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वैशेषि�क दशनपरि�चयअनुक्रम[छुपा]1 परि�चय 2 वैशेषि�क नाम का का�ण 3 वैशेषि�क शब्द की व्युत्पत्ति� 4 पदार्थ तत्त्व षिनरूपणम 5 वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसा 6 वैशेषि�क दशन का वैशिशष्ट्य 7 वैशेषि�क दशन की आचा� - मीमांसा 8 वैशेषि�क दशन की ज्ञान मीमांसा 9 वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसा 10 वैशेषि�क प्रमुख ग्रन्थ 11 टीका टिटप्पणी औ� संदर्भ 12 सम्बंधि6त लि8ंक

प्राय: चावाकेत� सर्भी र्भा�तीय दशन मोक्ष प्राप्तिप्त को मानव-जीवन का 8क्ष्य मानते हैं। दशन शब्द का सामान्य अर्थ है- देखने का माध्यम या सा6न* अर्थवा देखना। स्थू8 पदार्थF के संदर्भ में जिजसको दृधिJ* कहा जाता है, वही सूक्ष्म पदार्थF के सम्बन्ध में अन्तर्द्रधिJ है। र्भा�तीय शिचन्तकों ने दशन शब्द का प्रयोग स्थू8 औ� सूक्ष्म अर्थात् र्भौषितक औ� आध्यात्मित्मक दोनों अर्थF में षिकया है, तर्थाषिप जहाँ अन्य दशनों में आध्यात्मित्मक शिचन्तन प� अधि6क ब8 टिदया गया है, वहाँ न्याय दशन में प्रमाण-मीमांसा औ� वैशेषि�क दशन में प्रमुख रूप से प्रमेय-मीमांसा अर्थात र्भौषितक पदार्थF का षिवश्ले�ण षिकया गया है। इस दृधिJ से वैशेषि�क दशन को अध्यात्मोन्मुख जिजज्ञासा प्र6ान दशन कहा जा सकता है। न्याय औ� वैशेषि�क दशन प्रमुख रूप से इस षिवचा�6ा�ा प� आत्तिUत �हे हैं षिक जगत में जिजन वस्तुओं का हमें अनुर्भव होता है वे सत हैं। अत: उन्होंने दृश्यमान जगत् से प�े जो समस्याए ँया गुत्थि\याँ हैं, उन प� षिवचा� केजिन्र्द्रत क�ने की अपेक्षा दृश्यमान जगत को वास्तषिवक मानक� उसकी स�ा का षिवशे्ल�ण क�ना ही अधि6क उपयुक्त समझा।* वस्तुवादी औ� जिजज्ञासा प्र6ान होने के का�ण तर्था प्रमेय-प्र6ान षिवश्ले�ण के का�ण वैशेषि�क दशन व्यावहारि�क या 8ौषिकक दृधिJ से र्भी बहुत महत्त्वपूण है। न्याय-वैशेषि�क के अनुसा� ज्ञाता, ज्ञेय औ� ज्ञान की पृर्थक्-पृर्थक् वस्तु-स�ा है, जबषिक वेदान्त में यह माना जाता है षिक ज्ञाता ज्ञानस्वरूप है औ� ज्ञेय र्भी ज्ञान से पृर्थक् नहीं है। न्याय औ� वैशेषि�क यद्यषिप समानतन्त्र हैं, षिd� र्भी न्याय प्रमाण-प्र6ान दशन है जबषिक वैशेषि�क प्रमेय-प्र6ान। इसके अषितरि�क्त अन्य कई संकल्पनाओं में र्भी इन दोनों दशनों का पार्थक्य है। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क नाम का का�णवैशेषि�क दशन अपने आप में महत्त्वपूण होने के अषितरि�क्त अन्य दशनों तर्था षिवद्यास्थानों के प्रषितपाद्य शिसद्धान्तों के ज्ञान औ� षिवशे्ल�ण में र्भी बहुत उपका�क है। कौटिटल्य ने वैशेषि�क का पृर्थक् रूप से तो उल्8ेख नहीं षिकया, षिकन्तु संर्भवत: समानतन्त्र आन्वीत्तिक्षकी में वैशेषि�क का र्भी अन्तर्भाव मानते हुए कौटिटल्य ने यह कहा षिक आन्वीत्तिक्षकी सब षिवद्याओं का प्रदीप है।* र्भा�तीय शिचन्तन-प�म्प�ा में न्याय, वैशेषि�क, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त प्ररृ्भषित छ: आत्थिस्तक दशनों औ� चावाक, बौद्ध, जैन इन तीन नात्थिस्तक दशनों का अपना-अपना स्थान व महत्त्व �हा है। सांख्य में षित्रषिव6 दु:खों की षिनवृत्ति� को, योग में शिच�वृत्ति� के षिन�ो6 को, मीमांसा में 6म की जिजज्ञासा को औ� वेदान्त में ब्रह्म की जिजज्ञासा को षिन:Uेयस का सा6न बताया गया है; जबषिक वैशेषि�क में पदार्थF के तत्त्वज्ञानरूपी 6म अर्थात् उनके सामान्य औ� षिवशिशJ रूपों के षिवशे्ल�ण से पा�8ौषिकक षिन:Uेयस के सार्थ-सार्थ इह 8ौषिकक अभ्युदय को र्भी साध्य माना गया है।* अन्य दशनों में प्राय: ज्ञान की स�ा* को शिसद्ध मान क� उसके अत्थिस्तत्वबो6 औ� षिवज्ञान को मोक्ष या षिन:Uेय का सा6न बताया गया है, षिकन्तु वैशेषि�क में दृश्यमान वस्तुओं के सा6म्य-वै6म्यमू8क तत्त्वज्ञान को साध्य माना गया है। इस प्रका� वैशेषि�क दशन में 8ोक6र्मिमंता तर्था वैज्ञाषिनकता से समप्तिन्वत आध्यात्मित्मकता परि�8त्तिक्षत होती है। यही का�ण है षिक न्याय-वैशेषि�क को व्याक�ण के समान अन्य शास्त्रों के ज्ञान का र्भी उपका�क या प्रदीप कहा गया है।* अदै्वत वेदान्त में ब्रह्म को ही एकमात्र सत कहा गया है। बौद्धों ने सव शून्यं जैसे कर्थन षिकये, सांख्यों ने प्रकृषित-पुरु� के षिववेक की बात की। इस प्रका� इन सबने र्भौषितक जगत् के सामूषिहक या सवसामान्य षिकसी एक तत्त्व को र्भौषितक जगत् से बाह� ढँूढ़ने का प्रयत्न षिकया। षिकन्तु वैशेषि�कों ने न केव8 समग्र ब्रह्माण्ड का, अषिपतु प्रत्येक पदार्थ का तत्त्व उसके ही अन्द� ढँूढ़ने का प्रयास षिकया औ� यह बताया षिक प्रत्येक वस्तु का षिनजी वैशिशष्ट्रय ही उसका तत्त्व या स्वरूप है औ� प्रत्येक वस्तु अपने आप में एक स�ा

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है। इस मू8 र्भावना के सार्थ ही वैशेषि�कों ने दृश्यमान जगत की सर्भी वस्तुओं को छ: या सात वगF में समाषिहत क�के वस्तुवादी दृधिJ से अपने मन्तव्य प्रस्तुत षिकये। इन छ: या सात पदार्थF में सवप्रर्थम र्द्रव्य का उल्8ेख षिकया गया है, क्योंषिक उसको ही केजिन्र्द्रत क�के अन्य पदार्थ अपनी स�ा का र्भान क�ाते हैं। पह8े तो वैशेषि�कों ने छ: ही पदार्थ माने रे्थ, प� बाद में उनको यह आर्भास हुआ षिक वस्तुओं के र्भाव की त�ह उनका अर्भाव र्भी वस्तुतत्त्व के षिनरूपण में सहायक होता है। अत: गुण, कम सामान्य षिवशे� के सार्थ-सार्थ अर्भाव का र्भी वैशेषि�क पदार्थF में समावेश षिकया गया। अत्तिर्भप्राय यह है षिक सर्भी 'वस्तुओं का षिनजी वैशिशष्ट्रय ही उनका स्वर्भाव है' – क्या इस आ6ा� प� ही इस शास्त्र को वैशेषि�क कहा गया? इस जिजज्ञासा के समा6ान के संदर्भ में अनेक षिवद्वानों ने जो षिवचा� प्रस्तुत षिकये, उनका सा� इस प्रका� है – षिवशे� पदार्थ से युक्त होने के का�ण यह शास्त्र वैशेषि�क कह8ाता है। अन्य दशनों में षिवशे� का उपदेश वैसा नहीं है जैसा षिक इसमें है। षिवशे� को स्वतन्त्र पदार्थ मानने के का�ण इस दशन की अन्य दशनों से त्तिर्भन्नता है। षिवशे� पदार्थ व्यावतक है। अत: इस शास्त्र की संज्ञा वैशेषि�क है। षिवशे� गुणों का उचे्छद ही मुशिक्त है, न षिक दु:ख का आत्यप्तिन्तक उचे्छद। मुशिक्त का प्रषितपादन चावाकेत� सर्भी दशन क�ते हैं, षिकन्तु षिवशे� गुण को 8ेक� मुशिक्त का प्रषितपादन इसी दशन में षिकया गया है। षिवगत: शे�: यत्र स षिवशे�:- इस प्रका� का षिवग्रह क�ने प� षिवशे� का अर्थ 'षिन�वशे�' हो जाता है औ� इस प्रका� सर्भी पदार्थF का छ: या सात में अन्तर्भाव हो जाता है। 'षिवशे�णं षिवशे�:'—ऐसा षिवग्रह क�ने प� यह अर्थ हो जाता है षिक पदार्थF के 8क्षण- प�ीक्षण द्वा�ा जो शास्त्र उनका बो6 क�वाये, वह वैशेषि�क है। इस दशन में आत्मा के रे्भद तर्था उसमें �हने वा8े षिवशे� गुणों का व्याख्यान षिकया गया है। कषिप8 ने आत्मा के र्भेदों को स्वीका� षिकया, षिकन्तु उनको षिवशे� गुण वा8ा नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के रे्भद औ� गुणों को स्वीका� नहीं क�ता। अत: आत्मा के षिवशे� गुण औ� र्भेद स्वीका� क�ने से इस दशन को वैशेषि�क कहा जाता है। अनेक पाश्चात्त्य औ� र्भा�तीय षिवद्वानों ने वैशेषि�क को षिडd�ेत्थिन्सयशि8स्ट दशन कहा है, क्योंषिक उनकी दृधिJ में यह रे्भदबुजिद्ध (वैशिशष्ट्रय-षिवचा�) प� आ6ारि�त होने के का�ण र्भेदवादी है।[1] [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क शब्द की व्युत्पत्ति�वैशेषि�क शब्द की व्युत्पत्ति� षिवत्तिर्भन्न र्भाष्यका�ों, टीकाका�ों औ� वृत्ति�का�ों ने अपने-अपने दृधिJकोण से की। उनमें से कुछ का यहाँ उल्8ेख क�ना अप्रासंषिगक न होगा। आचाय चन्र्द्र : वैशेषि�क षिवशिशJोपदेJा। चन्र्द्रकान्त : यटिददं वैशेषि�कं नाम शास्त्रमा�बं्ध तत्ख8ु तन्त्रान्त�ात् षिवशे�स्यार्थ- स्यात्तिर्भ6ानात् (चन्र्द्रकान्तर्भाष्यम्)। मत्तिणर्भर्द्रसूरि�: नैयाधियकेभ्यो र्द्रव्यगुणाटिदसामग्र्या षिवशिशJधिमषित वैशेषि�कम् (�ड्दशनसमुच्चय-वृत्ति�- पृ. 4)। गुण�त्न: षिनत्यर्द्रव्यवृ�योऽन्त्या षिवशे�ा: एवं वैशेषि�कम् (षिवनयाटिदभ्य: स्वार्थ� इक्) तद ्वैशेषि�कं षिवदप्तिन्त अ6ीयते वा (तदै्वत्य6ीत इत्यत्तिण) वैशेषि�का: ते�ाधिमदं वैशेषि�कम् (�ड्दशनसमुच्चयवृत्ति�)। उदयनाचाय: (क)षिवशे�ो व्यवचे्छद: तत्त्वषिनश्चय: तेन व्यवह�न्तीत्यर्थ: (षिक�णाव8ी पृ. 613), (ख) तत्त्वमना�ोषिपतं रूपम्। तच्च सा6म्यवै6म्याभ्यामेव षिवषिवच्यते (षिक�णाव8ी पृ. 5) Uी6� : सा6म्य-वै6म्यम् एव तत्त्वम् (अस्यार्थ: - वै6मरूपात् तत्त्वात् उत्पनं्न यत् शास्तं्र तदेव वैशेषि�कम्) – न्यायकन्द8ी)। दुव�कधिमU : र्द्रव्यकुणकमसामान्यषिवशे�समवायात्मके पदार्थषिवशे�े व्यवह�न्तीषित वैशेषि�का: (6म���प्रदीप:)। आ6ुषिनक समीक्षक : उदयवी� शास्त्री प्ररृ्भषित अधि6कत� षिवद्वानों का र्भी यही षिवचा� है –कणाद ने जिजन प�म सूक्ष्म पृशिर्थव्याटिद रू्भततत्त्वों को जगत् का मू8 उपादान माना है, उनका नाम षिवशे� है। अत: इसी आ6ा� प� इस शास्त्र का नाम वैशेषि�क पड़ा।* वैशेषि�कसूत्र में वैशेषि�क शब्द केव8 एक बा� प्रयुक्त हुआ है*- जिजसका अर्थ है- षिवशे�ता। उपयुक्त कर्थनों प� षिवचा� क�ने के अनन्त� यही मत समुशिचत प्रतीत होता है षिक षिनत्य औ� अषिनत्य पदार्थF के अप्तिन्तम प�माणुओं में �हने वा8े औ� उनको एक दूस�े से व्यावृ� क�ने वा8े षिवशे� नामक पदार्थ की उद्भावना प� आ6ारि�त होने के का�ण इस दशन का नाम वैशेषि�क पड़ा। योगसूत्र प� अपने र्भाष्य में व्यास ने र्भी इसी मत का समर्थन षिकया है।* [संपाटिदत क�ें] पदार्थ तत्त्व षिनरूपणम�घुनार्थ शिश�ोमत्तिण का जन्म शिस8ह� (आसाम) में हुआ र्था। षिवद्यारू्भ�ण के अनुसा� इनका समय 1477-1557 ई. है। इनके पूवज धिमशिर्थ8ा से आसाम में गये रे्थ। इनके षिपता का नाम गोषिवन्द चक्रवत� औ� माता का नाम सीता देवी र्था। गोषिवन्द चक्रवत� की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के का�ण इनकी माता ने बडे़ कJ के सार्थ इनका पा8न षिकया। याषित्रयों के एक द8 के सार्थ वह गंगास्नान क�ने के शि8ए नवद्वीप पहुँची। संयोगवश उसने वासुदेव सावर्भौम के घ� प� आUय प्राप्त षिकया।

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वासुदेव से ही �घुनार्थ को षिवद्या प्राप्त हुई। बाद में �घुनार्थ ने धिमशिर्थ8ा पहुँच क� पक्ष6� धिमU से न्याय का अध्ययन षिकया। आगे षिवस्ता� में पढ़ें:- पदार्थ तत्त्व षिनरूपणम [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसामहर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�कसूत्र में र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य, षिवशे� औ� समवाय नामक छ: पदार्थF का षिनद�श षिकया औ� प्रशस्तपाद प्ररृ्भषित र्भाष्यका�ों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुस�ण क�ते हुए पदार्थF का षिवश्ले�ण षिकया। शिशवाटिदत्य (10 वीं शती) से पूववत� आचाय चन्र्द्रमषित के अषितरि�क्त प्राय: अन्य सर्भी प्रख्यात व्याख्याका�ों ने पदार्थF की संख्या छ: ही मानी, षिकन्तु शिशवाटिदत्य ने सप्तपदार्थ� में कणादोक्त छ: पदार्थF में अर्भाव को र्भी जोड़ क� सप्तपदार्थवाद का प्रवतन क�ते हुए वैशेषि�क शिचन्तन में एक क्राप्तिन्तका�ी परि�वतन क� टिदया। यद्यषिप चन्र्द्रमषित (6 ठी शती) ने दशपदार्थ� (दशपदार्थशास्त्र) में कणादसम्मत छ: पदार्थ� में शशिक्त, अशशिक्त, सामान्य-षिवशे� औ� अर्भाव को जोड़क� दश पदार्थF का उल्8ेख षिकया र्था, षिकन्तु चीनी अनुवाद के रूप में उप8ब्ध इस ग्रन्थ का औ� इसमें प्रवर्षितंत दशपदार्थवाद का वैशेषि�क के शिचन्तन प� कोई षिवशे� प्रर्भाव नहीं पड़ा। हाँ, ऐसा प्रतीत होता है षिक अर्भाव के पदार्थत्व प� चन्र्द्रमषित के समय से 8ेक� शिशवाटिदत्य के समय तक जो चचा हुई, उसको मान्यता देते हुए ही शिशवाटिदत्य ने अर्भाव का पदार्थत्व तो प्रषितष्ठाषिपत क� ही टिदया। कुछ षिवद्वानों का यह र्भी मत है षिक कणाद ने आ�म्भ में मू8त: र्द्रव्य, गुण औ� कम ये तीन ही पदार्थ माने रे्थ। शे� तीन का प्रवतन बाद में हुआ। अधि6कत� यही मत प्रचशि8त है, षिd� र्भी संक्षेपत: छ: पदार्थF का परि�गणन कणाद ने ही क� टिदया र्था। आगे षिवस्ता� में पढ़ें :- वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसा [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन का वैशिशष्ट्यवैशेषि�क शिसद्धान्तों का अषितप्राचीनत्व प्राय: सवस्वीकृत है। महर्षि�ं कणाद द्वा�ा �शिचत वैशेषि�कसूत्र में बौद्धों के शिसद्धान्तों की समीक्षा न होने के का�ण यह र्भी स्वीका� षिकया जा सकता है षिक कणाद बुद्ध के पूववत� हैं। जो षिवद्वान कणाद को बुद्ध का पूववत� नहीं मानते, उनमें से अधि6कत� इतना तो मानते ही हैं षिक कणाद दूस�ी शती ईस्वी पूव से पह8े हुए होंगे। संके्षपत: सांख्यसूत्रका� कषिप8 औ� ब्रह्मसूत्रका� व्यास के अषितरि�क्त अन्य सर्भी आत्थिस्तक दशनों के प्रव�कों में से कणाद सवाधि6क पूववत� हैं। अत: वैशेषि�क दशन को सांख्य औ� वेदान्त के अषितरि�क्त अन्य सर्भी र्भा�तीय दशनों का पूववत� मानते हुए यह कहा जा सकता है षिक केव8 दाशषिनक शिचन्तन की दृधिJ से ही नहीं, अषिपतु अषितप्राचीन होने के का�ण र्भी इस दशन का अपना षिवशिशJ महत्व है। आगे षिवस्ता� में पढ़ें:- वैशेषि�क दशन का वैशिशष्ट्य [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन की आचा�-मीमांसाप्राय: सर्भी दशनों के आक� ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसा औ� तत्त्व मीमांसा के सार्थ-सार्थ षिकसी-न-षिकसी रूप में आचा� का षिववेचन र्भी अन्तर्षिनषंिहत �हता है। 6म, अर्थ, काम, मोक्ष के सम्यक षिववेक के सार्थ जीवन में सन्तुशि8त काय क�ना ही आचा� है। यही का�ण है षिक प्रत्येक षिववेकशी8 व्यशिक्त कर्भी-न-कर्भी यह सोचने के शि8ए बाध्य हो जाता है षिक जीवन क्या है? संसा� क्या है? संसा� से उसका संयोग या षिवयोग कैसे औ� क्यों होता है? क्या कोई ऐसी शशिक्त है, जो उसका षिनयन्त्रण क� �ही है? क्या मनुष्य जो कुछ है उसमें वह कोई परि�वतन 8ा सकता है? व्यधिJ औ� समधिJ में क्या अन्त� या सम्बन्ध है? एक व्यशिक्त का अन्य व्यशिक्तयों या जगत के प्रषित क्या कतव्य है? ये औ� कई अन्य ऐसे प्रश्न हैं जो एक ओ� �हस्यमयी पा�8ौषिककता को स्पश क�ते हैं। प्रका�ान्त� से यह कहा जा सकता है षिक जो प्रयत्न-Uृंख8ा सार्थक औ� सम्यक् उदे्दश्य की पूर्षितं के शि8ए दृJ को अदृJ के सार्थ या दृJ को दृJ के सार्थ जोड़ती है, वह 8ौषिकक के्षत्र में आचा� कह8ाती है। सर्भी र्भा�तीय आत्थिस्तक दशनों में आचा� नहीं षिकया। अत: वैशेषि�क ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो कषितपय संकेत उप8ब्ध होते हैं, उनके आ6ा� प� ही यह कहा जा सकता है षिक वैशेषि�कों का आचा�प�क दृधिJकोण र्भी वेदमू8क ही है। आगे षिवस्ता� में पढ़ें:- वैशेषि�क दशन की आचा� - मीमांसा [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन की ज्ञान मीमांसाज्ञान (प्रमा) क्या है? ज्ञान औ� अज्ञान (अप्रमा) में क्या रे्भद है? ज्ञान के सा6न अर्थवा षिनश्चायक घटक कौन हैं? इन औ� इसी प्रका� के कई अन्य प्रश्नों के उ�� में ही ज्ञान के स्वरूप का कुछ परि�चय प्राप्त षिकया जा सकता है। ज्ञान अपने आप में वस्तुत: एक षिन�पेक्ष सत्य है, षिकन्तु जब उसको परि�र्भाषि�त क�ने का प्रयास षिकया जाता है तो वह षिवश्ले�क की अपनी सीमाओं के का�ण ग्राह्यावस्था में सापेक्ष सत्य की परि�धि6 में आ जाता है। षिd� र्भी र्भा�तीय मान्यताओं के अनुसा� कणाद आटिद ऋषि� सत्य के साक्षात र्द्रJा हैं। अत: उन्होंने जो कहा, वह प्राय: ज्ञान का षिन�पेक्ष षिवशे्ल�ण ही माना जाता है। आगे षिवस्ता� में पढ़ें:- वैशेषि�क दशन की ज्ञान मीमांसा [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसामहर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�कसूत्र में र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य, षिवशे� औ� समवाय नामक छ: पदार्थF का षिनद�श षिकया औ� प्रशस्तपाद प्ररृ्भषित र्भाष्यका�ों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुस�ण क�ते हुए पदार्थF का षिवश्ले�ण षिकया।

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शिशवाटिदत्य (10 वीं शती) से पूववत� आचाय चन्र्द्रमषित के अषितरि�क्त प्राय: अन्य सर्भी प्रख्यात व्याख्याका�ों ने पदार्थF की संख्या छ: ही मानी, षिकन्तु शिशवाटिदत्य ने सप्तपदार्थ� में कणादोक्त छ: पदार्थF में अर्भाव को र्भी जोड़ क� सप्तपदार्थवाद का प्रवतन क�ते हुए वैशेषि�क शिचन्तन में एक क्राप्तिन्तका�ी परि�वतन क� टिदया। यद्यषिप चन्र्द्रमषित (6 ठी शती) ने दशपदार्थ� (दशपदार्थशास्त्र) में कणादसम्मत छ: पदार्थ� में शशिक्त, अशशिक्त, सामान्य-षिवशे� औ� अर्भाव को जोड़क� दश पदार्थF का उल्8ेख षिकया र्था, षिकन्तु चीनी अनुवाद के रूप में उप8ब्ध इस ग्रन्थ का औ� इसमें प्रवर्षितंत दशपदार्थवाद का वैशेषि�क के शिचन्तन प� कोई षिवशे� प्रर्भाव नहीं पड़ा। हाँ, ऐसा प्रतीत होता है षिक अर्भाव के पदार्थत्व प� चन्र्द्रमषित के समय से 8ेक� शिशवाटिदत्य के समय तक जो चचा हुई, उसको मान्यता देते हुए ही शिशवाटिदत्य ने अर्भाव का पदार्थत्व तो प्रषितष्ठाषिपत क� ही टिदया। कुछ षिवद्वानों का यह र्भी मत है षिक कणाद ने आ�म्भ में मू8त: र्द्रव्य, गुण औ� कम ये तीन ही पदार्थ माने रे्थ। शे� तीन का प्रवतन बाद में हुआ। अधि6कत� यही मत प्रचशि8त है, षिd� र्भी संक्षेपत: छ: पदार्थF का परि�गणन कणाद ने ही क� टिदया र्था। आगे षिवस्ता� में पढ़ें :- वैशेषि�क दशन की तत्त्व मीमांसा [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क प्रमुख ग्रन्थवैशेषि�क शिसद्धान्तों की प�म्प�ा अषितप्राचीन है। महार्भा�त आटिद ग्रन्थों में र्भी इसके तत्त्व उप8ब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध औ� उनके अनुयाधिययों के कर्थनों से र्भी यह प्रमात्तिणत होता है षिक शिसद्धान्तों के रूप में वैशेषि�क का प्रच8न 600 ई. से पह8े र्भी षिवद्यमान र्था। महर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�क सूत्रों का गं्रर्थन कब षिकया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता षिवद्वान षिकसी एक षितशिर्थ प� अर्भी तक सहमत नहीं हो पाये, षिकन्तु अब अधि6कत� षिवद्वानों की यह 6ा�णा बनती जा �ही है षिक कणाद महात्मा बुद्ध के पूववत� रे्थ औ� शिसद्धान्त के रूप में तो वैशेषि�क प�म्प�ा अषित प्राचीन का8 से ही च8ी आ �ही है। वैशेषि�क के प्रकीण ग्रन्थअनुक्रम[छुपा]1 वैशेषि�क के प्रकीण ग्रन्थ 2 कषितपय अन्य वृत्ति�याँ 3 वैशेषि�क प्र6ान प्रक�ण - ग्रन्थ 4 प्रर्थमाध्याय का सा� व समाहा� 5 सम्बंधि6त लि8ंक

वैशेषि�क शिसद्धान्तों की प�म्प�ा अषितप्राचीन है। महार्भा�त आटिद ग्रन्थों में र्भी इसके तत्त्व उप8ब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध औ� उनके अनुयाधिययों के कर्थनों से र्भी यह प्रमात्तिणत होता है षिक शिसद्धान्तों के रूप में वैशेषि�क का प्रच8न 600 ई. से पह8े र्भी षिवद्यमान र्था। महर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�क सूत्रों का गं्रर्थन कब षिकया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता षिवद्वान षिकसी एक षितशिर्थ प� अर्भी तक सहमत नहीं हो पाये, षिकन्तु अब अधि6कत� षिवद्वानों की यह 6ा�णा बनती जा �ही है षिक कणाद महात्मा बुद्ध के पूववत� रे्थ औ� शिसद्धान्त के रूप में तो वैशेषि�क प�म्प�ा अषित प्राचीन का8 से ही च8ी आ �ही है। वैशेषि�क दशन प� उप8ब्ध र्भाष्यों में प्रशस्तपाद र्भाष्य का स्थान अषित महत्त्वपूण है। षिकन्तु कणाद-प्रशस्तपाद के समय के 8म्बे अन्त�ा8 में औ� प्रशस्तपाद के बाद र्भी बहुत से ऐसे र्भाष्यका� या व्याख्याका� हुए, जिजनके ग्रन्थ अब उप8ब्ध नहीं हैं। यत्र-तत्र उनके जो संकेत या अंश उप8ब्ध होते हैं, उनके आ6ा� प� षिवत्तिर्भन्न अनुसन्धाताओं ने जिजन कषितपय कृषितयों की जानका�ी या खोज की है, उनका संत्तिक्षप्त रूप से उल्8ेख क�ना यहाँ अप्रासंषिगक न होगा। असंटिदग्6 प्रमाणों की अनुप8ब्धता के का�ण इनमें से कई ग्रन्थों के �चनाका8 आटिद का षिवत्तिर्भन्न षिवद्वानों ने संकेत मात्र षिकया है। ऐसी कृषितयों का सामान्य ढंग से संत्तिक्षप्त परि�चय इस प्रका� हैं। आते्रय र्भाष्य �ावणर्भाष्य षिक�णाव8ी प्रशस्तपाद र्भाष्य न्यायकन्द8ी व्योमवती 8ी8ावती दशपदार्थशास्त्र �त्नकोश र्भा�द्वाजवृत्ति� चन्र्द्रानन्द वृत्ति� तार्षिकंक�क्षा सप्तपदार्थ�

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न्याय8ी8ावती मानमनोह� कणाद सूत्र षिनबन्धवृत्ति� धिमशिर्थ8ावृत्ति� उपस्का�वृत्ति� कणाद �हस्यवृत्ति� शिसद्धान्त चजिन्र्द्रकावृत्ति� पदार्थ दीषिपकावृत्ति� प्रमाणमंज�ी [संपाटिदत क�ें] कषितपय अन्य वृत्ति�याँवैशेषि�क दशन प� कुछ अन्य आ6ुषिनक वृत्ति�याँ र्भी हैं तद्यर्था— देवद� शमा (1898 ई.) द्वा�ा �शिचत र्भाष्याख्या वृत्ति� (मु�ादाबाद से मुटिर्द्रत) चन्र्द्रकान्त तका8ंका� (1887 ई.) द्वा�ा �शिचत तत्त्वाव8ीवृत्ति� (चौ.से.मी. 48 में मुटिर्द्रत) पंचानन तक र्भट्टाचाय (1406 ई.) द्वा�ा �शिचत प�ीक्षावृत्ति� (क8क�ा से मुटिर्द्रत) उ�मू� वी��ाघवाचाय स्वामी (1950 ई.) द्वा�ा �शिचत �सायनाख्यावृत्ति� (मर्द्रास से मुटिर्द्रत) चयनी उपनामक (वी�र्भर्द्र वाजपेयी के पुत्र) द्वा�ा �शिचत नयरू्भ�णाख्यावृत्ति� (अपूण तर्था अमुटिर्द्रत, मर्द्रास तर्था अड्या� पुस्तका8य में उप8ब्ध है) गंगा6� कषिव�त्न द्वा�ा संपाटिदत र्भा�द्वाजवृत्ति� (तु्रटिटपूण, क8क�ा से प्रकाशिशत) काशीनार्थ शमा द्वा�ा वेदर्भास्क�र्भाष्याधिम6ा वृत्ति� (होशिशया�पु� से मुटिर्द्रत) [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क प्र6ान प्रक�ण-ग्रन्थप्रक�ण एक षिवशे� प्रका� के ग्रन्थ होते हैं। इनमें सम्बद्धशास्त्र की समग्र षिव�यवस्तु का नहीं, अषिपतु उसके अंशों का ऐसा षिवशे्ल�ण षिकया जाता है जो प�म्प�ा से कुछ त्तिर्भन्न औ� नये मन्तव्यों से युक्त र्भी हो सकता है। न्याय औ� वैशेषि�क के शिसद्धान्तों में से कुछ अंशों (शास्तै्रकदेश) को चुनक� �शिचत प्रक�णग्रन्थों की संख्या पयाप्त है। प्राय: जिजन प्रक�णग्रन्थों में न्याय में परि�गत्तिणत सो8ह पदार्थF में वैशेषि�कषिनर्दिदंJ सात पदार्थF का अन्तर्भाव षिकया गया है, वे न्यायप्र6ान प्रक�ण ग्रन्थ हैं- जैसे र्भासवज्ञ (1000 ई.) का न्यायसा�, व�द�ाज (12 वीं शती) की तार्षिकंक�क्षा औ� केशव धिमU 13 वीं शती की तक र्भा�ा, औ� जिजन ग्रन्थों में वैशेषि�क के सात पदार्थF में न्याय के सो8ह पदार्थF का अन्तर्भाव षिकया गया है, वे वैशेषि�कप्र6ान प्रक�ण-ग्रन्थ हैं- जैसे अन्नंर्भट्ट का तक संग्रह, षिवश्वनार्थ पंचानन का र्भा�ापरि�चे्छद औ� 8ौगात्तिक्षर्भास्क� की तक कौमुदी। यहाँ हम इन्हीं ग्रन्थका�ों औ� ग्रन्थों का संके्षप में उल्8ेख क� �हे हैं- यो तो उदयनाचाय की 8क्षणाव8ी औ� शिशवाटिदत्य की सप्तपदार्थ� र्भी प्रक�ण-ग्रन्थ ही है। षिकन्तु उनका उल्8ेख प्रकीण ग्रन्थों में पह8े क� टिदया गया है। अन्नंर्भट्टषिव�शिचत तक संग्रह अन्नंर्भट्ट आन्ध्रप्रदेश के शिच�ू� जि�8े के �हने वा8े रे्थ। उन्होंने न्याय औ� वैशेषि�क के पदार्थF का एक सार्थ षिवशे्ल�ण षिकया औ� न्याय के सो8ह पदार्थF का वैशेषि�क के सात पदार्थF में अन्तर्भाव टिदखाया। इन्होंने गुण के अन्तगत बुजिद्ध औ� बुजिद्ध के अन्तगत प्रमाणों का षिववेचन षिकया है। अन्नंर्भट्ट ने अपने इस ग्रन्थ प� तक संग्रहदीषिपकानाम्नी एक स्वोपज्ञ टीका र्भी शि8खी। इस ग्रन्थ प� 8गर्भग पैंतीस टीकाए ँउप8ब्ध हैं। अन्नंर्भट्ट का समय सत्रहवीं शती माना जाता है। षिवश्वनार्थपंचानन-षिव�शिचत र्भा�ापरि�चे्छद षिवश्वनार्थ पंचानन का जन्म 17 वीं शती में नवद्वीप बंगा8 में हुआ र्था। इनके षिपता का नाम षिवद्याषिनवास र्था। यह �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण की शिशष्य-प�म्प�ा में षिगने जाते हैं। इनके द्वा�ा �शिचत र्भा�ारि�चे्छद नामक ग्रन्थ कारि�काव8ी अप� नाम से र्भी षिवख्यात है। इन्होंने र्भा�ापरि�चे्छद प� एक स्वोपज्ञ टीका शि8खी, जिजसका नाम न्यायशिसद्धान्तमुक्ताव8ी है। षिवश्वनार्थ ने सात पदार्थF का परि�गणन क�के उनमें से र्द्रव्य के एक रे्भद आत्मा को बुजिद्ध का आUय बताया। बुजिद्ध के दो रे्भद- (1) अनुरू्भषित औ� (2) स्मृषित माने एवं अनुरू्भषित के अन्तगत प्रमाणों का षिनरूपण षिकया। 8ौगात्तिक्षर्भास्क�-�शिचत तक कौमुदी इनका वास्तषिवक नाम र्भास्क� औ� उपनाम 8ोगात्तिक्ष र्था। इन्होंने मत्तिणकर्णिणंका घाट का उल्8ेख षिकया, अत: ऐसा प्रतीत होता है षिक यह बना�स में �हते रे्थ। इनका समय 1700 ई. माना जाता है। तक कौमुदी ग्रन्थ में इन्होंने र्द्रव्य, गुण, आटिद सात पदार्थF का उल्8ेख क�के बुजिद्ध को आत्मा का गुण बताया तर्था बुजिद्ध के दो रे्भद माने- (1) अनुर्भव औ� (2) स्मृषित। अनुर्भव के र्भी इन्होंने दो र्भेद माने (1) प्रमा औ� (2) अप्रमा। प्रमा के र्भी दो रे्भद षिकये- (1) प्रत्यक्ष औ� (2) अनुमान। इस प्रका� इन्होंने न्याय के पदार्थF का वैशेषि�क के पदार्थF में अन्तर्भाव बताया है। वेणीद��शिचत पदार्थमण्डनम्

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�6ुनार्थ शिश�ोमत्तिण के ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् (पदार्थषिनरूपणम्) में उल्लिल्8खिखत सूत्रषिव�ो6ी मन्तव्यों में से अनेक मन्तव्यों का खण्डन क�ते हुए वैशेषि�क पदार्थF की मान्यताओं में कषितपय नवीन मन्तव्यों को जोड़ते हुए वेणीद� (अठा�हवीं शतीं) ने 'पदार्थमण्डनम्' नामक ग्रन्थ की �चना की। इस ग्रन्थ में उन्होंने पदार्थF का जो षिवश्ले�ण षिकया, उसमें खण्डन-मण्डन ही नहीं, अषिपतु कई नये तथ्य औ� मन्तव्य र्भी प्रस्तुत षिकये हैं। वेणीद� सात नहीं, अषिपतु र्द्रव्य, गुण, कम, 6म, औ� अर्भाव इन पाँच पदार्थF को मानते हैं। वह गुणों की संख्या र्भी चौबीस नहीं अषिपतु उन्नीस मानने के पक्ष में हैं। इनके ग्रन्थ के नाम से प्रतीत तो ऐसा होता है षिक वेणीद� ने �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण के मत का प्रत्याख्यान क�ने के शि8ए ग्रन्थ शि8खा होगा, प� षिवशे� को पदार्थ न मानक� इन्होंने �घुनार्थ के मत से अपनी सहमषित र्भी प्रकट की है। इन्होंने यह कहा षिक वह �घुनार्थ के Uुषितसूत्रषिवरुद्ध षिवचा�ों का खण्डन क�ते हैं। अत: सर्भी बातों में उनकी �घुनार्थ से असहमषित नहीं है। यह ग्रन्थ अठा�हवीं शती में शि8खा गया र्था। अत: यह आ6ुषिनक शिचन्तन की दृधिJ से र्भी ध्यान देने योग्य है। [संपाटिदत क�ें] प्रर्थमाध्याय का सा� व समाहा�वैशेषि�क दशन के प्रवतक महर्षि�ं कणाद द्वा�ा वतमान वैशेषि�क सूत्र के संग्रर्थन का समय र्भ8े ही 600 ई.पू. के आसपास माना जाता हो, षिकन्तु वैशेषि�क शास्त्र की प�म्प�ा अषित प्राचीन है। वैशेषि�क साषिहत्य का ज्ञात इषितहास 600 ई. पूव से अठा�हवीं शती तक व्यापृत �हा है। इस 8म्बी का8ावधि6 में अनेक र्भाष्यका�ों, टीकाका�ों, वृत्ति�का�ों, औ� प्रकीण ग्रन्थका�ों ने वैशेषि�क के शिचन्तन को आगे बढ़ाया। न्यायवैशेषि�क के अनेक आचायF ने दोनों दशनों को समप्तिन्वत रूप से प्रस्तुत क�ने का र्भी प्रयास षिकया। वस्तुत: न्याय के अधि6कत� आचायF का कहीं न कहीं वैशेषि�क का संस्पश षिकये षिबना काम नहीं च8ा, अत: वैसे तो वैशेषि�क वाङमय में अनेक नैयाधियकों औ� न्याय के ग्रन्थों का र्भी उल्8ेख षिकया जाना अपेत्तिक्षत है, षिd� र्भी यहाँ हमने केव8 उन्हीं नैयाधियकों औ� न्यायग्रन्थों का उल्8ेख षिकया, जो वैशेषि�क के शिचन्तन से साक्षात् सम्बद्ध हैं। वैशेषि�क दशन की तत्त्व-मीमांसाअनुक्रम[छुपा]1 वैशेषि�क दशन की तत्त्व - मीमांसा 2 पदार्थ 3 पदार्थ संख्या 4 र्द्रव्य 5 गुण का स्वरूप औ� रे्भद 6 कम का स्वरूप 7 सामान्य का स्वरूप 8 षिवशे� का स्वरूप 9 समवाय का स्वरूप 10 अर्भाव का स्वरूप 11 सम्बंधि6त लि8ंक

महर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�कसूत्र में र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य, षिवशे� औ� समवाय नामक छ: पदार्थF का षिनद�श षिकया औ� प्रशस्तपाद प्ररृ्भषित र्भाष्यका�ों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुस�ण क�ते हुए पदार्थF का षिवश्ले�ण षिकया। शिशवाटिदत्य (10 वीं शती) से पूववत� आचाय चन्र्द्रमषित के अषितरि�क्त प्राय: अन्य सर्भी प्रख्यात व्याख्याका�ों ने पदार्थF की संख्या छ: ही मानी, षिकन्तु शिशवाटिदत्य ने सप्तपदार्थ� में कणादोक्त छ: पदार्थF में अर्भाव को र्भी जोड़ क� सप्तपदार्थवाद का प्रवतन क�ते हुए वैशेषि�क शिचन्तन में एक क्राप्तिन्तका�ी परि�वतन क� टिदया। यद्यषिप चन्र्द्रमषित (6 ठी शती) ने दशपदार्थ� (दशपदार्थशास्त्र) में कणादसम्मत छ: पदार्थ� में शशिक्त, अशशिक्त, सामान्य-षिवशे� औ� अर्भाव को जोड़क� दश पदार्थF का उल्8ेख षिकया र्था, षिकन्तु चीनी अनुवाद के रूप में उप8ब्ध इस ग्रन्थ का औ� इसमें प्रवर्षितंत दशपदार्थवाद का वैशेषि�क के शिचन्तन प� कोई षिवशे� प्रर्भाव नहीं पड़ा। हाँ, ऐसा प्रतीत होता है षिक अर्भाव के पदार्थत्व प� चन्र्द्रमषित के समय से 8ेक� शिशवाटिदत्य के समय तक जो चचा हुई, उसको मान्यता देते हुए ही शिशवाटिदत्य ने अर्भाव का पदार्थत्व तो प्रषितष्ठाषिपत क� ही टिदया। कुछ षिवद्वानों का यह र्भी मत है षिक कणाद ने आ�म्भ में मू8त: र्द्रव्य, गुण औ� कम ये तीन ही पदार्थ माने रे्थ। शे� तीन का प्रवतन बाद में हुआ। अधि6कत� यही मत प्रचशि8त है, षिd� र्भी संक्षेपत: छ: पदार्थF का परि�गणन कणाद ने ही क� टिदया र्था। षिवत्तिर्भन्न षिवद्वानों द्वा�ा षिकये गये अनुसन्धानों द्वा�ा जो तथ्य सामने आये हैं, उनके अनुसा� वैशेषि�क तत्त्व-मीमांसा में प्रमुख रूप से चा� मत प्रचशि8त हुए, जिजन्हें षित्रपदार्थवाद, �ट्पदार्थवाद, दशपदार्थवाद तर्था सप्तपदार्थवाद कहा जा सकता है।

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न्याय औ� वैशेषि�क समान तन्त्र माने जाते हैं। वैशेषि�कसूत्र औ� न्यायसूत्र की �चना से पूव संर्भवत: आन्वीत्तिक्षकी के अन्तगत इन दोनों शास्त्रों का समावेश होता �हा, षिकन्तु का8ान्त� में न्यायशास्त्र में प्रमाणों के षिववेचन को औ� वैशेषि�क शास्त्र में प्रमेयों के षिवशे्ल�ण को प्रमुखता दी गई जिजससे षिक दोनों का षिवकास पृर्थक्-पृर्थक् रूप में हुआ। बाद के कषितपय प्रक�ण ग्रन्थों में षिd� इन दोनों शास्त्रों का समन्वय क�ने का प्रयास षिकया गया, प� वस्तुत: ऐसे उ��का8ीन ग्रन्थों में र्भी कुछ न्यायप्र6ान हैं औ� कुछ वैशेषि�कप्र6ान। न्याय के आचायF ने गौतम प्रवर्षितंत सो8ह पदार्थF में वैशेषि�कसम्मत सात प्रदार्थF का, तर्था वैशेषि�क के व्याख्याका�ों ने वैशेषि�कसम्मत सात पदार्थF में न्यायसम्मत सो8ह पदार्थF का अन्तर्भाव क�ते हुए इन दोनों दशनों में समन्वय क�ने का प्रयत्न षिकया, षिकन्तु इससे इन दोनों दशनों की अपनी-अपनी षिवशिशJता प� कोई षिवप�ीत प्रर्भाव नहीं पड़ा औ� दोनों शास्त्रों का पृर्थक्-पृर्थक् प्रा6ान्य आज र्भी बना हुआ है। [संपाटिदत क�ें] पदार्थवैशेषि�क दशन में तत्त्व शब्द के स्थान प� पदार्थ शब्द को प्रयुक्त षिकया गया है। पदार्थ शब्द का वु्यत्पत्ति�मू8क* आशय यह है षिक कोई र्भी ऐसी वस्तु, जिजसकों कोई नाम टिदया जा सके अर्थात जो शब्द से संकेषितत की जा सके औ� इजिन्र्द्रय-ग्राह्य हो वह अर्थ कह8ाती है।* कषितपय षिवद्वानों के अनुसा� जिजस प्रका� हार्थी के पद (च�ण-शिचह्न) को देखक� हार्थी का ज्ञान षिकया जा सकता है, उसी प्रका� पद (शब्द) से अर्थ का ज्ञान होता है। वैशेषि�कसूत्र में पदार्थ का 8क्षण उप8ब्ध नहीं होता। पदार्थ शब्द का प्रयोग र्भी सूत्रका� ने केव8 एक बा� षिकया है।* प्रशस्तपाद (चतुर्थ शती) के अनुसा� पदार्थ वह है जिजसमें अत्थिस्तत्व, अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व हो।* ये तीनों ही 8क्षण-सा6म्य के आ6ायक हैं, अर्थात पदार्थF के ये तीन समान 6म हैं। प्रशस्तपाद का यह र्भी कहना है षिक षिनत्य र्द्रव्यों के अषितरि�क्त अन्य सर्भी पदार्थ षिकसी प� आत्तिUत �हते हैं। आत्तिUत का अर्थ है प�तन्त्र रूप से �हना, न षिक समवाय सम्बन्ध से। प्रशस्तपाद द्वा�ा प्रयुक्त अत्थिस्तत्व, अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व इन तीन शब्दों का षिवश्ले�ण उ��वत� आचायF ने अपनी-अपनी दृधिJ से षिकया। उनमें से कषितपय आचायF के षिनम्नशि8खिखत कर्थन ध्यान देने योग्य हैं—अत्थिस्तत्वUी6� (10 वीं शती) का यह कर्थन है षिक षिकसी वस्तु का जो स्वरूप है, वही उसका अत्थिस्तत्व है।* जबषिक व्योमशिशवाचाय (9 वीं शती) के षिवचा� में 'अत्थिस्त' या 'सत्' इस प्रका� का ज्ञान ही अत्थिस्तत्व कह8ाता है। न्याय8ी8ावतीका� वल्8र्भाचाय (12 वीं शती) स�ासंबन्धबुजिद्ध को ही अत्थिस्तत्व कहते हैं। जगदीश तका8ंका� (16 वीं शती) ने सूशिक्त नामक टीका में र्भावत्वषिवशिशJ स्वरूपसत्त्व को ही 'अत्थिस्तत्व' कहा है। सामान्यतया अत्थिस्तत्व औ� स�ा को पयायवाची माना जा सकता है, षिकन्तु वैशेषि�क दशन के अनुसा� इनमें रे्भद है। अत्थिस्तत्व स�ा की अपेक्षा अधि6क व्यापक है, क्योंषिक स�ा में र्भी अत्थिस्तत्व है। अत्थिस्तत्व षिकसी वस्तु का अपना स्वरूप है, यह स�ा सामान्य की त�ह समवाय सम्बन्ध से वस्तु में नहीं �हता। वह तो वस्तु का अपना ही षिवशे� रूप है। वैशेषि�कों के अनुसा� स�ा केव8 र्द्रव्य, गुण औ� कम इन तीन में ही समवाय सम्बन्ध से �हती है। इन तीन में �हने के का�ण उसको सामान्य कहा जाता है, न षिक अधि6क व्यापकता के का�ण। इस प्रका� स�ा 'सामान्य' का औ� 'अत्थिस्तत्व' स्वरूप-षिवशे� का द्योतक है। अत्थिस्तत्व व्यापक है औ� स�ा व्याप्य।अत्तिर्भ6ेयत्वअत्तिर्भ6ान का आशय है- नाम या शब्द। शब्दों से जिजसका उल्8ेख हो सके, वह अत्तिर्भ6ेय है। उदयनाचाय ने अत्तिर्भ6ेय को ही पदार्थ माना है।* अन्नंर्भट्ट र्भी प्रमुखतया अत्तिर्भ6ेयत्व को ही पदार्थF का सामान्य 8क्षण मानते हैं।* संसा� में जो र्भी वस्तु है, उसका कोई नाम है। अत: वह अत्तिर्भ6ेय है। जो अत्तिर्भ6ेय है, वह प्रमेय है औ� जो प्रमेय है, वह पदार्थ है। कोई र्भी अर्थ (वस्तु) जो संज्ञा से संशिज्ञत हो, पदार्थ कह8ाता है।ज्ञेयत्वशिशवाटिदत्य के अनुसा� पदार्थ वे हैं, जो प्रधिमषित के षिव�य हों।* पदार्थ अज्ञेय नहीं, अषिपतु ज्ञेय हैं। षिवश्व के सर्भी पदार्थ घट-पट आटिद, जिजनका अत्थिस्तत्व है, वे ज्ञेय अर्थात ज्ञानयोग्य र्भी हैं। अज्ञेय षिव�य की स�ा को स्वीका� नहीं षिकया जा सकता। जिजसका अत्थिस्तत्व है वह सत है, जो सत है वह ज्ञेय है, औ� जो ज्ञेय है वह अत्तिर्भ6ेय है। वस्तुत: अत्थिस्तत्व, अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व में से षिकसी एक 8क्षण से र्भी पदार्थ की परि�र्भा�ा की जा सकती है, क्येंषिक अत्थिस्त या सत शब्द द्वा�ा उल्लिल्8खिखत र्भाव पदार्थF के संदर्भ में अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व कोई त्तिर्भन्न संकल्पनाए ंनहीं हैं। वस्तुत: अत्थिस्तत्व, अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व ये र्भाव पदार्थF के समान 6म है। ऐसा प्रतीत होता है षिक पदार्थ की परि�र्भा�ा में 'अत्थिस्तत्व' शब्द के समावेश से यह संकेषितत षिकया गया है षिक वस्तु वैसी है, जैसा उसका स्वरूप है, न षिक वैसी, जैसी हम उसे कल्लिल्पत क�ते हैं। इससे षिवज्ञानवाद का षिन�सन होता है औ� शून्यवाद का र्भी प्रत्याख्यान हो जाता है। ज्ञेयत्व से संशयवाद औ� अज्ञेयवाद तर्था अत्तिर्भ6ेयत्व से यह बताया गया है षिक वस्तुज्ञान की अत्तिर्भव्यशिक्त आवश्यक है। प्रतीत होता है षिक प्रशस्तपाद र्भी इस बात से

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परि�शिचत रे्थ षिक इन तीनों 8क्षणों में से षिकसी एक से र्भी पदार्थ को परि�र्भाषि�त षिकया जा सकता है, षिकन्तु उन्होंने अपने पूववत� या समसामधियक आचायF की षिवत्तिर्भन्न शंकाओं के समा6ान के शि8ए तीनों को एक सार्थ �खक� यह प्रषितपाटिदत षिकया षिक - पदार्थ सत है, पदार्थ अत्तिर्भ6ेय है औ� पदार्थ ज्ञेय है। षिd� र्भी प�वत� कई ग्रन्थका�ों ने इनमें से षिकसी एक को र्भी पदार्थ का समग्र 8क्षण मानक� काम च8ा शि8या। उदयनाचाय औ� अन्नंर्भट्ट ने अत्तिर्भ6ेयत्व को औ� शिशवाटिदत्य ने जे्ञयत्व औ� प्रमेयत्व को प्रमुखता दी। 'अत्थिस्तत्व' को छोड़ने का का�ण संर्भवत: यह र्था षिक इनके समय तक अर्भाव की सत्पम पदार्थ के रूप में प्रषितष्ठा हो �ही र्थी या हो चुकी र्थी। यद्यषिप वस्तुओं के 6म उनसे पृर्थक् नहीं होते, षिd� र्भी 6म औ� 6म� के र्भेद से उनमें पार्थक्य माना जाता है। र्द्रव्याटिद छ: पदार्थF में अत्थिस्तत्व, अत्तिर्भ6ेयत्व औ� ज्ञेयत्व ये तीन समान 6म हैं। षिकन्तु Uी6� का इस संदर्भ में यह कर्थन है षिक ये तीनों अवस्था-रे्भद से पृर्थक् हैं, मू8त: तो वे वस्तु के स्वरूप के ही द्योतक हैं।* वस्तुत: ये तीनों शब्द एक ही वस्तु के तीन पक्षों का आख्यान क�ते हैं। यह ज्ञातव्य है षिक अत्थिस्तत्व औ� अर्भाव की संकल्पनाओं में पा�स्परि�क षिव�ो6 का प्रत्याख्यान क�ते हुए Uी6� ने यह बताया षिक स�ा केव8 र्द्रव्य, गुण औ� कम में �हती है, जबषिक अत्थिस्तत्व अन्य सर्भी पदार्थF में, औ� यहाँ तक षिक अर्भाव में र्भी �हता है। षिवश्वनार्थ पंचानन ने र्भी अत्थिस्तत्व को अर्भावसषिहत सातों पदार्थF का सा6म्य माना। अत: स�ा औ� अत्थिस्तत्व दो त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न संकल्पनाए ँहैं।* यद्यषिप Uी6� द्वा�ा षिनरूषिपत 'अत्थिस्तत्व' के अर्थ को ग्रहण क�ने प� अर्भाव के पदार्थत्व का समा6ान हो सकता है। प� शंक� धिमU ने इस समस्या का समा6ान यह कहक� षिकया षिक जे्ञयत्व औ� अत्तिर्भ6ेयत्व तो छ: पदार्थF के उप8क्षण मात्र हैं, वस्तुत: उनमें सातों पदार्थF का सा6म्य है। इतने सा�े आख्यान-प्रत्याख्यानों के �हते हुए र्भी पदार्थ के 8क्षण में 'अत्थिस्तत्व' की संघटकता अर्भाव के परि�पे्रक्ष्य में अर्भी र्भी षिववादास्पद बनी हुई है। षिd� र्भी संक्षेप में यह कहा जा सकता है षिक प्रशस्तपाद के अनुसा� जो सत्, अत्तिर्भ6ेय औ� ज्ञेय है, उसी को पदार्थ कहा जा सकता है। [संपाटिदत क�ें] पदार्थ संख्यावैशेषि�क में पदार्थF की संख्या के संदर्भ में प्रमुख रूप से चा� सोपान या चा� मत उप8ब्ध होते हैं। उनका संत्तिक्षप्त षिवव�ण इस प्रका� है-षित्रपदार्थवादअनेक षिवद्वानों का यह मत है षिक वैशेषि�क सूत्र में कणाद ने पह8े र्द्रव्य, गुण औ� कम इन तीन ही पदार्थF का परि�गणन षिकया र्था। इस बात का आ6ा� यह है षिक वैशेषि�क सूत्र के प्रर्थम अध्याय के प्रर्थम आधिह्नक में केव8 इन्हीं तीनों का षिनरूपण है औ� आठवें अध्याय के षिद्वतीय आधिह्नक में इन्हीं तीन को अर्थ-संज्ञा से षिनर्दिदंJ षिकया गया है।* स�ा र्भी र्द्रव्य, गुण, कम में ही मानी गई है।* इनके अषितरि�क्त शे� तीन अर्थात सामान्य षिवशे� औ� समवाय का षिवश्ले�ण बाद में षिकया गया है। इस प्रका� अनेक षिवद्वानों का यह मत है षिक कणाद द्वा�ा जिजस प्रका� से इन छ: पदार्थF का उल्8ेख षिकया गया, उससे यह शिसद्ध होता है षिक कणाद ने र्द्रव्य, गुण औ� कम को प्रमुख रूप से पदार्थ माना औ� सामान्य षिवशे� औ� समवाय के पदार्थत्व का षिनरूपण गौण रूप में षिकया। इस प्रका� यह कहा जा सकता है षिक पदार्थF की संकल्पना के षिवकास-क्रम के प्रर्थम सोपान में कणाद ने गौण रूप में अवशिशJ तीन तत्त्वों का परि�गणन क�ते हुए र्भी प्रमुखतया र्द्रव्य, गुण औ� कम इन तीन को ही पदार्थ संज्ञा से षिनर्दिदंJ षिकया र्था।�ट्पदार्थवादवैशेषि�कसूत्र में छ: पदार्थF का उल्8ेख पूव�क्त रूप में उप8ब्ध होता है। षिd� र्भी कई षिवद्वानों का यह मत है षिक शिसद्धान्त के रूप में �ट्पदार्थवाद की षिवधि6वत स्थापना प्रशस्तपाद ने की। इस मान्यता के समर्थन में यह बात र्भी कही जाती है षिक वैशेषि�कसूत्र की चन्र्द्रानन्दवृत्ति� औ� धिमशिर्थ8ावृत्ति� में प्रर्थमाध्याय के प्रर्थम आधिह्नक के उस सूत्र की व्याख्या नहीं है, जो पदार्थ-गणना से सम्बद्ध माना जाता है। �ा6ाकृष्णन प्ररृ्भषित अनेक षिवद्वान यह मानते हैं षिक यह सूत्र प्रत्तिक्षप्त है।* प्रशस्तपाद ने र्भाष्य के आ�म्भ में ही यह स्थापना की षिक पदार्थ छ: हैं—र्द्रव्य-गुण-कम-सामान्य-षिवशे�-समवायानां �ण्णां पदार्थानां सा6म्यवै6म्याभ्यां तत्त्वज्ञानं षिन:Uेयसहेतु:। तच्चेश्व�चोदनात्तिर्भव्यक्ताद ्6मादेव।* इन छ: पदार्थF में र्भी षिवकास का एक क्रम �हा है। षिवकासक्रम के प्रर्थम च�ण में सवप्रर्थम र्द्रव्य का ज्ञान हुआ। षिd� जब र्द्रव्यों में रे्भद टिदखाई टिदया तो र्द्रव्यों में अन्तर्षिनंषिहत गुणो, षिवशे�ताओं का पता च8ा। इसी प्रका� जब वस्तुओं की ल्लिस्थषित में परि�वतन का बो6 हुआ तो परि�वतन में अन्तर्षिनंषिहत कम की अव6ा�णा हुई औ� इस प्रका� सवप्रर्थम र्द्रव्य, गुण औ� कम ये तीन पदार्थ माने गये। षिवकास के षिद्वतीय सोपान का आ�म्भ अनेक वस्तुओं में कुछ समानताओं के टिदखाई देने के का�ण हुआ, d8त: सामान्य या जाषित नामक तत्त्व र्भी पदार्थ की कोटिट में षिगना जाने 8गा। इस सामान्य में र्भी समानता के सार्थ ही व्यावतकता का र्भी बो6 हुआ। उदाह�णतया जैसे गोत्व नामक सामान्य एक गौ को अन्य गौओं के समान षिनर्दिदंJ क�ता है, वैसे ही वह गोत्तिर्भन्न अश्व आटिद

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प्रात्तिणयों से गौ को पृर्थक् र्भी क�ता है। अत: इसके शि8ए 'सामान्य-षिवशे�' नामक एक पदार्थ की अव6ा�ण की गई। षिकन्तु गठबन्धन की इस अव6ा�णा को 8ोक-स्वीकृषित नहीं धिम8 पाई, अत: उ��वत� आचायF ने यही उशिचत समझा षिक वस्तुओं में समानता को व्यक्त क�ने वा8े तत्त्व 'सामान्य' का औ� उनमें वैशिशJय बताने वा8े तत्त्व षिवशे� का पृर्थक्-पृर्थक् रूप से पदार्थत्व माना जाए। र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य औ� षिवशे� की पदार्थ के रूप में अव6ा�णा के सार्थ यह र्भी देखा गया षिक वस्तुओं में बाह्य औ� आन्तरि�क संबन्ध र्भी षिवद्यमान हैं। जैसे संयोग एक सम्बन्ध है, षिकन्तु वह पह8े से असम्बद्ध वस्तुओं को ही एक दूस�े से जोड़ सकता है। षिकन्तु वह केव8 बाह्य सम्बन्ध है, जबषिक वस्तुओं में अन्तवती सम्बन्ध र्भी होते हैं। अत: वस्तुओं में पाये जाने वा8े आन्तरि�क सम्बन्ध के रूप में समवाय की अव6ा�णा की गई औ� इस प्रका� समवाय को एक पदार्थ मानक� प्रशस्तपाद आटिद आचायF ने �ट्पदार्थवाद को एक व्यवल्लिस्थत रूप दे टिदया।* सप्तपदार्थवादवैशेषि�कसम्मत पदार्थमीमांसा के षिवकासक्रम के षिद्वतीय च�ण में प्रशस्तपाद प्रर्भृषित र्भाष्यका�ों ने �ट्पदार्थवाद को प्रषितष्ठाषिपत क� टिदया र्था। षिकन्तु �ट्पदार्थ� अव6ा�णा मुख्यत: र्भाव पदार्थF प� ही चरि�तार्थ होती है, अर्भाव प� नहीं। चन्र्द्रमषित जैसे र्भाष्यका�ों के ग्रन्थों से र्भी इस बात के संकेत धिम8ते हैं षिक अर्भाव-पदार्थत्व के सम्बन्ध में शिशवाटिदत्य से पह8े र्भी षिवचा� होता �हा। षिd� र्भी यह तो स्पJ ही है षिक प�म्प�ीण रूप से चर्चिचंत औ� प्राय: पदार्थUृंख8ा में परि�गत्तिणत होने के बाद र्भी अर्भाव का पदार्थत्व षिववादास्पद �हता च8ा आ �हा र्था। शिशवाटिदत्य ने सप्तपदार्थ� में अर्भाव को प्रषितधिष्ठत क�के पदार्थF की संख्या षिवधि6वत सात षिन6ारि�त क� दी।दशपदार्थवादचन्र्द्रमषित (6 ठी शती) ने दशपादार्थशास्त्र (दशपदार्थ�) में र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य षिवशे�, समवाय, शशिक्त, अशशिक्त, सामान्य-षिवशे� तर्था अर्भाव नामक दस पदार्थF का परि�गणन षिकया। इनमें से छ: तो वैशेषि�क प�म्प�ा में पह8े से ही स्वीकृत रे्थ। बाकी चा� का अवत�ण चन्र्द्रमषित ने षिकया। इन चा�ों में से शशिक्त के पदार्थत्व का उल्8ेख प्रर्भाक� मतानुयायी मीमांसकों ने र्भी षिकया। इनमें से अर्भाव का समावेश तो शिशवाटिदत्य (10 वीं शती) ने सप्तपदार्थ� में क� टिदया, षिकन्तु चन्र्द्रमषित परि�गत्तिणत शे� तीन का पदार्थत्व उ��वत� वैशेषि�क प�म्प�ा में स्वीकाय नहीं हो पाया, संके्षप में प्रस्तुत है षिक शशिक्त, अशशिक्त औ� सामान्य-षिवशे� को पदार्थ मानने के पक्ष में चन्र्द्रमषित आटिद वैशेषि�कों, आचायF औ� प्रर्भाक� मीमांसकों के क्या तक रे्थ औ� अन्य आचायF ने उनको क्यों नही अपनाया?शशिक्त के पृर्थक् पदार्थत्व का षिन�सनमीमांसकों का यह तक है षिक शशिक्त एक अषितरि�क्त पदार्थ है। यह इस उदाह�ण से शिसद्ध होता है षिक चन्र्द्रकान्तमत्तिण की उपल्लिस्थषित या सधिन्नधि6 में आग औ� काष्ठ के संयोग से र्भी दाहषिक्रया नहीं होती। इसके षिवप�ीत यटिद चन्र्द्रकान्तमत्तिण की उपल्लिस्थषित या सधिन्नधि6 न हो तो दाहषिक्रया हो जाती है। इससे यह स्पJ होता है षिक चन्र्द्रकान्तमत्तिण की उपल्लिस्थषित में दाहषिक्रया नहीं होती औ� अनुपल्लिस्थषित में हो जाती है। अत: शशिक्त एक अषितरि�क्त पदार्थ है। इस तक का खण्डन इस प्रका� षिकया जाता है षिक यटिद षिकसी वस्तु के समीप होने या न होने से शशिक्त का उत्पाद औ� षिवनाश माना जाएगा तो इस प्रका� अनेक शशिक्तयाँ माननी पड़ेंगी। अत: इसकी अपेक्षा यह मानना अधि6क उशिचत है षिक अखिग्न मात्र नहीं, अषिपतु उ�ेजक मत्तिण के अर्भाव से षिवशिशJ अखिग्न ही दाह का का�ण होती है। शशिक्त के पदार्थत्व का खण्डन क�ते हुए शिशवाटिदत्य ने यह बताया षिक शशिक्त पृर्थक् पदार्थ नहीं, अषिपतु र्द्रव्याटिद स्वरूप ही है। दृJ का�णों से ही दृJ काय की उत्पत्ति� होती है। अत: अदृधिJ शशिक्त को का�ण मानना उशिचत नहीं है। एक ही काय की उत्पत्ति� अनेक का�णों से र्भी हो सकती है। जैसे षिक आग, काष्ठ के घ�ण से अर्थवा सूयकान्त मत्तिण के प्रर्भाव से र्भी उत्पन्न हो सकती है। अत: दाह का का�ण शशिक्त नहीं, अषिपतु उ�ेजकार्भाव षिवशिशJमण्यर्भाव है।* अखिग्न में �हने वा8ी शशिक्त अखिग्न के अषितरि�क्त औ� कुछ नहीं हे, वह अखिग्न ही है।अशशिक्त के पृर्थक् पदार्थत्व का षिन�सनजैसे र्भाव पदार्थF के षिवप�ीत अर्भाव का पदार्थत्व स्वीका� षिकया गया है, उसी प्रका� शशिक्त के षिवप�ीत अशशिक्त को र्भी एक पदार्थ मानक� चन्र्द्रमषित ने पदार्थF की गणना में इसका र्भी समावेश षिकया, षिकन्तु वैशेषि�क की उ��वत� पदार्थमीमांसा प� इसका कोई

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षिवशे� प्रर्भाव नहीं पड़ा।सामान्य-षिवशे� के पृर्थक् पदार्थत्व का षिन�सन चन्र्द्रमषित ने दश पदार्थF में 'सामान्य-षिवशे�' का र्भी परि�गणन षिकया। कषितपय वैशेषि�कों ने यह देखा षिक ऐसी अनेक वस्तुए ँहैं, जिजनमें समानता टिदखाई देती है, षिकन्तु वह समानता न केव8 समान6मा वस्तुओं को एक वग में �खती है, अषिपतु अन्य वग की वस्तुओं से उसको अ8ग र्भी क�ती है। इस प्रका� उन्होंने सामान्य-षिवशे� नामक एक गठजोड़ की कल्पना की औ� उसको एक पदार्थ माना। सामान्य औ� षिवशे� का पदार्थत्व पृर्थक्-पृर्थक् रूप से तो वैशेषि�क दशन में स्वीकृत है ही। प्रशस्तपाद का तो यह र्भी षिवचा� �हा षिक सामान्य से केव8 स�ा का बो6 होता है औ� षिवशे� से केव8 अन्य षिवशे� का। अत: उन्होंने सामान्य औ� षिवशे� के बीच की ल्लिस्थषित को अप�सामान्य कहा, जो षिक सामान्य औ� षिवशे� की मध्यस्थ कड़ी जैसा है। दशपदार्थ� में र्भी सम्भवत: ऐसी ही संकल्पना को ध्यान में �खते हुए सामान्य-षिवशे� का एक अ8ग पदार्थ के रूप में उल्8ेख षिकया गया। षिकन्तु इस संकल्पना को र्भी उ��वत� वैशेषि�कों की स्वीकृषित नहीं धिम8 पाई।सादृश्य आटिद के पृर्थक् पदार्थत्व का षिन�सनप्रर्भाक� मीमांसकों ने र्द्रव्य, गुण, कम, सामान्य, समवाय, शशिक्त, सादृश्य औ� संख्या नामक आठ पदार्थ माने, जबषिक र्भाट्ट मीमांसकों ने र्द्रव्य, सामान्य, गुण, कम औ� अर्भाव या अनुप8त्थिब्ध इन पाँच को ही पदार्थ माना।* प्रार्भाक�ोक्त पदार्थF में सादृश्य के पदार्थत्व प� गह�ी षिवप्रषितपत्ति�याँ प्रकट क�ने के सार्थ-सार्थ वैशेषि�कों का यह मत �हा षिक शिशवाटिदत्योक्त सप्तपदार्थF के अषितरि�क्त अन्य षिकसी तत्त्व का पृर्थक् पदार्थत्व स्वीका� नहीं षिकया जा सकता। सादृश्य के पदार्थत्व के संबन्ध में प्रर्भाक� मीमांसकों ने यह तक टिदया षिक सादृश्य औ� सामान्य में अन्त� है। सादृश्य सामान्यसषिहत सर्भी पदार्थF में �हता है, अत: सादृश्य र्भी एक पदार्थ है। इस अव6ा�णा के षिवप�ीत Uी6� यह कहते हैं षिक सादृश्य र्भी एक पृर्थक् पदार्थ नहीं है, अषिपतु उपाधि6रूप सामान्य है।* पद्मनार्थ धिमU का र्भी यह कर्थन है षिक षिकसी पदार्थ के बहुत से 6मF का उससे त्तिर्भन्न दूस�े पदार्थ में पाया जाना ही सादृश्य है, जैसे चन्र्द्रमुख में। अत: सादृश्य कोई पृर्थक् पदार्थ नहीं है। उदयनाचाय ने र्भी यह कहा है षिक सादृश्य र्द्रव्याटिद छ: र्भाव पदार्थF में ही समाषिवJ है।* षिवश्वनार्थ पंचानन का र्भी यही षिवचा� है षिक सादृश्य पदार्थान्त� नहीं है।* टिदनक�ीका� का षिवचा� है षिक सादृश्य के पदार्थत्व को स्वीका� क�ते हुए र्भी तत्त्वज्ञान में सहायक न होने के का�ण पृर्थक् पदार्थ के रूप में सादृश्य के परि�गणन की नव्य नैयाधियक आवश्यकता नहीं समझते। प्रशस्तर्भाष्य की सेतु-टीका में पद्मनार्भ धिमU ने पूवपक्ष के रूप में रे्भद, शशिक्त, शुजिद्ध, अशुजिद्ध, र्भावना, स्वत्व, क्षत्तिणक, वैशिशष्ट्य, समूह, प्रकारि�त्व, संख्या, सादृश्य, ता�त्व, मन्दत्व, आ6ा�ा6ेयर्भाव, वं्यजनावृत्ति�, स्फोट, संसगमयादा, लि8ंग, षिवशे�ण-षिवशेष्यर्भाव, का�णत्व, स्वरूप, सम्बन्ध, औ� त�ेदन्ता इन 23 तत्त्वों का उल्8ेख क�ते हुए उनके पदार्थत्व को अस्वीकृत षिकया पदार्थF की संख्या सात ही प्रषितपाटिदत की। इसी प्रका� न्याय8ी8ावतीका� वल्8र्भाचाय ने र्भी तमस, शशिक्त ज्ञानता, वैशिशJय, आ6ा�ा6ेय र्भाव औ� सादृश्य के पदार्थत्व का पूवपक्ष की दृधिJ से उपस्थापन क�के उनका षिन�ाक�ण षिकया। *शिशवाटिदत्य ने र्भी षिनम्नशि8खिखत सात तत्त्वों के पृर्थक् पदार्थत्व का प्रत्याख्यान क�ते हुए यह कहा षिक मध्यत्व प�ाप�त्व का अर्भाव है, तमस् का अन्तर्भाव अर्भाव में हो जाता है, शशिक्त र्द्रव्याटिदस्वरूप है, षिवशेष्य षिवशे�ण षिवशेष्यर्भावसम्बन्ध है, ज्ञातता ज्ञानषिव�यक सम्बन्ध के अषितरि�क्त औ� कुछ नहीं हैं, सादृश्य उपाधि6 रूप है औ� 8घुत्व गुरुत्व का अर्भाव है। मानमनोह�का� वाटिदवागीश्व� ने र्भी शशिक्त, ज्ञातता, षिवशिशJता, षिव�यषिव�यीर्भाव, सादृश्य औ� प्र6ान के पदार्थत्व का पूवपक्ष के रूप में उपन्यास क�के इनके पदार्थत्व का षिन�सन षिकया तर्था तमस को र्भी पृर्थक् पदार्थ न मानक� अर्भाव में ही उसका अन्तर्भाव षिकया। न्याय-वैशेषि�क प�म्प�ा के कषितपय उ��वत� आचायF ने वैशेषि�कसम्मत इन सात पदार्थF में से कुछ को स्वीका� नहीं षिकया। उदाह�णतया �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण ने पदार्थतत्वषिनणय नामक 8घुग्रन्थ में षिवशे� के पदार्थत्व का खण्डन षिकया* औ� क्षण, स्वत्व, शशिक्त, का�णत्व, कायत्व, संख्या, वैशिशष्ट्य एवं षिव�यता ये आठ पदार्थ अषितरि�क्त रूप में मानने का षिव6ान षिकया। इसी प्रका� वेणीद� (18 वीं शती) ने पदार्थमण्डन नामक ग्रन्थ में र्द्रव्य, गुण, कम, 6म औ� अर्भाव ये पाँच ही पदार्थ माने औ� षिवशे� का पदार्थत्व स्वीका� नहीं षिकया। अन्य दशनों के अनेक आचायF को र्भी षिवशे� का पदार्थत्व मान्य नहीं हुआ।

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इस प्रका� हम देखते हैं षिक पदार्थF के अत्तिर्भ6ान औ� संख्या के संबन्ध में वैशेषि�क के आचायF औ� अन्य दाशषिनकों ने र्भी षिवत्तिर्भन्न मत प्रस्तुत षिकये। षिकन्तु वैशेषि�क पदार्थमीमांसा के षिवकासक्रम में अन्तत: शिशवाटिदत्य द्वा�ा षिनरूषिपत सप्तपदार्थवाद ही सवाधि6क मान्य समझा गया। वैशेषि�क के सप्त पदार्थF में न्याय के सो8ह पदार्थF का अन्तर्भाव यों तो यह प्रश्न उठाना अनावश्यक सा है षिक न्याय में परि�गत्तिणत 16 पदार्थF का वैशेषि�क में षिनर्दिदंJ 7 पदार्थF में कैसे अन्तर्भाव होता है, क्योंषिक न्यायसूत्र में पदार्थF की नहीं, अषिपतु शास्त्रार्थ में उपयोगी षिव�यों की गणना की गई है। षिd� र्भी, अन्तर्भाव की रूप�ेखा षिनम्नशि8खिखत रूप से सम्पन्न होती है।* र्द्रव्य(आत्मा) में- प्रमाण (प्रत्यक्ष कुछ आचायF के अनुसा� गुण में), प्रयोजन, दृJान्त, हेत्वार्भास (संदर्भानुसा� गुण में र्भी), षिनग्रहस्थान (संदर्भानुसा�) तर्था शिसद्धान्त का अन्तर्भाव माना जा सकता है। गुण (बुजिद्ध) में- अर्थ प्रमाण (अनुमान), संशय, अवयव, तक , षिनणय, वाद, जल्प, षिवतण्डा, छ8 औ� जाषित को अन्तरू्भत षिकया जा सकता है। कम सामान्य षिवशे� समवाय— न्याय-वैशेषि�क में समान है, षिकन्तु इनके वग�क�ण औ� षिनरूपण में कुछ रे्भद है। वात्स्यायन के अनुसा� न्याय के प्रमेयों का इनमें औ� इनका न्याय के प्रमेयों में अन्तर्भाव है। न्यायशास्त्र में इनकी चचा प्रमेयों के अन्तगत की गई है। अर्भाव में— षिनग्रहस्थान (अज्ञान, अप्रषितर्भा तर्था षिवक्षेप) तर्था अपवग (दु:खों की आत्यप्तिन्तक षिनवृत्ति�) का अन्तर्भाव हो जाता है। [संपाटिदत क�ें] र्द्रव्यवैशेषि�कों ने पूव�क्त प्रका� से सात पदार्थF का उल्8ेख षिकया है औ� ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं को सात वगF में वग�कृत षिकया है। पदार्थF की संख्या के सम्बन्ध में वैशेषि�क के षिवत्तिर्भन्न आचायF औ� षिवत्तिर्भन्न दाशषिनकों में मतरे्भद हैं, र्द्रव्य का सामान्य स्वरूप, र्द्रव्यों के 8क्षण औ� उनके प्रमुख रे्भदों का संक्षेप में उल्8ेख क�ेंगे।र्द्रव्य का 8क्षणवैशेषि�क दशन में मुख्यत: इस दृधिJकोण के आ6ा� प� पदार्थF का षिववेचन षिकया गया षिक पदार्थF में समानत: सा6म्य है औ� आन्तरि�क षिवत्तिर्भन्नता उनका षिनजी वैशिशष्ट्य है, जो उन्हें उनके वग की अन्य वस्तुओं से पृर्थक् क�ती है। कणाद ने र्द्रव्य के 8क्षण का षिनरूपण क�ते हुए यह प्रषितपाटिदत षिकया षिक काय का समवाधियका�ण औ� गुण एवं षिक्रया का आUयरू्भत पदार्थ ही र्द्रव्य है।* पृथ्वी आटिद नौ र्द्रव्यों का इस 8क्षण से युक्त होना ही उनका सा6म्य है। इस 8क्षण को कणादो��वत� प्राय: सर्भी वैशेषि�कों ने अपने र्द्रव्यप�क शिचन्तन का आ6ा� बनाया, षिकन्तु उनके षिवचा�ों में कहीं-कहीं कुछ अन्त� र्भी टिदखाई देता है। कणाद के उपयुक्त 8क्षण का आशय यह है षिक र्द्रव्य कम का आUय है, गुणों का आUय है औ� कायF का समवाधियका�ण है। कषितपय उ��वत� आचायF ने इन तीनों घटकों में से षिकसी एक को ही र्द्रव्य का 8क्षण मानने की अव6ा�णाओं का र्भी षिवश्ले�ण षिकया। उनमें से कषितपय ने इस आशंका का र्भी उद्भावन षिकया षिक 'जो कम का आUय हो वह र्द्रव्य है'- यटिद कणाद सूत्र का केव8 यही एक घटक र्द्रव्य का 8क्षण माना जाएगा, तो इसमें अव्याप्तिप्त दो� आ जायेगा, क्योंषिक आकाश, का8 औ� टिदक र्भी पदार्थ हैं जबषिक वे षिनत्मिष्क्रय हैं, उनमें कम होता ही नहीं है। यद्यषिप प्रत्येक षिक्रयाशी8 पदार्थ र्द्रव्य माना जा सकता है, षिकन्तु प्रत्येक र्द्रव्य को षिक्रयाशी8 नहीं माना जा सकता। 'जो गुणों का आUय हो वह र्द्रव्य है' केव8 इस घटक को र्भी कुछ आचायF ने र्द्रव्य का पूण 8क्षण मान शि8या।* षिकन्तु इस संदर्भ में यह आपत्ति� की जाती है षिक 'उत्पत्ति� के प्रर्थम क्षण में पदार्थ गुण�षिहत होता है।' अत: यह 8क्षण अव्याप्त है। प�न्तु इस आपत्ति� का उ�� देते हुए उदयनाचाय ने कहा षिक र्द्रव्य कर्भी र्भी गुणों के अत्यन्तार्भाव का अधि6क�ण नहीं होता। इस कर्थन का यह आशय है षिक उत्पत्ति� के प्रर्थम क्षण में र्भ8े ही र्द्रव्य में गुणाUयता न हो, षिकन्तु उस समय र्भी उसमें गुणों का आUय बनने की शशिक्त तो �हती ही है औ� इस प्रका� र्द्रव्य गुणों के अत्यन्तार्भाव का अनधि6क�ण है।* शिचत्सुखाचाय आटिद आचायF ने केव8 इस घटक को ही पूण 8क्षण मानने प� आपत्ति� की, अत: इस 8क्षण को र्भी षिनर्षिववंाद नहीं कहा जा सकता। बौद्ध दशन में 6मF को क्षण रूप में सत माना गया है तर्था 6म� या र्द्रव्य को असत। पुञ्ज (समुदाय) के अषितरि�क्त अवयवी नाम की कोइ� वस्तु नहीं है। सा�े तन्तु अ8ग क� टिदये जाए ँतो पट का कोइ� अत्थिस्तत्व नहीं �हता। अत: र्द्रव्य की संकल्पना मात्र प� र्भी षिवप्रषितपत्ति� क�ते हुए बौद्धों ने यह तक टिदया षिक गुणों से पृर्थक् र्द्रव्य की कोई स�ा नहीं है, जैसे षिक चकु्ष आटिद इजिन्र्द्रयों के द्वा�ा रूप आटिद का ही ग्रहण होता है। रूप के षिबना षिकसी ऐसी वस्तु का हमें अ8ग से प्रत्यक्ष नहीं होता,

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जिजसमें वह रूप, गुण �हता हो, जो वस्तुओं को संल्लिश्लJ रूप में प्रस्तुत क� देती है। अत: बौद्ध मतानुसा� गुणों से पृर्थक् र्द्रव्य का कोई अत्थिस्तत्व नहीं है।* बौद्धों के इस आके्षप का उ�� न्याय-वैशेषि�क में इस प्रका� टिदया गया है षिक यटिद र्द्रव्य जैसे घट केव8 रूप (नी8) स्पश आटिद गुणों का समुदायमात्र होता तो एक ही आUय र्द्रव्य के सम्बन्ध में दो त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न गुणों जैसे देखने (रूप) औ� छूने (स्पश) का षिनद�श नहीं हो सकता र्था।* अत: यह शिसद्ध होता है षिक आUयरू्भत र्द्रव्य (घट) रूप औ� स्पश का समुदाय मात्र नहीं, अषिपतु उनसे पृर्थक् एवं स्वतंत्र अवयवी है। यह ज्ञातव्य है षिक सांख्य में 6म� औ� 6मF का तत्त्वत: अत्तिर्भन्न माना गया है। वेदान्त में तत्त्वत: 6मF को असत औ� 6म� को सत माना गया है। वैशेषि�क में 6म औ� 6म� दोनों को वस्तुसत माना गया है। 'जो समवाधियका�ण हो वही र्द्रव्य है' कणादसूत्र के केव8 इस तृतीय घटक को ही र्द्रव्य की पूण परि�र्भा�ा मानने की अव6ा�णा का र्भी अनेक उ��वत� आचायF ने समर्थन षिकया है।* इन आचाय� के कर्थनों का सा� यह है षिक समवाधियका�ण वह होता है, जिजसमें समवेत �हक� ही काय उत्पन्न होता है। प्रत्येक काय की समवेतता र्द्रव्य प� आत्तिUत है। संयोग औ� षिवर्भाग नामक काय षिवर्भु र्द्रव्यों से र्भी सम्बद्ध है।* इन आचायF का यह मत है षिक इस आंशिशक घटक को ही पू�ा 8क्षण मानने में कोई दो� नहीं है। कणादसूत्र के तीन घटकों प� आ6ारि�त उपयुक्त तीन पृर्थक्-पृर्थक् परि�र्भा�ाओं की स्वत:पूण स्वतन्त्र अव6ा�णाओं के प्रवतन के बावजूद सामान्यत: इन तीनों घटकों को एक सार्थ �खक� तर्था तीनों के समप्तिन्वत आशय को ध्यान में �खते हुए यह कहना उपयुक्त होगा षिक कणाद के अनुसा� र्द्रव्य वह है जो षिक्रया का समवाधियका�ण तर्था गुण औ� कम का आUय हो। 'र्द्रव्यत्व जाषित से युक्त एवं गुण का जो आUय हो, वह र्द्रव्य है'* – इस जाषितघटिटत 8क्षण की �ीषित से र्भी र्द्रव्य के 8क्षण का उल्8ेख प्रशस्तपादर्भाष्य, व्योमवती, षिक�णाव8ी, सप्तपदार्थ� आटिद ग्रन्थों में धिम8ता है, षिकन्तु शिचत्सुख ने इस मत की आ8ोचना क�ते हुए इस संदर्भ में यह कहा षिक र्द्रव्यत्व जाषित में कोई प्रमाण नहीं है। षिकन्तु शिसद्धान्त चन्र्द्रोदय आटिद ग्रन्थों में यह बताया गया है षिक र्द्रव्यत्व जाषित की स्वतंत्र स�ा है औ� वह प्रत्यक्ष अर्थवा अनुमान प्रमाण से ज्ञात होती है। Uी6�ाचाय ने पूव पक्ष के रूप में यह शंका उठाई षिक ज8 को देखने के अनन्त� अखिग्न को देखने प� 'यह वही है'- ऐसी अनुगत प्रतीषित नहीं होती। अत: र्द्रव्यत्व नाम की कोइ� जाषित कैसे मानी जा सकती है औ� न्यायकन्द8ी में इस शिसद्धान्त का प्रषितपादन षिकया षिक गुण औ� कम का आUय होने के अषितरि�क्त र्द्रव्य की अपनी स्वतन्त्र स�ा है। अत: र्द्रव्य उसको कहते हैं, जिजसकी स्वप्रा6ान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीषित हो। इसका आशय यह हुआ षिक र्द्रव्य वह है, जिजसकी अपनी प्रतीषित के शि8ए षिकसी अन्य आUय की आवश्यकता नहीं होती। यही स्वातन्त्र्य र्द्रव्य का र्द्रव्यत्व है, जो ज8 औ� आग को एक ही वग में �ख सकता है। यद्यषिप शिचत्सुख जैसे आचायF ने स्वातन्त्र्य को र्द्रव्य की जाषित के रूप में स्वीका� नहीं षिकया, तर्थाषिप वैशेषि�क नय में Uी6� के इस मत को उ��वत� आचायF से अत्यधि6क आद� प्राप्त हुआ। संके्षपत: उपयुक्त कर्थनों को यटिद एक सार्थ �खा जा सके तो हम यह कह सकते हैं षिक पदार्थ वह है, जो षिकसी काय का समवाधियका�ण हो, गुण औ� कम का आUय हो, र्द्रव्यत्व जाषित से युक्त हो, औ� जिजसकी स्वप्रा6ान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीषित हो।* र्द्रव्य के रे्भदवैशेषि�क में र्द्रव्य के पृथ्वी अप, तेज, वायु, आकाश, का8, टिदक, आत्मा औ� मन ये नौ रे्भद माने गये हैं।* इन नौ र्द्रव्यों में पृथ्वी, ज8, तेज- ये तीन अषिनत्य र्द्रव्य हैं, वायु, आकाश, का8, टिदशा, आत्मा औ� मन- ये छ: षिनत्य र्द्रव्य हैं। कुछ आचाय वायु को र्भी अषिनत्य र्द्रव्य मानते हैं। र्भाट्ट मीमांसकों के मतानुसा� तमस औ� शब्द र्भी अषितरि�क्त र्द्रव्य हैं। षिकन्तु वैशेषि�कों के अनुसा� तमस प्रकाश का अर्भावमात्र है औ� शब्द र्भी पृर्थक् र्द्रव्य नहीं है। कन्द8ीका� के अनुसा� आत्मा नामक र्द्रव्य में ईश्व� का समावेश र्भी हो जाता है। अत: प्रशस्तपाद आ�म्भ में ही यह कह देते हैं षिक वैशेषि�क नय में र्द्रव्य केव8 नौ ही मान्य हैं। अन्य दशनों में इन नौ से अषितरि�क्त जो र्द्रव्य माने गये हैं, वे वैशेषि�कों के अनुसा� पृर्थक् र्द्रव्यों के रूप में स्वीका� क�ने योग्य नहीं हैं।* �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण ने टिदक, का8 औ� आकाश को ईश्व� (आत्मा) में अन्तरू्भत मानक� तर्था मन को असमवेत रू्भत कहक� र्द्रव्यों की संख्या पाँच तक ही सीधिमत क�ने की अव6ा�णा प्रवर्षितंत की।* षिकन्तु इस बात का वैशेषि�क नय प� कोई प्रर्भाव नहीं टिदखाई पड़ता। वेणीद� ने पदार्थमण्डन नामक ग्रन्थ में �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण की मान्यताओं का प्रब8 रूप से खण्डन षिकया।* अत: यही मानना ही तक संगत है षिक वैशेषि�क दशन में नौ ही र्द्रव्य माने गये हैं। परि�गत्तिणत नौ र्द्रव्यों में से प्रर्थम पाँच, पंचमहारू्भत संज्ञा से अधि6क षिवख्यात हैं। पृथ्वीकणाद के अनुसा� रूप, �स, गन्ध औ� स्पश ये चा�ों गुण जिजसमें समवाय सम्बन्ध से �हते हों वह पृथ्वी है।*

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प्रशस्तपाद ने इन चा�ों गुणों में दस अन्य गुण यानी संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व, गुरुत्व, र्द्रवत्व औ� संस्का� जोड़ते हुए यह बताया षिक पृथ्वी में चौदह गुण पाये जाते हैं। इनमें से गन्ध पृथ्वी का व्यावतक गुण हैं।* रूप, �स औ� स्पश षिवशे� गुण हैं औ� शे� दस सामान्य गुण हैं। पृथ्वी दो प्रका� की है। षिनत्य- प�माणुरूप औ� अषिनत्य प�माणुजन्य कायरूप। पृथ्वी के कायरूप प�माणुओं में श�ी�, इजिन्र्द्रय औ� षिव�य के रे्भद से तीन प्रका� का र्द्रव्या�म्भकत्व माना जाता है। पार्चिर्थवं श�ी� र्भोगायतन होता है। श�ी� मुख्यत: पृथ्वी के प�माणुओं से षिनर्मिमंत औ� गन्धवान होता है, अत: वैशेषि�कों ने श�ी� को पार्चिर्थवं ही माना है, पांचर्भौषितक नहीं। वैशेषि�कों के अनुसा� पार्चिर्थवं प�माणु श�ी� के उपादान का�ण औ� अन्य रू्भतों के प�माणु उनके षिनधिम� का�ण होते हैं, षिकन्तु 8ोकप्रशिसद्ध के का�ण पाँचों रू्भतों के प�माणुओं को श�ी� का उपादान का�ण माना जाता है। अत: श�ी� का पांचर्भौषितकत्व प्रख्यात हो गया, जिजस प� वैशेषि�क मत का काई ख़ास प्रर्भाव नहीं पड़ा। श�ी� से संयुक्त, अप�ोक्ष प्रतीषित के सा6न तर्था अतीजिन्र्द्रय र्द्रव्य को इजिन्र्द्रय कहा जाता है। इजिन्र्द्रयों में से घ्राणेजिन्र्द्रय ही गन्ध को ग्रहण क�ती है अत: घ्राणेजिन्र्द्रय ही मुख्यत: पार्चिर्थंव इजिन्र्द्रय हैं।* पार्चिर्थवं र्द्रव्य के तृतीय रे्भद के अन्तगत सर्भी श�ी��षिहत औ� इजिन्र्द्रय�षिहत षिव�य आते हैं।* पृथ्वी की परि�र्भा�ा में कणाद औ� प्रशस्तपाद ने अनेक गुणों का उल्8ेख षिकया र्था; षिकन्तु वैशेषि�क शिचन्तन के षिवकास क्रम के सार्थ अन्तत: यह बात मान्य हो गई षिक जो गन्धवती हो, वह पृथ्वी है।* पृथ्वी का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है। अप् (ज8) सूत्रका� कणाद के अनुसा� रूप, �स, स्पश नामक गुणों का आUय तर्था त्मिस्नग्6 र्द्रव्य ही ज8 है।* प्रशस्तपाद ने पृथ्वी के समान ज8 में र्भी समवाय सम्बन्ध से चौदह गुणों के पाये जाने का उल्8ेख षिकया है। ज8 का �ंग अपाकज औ� अर्भास्व� शुक्8 होता है। यमुना के ज8 में जो नी8ापन है, वह यमुना के स्त्रोत में पाये जाने वा8े पार्चिर्थंव कणों के संयोग के का�ण औपाधि6क है। ज8 में स्नेह के सार्थ-सार्थ सांशिसजिद्धक र्द्रवत्व हैं।* ज8 का शैत्य ही वास्तषिवक है। उसमें केव8 म6ु� �स ही पाया जाता है।* उसके अवान्त� स्वाद खा�ापन, खट्टापन आटिद पार्चिर्थंव प�माणुओं के का�ण होते हैं। आ6ुषिनक षिवज्ञान के अनुसा� ज8 सवर्था स्वाद�षिहत होता है, अत: ज8 के मा6ुय के सम्बन्ध में वैशेषि�कों का मत शिचन्त्य है।* पृथ्वी की त�ह ज8 र्भी प�माणु रूप में षिनत्य औ� कायरूप में अषिनत्य होता है। कायरूप ज8 में श�ी�, इजिन्र्द्रय (�सना) औ� षिव�य-रे्भद से तीन प्रका� का र्द्रव्या�म्भकत्व समवाधियका�णत्व माना जाता है। अर्थात ज8 श�ी�ा�म्भक, इजिन्र्द्रया�म्भक औ� षिव�या�म्भक होता है। सरि�ता, षिहम, क�का आटिद षिव�य रूप ज8 है। ज8 का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है। तेजसूत्रका� के अनुसा� रूप औ� स्पश (उष्ण) जिजसमें समवाय सम्बन्ध से �हते हैं, वह र्द्रव्य तेज कह8ाता है।* *प्रशस्तपाद के अनुसा� तेज में रूप औ� स्पश नामक दो षिवशे� गुण तर्था संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व, र्द्रवत्व औ� संस्का� नामक नौ सामान्य गुण �हते हैं। इसका रूप चमकी8ा शुक्8 होता है।* यह उष्ण ही होता है औ� र्द्रवत्व इसमें नैधिमत्ति�क रूप से �हता है। तेज दो प्रका� का होता है, प�माणुरूप में षिनत्य औ� कायरूप में अषिनत्य। कायरूप तेज के प�माणुओं में श�ी�, इजिन्र्द्रय औ� षिव�य रे्भद से तीन प्रका� का र्द्रव्या�म्भकत्व (समवाधियका�णत्व) माना जाता है। तेजस श�ी� अयोषिनज होते हैं जो आटिदत्य8ोक में पाये जाते हैं औ� पार्चिर्थवं अवयवों के संयोग से उपर्भोग में समर्थ होते हैं। तेजस के प�माणुओं से उत्पन्न होने वा8ी इजिन्र्द्रय चक्षु है। काय के समय तेज के प�माणुओं से उत्पन्न षिव�य (वस्तुवग) चा� प्रका� का होता है।* र्भौम- जो काष्ठ-इन्धन से उद्भतू, ऊध्वज्व8नशी8 एवं पकाना, ज8ाना, स्वेदन आटिद षिक्रयाओं को क�ने में समर्थ (अखिग्न) है, टिदव्य- जो ज8 से दीप्त होता है औ� सूय, षिवदु्यत् आटिद के रूप में अन्तरि�क्ष में षिवद्यमान है, उदय- जो खाये हुए र्भोजन को �स आटिद के रूप में परि�णत क�ने का षिनधिम� (जठ�ाखिग्न) है; आक�ज- जो खान से उत्पन्न होता है अर्थात् सुवण आटिद जो ज8 के समान अपार्चिर्थवं हैं औ� ज8ाये जाने प� र्भी अपने रूप को नहीं छोड़ते। पार्चिर्थंव अवयवों से संयोग के का�ण सुवण का �ंग पीत टिदखाई देता है। षिकन्तु वह वास्तषिवक नहीं है। सुवण का वास्तषिवक रूप तो र्भास्व� शुक्8 है। पूवमीमांसकों ने सुवण को पार्चिर्थंव ही माना है, तेजस नहीं। उनकी इस मान्यता को पूवपक्ष के रूप में �खक� इसका मानमनोह�, षिवश्वनार्थ, अन्नंर्भट्ट आटिद ने खण्डन षिकया है।*

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सुवण से संयुक्त पार्चिर्थवं अवयवों में �हने के का�ण इसकी उप8त्थिब्ध सुवण में र्भी हो जाती हैं जिजस प्रका� गन्ध पृथ्वी का स्वार्भाषिवक गुण है, उसी प्रका� उष्णस्प�् तेज का स्वार्भाषिवक गुण है। अत: उ��वत� आचायF ने उष्णस्पशव�ा को ही तेज का 8क्षण माना है।* तेज का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है। वायुजिजस र्द्रव्य में स्पश नामक गुण समवाय सम्बन्ध से �हे, उसको वायु कहा जाता है।* सूत्रका� के इस कर्थन में प्रशस्तपाद ने यह बात र्भी जोड़ी षिक वायु में स्पश के अषितरि�क्त संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व तर्था संस्का� ये गुण र्भी �हते हैं।* वायु का स्पश अनुष्ण, अशीत तर्था अपाकज होने के का�ण पृथ्वी आटिद के स्पश से त्तिर्भन्न होता है। वायु रूप�षिहत होता है। वायु र्भी अणु (षिनत्य) औ� काय (अषिनत्य) रूप में दो प्रका� का होता है। कायरूप वायु के प�माणुओं में श�ी�, इजिन्र्द्रय, षिव�य औ� प्राण के रे्भद से चा� प्रका� का र्द्रव्या�म्भकत्व (समवाधियका�णत्व) �हता है।* षिवश्वनार्थ के अनुसा� षिव�य में ही प्राण का अन्तर्भाव होने से वायवीय श�ी� अयोषिनज होते हैं। वे वायु8ोक में �हते हैं औ� पार्चिर्थंव अणुओं के संयोग से उपर्भोग में समर्थ होते हैं वायवीय इजिन्र्द्रय त्वक होती है, जो सा�े श�ी� में षिवद्यमान �हती है।* षिकन्तु इस संदर्भ में जयन्त र्भट्ट का यह कर्थन र्भी ध्यान देने योग्य है षिक त्वषिगजिन्र्द्रय से श�ी�ाव�क चम ही नहीं, अषिपतु श�ी� के र्भीत�ी तन्तुओं का र्भी ग्रहण होना चाषिहए। वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता। उसका स्पश, शब्द, कम्प आटिद से अनुमान होता है। वायु की गषित षितयक होती है। सम्मूच्छन (षिवशे� प्रका� का संयोग) सधिन्नपात (टक�ाव), तृण के ऊध्वागमन आटिद के आ6ा� प� यह र्भी अनुमान षिकया जाता है षिक वायु अनेक हैं। श�ी� में �स, म8 आटिद का पे्र�क वायु प्राण कह8ाता है औ� मू8त: एक है, षिकन्तु स्थानरे्भद औ� षिक्रयार्भेद से वह मुखनाशिसका से षिनष्क्रमण औ� प्रवेश क�ने के का�ण प्राण, म8 आटिद को नीचे 8े जाने के का�ण अपान, सब ओ� 8े जाने से समान, ऊप� 8े जाने से उदान औ� नाड़ी द्वा�ों में षिवस्तृत होने से व्यान कह8ाता है। सूत्रका� औ� प्रशस्तपाद के अनुसा� वायु का ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है, षिकन्तु व्योम शिशवाचाय, �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण, वेणीद� आटिद आचायF का यह मत है षिक वायु का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से हो जाता है।* अन्नंर्भट्ट ने रूप�षिहत औ� स्पशवान को वायु कहा है। अब प्राय: वायु का यही 8क्षण सवसा6ा�ण में अधि6क प्रचशि8त है। आकाशवैशेषि�क सूत्रका� कणाद ने पृथ्वी, ज8, तेज औ� वायु की परि�र्भा�ा मुख्यत: उनमें समवाय सम्बन्ध से षिवद्यमान प्रमुख गुणों के आ6ा� प� सका�ात्मक षिवधि6 से की, षिकन्तु आकाश की परि�र्भा�ा का अवस� आने प� कणाद ने आ�म्भ में नका�ात्मक षिवधि6 से यह कहा षिक आकाश वह है* जिजसमें रूप, �स, गन्ध औ� स्पश नामक गुण नहीं �हते। षिकन्तु बाद में उन्होंने यह बताया षिक परि�शे�ानुमान से यह शिसद्ध होता है षिक आकाश वह है, जो शब्द का आUय है। प्रशस्तपाद के कर्थनों का आशय र्भी यह है षिक आकाश वह है, जिजसका व्यापक शब्द है। आकाश एक पारि�र्भाषि�क संज्ञा है। अर्थात आकाश को 'आकाश' षिबना षिकसी षिनधिम� के वैसे ही कहा गया है, जैसे षिक व्यशिक्तवाचक संज्ञा के रूप में षिकसी बा8क को देवद� कह टिदया जाता है। अत: 'आकाशत्व' जैसी कोई जाषित (सामान्य) उसमें नहीं है। जिजस प्रका� से पृथ्वी घट का काया�म्भक र्द्रव्य है, उस प्रका� से आकाश षिकसी अवान्त� र्द्रव्य का आ�म्भक नहीं होता। जैसी पृथ्वीत्व की प�जाषित (व्यापक सामान्य) र्द्रव्यत्व है औ� अप�जाषित (व्याप्य सामान्य) घटत्व है, वैसी प�जाषित होने प� र्भी कोई अप�जाषित आकाश की नहीं है। यद्यषिप गुण औ� कम की अपेक्षा से र्भी अप�जाषित की प्रतीषित का षिव6ान है, षिकन्तु आकाश में शब्द आटिद जो छ: गुण बताये गए हैं, वे सामान्य गुण हैं। अत: उनमें अप�जाषित का घटकत्व नहीं माना जा सकता। शब्द षिवशे� गुण होते हुए र्भी अनेक र्द्रव्यों का गुण नहीं है। अत: वह जाषित का घटक नहीं होता। इस प्रका� अनेकवृत्ति�ता न होने के का�ण आकाश में 'आकाशत्व' नामक सामान्य की अव6ा�णा नहीं की जा सकती। षिकन्तु उपयुक्त मन्तव्य का ख्यापन क�ने के अनन्त� र्भी प्रशस्तपाद यह कहते हैं षिक आकाश में शब्द, संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयाग औ� षिवर्भाग ये छ: गुण षिवद्यमान हैं औ� परि�गत्तिणत गुणों में शब्द को सवप्रर्थम �खते हैं, जिजससे वैशेषि�क के उ��वत� आचायF ने र्भी कणाद औ� प्रशस्तपाद के आशयों के अनुरूप शब्द को परि�शे�ानुमान के आ6ा� प� आकाश का प्रमुख गुण मान शि8या औ� इस प्रका� अन्नंर्भट्ट ने अन्तत: आकाश की यह परि�र्भा�ा की 'शब्दगुणकम् आकाशम्' अर्थात जिजस र्द्रव्य में शब्द नामक गुण �हता है वह आकाश है। आकाश एक है, षिनत्य है औ� षिवरु्भ है।* आकाश की न तो उत्पत्ति� होती है औ� न नाश। वह अखण्ड र्द्रव्य है। उसके अवयव नहीं होते। आकाश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। उसका ज्ञान परि�शे�ानुमान से होता है। 'इह पक्षी' आटिद उदाह�णों के आ6ा� प� मीमांसकों ने आकाश को प्रत्यक्षगम्य माना है, षिकन्तु वैशेषि�कों के अनुसा� 'इह पक्षी' आटिद कर्थन आकाश का नहीं, अषिपतु आ8ोकमण्ड8 का संकेत क�ते हैं। अत: आकाश, शब्द द्वा�ा अनुमेय र्द्रव्य है।

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वैशेषि�कों के अनुसा� शब्द का गुण है, गुण का आUय कोई न कोई र्द्रव्य होता है। पृथ्वी आटिद अन्य आठ र्द्रव्य शब्द के आUय नहीं हैं। अत: आकाश के अषितरि�क्त कोई र्द्रव्यान्त� आUय के रूप में उप8ब्ध न होने के का�ण आकाश को परि�शे�ानुमान से शब्दगुण का आUय माना गया है। आकाश का कोई समवाधिय, असमवाधिय औ� षिनधिम� का�ण नहीं है। शब्द उसका ज्ञापक हेतु है, का�क नहीं। र्भाट्ट मीमांसक शब्द को गुण नहीं अषिपतु र्द्रव्य मानते हैं। षिकन्तु वैशेषि�कों के अनुसा� शब्द का र्द्रव्यत्व शिसद्ध नहीं होता। सूत्रका� कणाद ने यह स्पJ रूप से कहा है षिक र्द्रव्य वह होता है, जिजसके केव8 एक ही नहीं, अषिपतु अनेक समवाधियका�ण हों। शब्द का केव8 एक समवाधियका�ण है, वह आकाश है। अत: शब्द एकर्द्रव्याUयी गुण है।* वह र्द्रव्य नहीं है, अषिपतु र्द्रव्य से त्तिर्भन्न है औ� गुण की कोटिट में आता है। इस प्रका� वैशेषि�क नयानुसा� आकाश पृर्थक् रूप से एक षिवरु्भ औ� षिनत्य र्द्रव्य है। का8का8 के संदर्भ में पू�ी वैशेषि�क प�म्प�ा के शिचन्तन का समाहा� सा �खते हुए अन्नंर्भट्ट ने यह बताया षिक 'अतीत आटिद के व्यवहा� का हेतु का8 कह8ाता है। वह एक है, षिवरु्भ है तर्था षिनत्य है।*' इस परि�र्भा�ा में जिजन चा� घटकों का समावेश षिकया गया है, उन प� वैशेषि�क दशन के 8गर्भग सर्भी आचायF ने गह�ा षिवचा�-षिवमश षिकया है। कणाद ने का8 के र्द्रव्यत्व का उल्8ेख क�ते हुए उसके अतीताटिदव्यवहा�हेतुत्व प� ही अधि6क ब8 टिदया। उन्होंने कहा षिक अप� (कषिनष्ठ) आटिद में जो अप� आटिद (कषिनष्ठ होने) का ज्ञान होता है वह का8 की शिसजिद्ध में लि8ंग अर्थात षिनधिम� का�ण है। अधि6क सूयषिक्रया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को प� (ज्येष्ठ) तर्था अल्प सूयषिक्रया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को अप� (कषिनष्ठ) कहा जाता है। अत: सूय औ� षिपण्ड (श�ी�) के मध्य जो प�त्वाप�त्व-बो6क औ� युगपत, शिच�, त्तिक्षप्र आटिद सम्बन्धघटक र्द्रव्य है, वही का8 है।* प्रशस्तपाद ने आकाश एवं टिदक के समान का8 को पारि�र्भाषि�क संज्ञा माना औ� सूत्रका� के कर्थन का अनुगमन क�ते हुए यह कहा षिक पौवापर्य्यय, यौगपद्य, अयौगपद्य, शिच�त्व औ� त्तिक्षप्रत्व की प्रतीषितयाँ का8 की अनुधिमषित की हेतु हैं। का8 की स�ा के शिसद्ध होने प� र्भी उसके र्द्रव्यत्व प� उठाई जाने वा8ी शंकाओं का समा6ान वैशेषि�क इस प्रका� क�ते हैं षिक पृथ्वी आटिद अन्य आठ र्द्रव्यों में से षिकसी में र्भी क्षण, षिनमे� आटिद का8बो6क प्रतीषितयों को संयुक्त नहीं षिकया जा सकता अत: जिजस र्द्रव्य के सार्थ हमा�े क्षण आटिद का ज्ञान संयुक्त होता है, वह का8 है। Uी6�ाचाय ने सूयषिक्रया या सूयपरि�वतन के स्थान प� मनुष्य-श�ी� के र्भौषितक परि�वतन की प्रतीषित को का8 का अनुमापक बताक� एक नई उद्भावना की।* इसी प्रका� वल्8र्भाचाय ने न्याय8ी8ावती में यह कहा षिक 'यह पुस्तक वतमान है', 'यह मेज वतमान है', ऐसे वाक्यों में षिव�य का र्भेद होने प� र्भी उनकी वतमानता एक जैसी है।* अत: वतमानत्व ही का8 का ज्ञापक है। अत्थिस्तत्व व्यशिक्तगत स्वरूप या स�ा सामान्य स्वरूप को द्योषितत क�ता है, जबषिक वतमानत्व वस्तुओं के काशि8क सम्बन्ध का षिनदशक है। सूत्रका� ने यह र्भी कहा षिक अन्य कायF का षिनधिम� का�ण का8 है।* इसी प्रका� प्रशस्तपाद के कर्थनों का र्भी यह सा� है षिक - प�, अप� आटिद प्रतीषितयों का , वस्तुओं की उत्पत्ति�, ल्लिस्थषित औ� षिवनाश का, तर्था क्षण, षिनमे� आटिद प्रतीषितयों का जो हेतु है, वह का8 कह8ाता है। शिशवाटिदत्य औ� चन्र्द्रकान्त ने का8 को पृर्थक् र्द्रव्य नहीं माना। उनके अनुसा� का8 औ� टिदक् आकाश से अत्तिर्भन्न हैं। �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण ने र्भी का8 को र्द्रव्य न मानते हुए यह कहा षिक ईश्व� से अषितरि�क्त का8 को पृर्थक् र्द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंषिक ईश्व� ही का8व्यवहा� का षिव�य है।* षिकन्तु टिदनक� र्भट्ट व� वैणीद� ने �घुन के मत का खण्डन क�ते हुए यह प्रषितपाटिदत षिकया षिक का8 को पृर्थक् र्द्रव्य माने षिबना हमा�ी काशि8क अनुर्भूषितयों का समा6ान नहीं होता। जयन्तर्भट्ट, नागेशर्भट्ट, योगर्भाष्यका� व्यास आटिद के अनुसा� का8 की संकल्पना कल्पनाप्रसूत है, का8 क्षणप्रवाह मात्र है। अत: वह स्वतंत्र र्द्रव्य नहीं है, षिकन्तु वैशेषि�क इनके मत को स्वीका� नहीं क�ते औ� का8 को एक पृर्थक् र्द्रव्य ही मानते हैं। संके्षप में वैशेषि�क मत का सा� यह है षिक क्षण, षिनमे� आटिद का8 की व्यावहारि�क उपाधि6याँ हैं। इनका नाश होने से र्भी का8 का नाश नहीं होता, अत: का8 एक षिनत्य र्द्रव्य है, उपाधि6रे्भद से उसमें अनेकता होने प� र्भी का8 वस्तुत: एक है औ� प�, अप� आटिद काशि8क प्रतीषितयों का कोई अन्य आ6ा� र्द्रव्य न होने के का�ण का8 पृर्थक् रूप से एक षिवरु्भ एवं षिनत्य र्द्रव्य है। टिदशावैशेषि�क मत का सा�संग्रह क�ते हुए अन्नंर्भट्ट ने यह कहा षिक 'प्राची आटिद के व्यवहा�-हेतु को टिदक् (टिदशा) कहते हैं। टिदक् एक हा, षिवरु्भ है औ� षिनत्य है।*' इस परि�र्भा�ा में उल्लिल्8खिखत प्रमुख घटकों का वैशेषि�कों की 8म्बी प�म्प�ा में बड़ा गहन षिवशे्ल�ण षिकया गया है।

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कणाद ने यह बताया षिक-'जिजससे : यह प� है; यह अप� है'- ऐसा ज्ञान होता है, वह टिदक् शिसजिद्ध में लि8ंग है।' कणाद ने यह र्भी कहा षिक टिदक् का र्द्रव्यत्व औ� षिनत्यत्व वायु के समान है। टिदशा के तात्थित्त्वक रे्भदों का कोई हेतु नहीं पाया जाता अत: वह एक है। षिकन्तु संयोगात्मक उपाधि6यों के का�ण उसमें प्राची, प्रतीची आटिद र्भेद से नानात्व का व्यवहा� होता है।* प्रशस्तपाद ने अप�जाषित (व्याप्यसामान्य) के अर्भाव के का�ण टिदशा को र्भी आकाश औ� का8 के समान एक पारि�र्भाषि�क संज्ञा माना औ� सूत्रका� के मन्तव्य का अनुवाद सा क�ते हुए यह बताया षिक -'यह इससे पूव में है; यह इससे पत्तिश्चम में है- ऐसी प्रतीषितयाँ जिजसकी बो6क हों, वह टिदशा है।*' षिकसी परि�ल्लिच्छन्न परि�माण वा8े मू� र्द्रव्य को अवधि6 (केन्र्द्रषिबन्दु) मान क�के पूव, दत्तिक्षण, पत्तिश्चम, उ�� आटिद प्रतीषितयाँ की जाती हैं। षिकन्तु टिदशा के बो6क लि8ंग में रे्भद न होने के का�ण टिदशा वस्तुत: एक है। प्राची आटिद रे्भद टिदशा की व्यावहारि�क उपाधि6याँ है। का8 के समान टिदशा में र्भी एकत्व संख्या, प�ममहत परि�माण, एक पृर्थक्त्व, संयोग औ� षिवर्भाग ये पाँच गुण होते हैं। शिचत्सुख, चन्र्द्रकान्त, शिशवाटिदत्य आटिद ने टिदशा के पृर्थक् र्द्रव्यत्व का प्राय: इस आ6ा� प� खण्डन षिकया है षिक आकाश, का8 एवं टिदशा पृर्थक्-पृर्थक् र्द्रव्य नहीं, अषिपतु एक ही र्द्रव्य के तीन पक्ष प्रतीत होते है। �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण औ� र्भासवज्ञ के अनु सा� टिदशा ईश्व� से अत्तिर्भन्न है औ� टिदशासम्बन्धी सर्भी प्रतीषितयाँ ईश्व� की उपाधि6याँ हैं।* वैयाक�ण औ� बौद्ध का8 औ� टिदशा को क्षत्तिणक प्रवाहमान षिवज्ञान कहते हैं सांख्य द्वा�ा ये दोनों आकाश में अन्तरू्भत बताये गये हैं। वेदान्त के अनुसा� का8 औ� टिदशा प�ब्रह्म प� आ�ोषिपत प्राषितर्भाशिसक प्रतीषितयाँ हैं। केव8 वैशेषि�क में ही उनका पृर्थक् र्द्रव्यत्व माना गया है। इस संदर्भ में यह र्भी ज्ञातव्य है षिक यटिद सूत्रका� कणाद को आकाश, का8 औ� टिदशा का पृर्थक्-पृर्थक् र्द्रव्यत्व अत्तिर्भप्रेत न होता, तो यह इनके षिवशे्ल�ण के शि8ए पृर्थक्-पृर्थक् सूत्रों का षिनमाण क्यों क�ते? इन तीनों र्द्रव्यों का स्वरूप, कायके्षत्र औ� प्रयोजन त्तिर्भन्न है। उदाह�णतया आकाश एक रू्भतर्द्रव्य है, टिदक मूत र्द्रव्य नहीं है। का8, काशि8क प�त्वाप�त्व का हेतु होता है, जबषिक टिदशा, देशिशक प�त्वाप�त्व की हेतु है। काशि8क प्रतीषितयाँ ल्लिस्थ� होती हैं, जबषिक देश की प्रतीषितयाँ केन्र्द्र सापेक्ष होने से अल्लिस्थ� होती हैं। अत: वेणीद� जैसे उ��वत� वैशेषि�कों का र्भी यही कर्थन है षिक टिदशा पृर्थषिक रूप से एक षिवरु्भ औ� षिनत्य र्द्रव्य है।* आत्मासूत्रका� कणाद ने आत्मा के र्द्रव्यत्व का षिवश्ले�ण क�ते हुए सवप्रर्थम यह कहा षिक प्राण, अपान, षिनमे�, उन्मे�, जीवन, मनोगषित, इजिन्र्द्रयान्त� षिवका�, सुख-दु:ख, इच्छा, दे्व� औ� प्रयत्न नामक लि8ंगों से आत्मा का अनुमान होता है। ज्ञान आटिद गुणों का आUय होने के का�ण आत्मा एक र्द्रव्य है औ� षिकसी अवान्त� (अप� सामान्य) र्द्रव्य का आ�म्भक न होने के का�ण षिनत्य है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आटिद के समान ज्ञान र्भी एक गुण है। उसका र्भी आUय कोई र्द्रव्य होना चाषिहए। पृथ्वी आटिद अन्य आठ र्द्रव्य ज्ञान के आUय नहीं है। अत: परि�शे�ानुमान से जो र्द्रव्य ज्ञान का आUय है, उसको आत्मा कहा जाता है। कणाद ने यह र्भी कहा षिक– ज्ञानाटिद के आUयरू्भत र्द्रव्य की आत्मसंज्ञा वेद षिवषिहत है। इस वेद षिवषिहत आत्मा का अन्य आठ र्द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। 'अहम्' शब्द का आत्मवाशिचत्व सुप्रशिसद्ध है। 'मैं देवद� हूँ' ऐसे वाक्यों में श�ी� में अहम की प्रतीषित उपचा�वश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीषित त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अषिपतु अनेक हैं, नाना हैं।* प्रशस्तपाद ने र्भी सूत्रका� का अनुवतन क�ते हुए प्रका�ान्त� से यह कहा षिक सूक्ष्म होने के का�ण आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता, षिकन्तु 'जैसे बसू8ा आटिद क�णों (हशिर्थया�ों) को कोई बढ़ई च8ाता है, वैसे ही Uोत्र आटिद क�णों (इजिन्र्द्रयों) को च8ाने वा8ा र्भी कोई होगा'- इस प्रका� से क�ण प्रयोजक के रूप में आत्मा का अनुमान षिकया जाता हैं प्रशस्तपाद ने कई अन्य उदाह�णों के द्वा�ा र्भी यह बताया षिक प्रवृत्ति�-षिनवृत्ति� आटिद का पे्र�क र्भी कोइ� चेतन ही हो सकता है। वही आत्मा है। सुख, दु:ख, इच्छा, दे्व� औ� प्रयत्न नामक गुणों से र्भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। पृथ्वी, श�ी�, इजिन्र्द्रय आटिद के सार्थ अहं प्रत्यय का योग नहीं होता। वह केव8 आत्मा के सार्थ होता है। प्रशस्तपाद ने आत्मा में बुजिद्ध, सुख, दु:ख, इच्छा, दे्व�, प्रयत्न, 6म, अ6म, संस्का�, संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व संयोग औ� षिवर्भाग इन चौदह गुणों का उल्8ेख क�ते हुए यह र्भी कहा षिक इनमें बुजिद्ध से 8ेक� संस्का� पयन्त प्रर्थम आठ आत्मा के षिवशे� गुण हैं औ� संख्याआटिद शे� छ: सामान्य गुण। षिवशे� गुण अन्य र्द्रव्यों में नहीं पाये जाते, जबषिक सामान्य अन्य र्द्रव्यों में र्भी पाये जाते हैं।* कणाद औ� प्रशस्तपाद के कर्थनों का शंक� धिमU प्ररृ्भषित कषितपय उ��वत� व्याख्याका�ों ने कुछ त्तिर्भन्न आशय ग्रहण षिकया औ� यह कहा षिक आत्म् का मानस प्रत्यक्ष होता है। मैं हूँ- यह ज्ञान, मानसप्रत्यक्ष है, न षिक अनुमानजन्य। कणाद के एक अन्य कर्थन को स्पJ क�ते हुए शंक� धिमU ने यह र्भी बताया षिक जिजस प्रका� वायु के प�माणुओं में अवयवों के षिव�य में कोई प्रमाण न होने से वे षिनत्य माने जाते हैं, वैसे ही आत्मा के अवयव मानने में कोई प्रमाण न होने के का�ण आत्मा षिनत्य है तर्था अनाटिद का आUय होने के का�ण आत्मा एक र्द्रव्य है।* वेदान्त आटिद में ज्ञान को आत्मा का स्वरूप माना जाता है, षिकन्तु वैशेषि�क दशन के अनुसा� ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। न्यायमंज�ी में जयन्त ने र्भी यह कहा षिक स्वरूपत: आत्मा जड़ या अचेतन है। इजिन्र्द्रय औ� षिव�य का मन के सार्थ संयोग होने से आत्मा में चैतन्य उत्पन्न होता है।* आत्मा षिवर्भु है। वह न तो अणुपरि�माण है, न मध्यमपरि�माण।

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अन्नंर्भट्ट ने वैशेषि�क मत का सा�संग्रह क�ते हुए यह बताया षिक ज्ञान का जो अधि6क�ण है, वह आत्मा है। वह दो प्रका� का है, जीवात्मा औ� प�मात्मा। प�मात्मा एक है औ� जीवात्मा प्रत्येक श�ी� में त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न होने के का�ण अनेक है।* इस संदर्भ में उद्योतक� का यह कर्थन र्भी स्म�णीय है षिक प�मात्मा षिनत्य ज्ञान का अधि6क�ण है जबषिक जीवात्मा अषिनत्य ज्ञान का। Uी6� ने र्भी यह बताया है षिक जीवात्मा श�ी�6ा�ी होता है जबषिक प�मात्मा कर्भी र्भी श�ी� 6ा�ण नहीं क�ता।* मनन्याय-वैशेषि�क का यह शिसद्धान्त है षिक गन्धाटिद षिव�यों का घ्राणाटिद इजिन्र्द्रयों से, इजिन्र्द्रयों का मन से, औ मन का आत्मा से संयोग होने प� ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। षिव�य का इजिन्र्द्रय के सार्थ औ� इजिन्र्द्रय का आत्मा से अधि6ष्ठानमू8क सम्पक होने प� र्भी यटिद इजिन्र्द्रय औ� आत्मा के बीच मन संयुक्त या सधिन्नषिहत नहीं है तो ज्ञान नहीं होता, औ� संपृक्त या सधिन्नषिहत है तो ज्ञान होता है। गन्धाटिद एकाधि6क षिव�यों के सार्थ घ्राणाटिद एकाधि6क इजिन्र्द्रयों का युगपद संयोग हो जाने प� र्भी उनमें से केव8 एक ही षिव�य का ज्ञान होता है, क्योंषिक मन उनमें से केव8 एक ही इजिन्र्द्रय के सार्थ सम्बद्ध हो सकता है, एक ही समय एकाधि6क के सार्थ नहीं। मन की अव्यापृतता या अन्यत्र व्यापृतता के का�ण कर्भी-कर्भी इजिन्र्द्रयों से संयुक्त होने प� र्भी षिव�य का बो6 नहीं होता। अत: कणाद यह कहते हैं षिक षिव�यों औ� इजिन्र्द्रयों के युगपद संयोग की ल्लिस्थषित में षिकसी एक षिव�य में ज्ञान के सद्भाव औ� अन्य षिव�य में ज्ञान के अर्भाव को हेतु मानक� जिजस र्द्रव्य का अनुमान षिकया जाता है, वह मन कह8ाता है। कणाद यह र्भी कहते हैं षिक जैसे वायु स्पशाटिद गुणों का आUय होने के का�ण र्द्रव्य औ� अवान्त� सृधिJ का समा�म्भक न होने के का�ण षिनत्य है, वैसे ही संयोगाटिद गुणों का आUय होने के का�ण मन र्द्रव्य है औ� अप� सामान्य अर्थात षिकसी सजातीय अवान्त� र्द्रव्य का समा�म्भक र्द्रव्य न होने के का�ण वह षिनत्य है। श�ी� के प्रत्येक अवयव या अंग में ही अनेक युगपत प्रयत्न न होने तर्था आत्मा में एक का8 में ही अनेक युगपद ज्ञान उत्पन्न न होने के का�ण यह शिसद्ध होता है षिक मन प्रषित श�ी� एक है अर्थात त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न श�ी�ों में त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न है।* प्रशस्तपाद आटिद र्भाष्यका�ों ने कणाद के कर्थनों को प्रका�ात्न� से प्रस्तुत क�ते हुए यह बताया षिक आत्मा, इजिन्र्द्रय तर्था षिव�य के साधिन्नध्य के होते हुए र्भी ज्ञान, सुख आटिद काय कर्भी होते हैं, कर्भी नहीं होते हैं। अत: आत्मा, इजिन्र्द्रय औ� षिव�य इन तीनों के अषितरि�क्त षिकसी अन्य हेतु की अपेक्षा है, वही हेतु मन है। प्रशस्तपाद ने मन को संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व औ� संस्का� नामक आठ गुणों का अचेतन, प�ार्थक, मूत, अणुपरि�माण तर्था आशु संचा�ी माना है।* प्रशस्तपाद के अनुसा� स्मृषित र्भी षिकसी इजिन्र्द्रय प� आ6ारि�त होती है। Uोते्रजिन्र्द्रय स्मृषित का हेतुरू्भत जो इजिन्र्द्रय है, वही मन है। सुखाटिद की प्रतीषित का का�ण र्भी मन ही हे। इस प्रका� प्रशस्तपाद के अनुसा� युगपटिद ज्ञानानुत्पत्ति�, स्मृषित औ� सुखाटिद की प्रतीषित इन तीन हेतुओं से मन का अनुमान होता है। वु्यत्पत्ति� के अनुसा� मन का अर्थ है- मनन का सा6न -'मन्यते बुध्यतेऽनेनेषित' (मन्-सव6ातुभ्योऽसुन्)। षिकन्तु मन आन्तरि�क अनुर्भवों में ही नहीं, अषिपतु बाह्य वस्तुओं के प्रत्यक्ष में र्भी सहायक होता है। अत: प्रशस्तपाद ने यह बताया षिक मन वह र्द्रव्य है, जो मनस्त्वजाषित से युक्त हो। न्यायर्भाष्यका� वात्स्यायन के अनुसा� र्भी सर्भी प्रका� के ज्ञान का हेतु जो इजिन्र्द्रय है, वह मन है। मन ज्ञान का आUय नहीं, अषिपतु ज्ञान का का�ण है।* उदयनाचाय के मत में मन एक मूत र्द्रव्य है औ� स्पश�षिहत है। शिशवाटिदत्य का यह षिवचा� है षिक मन मनस्त्वजाषित से युक्त, स्पश�षिहत, षिक्रया का अधि6क�ण र्द्रव्य है। वल्8र्भाचाय षिवश्वनार्थ आटिद आचायF ने बताया षिक सुख-दु:खाटिद का अनुर्भव क�ाने वा8ी अन्तरि�जिन्र्द्रय ही मन है। बाह्य इजिन्र्द्रयाँ अपने-अपने षिव�यों का तर्भी ग्रहण क� सकती हैं, जब मन र्भी उनके सार्थ हो। अत: मन सुख आटिद का ग्राहक इजिन्र्द्रय होने के सार्थ-सार्थ अन्य इजिन्र्द्रयों द्वा�ा उनके अर्थग्रहण में र्भी सहायक होता है। ज्ञान के अयोगपर्थ से यह शिसद्ध होता है षिक प्रषित श�ी� त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न है, अत: उसमें अनेकत्व है। Uी6� का यह कर्थन है षिक दो षिवर्भु र्द्रव्यों के बीच संयोग संर्भव नहीं है। आत्मा षिवरु्भ है अत: मन को र्भी षिवर्भु नहीं माना जा सकता, वह अणु है।* बाह्य इजिन्र्द्रयाँ मन को नहीं देख सकतीं, अत: मन एक अतीजिन्र्द्रय र्द्रव्य है।* [संपाटिदत क�ें] गुण का स्वरूप औ� र्भेदकणाद के अनुसा� समवाय सम्बन्ध से र्द्रव्य में आUय 8ेने का जिजसका स्वर्भाव हो, जो स्वयं गुण का आUय न हो, संयोग औ� षिवर्भाग का का�ण न हो औ� अन्य षिकसी की अपेक्षा न �खता हो, वह गुण नामक पदार्थ है।* प्रशस्तपाद ने यह बताया षिक गुणत्व का समवायी होना, र्द्रव्य में आत्तिUत होना, गुण�षिहत होना, षिक्रया�षिहत होना सर्भी गुणों का सा6म्य है।* केशवधिमU के मत में जो सामान्य जाषित से असमवाधियका�ण बनने वा8ा हो, स्पन्दन �षिहत षिक्रयावान न हो औ� र्द्रव्य प� आत्तिUत हो, वह गुण कह8ाता है।* षिवश्वनार्थ ने र्द्रव्यात्तिUत षिनगुण औ� षिनत्मिष्क्रय हो गुण कहा है।* कणाद ने षिनम्नशि8खिखत सत्रह गुणों का उल्8ेख षिकया है- रूप,

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�स, गन्ध, स्पश, संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व, बुजिद्ध, सुख, दु:ख, इच्छा, दे्व� औ� प्रयत्न। प्रशस्तपाद ने वैशेषि�कसूत्र (1-1-6) में उल्लिल्8खिखत 'च' पद को आ6ा� बनाक� षिनम्नशि8खिखत सात गुणों को जोड़क� गुणों की संख्या 24 तक पहुँचा दी- गुरुत्व, र्द्रवत्व, स्नेह, संस्का�, 6म, अ6म औ� शब्द। शंक� धिमU के मतानुसा� कणाद ने इन सात गुणों का परि�गणन नहीं षिकया क्योंषिक ये तो प्रशिसद्ध हैं ही। कुछ षिवद्वानों ने 8घुत्व, मृदुत्व, कटिठनत्व औ� आ8स्य को जोड़क� गुणों की संख्या 28 क�ने का प्रयत्न षिकया है। कई आचायF ने प�त्व, अप�त्व औ� पृर्थक्त्व को अनावश्यक मानक� गुणों की संख्या 21 बताई है। षिकन्तु सामान्यतया यही माना जाता है षिक वैशेषि�क दशन में गुणों की संख्या 24 है। नव्यन्याय में प�त्व, अप�त्व को षिवप्रकृJत्व औ� सधिन्नकृJत्व या ज्येष्ठत्व औ� कषिनष्ठत्व में अन्तर्षिनंषिहत मान शि8या गया है औ� पृर्थक्त्व को अन्योन्यार्भाव का ही एक रूप बताया गया है। अत: नव्यनैयाधियक 21 गुण मानते हैं। षिवश्वनार्थ ने उपयुक्त चौबीस गुणों का वग�क�ण षिनम्नशि8खिखत रूप से षिकया है-आUयर्द्रव्यों की मूतामूतप�ककेव8 मूत र्द्रव्यों में �हने वा8े जैसे रूप, �स आटिद। केव8 अमूत र्द्रव्यों में �हने वा8े, जैसे- बुजिद्ध, सुख आटिद। मूत औ� अमूत दोनों प्रका� के र्द्रव्यों में �हने वा8े, जैसे- संख्या, परि�माण आटिद। आUय-संख्याप�कइन गुणों में से कुछ एक-एक र्द्रव्य में �हते हैं औ� कुछ एकाधि6क र्द्रव्यों में। संयोग, षिवर्भाग, संख्या, अनेकात्तिUत गुण हैं औ� अन्य एकात्तिUत।सामान्य-षिवशे�प�कषिवश्वनार्थ ने गुणों का वग�क�ण सामान्य औ� षिवशे� रूप में र्भी षिकया है।

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उनके मतानुसा� सामान्य गुण हैं- संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व, असांशिसजिद्धक र्द्रवत्व, गुरुत्व तर्था वेग-संस्का�। षिवशे� गुण हैं- बुजिद्ध, सुख, दु:ख, इच्छा, दे्व�, प्रयत्न, रूप, �स, गन्ध, स्पश, स्नेह, सांशिसजिद्धक र्द्रवत्व, 6म, अ6म, र्भावना, संस्का� तर्था शब्द। इजिन्र्द्रयग्राह्यताप�कषिवश्वनार्थ ने यह र्भी बताया है षिक इजिन्र्द्रयग्राह्यता के आ6ा� प� र्भी गुणों का षिनम्नशि8खिखत रूप से वग�क�ण षिकया जा सकता है- एकेजिन्र्द्रयग्राह्य- रूप, �स, गन्ध, स्पश तर्था शब्द। द्वीजिन्र्द्रयग्राह्य- (चकु्ष औ� त्वक् से) संख्या, परि�माण, पृर्थक्त्व, संयोग, षिवर्भाग, प�त्व, अप�त्व, र्द्रवत्व, स्नेह, वेग-संस्का�। अतीजिन्दय- गुरुत्व, बुजिद्ध, सुख, इच्छा, दे्व�, प्रयत्न, 6म, अ6म तर्था र्भावना-संस्का�। गुणों का संत्तिक्षप्त षिवव�ण अन्नंर्भट्ट द्वा�ा उल्लिल्8खिखत क्रमानुसा� षिनम्नशि8खिखत है-रूप का स्वरूपकेव8 चकु्ष द्वा�ा ग्रहण षिकये जाने वा8े षिवशे� गुण को रूप कहते हैं। यहाँ प� ग्रहण का आशय है 8ौषिकक प्रत्यक्ष-योग्य जाषित का आUय। दृJ वस्तु में परि�माणव�ा, व्यक्तता तर्था अन्य गुणों से अनत्तिर्भर्भूतता होनी चाषिहए तर्भी उसका रूप चक्षुग्रखिह्य होगा। 'चकु्षमाषित्र' शब्द के प्रयोग का यह आशय है षिक चक्षु से त्तिर्भन्न बषिहरि�जिन्र्द्रय द्वा�ा रूप का ग्रहण नहीं होता। अन्तरि�जिन्र्द्रय मन प� यह बात 8ागू नहीं होती। रूप पृथ्वी, ज8 औ� तेज इन तीनों र्द्रव्यों में �हता है औ� शुक्8, नी8, �क्त, पीत, हरि�त, कषिपश औ� शिचत्र रे्भद से सात प्रका� का होता है। �स का स्वरूपजीर्भ से प्रत्यक्ष होने वा8े गुण का नाम �स है। �स छ: प्रका� का होता है- मरु्थ�, अम्8, 8वण, कटु, षितक्त तर्था क�ाय। �स पृथ्वी औ� ज8 में �हता है। पृथ्वी में छ: प्रका� काज8 �हता है, षिकन्तु ज8 में केव8 म6ु� �स �हता है औ� वह अपाकज होता है। शिचत्र�स की स�ा को नैयाधियकों ने स्वीका� नहीं षिकया, क्योंषिक आँख षिकसी वस्तु के षिवस्तृत र्भाग के रूपों को एक सार्थ देख सकती है, षिकन्तु जिजह्वाग्र एक समय एक ही �स का ग्रहण क� सकता है।गन्ध का स्वरूपघ्राण इजिन्र्द्रय द्वा�ा ग्रहण षिकये जाने योग्य गुण को गन्ध कहते हैं। सुगन्ध औ� दुगन्ध के रे्भद से यह दो प्रका� का होता है औ� केव8 पृथ्वी में �हता है औ� अषिनत्य है। सुगन्ध औ� दुगन्ध गम्य हैं। नैयाधियकों ने शिचत्रगन्ध की स�ा को र्भी स्वीका� नहीं षिकया। ज8 में गन्ध का जो आर्भास होता है, वह पृथ्वी के संयोग के का�ण संयुक्त समवाय सम्बन्ध से होता है।स्पश का स्वरूपजिजस गुण का केव8 त्वचा से प्रत्यक्ष होता है, वह स्पश कह8ाता है। स्पश तीन प्रका� का होता है औ� चा� र्द्रव्यों में �हता हैं- शीत (ज8 में), उष्ण (तेज में) तर्था अनुष्णाशीत (पृथ्वी औ� वायु में)। यह पृथ्वी, ज8, तेज औ� वायु में �हता है। नव्य नैयाधियक कटिठन औ� सुकुमा� को र्भी स्पश का रे्भद मानते है, जबषिक प्राचीन नैयाधियक उनको संयोग के अन्तगत समाषिवJ क�ते हैं। संख्या का स्वरूपएक, दो आटिद व्यवहा� के का�ण को संख्या कहा जाता है। दूस�े शब्दों में संख्या वह सामान्य गुण है, जो एकत्व आटिद व्यवहा� का षिनधिम� होता है। वह नौ र्द्रव्यों में �हती है औ� एक से 8ेक� प�ा6 पयन्त होती है। संख्या दो प्रका� की होती है- एक र्द्रव्य में �हने वा8ी एकत्व औ� अनेक र्द्रव्यों में �हने वा8ी- षिद्वत्व षित्रत्व आटिद। एकत्व र्भी दो प्रका� का होता है- षिनत्य, जो पृथ्वी, ज8, तेज औ� वायु के प�माणु तर्था आकाश, का8, टिदक्, आत्मा औ� मन इन षिनत्य पदार्थF में �हता है औ� अषिनत्य, जो अपने आUय घट-पट आटिद के समवाधिय का�ण तन्तु आटिद अषिनत्य पदार्थF में �हता है। इन पदार्थF के नाश से तद्गत एकत्व र्भी नJ हो जाता है पट का रूप अपने समवाधियका�णों के रूप से उत्पन्न होता है। षिद्वत्वाटिद नामक संख्या तो सर्भी र्द्रव्यों में अषिनत्य होती है। षिद्वत्व संख्या की उत्पत्ति� दो र्द्रव्यों में जैसे 'यह एक घट है' यह र्भी एक घट है' इस अपेक्षाबुजिद्ध से होती है। षिद्वत्व दो र्द्रव्यों का गुण है, अत: दो र्द्रव्य षिद्वत्व के समवाधियक�ण होते हैं औ� दोनों र्द्रव्यों के दोनों एकत्व असमवाधियका�ण होते हैं, एकत्व की अपेक्षाबुजिद्ध षिनधिम� का�ण होती है। अपेक्षाबुजिद्ध के नाश से षिद्वत्व का र्भी नाश हो जाता है। सा6ा�णतया तो संख्या एक प्रतीषितमात्र है, षिकन्तु न्यायवैशेषि�क की दृधिJ से रूप आटिद के समान संख्या र्भी एक गुण है। संके्षपत: षिद्वत्व आटिद की उत्पत्ति� (षिद्वत्वोदय प्रषिक्रया) वैशेषि�कों के अनुसा� इस प्रका� है— प्रर्थम क्षण में – इजिन्र्द्रय का घटद्वय से सम्बन्ध। षिद्वतीय क्षण में- एकत्वसामान्य का ज्ञान। तृतीय क्षण में – एक यह, एक यह, इस प्रका� की अपेक्षाबुजिद्ध का उत्पन्न होना। चतुर्थ क्षण में – षिद्वत्व संख्या की उत्पत्ति� पंचम क्षण में – षिद्वत्व सामान्य (जाषित का ज्ञान)।

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�ष्ठ क्षण में- षिद्वत्व संख्या का ज्ञान। सप्तम क्षण में – षिद्वत्वसंख्याषिवशिशJ दो घट व्यशिक्त का ज्ञान। अष्ठम क्षण में – षिद्वत्व ज्ञान से आत्संस्का�। परि�माण का स्वरूपमान के व्यवहा� अर्थात् दो से� आटिद नापने औ� तौ8ने के असा6ा�ण का�ण को परि�माण कहा जाता है। परि�माण नौ र्द्रव्यों में �हता है औ� अणु, महत, दी� व हृस्व र्भेद से चा� प्रका� का होता है। परि�माण का षिनत्य औ� अषिनत्य के रूप में र्भी वग�क�ण षिकया जाता है। षिनत्य र्द्रव्यों में �हने वा8ा परि�माण षिनत्य औ� अषिनत्य र्द्रव्यों में �हने वा8ा परि�माण अषिनत्य होता है। कायगत परि�माण के तीन उपरे्भद हैं- संख्यायोषिन, परि�माणयोषिन तर्था प्रचययोषिन। पृर्थक्त्व का स्वरूप पृर्थक्ता के व्यवहा� के असा6ा�ण का�ण को पृर्थक्त्व कहा जाता है। यह दो प्रका� का होता है- जहाँ एक वस्तु में अन्य वस्तु से पृर्थक््त प्रतीत होती हैं, वहाँ एक पृर्थक्त्व औ� जहां दो वस्तुओं में अन्य वस्तु या वस्तुओं से पृर्थक्ता प्रतीत होती है (जैसे घट औ� पट पुस्तक से पृर्थक् है) वहाँ षिद्वपृर्थक्त्व आटिद। एक पृर्थक्त्व षिनत्य र्द्रव्य में �हता हुआ षिनत्य होता है औ� अषिनत्य र्द्रव्य में �हता हुआ अषिनत्य। षिद्वपृर्थक्त्य आटिद सवत्र अषिनत्य ही होता है, क्योंषिक उसका आ6ा� षिद्वत्व आटिद संख्या हे, जिजसको अषिनत्य माना जाता है। 'यह घट उस घट से पृर्थक् है'- इस प्रका� का व्यवहा� र्द्रव्यों के संबन्ध में प्राय: देखा जाता है। इस प्रका� की प्रतीषित का षिनधिम� एक गुण माना जाता है। यही पृर्थक्त्व है। अन्योन्यार्भाव के आ6ा� प� यह प्रतीषित नहीं हो सकती, क्योंषिक अन्योन्यार्भाव तो 'घट पट नहीं है' आटिद ऐसे उदाह�णों प� चरि�तार्थ होता है, जिजनमें तादात्म्य का अर्भाव है। इस प्रका� पृर्थक्त्व की प्रतीषित र्भावात्मक है जबषिक अन्योन्यार्भाव की प्रतीषित अर्भावात्मक होती है।संयोग का स्वरूपजब दो र्द्रव्य इस प्रका� समीपस्थ होते हैं षिक उनके बीच कोई व्यव6ान न हो तो उनके मे8 को संयोग कहते हैं। इस प्रका� संयोग एक सामान्य गुण है, जो दो र्द्रव्यों प� आत्तिUत �हता है। संयोग अव्याप्यवृत्ति� होता है। उदाह�णतया पुस्तक औ� मेज का संयोग दो र्द्रव्यों से सम्बद्ध होता हे, षिकन्तु यह संयोग दोनों र्द्रव्यों को पूण रूप से नहीं घे�ता, केव8 उनके एक देश में �हता है। मेज के सार्थ पुस्तक के एक पाश्व का औ� पुस्तक के सार्थ मेज के एक र्भाग का ही संयोग होता है। संयोग को केव8 व्यव6ानार्भाव नहीं कहा जा सकता, क्योंषिक व्यव6ानार्भाव तो कुछ दू� प� ल्लिस्थत र्द्रव्यों में र्भी हो सकता है। षिकन्तु संयोग में तो व्यव6ानार्भाव तो कुछ दू� प� ल्लिस्थत र्द्रव्यों में र्भी हो सकता है। षिकन्तु संयोग में तो व्यव6ानार्भाव के सार्थ ही मे8 होना र्भी आवश्यक है। संयोग तीन प्रका� का होता है- अन्यत�कमज, उर्भयकमज औ� संयोगज-संयोगकमज। संयोगनाश के दो का�ण होते हैं- आUय का नाश औ� षिवर्भाग। संयोग का यह वग�क�ण वैशेषि�क दृधिJ से है। नैयाधियकों के अनुसा� तो संयोग के दो र्भेद होते हैं- जन्य औ� अजन्य। जन्य संयोग के तीन उपरे्भद होते हैं- अन्यत� कमज, उर्भयकमज औ� संयोगज। अजन्य संयोग षिवरु्भ र्द्रव्यों में होता है औ� उसका कोइ� अवान्त� रे्भद नहीं होता। वैशेषि�क दशन आकाश, का8 आटिद षिवरु्भ र्द्रव्यों के षिनत्य संयोग के शिसद्धान्त को स्वीका� नहीं क�ता। षिवर्भु र्द्रव्यों में षिवप्रक� र्भी नहीं है औ� षिवरु्भत्व के का�ण उनमें संयोग मानना र्भी व्यर्थ है। आशय यह है षिक वैशेषि�क मत में षिनत्य एवं षिवरु्भ र्द्रव्यों का प�स्प� संयोग नहीं होता। d8स्वरूप आकाश का आत्मा के सार्थ अर्थवा दो आत्मा का प�स्प� संयोग नहीं होता।षिवर्भाग का स्वरूपप�स्प� धिम8े हुए पदार्थF के अ8ग-अ8ग हो जाने से संयोग का जो नाश होता है, उसको षिवर्भाग कहते हैं। वह सर्भी र्द्रव्यों में �हता है। केशव धिमU के अनुसा� 'यह र्द्रव्य से षिवर्भक्त है'- इस प्रका� के अ8गाव की प्रतीषित का असा6ा�ण का�ण षिवर्भाग कह8ाता हे। वह संयोगपूवक होता है औ� दो र्द्रव्यों में होता है। षिवर्भाग तीन प्रका� का माना गया है- अन्यत�कमज, उर्भयकमज औ� षिवर्भागज।

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प�त्व औ� अप�त्व का स्वरूप'यह प� है, यह अप� है'- इस प्रका� के व्यवहा� का असा6ा�ण का�ण प�त्व एवं अप�त्व है। वे दो प्रका� के हैं- टिदक्कृत औ� (ख) का8कृत। टिदक्कृत प�त्व-अप�त्व- एक ही दशा में ल्लिस्थत दो र्द्रव्यों में 'यह र्द्रव्य इस र्द्रव्य के समीप है'- इस प्रका� के ज्ञान के सहयोग से टिदशा औ� वस्तु के संयोग द्वा�ा समीपस्थ वस्तु में अप�त्व उत्पन्न होता है। अप�त्व की उत्पत्ति� का सा6न सधिन्नक� है। इसी प्रका� 'यह र्द्रव्य इस र्द्रव्य से दू� है'– ऐसी बुजिद्ध के सहयोग से टिदग्र्द्रव्य के संयोग से षिवप्रकृJ र्द्रव्य में प�त्व उत्पन्न होता है। प�त्व की उत्पत्ति� का सा6न षिवप्रक� है। का8कृत प�त्व औ� अप�त्व वतमान का8 को आ6ा� मानक� दो वस्तुओं या व्यशिक्तयों में एक अषिनयत टिदशा में ल्लिस्थत युवक तर्था वृजिद्ध श�ी�ों में 'यह (युवक श�ी�) इस (वृजिद्ध श�ी�) की अपेक्षा अल्पत� का8 से सम्बद्ध' है- इस प्रका� वृजिद्धरूप षिनधिम�का�ण के सहयोग से का8श�ी�-रूप असमवाधियका�ण से युवा मनुष्य के श�ी�रूप आUय में अप�त्व उत्पन्न होता है तर्था यह (वृद्ध श�ी�) इस (युवक श�ी�) की अपेक्षा अधि6क का8 से सम्बन्ध �खता है' इस प्रतीषित से वृद्ध श�ी� में प�त्व उत्पन्न होता है। यह ज्ञातव्य है षिक टिदक्कृत प�त्वाप�त्व एक टिदशा में ल्लिस्थत दो र्द्रव्यों में ही उत्पन्न हुआ क�ते हैं, त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न टिदशाओं में ल्लिस्थत र्द्रव्यों में नहीं, षिकन्तु का8कृत प�त्वाप�त्व के शि8ए षिपण्डों का एक ही टिदशा में ल्लिस्थत होना आवश्यक नहीं है।गुरुत्व का स्वरूप गुरुत्व उस 6मषिवशे� (गुण) को कहते हैं, जिजसके का�ण षिकसी र्द्रव्य का प्रर्थम पतन होता है। षिकसी वस्तु की ऊप� से नीचे की ओ� जाने की षिक्रया का नाम पतन है। पतन-षिक्रया जिजस वस्तु में होती है, वह वस्तु पतन का समवाधियका�ण होती है औ� स्वयं उस वस्तु का जो अपना र्भा�ीपन है वह उस वस्तु में संयोग, वेग या प्रयत्न का अर्भाव हो जाता है। अत: पतन का समवाधियका�ण कोइ� न कोई र्द्रव्य होता है, असमवाधियका�ण गुरुत्व होता है। प�माणु का गुरुत्व षिनत्य होता है। प�माणु से त्तिर्भन्न पृथ्वी औ� ज8 का गुरुत्व अषिनत्य होता है। पह8ी पतन-षिक्रया से वस्तु में जो वेग उत्पन्न होता है, वह बाद की पतन-षिक्रया का असमवाधियका�ण है। वृन्त से टूट क� रू्भधिम प� पहँुचने तक d8 में अनेक षिक्रयाए ँहोती हैं। उनमें पह8ी पतन-षिक्रया का असमवाधियका�ण d8 का गुरुत्व होता है औ� बाद की पतनषिक्रयाओं का असमवाधियका�ण पह8ी पतन-षिक्रया से उत्पन्न d8गत वेग होता है।र्द्रवत्व का स्वरूपषिकसी त�8 वस्तु के चूने, टपकने या एक स्थान से दूस�े स्थान तक बहक� पहुँचने में अनेक स्पन्दनषिक्रयाए ँहोती है। उनमें से प्रर्थम स्पन्दन का असमवाधियका�ण र्द्रवत्व (त�8ता) कह8ाता है, जो षिक रू्भधिम, तेज औ� ज8 में �हता है। घृत आटिद पार्चिर्थंव र्द्रवत्व तर्था सुवण आटिद में जो र्द्रवत्व है, वह नैधिमत्ति�क (अखिग्नसंयोगजन्य) होता है, जब षिक ज8 में जो र्द्रवत्व है वह स्वार्भाषिवक है। पह8ी षिक्रया के बाद की जो स्पन्दन षिक्रयाए ँहोती हैं, उनका असमवाधियका�ण वेग होता है।स्नेह का स्वरूप'शिचकनापन' नामक जो गुण है, वह स्नेह कह8ाता है। वह केव8 ज8 में �हता है। स्नेह ऐसा गुण है, जिजसके का�ण पृर्थक्-पृर्थक् रूप से षिवद्यमान कण या अंश षिपण्ड रूप में परि�णत हो जाते हैं। स्नेह दो प्रका� का होता है- षिनत्य औ� अषिनत्य। ज8 के प�माणुओं में षिनत्य होता है औ� कायरूप ज8 में अषिनत्य। अषिनत्य स्नेह का�ण गुणपूवक होता है औ� तर्भी तक �हता है, जब तक उसका आUय र्द्रव्य द्वयणुक आटिद �हता है।शब्द (गुण) का स्वरूपशब्द वह गुण है जिजसका ग्रहण Uोत्र के द्वा�ा षिकया जाता है। शब्द का आUय र्द्रव्य आकाश है। अत: यह आकाश का षिवशे� गुण र्भी कहा जाता है। शब्द दो प्रका� का होता है- ध्वन्यात्मक औ� वणात्मक। रे्भ�ी आटिद से उत्पन्न शब्द ध्वन्यात्मक औ� कण्ठ से उत्पन्न शब्द वणात्मक कह8ाता है। रे्भ�ी आटिद दइश में उत्पन्न शब्द Uोत्र तक कैसे पहुँचता है, इस सम्बन्ध में नैयाधियकों ने मुख्यत: जिजन दो न्यायों का उल्8ेख षिकया है, वे हैं- वीशिचत�ंगन्याय औ� कदम्बमुकु8न्याय। न्यायकन्द8ी में Uी6� ने वीशिचत�ंगन्याय को अन्याषितकता षिनरूषिपत षिकया है।बुजिद्ध का स्वरूपगुणों में बुजिद्ध का र्भी परि�गणन षिकया गया है। बुजिद्ध आत्मा का गुण है, क्योंषिक आत्मा को ही मन तर्था बाहे्यजिन्र्द्रयों के द्वा�ा अर्थ का प्रकाश अर्थात ज्ञान होता है। सांख्य में बुजिद्ध को महततत्त्व कहा गया है षिकन्तु वैशेषि�क यह मानते हैं षिक बुजिद्ध ज्ञान का पयाय है। प्रशस्तपाद ने इस संदर्भ में ठीक वैसा ही षिवचा� व्यक्त षिकया है, जैसा षिक न्यायसूत्रका� गौतम ने षिकया र्था षिक बुजिद्ध, उप8त्थिब्ध औ� ज्ञान पयायवाची शब्द हैं।* शिशवाटिदत्य ने र्भी आत्माUय प्रकाश को बुजिद्ध कहा है।* बुजिद्ध का मानस प्रत्यक्ष होता है। बुजिद्ध के प्रमुख दो रे्भद हैं- षिवद्या औ� अषिवद्या। षिवश्वनार्थ पंचानन ने षिवद्या को प्रमा औ� अषिवद्या को अप्रमा कहा है।

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अन्नंर्भट्ट ने सब प्रका� के व्यवहा� हेतु को बुजिद्ध कहा है। उन्होंने बुजिद्ध के रे्भद बताये- स्मृषित औ� अनुर्भव। अनुर्भव र्भी दो प्रका� का होता है- यर्थार्थ औ� अयर्थार्थ। यर्थार्थ अनुर्भव को ही प्रमा कहते है।सुख का स्वरूपजिजसको सर्भी प्राणी चाहें या जो सब 8ोगों को अनुकू8 8गे, वह सुख कह8ाता है। सुख न्याय-वैशेषि�क के अनुसा� आत्मा का एक षिवशे� गुण है। कषितपय आचायF के मत में 'मैं सुखी हूँ' इस प्रका� के अनुव्यवसाय में जिजस ज्ञान की प्रतीषित होती है, वह सुख कह8ाता है। आत्मा के उस गुण को र्भी कषितपय आचायF ने सुख कहा है, जिजसका असा6ा�ण का�ण 6म है। प्रशस्तपादर्भाष्य में का�ण र्भेद से चा� प्रका� के सुखों का उल्8ेख षिकया गया है- सामान्यसुख, जो षिक षिप्रय वस्तुओं की उप8त्थिब्ध, अनु�ंग आटिद से प्राप्त होता है; स्मृषितसुख, जो षिक रू्भतका8 के षिव�यों के स्म�ण से होता है, संकल्पज, जो अनागत षिव�यों के संकल्प से होता है औ� षिवद्या शमसन्तो�ाटिदजन्यसुख, जो षिक पूव�क्त तीन प्रका� के का�णों से त्तिर्भन्न षिवद्या आटिद से जन्य एक षिवशिशJ सुख होता है। सुख का वग�क�ण (क) स्वकीय औ� (ख) प�कीय र्भेद से र्भी षिकया जा सकता है। अपने सुख का तो अनुर्भव होता है, षिकन्तु प�कीय सुख तो अनुमान द्वा�ा होता है। एक अन्य प्रका� का वग�क�ण। (क) 8ौषिकक औ� (ख) पा�8ौषिकक रूप से र्भी हो सकता है। 8ौषिकक सुख के र्भी षिनम्नशि8खिखत र्भेद माने जा सकते हैं- वै�धियक, जो सांसारि�क वस्तुओं के र्भोग से धिम8ता है; मानशिसक, जो षिक इल्लिच्छत षिव�यों के अनुस�ण से प्राप्त होता है; आभ्याशिसक, जो षिकसी षिक्रया के 8गाता� क�ते �हने से प्राप्त होता है; औ� आत्तिर्भमाषिनक, जो वैदुष्य आटिद 6मF के आ�ोप की अनुरू्भषित से प्राप्त होता है।दु:ख का स्वरूपगुणों में दु:ख की र्भी गणना की गई है। दु:ख सा6ा�ण: पीड़ा को कहते हैं, जिजसको सामान्यत: कोई र्भी नहीं चाहता। न्यासूत्र में दु:ख की गणना बा�ह प्रमेयों में की गई है।इच्छा का स्वरूपकेशव धिमU ने �ाग को औ� अनं्नर्भट्ट ने काम को इच्छा कहा है। इच्छा का षिवस्तृत षिनरूपण प्रशस्तपादर्भाष्य में उप8ब्ध होता है। सामान्यत: अप्राप्त को प्राप्त क�ने की अत्तिर्भ8ा�ा इच्छा कह8ाती है, प्राप्तिप्त की अत्तिर्भ8ा�ा अपने शि8ये हो चाहे दूस�े के शि8ए। यह आत्मा का गुण है। इसकी उत्पत्ति� स्मृषितसापेक्ष या सुखाटिदसापेक्ष आत्ममन:संयोगरूपी असमवाधियक�ण से आत्मारूप समवाधियकाक�ण में होती हैं इसके दो प्रका� होते हैं: सोपाधि6क तर्था षिनरुपाधि6क। सुख के प्रषित जो इच्छा होती है, वह षिनरुपाधि6क होती है औ� सुख के सा6नों के प्रषित जो इच्छा होती है, वह सोपाधि6क होती है। इच्छा प्रयत्न, स्म�ण, 6म, अ6म आटिद का का�ण होती है।दे्व� का स्वरूपअन्नंर्भट्ट के अनुसा� क्रो6 का ही दूस�ा नाम दे्व� हैं। प्रशस्तपाद के अनुसा� दे्व� वह गुण है, जिजसके उत्पन्न होने प� प्राणी अपने को प्रज्वशि8त-सा अनुर्भव क�ता है। यह दु:खसापेक्ष अर्थवा स्मृषितसापेक्ष आत्ममन:संयोग से उत्पन्न होता है औ� प्रयत्न, स्मृषित, 6म औ� अ6म का का�ण है। र्द्रोह के र्भी कई रे्भद होते हैं, जैसे षिक र्द्रोह- उपका�ी के प्रषित र्भी अपका� क� बैठना, मन्यु- अपका�ी व्यशिक्त के प्रषित अपका� क�ने में असमर्थ �हने प� अन्द� ही अन्द� उत्पन्न होने वा8ा दे्व�, अक्षमा दूस�े के गुणों को न सह सकना अर्थात् असषिहष्णुता, अम�- अपने गुणों के षित�स्का� की आशंका से दूस�े में गुणों के प्रषित षिवदे्व�, अभ्यसूया- अपका� को सहन क�ने में असमर्थ व्यशिक्त के मन में शिच�का8 तक �हने वा8ा दे्व�। यह सर्भी दे्व� पुन: स्वकीय औ� प�कीय प्रका� से हो सकते हैं। स्वकीय दे्व� का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष से औ� प�कीय दे्व� का ज्ञान अनुमान आटिद से होता है।प्रयत्न का स्वरूपअन्नंर्भट्ट ने 'कृषित' को प्रयत्न कहा है। प्रशस्तपाद के अनुसा� प्रयत्न, सं�म्भ औ� उत्साह पयायवाची शब्द हैं। प्रयत्न दो प्रका� का होता है- (1) जीवनपूवक औ� (2) इच्छादे्व�पूवक। सुप्तावस्था में वतमान प्राणी के प्राण तर्था अपान वायु के श्वास-प्रश्वास रूप व्यापा� को च8ाने वा8ा औ� जाग्रदवस्था में अन्त:क�ण को बाह्य इजिन्र्द्रयों से संयुक्त क�ने वा8ा प्रयत्न जीवनयोषिन प्रयत्न कह8ाता है। इसमें 6म तर्था अ6म रूप षिनधिम� का�ण की अपेक्षा क�ने वा8ा आत्मा तर्था मन का संयोग असमवाधियका�ण है। षिहत की प्राप्तिप्त औ� अषिहत की षिनवृत्ति� क�ानेवा8ी श�ी� की षिक्रयाओं का हेतु इच्छा या दे्व�मू8क प्रयत्न कह8ाता है। इसमें इच्छा अर्थवा दे्व�रूप षिनधिम� का�ण की अपेक्षा क�नेवा8ा आत्मा तर्था मन का संयोग असमवाधियका�ण है।6म औ� अ6म का स्वरूपअन्नंर्भट्ट ने षिवषिहत कमF से जन्य अदृJ को 6म औ� षिनषि�द्ध कमF से उत्पन्न अदृJ को अ6म कहा है। केशवधिमU के अनुसा� सुख

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तर्था दु:ख के असा6ा�ण का�ण क्रमश: 6म औ� अ6म कह8ाते हैं। इनका ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं, अषिपतु आगम या अनुमान से होता है। अनुमान का रूप इस प्रका� होगा-देवद� के श�ी� आटिद देवद� के षिवशे� गुणों से उत्पन्न होते हैं (प्रषितज्ञा), क्योंषिक ये काय होते हैं (प्रषितज्ञा), क्योंषिक ये काय होते हुये देवद� के र्भोग के हेतु हैं। (हेतु), जैसे देवद� के प्रयत्न से उत्पन्न होने वा8ी वस्तु वस्त्र आटिद (उदाह�ण), इस प्रका� श�ी� आटिद का षिनधिम� होनेवा8े षिवशे� गुण ही 6म तर्था अ6म हैं।संस्का� का स्वरूपव�द�ाज के मतानुसा� जिजस गुण में वह का�ण उत्पन्न होता है, जो षिक उसी जाषित का हो जिजस का काय है, (यद्यषिप वह षिवजातीय होता है) तो वह संस्का� कह8ाता है। अर्थात जब र्भी कोई गुण या कम बाह्य सहायता के षिबना आन्तरि�क शशिक्त से ही उसी प्रका� का काय उत्पन्न क� दे तो वह संस्का� होता है। केशव धिमU के अनुसा� संस्का� सम्बन्धी व्यवहा� का असा6ा�ण का�ण संस्का� कह8ाता है। संस्का� तीन प्रका� का होता है- वेग, र्भावना औ� ल्लिस्थषितस्थापक। संस्का� के इन तीन रे्भदों में वैसे तो र्भावना ही वस्तुत: संस्का� हैं शे� दो संस्का� नहीं हैं, षिकन्तु कषितपय षिवद्वानों का यह कर्थन र्भी ध्यान देने योग्य है षिक इन तीनों में बाह्य का�णों के षिबना स्वयं ही काय क�ने की क्षमता समानरूप से है।

र्द्रव्यों में गुण- बो6क चक्र र्भा�तीय दशनसा� नामक ग्रन्थ (पृ.240) में आचाय ब8देव उपाध्याय ने कारि�काव8ी के आ6ा� प� र्द्रव्य में गुणों के अवस्थान की ताशि8का

षिनम्नशि8खिखत रूप से दी है- पृथ्वी ज8 तेज वायु आकाश का8 टिदक् ईश्व� जीवात्मा मन स्पश स्पश स्पश स्पश संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या संख्या परि�माण परि�माण परि�माण परि�माण परि�माण परि�माण

परि�माण परि�माण परि�माण परि�माण पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व पृर्थक्त्व संयोग संयोग संयोग संयोग संयोग संयोग

संयोग संयोग संयोग संयोग षिवर्भाग षिवर्भाग षिवर्भाग षिवर्भाग षिवर्भाग षिवर्भाग षिवयोग षिवयोग षिवयोग षिवयोग शब्द     बुजिद्ध बुजिद्ध प�त्व

प�त्व प�त्व प�त्व प�त्व       इच्छा इच्छा अप�त्व अप�त्व अप�त्व अप�त्व अप�त्व       यत्न यत्न वेग

वेग वेग वेग वेग         सुख   गुरुत्व गुरुत्व र्द्रवत्व           दु: ख   र्द्रवत्व र्द्रवत्व रूप           दे्व�  

रूप रूप             र्भावना  �स �स             6म  गं6 स्नेह             अ6म  14 गुण 14 गुण 11 गुण 9 गुण 6 गुण 5 गुण 5 गुण 8 गुण 14 गुण 8 गुण[संपाटिदत क�ें] कम का स्वरूपकम का आशय है षिक्रया या गषित, जैसे च8ना, षिd�ना आटिद। कम मूत र्द्रव्य में ही �हता है। कणाद के अनुसा� एक समय एक र्द्रव्य में �हता हो, गुण से त्तिर्भन्न हो तर्था संयोग एवं षिवर्भाग के प्रषित साक्षात का�ण र्भी हो वह कम है।* प्रशस्तपाद ने कणाद के मन्तव्य को स्पJ क�ते हुए कहा षिक एक के च8ने प� सब में च8ने की उत्पत्ति� नहीं होती औ� जिजस स्थ8 में एक ही समय अनेकों की च8नषिक्रया होती है, वहाँ र्भी का�ण अनेक ही हैं, क्योंषिक च8नषिक्रयाओं के काय अत्तिर्भघात तर्था आ6ा� में रे्भद है। नोदन (ढके8ना), गुरुत्व (र्भा�ीपन), वेग औ� प्रयत्न ये चा� कम के पे्र�क का�ण हैं। कम के प्रमुख र्भेद पाँच हैं- उत्क्षेपण, अपेके्षपण, आकंुचन, प्रसा�ण तर्था गमन। ऊध्व देश के सार्थ होने वा8े संयोग के प्रषित का�णर्भूत षिक्रया उत्क्षेपण औ� अ6ोदेश के सार्थ होनेवा8े संयोग के प्रषित का�णर्भूत षिक्रया अपके्षपण कह8ाती है। श�ी� से सधिन्नकृJ संयोग का जनक कम आकंुचन तर्था श�ी� से षिवप्रकJ संयोग का जनक कम है- प्रसा�ण। इनके अषितरि�क्त अन्य सब कम गमन कह8ाते हैं। भ्रमण, �ेचन आटिद अन्य र्भी असंख्य कम हैं, षिकन्तु उनका गमन में ही

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अन्तर्भाव हो जाता है। उत्क्षेपण आटिद कम षिनयत टिदग्-देश-संयोगानुकू8 होते हैं, जबषिक भ्रमण, �ेचन आटिद अषिनयतटिदग्देशसंयोगानुकू8 होते हैं। इसके सार्थ ही यह र्भी ज्ञातव्य है षिक उत्के्षपण आटिद इच्छा-सापेक्ष कम हैं, जब षिक �ेचन आटिद प� यह षिनयम 8ागू नहीं होता। उदाह�ण के रूप में गेंद को मैदान में पटकने के बाद जो उछा8 उसमें आता है, वह उत्क्षेपण नहीं कह8ा सकता। क्योंषिक वह उत्प्8वन स्वत: होता है, षिकसी की इच्छा से नहीं। [संपाटिदत क�ें] सामान्य का स्वरूपकेशव धिमU के अनुसा� अनुवृत्ति� प्रत्यय के हेतु को सामान्य कहते हैं।* षिवश्वनार्थ पंचानन के मत में जो षिनत्य हो औ� अनेक (एक से अधि6क) वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध से �हता हो, वह सामान्य कह8ाता है।* अन्नंर्भट्ट का यही मत है, षिकन्तु उन्होंने 8क्षण में समवाय शब्द के स्थान प� अनुगत शब्द का प्रयोग षिकया है।* कणाद ने सामान्य औ� षिवशे� को बुजिद्धसापेक्ष कहा है।* कणाद ने जिजन छ: पदार्थF के सा6म्य (अनुगत 6म) औ� वै6म्य (षिवप�ीत 6म) के ज्ञान के द्वा�ा उत्पन्न तत्त्वज्ञान से षिन:Uेयस की प्राप्तिप्त का उल्8ेख षिकया है, उनमें से सामान्य र्भी एक बताया है। उनका यह र्भी कर्थन है षिक सामान्य के दो रूप होते हैं- सामान्य अर्थात केव8 अनुवृत्ति� बुजिद्ध से सम्बद्ध सामान्य तर्था सामान्यषिवशे� अर्थात अनुवृत्ति� औ� व्यावृत्ति� रूप उर्भयषिव6 बुजिद्ध से सम्बद्ध सामान्य। सूत्रका� कणाद ने सामान्य का कोई स्पJ 8क्षण नहीं टिदया। प्रशस्तपाद ने कणाद के कर्थन को स्पJ क�ते हुए यह कहा षिक सामान्य का उपयुक्त प्रर्थम रूप प�सामान्य कह8ाता है औ� षिद्वतीय रूप अप�सामान्य। प� (व्यापक) सामान्य केव8 स�ा है जिजसमें महाषिव�यत्व अर्थात सवाधि6क देशवृत्ति�ता है। उससे केव8 अनुगत प्रतीषित ही होती है। सामान्याUय र्द्रव्याटिद तीन पदार्थF में वह अनुगत बुजिद्ध को ही उत्पन्न क�ता है, न षिक व्यावृत्ति�बुजिद्ध को। जिजस प्रका� प�स्प� त्तिर्भन्न चम, वस्त्र, कम्ब8 आटिद र्द्रव्यों में 'नी8-नी8' इत्याका�क एकाका� ज्ञान होता है, उसी प्रका� से त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न पृथ्वी आटिद नौ र्द्रव्यों, रूप आटिद चौषिबस गुणों औ� उत्पेक्षण आटिद पाँच कमF में र्भी 'सत्-सत्' ऐसा एकाका� ज्ञान होता है। अप� सामान्य अनुगतबुजिद्ध औ� र्भेदबुजिद्ध दोनों का का�ण होता है अत: वह सामान्यषिवशे� कह8ाता है। उदाह�णतया र्द्रव्यत्व पृथ्वी, ज8 आटिद नौ र्द्रव्यों में अनुगत बुजिद्ध का का�ण है, षिकन्तु गुण औ� कम से वह रे्भदबुजिद्ध का का�ण र्भी हैं अत: वह सामान्य तर्था षिवशे� उर्भयरूप है। र्द्रव्यत्व, गुणत्व आटिद सामान्य र्द्रव्य, गुण आटिद पदार्थF से त्तिर्भन्न होने के का�ण ही सामान्य षिनत्य है; यटिद दोनों में अरे्भद हो तो सामान्य का र्भी र्द्रव्याटिद के समान उत्पत्ति� तर्था नाश होने 8गे। अनुगताका� ज्ञानरूप सामान्य का 8क्षण प्रत्येक व्यशिक्त में षिव8क्षण न होने से तर्था र्भेद में प्रमाण न होने के का�ण र्भी सामान्य अपने आ6ा�रू्भत व्यशिक्तयों में एक ही है। 'सामान्य' अपने षिव�य में समवाय सम्बन्ध से �हता है। यद्यषिप सामान्य अषिनयतदेश होता है अत: सवत्र उत्पन्न होने वा8े स्वषिव�य गो व्यशिक्तयों के सामान्य वहाँ प� वतमान अश्वाटिद व्यशिक्तयों में र्भी सम्बद्ध हो सकते हैं। षिकन्तु गोत्व जाषित के अत्तिर्भव्यंजक सास्नाटिद रूप अवयव-संस्थान के गोरूप व्यशिक्तयों में षिनयत होने के का�ण गोत्व जाषित का गो व्यशिक्तयों में ही समवाय है, न षिक अश्व आटिद षिपण्डों में।* [संपाटिदत क�ें] षिवशे� का स्वरूपघट आटिद से 8ेक� द्वयणुकपयन्त प्रत्येक वस्तु का प�स्प� र्भेद अपने-अपने अवयवों के रे्भद से माना जाता है, षिकन्तु अवयवों के आ6ा� प� रे्भद क�ते-क�ते औ� स्थू8 से सूक्ष्म की ओ� जाते-जाते जब हम प�माणु तक पहुँचते हैं तो एक ऐसी र्भी ल्लिस्थषित आ जाती है षिक उसके रे्भद अवयव के आ6ा� प� नहीं षिकये जा सकते, क्योंषिक प�माणु का अवयव होता ही नहीं है। ऐसी ल्लिस्थषित में प�माणु आटिद का पा�स्परि�क रे्भद बताने के शि8ये वैशेषि�क ने 'षिवशे�' नामक पदार्थ की कल्पना की है औ� न्याय के उ��वत� ग्रन्थों में र्भी उसकी चचा की गई है। संक्षेप में 'षिवशे�' के 8क्षण में दो बातें मुख्य हैं। एक तो यह षिक षिवशे� वस्तुओं में पा�स्परि�क व्यावतन का अप्तिन्तम तत्त्व या 6म है। षिवशे� का कोई षिवशे� नहीं होता अर्थात यह स्वतोव्यावतक अर्थात स्वयं को सबसे त्तिर्भन्न क�नेवा8ा र्भी होता है इसी शि8ए इसको 'अन्त्य षिवशे�' कहा जाता है। दूस�ी बात यह है षिक षिवशे� केव8 षिनत्य र्द्रव्यों अर्थात पृथ्वी आटिद चा� प्रकाह� के अणुओं औ� आकाशाटिद चा� षिवर्भु र्द्रव्यों में �हता है। 'षिवशे� अप्तिन्तम होता है'- इस प्रका� का आशय यह है षिक जैसे सबसे अधि6क देश वा8ी 'जाषित' को स�ा कहा जाता है, उसी प्रका� ऐसे सबसे छोटे 6म को जो केव8 एक ही पदार्थ में �हे, षिवशे� कहा जाता है। सामान्य-षिवशे� की सवाधि6क व्यापक अप्तिन्तम सीमा का नाम स�ा है औ� षिनम्नतम सीमा का नाम षिवशे� है। षिवशे� केव8 एक पदार्थ में �हता है, अत: वह सामान्य नहीं हो सकता। वह केव8 षिवशे� ही �हता है। 'षिवशे� षिनत्य र्द्रव्यों में �हता है'- इस कर्थन का यह आशय है षिक घट आटिद कायF का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप ढँूढ़ते-ढँूढ़ते हम अन्त में द्वयणुक तक पहुँचते हैं। द्वयणुक से र्भी सूक्ष्म 'अणु' है, वे अ8ग-अ8ग व्यशिक्त हैं औ� षिनत्य हैं। षिवशे� उन्हीं त्तिर्भन्न-त्तिर्भन्न औ� षिनत्य व्यशिक्तयों में �हते हैं। अणु का कोई अवयव नहीं होता, अत: यह प्रश्न उठता है षिक एक प�माणु का दूस�े से र्भेद कैसे समझा जाए? अर्थात् प�माणुओं के पृर्थक्-पृर्थक् व्यशिक्तत्व का आ6ा� क्या है? इसी आ6ा� के रूप में षिवशे� की कल्पना की गई है। वैशेषि�कों की यह मान्यता है

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षिक द्वयणुक का संघटन क�ने वा8े प्रत्येक प�माणु में एक षिवशे� नामक पदार्थ �हता है, जो आUयर्भूत प�माणु को दूस�े प�माणु से र्भी पृर्थक् क�ता है। एक षिवशे� का दूस�े षिवशे� से र्भेद क�ने वा8ा र्भी षिवशे� ही है। षिवशे� स्वयं अपना षिवर्भेदक है। षिवशे� का स्वर्भाव ही व्यावृत्ति� है अत: उसके सम्पक से सजातीय प�माणु र्भी एक दूस�े से अ8ग हो जाते हैं। षिवशे� को माने षिबना प�माणुओं का एक दूस�े से रे्भद नहीं हो सकता। इस संदर्भ में एक प्रश्न यह र्भी उपल्लिस्थत होता है षिक यटिद एक षिवशे� का दूस�े षिवशे� से रे्भद स्वयं ही हो जाता है तो एक प�माणु का दूस�े प�माणु से रे्भद र्भी स्वयं ही क्यों नहीं हो जाता? इस शंका का समा6ान प्रशस्तपाद ने यह कह क� क� टिदया षिक षिवशे� का तो स्वर्भाव ही व्यावृत्ति� है, जबषिक प�माणु का स्वर्भाव व्यावृत्ति� नहीं है। इसके सार्थ एक प�माणु का दूस�े प�माणु से तादात्म्य है, जबषिक एक षिवशे� का दूस�े षिवशे� से तादात्म्य नहीं है। षिवशे� के सम्बन्ध में एक शंका यह र्भी उठाई जाती है षिक योगज6म के सामथ्य से योषिगयों को जैसे अतीजिन्र्द्रय पदार्थF का दशन होता हा, वैसे ही उन्हें षिबना षिवशे� के ही ज्ञान हो जाएगा षिd� उनको 'षिवशे�' की क्या आवश्यकता है? प्रशस्तपाद इस शंका का समा6ान इस प्रका� क�ते हैं षिक योषिगयों को र्भी जो ज्ञान होता है वह षिबना षिनधिम� के नहीं हो सकता। [संपाटिदत क�ें] समवाय का स्वरूपजिजन दो पदार्थF में कोई षिवनश्यता की अवस्था को प्राप्त हुए षिबना अप�ात्तिUत ही �हता है, उनके बीच जो सम्बन्ध होता है, उसको समवाय कहते हैं। इन दो पदार्थF में से कोई एक पदार्थ (यर्था पट) ही दूस�े (यर्था तन्तु) प� आत्तिUत �हता है। दोनों का एक दूस�े प� आत्तिUत �हना आवश्यक नहीं है, क्योंषिक उदाह�णतया तन्तु तो षिबना पट के र्भी �ह सकता है। कणाद यह कहते हैं षिक जिजस सम्बन्ध के का�ण अवयवों में अवयवी, व्यशिक्त में जाषित आटिद का बो6 होता है, वह समवाय कह8ाता है।* प्रशस्तपाद र्भी 8गर्भग इसी कर्थन का अनुवतन क�ते हैं।* वैशेषि�की के अनुसा� समवाय एक षिनत्य सम्बन्ध है, जब षिक संयोग अषिनत्य सम्बन्ध है। षिकन्तु अवयवों में अवयवी समवाय सम्बन्ध से �हता है। नव्यनैयाधियक समवाय को षिनत्य नहीं मानते। वैसे प्राचीन नैयाधियकों औ� वैशेषि�कों की दृधिJ में र्भी षिनत्यत्व का आशय यहाँ प� यह है षिक काय को उत्पन्न षिकये षिबना सन इसे उत्पन्न षिकया जा सकता है औ� न काय को नJ षिकये षिबना इसे नJ षिकया जा सकता है। समवाय गुण नहीं अषिपतु पदार्थ है औ� यह समवाधिययों में तादात्म्य सम्बन्ध से �हता है। प्राचीन नैयाधियकों के मतानुसा� समवाय का प्रत्यक्ष होता है, षिकन्तु वैशेषि�कों के अनुसा� इसका अनुमान होता है। अन्नंर्भट्ट र्भी यहाँ सप� वैशेषि�क मत का ही अनुगमन क�ते हैं। मीमांसक औ� वेदान्ती समवाय सम्बन्ध को नहीं मानते। शंक�ाचाय के अनुसा� संयोग (गुण) र्द्रव्य में जिजस सम्बन्ध से �हता है, वह समवाय है अत: समवाय पदार्थ नहीं है। यटिद तादात्म्य सम्बन्ध से र्द्रव्य में समवाय की अवल्लिस्थषित मानी जाये तो संयोग की ही र्द्रव्य में तादात्म्य सम्बन्ध से अवल्लिस्थषित क्यों न मानी जाए? जैसे षिक पह8े र्भी कहा गया, समवाय सम्बन्ध अयुतशिसद्ध दो पदार्थF के बीच �हता है। अयुतशिसद्ध का आशय है- जो न कर्भी संयुक्त शिसद्ध षिकये जा सकें , औ� न षिवर्भाजिजत। ऐसे युग्मों के आ6ा� प� अयुतशिसद्ध सम्बन्ध पाँच प्रका� का माना गया है- अवयव औ� अवयवी में, गुण (रूप) औ� गुणी षिक्रया औ� षिक्रयावान् में, जाषित (घटत्व) औ� व्यशिक्त (घट) में तर्था षिवशे� औ� अधि6क�ण षिनत्य (आकाश, प�माणु आटिद) र्द्रव्य में। अन्नंर्भट्ट ने समवाय केव8 एक प्रका� का ही माना है। समवाय शिसद्धान्त के आ6ा� प� ही न्याय-वैशेषि�क दशनों को वस्तुवादी कहा जाता है। क्योंषिक इसी प� का�णवाद औ� प�माणुवाद षिनर्भ� क�ते हैं। बौद्धों के इस तक का षिक अवयवी (वस्त्र) अवयवों (तन्तुओं) से त्तिर्भन्न यानी प�माणु-पंुज के अषितरि�क्त कोई वस्तु नहीं है, नैयाधियक इस प्रका� खण्डन क�ते हैं षिक प�माणु-पंुज का दशन नहीं होता, जबषिक घट को देख क� यह प्रतीषित होती है षिक एक स्थू8 घट है। अत: अवयव-अवयवी की पृर्थक् स�ा अनुर्भवशिसद्ध है। [संपाटिदत क�ें] अर्भाव का स्वरूपप्रत्येक प्रतीषित षिकसी सद्वस्तु प� आ6ारि�त होती है। अत: अर्भावात्मक प्रतीषित का र्भी कोई आUय है, उसी को अर्भाव कहते हैं। प्राचीन नैयाधियकों औ� वैशेषि�कों ने केव8 र्भाव पदार्थF का उल्8ेख षिकया र्थां षिकन्तु उ��वत� प्रक�णग्रन्थका�ों ने र्भी न्याय-वैशेषि�क प�म्प�ाओं को संयुक्त रूप में आगे बढ़ाया है औ� उनके ग्रन्थों में अर्भाव का र्भी षिवश्ले�ण षिकया गया है। वैसे पदार्थ के रूप में अर्भाव का प्रमुख रूप से प्रषितपादन शिशवाटिदत्य ने षिकया है। प्रशस्तपाद ने केव8 यह उल्8ेख षिकया षिक अर्भाव को कुछ 8ोगों ने पृर्थक् प्रमाण माना, षिकन्तु वह र्भी अनुमान ही है।* कषितपय षिवद्वानों का यह कर्थन है षिक कणाद ने 'का�णार्भावात्कायार्भाव:' औ� 'असत: षिक्रयागुणव्यपदेशार्भावादर्थान्त�म्' जैसे सूत्रों में अर्भाव के पदार्थत्व को स्वीका� षिकया है।

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वैसे अर्भाव का सामान्य अर्थ है- 'षिन�े6- मुखप्रमाणगम्यत्व' अर्थात् 'न' शब्द से अत्तिर्भ8ाप षिकये जानेवा8े ज्ञान का षिव�य।* मा6वाचाय के अनुसा� अर्भाव उस पदार्थ को कहते हैं, जो समवाय सम्बन्ध से �षिहत होक� समवाय से त्तिर्भन्न हो। ज्ञातव्य है षिक र्द्रव्यों का समवाय सम्बन्ध अपने प� आत्तिUत गुणाटिद के सार्थ होता है। गुण औ� कम अपने आUय र्द्रव्य के सार्थ या अपने प� आत्तिUत सामान्य के सार्थ समवाय सम्बन्ध �खते हैं। अत: अर्भाव के 8क्षण में असमवायत्वे सषित कहने से सर्भी पदार्थF की औ� 'असमवाय' कहने से स्वयं अर्भाव के समवायत्व की व्यावृत्ति� हो जाती है।* षिवश्वनार्थ पंचानन ने अर्भाव के सवप्रर्थम दो रे्भद माने हैं- संसगार्भाव औ� अन्योन्यार्भाव; औ� संसगार्भाव के तीन रे्भद षिकये हैं- प्रागर्भाव, प्रध्वंसार्भाव तर्था अत्यन्तार्भाव औ� अन्योन्यार्भाव। *अन्नंर्भट्ट के अनुसा� जिजसका आटिद न हो षिकन्तु अन्त हो वह प्रागर्भाव है, जैसे प\� प� पड़ने से घडे़ का dूटना। ध्वंस के बाद र्भी अर्थात् नJ होने के बाद र्भी जो काय उत्पन्न होता है, उसके सम्बन्ध में नैयाधियकों का यह मत है षिक वह तो नJ हुए काय से त्तिर्भन्न काय होता है। अत्यन्तार्भाव अनाटिद तर्था अनन्त होता है, जैसे वायु में रूप का अर्भाव है। इन तीनों अर्भावों में घट आटिद के संसग (संयोग, समवाय) का अर्भाव प्रकट होता है। इसशि8ए ये संसगार्भाव कह8ाते हैं। दो वस्तुओं में तादात्म्य का जो अर्भाव होता है, उसको अन्योन्यार्भाव कहते हैं, जैसे घट पट नहीं है। अत्यन्तार्भाव औ� अन्योन्यार्भाव दोनों ही तै्रकाशि8क अर्थात षिनत्य हैं, षिकन्तु अत्यन्तार्भाव संयोगसमवाय- सम्बन्ध प� षिनर्भ� है, जबषिक अन्योन्यार्भाव तादात्म्य-सम्बन्ध प� आ6ारि�त है। वैशेषि�कसम्मत ज्ञान मीमांसाअनुक्रम[छुपा]1 वैशेषि�कसम्मत ज्ञान मीमांसा 1.1 ज्ञान 2 प्रमाण का स्वरूप 3 प्रमाण के रे्भद 4 प्रत्यक्ष का स्वरूप औ� रे्भद 5 अनुमान का स्वरूप औ� रे्भद 6 मीमांसकाटिद प्रवर्षितंत अन्य प्रमाणों की अन्तरू्भतता 7 सा� औ� समाहा� 8 सम्बंधि6त लि8ंक

[संपाटिदत क�ें] ज्ञानज्ञान (प्रमा) क्या है? ज्ञान औ� अज्ञान (अप्रमा) में क्या र्भेद है? ज्ञान के सा6न अर्थवा षिनश्चायक घटक कौन हैं? इन औ� इसी प्रका� के कई अन्य प्रश्नों के उ�� में ही ज्ञान के स्वरूप का कुछ परि�चय प्राप्त षिकया जा सकता है। ज्ञान अपने आप में वस्तुत: एक षिन�पेक्ष सत्य है, षिकन्तु जब उसको परि�र्भाषि�त क�ने का प्रयास षिकया जाता है तो वह षिवश्ले�क की अपनी सीमाओं के का�ण ग्राह्यावस्था में सापेक्ष सत्य की परि�धि6 में आ जाता है। षिd� र्भी र्भा�तीय मान्यताओं के अनुसा� कणाद आटिद ऋषि� सत्य के साक्षात र्द्रJा हैं। अत: उन्होंने जो कहा, वह प्राय: ज्ञान का षिन�पेक्ष षिवश्ले�ण ही माना जाता है। महर्षि�ं कणाद ने ज्ञान की कोई सी6ी परि�र्भा�ा नहीं बताई। न्यायसूत्र में अक्षपाद गौतम ने ज्ञान को बुजिद्ध औ� उप8त्थिब्ध का पयायवाची माना।* प्रशस्तपाद ने ज्ञान के इन पयायों में 'प्रत्यय' शब्द को र्भी जोड़ा।* ऐसा प्रतीत होता है षिक गौतम, कणाद औ� प्रशस्तपाद के समय तक ज्ञान के स्थान प� बुजिद्ध शब्द का प्रयोग होता र्था। शिशवाटिदत्य ने र्भी आत्माUय प्रकाश को बुजिद्ध कहा है।* अत: न्याय-वैशेषि�क में बुजिद्ध का जो षिवश्ले�ण षिकया गया है, उसी को ज्ञान का षिवश्ले�ण मान 8ेना अनुपयुक्त नहीं होगा। ज्ञान को ही शब्दान्त� से प्रमा औ� षिवद्या र्भी कहा जाता है। वैशेषि�क में ज्ञाता (आत्मा), ज्ञान औ� जे्ञय को पृर्थक्-पृर्थक् माना गया है। मीमांसकों के अनुसा� ज्ञान आत्मा का कम है। षिकन्तु न्याय-वैशेषि�क के अनुसा� ज्ञान आत्मा का गुण है। अदै्वत वेदान्त में ज्ञान या चैतन्य को आत्मा का गुण नहीं, अषिपतु स्वरूप या स्वर्भाव माना गया हो, षिकन्तु न्यायवैशेषि�कों के अनुसा� ज्ञान आत्मा का स्वर्भाव नहीं अषिपतु आगन्तुक गुण है। सांख्य में बुजिद्ध औ� ज्ञान को अ8ग-अ8ग मानते हुए यह कहा गया है षिक बुजिद्ध (महत्व) प्रकृषित का काय है औ� ज्ञान उसका सा6न। कुछ पाश्चात्त्य मनीषि�यों ने ज्ञान को मन औ� षिव�य के बीच का एक सम्बन्ध बताया है, प�, जैसा षिक पह8े र्भी कहा गया, वैशेषि�क ज्ञान को आत्मा का गुण मानते हैं, सम्बन्ध नहीं। षिवश्वनार्थ पञ्चानन ने र्भी बुजिद्ध के दो रे्भद अनरूु्भषित औ� स्मृषित मान क� अनरूु्भषित के अन्तगत प्रमाणों का षिनरूपण षिकया। अनं्नर्भट्ट ने वैशेषि�कों के शिचन्तन का सा� सा प्रस्तुत क�ते हुए यह कहा षिक-समस्त व्यवहा� के हेतुर्भूत गुण को बुजिद्ध या ज्ञान कहते हैं।* बुजिद्ध या ज्ञान या प्रमा का षिनश्चय प्रमाणों के द्वा�ा सम्पन्न होता है। [संपाटिदत क�ें] प्रमाण का स्वरूपवु्यत्पत्ति� की दृधिJ से प्रमाण शब्द प्र उपसगपूवक माङ् 6ातु से क�ण में ल्युट् प्रत्यय जोड़ने षिनष्पन्न होता है, जिजसका अर्थ है- प्रमा का का�णं प्रमाण की परि�र्भा�ा षिवत्तिर्भन्न दशनों के आचायF ने षिवत्तिर्भन्न रूप से की है। सौत्राप्तिन्तक तर्था वैर्भाषि�क बौद्धों ने यह कहा षिक प्रमाण वह है, जिजससे सम्यक ज्ञान हो। नागाजुन प्रमाण की स�ा नहीं मानते। टिदङ्नाग की प�म्प�ा में 6मकीर्षितं ने यह बताया षिक षिववत्तिक्षत अर्थ को बताने वा8ा सम्यक् तर्था अषिवसंवाटिद ज्ञान प्रमाण है। जैन प�म्प�ा में अक8ंक के अनुसा� पूव अनधि6गत, व्यवसायात्मक सम्यक् ज्ञान तर्था हेमचन्र्द्र के अनुसा� पूवाधि6गत सम्यक ज्ञान र्भी प्रमाण है। सांख्य सूत्रका� यह मानते हैं षिक असधिन्नकृJ अर्थ का षिनश्चय क�ना प्रमा है औ� उसके सा6कतम का�ण प्रमाण हैं। र्भाट्ट मीमांसक अगृहीत अर्थ के ज्ञान को औ� प्रार्भाक� अनरूु्भषित को प्रमाण मानते हैं। वेदान्त में अगृहीतग्राषिहत्व को प्रमाण का मुख्य आ6ा� माना गया है।

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न्यायप�म्प�ा में प्रचशि8त मन्तव्यों का समाहा� क�के प्रमाण की व्यापक परि�र्भा�ा देते हुए जयन्तर्भट्ट यह कहते हैं षिक- 'वह सामग्री-साकल्य ही प्रमाण है, जो अव्यत्तिर्भचारि� तर्था असंटिदग्6 ज्ञान का जनक हो औ� जिजसमें ज्ञान के बो6 औ� अबो6स्वरूप समग्र का�णों का समावेश हो'।* आचाय कणाद ने प्रमाण के शि8ए दो��ाषिहत्य आवश्यक बताया।* वल्8र्भाचाय ने र्भी सत्य ज्ञान को षिवद्या कहा है।* Uी6� ने अध्यवसाय शब्द को र्भी प्रमाण की परि�र्भा�ा में जोड़ा।* शंक� धिमU ने उपस्का� में यह कहा षिक प्रमाण वह है जो ज्ञान का उत्पादक हो।* [संपाटिदत क�ें] प्रमाण के रे्भदवैशेषि�क दशन में प्रमाण के दो ही र्भेद माने गये हैं- प्रत्यक्ष औ� अनुमान। न्यायप�म्प�ा में प्रवर्षितंत अन्य दो प्रमाणों- उपमान औ� शब्द- का वैशेषि�कों ने अनुमान में ही अन्तर्भाव षिकया है। न्यायप�म्प�ा में र्भी र्भासवज्ञ (10 वीं शती) ने उपमान को पृर्थक् प्रमाण नहीं माना औ� न्याय के शे� सब पदार्थF का षिववेचन र्भी शे� तीन प्रमाणों के अन्तगत क� टिदया। [संपाटिदत क�ें] प्रत्यक्ष का स्वरूप औ� र्भेदइजिन्र्द्रयार्थसधिन्नक�जन्य ज्ञान की प्रत्यक्षता का संकेत वैशेषि�क सूत्र में र्भी उप8ब्ध है।* प्रशस्तपाद के कर्थनों का र्भी यह सा� है षिक प्रत्यक्ष शब्द ज्ञान सामान्य का वाचक है। प्रत्यक्ष के दो रे्भदों की ओ� संकेत क�ते हुए प्रशस्तपाद यह कहते हैं षिक प्रत्यक्ष में षिव�य का आ8ोचनमात्र होता है। उन्होंने एक वैकल्लिल्पक परि�र्भा�ा यह र्भी दी है षिक आत्मा, मन, इजिन्र्द्रय औ� वस्तुओं के सधिन्नक� से उत्पन्न षिनद�� तर्था शब्द द्वा�ा अनुच्चारि�त अव्यपदेश्य जो ज्ञान हो, वह प्रत्यक्ष कह8ाता है। 'यह गो है'- ऐसा सुनने प� जो ज्ञान होता है, वह शब्द की अषितशयता है, चकु्ष की नहीं। चकु्ष उसमें गौण रूप से सहायक है। प्रशस्तपाद के इन कर्थनों में प्रत्यक्ष के सषिवकल्पक औ� षिनर्षिवंकल्पक इन दोनों र्भेदों के सामान्य औ� षिवशिशJ 8क्षणों का र्भी समावेश हो गया है।* Uी6� र्भी प्रत्यक्ष की 'अक्षमकं्ष प्रतीत्य या बुजिद्धरुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षं प्रमाणम्'- ऐसी परि�र्भा�ा क�ते हैं। अक्षशब्द में यहाँ ध्राण, �सना, चकु्ष, त्वक्, Uोत्र औ� मन इनका समाहा� होता है, कम�जिन्र्द्रयों का नहीं। प्रत्यक्ष ज्ञान केव8 र्द्रव्य, गुण, कम औ� सामान्य का ही होता है, षिवशे� औ� समवाय का नहीं।* महर्षि�ं कणाद औ� महर्षि�ं गौतम दोनों ने ही इजिन्र्द्रयार्थसधिन्नक� को प्रत्यक्ष प्रमाण माना, षिकन्तु उन्होंने इसके षिनर्षिवंकल्पक औ� सषिवकल्पक इन दो रे्भदों का उल्8ेख नहीं षिकया है। र्भाष्यका� प्रशस्तपाद ने दोनों का सांकेषितक उल्8ेख षिकया औ� उनकी परि�र्भा�ाए ँर्भी बताईं। यह ज्ञातव्य है षिक न्यायसूत्रका� द्वा�ा प्रयुक्त 'अव्यपदेश्यम्' औ 'व्यवसायात्मकम्' इन दो 8क्षण घटकों के आ6ा� प� वाचस्पषित धिमU ने प्रत्यक्ष के सषिवकल्पक औ� षिनर्षिवंकल्पक इन दो र्भेदों का स्पJ प्रवतन षिकया। बौद्धों के षिवचा� में षिनर्षिवंकल्पक ही प्रत्यक्ष है, जबषिक वैयाक�ण सषिवकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानते हैं। अदै्वत वेदान्त के अनुसा� षिनर्षिवंकल्पक शुद्ध सत का ग्रहण क�ता है औ� सषिवकल्पक गुण कम आटिद से युक्त सत् का। 6म�ाजाध्व�ीन्र्द्र का यह कर्थन है षिक षिनर्षिवंकल्पक संसगानवगाही ज्ञान है औ� सषिवकल्पक वैशिशJयावगाही ज्ञान* न्याय वैशेषि�क यह कहते हैं षिक प्रत्यक्ष के इन दोनों र्भेदों में आत्मा तो एक ही है, षिकन्तु अवस्थार्भेद के का�ण नामरे्भद है। षिनर्षिवंकल्पक प्रर्थम सोपान है औ� सषिवकल्पक षिद्वतीय।षिनर्षिवंकल्पक प्रत्यक्षप्रशस्तपाद के अनुसा� षिनर्षिवंकल्पक प्रत्यक्ष में पदार्थ के सामान्य औ� षिवशिशJ गुणों का साक्षात्का� तो होता है, षिकन्तु दोनों का रे्भद मा8ूम नहीं होता, इसमें पदार्थ के स्वरूपमात्र का आ8ोचन होता है। Uी6� के कर्थनानुसा� र्भी षिनर्षिवंकल्पक प्रत्यक्ष वह है जो स्वरूपमात्र के आ8ोचन से युक्त हो।* वैयाक�ण षिनर्षिवंकल्पक प्रत्यक्ष को प्रामात्तिणक नहीं मानते, क्योंषिक उनके मतानुसा� वह व्यावहारि�क षिक्रयाक8ाप के योग्य नहीं होता। षिकसी र्भी पदार्थ का बो6 उसके नाम के सार्थ ही होता है। षिबना र्भा�ा के कोई षिवचा� नहीं होता। षिकन्तु नैयाधियकों औ� वैशेषि�कों ने वैयाक�णों के इस मत का खण्डन क�ते हुए यह बताया षिक गूंगे को र्भी पदार्थF का बो6 होता है। यटिद रूप औ� नाम का तादात्म्य होता तो अने्ध को Uोत्र से रूप का ग्रहण हो जाता, प� ऐसा नहीं होता।सषिवकल्पक प्रत्यक्षसषिवकल्पक प्रत्यक्ष में सर्भी 6म स्पJ रूप से र्भाशिसत होते हैं। जैसे गो का षिनर्षिवंकल्पक ज्ञान होने के अनन्त� उसके वण आटिद का जो ज्ञान होता है, वह सषिवकल्पक कह8ाता है। बौद्ध सषिवकल्पक को ज्ञान नहीं मानते, क्योंषिक उनके मत में षिवकल्प कल्पनाजन्य औ� भ्रान्त होते हैं। Uी6� बौद्धों के मत का खण्डन क�ते हुए यह कहते हैं षिक कम्बुग्रीवाटिद रूप घट की षिव8क्षण प्रतीषित, पटाटिद पदार्थF की प्रतीषित से षिव8क्षण होती है, अत: सषिवकल्पक प्रत्यक्ष प्रामत्तिणक है। शिशवाटिदत्य आटिद उ��वत� आचाय र्भी प्रशस्तपाद के मत का अनुव�न क�ते हुए यह मानते हैं षिक सषिवकल्पक से पह8े षिनर्षिवंकल्पक की औ� षिनर्षिवंकल्पक के अनन्त� सषिवकल्पक की स�ा मानना युशिक्तसंगत है।* [संपाटिदत क�ें] अनुमान का स्वरूप औ� र्भेद'8ीनम् प�ोक्षम् अर्थम् गमयषित इषित लि8ंगम्' वु्यत्पत्ति� की दृधिJ से लि8ंग का अर्थ है प�ोक्ष ज्ञान। वैशेषि�क सूत्रका� कणाद यह कहते हैं षिक काय, का�ण, संयोगी, षिव�ो6ी, एवं समवायी आटिद के आ6ा� प�, सम्बद्ध लि8ंगी का जो ज्ञान होता है वह 8ैषि¶क अर्थात अनुमान है। कणाद ने अनुमान के 8क्षण में ही इस बात का षिनद�श षिकया षिक अनुमान का�ण, काया, संयोग, षिव�ो6 औ� समवाय इन पाँच प्रका� के हेतुओं (अपदेशों) में से, षिकसी एक से र्भी षिकया जा सकता है।* वैशेषि�कों के मन्तव्य का सा� यह है षिक अनधुिमषित का का�ण लि8ंगज्ञान है। षिकन्तु इस संदर्भ में अनं्नर्भट्ट का यह कर्थन र्भी ध्यान देने योग्य है षिक लि8ंगज्ञान को नहीं, अषिपतु लि8ंगप�ामश को अनधुिमषित का का�ण माना जाना चाषिहए। कणाद ने अनुमान के रे्भदों का षिववेचन नहीं षिकया, षिकन्तु प्रशस्तपाद ने यह बताया षिक अनुमान के दृJ औ� सामान्यतोदृJ ये दो रे्भद हैं। उ��पक्षी वैशेषि�कों ने प्राय: प्रशस्तपाद का अनुगमन षिकया।

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दृJ अनुमानज्ञात (प्रशिसद्ध) औ� साध्य में जाषित का अत्यन्त रे्भद न होने प� अर्थात हेतु के सार्थ पह8े से ही ज्ञात �हने वा8े साध्य, औ� जिजस साध्य की शिसजिद्ध की जाती हो, उसमें सजातीयता होने प� जो अनुमान षिकया जाता है, वह दृJ अनुमान है। जैसे पह8े षिकसी नग� ल्लिस्थत गाय में सास्ना को देखने के बाद अन्यत्र वन आटिद में सास्नावान प्राणी को देखा तो अनुमान षिकया षिक वह गो है। जो वस्तु पह8े लि8ंग के सार्थ देखी जाती है वह प्रशिसद्ध कह8ाती है औ� जो बाद में अनुमेय के रूप में देखी जाती है, वह साध्य कह8ाती है। यहाँ प्रशिसद्ध (ज्ञात) गो औ� साध्य गो में जाषित का रे्भद नहीं है। अत: यह दृJ अनुमान है।सामान्यतोदृJ अनुमानप्रशिसद्ध (ज्ञात) औ� साध्य में अत्यन्त जाषितर्भेद होने प� र्भी यटिद उनमें षिकसी सामान्य की अनुवृत्ति� होती हो तो उस अनुवृत्ति� से जो अनुमान षिकया जाता है, वह सामान्यतोदृJ कह8ाता है। जैसे कृ�क, व्यापा�ी, �ाजपुरु� आटिद अपन-ेअपने कायF में प्रवृ� होक� अपने अत्तिर्भप्रेत d8 को प्राप्त क�ते हैं। इससे यह षिवटिदत होता है षिक प्रवृत्ति�, d8वती होती है औ� लि8ंगसामान्य (d8वत्त्व) का स्वार्भाषिवक सम्बन्ध है। कोई वणाUमी व्यशिक्त सन्ध्यावन्दन प्रर्भृषित षिकसी 6मप�क काय में प्रवृ� है तो उससे यह अनुमान 8गाया जाता है षिक इस प्रवृत्ति� का स्वगप्राप्तिप्त जैसा कोई d8 है। क्योंषिक प्रवृत्ति� d8वती होती है। इस प्रका� हेतुसामान्य औ� d8सामान्य की व्याप्तिप्त के आ6ा� प� जो अनुमान षिकया जाता है वह सामान्यतोदृJ कह8ाता है। [संपाटिदत क�ें] मीमांसकाटिद प्रवर्षितंत अन्य प्रमाणों की अन्तरू्भततानैयाधियकों ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान औ� शब्द ये चा� प्रमाण माने हैं। षिकन्तु वैशेषि�कों ने शब्द औ� उपमान को पृर्थक्-पृर्थक् प्रमाण नहीं माना। उन्होंने उपमान को शब्द में तर्था शब्द को अनुमान में अन्तरू्भत माना औ� इस प्रका� केव8 प्रत्यक्ष औ� अनुमान ये दो प्रमाण स्वीकृत षिकये। मीमांसकप्रवर्षितंत अनुप8त्थिब्ध, अर्थापत्ति� तर्था पौ�ात्तिणकों आटिद द्वा�ा प्रवर्षितंत सम्भव, ऐषितहाशिसक जैसे प्रमाणों का तो न्याय के आचायF ने ही खण्डन क� टिदया र्था। अत: उनके प्रमाणत्व के षिन�सन की कोई षिवशे� आवश्यकता वैशेषि�कों को प्रतीत नहीं हुई। षिd� र्भी Uी6� ने न्यायकन्द8ी में इनका युशिक्तपूवक खण्डन षिकया है। अन्नंर्भट्ट ने तत्त्व मीमांसा की दृधिJ से वैशेषि�क नय का अनुगमन क�ते हुए र्भी ज्ञान मीमांसा में न्याय का अनुगमन षिकया औ� चा� प्रमाण माने। षिकन्तु अन्नंर्भट्ट के वैशेषि�क नय की प्रमाणसम्बन्धी इस मान्यता प� कोई षिवशे� प्रर्भाव नहीं पड़ा षिक प्रमाण दो ही हैं प्रत्यक्ष औ� अनुमान। [संपाटिदत क�ें] सा� औ� समाहा�नैयाधियकों के षिवप�ीत प्रमाण को एक स्वतन्त्र पदार्थ न मानक� वैशषेि�कों ने उसको बुजिद्ध नामक गुण के अन्तगत समाषिवJ षिकया। प्रशस्तपाद ने बजुिद्ध के दो रे्भद बताये- षिवद्या औ� अषिवद्या। षिवद्या (प्रमा) के अंतगत प्रमाण औ� अषिवद्या (अप्रमा) के अन्तगत संशय, षिवपयय, अनध्यवसाय तर्था स्वप्न का परि�गणन षिकया। न्यायसूत्र में परि�गत्तिणत तक , संशय आटिद का र्भी प्राय: अनुमान में अन्तर्भाव क�के वैशेषि�कों ने उनका पृर्थक् षिवश्ले�ण नहीं षिकया। अप्रशिसद्ध, असत् औ� संटिदग्6 इन तीन का ही हेत्वार्भासों के रूप में परि�गणन षिकया। इस प्रका� ज्ञानमीमांसासंबन्धी कषितपय अन्य संदर्भF में न्याय-वैशेषि�क मतों में त्तिर्भन्नता है, षिd� र्भी ज्ञानमीमांसा के संदर्भ में उनका प्रमुख पार्थक्य प्रमाणों की संख्या प� ही षिनर्भ� माना जाता है।* आचा�-मीमांसाअनुक्रम[छुपा]1 आचा� - मीमांसा 2 वैशेषि�क आचा� संषिहता के घटक 3 6मा6मषिववेक 4 ईश्व� 5 मोक्ष 6 सम्बंधि6त लि8ंक

प्राय: सर्भी दशनों के आक� ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसा औ� तत्त्व मीमांसा के सार्थ-सार्थ षिकसी-न-षिकसी रूप में आचा� का षिववेचन र्भी अन्तर्षिनंषिहत �हता है। 6म, अर्थ, काम, मोक्ष के सम्यक षिववेक के सार्थ जीवन में सन्तुशि8त काय क�ना ही आचा� है। यही का�ण है षिक प्रत्येक षिववेकशी8 व्यशिक्त कर्भी-न-कर्भी यह सोचने के शि8ए बाध्य हो जाता है षिक जीवन क्या है? संसा� क्या है? संसा� से उसका संयोग या षिवयोग कैसे औ� क्यों होता है? क्या कोई ऐसी शशिक्त है, जो उसका षिनयन्त्रण क� �ही है? क्या मनुष्य जो कुछ है उसमें वह कोई परि�वतन 8ा सकता है? व्यधिJ औ� समधिJ में क्या अन्त� या सम्बन्ध है? एक व्यशिक्त का अन्य व्यशिक्तयों या जगत के प्रषित क्या कतव्य है? ये औ� कई अन्य ऐसे प्रश्न हैं जो एक ओ� �हस्यमयी पा�8ौषिककता को स्पश क�ते हैं। प्रका�ान्त� से यह कहा जा सकता है षिक जो प्रयत्न-Uृंख8ा सार्थक औ� सम्यक् उदे्दश्य की पूर्षितं के शि8ए दृJ को अदृJ के सार्थ या दृJ को दृJ के सार्थ जोड़ती है, वह 8ौषिकक के्षत्र में आचा� कह8ाती है। सर्भी र्भा�तीय आत्थिस्तक दशनों में आचा� नहीं षिकया। अत: वैशेषि�क ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो कषितपय संकेत उप8ब्ध होते हैं, उनके आ6ा� प� ही यह कहा जा सकता है षिक वैशेषि�कों का आचा�प�क दृधिJकोण र्भी वेदमू8क ही है। इस 6ा�णा की पुधिJ महर्षि�ं कणाद के इन कर्थनों से हो जाती है षिक-'8ौषिकक अभ्युदय औ� पा�8ौषिकक षिन:Uेयसव तत्त्वज्ञानजन्य है, तत्त्वज्ञान 6मजन्य है, औ� 6म का प्रषितपादक होने औ� ईश्व�ोक्त होने के का�ण वेद ही 6म का प्रमाण है।*' [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क आचा� संषिहता के घटक

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वैशेषि�क की आचा�प�क मान्यताओं के तीन प्रमुख आ6ा� हैं। वैशेषि�कों की आचा�प�क षिवचा�6ा�ा का केन्र्द्रषिबन्दु यह मान्यता है षिक सुख का त्याग मोक्ष माग की एक प्रमुख इषित कतव्यता है। सुख र्भी अन्तत: दु:ख रूप ही है औ� दु:ख से छुटका�ा ही मोक्ष है। [संपाटिदत क�ें] 6मा6मषिववेकवैशेषि�क दशन के पह8े चा� सूत्रों से ही इस बात की र्भी पुधिJ होती है षिक वैशेषि�क की मान्यताओं के सार्थ 6म का अषिनवाय सम्बन्ध है। गुणों की गणना में र्भी 6म औ� अ6म के समावेश से यह स्पJ होता है षिक जीवात्मा 6म औ� अ6म आटिद षिवशे� गुणों से युक्त है। अन्नंर्भट्ट के अनुसा� षिवषिहत कमF से जन्य अदृJ 6म औ� षिनषि�द्ध कमF से जन्य अदृJ अ6म कह8ाता है।* कषितपय षिवद्वानों का यह कर्थन है षिक 6म औ� अ6म शब्द सत्कम या असत्कम के नहीं, अषिपतु पुण्य औ� पाप के बो6क हैं, जो सत्कम औ� असत्कम के d8 हैं।*' शब्द को पृर्थक् प्रमाण न मानते हुए र्भी वैशेषि�कों ने 6म के षिव�य में वेद को ही प्रमाण माना है। वैशेषि�क की सा6ना-पद्धषित क्या र्थी? इस संदर्भ में कषितपय षिवद्वानों का यह मत है षिक वह प्राय: उन दशनों से धिम8ती-ज8ुती है जो आत्मसंयम या सत्त्वशुजिद्ध को आचा� की प्रमुख षिवधि6 मानते हैं। �ाग-दे्व�, जिजस प्रवृत्ति� को जन्म देते हैं, वह दु:ख औ� सुख का का�ण बनक� षिd� �ाग-दे्व� को जन्म देती है औ� इस प्रका� से एक दुश्चक्र सा च8ता �हता है। उसको यम, षिनयम आटिद �ोक 8ें तो जीवन अपने सव�च्च 8क्ष्य (मुशिक्त) की प्राप्तिप्त क�वाने वा8े माग का अनुस�ण क� सकता है। वैशेषि�कों की दृधिJ में सुख औ� दु:ख एक दूस�े से इतने जुडे़ हुए हैं षिक दु:ख से बचने के शि8ए सुख का र्भी त्याग आवश्यक है। सुख की त�ह दु:ख र्भी आत्मा का एक आगन्तुक गुण है। उसके षिवनाश से आत्मा प� कोई प्रर्भाव नहीं पड़ता। मोक्ष की ल्लिस्थषित में आत्मा का दु:ख-सुखसषिहत सर्भी आगन्तुक गुणों से छुटका�ा हो जाता है। इस संदर्भ में यह स्म�णीय है षिक महात्मा बुद्ध का उपदेश यह र्था षिक सुख, दु:ख या स्वार्थप�ता से छुटका�ा तब तक सम्भव नहीं है, जब तक आत्मा की षिनत्य स�ा में षिवश्वास क�ना नहीं छूट जाता। बौद्धों के इस शिसद्धान्त के षिवप�ीत वैशेषि�क आत्मा को षिनत्य मानते है, षिकन्तु उनकी यह र्भी मान्यता है षिक सुख-दु:ख से छुटका�ा औ� जीवन का अप्तिन्तम ध्येय (मोक्ष) तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक यह न मा8ूम हो जाय षिक आत्मा सर्भी अनुर्भवों से प�े है।* [संपाटिदत क�ें] ईश्व�मोक्ष का सम्बन्ध जीवात्मा से है औ� जीवात्मा का प�मात्मा या ईश्व� से है। वैशेषि�कों के अनुसा� आत्मा के दो प्रका� हैं- जीवात्मा औ� प�मात्मा। प�मात्मा को ही ईश्व� कहा जाता है। वैशेषि�कसूत्र में ईश्व� का उल्8ेख नहीं है, षिकन्तु 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्'। इस सूत्र में ईश्व� की झ8क धिम8ती है। अत: उ��वत� र्भाष्यका�ों ने यह कहा षिक पृथ्वी, ज8, अखिग्न, वायु आटिद के षिनत्य प�माणुओं से ईश्व� सृधिJ का षिनमाण ब्रह्माण्डकु8ा8 के रूप में कुम्भका� की त�ह क�ता है। वह सृधिJ का षिनधिम� का�ण है, उपादान का�ण नहीं। वह मकड़ी की त�ह अपने र्भीत� से नहीं क�ता, अषिपतु प�माणुओं से सृधिJ की �चना क�ता है। प�माणु अचेतन हैं, अत: वे स्तन्त्रतया षिवश्व को 6ा�ण क�ने में असमर्थ हैं। जीवात्मा में कम क�ने की जो शशिक्त �हती है, वह र्भी उसे ईश्व� से ही प्राप्त होती है। ईश्व� का कोई श�ी� नहीं। षिकन्तु श�ी� न होने प� र्भी वह इच्छा, ज्ञान औ� प्रयत्न इन तीनों गुणों से युक्त है। वह सवज्ञ, सवशशिक्तमान तर्था कमd8 का दाता है। काय क�ने में जीव स्वतंत्र है, प� उनका d8 ईश्व� के हार्थ में ही है। वात्स्यायन के अनुसा� षिवशिशJ आत्मा ही ईश्व� है। जीवात्मा में र्भी यह गुण हैं, प� वे अषिनत्य हैं जबषिक ईश्व� में षिनत्य हैं। उदयनाचाय ने ईश्व� की शिसजिद्ध के शि8ये षिनम्नाशि8खिखत आठ तक प्रस्तुत षिकये हैं- जगत् काय है, उसका कोई षिनधिम� का�ण होना चाषिहए, वह का�ण ईश्व� हैं, ईश्व� के षिबना अदृJ प�माणुओं में गषित का संचा� नहीं हो सकता, जगत् (प�माणुओं) का 6ा�क र्भी कोई होना चाषिहए, वह ईश्व� है, पदों में अर्थ को व्यक्त क�ने की शशिक्त र्भी ईश्व� से ही आती है, वेदों को देखक� उनके प्रवक्ता ईश्व� का अत्थिस्तत्व प्रमात्तिणत होता है, Uुषित ईश्व� के अत्थिस्तत्व को शिसद्ध क�ती है, वेदवाक्य पौरु�ेय हैं औ� वेदकता पुरु�षिवशे� ही ईश्व� है, षिद्वत्वाटिद संख्या के संदर्भ में अपेक्षाबुजिद्ध का आUय र्भी परि�शे�ानुमान से ईश्व� ही शिसद्ध होता है।* चावाक ईश्व� को नहीं मानते। बौद्ध औ� जैन र्भी बुद्ध औ� अहत के प्रषित ईश्व� का व्यवहा� क�ते हुए र्भी ईश्व� को स्वीका� नहीं क�ते। सांख्य, मीमांसक औ� वैयाक�ण र्भी ईश्व� को नहीं, अषिपतु पुरु�, कम औ� प�ावाणी को मानते हैं। न्याय, वैशेषि�क, योग तर्था वेदान्त में ईश्व� का अत्थिस्तत्व स्वीका� षिकया गया है, षिd� र्भी इनके ईश्व�-षिववेचन में र्भी पयाप्त मतर्भेद टिदखाई देते हैं। ईश्व� के अत्थिस्तत्व के संदर्भ में चावाक आटिद ने जो षिवप्रषितपत्ति�याँ प्रस्तुत की हैं, उनका र्भी उदयनाचाय ने युशिक्तपूवक खण्डन क�के यह शिसद्ध षिकया षिक ईश्व� का अत्थिस्तत्व है। वेदान्त औ� वैशेषि�क के ईश्व�षिव�यक शिचन्तन में यह अन्त� है षिक वेदान्त में ईश्व� शब्दप्रमाणगम्य है, जबषिक वैशेषि�क उसको अनुमानप्रमाणगम्य मानते हैं।

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[संपाटिदत क�ें] मोक्षवैशेषि�क दशन के अनुसा� जीवात्मा के दु:खों का पूण षिन�ो6 ही मुशिक्त है। वैशेषि�कों ने र्भी आत्मा के दो रे्भद माने हैं- जीवात्मा औ� प�मात्मा। जीवात्मा के गुण अषिनत्य औ� प�मात्मा के षिनत्य होते हैं। अक्षपाद गौतम के अनुसा� दु:खों की अत्यन्त षिनवृत्ति� ही मोक्ष (अपवग) है।* जन्म का षिवनाश औ� पुनजन्म का न होना ही आत्यप्तिन्तक दु:खषिनवृत्ति� है। प्रशस्तपाद ने यह बताया षिक पूव श�ी� का कम के क्षय से नाश हो जाता है औ� 6मा6म रूप का�ण के न �हने से आगे षिकसी श�ी� की उत्पत्ति� नहीं होती, तो आत्मा की यही अवस्था मोक्ष कह8ाती है।* न्याय8ी8ावतीका� वल्8र्भाचाय ने न्यायसूत्रका� गौतम के कर्थन को 8गर्भग तद्वत् अपनाया है।* Uी6� ने र्भी इस संदर्भ में यह कहा है षिक अषिहत की आत्यप्तिन्तक षिनवृत्ति� ही मोक्ष है। Uी6� ने यह र्भी स्पJ षिकया षिक मोक्षावस्था में आत्मा अश�ी�ी होता है, उस अवस्था में आत्मा को सुख औ� दु:ख स्पश नहीं क�ते, क्योंषिक मोक्षावस्था में सुख-दु:ख का सवर्था अर्भाव होता है। अषिहत की षिनवृत्ति� जीवात्मा के षिवशे� गुणों के उचे्छद से होती है। षिवशे� गुणों के उचे्छद के सार्थ ही श�ी� का र्भी नाश होता है। Uी6� मोक्षावस्था में आत्मा को उदासीन मानते हैं। उनके अनुसा� आत्मा को आनन्दस्वरूप नहीं माना जा सकता क्योंषिक यटिद ऐसा होता तो संसा�ावस्था में र्भी आनन्द की सतत अनुरू्भषित होती। इस प्रका� आत्मा में षिनत्य सुख नाम का कोई गुण नहीं टिदखाई देता। यटिद मोक्षावस्था में सुख की अवल्लिस्थषित मानी जायेगी तो �ाग का अत्थिस्तत्व र्भी मानना होगा औ� यटिद �ाग होता तो दे्व� र्भी होगा ही।* सूत्रका� कणाद पदार्थF के सा6म्य-वै6म्य रूप तत्त्वज्ञान को षिन:Uेयस (मोक्ष) का का�ण बताते हैं। Uी6� 6म को षिन:Uेयस का सा6न मानते हैं औ� तत्त्वज्ञान को 6मज्ञान का का�ण। इस प्रका� तत्त्वज्ञान, प�म्प�ा से मोक्ष का सा6न है।* मोक्षज्ञान कम के समुच्चय से होता है। कम तीन प्रका� के होते हैं- काम्य, षिनत्य औ� नैधिमत्ति�क। उनमें से काम्य कम का त्याग आवश्यक है। षिनत्य-नैधिमत्ति�क कमF के द्वा�ा प्रत्यवायों का क्षय होता है औ� षिवम8 ज्ञान उत्पन्न होता है। अभ्यास द्वा�ा षिवम8 ज्ञान के परि�पक्व हो जाने प� व्यशिक्त को मोक्ष प्राप्त होता है। टिदनक�ीका� ने यह मत व्यक्त षिकया है षिक कुछ नव्य नैयाधियक यह मानते हैं षिक दु:खध्वंस से नहीं, अषिपतु दु:ख के का�णरू्भत दुरि�त का ध्वंस होने से मुशिक्त होती है। नैयाधियकों के अनुसा� सुख र्भी एक प्रका� का दु:ख ही है, इसशि8ए इक्कीस प्रका� के दु:खों में सुख का र्भी परि�णगन षिकया गया है। वैशेषि�क दशन के मोक्ष सम्बन्धी शिचन्तन का षिनरूपण शंक�धिमU ने इस प्रका� षिकया है षिक र्भोग से पूव�त्पन्न 6म-अ6म का क्षय हो जाता है। षिनवृ�दो� व्यशिक्त द्वा�ा 6मा6म का पुन: संचय न क�ने के का�ण उसको दूस�ा श�ी� नहीं ग्रहण क�ना पड़ता। इस प्रका� पूव श�ी� से जीवात्मा के संयोग का जो अर्भाव होता है, वही मुशिक्त है औ� वही वैशेषि�कों की आचा�प�क षिक्रयाओं का अप्तिन्तम रूप से अवाप्तव्य 8क्ष्य है।* वैशेषि�क दशन का वैशिशष्ट्यअनुक्रम[छुपा]1 वैशेषि�क दशन का वैशिशष्ट्य 2 वैशेषि�क दशन का प्राचीनत्व 3 न्याय - वैशेषि�क में वै�म्य 4 न्याय - वैशेषि�क से साम्य 5 वैशेषि�कसम्मत प�माणुवाद 6 षिवशे� का अन्त्यत्व 7 सम्बंधि6त लि8ंक

वैशेषि�क शिसद्धान्तों का अषितप्राचीनत्व प्राय: सवस्वीकृत है। महर्षि�ं कणाद द्वा�ा �शिचत वैशेषि�कसूत्र में बौद्धों के शिसद्धान्तों की समीक्षा न होने के का�ण यह र्भी स्वीका� षिकया जा सकता है षिक कणाद बुद्ध के पूववत� हैं। जो षिवद्वान कणाद को बुद्ध का पूववत� नहीं मानते, उनमें से अधि6कत� इतना तो मानते ही हैं षिक कणाद दूस�ी शती ईस्वी पूव से पह8े हुए होंगे। संके्षपत: सांख्यसूत्रका� कषिप8 औ� ब्रह्मसूत्रका� व्यास के अषितरि�क्त अन्य सर्भी आत्थिस्तक दशनों के प्रव�कों में से कणाद सवाधि6क पूववत� हैं। अत: वैशेषि�क दशन को सांख्य औ� वेदान्त के अषितरि�क्त अन्य सर्भी र्भा�तीय दशनों का पूववत� मानते हुए यह कहा जा सकता है षिक केव8 दाशषिनक शिचन्तन की दृधिJ से ही नहीं, अषिपतु अषितप्राचीन होने के का�ण र्भी इस दशन का अपना षिवशिशJ महत्व है। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन का प्राचीनत्ववैशेषि�क सम्मत तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा औ� आचा� मीमांसा से यह स्पJ हो जाता है षिक इस दशन के प्रवतकों औ� उ��वत� शिचन्तकों ने बड़ी गह�ाई औ� सूक्ष्मता से अपने मन्तव्यों का आख्यान षिकया है। वैशेषि�क का पदार्थ-षिववेचन अत्यन्त प्राचीन होने प� र्भी आ6ुषिनक षिवज्ञान के सार्थ पयाप्त सामंजस्य �खता है। अत: षिनष्क� रूप से यह कहा जा सकता है षिक वैशेषि�क एक ऐसा दशन है, जिजसमें अध्यात्मोन्मुख र्भौषितकवाद का षिवश्ले�ण षिकया गया है। इस

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संदर्भ में सवाधि6क ध्यान देने योग्य तथ्य यह है षिक वैशेषि�कों ने समता या एकात्मकता या सा6म्य या समाधिJ (यूषिनटिट) को नहीं, अषिपतु षिव�मता या षिवर्भज्यता या वै6म्य या व्यधिJ (डाइवर्चिसंटी) को जगत का आ6ा� माना है। र्भा�तीय दशनों के आत्थिस्तक औ� नात्थिस्तक रे्भद से दो वग माने जाते हैं। आत्थिस्तक दशनों में न्याय, वैशेषि�क, सांख्य, योग, पूवमीमांसा औ� वेदान्त का तर्था नात्थिस्तक वग में चावाक, बौद्ध दशन औ� जैन दशनों का परि�गणन षिकया जाता है। न्याय औ� वैशेषि�क समानतन्त्र माने जाते हैं। कौटिटल्य के अर्थशास्त्र में वैशेषि�क का उल्8ेख नहीं है। अत: यह संर्भव है षिक कौटिटल्य के समय तक न्याय औ� वैशेषि�क इन दोनों समानतन्त्र दशनों का उल्8ेख आन्वीत्तिक्षकी के अन्तगत ही क� टिदया हो। यद्यषिप न्याय औ� वैशेषि�क को एक दूस�े में अन्तरू्भत क�ने या धिम8ाने का तर्था एक दूस�े से उनको पृर्थक् क�ने का र्भी समय-समय प� प्रयास षिकया जाता �हा, षिd� र्भी यह एक महत्वपूण बात है षिक दोनों का अत्थिस्तत्व पृर्थक् र्भी बना �हा औ� दोनों में पयाप्त सीमा तक ऐक्य र्भी �हा। इस प्रका� न्याय औ� वैशेषि�क में एक सार्थ ही उप8ब्ध ऐक्य औ� पार्थक्य र्भी इन दोनों दशनों के वैशिशष्ट्य का आ6ा� है। [संपाटिदत क�ें] न्याय-वैशेषि�क में वै�म्यगौतम ने सो8ह पदार्थF के तत्त्वज्ञान से षिन:Uेयस की प्राप्तिप्त का उल्8ेख षिकया, जबषिक कणाद छ: पदार्थF के सा6म्य-वै6म्यप�क तत्त्वज्ञान को षिन:Uेयस का सा6न बताते हैं। वैशेषि�क संसा� का तत्त्वमीमांसीय दृधिJकोण से आक8न क�ते हैं, जबषिक नैयाधियक ज्ञानमीमांसीय दृधिJकोण से न्याय औ� वैशेषि�क दोनों में समवाय सम्बन्ध को स्वीका� क�ते हैं षिकन्तु नैयाधियक उसको प्रत्यक्षगम्य मानते हैं, जबषिक वैशेषि�कों के अनुसा� यह प्रत्यक्षगम्य नहीं है। नैयाधियक षिपठ�पाकवादी हैं औ� वैशेषि�क पी8ुपाकवादी। वैशेषि�कों के अनुसा� पाक घट के प�माणुओं में होता है, षिकन्तु नैयाधियक यह मानते हैं षिक पाक षिपठ� में ही होता है। न्याय का प्रार्थधिमक उदे्दश्य इस तथ्य का षिवश्ले�ण क�ना नहीं है 'वस्तुए ँस्वत: क्या हैं?' अषिपतु यह प्रषितपाटिदत क�ना है षिक वस्तुओं के स्वरूप का षिन6ा�ण क�ना है। इसीशि8ए न्याय को प्रमाणशास्त्र औ� वैशेषि�क को पदार्थशास्त्र र्भी कहा जाता है। प्रमाणों की संख्या की दृधिJ से र्भी दोनों में अन्त� है। न्याय में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान औ� शब्द ये चा� प्रमाण माने गये हैं, जबषिक वैशेषि�क प्रत्यक्ष औ� अनुमान इन दो को ही स्वीका� क�ते हैं औ� उपमान का शब्द में तर्था शब्द का अनुमान में अन्तर्भाव क�ते हैं। नैयाधियकों के अनुसा� पञ्चरूपोपपन्न लि8ंग ही अनुधिमषित का का�ण होता है। न्याय में हेतु के पाँच 8क्षण इस प्रका� बताये गये हैं- पक्षसत्त्व सपक्षसत्त्व षिवपक्षासत्त्व अबाधि6त औ� असत्प्रषितपक्ष। इन 8क्षणों के अर्भाव में हेतु क्रमश: अशिसद्ध, षिवरुद्ध, अनैकाप्तिन्तक, बाधि6त औ� सत्प्रषितपक्ष नामक दो�ों से ग्रस्त होने के का�ण हेत्वार्भास कह8ाते हैं। नैयाधियकों के मत के षिवप�ीत हेतु में पक्षसत्त्व सपक्षसत्त्व औ� षिवपक्षासत्त्व इन तीन 8क्षणों का होना ही पयाप्त है औ� इन तीनों के अर्भाव में क्रमश: षिवरुद्ध, अशिसद्ध औ� संटिदग्6 ये तीन ही हेत्वा र्भास माने जा सकते हैं। [संपाटिदत क�ें] न्याय-वैशेषि�क से साम्यन्याय-वैशेषि�क का प्रमुख समान अभ्युगम यह है षिक ज्ञान स्वरूपत: ऐसी वस्तु की ओ� संकेत क�ता है जो उससे बाह� औ� उससे स्वतन्त्र हैं।* दोनों दशन यह मानते हैं षिक यद्यषिप वस्तुए ँप्राय: अनेक षिनजी 8क्षणों के का�ण एक दूस�ी से त्तिर्भन्न हैं। षिकन्तु कषितपय सामान्य 6मF के आ6ा� प� उनको कुछ वगF में वग�कृत र्भी षिकया जा सकता है। षिन:Uेयस की प्राप्तिप्त को न्याय औ� वैशेषि�क दोनों दशनों में जीवन का उदे्दश्य माना गया है तर्था यह बताया गया है षिक तत्त्वज्ञान से अपवग होता है औ� धिमथ्याज्ञान से संसा� में आवागमन बना �हता है। वैशेषि�क सूत्र औ� न्याय सूत्र में पदार्थF की गणना के संबन्ध में जो अन्त� टिदखाई देता है, वह वात्स्यायन आटिद र्भाष्यका�ों की इन उशिक्तयों से समाषिहत हो जाता है षिक- 'अस्त्यन्यदषिप र्द्रव्यगुणकमसामान्यषिवशे�-समवाया: प्रमेयम्।*' न्याय औ� वैशेषि�क दोनों ही वस्तुवादी औ� दु:खवादी दशन है। षिवश्वनार्थ पंचानन औ� अन्नंर्भट्ट के ग्रन्थों में जो संहषितवादी प्रवृत्ति� 16 वीं शती के आसपास च�म सीमा प� पहुँची, उसके बीज वात्स्यायन के न्यायर्भाष्य में र्भी उप8ब्ध हो जाते हैं। वैसे इनके

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समन्वय का षिवधि6वत प्रामात्तिणक षिनरूपण दसवीं शती में शिशवाटिदत्य द्वा�ा �शिचत सप्तपदार्थ� में ही सवप्रर्थम उप8ब्ध होता है। न्याय औ� वैशेषि�क का इस षिवश्वास के आ6ा� प� र्भी साम्य है षिक जिजस वस्तु का अत्थिस्तत्व है, वह ज्ञेय है। यद्यषिप ज्ञान र्भी ज्ञेय है, षिd� र्भी ज्ञान प्रमुख रूप से वस्तुषिव�यक होता है। बाह्यजगत की वास्तषिवकता स्वत: शिसद्ध है तर्थाषिप उस तक पहुँचने के शि8ये ज्ञान एक अषिनवाय सा6न है। सामान्यत: यह माना जाता है षिक वस्तुओं की सं�चना में एक से अधि6क रू्भतर्द्रव्य समाषिहत होते हैं जैसे षिक वेदान्त में श�ी� को पांचर्भौषितक माना गया है, षिकन्तु न्याय-वैशेषि�क दोनों के अनुसा� मानव श�ी� केव8 पृथ्वी के प�माणुओं से ही षिनर्मिमंत है, ज8 आटिद के प�माणु र्भी उसमें �हते हैं, प� वे पृथ्वी के संयोग के का�ण आनु�ंषिगक या गौण रूप में �हते हैं, प्रमुख रूप से नहीं। यह ज्ञातव्य है षिक न्याय-वैशेषि�कों का यह दृधिJकोण अन्य दशनों द्वा�ा स्वीका� नहीं हुआ, क्योंषिक ज8 आटिद के तत्त्व तो श�ी� में साक्षात ही टिदखाई देते हैं। न्याय औ� वैशेषि�क दोनों ही यह मानते है षिक उत्पत्ति� के पूव वस्तुओं का कोई अत्थिस्तत्व नहीं होता। इस शिसद्धान्त को आ�म्भवाद या असत्कायवाद कहा जाता है। न्याय-वैशेषि�क की तत्त्वमीमांसा का सा� यह है षिक ब्रह्माण्ड दो प्रका� का है- मू8 जगत (प�माणुरूप) औ� वु्यत्पन्न जगत (कायरूप)। मू8 जगत प�माणुरूप, असृJ, षिनत्य औ� अषिवनाशी है, मू8 जगत षिवत्तिर्भन्न प्रका� के प�माणुओं, आत्मा आटिद र्द्रव्यों औ� सामान्यों से बना है। व्युत्पन्न (कायरूप) जगत हमा�े अनुर्भव का षिव�य है। यह अपने अत्थिस्तत्व के शि8ये मू8 जगत प� आ6ारि�त है औ� अषिनत्य तर्था षिवनाशशी8 है। व्युत्पन्न जगत की सूक्ष्मतम दृश्य इकाई अणु या प�माणु कह8ाती है। यद्यषिप आ�म्भवादी यानी त्र्यणुक से सृJया�म्भ की संकल्पना न्याय औ� वैशेषि�क में समान रूप से प्रवर्षितंत हुई, षिकन्तु इसका पल्8वन वैशेषि�क में अधि6क हुआ। अत: प�माणुवाद प्रमुख रूप से वैशेषि�क शिसद्धान्त के रूप में प्रख्यात हुआ। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�कसम्मत प�माणुवादवैशेषि�क की तत्त्व मीमांसा में प�माणुवाद का अत्यधि6क महत्त्व है। बत्थिल्क यह मानना र्भी अनुपयुक्त न होगा षिक प�माणु ही वैशेषि�क का प्राण है। षिकन्तु र्भगवत्पाद शंक�ाचाय प्ररृ्भषित शिचन्तकों ने वैशेषि�क के प�माणुवाद प� यह आके्षप षिकया है षिक यह वेदषिवषिहत नहीं है अत: अप्रामात्तिणक है। यद्यषिप उदयनाचाय ने इस आक्षेप का उ�� यह कहते हुए टिदया षिक 'षिवश्वतश्चकु्ष:'- इस वैटिदक मन्त्र में पतत्र शब्द प�माणु का वाचक है, अत: प�माणु का उल्8ेख वेद में है। षिकन्तु स्पJ है षिक यह एक ल्लिक्8J कल्पना है। वैसे इसका एक समुशिचत उ�� यह है षिक यह मत वेद षिवरुद्ध र्भी तो नहीं है। सार्थ ही यह र्भी कहा जा सकता है षिक वैशेषि�क तो शब्द को पृर्थक् प्रमाण र्भी नहीं मानते। उनका कहना तो यह है षिक प�माणु षिनत्य एवं अतीजिन्र्द्रय तत्त्व है। उसकी शिसजिद्ध अनुमान से होती है।* प�माणु के स्वरूप प� गम्भी� चचा हुई है। शिशवाटिदत्य के अनुसा�, षिन�वयव षिक्रयावान् तत्त्व प�माणु है।* प�माणु अतीजिन्र्द्रय, षिनत्य तर्था अषिवर्भाज्य है। वह र्भौषितक जगत का सवाधि6क सूक्ष्म उपादान का�ण हैं। अन्त्य षिवशे� के का�ण प�माणु एक-दूस�े से पृर्थक् �हते हैं। प�माणु चा� प्रका� के होते हैं- पार्चिर्थवं, ज8ीय, तेजस औ� वायवीय। दो प�माणुओं के संयोग से द्वयणुक औ� तीन द्वयणुकों से संयोग से त्र्यणुक बनता है। महत परि�माण (दृश्यमान आका�) केव8 त्र्यणुक में पाया जाता है, द्वयणुक में नहीं। षिवश्वनार्थ ने यह बताया षिक द्वयणुक के परि�माण के प्रषित प�माणुगत षिद्वत्वसंख्या औ� त्रस�ेणु के परि�माण के प्रषित द्वयणुकगत षित्रत्वसंख्या असमवाधियका�ण है। �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण का यह षिवचा� है षिक त्र्यणुक ही सूक्ष्मतम अषिवर्भाज्य तत्त्व है। अत: द्वयणुक औ� अणु को मानने की आवश्यकता ही नहीं है। षिकन्तु वेणीद� ने पदार्थ-मण्डन नामक ग्रन्थ में �घुनार्थ के मत का खण्डन क�ते हुए यह कहा षिक त्र्यणुक के तो अवयव होते हैं, अत: उसको अप्तिन्तम र्द्रव्य नहीं माना जा सकता। इस प्रका� संके्षपत: यह कहा जा सकता है षिक वैशेषि�क नय के अनुसा� प�माणु ही र्भौषितक जगत के मू8 उपादान का�ण हैं। अत: मे�ी दृधिJ में वैशेषि�कों का प�माणुवाद समाद�णीय औ� समुशिचत है। [संपाटिदत क�ें] षिवशे� का अन्त्यत्वपदार्थ के रूप में षिवशे� के स्वरूप का षिवश्ले�ण तत्त्व मीमांसा प्रक�ण में षिकया जा चुका है। उसका सा� यह है षिक वस्तुओं का रे्भद उनके अवयवों के आ6ा� प� षिकया जाता है। षिकन्तु प�माणु का कोई अवयव नहीं होता। ऐसी ल्लिस्थषित में एक प�माणु का दूस�े प�माणुओं से रे्भद बताने के शि8ए वैशेषि�कों ने 'षिवशे�' नामक पदार्थ का अत्थिस्तत्व माना औ� यह बताया षिक अणुओं में पा�स्परि�क व्यावतन क�ने वा8ा अप्तिन्तम तत्त्व षिवशे� है। षिवशे� का कोई षिवशे� नहीं होता। अत: वह स्वत:व्यावतक होता है। अर्थात एक षिवशे� अन्य षिवशे�ों से अपने को त्तिर्भन्न क�ने का काय र्भी स्वयं ही क�ता है। जिजस प्रका� वस्तुओं में सवाधि6क व्यापकता से अवल्लिस्थत तत्त्व ही स�ा कहा जाता है, वैसे ही सवाधि6क सूक्ष्म अणु के व्यावतक अतीजिन्र्द्रय तत्त्व को षिवशे� कहा जाता है। प�माणुओं का ही एक दूस�े से र्भेद स्वत: क्यों नहीं माना जाए? इस शंका का समा6ान क�ते हुए प्रशस्तपाद यह कहते

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हैं षिक एक प�माणु का दूस�े प�माणु से तादात्म्य है, जबषिक एक षिवशे� का दूस�े षिवशे� से तादात्म्य नहीं है। अत: षिवशे� को अ8ग से एक स्वतंत्र पदार्थ माना जाना ही उपयुक्त है। यद्यषिप वैशेषि�क सम्मत पी8ुपाकवाद, मुशिक्तवाद औ� षिवशे�षिव�यक शिसद्धान्त का र्भी अन्य दशनों में समाद� नहीं हुआ औ� अन्य अनेक संदर्भF में र्भी अन्य दाशषिनकों ने वैशेषि�कों की र्भ�पू� आ8ोचनाए ँकीं, तर्थाषिप यह तो स्पJ ही है षिक वैशेषि�क दशन की समग्र सं�चना का प्रमुख आ6ा�-स्तम्भ षिवशे� मू8क वैशिशष्ट्य ही माना जाता है। ब्रह्माण्ड की सं�चना को जानने के शि8ए उसमें समाषिहत सर्भी वस्तुओं में उनकी अपनी-अपनी षिवशे�ताओं को जानना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यषिप सूत्रका� कणाद के अनुसा� पदार्थF की पा�स्परि�क समानता औ� पा�स्परि�क पृर्थक्ता का बो6 ही तत्त्वज्ञान है, जिजससे अभ्युदय औ� षिन:Uेयस की प्राप्तिप्त हो सकती है, षिd� र्भी ऐसा प्रतीत होता है षिक षिवशे� के पदार्थत्व का आख्यान क�के सूत्रका� ने र्भी वस्तुओं के पार्थक्य ज्ञान प� अधि6क ब8 टिदया है। पदार्थF के समधिJगत 6मप�क सामान्य का महत्त्व तो 'सवº खल्लिल्वदं ब्रह्म' इस वैटिदक या औपषिन�टिदक र्भावना में पह8े से ही यपाधियत च8ा आ �हा र्था। प� इसकी ब�ाब�ी प� व्यधिJ को खड़ा क�ने का काय वैशेषि�कों ने षिकया। अत: र्भा�तीय दाशषिनक शिचन्तन में सन्तुशि8त वस्तुवाद का समा�म्भ क�ने का Uेय वैशेषि�क दशन को ही है। औ� यह महत्वपूण उप8त्थिब्ध वैशेषि�कों को उन प्रमुख शिसद्धान्तों का प्रवतन क�ने से प्राप्त हुई, जिजनको प�माणुवाद या आ�म्भवाद या षिवशे� वैशिशष्ट्यवाद कह क� समादृत षिकया जाता है। महर्षि�ं कणाद औ� उनका वैशेषि�कसूत्रअनुक्रम[छुपा]1 महर्षि�ं कणाद औ� उनका वैशेषि�कसूत्र 2 कणाद नाम का आ6ा� 3 उ8ूक या औ8ूक्य नाम का आ6ा� 4 पै8ुक नाम का आ6ा� 5 काश्यप नाम का आ6ा� 6 वैशेषि�क सूत्र का �चनाका8 7 वैशेषि�क सूत्र पाठ 8 वैशेषि�क दशन की व्याख्या 9 वैशेषि�क सूत्र का प्रषितपाद्य 10 सम्बंधि6त लि8ंक

महर्षि�ं कणाद वैशेषि�कसूत्र के षिनमाता, प�म्प�ा से प्रचशि8त वैशेषि�क शिसद्धान्तों के क्रमबद्ध संग्रहकता एवं वैशेषि�क दशन के समुद्भावक माने जाते हैं। वह उ8ूक, काश्यप, पै8ुक आटिद नामों से र्भी प्रख्यात हैं महर्षि�ं के ये सर्भी नाम सात्तिर्भप्राय औ� सका�ण हैं। [संपाटिदत क�ें] कणाद नाम का आ6ा�कणाद शब्द की वु्यत्पत्ति� औ� व्याख्या षिवत्तिर्भन्न आचायF ने षिवत्तिर्भन्न प्रका� से की है। उनमें से कुछ के मन्तव्य इस प्रका� हैं— व्योमशिशव ने 'कणान् अ�ीषित कणाद:'- आटिद व्युत्पत्ति�यों की समीक्षा क�ने के अनन्त� यह कहा षिक ये असद व्याख्यान हैं। उन्होंने 'केचन अन्ये' कहक� षिनम्नशि8खिखत परि�र्भा�ा का र्भी उल्8ेख षिकया- 'असच्चोद्यषिन�ासार्थº कणान् ददाषित दयते इषित वा कणाद:।' Uी6�— कणादधिमषित तस्य कापोतीं वृत्ति�मनुषितष्ठत: �थ्याषिनपषितत-तण्डुना8ादाय प्रत्यहं कृताहा�षिनधिम�ा संज्ञा। षिन�वकाश: कणान् वा र्भक्षयतु इषित यत्र तत्र उपा8म्भस्तत्रर्भवताम्।* Uी6� का यह षिवचा� शिचन्तनीय है षिक कणाद की कपोती वृत्ति� के आ6ा� प� ही वैशेषि�कों के प्रषित यह उपा8म्भ षिकया जाता है षिक- 'अब कोई उपाय न �हने के का�ण कणों को खाइये।' उदयन आटिद आचायF का यह मत है षिक महेश्व� की कृपा को प्राप्त क�के कणाद ने इस शास्त्र का प्रणयन षिकया- 'कणान् प�माणून् अत्ति� शिसद्धान्तत्वेनात्मसात् क�ोषित इषित कणाद:।' अत: उनको कणाद कहा गया। उपयुक्त सर्भी व्याख्याओं की समीक्षा के बाद यह कहा जा सकता है षिक कणाद संज्ञा एक शास्त्रीय पद्धषित के वैशिशष्ट्रय के का�ण है, न षिक कपोती वृत्ति� के का�ण। [संपाटिदत क�ें] उ8ूक या औ8ूक्य नाम का आ6ा�वैशेषि�क सूत्रका� को उ8ूक या औ8ूक्य र्भी कहा जाता है। इनके उ8ूक नाम के सम्बन्ध में यह किकंवदन्ती प्रचशि8त है षिक यह टिदन में ग्रन्थों की �चना क�ते रे्थ औ� �ात में उ8ूक पक्षी के समान जीषिवकोपाजन क�ते रे्थ।* व्योमशिशव र्भी इस संदर्भ में यह कहते हैं- 'अन्यैस्तु 6म¼: सह 6र्मिमणं उपदेश: कृत:। केनेषित-षिवना पत्तिक्षणा उ8ूकेन'। न्याय8ी8ावती की र्भूधिमका में र्भी यह उल्8ेख है- 'मुनये कणादाय स्वयमीश्व� उ8ूकरूप6ा�ी प्रत्यक्षीर्भूय र्द्रव्यगुणकमसामान्यषिवशे�समवाय8क्षणं पदार्थ�ट्कमुपटिददेश।'

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जैनाचाय अर्भयदेव सूरि� ने र्भी सम्मषिततक की व्याख्या में यह कहा षिक 'एतदेवोकं्त र्भगवता प�मार्षि�ंणा औ8ूक्येन'। इनको औ8ूक्य र्भी कहा जाता है, औ� इस संदर्भ में कुछ षिवद्वानों द्वा�ा यह माना जाता है षिक उ8ूक इनके षिपता का नाम र्था अत: उ8ूक के पुत्र होने के का�ण यह औ8ूक्य कह8ाते हैं। लि8ंगपु�ाण में यह संदर्भ धिम8ता है षिक अक्षपाद मुषिन औ� उ8ूक मुषिन शिशव के अवता� रे्थ। महार्भा�त में उप8ब्ध तथ्यों के अनुसा� श�शर्य्यया में पडे़ हुए र्भीष्म षिपतामह की मृत्यु के समय अन्य ऋषि�यों के सार्थ उ8ूक र्भी रे्थ। वही उ8ूक या औ8ूक्य मुषिन वैशेषि�क दशन के प्रवतक रे्थ।* नै�6ीयचरि�त महाकाव्य की प्रकाश टीका के �चधियता ना�ायण र्भट्ट ने कणाद औ� उ8ूक शब्दों को एक दूस�े का पयायवाची माना है।* [संपाटिदत क�ें] पै8ुक नाम का आ6ा�पै8ुक नाम से र्भी कणाद का उल्8ेख षिकया जाता है। प�माणु का एक पयायवाची शब्द पी8ु र्भी है। अत: प�माणु-शिसद्धान्त के प्रवतक को पै8ुक औ� वैशेषि�क को पै8ुकसम्प्रदाय र्भी कहा जाता है। [संपाटिदत क�ें] काश्यप नाम का आ6ा�कश्यप गोत्र में उत्पन्न होने के का�ण कणाद को काश्यप र्भी कहा जाता है। इस नाम का उल्8ेख प्रशस्तपाद ने पदार्थ 6म-संग्रह में इस प्रका� षिकया है- 'षिवरुद्धाशिसद्धसंटिदग्6मलि8ंगं काश्यपोऽब्रवीत्॥*' काश्यप कणाद का गोत्रनाम र्था। उदयनाचाय ने र्भी इस तथ्य का उल्8ेख षिकया है। वायुपु�ाण में यह बताया गया है षिक कणाद प्रर्भास तीर्थ में �हते रे्थ औ� शिशव के अवता� रे्थ। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क सूत्र का �चनाका8वैशेषि�क दशन का आ6ा� कणादप्रणीत वैशेषि�क सूत्र है। जैसे अन्य र्भा�तीय दशनों औ� समग्र र्भा�तीय ज्ञान-षिवज्ञान के मू8 तत्त्व अनाटिद का8 से च8े आ �हे हैं औ� संकेत रूप में वेदों में उप8ब्ध होते हैं, वैसी ही ल्लिस्थषित वैशेषि�क के मू8 शिसद्धान्तों के सम्बन्ध में र्भी है। जैसे गौतम, कषिप8, जधैिमषिन औ� व्यास आटिद ऋषि� न्याय, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त आटिद दशनों के र्द्रJा, सूत्रषिनमाता या संग्राहक आचाय हैं, वैसे ही कणाद र्भी वैशेषि�क दशन के संग्राहक या शिसद्धान्त रूप में पूवप्रचशि8त कर्थनों को सूत्ररूप में क्रमबद्ध क�ने वा8े आचाय हैं। हाँ, इस समय जो वाङमय वैशेषि�क दशन के रूप में उप8ब्ध होता है, उसका आ6ा� प्रमुखतया कणाद प्रणीत वैशेषि�क सूत्र ही है। कहा जाता है षिक न्याय औ� वैशेषि�क दोनों माहेश्व� दशन हैं। पह8े आन्वीत्तिक्षकी नाम में सम्भवत: दोनों का समावेश होता र्था। वैशेषि�क सूत्र के �चना-का8 के संबन्ध में यह ज्ञातव्य है षिक आचाय कौटिटल्य द्वा�ा तीस�ी शताब्दी ईस्वी पूव में �शिचत अर्थशास्त्र में वैशेषि�क शब्द का उल्8ेख नहीं है (यद्यषिप यह सम्भव है षिक उन्होंने आन्वीत्तिक्षकी में ही वैशेषि�क को र्भी समाषिहत मान शि8या हो)। जबषिक च�क द्वा�ा कषिनष्क के समय ईस्वीय प्रर्थम शताब्दी में �शिचत च�क संषिहता में वैशेषि�क के �ट्पदार्थF का उल्8ेख है। इस आ6ा� प� डा. उई जैसे कषितपय षिवद्वानों ने अपना यह मत बनाया षिक वैशेषि�क सूत्र का �चनाका8 150 ई. माना जा सकता है।* षिकन्तु महामहोपाध्याय कुप्पूस्वामी जैसे अन्य षिवद्वानों की यह 6ा�णा है षिक वैशेषि�क सूत्र की �चना 400 ई. पूव हुई।* वैशेषि�क दशन का षिवधि6वत उल्8ेख सवप्रर्थम धिमशि8न्द पह्न में धिम8ता है। वैशेषि�क औ� बौद्ध दशन का उल्8ेख चीन की प्राचीन प�म्प�ा में र्भी उप8ब्ध होता है। बौद्ध आचाय हरि�वमा (260 ई.) के 8ेख से पता च8ता है षिक वैशेषि�क का संस्थापक च8ूक र्था, जिजसका समय बुद्ध से 800 व� पूव र्था। यह तो प्राय: सवस्वीकृत तथ्य है षिक न्याय दशन की अपेक्षा वैशेषि�क दशन प्राचीन है। डा. जैकोवी ने वैशेषि�क सूत्रों का समय ईस्वीय षिद्वतीय शताब्दी से 8ेक� ईस्वीय पंचम शताब्दी तक के अन्त�ा8 में माना है।* उदयवी� शास्त्री ने कणाद का का8 महार्भा�त से पूव माना है।* बोदत्स के अनुसा� कणाद का समय 400 ई. से पूव तर्था 500 ई. के बाद नहीं �खा जा सकता। प्रो. गाब� औ� �ा6ाकृष्णन प्ररृ्भषित षिवद्वानों का यह मत है षिक वैशेषि�क सूत्र का षिनमाण न्याय सूत्र से पह8े हुआ, क्योंषिक वैशेषि�क सूत्र का प्रर्भाव न्यायसूत्र प� परि�8त्तिक्षत होता है; जबषिक वैशेषि�क सूत्र प� न्याय सूत्र का प्रर्भाव नहीं टिदखाई देता। अधि6कत� षिवद्वानों का यह मत है षिक न्याय सूत्र का प्रर्भाव नहीं टिदखाई देता। अधि6कत� षिवद्वानों का यह मत है षिक न्याय सूत्र की �चना दूस�ी शती में हुई। अत: वैशेषि�क सूत्र की �चना षिद्वतीय शती से पह8े हुई। सवदशन संग्रह प्ररृ्भषित ग्रन्थों में दशनों का उद्भव प्राय: उपषिन�दों से माना गया है, षिकन्तु प्रो. एच. उई जैसे षिवद्वानों का यह मत है षिक वैशेषि�क का उद्भव उपषिन�द से नहीं, अषिपतु 8ोक के सामान्य षिवचा�ों से हुआ। कौटिटल्य के अर्थशास्त्र तर्था जैन ग्रन्थों से र्भी इसकी पुधिJ होती है।* उपयुक्त षिवत्तिर्भन्न मतों प� ध्यान देते हुए यही कहा जा सकता है षिक वैशेषि�क सूत्रों के �चनाका8 के संबन्ध में षिवद्वान एकमत नहीं हैं। अत: इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है षिक अधि6कत� षिवद्वानों के अनुरूप वैशेषि�क सूत्र की �चना दूस�ी शती से पह8े हुई। षिकन्तु मन्तव्यों की दृधिJ से वैशेषि�क मत अषितप्राचीन है, वैशेषि�क सूत्र में बौद्ध मत की चचा नहीं है, अत: मे�े षिवचा� में कणाद बुद्ध से पूववत� माने जा सकते हैं।

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[संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क सूत्र पाठवैशेषि�क सूत्र की जो व्याख्याए ँउप8ब्ध हैं, उनके आ6ा� प� ही सूत्र संख्या, सूत्र क्रम औ� सूत्र पाठ का षिन6ा�ण षिकया जाता �हा है। धिमशिर्थ8ावृत्ति�, चन्र्द्रानन्दवृत्ति� औ� उपस्का�वृत्ति� में उप8ब्ध सूत्र पाठ ही प्राचीनतम माने जाते हैं। उपस्का�वृत्ति� के आ6ा� प� यह षिवटिदत होता है षिक इसमें 10 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में दो आधिह्नक हैं औ� सूत्रों की संख्या कु8 धिम8ाक� 370 है। सूत्रों के क्रम, पूवाप� संगषित, पाठ तर्था उनके व्याख्यान में व्याख्याका�ों का पयाप्त मतरे्भद टिदखाई देता है। उदाह�णतया बड़ौदा (बड़ोद�ा) से प्रकाशिशत चन्र्द्रानन्दवृत्ति� सषिहत वैशेषि�क सूत्र में 384 सूत्र हैं इस संस्क�ण में वैशेषि�क सूत्र के आठवें, नवें औ� दसवें अध्यायों का दो-दो आधिह्नकों में षिवर्भाजन र्भी उप8ब्ध नहीं होता। धिमशिर्थ8ा षिवद्यापीठ से प्रकाशिशत वैशेषि�क सूत्र नवम अध्याय के प्रर्थम आधिह्नक पयन्त ही उप8ब्ध हैं उनमें 321 सूत्र हैं। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क दशन की व्याख्यावैशेषि�क दशन की व्याख्या स�त्तिण दो प्रका� की देखी जाती है- सूत्रव्याख्यानरूपा, जैसे उपस्का�वृत्ति� औ� पदार्थव्याख्यानरूपा, जैसे पदार्थ6मसंग्रह। समय के सार्थ-सार्थ वैशेषि�क में र्भी प्रस्थानों का प्रवतन हुआ, जैसे धिमशिर्थ8ाप्रस्थान, गौडप्रस्थान औ� दात्तिक्षणात्य प्रस्थान। धिमशिर्थ8ाप्रस्थान में न्याय के शिसद्धान्तों का प्रवेश औ� कणाद को ईश्व� र्भी मान्य �हा,- इस बात के संकेत उप8ब्ध होते हैं। अन्य दो प्रस्थानों में ऐसा प्रयास नहीं धिम8ता, षिकन्तु वैशेषि�क वाङमय में इन प्रस्थानर्भेदों को कोई मान्यता नहीं धिम8ी। [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क सूत्र का प्रषितपाद्यवैशेषि�क सूत्र में 10 अध्याय औ� 20 आधिह्नक हैं। दस अध्यायों में षिव�य का प्रषितपादन षिनम्नशि8खिखत रूप से षिकया गया है- अभ्युदय औ� षिन:Uेयस के सा6नरू्भत 6म औ� पदार्थF के उदे्दश, षिवर्भाग तर्था पदार्थF के सा6म्य-वै6म्य के संदर्भ में काय-का�ण के स्वरूप का षिनरूपण। पृशिर्थवी आटिद र्द्रव्यों का षिनरूपण। आत्मा, मन औ� मनोगषित का षिनरूपण। पदार्थमात्र के मू8का�ण प्रकृषित तर्था श�ी�ाटिद का षिनरूपण। उत्क्षेपणाटिद कमF औ� नोदनाटिद संयोगज कम का षिनरूपण। शास्त्रा�म्भ में प्रषितज्ञात वेदों का, 6म औ� वैटिदक अनुष्ठानों का तर्था उनके दृJ औ� अदृJ d8ों का षिनरूपण। गुणों के स्वरूप औ� रे्भदों का षिनरूपण। बुजिद्ध के स्वरूप औ� र्भेदों तर्था ज्ञान का षिनरूपण। असत्कायवाद तर्था अनुमान की प्रषिक्रया का षिवश्ले�ण। सुख-दु:ख के पा�स्परि�क र्भेद तर्था का�ण के रे्भदों का षिनरूपण। न्यायकन्द8ीअनुक्रम[छुपा]1 न्यायकन्द8ी 2 परि�चय 3 Uी6� षिव�शिचत ग्रन्थ 4 न्यायकन्द8ी की टीकाएँ - प्रटीकाएँ 5 पद्मनार्भ धिमUषिव�शिचत न्यायकन्द8ीसा� 6 �ाजशेख� सूरि� षिव�शिचत न्यायकन्द8ी पंजिजका 7 न�चन्र्द्र सूरि� षिव�शिचत न्यायकन्द8ी टिटप्पत्तिणका 8 टीका टिटप्पणी औ� संदर्भ 9 सम्बंधि6त लि8ंक

प्रशस्तपाद के पदार्थ 6म संग्रह प� Uी6�ाचाय द्वा�ा �शिचत व्याख्या न्यायकन्द8ी के नाम से प्रख्यात है। न्यायकन्द8ी प� कई उपटीकाए ँशि8खी गईं, जिजनमें जैनाचाय �ाजशेख� द्वा�ा �शिचत न्यायकन्द8ी पंजिजका औ� पद्मनार्भ धिमU द्वा�ा �शिचत न्यायकन्द8ी सा� प्रमुख हैं। परि�चयन्यायकन्द8ी के पुत्मिष्पका र्भाग में Uी6� ने अपने देश-का8 के सम्बन्ध में कुछ षिवव�ण टिदया है। तदनुसा� उनके जन्मस्थान के सम्बन्ध में यह माना जाता है षिक वह बंगा8 प्रान्त में आ6ुषिनक हुग8ी जि�8े के �ाढ़ क्षेत्र के रू्भरि�Uेष्ठ नामक गाँव में उत्पन्न हुए रे्थ।

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उनका समय 991 ई. माना जाता है। Uी6� के षिपता का नाम ब8देव तर्था माता का नाम अब्बोका र्था। उनके सं�क्षक तत्का8ीन शासक का नाम न�चन्र्द्र पाण्डुदास र्था। Uी6� ने उनके अनु�ो6 प� ही 991 ई. में न्यायकन्द8ी की �चना की र्थी। का8 एच. पाट� ने र्भी इस तथ्य का उल्8ेख षिकया है। Uीकृष्ण धिमU ने अपने प्रबो6चन्र्द्रोदय नाटक में �ाठापु�ी औ� रू्भरि�Uेधिष्ठक का उल्8ेख षिकया, जो षिक महामहोपाध्याय dत्तिणर्भू�ण तक वागीश प्ररृ्भषित षिवद्वानों के अनुसा� Uी6� के षिनवासस्थान से ही सम्बद्ध है।* Uी6� षिव�शिचत ग्रन्थगोपीनार्थ कषिव�ाज के मतानुसा� Uी6� ने चा� ग्रन्थ शि8खे रे्थ। उन्होंने स्वयं इन कृषितयों के संकेत न्यायकन्द8ी में टिदये हैं।[1] अद्वयशिसजिद्ध; (वेदान्तदशन प�) तत्त्वप्रबो6; (मीमांसा प�) तत्त्वसंवाषिहनी; (न्याय प�) न्यायकन्द8ी; (पदार्थ 6म संग्रह प�) न्यायकन्द8ी टीका का दूस�ा नाम संग्रह टीका र्भी है, षिकन्तु वी. व�दाचा�ी के अनुसा� संग्रह टीका व्योमवती का अप� नाम है, न षिक न्यायकन्द8ी का। कषिव�ाज का यह र्भी कर्थन है षिक न्यायकन्द8ी कश्मी� में प्रख्यात र्थी, धिमशिर्थ8ा में षिवद्वज्जन उसका उपयोग क�ते रे्थ। षिकन्तु बंगा8 में उसका उपयोग नहीं के ब�ाब� हुआ।* न्यायकन्द8ी का प्रचा� दत्तिक्षण में पयाप्त रूप से हुआ। अत: कषितपय 8ोगों ने Uी6� के नाम के सार्थ र्भट्ट जोड़ क� इनको दत्तिक्षण देशवासी बताने का प्रयास षिकया, षिकन्तु आचाय Uी6� द्वा�ा स्वयं ही अपने जन्म-स्थान का उल्8ेख क� देने के का�ण यह कल्पना स्वयं ही असंगत शिसद्ध हो जाती है। Uी6� नाम के अन्य र्भी कई आचाय हो चुके हैं, यर्था र्भागवत तर्था षिवष्णु पु�ाण के टीकाका� Uी6� स्वामी, षिकन्तु वह कन्द8ीका� Uी6� से त्तिर्भन्न रे्थ। पाटीगत्तिणतम के �चधियता र्भी कोई Uी6� हैं, षिकन्तु न्यायकन्द8ी में पाटीगत्तिणतम का उल्8ेख न होने के का�ण वह र्भी कन्द8ीका� Uी6� नहीं रे्थ। इस सन्दर्भ में पाटीगत्तिणतम की र्भूधिमका में Uी सु6ाक� षिद्ववेदी ने दोनों के एक ही व्यशिक्त होने के संबन्ध में जो मत व्यक्त षिकया है, उसकी पुधिJ नहीं होती, अत: वह हमा�े षिवचा� में ग्रह्य नहीं है। Uी6� ने इस ग्रन्थ में 6म���, उद्योतक�, मण्डन धिमU आटिद आचायF तर्था अद्वयशिसजिद्ध, स्फोटशिसजिद्ध, ब्रह्मशिसजिद्ध आटिद ग्रन्थों का उल्8ेख षिकया है तर्था महोदय शब्द के षिवशे्ल�ण के प्रसंग में बौद्धों औ� जैनों का, संख्याषिनरूपण के प्रसंग में षिवज्ञानवादी बौद्धों का, संयोग के षिनरूपण के अवस� प� सत्कायवाद का औ� वाक्यार्थप्रकाशकत्व के प्रसंग में स्फोटवाद का खण्डन षिकया है। न्यायकन्द8ी की टीकाए-ँप्रटीकाएँUी षिवन्ध्येश्व�ी प्रसाद षिद्ववेदी ने* में Uी6� औ� उदयन के पौवाप�ृय प� षिवचा� क�ते हुए यह शि8खा षिक उदयनाचाय बुजिद्धषिनरूपण पयन्त षिक�णाव8ी टीका का षिनमाण क� स्वगवासी हो गये। तब Uी6� ने न्यायकन्द8ी के रूप में सम्पूण र्भाष्य प� टीका की। इस प्रका� उदयन, Uी6� के पूववत� शिसद्ध होते हैं, षिकन्तु इस संदर्भ में अन्य षिवद्वान एकमत नहीं हैं। Uीषिनवास शास्त्री का यह कर्थन है षिक इन दोनों के अनुशी8न से यह शिसद्ध होता है षिक षिक�णाव8ी से पूव कन्द8ी की �चना हुई। न्यायकन्द8ी की अनेक टीकाए ँऔ� उपटीकाए ँ�ची गईं, जिजनमें जैन आचाय �ाजशेख� की न्यायकन्द8ीपंजिजका औ� पद्मनार्भ धिमU का न्यायकन्द8ीसा� प्रमुख है। पद्मनार्भ धिमUषिव�शिचत न्यायकन्द8ीसा�कन्द8ीसा� की �चना पद्मनार्भ धिमU ने की। उनके षिपता का नाम Uीब8र्भर्द्र धिमU तर्था माता का नाम षिवजयUी र्था। ऐसा प्रतीत होता है षिक पद्मनार्भ ने अपने गुरु Uी6�ाचाय से साक्षात रूप में न्यायकन्द8ी का अध्ययन क�ने के अनन्त� कन्द8ी के सा�तत्त्व का वणन क�ने के शि8ए कन्द8ीसा� नामक टीका शि8खी।* �ाजशेख� सूरि� षिव�शिचत न्यायकन्द8ी पंजिजकान्यायकन्द8ी प� पंजिजका नाम की एक टीका जैनाचाय �ाजशेख� सूरि� ने 1348 ई. में शि8खी र्थी। गायकवाड़ सी�ीज से प्रकाशिशत 'वैशेषि�कसूत्रम्' के अJम परि�शिशJ में पंजिजका के प्रा�त्थिम्भक तर्था अप्तिन्तम अंश उद्धतृ षिकये गये हैं। �ाजशेख� सूरि� ही सम्भवत: म86ारि� सूरि� के नाम से र्भी षिवख्यात रे्थ। इन्होंने �त्नवार्षितंकपंजिजका, स्याद्वादकारि�का जैसे अन्य ग्रन्थों की र्भी �चना की। न�चन्र्द्र सूरि� षिव�शिचत न्यायकन्द8ी टिटप्पत्तिणकाइस टिटप्पत्तिणका के �चधियता न�चन्र्द्र सूरि� हैं। इसकी पाण्डुशि8षिप स�स्वती र्भवन पुस्तका8य में ग्रन्थांक 34148 प� उप8ब्ध है। न्यायकन्द8ी टिटप्पत्तिणका के अन्त में इन्होंने यह कहा षिक कन्द8ी की व्याख्या उन्होंने आत्मस्मृषित के शि8ए की है। वह आत्मस्मृषित को ही मोक्ष मानते रे्थ। तर्थापृथ्वी6�: सक8तक षिवतक सीमा6ीमान् जगौ यटिदह कन्दशि8का�हस्यम्।व्यक्तीकृतं तदखिख8ं स्मृषितबीजबो6प्रा�ोहणाय न�चन्र्द्रमुनीश्व�ेण॥इनका समय 1150 के आसपास माना जाता है।

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टीका टिटप्पणी औ� संदर्भ↑ (क) षिवस्त�स्त्वद्वयशिसद्धौ र्द्रJव्य:, न्या. क. पृ. 11, 197(ख) मीमांसाशिसद्धान्त�हस्यं तत्त्वप्रबो6े कशिर्थतमस्मात्तिर्भ:, न्या. क. पृ. 347(ग) प्रपंशिचतश्चायमर्थ�ऽस्मात्तिर्भस्तत्त्वप्रबो6े तत्त्वसंवाटिदकायांचेषित, न्या. क. पृ. 187(घ) तस्य षिव�यापहा�नान्त�ीयकं स्याटिदषित कृतं ग्रन्थषिवस्त�ेण संग्रहटीकायाम्, न्या. क., पृ. 277प्रशस्तपाद र्भाष्यब्रज षिडस्कव�ी, एक मुक्त ज्ञानको� सेयहां जाईये: नेषिवगेशन, खोजपरि�चयअनुक्रम[छुपा]1 परि�चय 2 प्रशस्तपाद का समय 3 प्रशस्तपाद या प्रशस्तमषित की वाक्यनाम्नी टीका 4 प्रशस्तपाद र्भाष्य का प्रषितपाद्य 5 प्रशस्तपाद र्भाष्य की टीकाएँ औ� उपटीकाएँ 6 टीका टिटप्पणी औ� संदर्भ 7 सम्बंधि6त लि8ंक

पदार्थ 6म संग्रह प� र्भाष्य का सम्प्रदायगत 8क्षण घटिटत न होने के का�ण कुछ षिवद्वानों की दृधिJ में यह र्भाष्य नहीं है। यह व्याख्यान वैशेषि�क सूत्रों के क्रम से नहीं है, 40 सूत्रों का तो इसमें उल्8ेख ही नहीं है। औ� वैशेषि�क सूत्रों में अचर्चिचंत कई नये शिसद्धान्तों का र्भी इसमें समावेश है। वैशेषि�क सूत्र प� शि8खिखत अपने र्भाष्य की र्भूधिमका में चन्र्द्रकान्त र्भट्टाचाय ने तो यह स्पJ कहा षिक पदार्थ 6म संग्रह में र्भाष्यत्व नहीं है, अत: वह अपना अ8ग र्भाष्य शि8ख �हे हैं। षिकन्तु व्योमवती, स्यादवाद�त्नाक� आटिद ग्रन्थों में पदार्थ 6म संग्रह का उल्8ेख र्भाष्य के रूप में ही षिकया गया है। प्राचीन आचायF के मत में र्भाष्य शब्द का दो अर्थF में प्रयोग होता है, तद्यर्था- सूत्रार्थF वण्यते यत्र शब्दै: सूत्रानुसारि�त्तिर्भ:। स्वपदाषिन च वण्यन्ते र्भाष्यं र्भाष्यषिवदो षिवदु:॥न्यायषिनबन्धप्रकाश (परि�शुजिद्धप्रकाश) में व6मानोपाध्याय ने र्भाष्य का 8क्षण इस प्रका� बताया है- सूतं्र बुजिद्धस्थीकृत्य तत्पाठषिनयमं षिवनाषिप तद्व्याख्यानं र्भाष्यम्।यदवा सूत्रव्याख्यानान्त�मनुपजीव्य तद्व्याख्यानं र्भाष्यम्,व्याख्यानान्त�मुपजीव्य सूत्रव्याख्यानं वृत्ति�:।इस प्रका� अधि6कत� षिवद्वानों का यह मत है षिक पारि�र्भाषि�क दृधिJ से र्भाष्य के प्रर्थम 8क्षण के अनुसा� र्भाष्य न होने प� र्भी षिद्वतीय 8क्षण के अनुसा� पदार्थ 6म संग्रह का र्भाष्यत्व शिसद्ध होता है। पदार्थ 6म संग्रह नाम पड़ने के का�ण इसका र्भाष्यत्व षिन�स्त नहीं होता। नामान्त� से षिनद�श र्भाष्यत्व का व्याघात नहीं क�ता। व्याक�ण महार्भाष्य के आ�म्भ में उसका 'शब्दानुशासन' नाम से उल्8ेख होने प� र्भी जैसे वह र्भाष्य से बषिहरू्भत नहीं होता, वैसे ही पदार्थ 6म संग्रह कहने से र्भी इस ग्रन्थ का र्भाष्यत्व षिन�स्त नहीं होता। व्योमवती में र्भी प्रशस्तपाद की इस कृषित के शि8ए र्भाष्य तर्था पदार्थ 6म संग्रह शब्दों का प्रयोग षिकया गया है।* न्यायकन्द8ी* तर्था षिक�णाव8ी* में र्भी ऐसा ही कहा गया है। षिक�णाव8ीका� ने 'संग्रह' का 8क्षण क�ते हुए यह र्भी कहा है- षिवस्त�ेणोपटिदJानामर्थानां सूत्रर्भाष्ययो:।षिनबन्धों यस्समासेन, संग्रहं तं षिवदुबु6ा:॥उपस्का�कता शंक�धिमU ने पदार्थ6मसंग्रह का षिनद�श प्रक�ण शब्द से र्भी षिकया है। प्रक�ण का 8क्षण इस प्रका� है— शास्तै्रकदेशसम्बदं्ध शास्त्र6मान्त�े ल्लिस्थतम्।आहु: प्रक�णं नाम ग्रन्थरे्भदं षिवपत्तिश्चत:॥षिकन्तु षिक�णाव8ीका� के अनुसा� प्रक�ण एक देशीय होते हैं, अत: उदयनाचाय पदार्थ संग्रह को प्रक�ण नहीं मानते। न्यायकन्द8ी, उपस्का�, सम्मषिततक प्रक�ण, प्रमेयकम8मातण्ड, न्यायकुमुदचन्र्द्र, तत्त्वसंग्रहपंजिजका आटिद में प्रशस्तपाद के ग्रन्थ का उल्8ेख पदार्थप्रवेशक, पदार्थप्रवेश आटिद नामों से र्भी उप8ब्ध होता है। नयचक्र, उसकी व्याख्या, प्रमाणसमुच्चयव्याख्या, षिवशा8ाम8वती तर्था बौद्धर्भा�ती ग्रन्थमा8ा में मुटिर्द्रत तत्त्वसंग्रह पंजिजका के वैशेषि�क मत-प�ीक्षा, षिवशे� प�ीक्षा तर्था समवायप�ीक्षा सम्बन्धी षिवश्ले�णों में जिजतने अंश र्भाष्य से उद्धतृ बताये गये हैं उतने अंश प्रशस्तपाद र्भाष्य में उप8ब्ध नहीं हैं। कुछ अंश हैं, कुछ नहीं हैं। अत: ऐसा प्रतीत होता है षिक प्रशस्तपाद ने दो ग्रन्थ शि8खे रे्थ-

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एक षिवस्तृत व्याख्या औ� दूस�ा पदार्थ 6म संग्रह। इससे यह र्भी शिसद्ध होता है षिक प्रशस्तमषित र्भी इनका ही नाम र्था। औ� यह र्भी माना जा सकता है षिक प्रशस्तपाद ने एक तो वैशेषि�क सूत्रों का र्भाष्य शि8खा औ� दूस�ा वैशेषि�क मत संग्राहक ग्रन्थ शि8खा, जो पदार्थ-6म-संग्रह नाम से प्रख्यात हुआ। अब जो ग्रन्थ उप8ब्ध है, वह प्रशस्तपाद र्भाष्य तर्था पदार्थ 6म संग्रह दोनों नामों से प्रशिसद्ध है। इस र्भाष्य में षिनरूषिपत प्रमुख षिव�यों का षिवव�ण इस प्रका� है- र्द्रव्यों की गणना, र्द्रव्यों का सा6म्य-वै6म्य, पृथ्वी आटिद का स्वरूप, सृधिJसंहा�षिवधि6, गुण, गुण-सा6म्य-वै6म्य, पाकजोत्पत्ति�, संख्या, षिवपयय, अनध्यवसाय, स्वप्न आटिद का षिनरूपण। प्रमाणों का षिवश्ले�ण बुजिद्ध के अन्तगत षिकया गया है। इन प्रषितपाद्य षिव�यों की सूची के आ6ा� प� र्भी यह कहा जा सकता है षिक यह ग्रन्थ सूत्रों का क्रधिमक र्भाष्य नहीं अषिपतु यह वैशेषि�क के मन्तव्यों का एक व्यवल्लिस्थत औ� क्रमबद्ध संत्तिक्षप्त षिवश्ले�ण है। र्भाष्यक�ा प्रशस्तपादाचाय प्रशस्त, प्रशस्तदेव, प्रशस्तव�ण, प्रशस्तमषित नामों से र्भी अत्तिर्भषिहत षिकये जाते हैं। बो6ायनसूत्र के प्रव�ाध्याय के आंषिग�सगण में समाषिहत शा�दवतगण में प्रशस्त का समावेश षिकया गया है। अन्य 8ोगों का यह मत है षिक प्रव��त्नग्रन्थ में आंषिग�सगण के गौतमवण में प्रशस्त का षिनद�श है। उदयनाचाय, Uी6�, शंक�धिमU आटिद का यह षिवचा� है षिक कणाद-प्रशस्तवाद में गौतम-वात्स्यायन के समान प�मर्षि�ंत्वता कषिप8, पंचशिशख आटिद के समान आचायत्व है। वसुबनु्ध ने प्रशस्तपाद-र्भाष्य का खण्डन षिकया है। न्यायर्भाष्य में प्रशस्तपाद द्वा�ा उल्लिल्8खिखत शिसद्धान्तों का वणन है। प्रशस्तपाद का समयप्रशस्तपाद के समय के षिव�य में षिवद्वानों में एकमत्य नहीं है। एच. उई के अनुसा� इनका समय 6मपा8 तर्था प�मार्थ के समय के आ6ा� प� षिनत्तिश्चत षिकया जा सकता है क्योंषिक दोनों ने प्रशस्तपाद र्भाष्य के आ6ा� प� वैशेषि�क के मन्तव्यों का उल्8ेख क�के उनका खण्डन षिकया है। बोदास प्ररृ्भषित षिवद्वानों के अनुसा� प्रशस्तपाद वात्स्यायन से पूववत� हैं। वात्स्यायन का समय �ान्ड8े तीस�ी शती, षिवद्यारू्भ�ण, �ा6ाकृष्णन औ� कीर्थ चौर्थी शती, एवं पाट�, फ्राउवाल्न� औ� बोदास पाँचवीं शती मानते हैं न्यायर्भाष्य में कौटिटल्य (327 ई.) के अर्थशास्त्र औ� पतंजशि8 150 ई. पू. के महार्भाष्य के उद्ध�ण तर्था नागाजुन (300 ई.) के मत का खण्डन है तर्था टिदङ्नाग (500 ई.) ने वात्स्यायन की आ8ोचना की है, अत: वात्स्यायन का समय 8गर्भग 400 ई. के आसपास है। जबषिक dैडेशन आटिद का यह षिवचा� है षिक वात्स्यायन प्रशस्तपाद के पूववत� हैं। षिकन्तु कीर्थ ने प्रशस्तपाद को टिदङ्नाग का प�वत� माना जबषिक प्रो. शे�वात्स्की औ� प्रो. ध्रुव ने प्रशस्तपाद को टिदङ्नाग से पूववत� शिसद्ध षिकया है। प्रमाणसमुच्चय के टीकाका� जिजनेन्र्द्र बुजिद्ध ने प्रमाण समुच्चय में संकेषितत कषितपय कर्थनों को प्रशस्तमषित द्वा�ा उक्त बताया है। इस प्रका� यटिद प्रशस्तपाद तर्था प्रशस्तमषित एक ही व्यशिक्त हैं तो षिनत्तिश्चत रूप से यह कहा जा सकता है षिक प्रशस्तपाद टिदङ्नाग के पूववत� हैं। कषितपय षिवद्वानों का कर्थन है षिक प्रशस्तपाद टिदङ्नाग के पूववत� हैं। कषितपय षिवद्वानों का कर्थन है षिक यद्यषिप टिदङ्नाग ने कहीं स्पJत: प्रशस्तपाद का उल्8ेख नहीं षिकया, षिd� र्भी उनके द्वा�ा संकेषितत पूवपक्षों में प्रशस्तपाद की छाया सी प्रतीत होती है। टिदङ्नाग का समय 8गर्भग 480 ई. माना जाता है। अब र्भी प्रशस्तपाद के समय के सम्बन्ध में आ6ुषिनक षिवद्वानों में बड़ा मतर्भेद बना हुआ है। उनका समय �ा6ाकृष्णन चतुर्थ शती, कीर्थ पंचम शती, dाउबाल्न� छठी शती मानते हैं। हमा�े षिवचा� में प्रशस्तपाद का समय चतुर्थ शती का उ�� र्भाग या पंचम शती का पूव र्भाग मानना अधि6क तक सम्मत है। प्रशस्तपाद या प्रशस्तमषित की वाक्यनाम्नी टीकाप्रशस्तपाद तर्था प्रशस्तमषित नामों के समान वाक्यनाम्नी टीका औ� प्रशस्तमषित टीका के बा�े में अर्भी तक र्भी बड़ा भ्रम व्याप्त है। कहा जाता है षिक कणाद प्रणीत वैशेषि�क सूत्र प� वाक्य या प्रशस्तमषित नामक संत्तिक्षप्त व्याख्यान अर्थवा संत्तिक्षप्त र्भाष्य ग्रन्थ शि8खा गया र्था, जिजसकी �चना प्रशस्तमषित ने की र्थी या जिजस प� प्रशस्तमषित ने टीका शि8खी र्थी। टीका का नाम वाक्य या प्रशस्तमषित र्था। इसका आ6ा� इस प्रका� बनाया जाता है षिक शान्त�त्तिक्षत ने तत्त्वसंग्रह में ईश्व� के षिवर्भुत्व औ� सवज्ञान के संदर्भ में षिवशे� पदार्थ का षिनरूपण षिकया है तर्था कम8शी8 ने 'तत्त्वसंग्रह व्याख्या पंजिजका' में प्रशस्तमषित के मत का खण्डन षिकया है।

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नयचक्र तर्था नयचक्रव्याख्या में जो र्भाष्य वचन उद्धतृ षिकए गए है, वे प्रशस्तपाद र्भाष्य में उप8ब्ध नहीं हैं। जिजनेन्र्द्र बुजिद्ध द्वा�ा टिदङ्नाग के प्रमाण समुच्चयों प� �शिचत 'षिवशा8ाम8वती' नामक व्याख्या में र्भी जो र्भाष्य वचन उद्धतृ षिकये गये हैं, वे प्रशस्तपाद र्भाष्य में नहीं धिम8ते। इससे यह शिसद्ध होता है षिक प्रशस्तपाद �शिचत र्भाष्य पदार्थ 6म संग्रह के अषितरि�क्त कोई अन्य र्भाष्य र्भी र्था, जो षिक प्रशस्तपाद अर्थवा प्रशस्तमषित नामक षिकसी अन्य आचाय ने शि8खा र्था। प्रशस्तमषित को कुछ षिवद्वान प्रशस्तपाद से त्तिर्भन्न व्यशिक्त मानते हैं, षिकन्तु अधि6कत� षिवद्वानों का यह मत है षिक ये दोनों नाम एक ही व्यशिक्त के रे्थ। जैनाचाय मल्8वादी के नयचक्र से यह र्भी ज्ञात होता है षिक वैशेषि�क सूत्रों प� �शिचत 'वाक्य' नाम की इस संत्तिक्षप्त व्याख्या में सूत्र तर्था वाक्य सार्थ-सार्थ शि8ये गये रे्थ। प्रशस्तपाद र्भाष्य का प्रषितपाद्यप्रशस्तपाद र्भाष्य का अध्याय आटिद के रूप में षिवर्भाजन नहीं है। प्रशस्तपाद ने कहीं-कहीं कणाद के सूत्रों का उल्8ेख क�ते हुए औ� कहीं-कहीं सूत्रों के स्थान प� उनके र्भाव का ग्रहण क�ते हुए अपने ढंग से ही वैशेषि�क र्भाष्य के क8ेव� को प्रषितष्ठाषिपत षिकया है। वैशेषि�क दशन में आचाय प्रशस्तपाद के मन्तव्यों, महत्त्व औ� योगदान का उल्8ेख संके्षप में इस प्रका� है- वैशेषि�क दशन के मुख्य मन्तव्यों का व्यवल्लिस्थत प्रस्तुतीक�ण। वैशेषि�क के छ: पदार्थF की स्पJ व्याख्या। कणाद द्वा�ा उल्लिल्8खिखत सत्रह गुणों के स्थान प� चौबीस गुणों का उल्8ेख। बुजिद्ध के अन्तगत वैशेषि�कसम्मत प्रमाणों का सधिन्न6ान औ� षिनरूपण। अपेक्षाबुजिद्ध से संख्या की उत्पत्ति� तर्था संख्या के षिवनाश का षिवशे्ल�ण। परि�माण के र्भेद तर्था उत्पत्ति� का षिनरूपण। पाकज रूप का षिनरूपण तर्था पी8ुपाकवाद का षिवश्ले�ण। सृधिJ एवं प्र8य का षिवश्ले�ण। [1] प�माणु से द्वयणुक आटिद की उत्पत्ति� का षिवशे्ल�ण। 6म-अ6म तर्था बन्ध औ� मोक्ष का षिवशे्ल�ण। शब्द का षिवशद षिवशे्ल�ण।* प्रशस्तपाद र्भाष्य की टीकाए ँऔ� उपटीकाएँवैशेषि�क दशन सम्बन्धी वाङ्मय में वैशेषि�क सूत्र से र्भी अधि6क प्रशिसजिद्ध प्रशस्तपाद र्भाष्य की हुई। इसका प्रमाण यह है षिक इस र्भाष्य प� एक षिवपु8 टीका-साषिहत्य की �चना हुई औ� एक प्रका� से इसी की टीका-प्रटीकाओं के माध्यम से वैशेषि�क के मन्तव्यों का क्रधिमक षिवकास व परि�ष्का� हुआ। Uी6� द्वा�ा �शिचत न्यायकन्द8ी की पंजिजका नामक टीका में जैनाचाय �ाजेश्व� ने प्रशस्तपादीय पदार्थ 6म संग्रह की चा� प्रमुख व्याख्याओं का षिनद�श इस प्रका� षिकया है- व्योमवती – व्योमशिशवाचाय �शिचत न्यायकन्द8ी—Uी6�ाचाय �शिचत षिक�णाव8ी – उदयनाचाय �शिचत 8ी8ावती – Uीवत्साचाय �शिचत इनमें से 8ी8ावती के स्थान प� कषितपय षिवद्वान Uीवल्8र्भाचाय द्वा�ा �शिचत न्याय8ी8ावती की परि�गणना क�ते हैं। षिकन्तु न्याय8ी8ावती एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, टीका नहीं। अत: स्थानापन्नता उशिचत नहीं है। इन चा� प्रमुख टीकाओं के अषितरि�क्त षिनम्नशि8खिखत अन्य अवान्त� चा� टीकाओं की र्भी गणना क�के कुछ षिवद्वान प्रमुख टीकाओं की संख्या आठ मानते हैं— सेतु -- पद्मनार्भ�शिचत र्भाष्यसूशिक्त:- जगदीश�शिचत र्भाष्यषिनक�: - को8ाच8 मल्लिल्8नार्थ�शिचत कणाद�हस्यम् – शंक� धिमU�शिचत इन टीकाओं में से सवाधि6क प्राचीन टीका व्योमवती है। व्योमशिशवाचाय षिव�शिचत व्योमवती / Vyomvatiव्योमवती प्रशस्तपाद र्भाष्य की टीका है। इस व्याख्या में यद्यषिप वेदान्त औ� सांख्य मत का र्भी षिन�ाक�ण षिकया गया है, तर्थाषिप इसका झुकाव अधि6कत� बौद्ध मत के खण्डन की ओ� है। प्रतीत होता है षिक प्रशस्तपाद र्भाष्य की व्याख्या के बहाने व्योमशिशवाचाय द्वा�ा यह मुख्य रूप से बौद्ध औ� जैन मत के खण्डन के शि8ए ही शि8खी गई है। इस व्याख्या में कुमारि�8 र्भट्ट, प्रर्भाक�, 6मकीर्षितं, कादम्ब�ी, Uीह�देव, श्लोकवार्षितंक, प्रमाणवार्षितंक आटिद का उल्8ेख तर्था मण्डन धिमU औ� अक8ंक के मत का खण्डन उप8ब्ध होता है। यद्यषिप प्रशस्तपाद र्भाष्यार्थ सा6क प्रमाणों का औ� प्रासंषिगक

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अर्थF का प्रषितपादन अन्य व्याख्याओं में र्भी उप8ब्ध होता है, तर्थाषिप ईश्व�ानुमान जैसे संदर्भF में व्योमवती का षिवश्ले�ण र्भाष्याक्ष�ों के अनुरूप, षिकन्तु षिक�णाव8ी औ� न्यायकन्द8ी के षिवश्ले�ण से कुछ त्तिर्भन्न है। कुछ 8ोग सप्तपदार्थ�का� शिशवाटिदत्य औ� व्योमवतीका� व्योमशिशवाचाय को एक ही व्यशिक्त समझते हैं, षिकन्तु ऐसा मानना उशिचत नहीं है, क्योंषिक सप्तपदार्थ� में टिदक के ग्या�ह, सामान्य के तीन, प्रमाण के दो (प्रत्यक्ष अनुमान) औ� हेत्वार्भास के छ: रे्भद बताये गये हैं, जबषिक व्योमवती में टिदक के दश, सामान्य के दो, प्रमाण के तीन (प्रत्यक्ष-अनुमान -शब्द) औ� हेत्वार्भास के पाँच रे्भद बताये गये हैं। यद्यषिप बम्बई षिवश्वषिवद्या8य में उप8ब्ध सप्तपदार्थ� की मातृका में यह उल्8ेख है षिक यह व्योमशिशवाचाय की कृषित है। षिकन्तु अन्यत्र सवत्र यह शिशवाटिदत्य की ही कृषित मानी गई है। अत: दोनों का पार्थक्य मानना ही अधि6क संगत है। व्योमशिशवाचाय शैव रे्थ। Uीगुरुशिसद्ध चैतन्य शिशवाचाय से दीक्षा ग्रहण क�ने के अनन्त� यह व्योमशिशवाचाय नाम से षिवख्यात हुए। इन्होंने र्भतृहरि�, कुमारि�8, 6मकीर्षितं, प्रर्भाक� औ� ह�व6न का उल्8ेख षिकया हैं अत: उनका समय सप्तम-अJम शताब्दी माना जा सकता है। व्योमशिशवाचाय का समय उपयुक्त रूप से कुछ 8ोगों का यह कर्थन है षिक कादम्ब�ी, Uीह� औ� देवकु8 का षिनद�श क�ने के का�ण व्योमाशिशवाचाय ह�व6न (606-645 ई.) के समका8ीन हैं, षिकन्तु अन्य 8ोगों का यह षिवचा� है षिक मण्डन धिमU औ� अक8ंक के मोक्ष षिव�य के षिवचा�ों का खण्डन क�ने के का�ण यह 700-900 ई. के बीच षिवद्यमान �हे होंगें। वी. व�दाचा�ी इनका समय 900-960 ई. मानते हैं। अन्य कई षिवद्वान इनका समय 980 ई. मानते हैं। संके्षप में मे�ी दृधिJ से यही मानना अधि6क उपयुक्त है षिक व्योमशिशव षिक�णाव8ीका� से पूववत� तर्था मण्डन धिमU औ� अक8ंक से उ��वत� का8 (700-900 ई.) में हुए। व्योमशिशवाचाय का मत कणाद औ� प्रशस्तपाद प्रत्यक्ष औ� अनुमान इन दो प्रमाणों को मानते हैं, षिकन्तु व्योमाशिशवाचाय ने शब्द को र्भी प्रमाण माना है। इनके प्रमाणत्रय शिसद्धान्त का उल्8ेख शंक�ाचाय ने सवदशन शिसद्धान्त संग्रह में षिकया हैं अत: इस दृधिJ से तो यह शंक� के पूववत� हैं, षिकन्तु सवदशन शिसद्धान्त संग्रह प्रामात्तिणक रूप से शंक�ाचाय �शिचत नहीं माना जा सकता। व्योमशिशवाचाय द्वा�ा का8 को अषितरि�क्त र्द्रव्य मानने के सम्बन्ध में जैसी युशिक्तयाँ दी गई हैं, वैसी ही षिक�णाव8ी में र्भी उप8ब्ध होती हैं। न्यायकन्द8ी औ� 8ी8ावती में र्भी इनके मत की समीक्षा की गई है। व्योमवती के सृधिJ संहा� षिनरूपण सम्बन्धी र्भाष्य से उद्धतृ 'वृषित8ब्ध' पद की व्याख्या के अवस� प� 'वु्यत्पषित8ब्धायैरि�षित' इस व्युत्पत्ति� की जो असंगषित टिदखाई गई है, उसका खण्डन कन्द8ी में उप8ब्ध होता है। इसके अषितरि�क्त उदयनाचाय षिक�णाव8ी में, व6मान षिक�णाव8ीप्रकाश में, तर्था Uी6� कन्द8ी में 'कत्तिश्चत्' 'एके', 'अन्ये' आटिद शब्दों से र्भी व्योमवतीका� का उल्8ेख क�ते हैं अत: यह स्पJ रूप से प्रमात्तिणत होता है षिक प्रशस्तपाद र्भाष्य की उप8ब्ध व्याख्याओं में व्योमवती सवाधि6क प्राचीन है। षिक�णाव8ीब्रज षिडस्कव�ी, एक मुक्त ज्ञानको� सेयहां जाईये: नेषिवगेशन, खोज

उदयनाचाय का समयअनुक्रम[छुपा]1 उदयनाचाय का समय 2 उदयनाचाय के ग्रन्थ 3 षिक�णाव8ी का वैशिशष्ट्य 4 षिक�णाव8ी की टीका - प्रटीकाएँ 5 षिक�णाव8ी - प्रकाश 6 षिववेकाख्या षिक�णाव8ी प्रकाश व्याख्या 7 —षिक�णाव8ी व्याख्या �ससा� 8 उदयनाचाय �शिचत 8क्षणाव8ी 9 सम्बंधि6त लि8ंक

न्याय के समान वैशेषि�क में र्भी उदयनाचाय का अपना षिवशिशJ महत्त्व है। उदयनाचाय ने स्वयं 8क्षणाव8ी के षिनमाणका8 का उल्8ेख क�ते हुए यह कहा है— तकाम्ब�ांकप्रधिमतेष्वतीते�ु शकान्तत:।व���ूदयनश्चके्र सुबो6ां 8क्षणाव8ीम्॥अत: उनका समय 906 शक अर्थात् 984 ई. माना जा सकता है। इस पाठ के आ6ा� प� वह Uी6� के कुछ पूववत� या समका8ीन शिसद्ध होते हैं। यद्यषिप इस उद्ध�ण को कुछ षिवद्वान प्रत्तिक्षप्त मानते हैं, षिd� र्भी इसकी चचा म.म. गोपीनार्थ कषिव�ाज जैसे अनेक आ6ुषिनक षिवद्वानों ने र्भी सहमषितपूवक की है। उदयन का जन्म धिमशिर्थ8ा में कनका नदी के ती� प� ल्लिस्थत म¶�ौनी ग्राम में हुआ र्था।

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डी.सी. र्भट्टाचाय का यह कर्थन है षिक उपयुक्त पाठ शुद्ध नहीं है। वह उदयनाचाय का समय 976 शक अर्थात् 1054 ई. मानने के पक्ष में हैं। उनका तक यह है षिक उदयन के सार्थ Uीह� के षिपता का शास्त्रार्थ हुआ र्था। Uीह� का समय 1125 से 1150 के बीच है। उनके षिपता का शास्त्रार्थ उदयन के सार्थ तर्भी सम्भव माना जा सकता है, जबषिक उदयनाचाय का समय 11 वीं शती का उ��ा6 माना जाए। यह तो प्रशिसद्ध है षिक Uीह� ने अपने षिपता की हा� का बद8ा चुकाने के शि8ए खण्डन खण्डखाद्य में उदयन के मत का खण्डन षिकया। उदयनाचाय के ग्रन्थउदयनाचाय ने न्याय शास्त्र प� न्यायवार्षितंक तात्पय टीका परि�शुजिद्ध, न्याय कुसुमांजशि8, आत्मा तत्त्व षिववेक जैसे सुप्रशिसद्ध ग्रन्थ शि8खे औ� बौद्ध दाशषिनकों से शास्त्रार्थ क�के न्याय दशन को प्रषितष्ठाषिपत षिकया। वैशेषि�क दशन के संदर्भ में उदयनाचाय के दो ग्रन्थ प्रशिसद्ध हैं- षिक�णाव8ी तर्था 8क्षणाव8ी। षिक�णाव8ी प्रशस्तपाद र्भाष्य की प्रौढ़ व्याख्या है औ� 8क्षणाव8ी एक स्वतंत्र वैशेषि�क ग्रन्थ। षिक�णाव8ी बुजिद्ध प्रक�ण तक ही प्रकाशिशत हुई है। इस प� कई व्याख्याए ँशि8खी गईं, जिजनमें से व6मान का षिक�णाव8ी प्रकाश औ� पद्मनार्भी धिमU का षिक�णाव8ी-र्भाष्क� प्रशिसद्ध है। षिक�णाव8ी का वैशिशष्ट्यषिक�णाव8ी प्रशस्तपाद र्भाष्य की एक महत्त्वपूण व्याख्या है। इसमें क्षणरं्भगवाद, परि�णामवाद, आ�म्भवाद, सांख्यमत, चावाक मत, अयोद्वाद तर्था मीमांसक मत का खण्डन षिकया गया है। इसमें षिवर्भाग षिनरूपण के अवस� प� र्भासवज्ञ के मत का तर्था षिनरूपण के अवस� प� रू्भ�णका� के मतों का षिनद�श उप8ब्ध होता है। षिक�णाव8ी की टीका-प्रटीकाएँषिक�णाव8ी प्रशस्तपाद र्भाष्य की बहुत प्रौढ़ व्याख्या हें इसमें वैशेषि�क के शिसद्धान्तों को बडे़ पाल्लिण्डत्यपूण ढंग से स्पJ षिकया गया है। यह बुजिद्ध प्रक�ण पयन्त ही उप8ब्ध होती है। इस प� अनेक व्याख्याए ँशि8खी गईं, जिजनमें व6मान का षिक�णाव8ी प्रकाश तर्था पद्मनार्भ धिमU का षिक�णाव8ीर्भाष्क� प्रशिसद्ध है। षिक�णाव8ी-प्रकाशइसके �चधियता व6मानोपाध्याय हैं। व6मानोपाध्याय ने इस व्याख्या में मीमांसकों, वेदाप्तिन्तयों, बौद्धों आटिद के मतों का खण्डन तर्था अन्वीक्षातत्त्वबो6, न्यायषिनबन्धप्रकाश, आत्मतत्त्वषिववेक जैसे ग्रन्थों एवं अपने षिपतृच�ण के रूप में ग¶ेशोपाध्याय का उल्8ेख षिकया है। व6मानोपाध्याय का समय 1400 ई॰ माना जाता है। षिववेकाख्या षिक�णाव8ी प्रकाश व्याख्यामहादेव धिमU के पुत्र एवं हरि�धिमU के शिशष्य पक्ष6� धिमU द्वा�ा षिववेकाख्या एक व्याख्या षिक�णाव8ी प्रकाश प� शि8खी गई र्थी, जिजस प� पक्ष6� धिमU के शिशष्य हरि�द� धिमU ने 'षिक�णाव8ी प्रकाश व्याख्या षिववृषित' शि8खी, जो षिक र्द्रव्य गुण पयन्त ही मुटिर्द्रत है। इसी प्रका� पक्ष6� के एक अन्य शिशष्य र्भगी�र्थ ठक्कु� (1511 ई.) ने र्भी र्भावप्रकाशिशका नाम की एक व्याख्या की �चना की। मरु्थ�ानार्थ तक वागीश (1600 ई.) ने र्भी �हस्यनाम्नी एक व्याख्या षिक�णाव8ी प्रकाश प� शि8खी। �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण (1475 ई.) द्वा�ा र्भी दीत्तिक्षषित नाम्नी एक व्याख्या षिक�णाव8ी प्रकाश प� �ची गई। मरु्थ�ानार्थ ने दीधि6षित की व्याख्या षिववृत्ति� के रूप में की। प6ुनार्थशिश�ोमत्तिण के शिशष्य देवीदास के पुत्र, �ामकृष्ण र्भट्टाचाय ने षिक�णाव8ी प्रकाश दीधि6षित प� प्रकाशाख्या व्याख्या की �चना की। रुर्द्रन्यायवाचस्पषित (1700 ई.) ने षिक�णाव8ी प्रकाश दीधि6षित की प�ीक्षाख्या व्याख्या शि8खी। इसी प्रका� म6ुसूदन ठक्कु� के शिशष्य गुणानन्द ने र्भी षिक�णाव8ी प्रकाश प� तात्पय संदर्भा व्याख्या शि8खी। कु8 धिम8ाक� यहाँ कहा जा सकता है षिक षिक�णाव8ी प्रकाश व्याख्या प� एक अचे्छ उपटीका-साषिहत्य की �चना हुई। षिक�णाव8ी व्याख्या—�ससा�यह षिक�णाव8ी के गुणखण्ड का व्याख्या ग्रन्थ है। इसके आत्मषिवचा� प्रक�ण में Uी6�ाचाय का तर्था पृथ्वी षिनरूपण प्रक�ण में रू्भ�णका� का उल्8ेख धिम8ता है। इसकी �चना शंक�किकंक� अप� नाम से ख्यातवादीन्र्द्र गुरु (1200-1300 ई.) ने की। �ससा�नाम्नी यह षिक�णाव8ी व्याख्या �ाय8 एशिशयाटिटक सोसाइटी ग्रन्थमा8ा तर्था स�स्वती र्भवन ग्रन्थमा8ा में प्रकाशिशत है। �ामतका8ंका� के पुत्र Uी �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण के शिशष्य औ� तत्त्वशिचन्तामत्तिण के व्याख्याका�, मरु्थ�ानार्थ तक वागीश द्वा�ा (1600 ई.) र्भी �हस्याख्या षिक�णाव8ी व्याख्या की �चना की गई है। न्याय�हस्य के �चधियता जगदीश र्भट्टाचाय के गुरु, र्भवनार्थ के पुत्र, �ामर्भर्द्रसावर्भौम ने र्भी षिक�णाव8ी गुण खण्ड व्याख्या �हस्याख्या शि8खी। इसकी र्भी सा�मञ्ज�ीनाम्नी व्याख्या मा6वदेव र्भट्टाचाय (1700 ई.) ने शि8खी र्थी। सा�मंज�ी की र्भी व्याख्या 8क्ष्मण के शिशष्य, षिकसी अज्ञातनामा व्यशिक्त द्वा�ा शि8खी गई, जो षिक तंजौ� पुस्तका8य में उप8ब्ध है।

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उदयनाचाय �शिचत 8क्षणाव8ीउदयनाचाय द्वा�ा �शिचत इस ग्रन्थ में र्भाव औ� अर्भाव के रे्भद से पदार्थF का षिवर्भाग षिकया गया हैं। र्भाव के अन्तगत र्द्रव्य गुण कम सामान्य षिवशे� औ� समवाय नामक छ: पदार्थF की गणना क�के अर्भाव को अ8ग हसे पदार्थ माना गया है औ� उसके प्रागर्भाव, प्रध्वंसार्भाव, अत्यन्तार्भाव औ� अन्योन्यार्भाव नामक चा� र्भेद माने गये हैं। 8क्षणाव8ी वैशेषि�क दशन का एक प्रौढ़ औ� स्वतन्त्र ग्रन्थ है। 8क्षणाव8ी प� जो व्याख्याए ँशि8खी गई हैं। उनका षिवव�ण इस प्रका� हैं- 8क्षणाव8ी न्यायमुक्ताव8ी— इस टीका के �चधियता शे� शाङग6� का समय 1500 ई. माना जाता है। सन् 1900 ई. में इसको सम्पाटिदत क� वा�ाणसी से प्रकाशिशत षिकया गया। 8क्षणाव8ीप्रकाश – आचाय षिवश्वनार्थ झा द्वा�ा �शिचत इस टीका का प्रकाश द�रं्भगा से 1822 शक (1897 ई.) में हुआ। 8क्षणाव8ीप्रकाश – स�स्वती र्भवन पुस्तका8य के पाण्डुशि8षिप षिवर्भाग में सु�त्तिक्षत इस टीका के 8ेखक महादेव हैं। वत्साचाय कृत 8ी8ावती8ी8ावती नाम से दो ग्रन्थों का प्रच8न हुआ, Uीवत्साचाय कृत 8ी8ावती तर्था Uी वल्8र्भाचाय कृत न्याय 8ी8ावती। न्यायकन्द8ी के व्याख्याता �ाजशेख� जैन ने Uी वत्साचाय का उल्8ेख षिकया। इसके अषितरि�क्त उदयनाचाय ने र्भी न्यायवार्षितंक तात्पय टीका परि�शुजिद्ध* में Uीवत्साचाय के मत का उल्8ेख षिकया है। इससे यह स्पJ होता है षिक इस नाम के कोई आचाय हुए रे्थ, षिकन्तु उन्होंने 8ी8ावती नाम का जो ग्रन्थ शि8खा र्था, वह अब उप8ब्ध नहीं है। परि�शुजिद्ध के षिद्वतीयाध्याय के आ�म्भ में उप8ब्ध षिनम्नशि8खिखत श्लोक के आ6ा� प� कषितपय षिवद्वान Uीवत्साचाय को उदयनाचाय का गुरु मानते हैं- संशोध्य दर्चिशंत�सा मरुकूपरूपा:टीकाकृत: प्रर्थम एवं षिग�ो गर्भी�ा:। तात्पयता यद6ुना पुनरुद्यमो न:Uीवत्सवत्स8तयैव तर्था तर्थाषिप॥ इस आ6ा� प� यह माना जा सकता है षिक Uीवत्साचाय उदयनाचाय से पह8े हुए रे्थ। षिकन्तु उपयुक्त कर्थनों को कषितपय अन्य षिवद्वान प्रामात्तिणक नहीं मानते औ� Uीवत्स का समय 1025 ई. बताते हैं। वस्तुत: Uीवत्साचाय �शिचत 8ी8ावती वल्8र्भाचाय �शिचत न्याय8ी8ावती से त्तिर्भन्न है। हाँ ऐसे षिवद्वानों की र्भी कमी नहीं है जो पदार्थ 6म संग्रह की प्रमुख चा� टीकाओं में वल्8र्भाचाय कृत न्याय 8ी8ावती की ही परि�गणना क�ते हैं, न षिक Uी वत्साचाय कृत 8ी8ावती की। षिकन्तु ऐसा मानना तक संगत नहीं है। वस्तुत: न्याय8ी8ावती र्भाष्य का व्याख्यान नहीं, अषिपतु एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, जबषिक Uी वत्साचायकृत 8ी8ावती प्रशस्तपाद र्भाष्य का व्याख्यान है, जो षिक अब उप8ब्ध नहीं है। पदार्थ 6म संग्रहब्रज षिडस्कव�ी, एक मुक्त ज्ञानको� सेयहां जाईये: नेषिवगेशन, खोज …प� जाएँअनुक्रम[छुपा]1 पदार्थ 6म संग्रह प� �शिचत चा� अन्य अवान्त� टीकाएँ 2 पद्मनार्भ �शिचत सेतु टीका 3 जगदीश तका8ंका� �शिचत र्भाष्य सूशिक्त 4 को8ाच8 मल्लिल्8नार्थ सूरि� �शिचत र्भाष्यषिनक� 5 शंक� धिमU �शिचत कणाद�हस्य 6 सम्बंधि6त लि8ंक

पदार्थ 6म संग्रह प� �शिचत चा� अन्य अवान्त� टीकाएँका8क्रम के अनुसा� यद्यषिप षिनम्नशि8खिखत चा� टीकाए ँवैशेषि�क के प्रकीण साषिहत्य में परि�गत्तिणत की जा सकती हैं। षिकन्तु प्रशस्तपाद र्भाष्य की प्रमुख आठ टीकाओं में इनकी गणना के का�ण इनका परि�चय यहीं प� टिदया जा �हा है।

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पद्मनार्भ �शिचत सेतु टीकायह टीका पद्मनार्भ धिमU ने शि8खी है। पद्मनार्भ धिमU का समय 1800 ई. माना जाता है। पद्मनार्भ धिमU ने न्यायकन्द8ी प� र्भी टीका शि8खी है, अत: इस टीका प� न्यायकन्द8ी का र्भी प्रर्भाव परि�8त्तिक्षत होता है। उदाह�णतया तमस के र्द्रव्यत्व के खण्डन के प्रसंग में पद्मनार्भ ने सेतु टीका में उदयन के मत का खण्डन तर्था Uी6� के मत का समर्थन षिकया है। यह टीका र्द्रव्य पयन्त धिम8ती है। सेतु टीका में पद्मनार्भ धिमU ने ऐसे 23 तत्त्व षिगनाये हैं, जिजन्हें पदार्थ मानने का कई पूव पक्षी आग्रह क�ते हैं। षिकन्तु पद्मानार्भ ने उनका खण्डन क�के सात ही पदार्थ हैं, यह मत परि�पुJ षिकया है। जगदीश तका8ंका� �शिचत र्भाष्य सूशिक्तपदार्थ 6म संग्रह प� सूशिक्तनाम्नी इस टीका की �चना जगदीश तका8ंका� द्वा�ा की गई। जगदीश का समय 1700 ई. है। यह टीका र्भी र्द्रव्य पयन्त ही उप8ब्ध होती है। इस प� न्यायकन्द8ी का प्रर्भाव र्भी परि�8त्तिक्षत होता है। अर्भाव के पदार्थत्व के संदर्भ में जगदीश ने कन्द8ीका� औ� षिक�णाव8ीका� के मतों की पा�स्परि�क तु8ना की है। जगदीश ने न्यावैशषि�क का एक प्रशिसद्ध ग्रन्थ तकामृत र्भी शि8खा, जिजसमें न्याय के पदार्थF का वैशेषि�क के पदार्थF में अन्तर्भाव टिदखाया गया है। को8ाच8 मल्लिल्8नार्थ सूरि� �शिचत र्भाष्यषिनक�तार्षिकंक �क्षा की मल्लिल्8नार्थ द्वा�ा �शिचत टीका षिनष्कण्टका से ज्ञात होता है षिक पदार्थ 6म संग्रह प� र्भी को8ाच8 मल्लिल्8नार्थ ने र्भाष्यषिनक� नाम की टीका शि8खी र्थी, षिकन्तु वह टीका अब उप8ब्ध नहीं है। यत्र-तत्र उसका उल्8ेख धिम8ता है। इस टीका का नाम षिनष्कण्टका र्भी है। मल्लिल्8नार्थ आन्ध्रप्रदेश में प्रो. देव�ाय (1416 ई.) के समका8ीन रे्थ। उन्होंने अम�कोश, �घुवंश, षिक�ाताजुनीय, तन्त्रवार्षितंक, नै�6ीयचरि�त, तार्षिकंक�क्षा, र्भटिट्टकाव्य आटिद प� टीकाए ँशि8खीं। शंक� धिमU �शिचत कणाद�हस्यउपस्का� वृत्ति� के �चधियता शंक� धिमU (1400-1500 ई.) ने कणाद�हस्य नाम की एक टीका र्भी शि8खी र्थी। इसमें प्रषितपाटिदत षिवर्भाग के संदर्भ में शंक� धिमU ने Uी6� औ� उदयन दोनों के मत प्रस्तुत षिकये हैं। वैशेषि�क के प्रकीण ग्रन्थअनुक्रम[छुपा]1 वैशेषि�क के प्रकीण ग्रन्थ 2 कषितपय अन्य वृत्ति�याँ 3 वैशेषि�क प्र6ान प्रक�ण - ग्रन्थ 4 प्रर्थमाध्याय का सा� व समाहा� 5 सम्बंधि6त लि8ंक

वैशेषि�क शिसद्धान्तों की प�म्प�ा अषितप्राचीन है। महार्भा�त आटिद ग्रन्थों में र्भी इसके तत्त्व उप8ब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध औ� उनके अनुयाधिययों के कर्थनों से र्भी यह प्रमात्तिणत होता है षिक शिसद्धान्तों के रूप में वैशेषि�क का प्रच8न 600 ई. से पह8े र्भी षिवद्यमान र्था। महर्षि�ं कणाद ने वैशेषि�क सूत्रों का गं्रर्थन कब षिकया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता षिवद्वान षिकसी एक षितशिर्थ प� अर्भी तक सहमत नहीं हो पाये, षिकन्तु अब अधि6कत� षिवद्वानों की यह 6ा�णा बनती जा �ही है षिक कणाद महात्मा बुद्ध के पूववत� रे्थ औ� शिसद्धान्त के रूप में तो वैशेषि�क प�म्प�ा अषित प्राचीन का8 से ही च8ी आ �ही है। वैशेषि�क दशन प� उप8ब्ध र्भाष्यों में प्रशस्तपाद र्भाष्य का स्थान अषित महत्त्वपूण है। षिकन्तु कणाद-प्रशस्तपाद के समय के 8म्बे अन्त�ा8 में औ� प्रशस्तपाद के बाद र्भी बहुत से ऐसे र्भाष्यका� या व्याख्याका� हुए, जिजनके ग्रन्थ अब उप8ब्ध नहीं हैं। यत्र-तत्र उनके जो संकेत या अंश उप8ब्ध होते हैं, उनके आ6ा� प� षिवत्तिर्भन्न अनुसन्धाताओं ने जिजन कषितपय कृषितयों की जानका�ी या खोज की है, उनका संत्तिक्षप्त रूप से उल्8ेख क�ना यहाँ अप्रासंषिगक न होगा। असंटिदग्6 प्रमाणों की अनुप8ब्धता के का�ण इनमें से कई ग्रन्थों के �चनाका8 आटिद का षिवत्तिर्भन्न षिवद्वानों ने संकेत मात्र षिकया है। ऐसी कृषितयों का सामान्य ढंग से संत्तिक्षप्त परि�चय इस प्रका� हैं। आते्रय र्भाष्य �ावणर्भाष्य षिक�णाव8ी प्रशस्तपाद र्भाष्य न्यायकन्द8ी व्योमवती 8ी8ावती दशपदार्थशास्त्र �त्नकोश

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र्भा�द्वाजवृत्ति� चन्र्द्रानन्द वृत्ति� तार्षिकंक�क्षा सप्तपदार्थ� न्याय8ी8ावती मानमनोह� कणाद सूत्र षिनबन्धवृत्ति� धिमशिर्थ8ावृत्ति� उपस्का�वृत्ति� कणाद �हस्यवृत्ति� शिसद्धान्त चजिन्र्द्रकावृत्ति� पदार्थ दीषिपकावृत्ति� प्रमाणमंज�ी [संपाटिदत क�ें] कषितपय अन्य वृत्ति�याँवैशेषि�क दशन प� कुछ अन्य आ6ुषिनक वृत्ति�याँ र्भी हैं तद्यर्था— देवद� शमा (1898 ई.) द्वा�ा �शिचत र्भाष्याख्या वृत्ति� (मु�ादाबाद से मुटिर्द्रत) चन्र्द्रकान्त तका8ंका� (1887 ई.) द्वा�ा �शिचत तत्त्वाव8ीवृत्ति� (चौ.से.मी. 48 में मुटिर्द्रत) पंचानन तक र्भट्टाचाय (1406 ई.) द्वा�ा �शिचत प�ीक्षावृत्ति� (क8क�ा से मुटिर्द्रत) उ�मू� वी��ाघवाचाय स्वामी (1950 ई.) द्वा�ा �शिचत �सायनाख्यावृत्ति� (मर्द्रास से मुटिर्द्रत) चयनी उपनामक (वी�र्भर्द्र वाजपेयी के पुत्र) द्वा�ा �शिचत नयरू्भ�णाख्यावृत्ति� (अपूण तर्था अमुटिर्द्रत, मर्द्रास तर्था अड्या� पुस्तका8य में उप8ब्ध है) गंगा6� कषिव�त्न द्वा�ा संपाटिदत र्भा�द्वाजवृत्ति� (तु्रटिटपूण, क8क�ा से प्रकाशिशत) काशीनार्थ शमा द्वा�ा वेदर्भास्क�र्भाष्याधिम6ा वृत्ति� (होशिशया�पु� से मुटिर्द्रत) [संपाटिदत क�ें] वैशेषि�क प्र6ान प्रक�ण-ग्रन्थप्रक�ण एक षिवशे� प्रका� के ग्रन्थ होते हैं। इनमें सम्बद्धशास्त्र की समग्र षिव�यवस्तु का नहीं, अषिपतु उसके अंशों का ऐसा षिवशे्ल�ण षिकया जाता है जो प�म्प�ा से कुछ त्तिर्भन्न औ� नये मन्तव्यों से युक्त र्भी हो सकता है। न्याय औ� वैशेषि�क के शिसद्धान्तों में से कुछ अंशों (शास्तै्रकदेश) को चुनक� �शिचत प्रक�णग्रन्थों की संख्या पयाप्त है। प्राय: जिजन प्रक�णग्रन्थों में न्याय में परि�गत्तिणत सो8ह पदार्थF में वैशेषि�कषिनर्दिदंJ सात पदार्थF का अन्तर्भाव षिकया गया है, वे न्यायप्र6ान प्रक�ण ग्रन्थ हैं- जैसे र्भासवज्ञ (1000 ई.) का न्यायसा�, व�द�ाज (12 वीं शती) की तार्षिकंक�क्षा औ� केशव धिमU 13 वीं शती की तक र्भा�ा, औ� जिजन ग्रन्थों में वैशेषि�क के सात पदार्थF में न्याय के सो8ह पदार्थF का अन्तर्भाव षिकया गया है, वे वैशेषि�कप्र6ान प्रक�ण-ग्रन्थ हैं- जैसे अन्नंर्भट्ट का तक संग्रह, षिवश्वनार्थ पंचानन का र्भा�ापरि�चे्छद औ� 8ौगात्तिक्षर्भास्क� की तक कौमुदी। यहाँ हम इन्हीं ग्रन्थका�ों औ� ग्रन्थों का संके्षप में उल्8ेख क� �हे हैं- यो तो उदयनाचाय की 8क्षणाव8ी औ� शिशवाटिदत्य की सप्तपदार्थ� र्भी प्रक�ण-ग्रन्थ ही है। षिकन्तु उनका उल्8ेख प्रकीण ग्रन्थों में पह8े क� टिदया गया है। अन्नंर्भट्टषिव�शिचत तक संग्रह अन्नंर्भट्ट आन्ध्रप्रदेश के शिच�ू� जि�8े के �हने वा8े रे्थ। उन्होंने न्याय औ� वैशेषि�क के पदार्थF का एक सार्थ षिवशे्ल�ण षिकया औ� न्याय के सो8ह पदार्थF का वैशेषि�क के सात पदार्थF में अन्तर्भाव टिदखाया। इन्होंने गुण के अन्तगत बुजिद्ध औ� बुजिद्ध के अन्तगत प्रमाणों का षिववेचन षिकया है। अन्नंर्भट्ट ने अपने इस ग्रन्थ प� तक संग्रहदीषिपकानाम्नी एक स्वोपज्ञ टीका र्भी शि8खी। इस ग्रन्थ प� 8गर्भग पैंतीस टीकाए ँउप8ब्ध हैं। अन्नंर्भट्ट का समय सत्रहवीं शती माना जाता है। षिवश्वनार्थपंचानन-षिव�शिचत र्भा�ापरि�चे्छद षिवश्वनार्थ पंचानन का जन्म 17 वीं शती में नवद्वीप बंगा8 में हुआ र्था। इनके षिपता का नाम षिवद्याषिनवास र्था। यह �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण की शिशष्य-प�म्प�ा में षिगने जाते हैं। इनके द्वा�ा �शिचत र्भा�ारि�चे्छद नामक ग्रन्थ कारि�काव8ी अप� नाम से र्भी षिवख्यात है। इन्होंने र्भा�ापरि�चे्छद प� एक स्वोपज्ञ टीका शि8खी, जिजसका नाम न्यायशिसद्धान्तमुक्ताव8ी है। षिवश्वनार्थ ने सात पदार्थF का परि�गणन क�के उनमें से र्द्रव्य के एक रे्भद आत्मा को बुजिद्ध का आUय बताया। बुजिद्ध के दो रे्भद- (1) अनुरू्भषित औ� (2) स्मृषित माने एवं अनुरू्भषित के अन्तगत प्रमाणों का षिनरूपण षिकया। 8ौगात्तिक्षर्भास्क�-�शिचत तक कौमुदी इनका वास्तषिवक नाम र्भास्क� औ� उपनाम 8ोगात्तिक्ष र्था। इन्होंने मत्तिणकर्णिणंका घाट का उल्8ेख षिकया, अत: ऐसा प्रतीत होता है षिक यह बना�स में �हते रे्थ। इनका समय 1700 ई. माना जाता है। तक कौमुदी ग्रन्थ में इन्होंने र्द्रव्य, गुण, आटिद सात पदार्थF का

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उल्8ेख क�के बुजिद्ध को आत्मा का गुण बताया तर्था बुजिद्ध के दो रे्भद माने- (1) अनुर्भव औ� (2) स्मृषित। अनुर्भव के र्भी इन्होंने दो र्भेद माने (1) प्रमा औ� (2) अप्रमा। प्रमा के र्भी दो रे्भद षिकये- (1) प्रत्यक्ष औ� (2) अनुमान। इस प्रका� इन्होंने न्याय के पदार्थF का वैशेषि�क के पदार्थF में अन्तर्भाव बताया है। वेणीद��शिचत पदार्थमण्डनम् �6ुनार्थ शिश�ोमत्तिण के ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् (पदार्थषिनरूपणम्) में उल्लिल्8खिखत सूत्रषिव�ो6ी मन्तव्यों में से अनेक मन्तव्यों का खण्डन क�ते हुए वैशेषि�क पदार्थF की मान्यताओं में कषितपय नवीन मन्तव्यों को जोड़ते हुए वेणीद� (अठा�हवीं शतीं) ने 'पदार्थमण्डनम्' नामक ग्रन्थ की �चना की। इस ग्रन्थ में उन्होंने पदार्थF का जो षिवश्ले�ण षिकया, उसमें खण्डन-मण्डन ही नहीं, अषिपतु कई नये तथ्य औ� मन्तव्य र्भी प्रस्तुत षिकये हैं। वेणीद� सात नहीं, अषिपतु र्द्रव्य, गुण, कम, 6म, औ� अर्भाव इन पाँच पदार्थF को मानते हैं। वह गुणों की संख्या र्भी चौबीस नहीं अषिपतु उन्नीस मानने के पक्ष में हैं। इनके ग्रन्थ के नाम से प्रतीत तो ऐसा होता है षिक वेणीद� ने �घुनार्थ शिश�ोमत्तिण के मत का प्रत्याख्यान क�ने के शि8ए ग्रन्थ शि8खा होगा, प� षिवशे� को पदार्थ न मानक� इन्होंने �घुनार्थ के मत से अपनी सहमषित र्भी प्रकट की है। इन्होंने यह कहा षिक वह �घुनार्थ के Uुषितसूत्रषिवरुद्ध षिवचा�ों का खण्डन क�ते हैं। अत: सर्भी बातों में उनकी �घुनार्थ से असहमषित नहीं है। यह ग्रन्थ अठा�हवीं शती में शि8खा गया र्था। अत: यह आ6ुषिनक शिचन्तन की दृधिJ से र्भी ध्यान देने योग्य है। [संपाटिदत क�ें] प्रर्थमाध्याय का सा� व समाहा�वैशेषि�क दशन के प्रवतक महर्षि�ं कणाद द्वा�ा वतमान वैशेषि�क सूत्र के संग्रर्थन का समय र्भ8े ही 600 ई.पू. के आसपास माना जाता हो, षिकन्तु वैशेषि�क शास्त्र की प�म्प�ा अषित प्राचीन है। वैशेषि�क साषिहत्य का ज्ञात इषितहास 600 ई. पूव से अठा�हवीं शती तक व्यापृत �हा है। इस 8म्बी का8ावधि6 में अनेक र्भाष्यका�ों, टीकाका�ों, वृत्ति�का�ों, औ� प्रकीण ग्रन्थका�ों ने वैशेषि�क के शिचन्तन को आगे बढ़ाया। न्यायवैशेषि�क के अनेक आचायF ने दोनों दशनों को समप्तिन्वत रूप से प्रस्तुत क�ने का र्भी प्रयास षिकया। वस्तुत: न्याय के अधि6कत� आचायF का कहीं न कहीं वैशेषि�क का संस्पश षिकये षिबना काम नहीं च8ा, अत: वैसे तो वैशेषि�क वाङमय में अनेक नैयाधियकों औ� न्याय के ग्रन्थों का र्भी उल्8ेख षिकया जाना अपेत्तिक्षत है, षिd� र्भी यहाँ हमने केव8 उन्हीं नैयाधियकों औ� न्यायग्रन्थों का उल्8ेख षिकया, जो वैशेषि�क के शिचन्तन से साक्षात् सम्बद्ध हैं।