ली में अयिधलोक, अयिधज्योनि�ष, अयिधनिवद्या, अयिधप्र� और अध्या�म, पां महासंनिह�ाओं का वण:� निकया गया है। साध�ाक्रम में 'ॐ' �0ा 'भू:', 'भुव:', 'स्व:' �0ा 'मह:' आदिद व्याहृनि�यों का महत्त्व दशा:या गया है। अन्� में अध्यय� और अध्याप� कर�े के चिलए सदा ार सम्बन्धी मया:दा सूत्रों का उल्लेख करके, निव ारों के सा0 आ रण की महGा पर प्रकाश डाला गया है।पहला अ�ुवाक

इस अ�ुवाक में यिमत्र, वरुण, अय:मा (सूय:), इन्द्र, बृहस्पनि�, निवष्णु, वायु और ब्रह्मदेव को �म� करके उ�से नित्रनिवध �ापों- अध्यात्मि�मक, अयिधदैनिवक और अयिधभौनि�क शान्तिन्�- की रक्षा कर�े की प्रा0:�ा की गयी है। दूसरा अ�ुवाकइस अ�ुवाक में चिशक्षा के सार �त्त्वों- वण:, स्वर, मात्रा, बल, साम, सत्मिन्ध �0ा छन्द आदिद- के महत्त्व का प्रनि�पाद� निकया गया है। वैदिदक सानिह�य में इ�की चिशक्षा का निवशेष उल्लेख है।�ीसरा अ�ुवाकइस अ�ुवाक में चिशष्य और आ ाय: के यश और बह्म�े� को सा0-सा0 बढ़�े की प्रा0:�ा और पां महासंनिह�ाओं की व्याख्या की गयी है। अयिधलोक संनिह�ा— इसका पूव: रूप 'पृथ्वी, 'उGर रूप 'दु्यलोक' और दो�ों का सत्मिन्ध स्थल 'अन्�रिरक्ष' है। 'वायु' संयो�क रूप है। अयिधज्योनि�ष (ज्योनि�)संनिह�ा— पूव: रूप 'अग्निग्�, 'उGर रूप 'सूय:,' '�ल' सत्मिन्ध रूप है। 'निवदु्य�' संयो�क है। अयिधनिवद्या संनिह�ा— पूव: रूप 'गुरु,'उGर रूप 'चिशष्य, ' 'निवद्या' सत्मिन्ध रूप है। 'प्रव �' संयो�क है। अयिधप्र� (प्र�ा) संनिह�ा— पूव: रूप 'मा�ा,'उGर रूप 'निप�ा' और 'सन्�ा�' सत्मिन्ध रूप है। 'प्र��� कम:' संयो�क है। अध्या�म (आ�मा) संनिह�ा- पूव: रूप �ी े का '�बड़ा' उGर रूप ऊपर का '�बड़ा' और 'वाणी' सत्मिन्ध रूप है। 'जि�ह्वा' संयो�क है। सामान्य रूप से वण- के समूह को संनिह�ा कह�े हैं। निवराट इकाइयों- लोक, ज्योनि�, निवद्या (ज्ञा�), प्र�ा (सन्�नि�), आ�मा आदिद के संयोजि�� समूहों का उल्लेख निकये �ा�े के कारण ही इन्हें 'महासंनिह�ा' कहा गया है। �ो साधक इ� महासंनिह�ाओं के सार��व को �ा� ले�ा है, वह समस्� लोकों, ज्योनि�, ज्ञा�, प्र�ा, पशु, ब्रह्मव :स्व, अन्नादिद भोग्य पदा0- से सम्पन्न हो �ा�ा है। ौ0ा अ�ुवाकइस अ�ुवाक में सव:रूप, वेदों में सव:श्रेष्ठ उपास्य देव 'इन्द्र' की उपास�ा कर�े हुए ऋनिष कह�े हैं निक वे उन्हें अमृ�-स्वरूप परमा�मा को धारण कर�े वाला मेधा-सम्पन्न ब�ायें। शरीर में सू्फर्ति�ं, जि�ह्वा में माधुय: और का�ों में शुभ व � प्रदा� करें। उन्हें सभी लोगों में यशस्वी, ध�वा� और ब्रह्मज्ञा�ी ब�ायें। उ�के पास �ो चिशष्य आयें, वे ब्रह्म ारी, कपटही�, ज्ञा�े�ु और म� का नि�ग्रह कर�े वाले हों। इसी के चिलए वे यज्ञ में उ�के �ाम की आहुनि�यां दे�े हैं।पां वां अ�ुवाक इस अ�ुवाक में 'भू:, भुव:, ' 'स्व:' और 'मह:' की व्याख्या की गयी है। 'मह:' ही ब्रह्म का स्वरूप है। वही सभी वेदां का ज्ञा� दे�ा है। 'भू:' – पृथ्वी, अग्निग्�, ॠग्वेद और प्राण है। 'भुव:' – अन्�रिरक्ष, वायु, सामवेद और अपा� है। 'स्व:' – स्वग:लोक, आदिद�य, य�ुव�द और व्या� है। 'मह:' - 'आदिद�य' (ब्रह्म), न्द्रमा, ब्रह्म और अन्न है। एक व्याहृनि� के ार- ार भेद हैं। ये कुल सोलह हैं �ो इन्हें ठीक प्रकार से �ा� ले�ा है, वह 'ब्रह्म' को �ा� ले�ा है। सभी देवगण उसके अ�ुकूल हो �ा�े हैं।छठा अ�ुवाक इस अ�ुवाक में पुरा�� पुरुष 'परब्रह्म' की उपास�ा का योग ब�ाया गया है। वह अमृ�-रूप और प्रकाश-स्वरूप परम पुरुष हृदय च्छिस्थ� आकाश में निवरा�मा� है। हमारे कपाल में 'ब्रह्मरन्ध्र' इन्द्र योनि� के रूप में च्छिस्थ� है। नि�वा:ण के समय साधक 'भू:' स्वरूप अग्निग्� में प्रवेश कर�ा है, भुव: स्वरूप वायु में प्रनि�यिष्ठ� हो�ा है और निफर 'स्व:' स्वरूप आदिदत्त्य में होकर 'मह:', अ0ा:� 'ब्रह्म' में अयिधयिष्ठ� हो �ा�ा है। वह समू्पण: इजिन्द्रयों और निवज्ञा� का स्वामी हो �ा�ा है। सा�वां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में 'पां �त्त्वों' का निवनिवध पंचिQयों में उल्लेख निकया है और उन्हें एक-दूसरे का पूरक मा�ा है। लोक पंचिQ— पृथ्वी, अन्�रिरक्ष, दु्यलोक, दिदशाए ंऔर अवान्�र दिदशाए।ं �क्षत्र पंचिQ— अग्निग्�, वायु, आदिद�य, न्द्रमा और समस्� �क्षत्र। आयिधभौनि�क पंचिQ— �ल, औषयिधयां, व�स्पनि�यां, आकाश और आ�मा। अध्यात्मि�मक पंचिQ— प्राण, व्या�, अपा�, उदा� और समा�। इजिन्द्रयों की पंचिQ— क्षु, श्रोत्र, म�, वाणी और �व ा। शारीरिरक पंचिQ— म:, मांस, �ाड़ी, हड्डी और मज्जा। ऋनिष �े ब�ाया है निक यह सब पंचिQयों का समूह, पंचिQयों की ही पूर्ति�ं कर�ा है। सभी परस्पर एक-दूसरे की पूरक हो�े हुए एक सहयोगी की भांनि� काय: कर�ी हैं।आठवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में 'ॐ' को ही 'ब्रह्म' मा�ा गया है और उसी के द्वारा 'ब्रह्म' को प्राप्� कर�े की बा� कही गयी है। आ ाय: 'ॐ' को

ही प्र�यक्ष �ग� मा��े हैं और उसके उच्चारण अ0वा स्मरण के उपरान्� साम-गा� �0ा शस्त्र-सन्धा� कर�े है। 'ॐ' के द्वारा ही अग्निग्�होत्र निकया �ा�ा है।�ौवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में ऋनिष �े आ रण और स�य वाणी के सा0-सा0 शास्त्र के अध्यय� और अध्याप� कर�े पर बल डाला है। �दुपरान्� इजिन्द्रय-दम�, म�-नि�ग्रह और ज्ञा�ा�:� पर निवशेष प्रकाश डाला है। प्र�ा की वृजिद्ध के सा0-सा0 शास्त्र-अध्यय� भी कर�ा ानिहए। र0ी�र ऋनिष के पुत्र स�यव ा ऋनिष 'स�य' को सव:श्रेष्ठ मा��े हैं। और ऋनिषवर पुरूचिशष्ट के पुत्र �पोनि��य ऋनिष '�प' को सव:श्रेष्ठ मा��े हैं �0ा ऋनिष मुद्गल के पुत्र �ाम मुनि� शास्त्रों के अध्यय� और अध्याप� पर बल डाल�े हुए उसे ही सव:श्रेष्ठ �प मा��े हैं। इस प्रकार स्वाध्याय की आवश्यक�ा पर बल दिदया गया है।दसवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में नित्रशंकु ऋनिष अप�े ज्ञा�-अ�ुभव द्वारा स्वयं को ही अमृ�-स्वरूप इस निवश्व-रूपी वृक्ष के ज्ञा�ा चिसद्ध कर�े हैं और अप�े यश को सबसे ऊं े निगरिर चिशखर से भी ऊं ा मा��े हैं। वे स्वयं को अमृ�-स्वरूप अन्नो�पादक सूय: में व्याप्� मा��े हैं यहाँ ऋनिष की च्छिस्थनि� वही है, �ब एक ब्रह्मवेGा, ब्रह्म से साक्षा�कार कर�े के उपरान्� स्वयं को ही 'अहम ब्रह्माब्धिस्म', अ0ा:� 'मैं ही ब्रह्म हूं' कह�े लग�ा है। अदै्व� भाव से वह 'ब्रह्म' से अलग �हीं हो�ा।ग्यारहवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में गुरु अप�े चिशष्य और सामाजि�क गृहस्थ को सद आ रणों पर ल�े की पे्ररणा दे�ा है। वह कह�ा है- 'स�यं वद। धम° र । स्वाध्यायान्मा प्रमद:।' अ0ा:� स�य बोलो, धम: का आ रण करो, स्वाध्याय में आलस्य म� करो। अप�े श्रेष्ठ कम- से साधक को कभी म� �हीं ुरा�ा ानिहए। आ ाय: के चिलए अभीष्ट ध� की व्यवस्था कर�े का सदा प्रय�� कर�ा ानिहए और सृयिष्ट के निवकास में सदा सहयोगी ब�ा�ा ानिहए। आ ाय: कह�े हैं-'मा�ृ देवो भव। निप�ृ देवो भव। आ ाय: देवो भव। अनि�चि0 देवों भव।' अ0ा:� मा�ा को, निप�ा को, आ ाय: को और अनि�चि0 को देव�ा के समा� मा�कर उ�के सा0 व्यवहार करो। यह भार�ीय संस्कृनि� की उच्च�ा है निक यहाँ मा�ा-निप�ा और गुरु �0ा अनि�चि0 को भी देव�ा के समा� सम्मा� दिदया �ा�ा है। यहाँ 'दा�' की निवचिशष्ट परम्परा है। दा� सदैव मैत्री-भाव से ही दे�ा ानिहए �0ा कम:, आ रण और दोष आदिद में लांचिछ� हो�े का भय, यदिद उ�पन्न हो �ाये, �ो सदैव निव ारशील, परामश:शील, आ ारणनि�ष्ठ, नि�म:ल बुजिद्ध वाले निकसी धम:नि�ष्ठ व्यचिQ से परामश: ले�ा ानिहए। जि�स�े लोक-व्यवहार और धमा: रण को अप�े �ीव� में उ�ार चिलया, वही व्यचिQ मोह और भय से मुQ होकर उचि � परामश: दे सक�ा है। श्रेष्ठ �ीव� के ये श्रेष्ठ चिसद्धान्� ही उपास�ा के योग्य हैं।बारहवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में पु�: यिमत्र, वरुण, अय:मा (सूय:), इन्द्र, बृहस्पनि�, निवष्णु, वायु आदिद देवों की उपास�ा कर�े हुए उ�से कल्याण �0ा शान्तिन्� की काम�ा की गयी है; क्योंनिक वे ही 'स�य' हैं और 'ब्रह्म' हैं। वे ही हमारी रक्षा कर सक�े हैं और हमारे �ी� प्रकार के �ापों को शान्� कर सक�े हैं। ये त्रय �ाप हैं- अध्यात्मि�मक, अयिधदैनिवक और अयिधभौनि�क। क्रमश: ईश्वर सम्बन्धी, देव�ा सम्बन्धी और शरीर सम्बन्धी दु:ख। ब्रह्मा�न्दवल्लीइसमें ब�ाया गया है निक ईश्वर हृदय में निवरा�मा� है। यहाँ शरीर में च्छिस्थ� पां - 'अन्नमय,' 'प्राणमय,' 'म�ोमय,' 'निवज्ञा�मय' और 'आ�न्दमय' कोशों का मह�व दशा:या गया है। आ�न्द की मीमांसा लौनिकक आ�न्द से लेकर ब्रह्मा�न्द �क की गयी है। यह भी ब�ाया गया है निक सच्छिच्चदा�न्द-स्वरूप परब्रह्म का सायिन्नध्य कौ� साधक प्राप्� कर सक�े हैं।पहला अ�ुवाकइस अ�ुवाक में कहा गया है निक ब्रह्मवेGा साधक ही परब्रह्म के सायिन्नध्य को प्राप्� कर पा�ा है और निवचिशष्ट ज्ञा�-स्वरूप उस ब्रह्म के सा0 समस्� भोगों का आ�न्द प्राप्� कर�ा है। सव:प्र0म परमा�मा से आकाश�त्त्व प्रकट हुआ। उसके बाद आकाश से वायु, वायु से अग्निग्�, अग्निग्� से �ल, �ल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषयिधयां, औषयिधयों से अन्न �0ा अन्न से पुरुष का निवकास हुआ। पुरुष में ही अन्न का रस निवद्यमा� है। आ�मा उसके मध्य भाग, अ0ा:� हृदय में नि�वास कर�ी है। ब्रह्मवे� साधक हृदय में च्छिस्थ� इसी 'आ�मा' की उपास�ा करके 'परब्रह्म' �क पहुं �ा है।दूसरा अ�ुवाक इस अ�ुवाक में म�ुष्य को पक्षी के समकक्ष मा�कर पं कोशों का वण:� निकया गया है। यहाँ 'अन्नमय कोश' का वण:� है। सभी प्राणी अन्न से �न्म ले�े हैं, अन्न से ही �ीनिव� रह�े हैं और अन्� में अन्न में ही समा �ा�े हैं। इसीचिलए 'अन्न' को सभी �त्त्वों में श्रेष्ठ कहा गया है। अन्न रस से युQ इस शरीर में प्राण-रूप आ�मा का वास है। उस प्राणग� देह का प्राण ही उसका चिसर है, व्या� दानिह�ा पंख, अपा� बायां पंख, आकाश मध्य भाग और पृथ्वी उसकी पूंछ है।

�ीसरा अ�ुवाकइस अ�ुवाक में 'प्राणमय कोश' का वण:� है। प्राण ही निकसी भी शरीर की �ीव�ी-शचिQ हो�ा है। �ो प्राण-रूपी ब्रह्म की उपास�ा कर�े हैं, वे दीघ: �ीव� पा�े हैं। यही अन्नमय शरीर का 'आ�मा' है। इस देह का चिसर 'य�ुव�द' है, 'ॠग्वेद' दानिह�ा पंख है, ' सामवेद' बायां पंख है। और आदेश उस देह का मध्य भाग है। 'अ0व:' के मन्त्र ही इसका पंूछ वाला भाग है। ौ0ा अ�ुवाक इस अ�ुवाक में शरीर के 'म�ोमय कोश' का वण:� है। जि�स ब्रह्मा�न्द की अ�ुभूनि� म� में की �ा�ी है, उसे वाणी द्वारा प्रकट �हीं निकया �ा सक�ा। यह म�ोमय शरीर अप�े पूव:व�² प्राणमय शरीर का आ�मा है, अ0ा:� आधार है। इस म�ोमय शरीर से त्तिभन्न आ�मा निवज्ञा�मय है, �ो इस म�ोमय शरीर में च्छिस्थ� है। निवज्ञा�मय देह का चिसर 'श्रद्धा' है, स�ा�� स�य (ऋ�) उसका दानिह�ा पंख है, प्र�यक्ष 'स�य' बायां पंख है, 'योग' मध्य भाग है, 'मह:' को उसकी पंूछ वाला भाग मा�ा गया है। उसे �ा��े वाला सभी भयों से मुQ हो �ा�ा है।पां वां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में शरीर के 'निवज्ञा�मय कोश' का वण:� है। निवज्ञा� के द्वारा ही यज्ञों और कम- की वृजिद्ध हो�ी है। समस्� देवगण निवज्ञा� को ब्रह्म-रूप में मा�कर उसकी उपास�ा कर�े हैं। निवज्ञा�मय शरीर में 'आ�मा' ही ब्रह्म-रूप है। 'पे्रम' उस निवज्ञा�मय शरीर का चिसर है, 'आमोद' दानिह�ा पंख है, 'प्रमोद' बायां पंख है, 'आ�न्द' मध्य भाग है और 'ब्रह्म' ही उसकी पंूछ, अ0ा:� आधार है। उसे �ा��े वाला समस्� पापों से मुQ हो �ा�ा है।छठा अ�ुवाकइस अ�ुवाक में 'आ�न्दमय कोश' की व्याख्या की गयी है। ब्रह्म को 'स�य' स्वीकार कर�े वाले सन्� कहला�े हैं। निवज्ञा�मय शरीर का 'आ�मा' ही आ�न्दमय शरीर का भी 'आ�मा' है। परमा�मा अ�ेक रूपों में अप�े आपको प्रकट कर�ा है। उस�े �ग� की र �ा की और उसी में प्रनिवष्ट हो गया। वह वण्य: और अवण्य: से परे हो गया। निकसी �े उसे 'नि�राकार' रूप मा�ा, �ो निकसी �े 'साकार' रूप। अप�ी-अप�ी कल्प�ाए ंहो�े लगीं। वह आश्रय-रूप और आश्रयनिवही� हो गया, ै�न्य और �ड़ हो गया। वह स�य रूप हो�े हुए भी यिमथ्या-रूप हो गया। परन्�ु निवद्वा�ों का कह�ा है निक �ो कुछ भी अ�ुभव में आ�ा है, वही 'स�य' है, परब्रह्म है, परमेश्वर है।सा�वां अ�ुवाक इस अ�ुवाक में सृयिष्ट के र यिय�ा परब्रह्म से 'सृकृ�,' अ0ा:� पुण्य-स्वरूप कहा गया है। प्रारम्भ में वह अव्यQ ही 0ा, परन्�ु बाद में उस�े अप�ी इ�ा से स्वयं को �ग�-रूप में उ�पन्न निकया। वही '�ग�-रस' अ0ा:� आ�न्द है। उसी के कारण �ीव� है और समस्� ेष्टाए ंहैं। �ब �क �ीवा�मा, परमा�मा से अलग रह�ा है, �भी �क वह दुखी रह�ा है।आठवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में 'आ�न्द' की निवस्�ृ� व्याख्या की गयी है। काम�ाओं से युQ आ�न्द की प्रान्तिप्�, वास्�निवक आ�न्द �हीं है। केवल लौनिकक आ�न्द की प्रान्तिप्� कर ले�ा ही आ�न्द �हीं है, उसके चिलए समग्र व्यचिQ�व का श्रेष्ठ हो�ा भी परम आवश्यक है। ऋनिष कह�ा है निक यह रा र �ग� ब्रह्म के भय से ही निक्रयार� है। वायु सूय:, अग्निग्�, इन्द्र, मृ�युदेव यम, सभी उसके भय से कम- में प्रवृG हैं। इस पृथ्वी पर �ो लौनिकक आ�न्द प्राप्� हो�ा है, वह एक साधारण आ�न्द है। म�ुष्यलोक के ऐसे सौ आ�न्द मा�व-गन्धव:लोक के एक आ�न्द के बराबर हैं। मा�व-गन्धव:लोक के सौ आ�न्द, देव-गन्धव:लोक के एक आ�न्द के समा� है। देव-गन्धव:लोक के सौ आ�न्द निप�ृलोक के एक आ�न्द के समा�, निप�ृलोक के सौ आ�न्द संज्ञक देवों के एक आ�न्द के समा�, संज्ञक देवों की सौ आ�न्द कम:क देव संज्ञक देवों के एक आ�न्द के समा�, कम:क देव संज्ञक देवों के सौ आ�न्द देवों के एक आ�न्द के समा�, देवों के सौ आ�न्द इन्द्र के एक आ�न्द के समा�, इन्द्र के सौ आ�न्द बृहस्पनि� के एक आ�न्द के समा� �0ा देव प्र�ापनि� बृहस्पनि� के सौ आ�न्द ब्रह्म के एक आ�न्द के बराबर हैं। परन्�ु �ो काम�ारनिह� साधक है, उसे ये आ�न्द सह� रूप से ही प्राप्� हो �ा�े हैं। �ो 'ब्रह्म' इस म�ुष्य के शरीर में निवद्यमा� है, वही 'सूय:' में है। �ो साधक इस रहस्य को �ा� �ा�ा है, वह अन्नमय आ�मा से निवज्ञा�मय आ�मा �क का माग: करके 'आ�न्दमय आ�मा' को प्राप्� कर ले�ा है।�वां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में ब्रह्मा का बोध कर ले�े वाले साधक को पाप-पुण्य के भय से दूर ब�ाया गया है। जि�स 'ब्रह्म' की अ�ुभूनि� म� के सा0 हो�ी है और जि�से वाणी द्वारा अत्तिभव्यQ �हीं निकया �ा सक�ा, उसे �ब कोई साधक अप�ी साध�ा से �ा� ले�ा है, �ब उसे निकसी बा� की भी चि न्�ा अ0वा भय �हीं स�ा�ा। �ो निवद्वा� पाप-पुण्य के कम- को समा� भाव से �ा��ा है, वह पापों से अप�ी रक्षा कर�े में पूरी �रह सम0: हो�ा है। �ो निवद्वा� पाप-पुण्य, दो�ों ही कम- के बन्ध� को �ा� ले�ा है, वह दो�ों में आसQ � होकर अप�ी रक्षा कर�े में सम0: हो�ा है। भृगुवल्लीइसमें ऋनिषवर भृगु की ब्रह्मपरक जि�ज्ञासा का समाधा� उ�के निप�ा महर्तिषं वरुण द्वारा निकया �ा�ा है। वे उन्हें �त्त्वज्ञा� का बोध करा�े के उपरान्�, साध�ा द्वारा उसे स्वयं अ�ुभव कर�े के चिलए कह�े हैं। �ब वे स्वयं अन्न, प्राण, म�, निवज्ञा� और आ�न्द को ब्रह्म-रूप में अ�ुभव कर�े हैं। ऐसा अ�ुभव हो �ा�े पर महर्तिषं वरुण उन्हें आशीवा:द दे�े हैं और अन्नादिद का दुरूपयोग � करके

उसे सुनि�योजि�� रूप से निव�रण कर�े की प्रणाली समझा�े हैं। अन्� में परमा�मा के प्रनि� साधक के भावों और उसके सम�ायुQ उद्गारों का उल्लेख कर�े हैं।पहला अ�ुवाकइस अ�ुवाक में भृगु वारूत्तिण अप�े निप�ा वरुण के पास �ाकर 'ब्रह्म' के बारे में पूछ�े हैं। वरुण उन्हे ब�ा�े हैं निक अन्न, प्राण, कु्ष, श्रोत्र, म� और वाणी- ये सभी ब्रह्म की प्रान्तिप्� के साध� हैं। ये सारे प्राणी, जि�ससे �न्म ले�े हैं, उसी में लय हो �ा�े हैं। वही 'ब्रह्म' है। उसे साध�ा द्वारा �ा��े का प्रयास करो। इस प्रकार �ा�कर भृगु �प कर�े ले गये।दूसरा अ�ुवाक�प के बाद उन्हें बोध हुआ निक 'अन्न' ही ब्रह्म है; क्योंनिक अन्न से ही �ीव� है और अन्न के � यिमल�े से मृ�यु को प्राप्� �ीव अन्न (पृथ्वी) में ही समा �ा�ा है। उ�के निप�ा वरुण �े भी उ�की सो का सम0:� निकया, निकन्�ु अभी और सो �े के चिलए कहा। �प से ही 'ब्रह्म' को �ा�ा �ा सक�ा है।�ीसरा अ�ुवाकपु�: �प कर�े के बाद भृगु को बोध हुआ निक 'प्राण' ही ब्रह्म है; क्योंनिक उसी से �ीव� है और उसी में �ीव� का लय है। यिमल�े पर वरुण ऋनिष �े अप�े पुत्र की सो का सम0:� निकया, निकन्�ु अभी सो �े के चिलए कहा। �प से ही 'ब्रह्म' को �ा�ा �ा सक�ा है। ौ0ा अ�ुवाकभृगु द्वारा पु�: �पस्या कर�े पर उन्हें बोध हुआ निक 'म�' ही ब्रह्म है, निकन्�ु वरुण ऋनिष �े उन्हें और �प कर�े के चिलए कहा निक �प से ही '�त्त्व' को �ा�ा �ा सक�ा है। �प ही 'ब्रह्म' है।पां वा अ�ुवाकभृगु ऋनिष निफर �प कर�े लगे। �प के बाद उन्हों�े �ा�ा निक 'निवज्ञा�' ही 'ब्रह्म' है। वरुण ऋनिष �े उसकी सो का सम0:� �ो निकया, पर उसे और �प कर�े के चिलए कहा। �प ही 'ब्रह्म' है। उसी से �त्त्व को �ा�ा �ा सक�ा है।छठा अ�ुवाकइस बार �प कर�े के पश्चा� भृगु मुनि� �े �ा�ा निक 'आ�न्द' ही 'ब्रह्म' है। सब प्राणी इसी से उ�पन्न हो�े हैं, �ीनिव� रह�े हैं और मृ�यु हो�े पर इसी में समा �ा�े हैं। इस बार वरुण ऋनिष �े उसे ब�ाया निक वे 'ब्रह्मज्ञा�' से पूण: हो गये हैं। जि�स समय साधक 'ब्रह्म' के 'आ�न्द-स्वरूप' को �ा� �ा�ा है, उस समय वह प्र ुर अन्न, पा �-शचिQ, प्र�ा, पशु, ब्रह्मव :स �0ा महा� कीर्ति�ं से समप्न्न होकर महा� कहला�ा है। ऋनिष उन्हें ब�ा�े हैं निक श्रेष्ठ�म 'ब्रह्मनिवद्या' निकसी व्यचिQ-निवशेष में च्छिस्थ� �हीं है। यह परम व्योम (आकाश) में च्छिस्थ� है। इसे साध�ा द्वारा ही �ा�ा �ा सक�ा है। कोई भी साधक इसे �ा� सक�ा है।सा�वां अ�ुवाकऋनिष �े कहा निक अन्न की कभी नि�न्दा �हीं कर�ी ानिहए। 'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है। अन्न में ही अन्न की प्रनि�ष्ठा है। �ो साधक इस मम: को समझ �ा�ा है, वह अन्न-पा � की शचिQ, प्र�ा, पशु, ब्रह्मव :स का ज्ञा�ा होकर महा� यश को प्राप्� कर�ा है।आठवां अ�ुवाकअन्न का कभी नि�रस्कार � करें। यह व्र� है। �ल अन्न है। �े�स अन्न का भोग कर�ा है। �े�स �ल में च्छिस्थ� है और �े�स में �ल की च्छिस्थनि� है। इस प्रकार अन्न में ही अन्न प्रनि�यिष्ठ� है। �ो साधक इस रहस्य को �ा� ले�ा है, वह अन्न रूप ब्रह्म में प्रनि�ष्ठ� हो �ा�ा है। उसे सभी सुख, वैभव और यश प्राप्� हो �ा�े हैं और वह महा� हो �ा�ा है।�ौवां अ�ुवाकइसीचिलए अन्न की पैदावार बढ़ायें। पृथ्वी ही अन्न है और अन्न का उ�पाद� बढ़ा�ा ही संकल्प हो�ा ानिहए। आकाश अन्न का आधार है, इसीचिलए वह उसका उपभोQा है। पृथ्वी में आकाश और आकाश में पृथ्वी च्छिस्थ� है। इस प्रकार अन्न में ही अन्न अयिधयिष्ठ� है। �ो साधक इस रहस्य को �ा� ले�ा है, वह यश का भागी हो�ा है। उसे समस्� सुख-वैभव सह� ही उपलब्ध हो �ा�े हैं।दसवां अ�ुवाकइस अ�ुवाक में ऋनिष ब�ा�े हैं निक घर में आये अनि�चि0 का कभी नि�रस्कार � करें। जि�स प्रकार भी ब�े, अनि�चि0 का म� से आदर-स�कार करें। उसे पे्रम से भो�� करायें। आप उसे जि�स भाव से भी-ऊं े, मध्यम अ0वा नि�म्�-भाव से भो�� करा�े हैं, आपको वैसा ही अन्न प्राप्� हो�ा है। �ो इस �थ्य को �ा��ा है, वह अनि�चि0 का उGम आदर-स�कार कर�ा है। वह *परमा�मा, म�ुष्य की वाणी में शचिQ-रूप से निवद्यमा� है। वह प्राण-अपा� में प्रदा�ा भी है और रक्षक भी है। वह हा0ों में कम: कर�े की शचिQ, पैरों में ल�े की गनि�, गुदा में निवस�:� की शचिQ के रूप में च्छिस्थ� है। यह ब्रह्म की 'मा�ुषी सGा' है। परमा�मा अप�ी 'दैवी सGा' का प्रदश:� वषा: द्वारा, निवदु्य� द्वारा, पशुओं द्वारा, ग्रह-�क्षत्रों की ज्योनि� द्वारा, उपस्थ में प्र���-सामथ्य: द्वारा, वीय: और आ�न्द के द्वारा अत्तिभव्यQ कर�ा है। वह आकाश में व्यापक निवश्व अ0वा ब्रह्माण्ड के रूप में च्छिस्थ� है।

वह सबका आधार रस है। वह सबसे महा� है। वह 'म�' है, वह �म� के योग्य है, वह ब्रह्म है, वह आकाश है, वह मृ�यु है, वह सूय: है, वह अन्नमय आ�मा है, वह प्राणमय है, वह म�ोमय है, वह निवज्ञा�मय है, वह आ�न्दमय है। इस प्रकार �ो उसे �ा� ले�ा है, वह म��शील, सम्पूण: काम�ाओं को पूण: करे ले�े वाला, ब्रह्ममय, शत्रु-निव�ाशक और इच्छि�� भोगों को प्राप्� कर�े वाला महा� आ�न्दमय साधक हो �ा�ा है। सभी लोकों में उसका गम� सह� हो �ा�ा है। �ब उसे आश्चय: हो�ा है निक वह स्वयं आ�म�त्त्व अन्न है, आ�मा है, स्व्यं ही उसे भोग कर�े वाला है। वही उसका नि�यामक है और वही उसका भोQा है। वही मन्त्र है और वही मन्त्रदृष्टा है। वही इस प्र�यक्ष स�य-रूप �ग� का प्र0म उ�पत्तिGक�ा: है और वही उसको लय कर �ा�ा है। उसका �े� सूय: के समा� है। �ो साधक ऐसा अ�ुभव कर�े लग�ा है, वह उसी के अ�ुरूप सामथ्य:वा� हो �ा�ा है। शे्व�ाश्व�रोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 शे्व�ाश्व�रोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 दूसरा अध्याय 4 �ीसरा व ौ0ा अध्याय 5 पां वां व छठा अध्याय 6 निवद्या - अनिवद्या 6.1 वह सव:ज्ञ है। 7 सम्बंयिध� लिलंक

कृष्ण य�ुव�द शाखा के इस उपनि�षद में छह अध्याय हैं। इ�में �ग� का मूल कारण, ॐकार-साध�ा, परमा�म��व से साक्षा�कार, ध्या�योग, योग-साध�ा, �ग� की उ�पत्तिG, सं ाल� और निवलय का कारण, निवद्या-अनिवद्या, �ीव की �ा�ा योनि�यों से मुचिQ के उपाय, ज्ञा�योग और परमा�मा की सव:व्यापक�ा का वण:� निकया गया है। [संपादिद� करें] प्र0म अध्यायइस अध्याय में �ग� के मूल कारण को �ा��े के प्रनि� जि�ज्ञासा अत्तिभव्यQ की गयी है। सा0 ही 'ॐकार' की साध�ा द्वारा 'परमा�म�त्त्व' से साक्षा�कार निकया गया है। काल, स्वभाव, सुनि�त्तिश्च� कम:फल, आकब्धिस्मक घट�ा, पं महाभू� और �ीवा�मा, ये इस �ग� के कारणभू� �त्त्व हैं या �हीं, इ� पर निव ार निकया गया है। ये सभी इस �ग� के कारण इसचिलए �हीं हो सक�े; क्योंनिक ये सभी आ�मा के अधी� हैं। आ�मा को भी कारण �हीं कहा �ा सक�ा; क्योंनिक वह सभी सुख-दु:ख के कारणभू� कम:फल-व्यवस्था के अधी� है। केवल बौजिद्धक निववे � से 'ब्रह्म' को बोध सम्भव �हीं है। ध्या� के अन्�ग:� आ�म े�� द्वारा ही गुणों के आवरण को भेदकर उस परम�त्त्व का अ�ुभव निकया �ा सक�ा है। सम्पूण: निवश्व-व्यवस्था एक प्रकृनि�- क्र के मध्य घूम�ी दिदखाई दे�ी है, जि�समें स�व, र�, �म गुणों के �ी� वृG हैं, पाप-पुण्य दो कम: हैं, �ो मोह-रूपी �ात्तिभ को केन्द्र मा�कर घूम�े रह�े हैं। इस ब्रह्म न्द्र' में �ीव भ्रमण कर�ा रह�ा है। इस क्र से छूट�े पर ही वह 'मोक्ष' को प्राप्� कर पा�ा है। उस परमा�मा को �ा� ले�े पर ही इस क्र से मुचिQ यिमल �ा�ी है। वह 'परम�त्त्व' प्र�येक �ीव में च्छिस्थ� है। म�ुष्य अप�े निववेक से ही उसे �ा� पा�ा है। वह �ीव और �ड़ प्रकृनि� के परे परमा�मा है, ब्रह्म है।'ओंकार' की साध�ा से �ीवा�मा, परमा�मा से संयोग कर पा�ा है। जि�स प्रकार नि�लों में �ेल, दही में घी, काष्ठ में अग्निग्�, स्त्रो� में �ल चिछपा रह�ा है, उसी प्रकार परमा�मा अन्�:करण में चिछपा रह�ा है। 'आ�मा' में ही 'परम�त्त्व' निवद्यमा� रह�ा है। [संपादिद� करें] दूसरा अध्यायइस अध्याय में 'ध्या�योग' द्वारा साध�ा पर बल दिदया गया है। योग-साध�ा और 'प्राणायाम' निवयिध द्वारा '�ीवा�मा' और 'परमा�मा' को संयोग हो�ा है। इस संयोगावस्था को प्राप्� कर�े के चिलए साधक सूय: की उपास�ा कर�े हुए 'ध्या�योग' का सहारा ले�ा है। वह स्व� स्था� पर बैठकर प्राणायाम निवयिध से अप�ी आ�मा को �ाग्र� कर�ा है और उसे 'ब्रह्मरन्ध्र' में च्छिस्थ� ब्रह्म-शचिQ �क उठा�ा है। इजिन्द्रयों की समस्� सुखाकांक्षाए ंअन्�:करण में ही �न्म ले�ी हैं। उन्हें नि�यन्तिन्त्र� करके ही 'ओंकार' की साध�ा कर�ी ानिहए। जि�स प्रकार सारचि0 पल अश्वों को अ�ी प्रकार साधकर उन्हें लक्ष्य की ओर ले �ा�ा है, उसी प्रकार निवद्वा� पुरुष इस 'म�' को वश में करके 'आ�म�त्त्व' का सन्धा� करे। �ो साधक, पं महाभू�ों से युQ गुणों का निवकास करके 'योगाग्निग्�मय' शरीर को धारण कर ले�ा है, उसे � �ो रोग स�ा�ा है, � उसे वृद्धावस्था प्राप्� हो�ी है। उसे अकालमृ�यु भी प्राप्� �हीं हो�ी। योग-साध�ा से युQ साधक आ�म�त्त्व के द्वारा ब्रह्म�त्त्व का साक्षा�कार कर�ा है। �ब वह समू्पण: �त्त्वों में पनिवत्र उस परमा�मा को �ा�कर सभी प्रकार के निवकारों से मुचिQ प्राप्� कर ले�ा है। [संपादिद� करें] �ीसरा व ौ0ा अध्याय�ीसरे और ौ0े अध्याय में �ग� की उ�पत्तिG, च्छिस्थनि�, सं ाल� और निवलय में सम0: परमा�मा की शचिQ की सव:व्यापक�ा को वर्णिणं� निकया गया है। उसे �ौ द्वार वाली पुरी में, इजिन्द्रयनिवही� हो�े हुए भी सब प्रकार से सम0:, लघु से लघु और महा� से भी महा� कहा गया है। '�ीवा�मा' और 'परमा�मा' की च्छिस्थनि� को एक ही डाल पर बैठे दो पत्तिक्षयों के समा� ब�ाया गया है, �ो मायावी ब्रह्म के मुचिQ-फल को अप�े-अप�े ढंग से खा�े हैं। सम्पूण: शचिQयों और लोकों पर शास� कर�े वाले उस मायावी ब्रह्म को, �ो �ा� ले�ा है और उसे सृयिष्ट का नि�यामक समझ�ा है, वह अमर हो �ा�ा है।

वह एक परमा�मा ही 'रुद्र' है, 'चिशव' है। वह अप�ी शचिQयों द्वारा सम्पूण: ब्रह्माण्ड पर शास� कर�ा है। सभी प्राणी उसी का आश्रय ले�े हैं। और वह सभी प्रात्तिणयों में प्राण-सGा के रूप में निवद्यमा� है। वह पं महाभू�ों द्वारा इस सृयिष्ट का नि�मा:णक�ा: है। उससे शे्रष्ठ दूसरा कोई �हीं है। समू्पण: निवश्व उसी परमपुरुष में च्छिस्थ� है और वह स्वयं समस्� प्रात्तिणयों में च्छिस्थ� है। वह परमपुरुष समस्� इजिन्द्रयों से रनिह� हो�े पर भी, उ�के निवशेष गुणों से परिरचि � है। वह प्रकाश-रूप में �वद्वार वाले देह-रूपी �गर में अन्�या:मी होकर च्छिस्थ� है। वही बाह्य �ग� की सू्थल लीलाए ंकर रहा है। वह आ�म-रूप �ीव, देह के हृदयस्थल पर निवरा�मा� है। ऋनिष उस परमनिप�ा को अग्निग्�, सूय:, वायु, न्द्रमा और शुक्र �क्षत्र के रूप में �ा��ा है। सृयिष्ट के प्रारम्भ में वह अकेला ही 0ा, रंग-रूप से ही� 0ा। वह अकारण ही अप�ी शचिQयों द्वारा अ�ेक रूप धारण कर सक�ा है। समू्पण: निवश्व का ��क भी वही है और उसका निवलय भी वह अप�ी इ�ा से कर ले�ा है। वह स्वयं 'दृश्य' होकर भी 'दृष्टा' है। वह 'आ�मा' है और परमा�मा भी है। दो�ों का परस्पर घनि�ष्ट सम्बन्ध है। उसे इस उदाहरण द्वारा समजिझये-द्वा सुपणा: सयु�ा सखाया समा�ं वृक्षं परिरषस्व�ा�े। �योर��य: निपप्पलं स्वाद्वत्त्य�श्रन्नन्योऽत्तिभ ाकशीनि�॥-( �ु0: अध्याय 6)अ0ा:� संयुQ रूप और मैत्री-भाव से रह�े वाले दो पक्षी-'�ीवा�मा' और 'परमा�मा'- एक ही वृक्ष का आश्रय चिलये हुए हैं। उ�में से एक �ीवा�मा �ो उस वृक्ष के फलों, अ0ा:� कम:फलों को स्वाद ले लेकर खा�ा है, निकन्�ु दूसरा उ�का उपभोग � कर�ा हुआ केवल देख�ा रह�ा है। राग-दे्वष, मोह-माया से युQ होकर �ीवा�मा सदैव शोकग्रस्� रह�ा है, निकन्�ु दूसरा सभी सन्�ापों से मुQ रह�ा है। यह प्रकृनि� उस मायापनि� परमा�मा की ही 'माया' है। वह अकेला ही समस्� शरीरों का स्वामी है �0ा �ीव को उ�के कम- के अ�ुसार ौरासी लाख योनि�यों में भटका�ा रह�ा है। प्र�येक काल में वही समस्� लोकों का रक्षक है, सम्पूण: �ग� का स्वामी है और सभी प्रात्तिणयों में च्छिस्थ� है। उस परम पुरुष को �ा�कर साधक अप�े कम:-बन्ध�ों से छूट �ा�ा है। [संपादिद� करें] पां वां व छठा अध्यायइ� दो�ों अध्यायों में निवद्या-अनिवद्या, परमा�मा की निवलक्षण�ा, �ीव की कमा:�ुसार निवनिवध गनि�यों औ उ�की मुचिQ के उपाय ब�ाये गये हैं। यहाँ �ड़ प्रकृनि� के स्था� पर परमा�म�त्त्व की स्थाप�ा की गयी है �0ा ध्या�, उपास�ा और ज्ञा�योग द्वारा परमा�मा की सव:व्यापक�ा और सामथ्य: को �ा��े पर बल दिदया गया है। अन्� में कहा गया है निक ब्रह्म ज्ञा� की चिशक्षा सुपात्र और योग्य व्यचिQ को ही दे�ी ानिहए। [संपादिद� करें] निवद्या-अनिवद्या�श्वर �ग� का ज्ञा� 'अनिवद्या' है और अनिव�ाशी �ीवा�मा का ज्ञा� 'निवद्या' है। �ो निवद्या और अनिवद्या पर शास� कर�ा है, वही परमसGा है। वह समस्� योनि�यों का अयिधष्ठा�ा है। निवद्या-अनिवद्या से परे वह परम�त्त्व है। वह सम्पूण: �ग� का कारण है। वह 'परब्रह्म' है। वह जि�स शरीर को भी ग्रहण कर�ा है, उसी के अ�ुरूप हो �ा�ा है। [संपादिद� करें] वह सव:ज्ञ है।जि�सके द्वारा यह समस्� �ग� सदैव व्याप्� रह�ा है, �ो ज्ञा�-स्वरूप, सव:ज्ञ, सव:व्यापक, काल का भी काल और सव:गुणसम्पन्न अनिव�ाशी है, जि�सके अ�ुशास� में यह समू्पण: कम: क्र स�� घूम�ा रह�ा है, सभी पं �त्त्व जि�सके संके� पर निक्रयाशील रह�े हैं, उसी परब्रह्म परमा�मा का सदैव ध्या� कर�ा ानिहए। �ो साधक �ी�ों गुणों से व्याप्� कम- को प्रारम्भ करके उन्हें परमा�मा को अर्तिपं� कर दे�ा है, उसके पूव:कम- का �ाश हो �ा�ा है और वह �ीवा�मा �ड़ �ग� से त्तिभन्न, उस परमसGा को प्राप्� हो �ा�ा है। उस नि�राकार परमेश्वर के कोई शरीर और इजिन्द्रयां �हीं हैं। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म�र और निवशाल से भी निवशाल है। वह सब प्रात्तिणयों में अकेला है-एको देव: सव:भू�ेषु गूढ: सव:व्यापी सव:भू�ान्�रा�मा।कमा:ध्यक्ष सव:भू�ायिधवास: साक्षी े�ा केवली नि�गु:णश्च॥ -(छठा अध्याय-11)अ0ा:� सम्पूण: प्रात्तिणयों में वह एक देव (परमा�मा) च्छिस्थ� है। वह सव:व्यापक, सम्पूण: प्रात्तिणयों की अन्�रा�मा, सबके कम- का अधीश्वर, सब प्रात्तिणयों में बसा हुआ (अ�ं:करण में निवद्यमा�), सबका साक्षी, पूण: ै�न्य, निवशुद्ध रूप और नि�गु:ण रूप है। वस्�ु�: इस लोक में एक ही हंस है, �ो �ल में अग्निग्� के समा� अगो र है। उसे �ा�कर साधक मृ�यु के बन्ध� से छूट �ा�ा है। ऐसे परमा�मा का ज्ञा� केवल योग्य साधक को ही दे�ा ानिहए। कचिलसन्�रणोपनि�षदकृष्ण य�ुव�द से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में 'य0ा �ाम �0ा गुण' की उचिQ को रिर�ा0: कर�े हुए 'कचिलयुग' के दुष्प्रभाव से मुQ हो �ा�े का अनि� सुगम उपाय ब�ाया गया है। इसमें 'हरिर �ाम' की मनिहमा का ही वण:� है। इसीचिलए इसे 'हरिर�ामोपनि�षद' भी कहा �ा�ा है। इसमें कुल �ी� मन्त्र हैं। �ारद और ब्रह्मा �ी के संवाद-रूप में में इस उपनि�षद की र �ा हुई है। इसमें ब�ाया गया है निक आ�मा के ऊपर �ो आवरण पड़ा हुआ है, उसे भेद�े के चिलए सुगम उपाय भगवा� के �ाम का स्मरण है। जि�स प्रकार मेघा�न्न सूय:, वायु के द्वारा मेघों को हटा�े पर मुQ आकाश में मक�े लग�ा है, वैसे ही भगवा� �ाम के की�:� से 'ब्रह्म' का दश:� सम्भव हो �ा�ा है। ब्रह्मा �ी �े कहा- हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।ये सोलह �ाम �प�े से कचिलकाल के महा� पापों का �ाश हो �ा�ा है। शुद्ध-अशुद्ध, हर च्छिस्थनि� में इस मन्त्र-�ाम का स�� �प कर�े वाला भQ, सभी �रह के बन्ध�ों से मुचिQ प्राप्� कर ले�ा है और 'मोक्ष' को प्राप्� हो�ा है।

ाकु्षषोनि�षदकृष्ण य�ुव�दीय इस उपनि�षद में कु्ष रोगों को दूर कर�े की सामथ्य: का वण:� निकया गया है। इ� रोगों को दूर कर�े के चिलए सूय:देव से प्रा0:�ा की गयी है। प्रा0:�ा में कहा गया है निक सूय:देव अज्ञा�-रूपी अन्धकार के बन्ध�ों से मुQ करके प्रात्तिण �ग� को दिदव्य �े� प्रदा� करें। इसमें �ी� मन्त्र हैं। इस क्षु निवद्या के मन्त्र-दृष्टा ऋनिष अनिहबु:ध्न्य हैं। इसे गायत्री छन्द में चिलखा गया है। �ेत्रों की शुद्ध और नि�म:ल ज्योनि� के चिलए यह उपास�ा कारगर है। ऋनिष उपास�ा कर�े हैं-'हे कु्ष के देव�ा सूय:देव! आप हमारी आंखों में �े�ोमय रूप से प्रनि�यिष्ठ� हो �ायें। आप हमारे �ेत्र रोगों को शीघ्र शान्� करें। हमें अप�े दिदव्य स्वण:मय प्रकाश का दश:� करायें। हे �े�स्वरूप भगवा� सूय:देव! हम आपको �म� कर�े हैं। आप हमें अस� से स�य की ओर ले लें। आप हमें अज्ञा�-रूपी अन्धकार से ज्ञा�-रूपी प्रकाश की ओर गम� करायें। मृ�यु से अमृत्त्व की ओर ले लें। आपके �े� की �ुल�ा कर�े वाला कोई अन्य �हीं है। आप सच्छिच्चदा�न्द स्वरूप है। हम आपको बार-बार �म� कर�े हैं। निवश्व-रूप आपके सदृश भगवा� निवष्णु को �म� कर�े हैं।'

SAMAVED KE UPANISHADआरूत्तिणकोपनि�षदसामवेदीय आरूत्तिणकोपनि�षद में ऋनिष आरूत्तिण की वैराग्य सम्बन्धी जि�ज्ञासा के उGर में ब्रह्मा �ी �े संन्यास ग्रहण कर�े के नि�यम आदिद के निवषय में प्रकाश डाला है। संन्यासी-�ीव�संन्यासी-�ीव� कोई भी ब्रह्म ारी, गृहस्थ और वा�प्रस्थी अप�ा सक�ा है। इस उपनि�षद में संन्यासी के चिलए यज्ञोपवी� �0ा यज्ञादिद कम:काण्डों के प्र�ीकों के �याग को बडे़ ही मार्मिमंक ढंग से समझाया गया है। ब्रह्मा �ी का कह�ा है निक संन्यासी यज्ञ का �याग �हीं कर�ा, वह स्वयं ही यज्ञ-रूप हो �ा�ा है। वह ब्रह्मसूत्र का �याग �हीं कर�ा, उसका �ीव� स्व�: ही ब्रह्मसूत्र ब� �ा�ा है। वह मन्त्रों का �याग �हीं कर�ा, उसकी वाणी ही मन्त्र ब� �ा�ी है। ऐसे महत्त्वपूण: सूत्रों को धारण कर�े के कारण ही उसका �ीव� संन्यासी का हो �ा�ा है। संन्यासी वही है, �ो सम्यक रूप से यज्ञ, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवी�) और वाणी को लोकनिह� की दृयिष्ट से धारण कर�ा है। संन्यासी परमा�मा से प्रा0:�ा कर�ा है निक उसके समस्� अवयव-वाणी, प्राण, �ेत्र, का�, बल- समस्� इजिन्द्रयां निवकचिस� हों और वृजिद्ध प्राप्� करें। वह कभी 'ब्रह्म' का �याग � करे और � ब्रह्म ही उसका �याग करे। एक बार प्र�ापनि� की उपास�ा कर�े वाले अरुण के पुत्र आरूत्तिण �े ब्रह्मलोक में ब्रह्मा�ी से पूछा-'हे भगव�! मैं सभी कम- का निकस प्रकार परिर�याग कर सक�ा हूँ?' �ब ब्रह्मा�ी �े उGर दिदया-'हे पुत्र! संन्यासी-�ीव� ग्रहण कर अप�े सभी स्व��, बन्धु-बान्धव, यज्ञोपवी�, यज्ञ, चिशखा, स्वाध्याय �0ा समस्� ब्रह्माण्ड का परिर�याग निकया �ा सक�ा है। उसे मात्र एक लंगोटी (कौपी�), एक दण्ड और कमण्डलु धारण कर�ा ानिहए। हे आरूत्तिण! संन्यास ग्रहण कर�े के उपरान्� ब्रह्म य:, अपिहंसा, अपरिरग्रह और स�य का नि�ष्ठापूव:क पाल� कर�ा ानिहए। उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, हष:, शोक, दम्भ, ईष्या:, इ�ा, परनि�न्दा, मम�ा आदिद का पूण:�: �याग कर दे�ा ानिहए। उसे 'ॐ' का �ी� बार उच्चारण करके ही त्तिभक्षा हे�ु ग्राम अ0वा �गर में प्रवेश कर�ा ानिहए। �ो संन्यासी नि�ष्काम भाव से साध�ा में स�� लगा रह�ा है, वही उस परमधाम को प्राप्� कर पा�ा है।' के�ोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 के�ोपनि�षद 2 प्र0म खण्ड 3 दूसरा खण्ड 4 �ीसरा खण्ड 5 ौ0ा खण्ड 6 टीका दिटप्पणी और संदभ: 7 सम्बंयिध� लिलंक

सामवेदीय '�लवकार ब्राह्मण' के �ौवें अध्याय में इस उपनि�षद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूण: उपनि�षद है। इसमें 'के�' (निकसके द्वारा) का निववे � हो�े से इसे 'के�ोपनि�षद' कहा गया है। इसके ार खण्ड हैं। प्र0म और निद्व�ीय खण्ड में गुरु-चिशष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (के�) पे्ररक सGा की निवशेष�ाओं, उसकी गूढ़ अ�ुभूनि�यों आदिद पर प्रकाश डाला गया है। �ीसरे और ौ0े खण्ड में देव�ाओं में अत्तिभमा� �0ा उसके मा�-मद:� के चिलए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी- े��ा के प्रकट हो�े का उपाख्या� है। अन्� में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के चिलए 'ब्रह्म�त्त्व' का उल्लेख निकया गया है �0ा ब्रह्म की उपास�ा का ढंग समझाया गया है। म�ुष्य को 'श्रेय' माग: की ओर पे्ररिर� कर�ा, इस उपनि�षद का लक्ष्य हैं। प्र0म खण्ड

वह कौ� है? इस खण्ड में 'ब्रह्म- े��ा' के प्रनि� चिशष्य अप�े गुरु के सम्मुख अप�ी जि�ज्ञासा प्रकट कर�ा है। वह अप�े मुख से प्रश्न कर�ा है निक वह कौ� है, �ो हमें परमा�मा के निवनिवध रहस्यों को �ा��े के चिलए पे्ररिर� कर�ा है? ज्ञा�-निवज्ञा� �0ा हमारी आ�मा का सं ाल� कर�े वाला वह कौ� है? वह कौ� है, �ो हमारी वाणी में, का�ों में और �ेत्रों में नि�वास कर�ा है और हमें बोल�े, सु��े �0ा देख�े की शचिQ प्रदा� कर�ा है?[1] चिशष्य के प्रश्नो का उGर दे�े हुए गुरु ब�ा�ा है निक �ो साधक म�, प्राण, वाणी, आंख, का� आदिद में े��ा-शचिQ भर�े वाले 'ब्रह्म' को �ा� ले�ा है, वह �ीवन्मुQ होकर अमर हो �ा�ा है �0ा आवागम� के क्र से छूट �ा�ा है। वह महा� े���त्त्व (ब्रह्म) वाक् का भी वाक् है, प्राण-शचिQ का भी प्राण है, वह हमारे �ीव� का आधार है, वह कु्ष का भी कु्ष है, वह सव:शचिQमा� है और श्रवण-शचिQ का भी मूल आधार है। हमारा म� उसी की महGा से म�� कर पा�ा है। उसे ही 'ब्रह्म' समझ�ा ानिहए। उसे आंखों से और का�ों से � �ो देखा �ा सक�ा है, � सु�ा �ा सक�ा है। दूसरा खण्डवह सव:ज्ञ है इस खण्ड में 'ब्रह्म' की अज्ञेय�ा और मा�व-�ीव� के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। गुरु चिशष्य को ब�ा�ा है निक �ो असीम और अ�न्� है, उसे वह भली प्रकार से �ा��ा है या वह उसे �ा� गया है, ऐसा �हीं है। उसे पूण: रूप से �ा� पा�ा असम्भव है। हम उसे �ा��े हैं या �हीं �ा��े हैं, ये दो�ों ही क0� अपूण: हैं। अहंकारनिवही� व्यचिQ का वह बोध, जि�सके द्वारा वह ज्ञा� प्राप्� कर�ा है, उसी से वह अमृ�-स्वरूप 'परब्रह्म' को अ�ुभव कर पा�ा है। जि�स�े अप�े �ीव� में ऐसा ज्ञा� प्राप्� कर चिलया, उसे ही परब्रह्म का अ�ुभव हो पा�ा है। निकसी अन्य योनि� में �न्म लेकर वह ऐसा �हीं कर पा�ा। अन्य समस्� योनि�यां, कम:-भोग की योनि�यां हैं। मा�व-�ीव� में ही बुजिद्धमा� पुरुष प्र�येक वाणी, प्र�येक �त्त्व �0ा प्र�येक �ीव में उस परमा�मसGा को व्याप्� �ा�कर इस लोक में �ा�ा है और अमर�व को प्राप्� कर�ा है। �ीसरा खण्डवह अहंकार से परे है �ीसरे खण्ड में देव�ाओं के अहंकार का मद:� निकया गया है। एक बार उस ब्रह्म �े देव�ाओं को माध्यम ब�ाकर असुरों पर निव�य प्राप्� की। इस निव�य से देव�ाओं को अत्तिभमा� हो गया निक असुरों पर निव�य प्राप्� कर�े वाले वे स्वयं हैं। इसमें 'ब्रह्म' �े क्या निकया? �ब ब्रह्म �े उ� देव�ाओं के अहंकार को �ा�कर उ�के सम्मुख यक्ष के रूप में अप�े को प्रकट निकया। �ब देव�ाओं �े �ा��ा ाहा निक वह यक्ष कौ� है? सबसे पहले अग्निग्�देव �े �ाकर यक्ष से उसका परिर य पूछा। यक्ष �े अग्निग्�देव से उ�का परिर य पूछा-'आप कौ� हैं? अग्निग्�देव �े उGर दिदया निक वह अग्निग्� है और लोग उसे �ा�वेदा कह�े हैं। वह ाहे, �ो इस पृथ्वी पर �ो कुछ भी है, उसे भस्म कर सक�ा है, �ला सक�ा है। �ब यक्ष �े एक नि��का अग्निग्�देव के सम्मुख रखकर कहा-'आप इसे �ला दीजि�ये।' अग्निग्�देव �े बहु� प्रय�� निकया, पर वे उस नि��के को �ला �हीं सके। हारकर उन्हों�े अन्य देवों के पास लौटकर कहा निक वे उस यक्ष को �हीं �ा� सके। उसके बाद वायु देव �े �ाकर अप�ा परिर य दिदया और अप�ी शचिQ का बढ़- ढ़कर बखा� निकया। इस पर यक्ष �े वायु से कहा निक वे इस नि��के को उड़ा दें, परन्�ु अप�ी सारी शचिQ लगा�े पर भी वायुदेव उस नि��के को उड़ा �हीं सके। �ब वायुदेव �े इन्द्र के समक्ष लौटकर कहा निक वे उस यक्ष को समझ�े में असम0: रहे। उन्हों�े इन्द्र से प�ा लगा�े के चिलए कहा। इन्द्र �े यक्ष का प�ा लगा�े के चिलए �ीव्रगनि� से यक्ष की ओर प्रयाण निकया, परन्�ु उसके वहां पहुं �े से पहले ही यक्ष अन्�धा:� हो गया। �ब इन्द्र �े भगव�ी उमा से यक्ष के बारे में प्रश्न निकया निक यह यक्ष कौ� 0ा? ौ0ा खण्डवही ब्रह्म है इन्द्र के प्रश्न को सु�कर उमादेवी �े कहा-'हे देवरा�! समस्� देवों में अग्निग्�, वायु और स्वयं आप शे्रष्ठ मा�े �ा�े हैं; क्योंनिक ब्रह्म को शचिQ-रूप में इन्हीं �ी� देवों �े सव:प्र0म समझा 0ा और ब्रह्म का साक्षा�कार निकया 0ा। यह यक्ष वही ब्रह्म 0ा। ब्रह्म की निव�य ही समस्� देवों की निव�य है।'[2] इन्द्र के सम्मुख यक्ष का अन्�धा:� हो�ा, ब्रह्म की उपच्छिस्थनि� का संके�- निब�ली के मक�े और झपक�े- �ैसा है। इसे सूक्ष्म दैनिवक संके� समझ�ा ानिहए। म� �ब 'ब्रह्म' के नि�कट हो�े का संकल्प करके ब्रह्म-प्रान्तिप्� का अ�ुभव कर�ा हुआ-सा प्र�ी� हो, �ब वह ब्रह्म की उपच्छिस्थनि� का सूक्ष्म संके� हो�ा है। �ो व्यचिQ ब्रह्म के 'रस-स्वरूप' का बोध कर�ा है, उसे ही आ�म�त्त्व की प्रान्तिप्� हो पा�ी है। �पस्या, म� और इजिन्द्रयों का नि�यन्त्रण �0ा आसचिQ-रनिह� श्रेष्ठ कम:, ये ब्रह्मनिवद्या-प्रान्तिप्� के आधार हैं। वेदों में इस निवद्या का सनिवस्�ार वण:� है। इस ब्रह्मनिवद्या को �ा��े वाला साधक अप�े समस्� पापों को �ष्ट हुआ मा�कर उस अनिव�ाशी, असीम और परमधाम को प्राप्� कर ले�ा है।

�ब इन्द्र को यक्ष के �ान्ति�वक स्वरूप का बोध हुआ और उन्हों�े अप�े अहंकार का �याग निकया। अन्� में ब्रह्मवेGा जि�ज्ञासु चिशष्यों को ब�ा�ा है निक इस उपनि�षद द्वारा �ुम्हें ब्रह्म-प्रान्तिप्� का माग: दिदखाया गया है। इस पर लकर �ुम ब्रह्म के नि�कट पहुं सक�े हो। �ाबालदश:�ोपनि�षदअष्टांग योग का निववे �इस सामवेदीय उपनि�षद में भगवा� निवष्णु के अव�ार दGाते्रय �ी और उ�के चिशष्य सांकृनि� का 'अष्टांगयोग' के निवषय में निवस्�ृ� निववे � प्रश्नोGर-रूप् में निववे � निकया गया है। इसमें कुल दस खण्ड हैं। इस उपनि�षद को 'योगपरक' कहा �ा सक�ा है। प्र0म खण्ड में योग के आठों अंगों का निववे � है। ये आठ अंग हैं- यम, नि�यम, आस�, प्राणायाम, प्र�याहार, धारणा, ध्या� �0ा समायिध हैं। इ�में यम के दस भेद हैं- अपिहंसा, स�य, अस्�ेय, ब्रह्म य:, दया, क्षमा, सरल�ा, धृनि�, यिम�ाहार और ब्राह्याभ्यन्�र की पनिवत्र�ा। इ�के पाल� के निब�ा 'योग' कर�ा व्य0: है। दूसरे खण्ड में दस नि�यमों का निवस्�ार से वण:� निकया गया है। ये दस नि�यम हैं- �प, सन्�ोष, आब्धिस्�क�ा, दा�, ईश्वर की पू�ा, लज्जा, �प, मनि�, व्र� और चिसद्धान्�ों का श्रवण कर�ा। �ीसरे खण्ड में �ौ प्रकार के यौनिगक आस�ों का उल्लेख है। ये आस� हैं- स्वाब्धिस्�क, गोमुख, पद्मास�, वीरास�, लिसंहास�, मुQास�, भद्रास�, मयूरास� और सुखास�।

ौ0े खण्ड में �ानिड़यों का परिर य �0ा आ�म�ी0: और 'आ�मज्ञा�' की मनिहमा का वण:� निकया गया है। इस मा�व-शरीर में बहGर हज़ार �ानिड़यां हैं। उ�में 'सुषुम्�ा,' 'पिपंगला,' 'इड़ा,' 'सरस्व�ी,' 'वरुणा,' 'पूषा,' 'यशब्धिस्व�ी,' 'हब्धिस्�जि�ह्वा,' 'अलम्बुषा,' 'कुहू,' 'निवश्वोदरा,' 'पयब्धिस्व�ी,' 'शंग्निख�ी' औ 'गान्धारी', ये ौदह �ानिड़यां प्रमुख मा�ी गयी हैं। इ�में भी प्र0म �ी� अ�यन्� प्रमुख हैं। पां वें खण्ड में '�ाड़ी-शोध�' �0ा 'आ�म-शोध�' का प्रनिक्रया और निवयिधयों का उल्लेख निकया गया है। छठे खण्ड में 'प्राणायाम' की निवयिध, उसके प्रकार, फल �0ा प्रयोग का वण:� है। इसमें 'पूरक,' 'कुम्भक' और 'रे क' द्वारा प्राणों का संयम पूण: निकया �ा�ा है। सा�वें खण्ड में 'प्र�याहार' के निवनिवध प्रकारों �0ा उसके फल का निववरण है। म�ुष्य को �ो कुछ भी दिदखाई दे�ा है, वह सब ब्रह्म ही है। इस प्रकार समझ�े हुए ब्रह्म को चि G में एकाग्र कर ले�ा प्र�याहार कहला�ा है। आठवें खण्ड में 'धारणा' का वण:� है। अन्�: आकाश में बाह्य आकाश को धारण कर�ा। �वें खण्ड में 'ध्या�' का वण:� है। ऋ� एवं स�य-स्वरूप अनिव�ाशी 'परब्रह्म' को अप�ी आ�मा के रूप में आदूरपूव:क ध्या� में ला�ा। दसवें खण्ड में 'समायिध' अवस्था का वण:� निकया गया है। परमा�मा' �0ा '�ीवा�मा' के एकाकी भाव को बुजिद्ध द्वारा समझ�ा समायिध कहला�ा है। समायिध में पहुं ा हुआ पुरुष परमा�मा से एक�व प्राप्� करके निकसी भी �ीव अ0वा प्राणी को अप�े से अलग �हीं देख�ा। वह सम्पूण: निवश्व को माया का निवलास मात्र मा��ा है और परमा�मा में ली� होकर परमा�न्द को प्राप्� हो �ा�ा है। छान्दोग्य उपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 छान्दोग्य उपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 निद्व�ीय अध्याय 4 �ृ�ीय अध्याय 4.1 �ेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड �क 5 �ु0: अध्याय 6 पं म अध्याय 7 षष्ठ अध्याय 8 सा�वां अध्याय 9 अष्टाम अध्याय 10 सम्बंयिध� लिलंक

सामवेद की �लवकार शाखा में इस उपनि�षद को मान्य�ा प्राप्� है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिन्�म आठ अध्याय ही इस उपनि�षद में चिलये गये हैं। यह उपनि�षद पया:प्� बड़ा है। �ाम के अ�ुसार इस उपनि�षद का आधार 'छन्द' है, इसका यहाँ व्यापक अ0: के रूप में प्रयोग निकया गया है। इसे यहाँ 'आ�ादिद� कर�े वाला' मा�ा गया है। सानिहन्ति�यक कनिव की भांनि� ऋनिष भी मूल स�य को निवनिवध माध्यमों से अत्तिभव्यQ कर�ा है। वह प्रकृनि� के मध्य उस परमसGा के दश:� कर�ा है। इसमें ॐकार ('ॐ') को सव�Gम रस मा�ा गया है। प्र0म अध्यायप्र0म अध्याय में �ेरह खण्ड हैं। इ�में 'साम' के सार रूप 'ॐकार' की व्याख्या की गयी है �0ा 'ॐकार' की अध्यात्मि�मक, आयिधदैनिवक उपास�ाओं को समझा�े हुए निवत्तिभन्न स्वरूपों को स्पष्ट निकया है।पहला खण्डॐकार सव�Gम रस है। सव:प्र0म उद्गा�ा 'ॐ' का उच्चारण करके सामगा� कर�ा है। वह ब�ा�ा है निक समस्� प्रात्तिणयों और पदा0- का रस अ0वा सार पृचि0वी है। पृथ्वी का सार �ल है, �ल का रस औषयिधयां हैं, औषयिधयों का रस पुरुष है, पुरुष का रस वाणी है, वाणी का रस साम है और साम का रस उद्गी0 'ॐकार' है। यह ओंकार सभी रसों में सव�Gम रस है। यह परमा�मा का प्र�ीक हो�े के कारण 'उपास्य' है। जि�स प्रकार स्त्री-पुरुष के यिमल� से एक-दूसरे की काम�ाओं की पूर्ति�ं हो�ी है, उसी प्रकार इस वाणी, प्राण और ऋ ा �0ा साम (गाय�) के संयोग से 'ॐकार' का सृ�� हो�ा है। 'ॐकार' अ�ुभूनि�-�न्य है, जि�से अक्षरों के गाय� से अ�ुभव निकया �ा�ा है। यह अक्षरब्रह्म की ही व्याख्या है। दूसरा खण्डदेवासुर संग्राम के समय देव परस्पर निव ार करके उद्गी0 'ॐकार' की उपास�ा कर�े हैं और असुरों के पराभव की प्रा0:�ा कर�े हैं। आसुरी शचिQ से ब �े के चिलए ॐकार साध�ा का निवधा� ब�ाया गया है। देवों की वाणी, उ�के देख�े व सु��े की शचिQ, म� की एकाग्र�ा, प्राण-शचिQ और अन्य ऋनिषयों की उपास�ा को असुर �ष्ट कर डाल�े हैं। वे बार-बार ॐकार की उपास�ा में निवर्घ्य� डाल�े रह�े हैं।

�ीसरा खण्डइस खण्ड में आयिधदैनिवक रूप से ॐकार की उपास�ा की �ा�ी है; क्योंनिक मधुर उद्गा� प्राणी में प्राणों को सं ार कर�ा है। इस प्रकार वह अन्धकार और सभी प्रकार के भय से प्राणी को मुQ कर�े की ेष्टा कर�ा है। प्राण और सूय: को वह समा� मा��ा है। अ�: इस प्राण और उस सूय: में ही ॐकार को मा�कर उपास�ा कर�ी ानिहए। उद्गा�ा जि�स 'साम' के द्वारा उद्गी0 की उपास�ा करे, सदा उसी का चि न्�� भी करे। जि�स छन्द के द्वारा स्�ुनि� कर�ा हो, उस छन्द का चि न्�� करे। जि�� स्�ोत्रों से स्�ुनि� कर�ा हो, उस स्�ोत्रों का चि न्�� करे। जि�स दिदशा का चि न्�� कर�ा हो, उस दिदशा का चि न्�� करे। इस प्रकार अन्� में अप�े आ�म-स्वरूप और काम�ा आदिद का चि न्�� प्रमाद-रनिह� होकर करे। �भी उसे अभीष्ट फल की प्रान्तिप्� हो�ी है। ौ0ा खण्डइस खण्ड में 'ॐ' को ही उद्गी0 मा�ा है और उसी की उपास�ा कर�े की बा� कही है। यद्यनिप 'ॐ' एक स्वर है, �0ानिप यह अक्षर, अमृ� और अभय-रूप ब्रह्म का प्र�ीक है। समस्� देवगण और उपासक इस एक अक्षर-ब्रह्म 'ॐकार' में प्रनिवष्ट होकर अमर�व और अभय को प्राप्� कर�े हैं। पां वां खण्डइस खण्ड में 'उद्गी0' और 'प्रणव' ॐ को एक रूप ही मा�ा गया है। सूय: ही उद्गी0 है, प्रणव है। यह स�� गनि�शील रहकर 'ॐ' का उच्चारण कर�ा रह�ा है। आगे कहा गया है निक मुख्य प्राण के रूप में ही उद्गी0 की उपास�ा कर�ी ानिहए।छठा खण्डइस खण्ड में पृथ्वी को 'ऋक् और अग्निग्� को 'साम' कहा गया है। यह अग्निग्�-रूप साम, पृथ्वी-रूप ऋक् में प्रनि�यिष्ठ� है। अ�: ऋ ा में इसी अयिधयिष्ठ� साम का गाय� निकया �ा�ा है। पृथ्वी को 'सा' और अग्निग्� को 'अम' मा�कर दो�ों के यिमल� से 'साम' ब��ा है। ऋनिष आगे कह�े हैं निक अन्�रिरक्ष ही 'ऋक्' है और वायु 'साम' है। वह वायु-रूप साम अन्�रिरक्ष-रूप ऋक् में प्रनि�यिष्ठ� है। अ�: ऋ ा में अयिधयिष्ठ� साम का गाय� निकया �ा�ा है। इसी प्रकार �क्षत्र, आकाश व आदिद�य को 'ऋक्' मा�कर और क्रमश: न्द्र, आदिद�य और �ीलवण: यिमत्तिश्र� कृष्ण प्रकाश को 'साम' मा�कर उ�की उपास�ा की गयी है। ॠग्वेद और सामवेद उसी परमपुरुष की उपास�ा गाय� द्वारा कर�े हैं। वह परमपुरुष आदिद�य आदिद से भी ऊं े लोकों �0ा देवों का नि�यामक है और देवों की काम�ाओं का पूरक है। यह उद्गी0 की आयिधदैनिवक उपास�ा का स्वरूप है।सा�वां खण्डअध्यात्मि�मक उपास�ा क्या है? इस खण्ड में अध्यात्मि�मक उपास�ा का वण:� है। वाणी-रूप ऋक् में प्राण-रूप साम, कु्ष-रूप ऋक् में आ�मा-रूप साम, श्रो�-रूप ऋक् में म�-रूप साम, �ेत्रों की शे्व� आभा-रूप ऋक् में �ील आभायुQ स्याम-रूप साम, �ेत्रों के मध्य च्छिस्थ� पुरुष ही ऋक् और साम है। यही ब्रह्म है, यही आदिद�य के मध्य च्छिस्थ� पुरुष है, यही म�ुष्य की समस्� काम�ाओं को अप�े अधी� रख�ा हैं �ो इस रहस्य को �ा�कर गाय� कर�े हैं, वे इसी पुरुष (ब्रह्म) का गाय� कर�े हैं। इसी के द्वारा उद्गा�ा सभी लोंकों के समस्� भोगों की प्राप्� कर�ा है।आठवां खण्डइस खण्ड में ब�ाया है निक �ी� ऋनिष उद्गी0 सम्बन्धी निवद्या में पारंग� 0े। शालवा� पुत्र चिशलक, चि निक�ाय� के पुत्र दालभ्य और �ीवल के पुत्र प्रवाहण। एक बार परस्पर ा: कर�े हुए चिशलक �े पूछा—'साम की गनि� (आश्रय) क्या है?'दालभ्य �े उGर दिदया-'स्वर।'चिशलक- स्वर की गनि� क्या है?'दालभ्य-'प्राण।'चिशलक-'प्राण की गनि� क्या है?'दालभ्य-'अन्न।'चिशलक-'अन्न की गनि� क्या है?'दालभ्य-'�ल।'इसी प्रकार प्रश्न पूछ�े पर �ल की गनि� 'स्वग:, ' स्वग: की गनि� पूछ�े पर दालभ्य �े कहा निक स्वग: से बाहर साम को निकसी अन्य आश्रम में �हीं रखा �ा सक�ां साम की स्वग:-रूप में ही स्�ुनि� की गयी है, परन्�ु चिशलक इससे सन्�ुष्ट �हीं हुआ। �ब दालभ्य के पूछ�े पर चिशलक �े कहा-'यह लोक।' परन्�ु चिशलक के उGर से प्रवाहण सन्�ुष्ट �हीं हुआ। �ब इस लोक की गनि� के बारे में प्रवाहण से प्रश्न पूछा गया।�ौवां खण्डइस खण्ड में प्रवाहण चिशलक के प्रश्न का उGर दे�े हुए कह�ा है-'इस लोक का आश्रय अ0वा गनि� आकाश है; क्योंनिक समू्पण: प्राणी और पदा0: अ0वा �त्त्व इसी आकाश से उ�पन्न हो�े हैं और इसी में ली� हो �ा�े हैं। अ�: आकाश ही इस लोक का आश्रय है। वही श्रेष्ठ�म उद्गी0 है और वही अ�न्� रूप है। �ो निवद्वा� इस प्रकार �ा�कर इसकी उपास�ा कर�ा है, उसे परम उ�कृष्ट �ीव� प्राप्� हो�ा है और परलोक में भी शे्रष्ठ�र स्था� प्राप्� हो�ा है।'दसवां खण्डएक समय की बा� है, ओलों की वृयिष्ट से कुरुदेश की खे�ी �ष्ट हो गयी। उस समय इम्य ग्राम में क्र ऋनिष के पुत्र उषब्धिस्� अप�ी कम उम्र प��ी के सा0 बड़ी दी� अवस्था में रह�े लगे 0े। एक दिद� उषब्धिस्� �े अ�यन्� घ�ेु उड़द खा�े वाले एक नि�ध:� महाव� से त्तिभक्षा मांगी। �ब उस�े कहा-'ऋनिषवर! इ� �ूठे उड़द के अलावा मेरे पास कुछ भी �हीं है।'उषब्धिस्� �े कहा-'इन्हीं में से मुझे दे दो।'

महाव� �े उड़द दे दिदये और �ल पी�े को दिदया। उस पर उषब्धिस्� �े कहा निक �ल पी�े से उन्हें �ूठा �ल पी�े का दोष लग �ायेगा।महाव� �े कहा-'क्या ये उड़द �ूठे �हीं है?'उषब्धिस्�-'इन्हें खाये निब�ा मैं �ीनिव� �हीं रह सक�ा 0ा, परन्�ु �ल �ो मुझे कहीं भी यिमल �ायेगा।'उषब्धिस्� ऋनिष �े उ� उड़द का एक भाग खाकर, दूसरा भाग अप�ी प��ी को ले �ाकर दिदया, परन्�ु वह पहले ही बहु�-सी त्तिभक्षा प्राप्� कर ुकी 0ी। अ�: उस�े उड़द लेकर रख चिलये। दूसरे दिद� प्राप्�:काल उषब्धिस्� ऋनिष �े अप�ी प��ी से 0ोड़ा-सा अन्न मांगा। उषब्धिस्� ऋनिष की प��ी �े उ�के दिदये उड़द उन्हें सौंप दिदये। ऋनिष उषब्धिस्� उन्हें खाकर समीप के रा�ा के यहाँ हो�े वाले यज्ञ में गये। वहां �ाकर उन्हों�े प्रस्�ो�ा से कहा-'जि�स देव�ा की आप स्�ुनि� कर�े हो, यदिद उसे �ा�े निब�ा स्�ुनि� करोगे, �ो आपका चिसर निगर �ायेगा।'यही बा� उन्हों�े उद्गा�ा के पास �ाकर कही और प्रनि�ह�ा: से भी कही। उ�की बा� सु�कर प्रस्�ो�ा, उद्गा�ा और प्रनि�ह�ा: अप�े-अप�े कम- से निवर� होकर बैठ गये।ग्यारहवां खण्डयह देखकर य�मा� रा�ा �े कहा-'मैं आपको �ा��ा ाह�ा हँू ऋनिषवर!'उषब्धिस्� �े अप�ा परिर य दिदया-'मैं क्र का पुत्र उषब्धिस्� हूँ।'�ब रा�ा �े कहा-'आप ही हमारे यज्ञ को पूण: करायें।'उषब्धिस्� �े �ब कहा-'ऐसा ही हो। अब मैं इन्हीं प्रस्�ो�ा, उद्गा�ा और प्रनि�ह�ा: से यज्ञ कराऊंगा। आप जि���ा ध� इन्हें देंगे, उ��ा ही ध� मुझे भी दे�ा।'रा�ा की स्वीकृनि� के बाद �ब उषब्धिस्� यज्ञ करा�े के चिलए �ैयार हुए, �ो प्रस्�ो�ा �े देव�ा के बारे में पूछा। �ब उषब्धिस्� �े कहा-'वह देव�ा प्राण है। प्रलयकाल में सभी प्राणी प्राण में ही प्रवेश कर �ा�े हैं और उ�पत्तिG के समय ये प्राण से ही उ�पन्न हो �ा�े हैं। यह 'प्राण' ही स्�ु�य देव है। यदिद आप उसे �ा�े निब�ा स्�ुनि� कर�े, �ो मेरे व � के अ�ुसार आपका मस्�क नि�श्चय ही निगर �ा�ा।'इसी प्रकार उद्गा�ा के पूछ�े पर उन्हों�े 'आदिद�य' को देव�ा ब�ाया और उदीयमा� सूय: की उपास�ा कर�े की बा� कही। प्रनि�ह�ा: के पूछ�े पर उन्हों�े 'अन्न' को देव�ा ब�ाया; क्योंनिक अन्न के निब�ा प्राणी का �ीनिव� रह�ा असम्भव है।बारहवां खण्डइस खण्ड में शौव (शौव�) उद्गी0 का वण:� है। शौव� का अ0: श्वा� (कुGा) से है, परन्�ु यहाँ श्वा� का अ0: कुGे से �हीं, गनि�शील�ा से है। यह गनि�शील�ा ही 'प्राण' है। इस प्रसंग में ऋनिषपुत्र स्वाध्याय प्रकृनि� के मध्य श्वे� (नि�म:ल) श्वा� (प्राण-प्रवाह) से साक्षा�कार कर�े हैं शुद्ध श्वा� (प्राण) को उद्गी0 मा�कर की गयी साध�ा फचिल� हो�ी है। प्रसंग इस प्रकार है निक एक बार बकदालभ्य अ0वा ग्लाब मैत्रेय स्वाध्याय के चिलए �लाशय के नि�कट गये। वहां नि�म:ल श्वा� का प्रकटीकरण हुआ। उससे कुछ अन्य निवकारग्रस्� श्वा� कह�े लगे निक वे भूखे हैं। उ�के चिलए वे ईश्वर से प्रा0:�ा करें। उस�े सभी को प्रा�:काल आ�े के चिलए कहकर भे� दिदया। दूसरे दिद� प्रा�:काल उ�के आ�े पर सभी यिमलकर प्रा0:�ा कर�े लगे- ॐ हम भक्षण करें। ॐ हम पा� करें। ॐ देव वरुण, प्र�ापनि�, सूय:देव यहाँ अन्न लायें हे अन्नप�े! यहाँ अन्न लायें, यहाँ अन्न लायें।�ेरहवां खण्डशास्त्रीय संगी� द्वारा साम गाय� इस खण्ड में साम सम्बत्मिन्ध� साध�ा को शास्त्रीय संगी� की भांनि� स्वरों का गाय� ब�ाया है। इसमें 'हाउ' का अ0: पृथ्वी, 'हाई' का अ0: वायु, 'अ0' का अ0: न्द्रमा, 'इह' का अ0: आ�मा, 'ई' का अ0: अग्निग्�, 'ऊ' का आदिद�य, 'ए' का नि�मन्त्रण, 'औ होम' का अश: निवश्वदेवा, 'निह' का प्र�ापनि�, 'स्वर' प्राण का रूप है, 'या' अन्न है और 'वाक्' निवराट है। इसके अनि�रिरQ �ो अनि�व: �ीय है और समस्� काय- में सं रिर� हो�ा है, वह �ेरहवां स्�ोम 'हंु' है। �ो इस प्रकार साम सम्बन्धी उपनि�षद का महत्त्व �ा�कर उपास�ा कर�ा है, वह प्र ुर अन्न �0ा प्रदीप्� पा क अग्निग्� वाला हो�ा है। निद्व�ीय अध्यायदूसरे अध्याय में 'साम' को शे्रष्ठ�ा से �ोड़�े हुए निवत्तिभन्न प्रकार की उपास�ाओं का वण:� निकया गया है। इस अध्याय में ौबीस खण्ड हैं। इ� खण्डों में 'पं निवध' और 'सप्�निवध' साम की उपास�ा प्रणाचिलयों का वण:� है। पहला खण्डसाम की पं निवध और सप्�निवध उपास�ाए ंइस खण्ड में साम की सम्पूण: उपास�ा को श्रेष्ठ ब�ाया गया है। संसार में �ो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह 'साम' है। इस प्रकार �ो साम की उपास�ा कर�े हैं, उन्हें श्रेष्ठ धम: की शीघ्र प्रान्तिप्� हो�ी है। दूसरा खण्डइस खण्ड में साम का भाव साधु�ापूण:-सदाशय�ापूण: ब�ाया गया है। 'उद्गी0' ही साम हे। ऊध्व: लोकों में पां प्रकार से साम की उपास�ा की �ा�ी है। पृथ्वी को 'पिहंकार', अग्निग्� को 'प्रस्�ाव,'अन्�रिरक्ष को 'उद्गी0' और आदिद�य को 'प्रनि�हार' �0ा दु्यलोक को 'नि�ध�' मा�ा �ा�ा है। इसी प्रकार अधोमुख लोकों में भी पां प्रकार से साम की उपास�ा की �ा�ी है। यहाँ स्वग: 'पिहंकार' है, आदिद�य 'प्रस्�ाव' है, अन्�रिरक्ष 'उद्गी0' है, अग्निग्� 'प्रनि�हार' है और पृचि0वी 'नि�ध�' है। पं निवध साम की उपास�ा से ऊध्व: और अधोलोकों के समस्� भोग सह� प्राप्� हो �ा�े हैं।�ीसरा खण्डयहाँ वषा: में पां प्रकार से साम की उपास�ा का वण:� है। पं निवध साम की उपास�ा से इ�ा�ुरूप वषा: हो�ी है। ौ0ा खण्डयहाँ �ल में पं निवध साम की उपास�ा कर�े वाले की कभी �ल में मृ�यु �हीं हो�ी।

पां वां खण्डयहाँ पर ऋ�ुओं में पं निवध साम की उपास�ा कर�े वाले उपासक को ऋ�ुए ंअभीष्ट फल प्रदा� कर�ी हैं।छठा खण्डइस खण्ड में कहा गया है निक �ो पुरुष पशुओं में साम की पं निवध उपास�ा कर�ा है, उसे भरपूर पशु-सम्पदा प्राप्� हो�ी है। सा�वां खण्डइसी प्रकार प्राणों (इजिन्द्रयों) में श्रेष्ठ�ा के क्रम से साम की पं निवध उपास�ा कर�ी ानिहए। ऐसा करके साधक शे्रष्ठ�र �ीव� प्राप्� कर�ा है। आठवां खण्डइस खण्ड में सप्�निवध साम की उपास�ा का वण:� है। वाणी में 'हंु' पिहंकार है, शब्द 'प्र' प्रस्�ाव है, 'आ' आदिद रूप है, 'उ�्' उद्गी0 है, 'प्रनि�' प्रनि�हार है, 'उप' उपद्रव-रूप है और 'नि�' नि�ध� का रूप है। इस प्रकार �ो साधक उपास�ा से वाणी के सार�त्त्व को प्राप्� कर ले�ा है, उसे अन्न और अन्न को प ा�े की सामथ्य: प्राप्� हो�ी है। �ौवा खण्ड'आदिद�य' सदा ही सम रह�ा है। वह साम है। वह सभी के प्रनि� समभाव वाला है। उदयमा� सूय: 'प्रस्�ाव' है। सभी म�ुष्य और पशु-पक्षी उसके अ�ुगामी हैं। मध्याह्न में आदिद�य 'उद्गी0' है। समस्� देवगण उसके इसी रूप के अ�ुगामी हैं। उपराह्न में आदिद�य 'प्रनि�हार' है। अस्� हो�े सूय: का रूप ही 'नि�ध�' हैं आदिद�य-रूप साम की इसी प्रकार उपास�ा कर�ी ानिहए। दसवां खण्डइस खण्ड में आ�मा-�ुल्य अनि�मृ�यु-रूप की सप्�निवध साम की उपास�ा का वण:� है। �ो साधक परमा�मा-�ुल्य अनि�मृ�यु-रूप सप्�निवध साम की उपास�ा कर�ा है, वह आदिद�य-रूप साम की ही उपास�ा कर�ा है �0ा आदिद�यलोक को �ी� ले�ा है।ग्यारहवां खण्डइस खण्ड में 'गायत्र' सम्बन्धी निवचिशष्ट उपास�ा का वण:� है। �ो साधक गायत्र-साम को प्राणों में अयिधयिष्ठ� हुआ �ा��ा है, वह प्राणवा� हो�ा है और पूण: आयु को भोग�ा है। बारहवां खण्ड�ो साधक साम को अग्निग्� में प्रनि�यिष्ठ� �ा�कर उपास�ा कर�ा है, वह ब्रह्म�े� से सम्पन्न प्रदीप्� �ठराग्निग्� से युQ हो�ा है। वह पूण: �े�ोमय �ीव� व्य�ी� कर�ा है �0ा महा� कीर्ति�ं को प्राप्� कर�ा है।�ेरहवां खण्डइस खण्ड में स्त्री-पुरुष के �ोडे़ के रूप मं वामदेव्य साम की उपास�ा की गयी है। �ो साधक दाम्प�य-�ीव� के अ�ुसार साम की उपास�ा कर�ा है, वह सन्�नि�-सुख को प्राप्� कर�ा है। ौदहवां खण्डयहाँ पु�: उदीयमा� सूय:, उदिद� हुआ सूय: �0ा अस्� हो�े वाले सूय: की साम उपास�ा का वण:� है। �ो ऐसा �ा�कर उपास�ा कर�ा है, वह प्रखर सूय: की �े�ब्धिस्व�ा को प्राप्� कर�ा है।पन्द्रहवां खण्डवषा: (प�:न्य) के साम-रूप की उपास�ा से साधक निवरूप और सुरूप पशुओं का स्वामी हो�ा है और पूण: आयु को भोग�ा है। अ�: बरस�े मेघों की कभी नि�न्दा �हीं कर�ी ानिहए।सोलहवां खण्डवसन्� ऋ�ु में वैरा� साम को अयिधयिष्ठ� मा�कर उपास�ा कर�े से सुसन्�नि�, पशु-सम्पदा और ब्रह्म�े� प्राप्� हो�ा है। अ�: ऋ�ुओं की कभी नि�न्दा �हीं कर�ी ानिहए।सत्रहवां खण्डसमस्� लोकों में साम को अयिधयिष्ठ� मा�कर उपास�ा कर�े वाला लोक-निवभूनि�यों से सुशोत्तिभ� हो�ा है।अठारहवां खण्डरेव�ी साम को पशुओं में अयिधयिष्ठ� मा�कर उपास�ा कर�े वाला पशु-सम्पदा से समृद्ध हो�ा है।उन्नीसवां खण्ड�ो साधक यज्ञीय साम को अंगों सयिन्ननिह� �ा��ा है, वह सम्पूण: अंगों से स्वस्थ व सम्पन्न हो�ा है।बीसवां खण्ड�ो साधक रा�� साम को देव�ाओं में प्रनि�यिष्ठ� �ा��ा है, वह उन्हीं देवों के लोकों का ऐश्वय: और एकरूप�ा को प्राप्� कर�ा है। अ�: ब्राह्मणों की कभी नि�न्दा �हीं कर�ी ानिहए।इक्कीसवां खण्डत्रयी वेद- ॠग्वेद, सामवेद और य�ुव�द- के अग्निग्�, वायु और आदिद�य, �ी� उद्गी0 हैं, �ो साधक इस साम को समू्पण: �ग� में प्रनि�यिष्ठ� मा��ा है, वह सव:रूप हो �ा�ा है।बाईसवां खण्डअग्निग्�देव, वायुदेव और इन्द्रदेव के उद्गा� अ�यन्� मधुर हैं। समस्� स्वर इन्द्रदेव की आ�मा हैं। सभी स्वर घोषपूव:क और बलपूव:क उच्चारण निकये �ा�े ानिहए और मृ�युदेव से अप�े को छुड़ा�े की प्रा0:�ा कर�ी ानिहए।�ेईसवां खण्डधम: के �ी� स्कन्ध

यहाँ धम: के �ी� स्कन्धों के निवषय में वण:� निकया गया है। धम: के ये �ी� आधारस्�म्भ हैं- यज्ञ, अध्यय� और दा�, �प, साध�ार� ब्रह्म ारी �ब अप�े शरीर को क्षीण कर ले�ा है। प्र0म �ी� से त्रयी निवद्या-ऋक्, साम और य�ु- की उ�पत्तिG हुई। दूसरे �प के प्रभाव से त्रयी निवद्या से 'भू:' और 'स्व:' की उ�पत्तिG हुई है �0ा �ीसरे साध�ा से �ी� अक्षरों का सार�त्त्व ओंकार (ॐ) प्राप्� हुआ। ओंकार द्वारा समू्पण: वात्तिणयां व्याप्� हैं। ओंकार ही सम्पूण: �ग� है और यही सम्पूण: आकाश है। ौबीसवां खण्डयज्ञ के �ी� काल इस खण्ड में यज्ञ के �ी�-प्राप्�:, मध्याह्न और सांय- सव�ों के माध्यम से �ीव� के �ी� कालों में निकये गये साध�ा�मक पुरुषा0: का उल्लेख है। ब्रह्मवादी कह�े हैं निक प्रा�:काल का सव� वसुगणों का है, मध्याह्न का रुद्रगणों का और सन्ध्या का आदिद�यगणों का �0ा निवश्वदेवों का है। प्रा�:काल य�मा� गाह:य�याग्निग्� के पीछे उGरात्तिभमुख बैठकर वसुदेवों के साम का गा� कर�ा है-'हे अग्निग्�देव!आप हमें लौनिकक सम्पदा प्रदा� करें, आप हमें यह लोक प्राप्� करायें। आप हमें मृ�यु के पश्चा� पुण्यलोक को प्राप्� करायें।' इस प्रकार य�मा� स्वग:, अन्�रिरक्ष, अन्�रिरक्ष की निवभूनि�यां �0ा पुण्यलोक की प्रान्तिप्� की काम�ा कर�ा है। यही य�मा�लोक है। स्वग:लोक की प्रान्तिप्� हे�ु सभी सीमाओं को प्राप्� कर�े की प्रा0:�ा य�मा� कर�ा है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के अ�ुरूप ज्ञा� और पे्ररणा का सं ार कर�ा है। �ृ�ीय अध्यायइस अध्याय में 'आदिद�य' को ही परब्रह्म मा�कर निवनिवध रूपकों द्वारा उसके स्वरूप का वण:� निकया गया है। इस अध्याय में 19 खण्ड हैं। पहले से पां वें खण्ड �कआदिद�य ही परब्रह्म है इ� पां खण्डों में आदिद�य के पूव:, दत्तिक्षण, पत्तिश्चम व उGर भागों �0ा उध्व: में च्छिस्थ� रसों की व्याख्या मधुमच्छिक्खयों के छGे के रूपक द्वारा की गयी है। ऋनिष का कह�ा है निक सूय: के समस्� दृश्य, सू्थल रंगों (सप्�रंग) के सा0 सूक्ष्म े��ा प्रवाह से �ुडे़ हैं। 'ॐकार' रूप यह आदिद�य ही देवों का मधु है। समस्� वेदों- ऋग्वेद, सामवेद, य�ुव�द और अ0व�वेद- की ऋ ाए ंही मधुमच्छिक्खयां हैं, ारों वेद पुष्प हैं और सोम ही अमृ�-रूप �ल है। इस ब्रह्माण्ड में आदिद�य की �ो दृश्य प्रनिक्रया ल रही हे, उसके पीछे ै�न्य का संकल्प अ0वा आदेश ही काय: कर रहा है।छठे खण्ड से दसवें खण्ड �कइ� खण्डों में सूय: के उन्हीं भागों से अमृ�-प्रवाहों के प्रकट हो�े �0ा उसके प्रवाह का वण:� निकया गया है। ऋनिष का कह�ा है निक वसुओं द्वारा प्रवानिह� अमृ�-�त्त्व को साधकों के म� में च्छिस्थ� वसु ही �ा� पा�े हैं। उपनि�षदों के म� में निवराट े��ा में च्छिस्थ� देवों के अंश म�ुष्य के भी�र भी च्छिस्थ� हैं। अ�: वे अप�े समा�धम² प्रवाहों से साध�ा द्वारा सम्बन्ध स्थानिप� कर ले�े हैं और अमृ� का पा� कर�े हैं। देवगण � �ो खा�े हैं, � पी�े हैं। वे केवल इस अमृ� को देखकर ही �ृप्� हो �ा�े हैं। छठे से दसवें खण्ड �क सूय: के उदय एवं अस्� हो�े की प्रनिक्रया में निवत्तिभन्न दिदशाओं का उल्लेख निकया गया है। यहाँ उ� निवत्तिभन्न दिदशाओं से निवचिशष्ट अमृ�-प्रवाहों के प्रकट हो�े की बा� कही गयी है। यह अमृ�-प्रवाह सूय: की रच्छिश्मयों द्वारा साधक के अन्�म:� �क प्रवानिह� हो�ा है और साधक उस परम सGा के ज्योनि�म:य स्वरूप को आ�मसा� कर�ा है।ग्यारहवां खण्डब्रह्मज्ञा� निकसे दे�ा ानिहए? इस खण्ड में ऋनिष 'ब्रह्मज्ञा�' को सुयोग्य चिशष्य को ही प्रदा� कर�े की बा� कह�े हैं। �ो साधक 'ब्रह्मज्ञा�' के नि�कट पहुं ुका है अ0वा उसमें आ�मसा� हो ुका है, उसके चिलए सूय: या ब्रह्म � �ो उदिद� हो�ा है, � अस्� हो�ा है। वह �ो सदा दिद� के प्रकाश की भांनि� �गमगा�ा रह�ा है और साधक उसी में मग� रह�ा है। 8 निकसी समय यह 'ब्रह्मा �ी �े प्र�ापनि� से कहा 0ा। देव प्र�ापनि� �े इसे म�ु से कहा और म�ु �े इसे प्र�ा के चिलए अत्तिभव्यQ निकया। उद्दालक ऋनिष को उ�के निप�ा �े अप�ा ज्येष्ठ और सुयोग्य पुत्र हो�े के कारण यह ब्रह्मज्ञा� दिदया 0ा। अ�: इस ब्रह्मज्ञा� का उपदेश अप�े सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्र अ0वा चिशष्य को ही दे�ा ानिहए। बारहवां खण्डगायत्री ही दृश्यमा� �ग� है इस खण्ड में 'गायत्री' को सब दृश्यमा� �ग� अ0वा भू� मा�ा हैं �ग� में �ो कुछ भी प्र�यक्ष दृश्यमा� है, वह गायत्री ही है। 'वाणी' ही गायत्री है और वाणी ही सम्पूण: भू�-रूप है। गायत्री ही सब भू�ों का गा� कर�ी है और उ�की रक्षा कर�ी है। गायत्री ही पृथ्वी है, इसी में सब भू� अवच्छिस्थ� हैं यह पृथ्वी भी 'प्राण-रूप' गायत्री है, �ो पुरुष के शरीर में समानिह� है। ये प्राण पुरुष के अन्�:हृदय में च्छिस्थ� हैं। गायत्री के रूप में व्यQ परब्रह्म ही वेदों में वर्णिणं� मन्त्रों में च्छिस्थ� है। यहाँ उसी की मनिहमा का वण:� निकया गया है, परन्�ु वह निवराट पुरुष उससे भी बड़ा है। यह प्र�यक्ष �ग� �ो उसका एक अंश मात्र है। उसके अन्य अंश �ो अमृ�-स्वरूप प्रकाशमय आ�मा में अवच्छिस्थ� हैं।

वह �ो निवराट ब्रह्म है, वह पुरुष के बनिहरंग आकाश रूप में च्छिस्थ� है और वही पुरुष के अन्�:हृदय के आकाश में च्छिस्थ� है। यह अन्�रंग आकाश सव:दा पूण:, अपरिरव�:�ीय, अ0ा:� नि��य है। �ो साधक इस प्रकार उस ब्रह्म-स्वरूप को �ा� ले�ा है, वह सव:दा पूण:, नि��य और दैवीय सम्पदाए ं(निवभूनि�यां) प्राप्� कर�ा है।�ेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड �कआदिद�य (ब्रह्म) दश:� अन्�:हृदय में निकया �ा सक�ा है। इ� खण्डों में 'आदिद�य' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार निकया गया है और उसकी परमज्योनि� को ही ब्रह्म-दश:� मा�ा गया है। इस ज्योनि�-दश:� के पां निवभाग भी ब�ाये गये हैं। यह ब्रह्म-दश:� म�ुष्य अप�े हृदय में ही कर पा�ा है। उस अन्�:हृदय के पां देवों से सम्बत्मिन्ध� पां निवभाग हैं- पूव:व�² निवभाग- प्राण, कु्ष, आदिद�य, �े�स् और अन्न। दत्तिक्षणाव�² निवभाग- व्या�, श्रोत्र, न्द्रमा, श्रीसम्पदा और यश। पत्तिश्चमी निवभाग- अपा�, वाणी, अग्निग्�, ब्रह्म�े� और अन्न। उGरी निवभाग- समा�, म�, प�:न्य, कीर्ति�ं और वु्ययिष्ट (शारीरिरक आकष:ण)। ऊध्व: निवभाग- उदा�, वाय,ु आकाश, ओ� और मह: (आ�न्द �े�)। �ो साधक इस प्रकार �ा�कर इ�की उपास�ा कर�ा है, वह ओ�स्वी और महा� �े�स्वी हो�ा है। स्वग:लोक के ऊपर �ो ज्योनि� प्रकाचिश� हो�ी है, वही समू्पण: निवश्व में सबके ऊपर प्रकाचिश� हो�ी है वही पुरुष की अन्�:ज्योनि� है, अन्�श्चे��ा है। यह सम्पूण: �ग� नि�श्चय ही ब्रह्मस्वरूप है। यह उसी से उ�पन्न हो�ा है और उसी में लय हो �ा�ा है �0ा उसी के द्वारा सं ाचिल� हो�ा है। राग-दे्वष से रनिह� होकर ही शान्� भाव से इसकी उपास�ा कर�ी ानिहए। यह पुरुष् ही यज्ञ है और प्राण ही वायु हैं। ये सभी को आवास दे�े वाले हैं। �ो भोगों में चिलप्� �हीं हो�ा, वही उसकी दीक्षा है। आंगि�रस ऋनिष �े देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण को �त्त्वदश:� का उपदेश दिदया 0ां उससे वे सभी �रह की निपपासाओं से मुQ हो गये 0े। साधक को मृ�युकाल में �ी� मन्त्रों का स्मरण कर�ा ानिहए- (�ध्दै�दघोर आपिगंरस कृष्ण्णाय देवकीपुत्रायोक्�वोवा ानिपपास एव स बभूव सोऽन्�वेलायामे��त्रय प्रनि�पदे्य �ात्तिक्ष�मस्यच्यु�मचिस प्राण्सँचिश�मसीनि� �त्रै�े दे्व ॠ ौ भव�: ॥) मृ�युकाल के �ी� मन्त्र �ुम अक्षय, अ�श्वर-स्वरूप हो, �ुम अच्यु�-अटल, पनि�� � हो�े वाले हो �0ा �ुम अनि�सूक्ष्म प्राणस्वरूप हो। ब्रह्मज्ञा�ी अन्धकार (अज्ञा�) से नि�कलकर परब्रह्म के प्रकाश को देख�े हुए और आ�म-ज्योनि� में ही देदीप्यमा� सूय: की सव�Gम ज्योनि� को प्राप्� कर�ा है। यह म� ही ब्रह्म-स्वरूप है। हमें इसी की उपास�ा कर�ी ानिहए। म�ोमय ब्रह्म के ार पाद ( रण)। म�ोमय ब्रह्म के ार पाद हैं- वाणी, प्राण, कु्ष और श्रोत्र। इ�के द्वारा ही साधक म�ोमय ब्रह्म की दिदव्य ज्योनि� का दश:� कर पा�ा है, उसके आ�न्दमय स्वरूप को अ�ुभव कर पा�ा है �0ा उसकी आदिद�य-रूप ज्योनि� से दीन्तिप्�मा� होकर �े�स्वी हो पा�ा है। 'आदिद�य' ही ब्रह्म है। �ो यह �ा�कर उपास�ा कर�ा है, उसके समीप सुखप्रद '�ाद' सु�ाई दे�ा है और वह �ाद ही उसे सुख �0ा सन्�ोष प्रदा� कर�ा है। आदिदकाल में यह आदिद�य अदृश्य रूप में 0ा। बाद में यह स�रूप (प्र�यक्ष) में प्रकट हुआ। वह निवकचिस� होकर अण्डे के रूप में परिरवर्ति�ं� हुआ। कालान्�र में वह अण्डा निवकचिस� हुआ और फूटा। उसके दो खण्ड हुए- एक र�� और एक स्वण:। र�� खण्ड पृथ्वी है और स्वण: खण्ड द्युलोक (अन्�रिरक्ष) है। उस अण्डे से �ो उ�पन्न हुआ, वह आदिद�य ही है। यही आदिद�य 'ब्रह्म' है। �ु0: अध्यायइस अध्याय में सत्रह खण्ड हैं प्र0म �ी� खण्डों में रा�ा ��श्रुनि� और गाड़ीवा� रैक्व का संवाद है। उ� संवादों के माध्यम से रैक्व रा�ा ��श्रुनि� को 'वाय'ु और 'प्राण' की शे्रष्ठ�ा के निवषय में ब�ा�ा है। �ु0: से �वम खण्ड �क �ाबाल-पुत्र स�यकाम की क0ा है, जि�समें वृषभ, अग्निग्�, हंस और �ल पक्षी के माध्यम से 'ब्रह्म' का उपदेश दिदया गया है और दशम से सत्रहवें खण्ड �क स�यकाम �ाबाल के चिशष्य उपकोसल को निवत्तिभन्न अग्निग्�यों द्वारा �0ा अन्� में आ ाय: स�यकाम द्वारा 'ब्रह्मज्ञा�' दिदया गया है �0ा यज्ञ का ब्रह्मा कौ� है, इस ओर संके� निकया है। एक से �ीसरे खण्ड �कएक बार प्रचिसद्ध रा�ा ��शु्रनि� के महल के ऊपर से दो हंस बा�ें कर�े हुए उडे़ �ा रहे 0े। यद्यनिप रा�ा के महल से 'ब्रह्मज्ञा�' का �े� प्रकट हो रहा 0ा, �0ानिप हंसों की दृयिष्ट में वह �े� इ��ा �ीव्र �हीं 0ा, जि���ा निक गाड़ीवा� रैक्व का 0ा।रा�ा �े हंसों की बा�ें सु�ी, �ो रैक्व की �लाश करायी गयी। बड़ी कदिठ�ाई से रैक्व यिमला। रा�ा अ�ेक उपहार लेकर उसके पास गया, पर उस�े 'ब्रह्मज्ञा�' दे�े से म�ा कर दिदया। रा�ा दूसरी बार अप�ी रा�कुमारी को लेकर रैक्व के पास गया। रैक्व �े रा�कन्या का आदर रख�े के चिलए रा�ा को 'ब्रह्मज्ञा�' दिदया। 'हे रा��! देव�ाओं में 'वायु' और इजिन्द्रयों में 'प्राण' ये दो ही संवग: (अप�ी ओर खीं कर भक्षण कर�ा) हैं। इन्हें ही 'ब्रह्मरूप' समझकर इ�की उपास�ा कर�ा उGम है; क्योंनिक अग्निग्� �ब शान्� हो�ी है, �ो वह वायु में निवली� हो �ा�ी है। उसी प्रकार �ल �ब सूख�ा है, �ो वुय में समानिह� हो �ा�ा है। यही वायु म�ुष्य के शरीर में 'प्राण' रूप में च्छिस्थ� है। इसे आयिधदैनिवक उपास�ा कह�े हैं। साधक के सो�े पर म�ुष्य के शरीर में 'प्राण' उसकी समस्� वागेजिन्द्रयों को अप�े भी�र समेट ले�ा है। प्राण में ही क्षु, श्रोत्र और म� समानिह� हो �ा�े हैं। इस प्रकार प्राणवायु ही सबको अप�े भी�र समानिह� कर�े वाला है। यही स�यरूप आध्यात्मि�मक �त्त्व है।' ौ0े खण्ड से �ौवें खण्ड �क

इ� खण्डों के पहले छह खण्डों में �ाबाल-पुत्र स�यकाम की क0ा है। एक बार स�यकाम �े अप�ी मा�ा �ाबाला से कहा-'मा�ा! मैं ब्रह्म ारी ब�कर गुरुकुल में रह�ा ाह�ा हूं। मुझे ब�ायें निक मेरा गोत्र क्या है?'मा�ा �े उGर दिदया-'मैं युवावस्था में निवत्तिभन्न घरों में सेनिवका का काय: कर�ी 0ी। वहां निकसके संसग: से �ुम्हारा �न्म हुआ, मैं �हीं �ा��ी, परन्�ु मेरा �ाम �ाबाला है और �ुम्हारा �ाम स�यकाम है। अ�: �ू स�यकाम �ाबाला के �ाम से �ा�ा �ायेगा।'स�यकाम �े हारिरद्रुम� गौ�म के पास �ाकर कहा-'हे भगव�! मैं आपके पास ब्रह्म य:पूव:क चिशक्षा ग्रहण कर�ा ाह�ा हँू।'गौ�म �े �ब उससे उसका गोत्र पूछा, �ो उस�े अप�े �न्म की साफ-साफ क0ा ब�ा दी। गौ�म उसके स�य से प्रसन्न हो उठे। उन्हों�े उसे अप�ा चिशष्य ब�ा चिलया और उसे ार सौ गौंए देकर रा�े के काय: पर लगा दिदया। सा0 ही यह भी कहा निक �ब एक हज़ार गौए ंहो �ायें, �ब वह आश्रम में लौटे।स�यकाम वष- �क उ� गौओं के सा0 व� में भ्रमण कर�ा रहा। �ब एक हज़ार गौए ंहो गयीं, �ब एक वृषभ �े उससे कहा-'स�यकाम! �ुम�े इ��ी गौ-सेवा की है, अ�: �ुम ब्रह्म के ार पदों को �ा��े योग्य हो गये हो। देखो, यह पूव:, पत्तिश्चम, दत्तिक्षण व उGर दिदशा 'प्रकाशमा� ब्रह्म' की ार कलाए ंहैं। वह 'प्रकाशवा� ब्रह्म' इ� ारों कलाओं में एक पाद है। इस प्रकार �ा��े वाला साधक ब्रह्म के प्रकाशवा� स्वरूप की उपास�ा कर�ा है। अब ब्रह्म के दूसरे पाद के बारे में �ुम्हें अग्निग्�देव ब�ायेंगे।'स�यकाम गौए ंलेकर गुरुदेव के आश्रम की ओर ल दिदया। माग: में उस�े अग्निग्� प्रज्वचिल� की। �ब अग्निग्� �े कहा-'स�यकाम! अ�न्� ब्रह्म की- पृथ्वी, अन्�रिरक्ष, दु्यलोक और समुद्र- ार कलाए ंहैं। हे सौम्य! ब्रह्म का दूसरा पाद 'अ�न्� ब्रह्म' है। अब ब्रह्म के �ीसरे पाद के निवषय में �ुम्हें हंस ब�ायेगा।'दूसरे दिद� स�यकाम गौओं को लेकर आ ाय:कुल की ओर ल पड़ा। सांयकाल वह रूका और अग्निग्� प्रज्वचिल� की, �ो हंस उड़कर वहां आया और बोला-'हे स�यकाम! अग्निग्�, सूय:, न्द्रमा और निवद्यु�, ब्रह्म की ये ार कलाए ंहैं। ब्रह्म का �ीसरा पाद यह 'ज्योनि�ष्मा�' है। �ो ज्योनि�ष्मा� संज्ञक �ुष्कल पाद की उपास�ा कर�ा है, वह इसी लोक में यश और कीर्ति�ं को प्राप्� कर�ा है। अब ौ0े पद के बारे में �ुम्हें �ल-पक्षी ब�ायेगा।'अगले दिद� वह आ ाय:कुल की ओर आगे बढ़ा, �ो सन्ध्या समय �ल-पक्षी उसके पास आकर बोला-'स�यकाम! प्राण, कु्ष, का� और म�, ब्रह्म की ार कलाए ंहैं। ब्रह्म का �ुष्काल पाद यह आय��वा� (आश्रयमयुQ) संज्ञक हैं इस आय��वा� संज्ञक की उपास�ा कर�े वाला निवद्वा� ब्रह्म के इसी रूप को प्राप्� कर ले�ा है।'�ब स�यकाम आ ाय:कुल पहुं ा, �ो आ ाय: गौ�म �े उससे कहा-'हे सौम्य! �ुम ब्रह्मवेGा के रूप में दीन्तिप्�मा� हो रहे हो। �ुम्हें निकस�े उपदेश दिदया?'स�यकाम �े ब�ा दिदया और उ�से उपदेश पा�े की काम�ा की। �ब आ ाय: �े स�यकाम को उपदेश दिदया-'हे स�यकाम! भगवद-्स्वरूप ऋनिषयों के मुख से �ा�ी गयी निवद्या ही उपयुQ सा0:क�ा को प्राप्� हो�ी है।'दसवें खण्ड से सत्रहवें खण्ड �कअग्निग्�यों द्वारा ब्रह्मज्ञा� का उपदेश गुरु से ज्ञा� प्राप्� कर स�यकाम आ ाय:पद पर आसी� हो गये। �ब उन्हों�े अप�े चिशष्य उपकोसल को निवत्तिभन्न अग्निग्�यों का उदाहरण देकर 'ब्रह्मज्ञा�' का उपदेश-दिदया। कमल का पुत्र उपकोसल ब्रह्म य:पूव:क बारह वष: �क स�यकाम �ाबाल के पास रहकर अग्निग्�यों की सेवा में लाभ रहा। दीक्षा समाप्� हो�े पर स�यकाम �े सभी चिशष्यों को दीक्षा दी, पर उपकोसल को �हीं दीं इस पर उपकोसल नि�राश होकर भो�� �याग का नि�ण:� कर बैठा। इस पर अग्निग्�यों �े एकनित्र� होकर नि�ण:य चिलया निक वे उपकोसल को ब्रह्मज्ञा� का उपदेश देंगी। अग्निग्�यों �े कहा-'उपकोसल व�स! प्राण ही ब्रह्म है। 'क' (सुख) ब्रह्म है और 'ख' (आकाश) भी ब्रह्म है। प्राण का आधार आकाश है। पृथ्वी, अग्निग्�, अन्न और आदिद�य, इ� ारों में मैं ही हंू। आदिद�य के मध्य �ो पुरुष दिदखाई दे�ा है, वह मैं हूं। वही मेरा निवराट रूप है। �ो पुरुष इस प्रकार �ा�कर उस आदिद�य पुरुष की उपास�ा कर�ा है, वह पापकम- को �ष्ट कर दे�ा है। वह अग्निग्� के समस्� भोगों को प्राप्� कर�ा है �0ा पूण: आयु और �े�स्वी �ीव� �ी�ा है।'इसके बाद आहव�ीय अग्निग्� �े प्राण, आकाश, दु्यलोक और निवद्यु� में अप�ी उपच्छिस्थनि� ब�ायी और कहा-'हे सौम्य! हम�े �ुझे आ�म-निवद्या का ज्ञा� कराया। अब आ ाय: �ुझे आगे ब�ायेंगे।'आ ाय: स�यकाम �े सबसे अन्� में उपकोसल से कहा-'हे व�स! इ� अग्निग्�यों �े �ुम्हें केवल लोकों का ज्ञा� दिदया है। अब मैं �ुम्हें पापकम- को �ष्ट कर�े वाला ज्ञा� दे�ा हंू। उपकोसल! �ेत्रों में �ो यह पुरुष दिदखाई दे�ा है, यही आ�मा हे। यह अनिव�ाशी, भयरनिह� और ब्रह्मस्वरूप है। समू्पण: शोभ� और सव�पयोगी वस्�ुए ंयही धारण कर�ा है और साधक को पुण्यकम- का फल प्रदा� कर�ा है। यह पुरुष नि�श्चय ही प्रकाशमा� है व सम्पूण: लोकों को प्रकाचिश� कर�े वाला है। �ब म� पूण: रूप से पनिवत्र हो �ा�ा है, �ब अज्ञा� का अन्धकार यिमट �ा�ा है और साधक अप�े म� में परब्रह्म के दश:� कर�ा है।'�ान्तिन्त्रक म�ा�ुसार दो�ों भौंहों के मध्य आज्ञ क्र च्छिस्थ� है, �हां ध्या� लगा�े पर 'ओंकार' स्वरूप प्रणव ब्रह्म का दश:� हो�ा है। यह प्रवहमा� वायु ही यज्ञ है। यह सम्पूण: �ग� को पनिवत्र कर�ा है। 'वाणी' और 'म�' इसके दो माग: हैं। एक माग: का संस्कार ब्रह्मा अप�े म� से कर�ा है, दूसरे का हो�ा अप�ी वाणी से कर�ा है। ऐसा यज्ञ करके य�मा� निवशेष श्रेय का अयिधकारी हो �ा�ा है। यज्ञ का ब्रह्म कौ� है? अन्� में, प्र�ापनि� ब्रह्मा �प करके लोकों का रस�त्त्व उ�पन्न कर�ा हैं। पृथ्वी से अग्निग्�, अन्�रिरक्ष से वायु और दु्यलोक से आदिद�य को ग्रहण कर�ा है। अग्निग्� से ऋक्, वायु से य�ुष और आदिद�यदेव से साम को ग्रहण कर�ा है। ऋ ाओं से 'भू:' य�ु:, कच्छिण्डकाओं से 'भुव:' �0ा साम मन्त्रों से 'स्व:' को ग्रहण कर�ा है।यदिद ऋ ाओं के यज्ञ में कोई तु्रदिट हो, �ो 'भू: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें।

यदिद य�ु: कच्छिण्डकाओं के यज्ञ में कोई त्रुदिट हो, �ो 'भुव: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें। यदिद साम मन्त्रों के यज्ञ में कोई त्रुदिट हो �ो, 'स्व: स्वाहा' कहकर यज्ञ करें।जि�स यज्ञ में ब्रह्मा ऋन्ति�वक हो�ा है, वहां वह यज्ञ की, य�मा� की और समस्� ऋन्ति�व�ों की सब ओर से रक्षा कर�ा है। इस प्रकार श्रेष्ठ ज्ञा�वा� को ही यज्ञ का ब्रह्मा ब�ा�ा ानिहए। पं म अध्यायइस अध्याय में 'प्राण' की सव:श्रेष्ठ�ा एवं पं ाग्निग्� निवद्या का निवशद वण:� निकया गया है। सा0 ही अग्निग्� का महत्त्व, �ीव की गनि�, 'आ�मा' पर स�यकाम �ाबाल, शे्व�के�ु और प्रवाहण का संवाद �0ा �ीव�-�ग� के गूढ़�म निवषयों का सरल भाष्य प्रस्�ु� निकया गया है। इस अध्याय में ौबीस खण्ड हैं।प्र0म खण्ड शरीर में प्राण�त्त्व की सव:श्रेष्ठ�ा इस शरीर में �ो स्था� 'प्राण' का है, वह निकसी अन्य इजिन्द्रय का �हीं है। एक बार सभी इजिन्द्रयों में अप�ी-अप�ी श्रेष्ठ�ा को लेकर निववाद चिछड़ गया। �ब सभी �े प्र�ापनि� ब्रह्मा से नि�ण:य �ा��ा ाहा निक सव:श्रेष्ठ कौ� है? इस पर प्र�ापनि� �े कहा निक �ुमसें से जि�सके द्वारा शरीर छोड़ दे�े पर वह नि�श्चेष्ट हो �ाये, वही श्रेष्ठ है।सबसे पहल वाणी �े, उसके बाद कु्ष �े, निफर का�ों �े, निफर म� �े शरीर को बारी-बारी से छोड़ा, निकन्�ु हर बार शरीर का एक अंग ही नि�श्चेष्ट हुआ। शेष शरीर सनिक्रय ब�ा रहा। �ैसे वाणी के �ा�े से वह गूंगा हो गया, कु्ष के �ा�े से अन्धा हो गया, का�ों के �ा�े से बहरा हो गया और म� के �ा�े से बालक-रूप-�ैसा हो गया, पर �ीनिव� रहा और अप�े सारे काय: कर�ा रहा, निकन्�ु �ब 'प्राण' �ा�े लगा, �ो सारी इजिन्द्रयाँ चिशचि0ल हो�े लगीं। उन्हों�े घबराकर प्राण को रोका और उसकी सव:श्रेष्ठ�ा को स्वीकार कर चिलया।दूसरा खण्डमहा��ा के चिलए 'मन्थ' अ�ुष्ठा� इस खण्ड में 'मन्थ' अ�ुष्ठा� का वण:� है। प्राण �े अप�ी श्रेष्ठ�ा चिसद्ध कर�े के उपरान्� पूछा- 'मेरा भो�� क्या होगा?' अन्य इजिन्द्रयों �े उGर दिदया-'अन्न' �ुम्हारा भो�� होगा। प्राण �े निफर पूछा- 'मेरा वस्त्र क्या होगा? इजिन्द्रयों �े उGर दिदया '�ल �ुम्हारा वस्त्र होगा।'यह ज्ञा� स�यकाम �ाबाल �े अप�े चिशष्य व्यार्घ्य�पद के पुत्र गोशु्रनि� �ामक व्यार्घ्य�पद को सु�ाया 0ा। �दुपरान्� यदिद कोई मह�व प्राप्� कर�े का अत्तिभलाषी हो, �ो उसे अमावस्या की दीक्षा प्राप्� करके पूर्णिणंमा की रानित्र को सभी औषयिधयों, दही और शहद सम्बन्धी 'मन्थ' (म0कर �ैयार निकया हुआ हव्य) का मन्थ� करके �ेष्ठाय श्रेष्ठाय स्वाहा के मन्त्र द्वारा अग्निग्� में घृ� की आहुनि� देकर 'मन्थ' में उसका अवशेष डाल�ा ानिहए।इसी प्रकार वचिसष्ठाय स्वाहा, प्रनि�ष्ठायै स्वाहा, सम्पदे स्वाहा और आय��ाम स्वाहा मन्त्रों से अग्निग्� में घी की आहुनि� देकर शेष घी को 'मन्थ' में छोडे़। ��पश्चा� अग्निग्� से कुछ दूर हटकर अं�चिल में 'मन्थ' को लेकर अमो �ामचिस (हे मन्थ! �ू अम, अ0ा:� प्राण है, सम्पूण: �ग� �ेरे सा0 है, �ू ही ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, प्रकाशमा� और सबका अयिधपनि� है।) मन्त्र पढ़कर आ म� करें। उसके बाद भो�� की प्रा0:�ा करें �त्त्सनिव�ुवृ:णीमहे, वयं देवस्य भो��म्, श्रेषं्ठ सव:धा�मम् और �ुंरभगस्य धीमनिह मन्त्रों को कह�े हुए मन्थ का एक-एक ग्रास भक्षण करे और अन्� में बर�� को धोकर समू्पण: 'मन्थ' को पी �ाये। इसके बाद अग्निग्� के उGर में पनिवत्र मृग म: निबछाकर शय� करे। यदिद उस रा� स्वप्न में निकसी स्त्री का दश:� हो, �ो समझे निक अ�ुष्ठा� पूरा और सफल हो गया। �ीसरे खण्ड से दसवें खण्ड �कअग्निग्� उपास�ा �0ा देवया� और निप�ृया� माग: इ� खण्डों में अग्निग्� की उपास�ा के महत्त्व को प्रनि�पादिद� निकया गया है और देवया� माग: �0ा निप�ृया� माग: के मम: को समझाया गया है। ये दो�ों माग:, मृ�यु, के पश्चा� �ीव (आ�मा) जि�� माग- से ब्रह्मलोक �ा�ा है, उन्हीं के निवषय को दशा:�े हैं। ये दो�ों माग: भार�ीय आपनि�षदिदक दश:� की निवचिशष्ट संकल्प�ाए ंहैं। इ�का उल्लेख 'कौषी�निक' और 'बृहदारण्यक' उपनि�षदों में भी निवस्�ार से निकया गया है।एक बार आरूत्तिण-पुत्र शे्व�के�ु पां ाल �रेश �ीवल की रा�सभा में पहंु ा। �ीवल के पुत्र प्रवाहण �े उससे पूछा निक क्या उस�े अप�े निप�ा से चिशक्षा ग्रहण की है? इस पर शे्व�के�ु �े 'हां' कहां �ब प्रवाहण �े उससे कुछ प्रश्न निकये-प्रवाहण-'क्या �ुम्हें प�ा है निक मृ�यु के बाद म�ुष्य की आ�मा कहां �ा�ी है? क्या �ुम्हें प�ा है निक वह आ�मा इस लोक में निकस प्रकार आ�ी है? क्या �ुम्हें देवया� और निप�ृया� माग- के अलग हो�े का स्था� प�ा है? क्या �ुम्हें प�ा है निक निप�ृलोक क्यों �हीं मर�ा? क्या �ुम्हें प�ा है निक पां वीं आहुनि� के य�� कर दिदये �ा�े पर घ�ृ सनिह� सोमादिद रस 'पुरुष' संज्ञा को कैसे प्राप्� कर�े हैं?'प्रवाहण के इ� प्रश्नों का उGर शे्व�के�ु �े �कारा�मक दिदयां �ब प्रवाहण �े कहा-'निफर �ुम�े क्यों कहा निक �ुम्हें चिशक्षा प्रदा� की गयी है?'शे्व�के�ु इस प्रश्न का उGर भी �हीं दे सका। वह त्रस्� होकर अप�े निप�ा के पास आया और उन्हें सारा वा�ा:लाप सु�ाया। आरूत्तिण �े भी उ� प्रश्नों का उGर � �ा��े के बारे में कहा। �ब दो�ों निप�ा-पुत्र पां ाल �रेश �ीवल के दरबार में पु�: आये और प्रश्नों के उGर �ा��े की जि�ज्ञासा प्रकट की।रा�ा �े दो�ों का स्वाग� निकया और कुछ काल अप�े यहाँ रखकर एक दिद� कहा-'हे गौ�म! प्रा ी�काल में यह अग्निग्�-निवद्या ब्राह्मणों के पास �हीं 0ी। इसी कारण यह निवद्या क्षनित्रयों के पास रही।'रा�ा �े आगे कहा-'हे गौ�म! यह प्रचिसद्ध दु्यलोक ही अग्निग्� है। आदिद�य अग्निग्� का ईध� है, निकरणें धुआं हैं, शदिद� ज्वाला है, न्द्रमा अंगार है और �क्षत्र चि �गारिरयां हैं इस द्युलोक अग्निग्� में देवगण श्रद्धा से य�� कर�े हैं। वे �ो आहुनि� डाल�े हैं, उससे 'सोम' रा�ा का प्रादुभा:व हो�ा है।'रा�ा �े आगे कहा-'हे गौ�म! इस अग्निग्�-निवद्या में प�:न्य ही अग्निग्� है। वायु सयिमधाए ंहैं, बादल धूम्र हैं, निवद्यु� ज्वालाए ंहै, वज्र अंगार है और

ग�:� चि �गारिरयां हैं। इस देवाग्निग्� में सोम की आहुनि� डाल�े से वषा: प्रकट हो�ी है।'रा�ा �े निफर कहा-'हे गौ�म! पृथ्वी ही अग्निग्� है, संव�सर सयिमधाए ंहैं, आकाश धूम्र है, रानित्र ज्वालाए ंहैं, दिदशाए ंअंगारे हैं और उ�के को�े चि �गारिरयां हैं। उस श्रेष्ठ दिदव्याग्निग्� में वषा: की आहुनि� पड़�े से अन्न् का प्रादुभा:व हो�ा है।'रा�ा �े ौ0े प्रश्न का उGर दिदया-'हे गौ�म! यह पुरुष ही दिदव्याग्निग्� है, वाणी सयिमधाए ंहैं, प्राण धूम्र है, जि�ह्वा ज्वाला है, �ेत्र अंगारे हैं और का� चि �गारिरयां हैं। इस दिदव्याग्निग्� में सभी देव�ा यिमलकर �ब अन्न की आहुनि� दे�े है, �ो वीय:, अ0ा:� पुरुषा0: की उ�पत्तिG हो�ी है।'पां वें प्रश्न का उGर दे�े हुए रा�ा �े कहा-'हे गौ�म!उस अग्निग्�-निवद्या की स्त्री ही दिदव्याग्निग्� है, उसका गभा:शय सयिमधा है, निव ारों का आवेग धुआं है, उसकी योनि� ज्वाला है, स्त्री-पुरुष के सहवास से उ�पन्न दिदव्याग्निग्� अंगारे हैं और आ�न्दा�ुभूनि� चि �गारिरयां हैं उस दिदव्याग्निग्� में देवगण �ब वीय: की आहुनि� डाल�े हैं, �ब श्रेष्ठ गभ: का अव�रण हो�ा है। इस पां वीं आहुनि� के उपरान्� प्र0म आहुनि� में होमा गया 'आप:' (�ल-मूल �ीव�) काया में च्छिस्थ� पुरुषवा क '�ीव या प्राणी' के रूप में निवकचिस� हो �ा�ा है।'समय आ�े पर यही �ीव, �ीव�-प्रवाह में पड़कर �या �न्म ले ले�ा है और नि�त्तिश्च� आयु �क �ीनिव� रह�ा है। इसके बाद शरीर �याग�े पर कम:वश परलोक को गम� कर�े हुए वह वहीं ला �ा�ा है, �हां से वह आया 0ा। �ो साधक इस पं ग्निग्�-निवद्या को �ा�कर श्रद्धापूव:क उपास�ा कर�े हैं, वे सभी प्राणी, प्रयाण के उपरान्� 'देवया� माग:' और 'निप�ृया� माग:' से पु�: दु्यलोक में ले �ा�े हैं।'देवया� और निप�ृया� माग:'देवया� माग:' के अन्�ग:� प्राणी मृ�यु के उपरान्� अग्निग्�लोक या प्रकाश पंु� रूप से दिद� के प्रकाश में समानिह� हो �ा�े हैं। न्द्रमा के शुक्ल पक्ष से वे उGरायण सूय: में आ �ा�े हैं। छह माह के इस संव�सर को आदिद�य में, आदिद�य को न्द्रमा में, न्द्रमा को निवदु्य� में, निवद्यु� को ब्रह्म में पु�: समानिह� हो�े का अवसर प्राप्� हो�ा है। इसे ही आ�मा के प्रयाण का 'देवया� माग:' कहा �ा�ा है। इस माग: से �ा�े वाले �ीव का पु��:न्म �हीं हो�ा।'निप�ृया� माग:' से वे प्राणी मृ�यु के उपरान्� �ा�े हैं, जि�न्हें ब्रह्मज्ञा� पिकंचि � मात्रा में भी �हीं हो�ा। वे लोग धुए ंके रूप में परिरवर्ति�ं� हो �ा�े हैं। धुए ंके रूप में वे रानित्र में गम� कर�े हैं। रानित्र से कृष्ण पक्ष में और कृष्ण पक्ष से दत्तिक्षणाय� सूय: में समानिह� हो �ा�े हैं। ये लोग देवया� माग: से �ा�े वाले �ीवों की भांनि� संव�सर को प्राप्� �हीं हो�े। ये दत्तिक्षणाय� से निप�ृलोक आकाश में और आकाश से न्द्रमा में ले �ा�े हैं। इससे आगे वे ब्रह्म को प्राप्� �हीं हो�े।अप�े कम- का पुण्य क्षय हो�े पर ये आ�माए ंपु�: वषा: के रूप में मृ�युलोक में लौट आ�ी है। ये उसी माग: से वापस आ�ी हैं, जि�स माग: से ये न्द्रमा में गयी 0ीं। वषा: की बूंदों के रूप में �ब ये पृथ्वी पर आ�ी हैं, �ो अन्न और व�स्पनि�-औषयिधयों के रूप में प्रकट हो�ी हैं। �ब उस अन्न और व�स्पनि� का �ो-�ो प्राणी भक्षण कर�ा है, ये उसी के वीय: में �ीवाणु के रूप में पहुं �ा�ी हैं पु�: मा�ृयोनि� के द्वारा �न्म ले�ी हैं।निप�ृया� से �ा�े वाले �ीव पु�: �न्म ले�े हैं। निफर वह ाहे पशु योनि� में आयें, ाहे म�ुष्य योनि� में। �ीव� और मरण का यही रहस्य है।ग्यारहवें खण्ड से ौबीसवें खण्ड �कआ�मा और ब्रह्म का स�य �0ा शरीर से उसका सम्बन्ध इ� खण्डों में रा�ा अश्वपनि� और प्रा ी�शाल उपमन्यु के पुत्र 'औपमन्यव', भाल्लवेय वैयाघ्रपय 'इन्द्रदु्यम्�,'पौलुनिष-पुत्र 'स�ययज्ञ', शाक: राक्ष-पुत्र '��', अश्व�राश्व-पुत्र 'बुनिडल' और अरुण-पुत्र 'उद्दालक' के मध्य हुए प्रश्नोGर में 'आ�मा' और 'ब्रह्म' के मम: को समझाया गया है �0ा ब्रह्माण्ड व मा�व-शरीर के छ: अंगों की �ुल�ा�मक व्याख्या की गयी हैं।एक बार ये छह ऋनिष रा�ा अश्वपनि� के पास �ाकर अप�ी शंका का समाधा� कर�े हैं। �ब रा�ा अश्वपनि� सभी से अलग-अलग प्रश्न करके पूछ�े हैं निक वे निकस 'आ�मा' की उपास�ा कर�े हैं। 'औपमन्यव' �े कहा निक वे 'दु्यलोक' की उपास�ा कर�े हैं, 'इन्द्रदु्यम्�' �े कहा निक वे 'वायुदेव' की उपास�ा कर�े हैं, 'स�ययज्ञ' �े कहा निक वे 'आदिद�य' की उपास�ा कर�े हैं, '��' �े कहा निक वे 'आकाश�त्त्व' की उपास�ा कर�े है, 'बुनिडल' �े कहा निक वे '�ल�त्त्व' की उपास�ा कर�े हैं और ऋनिषकुमार 'उद्दालक' �े कहा निक वे 'पृथ्वी�त्त्व' की उपास�ा कर�े हैं। इस पर रा�ा अश्वपनि� �े 'औपमन्यव' �े कहा निक आप जि�स द्युलोक की उपास�ा कर�े हैं, वह नि�श्चय ही 'सु�े�ा' �ाम से प्रचिसद्ध वैश्वा�र-रूप आ�मा ही है। आप अन्न का भक्षण कर�े हैं और अप�े निप्रय पुत्र-पौत्रादिद को देख�े हैं और अप�े कुल में ब्रह्म�े� से युQ हो�े हैं। निफर रा�ा �े 'इन्द्रदु्यम्�' से कहा निक आप जि�स वायुदेव की उपास�ा कर�े हैं, वह नि�श्चय ही अलग-अलग माग- वाला वैश्वा�र आ�मा है। यह आ�मा का प्राण है। इसी के प्रभाव से आपके पास त्तिभन्न-त्तिभन्न अन्न-वस्त्र आदिद उपहार के रूप में आ�े हैं �0ा आपके पीछे अलग-अलग र0 की शे्रत्तिणयां ल�ी हैं। रा�ा �े पु�: 'स�ययज्ञ' से कहा निक आप जि�स आदिद�य की उपास�ा कर�े हैं, वह नि�श्चय ही निवश्वरूप वैश्वा�र आ�मा है। यही कारण है निक आपके वंश में पया:प्� मात्रा में निवश्व-रूप साधक दृयिष्टगो र हो�े हैं। यह आदिद�य आ�मा का ही ' कु्ष' है। इसके अ�न्�र रा�ा �े 'शाक: राक्ष-पुत्र ��' से कहा निक आप जि�स आकाश-�त्त्व की उपास�ा कर�े हैं, वह नि�श्चय ही निवत्तिभन्न संज्ञाओं से युQ वैश्वा�र आ�मा ही है। यह आ�मा 'उदरय ही है। इसी से आप ध�-धान्य और सन्�ा� पक्ष की ओर से समृद्ध हैं। आ�मा के इस रूप को पह ा�कर, �ो अन्न का भक्षण �0ा निप्रय का दश:� कर�ा है, उसके कुल में ब्रह्म�े� का नि�वास हो�ा है। इसके बाद रा�ा अश्वपनि� �े ऋनिषकुमार' बुनिडल' से कहा निक वह जि�स �ल�त्त्व की उपास�ा कर�ा है, वह नि�श्चय ही श्रीसम्पन्न वैश्वा�र आ�मा है, निकन्�ु यह आ�मा 'मूत्राशय' का आधार है। अन्� में रा�ा �े अरुण-पुत्र 'उद्दालक' से कहा निक वह जि�स पृथ्वी�त्त्व की उपास�ा कर�ा है, वह नि�श्चय ही पग-रूप (प्रनि�ष्ठासंज्ञक) वैश्वा�र आ�मा है। इसकी कृपा से उसे प्र�ा और पशुओं की प्रान्तिप्� हुई है। ये पग-रूप आ�मा के ' रण' ही है।इस प्रकार रा�ा �े छह ऋनिषयों को सम्बोयिध� कर�े हुए कहा निक आप सभी लोग इस वैश्वा�र-स्वरूप आ�मा को पृ0क्-पृ0क् �ा��े हुए भी अन्न का भक्षण कर�े हैं �ो भी म�ुष्य 'यही मैं हूं' �ा�कर अप�े अहं का हे�ु हो�े वाले इस प्रदेश, अ0ा:� 'दु्य-मूधा:' से लेकर 'पृथ्वी' पय:न्� वैश्वा�र आ�मा की उपास�ा कर�ा है, वह सभी लोकों में, सभी प्रात्तिणयों में और सभी आ�माओं में, अन्न का भक्षण कर�ा है।

रा�ा उपदेश दे�े हुए कह�ा है निक इस वैश्वा�र आ�मा का 'मस्�क' ही 'दु्यलोक' है, '�ेत्र' ही 'सूय:' है, 'प्राण' ही 'वाय'ु हैं, शरीर के बी का भाग 'आकाश' है, 'बब्धिस्�' (मूत्राशय) ही '�ल' है, 'पृचि0वीय दो 'पैर' है, 'वक्ष' 'वेदी' है, 'रोमकूप' ही 'कुश' है, 'हृदय' ही 'गाह:प�याग्निग्�' है, 'म�' 'दत्तिक्षणाग्निग्�' है और 'मुंह' 'आहव�ीय अग्निग्�' के समा� है; क्योंनिक अन्न का हव� इसी में हो�ा है।रा�ा �े उन्हें समझाया निक आप सभी वैश्वा�र आ�मा के एक-एक अंग की उपास�ा कर�े 0े। निकसी एक अंग में च्छिस्थ� आ�मा की उपास�ा से 'आ�म�त्त्व' की अ�ुभूनि� �ो की �ा सक�ी है, निकन्�ु उसे वहीं �क सीयिम� �हीं रखा �ा सक�ा। वह �ो अ�न्� ब्रह्माण्ड में व्याप्� है। यदिद उस निवराट ै�न्य शचिQ को निकसी एक अंग �क सीयिम� रखा �ायेगा, �ो वह निवराट के स�� प्रवाह को ब�ाये रख�े में असफल हो �ायेगा। उससे उस अंग-निवशेष को हानि� हो सक�ी है। वह अ�ेका�ेक निवकारों से ग्रचिस� हो सक�ा है। 'ब्रह्म' और 'मा�व-शरीर' 'ब्रह्म' की र �ा और 'मा�व-शरीर' की र �ा में गहरा साम्य है। यहाँ इसी �थ्य का उद्घाट� कर�े का प्रय�� निकया गया है। पं ��वों- पृवी �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश से 'मा�व-शरीर' और 'ब्रह्म' की र �ा का साम्य दशा:या गया है। 'दु्यलोक' (आकाश) ब्रह्म का मस्�क है। यहीं आ�मा नि�वास कर�ी है। 'आदिद�य' (अग्निग्�) को ब्रह्म के �ेत्र कहा गया है। 'वाय'ु प्राण-रूप में शरीर में च्छिस्थ� है। '�ल' का स्था� उदर या मूत्राशय में है। 'पृथ्वी' ब्रह्म के रण है। इस प्रकार 'ब्रह्म' अप�े सम्पूण: निवराट स्वरूप में इस मा�व-शरीर में भी निवद्यमा� है। इस मम: को समझकर ही साधक को अन्�मु:खी होकर 'ब्रह्म' की उपास�ा, अप�े शरीर में ही कर�ी ानिहए। 'ब्रह्म' इस शरीर से अलग �हीं है। यह 'आ�मा' ही ब्रह्म का अंश है। रा�ा अश्वपनि� �े इस रहस्य को समझा�े हुए सभी ऋनिषकुमारों को यज्ञकम: कर�े की प्रेरणा दी और समस्� लोकों �0ा प्राणी समुदाय की समस्� आ�माओं के कल्याण के चिलए यज्ञकम: के महत्त्व का प्रनि�पाद� निकया। यज्ञकम: कैसे करें? रा�ा अश्वपनि� �े कहा निक 'पं प्राण' व शरीर की निवत्तिभन्न कम�जिन्द्रयों का अटूट सम्बन्ध है। यदिद वैश्वा�र निवद्या को अ�ी प्रकार से �ा�कर यज्ञकम: निकया �ाये, �ो सभी कमÖजिन्द्रयों में 'ब्रह्म�े�' का उदय हो�ा अनि�वाय: है। सव:प्र0म पकाये हुए भो�� से 'प्राणाय स्वाहा' मन्त्र पढ़कर यज्ञ में आहुनि� दें। इससे 'प्राण' �ृप्� हो�े हैं, कु्षओं के �ृप्� हो�े से सूय: �ृप्� हो�ा है, सूय: के �ृप्� हो�े से 'दु्यलोक' (आकाश) �ृप्� हो�ा है, दु्यलोक के �ृप्� हो�े से स्वयं भोग लगा�े वाला साधक, ब्रह्म�े� से �ृप्� हो �ा�ा है। इसी प्रकार दूसरी आहुनि�, 'व्या�ाय स्वाहा' मन्त्र पढ़कर 'व्या�' को �ृप्� करें। व्या� की �ृन्तिप्� से कम�जिन्द्रयां �ृप्� हो �ा�ी है।�ीसरी आहुनि� 'अपा�ाय स्वाहा' मन्त्र से दें। इससे 'अपा�' �ृप्� हो�ा है और अपा� की �ृन्तिप्� से वानिगजिन्द्रय (वाणी) की �ृन्तिप्� हो�ी है। ौ0ी आहुनि� 'समा�ाय स्वाहा' से दें। इससे 'समा�' �ृप्� हो�ा है। और समा� की �ृन्तिप्� से 'म�' �ृप्� हो�ा है।पां वीं आहुनि� 'उदा�ाय स्वाहा' से दें। इससे उदा� �ृप्� हो�ा है और उदा� की �ृन्तिप्� से '�व ा' की �ृन्तिप्� हो�ी है।इस प्रकार निकये गये यज्ञकम: से 'ब्रह्म�े�' �ृप्� हो�ा है और उसके �ृप्� हो�े से सम्पूण: पाप �लकर �ष्ट हो �ा�े हैं �0ा समस्� आ�माओं और लोकों में ब्रह्म�े� का प्रादुभा:व हो �ा�ा है। षष्ठ अध्यायब्रह्मऋनिष आरूत्तिण-पुत्र उद्दालक �े अप�े पुत्र श्वे�के�ु को स�य-स्वरूप 'ब्रह्म' को निवनिवध उदाहरणों द्वारा समझाया 0ा और सृयिष्ट के सृ�� की निवयिधव� व्याख्या की 0ी। इस अध्याय में उसी का निववे � निकया गया है। इस अध्याय में सोलह खण्ड हैं । पहला और दूसरा खण्ड�ग� की उ�पत्तिG पहले दो खण्डों में '�ग� की उ�पत्तिG' के निवषय में ब�ाया गया है। अप�े पुत्र शे्व�के�ु को समझा�े हुए ब्रह्मऋनिष उद्दालक �े कहा निक सृयिष्ट के प्रारम्भ में एक मात्र 'स�्' ही निवद्यमा� 0ा। निफर निकसी समय उस�े अप�े आपकों अ�ेक रूपों में निवभQ कर�े का संकल्प निकया। उसके संकल्प कर�े ही उसमें से '�े�' प्रकट हुआ। �े� में से '�ल' प्रकट हुआं संकल्प द्वारा प्रकट हो�े वाले उस '�े�' को वेद में 'निहरण्यगभ:' कहा गया है। सृयिष्ट का मूल निक्रयाशील प्रवाह यह '�ल�त्त्व' ही है, �ो �े� से प्रकट हो�ा है। उस �ल के प्रवाह से अनि�सूक्ष्म कण ब�े और कालान्�र में यही सूक्ष्म कण एकत्र होकर 'पृथ्वी' का कारण ब�े। प्रारम्भ से सृयिष्ट-सृ�� की पहली आहुनि� दु्यलोक में ही हुई 0ी। उसी में निवद्यमा� 'स�्' से '�े�' और �े� से '�ल' की उ�पत्तिG हुई 0ी �0ा �ल के सूक्ष्म पदा0: कणों के सत्मिम्मल� से पृचि0वी का नि�मा:ण हुआ 0ा। धर�ी से अन्न का उ�पाद� हुआ �0ा दूसरे रण में सूय: उ�पन्न हुआ। दूसरा और �ीसरा खण्डसृयिष्ट का नित्रगुणा�मक स्वरूप इ� दो�ों खण्डों में सृयिष्ट के नित्रगुणा�मक स्वरूप की उ�पत्तिG का वण:� निकया गया है। इस नित्रगुणा�मक सृयिष्ट �े �ी� प्रकार के �ीव उ�पन्न निकयें इ� प्रात्तिणयों के ये �ी� बी�-'अण्ड�, ' '�रायु�' और 'उजिद्भ�' कहलाये। �ब स�य-रूपी �े� �े उपयु:Q �ी�ों बी�ों से �ी�-�ी� �ीवा�मा रूप उ�पन्न निकये। ये �ी�ों रूप 'कारण, 'सूक्ष्म' और 'सू्थल' रूप में प्रकट हुए। इस नित्रनिवयिध प्रवृत्तिG के अ�ुरूप '�े�' (अग्निग्�), '�ल' और 'अन्न' के भी �ी�-�ी� रूप हुए। उ�के वण: इस प्रकार हैं— अग्निग्�- का वण: 'लाल' (�े�, प्रकाश), (�ल�त्त्व का रूप) 'शे्व�' वण: और (अन्न�त्त्व का रूप) 'कृष्ण:' वण: है। आदिद�य (सूय:)— की लाचिलमा प्रकाश-रूप है, शे्व� वण: �ल�त्त्व है और कृष्ण: वण: अन्न-रूप हैं। इसी प्रकार ' न्द्र' और 'निवद्यु�' के वण: भी ब�ाये गये हैं।

पां वां और छठा खण्ड�े�, �ल, अन्न का नित्रगुणा�मक रूप इ� खण्डों में '�े�,' '�ल' और 'अन्न' का नित्रगुणा�मक निववे � निकया गया है। �े�- �ो �े� ग्रहण निकया �ा�ा है, वह �ी� रूपों में निवभाजि�� हो �ा�ा है। उस �े� का सू्थल भाग 'हड्डी' के रूप में, मध्यम भाग 'मज्जा' के रूप में और अ�यन्� सूक्ष्म अंश 'वाणी' रूप में परिरण� हो �ा�ा है। �ल- ग्रहण निकये गये �ल की परिरणनि� भी �ी� प्रकार से निवभQ हो�ी है। �ल का सू्थल भाग 'मूत्र', मध्यम अंश 'रQ' और सूक्ष्म अंश 'प्राण' ब� �ा�ा है। अन्न- ग्रहण निकया गया अन्न भी �ी� भागों में बंट �ा�ा है। अन्न का स्थूल भाग 'मल,' मध्यम अंश 'मांस' और �ो अनि�सूक्ष्म है, वह 'म�' के रूप में परिरवर्ति�ं� हो �ा�ा है। उद्दालक �े अप�े पुत्र शे्व�के�ु को समझाया निक '�े�' का काय: 'वाणी' है, �ल का काय: 'प्राण' है और 'अन्न' का काय: 'म�' है। जि�स प्रकार दही के म0�े से उसका सूक्ष्म भाव मक्ख� के रूप में एकत्र हो �ा�ा है, वही प्रवृत्तिG ऊध्व: की ओर गम� कर�े की है। इसी प्रकार �े�, �ल और अन्न का सूक्ष्म भाग, मन्थ� के उपरान्� क्रमश: 'वाणी', 'प्राण' और 'म�' के रूप में परिरवर्ति�ं� हो �ा�ा है। �ा�पय: यही है निक �े� से 'वाणी, '�ल से 'प्राण' और अन्न से 'म�' का नि�मा:ण हो�ा है।सा�वां खण्डम� और अन्न का परस्परिरक सम्बन्ध इस खण्ड में 'म� और अन्न का पारस्परिरक सम्बन्ध' ब�ाया गया है। उद्दालक �े एक दृष्टान्� से इसे समझाया है। उन्हों�े अप�े पुत्र श्वे�के�ु से कहा-'हे व�स! यह म�ुष्य सोलह कलाओं को धारण कर सक�ा है। यदिद �ुम पन्द्रह दिद� �क भो�� � करो और मात्र �ल का ही सेव� कर�े रहो, �ो �ुम्हारा �ीव� �ष्ट �हीं होगा; क्योंनिक 'प्राण' को �ल-रूप कहा गया है। केवल �ल ग्रहण कर�े से �ीव� का अन्� �हीं हो�ा।'ुु इस क0� की परीक्षा के चिलए शे्ववके�ु �े पन्द्रह दिद� �क भो�� �हीं निकया। वह �ल द्वारा ही अप�े प्राणों को पुष्ट कर�ा रहा।पन्द्रह दिद� बाद उद्दालक �े अप�े पुत्र शे्व�के�ु से कहा निक अब वह �ाये और वेदों का अध्यय� करे, निकन्�ु वह ऐसा �हीं कर सका। उसे मन्त्र याद �हीं हो�े 0े। �ब उद्दालक �े अप�े पुत्र को भो�� कर�े के चिलए कहा और निफर मन्त्र याद कर�े के चिलए कहा। इस बार उसे मन्त्र याद हो गये। इससे प�ा ला निक �ैसे �ल 'प्राण' के चिलए अनि�वाय: है, उसी प्रकार अन्न भी 'म�' के चिलए अनि�वाय: है। इसी प्रकार 'वाणी' �भी प्रसु्फदिट� हो�ी है, �ब ज्ञा� का '�े�' म�ुष्य के भी�र हो�ा है। आठवां खण्ड�ीव�-मृ�यु इस खण्ड में '�ीव�-मृ�यु' के सन्दभ: में अन्न, �ल और �े� के महत्त्व को समझा�े हुए उसके 'सृ��' 'संहार' क्रम का दशा:या गया है निक कब इ�का शरीर में �े�ी से प्रादुभा:व हो�ा है और कब ये शरीर का सा0 छोड़�ा�े हैं। सो�े समय पुरुष का शरीर स��त्त्व से �ुड़ �ा�ा हे। इसको 'स्वयिय�,' अ0ा:� 'अप�े आपको प्राप्� कर�े' की च्छिस्थनि� कह�े हैं। �ैसे डोरी से बंधा बा� पक्षी सभी दिदशाओं में उढ़�े के उपरान्� पु�: अप�े उसी स्था� पर आ �ा�ा है, �हां वह बंधा है, वैसे ही यह म� इधर-उधर भटक�े के उपरान्� शरीर का ही आश्रय ग्रहण कर�ा है। शरीर में यह प्राण�त्त्व में निवश्राम कर�ा है। अ�: यह म� प्राणों से बंधा है। इस शरीर का मूल '�ल' और 'अन्न' ही है। शरीर जि�स अन्न को ग्रहण कर�ा है, उसे �ल की शरीर के प्र�येक भाग में पहंु ा�ा है। यह शरीर अन्नमय है। इसी प्रकार �ल की गनि� का आधार �े� है, उज्या: है। इस प्रकार अन्न ग्रहण कर�े ही �ल और �े� की निक्रयाए ंसनिक्रय हो �ा�ी हैं। इसी से '�ीव�' का आधार �य हो�ा है।परन्�ु 'मृ�यु' के समय शरीर सबसे पहले यह �े�, अ0ा:� अग्निग्��त्त्व छोड़ दे�ा है। अग्निग्��त्त्व के �ा�े ही वाणी सा0 छोड़ �ा�ी है, परन्�ु म� निफर भी सनिक्रय ब�ा रह�ा है; क्योंनिक उसमें पृथ्वी�त्त्व प्रमुख हो�ा है। अन्न के माध्यम से वह प्राण में नि�निह� रह�ा है, निकन्�ु �ब प्राण भी �े� में निवली� हो �ा�े हैं और �े� भी शरीर का सा0 छोड़ दे�ा है, �ो शरीर मृ� हो �ा�ा है। धर�ी के अनि�रिरQ अन्य सभी �त्त्व सा0 छोड़ �ा�े हैं और शरीर यिमट्टी के समा� पड़ा रह �ा�ा है। अ�: इस शरीर में �ो प्राण�त्त्व है, वही आ�मा है, परमा�मा का अंश है, वही स� है, वही �ीव� है।इस प्रनिक्रया को सभी व�:मा� वैज्ञानि�क स्वीकार कर�े हैं निक शरीर के प्र�येक कोश �क अन्न को, �े� की ऊज्या: से �ल ही ले �ा�ा है। इस प्रनिक्रया के ल�े ही शरीर �ीनिव� रह�ा है और इस प्रनिक्रया के रूक�े ही शरीर मृ� हो �ा�ा है।�ौवें खण्ड से �ेरहवें खण्ड �कब्रह्म की सव:व्यापक�ा इ� खण्डों में निवनिवध पदा0- के माध्यम से 'ब्रह्म की सव:व्यापक�ा' को चिसद्ध निकया गया है। ब्रह्मऋनिष उद्दालक अप�े पुत्र से कह�े हैं निक जि�स प्रकार मधुमच्छिक्खयां निवत्तिभन्न पुष्पों से मधु एकत्र कर�ी हैं और �ब वह मधु एकरूप हो �ा�ा है, �ब यह कह�ा कदिठ� है निक अमुक मधु निकस पुष्प का है या उसे निकस मधुमक्खी �े संचि � निकया है। इसी प्रकार �ो 'ब्रह्म' को �ा� ले�ा है, वह स्वयं को ब्रह्म से अलग �हीं मा��ा।शे्व�के�ु के पु�: पूछ�े पर उन्हों�े दूसरा उदाहरण �दिदयों का दिदया। जि�स प्रकार पूव: और पत्तिश्चम की ओर बह�े वाली �दिदयां समुद्र में �ाकर यिमल �ा�ी हैं और अप�ा अब्धिस्�त्त्व समाप्� कर दे�ी है, �ब वे सागर के �ल में निवली� होकर �हीं कह कस�ीं निक वह �ल निकस �दी का है। उसी प्रकार उस परम 'स�व' से प्रकट हो�े के उपरान्�, समस्� �ीवा�माए ंउसी 'स�व' में निवली� होकर अप�ा व्यचिQग� स्वरूप �ष्ट कर दे�ी हैं। सागर की भांनि� 'ब्रह्म' का भी यही स्वरूप है।पु�: समझा�े का आग्रह कर�े पर उन्हों�े वृक्ष के दृष्टान्� से समझाया। वृक्ष की �ड़ पर, मध्य में या निफर शीष: पर प्रहार कर�े से रस ही नि�कल�ा है। यह रस उस परम शचिQ के हो�े का प्रमाण है। यदिद वह उसमें � हो�ा, �ो वह वृक्ष और उसकी डाचिलयां सूख ुकी हो�ीं। इसी प्रकार यह वृक्ष-रूपी शरीर �ीव��त्त्व से रनिह� हो�े पर �ष्ट हो �ा�ा है, परन्�ु �ीवा�मा का �ाश �हीं हो�ा। ऐसे सूक्ष्म भाव से ही यह

सम्पूण: �ग� है। यह स�य है और �ुम्हारे भी�र निवद्यमा� 'आ�मा' भी स�य और 'स�ा�� ब्रह्म' का ही अंश है। इसके बाद ब्रह्मऋनिष उद्दालक �े शे्व�के�ु से एक महा� वटवृक्ष से एक फल �ोड़कर ला�े को कहा। फल ला�े के बाद उसे �ोड़कर देख�े को कहा और पूछा निक इसमें क्या है? शे्व�के�ु �े कहा निक इसमें दा�े या बी� हैं। निफर उन्हों�े बी� को �ोड़�े के चिलए कहा। बी� के टूट�े पर पूछा निक इसमें क्या है? इस पर शे्व�के�ु �े उGर दिदया निक इसके अन्दर �ो कुछ �हीं दिदखाई दे रहा। �ब ऋनिष उद्दालक �े कहा-'हे सौम्य! इस वटवृक्ष का यह �ो अणुरूप है, उसके समा� ही यह सूक्ष्म �ग� है। वही स�य है, वही स�य �ुम हो। उसी पर यह निवशाल वृक्ष खड़ा हुआ है।' शे्व�के�ु द्वारा और स्पष्ट कर�े का आग्रह कर�े पर ऋनिष उद्दालक �े �मक के उदाहरण द्वारा उसे समझाया। उन्हों�े �मक की एक डली मंगाकर पा�ी में वह �मक की डली पा�ी में नि�कालकर उसे दे दे, परन्�ु वह उसे �हीं नि�काल सका। निफर उन्हों�े उसे ऊपर से, बी से और �ी े से पी�े के चिलए कहा, �ो उस�े कहा निक यह सारा पा�ी �मकी� है। �ब ऋनिष उद्दालक �े शे्व�के�ु को समझाया निक जि�स प्रकार वह �मक सारे पा�ी में घुला हुआ हैं और �ुम उसे अलग से �हीं देख सक�े, उसी प्रकार �ुम उस परम स�य 'ब्रह्म' के रूप को अ�ुभव �ो कर सक�े हो, पर उसे देख �हीं सक�े। यह समू्पण: �ग� भी अनि�सूक्ष्म रूप से 'स�य�त्त्व' आ�मा में निवद्यमा� है। यही 'ब्रह्म' है। �ब �क यह �ुम्हारी देह में निवद्यमा� है, �भी �क �ुम स्वयं भी 'स�य' हो। ौदह से सोलह खण्ड �कसूक्ष्म आ�मा क्या है? शे्व�के�ु के पु�: पूछ�े पर ऋनिष उद्दालक �े अगले �ी� खण्डों में एक पुरुष की आंखों पर पट्टी बांध�े, मरण�ुल्य पुरुष की वाणी के ले �ा�े और अपराधी व्यचिQ द्वारा �प्� कुल्हाडे़ को ग्रहण कर�े के उदाहरणों द्वारा सूक्ष्म �त्त्व आ�मा के स�य स्वरूप को समझाया। आंखों पर पट्टी बांधकर 'ब्रह्म' अ0वा 'स�य' की खो� �हीं की �ा सक�ी। व्यचिQ को 'आ�मा' और 'परमा�मा' के एक रूप को पह ा��े में सबसे बड़ी बाधा अज्ञा� है। मरण�ुल्य प्राणी की वाणी �ब �क म� में ली� �हीं हो�ी, �ब �क म� प्राण में �ी� �हीं हो�ा, प्राण �े� में �ी� �हीं हो�ा और �े� परम�त्त्व में ली� �हीं हो�ा। �ब �क वह अप�े बन्धु-बान्धवों को पह ा��ा रह�ा है, परन्�ु आ�मा के परम�त्त्व में निवली� हो�े ही वह निकसी को �हीं पह ा� सक�ा। �ो अणु-रूप में निवद्यमा� है, वही समू्पण: ब्रह्माण्ड में ै�न्य-स्वरूप है। वही स�य है, वही सभी प्रात्तिणयों में 'प्राण�त्त्व' है। वही 'आ�मा' है। इसी प्रकार ोरी कर�े वाला अपराधी �प्� कुल्हाडे़ को स�य आवरण से �हीं ढक सक�ा और उसका स्पश: कर�े ही उसके हा0 �ल उठ�े हैं, निकन्�ु ोरी � कर�े वाला व्यचिQ अप�े स�य से �प्� कुल्हाडे़ की गरमी को ढक ले�ा है। उस पर गरम कुल्हाडे़ का पिकंचि � भी प्रभाव �हीं पड़�ा। वस्�ु�: यह समस्� निवश्व 'स�य-स्वरूप' है। वही 'आ�मा है और वही परमा�मा' है, वही परब्रह्म है, स�य है, नि�र्तिवंकार और अ�न्मा है। वह अप�ी इ�ा से अप�े को अ�ेक रूपों में अत्तिभव्यQ कर�ा है और स्वयं ही अप�े भी�र समा �ा�ा है। सा�वां अध्यायइस अध्याय में छब्बीस खण्ड हैं। इ� शब्दों में 'ब्रह्म' से 'प्राण' �क की व्याख्या प्रस्�ु� की गयी है। 'ब्रह्म' की वास्�निवक च्छिस्थनि� क्या है, उस पर प्रकाश डाला गया है।एक से पन्द्रहवें खण्ड �कब्रह्म का य0ा0: रस क्या है? इ� खण्डों में ऋनिष स��कुमार �ारद �ी को 'प्राण' के स�य स्वरूप का ज्ञा� करा�े हैं। �ारद �ी ारों वेदों, इनि�हास, पुराण, �ृ�य, संगी� आदिद निवद्याओं के ज्ञा�ा 0े। उन्हें अप�े ज्ञा� पर गव: 0ा। एक बार उन्हों�े स��कुमार�ी से 'ब्रह्म' के बारे में प्रश्न निकया, �ो उन्हों�े �ारद�ी से यही कहा निक अब �क आप�े �ो ज्ञा� प्राप्� निकया है, वह सब �ो ब्रह्म का �ाम-भर है।उन्हों�े कहा-'�ाम के ऊपर वाणी है; क्योंनिक वाणी द्वारा ही �ाम का उच्चारण हो�ा है। इसे ब्रह्म का एक रूप मा�ा �ा सक�ा है। वाणी के ऊपर संकल्प है; क्योंनिक संकल्प ही म� को प्रेरिर� कर�ा है। संकल्प के ऊपर चि G है; क्योंनिक चि G ही संकल्प कर�े की प्रेरणा दे�ा है। चि G से भी ऊपर ध्या� है; क्योंनिक ध्या� लगा�े पर ही चि G संकल्प की प्रेरणा दे�ा है। ध्या� से ऊपर निवज्ञा� है; क्योंनिक निवज्ञा� का ज्ञा� हो�े पर ही हम स�य-अस�य का प�ा लगाकर लाभदायक वस्�ु पर ध्या� केजिन्द्र� कर�े हैं। निवज्ञा� से श्रेष्ठ बल है और बल से भी श्रेष्ठ अन्न है; क्योंनिक भूखे रहकर � बल होगा, � निवज्ञा� होगा, � ध्या� लगाया �ा सकेगा। कहा भी है-'भूखे भ�� � होय गोपाला।'उन्हों�े आगे कहा-'अन्न से भी श्रेष्ठ �ल है। �ल के निब�ा �ीव का �ीनिव� रह�ा असम्भव है। �ल से भी श्रेष्ठ �े� है; क्योंनिक �े� के निब�ा �ीव में सनिक्रय�ा ही �हीं आ�ी है। इसी क्रम में �े� से श्रेष्ठ आकाश है, आकाश से श्रेष्ठ स्मरण, स्मरण से श्रेष्ठ आशा और आशा से श्रेष्ठ प्राण है; क्योंनिक यदिद प्राण ही �हीं है, �ो �ीव� भी �हीं है। अ�: यह प्राण ही सव:शे्रष्ठ ब्रह्म है।'सोलह से छब्बीस खण्ड �कस�य से आ�मा �क ब्रह्म की यात्रा इस खण्डों में 'स�य' से 'आ�मा' �क व्याप्� 'ब्रह्म' के निवनिवध स्वरूपों का उल्लेख निकया गया है। स��कुमार �ारद �ी को समझा�े हुए कह�े हैं निक 'स�य' को �ा��े के चिलए निवज्ञा� और निवज्ञा� को मा��े के चिलए बुजिद्ध-निवशेष का उपयोग कर�ा ानिहए। बुजिद्ध के चिलए श्रद्धा का हो�ा अनि�वाय: है। श्रद्धा द्वारा ही बुजिद्ध निकसी निवषय का म�� कर पा�ी है। श्रद्धा के सा0 नि�ष्ठा का हो�ा भी अनि�वाय: है; क्योंनिक नि�ष्ठा के निब�ा श्रद्धा का �न्म �हीं हो�ा।इसी प्रकार नि�ष्ठा के चिलए कृनि� का साम�े हो�ा आवश्यक है। ऐसी कृनि� सुख अ0वा हष: प्रदा� कर�े वाली हो�ी ानिहए। �भी कोई साधक उस पर नि�ष्ठापूव:क श्रद्धा रखकर व अप�ी बुजिद्ध-निवशेष से म�� करके, वैज्ञानि�क �थ्यों के आधार पर 'स�य' की खो� कर पा�ा है।'भूमा' क्या है?

भार�ीय दश:� में 'भूमा' शब्द का निवशेष उल्लेख यिमल�ा है। इस 'भूमा' शब्द का अ0: है- निवशाल, निवस्�ृ�, निवराट, अ�न्�, असीम, निवराट, अ�न्�, असीम, निवराट पुरुष, धर�ी, प्राणी और ऐश्वय: । इस 'भूमा' की खो� ही भार�ीय �त्त्व-दश:� का आधार है। यह 'भूमा' अ�न्� आ�न्द की प्रदा�ा है। सांसारिरक प्राणी इसी 'भूमा' का संसग: पा�ा ाह�ा है। यह 'भूमा' ही 'ब्रह्म' का स्वरूप है। इसे ही अमृ�, सव:व्यापी, सव:ज्ञ और सव�Gम कहा गया है। यही 'आ�मा' है। इसे �ा� ले�े के उपरान्� म�ुष्य समस्� सांसारिरक भोगों से मुQ होकर शुद्ध रूप से अप�े अन्�:करण में निवद्यमा� 'परब्रह्म' को प्राप्� कर ले�ा है। अष्टाम अध्यायइस अध्याय में शरीर में च्छिस्थ� 'आ�मा' की अ�र�ा-अमर�ा का निववे � निकया गया है। इस अध्याय में पन्द्रह खण्ड हैं। एक से छह खण्ड �कशरीर में 'आ�मा' की च्छिस्थनि� इ� छह प्रारब्धिम्भक खण्डों में शरीर के भौनि�क स्वरूप में 'आ�मा' की च्छिस्थनि� का वण:� निकया गया है और हृदय �0ा आकाश की �ुल�ा की गयी है। यहाँ आ�मा के इस प्रसंग को गुरु-चिशष्य परम्परा के माध्यम से अत्तिभव्यQ निकया गया है। गुरु अप�े चिशष्यों से कह�ा है निक मा�व-हृदय में अ�यन्� सूक्ष्म रूप से 'ब्रह्म' निवद्यमा� रह�ा है। 'स वा एष आ�मा हृदिद �स्यै�देव नि�रूQँ् हृद्यययिमनि� �स्माद्धद0महरहवा: एवंनिव�स्वग: लोकमेनि�॥3/3॥' अ0ा:� वह आ�मा हृदय में ही च्छिस्थ� है। 'हृदय' का अ0: है 'हृदिद अयम्'- वह हृदय में है। यही आ�मा की वु्य�पत्तिG है। इस प्रकार �ो व्यचिQ आ�म�त्त्व को हृदय में �ा��ा है, वह प्रनि�दिद� स्वग:लोक मे ही गम� कर�ा है।वास्�व में जि���ा बड़ा यह आकाश है, उ��ा ही बड़ा और निवस्�ृ� यह चि दाकाश हृदय भी है। इस हृदय में अ�यन्� सूक्ष्म रूप में 'आ�मा' नि�वास कर�ा है। यह शरीर समय के सा0-सा0 ��:र हो�ा ला है और एक दिद� वृद्ध होकर मृ�यु का ग्रास ब� �ा�ा है। इसीचिलए शरीर को �श्वर कहा गया है, परन्�ु इस शरीर में �ो 'आ�मा' निवद्यमा� है, वह कभी �हीं मर�ा। वह � �ो ��:र हो�ा है, � वृद्ध हो�ा है और � मर�ा है।म�ुष्य अज्ञा��ावश हृदय में रह�े वाले इस 'ब्रह्मरूपी आ�मा' को �हीं �ा� पा�ा। इसचिलए वह मोह-माया के सांसारिरक बन्ध�ों में बंधा रह�ा है, परन्�ु ज्ञा�ी व्यचिQ 'आ�मा' को ही 'ब्रह्म' का रूप �ा�कर ओंकार (प्रणव) �क पहुं �ा�ा है। ऐसा ज्ञा�ी व्यचिQ 'ब्रह्मज्ञा�ी' कहला�ा है। �ो साधक ब्रह्म य: का कठोर�ा से पाल� कर�े हुए हृदयलोक में च्छिस्थ� 'ब्रह्म' के सूक्ष्म रूप 'आ�मा' को �ा� ले�े हैं, उन्हें ही ब्रह्मलोक की प्रान्तिप्� हो�ी है। सम्पूण: लोकों में वे अप�ी इ�ाशचिQ से कहीं भी �ा सक�े हैं।सा�वें से पन्द्रहवें खण्ड �क'आ�मा' का य0ा0: रूप इ� खण्डों में इन्द्र और निवरो � को उपदेश दे�े हुए प्र�ापनि� ब्रह्मा 'आ�मा' के वास्�निवक स्वरूप का दिदग्दश:� करा�े हैं। एक बार देवरा� इन्द्र और असुररा� निवरो�� प्र�ापनि� ब्रह्मा के पास 'आ�मा' व 'ब्रह्मज्ञा�' के य0ा0: स�य को �ा��े की जि�ज्ञासा से पहुं �े हैं और उ�के पास रहकर बGीस वष: �क ब्रह्म य: का पाल� कर�े हैं; क्योंनिक ब्रह्म य: के निब�ा 'ब्रह्म' की प्राप्� �हीं की �ा सक�ी। बGीस वष: पूण: हो�े पर प्र�ापनि� ब्रह्मा �े उ�के आ�े का कारण पूछा। इस पर उन्हों�े 'ब्रह्मरूप और 'आ�मा' के स्वरूप को �ा��े के चिलए अप�ी जि�ज्ञासा प्रकट की। इस पर ब्रह्मा �े कहा निक हम �ो कुछ भी आंखों से देख�े हैं, वह 'आ�मा' का ही रूप है। यह सु�कर दो�ों �े दप:ण मं अप�े स्वरूप को देखकर अप�े प्रनि�निबम्ब को ही 'आ�मा' मा� चिलया �0ा दो�ों अप�े-अप�े लोकों को लौट गये।निवरो � �े असुरों के पास �ाकर कहा निक यह अलंकृ� शरीर ही 'आ�मा' है। इसे ही 'ब्रह्म' का स्वरूप समझो और इसी की उपास�ा करो।उधर इन्द्र �े देवलोक पहंु �े से पहले सो ा निक यह �श्वर शरीर �ष्ट हो �ायेगा, �ो क्या 'आ�मा' अ0वा 'ब्रह्म' भी �ष्ट हो �ायेगा। उसे सन्�ुयिष्ट �हीं हुई, �ो वह पु�: ब्रह्मा के पास लौटकर आया और अप�ी शंका प्रकट की। ब्रह्मा �े उसे पु�: बGीस वष: �क ब्रह्म य: का पाल� कर�े के चिलए कहा। बGीस वष: बाद ब्रह्मा �े इन्द्र से कहा निक पुरुष के जि�स रूप का म�ुष्य स्वप्न में दश:� कर�ा है, वही 'आ�मा' है। इन्द्र ऐसा सु�कर ला गया, निकन्�ु माग: में उसे निफर शंका �े आ घेरा निक स्वप्न में देखे गये पुरुष की आकृनि� �ाग�े पर �ष्ट हो �ा�ी है, यह 'ब्रह्म' �हीं हो सक�ा। वह पु�: ब्रह्मा के पास लौट आया और अप�ी शंका प्रकट की। �ब ब्रह्मा �े उसे पु�: बGीस वष: �क ब्रह्म य: का पाल� कर�े के चिलए कहा। इन्द्र �े ऐसा ही निकया और पु�: ब्रह्मा के पास �ा पहं ा।�ब ब्रह्मा �े कहा निक �ो प्रसुप्� अवस्था में समू्पण: रूप से आ�जिन्द� और शान्� रह�ा है और स्वप्न का अ�ुभव भी �हीं कर�ा, वही 'आ�मा' है। वही अ�श्वर, अभय और 'ब्रह्म' है। इन्द्र सन्�ुष्ट होकर ल दिदया। उस�े सो ा निक उस समय �ीव को यह कैसे ज्ञा� होगा निक वह कौ� है और कहां से आया है? अ�: य0ा0: ज्ञा� शरीर से सम्बत्मिन्ध� हुए निब�ा कैसे प्राप्� हो सक�ा है? शंका उ�पन्न हो�े ही वह पु�: ब्रह्मा के पास �ा पहंु ा और अप�े म� की शंका प्रकट की। इस पर ब्रह्मा �े उसे पां वष: �क पु�: ब्रह्म य: धारण कर�े के चिलए कहा। इस प्रकार इन्द्र �े कुल एक सौ एक वष: �क ब्रह्म य: का पाल� निकया। �ब ब्रह्मा �े उससे कहा-'हे इन्द्र! यह शरीर मरणधम² है एवं सदैव मृ�यु से आ�ादिद� है। अनिव�ाशी �0ा अशरीरी 'आ�मा' इस शरीर में नि�वास कर�ा है। �ब �क यह शरीर में रह�ा है, �ब �क निप्रय-अनिप्रय से यिघरा रह�ा है। शरीर से युQ हो�े के कारण वह उ�से मुQ �हीं हो पा�ा, निकन्�ु �ब यह शरीर छोड़कर अशरीरी हो �ा�ा है, �ब निप्रय-अनिप्रय कोई भी इसे स्पश: �हीं कर पा�ा। �ब वह 'आ�मा' आकाश में वायु की भांनि� ऊपर उठकर इस शरीर को छोड़�े हुए परमज्योनि� में केजिन्द्र� हो �ा�ा है। इस प्रकार �ो य0ा0: 'आ�मा' है, वह सूय: की ज्योनि� से प्रकट होकर शरीर में प्रवेश कर�ा है, निकन्�ु मृ�यु के समय शरीर के सभी सुख-दु:ख से मुQ होकर यह पु�: उसी 'आदिद�य' में समा �ा�ा है। यही 'ब्रह्म है।' इन्द्र इस बार पूण: रूप से सन्�ुष्ट होकर इन्द्रलोक को ला गया। रुद्राक्ष�ाबालोपनि�षदइस सामवेदीय उपनि�षद में 'रुद्राक्ष' की अनि�शय महGा को प्रकट निकया गया है। उपनि�षद का प्रारम्भ 'भुसुण्ड' और 'कालाग्निग्�रुद्र' की क0ा से हुआ है।

[संपादिद� करें] रुद्राक्ष क्या है?इसमें रुद्राक्ष की उ�पत्तिG, रुद्राक्ष के धारण और �प कर�े का प्रनि�फल, रुद्राक्ष के प्रकार और स्वरूपों का निववे �, चिशखा आदिद में रुद्राक्ष धारण कर�े का निवधा�, रुद्राक्ष धारण कर�े के नि�यम और रुद्राक्ष की फलशु्रनि� को कैसे �ा�ें आदिद पर प्रकाश डाला गया है। 'रुद्राक्ष' के निवषय में समग्र निववे � इस उपनि�षद में प्राप्� हो�ा है। उपनि�षद में रुद्राक्ष को 'चिशव के �ेत्र' कहा गया है। इन्हें धारण कर�े से दिद�-रा� में निकये गये सभी पाप �ष्ट हो �ा�े हैं और सौ अरब गु�ा पुण्य प्राप्� हो�ा है। रुद्राक्ष में हृदय सम्बन्धी निवकारों को दूर कर�े की अद्भ�ु क्षम�ा है। ब्राह्मण को शे्व� रुद्राक्ष, क्षनित्रय को लाल, वैश्य को पीला और शूद्र को काला रुद्राक्ष धारण कर�ा ानिहए। एकमुखी रुद्राक्ष को साक्षा� परम�त्त्व का रूप मा�ा गया है, दोमुखी रुद्राक्ष को अध:�ारीश्वर का रूप कहा गया है, �ी�मुखी रुद्राक्ष को अग्निग्�त्रय रूप कहा गया है, �ुमु:खी रुद्राक्ष को �ुमु:ख भगवा� का रूप मा�ा गया है, पं मुखी रुद्राक्ष पां मुंह वाले चिशव का रूप है, छहमुखी रुद्राक्ष कार्ति�ंकेय का रूप है, इसे गणेश का रूप भी कह�े हैं। सप्�मुखी रुद्राक्ष सा� लोकों, सा� मा�ृशचिQ आदिद का रूप है, अष्टमुखी रुद्राक्ष आठ मा�ाओं का, �ौमुखी रुद्राक्ष �ौ शचिQयों का, दसमुखी रुद्राक्ष यम देव�ा का, ग्यारहमुखी रुद्राक्ष एकादश रुद्र का, बारहमुखी रुद्राक्ष महानिवष्णु का, �ेरहमुखी रुद्राक्ष मा�ोकाम�ाओं और चिसजिद्धयों को दे�े वाला �0ा ौदहमुखी रुद्राक्ष की उ�पत्तिG साक्षा� भगवा� के �ेत्रों से हुई मा�ी गयी है, �ो सव: रोगहारी है। रुद्राक्ष धारण कर�े वाले व्यचिQ को मांस-मदिदरा, प्या�-लहसु� आदिद का �याग कर दे�ा ानिहए। रुद्राक्ष धारण कर�े से हृदय शान्� रह�ा है, उGे��ा का अन्� हो�ा है और हज़ारों �ी0- की यात्रा कर�े का फल प्राप्� हो�ा है �0ा व्यचिQ पु��:न्म के क्र से मुQ हो �ा�ा हैं। सानिवत्र्युपनि�षदसामवेदीय परम्परा का यह अन्य�� लघु उपनि�षद है। इसमें सनिव�ा-सानिवत्री के निवनिवध रूपों की परिरकल्प�ा करके उ�में एक�व भाव का प्रनि�पाद� निकया गया है। सव:प्र0म सनिव�ा-सानिवत्री के युग्म (�ोड़ा) और उ�के काय:-कारण को समझाया गया है। उसके बाद सानिवत्री के �ी� रणों, सानिवत्री-ज्ञा� का प्रनि�फल, मृ�यु पर उसकी निव�य, बला-अनि�बला मन्त्रों का नि�रूपण और उपनि�षद की मनिहमा का बखा� निकया गया है। सनिव�ा और सानिवत्री क्या है? यम निव�य क्या है? सनिव�ा 'अग्निग्�' है और सानिवत्री 'पृथ्वी' है। अग्निग्�देव पृथ्वी पर ही प्रनि�यिष्ठ� हो�े हैं। �हां पृथ्वी है, वहां अग्निग्� है। ये दो�ों योनि�यां निवश्व को �न्म दे�े वाली हैं। इ� दो�ों का एक ही युग्म है। 'वरुण' देव सनिव�ा है, �ो 'आप:' (�ल) सानिवत्री है। 'वायु' देव�ा सनिव�ा है, �ो 'आकाश' सानिवत्री है। 'यक्ष देव' सनिव�ा है, �ो 'छन्द' सानिवत्री है। ग�:� कर�े वाले 'मेघ' सनिव�ा हैं, �ो 'निवदु्य�' सानिवत्री है।' आदिद�य' सनिव�ा है, �ो 'दु्यलोक' सानिवत्री है। ' न्द्रमा' सनिव�ा है, �ो '�क्षत्र' सानिवत्री है।'म�' सनिव�ा है, �ो 'वाणी' सानिवत्री है। 'पुरुष' सनिव�ा है, �ो 'स्त्री' सानिवत्री है। इस प्रकार दो�ों युग्म का अटूट सम्बन्ध है। सानिवत्री-रूपी महाशचिQ का प्र0म रण 'भू ��सनिव�ुव:रेण्यं है। भूयिम पर अग्निग्�, �ल, न्द्रमा, मेघ वरण के योग्य हैं। दूसरा रण- 'भुव: भग� देवस्य धीमनिह' है। अग्निग्�, आदिद�य (�े�-स्वरूप, प्रकाश-स्वरूप) देव�ाओं का �े� है। �ीसरा रण- 'स्व: यिधयो यो �: प्र ोदया�्' है। इस सानिवत्री को �ो गृहस्थ �ा��े है, वे पु�: मृ�यु को प्राप्� �हीं हो�े, अ0ा:� वे मृ�यु को भी अप�े वश में कर ले�े हैं। पुराणों में 'सानिवत्री स�यवा�' की क0ा में सानिवत्री यम को वश में कर ले�ी है और यम को स�यवा� के प्राण लौटा�े पड़�े हैं। यह दुष्टान्� इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। बला और अनि�बला �ामक निवद्याओं के ऋनिष निवराट पुरुष हैं। छन्द गायत्री है। देव�ा भी गायत्री है। साधक उपास�ा कर�े हुए कह�ा है-'जि��के हा0 अमृ� से गीले हैं, �ो सभी प्रकार की सं�ीव�ी शचिQयों से ओ�-प्रो� हैं, �ो पापों को पूण: कर�े में सक्षम हैं और �ो वेदों के सार-स्वरूप, प्रकाश की निकरणों के समा� हैं, उ� ओंकार-स्वरूप भगवा� सूय:�ारायण के समा� दीन्तिप्�मय शरीर वाले, बला-अनि�बला निवद्याओं के अयिधष्ठा�ा देवों की मैं सदैव अ�ुभूनि� कर�ा हूँ।'

इस प्रकार सानिवत्री महानिवद्या को समझ�े वाले साधक सानिवत्री की कृपा से गदगद हो �ा�े हैं और वे सानिवत्री लोक को प्राप्� कर ले�े हैं। उन्हें मृ�यु का भय कभी �हीं स�ा�ा। संन्यासोपनि�षदसामवेद से सम्बद्ध इस उपनि�षद में मात्र दो अध्याय हैं। प्र0म अध्याय में 'संन्यास' के निवषय में ब�ाया गया है और दूसरे अध्याय में साध�- �ुष्टय-निववेक, वैराग्य, षट्सम्पत्तिG और मुमुक्षु�व (मोक्ष)- की बा� कही गयी है। संन्यास का अयिधकारी कौ� है? इस प्रश्न का उGर दिदया गया है। संन्यासी के भेद ब�ा�े हुए वैराग्य-संन्यासी, ज्ञा�-संन्यासी, ज्ञा�-वैराग्य-संन्यासी और कम:-संन्यासी की निवस्�ृ� व्याख्या की गयी है। यहाँ छह प्रकार के संन्यास- 'कुटी क्र', 'बहूदक', 'हंस', 'परमहंस', '�ुरीया�ी�' और 'अवधू�' आदिद – का उल्लेख निकया गया है। इसी क्रम में उपनि�षदकार �े 'आ�मज्ञा�' को च्छिस्थनि� और स्वरूप का भी वण:� निकया है। संन्यासी कौ� है? संन्यासी के चिलए आ रण की शुद्ध�ा, पनिवत्र�ा और सन्�ोष का हो�ा परम अनि�वाय: मा�ा गया है। उसे भोग-निवलास से दूर रह�ा ानिहए। आहार-निवहार पर संयम रख�ा ानिहए। सदैव आ�म-चि न्�� कर�े रह�ा ानिहए। ओंकार का �य करके मोक्ष पा�े का प्रय�� कर�ा ानिहए। वास्�व में संन्यासी वह है, जि�स�े आ�मा के उ�ा� हे�ु मा�ा-निप�ा, स्त्री-पुत्र, बन्धु-बान्धव आदिद का पूण: रूप से �याग कर दिदया हो। आ�मा का ध्या� ही संन्यासी का यज्ञोपवी� है, निवद्या ही उसकी ोटी है, �ल के चिलए उदर ही संन्यासी का पात्र है, �लाशय का �ट ही उसका आश्रय-स्थल है, उसके चिलए � रानित्र है, � दिद� है। पूण: रूप से निवरQ, सभी को सुख दे�े वाला, आशा, ईष्या:, अहंकार से दूर, लौनिकक भोगों को �याग�े वाला, मोक्ष की इ�ा का प्रबल साधक, ज्ञा�ी, शान्तिन्�, धैय: और श्रद्धा का पात्र व ब्रह्म का उपासक ही संन्यासी कहे �ा�े योग्य है। वज्रसूचि कोपनि�षदसामवेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में कुल �ौ मन्त्र हैं। इ�में सबसे पहले ब्राह्मणों की शे्रष्ठ�ा और प्रधा��ा का उल्लेख निकया गया है। निफर शरीर, �ानि�, ज्ञा� व कम: के बारे में प्रश्न है। उपनि�षदकार का कह�ा है निक �ो समस्� दोषों से रनिह� हो, अनिद्व�ीय निवद्वा� हो, आ�म�त्त्व का ज्ञा�ा हो, वही ब्राह्मण है। ब्रह्म-भाव से सम्पन्न व्यचिQ ही सच्चा ब्राह्मण है। 'ब्राह्मण,' 'क्षनित्रय,' 'वैश्य' और 'शूद्र', इ� ार वण- में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है। क्या शरीर ब्राह्मण है?'शरीर' ब्राह्मण �हीं है। '�ानि�' भी ब्राह्मण �हीं हो सक�ी। 'ज्ञा�' भी ब्राह्मण �हीं है। 'धार्मिमंक व्यचिQ' भी ब्राह्मण �हीं है। �ब ब्राह्मण कौ� है? उपनि�षदकार कह�ा है निक �ो 'आ�मा' के दै्व�-भाव (आ�मा और परमा�मा को अलग-अलग मा��ा) से युQ � हो, �ानि� गुण, निक्रया से भी युQ � हो, सभी दोषों से मुQ हो, स�य, ज्ञा�, आ�न्द-स्वरूप, नि�र्तिवंकल्प, अशेष कल्पों का आधार, समस्� प्रात्तिणयों में नि�वास कर�े वाला, प्र�यक्ष-अप्र�यक्ष आ�मा को �ा��े वाला, काम �0ा रागादिद दोषों से �टस्थ व कृपालु हो, शम-दम से सम्पन्न हो, �ृष्णा, आशा, मोह से दूर हो, अहंकार �0ा दम्भ से दूर हो, ऐसा व्यचिQ ही ब्राह्मण है। अ�: ब्रह्म-भाव सम्पन्न व्यचिQ को ही ब्राह्मण मा��ा ानिहए। कुच्छिण्डकोपनि�षदसंन्यासी की अन्�मु:खी साध�ाए ंसामवेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में सद्गहृस्थ का दायिय�व पूण: हो�े पर संन्यास आश्रम में प्रवेश �0ा उसकी दिद� या: पर प्रकाश डाला गया है। उसके बाद संन्यासी की अन्�मु:खी साध�ाओं का उल्लेख निकया गया है। पहले �प द्वारा ब्राह्मी- े��ा को �ाग्र� कर�ा ानिहए, �दुपरान्� उसे सम्पूण: आ�म- े��ा के रूप में �ा��े का प्रय�� कर�ा ानिहए। उसके बाद इजिन्द्रयों के संयम से 'अ�ाह� �ाद' द्वारा �ीव- े��ा के निवकास की साध�ा कर�ी ानिहए। इसी क्रम का उल्लेख इस उपनि�षद में निकया गया है। गृहस्थ-�ीव� के उपरान्� संन्यास ग्रहण कर�े वाले व्यचिQ को वायु और �ल-सेव� से व कन्द, मूल, फल आदिद का उपभोग करके अप�े शरीर की रक्षा कर�ी ानिहए। उसे सांसारिरक मोह-माया का �याग करके अध्यात्मि�मक मन्त्रों द्वारा ब्रह्म की उपास�ा कर�ी ानिहए।

अग्निग्� का सम्पक: , कमण्डलु, गुदड़ी, कौपी� (लंगोटी), धो�ी और अंगोछा अप�े पास रख�ा ानिहए। उसे सदैव ब्रह्म का स्मरण कर�े रह�ा ानिहए-मैं �ीवा�मा, आकाश की भांनि�, कल्प�ा से परे, ऊपर च्छिस्थ� हूं। सूय: के समा� अन्य सु�हले आकष:क पदा0- से पृ0क् हूं। पव:� की �रह स�� च्छिस्थ� रह�ा हंू �0ा समुद्र की �रह अपार हूँ। [1] मैं ही �ारायण हूँ, पुरुष और ईश्वर मैं ही हँू, मैं ही अखण्ड बोध-स्वरूप, समस्� प्रात्तिणयों का साक्षी, अहंकार-रनिह� �0ा मम�ा-रनिह� हूँ। ऐसे ब्रह्म का �ो चि न्�� कर�ा है, वह स्वयं ब्रह्म-स्वरूप हो �ा�ा है। वही चिशव है। वह स�� स्वयं को ही देख�ा है और स्वयं ही आ�न्द का उपभोग कर�ा हुआ नि�र्तिवंकल्प रूप में निवद्यमा� रह�ा है। �ाबाल्युपनि�षदपशुपनि� ब्रह्म क्या है? सामवेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में मात्र �ेईस मन्त्र हैं इसमें निपप्लाद के पुत्र पैप्पलादिद और भगवा� �ाबाचिल के मध्य 'परम�त्त्व' से सम्बत्मिन्ध� प्रश्नोGर हैं। इसमें जि�� प्रश्नों को पूछा गया है, उ�में प्रमुख प्रश्न हैं-'यह परम�त्त्व क्या है, �ीव क्या है, पशु कौ� है, ईश कौ� है �0ा मोक्ष-प्रान्तिप्� का उपाय क्या है?' �ाबाचिल �े साध�ा द्वारा जि�स ज्ञा� को प्राप्� निकया 0ा, उसे ब�ा�े हुए उन्हों�े कहा-'हे निपप्पलाद! स्वयं पशुपनि� ही अहंकार से ग्रस्� होकर �ीव ब� �ा�ा है। वह पशु के समा� हो �ा�ा है। सव:ज्ञ और पं �त्त्वों- पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश- से सम्पन्न, सव�श्वर ईश ही पशुपनि� है। वही 'ब्रह्म' है, वही 'परम�त्त्व' है।' यह उपनि�षद शैव म� से सम्बत्मिन्ध� है; क्योंनिक चिशव को ही पशुपनि� कहा गया है। शैव म�ावलत्मिम्बयों द्वारा मस्�क पर नित्रपुण्ड्र धारण कर ओंकार की साध�ा से 'पशुपनि� ब्रह्म' को प्राप्� निकया �ा सक�ा है। महोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 महोपनि�षद 2 प्र0म अध्याय 3 दूसरा अध्याय 4 �ीसरा अध्याय 5 ौ0ा अध्याय 6 पां वां अध्याय 7 छठा अध्याय 8 सम्बंयिध� लिलंक

सामवेदीय परम्परा से सम्बद्ध महोपनि�षद श्री�ारायण के महा� स्वरूप को प्रकट कर�े वाला है। इसे शुकदेव�ी और रा�ा ��क �0ा ऋभु व नि�दाघ के प्रश्नोGर के रूप में चिलखा गया है। इसमें कुल छह अध्याय है। [संपादिद� करें] प्र0म अध्याय'�ारायण' का स्वरूप इस अध्याय में सव:प्र0म श्री�ारायण के अनिद्व�ीय ईश्वरीय स्वरूप का निववे � है। उसके उपरान्� ज्ञा�ेजिन्द्रयों और कमÖजिन्द्रयों का निववे � है। निफर रुद्र की उ�पत्तिG और ब्रह्मा के �न्म का क0ा�क है। देव�ाओं आदिद का प्रादुभा:व और �ारायण के निवराट स्वरूप का निववे � है। इस निवराट स्वरूप वाले �ारायण को हृदय द्वारा ही पाया �ा सक�ा है; क्योंनिक वही इसका स्था� है। [संपादिद� करें] दूसरा अध्याय�ीव�-�ग� क्या है? इस अध्याय में शुकदेव �ी व्यास �ी के उपदेशों के प्रनि� '�ग� के प्रपं -रूप के प्रकटीकरण और निव�ाश' निवषय को लेकर अ�ादर भाव प्रकट कर�े हैं। शंका-समाधा� के चिलए वे रा�ा ��क के पास �ा�े हैं। रा�ा ��क पहले शुकदेव �ी को समस्� भोग-निवलासों के मध्य रखकर उ�की परीक्षा ले�े हैं। �ब भोग-निवलास शुकदेव �ी को �हीं निडगा पा�े, �ो रा�ा ��क उ�की इ�ा पूछकर, उ�की शंका का समाधा� कर�े हैं, परन्�ु शुकदेव �ी कह�े हैं निक उ�के निप�ा �े भी ऐसा ही कहा 0ा निक 'म� के निवकल्प से ही प्रपं उ�पन्न हो�े हैं और उस निवकल्प के �ष्ट हो �ा�े पर प्रपं ों का निव�ाश हो �ा�ा है।' यह �ग� नि�न्द�ीय और सार-रनिह� है, यह नि�त्तिश्च� है। �ब यह �ीव� क्या है? इसे ब�ा�े की कृपा करें। इस पर रा�ा ��क के �त्त्व-दश:� का उपदेश शुकदेव �ी को दे�े हैं। निवदेहरा� �े कहा-'हे व�स! यह दृश्य �ग� है ही �हीं, ऐसा पूण: बोध �ब हो �ा�ा है, �ब दृश्य निवषय से म� की शुजिद्ध हो �ा�ी है। ऐसा ज्ञा� पूण: हो�े पर ही उसे नि�वा:ण प्राप्� हो�ा है व शान्तिन्� यिमल�ी है। �ो वास�ाओं का �याग कर दे�ा है, समस्� पदा0- की आकांक्षा से रनिह� हो �ा�ा है, �ो सदैव आ�मा में ली� रह�ा है, जि�सका म� एकाग्र और पनिवत्र है, �ो सव:त्र मोह-रनिह� है, नि�ष्कामी है, शोक और हष�ल्लास में समा� भाव रख�ा है, जि�सके म� में अहंकार, ईष्या: व दे्वष के भाव �हीं हैं, �ो �यागी है, �ो धम:-अधम:, सुख-दु:ख, �न्म-मृ�यु आदिद के भावों से परे है, वही पुरुष �ीव�-मुQ कहला�ा है। ऐसी निवदेह-मुचिQ गम्भीर और स्�ब्ध हो�ी है। ऐसी अवस्था में सव:त्र प्रकाश और आ�न्द ही अ�ुभव हो�ा है। यही चिशव-स्वरूप ै�न्य है। इसके अनि�रिरQ कुछ �हीं है।'

निवदेहरा� रा�ा ��क के इस �त्त्व-दश:� को सु�कर शुकदेव�ी संशय-रनिह� होकर परम�त्त्व आ�मा में च्छिस्थ� होकर शान्� हो गये। [संपादिद� करें] �ीसरा अध्यायसंसार �श्वर है यह अध्याय 'नि�दाघ' मुनि� के निव ारों को प्रनि�पाद� कर�ा है। इसमें मायावी �ग� को अनि��य ब�ाया गया है। �ृष्णा और देह की नि�न्दा की गयी है। संसार को दु:खमय चिसद्ध निकया गया है और वैराग्य से �त्त्व जि�ज्ञासा का शम� निकया गया है। [संपादिद� करें] ौ0ा अध्यायमोक्ष क्या है? इस अध्याय में 'मोक्ष' के ार उपायों का वण:� है। ये ार-'शम' (म�ोनि�ग्रह), 'निव ार,' 'सन्�ोष' और 'स�संग'- हैं। यदिद इ�में से एक का भी आश्रय प्राप्� कर चिलया �ाये, �ो शेष �ी� स्वयमेव ही वश में हो �ा�े हैं। इस �श्वर �ग� से 'मोक्ष' प्राप्� कर�े के चिलए '�प,' 'दम' (इजिन्द्रयदम�), 'शास्त्र' एवं 'स�संग' से स�� अभ्यास द्वारा आ�मचि न्�� कर�ा ानिहए।गुरु एवं शास्त्र-व �ों के द्वारा अन्�:अ�ुभूनि� से अन्�:शुजिद्ध हो�ी है। उसी के स�� अभ्यास से आ�म-साक्षा�कार निकया �ा सक�ा है। शुभ-अशुभ के श्रवण से, भो�� से, स्पश: से, दश:� से और एवं ज्ञा� से जि�स म�ुष्य को � �ो प्रसन्न�ा हो�ी है और � दु:ख हो�ा है, वही म�ुष्य शान्� औ समदश² कहला�ा है। सन्�ोष-रूपी अमृ� का पा� कर ज्ञा�ी �� आ�मा के महा�ाद (परमा�न्द) को प्राप्� कर�े हैं। �ब इस दृश्य �ग� की सGा का अभाव, बोधगम्य हो �ा�ा है, �भी वह संशयरनिह� ज्ञा� को समझ पा�ा है। यही आ�मा का कैवल्य रूप है। यह �ग� �ो मात्र म�ोनिवलास है। मुचिQ की आकांक्षा रख�े वाले साधक को 'ब्रह्म�त्त्व' के बाद-निववाद में � पड़कर उसका चि न्��-भर कर�ा ानिहए।'यहाँ मेरा कुछ �हीं है, सब उसी का है। उसी की शचिQ से आबद्ध हमारा यह अब्धिस्�त्त्व है।' ऐसा समझ�ा ानिहए। [संपादिद� करें] पां वां अध्यायज्ञा�-अज्ञा� की भूयिमका इस अध्याय में ज्ञा�-अज्ञा� की सा� भूयिमकाओं का उल्लेख है। महर्तिषं ऋभु अप�े पुत्र से कह�े हैं निक 'अज्ञा�' और 'ज्ञा�' की सा�-सा� भूयिमकाए ंहैं। अहं भाव 'अज्ञा�' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उ�पन्न हो�ा है। अज्ञा� से ही राग-दे्वषादिद उ�पन्न हो�े हैं और �ीव मोहग्रस्� होकर आ�म-स्वरूप से परे हट �ा�ा है।ज्ञा� की पहली भूयिमका 'शुभे�ा' से प्रारम्भ हो�ी है। स�संगनि� से वैराग्य उ�पन्न हो�ा है, सदा ार की भाव�ाए ं�ाग्र� हो� हैं और भोग-वास�ाओं की आसचिQ क्षीण हो �ा�ी है। ज्ञा�ी �� स�कम- में संलग्� रहकर स�ा�� सदा रण की परम्परा का नि�वा:ह कर�े हैं। ऐसे ज्ञा�ी पुरुष देह�याग के पश्चा� 'मुचिQ' के अयिधकारी हो�े हैं।[संपादिद� करें] छठा अध्यायसमायिध और �ीव�-मुQ इस अध्याय में समायिध से परमेश्वर की प्रान्तिप्�, ज्ञानि�यों की उपास�ा-निवयिध, अज्ञानि�यों की दु:खद च्छिस्थनि�, वास�ा-�याग के उपाय, �ीवन्मुQ व्यचिQ की मनिहमा आदिद का वण:� निकया गया है। निकसी भी प्रज्ञावा� पुरुष में �ग� की �श्वर�ा का भाव, नि�भ:य�ा, सम�ा, नि��य�ा, नि�ष्काम दृयिष्ट, सोम्य�ा, धैय:, मैत्री, सन्�ोष, मृदु�ा, मोहही��ा आदिद का समावेश रह�ा है। ऐसा व्यचिQ ही '�ीवन्मुQ' हो�ा है। मैते्र�युग्पनि�षदइस सामवेदीय उपनि�षद में रा�ा बृहद्र0 और महा�े�स्वी शाकायन्य मुनि� के वा�ा:लाप द्वारा शरीर की �श्वर�ा, उसके वीभ�स रूप और आ�म�त्त्व की प्रान्तिप्� का उल्लेख है। इसमें कुल �ी� अध्याय हैं।नि��य कौ� हैं? पहले अध्याय में रा�ा बृहद्र0 और शाकायन्य मुनि� का वा�ा:लाप है, जि�समें शरीर की �श्वर�ा और 'आ�म�त्त्व' की प्रान्तिप्� पर प्रकाश डाला गया है। मुनि�वर रा�ा से कह�े हैं निक परमा�मा अनिव�ाशी है। उसे म� एवं वाणी से �हीं �ा�ा �ा सक�ा। वह आदिद और अन्� से रनिह� है। वह मात्र स�्-रूपी प्रकाश से स�� प्रकाचिश� हो�ा है। वह कल्प�ा�ी� है-नि��य: शुद्धो बुद्धमुQस्वभाव: स�य: सूक्ष्म: संनिवभुश्चानिद्व�ीय:।आ�न्दाब्धिब्धय:: पर: सोऽहमब्धिस्म प्र�यग्धा�ु�ा:त्र संशीनि�रब्धिस्�॥15॥ अ0ा:� वह परमा�मा नि��य, शुद्ध, ज्ञा�-स्वरूप, मुQ स्वभाव, स�य-रूप, सूक्ष्म, सव:त्र व्यापक और अनिद्व�ीय है। वह इस परमा�न्द सागर एवं प्र�येक स्वरूप का धारण कर�े वाला है। इसमें कोई संशय �हीं है। आ�मा ही नि��य है दूसरे अध्याय में भगवा� मैते्रय और महादेव के वा�ा:लाप द्वारा 'परम�त्त्व' के रहस्य पर प्रकाश डाला गया है। महादेव�ी कह�े हैं-'यह शरीर देवालय है �0ा उसमें रह�े वाला �ीव ही केवल चिशव, अ0ा:� परमा�मा है।''�ीव' और 'ब्रह्म' एक ही है, यह मा��ा ही ज्ञा� है। मल, मूत्रादिद दुग:न्धयुQ शरीर की शुजिद्ध यिमट्टी और �ल से हो�ी है, निकन्�ु वास्�निवक शुजिद्ध 'मैं और मेरा' का �याग कर�े से हो�ी है।ब्रह्म ही परम�त्त्व है �ीसरे अध्याय में 'ब्रह्म' स्वयं अप�ी च्छिस्थनि� स्पष्ट कर�ा है-

अहमब्धिस्म परश्चाब्धिस्म ब्रह्माब्धिस्म प्रभवोऽस्म्यहम्।सव:लोकगुरुश्चाब्धिस्म सव:लोकेऽब्धिस्म सोऽस्म्यहम्॥1॥ अ0ा:� अन्�ःकरण में च्छिस्थ� ब्रह्म मैं हूँ और बाह्य �ग� में भी मैं ही ब्रह्म हँू, मैं स्वयं �न्म हूँ, सृ�� हँू और समस्� लोकों का गुरु हँू �0ा समस्� लोकों में �ो कुछ भी निवद्यमा� है, वह मैं ही हूँ। वास्�व में वही चिसद्ध है, वही शुद्ध है, वही परम�त्त्व है, वह सदैव नि��य है और मलरनिह� है। वह निवचिशष्ट ज्ञा�-सम्पन्न है, वही शोक-रनिह� शुद्ध ै�न्य-स्वरूप है। वह गुणा�ी�, मा�-अपमा� से परे चिशव है। वही 'ब्रह्म' है।�ो म�ुष्य एक बार भी इस 'मैते्रयी उपनि�षद' का श्रवण अ0वा म�� कर ले�ा है, वह स्वयं ही ब्रह्म हो �ा�ा है। योग ूडामण्युपनि�षदसामवेदीय परम्परा के इस उपनि�षद में 'योग-साध�ा' द्वारा आ�मशचिQ �ागरण की प्रनिक्रया का समग्र माग:दश:� कराया गया है। [संपादिद� करें] योग द्वारा आ�मशचिQसव:प्र0म योग के छह अंगों- आस�, प्राणायाम, प्र�याहार, धारणा, ध्या� और समायिध का निवस्�ृ� उल्लेख निकया गया है। इसके बाद योग-चिसजिद्ध के चिलए आवश्यक देह �त्त्व का ज्ञा� व मूलाधार क्र से 'कुच्छिण्डचिल�ी' �ागरण आदिद की निवयिध ब�ायी गयी है। उसके बाद '�ाड़ी क्र' और 'प्राणवायु' की गनि� का उल्लेख है। �दुपरान्� प्रणव (ओंकार) �प की प्रनिक्रया, प्रणव और ब्रह्म की एकरूप�ा, प्रणव-साध�ा, आ�मज्ञा�, प्राणायाम अभ्यास, इजिन्द्रयों का प्र�याहार आदिद पर प्रकाश डाला गया है। योगपरक उपनि�षदों में इस 'योग ूड़ामत्तिण' उपनि�षद का बड़ा महत्त्व है।

ATHARV VED KE UPANISHADअ0व:चिशर उपनि�षदअ0व:वेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में देवगणों द्वारा 'रुद्र' की परमा�मा-रूप में उपास�ा की गयी है। सा0 ही स�, र�, �म, त्रय गुणों �0ा मूल निक्रयाशील �त्त्व आप : (�ल) की उ�पत्तिG और उससे सृयिष्ट के निवकास का वण:� निकया गया है। एक बार देव�ाओं �े स्वग:लोक में �ाकर 'रुद्र' से पूछा निक वे कौ� हैं? इस पर रुद्र �े उGर दिदया-'मैं एक हँू। भू�, व�:मा� और भनिवष्यकाल, मैं ही हँू। मेरे अनि�रिरQ कुछ भी �हीं है। समस्� दिदशाओं में, मैं ही हँू। नि��य-अनि��य, व्यQ-अव्यQ, ब्रह्म-अब्रह्म, पूव:-पत्तिश्चम, उGर-दत्तिक्षण, पुरुष-स्त्री, गायत्री, सानिवत्री और सरस्व�ी मैं ही हूं। समस्� वेद मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर, अग्र, मध्य, ऊपर, �ी े भी मैं ही हूँ।' ऐसा सु�कर सभी देव�ाओं �े 'रुद्र' की स्�ुनि� की और उन्हें बार-बार �म� निकया। उसे 'ब्रह्म' स्वीकार निकया; क्योंनिक सभी प्राणों का भक्षण करके वह बार-बार सृ�� कर�ा है। वही ��क है और वही संहारक�ा: महेश्वर है। उसे 'रुद्र' इसचिलए कहा �ा�ा है निक उसके स्वरूप का ज्ञा� ऋनिषयों को सह� ही हो �ा�ा है, निकन्�ु सामान्य �� के चिलए उसे �ा��ा अ�यन्� कदिठ� है। निवश्व का उद्भव, संरक्षण और संहार उसी के द्वारा हो�ा है। वह आ�मा के रूप में सभी प्रात्तिणयों में च्छिस्थ� है। समस्� देव�ाओं का सामूनिहक स्वरूप 'रुद्र' भगवा� का चिसर है। �ल, ज्योनि�, रस, अमृ�, ब्रह्म, भू:, भुव: और स्व: रूप, रुद्र ही का परम �प है। वेद में 'आप: (द्रव्य) को सृयिष्ट का मूल निक्रयाशील �त्त्व कहा है। गाढे़ 'आप:' �त्त्व को म0�े से फे� उ�पन्न हो�ा है। यह ब्रह्माण्ड फे�-रूप में ही है। प्रारब्धिम्भक अण्ड ही ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड में ही ब्रह्मा का सृ��शील स्वरूप प्रकट हो�ा है। इसी से दृश्य-सृयिष्ट का निवकास हो�ा है। वायु से 'ॐकार' की उ�पत्तिG मा�ी गयी है। 'ॐकार' एक ध्वनि�-निवशेष है। यह ध्वनि� वायु द्वारा आकाश के मध्य उ�पन्न हो�ी है। इसी से सृयिष्ट का निवकास-क्रम प्रकट हो�ा है। 'स�,' 'र�' और '�म' गुणों का प्रादुभा:व हो�ा है। इस उपनि�षद के पढ़�े से साठ हज़ार गायत्री मन्त्रों के �प�े का फल प्राप्� हो�ा है। अ0व:चिशर उपनि�षद के एक बार के �ाप से ही साधक पनिवत्र होकर कल्याणकारी ब� �ा�ा है। गोपालपूव:�ाप�ीयोपनि�षदअ0व:वेदीय परम्परा के इस उपनि�षद में सनिवशेष ब्रह्म श्रीकृष्ण की स्थाप�ा कर�े हुए उन्हें नि�र्तिवंशेष ब्रह्म (नि�राकार ब्रह्म) के रूप में प्रस्�ु� कर�े का प्रय�� निकया गया है। प्रारम्भ में मुनि�गण श्रीकृष्ण की स्�ुनि� कर�े हैं और उन्हें परमदेव के रूप में स्वीकार कर�े हैं कृष्ण के �ाम का सत्मिन्ध-निव�ेद कर�े हुए 'कृष्' शब्द को सGावा क मा�ा है और '�' अक्षर को आ�न्दबोधक। इ� दो�ों के यिमल� से सच्छिच्चदा�न्द परमेश्वर 'श्रीकृष्ण' के �ाम की सा0:क�ा प्रकट की गयी है। ऋनिष-मुनि�यों द्वारा ब्रह्मा�ी से सव:श्रेष्ठ देव�ा के निवषय में पूछ�े पर ब्रह्मा �ी कह�े हैं निक श्रीकृष्ण ही सव:शे्रष्ठ देव�ा हैं। मृ�यु भी गोनिवन्द से भयभी� रह�ी है। 'गोपी��वल्लभ' के �त्त्व को �ा� ले�े से सभी कुछ सम्यक रूप से ज्ञा� हो �ा�ा है। श्रीकृष्ण ही समस्� पापों का हरण कर�े वाले हैं। वे गौ, भूयिम और वेदवाणी के ज्ञा�-रूप योगीरा�, हरिररूप में गोनिवन्द हैं। भQगण निवत्तिभन्न

रूपों में उ�की उपास�ा कर�े हैं-वेदों को �ा��े वाले सच्छिच्चदा�न्द-स्वरूप 'श्रीकृष्ण' का त्तिभन्न-त्तिभन्न प्रकार से भ��-पू�� कर�े हैं। 'गोनिवन्द' �ाम से प्रख्या� उ� 'श्रीकृष्ण' की निवनिवध रीनि�यों से स्�ुनि� कर�े हैं। वे 'गोपी��वल्लभ' श्यामसुन्दर ही हैं। वे ही समस्� लोकों का पाल� कर�े हैं और 'माया' �ामक शचिQ का आश्रय लेकर उन्हों�े ही इस �ग� को उ�पन्न निकया है। श्रीकृष्ण नि��यों में नि��य और े��ों में परम े�� हैं। वे सम्पूण: म�ोकाम�ाओं को पूण: कर�े वाले हैं। उ�की पू�ा से स�ा��-सुख की प्रान्तिप्� हो�ी है। [1] �ो निवज्ञा�मय �0ा परमआ�न्द को दे�े वाले हैं, �ो प्र�येक प्राणी के हृदय में नि�वास कर�े हैं, उ� गोप-सुन्दरिरयों के प्राणाधार भगवा� श्रीकृष्ण का बार-बार �म� कर�े से मोक्ष की प्रान्तिप्� हो �ा�ी है। वंशीवाद� जि��की सह� वृत्तिG है और �ो कंस, काचिलया �ाग, पू��ा, बकासुर आदिद राक्षसों का वध कर�े वाले हैं, जि��के मस्�क पर मोरपंख सुशोत्तिभ� हैं और जि��के �ेत्र कमल के समा� सुन्दर हैं, �ो गले में वै�न्�ीमाल धारण कर�े हैं, जि��की कदिट में पी�ाम्बर सुशोत्तिभ� है, हम उस श्रीराधा के मा�स-हंस श्रीकृष्ण का बार-बार �म� कर�े हैं। ऐसे श्रीकृष्ण साकार रूप में दश:� दे�े हुए भी नि�राकार ब्रह्म के ही प्रनि�रूप हैं। उ�का �े� अगम्य और अगो र है। उ�की उपास�ा से समस्� द्वन्द-फन्द �ष्ट हो �ा�े हैं। गणपनि� उपनि�षदअ0व:वेदीय इस उपनि�षद में गणपनि� की ब्रह्म-रूप में उपास�ा की गयी है। गणपनि� को वाणी का देव�ा मा�ा गया है। उन्हें �ी� गुणों-स�, र�, �म- से परे मा�ा गया है। गणपनि� म�ुष्य के मूलाधार क्र में च्छिस्थ� रह�े हैं। इ�ा, निक्रया और ज्ञा� आदिद शचिQयों के वे एकमात्र आधार हैं। योगी सदैव गणपनि� की आराध�ा कर�े हैं। गणपनि� की उपास�ा का बी� मन्त्र 'ॐगम्' (ॐ गणप�े �म:) है। इसे महामन्त्र के �ाम से �ा�ा �ा�ा हैं गणेश �ी की एकदन्�, वक्र�ुण्ड और ग�ा�� �ाम से पू�ा की �ा�ी है। समस्� शुभकम- में सबसे पहले गणपनि� की उपास�ा का निवधा� है। गणपनि� की उपास�ा से सभी सकंट कट �ा�े हैं और म�ोवांचिछ� फल की प्रान्तिप्� हो�ी है।

कृष्ण उपनि�षदकृष्ण उपनि�षद उपनि�षदों में एक अ0व:वेदीय उपनि�षद है। कृष्ण उपनि�षद एक परव�² उपनि�षद है। जि�समें कृष्ण का दाश:नि�क रूप व्याख्या� हुआ है। वैष्णव सम्प्रदाय में इसका निवशेष आदर है। माण्डूक्योपनि�षदअ0व:वेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में 'ॐकार' को 'अक्षरब्रह्म' परमा�मा स्वीकार निकया गया है। ओंकार के निवनिवध रणों और मात्राओं का निववे � कर�े हुए अव्यQ परमा�मा के व्यQ निवराट �ग� का उल्लेख निकया गया है। परमा�मा के 'नि�राकार' और 'साकार' दो�ों स्वरूपों की उपास�ा पर बल दिदया गया है। इसमें बारह मन्त्र हैं। 'ॐ' अक्षर अनिव�ाशी 'ब्रह्म' का प्र�ीक है। उसकी मनिहमा प्रकट ब्रह्माण्ड से हो�ी है। भू�, भनिवष्य और व�:मा�, �ी�ों कालों वाला यह संसार 'ॐकार' ही है। यह सम्पूण: �ग� 'ब्रह्म-रूप' है।'आ�मा' भी ब्रह्मा का ही स्वरूप है। 'ब्रह्म' और 'आ�मा' ार रण वाला सू्थल या प्र�यक्ष, सूक्ष्म, कारण �0ा अव्यQ रूपों में प्रभाव डाल�े वाला है। प्र0म रण स्थूल वैश्वा�र (अग्निग्�), �ाग्र� अवस्था में रह�े वाला, बाह्य रूप से बोध करा�े वाला, सा� अंगों, अ0ा:� सप्� लोकों या सप्� निकरणों से दु्यनि�मा�, उन्नीस मुखों- दस इजिन्द्रयों, पां प्राण �0ा ार अन्�-करण-वाला है। निद्व�ीय रण ज्योनि�म:य आ�मा अ0वा अव्यQ ब्रह्म है। �ृ�ीय रण 'प्राज्ञ' ही ब्रह्म का रण है, जि�सके द्वारा वह एकमात्र आ�न्द का बोध करा�ा है। वह ब्रह्म ही �ग� का कारणभू� है, सबका ईश्वर है, सव:ज्ञ है, अन्�या:मी है, निकन्�ु �ो एक मात्र अ�ुभवगम्य है, शान्�-रूप है, कल्याणकारी अदै्व�-रूप है, वह उसका �ु0: रण है। इस प्रकार 'आ�मा' और 'परमा�मा' अक्षरब्रह्म' 'ॐकार' रूप में ही साम�े रह�ा है। इसकी मात्राए ंही इसके रण हैं और रण ही मात्राए ंहैं। ये मात्राए ं'अकार,' 'उकार' और 'मकार' हैं। ॐ की �ी� मात्राए-ं अ, उ, म् हैं। यह निवश्व नित्रयामी है। भू�, भनिवष्य और व�:मा� काल भी इसकी �ी� मात्राए ंहैं। ये स�्, र� और �म की प्र�ीक हैं। ज्ञा� द्वारा ही परमा�मा के इस े��-अ े�� स्वरूप को �ा�ा �ा सक�ा है। उसे वाणी से प्रकट कर�ा अ�यन्� कदिठ� है। उसे अ�ुभव निकया �ा सक�ा है। एक आ�मज्ञा�ी साधक अप�े आ�मज्ञा� के द्वारा ही आ�मा को परब्रह्म में प्रनिवष्ट करा�ा है और उससे अदै्व� सम्बन्ध स्थानिप� कर�ा है। महावाक्योपनि�षद

अ0व:वेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में ब्रह्मा �े देव�ाओं के समक्ष 'आ�मज्ञा�' का रहस्य प्रकट निकया है। यह आ�मज्ञा� सदैव अज्ञा� के अन्धकार से ढका रह�ा है। इसे सान्ति�वक गुणों वाले व्यचिQ के सम्मुख ही कह�ा ानिहए। इसमें कुल बारह मन्त्र हैं। हमारे शरीर में च्छिस्थ� 'आ�मा' ही 'ब्रह्म' का अंश है और यह परमा�मा की भांनि� सदैव प्रकाशवा� रह�ा है। इसे ऐसा मा�कर प्राण-अपा�, प्राणायाम द्वारा �ब �क �ा��े का प्रयास कर�ा ानिहए, �ब �क साधक इसे पूरी �रह आ�मसा� � कर ले; क्योंनिक इससे संयुQ हो�े ही साधक को 'ब्रह्मज्ञा�' प्राप्� हो �ा�ा है और उसे स�य-स्वरूप परमा�न्द की अ�ुभूनि� हो�े लग�ी है। वह 'ब्रह्म' आ�म�त्त्व का ही आदिद�य वण: है। उसमें अदै्व� भाव से समर्तिपं� हो �ा�े के उपरान्� ही परा�पर 'ब्रह्म' की अ�ुभूनि� हो पा�ी है। इससे त्तिभन्न मुचिQ का कोई दूसरा माग: �हीं है। सोऽहमक: : परं ज्योनि�रक: ज्योनि�रहं चिशव:।आ�मज्योनि�रहं शुक्र: सव:ज्योनि�रसावदोम्॥11॥ अ0ा:� में ही वह चि द ्आदिद�य हूँ, मैं ही आदिद�य-रूप वह परम ज्योनि� हंू, मैं ही वह चिशव (कल्याणकारी �त्त्व) हूँ। मैं ही वह श्रेष्ठ आ�मा-ज्योनि� हूँ। सभी को प्रकाश दे�े वाला शुक्र (ब्रह्म) मैं ही हँू �0ा उस (परमसGा) के कभी अलग �हीं रह�ा।इस उपनि�षद का प्रा�:काल पाठ कर�े से रानित्र में निकये हुए समस्� पापों से मुचिQ यिमल �ा�ी है। सायंकाल पाठ कर�े वाला म�ुष्य दिद� में निकये हुए पापों से मुQ हो �ा�ा है �0ा दो�ों समय पाठ कर�े से पां महापा�क- ब्रह्मह�या, परस्त्रीगम�, सुरापा�, दू्य�-क्रीड़ा और मांसादिद भक्षण �0ा अन्य दूसरे �घन्य पापों से भी मुQ हो �ा�ा है। �ारदपरिरव्रा�कोपनि�षदअ0व:वेद से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में परिरव्रा�क संन्यासी के निवद्वान्�ों और आ रणों आदिद का निवस्�ृ� निववे � निकया गया है। इस उपनि�षद के उपदेशक महर्तिषं �ारद हैं। इस उपनि�षद के कुल �ौ खण्ड हैं, जि�न्हें उपदेश की संज्ञा प्रदा� की गयी है। �ारद �ी परिरव्रा�कों के सव:शे्रष्ठ आदश: हैं। उ�के उपदेश ही उ�के आ रण हैं। प्र0म उपदेश में �ारद �ी शौ�कादिद ऋनिषयों को वणा:श्रम धम: का उपदेश दे�े हैं। दूसरा उपदेश में �ारद �ी शौ�कादिद ऋनिषयों को संन्यास-निवयिध का ज्ञा� करा�े हैं। �ीसरे उपदेश में �ारद �ी संन्यास के सच्चे अयिधकारी का वण:� कर�े हैं। ौ0े उपदेश में संन्यास-धम: के पाल� का महत्त्व दशा:या गया है। पां वे उपदेश में संन्यास-धम: ग्रहण कर�े की शास्त्रीय निवयिध का उल्लेख निकया गया है। सा0 ही संन्यासी के भेदों का भी वण:� निकया गया है। छठे उपदेश में �ुरीया�ी� पद की प्रान्तिप्� के उपाय �0ा संन्यासी की �ीव� या: पर प्रकाश डाला गया है। सा�वें उपदेश में संन्यास-धम: के सामान्य नि�यमों का �0ा कुटी क, बहूदक आदिद संन्याचिसयों के चिलए निवशेष नि�यमों का उल्लेख निकया गया है। आठवें उपदेश में 'प्रणव' अ�ुसन्धा� के क्रम में उसे पा�े का निवस्�ृ� निववे � निकया गया है। �वें उपदेश में 'ब्रह्म' के स्वरूप का निवस्�ृ� निववे � है। सा0 ही आ�मवेGा संन्यासी के लक्षण ब�ाकर उसके द्वारा परमपद-प्रान्तिप्� की प्रनिक्रया का उल्लेख निकया गया है। अहं ब्रहृमाब्धिस्म,अ0ा:� 'मैं ही ब्रह्म हूँ' का, �ो दृढ़नि�श्चयी होकर 'ओंकार' का ध्या� कर�ा है, वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का �याग कर, अहंकार और मोह से मुQ होकर, मोक्ष को प्राप्� कर�े वाला हो�ा है। �ृलिसंहोGर�ाप�ीयोपनि�षदअ�ुक्रम[छुपा]1 �ृलिसंहोGर�ाप�ीयोपनि�षद 2 प्र0म उपनि�षद 3 निद्व�ीयोपनि�षद 4 �ृ�ीयोपनि�षद 5 �ु0�पनि�षद 6 पं मोपनि�षद 7 सम्बंयिध� लिलंक

अ0व:वेदीय यह उपनि�षद देवगण एवं प्र�ापनि� के बी प्रश्नोGर के रूप 'साकार' और 'नि�राकार' ब्रह्म का नि�रूपण कर�ा है। यह उपनि�षद पां खण्डों में निवभQ है। ये पां ों खण्ड 'उपनि�षद' �ाम से ही �ा�े �ा�े हैं। इ�में परमा�मा को परमपुरुषा0² �ृलिसंह-रूप में व्यQ निकया गया है। इस परमपुरुषा0² परमपुरुष के �प से ही सृयिष्ट निवकचिस� हुई है। सृयिष्ट-निवकास के क्रम को स्पष्ट कर�े वाले उपनि�षद को 'पूव:�ानिप�ी' कहा �ा�ा है।

प्र0म उपनि�षदपहला खण्डइसमें सृयिष्ट-र �ा के उदे्दश्य से ब्रह्मा �ी �प कर�े हैं उस �प के प्रभाव से अ�ुष्टप छन्द द्वारा आबद्ध �ारलिसंह मन्त्ररा� का �न्म हो�ा है। उस मन्त्ररा� के द्वारा ब्रह्मा �ी सृयिष्ट की र �ा कर�े हैं। सम्पूण: भू�ों की उ�पत्तिG इस अ�ुष्टप मन्त्र द्वारा ही हो�ी है। सृयिष्ट के आदिद में 'आप:' (मूल निक्रयाशील �त्त्व, �ो �ल के रूप में 0ा) से ही सृयिष्ट का सृ�� मा�ा �ा�ा है।अ�ुषु्टप छन्दइस छन्द में ार रण हो�े हैं। इसका अ0: काव्या�मक निवशेष गठ� से मा�ा �ा�ा है। इसका दूसरा अ0:, �ो आ�ादिद� निकये हुए है। अ�ुष्टप छन्द के ार रणों की भांनि�, सृयिष्ट की निवनिवध निवकास धाराए ं ार- ार रणों में ही व्यQ हुई हैं, य0ा- ार वेद, ार प्रकार के प्राणी- स्वेद�, अण्ड�, �रायु� और उजिद्भ�, अन्�:करण के ार केन्द्र, ार वण:, ार आश्रम। इस 'अ�ुषु्टप' के द्वारा ही समस्� भू�ों को �ीव� धारण कर�े की शचिQ यिमल�ी हैं।सृयिष्ट के ार रणप्र0म रण में, पृथ्वी और समुद्र, निद्व�ीय रण में, यक्ष, गन्धव: और अप्सराओं से सेनिव� अन्�रिरक्ष, �ीसरे रण में, वसु, रुद्र, आदिद�य, अग्निग्� आदिद देव�ाओं से सेनिव� दु्यलोक और ौ0े रण में, नि�म:ल, पनिवत्र, परम व्योम-रूप परमा�मा ब�ा, ऐसा मा�ा �ा�ा है। मन्त्ररा� आ�ुषु्टप में, उग्रम् प्र0म रण का आदिद अंश है। ज्वलम दूसरे रण का आदिद अंश है। �ृलिसंह �ीसरे रण का आदिद अंश हैं और मृ�यु ौ0े रण का आदिद अंश है। ये ारों पर 'साम' के ही स्वरूप हैं। वेदमन्त्रों में सबसे पहले 'ॐ' कार (प्रणव) का उच्चारण निकया �ा�ा है। इस प्रकार प्रणव को 'साम' का अंग स्वीकार कर�े वाला �ी�ों लोकों पर निव�य प्राप्� कर ले�ा है।ब्रह्मा �ी �े कहा-'क्षीरसागर में शय� कर�े वाले भगवा� �ृलिसंह-रूप हैं, वे सभी �ीवा�माओं में �े� चिसलि ं� कर�े वाले हैं। उ� �ृलिसंह-रूप ब्रह्म का ध्या� करके �ीव मोक्ष को प्राप्� कर सक�ा है। भगवा� �ृलिसंह ही सवा:न्�या:�ी और सव:व्यापी परमा�मा हैं।' निद्व�ीयोपनि�षददूसरा खण्डयहाँ �ृलिसंह मन्त्ररा� द्वारा संसार से पार उ�र�े का उल्लेख है। मन्त्र के उग्र, वीर आदिद पदों की सा0:क�ा ब�ायी गयी है। प्र�ापनि� ब्रह्मा �ी देव�ाओं को भगवा� �ृलिसंह के मन्त्ररा� अ�ुषु्टप द्वारा मृ�यु को �ी�कर �0ा समस्� पापों से मुQ होकर संसार-सागर से पार उ�र�े की निवयिध ब�ा�े हैं। 'ॐ' कार समू्पण: निवश्व है। इसचिलए अ�ुषु्टप मन्त्र के हर अक्षर से पहले और पीछे 'ॐकार' का समु्पट लगाकर न्यास कर�ा ानिहए। �ृलिसंह का उग्र रूप ही समस्� दुष्प्रवृत्तिGयों से मुचिQ दिदला�े वाला है। भगवा� निवष्णु ही �ृलिसंह का रूप धारण कर अप�े भQों का उद्धार कर�े हैं। �ृ�ीयोपनि�षद�ीसरा खण्डयहाँ मन्त्ररा� की शचिQ का 'बी�' रूप में वण:� निकया गया है। ब्रह्मा �ी देव�ाओं को ब�ा�े हैं निक �ृलिसंह भगवा� की स�ा��ी शचिQ, माया द्वारा ही यह संसार र ा गया है। वही इसका संरक्षण कर�ी है और वही इसका निव�ाश कर�ी है। यह 'माया' ही मन्त्ररा� की शचिQ है और आकाश-जि�ससे सभी प्राणी �न्म ले�े हैं �0ा इसी में निवली� हो �ा�े हैं- 'बी�' रूप में है। �ु0�पनि�षद ौ0ा खण्डयहाँ अंग मन्त्र का उपदेश दिदया गया है। इसमें प्रणव की ब्रह्मा�मक�ा, प्रणव के ारों पदों का नि�रूपण, सानिवत्री-गायत्री मन्त्र का स्वरूप, य�ुल:क्ष्मी मन्त्र, �ृलिसंह गायत्री मन्त्र आदिद की व्याख्या की गयी है। 'ॐकार' (प्रणव), सानिवत्री (गायत्री, य�ुल:क्ष्मी �0ा �ृलिसंह गायत्री को मन्त्ररा� का अंगभू� स्वीकार निकया गया है। �ृलिसंह भगवा� को प्रसन्न कर�े के चिलए बGीस मन्त्रों का उल्लेख भी निकया गया है। पं मोपनि�षदपां वां खण्डइसमें देवों द्वारा 'महा क्र' के निवषय में जि�ज्ञासा प्रकट की गयी है। बGीस अक्षरों वाले क्रों का उल्लेख निकया गया है। महा क्र दश:�, उसे भेद�े की मनिहमा, मन्त्ररा� के अध्यय� का फल और उसका �ाप कर�े वाले साधक को ब्रह्मत्त्व-प्रान्तिप्� का नि�रूपण निकया गया है। भगवा� �ृलिसंह के मन्त्ररा� का साधक परमधाम को प्राप्� कर�े वला हो�ा है।

परब्रह्मोपनि�षदअ0व:वेदीय इस उपनि�षद में परब्रह्म की प्रान्तिप्� हे�ु संन्यास-धम: का निवस्�ृ� निववे � निकया गया है। शौ�क ऋनिष के पूछ�े पर महर्तिषं निपप्पलाद 'ब्रह्मनिवद्या' का निववे � कर�े हैं। वे ब�ा�े हैं निक सृयिष्ट से पूव: परम सGा अकेली ही च्छिस्थ� 0ी। उसी �े अप�ी इ�ा से इस सृयिष्ट का सृ�� निकया। वही स�य है और सभी प्रात्तिणयों का नि�यन्�ा है। वह सूक्ष्म रूप में सभी में निवरा�मा� रह�ा हें

केवल श्रवण मात्र से उसे �हीं �ा�ा �ा सक�ा। उसे कपालाष्टक-यम, नि�यम, आस�, प्राणायाम, प्र�याहार, धारणा, ध्या� और समायिध- द्वारा ही �ा�ा �ा सक�ा है। उस 'ब्रह्म-रूप' पुरुष को स�व, आन्�रिरक चिशखा और बाह्य यज्ञोपवी� द्वारा प्राप्� निकया �ा सक�ा है। एक सच्चा संन्यासी इसी ब्रह्म-'प यज्ञोपवी� को धारण कर�ा हैं �ो बाहर और भी�र दो�ों प्रकार से यज्ञोपवी� धारण कर�ा है, वही वस्�ु�: संन्यासी है। भी�री यज्ञोपवी� से �ा�पय: 'ब्रह्म�त्त्व के प्रनि� जि�ज्ञासा' से है, �ो सदैव और हर पल ब�ी रह�ी ानिहए। ऐसा साधक ही सच्चा संन्यासी है। प्रश्नोपनि�षद / Prashnopnishadअ0व:वेद की निपप्पलाद शाखा के ब्राह्मण भाग से सम्बत्मिन्ध� इस उपनि�षद में जि�ज्ञासुओं द्वारा महर्तिषं निपप्पलाद से छह प्रश्न पूछे गये हैं।पहला प्रश्नका�याय� कबन्धी-'भगव�! यह प्र�ा निकससे उ�पन्न हो�ी है?'महर्तिषं निपप्पलाद-'प्र�ा-वृजिद्ध की इ�ा कर�े वाले प्र�ापनि� ब्रह्मा �े 'रयिय' और 'प्राण' �ामक एक युगल से प्र�ा की उ�पन्न कराई।'वस्�ु�: प्राण गनि� प्रदा� कर�े वाला े�� �त्त्व है। रयिय उसे धारण करके निवनिवध रूप दे�े में सम0: प्रकृनि� है। इस प्रकार ब्रह्मा यिम0ु�-कम: द्वारा सृयिष्ट को उ�पन्न कर�ा है।दूसरा प्रश्नऋनिष भाग:व-'हे भगव�! प्र�ा धारण कर�े वाले देव�ाओं की संख्या निक��ी है और उ�में वरिरष्ठ कौ� है?'महर्तिषं निपप्पलाद-'पृथ्वी, �ल, अग्निग्�, वायु और आकाश �0ा म�, प्राण, वाणी, �ेत्र और श्रोत्र आदिद सभी देव हैं। ये �ीव के आश्रयदा�ा है। सभी देव�ाओं मे प्राण ही सव:श्रेष्ठ है। सभी इजिन्द्रयां प्राण के आश्रय में ही रह�ी हैं।'�ीसरा प्रश्नकौसल्य आश्वलाय�—'हे महर्तिषं! इस 'प्राण' की उ�पत्तिG कहां से हो�ी है, यह शरीर में कैसे प्रवेश कर�ा है और कैसे बाहर नि�कल �ा�ा है �0ा कैसे दो�ों के मध्य रह�ा है?'महर्तिषं निपप्पलाद—' इस प्राण की उ�पत्तिG आ�मा से हो�ी है। �ैसे शरीर की छाया शरीर से उ�पन्न हो�ी है और उसी में समा �ा�ी है, उसी प्रकार प्राण आ�मा से प्रकट हो�ा है और उसी में समा �ा�ा है। वह प्राण म� के संकल्प से शरीर में प्रवेश कर�ा है। मरणकाल में यह आ�मा के सा0 ही बाहर नि�कलकर दूसरी योनि�यों में ला �ा�ा है।' ौ0ा प्रश्नगाग्य: ऋनिष-' हे भगव�! इस पुरुष देह में कौ�-सी इन्द्री शय� कर�ी है और कौ�-सी �ाग्र� रह�ी है? कौ�-सी इन्द्री स्वप्न देख�ी है और कौ�-सी सुख अ�ुभव कर�ी है? ये सब निकसमें च्छिस्थ� है?'महर्तिषं निपप्पलाद—'हे गाग्य:! जि�स प्रकार सूय: की रच्छिश्मयां सूय: के अस्� हो�े ही सूय: में चिसमट �ा�ी हैं और उसके उदिद� हो�े ही पु�: निबखर �ा�ी हैं उसी प्रकार समस्� इजिन्द्रयां परमदेव म� में एकत्र हो �ा�ी हैं। �ब इस पुरुष का बोल�ा- ाल�ा, देख�ा-सु��ा, स्वाद-अस्वाद, संूघ�ा-स्पश: कर�ा आदिद सभी कुछ रूक �ा�ा है। उसकी च्छिस्थनि� सोये हुए व्यचिQ-�ैसी हो �ा�ी है।''सो�े समय प्राण-रूप अग्निग्� ही �ाग्र� रह�ी है। उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इजिन्द्रयां केवल अ�ुभव मात्र कर�ी हैं, �बनिक वे सोई हुई हो�ी हैं।'पां वां प्रश्नस�यकाम—'हे भगव�! �ो म�ुष्य �ीव� भर 'ॐ' का ध्या� कर�ा है, वह निकस लोक को प्राप्� कर�ा है?'महर्तिषं निपप्पलाद—'हे स�यकाम! यह 'ॐकार' ही वास्�व में 'परब्रह्म' है। 'ॐ' का स्मरण कर�े वाला ब्रह्मलोक को ही प्राप्� कर�ा है। यह �े�ोमय सूय:लोक ही ब्रह्मलोक है।'छठा प्रश्नसुकेशा भारद्वा�—'हे भगव�! कौसल देश के रा�पुरुष निहरण्य�ाभ �े सोलह कलाओं से युQ पुरुष के बारे में मुझसे प्रश्न निकया 0ा, परन्�ु मैं उसे �हीं ब�ा सका। क्या आप निकसी ऐसे पुरुष के निवषय में �ा�कारी रख�े हैं?'महर्तिषं निपप्पलाद—'हे सौम्य! जि�स पुरुष में सोलह कलाए ंउ�पन्न हो�ी हैं, वह इस शरीर में ही निवरा�मा� है। उस पुरुष �े सव:प्र0म 'प्राण' का सृ�� निकया। �दुपरान्� प्राण से 'श्रद्धा', 'आकाश', 'वायु', 'ज्योनि�', 'पृथ्वी', 'इजिन्द्रयां', 'म�' और 'अन्न' का सृ�� निकया। अन्न से 'वीय:' , '�प', 'मन्त्र', 'कम:', 'लोक' एवं '�ाम' आदिद सोलह कलाओं का सृ�� निकया।'परमहंस परिरव्रा�क उपनि�षदपरमहंस परिरव्रा�क उपनि�षद उपनि�षदों में अ0व:वेदीय उपनि�षद है। यह संन्यासाश्रम सम्बन्धी एक परव�² उपनि�षद है। श्रीरामपूव:�ाप�ीयोपनि�षद

अ0व:वेदीय इस उपनि�षद में भगवा� श्रीराम की पू�ा-निवयिध को पां खण्डों में अत्तिभव्यQ निकया गया है। प्र0म खण्ड में 'राम' शब्द के निवनिवध अ0: प्रस्�ु� निकये गये हैं- �ो इस पृथ्वी पर रा�ा के रूप में अव�रिर� होकर भQों की म�ोकाम�ा पूण: कर�े हैं, वे 'राम' हैं। �ो इस पृथ्वी पर राक्षसों (दुष्प्रवृत्तिGयों को धारण कर�े वाले) का वध कर�े हैं, वे 'राम' हैं। सभी के म� को रमा�े वाले, अ0ा:� आ�जिन्द� कर�े वाले 'राम' है। राहु के समा� न्द्रमा को नि�स्�े� कर�े वाले, अ0ा:� समस्� लौनिकक निवभूनि�यों को नि�स्�े� करके उच्च�म पुरुषोGम रूप धारण कर�े वाले 'राम' हैं। जि��के �ामोच्चार से हृदय में शान्तिन्�, वैराग्य और दिदव्य निवभूनि�यों का पदाप:ण हो�ा है, वे 'राम' हैं। निद्व�ीय खण्ड में 'राम' �ाम के बी�-रूप की सव:व्यापक�ा और सवा:�मक�ा का निववे � निकया गया है। राम ही बी�-रूप में सव:त्र और सभी �ीवा�माओं में च्छिस्थ� हैं। वे अप�ी ै�न्य शचिQ से सभी प्रात्तिणयों में �ीव-रूप में निवद्यमा� हैं और स्वयं प्रकाश हैं।�ृ�ीय खण्ड में सी�ा और राम की मन्त्र-यन्त्र की पू�ा का क0� है। इस बी�मन्त्र (राम) में ही सी�ा-रूप-प्रकृनि� और राम-रूप-पुरुष निवहार कर�े हैं। भगवा� राम �े स्वयं अप�ी माया से मा�वी रूप धारण निकया और राक्षसों का निव�ाश निकया। �ु0: खण्ड में छह अक्षर वाले राम मन्त्र 'रां रामाय �म:' का अ0:, देव�ाओं द्वारा राम की स्�ुनि�, राम के रा�लिसंहास� का वैभव, राम-यन्त्र की स्�ुनि� से प्राणी का उद्धार आदिद का निववे � है। साधक के ध्या�-चि न्�� में यही भाव सदा रह�ा ानिहए निक श्रीराम अ�न्� �े�स्वी सूय: के समा� अग्निग्�-रूप हैं। पां वें खण्ड मे यन्त्रपीठ की पू�ा-अ :�ा �0ा भगवा� राम के ध्या�पूव:क आवरण की पू�ा का निवधा� ब�ाया गया है। भगवा� राम की प्रसन्न�ा से ही 'मोक्ष' की प्रान्तिप्� हो�ी है। वे 'राम' गदा, क्र, शंख और कमल को अप�े हा0ों में धारण निकये हैं, वे भव-बन्ध� के �ाशक हैं, �ग� के आधार-स्वरूप है, अनि�मनिहमाशाली हैं और �ो सच्छिच्चदा�न्द स्वरूप हैं, उ� श्रीरघुवीर के प्रनि� हम �म� कर�े हैं। इस प्रकार की स्�ुनि� कर�े वाले साधक को मोक्ष प्राप्� हो�ा है। यह भगवा� श्रीराम के स्वरूप को निवष्णु के समा� दशा:या गया है और उन्हें भगवा� निवष्णु का अव�ार मा�ा गया है। अन्� में, श्रीराम अप�े ध�ुधा:री म�ुष्य-रूप में ही अप�े सभी भ्रा�ाओं के सा0 वैकुण्ठलोक को �ा�े हैं। शाच्छिण्डल्योपनि�षदअ0व:वेदीय इस उपनि�षद में 'योगनिवद्या', 'ब्रह्मनिवद्या' और 'अक्षरब्रह्म' के निवषय में ऋनिषवर शाच्छिण्डल्य प्रश्न उठा�े हैं, जि��का उGर महामुनि� अ0वा: द्वारा दिदया �ा�ा हैं इस उपनि�षद में �ी� अध्याय हैं। प्र0म अध्याय में महामुनि� अ0वा: 'अष्टांग योग' का ग्यारह खण्डों में निवशद निववे � कर�े हैं वे यम-नि�यम , �ाड़ी-शोध� की प्रनिक्रया, कुण्डचिल�ी-�ागरण, प्राणायाम आदिद का निवस्�ृ� निववे � कर�े हैं निकसी चिसद्ध योगी के सायिन्नध्य और दिदशा-नि�द�श में ही इस अष्टांग योग की साध�ा कर�ी ानिहए। दूसरे अध्याय में महामुनि� अ0वा: 'ब्रह्मनिवद्या' के निवषय में निवस्�ृ� निववे � प्रस्�ु� कर�े हैं। वे ब्रहृम की सव:व्यापक�ा, उसकी अनि�व: �ीय�ा, उसका लोकोGर स्वरूप �0ा उस ब्रह्म को स्वयं साधक द्वारा अप�े ही हृदय में �ा��े की प्रणाली ब�ा�े हैं। �ीसरे अध्याय में शाच्छिण्डल्य ऋनिष प्रश्न कर�े हैं निक �ो 'ब्रह्म' एक अक्षर-स्वरूप है, नि�त्मिष्क्रय है, चिशव है, सGामात्र है और आ�म-स्वरूप है, वह �ग� का नि�मा:ण, पोषण एवं संहार निकस प्रकार कर सक�ा है? इस प्रश्न का उGर दे�े हुए महामुनि� अ0वा: ब्रह्म के सकल-नि�ष्कल भेद को स्पष्ट कर�े हुए कह�े हैं निक 'ब्रह्म' के संकल्प मात्र से ही सृयिष्ट का प्रादुभा:व हो�ा है, निवकास हो�ा है और पु�: उसी में निवलय हो �ा�ा है। अन्� में दGाते्रय देवपुरुष की स्�ुनि� की स्थाप�ा की गयी है। शरभ उपनि�षदशरभ उपनि�षद उपनि�षदों में अ0व:वेदीय उपनि�षद है। यह एक परव�² उपनि�षद है। इसमें उग्र देव�ा शरभ की मनिहमा और उपास�ा ब�ाई गयी है। सूय�पनि�षदअ0व:वेदीय परम्परा से सम्बद्ध इस लघु उपनि�षद में सूय: और ब्रह्म की अत्तिभन्न�ा दशा:ई गयी है। सूय: और आ�मा, ब्रह्म के ही रूप हैं। सूय: के �े� से �ग� की उ�पत्तिG हो�ी है। इसमें सूय: की स्�ुनि�, उसका सवा:�मक ब्रह्मत्त्व और उसकी उपास�ा का फल ब�ाया गया है। सूय:देव समस्� �ड़- े�� �ग� की आ�मा हैं। सूय: से समस्� प्रात्तिणयों का �न्म हो�ा है। सूय: से ही आ�मा को �े�ब्धिस्व�ा प्राप्� हो�ी है-ॐ भूभु:व: स्व:। ��सनिव�ुव:रेण्यं भग� देवस्य धीमनिह। यिधयो यो �: प्र ोदया�् ॥2॥ अ0ा:� �ो प्रणव-रूप में सच्छिच्चदा�न्द परमा�मा भू:, भुव:, स्व: रूप �ी�ों लोकों में व्याप्� है, उस सृयिष्ट के उ�पाद�क�ा: सनिव�ादेव (सूय:) के �े� का हम ध्या� कर�े हैं। वह हमारी बुजिद्ध को शे्रष्ठ�ा प्रदा� करें।आदिद�य ही प्र�यक्ष कम- के क�ा: हैं और वे ही साक्षा� ब्रह्मा, निवष्णु और महेश (रुद्र) हैं। वे ही वायु, भूयिम और �ल �0ा प्रकाश को उ�पन्न कर�े वाले हैं। वे ही पां प्राणों में अयिधयिष्ठ� हैं। वे ही हमारे �ेत्र हैं। वे ही एकाक्षर ब्रह्म- ॐ हैं।

ऐसे सूय:देव की उपास�ा कर�े वाले समस्� भव-बन्ध�ों से मुQ होकर 'मोक्ष' को प्राप्� कर�े हैं। सी�ा उपनि�षदइस अ0व:वेदीय उपनि�षद में देवगण �0ा प्र�ापनि� के मध्य हुए प्रश्नोGर में 'सी�ा' को शाश्व� शचिQ का आधार मा�ा गया है। इसमें सी�ा को प्रकृनि� का स्वरूप ब�ाया गया है। सी�ा शब्द का अ0: अक्षरब्रह्म की शचिQ के रूप में हुआ है। यह �ाम साक्षा� 'योगमाया' का है। सी�ा को भगवा� श्रीराम का सायिन्नध्य प्राप्� है, जि�सके कारण वे निवश्वकल्याणकारी हैं। सी�ा-निक्रया-शचिQ, इ�ा-शचिQ और ज्ञा�-शचिQ-�ी�ों रूपों में प्रकट हो�ी है। परमा�मा की निक्रया-शचिQ-रूपा सी�ा भगवा� श्री हरिर के मुख से '�ाद' रूप में प्रकट हुई है।