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Page 1: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

वैदेही- वनवास अयोध्या सिसंह उपाध्याय हरि�औध

अनुक्रम

करुण�स

उपवन �ोला

चि�न्ति !! चि�त्त �!ुष्पद

म त्रणा गृह �!ुष्पद

वचिसष्ठाश्रम ति!लोकी

स!ी सी!ा !ाटंक

का!�ोचि- पादाकुलक

मंगल यात्रा मत्तसमक

आश्रम - प्रवेश ति!लोकी

अवध धाम ति!लोकी

!पस्वि2वनी आश्रम �ौपदे

रि�पुसूदनागमन सखी

नामक�ण - सं2का� ति!लोकी

जीवन - यात्रा ति!लोकी

दाम्पत्य - दिदव्य!ा ति!लोकी

अनुक्रम करुणरस     आगे

करुण�स द्रवीभू! हृदय का वह स�स-प्रवाह है, जिजससे सहृदय!ा क्या�ी सिसंचि�!, मानव!ा फुलवा�ी तिवकचिस! औ� लोकतिह! का ह�ा-भ�ा उद्यान सुसज्जिC! हो!ा है। उसमें दयालु!ा प्रति!फचिल! दृष्टिHग! हो!ी है, औ� भावुक!ा-तिवभूति!-भरि�!। इसीचिलए भावुक-प्रव�-भवभूति! की भावमयी लेखनी यह चिलख जा!ी है-

एको �स: करुण एव तिनष्टिमत्त भेदाद।्

भिभन्न: पृथक् पृचिथतिगवाश्रय!े तिवव!ाOन्॥

आव!Oबुद्बदु!�ंग मयान् तिवका�ान्।

अम्भो यथा सचिललमेवतिह !!् सम2!म्॥

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एक करुण�स ही तिनष्टिमत्त भेद से शंृगा�ादिद �सों के रूप में पृथक्-पृथक् प्र!ी! हो!ा है। शंृगा�ादिद �स करुण�स के ही तिववत्तO हैं, जैसे भँव�, बुलबुले औ� !�ंग जल के ही तिवका� हैं। वा2!व में ए सब जल ही हैं, केवल नाम मात्र की भिभन्न!ा है। ऐसा ही सम्बन्ध करुण�स औ� शंृगा�ादिद �सों का है।

सम्भव है यह तिव�ा� सवO-सम्म! न हो, उ- उचि- में अत्युचि- दिदखलाई पडे़, तिक !ु करुण�स की सत्ता की व्यापक!ा औ� महत्ता तिनर्विवंवाद है। �सों में श्रृंगा��स औ� वी��स को प्रधान!ा दी गयी है। श्रृंगा� �स को �स�ाज कहा जा!ा है। उसके दो अंश हैं, संयोग श्रृंगा� औ� तिवयोग श्रृंगा� अथवा तिवप्रलम्भ श्रृंगा�/तिवयोग श्रृंगा� में �ति! की ही प्रधान!ा है, अ!एव प्राध य उसी को दिदया गया है। दूस�ी बा! यह तिक आ�ायO भ�! का यह कथन है-

''यत्कित्कजिbल्लोके शुचि� मेधयमुज्ज्वलं दशOनीयं वा !त्सवe शंृगा�ेणोपमीय!े (उपयुज्य!े �)''।

''लोक में जो कुछ मेध्य, उज्ज्वल औ� दशOनीय है, उन सबका वणOन श्रृंगा��स के अ !गO! है।''

श्रीमान् तिवद्या वा�स्पति! पज्जिhi! शाचिलग्राम शा2त्री इसकी यह व्याख्या क�!े हैं-

''छओ ऋ!ुओं का वणOन, सूयO औ� � द्रमा का वणOन, उदय औ� अ2!, जलतिवहा�, वन-तिवहा�, प्रभा!, �ातित्र-क्रीड़ा, � दनादिद लेपन, भूषण धा�ण !था जो कुछ 2वच्छ, उज्ज्वल व2!ु हैं, उन सबका वणOन श्रृंगा� �स में हो!ा है''।

ऐसी अवस्था में श्रृंगा� �स की �स�ाज!ा अप्रकट नहीं, प� !ु साथ ही यह भी कहा गया है-

'न तिबना तिवप्रलम्भेन संभोग: पुष्टिHमश्नु!े'।

'तिबना तिवयोग के सम्भोग श्रृंगा� परि�पुH नहीं हो पा!ा'।

'यत्र !ु �ति!: प्रकृHा नाभीHमुपैति! तिवप्रलम्भोऽसौ'।

'जहाँ अनु�ाग !ो अति! उत्कट है, प� !ु तिप्रय समागम नहीं हो!ा उसे तिवप्रलम्भ कह!े हैं।'

'स � पूवO�ाग मान प्रवास करुणात्मकश्न!ुधाO 2या!्'।

'वह तिवप्रलम्भ 1. पूवO�ाग, 2. मान, 3. प्रवास औ� 4. करुण-इन भेदों से �ा� प्रका� का हो!ा है'।

इन पंचि-यों के पढ़ने के उप�ा ! यह स्पH हो जा!ा है तिक श्रृंगा� �स प� करुण �स का तिक!ना अष्टिधका� है औ� वह उसमें तिक!ना व्याप्! है। यह कहना तिक तिबना तिवप्रलम्भ के संभोग की पुष्टिH नहीं हो!ी, यथाथO है औ� अक्ष�श: सत्य है। प्रज्ञा�कु्ष श्रृंगा� सातिहत्य के प्रधान आ�ायO श्रीयु!् सू�दासजी की लेखनी ने श्रृंगा� �स चिलखने में जो कमाल दिदखलाया है, जो �स की सरि�!ा बहाई है उसकी जिज!नी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है। तिक !ु संभोग श्रृंगा� से तिवप्रलम्भ श्रृंगा� चिलखने में ही उनकी प्रति!भा ने अपनी हृदय-ग्रातिहणी-शचि- का तिवशेष परि��य दिदया है। उध्दव स देश सम्बन्धिन्धनी कतिव!ाए,ँ श्रीम!ी �ाष्टिधका औ� गोपबालाओं के कथनोपकथन से सम्पकO �खनेवाली मार्मिमकं ��नाए,ँ तिक!नी प्रभावमयी औ� स�स हैं, तिक!नी भावुक!ामयी औ� ममOस्पर्शिशंनी हैं। उनमें तिक!नी ष्टिमठास, तिक!ना �स, कैसी अलौतिकक वं्यजना औ� कैसा सुधास्रवण है, इसको सहृदय पाठक ही समb सक!ा है। वा2!व बा! यह है तिक सू�साग� के अनूठे �त्न इ हीं पंचि-यों में भ�े पडे़ हैं। नव�स चिसध्द महाकतिव गो2वामी !ुलसीदास जी के कोदिटश: जन-पूजिज! �ाम�रि�!मानस में जहाँ-जहाँ उनकी हृत्तांत्री के !ा� तिवप्रलम्भ क� से bङ्कृ! हुए हैं, वहाँ-वहाँ की अवधी भाषा का हृदय-द्रावक �ाग तिक!ना �स-वषOणका�ी औ� तिवमुग्धक� है, तिक!ना �ो�क, !ल्लीन!ामय औ� भावुकजन तिवमोहक है, उसको ब!लाने में जड़ लेखनी असमथO है। �ाम�रि�!मानस के वे अंश जो अ !2!ल में �स की ध�ा बहा दे!े हैं, जिजनमें उच्च कोदिट का कतिव-कमO पाया जा!ा है, जिजनकी वं्यजना में भाव-वं्यजना की प�ाकाष्ठा हो!ी है, उसके तिवप्रलम्भ श्रृंगा� सम्बन्धी अंश भी वैसे ही हैं। मचिलक मुहम्मद जायसी का 'पद्माव!' भी तिह दी-सातिहत्य का एक

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उल्लेखनीय ग्रन्थ है, उसमें भी पद्माव!ी का पूवाOनु�ाग औ� नागम!ी का तिव�ह-वणOन ही अष्टिधक!� हृदयग्राही औ� ममOस्पश� है। प्रज्ञा�कु्ष सू�दास औ� महात्मा गो2वामी !ुलसीदास जैसे महाकतिव तिह दी-संसा� में अब !क उत्पन्न नहीं हुए। इन महानुभावों की लेखनी में अलौतिकक औ� असाधा�ण क्षम!ा थी। इन लोगों की लेखन-कला से तिवप्रलम्भ श्रृंगा� को जो गौ�व प्राप्! हुआ है, उससे चिसध्द है तिक श्रृंगा� �स प� तिवप्रलम्भ श्रृंगा� का तिक!ना अष्टिधका� है। श्रृंगा� �स के बाद वी� �स को ही प्रधान!ा दी जा!ी है, तिक !ु इस �स में भी करुण �स की तिवभूति!याँ दृष्टिHग! हो!ी हैं। वी� �स की इति!श्री युध्द-वी� औ� धमO-वी� में ही नहीं हो जा!ी, उसके अंग दया-वी� औ� दान-वी� भी हैं, जो अष्टिधक!� करुणादO-हृदय द्वा�ा सं�ाचिल! हो!े �ह!े हैं। श्मशान का कारुभिणक-दृश्य तिनव�द का ही सृजन नहीं क�!ा है, भयानक औ� बीभत्स �स का प्रभाव भी हृदय प� iाल!ा है। वसंुध�ा के पाप-भा� से पीतिड़! होने प� तिकसी तिवभूति!म!् सत्तव का ध�ा में अव!ीणO होना क्या करुण �स का आह्वान नहीं है? क्या ग्राह से गज-मोक्ष सम्बन्धिन्धनी तिक्रया में कारुभिणक!ा नहीं पाई जा!ी औ� क्या यह अद्भ!ु �स के कायO-कलाप का तिनदशOन नहीं है? का !-कतिव!ावली के आ�ायO जयदेवजी ने जिजन बुध्ददेव को 'कारुhयमा! व!े' वाक्य द्वा�ा 2म�ण तिकया है, उनका वसंुध�ा की एक !ृ!ीयांश जन!ा के हृदय प� केवल करुणा के बल से अष्टिधका� क� लेना क्या अ!ीव-अद्भ!ु कायO नहीं है? एक बहु! बड़ा सम्राट भी आज !क इ!नी बड़ी जन!ा प� अ2त्र श2त्र अथवा प�ाक्रम बल से अष्टिधका� नहीं क� सका। अ!एव बुध्ददेव के कारुभिणक-कायO-कलाप में अद्भ!ु �स का कैसा समावेश है, इसको प्रत्येक सहृदय व्यचि- समb सक!ा है। �ही �ौद्र �स की बा!, उसके तिवषय में यह कहना है तिक क्या उपहास-मूलक हा2य उस �ौद्र-भाव का सृजनकत्ताO नहीं है, जिजसकी सं�ाचिलका कारुभिणक त्किखन्न!ा हो!ी है। आ!!ाइयों, अत्या�ारि�यों, देश जाति! के द्रोतिहयों, लोकतिह!-कंटकों की तिवपन्न दशा क्या मानव!ा के अनु�ातिगयों, संसा� के शान्ति ! सुख के कामुकों औ� लोकोपका� तिन�!ों को हर्विषं! नहीं क�!ी, औ� क्या उनके उत्फुल्ल आननों प� स्वि2म! की �ेखा नहीं खीं�!ी, औ� क्या यह करुण �स का तिवकास हा2य-�स में नहीं है? अब !क जो कुछ कहा गया उससे भवभूति! प्रति!भा प्रसू! श्लोक की वा2!व!ा मा य औ� करुण �स की महनीय महत्ता पूणO!या 2वीकृ! हो जा!ी है।

यह तिव�ा�-प�म्प�ा भी करुण �स को तिवशेष गौ�तिव! बना!ी है, तिक कतिव!ा का आ�म्भ पहले पहल इसी �स के द्वा�ा हुआ है। कतिव-कुल-गुरु काचिलदास चिलख!े हैं-

'तिनषादतिवध्दाhiजदशOनोत्थ: श्लोकत्वमापद्य! य2य शोक:।

तिनषाद के बाण से तिबध्द पक्षी के दशOन से जिजसका (महर्विषं वाल्मीक का) शोक श्लोक में परि�ण! हो गया। वह श्लोक यह है-

मा तिनषाद प्रति!ष्ठात्वमगम: शाश्व!ी: समा।

यत्क्रौं� ष्टिमथुनादेकमबधी: काममोतिह!म्॥

हे तिनषाद! !ू तिकसी काल में प्रति!ष्ठा न पा सकेगा। !ू ने व्यथO काममोतिह! दो क्रौं�ों में से एक को मा� iाला।

वाल्मीतिक-�ामायण में चिलखा है तिक यही पहला आदिदम पद्य है, जिजसके आधा� से उसकी ��ना हुई। वाल्मीतिक �ामायण ही सं2कृ! का पहला पद्य-गं्रथ है। औ� उसका आधा� करुण �स का उ- श्लोक ही है। अ!एव यह माना जा!ा है तिक कतिव!ा का आ�म्भ करुण �स से ही हुआ है। आश्चयO यह है तिक फा�सी के एक पद्य से भी इस तिव�ा� का प्रति!पादन हो!ा है। वह पद्य यह है-

आंतिक अव्वल शे�गुफ्! आदम शफीअल्ला बुवद।

!बा मौजूं हुC!ेफ�जदंिदए आदम बुवद॥

जिजसने पहले पहल शे� कहा वह प�मेश्व� का प्या�ा आदम था। इसचिलए 'आदमी, का मौज!बा (कतिव) होना 'आदम' की सं!ान होने की दलील है।

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बाबा आदम के एक लड़के का नाम 'हाबील' था औ� दूस�े का नाम 'काबील'। दूस�े ने पहले को जान से मा� iाला। इस दुर्घOटना प� बाबा आदम के शोक सं!प्! हृदय से अनायास जो उद्गा� तिनकला, वही करुण वाक्य कतिव!ा का आदिद प्रव!Oक बना। उ- शे� का यही ममO है। हमा�े मनु ही मुसलमान औ� ईसाइयों के 'आदम', हैं। 'मनुज' औ� 'आदमी' पयाOयवा�ी शब्द हैं, जैसे हम लोग मनु भगवान को आदिदम पुरुष मान!े हैं, वैसे ही वे लोग 'बाबा आदम' को आदिदम पुरुष कह!े हैं। आदिदम शब्द औ� आदम शब्द में नाम मात्र का अ !� है। फा�सी ई�ान की भाषा है। ई�ानी एरि�यन वंश के ही हैं। ई�ातिनयों के पतिवत्र गं्रथ जिज दाव2!ा में सं2कृ! शब्द भ�े पडे़ हैं। इसचिलए इस प्रका� का तिव�ा�-साम्य असम्भव नहीं है। भाषा के साथ भाव-ग्रहण अ2वाभातिवक व्यापा� नहीं है।

पद्य-प्रणाली का जो जनक है, वाल्मीतिक-�ामायण जैसे लोकोत्त� महाकाव्य की ��ना का जो आधा� है, उस करुण �स की महत्ता की इयत्ता अतिवदिद! नहीं। !ो भी सं2कृ! श्लोक के भाव का प्रति!पादन एक अ यदेशीय प्रा�ीन भाषा द्वा�ा हो जाने से इस तिव�ा� की पुष्टिH पूणO!या हो जा!ी है तिक करुण �स द्वा�ा ही पहले पहल कतिव!ा देवी का आतिवभाOव मानव-हृदय में हुआ है। औ� यह एक सत्य का अद्भ!ु तिवकास है।

करुण �स की तिवशेष!ाओं औ� उसकी ममOस्पर्शिशं!ा की ओ� मे�ा चि�त्त सदा आकर्विषं! �हा, इसका ही परि�णाम 'तिप्रय-प्रवास' का आतिवभाOव है। 'तिप्रय-प्रवास'की ��ना के उप�ा ! मे�ी इच्छा 'वैदेही-वनवास' प्रणयन की हुई। उसकी भूष्टिमका में मैंने यह बा! चिलख भी दी थी। प� !ु �ौबीस वषO !क मैं तिह दी-देवी की यह सेवा न क� सका। कामना-कचिलका इ!ने दिदनों के बाद ही तिवकचिस! हुई। का�ण यह था तिक उन दिदनों कुछ ऐसे तिव�ा� सामने आए, जिजनसे मे�ी प्रवृभित्त दूस�े तिवषयों में ही लग गई। उन दिदनों आजमगढ़ में मुशाय�ों की धूम थी। ब दोब2! वहाँ हो �हा था। अहलका�ों की भ�मा� थी। उनका अष्टिधकांश उदूO-पे्रमी था। प्राय: तिह दी भाषा प� आवाज कसा जा!ा, उसकी त्किखल्ली उड़ाई जा!ी, कहा जा!ा तिह दी-वालों को बोल�ाल की फड़क!ी भाषा चिलखना ही नहीं आ!ा। वे मुहाव�े चिलख ही नहीं सक!े। इन बा!ों से मे�ा हृदय �ोट खा!ा था, कभी-कभी मैं ति!लष्टिमला उठ!ा था। उदूO-संसा� के एक प्रति!ष्टिष्ठ! मौलवी साहब जो मे�े ष्टिमत्र थ ेऔ� आजमगढ़ के ही �हने वाले थ,े जब ष्टिमल!े, इस तिवषय में तिह दी की कुत्सा क�!े, वं्यग्य बोल!े। अ!एव मे�ी सतिहष्णु!ा की भी हद हो गई। मैंने बोल�ाल की मुहाव�ेदा� भाषा में तिह दी-कतिव!ा क�ने के चिलए कम� कसी। इसमें पाँ�-सा! ब�स लग गये औ� 'बोल-�ाल' एवं '�ुभ!े �ौपदे' औ� '�ोखे �ौपदे'नामक गं्रथों की ��ना मैंने की। जब इध� से छुट्टी हुई, मे�ा जी तिफ� 'वैहेदी-वनवास' की ओ� गया। प� !ु इस समय एक दूस�ी धुन चिस� प� सवा� हो गई। इन दिदनों मैं काशी तिवश्वतिवद्यालय में पहुँ�ा गया था। चिशक्षा के समय योग्य तिवद्याथ�-'समुदाय' ईश्व� अथ� संसा�-सम्बन्धी अनेक तिवषय उपज्जिस्थ! क�!ा �ह!ा था। उनमें तिक!ने श्रध्दालु हो!े, तिक!ने सामष्टियक!ा के �ंग में �ँगे शा2त्रीय औ� पौ�ाभिणक तिवषयों प� !�ह-!�ह के !कO -तिव!कO क�!े। मैं कक्षा में !ो यथाशचि- जो उत्त� उचि�! समb!ा, दे दे!ा। प� !ु इस संर्घषO से मे�े हृदय में यह तिव�ा� उत्पन्न हुआ तिक इन तिवषयों प� कोई पद्य-गं्रथ क्यों न चिलख दिदया जाए। तिनदान इस तिव�ा� को मैंने कायO में परि�ण! तिकया औ� सामष्टियक!ा प� दृष्टिH �खक� मैंने एक तिवशाल-गं्रथ चिलखा। प� !ु इस गं्रथ के चिलखने में एक युग से भी अष्टिधक समय लग गया। मैंने इस गं्रथ का नाम 'पारि�जा!' �खा। इसके उप�ा ! 'वैहेदी-वनवास' की ओ� तिफ� दृष्टिH तिफ�ी। प�मात्मा के अनुग्रह से इस कायO की भी पूर्वि!ं हुई। आज 'वैदेही-वनवास' चिलखा जाक� सहृदय तिवद्वCनों औ� तिह दी-संसा� के सामने उपज्जिस्थ! है। (महा�ाज �ाम� द्र मयाOदा पुरुषोत्तम, लोकोत्त�-�रि�! औ� आदशO न�े द्र अथ� मतिहपाल हैं, श्रीम!ी जनक-नजि दनी स!ी-चिश�ोमभिण औ� लोक-पूज्या आयO-बाला हैं। इनका आदशO, आयO-सं2कृति! का सवO2व है, मानव!ा की महनीय तिवभूति! है, औ� है 2वग�य-सम्पभित्त-सम्पन्न।) इसचिलए इस गं्रथ में इसी रूप में इसका तिनरूपण हुआ है। सामष्टियक!ा प� दृष्टिH �खक� इस गं्रथ की ��ना हुई है, अ!एव इसे बोधगम्य औ� बुत्किध्दसंग! बनाने की �ेHा की गयी है। इसमें असम्भव र्घटनाओं औ� व्यापा�ों का वणOन नहीं ष्टिमलेगा। मनुष्य अल्पज्ञ है, उसकी बुत्किध्द औ� प्रति!भा ही क्या? उसका तिववेक ही क्या? उसकी सूb ही तिक!नी, तिफ� मुb ऐसे तिवद्या-तिवहीन औ� अल्पमति! की। अ!एव प्राथOना है तिक मे�ी भ्रान्ति !यों औ� दोषों प� दृष्टिHपा! न क� तिवद्वCन अथ� महCन गुण-ग्रहण की ही �ेHा क�ेंगे। यदिद कोई उचि�! सम्मति! दी जाएगी !ो वह चिश�साधायO होगी।

कवि�-कर्म

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कतिव-कमO कदिठन है, उसमें पग-पग प� जदिटल!ाओं का सामना क�ना पड़!ा है। पहले !ो छ द की गति! 2वच्छ द बनने नहीं दे!ी, दूस�े मात्रओं औ� वण� की सम2या भी दुरूह!ा-�तिह! नहीं हो!ी। यदिद कोमल-पद-तिव यास की कामना चि�न्ति !! क�!ी �ह!ी है, !ो प्रसाद-गुण की तिवभूति! भी अल्प वांचिछ! नहीं हो!ी। अनुप्रास का कामुक कौन नहीं, अ त्यानुप्रास के bमेले !ो तिक!ने शब्दों का अंग भंग !क क� दे!े हैं या उनके पीछे एक पँूछ लगा दे!े हैं। सु द� औ� उपयु- शब्द-योजना कतिव!ा की तिवशेष तिवभूति! है, इसके चिलए कतिव को अष्टिधक सावधान �हना पड़!ा है, क्योंतिक कतिव!ा को वा2!तिवक कतिव!ा वही बना!ी है। कभी-कभी !ो एक उपयु- औ� सु द� शब्द के चिलए कतिव!ा का प्रवाह र्घhटों रुक जा!ा है। फा�सी का एक शाय� कह!ा है-

ब�ाय पातिकले लफजे शबे ब�ोज आ� द।

तिक मुगO माहीओ बाश द खु़फ!ा ऊ बेदा�॥

'एक सु द� शब्द बैठाने की खोज में कतिव उस �ा! को जागक� दिदन में परि�ण! क� दे!ा है, जिजसमें पक्षी से मछली !ब बेखब� पडे़ सो!े �ह!े हैं'-

इस कथन में बड़ी मार्मिमकं!ा है। उपयु- औ� सु द� शब्द कतिव!ा के भावों की वं्यजना के चिलए बहु! आवश्यक हो!े हैं। एक उपयु- शब्द कतिव!ा को सजीव क� दे!ा है औ� अनुपयु- शब्द मयंक का कलंक बन जा!ा है। शब्द का कतिव!ा में वा2!तिवक रूप में आना ही उत्तम समbा जा!ा है। उसका !ोड़ना-म�ोड़ना ठीक नहीं माना जा!ा। यह दोष कहा गया है, तिक !ु देखा जा!ा है तिक इस दोष से बडे़-बडे़ कतिव भी नहीं ब� पा!े। इसीचिलए यह कहा जा!ा है, 'तिन�ंकुशा: कवय:' कौन कतिव तिन�ंकुश कहलाना �ाहेगा, प� !ु कतिव-कमO की दुरूह!ा ही उसको ऐसा कहलाने के चिलए बाध्य क�!ी है। आजकल तिह दी-संसा� में तिन�ंकुश!ा का �ाज्य है। ब्रज-भाषा की कतिव!ा में शब्द-तिव यास की 2वच्छ द!ा देखक� खड़ी बोली के सत्कतिवयों ने इस तिवषय में बड़ी स!कO !ा ग्रहण की थी,तिक !ु आजकल उसका प्राय: अभाव देखा जा!ा है। इसका का�ण कतिव-कमO की दुरूह!ा अवश्य है। तिक !ु कदिठन अवस�ों औ� जदिटल स्थलों प� ही !ो सावधान!ा औ� कायO-दक्ष!ा की आवश्यक!ा हो!ी है। ही�ा जी !ोड़ परि�श्रम क�के ही खतिन से तिनकाला जा!ा है। औ� �ोटी का पसीना एड़ी !क पहुँ�ा क� ही ऊस�ों में भी सु2वादु !ोय पाया जा सक!ा है।

खड़ी बोली की वि�शेषतायें

इस समय खड़ी बोली की कतिव!ा में शब्द-तिव यास का जो 2वा! त्रय फैला हुआ है, उसके तिवषय में तिवशेष चिलखने के चिलए मे�े पास स्थान का संको� है। मैं केवल 'वैदेही-वनवास' के प्रयोगों प� ही अथाO!् उसके कुछ शब्द-तिव यास की प्रणाली प� ही प्रकाश iालना �ाह!ा हूँ। इसचिलए तिक तिह दी-भाषा के गhयमा य तिवद्वानों की उचि�! सम्मति! सुनने का अवस� मुbको ष्टिमल सके। मैं यह जान!ा हूँ तिक तिक!ने प्रयोग वाद-ग्र2! हैं, मुbे यह भी ज्ञान है तिक म!-भिभन्न!ा 2वाभातिवक है, तिक !ु यह भी तिवदिद! है 'वादे' 'वादे' जाय!े !त्तव बोध:।

तिह दी भाषा की कुछ तिवशेष!ायें हैं, वह !द्भव शब्दों से बनी है, अ!एव स�ल औ� सीधी है। अष्टिधक संयु-ाक्ष�ों का प्रयोग उसमें वांछनीय नहीं, वह उनको भी अपने 'ढंग में ढाल!ी �ह!ी है। वह �ाष्ट्र-भाषा-पद प� आरूढ़ होने की अष्टिधकारि�णी है, इसचिलए ठेठ प्रा !ीय-शब्दों का अथवा ग्राम्य-शब्दों का प्रयोग उसमें अच्छा नहीं समbा जा!ा। ब्रज-भाषा अथवा अवधी शब्दों का व्यवहा� गद्य में कदातिप नहीं तिकया जा!ा। प� !ु पद्य में कतिव-कमO की दुरूह!ाओं के का�ण यदिद कभी कोई उपयु- शब्द खड़ी बोल�ाल की कतिव!ा में ग्रहण क� चिलया जा!ा है, !ो वह उ!ना आपभित्तजनक नहीं माना जा!ा, तिक !ु तिक्रयाए ँउनकी कभी पस द नहीं की जा!ीं। कुछ सम्मति! उपयु- शब्द-ग्रहण की भी तिव�ोष्टिधनी है, प� !ु यह अतिववेक है। यदिद अत्य ! प्र�चिल! तिवदेशी शब्द ग्राह्य हैं, !ो उपयु- सु द� ब्रज-भाषा औ� अवधी के शब्द आग्राह्य क्यों? वह भी पद्य में, औ� माधुयO उत्पादन के चिलए। बहु! से प्र�चिल! तिवदेशी शब्द तिह दी-भाषा के अंग बन गये हैं, इसचिलए उसमें उनका प्रयोग तिन2संको� हो!ा है। वह अवस� प� अब भी प्रत्येक तिवदेशीय भाषा के उन शब्दों को ग्रहण क�!ी �ह!ी है, जिज हें उपयोगी औ� आवश्यक समb!ी है, इसी प्रका� प्रा !-तिवशेष के शब्दों को भी। तिक !ु व्यापक सं2कृ!-शब्दावली ही उसका सवO2व है औ� इसी से उसका समुन्नति!-पथ भी तिव2!ृ! हो!ा जा �हा है।

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तिह दी-भाषा की तिवशेष!ाओं का ध्यान �खक� ही उसके गद्य-पद्य का तिनमाOण होना �ातिहए। जब !द्भव शब्द ही उसके जनक हैं, !ो उसमें उसका आष्टिधक्य 2वाभातिवक है। अ!एव जब !क हम ऑंख, कान, नाक, मुँह चिलख सक!े हैं, !ब !क हमें अक्ष, कणO, नाचिसका, औ� मुख चिलखने का अनु�- न होना �ातिहए, तिवशेषक� मुहाव�ों में। मुहाव�े !द्भव शब्दों से ही बने हैं। अ!एव उनमें परि�व!Oन क�ना भाषा प� अत्या�ा� क�ना होगा। ऑंख �ु�ाना, कान भ�ना, नाक फुलाना औ� मुँह चि�ढ़ाना के स्थान प� अक्ष �ु�ाना, कणO भ�ना, नाचिसका फुलाना औ� मुख चि�ढ़ाना हम चिलख सक!े हैं, तिक !ु यह भाषाभिभज्ञ!ा की यून!ा होगी। कुछ लोगों का तिव�ा� है तिक खड़ी बोली के गद्य औ� पद्य दोनों में शुध्द सं2कृ! शब्दों का ही प्रयोग होना �ातिहए, जिजससे उसमें तिनयम-बध्द!ा �हे। वे कह!े हैं, चि�! के स्थान प� चि�त्त, चिस� के स्थान प� चिश� औ� दुख के स्थान प� दु:ख ही चिलखा जाना �ातिहए। तिक !ु वे नहीं समb!े तिक इससे !ो तिह दी के मूल प� ही कुठा�ार्घा! होगा। !द्भव शब्द जो उसके आधा� हैं, तिनकल जावेंगे औ� सं2कृ!-शब्द ही अथाO!् !त्सम शब्द ही उसमें भ� जाएगँे, जो दुरूह!ा औ� असुतिवधा के जनक होंगे औ� मुहाव�ों को मदिटयामेट क� देंगे। !द्भव शब्दों को !ो सु�भिक्ष! �खना ही पडे़गा, हाँ अध्दO !त्सम शब्दों के स्थान प� अवश्य !त्सम शब्द ही �खना समुचि�! होगा। !द्भव शब्द चि��काचिलक परि�व!Oन के परि�णाम औ� बोल�ाल के शब्दों के आधा� हैं, इसचिलए उनका त्याग !ो हो ही नहीं सक!ा। 'कमO' शब्द बोल�ाल के प्रवाह में पड़क� पहले कम्म बना (पंजाब में अब भी 'कम्म' बोला जा!ा है)। यही 'कम्म' इस प्रा ! में अब काम बोला जा!ा है। उसको हटाक� उसकी जगह प� तिफ� कमO को स्थान देना वा2!व!ा का तिन�ाक�ण क�ना होगा, हाँ गद्य-पद्य चिलखने में यथावस� आवश्यक!ानुसा� दोनों का व्यवहा� तिकया जा सक!ा है, यही प्रणाली प्र�चिल! भी है। यही बा! सब !द्भव शब्दों के चिलए कही जा सक!ी है। �ही अध्दO !त्सम की बा!। प्राय: ऐसे शब्द ब्रज-भाषा औ� अवधी-भाषा के कतिवयों के गढे़ हुए हैं, वे बोल�ाल में कभी नहीं आये, कतिव!ा ही में उनके व्यवहा� उन भाषाओं के तिनयमानुसा� उस रूप में हो!े आये हैं, अ!एव उनको !त्सम रूप में व्यवहा� क�ने में कोई आपभित्त नहीं हो सक!ी। कत्त�O, हृदय, तिनदOय का प्रयोग आज भी सवOसाधा�ण में नहीं है,पहले भी नहीं था, प� !ु उन भाषाओं की कतिव!ाओं में इनका प्रयोग क�!ा�, तिह�दय, तिन�दय के रूप में पाया जा!ा है, इसचिलए इनका प्रयोग खड़ी बोली की कतिव!ा में शुध्द रूप में होना ही �ातिहए, ऐसा ही हो!ा भी है।

संयु-ाक्ष�ों की दुरूह!ा तिनवा�ण औ� उनकी चिलतिप-प्रणाली को सुगम बनाने के चिलए धम्मO, ममO, कम्मO को धमO, ममO, कमO चिलखा जाने लगा है। इसी प्रका� ग!O, आव!O, कैव!O आदिद को ग!O, आव!O, कैव!O। बा! यह है तिक जब वणO के तिद्वत्व का उपयोग नहीं हो!ा, एक वणO के समान ही वह काम दे!ा है !ब उसको दो क्यों चिलखा जाए। उत्पभित्त में 'भित्त' के तिद्वत्व का उच्चा�ण हो!ा है, इसी प्रका� सम्मति! में म्म का, इसचिलए उनमें उनका उस रूप में चिलखा जाना आवश्यक है, अ यथा शब्द का उच्चा�ण ही ठीक न होगा। तिक !ु उ- शब्दों में यह बा! नहीं है, अ!एव उनमें तिद्वत्व की आवश्यक!ा नहीं ज्ञा! हो!ी। इसचिलए प्राय: तिह दी में अब उनको उस रूप में चिलखा जाने भी लगा है। सं2कृ! के तिनयमानुसा� भी ऐसा चिलखना स-दोष नहीं है। मुतिनव� पाभिणतिन का यह सूत्र इसका प्रमाण है। 'अ�ो�हाभ्यां दे्व' इसी प्रका� पं�म वणO के स्थान प� अनु2वा� से काम लेना भी आ�म्भ हो गया है। कल(, कद्ब�न, मhiन, बन्धन औ� दम्प!ी को प्राय: लोग कलंक, कं�न, मंiन, बंधन औ� दंप!ी चिलख!े हैं। बहु! लोग इस प्रणाली को पस द नहीं क�!े, सं2कृ! रूप में ही उ- शब्दों का चिलखना अच्छा समb!े हैं। यह अपनी-अपनी रुचि� औ� सुतिवधा की बा! है। कथन !ो यह है तिक उ- तिद्वत्व वणO औ� पं�म वणO के प्रयोग में जो परि�व!Oन हो �हा है, वह आपभित्त-मूलक नहीं माना जा �हा है। इसचिलए जो �ाहे जिजस रूप में उन शब्दों को चिलख सक!ा है। खड़ी बोली के गद्य-पद्य दोनों में यह प्रणाली गृही! है, अष्टिधक!� पद्य में। श्रु!बोधका� चिलख!े हैं-

संयु-ादं्य दीर्घO सानु2वा�ं तिवसगO संष्टिमश्रं।

तिवज्ञेयमक्ष�ं गुरु पादा !स्थं तिवकल्पेन॥

संयु- अक्ष� के पहले का दीर्घO, सानु2वा�, तिवसगO संयु- अक्ष� गुरु माना जाएगा, तिवकल्प से पादा !स्थ अक्ष� भी गुरु कहला!ा है।

इस तिनयम से संयु- अक्ष� के पहले का अक्ष� सदा गुरु अथवा दीर्घO माना जावेगा। प्रश्न यह है तिक क्या तिह दी में भी यह व्यवस्था सवOथा 2वीकृ! होगी? तिह दी में यह तिवषय वादग्र2! है। �ामप्रसाद को �ामप्प्रसाद नहीं कहा जा!ा, मुख क्रोध से लाल हो गया को मुखक्क्रोध से लाल हो गया नहीं पढ़ा जाएगा। पतिवत्र प्रयाग को न !ो पतिवत्रप्प्रयाग कहा

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जाएगा, न कायO के्षत्र को कायOच्क्षेत्र पढ़ा जाएगा। सं2कृ! का तिवद्वान् भले ही ऐसा कह ले अथवा पढ़ ले,प� !ु सवOसाधा�ण अथवा तिह दी या अ य भाषा का तिवद्वान् न !ो ऐसा कह सकेगा, न पढ़ सकेगा। वह !ो वही कहेगा औ� पढे़गा, जो चिलत्किख! अक्ष�ों के आधा� से पढ़ा जा सक!ा है या कहा जा सक!ा है। सं2कृ! का तिवद्वान भी न !ो गोतिव दप्रसाद को गोतिव दप्प्रसाद कहेगा न चिशवप्रसाद को चिशवप्प्रसाद,क्योंतिक सवOसाधा�ण के उच्चा�ण का न !ो वह अपलाप क� सक!ा है, न बोल�ाल की भाषा से अनभिभज्ञ बनक� उपहास-भाजन बन सक!ा है। अवधी औ� ब्रज-भाषा में इस प्रका� का प्रयोग ष्टिमल!ा ही नहीं, क्योंतिक वे बोल�ाल के �ंग में ढली हुई हैं। 'प्रभु !ुम कहाँ न प्रभु!ा क�ी, के 'न' को दीर्घO बना देंगे !ो छ दो-भंग हो जाएगा। तिह दी-भाषा की प्रकृति! प� यदिद तिव�ा� क�ेंगे औ� चिलतिप-प्रणाली की यदिद �क्षा क�ेंगे, यदिद यह �ाहेंगे तिक जो चिलखा है वही पढ़ा जावे,थोड़ी तिवद्या-बुत्किध्द का मनुष्य भी जिजस वाक्य को जिजस प्रका� पढ़!ा है, उसका उच्चा�ण उसी प्रका� हो!ा �हे !ो संयु- वणO के पहले के अक्ष� को तिह दी में दीर्घO पढ़ने की प्रणाली गृही! नहीं हो सक!ी, उसमें एक प्रका� की दुरूह!ा है। अष्टिधकांश तिह दी के तिवद्वानों की यही सम्मति! है। प� !ु तिह दी के कुछ तिवद्वान् उ- प्रणाली के पक्षपा!ी हैं औ� अपनी ��नाओं में उसकी �क्षा पूणO!या क�!े हैं। संयु-ाक्ष� के पहले का अक्ष� 2वभाव!: दीर्घO हो जा!ा है जैसे-गल्प, अल्प,उत्त�, तिवप्र, देवस्थान, शुभ्र, सु द�, गवO, पवO, तिकजिb!, महत्तम, मुद.� आदिद। ऐसे शब्दों के तिवषय में कोई !कO -तिव!कO नहीं है, गद्य-पद्य दोनों में इनका प्रयोग सुतिवधा के साथ हो सक!ा है औ� हो!ा भी है। प� !ु कुछ सम2! शब्दों में ही bगड़ा पड़!ा है औ� वाद उ हीं के तिवषय में है। ऐसे शब्द देवव्र!,धम्मOच्युति!, गवOप्रह�ी, सुकृति!-2वरूपा आदिद हैं। सं2कृ! में उनका उच्चा�ण देवव्व्र!, धमOच्चयुति!, गवOप्प्रहा�ी औ� सुकृति!-22वरूपा होगा। सं2कृ! के पज्जिhi! भाषा में भी इनका उच्चा�ण इसी प्रका� क�ेंगे। प� !ु तिह दी-भाषा भिभज्ञ इनका उच्चा�ण उसी रूप में क�ेंगे जिजस रूप में वे चिलखे हुए हैं। अब !क यह तिवषय वादग्र2! है। गद्य में !ो संयु- शब्दों के पहले के अक्ष� को दीर्घO बनाने में कोई अ !� न पडे़गा, तिक !ु पद्य में तिवशेष क� मातित्रक-छ दों में उसके दीर्घO उच्चा�ण क�ने में छ दो-भंग होगा, यदिद पद्यकत्ताO ने उसको दीर्घO मानक� ही उसका प्रयोग नहीं तिकया है। प� !ु केवल भाषा का ज्ञान �खनेवाला ऐसा न क� सकेगा; हाँ, सं2कृ!ज्ञ ऐसा क� सकेगा। तिक !ु तिह दी कतिव!ा क�नेवालों में सं2कृ!ज्ञ इने- तिगने ही हैं। इसीचिलए इस प्रका� के प्रयोग के तिव�ोधी ही अष्टिधक हैं,औ� अष्टिधक सम्मति! उ हीं के पक्ष में है। मे�ा तिव�ा� यह है तिक तिवकल्प से यदिद इस प्रयोग को मान चिलया जावे !ो वह उपयोगी होगा। जहाँ छ दोगति! तिबगड़!ी हो वहाँ समास न तिकया जावे, औ� जहाँ छ दोगति! को सहाय!ा ष्टिमल!ी हो वहाँ समास क� दिदया जावे। प्राय: ऐसा ही तिकया भी जा!ा है। प� !ु समास न क�नेवालों की ही संख्या अष्टिधक है, क्योंतिक सुतिवधा इसी में है।

वज्र-भाषा औ� अवधी का यह तिनयम है-

'लर्घु गुरु गुरु लर्घु हो! है तिनज इच्छा अनुसा�।

गो2वामी !ुलसीदास जी जैसे समथO महाकतिव भी चिलख!े हैं-

ब दों गुरु पद पदुम प�ागा। स�स सुवास सुरुचि� अनु�ागा॥

अष्टिमय मूरि�मय �ू�न �ारू। समन सकल भवरुज परि�वारू॥

प�ाग को प�ागा, अनु�ाग को अनु�ागा, �ारु को �ारू औ� परि�वा� को पारि�वारू क� दिदया गया है।

प्रज्ञा�कु्ष सू�दासजी चिलख!े हैं-

जसुदा हरि� पालने bुलावै।

दुल�ावै हल�ाइ मल्हावै जोई सोई कछु गावै।

मे�े लाल को आउ निनंदरि�या काहे न आतिन सोआवै॥

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जसोदा को जसुदा, जोई के 'जो' को सोई के 'सो' को औ� मे�े के 'मे' को लर्घु क� दिदया गया है। गो2वामी जी के पद्य में लर्घु को दीर्घO बनाया गया है।

उदूO में !ो शब्दों के !ोड़ने-म�ोड़ने की प�वा ही नहीं की जा!ी। एक शे'� को देत्किखए-

कोई मे�े दिदल से पूछे !े�े !ी� नीमकश को।

यह ख़चिलश कहाँ से हो!ी जो जिजग� के पा� हो!ा॥

जिजन शब्दों के नी�े लकी� खिखं�ी हुई हैं वे बे!�ह !ोडे़-म�ोडे़ गये हैं। लर्घु को गुरु बनाने !क !ो दिठकाना था, प� उ- शे'� में अक्ष� !क उड़ गये हैं, शे� का असली रूप यह होगा-

कई मे� दिदल स पूछे, !� !ी� नीमकश को।

य खचिलश कहाँ स हो!ी ज जिजग� क पा� हो!ा।

खड़ी बोली की कतिव!ा में न !ो लर्घु को दीर्घO बनाया जा!ा है औ� न दीर्घO को लर्घु। उदूO की कतिव!ा के समान उसमें शब्दों का संहा� भी नहीं हो!ा। प� !ु कुछ परि�व!Oन ऐसे हैं जिजनको उसने 2वीका� क� चिलया है। 'अमृ!' शब्द !ीन मात्र का है, प� !ु कभी-कभी उसको चिलखा जा!ा है। 'अमृ!' ही, प� !ु पढ़ा जा!ा है 'अम्मृ!'। बोल�ाल में उसका उच्चा�ण इसी रूप में हो!ा है। बहु! लोगों का यह तिव�ा� है तिक 'मृ' संयु- वणO है इसचिलए उसके आदिद के अक्ष� ('अ') का गुरु होना 2वाभातिवक है। इसचिलए दो 'म' अमृ! में नहीं चिलखा जा!ा। प� !ु 'ऋ' यु- वणO संयु- वणO नहीं माना जा!ा, इसचिलए यह तिव�ा� ठीक नहीं है। प� !ु उच्चा�ण लोगों को भ्रम में iाल दे!ा है। इसचिलए उसका प्रयोग प्राय: अमृ! के रूप में ही हो!ा है। कभी-कभी छ दो-गति! की �क्षा के चिलए'अमृ!' भी चिलखा जा!ा है। सं2कृ! का हल ! वणO तिह दी में तिवशेष क� कतिव!ा में प्राय: हल ! नहीं चिलखा दिदखला!ा, उसको स2व� ही चिलख!े हैं। 'तिवद्वान'को इसी रूप में चिलखेंगे, इसके 'न' को हल ! न क�ेंगे। इसमें सुतिवधा समbी जा!ी है। सं2कृ! में वणO-वृत्त का प्र�ा� है, उसमें हल ! वणO को गणना के समय वणO माना ही नहीं जा!ा-

'�ामम् �ामानुजम् सी!ाम् भ�!म् भ�!ानुजम्।

सुग्रीवम् बाचिल सूनुम् � प्रणमाष्टिम पुन: पुन:॥

अनुHुप छ द का एक-एक ��ण आठ वणO का हो!ा है। यदिद इस पद्य में वण� की गणना क�के देखें !ो ज्ञा! हो जाएगा तिक सब हल ! वणO गणना में नहीं आ!े। प� !ु मातित्रक छ दों में वह लर्घु माना ही जावेगा, इसचिलए उसे हल ! न क�ने की प्रणाली �ल पड़ी है। प� !ु यह प्रणाली भी वाद-ग्र2! है। तिह दी-लेखक प्रायश: पद्य में हल ! न चिलखने के पक्षपा!ी हैं, प� !ु सं2कृ! के तिवद्वान् उसके चिलखे जाने के पक्ष में हैं। व्रज-भाषा औ� अवधी में भी हल ! वणO को स2व� क� दे!े हैं, जैसे-ममO को म�म, भ्रम को भ�म, गवO को ग�ब, पवO को प�ब, आदिद। तिह दी में �ं�ल लड़की, दिदव्य ज्योति!, 2वच्छ सड़क, स�स बा!ें, सु द� कली, कहने औ� चिलखने की प्रhली है। कुछ लोग समb!े हैं तिक इस प्रका� चिलखना अशुध्द है। �ं�ला लड़की, दिदव्या ज्योति!, 2वच्छा सड़क, स�सा बा!ें औ� सु द�ी कली चिलखना शुध्द होगा। तिक !ु यह अज्ञान है। सं2कृ!-तिनयम से भी प्रथम प्रयोग शुध्द है। मुतिनव� पाभिणतिन का तिनम्नचिलत्किख! सूत्र इसका प्रमाण है-

'पंु�त् कर्म्मर्मधारय जातीय देशेषु'

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दूस�ी बा! यह तिक सं2कृ! के सब तिनयम यथा!थ्य तिह दी में नहीं माने जा!े, उनमें अ !� हो!ा ही �ह!ा है। आत्मा, पवन, वायु सं2कृ! में पुज्जिल्लंग हैं,तिक !ु तिह दी में वे 2त्री-सिलंग चिलखे जा!े हैं। भा�!े दु जी जैसे तिह दी भाषा के प्रगल्भ तिवद्वान् चिलख!े हैं-

'सन सन लगी सी�ी पौन �लन,

सहृदयव� तिबहा�ीलाल कह!े हैं-

'!ुमहूँ लागी जग! गुरु जगनायक जगवाय '

कतिवव� वृ द का यह कथन है-

तिबना iुलाए ना ष्टिमलै ज्यों पंखा की पौन]

मैं पहले कह आया हूँ तिक तिह दी-भाषा की जो तिवशेष!ायें हैं उ हें सु�भिक्ष! �खना होगा, वा2!व!ा यही है अ यथा उसमें कोई तिनयम न �ह जावेगा। समय परि�व!Oनशील है, उसके साथ सं2कृति!, भाषा, तिव�ा�, �हन-सहन, �ंग-ढंग, वेश-भूषा आदिद सब परि�वभित्त! हो!े हैं। प� !ु उसकी भी सीमा है औ� उसके भी!� भी तिनयम हैं। वैदिदक-काल से अब !क भाषा में परि�वत्तOन हो!े आये हैं। सं2कृ! के बाद प्राकृ!, प्राकृ! के उप�ा ! अपभं्रश; अपभं्रश से तिह दी का प्रादुभाOव हुआ। एक सं2कृ! से तिक!नी प्राकृ! भाषाए ँ बनीं औ� प�स्प� उनमें तिक!ना रूपा !� हुआ, यह भी अतिवदिद! नहीं है। अ य भाषाओं को छोड़ दीजिजए, तिह दी को ही गवेषणा-दृष्टिH से देत्किखये !ो उसके ही अनेक रूप दृष्टिHग! हो!े हैं। शौ�सेनी के अ य!म रूप अवधी, व्रज-भाषा औ� खड़ी बोली हैं, तिक !ु इ हीं में तिक!ना तिवभेद दिदखला!ा है। 'अवधी' जिजसमें गो2वामीजी का लोक-पूज्य �ाम�रि�!मानस सा लोकोत्त� गं्रथ है, जायसी का मनोह� ग्रन्थ पद्माव! है, आज उ!नी आदृ! नहीं है। जो वज्र-भाषा अपने ही प्रा ! में नहीं, अ य प्रा !ों में भी सम्मातिन! थी; पंजाब से बंगाल !क, �ाजस्थान से मध्य तिह द !क जिजसकी तिवजय-वैजय !ी उड़ �ही थी, जो प्रज्ञा�कु्ष सू�दास की अलौतिकक ��ना ही से अलंकृ! नहीं है, समाद�णीय स !ों औ� बडे़-बडे़ कतिवयों अथवा महाकतिवयों की कृति!यों से भी मालामाल है। पाँ� सौ वषO से भी अष्टिधक जिजसकी तिवजय-दंुदुभी का तिननाद हो!ा �हा है, आज वह भी तिवशाल कतिव!ा के्षत्र से उपेभिक्ष! है, यहाँ !क तिक खड़ी बोली कतिव!ा में उसके तिकसी शब्द का आ जाना भी अच्छा नहीं समbा जा!ा। इन दिदनों कतिव!ा-के्षत्र प� खड़ी बोली का साम्राज्य है औ� उसकी तिवशेष!ाओं की ओ� इन दिदनों सबकी दृष्टिH है। तिह दी-भाषा के अ !गO! व्रज-भाषा, अवधी, तिबहा�ी, �ाजस्थानी, बु देलखhiी औ� मध्य तिह द की सभी प्र�चिल! बोचिलयाँ हैं। तिक !ु इस समय प्रधान!ा खड़ी बोली की है। यथा काल जैसे शौ�सेनी औ� व्रज-भाषा का प्रसा� था, वैसा ही आज खड़ी बोली का बोल-बाला है। आज दिदन कौन सा प्रा ! है, जहाँ खड़ी बोली का प्रसा� औ� तिव2!ा� नहीं। तिह दी-भाषा के गद्य रूप में जिजसका आधा� खड़ी बोली है, भा�!वषO के तिकस प्रधान नग� से साप्!ातिहक औ� दैतिनक पत्र नहीं तिनकल!े। उसके पद्य-गं्रथों का आद� भा�! व्यापी है इसचिलए खड़ी बोली आज दिदन मँज गयी है औ� उसका रूप परि�मार्जिजं! हो गया है। व्रज-भाषा औ� अवधी आदिद कुछ बोचिलयाँ अब भी समाद�णीय हैं, अब भी उनमें सत्कतिव!ा क�ने वाले सCन हैं, तिवशेष क� व्रज-भाषा में। प� !ु उन प� अष्टिधक!� प्रा !ीय!ा का �ंग �ढ़ा हुआ है। यदिद इस समय भा�!-व्यातिपनी कोई भाषा है !ो खड़ी बोली ही है। प�ास वषO में वह जिज!नी समुन्न! हुई, उ!नी उन्नति! क�!े तिकसी भाषा को नहीं देखा गया। उदूO के पे्रमी जो कहें, प� वह तिह दी की रूपा !� मात्र है औ� उसी की गोद में पली है। औ� इसीचिलए कुछ प्रा !ों में समादिद्र! भी है। तिह दी-भाषा के योग्य एवं गhयमा य तिवबुधों ने खड़ी बोली को जो रूप दिदया है औ� जिजस प्रका� उसे सवO गुणालंकृ! बनाया है वह उल्लेखनीय ही नहीं अभिभन दनीय भी है। अब भी उसमें देश काल की आवश्यक!ाओं प� दृष्टिH �खक� उचि�! परि�व!Oन हो!े �ह!े हैं। वा2!व बा! यह है तिक खड़ी बोली की तिह दी का 2वरूप इस समय स !ोषजनक औ� सवाeग पुH है। इध� थोडे़ दिदनों से कुछ लोगों की उचंृ्छखल!ा बढ़ गयी है, मनमानी होने लगी है। मुहाव�े भी गढे़ जाने लगे हैं औ� कुछ मनमाने प्रयोग भी होने लगे हैं, तिक !ु इसके का�ण अनभिभज्ञ!ा, अपरि�पक्व!ा औ� प्रा !ीय!ा हैं। भाषा में ही नहीं, भावों में भी क!�-ब्यों! हो �हा है, आसमान के !ा�े !ोडे़ जा �हे हैं, 2व! त्र!ा के नाम प� मनस्वि2व!ा का निiंतिiम नाद क� कला को तिवकल बनाया जा �हा है या प्रति!भा उद्यान में नये फूल त्किखलाए जा �हे हैं। तिक !ु ए मानस-उदष्टिध की वे !�ंगें हैं जो तिकसी समय तिवशेष रूप में !�ंतिग! होक� तिफ� यथाकाल अपने यथाथO रूप में तिवलीन हो जा!ी हैं। भाषा

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का प्रवाह सदा ऐसा ही �हा है औ� �हेगा। प� !ु काल का तिनयंत्रण भी अपना प्रभाव �ख!ा है, उसकी शचि- भी अतिनवायO है।

मैंने तिह दी-भाषा के आधुतिनक रूप (खड़ी बोली) के प्रधान प्रधान चिसध्दा !ों के तिवषय में जो थोडे़ में कहा है, वह दिदग्दशOन मात्र है। अष्टिधक तिव2!ा� सम्भव न था। उ हीं प� दृष्टिH �खक� मैंने 'वैदेही-वनवास' के पद्यों की ��ना की है। कतिव-कमO की दुरूह!ा मैंने पहले ही तिनरूपण की है, मनुष्य भूल औ� भ्रान्ति ! �तिह! हो!ा नहीं। महाकतिव भी इनसे सु�भिक्ष! नहीं �ह सके। कतिव!ाग! दोष इ!ने व्यापक हैं तिक उनसे बडे़-बडे़ प्रति!भावान् भी नहीं ब� सके। मैं साधा�ण तिवद्या, बुत्किध्द का मनुष्य हूँ, इन सब बा!ों से �तिह! कैसे हो सक!ा हूँ। तिवबुधवृ द औ� सहृदय सCनों से सतिवनय यही तिनवेदन है तिक गं्रथ में यदिद कुछ गुण हों !ो वे उ हें अपनी सहज सदाशय!ा का प्रसाद समbेंगे, दोष-ही-दोष ष्टिमलें !ो अपनी उदात्त चि�त्त-वृभित्त प� दृष्टिH �खक� एक अल्प तिवषयामति! को क्षमा दान क�ने की कृपा क�ेंगे।

दोहा

जिजसक े सेवन स े बन े पाम� न�-चिस�मौ�। �ाम �सायन से स�स है न �सायन औ�॥

उप�न रोला पीछे     आगे

लोक-�ंजिजनी उषा-सु द�ी �ंजन-�! थी।

नभ-!ल था अनु�ाग-�ँगा आभा-तिनगO! थी॥

धी�े-धी�े ति!�ोभू! !ामस हो!ा था।

ज्योति!-बीज प्रा�ी-प्रदेश में दिदव बो!ा था॥1॥

तिक�णों का आगमन देख ऊषा मुसकाई।

ष्टिमले सादिटका-लैस-टँकी लचिस!ा बन पाई॥

अरुण-अंक से छटा छलक भिक्षति!-!ल प� छाई।

भृंग गान क� उठे तिवटप प� बजी बधाई॥2॥

दिदन मभिण तिनकले, तिक�ण ने नवलज्योति! जगाई।

मु--माचिलका तिवटप !ृणावचिल !क ने पाई॥

शी!ल बहा समी� कुसुम-कुल त्किखले दिदखाए।

!रु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥

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स�-सरि�!ा का सचिलल सु�ारु बना लह�ाया।

तिब दु-तिन�य ने �तिव के क� से मो!ी पाया॥

उठ-उठ क� ना�ने लगीं बहु-!�ल !�ंगें।

दिदव्य बन गईं वरुण-देव की तिवपुल उमंगें॥4॥

सा�ा-!म टल गया अंध!ा भव की छूटी।

प्रकृति!-कंठ-ग! मुग्ध-क�ी मभिणमाला टूटी॥

बी! गयी याष्टिमनी दिदवस की तिफ�ी दुहाई।

बनीं दिदशाए ँदिदव्य प्रभा! प्रभा दिदखलाई॥5॥

एक �म्य!म-नग� सुधा-धावचिल!-धामों प�।

पड़ क� तिक�णें दिदखा �ही थीं दृश्य-मनोह�॥

गगन-स्पश� ध्वजा-पंुज के, �त्न-तिवमज्जिhi!-

कनक-दhi, दु्यति! दिदखा बना!े थे बहु-हर्विषं!॥6॥

तिक�णें उनकी का ! कान्ति ! से ष्टिमल जब लस!ीं।

तिनज आभा को जब उनकी आभा प� कस!ीं॥

दशOक दृग उस समय न टाले से टल पा!े।

व ेहो!े थे मुग्ध, हृदय थे उछले जा!े॥7॥

दमक-दमक क� तिवपुल-कलस जो कला दिदखा!े।

उसे देख �तिव ज्योति! दान क�!े न अर्घा!े॥

दिदवस काल में उ हें न तिक�णें !ज पा!ी थीं।

आये संध्या-समय तिववश बन हट जा!ी थीं॥8॥

तिहल तिहल मंजुल-ध्वजा अलौतिकक!ा थी पा!ी।

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दशOक-दृग को बा�-बा� थी मुग्ध बना!ी॥

!ो�ण प� से स�स-वाद्य ध्वतिन जो आ!ी थी।

मानो सुन वह उसे नृत्य-�! दिदखला!ी थी॥9॥

इन धामों के पाश्वO-भाग में बड़ा मनोह�।

एक �म्य-उपवन था न दन-वन सा सु द�॥

उसके नी�े !�ल-!�ंगाष्टिय! सरि�-धा�ा।

प्रवह-मान हो क�!ी थी कल-कल-�व या�ा॥10॥

उसके उ� में लसी का !-अरुणोदय-लाली।

तिक�णों से ष्टिमल, दिदखा �ही थी कान्ति !-तिन�ाली।

तिकयत्काल उप�ा ! अंक सरि� का हो उज्ज्वल।

लगा जगमगाने नयनों में भ� कौ!ूहल॥11॥

उठे बुलबुले कनक-कान्ति ! से कान्ति !मान बन।

लगे दिदखाने सामूतिहक अति!-अद्भ!ु-न!Oन॥

उठी !�ंगें �तिव क� का �ुम्बन थीं क�!ी।

पाक� मंद-समी� तिवह�!ीं उमग उभ�!ीं॥12॥

सरि�!-गभO में पड़ा तिबम्ब प्रासाद-तिन�य का।

कूल-तिव�ाजिज! तिवटप-�ाजिज छाया अभिभनय का॥

दृश्य बड़ा था �म्य था महा-मंजु दिदखा!ा।

लह�ों में लह�ा लह�ा था मुग्ध बना!ा॥13॥

उपवन के अति!-उच्च एक मhiप में तिवलसी।

मूर्वि!ं-युगल इन दृश्यों के देखे थी तिवकसी॥

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इनमें से थे एक दिदवाक� कुल के मhiन।

श्याम गा! आजानु-बाहु स�सीरूह-लो�न॥14॥

मयाOदा के धाम शील-सौज य-ध�ंुध�।

दश�थ-न दन �ाम प�म-�मणीय-कलेव�॥

थीं दूस�ी तिवदेह-नजि दनी लोक-ललामा।

सुकृति!-2वरूपा स!ी तिवपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥

व ेबैठी पति! साथ देख!ी थीं सरि�-लीला।

था वदनांबुज तिवक� वभृित्त थी संयम-शीला॥

स�स मधु� व�नों के मो!ी कभी तिप�ो!ीं।

कभी प्रभा!-तिवभूति! तिवलोक प्रफुज्जिल्ल! हो!ीं॥16॥

बोले �र्घुकुल-ति!लक तिप्रये प्रा!:-छतिब प्या�ी।

है तिन!ा !-कमनीय लोक-अनु�ंजनका�ी॥

प्रकृति!-मृदुल-!म-भाव-तिन�य से हो हो लचिस!ा।

दिदनमभिण-कोमल-कान्ति ! व्याज से है सुतिवकचिस!ा॥17॥

स�यू सरि� ही नहीं स�स बन है लह�ा!ी।

सभी ओ� है छटा छलक!ी सी दिदखला!ी॥

�जनी का व�-व्योम तिवपुल वचैि�त्रय भ�ा है।

दिदन में बन!ी दिदव्य-दृश्य-आधा� ध�ा है॥18॥

हो !�ंतिग!ा-लचिस!ा-सरि�!ा यदिद है भा!ी।

!ो दोचिल!-!रु-�ाजिज कम नहीं छटा दिदखा!ी॥

जल में ति!�!ी केचिल मयी मछचिलयाँ मनोह�।

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क� दे!ी हैं सरि�!-अंक को जो अति! सु द�॥19॥

!ो !रुओं प� लसे तिवह�!े आ!े जा!े।

�ंग तिव�ंग ेतिवहग-व ृद कम नहीं लुभा!े॥

सरि�!ा की उज्वल!ा !रु�य की हरि�याली।

�ख!ी है छतिब दिदखा मंजु!ा-मुख की लाली॥20॥

हैं प्रभा! उत्फुल्ल-मूर्वि! ंकुसुमों में पा!े।

आहा! व ेकैसे हैं फूले नहीं समा!े॥

मानो व ेहैं महान द-ध�ा में बह!े।

खोल-खोल मुख व�-तिवनोद-बा!ें हैं कह!े॥21॥

है उसकी माधु�ी तिवहग-�ट में ष्टिमल पा!ी।

जो ष्टिमठास से तिकसे नहीं है मुग्ध बना!ी॥

म द-म द बह बह समी� सौ�भ फैला!ा।

सुख-स्पशO सदं्गधा-सदन है उसे ब!ा!ा॥22॥

हैं उसकी दिदव्य!ा दमक तिक�णें दिदखला!ी।

जगी-ज्योति! उसको ज्योति!मOय है ब!ला!ी॥

सहज-स�स!ा, मोहक!ा, सरि�!ा है कह!ी।

लचिल! लह�-चिलतिप-माला में है चिलख!ी �ह!ी॥23॥

जगी हुई जन!ा तिनज कोलाहल के द्वा�ा।

कमO-के्षत्र में बही तिवतिवध-कम� की धा�ा॥

उसकी जाग्र! क�ण तिक्रया को है ज!ला!ी।

नाना-गौ�व-गी! सहज-2व� से है गा!ी॥24॥

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लोक-नयन-आलोक, रुचि��-जीवन-सं�ा�क।

सू्फर्वि!ं-मूर्वि! ंउत्साह-उत्स जागतृि!-प्र�ा�क॥

भव का प्रकृ!-2वरूप-प्रदशOक, छतिब-तिनमाO!ा।

है प्रभा! उल्लास-लचिस! दिदव्य!ा-तिवधा!ा॥25॥

तिक!नी है कमनीय-प्रकृति! कैसे ब!लाए।ँ

उसके सकल-अलौतिकक गुण-गण कैसे गायें॥

है अ!ीव-कोमला तिवश्व-मोहक-छतिब वाली।

बड़ी सु द�ी सहज-2वभावा भोली-भाली॥।26॥

करुणभाव से चिस- सदय!ा की है देवी।

है संसृति! की भूति!-�ाचिश पद-पंकज-सेवी॥

हैं उसके बहु-रूप तिवतिवध!ा है व�णीया।

प्रा!:-काचिलक-मूर्वि!ं अष्टिधक!� है �मणीया॥27॥

जनक-सु!ा ने कहा प्रकृति!-मतिहमा है मह!ी।

प� वह कैसे लोक-या!नाए ँहै सह!ी॥

क्या है हृदय-तिवहीन? !ो अत्किखल-हृदय बना क्यों?

यदिद है सहृदय ऑंखों से ऑंसू न छना क्यों?॥28॥

यदिद वह जड़ है !ो �े!न क्यों, �े!, न पाया।

दु:ख-दग्ध संसा� तिकस चिलए गया बनाया॥

तिक!नी सु द�-स�स-दिदव्य-��ना वह हो!ी।

जिजसमें मानस-हंस सदा पा!ा सुख-मो!ी॥29॥

कुछ पहले थी तिनशा सु द�ी कैसी लस!ी।

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चिस!ा-सादिटका ष्टिमले �ही कैसी वह हँस!ी॥

पहन !ा�कावचिल की मंजुल-मु-ा-माला।

� द्र-वदन अवलोक सुधा का पी पी प्याला॥30॥

प्राय: उल्का पंुज पा! से उद्भाचिस! बन।

दीपावचिल का ष्टिमले सवOदा दीन्तिप्!-मान-!न॥

देखे कति!पय-तिवक�-प्रसूनों प� छतिब छाई।

तिवभाव�ी थी तिवपुल तिवनोदमयी दिदखलाई॥31॥

अष्टिम!-दिदव्य-!ा�क-�य द्वा�ा तिवभु-तिवभु!ा की।

जिजसने दिदखलाई दिदव-दिदव!ा की ब�-bाँकी॥

भव-तिव�ाम जिजसके तिवभवों प� है अवलंतिब!।

वह �जनी इस काल-काल द्वा�ा है कवचिल!॥32॥

जो मयंक नभ!ल को था बहु का ! बना!ा।

वसंुध�ा प� स�स-सुधा जो था ब�सा!ा॥

जो �जनी को लोक-�ंजिजनी है क� पा!ा।

वही !ेज-ह! हो अब है iूब!ा दिदखा!ा॥33॥

जो स�यू इस समय स�स-!म है दिदखला!ी।

उठा-उठा क� लचिल! लह� जो है लल�ा!ी॥

शा !, धी�, गति! जिजसकी है मृदु!ा चिसखला!ी।

ज्योति!मयी बन जो है अ !�-ज्योति! जगा!ी॥34॥

सावन का क� संग वही पा!क क�!ी है।

क� तिनमग्न बहु जीवों का जीवन ह�!ी है॥

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iुबा बहु! से सदन, तिग�ाक� !ट-तिवटपी को।

क�!ी है जल-मग्न श2य-श्यामला मही को॥35॥

कल मैंने था जिजन फूलों को फूला देखा।

जिजनकी छतिब प� मधुप-तिनक� को भूला देखा॥

प्रफुल्ल!ा जिजनकी थी बहु उत्फुल्ल बना!ी।

जिजनकी मंजुल-महँक मुदिद! मन को क� पा!ी॥36॥

उनमें से कुछ धूल में पडे़ हैं दिदखला!े।

कुछ हैं कुम्हला गये औ� कुछ हैं कुम्हला!े॥

तिक!ने हैं छतिब-हीन बने नु�!े हैं तिक!ने।

तिक!ने हैं उ!ने न का ! पहले थे जिज!ने॥37॥

सु द�!ा में कौन क� सका सम!ा जिजनकी।

उ हें ष्टिमली है आयु एक दिदन या दो दिदन की॥

फूलों सा उत्फुल्ल कौन भव में दिदखलाया।

तिक !ु उ होंने तिक!ना लर्घु-जीवन है पाया॥38॥

2वणOपु�ी का दहन आज भी भूल न पाया।

बड़ा भयंक�-दृश्य उस समय था दिदखलाया॥

तिन�अप�ाध बालक-तिवलाप अबला का कं्रदन।

तिववश-वृध्द-वृध्दाओं का व्याकुल बन �ोदन॥39॥

�ोगी-जन की हाय-हाय आहें कृश-जन की।

जल!े जन की त्रातिह-त्रातिह का!�!ा मन की॥

ज्वाला से ष्टिर्घ� गये व्यचि-यों का चि�ल्लाना।

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अवलोके गृह-दाह गृही का थ�ाO जाना॥40॥

भ2म हो गये तिप्रय 2वजनों का !न अवलोके।

उनकी दुगOति! का वणOन क�ना �ो �ो के॥

बहु! कलपना उसको जो था वारि� न पा!ा।

जब हो!ा है याद चि�! व्यचिथ! है हो जा!ा॥41॥

सम�-समय की महालोक संहा�क लीला।

�ण भू का पवO! समान ऊँ�ा शव-टीला॥

बह!ी �ा�ों ओ� रुष्टिध� की ख�-!�-धा�ा।

ध�ा कँपा क� बज!ा हाहाका� नगा�ा॥42॥

कं्रदन, कोलाहल, बहु आहों की भ�मा�ें।

आह! जन की लोक प्रकंतिप! क�ी पुका�ें॥

कहाँ भूल पाईं व े!ो हैं भूल न पा!ी।

2मृति! उनकी है आज भी मुbे बहु! स!ा!ी॥43॥

आह! स!ी चिस�धा�ी प्रमीला का बहु कं्रदन।

उसकी बहु व्याकुल!ा उसका हृदयसं्पदन॥

मेर्घनाद शव सतिह! चि�!ा प� उसका �ढ़ना।

पति! प्राणा का पे्रम पंथ में आगे बढ़ना॥44॥

कुछ क्षण में उस 2वगO-सु द�ी का जल जाना।

ष्टिमट्टी में अपना महान सौ दयO ष्टिमलाना॥

बड़ी दु:ख-दाष्टियनी ममO-वेधी-बा!ें हैं।

जिजनको कह!े खडे़ �ोंगटे हो जा!े हैं॥45॥

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पति! प�ायणा थी वह क्यों जीतिव! �ह पा!ी।

पति! ��णों में हुई अर्विपं!ा पति! की था!ी॥

ध य भाग्य, जो उसने अपना ज म बनाया।

सत्य-पे्रम-पथ-पचिथका बन बहु गौ�व पाया॥46॥

व्यथा यही है पड़ी स!ी क्यों दुख के पाले।

पडे़ पे्रम-मय उ� में कैसे कुज्जित्स! छाले॥

आह! भाग्य कैसे उस पति! प्राणा का फूटा।

म�ने प� भी जिजससे पति! पद-कंज न छूटा॥47॥

कलह मूल हँू शान्ति ! इसी से मैं खो!ी हँू।

ममाOह! मैं इसीचिलए बहुधा हो!ी हँू॥

जो पातिपनी-प्रवृभित्त न लंका-पति! की हो!ी।

क्यों बढ़!ा भूभा� मनुज!ा कैसे �ो!ी॥48॥

अच्छा हो!ा भली-वभृित्त ही जो भव पा!ा।

मंगल हो!ा सदा अमंगल मुख न दिदखा!ा॥

सबका हो!ा भला फले फूले सब हो!े।

हँस!े ष्टिमल!े लोग दिदखा!े कहीं न �ो!े॥49॥

हो!ा सुख का �ाज, कहीं दुख लेश न हो!ा।

तिह! �! �ह, कोई न बीज अनतिह! का बो!ा॥

पाक� बु�ी अशान्ति ! ग�ल!ा से छुटका�ा।

बह!ी भव में शान्ति !-सुधा की सु द� धा�ा॥50॥

हो जा!ा दुभाOव दू� सद्भाव स�स!ा।

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उमड़-उमड़ आन द जलद सब ओ� ब�स!ा॥

हो!ा अवगुण मग्न गुण पयोतिनष्टिध लह�ा!ा।

गजOन सुन क� दोष तिनकट आ!े थ�ाO!ा॥51॥

फूली �ह!ी सदा मनुज!ा की फुलवा�ी।

हो!ी उसकी स�स सु�भिभ तित्रभुवन की प्या�ी॥

तिक !ु कहँू क्या है तिवiम्बना तिवष्टिध की या�ी।

इ!ना कह क� त्किखन्न हो गईं जनक दुला�ी॥52॥

कहा �ाम ने यहाँ इसचिलए मैं हँू आया।

मुदिद! क� सकँू !ुम्हें तिप्रय!मे क� मनभाया॥

तिक !ु समय ने जब है सु द� समा दिदखाया।

पड़ी तिकस चिलए हृदय-मुकु� में दुख की छाया॥53॥

गभOव!ी हो �खो चि�त्त उत्फुल सदा ही।

पडे़ व्यचिथ! क� तिवषय की न उसप� प�छाँही॥

मा!ा-मानस-भाव समूहों में ढल!ा है।

प्रथम उद� पलने ही में बालक पल!ा है॥54॥

ह�े भ�े इस पीपल !रु को तिप्रये तिवलोको।

इसके �ं�ल-दीन्तिप्!मान-दल को अवलोको॥

व�-तिवशाल!ा इसकी है बहु-�तिक! बना!ी।

अप� द्रुमों प� शासन क�!ी है दिदखला!ी॥55॥

इसके फल दल से बहु-पशु-पक्षी पल!े हैं।

पा इसका पं�ांग �ोग तिक!ने टल!े हैं॥

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दे छाया का दान सुत्किख! सबको क�!ा है।

2वच्छ बना वह वायु दूषणों को ह�!ा है॥56॥

ष्टिमट्टी में ष्टिमल एक बीज, !रु बन जा!ा है।

जो सदैव बहुश: बीजों को उपजा!ा है॥

प्रकट देखने में तिवनाश उसका हो!ा है।

तिक !ु सृष्टिH गति! सरि� का वह बन!ा सो!ा है॥57॥

शी!ल मंद समी� सौ�भिभ! हो बह!ा है।

भव कानों में बा! स�स!ा की कह!ा है॥

प्राभिण मात्र के चि�! को वह पुलतिक! क�!ा है।

प्रा!: को तिप्रय बना सु�भिभ भू में भ�!ा है॥58॥

सुमनावचिल को हँसा त्किखला!ा है कचिलका को।

लीलामयी बना!ा है लचिस!ा लति!का को॥

!रु दल को क� केचिल-का ! है कला दिदखा!ा।

न!Oन क�ना लचिस! लह� को है चिसखला!ा॥59॥

ऐसे स�स पवन प्रवाह से, जो बुb जावे।

कोई दीपक या पत्ता तिग�!ा दिदखलावे॥

या कोई �ोगी श�ी� सह उसे न पावे।

या कोई !ृण उड़ दव में तिग� गा! जलावे॥60॥

!ो समी� को दोषी कैसे तिवश्व कहेगा।

है वह अपचि�ति!-�! न अ!: तिनदष �हेगा॥

है 2वभाव!: प्रकृति! तिवश्वतिह! में �! �ह!ी।

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इसीचिलए है तिवतिवध 2वरूपव!ी अति! मह!ी॥61॥

पं�भू! उसकी प्रवृभित्त के हैं परि��ायक।

हैं उसके तिवधान ही के तिवष्टिध सतिवष्टिध-तिवधायक॥

भव के सब परि�व!Oन हैं 2वाभातिवक हो!े।

मंगल के ही बीज तिवश्व में व ेहैं बो!े॥62॥

यदिद है प्रा!: दीप पवन गति! से बुb जा!ा।

!ो हो!ा है वही जिजसे जन-क� क� पा!ा॥

सूखा पत्ता नहीं तिक�ण ग्राही हो!ा है।

होके �स से हीन स�स!ाए ँखो!ा है॥63॥

हरि�! दलों के मध्य नहीं शोभा पा!ा है।

हो तिन2सा� तिवटप में लटका दिदखला!ा है॥

अ!: पवन 2वाभातिवक गति! है उसे तिग�ा!ी।

जिजससे वह हो सके मृभित्तका बन मतिहथा!ी॥64॥

सहज पवन की प्रगति! जो नहीं है सह जा!ी।

!ो �ोगी को सावधान!ा है चिसखला!ी॥

रूपा !� से प्रकृति! उसे है iाँट ब!ा!ी।

2वास्थ्य तिनयम पालन तिनष्टिमत्त है सजग बना!ी॥65॥

यह �ाह!ा समी� न था !ृण उड़ जल जाए।

थी न आग की �ाह �ाख वह उसे बनाए॥

तिक !ु पलक मा�!े हो गईं उभय तिक्रयाए।ँ

हो!ी हैं भव में प्राय: ऐसी र्घटनाए॥ँ66॥

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जो हो !ृण के !ुल्य !ुच्छ उड़!े तिफ�!े हैं।

प्रकृति! क�ों से व ेयों ही शाचिस! हो!े हैं॥

यह शासन कारि�णी वभृित्त श्रीम!ी प्रकृति! की।

है बहु मंगलमयी शोष्टिधका है संसृति! की॥67॥

आंधी का उत्पा! प!न उपलों का बहुधा।

तिहल तिहल क� जो महानाश क�!ी है वसुधा॥

ज्वालामुखी-प्रकोप उदष्टिध का ध�ा तिनगलना।

देशों का तिवध्वंस काल का आग उगलना॥68॥

इसी !�ह के भव-प्रपं� तिक!ने हैं ऐसे।

नहीं ब!ाए जा सक!े हैं व ेहैं जैसे॥

है असंख्य ब्रह्मांi 2वाष्टिमनी प्रकृति! कहा!ी।

बहु-�ह2यमय उसकी गति! क्यों जानी जा!ी॥69॥

कहाँ तिकसचिलए कब वह क्या क�!ी है क्यों क�।

कभी इसे ब!ला न सकेगा कोई बुधव�॥

तिक !ु प्रकृति! का परि�शीलन यह है ज!ला!ा।

है 2वाभातिवक!ा से उसका सच्चा ना!ा॥70॥

है वह तिवतिवध तिवधानमयी भव-तिनयमन-शीला।

लोक-�तिक!-क� है उसकी लोकोत्त� लीला॥

सामंज2य�!ा प्रवृभित्त सद्भाव भ�ी है।

चि��काचिलक अनुभूति! सवO सं!ाप ह�ी है॥71॥

यदिद उसकी तिवक�ाल मूर्वि!ं है कभी दिदखा!ी।

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!ो हो!ी है तिनतिह! सदा उसमें तिह! था!ी॥

!प ऋ!ु आक� जो हो!ा है !ाप तिवधा!ा।

!ो ला क� धन बन!ा है जग-जीवन-दा!ा॥72॥

जो आंधी उठ क� है कुछ उत्पा! म�ा!ी।

धूल उड़ा iाचिलयाँ !ोड़ है तिवटप तिग�ा!ी॥

!ो है जीवनप्रद समी� का शोधन क�!ी।

नयी तिह!क�ी भूति! ध�ा!ल में है भ�!ी॥73॥

जहाँ लाभप्रद अंश अष्टिधक पाया जा!ा है।

थोड़ी क्षति! का ध्यान वहाँ कब हो पा!ा है॥

जहाँ देश तिह! प्रश्न सामने आ जा!ा है।

लाखों चिश� अर्विपं! हो कट!ा दिदखला!ा है॥74॥

जाति! मुचि- के चिलए आत्म-बचिल दी जा!ी है।

प�म अमंगल तिक्रया पुhय कृति! कहला!ी है॥

इस �ह2य को बुध पंुगव जो समb न पा!े।

!ो प्रलयंक� कभी नहीं शंक� कहला!े॥75॥

सृष्टिH या प्रकृति! कृति! को, बहुधा कह क� माया।

कुल तिवबुधों ने है गुण-दोष-मयी ब!लाया॥

इस तिव�ा� से है चि�!्-शचि- कलंतिक! हो!ी।

बहु तिवदिद!ा तिनज सवO शचि-मत्त है खो!ी॥76॥

तिक !ु इस तिवषय प� अब मैं कुछ नहीं कहँूगा।

अष्टिधक तिवव�ेन के प्रवाह में नहीं बहूँगा।

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तिफ� !ुम हुईं प्रफुल्ल हुआ मे�ा मनभाया।

तिप्रये! कहाँ !ुमने ऐसा कोमल चि�! पाया॥77॥

सब को सुख हो कभी नहीं कोई दुख पाए।

सबका होवे भला तिकसी प� बला न आये॥

कब यह सम्भव है प� है कल्पना तिन�ाली।

है इसमें �स भ�ा सुधा है इसमें ढाली॥78॥

दोहा

इ!ना कह �र्घवुंश-मभिण, दिदखा अ!ुल-अनु�ाग।

सदन चिसधा�े चिसय सतिह!, !ज बहु-तिवलचिस! बाग॥79॥

 

चि$न्ति&तत चि$त्त $तुष्पद पीछे     आगे

अवध के �ाज मजि द�ों मध्य।

एक आलय था बहु-छतिब-धाम॥

खिखं�े थे जिजसमें ऐसे चि�त्र।

जो कहा!े थे लोक-ललाम॥1॥

दिदव्य-!म कारु-कायO अवलोक।

अलौतिकक हो!ा था आन द॥

�त्नमय पच्चीका�ी देख।

दिदव तिवभा पड़ जा!ी थी म द॥2॥

कला कृति! इ!नी थी कमनीय।

Page 26: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

दिदखा!े थे सब चि�त्र सजीव॥

भाव की यथा!थ्य!ा देख।

दृष्टिH हो!ी थी मुग्ध अ!ीव॥3॥

अंग-भंगी, आकृति! की व्यचि-।

चि�त्र के चि�त्रण की थी पूर्वि!ं॥

लचिल! !म क� की खिखं�ी लकी�।

बनी थी दिदव्य-भूति! की मूर्वि!॥ं4॥

देख!े हुए मुग्धक�-चि�त्र।

सदन में �ाम �हे थे र्घूम॥

�ाह थी चि�त्रका� ष्टिमल जाए।

हाथ !ो उसके लेवें �ूम॥5॥

इसी अवस� प� आया एक-

गुप्!�� वहाँ तिवकंतिप!-गा!॥

तिवन! हो व दन क� क� जोड़।

कही दुख से उसने यह बा!॥6॥

प्रभो यह सेवक प्रा!:काल।

र्घूम!ा तिफ�!ा �ा�ों ओ�॥

उस जगह पहुँ�ा जिजसको लोग।

इस नग� का कह!े हैं छो�॥7॥

वहाँ प� एक �जक हो कु्रध्द।

�ोक क� गृह प्रवेश का द्वा�॥

Page 27: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

तित्रया को कड़ी दृष्टिH से देख।

पूछ!ा था यह बा�म्बा�॥8॥

तिब!ाई गयी कहाँ प� �ातित्र।

लगा क� लोक-लाज को ला!॥

पातिपनी कुल में लगा कलंक।

यहाँ क्यों आयी हुए प्रभा!॥9॥

�ली जा हो ऑंखों से दू�।

अब यहाँ क्या है !े�ा काम॥

क� �ही है !ू भा�ी भूल।

जो समb!ी है !ू मुbको �ाम॥10॥

�हीं जो प�-गृह में षट्मास।

हुई है उनकी उ हें प्र!ीति!॥

बड़ों की बड़ी बा! है तिक !ु।

कलंतिक! क�!ी है यह नीति!॥11॥

प्रभो ब!लाई थी यह बा!।

तिवनय मैंने की थी बहु बा�॥

नहीं माना जा!ा है ठीक।

जनकजा पुनग्रOहण व्यापा�॥12॥

आदिद में थी यह ��ाO अल्प।

कभी कोई कह!ा यह बा!॥

औ� कह!े भी व ेही लोग।

Page 28: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जिज हें था धमO-ममO अज्ञा!॥13॥

अब नग� भ� में वह है व्याप्!।

बढ़ �हा है जन चि�त्त-तिवका�॥

जनपदों ग्रामों में सब ओ�।

हो �हा है उसका तिव2!ा�॥14॥

तिक !ु साधा�ण जन!ा मध्य।

हुआ है उसका अष्टिधक प्रसा�॥

उ हीं के भावों का प्रति!तिबम्ब।

�जक का है तिनजि द!-उद्गा�॥15॥

तिववेकी तिवज्ञ सवO-बुध-व ृद।

क� �हे हैं सद्बतु्किध्द प्रदान॥

दिदखाक� दिदव्य-ज्ञान-आलोक।

दू� क�!े हैं !म अज्ञान॥16॥

अवाचंिछ! हो प� है यह सत्य।

बढ़ �हा है बहु-वाद-तिववाद॥

प्रभो मैं जान सका न �ह2य।

तिक !ु है निनंद्य लोक-अपवाद॥17॥

�ाम ने बनक� बहु-गंभी�।

सुनी दुमुOख के मुख की बा!॥

तिफ� उसे देक� गमन तिनदेश।

सो�ने लगे बन बहु! शा !॥18॥

Page 29: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बा! क्या है? क्यों यह अतिववेक?।

जनकजा प� भी यह आके्षप॥

उस स!ी प� जो हो अकलंक।

क्या बु�ा है न पंक-तिनके्षप॥19॥

तिनकल!े ही मुख से यह बा!।

पड़ गयी एक चि�त्र प� दृष्टिH॥

देख!े ही जिजसके !त्काल।

दृगों में हुई सुधा की वषृ्टिH॥20॥

दारु का लगा हुआ अम्बा�।

प�म-पावक-मय बन हो लाल॥

जल �हा था ध-ूध ूध्वतिन साथ।

ज्वालमाला से हो तिवक�ाल॥21॥

एक 2वग�य-सु द�ी 2वच्छ-

पू!!म-वसन तिकये परि�धान॥

क� �ही थी उसमें सुप्रवेश।

कमल-मुख था उत्फुल्ल महान॥22॥

प�म-देदीप्यमान हो अंग।

बन गये थे बहु-!ेज-तिनधन॥

दृगों से तिनकल ज्योति! का पंुज।

बना!ा था पावक को म्लान॥23॥

सामने खड़ा रि�क्ष कतिप यूथ।

Page 30: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

क� �हा था बहु जय-जय का�॥

गगन में तिबलसे तिवबुध तिवमान।

�हे ब�सा!े सुमन अपा�॥24॥

बा! कह!े अंगा�क पंुज।

बन गये तिवक� कुसुम उपमान।

लसी दिदखलाईं उस प� सीय।

कमल प� कमलासना समान॥25॥

देख!े �हे �ाम यह दृश्य।

कुछ समय !क हो हो उदग््रीव॥

तिफ� लगे कहने अपने आप।

क्या न यह कृति! है दिदव्य अ!ीव॥26॥

मैं कभी हुआ नहीं संदिदग्ध।

हुआ तिकस काल में अतिवश्वास॥

भ�ा है तिप्रया चि�त्त में पे्रम।

हृदय में है सत्य!ा तिनवास॥27॥

�ाजसी तिवभवों से मुँह मोड़।

2वगO-दुलOभ सुख का क� त्याग॥

सवO तिप्रय सम्बन्धों को भूल।

ग्रहण क� नाना तिवषय तिव�ाग॥28॥

गहन तिवतिपनों में �ौदह साल।

सदा छाया सम �ह मम साथ॥

Page 31: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

साँस!ें सह खा फल दल मूल।

कभी पी क�के केवल पाथ॥29॥

दुग्ध फेनोपम अनुपम सेज।

छोड़ मभिण-मज्जिhi!-कं�न-धाम॥

कुटी में �ह सह नाना कH।

तिब!ाए हैं तिकसने वसुयाम॥30॥

कमचिलनी-सी जो है सुकुमा�।

कुसुम कोमल है जिजसका गा!॥

�टाई प� या भू प� पौढ़।

तिब!ाई उसने है सब �ा!॥31॥

देख क� मे�े मुख की ओ�।

भूल!े थे सब दुख के भाव॥

ष्टिमल गये कहीं कंटतिक! पंथ।

चिछदे तिकसके पंकज से पाँव॥32॥

नहीं र्घब�ा पा!ी थी कौन।

देख फल दल के भाजन रि�-॥

बना!ी थी न तिकसे उतिद्वग्न।

टपक!ी कुटी ध�ा जल चिस-॥33॥

भूल अपना पथ का अवसाद।

बदन को बना तिवक� जलजा!॥

पास आ व्यजन iुला!ी कौन।

Page 32: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

देख क� 2वेद-चिस- मम गा!॥34॥

हमा�े सुख का मुख अवलोक।

बना तिकसको बन सु�-उद्यान॥

कुसुम कंटक, � दन, !प-!ाप।

प्रभंजन मलय-समी� समान॥35॥

कहाँ !ुम औ� कहाँ वनवास।

यदिद कभी कह!ा �ले प्रसंग॥

!ो तिवहँस कह!ीं त्याग सकी न।

�जि द्रका � द्र देव का संग॥36॥

दिदखाया तिकसने अपना त्याग।

लगा लंका तिवभवों को ला!॥

सहे तिकसने धा�ण क� धी�।

दानवों के अगभिण!-उत्पा!॥37॥

दानवी दे दे नाना त्रास।

बनाक� रूप बड़ा तिवक�ाल॥

तिवकन्धिम्प! तिकसको बना सकी न।

दिदखाक� बदन तिवतिनगO! ज्वाल॥38॥

लोक-त्रासक-दशआनन भीति!।

उठी उसकी कठो� क�वाल॥

बना तिकसको न सकी बहु त्र2!।

सकी तिकसका न पति!व्र! टाल॥39॥

Page 33: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कौन क� नाना-व्र!-उपवास।

गला!ी �ह!ी थी तिनज गा!॥

तिब!ाया तिकसने संकट-काल।

!रु !ले बैठी �ह दिदन �ा!॥40॥

नहीं सक!ी जो प� दुख देख।

हृदय जिजसका है प�म-उदा�॥

सवO जन सुख संकलन तिनष्टिमत्त।

भ�ा है जिजसके उ� में प्या�॥41॥

स�ल!ा की जो है प्रति!मूर्वि!ं।

सहज!ा है जिजसकी तिप्रय-नीति!॥

बडे़ कोमल हैं जिजसके भाव।

प�म-पावन है जिजसकी प्रीति!॥42॥

शान्ति !-�! जिजसकी मति! को देख।

लोप हो!ा �ह!ा है कोप॥

मानचिसक-!म क�!ा है दू�।

दिदव्य जिजसके आनन का ओप॥43॥

सुरुचि�मय है जिजसकी चि�!-वभृित्त।

कुरुचि� जिजसको सक!ी है छू न॥

हृदय है इ!ना स�स दयाद्रO।

!ोड़ पा!े क� नहीं प्रसून॥44॥

क�ेगा उस प� शंका कौन।

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क्यों न उसका होगा तिवश्वास॥

यही था अत्किग्न-प�ीक्षा ममO।

हो न जिजससे जग में उपहास॥45॥

अतिनच्छा से हो त्किखन्न तिन!ा !।

तिकया था मैंने ही यह काम॥

तिप्रया का ही था यह प्र2!ाव।

न लांचिछ! हो जिजससे मम नाम॥46॥

प� कहाँ सफल हुआ उदे्दश।

लग �हा है जब वृथा कलंक॥

तिकसी कुल-बाला प� बन वक्र।

जब पड़ी लोक-दृष्टिH तिन:शंक॥47॥

सत्य होवे या वह हो bूठ।

या तिक हो कलुतिष! चि�त्त प्रमाद॥

निनंद्य है है अपकीर्वि!ं-तिनके!।

लांछना-तिनलय लोक-अपवाद॥48॥

भले ही कुछ न कहें बुध-व ृद।

सCनों को हो सुने तिवषाद॥

तिक !ु है यह जन-�व अच्छा न।

अवाचंिछ! है यह वाद-तिववाद॥49॥

ष्टिमल सका मुbे न इसका भेद।

हो �हा है क्यों अष्टिधक प्रसा�॥

Page 35: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बन �हा है क्या साधन-हीन।

लोक-आ�ाधन का व्यापा�॥50॥

प्रकृति! ग! है, है उ� में व्याप्!।

प्रजा-�ंजन की नीति!-पुनी!॥

दhi में यथा-उचि�! सवOत्र।

है स�ल!ा सद्भाव गृही!॥51॥

याय को सदा मान क� याय।

तिकया मैंने न कभी अ याय॥

दू� की मैंने पाप-प्रवृ!।

पुhयमय क�के प्र�ु�-उपाय॥52॥

सबल के सा�े अत्या�ा�।

शमन में हँू अद्यातिप प्रवृत्ता॥

तिनबOलों का बल बन दल दु:ख।

तिवपुल पुलतिक! हो!ा है चि�त्त॥53॥

�हा �भिक्ष! उत्त�ाष्टिधका�।

चिछना मुbसे कब तिकसका �ाज॥

प्रजा की बनी प्रजा-सम्पभित्त।

ली गयी कभी न वह क� व्याज॥54॥

मुbे है कूटनीति! न पसंद।

स�ल!म है मे�ा व्यवहा�॥

व�ंना तिवजिज!ों को क� ब्यों!।

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ब�ाया मैंने बा�ंबा�॥55॥

समb नृप का उत्त�-दाष्टियत्व।

जान क� �ाज-धमO का ममO॥

ग्रहण क� उचि�! नम्र!ा भाव।

कमO�ा�ी क�!े हैं कमO॥56॥

भूल क� भेद भाव की बा!।

तिवलचिस!ा सम!ा है सवOत्र॥

!ुH है प्रजामात्र बन चिशH।

सीख समुचि�! 2व!ंत्र!ा म त्र॥57॥

प�स्प� प्रीति! का समb लाभ।

हुए मानव!ा की अनुभूति!॥

सुत्किख! है जन!ा-सुख-मुख देख।

पा गए वाचंिछ! सकल-तिवभूति!॥58॥

दानवों का हो गया तिनपा!।

ति!�ोतिह! हुआ प्रबल आ!ंक॥

दू� हो गया धमO का द्रोह।

शान्ति !मय बना मेदिदनी अंक॥59॥

तिन�ापद हुए सवO-शुभ-कमO।

यज्ञ-बाधा का हुआ तिवनाश॥

टल गया पाप-पंुज !म-!ोम।

तिवलोके पुhय-प्रभा!-प्रकाश॥60॥

Page 37: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

क� �हे हैं सब कमO 2वकीय।

समb क� वणाOश्रम का ममO॥

बन गये हैं मयाOदा-शील।

धतृि! सतिह! धा�ण क�के धमO॥61॥

तिवलस!ी है र्घ�-र्घ� में शान्ति !।

भ�ा है जन-जन में आन द॥

कहीं है कलह न कपटा�ा�।

न तिनजि द!-वभृित्त-जतिन! छल-छ द॥62॥

हुए उत्तेजिज! मन के भाव।

शा ! बन जा!े हैं !त्काल॥

याद क� मानव!ा का म त्र।

लोक तिनयमन प� ऑंखें iाल॥63॥

समय प� जल दे!े हैं मेर्घ।

स!ा!ी नहीं ईति! की भीति!॥

दिदखा!े कहीं नहीं दुवृO!।

भ�ी है सब में प्रीति! प्र!ीति!॥64॥

तिफ� हुई जन!ा क्यों अप्रसन्न।

हुआ क्यों प्रबल लोक-अपवाद॥

सुन �हे हैं क्यों मे�े कान।

असंग! अ-मनो�म सम्वाद॥65॥

लग �हा है क्यों वृथा कलंक।

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खुला कैसे अकीर्वि!ं का द्वा�॥

समb में आ!ा नहीं �ह2य।

क्या करँू मैं इसका प्रति!का�॥66॥

दोहा

इन बा!ों को सो�!े, कह!े चिसय गुण ग्राम।

गये दूस�े गेह में, धी� ध�ंुध� �ाम॥67॥र्म&त्रणा गृह $तुष्पद पीछे     आगे

 

म त्रणा गृह में प्रा!:काल।

भ�! लक्ष्मण रि�पुसूदन संग॥

�ाम बैठे थ ेचि� !ा-मग्न।

चिछड़ा था जनकात्मजा प्रसंग॥1॥

कथन दुमुOख का आद्योपा !।

�ाम ने सुना, कही यह बा!॥

अमूलक जन-�व होवे तिक !ु।

कीर्वि!ं प� क�!ा है पतिवपा!॥2॥

हुआ है जो उपकृ! वह व्यचि-।

दोष को भी न कहेगा दोष॥

बना क�!ा है जन-�व हे!ु।

प्रायश: लोक का अस !ोष॥3॥

प्रजा-�ंजन तिह!-साधन भाव।

�ाज्य-शासन का है व�-अंग॥

Page 39: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है प्रकृति! प्रकृ! नीति! प्रति!कूल।

लोक आ�ाधन व्र! का भंग॥4॥

क्यों टले बढ़ा लोक-अपवाद।

इस तिवषय में है क्या क!Oव्य॥

अष्टिधक तिह! होगा जो हो ज्ञा!।

बन्धुओं का क्या है व-व्य॥5॥

भ�! सतिवनय बोले संसा�।

तिवभामय हो!े हैं, !म-धाम॥

वहीं है अधम जनों का वास।

जहाँ हैं ष्टिमल!े लोक-ललाम॥6॥

!ो नहीं नी�-मना हैं अल्प।

यदिद मही में हैं मतिहमावान॥

बु�ों को है तिप्रय प�-अपवाद।

भले हैं क�!े गौ�व गान॥7॥

तिकसी को है तिववेक से पे्रम।

तिकसी को प्या�ा है अतिववेक॥

जहाँ हैं हंस-वंश-अव!ंस।

वहीं प� हैं बक-वृभित्त अनेक॥8॥

दे्वष प�वश होक� ही लोग।

नहीं क�!े हैं तिन दावाद॥

वृथा दंभी जन भी क� दंभ।

सुना!े हैं अतिप्रय सम्वाद॥9॥

दूस�ों की रुचि� को अवलोक।

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कही जा!ी है तिक!नी बा!॥

कहीं प� ग!ानुगति!क प्रवृभित्त।

तिन�थOक क�!ी है उत्पा!॥10॥

लोक-आ�ाधन है नृप-धमO।

तिक !ु इसका यह आशय है न॥

सुनी जाए उनकी भी बा!।

जो बला ला पा!े हैं �ैन॥11॥

प्रजा के सकल-वा2!तिवक-2वत्व।

व्यचि-ग! उसके सब-अष्टिधका�॥

उसे हैं प्राप्! सुखी है सवO।

सुकृति! से क� वैभव-तिव2!ा�॥12॥

कहीं है कलह न वै� तिव�ोध।

कहाँ प� है धन ध�ा तिववाद॥

ति!�2कृ! है कलुतिष! चि�!वृभित्त।

त्य- है प्रबल-प्रपं�-प्रमाद॥13॥

सुधा है वहाँ ब�स!ी आज।

जहाँ था ब�स �हा अंगा�॥

वहाँ है श्रु! 2वग�य तिननाद।

जहाँ था �ोदन हाहाका�॥14॥

गौ�तिव! है मानव समुदाय।

तिग�ा का उ� में हुए तिवकास॥

चिशवा से है चिशव!ा की प्रान्तिप्!।

�मा का है र्घ�-र्घ� में वास॥15॥

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बन गये हैं पा�स सब मेरु।

उदष्टिध क�!े हैं �त्न प्रदान॥

प्रसव क�!ी है वसुधा 2वणO।

वन बने हैं न दन उद्यान॥16॥

सुखद-सुतिवधा से हो सम्पन्न।

स�स!ा है सरि�!ा का गा!॥

बना �ह!ा है पावन वारि�।

न क�!ा है सावन उत्पा!॥17॥

सदा �ह ह�े भ�े !रु-वृ द।

सफल बन क�!े हैं सत्का�

दिदखा!े हैं उत्फुल्ल प्रसून।

बहन क� बहु सौ�भ संभा�॥18॥

लोग इ!ने हैं सुख-सवO2व।

तिवक� इ!ना है चि�! जलजा!॥

वा� हैं बने पवO के वा�।

�ा! है दीप-माचिलका �ा!॥19॥

हुआ अज्ञान का ति!ष्टिम� दू�।

ज्ञान का फैला है आलोक॥

सुखद है सकल लोक को काल।

बना अवलोकनीय है ओक॥20॥

शान्ति !-मय-वा!ाव�ण तिवलोक।

रुचि�� ��ाO है �ा�ों ओ�॥

कीर्वि!ं-�ाका-�जनी को देख।

Page 42: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

तिवपुल-पुलतिक! है लोक �को�॥21॥

तिक !ु देखे �ाके दु तिवकास।

सुत्किख! कब हो पा!ा है कोक॥

फूट!ी है उलूक की ऑंख।

दिदव्य!ा दिदनमभिण की अवलोक॥22॥

जग! जीवनप्रद पावस काल।

देख जल!े हैं अकO जवास॥

पल्लतिव! हो!े नहीं क�ील।

!न लगे स�स-बसं!-ब!ास॥23॥

जग! ही है तिवचि�त्र!ा धाम।

तिवतिवध!ा तिवष्टिध की है तिवख्या!॥

नहीं !ो सुन पा!ा क्यों कान।

अरुचि�क� प�म असंग! बा!॥24॥

निनंद्य है �र्घुकुल ति!लक �रि�त्र।

लांचिछ!ा है पतिवत्र!ा मूर्वि!ं॥

पू! शासन में कह!ा कौन।

जो न हो!ी पाम�!ा पूर्वि!ं॥25॥

आप हैं प्रजा-वृ द-सवO2व।

लोक आ�ाधन के अव!ा�।

लोकतिह!-पथ-कhटक के काल।

लोक मयाOदा पा�ावा�॥26॥

बन गयी देश काल अनुकूल।

प्रगति! जिज!नी थी तिह! तिवप�ी!॥

Page 43: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

प्रजा�ंजन की जो है नीति!।

वही है आद� सतिह! गृही!॥27॥

जान!े नहीं इसे हैं लोग।

कहा जा!ा है तिकसे अभाव॥

तिवलस!ी है र्घ�-र्घ� में भूति!।

भ�ा जन-जन में है सद्भाव॥28॥

�ही जो कhटक-पूरि�! �ाह।

वहाँ अब तिबछे हुए हैं फूल॥

लग गये हैं अब वहाँ �साल।

जहाँ पहले थ ेखडे़ बबूल॥29॥

प्रजा में व्यापी है प्रति!पभित्त।

भ� गया है �ग-�ग में ओज॥

श2य-श्यामला बनी मरु-भूष्टिम।

ऊस�ों में हैं त्किखले स�ोज॥30॥

नहीं पूजिज! है कोई व्यचि-।

आज हैं पूजनीय गुण कमO॥

वही है मा य जिजसे है ज्ञा!।

मानचिसक पीड़ाओं का ममO॥31॥

इसचिलए है यह तिनभिश्च! बा!।

प्रजाजन का यह है न प्रमाद॥

कुछ अधम लोगों ने ही व्यथO।

उठाया है यह तिन दावाद॥32॥

सवO साधा�ण में अष्टिधकांश।

Page 44: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

हुआ है जन-�व का तिव2!ा�॥

मुख्य!: उन लोगों में जो तिक।

नहीं �ख!े मति! प� अष्टिधका�॥33॥

अ य जन अथवा जो हैं तिवज्ञ।

तिववेकी हैं या हैं मति!मान॥

जान!े हैं जो मन का ममO।

जिज हें है धमO कमO का ज्ञान॥34॥

सुने ऐसा असत्य अपवाद।

मूँद ले!े हैं अपने कान॥

कथन क� नाना-पू!-प्रसंग।

दू� क�!े हैं जन-अज्ञान॥35॥

ज्ञा! है मुbे न इसका भेद।

कहाँ से, क्यों फैली यह बा!॥

तिक !ु मे�ा है यह अनुमान।

पति!!-मति!का है यह उत्पा!॥36॥

महानद-सबल-सिसंधु के पा�।

�हा जो गन्धव� का �ाज॥

वहाँ था हो!ा महा-अधमO।

प्रायश: सध्दम� के व्याज॥37॥

कहे जा!े थ ेवे गन्धवO।

तिक !ु थ ेदानव सदृश दु�ं!॥

न था उनके अवगुण का ओ�।

न था अत्या�ा�ों का अ !॥38॥

Page 45: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

न �भिक्ष! था उनसे धन धाम।

न लोगों का आ�ा� तिव�ा�॥

न ललनाकुल का सहज स!ीत्व।

न मानव!ा का व� व्यवहा�॥39॥

एक क� में थी ज्वचिल! मशाल।

दूस�े क� में थी क�वाल॥

एक क�!ा नग�ों का दाह।

दूस�ा क�!ा भू को लाल॥40॥

तिकये पग-लेहन, हो, क�-बध्द।

कुजन का हो!ा था प्रति!पाल॥

सुजन प� तिबना तिकये अप�ाध।

बलायें दी जा!ी थीं iाल॥41॥

अधम!ा का उड़!ा था के!ु।

सदाशय!ा पा!ी थी शूल॥

सदा�ा�ी की खिखं�!ी खाल।

कदा�ा�ी प� �ढ़!े फूल॥42॥

�ाज्य में पूरि�! था आ!ंक।

गला क!Oन था प्रा!:-कृत्य॥

काल बन हो!ा था सवOत्र।

प्रजा पीड़न का !ाhiव नृत्य॥43॥

केकयाष्टिधप ने यह अवलोक।

शान्ति ! के नाना तिकये प्रयत्न॥

तिक !ु वे असफल �हे सदैव।

Page 46: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

लुटे उनके भी अनुपम-�त्न॥44॥

इसचिलए हुए वे बहु! कु्रध्द।

औ� पकड़ी कठो� !लवा�॥

हुआ उसका भीषण परि�णाम।

बहु! ही अष्टिधक लोक संहा�॥45॥

चिछन गये �ाज्य हुए भयभी!।

ब�े गंधव� का संस्थान॥

बन गया है पां�ाल प्रदेश।

औ� यह अ !व�द महान॥46॥

इस सम� का सं�ालन सूत्र।

हाथ में मे�े था अ!एव॥

आप से उसका बहु सम्पकO ।

मान!ा है उनका अहमेव॥47॥

अ!: यह मे�ा है स देह।

इस अमूलक जन-�व में गुप्!॥

हाथ उन सब का भी है क्योंतिक।

कब हुई निहंसा-वृभित्त तिवलुप्!॥48॥

उचि�! है, है अत्य ! पुनी!।

लोक आ�ाधन की नृप-नीति!॥

तिक !ु है सदा उपेक्षा योग्य।

मचिलन-मानस की मचिलन प्र!ीति!॥49॥

भ�ा जिजसमें है कुज्जित्स! भाव।

दे्वष निहंसामय जो है उचि-॥

Page 47: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

मचिलन क�ने को मह!ी-कीर्वि!ं।

गढ़ी जा!ी है जो बहु युचि-॥50॥

वह अवांचिछ! है, है दलनीय।

दhiय है दुजOन का दुवाOद॥

सदा है उ मूलन के योग्य।

अमौचिलक सकल लोक अपवाद॥51॥

जो भली है, है भव तिह! पूर्वि!ं।

लोक आ�ाधन साभित्तवक नीति!॥

!ो बु�ी है, है 2वयं तिवपभित्त।

लोक - अपवाद - प्रसू! - प्र!ीति!॥52॥

फैल क� जन-�व रूपी धूम।

क�ेगा कैसे उसको म्लान॥

गगन में भू!ल में है व्याप्!।

कीर्वि!ं जो �ाका-चिस!ा समान॥53॥

$ौपदे

बडे़ भ्रा!ा की बा!ें सुन।

तिवलोका �र्घुकुल-ति!लकानन॥

सुष्टिमत्रा सु! तिफ� यों बोले।

हो गया व्याकुल मे�ा मन॥54॥

आपकी भी तिन दा होगी।

समb मैं इसे नहीं पा!ा॥

खौल!ा है मे�ा लोहू।

क्रोध से मैं हूँ भ� जा!ा॥55॥

Page 48: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

आह! वह स!ी पुनी!ा है।

देतिवयों सी जिजसकी छाया॥

!ेज जिजसकी पावन!ा का।

नहीं पावक भी सह पाया॥56॥

हो सकेगी उसकी कुत्सा।

मैं इसे सो� नहीं सक!ा॥

खडे़ हो गये �ोंगटे हैं।

गा! भी मे�ा है कँप!ा॥57॥

यह जग! सदा �हा अंधा।

सत्य को कब इसने देखा॥

खीं�!ा ही वह �ह!ा है।

लांछना की कुज्जित्स! �ेखा॥58॥

आपकी कुत्सा तिकसी !�ह।

सहज मम!ा है सह पा!ी॥

प� सुने पूज्या की तिन दा।

आग !न में है लग जा!ी॥59॥

सँभल क� वे मुँह को खोलें।

�ाज्य में है जिजनको बसना।

�ाह!ा है यह मे�ा जी।

�जक की खिखं�वा लँू �सना॥60॥

प्रमादी होंगे ही तिक!ने।

मसल मैं उनको सक!ा हूँ॥

क्यों न बकनेवाले समbें।

Page 49: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बहक क� क्या मैं बक!ा हूँ॥61॥

अंधा अंधापन से दिदव की।

न दिदव!ा कम होगी जौ भ�॥

धूल जिजसने �तिव प� फें की।

तिग�ी वह उसके ही मुँह प�॥62॥

जलष्टिध का क्या तिबगडे़गा जो।

ग�ल कुछ अतिह उसमें उगलें॥

न होगी सरि�!ा में हल�ल।

यदिद बँहक कुछ मेंढक उछलें॥63॥

तिवतिपन कैसे होगा तिव�चिल!।

हुए कुछ कुज !ुओं का i�॥

तिकए कुछ पशुओं के पशु!ा।

तिवकंतिप! होगा क्यों तिगरि�व�॥64॥

ध�ा!ल क्यों धृति! त्यागेगा।

कुछ कुदिटल काकों के �व से॥

गगन !ल क्यों तिवपन्न होगा।

के!ु के तिकसी उपद्रव से॥65॥

मुbे यदिद आज्ञा हो !ो मैं।

प�ा दँू कुजनों की बाई॥

छुड़ा दँू छील छाल क�के।

कुरुचि� उ� की कुज्जित्स! काई॥66॥

कहा रि�पुसूदन ने साद�।

जदिटल!ा है बढ़!ी जा!ी॥

Page 50: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बा! कुछ ऐसी है जिजसको।

नहीं �सना है कह पा!ी॥67॥

प� कहूँगा, न कहूँ कैसे।

आपकी आज्ञा है ऐसी॥

बा! मथु�ा मhiल की मैं।

सुना!ा हूँ वह है जैसी॥68॥

कुछ दिदनों से लवणासु� की।

असु�!ा है बढ़!ी जा!ी॥

कूटनीति!क उसकी �ालें।

गहन हों प� हैं उत्पा!ी॥69॥

लोक अपवाद प्रवत्तOन में।

अष्टिधक !� है वह �! �ह!ा॥

श्रीम!ी जनक-नंदिदनी को।

काल दनु-कुल का है कह!ा॥70॥

समb!ा है यह वह, अब भी।

आप सुन क� उनकी, बा!ें॥

दनुज-दल तिवदलन-चि� !ा में।

तिब!ा!े हैं अपनी �ा!ें॥71॥

मान लेना उसका ऐसा।

मचिलन-मति! की ही है माया॥

सत्य है नहीं, पाप की ही-

पड़ गयी है उस प� छाया॥72॥

तिक !ु गन्धव� के वध से।

Page 51: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

हो गयी है दूनी हल�ल॥

ष्टिमला है यद्यतिप उनको भी।

दानवी कृत्यों का ही फल॥73॥

लवण अपने उद्योगों में।

सफल हो कभी नहीं सक!ा॥

गए गंधवO �सा!ल को।

�हा वह जिजनका मुँह !क!ा॥74॥

बहा!ा है अब भी ऑंसू।

याद क� �ावण की बा!ें॥

प� उसे ष्टिमल न सकें गी अब।

पाप से भ�ी हुई �ा!ें॥75॥

�ाज्य की नीति! यथा संभव।

उसे सु�रि�त्र बनाएगी॥

अ यथा दुष्प्रवृभित्त उसकी।

कुकम� का फल पाएगी॥76॥

कदिठन!ा यह है दुजOन!ा।

मृदुल!ा से बढ़ जा!ी है॥

चिशH!ा से नी�ाशय!ा।

बनी दुदाO ! दिदखा!ी है॥77॥

तिबना कुछ दhi हुए जड़ की।

कब भला जड़!ा जा!ी है॥

मूढ़!ा तिकसी मूढ़ मन की।

दमन से ही दब पा!ी है॥78॥

Page 52: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

सत्य के सम्मुख ठह�ेगा।

भला कैसे असत्य जन-�व॥

ति!ष्टिम� सामना क�ेगा क्यों।

दिदवस का, जो है �तिव संभव॥79॥

कीर्वि!ं जो दिदव्य ज्योति! जैसी।

सकल भू!ल में है फैली॥

क�ेगी भला उसे कैसे।

काचिलमा कुत्सा की मैली॥80॥

बन्धुओं की सब बा!ें सुन।

सकल प्र2!ु! तिवषयों को ले॥

समb, गंभी� तिग�ा द्वा�ा।

जानकी-जीवन-धन बोले॥81॥

�ाज पद क!Oव्यों का पथ।

गहन है, है अशान्ति ! आलय॥

क्रान्ति ! उसमें है दिदखला!ी।

भ�ा हो!ा है उसमें भय॥82॥

इसी से साम-नीति! ही को।

बुधों से प्रथम-स्थान ष्टिमला॥

यही है वह उद्यान जहाँ।

लोक आ�ाधन सुमन त्किखला॥83॥

दमन या दhi नीति! मुbको।

कभी भी �ही नहीं प्या�ी॥

न यद्यतिप छोड़ सका उनको।

Page 53: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

�हे जो इनके अष्टिधका�ी॥84॥

$तुष्पद

�हेगी भव में कैसे शान्ति !।

कू्र�!ा तिकया क�ें जो कू्र�॥

!ो हुआ लोका�ाधन कहाँ।

लोक-कhटक जो हुए न दू�॥85॥

लोक-तिह! संसृति!-शान्ति ! तिनष्टिमत्त।

हुआ यद्यतिप दु� !-संग्राम॥

तिक !ु दशमुख, गन्धवO-तिवनाश।

पा!कों का ही था परि�णाम॥86॥

है क्षमा-योग्य न अत्या�ा�।

उचि�! है दhiनीय का दhi॥

तिनवा�ण क�ना है क!Oव्य।

तिकसी पाषhiी का पाषhi॥87॥

आत्तO लोगों का मार्मिमकं-कH।

बहु-तिन�प�ाधों का संहा�॥

बाल-वृध्दों का करुण-तिवलाप।

तिववश-जन!ा का हाहाका�॥88॥

आहवों में जो हैं अतिनवायO।

मुbे क�!े हैं व्यचिथ! तिन!ा !॥

भूल पाए मुbको अब भी न।

लंक के सकल-दृश्य दु:खा !॥89॥

अ!: है वांछनीय यह नीति!।

Page 54: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

हो यथा-शचि- न शोभिण!पा!॥

सामने �हे दृष्टिH के साम।

�हे मतिह-वा!ाव�ण प्रशा !॥90॥

तिवप्लवों के प्रशमन की शचि-।

�ाज्य को पूणO!या है प्राप्!॥

धाक उसकी बन शान्ति !-तिनके!।

सकल-भा�!-भू में है व्याप्!॥91॥

अ!: है इसकी आशंका न।

म�ायेगी हल�ल उत्पा!॥

क्यों प्रजा-अस !ोष हो दू�।

सो�नी है इ!नी ही बा!॥92॥

दमन है मुbे कदातिप न इH।

क्योंतिक वह है भय-मूलक-नीति!॥

�ाह है लाभ करँू, क� त्याग।

प्रजा की सच्ची प्रीति!-प्र!ीति!॥93॥

तिकसी सम्भातिव! की अपकीर्वि!ं।

है �जतिन-�ंजन-अंक-कलंक॥

तिक !ु है बुध-सम्म! यह उचि-।

कब भला धुला पंक से पंक॥94॥

जनकजा में है दानव-द्रोह।

औ� मैं उनकी बा!ें मान॥

क�ाया क�!ा हूँ यद्यतिप।

लोक-संहा� कृ!ा ! समान॥95॥

Page 55: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

यह कथन है सवOथा असत्य।

औ� है प�म श्रवण-कटु-बा!॥

तिक !ु उसको क�!ा है पुH।

तिवपुल गंधव� प� पतिवपा!॥96॥

पठन क� लोका�ाधन-म त्र।

करँूगा मैं इसका प्रति!का�॥

साधक� जनतिह!-साधन सूत्र।

करँूगा र्घ�-र्घ� शान्ति !-प्रसा�॥97॥

बन्धु-गण के तिव�ा� तिवज्ञा!-

हो गए, सुनीं उचि-याँ सवO॥

प्राप्! क� साम-नीति! से चिसत्किध्द।

बनेगा पावन जीवन-पवO॥98॥

करँूगा बडे़ से बड़ा त्याग।

आत्म-तिनग्रह का क� उपयोग॥

हुए आवश्यक जन-मुख देख।

सहूँगा तिप्रया असह्य-तिवयोग॥99॥

मुbे यह है पू�ा तिवश्वास।

लोक-तिह!-साधन में सब काल॥

�हेंगे आप लोग अनुकूल।

धमO-!त्तवों प� ऑंखें iाल॥100॥

दोहा

इतना कह अनुजों सविहत, त्याग र्म&त्रणा-धार्म।

वि�श्रार्मालय र्में गए, रार्म-लोक-वि�श्रार्म॥101॥

Page 56: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

�चिसष्ठाश्रर्म वितलोकी पीछे     आगे

 

अवधपु�ी के तिनकट मनो�म-भूष्टिम में।

एक दिदव्य-!म-आश्रम था शुचि�!ा-सदन॥

बड़ी अलौतिकक-शान्ति ! वहाँ थी �ाज!ी।

दिदखला!ा था तिवपुल-तिवक� भव का वदन॥1॥

प्रकृति! वहाँ थी रुचि�� दिदखा!ी सवOदा।

शी!ल-मंद-समी� स!! हो सौ�भिभ!॥

बह!ा था बहु-लचिल! दिदशाओं को बना।

पावन-साभित्तवक-सुखद-भाव से हो भरि�!॥2॥

ह�ी भ�ी !रु-�ाजिज का !-कुसुमाचिल से।

तिवलचिस! �ह फल-पंुज-भा� से हो नष्टिम!॥

शोभिभ! हो मन-नयन-तिवमोहन दलों से।

दशOक जन को मुदिद! बना!ी थी अष्टिम!॥3॥

�ंग तिब�ंगी अनुपम-कोमल!ामयी।

कुसुमावचिल थी लसी पू!-सौ�भ बसी॥

तिकसी लोक-सु द� की सु द�!ा दिदखा।

जी की कली त्किखला!ी थी उसकी हँसी॥4॥

क� उसका �सपान मधुप थ ेर्घूम!े।

गँूज गँूज कानों को शुचि� गाना सुना॥

आ आ क� ति!!चिलयाँ उ हें थीं �ूम!ी।

अनु�ंजन का �ाव दिदखा क� �ौगुना॥5॥

Page 57: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कमल-कोष में कभी बध्द हो!े न थे।

अंधे बन!े थ ेन पुष्प-�ज से भ्रम�॥

काँटे थ ेछेद!े न उनके गा! को।

नहीं ति!!चिलयों के प� दे!े थ ेक!�॥6॥

ल!ा लहलही लाल लाल दल से लसी।

भ�!ी थी दृग में अनु�ाग-ललाम!ा॥

श्यामल-दल की बेचिल बना!ी मुग्ध थी।

दिदखा तिकसी र्घन-रुचि�-!न की शुचि�श्याम!ा॥7॥

बना प्रफुल्ल फल फूल दान में हो तिन�!।

मंद मंद दोचिल! हो, वे थीं तिवलस!ी।

प्रा!:-काचिलक स�स-पवन से हो सुत्किख!।

भू प� मंजुल मु-ावचिल थीं ब�स!ी॥8॥

तिवहग-वृ द क� गान का !-!म-कंठ से।

तिव�� तिव�� क� तिवपुल-तिवमोहक टोचिलयाँ॥

�हे बना!े मुग्ध दिदखा !न की छटा।

बोल-बोल क� बड़ी अनूठी बोचिलयाँ॥9॥

काक कुदिटल!ा वहाँ न था क�!ा कभी।

काँ काँ �व क� था न कान को फोड़!ा॥

पहुँ� वहाँ के शा !-वा!-आव�ण में।

निहंसक खग भी निहंसक!ा था छोड़!ा॥10॥

ना�-ना� क� मो� दिदखा नीलम-जदिट!।

अपने मंजुल-!म पंखों की माधु�ी॥

खेल �हे थ ेग�ल-�तिह!-अतिह-वृ द से।

Page 58: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बजा-बजा क� पू!-वृभित्त की बाँसु�ी॥11॥

म�क!-मभिण-तिनभ अपनी उत्तम-कान्ति ! से।

हरि�!-!ृणावचिल थी हृदयों को मोह!ी॥

प्रा!:-काचिलक तिक�ण-माचिलका-सूत्र में।

ओस-तिब दु की मु-ावचिल थी पोह!ी॥12॥

तिवपुल-पुलतिक!ा नवल-श2य सी श्यामला।

बहु! दू� !क दूवाOवचिल थी शोभिभ!ा॥

नील-कलेव�-जलष्टिध लचिल!-लह�ी समा।

मंद-पवन से मंद-मंद थी दोचिल!ा॥13॥

कल-कल �व आकचिल!ा-लचिस!ा-पावनी।

गगन-तिवलचिस!ा सु�-सरि�!ा सी सु द�ी॥

तिनमOल-सचिलला लीलामयी लुभावनी।

आश्रम सम्मुख थी स�सा-स�यू स�ी॥14॥

प�म-दिदव्य-देवालय उसके कूल के।

कान्ति !-तिनके!न पू!-के!नों को उड़ा॥

पावन!ा भ�!े थ ेमानस-भाव में।

पा!क-�! को पा!क पंज ेसे छुड़ा॥15॥

वेद-ध्वतिन से मुखरि�! वा!ाव�ण था।

2व�-लह�ी 2वर्विगंक-तिवभूति! से थी भ�ी॥

अति!-उदात्त कोमल!ामय-आलाप था।

मंजुल-लय थी हृत्तांत्री bंकृ! क�ी॥16॥

धी�े-धी�े ति!ष्टिम�-पंुज था टल �हा।

�तिव-2वाग! को उषासु द�ी थी खड़ी॥

Page 59: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

इसी समय स�यू-सरि�-स�स-प्रवाह में।

एक दिदव्य!म नौका दिदखलाई पड़ी॥17॥

जब आक� अनुकूल-कूल प� वह लगी।

!ब �र्घुवंश-तिवभूषण उस प� से उ!�॥

प�म-म द-गति! से �लक� पहुँ�े वहाँ।

आश्रम में थ ेजहाँ �ाज!े ऋतिष प्रव�॥18॥

�र्घुन दन को व दन क�!े देख क�।

मुतिनव� ने उठ उनका अभिभन दन तिकया॥

आचिशष दे क� पे्रम सतिह! पूछी कुशल।

!दुप�ा ! आद� से उचि�!ासन दिदया॥19॥

सौम्य-मूर्वि!ं का सौम्य-भाव गम्भी�-मुख।

आश्रम का अवलोक शा !-वा!ाव�ण॥

तिवनय-मूर्वि!ं ने बहु! तिवनय से यह कहा।

तिनज-मयाOदिद! भावों का क� अनुस�ण॥20॥

आपकी कृपा के बल से सब कुशल है।

सकल-लोक के तिह! व्र! में मैं हूँ तिन�!॥

प्रजा सुत्किख! है शान्ति !मयी है मेदिदनी।

सहज-नीति! �ह!ी है सुकृति!�!ा स!!॥21॥

तिक !ु �ाज्य का सं�ालन है जदिटल-!म।

जग!ी!ल है तिवतिवध-प्रपं�ों से भ�ा॥

है तिवचि�त्र!ा से जन!ा परि��ाचिल!ा।

सदा �ह सका कब सुख का पादप ह�ा॥22॥

इ!ना कह क� हंस-वंश-अव!ंस ने।

Page 60: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

दुमुOख की सब बा!ें गुरु से कथन कीं॥

पुन: सुनाईं भ्रा!ृ-वृ द की उचि-याँ।

जो तिह!-पट प� मति!-मृदु-क� से थीं अंकी॥23॥

!दुप�ा ! यह कहा दमन वांचिछ! नहीं।

साम-नीति! अवलम्बनीय है अब मुbे॥

त्याग करँू !ब बडे़ से बड़ा क्यों न मैं।

अंगीकृ! है लोका�ाधन जब मुbे॥24॥

हैं तिवदेहजा मूल लोक-अपवाद की।

!ो क� दँू मैं उ हें न क्यों स्थाना !रि�!॥

यद्यतिप यह है बड़ी ममO-वेधी-कथा।

!था व्यथा है मह!ी-तिनमOम!ा-भरि�!॥25॥

तिक !ु कसौटी है तिवपभित्त मनु-सूनु की।

2वयं कH सह भव-तिह!-साधन श्रेय है॥

आपत्काल, महत्व-प�ीक्षा-काल है।

संकट में धृति! धमO प्राण!ा ध्येय है॥26॥

ध्वंस नग� हों, लुटें लोग, उजडे़ सदन।

गले कटें, उ� चिछदें, महा-उत्पा! हो॥

वृथा ममO-या!ना तिवपुल-जन!ा सहे।

बाल वृध्द वतिन!ा प� वज्र-तिनपा! हो॥27॥

इन बा!ों से !ो अब उत्तम है यही।

यदिद बन!ी है बा!, 2वयं मैं सब सहूँ॥

हो तिप्रय!मा तिवयोग, तिप्रया व्यचिथ!ा बने।

!ो भी जन-तिह! देख अतिव�चिल!-चि�! �हूँ॥28॥

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प्रश्न यही है कहाँ उ हें मैं भेज दँू।

जहाँ शा ! उनका दुखमय जीवन �हे॥

जहाँ ष्टिमले वह बल जिजसके अवलंब से।

ममाOन्ति !क बहु-वेदन जा!े हैं सहे॥29॥

आप कृपा क� क्या ब!लाएगँे मुbे।

वह शुचि�-थल जो सब प्रका� उपयु- हो॥

जहाँ बसी हो शान्ति ! लसी हो दिदव्य!ा।

जो हो भूति!-तिनके!न भीति!-तिवमु- हो॥30॥

कभी व्यचिथ! हो कभी वारि� दृग में भ�े।

कभी हृदय के उदे्वगों का क� दमन॥

बा!ें �र्घुकुल-�तिव की गुरुव� ने सुनीं।

कभी धी� गंभी� तिन!ा !-अधी� बन॥31॥

कभी मचिलन-!म मुख-मhiल था दीख!ा।

उ� में बह!े थ ेअशान्ति ! सो!े कभी॥

कभी संकुचि�! हो!ा भाल तिवशाल था।

युगल-नयन तिवस्फारि�! हो!े थ ेकभी॥32॥

कुछ क्षण �ह क� मौन कहा गुरुदेव ने।

नृपव� यह संसा� 2वाथO-सवO2व है॥

आत्म-प�ायण!ा ही भव में है भ�ी।

प्राणी को तिप्रय प्राण समान तिनज2व है॥33॥

अपने तिह! साधन की ललकों में पडे़।

अतिह! लोक लालों के लोगों ने तिकए॥

प्राभिणमात्र के दुख को भव-परि�!ाप को।

Page 62: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

!ृण तिगन!ा है मानव तिनज सुख के चिलए॥34॥

सभी साँस!ें सहें बलाओं में फँसें।

क�ें लोग तिवक�ाल काल का सामना॥

!ो भी होगी नहीं अल्प भी कुन्धिhठ!ा।

मानव की मम!ानुगाष्टिमनी कामना॥35॥

तिकसे अतिनच्छा तिप्रय इच्छाओं से हुई।

वांछाओं के बन्धन में हैं बध्द सब॥

अथO लोभ से कहाँ अनथO हुआ नहीं।

इH चिसत्किध्द के चिलए अतिनH हुए न कब॥36॥

मम!ा की तिप्रय-रुचि�याँ बाधायें पiे।

बन जा!ी जन!ा तिनष्टिमत्त हैं ईति!याँ॥

तिवबुध-वृ द की भी ग! दे!ी हैं बना।

गौ�व-गर्विवं!-गौ�तिव!ों की वृभित्तयाँ॥37॥

!म-परि�-पूरि�! अमा-याष्टिमनी-अंक में।

नहीं तिवलस!ी ष्टिमल!ी है �ाका-चिस!ा॥

हो!ी है मति!, �तिह! साभित्तवकी-नीति! से।

2वत्व-ममत्व महत्ता-सत्ता मोतिह!ा॥38॥

तिक !ु हुए हैं मतिह में ऐसे नृमभिण भी।

ष्टिमली देव!ों जैसी जिजनमें दिदव्य!ा॥

जो मानव!ा !था महत्ता मूर्वि!ं थे।

भ�ी जिज होंने भव-भावों में भव्य!ा॥39॥

वैसे ही हैं आप भूति!याँ आप की।

हैं !म-भरि�!ा-भूष्टिम की अलौतिकक-तिवभा॥

Page 63: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

लोक-�ंजिजनी पू!-कीर्वि!ं-कमनीय!ा।

है सCन स�चिसज तिनष्टिमत्त प्रा!:-प्रभा॥40॥

बा! मुbे लोकापवाद की ज्ञा! है।

वह केवल कलुतिष! चि�! का उद्गा� है॥

या प्रलाप है ऐसे पाम�-पंुज का।

अपने उ� प� जिज हें नहीं अष्टिधका� है॥41॥

हो!ी है सु�-सरि�!ा अपुनी!ा नहीं।

पाप-प�ायण के कुज्जित्स! आ�ोप से॥

होंगी कभी अगौ�तिव!ा गौ�ी नहीं।

तिक हीं अ यथा कुतिप! जनों के कोप से॥42॥

�जकण !क को जो क�!ी है दिदव्य !म।

वह दिदनक� की तिवश्व-व्यातिपनी-दिदव्य!ा॥

हो पाएगी बु�ी न अंधों के बके।

कहे उलूकों के न बनेगी तिनजि द!ा॥43॥

ज्योति!मयी की प�म-समुज्ज्वल ज्योति! को।

नहीं कलंतिक! क� पाएगी काचिलमा॥

मचिलना होगी तिकसी मचिलन!ा से नहीं।

ऊषादेवी की लोकोत्त�-लाचिलमा॥44॥

जो सुकीर्वि!ं जन-जन-मानस में है लसी।

जिजसके द्वा�ा ध�ा हुई है धावचिल!ा॥

चिस!ा-समा जो है दिदगं! में व्यातिप!ा।

क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुतिष!ा॥45॥

जो हल�ल लोकापवाद आधा� से।

Page 64: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है उत्पन्न हुई, दु� ! है हो, �ही॥

उसका उ मूलन प्रधान-क!Oव्य है।

तिक !ु आप को दमन-नीति! तिप्रय है नहीं॥46॥

यद्यतिप इ!नी �ाजशचि- है बलव!ी।

क� देगी उसका तिवनाश वह शीघ्र !म॥

प� यह लोका�ाधन-व्र!-प्रति!कूल है।

अ!: इH है शान्ति ! से शमन लोक भ्रम॥47॥

सामनीति! का मैं तिव�ोध कैसे करँू।

�ाजनीति! को वह क�!ी है गौ�तिव!॥

लोका�ाधन ही प्रधान नृप-धमO है।

तिक !ु आपका व्र! तिबलोक मैं हूँ �तिक!॥48॥

त्याग आपका है उदात्त धृति! ध य है।

लोकोत्त� है आपकी सहनशील!ा॥

है अपूवO आदशO लोकतिह! का जनक।

है महान भवदीय नीति!-ममOज्ञ!ा॥49॥

आप पुरुष हैं नृप व्र! पालन तिन�! हैं।

प� होवेगी क्या पति! प्राणा की दशा॥

आह! क्यों सहेगी वह कोमल हृदय प�।

आपके तिव�ह की लग!ी तिनमOम-कशा॥50॥

जो हो प� पथ आपका अ!ुलनीय है।

लोका�ाधन की उदा�-!म-नीति! है॥

आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है।

प्रजा-पंुज की उसमें भ�ी प्र!ीति! है॥51॥

Page 65: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

आयO-जाति! की यह चि��काचिलक है प्रथा।

गभOव!ी तिप्रय-पत्नी को प्राय: नृपति!॥

कुलपति! पावन-आश्रम में हैं भेज!े।

हो जिजससे सब-मंगल, चिशशु हो शुध्दमति!॥52॥

है पुनी!-आश्रम वाल्मीतिक-महर्विषं का।

पति!!-पावनी सु�सरि�!ा के कूल प�॥

वास योग्य ष्टिमचिथलेश सु!ा के है वही।

सब प्रका� वह है प्रशा ! है श्रेष्ठ!�॥53॥

वे कुलपति! हैं सदा�ा�-सवO2व हैं।

वहाँ बाचिलका-तिवद्यालय भी है तिवशद॥

जिजसमें सु�पु� जैसी हैं बहु-देतिवयाँ।

जिजनका चिशक्षण शा�दा सदृश है व�द॥54॥

वहाँ ज्ञान के सब साधन उपलब्ध हैं।

सब तिवषयों के बहु तिवद्यालय हैं बने॥

दश-सहस्र व�-बटु तिवलचिस! वे हैं, वहाँ-

शन्ति ! तिव!ान प्रकृति! देवी के हैं !ने॥55॥

अ यस्थल में जनक-सु!ा का भेजना।

सम्भव है बन जाए भय की कल्पना॥

आपकी महत्ता को समbेंगे न सब।

शंका है, बढ़ जाए जन!ा-जल्पना॥56॥

गभOव!ी हैं जनक-नजि दनी इसचिलए।

उनका कुलपति! के आश्रम में भेजना॥

सकल-प्रपं�ों प�ड़ों से होगा �तिह!।

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कही जाएगी प्रचिथ!-प्रथा परि�पालना॥57॥

जैसी इच्छा आपकी तिवदिद! हुई है।

वाल्मीकाश्रम वैसा पुhय-स्थान है॥

अ!: वहाँ ही तिवदेहजा को भेजिजए।

वह है शा !, सु�भिक्ष!, सुकृति!-तिनधन है॥58॥

तिक !ु आपसे यह तिवशेष अनु�ोध है।

सब बा!ें का !ा को ब!ला दीजिजए॥

2वयं कहेगी वह पति!प्राणा आप से।

लोका�ाधन में तिवलंब म! कीजिजए॥59॥

स!ी-चिश�ोमभिण पति!-प�ायणा पू!-धी।

वह देवी है दिदव्य-भूति!यों से भ�ी॥

है उदा�!ामयी सु�रि�!ा सदव््र!ा।

जनक-सु!ा है प�म-पुनी!ा सु�स�ी॥60॥

जो तिह!-साधन हो!ा हो पति!-देव का।

तिपसे न जन!ा, जो न ति!�2कृ! हों कृ!ी॥

!ो संसृति! में है वह संकट कौन सा।

जिजसे नहीं सह सक!ी है ललना स!ी॥61॥

तिप्रय!म के अनु�ाग-�ाग में �ँग गए।

�ह!ी जिजसके मंजुल-मुख की लाचिलमा॥

चिस!ा-समुज्ज्वल उसकी मह!ी कीर्वि!ं में।

वह देखेगी कैसे लग!ी काचिलमा॥62॥

अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे।

जिजस मुख को तिवकचिस! तिवलोक!ी थी सदा॥

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देखेगी वह क्यों पति!-जीवन का असुख।

जो उत्सग�-कृ!-जीवन थी सवOदा॥63॥

दोहा

सुन बा!ें गुरुदेव की, सुत्किख! हुए श्री�ाम।

आज्ञा मानी, ली तिवदा, सतिवनय तिकया प्रणाम॥64॥

सती सीता ताटंक पीछे     आगे

 

प्रकृति!-सु द�ी तिवहँस �ही थी � द्रानन था दमक �हा।

प�म-दिदव्य बन का !-अंक में !ा�क-�य था �मक �हा॥

पहन शे्व!-सादिटका चिस!ा की वह लचिस!ा दिदखला!ी थी।

ले ले सुधा-सुधा-क�-क� से वसुधा प� ब�सा!ी थी॥1॥

नील-नभो मhiल बन-बन क� तिवतिवध-अलौतिकक-दृश्य तिनलय।

क�!ा था उत्फुल्ल हृदय को !था दृगों को कौ!ुकमय॥

नीली पीली लाल बैंगनी �ंग तिब�ंगी उड़ु अवली।

बनी दिदखा!ी थी मनोज्ञ !म छटा-पंुज की केचिल-थली॥2॥

क� फुलbड़ी तिक्रया उल्कायें दिदतिव को दिदव्य बना!ी थीं।

भ�!ी थीं दिदगं! में आभा जग!ी-ज्योति! जगा!ी थीं॥

तिकसे नहीं मोह!ी, देखने को कब उसे न रुचि� ललकी।

उनकी कनक-कान्ति ! लीकों से लसी नीचिलमा नभ-!ल की॥3॥

जो ज्योति!मOय बूटों से बहु सज्जिC! हो था का ! बना।

अत्किखल कलामय कुल लोकों का अति! कमनीय तिव!ान !ना॥

दिदखा अलौतिकक!म-तिवभूति!याँ �तिक! चि�त्त को क�!ा था।

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लीलामय की लोकोत्त�!ा लोक-उ�ों में भ�!ा था॥4॥

�ाका-�जनी अनु�ंजिज! हो जन-मन-�ंजन में �! थी।

तिप्रय!म-�स से स!! चिस- हो पुलतिक! ललतिक! !द्ग! थी॥

ओस-तिब दु से तिवलस अवतिन को मु-ा माल तिप हा!ी थी।

तिव�� तिक�ीटी तिगरि� को !रु-दल को �ज!ाभ बना!ी थी॥5॥

�ाज-भवन की दिदव्य-अटा प� खड़ी जनकजा मुग्ध बनी।

देख �ही थीं गगन-दिदव्य!ा चिस!ा-तिवलचिस!ा-चिस! अवनी॥

मंद-मंद मारु! बह!ा था �ा! दो र्घड़ी बी!ी थी।

छ! प� बैठी �तिक!-�को�ी सुधा �ाव से पी!ी थी॥6॥

थी सब ओ� शान्ति ! दिदखला!ी तिनयति!-नटी न!Oन�! थी।

फूली तिफ�!ी थी प्रफुल्ल!ा उत्सुक!ाति! !�ंतिग! थी॥

इसी समय बढ़ गया वायु का वेग, भिक्षति!ज प� दिदखलाया।

एक लर्घु-जलद-खhi पूवO में जो बढ़ वारि�द बन पाया॥7॥

पहले छोटे-छोटे र्घन के खhi र्घूम!े दिदखलाए।

तिफ� छायामय क� भिक्षति!-!ल को सा�े नभ!ल में छाए॥

!ा�ापति! चिछप गया आवरि�! हुई !ा�कावचिल सा�ी।

चिस!ा बनी अचिस!ा, चिछन!ी दिदखलाई उसकी छतिव- या�ी॥8॥

दिदतिव-दिदव्य!ा अदिदव्य बनी अब नहीं दिदग्वधू हँस!ी थी।

तिनशा-सु द�ी की सु द�!ा अब न दृगों में बस!ी थी॥

कभी र्घन-पटल के र्घे�े में bलक कलाध� जा!ा था।

कभी �जि द्रका बदन दिदखा!ी कभी ति!ष्टिम� ष्टिर्घ� आ!ा था॥9॥

यह परि�व!Oन देख अ�ानक जनक-नजि दनी अकुलाईं।

�ल गयंद-गति! से अपने कमनीय!म अयन में आईं॥

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उसी समय सामने उ हें अति!-का ! तिवधु-बदन दिदखलाया।

जिजस प� उनको पड़ी ष्टिमली चि��काचिलक-चि� !ा की छाया॥10॥

तिप्रय!म को आया तिवलोक आद� क� उनको बैठाला।

इ!नी हुईं प्रफुल्ल सुधा का मानो उ हें ष्टिमला प्याला॥

बोलीं क्यों इन दिदनों आप इ!ने चि�न्ति !! दिदखला!े हैं।

वैसे त्किखले स�ोज-नयन तिकसचिलए न पाए जा!े हैं॥11॥

वह तित्रलोक-मोतिहनी-तिवक�!ा वह प्रवृभित्त-आमोदमयी।

वह तिवनोद की वृभित्त सदा जो असमंजस प� हुई जयी॥

वह मानस की महा-स�स!ा जो �स ब�सा!ी �ह!ी।

वह न्धि2नग्ध!ा सुधा-ध�ा सी जो वसुधा प� थी बह!ी॥12॥

क्यों �ह गयी न वैसी अब क्यों कुछ बदली दिदखला!ी है।

क्या �ाका की चिस!ा में न पू�ी चिस!!ा ष्टिमल पा!ी है॥

बडे़-बडे़ संकट-समयों में जो मुख मचिलन न दिदखलाया।

अहह तिकस चिलए आज देख!ी हूँ मैं उसको कुम्हलाया॥13॥

पडे़ बलाओं में जिजस पेशानी प� कभी न बल आया।

उसे चिसकुड़!ा बा�-बा� क्यों देख मम दृगों ने पाया॥

क्यों उदे्वजक-भाव आपके आनन प� दिदखला!े हैं।

क्यों मुbको अवलोक आपके दृग सकरुण हो जा!े हैं॥14॥

कुछ तिव�चिल! हो अति!-अतिव�ल-मति! क्यों बलवत्ता खो!ी है।

क्यों आकुल!ा महा-धी�-गम्भी� हृदय में हो!ी है॥

कैसे !ेज:-पंुज सामने तिकस बल से वह अड़!ी है।

कैसे �र्घुकुल-�तिव आनन प� चि� !ा छाया पड़!ी है॥15॥

देख जनक-!नया का आनन सुन उनकी बा!ें सा�ी।

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बोल सके कुछ काल !क नहीं अत्किखल-लोक के तिह!का�ी॥

तिफ� बोले गम्भी� भाव से अहह तिप्रये क्या ब!लाऊँ।

है सामने कठो� सम2या कैसे भला न र्घब�ाऊँ॥16॥

इ!ना कह लोकापवाद की सा�ी बा!ें ब!लाईं।

गुरु!ायें अनुभू! उलbनों की भी उनको ज!लाईं॥

गन्धव� के महा-नाश से प्रजा-वृ द का कँप जाना।

लवणासु� का गुप्! भाव से प्राय: उनको उकसाना॥17॥

लोका�ाधन में बाधायें खड़ी क� �हा है कैसी।

यह ब!ला तिफ� कहा उ होंने शान्ति !-अवस्था है जैसी॥

!दुप�ा ! बन संय! �र्घुकुल-पंुगव ने यह बा! कही।

जो जन-�व है वह तिनजि द! है, है वह नहीं कदातिप सही॥18॥

यह अपवाद लगाया जा!ा है मुbको उत्तोजिज! क�।

द्रोह-तिववश दनुजों का नाश क�ाने में !ुम हो !त्प�॥

इसी सूत्र से कति!पय-कुत्साओं की है कल्पना हुई।

अतिववेकी जन!ा के मुख से तिन दनीय जल्पना हुई॥19॥

दमन नहीं मुbको वांचिछ! है !ुम्हें भी न वह प्या�ा है।

सामनीति! ही जन अशान्ति !-पति!!ा की सु�-सरि�-ध�ा है॥

लोका�ाधन के बल से लोकापवाद को दल दँूगा।

कलुतिष!-मानस को पावन क� मैं मन वांचिछ! फल लँूगा॥20॥

इच्छा है कुछ काल के चिलए !ुमको स्थाना !रि�! करँू।

इस प्रका� उपजा प्र!ीति! मैं प्रजा-पंुज की भ्रान्ति ! हरँू॥

क्यों दूस�े तिपसें, संकट में पड़, बहु दुख भोग!े �हें।

क्यों न लोक-तिह! के तिनष्टिमत्त जो सह पाए ँहम 2वयं सहें॥21॥

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जनक-नजि दनी ने दृग में आ!े ऑंसू को �ोक कहा।

प्राणनाथ सब !ो सह लँूगी क्यों जाएगा तिव�ह सहा॥

सदा आपका � द्रानन अवलोके ही मैं जी!ी हूँ।

रूप-माधु�ी-सुधा !ृतिष! बन �कोरि�का सम पी!ी हूँ॥22॥

बदन तिवलोके तिबना बावले युगल-नयन बन जाएगँे।

!ा� बाँध बह!े ऑंसू का बा�-बा� र्घब�ाएगेँ॥

मुँह जोह!े बी!!े बास� �ा!ें सेवा में कट!ीं।

तिह!-वृभित्तयाँ सजग �ह पल-पल कभी न थीं पीछे हट!ीं॥23॥

ष्टिमले तिबना ऐसा अवस� कैसे मैं समय तिब!ाऊँगी।

अहह! आपको तिबना त्किखलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥

चि�त्त-तिवकल हो गये तिवकल!ा को क्यों दू� भगाऊँगी।

थाम कलेजा बा�-बा� कैसे मन को समbाऊँगी॥24॥

क्षमा कीजिजए आकुल!ा में क्या कह!े क्या कहा गया।

नहीं उपज्जिस्थ! क� सक!ी हूँ मैं कोई प्र2!ाव नया॥

अपने दुख की जिज!नी बा!ें मैंने हो उतिद्वग्न कहीं।

आपको प्रभातिव! क�ने का था उनका उदे्दश्य नहीं॥25॥

वह !ो 2वाभातिवक-प्रवाह था जो मुँह से बाह� आया।

आह! कलेजा तिहले कलप!ा कौन नहीं कब दिदखलाया॥

तिक !ु आप के धमO का न जो परि�पालन क� पाऊँगी।

सहधार्मिमणंी नाथ की !ो मैं कैसे भला कहाऊँगी॥26॥

वही करँूगी जो कुछ क�ने की मुbको आज्ञा होगी।

त्याग, करँूगी, इH चिसत्किध्द के चिलए बना मन को योगी॥

सुख-वासना 2वाथO की चि� !ा दोनों से मुँह मोiँूगी।

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लोका�ाधन या प्रभु-आ�ाधन तिनष्टिमत्त सब छोडँ़ूगी॥27॥

भवतिह!-पथ में क्लेचिश! हो!ा जो प्रभु-पद को पाऊँगी।

!ो सा�े कhटतिक!-मागO में अपना हृदय तिबछाऊँगी॥

अनु�ातिगनी लोक-तिह! की बन सच्ची-शान्ति !-�!ा हूँगी।

क� अपवगO-म त्र का साधन !ुच्छ 2वगO को समbँूगी॥28॥

यदिद कलंतिक!ा हुई कीर्वि!ं !ो मुँह कैसे दिदखलाऊँगी।

जीवनधन प� उत्सर्विगं! हो जीवन ध य बनाऊँगी॥

है लोकोत्त� त्याग आपका लोका�ाधन है या�ा।

कैसे सम्भव है तिक वह न हो चिश�ोधायO मे�े द्वा�ा॥29॥

तिव�ह-वेदनाओं से जल!ी दीपक सम दिदखलाऊँगी।

प� आलोक-दान क� तिक!ने उ� का ति!ष्टिम� भगाऊँगी॥

तिबना बदन अवलोके ऑंखें ऑंसू सदा बहाएगँी।

प� मे�े उत्प्! चि�त्त को स�स सदैव बनाएगँी॥30॥

आकुल!ाए ँबा�-बा� आ मुbको बहु! स!ाएगँी।

तिक !ु धमO-पथ में धृति!-धा�ण का स देश सुनाएगँी॥

अ !2!ल की तिवतिवध-वृभित्तयाँ बहुधा व्यचिथ! बनाएगँी।

तिक !ु वंद्य!ा तिवबुध-वृ द-वजि द! की ब!ला जाएगँी॥31॥

लगी लालसाए ँलालाष्टिय! हो हो क� कलपाएगँी।

तिक !ु कल्पना!ी! लोक-तिह! अवलोके बचिल जाएगँी॥

आप जिजसे तिह! समbें उस तिह! से ही मे�ा ना!ा है।

हैं जीवन-सवO2व आप ही मे�े आप तिवधा!ा हैं॥32॥

कहा �ाम ने तिप्रये, अब 'तिप्रये' कह!े कुन्धिhठ! हो!ा हूँ।

अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बो!ा हूँ॥

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मैं दुख भोगूँ व्यथा सहूँ इसकी मुbको प�वाह नहीं।

पiंू संकटों में तिक!ने तिनकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥

तिक !ु सो�क� कH !ुमा�ा थाम कलेजा ले!ा हूँ।

कैसे क्या समbाऊँ जब मैं ही !ुम को दुख दे!ा हूँ॥

!ो तिवचि�त्र!ा भला कौन है जो प्राय: र्घब�ा!ा हूँ।

अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वाचिसनी बना!ा हूँ॥34॥

धमO-प�ायण!ा प�-दुख का!�!ा तिवदिद! !ुमा�ी है।

भवतिह!-साधन-सचिलल-मीन!ा !ुमको अति!शय प्या�ी है॥

!ुम हो मूर्वि!ंम!ी दयालु!ा दीन प� द्रतिव! हो!ी हो।

संसृति! के कमनीय के्षत्रा में कमO-बीज !ुम बो!ी हो॥35॥

इसीचिलए यह तिनभिश्च! था अवलोक परि�ज्जिस्थति! तिह! होगा।

स्थाना !रि�! तिव�ा� !ुमा�े द्वा�ा अनुमोदिद! होगा॥

वही हुआ, प� तिव�ह-वेदना भय से मैं बहु चि�न्ति !! था।

देख !ुमा�ी पे्रम प्रवण!ा अति! अधी� था शंतिक! था॥36॥

तिक !ु बा! सुन प्रति!तिक्रया की सहृदय!ा से भ�ी हुई।

उस प्रवृभित्त को शान्ति ! ष्टिमल गयी जो थी अयथा i�ी हुई॥

!ुम तिवशाल-हृदया हों मानव!ा है !ुम से छतिब पा!ी।

इसीचिलए !ुममें लोकोत्त� त्याग-वृभित्त है दिदखला!ी॥37॥

है प्रा�ीन पुनी! प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।

सब प्रका� की श्रेय दृष्टिH से बालक तिह! की वांछा से॥

गभOव!ी-मतिहला कुलपति!-आश्रम में भेजी जा!ी है।

यथा-काल सं2का�ादिदक होने प� वापस आ!ी है॥38॥

इसी सूत्र से वाल्मीकाश्रम में !ुमको मैं भेजूँगा।

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तिकसी को न कुज्जित्स! तिव�ा� क�ने का अवस� मैं दँूगा॥

सब तिव�ा� से वह उत्तम है, है अ!ीव उपयु- वही।

यही वचिसष्ठ देव अनुमति! है शान्ति !मयी है नीति! यही॥39॥

!पो-भूष्टिम का शा !-आव�ण प�म-शान्ति ! !ुमको देगा।

तिव�ह-जतिन!-वेदना आदिद की अति!शय!ा को ह� लेगा॥

!पस्वि2वनी नारि�याँ ऋतिषगणों की पन्धित्नयाँ समाद� दे।

!ुमको सुत्किख! बनाएगँी परि�!ाप शमन का अवस� दे॥40॥

प�म-तिन�ापद जीवन होगा �ह महर्विषं की छाया में।

ध�ा स!! �हेगी बह!ी सत्प्रवृभित्त की काया में॥

तिवद्यालय की सुधी देतिवयाँ होंगी सहानुभूति!मयी।

जिजससे हो!ी सदा �हेगी तिव�चिल!-चि�! प� शान्ति ! जयी॥41॥

जिजस दिदन !ुमको तिकसी लाल का � द्र-बदन दिदखलाएगा।

जिजस दिदन अंक !ुमा�ा �तिव-कुल-�ंजन से भ� जाएगा॥

जिजस दिदन भाग्य खुलेगा मे�ा पुत्र �त्न !ुम पाओगी।

उस दिदन उ� तिव�हांधाका� में कुछ प्रकाश पा जाओगी॥42॥

प्रजा-पंुज की भ्रान्ति ! दू� हो, हो अशान्ति ! का उ मूलन।

बु�ी धा�णा का तिवनाश हो, हो न अ यथा उत्पीड़न॥

स्थाना !रि�!-तिवधान इसी उदे्दश्य से तिकया जा!ा है।

अ!: आगमन मे�ा आश्रम में संग! न दिदखा!ा है॥43॥

तिप्रये इसचिलए जब !क पू�ी शान्ति ! नहीं हो जावेगी।

लोका�ाधन-नीति! न जब !क पूणO-सफल!ा पावेगी॥

�होगी वहाँ !ुम जब !क मैं !ब !क वहाँ न आऊँगा।

यह असह्य है, सहन-शचि- प� मैं !ुम से ही पाऊँगा॥44॥

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आज की रुचि�� �ाका-�जनी प�म-दिदव्य दिदखला!ी थी।

तिवहँस �हा था तिवधु पा उसको चिस!ा मंद मुसका!ी थी॥

तिक !ु बा!-की-बा! में गगन-!ल में वारि�द ष्टिर्घ� आया।

जो था सु द� समा सामने उस प� पड़ी मचिलन-छाया॥45॥

प� अब !ो मैं देख �हा हूँ भाग �ही है र्घन-माला।

बदले हवा समय ने आक� �जनी का संकट टाला॥

यथा समय आशा है यों ही दू� धमO-संकट होगा।

ष्टिमले आत्मबल, आ!प में सामने खड़ा व�-वट होगा॥46॥

$ौपदे

जिजससे अपकीर्वि!ं न होवे।

लोकापवाद से छूटें॥

जिजससे सद्भाव-तिव�ोधी।

तिक!ने ही बन्धन टूटें॥47॥

जिजससे अशान्ति ! की ज्वाला।

प्रज्वचिल! न होने पावे॥

जिजससे सुनीति!-र्घन-माला।

ष्टिर्घ� शान्ति !-वारि� ब�सावे॥48॥

जिजससे तिक आपकी गरि�मा।

बहु ग�ीयसी कहलावे॥

जिजससे गौ�तिव!ा भू हो।

भव में भवतिह! भ� जावे॥49॥

जानकी ने कहा प्रभु मैं।

उस पथ की पचिथका हूँगी॥

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उभ�े काँटों में से ही।

अति!-सु द�-सुमन �ुनँूगी॥50॥

पद-पंकज-पो! सहा�े।

संसा�-समुद्र !रँूगी॥

वह क्यों न हो ग�लवाला।

मैं स�स सुधा ही लँूगी॥51॥

शुभ-चि� !क!ा के बल से।

क्यों चि� !ा चि�!ा बनेगी॥

उ�-तिनष्टिध-आकुल!ा सीपी।

तिह!-मो!ी सदा जनेगी॥52॥

प्रभु-चि�त्त-तिवमल!ा सो�े।

धुल जाएगा मल सा�ा॥

सु�सरि�!ा बन जाएगी।

ऑंसू की बह!ी ध�ा॥53॥

क� याद दयातिनष्टिध!ा की।

भूलँूगी बा!ें दुख की॥

उ�-ति!ष्टिम� दू� क� देगी।

�ति! � द-तिवतिन दक मुख की॥54॥

मैं नहीं बनूँगी व्यचिथ!ा।

क� सुष्टिध करुणामय!ा की॥

मम हृदय न होगा तिव�चिल!।

अवगति! से सहृदय!ा की॥55॥

होगी न वृभित्त वह जिजससे।

Page 77: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

खोऊँ प्र!ीति! जन!ा की॥

धृति!-हीन न हूँगी समbे।

गति! धमO-धु�ंध�!ा की॥56॥

क� भव-तिह! सच्चे जी से।

मुbमें तिनभOय!ा होगी॥

जीवन-धन के जीवन में।

मे�ी ! मय!ा होगी॥57॥

दोहा

पति! का सा�ा कथन सुन, कह बा!ें कथनीय।

�ाम� द्र-मुख- � द्र की, बनीं �को�ी सीय॥58॥

कातरोचि7 पादाकुलक पीछे     आगे

 

प्रवहमान प्रा!:-समी� था।

उसकी गति! में थी मंथ�!ा॥

�जनी-मभिणमाला थी टूटी।

प� प्रा�ी थी प्रभा-तिव�तिह!ा॥1॥

छोटे-छोटे र्घन के टुकडे़।

र्घूम �हे थ ेनभ-मhiल में॥

मचिलना-छाया पति!! हुई थी।

प्राय: जल के अ !2!ल में॥2॥

कुछ कालोप�ा ! कुछ लाली।

काले र्घन-खhiों ने पाई॥

Page 78: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

खड़ी ओट में उनकी ऊषा।

अलस भाव से भ�ी दिदखाई॥3॥

अरुण-अरुभिणमा देख �ही थी।

प� था कुछ प�दा सा iाला॥

चिछक-चिछक क�के भी भिक्षति!-!ल प�।

फैल �हा था अब उँजिजयाला॥4॥

दिदन-मभिण तिनकले !ेजोह! से।

रुक-रुक क�के तिक�णें फूटीं॥

छूट तिकसी अव�ोधक-क� से।

चिछदिटक-चिछदिटक ध�!ी प� टूटीं॥5॥

�ाज-भवन हो गया कल�तिव!।

बजने लगा वाद्य !ो�ण प�॥

दिदव्य-मजि द�ों को क� मुखरि�!।

दू� सुन पड़ा वेद-ध्वतिन 2व�॥6॥

इसी समय मंथ� गति! से �ल।

पहुँ�ी जनकात्मजा वहाँ प�॥

कौशल्या देवी बैठी थीं।

बनी तिवकल!ा-मूर्वि!ं जहाँ प�॥7॥

पग-व दन क� जनक-नजि दनी।

उनके पास बैठ क� बोलीं॥

धी�ज धा� क� तिवन!-भाव से।

तिप्रय-उचि-याँ थचैिलयाँ खोलीं॥8॥

क� मंगल-कामना प्रसव की।

Page 79: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जनन-तिक्रया की सद्वांछा से॥

सकल-लोक उपका�-प�ायण।

पुत्र-प्रान्तिप्! की आकांक्षा से॥9॥

हैं पति!देव भेज!े मुbको।

वाल्मीक के पुhयाश्रम में॥

दीपक वहाँ बलेगा ऐसा।

जो आलोक क�ेगा !म में॥10॥

आज्ञा लेने मैं आयी हूँ।

औ� यह तिनवेदन है मे�ा॥

यह दें आशीवाOद सदा ही।

�हे सामने दिदव्य सबे�ा॥11॥

दुख है अब मैं क� न सकँूगी।

कुछ दिदन पद-पंकज की सेवा॥

आह प्रति!-दिदवस ष्टिमल न सकेगा।

अब दशOन मंजुल-!म-मेवा॥12॥

मा!ा की मम!ा है मानी।

तिकस मुँह से क्या सक!ी हूँ कह॥

प� मे�ा मन नहीं मान!ा।

मे�ी तिवनय इसचिलए है यह॥13॥

मैं प्रति!-दिदन अपने हाथों से।

सा�े वं्यजन �ही बना!ी॥

पास बैठ क� पंखा bल-bल।

प्या� सतिह! थी उ हें त्किखला!ी॥14॥

Page 80: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

तिप्रय-!म सुख-साधन-आ�ाधन।

में थी सा�ा-दिदवस तिब!ा!ी॥

उनके पुलके �ही पुलक!ी।

उनके कुम्हलाये कुम्हला!ी॥15॥

हैं गुणव!ी दाचिसयाँ तिक!नी।

हैं पा�क पाचि�का नहीं कम॥

प� है तिकसी में नहीं ष्टिमल!ी।

जिज!ना वांछनीय है संयम॥16॥

ज�ा-जजOरि�! 2वयं आप हैं।

है क्ष !व्य धृH!ा मे�ी॥

इ!ना कह क� जनतिन आपकी।

केवल दृष्टिH इध� है फे�ी॥17॥

कहा श्रीम!ी कौशल्या ने।

मुbे ज्ञा! हैं सा�ी बा!ें॥

मंगलमय हो पंथ !ुम्हा�ा।

बनें दिदव्य-दिदन �ंजिज!-�ा!ें॥18॥

पुhय-कायO है गुरु-तिनदेश है।

है यह प्रथा प्रशंसनीय-!म॥

कभी न अतिवतिह!-कमO क�ेगा।

�र्घुकुल-पंुगव प्रचिथ!-नृपोत्तम॥19॥

आश्रम-वास-काल हो!ा है।

कुलपति! द्वा�ा ही अवधरि�!॥

ब�सों का यह काल हुए, क्यों?

Page 81: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

मे�े दिदन होंगे अति!वातिह!॥20॥

मंगल-मूलक महत्कायO है।

है तिवभूति!मय यह शुभ-यात्रा॥

पूरि�! इसके अवयव में है।

प्रफुल्ल!ा की पू�ी मात्र॥21॥

तिक !ु नहीं �ोके रुक!ा है।

ऑंसू ऑंखों में है आ!ा॥

समbा!ी हूँ प� मे�ा मन।

मे�ी बा! नहीं सुन पा!ा॥22॥

!ुम्हीं �ाज-भवनों की श्री हो।

!ुमसे वे हैं शोभा पा!े॥

!ुम्हें लाभ क�के तिवकचिस! हो।

वे हैं हँस!े से दिदखला!े॥23॥

मंगल-मय हो, प� न तिकसी को।

यात्रा-समा�ा� भा!ा है॥

ऐसी कौन ऑंख हैं जिजसमें।

!ु�ं! नहीं ऑंसू आ!ा है॥24॥

गृह में आज यही ��ाO है।

जावेंगी !ो कब आवेंगी॥

कौन सुदिदन वह होगा जिजस दिदन।

कृपा-वारि� आ ब�सावेंगी॥25॥

हो अनाथ-जन की अवलम्बन।

हृदय बड़ा कोमल पाया है॥

Page 82: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

भ�ी स�ल!ा है �ग �ग में।

पू!-सु�स�ी सी काया है॥26॥

जब देखा !ब हँस!े देखा।

क्रोध नहीं !ुमको आ!ा है॥

कटु बा!ें कब मुख से तिनकलीं।

व�न सुधा-�स ब�सा!ा है॥27॥

जैसी !ुम में पुत्री वैसी।

तिकस जी में मम!ा जग!ी है॥

औ� को कलप!ा अवलोके।

कौन यों कलपने लग!ी है॥28॥

तिबना बुलाए मे�ा दुख सुन।

कौन दौड़!ी आ जा!ी थी॥

पास बैठक� तिक!नी �ा!ें।

जगक� कौन तिब!ा जा!ी थी॥29॥

मे�ा क्या दासी का दुख भी।

!ुम देखने नहीं पा!ी थीं।

भतिगनी के समान ही उसकी।

सेवा में भी लग जा!ी थीं॥30॥

तिवदा माँग!े समय की कही।

तिवनयमयी !ब बा!ें कहक�॥

�ोईं बा�-बा� कैकेयी।

बनीं सुष्टिमत्रा ऑंखें तिनbO�॥31॥

उनकी आकुल!ा अवलोके।

Page 83: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कल्ह �ा! भ� नींद न आई॥

�ह-�ह र्घब�ा!ी हूँ, जी में।

आज भी उदासी है छाई॥32॥

!ुम जिज!नी हो, कैकेयी को।

है न माhiवी उ!नी प्या�ी॥

बंधुओं बचिल! सुष्टिमत्रा में भी।

देखी मम!ा अष्टिधक !ुमा�ी॥33॥

तिफ� जिजसकी ऑंखों की पु!ली।

लकुटी जिजस वृध्दा के क� की॥

चिछनेगी न कैसे वह कलपे।

छाया �ही न जिजसके चिस� की॥34॥

जिजसकी हृदय-वल्लभा !ुम हो।

जो !ुमको पलकों प� �ख!ा॥

प्रीति!-कसौटी प� कस जो है।

पावन-पे्रम-सुवणO प�ख!ा॥35॥

जिजसका पत्नी-व्र! प्रचिसध्द है।

जो है पावन-�रि�! कहा!ा॥

देख !ुमा�ा अ�तिव दानन।

जो है तिवक�-वदन दिदखला!ा॥36॥

जिजसकी सुख-सवO2व !ुम्हीं हो।

जिजसकी हो आन द-तिवधा!ा॥

जिजसकी !ुम हो शचि--2वरूपा।

जो !ुम से पौरुष है पा!ा॥37॥

Page 84: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जिजसकी चिसत्किध्द-दाष्टियनी !ुम हो।

!ुम सच्ची गृतिहणी हो जिजसकी॥

सब !न-मन-धन अपOण क� भी।

अब !क बनी ऋणी हो जिजसकी॥38॥

अरुचि�� कुदिटल-नीति! से ऊबे।

जिजसको !ुम पुलतिक! क�!ी हो॥

जिजसके तिव�चिल!-चि�न्ति !!-चि�! में।

�ारु-चि�त्त!ा !ुम भ�!ी हो॥39॥

कैसे काल कटेगा उसका।

उसको क्यों न वेदना होगी॥

हो!े हृदय मनुज-!न-ध� वह।

बन पाएगा क्यों न तिवयोगी॥40॥

�र्घुन दन है धी�-धु�ंध�।

धमO प्राण है भव-तिह!-�! है॥

लोका�ाधन में है !त्प�।

सत्य-संध है सत्य-व्र! है॥41॥

नीति!-तिनपुण है याय-तिन�! है।

प�म-उदा� महान-हृदय है॥

प� उसको भी गूढ़ सम2या।

तिव�चिल! क�!ी यथा समय है॥42॥

ऐसे अवस� प� सहाय!ा।

सच्ची वह !ुमसे पा!ा था॥

मंद-मंद बह!े मारु! से।

Page 85: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

ष्टिर्घ�ा र्घन-पटल टल जा!ा था॥43॥

है तिवपभित्त-तिनष्टिध-पो!-2वरूपा।

सहकारि�णी चिसत्किध्दयों की है॥

है पत्नी केवल न गेतिहनी।

सहधार्मिमणंी मन्ति त्रणी भी है॥44॥

खान पान सेवा की बा!ें।

कह !ुमने है मुbे रुलाया॥

अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे।

आह कलेजा मुँह को आया॥45॥

जिजस दिदन सु! ने आ प्रफुल्ल हो।

आश्रम-वास-प्रसंग सुनाया॥

उस दिदन उस प्रफुल्ल!ा में भी।

मुbको ष्टिमली व्यथा की छाया॥46॥

ष्टिमले �!ुदOश-वत्स� का वन।

�ाज्य श्री की हुए तिवमुख!ा॥

कान्ति !-तिवहीन न जो हो पाया।

दू� हुई जिजसकी न तिवक�!ा॥47॥

क्यों वह मुख जैसा तिक �ातिहए।

वैसा नहीं प्रफुल्ल दिदखा!ा॥

!ेज-व !-�तिव के सम्मुख क्यों।

है �ज-पंुज कभी आ जा!ा॥48॥

आत्मत्याग का बल है सु! को।

उसकी सहन-शचि- है या�ी॥

Page 86: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

वह प�ाथO-अर्विपं!-जीवन है।

है �र्घुकुल-मुख-उज्ज्वलका�ी॥49॥

है मम-का!�ोचि- 2वाभातिवक।

व्यचिथ! हृदय का आश्वासन है॥

चिश�ोधायO गुरु-देवाज्ञा है।

मांगचिलक सुअन-अनुशासन है॥50॥

रोला

जाओ पुत्री प�म-पूज्य पति!-पथ पह�ानो।

जाओ अनुपम-कीर्वि!ं तिव!ान जग! में !ानो॥

जाओ �ह पुhयाश्रम में वांचिछ! फल पाओ।

पुत्र-�त्न क� प्रसव वंश को वंद्य बनाओ॥51॥

जाओ मुतिन-पंुगव-प्रभाव की प्रभा बढ़ाओ।

जाओ प�म-पुनी!-प्रथा की ध्वजा उड़ाओ॥

जाओ आक� यथा-शीघ्र उ�-ति!ष्टिम� भगाओ।

तिनज-तिवधु-वदन समे! लाल-तिवधु-वदन दिदखाओ॥52॥

इ!ना कह क� मौन हुई कौशल्या मा!ा।

तिक !ु युगल-नयनों से उनके था जल जा!ा॥

तिवतिवध-सा त्वना-व�न कहे प्रकृति!स्थ हुईं जब।

पग-व दन क� जनक-नजि दनी तिवदा हुईं !ब॥53॥

सखी

जब र्घ� आई !ब देखा।

बहनें आक� हैं बैठी॥

हैं त्किखन्न मना दुख-मग्ना।

Page 87: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

उदे्वगांबुष्टिध में पैठी॥54॥

देख!े माhiवी बोली।

क्या सुन!ी हूँ मैं जीजी॥

वह तिनठु� बनेगी कैसे।

जो �ही सदैव पसीजी॥55॥

!ुम कहाँ �ली जा!ी हो।

क्यों तिकसी को न ब!लाया॥

इ!नी कठो�!ा क�के।

क्यों सब को बहु! रुलाया॥56॥

हम सब भी साथ �लेंगी।

सेवाए ँसभी क�ेंगी॥

प� र्घ� प� बैठी �ह क�।

तिन! आहें नहीं भ�ेंगी॥57॥

वाल्मीकाश्रम में जाक�।

कब !क !ुम वहाँ �होगी॥

यह ज्ञा! नहीं !ुमको भी।

कुछ कैसे भला कहोगी॥58॥

दस पाँ� ब�स !क !ुमको।

जो �हना पड़ जाएगा॥

'तिवचे्छद' बलाए ँतिक!नी।

हम लोगों प� लाएगा॥59॥

क� अनुगाष्टिम!ा !ुमा�ी।

सुखमय है सदन हमा�ा॥

Page 88: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कलुतिष!-उ� में भी बह!ी।

�ह!ी है सु�-सरि�-ध�ा॥60॥

जो उलbन सम्मुख आई।

उसको !ुमने सुलbाया॥

जो गं्रचिथ न खुल!ी, उसको।

!ुमने ही खोल दिदखाया॥61॥

अवलोक !ुमा�ा आनन।

है शान्ति ! चि�त्त में हो!ी॥

हृदयों में बीज सुरुचि� का।

है सूचि- !ुमा�ी बो!ी॥62॥

2वाभातिवक 2नेह !ुमा�ा।

भव-जीव-मात्र है पा!ा॥

क� भला !ुमा�ा मानस।

है तिवक�-कुसुम बन जा!ा॥63॥

प्रति! दिदवस !ुमा�ा दशOन।

देव!ा-सदृश थीं क�!ी॥

अवलोक-दिदव्य-मुख-आभा।

तिनज हृदय-ति!ष्टिम� थीं ह�!ी॥64॥

अब �हेगा न यह अवस�।

सुतिवधा दू�ीकृ! होगी॥

तिवन!ा बहनों की तिवन!ी।

आशा है 2वीकृ! होगी॥65॥

माhiवी का कथन सुन क�।

Page 89: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

मुख प� तिवलोक दुख-छाया॥

बोलीं तिवदेहजा धी�े।

नयनों में जल था आया॥66॥

जजOरि�!-गा! अति!-वृध्दा।

हैं !ीन-!ीन मा!ाए॥ँ

हैं जिज हें र्घे�!ी �ह!ी।

आ-आ क� दुभिश्च !ाए॥ँ67॥

है सुख-मय �ा! न हो!ी।

दिदन में है �ैन न आ!ा॥

दुबOल!ा-जतिन!- उपद्रव।

प्राय: है जिज हें स!ा!ा॥68॥

मे�ी यात्रा से अति!शय।

आकुल वे हैं दिदखला!ी॥

हैं कभी क�ाहा क�!ी।

हैं ऑंसू कभी बहा!ी॥69॥

बहनों उनकी सेवा !ज।

क्या उचि�! है कहीं जाना॥

!ुम लोग 2वयं यह समbो।

है धमO उ हें कलपाना?॥70॥

है मुख्य-धमO पत्नी का।

पति!-पद-पंकज की अ�ाO॥

जो 2वयं पति!-�!ा होवे।

क्या उससे इसकी ��ाO॥71॥

Page 90: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

प� एक बा! कह!ी हूँ।

उसके मम� को छू लो॥

तिनज-प्रीति!-प्रपं�ों में पड़।

पति!-पद सेवा म! भूलो॥72॥

अ य 2त्री 'जा', न सकी यह।

है पू!-प्रथा ब!ला!ी॥

नृप-गभOव!ी-पत्नी ही।

ऋतिष-आश्रम में है जा!ी॥73॥

अ!एव सुनो तिप्रय बहनो।

क्यों मे�े साथ �लोगी॥

क� अपने क!Oव्यों को।

कल-कीर्वि!ं लोक में लोगी॥74॥

है मृदु !ुम लोगों का उ�।

है उसमें प्या� छलक!ा॥

मुbसे लाचिल! पाचिल! हो।

है मे�ी ओ� ललक!ा॥75॥

जैसा ही मे�ा तिह! है।

!ुम लोगों को अति!-प्या�ा॥

वैसी ही मे�े उ� में।

बह!ी है तिह! की ध�ा॥76॥

!ुम लोगों का पावन-!म।

अनु�ाग-�ाग अवलोके॥

है हृदय हमा�ा गल!ा।

Page 91: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

ऑंसू रुक पाया �ोके॥77॥

क्यों !ुम लोगों को बहनो।

मैं �ो-�ो अष्टिधक रुलाऊँ॥

क्यों आहें भ�-भ� क�के।

पत्थ� को भी तिपर्घलाऊँ॥78॥

इस जल-प्रवाह को हमको

!ुम लोगों को संय! �ह॥

सद्बतु्किध्द बाँध के द्वा�ा।

�ोकना पडे़गा सब सह॥79॥

दस पाँ� ब�स आश्रम में।

मैं �हूँ या �हूँ कुछ दिदन॥

!ुम लोग क्या क�ोगी इन।

आश्रम के दिदवसों को तिगन॥80॥

जैसी तिक परि�ज्जिस्थति! होगी।

वह टलेगी नहीं टाले॥

भोगना पडे़गा उसको।

क्या होगा कंधा iाले॥81॥

मांiवी कहो क्या !ुमने।

यौवन-सुख को क� 2वाहा॥

पति!-ब्रह्म�यO को �ौदह।

सालों !क नहीं तिनबाहा॥82॥

इस त्किखन्न उर्मिमलंा ने है।

जो सहन-शचि- दिदखलाई॥

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जिजसकी सुधा आ!े, मे�ा।

दिदल तिहला ऑंख भ� आई॥83॥

क्या वह हम लोगों को है।

धृति!-मतिहमा नहीं ब!ा!ी॥

क्या सत्प्रवृभित्त की चिशक्षा।

है सभी को न दे जा!ी॥84॥

ऑंसू आयेंगे आवें।

प� सीं� सुकृ!-!रु-जावें॥

!ो उनमें प�-तिह! दु्यति! हो।

जो बँूद बने दिदखलावें॥85॥

श्रुति!कीर्वि!ं मांiवी जैसी।

महनीय-कीर्वि!ं !ू भी हो॥

म! तिब�ल समb मधु-मारु!।

�ल �ही अग� लू भी हो॥86॥

उर्मिमलंा सदृश !ुb में भी।

वसुधवलन्धिम्बनी-धृति! हो॥

जिजससे भव-तिह! हो ऐसी।

!ीनों बहनों की कृति! हो॥87॥

म! �ोना भूल न जाना।

कुल-मंगल सदा मनाना॥

क� पू!-साधना अनुदिदन।

वसुधा प� सुधा बहाना॥88॥

दोहा

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इसी समय आये वहाँ, धी�-वी�-�र्घुबी�।

बहनें तिवदा हुईं ब�सा नयनों से बहु-नी�॥89॥

रं्मगल यात्रा र्मत्तसर्मक पीछे     आगे

 

अवध पु�ी आज सज्जिC!ा है।

बनी हुई दिदव्य-सु द�ी है॥

तिवहँस �ही है तिवकास पाक�।

अटा अटा में छटा भ�ी है॥1॥

दमक �हा है नग�, नागरि�क।

प्रवाह में मोद के बहे हैं॥

गली-गली है गयी सँवा�ी।

�मक �हे �ारु �ौ�हे हैं॥2॥

बना �ाज-पथ प�म-रुचि�� है।

तिवमुग्ध है 2वच्छ!ा बना!ी॥

तिवभूति! उसकी तिवचि�त्र!ा से।

तिवचि�त्र है �ंग!ें दिदखा!ी॥3॥

सजल-कलस का !-पल्लवों से।

बने हुए द्वा� थ ेफबीले॥

सु-छतिब ष्टिमले छतिब तिनके!नों की।

हुए सभी-सद्य छबीले॥4॥

त्किखले हुए फूल से लसे थल।

ललाम!ा को लुभा �हे थे॥

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सु!ो�णों के ह�े-भ�े-दल।

ह�ा भ�ा चि�! बना �हे थे॥5॥

गडे़ हुए 2!ंभ कदचिलयों के।

दलावली छतिब दिदखा �हे थे॥

सुदृश्य-सौ दयO-पदिट्टका प�।

सुकीर्वि!ं अपनी चिलखा �हे थे॥6॥

प्रदीप जो थ ेलसे कलस प�।

ष्टिमली उ हें भूरि� दिदव्य!ा थी॥

पसा� क� �तिव उ हें प�स!ा।

उ हें �ूम!ी दिदवा-तिवभा थी॥7॥

नग� गृहों मजि द�ों मठों प�।

लगी हुई सज्जिC!ा ध्वजाए॥ँ

समी� से केचिल क� �ही थीं।

उठा-उठा भूयसी भुजायें॥8॥

सज ेहुए �ाज-मजि द�ों प�।

लगी प!ाका तिवलस �ही थी॥

जदिट! �त्न�य तिवकास के ष्टिमस।

�ु�ा-�ु�ा चि�त्त हँस �ही थी॥9॥

न !ो�णों प� न मं� प� ही।

अनेक-वादिदत्र बज �हे थे॥

जहाँ !हाँ उच्च-भूष्टिम प� भी।

नवल-नगा�े ग�ज �हे थे॥10॥

न गेह में ही कुलांगनायें।

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अपूवO कल-कंठ!ा दिदखा!ीं॥

कहीं-कहीं अ य-गाष्टियका भी।

बड़ा-मधु� गान थी सुना!ी॥11॥

अनेक-मैदान मंजु बन क�।

अपूवO थ ेमंजु!ा दिदखा!े॥

सजावटों से अ!ीव सज क�।

तिकसे नहीं मुग्ध थ ेबना!े॥12॥

!ने �हे जो तिव!ान उनमें।

तिवचि�त्र उनकी तिवभूति!याँ थीं॥

सदैव उनमें सुगायकों की।

तिव�ाज!ी मंजु-मूर्वि!ंयाँ थीं॥13॥

बनी ठनी थीं सम2!-नावें।

तिवनोद-मग्ना स�यू-स�ी थी॥

प्रवाह में वीचि� मध्य मोहक।

उमंग की मत्त!ा भ�ी थी॥14॥

ह�े-भ�े !रु-समूह से हो।

सम2! उद्यान थ ेतिवलस!े॥

लसी ल!ा से ललाम!ा ले।

तिवक�-कुसुम-व्याज थ ेतिवहँस!े॥15॥

मनोज्ञ मोहक पतिवत्र!ामय।

बने तिवबुध के तिवधान से थे॥

सम2!-देवाय!न अष्टिधक!�।

2वरि�! बने सामगान से थे॥16॥

Page 96: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

प्रमोद से मत्त आज सब थे।

न पा सका कौन-कंठ तिपक!ा॥

सकल नग� मध्य व्यातिप!ा थी।

मनोमयी मंजु मांगचिलक!ा॥17॥

दिदनेश अनु�ाग-�ाग में �ँग।

नभांक में जगमगा �हे थे॥

उमंग में भ� तिबहंग !रु प�।

बडे़-मधु� गी! गा �हे थे॥18॥

इसी समय दिदव्य-�ाज-मजि द�।

ध्वतिन! हुआ वेद-म त्र द्वा�ा॥

हुईं सकल-मांगचिलक तिक्रयायें।

बही �गों में पुनी!-ध�ा॥19॥

तिक्रया ! में �ल गयंद-गति! से।

तिवदेहजा द्वा� प� पधा�ीं॥

बजी बधाई मधु� 2व�ों से।

सुकीर्वि!ं ने आ�!ी उ!ा�ी॥20॥

खड़ा हुआ सामने सु�थ था।

सजा हुआ देवयान जैसा॥

उसे स!ी ने तिवलोक सो�ा।

प्रयाण में अब तिवलम्ब कैसा॥21॥

वचिसष्ठ देवादिद को तिवनय से।

प्रणाम क� का ! पास आई॥

इसी समय नजि दनी जनक की।

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अ!ीव-तिवह्वल हुई दिदखाई॥22॥

प� !ु !त्काल ही सँभल क�।

तिनदेश माँगा तिवनम्र बन के॥

प� !ु क�!े पदाब्ज-व दन।

तिवतिवध बने भाव व�-वदन के॥23॥

कमल-नयन �ाम ने कमल से-

मृदुल क�ों से पकड़ तिप्रया-क�॥

दिदखा हृदय-पे्रम की प्रवण!ा।

उ हें तिबठाला मनोज्ञ �थ प�॥24॥

उचि�! जगह प� तिवदेहजा को।

तिव�ाज!ी जब तिबलोक पाया॥

सवा� सौष्टिमत्र भी हुए !ब।

सुष्टिमत्र ने यान को �लाया॥25॥

बजे मधु�-वाद्य !ो�णों प�।

सुगान हो!ा हुआ सुनाया॥

हुए तिवतिवध मंगला��ण भी।

सजल-कलस सामने दिदखाया॥26॥

तिनकल सकल �ाज-!ो�णों से।

पहुँ� गया यान जब वहाँ प�॥

जहाँ खड़ी थी अपा�-जन!ा।

सजी सड़क प� प्रफुल्ल होक�॥27॥

बड़ी हुई !ब प्रसून-वषाO।

पति!व्र!ा जय गयी बुलाई॥

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सतिवष्टिध गयी आ�!ी उ!ा�ी।

बड़ी धूम से बजी बधाई॥28॥

खड़ी द्वा� प� कुलांगनाए।ँ

�हीं मांगचिलक-गान सुना!ी॥

तिवनम्र हो हो पसा� अं�ल।

�हीं �ाजकुल कुशल मना!ी॥29॥

शनै: शनै: मंजु�ाज-पथ प�।

�ला जा �हा था मनोज्ञ �थ॥

अजस्र जयनाद हो �हा था।

ब�स �हा फूल था यथा!थ॥30॥

तिनमग्न आन द में नग� था।

बनीं सुमनमय अनेक-सड़कें ॥

थके न क� आ�!ी उ!ा�े।

दिदखे दिदव्य!ा थकीं न ललकें ॥31॥

नग� हुआ जब समाप्! चिसय ने।

!ु� ! सौष्टिमत्र को तिवलोका॥

सुष्टिमत्र ने भाव को समbक�।

सम्भाल ली �ास यान �ोका॥32॥

उ!� सुष्टिमत्र-कुमा� �थ से।

अपा�-जन!ा समीप आये॥

कहा कृपा है महान जो यों।

कृपाष्टिधका�ी गये बनाए॥33॥

अनुष्टिष्ठ!ा मांगचिलक सुयात्रा।

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भला न क्यों चिसत्किध्द को ब�ेगी॥

सम2!-जन!ा प्रफुल्ल हो जो।

अपूवO-शुभ-कामना क�ेगी॥34॥

कृपा दिदखा आप लोग आये।

कुशल मनाया, तिह!ैतिष!ा की॥

तिवतिवध मांगचिलक-तिवधान द्वा�ा।

सम�Oना की दिदवांगना की॥35॥

हुईं कृ!ज्ञा-अ!ीव आर्य्यायाO।

तिवशेष हैं ध यवाद दे!ी॥

तिवनय यही है बढ़ें न आगे।

तिव�ाम क्यों है ललक न ले!ी॥36॥

बहु! दू� आ गये ठहरि�ये।

न कीजिजए आप लोग अब श्रम॥

सुत्किख! न होंगी कदातिप आर्य्यायाO।

न जाएगँे आप लोग जो थम॥37॥

कृपा क�ें आप लोग जायें।

तिवनम्र हो ईश से मनावें॥

प्रसव क�ें पुत्र-�त्न आर्य्यायाO।

मयंक नभ-अंक में उगावें॥38॥

सुने सुष्टिमत्र-कुमा� बा!ें।

दिदशा हुई जय-तिननाद भरि�!ा॥

बही उ�ों में सकल-जनों के।

!�ंतिग!ा बन तिवनोद-सरि�!ा॥39॥

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पुन: सुनाई पड़ा �ाजकुल।

सदा कमल सा त्किखला दिदखावे॥

यथा-शीघ्र तिफ� अवध धाम में।

व दनीय!म-पद पड़ पावे॥40॥

�ला वेग से अपूवO 2यंदन।

�ली गयी यत्र !त्र जन!ा॥

तिव�ा�-मग्न हुईं जनकजा।

बड़ी तिवषम थी तिवषय-गहन!ा॥41॥

कभी सुष्टिमत्र-सुअन ऊबक�।

वदन जनकजा का तिवलोक!े॥

कभी दिदखा!े तिन!ा !-चि�न्ति !!।

कभी तिवलो�न-वारि� �ोक!े॥42॥

�ला जा �हा दिदव्य यान था।

अजस्र था टाप-�व सुना!ा॥

सकल-र्घन्धिhटयाँ तिननाद �! थीं।

कभी �क्र र्घर्घOरि�! जना!ा॥43॥

ह�े भ�े खे! सामने आ।

भभ�, �हे भाग!े जना!े॥

तिवतिवध �म्य आ�ाम-भूरि�-!रु।

पंचि--बध्द थ ेखडे़ दिदखा!े॥44॥

कहीं पास के जलाशयों से।

तिवहंग उड़ प्राण थ ेब�ा!े॥

लगा-लगा व्योम-मध्य �क्क�।

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अ!ीव-कोलाहल थ ेम�ा!े॥45॥

कहीं �� �हे पशु तिवलोक �थ।

�ौंक-�ौंक क� थ ेर्घब�ा!े॥

उठा-उठा क� 2वकीय पँूछें।

इध�-उध� दौड़!े दिदखा!े॥46॥

कभी पथ-ग!ा ग्राम-नारि�याँ

गयंद-गति!!ा �हीं दिदखा!ी॥

�थाष्टिधरूढ़ा कुलांगना की।

तिवमुग्ध व�-मूर्वि!ं थी बना!ी॥47॥

कनक-कान्ति !, कोशल-कुमा� का।

दिदव्य-रूप सौ दर्य्यायO-तिनके!न॥

तिवलोक तिकस पांथ का न बन!ा।

प्रफुल्ल अंभोज सा तिवक� मन॥48॥

अधी�-सौष्टिमत्र को तिवलोके।

कहा धी�-ध� ध�ांगजा ने॥

बड़ी व्यथा हो �ही मुbे है।

अवश्य है जी नहीं दिठकाने॥49॥

प� !ु क!Oव्य है न भूला।

कभी उसे भूल मैं न दँूगी॥

नहीं सकी मैं तिनबाह तिनज व्र!।

कभी नहीं यह कलंक लँूगी॥50॥

तिवषम सम2या सदन तिवश्व है।

तिवचि�त्र है सृष्टिH कृत्य सा�ा॥

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!थातिप तिवष-कhठ-शीश प� है।

प्रवातिह!ा 2वगO-वारि�-ध�ा॥51॥

�ाहु के!ु हैं जहाँ व्योम में।

जिज हें पाप ही पस द आया॥

वहीं दिदखा!ी सुधांशु!ा है।

वहीं सहस्रांशु जगमगाया॥52॥

द्रवण शील है 2नेह सिसंधु है।

हृदय स�स से स�स दिदखाया॥

प� !ु है त्याग-शील भी वह।

उसे न कब पू!-भाव भाया॥53॥

2वलाभ !ज लोक-लाभ-साधन।

तिवपभित्त में भी प्रफुल्ल �हना॥

प�ाथO क�ना न 2वाथO-चि� !ा।

2वधमO-�क्षाथO क्लेश सहना॥54॥

मनुष्य!ा है क�णीय कृत्य है।

अपूवO-नैति!क!ा का तिवलास है॥

प्रयास है भौति!क!ा तिवनाश का।

न�त्व-उ मेष-तिक्रया-तिवकास है॥55॥

तिव�ा� पति!देव का यही है।

उ हें यही नीति! है रि�bा!ी॥

अशा ! भव में यही �ही है।

सदा शान्ति ! का स्रो! बहा!ी॥56॥

उसे भला भूल क्यों सकँूगी।

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यही ध्येय आज म �हा है॥

प�म-ध य है वह पुनी! थल।

जहाँ सु�स�ी सचिलल बहा है॥57॥

तिवलोक ऑंखें मयंक-मुख को।

�ही सुधा-पान तिनत्य क�!ी॥

बनी �को�ी अ!ृप्! �हक�।

�हीं प्र�ु�-�ाव साथ भ�!ी॥58॥

तिकसी दिदवस यदिद न देख पा!ीं।

अपा� आकुल बनी दिदखा!ीं॥

तिवलोक!ीं पंथ उत्सुका हो।

ललक-ललक काल थीं तिब!ा!ी॥59॥

बहा-बहा वारि� जो तिव�ह में।

बनें ए नयन वारि�वाह से॥

बा�-बा� बहु व्यचिथ! हुए, जो।

हृदय तिवकन्धिम्प! �हे आह से॥60॥

तिवचि�त्र!ा !ो भला कौन है।

2वभाव का यह 2वभाव ही है॥

कब न वारि� ब�से पयोद बन।

समुद्र की ओ� सरि� बही है॥61॥

तिवयोग का काल है अतिनभिश्च!।

व्यथा-कथा वेदनामयी है॥

बहु-गुणावली रूप-माधु�ी।

�ोम-�ोम में �मी हुई है॥62॥

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अ!: �हूँगी तिवयोतिगनी मैं।

नेत्र वारि� के मीन बनेंगे॥

तिक !ु दृष्टिH �ख लोक-लाभ प�।

सुकीर्वि!ं-मु-ावली जनेंगे॥63॥

स�स सुधा सी भ�ी उचि- के।

तिन!ा !-लोलुप श्रवण �हेंगे॥

तिक !ु �ाव से उसे सुनेंगे।

भले-भाव जो भली कहेंगे॥64॥

हृदय हमा�ा व्यचिथ! बनेगा।

2वभाव!: वेदना सहेगा॥

अ!ीव-आ!ु� दिदखा पडे़गा।

तिन!ा !-उत्सुक कभी �हेगा॥65॥

कभी आह ऑंष्टिधयाँ उठेंगी।

कभी तिवकल!ा-र्घटा ष्टिर्घ�ेगी॥

दिदखा �मक �ौंक-व्याज उसमें।

कभी कुचि� !ा-�पला तिफ�ेगी॥66॥

प� !ु होगा न वह प्रवंचि�!।

कदातिप ग !व्य पुhय-पथ से॥

कभी नहीं भ्रा ! हो तिग�ेगा।

2वधमO-आधा� दिदव्य �थ से॥67॥

सदा क�ेगा तिह! सवO-भू! का।

न लोक आ�ाधन को !जेगा॥

प्रणय-मूर्वि!ं के चिलए मुग्ध हो।

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आ!O-चि�त्त आ�!ी सजेगा॥68॥

अवश्य सुख वासना मनुज को।

सदा अष्टिधक श्रा ! है बना!ी॥

पडे़ 2वाथO-अंध!ा ति!ष्टिम� में।

न लोक तिह!-मूर्वि!ं है दिदखा!ी॥69॥

कहाँ हुआ है उबा� तिकसका।

सदा सभी की हुई हा� है॥

अपा�-संसा� वारि�तिनष्टिध में।

आत्मसुख भँव� दुर्विनंवा� है॥70॥

बडे़-बडे़ पूज्य-जन जिज होंने।

तिगना 2वाथO को सदैव चिसक!ा॥

न �ोक पाए प्रकृति! प्रकृति! को।

न त्याग पाये 2वाभातिवक!ा॥71॥

$ौपदे

मैं अबला हूँ आत्मसुखों की।

प्रबल लालसाए ँप्रति!दिदन आ॥

मुbे स!ा!ी �ह!ी हैं जो।

!ो इसमें है तिवचि�त्र!ा क्या॥72॥

तिक !ु सुनो सु! जिजस पति!-पद की।

पूजा क� मैंने यह जाना॥

आत्मसुखों से आत्मत्याग ही।

सुफलद अष्टिधक गया है माना॥73॥

उसी पू!-पद-पो! सहा�े।

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तिव�ह-उदष्टिध को पा� करँूगी॥

तिवधु-सु द� व�-वदन ध्यान क�।

सा�ा अ !�-ति!ष्टिम� हरँूगी॥74॥

सवत्तम साधन है उ� में।

भव-तिह! पू!-भाव का भ�ना॥

2वाभातिवक-सुख-चिलप्साओं को।

तिवश्व-पे्रम में परि�ण! क�ना॥75॥

दोहा

इ!ना सुन सौष्टिमत्रा की दू� हुई दुख-दाह।

देखा चिसय ने सामने सरि�-गोम!ी-प्रवाह॥76॥

 

आश्रर्म-प्र�ेश वितलोकी पीछे     आगे

 

था प्रभा! का काल गगन-!ल लाल था।

अवनी थी अति!-लचिल!-लाचिलमा से लसी॥

कानन के हरि�!ाभ-दलों की काचिलमा।

जा!ी थी अरुणाभ-कसौटी प� कसी॥1॥

ऊँ�े-ऊँ�े तिवपुल-शाल-!रु चिश� उठा।

गगन-पचिथक का पंथ देख!े थ ेअडे़॥

तिहला-तिहला तिनज चिशखा-प!ाका-मंजुला।

भचि--भाव से कुसुमांजचिल ले थ ेखडे़॥2॥

की�क की अति!-मधु�-मु�चिलका थी बजी।

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अतिह-समूह बन मत्त उसे था सुन �हा॥

न!Oन-�! थ ेमो� अ!ीव-तिवमुग्ध हो।

�स-तिनष्टिमत्त अचिल कुसुमावचिल था �ुन �हा॥3॥

जहाँ !हाँ मृग खडे़ 2वभोले नयन से।

समय मनोह�-दृश्य �हे अवलोक!े॥

अलस-भाव से तिवलस !ोड़!े अंग थे।

भ�!े �हे छलाँग जब कभी �ौंक!े॥4॥

प�म-गहन-वन या तिगरि�-गह्व�-गभO में।

भाग-भाग क� ति!ष्टिम�-पंुज था चिछप �हा॥

प्रभा प्रभातिव! थी प्रभा! को क� �ही।

�तिव-प्रदीप्! क� से दिदशांक था चिलप �हा॥5॥

दिदव्य बने थ ेआसिलंगन क� अंशु का।

तिहल !रु-दल जा!े थ ेमु-ावचिल ब�स॥

तिवहग-वृ द की केचिल-कला कमनीय थी।

उनका 2वग!-गान बड़ा ही था स�स॥6॥

शी!ल-मंद-समी� व�-सु�भिभ क� बहन।

शा !-!पोवन-आश्रम में था बह �हा॥

बहु-संय! बन भ�-भ� पावन-भाव से।

प्रकृति! कान में शान्ति ! बा! था कह �हा॥7॥

जो तिक�णें !रु-उच्च चिशखा प� थीं लसी।

लचिल!-ल!ाओं को अब वे थीं �ूम!ी॥

त्किखले हुए नाना-प्रसून से गले ष्टिमल।

हरि�!-!ृणावचिल में हँस-हँस थीं र्घूम!ी॥8॥

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म द-म द गति! से गयंद �ल-�ल कहीं।

तिप्रय-कलभों के साथ केचिल में लग्न थे॥

मृग-शावक थ ेसिसंह-सुअन से खेल!े।

उछल-कूद में �! कतिप मोद-तिनमग्न थे॥9॥

आश्रम-मजि द�-कलश अ य-�तिव-तिबम्ब-बन।

अद्भ!ु-तिवभा-तिवभूति! से तिवलस था �हा॥

दिदव्य-आय!न में उसके कढ़ कhठ से।

वेद-पाठ 2व� सुधा स्रो! सा था बहा॥10॥

प्रा!:-काचिलक-तिक्रया की म�ी धूम थी।

जद्दर्घ-नजि दनी के पावन!म-कूल प�॥

2नान, ध्यान, व दन, आ�ाधन के चिलए।

थ ेएकतित्र! हुए सहस्रों नारि�-न�॥11॥

2!ोत्रा-पाठ 2!वनादिद से ध्वतिन! थी दिदशा।

सामगान से मुखरि�! सा�ा-ओक था॥

पुhय-की!Oनों के अपूवO-आलाप से।

पावन-आश्रम बना हुआ सु�लोक था॥12॥

हवन तिक्रया सवOत्र सतिवष्टिध थी हो �ही।

बड़ा-शा ! बहु-मोहक-वा!ाव�ण था॥

हु!-द्रव्यों से !पोभूष्टिम सौ�भिभ! थी।

मूर्वि!ंमान बन गया साभित्तवका��ण था॥13॥

तिवद्यालय का व�-कुटी� या �म्य-थल।

आश्रम के अ या य-भवन उत्तम बडे़॥

प�म-सादगी के अपूवO-आधा� थे।

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कीर्वि!ं-प!ाका क� में लेक� थ ेखडे़॥14॥

प्रा!:-काचिलक-दृश्य सबों का दिदव्य था।

�तिव-तिक�णें थी उ हें दिदव्य!ा दे �ही॥

उनके अवलम्बन से सकल-वनस्थली।

प्रकृति! क�ों से प�म-कान्ति ! थी ले �ही॥15॥

इसी समय अति!-उत्तम एक कुटी� में।

जो तिन!ा !-एका !-स्थल में थी बनी॥

थीं क� �ही प्रवेश साथ सौष्टिमत्रा के।

प�म-धी�-गति! से तिवदेह की नजि दनी॥16॥

कुछ �ल क� ही शा !-मूर्वि!ं-मुतिनवर्य्यायO की।

उ हें दिदखाई पड़ी कुशासन प� लसी॥

जटा-जूट चिश� प� था उन्न!-भाल था।

दिदव्य-ज्योति! उज्ज्वल-ऑंखों में थी बसी॥17॥

दीर्घO-तिवलन्धिम्ब!-शे्व!-श्मश्रु, मुख-सौम्य!ा।

थी मानचिसक-महत्ता की उद्बोष्टिधनी॥

शा !-वृभित्त थी सहृदय!ा की सूचि�का।

थी तिवपभित्त-तिनपति!! की स!! प्रबोष्टिधनी॥18॥

देख जनक-नजि दनी सुष्टिमत्रा-सुअन को।

वंदन क�!े मुतिन ने अभिभन दन तिकया॥

साद� 2वाग! के बहु-सु द�-व�न कह।

पे्रम के सतिह! उनको उचि�!ासन दिदया॥19॥

बहु!-तिवनय से कहा सुष्टिमत्रा-!नय ने।

आर्य्यायाO का जिजस हे!ु से हुआ आगमन॥

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ऋतिषव� को वे सा�ी बा!ें ज्ञा! हैं।

2वाभातिवक हो!े कृपालु हैं पुhय-जन॥20॥

पुhयाश्रम का वास धमO-पथ का ग्रहण।

प�म-पुनी!-प्रथा का पालन शुध्द-मन॥

क्यों न बनेगा सकल चिसत्किध्द प्रद बहु फलद।

महा-मतिहम का तिनयमन-�क्षण संयमन॥21॥

है मे�ा तिवश्वास अनुष्टिष्ठ!-कृत्य यह।

होगा �र्घुकुल-कलस के चिलए कीर्वि!ंक�॥

क�ेगा उसे अष्टिधक गौ�तिव! तिवश्व में।

तिवशद-वंश को उज्ज्वल-�त्न प्रदान क�॥22॥

मुतिन ने कहा वचिसष्ठ देव के पत्र से।

सब बा!ें हैं मुbे ज्ञा!, यह सत्य है-

लोक !था प�लोक-नयन आलोक है।

भव-साग� में पो! समान अपत्य है॥23॥

वंश-वृत्किध्द, प्रति!पालन-तिप्रय-परि�वा� का।

वधOन कुल की कीर्वि!ं क� तिवशद-साधना॥

मानव बन क�ना मानव!ा अ�Oना।

है सत्सं!ति! कमO, लोक-अ�ाधना॥24॥

ऐसा ही सु! सकल-जग! है �ाह!ा।

तिक !ु अष्टिधक वांचिछ! है नृपकुल के चिलए॥

क्योंतिक नृपति! वा2!व में हो!ा है नृपति!।

वही ध�ा को �ह!ा है धा�ण तिकए॥25॥

इसीचिलए कुछ धमO, प्राण, नृपकुल-ति!लक।

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गभOव!ी तिनज तिप्रय-पत्नी को समय प�॥

कुलपति! आश्रम में प्राय: हैं भेज!े।

सब-लोक-तिह!-�! हो जिजससे वंशधा�॥26॥

�र्घुकुल-�ंजन के अति!-उत्तम कायO का।

अनुमोदन क�!ा हूँ सच्चे-हृदय से॥

कतिहयेगा नृप-पंुगव से यह कृपा क�।

सब कुछ हो!ा सांग �हेगा समय से॥27॥

पुतित्र जनकजे! मैं कृ!ाथO हो गया हूँ।

आप कृपा क�के यदिद आईं हैं यहाँ॥

वे थल भी हैं अब पावन-थल हो गए।

आपका प�म-शुचि�-पग पड़ पाया जहाँ॥28॥

आप मानवी हैं !ो देवी कौन है।

महा-दिदव्य!ा तिकसे कहाँ ऐसी ष्टिमली॥

पाति!व्र! अति! पू! स�ोव� अंक में।

कौन पति!-�!ा-पंकजिजनी ऐसी त्किखली॥29॥

पति!-देव!ा कहाँ तिकसको ऐसी ष्टिमली।

पे्रम से भ�ा ऐसा हृदय न औ� है॥

पति!-ग! प्राणा ऐसी हुई न दूस�ी।

कौन ध�ा की सति!यों की चिस�मौ� है॥30॥

तिकसी �क्रव!� की पत्नी आप हैं।

या लाचिल! हैं महामना ष्टिमचिथलेश की॥

इस तिव�ा� से हैं न पूजिज!ा वंदिद!ा।

आप अर्शि�ं!ा हैं अलौतिककादशO से॥31॥

Page 112: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

�त्न-जदिटल-तिह दोल में पली आप थीं।

प्या�ी-पुत्ताचिलका थीं मैना दृगों की॥

ष्टिमचिथलाष्टिधप-क�-कमलों से थीं लाचिल!ा।

कुसुम से अष्टिधक कोमल!ा थी पगों की॥32॥

कनक-�चि�! महलों में �ह!ी थीं सदा।

�म� ढुला क�!ा था प्राय: शीश प�॥

कुसुम-सेज थी दुग्ध-फेन-तिनभ-आ2!�ण।

थीं तिवभूति!याँ अलकाष्टिधपति!-तिवमुग्धक�॥33॥

मुख अवलोकन क�!ी �ह!ी थीं सदा।

कौशल्या देवी !न मन, धन, वा� क�॥

सब प्रका� के भव के सुख, क�-बध्द हो।

खडे़ सामने �ह!े थ ेआठों पह�॥34॥

तिक !ु देखक� जीवन-धन का वन-गमन।

आप भी बनी सब !ज क� वन-वाचिसनी॥

एक-दो नहीं �ौदह सालों !क �हीं।

पे्रम-तिनके!न पति! के साथ प्रवाचिसनी॥35॥

बन जा!ी थीं सकल भीति!याँ भूति!याँ।

कानन में आपदा सम्पदा सी सदा॥

आपके चिलए तिप्रय!म पे्रम-प्रभाव से।

बन!ी थीं सुखदा कुव2!ुए ँदु:खदा॥36॥

पट्ट-व2त्रा बन जा!ा था वल्कल-वसन।

साग पा! में ष्टिमल!ा वं्यजन 2वाद था॥

का ! साथ !ृण-तिनर्मिमं! साधा�ण उटज।

Page 113: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बहु-प्रसाद पूरि�! बन!ा प्रासाद था॥37॥

शी!ल हो!ा !प-ऋ!ु का उत्ताप था।

लू लपटें बन जा!ी थीं प्रा!:-पवन॥

बन!ी थी पति! साथ सेज सी साथ�ी।

सा�े काँटे हो!े थ ेसु द� सुमन॥38॥

जीवन भ� में छह महीने ही हुआ।

पति!-तिवयोग उस समय जिजस समय आपको॥

ह�ण तिकया था पाम�-लंकाष्टिधपति! ने।

क� सहस्र-गुण पृथ्वी !ल के पाप को॥39॥

तिक !ु यह समय ही वह अद्भ!ु समय था।

हुई जिजस समय ज्ञा! महत्ता आपकी॥

प्रकृति! ने महा-तिनमOम बनक� जिजस समय।

आपके मह!-पाति!व्र! की माप की॥40॥

वह �ावण जिजससे भू!ल था काँप!ा।

एक वदन हो!े भी जो दश-वदन था॥

हो तिद्वबाहु जो निवंशति! बाहु कहा गया।

धृति! चिश� प� जो प्रबल वज्र का प!न था॥41॥

महा-र्घो� गजOन !जOन प्रति!वा� क�।

दिदखा-दिदखा क�वालें तिवदु्यद्दाम सी॥

क� क� कुज्जित्स! �ीति! कदर्य्यायO प्रवृभित्त से।

लोक प्रकन्धिम्प! क�ी तिक्रयायें !ामसी॥42॥

�ख तित्रलोक की भूष्टिम प्रायश: सामने।

�ाज्य-तिवभव को �ढ़ा-�ढ़ा पद पद्म॥

Page 114: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

न !ो तिवकन्धिम्प! कभी क� सका आपको।

न !ो क� सका वशीभू! बहु मुग्ध क�॥43॥

जिजसकी परि�खा �हा अगाध उदष्टिध बना।

जिजसका �क्षक 2वगO-तिवज!ेा-वी� था॥

जिजसमें �ह!े थ ेदानव-कुल-अग्रणी।

जिजसका कुचिलशोपम अभेद्य-प्रा�ी� था॥44॥

जिजसे देख कन्धिम्प! हो!े दिदग्पाल थे।

पं�भू! जिजसमें �ह!े भयभी! थे॥

कँप!े थ ेजिजसमें प्रवेश क�!े तित्रदश।

जहाँ प्रकृ!-तिह! पशु!ा में उपनी! थे॥45॥

उस लंका में एक !रु !ले आपने।

तिक!नी अंष्टिधयाली �ा!ें दी हैं तिब!ा॥

अकली नाना दानतिवयों के बी� में।

बहुश:-उत्पा!ों से हो हो शंतिक!ा॥46॥

तिक!नी फैला बदन तिनगलना �ाह!ीं।

तिक!नी बन तिवक�ाल बना!ीं चि�न्ति !!ा॥

ज्वालाए ँमुख से तिनकाल ऑंखें �ढ़ा।

तिक!नी क�!ी �ह!ी थीं आ!ंतिक!ा॥47॥

तिक!नी दाँ!ों को तिनकाल कटकटा क�।

लेचिलहान-जिजह्ना दिदखला थीं कूद!ी।

तिक!नी क� बीभत्स-काhi थीं ना�!ी।

आप देख जिजसको ऑंखें थीं मूँद!ी॥48॥

आस पास दानव-गण क�!े शो� थे।

Page 115: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

क� दानवी-दु� !-तिक्रया की पूर्वि!ंयाँ॥

�हे फें क!े लूक सैकड़ों सामने।

दिदखा-दिदखा क� बहु-भयंक�ी-मूर्वि!ंयाँ॥49॥

इन उपद्रवों उत्पा!ों का सामना।

आपका सबल!म स!ीत्व था क� �हा॥

हुई अ ! में स!ी-महत्ता तिवजष्टियनी।

लंकाष्टिधप-वध-वृत्ता लोक-मुख ने कहा॥50॥

पुतित्र आपकी शचि- महत्ता तिवज्ञ!ा।

धृति! उदा�!ा सहृदय!ा दृढ़-चि�त्त!ा॥

मुbे ज्ञा! है तिक !ु प्राण-पति! पे्रम की।

प�म-प्रबल!ा !दीय!ा एका !!ा॥51॥

ऐसी है भवदीय तिक मैं संदिदग्ध हूँ।

क्यों तिवयोग-वास� व्य!ी! हो सकें गे॥

तिक !ु क�ा!ी है प्र!ीति! धृति! आपकी।

अंक कीर्वि!ं के समय-पत्र प� अंकें गे॥52॥

जो पति!प्राणा है पति!-इच्छा पूर्वि!ं !ो।

क्या न प्राणपण से वह क�!ी �हेगी॥

यदिद वह है सं!ान-तिवषष्टियणी क्यों न !ो।

पे्रम-ज य-पीड़ा संय! बन सहेगी॥53॥

देख �हा हूँ मैं पति! की ��ाO �ले।

वारि� दृगों में बा�-बा� आ!ा �हा॥

तिक !ु मान धृति! का तिनदेश पीछे हटा।

आगे बढ़क� नहीं धा� बनक� बहा॥54॥

Page 116: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है मुbको तिवश्वास गभO-काचिलक तिनयम।

प्रति! दिदन प्रति!पाचिल! होंगे संयष्टिम! �ह॥

होगा जो सवO2व अलौतिकक-खातिन का।

�र्घुकुल-पंुगव लाभ क�ेंगे �त्न वह॥55॥

इ!नी बा!ें कह मुतिन पंुगव ने बुला।

!पस्वि2वनी आश्रम-अधीश्व�ी से कहा॥

आश्रम में श्रीम!ी जनक-नजि दनी को।

आप चिलवा ले जायँ क� समाद�-महा॥56॥

जो कुटी� या भवन अष्टिधक उपयु- हो।

जिजसको 2वयं महा�ानी 2वीकृ! क�ें॥

उ हें उसी में क� सुतिवधा ठह�ाइए।

जिजसके दृश्य प्रफुल्ल-भाव उ� में भ�ें॥57॥

यह सुन लक्ष्मण से तिवदेहजा ने कहा।

!ुमने मुतिनव� की दयालु!ा देख ली॥

अ!: �ले जाओ अब !ुम भी, औ� मैं-

!पस्वि2वनी आश्रम में जा!ी हूँ �ली॥58॥

तिप्रय से यह कहना महान-उदे्दश्य से।

अति! पुनी!-आश्रम में है उपनी!-!न॥

तिक !ु प्राण पति! पद-स�ोज का सवOदा।

बना �हेगा मधुप सेतिवका मुग्ध-मन॥59॥

मे�ी अनुपज्जिस्थति! में प्राणाधा� को।

तिवतिवध-असुतिवधाए ँहोवेंगी इसचिलए॥

इध� !ुम्हा�ी दृष्टिH अपेभिक्ष! है अष्टिधक।

Page 117: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

सा�े सुख कानन में !ुमने हैं दिदए॥60॥

यद्यतिप !ुम तिप्रय!म के सुख-सवO2व हो।

2वयं सभी समुचि�! सेवाए ँक�ोगे॥

तिक !ु नहीं जी माना इससे की तिवनय।

2नेह-भाव से ही आशा है भ�ोगे॥61॥

सुन तिवदेहजा-कथन सुष्टिमत्रा-सुअन ने।

अश्रु-पूणO-दृग से आज्ञा 2वीका� की॥

तिफ� साद� क� मुतिन-पद चिसय-पग व दना।

अवध-प्रयाण-तिनष्टिमत्त पे्रम से तिवदा ली॥62॥

दोहा

क� मुतिनव� की व दना �ख तिवभूति!-तिवश्वास।

जाक� आश्रम में तिकया जनक- सु!ा ने वास॥63॥

अ�ध धार्म वितलोकी पीछे     आगे

 

था संध्या का समय भवन मभिणगण दमक।

दीपक-पंुज समान जगमगा �हे थे॥

!ो�ण प� अति!-मधु�-वाद्य था बज �हा।

सौधों में 2व� स�स-स्रो! से बहे थे॥1॥

काली �ाद� ओढ़ �ही थी याष्टिमनी।

जिजसमें तिवपुल सुनहले बूटे थ ेबने॥

ति!ष्टिम�-पंुज के अग्रदू! थ ेर्घूम!े।

दिदशा-वधूटी के व्याकुल-दृग सामने॥2॥

Page 118: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

सुधा धवचिलमा देख काचिलमा की तिक्रया।

रूप बदल क� �ही मचिलन-बदना बनी॥

उ!� �ही थी धी�े क� से समय के।

सब सौधों में !नी दिदवाचिस! �ाँदनी॥3॥

ति!ष्टिम� फैल!ा मतिह-मhiल में देखक�।

मंजु-मशालें लगा व्योम!ल बालने॥

ग्रीवा में श्रीम!ी प्रकृति!-सु द�ी के।

मभिण-मालायें लगा ललक क� iालने॥4॥

हो कल�तिव!ा लचिस!ा दीपक-अवचिल से।

तिनज तिवकास से बहु!ों को तिवकचिस! बना॥

तिवपुल-कुसुम-कुल की कचिलकाओं को त्किखला।

हुई तिनशा मुख द्वा�ा �जनी-वं्यजना॥5॥

इसी समय अपने तिप्रय शयनागा� में।

सकल भुवन अभिभ�ाम �ाम आसीन थे॥

देख �हे थ ेअनुज-पंथ उत्कंठ हो।

जनक-लली लोकोत्त�!ा में लीन थे॥6॥

!ो�ण प� का वाद्य ब द हो �ुका था।

तिक !ु एक वीणा थी अब भी bंकृ!ा॥

तिपला-तिपला क� सुधा तिपपाचिस!-कान को॥

मधु�-कंठ-2व� से ष्टिमल वह थी गंुजिज!ा॥7॥

उसकी 2व� लह�ी थी उ� को वेष्टिध!ा।

नयन से तिग�ा!ी जल उसकी !ान थी॥

एक गाष्टियका करुण-भाव की मूर्वि!ं बन।

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आहें भ�-भ� क� गा!ी यह गान थी॥8॥

गान

आकुल ऑंखें !�स �ही हैं।

तिबना तिबलोके मुख-मयंक-छतिव पल-पल ऑंसू ब�स �ही हैं॥

दुख दूना हो!ा जा!ा है सूना र्घ� ध�-ध� खा!ा है।

ऊब-ऊब उठ!ी हूँ मे�ा जी �ह-�ह क� र्घब�ा!ा है।

दिदन भ� आहें भ�!ी हँ मैं !ा�े तिगन-तिगन �ा! तिब!ा!ी।

आ अ !2!ल मध्य न जानें कहाँ की उदासी है छा!ी॥

शुक ने आज नहीं मुँह खोला नहीं ना�!ा दिदखला!ा है।

मैना भी है पड़ी मोह में उसके दृग से जल जा!ा है॥

देतिव! आप कब !क आएगँी ऑंखें हैं दशOन की प्यासी।

थाम कलेजा कलप �ही है पड़ी व्यथा-वारि�ष्टिध में दासी॥9॥

वितलोकी

�र्घुकुल पंुगव ने पू�ा गाना सुना।

धी� धु�ंध� करुणा-वरुणालय बने॥

इसी समय क� पूजिज!-पग की व दना।

खडे़ दिदखाई दिदये तिप्रय-अनुज सामने॥10॥

कुछ आकुल कुछ !ुH कुछ अचि�न्ति !! दशा।

देख सुष्टिमत्रा-सु! की प्रभुव� ने कहा॥

!ा!! !ुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देख!ा।

क्यों मुbको अवलोक दृगों से जल बहा॥11॥

आश्रम में !ो सकुशल पहुँ� गयी तिप्रया?

वहाँ समाद� 2वाग! !ो समुचि�! हुआ॥

Page 120: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

हैं मुतिन�ाज प्रसन्न? शा ! है !पोवन।

नहीं कहीं प� !ो है कुछ अनुचि�! हुआ?॥12॥

सतिवनय कहा सुष्टिमत्रा के तिप्रय-सुअन ने।

मुतिन हैं मंगल-मूर्वि!ं, !पोवन पू!!म॥

आर्य्यायाO हैं 2वयमेव दिदव्य देतिवयों सी।

आश्रम है साभित्तवक-तिनवास सु�लोक सम॥13॥

वह है सद्व्यवहा�-धाम सत्कृति!-सदन।

वहाँ कुशल है 'कायO-कुशल!ा' सीख!ी॥

भले-भाव सब फूले फले ष्टिमले वहाँ।

भली-भावना-भूति! भ�ी है दीख!ी॥14॥

तिक !ु एक अति!-पति!-प�ायणा की दशा।

उनकी मुख-मुद्रा उनकी मार्मिमकं-व्यथा॥

उनकी गोपन-भाव-भरि�! दुख-वं्यजना।

उनकी बहु-संयमन प्रयत्नों की कथा॥15॥

मुbे बना!ी �ह!ी है अब भी व्यचिथ!।

उसकी याद स!ा!ी है अब भी मुbे।

उन बा!ों को सो� न कब छलके नयन।

आश्वासन दे!ीं कह जिज हें कभी मुbे॥16॥

!पोभूष्टिम का पू!-वायुमhiल ष्टिमले।

मुतिन-पंुगव के साभित्तवक-पुhय-प्रभाव से॥

शान्ति ! बहु! कुछ आर्य्यायाO को है ष्टिमल �ही।

!पस्वि2वनी-गण सहृदय!ा सद्भाव से॥17॥

तिक !ु पति!-प�ायण!ा की जो मूर्वि!ं है।

Page 121: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

पति! ही जिजसके जीवन का सवO2व है॥

तिबना सचिलल की सफ�ी वह होगी न क्यों।

पति!-तिवयोग में जिजसका तिवफल तिनज2व है॥18॥

चिसय-प्रदत्ता-स देश सुना सौष्टिमत्रा ने।

कहा, भ�ी है इसमें तिक!नी वेदना॥

बा! आपकी �ले न कब दिदल तिहल गया।

कब न पति!-�!ा ऑंखों से ऑंसू छना॥19॥

उनको है क!Oव्य ज्ञान वे आपकी।

कमO-प�ायण हैं सच्ची सहधार्मिमणंी॥

लोक-लाभ-मूलक प्रभु के संकल्प प�।

उत्सग� कृ! होक� हैं कृति!-ऋण-ऋणी॥20॥

तिफ� भी प्रभु की 2मृति!, दशOन की लालसा।

उ हें बना!ी �ह!ी है व्यचिथ!ा अष्टिधक॥

यह 2वाभातिवक!ा है उस सद्भाव की।

जो आज म �हा स!ीत्व-पथ का पचिथक॥21॥

जिजसने अपनी व�-तिवभूति!-तिवभु!ा दिदखा।

�ज समान लंका के तिवभवों को तिगना॥

जिजसके उस क� से जो दिदव-बल-दीप्! था।

लंकाष्टिधप का तिवश्व-तिवदिद!-गौ�व चिछना॥22॥

क� प्रसून सा जिजसने पावक-पंुज को।

दिदखलाई अपनी अपूवO !ेजस्वि2व!ा॥

दानव!ा आ!प!ा जिजसकी शान्ति ! से।

बहु! दिदनों !क बन!ी �ही श�द चिस!ा॥23॥

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बडे़ अपावन-भाव प�म-भावन बने।

जिजसकी पावन!ा का क�के सामना॥

�ौदह वत्स� !क जिजसकी धृति!-शचि- से।

बहु दुगOम वन अति! सु द� उपवन बना॥24॥

इH-चिसत्किध्द होगी उसका ही बल ष्टिमले।

सफल बनेगी कदिठन-से-कदिठन साधना॥

भव-तिह! होगा भय-तिवहीन होगी ध�ा।

होवेगी लोकोत्त� लोका�ाधाना॥25॥

यह तिनभिश्च! है प� आर्य्यायाO की वेदना।

जिज!नी है दु2सह उसको कैसे कहूँ॥

वे हैं मतिहमामयी सहन क� लें व्यथा।

उ हें व्यथा है, इसको मैं कैसे सहूँ॥26॥

कुलपति! आश्रम-गमन तिकसे तिप्रय है नहीं।

इस मांगचिलक-तिवधान से मुदिद! हैं सभी॥

प� न आज है �ाज-भवन ही श्री-�तिह!।

सूना है हो गया अवध सा नग� भी॥27॥

मुतिन-आश्रम के वास का अतिनभिश्च! समय।

तिकसे बना!ा है तिन!ा !-चि�न्ति !! नहीं॥

मा!ायें यदिद व्यचिथ!ा हैं वधुओं-सतिह!।

पौ�-जनों का भी !ो ज्जिस्थ� है चि�! नहीं॥28॥

मुbे देख सबके मुख प� यह प्रश्न था।

कब आएगँी पुhयमयी-मतिह नजि दनी॥

अवध पु�ी तिफ� कब होगी आलोतिक!ा।

Page 123: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

तिफ� कब दशOन देंगी कलुष-तिनकजि दनी॥29॥

प्राय: आर्य्यायाO जा!ी थीं प्रा!:समय।

पावन-सचिलला-स�यू सरि�!ा !ी� प�॥

औ� वहाँ थीं दान-पुhय क�!ी बहु!।

वारि�द-सम-व�-वारि�-तिवभव की वृष्टिH क�॥30॥

समय-समय प� देव-मजि द�ों में पहुँ�।

हो!ी थीं देवी समान वे पूजिज!ा॥

सकल- यून!ाओं की क�के पूर्वि!ंयाँ।

सत्प्रवृभित्त को �हीं बना!ी ऊर्जिजं!ा॥31॥

वे तिनज तिप्रय-�थ प� �ढ़ क� संध्या-समय।

अटन के चिलए जब थीं बाह� तिनकल!ी॥

!ब खुल!े तिक!ने लोगों के भाग्य थे।

उन्नति! में थी बहु-जन अवनति! बदल!ी॥32॥

�ाज-भवन से जब �ल!ी थीं उस समय।

�ह!े उनके साथ तिवपुल-सामान थे॥

जिजनसे ष्टिमल!ा आत्तO-जनों को त्राण था।

बहु! अनिकं�न बन!े कं�नवान थे॥33॥

दक्ष दाचिसयाँ जिज!नी �ह!ी साथ थीं।

वे जन!ा-तिह!-साधन की आधा� थीं॥

ष्टिमले पंथ में तिकसी रुग्न तिवकलांग के।

क�!ी उनके चिलए उचि�!-उप�ा� थीं॥34॥

इसीचिलए उनके अभाव में आज दिदन।

नहीं नग� में ही दुख की धा�ा बही॥

Page 124: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

उदासीन!ा है कह �ही उदास हो।

�ाज-भवन भी �हा न �ाज-भवन वही॥35॥

आर्य्यायाO की तिप्रय-सेतिवका सुकृति!व!ी ने।

अभी गान जो गाया है उतिद्वग्न बन॥

अहह भ�ा है उसमें तिक!ना करुण-�स।

वह है �ाज-भवन दुख का अतिवकल-कथन॥36॥

गृहजन परि�जन पु�जन की !ो बा! क्या।

�थ के र्घोडे़ व्याकुल हैं अब !क बडे़॥

पहले !ो आश्रम को �हे न छोड़!े।

�ले �लाए !ो पथ में प्राय: अडे़॥37॥

र्घुमा-र्घुमा चिश� �हे रि�--�थ देख!े।

थ ेतिन�ाश नयनों से ऑंसू ढाल!े॥

बा�-बा� तिहनतिहना प्रकट क�!े व्यथा।

�ौंक-�ौंक क� पाँव कभी थ ेiाल!े॥38॥

आर्य्यायाO कोमल!ा मम!ा की मूर्वि!ं हैं।

हैं सद्भाव-�!ा उदा�!ा पूरि�!ा॥

हैं लोका�ाधन-तिनष्टिध-शुचि�!ा-सु�स�ी।

हैं मानव!ा-�ाका-�जनी की चिस!ा॥39॥

तिफ� कैसे हो!ीं न लोक में पूजिज!ा।

क्यों न अदशOन उनका जन!ा को खले॥

तिक !ु हुई तिनर्विवंघ्न मांगचिलक-तिक्रया है।

तिह! हो!ा है पहुँ�े सु� पादप !ले॥40॥

कहा �ाम ने आज �ाज्य जो सुत्किख! है।

Page 125: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जो वह ष्टिमल!ा है इ!ना फूला फला॥

जो कमला की उस प� है इ!नी कृपा।

जो हो!ा �ह!ा है जन-जन का भला॥41॥

अवध पु�ी है जो सु�-पु�ी सदृश लसी।

जो उसमें है इ!नी शान्ति ! तिव�ाज!ी॥

!ो इसमें है हाथ बहु! कुछ तिप्रया का।

है यह बा! अष्टिधक!� जन!ा जान!ी॥42॥

कुछ अशान्ति ! जो फैल गयी है इन दिदनों।

वे ही उसका वा�ण भी हैं क� �ही॥

तिवतिवष्टिध-व्यथाए ँसह बह तिव�ह-प्रवाह में।

वे ही दुख-तिनष्टिध में हैं अहह उ!� �ही॥43॥

भला कामना तिकसको है सुख की नहीं।

क्या मैं सुखी नहीं �हना हूँ �ाह!ा॥

क्या मैं व्यचिथ! नहीं हूँ का !ा-व्यथा से।

क्या मैं सदव््र! को हूँ नहीं तिनबाह!ा॥44॥

!न, छाया-सम जिजसका मे�ा साथ था।

आज दिदखा!ी उसकी छाया !क नहीं॥

प्रवह-मान-संयोग-स्रो! ही था जहाँ।

अब तिवयोग-ख�-धा�ा बह!ी है वहीं॥45॥

आज बन गयी है वह कानन-वाचिसनी।

जो मम-आनन अवलोके जी!ी �ही॥

आज उसे है दशOन-दुलOभ हो गया।

पू!-पे्रम-प्याला जो तिन! पी!ी �ही॥46॥

Page 126: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

आज तिन� !� तिव�ह स!ा!ा है उसे।

जो अ !� से तिप्रय!म अनु�ातिगनी थी॥

आह भा� अब उसका जीवन हो गया।

आजीवन जो मम-जीवन-संतिगनी थी॥47॥

!ा!! तिवदिद! हो कैसे अ !व�दना।

काढ़ कलेजा क्यों मैं दिदखलाऊँ !ुम्हें॥

2वयं बन गया जब मैं तिनमOम-जीव !ो।

ममOस्थल का ममO क्यों ब!ाऊँ !ुम्हें॥48॥

क्या मा!ाओं की मुbको मम!ा नहीं।

क्या हो!ा हूँ दुत्किख! न उनका देख दुख॥

क्या पु�जन परि�जन अथवा परि�वा� का।

मुbे नहीं वांचिछ! है सच्चा आत्म-सुख॥49॥

सुकृति!व!ी का तिवह्नल!ामय-गान सुन।

क्या मे�ा अ !2!ल हुआ नहीं द्रतिव!॥

कथा बाजिजयों की सुन क� करुणा भ�ी।

नहीं हो गया क्या मे�ा मानस व्यचिथ!॥50॥

तिक !ु प्रश्न यह है, है धार्मिमंक-कृत्य क्या?

प्रजा-�ंजिजनी-�ाजनीति! का ममO क्या?

जिजससे हो भव-भला लोक-अ�ाधना।

वह मानव-अवलम्बनीय है कमO क्या॥51॥

अपना तिह! तिकसको तिप्रय हो!ा है नहीं।

सम्बन्धी का कौन नहीं क�!ा भला॥

जान बूb क� वश �ल!े जंजाल में।

Page 127: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कोई नहीं फँसा!ा है अपना गला॥52॥

2वाथO-सूत्र में बँधा हुआ संसा� है।

इH-चिसत्किध्द भव-साधन का सवO2व है॥

कायO-के्षत्र में उ!� जग! में ज म ले।

सबसे प्या�ा सबको �हा तिनज2व है॥53॥

यह 2वाभातिवक-तिनयम प्रकृति! अनुकूल है।

यदिद यह हो!ा नहीं तिवश्व �ल!ा नहीं॥

पलने प� तिवष्टिध-बध्द-तिवधानों के कभी।

जग!ी!ल का प्राभिण-पंुज पल!ा नहीं॥54॥

तिक !ु 2वाथO-साधन, तिह!-चि� !ा-2वजन-की।

उचि�! वहीं !क है जो हो कश्मल-�तिह!॥

जो न लोक-तिह! प�-तिह! के प्रति!कूल हो।

जो हो तिवष्टिध-संग!, जो हो छल-बल-�तिह!॥55॥

क� प� का अपका� लोक-तिह! का कदन।

तिनज-तिह! क�ना पशु!ा है, है अधम!ा॥

भव-तिह! प�-तिह! देश-तिह!ों का ध्यान �ख।

क� लेना तिनज-2वाथO-चिसत्किध्द है मनुज!ा॥56॥

मनुजों में वे प�म-पूज्य हैं वंद्य हैं।

जो प�ाथO-उत्सग�-कृ!-जीवन �हे॥

सत्य, याय के चिलए जिज होंने अटल �ह।

प्राण-दान !क तिकये, सवO-संकट सहे॥57॥

नृपति! मनुज है अ!: मनुज!ा अयन है।

सत्य याय का वह प्रचिसध्द आधा� है॥

Page 128: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है प्रधान-कृति! उसकी लोका�ाधना।

उसे शान्ति !मय शासन का अष्टिधका� है॥58॥

अवनी!ल में ऐसे नृप-मभिण हैं हुए।

इन बा!ों के जो सच्चे-आदशO थे॥

दिदव्य-दू! जो तिवभु-तिवभूति!यों के �हे।

कम्मO-पू!!म जिजनके ममO-स्पशO थे॥59॥

हरि�श्च द्र, चिशतिव आदिद नृपों की कीर्वि!ंयाँ।

अब भी हैं वसुधा की शान्ति !-तिवधाष्टियनी॥

भव-गौ�व ऋतिषव� दधीचि� की दिदव्य-कृति!।

है अद्यातिप अलौतिकक चिशक्षा-दाष्टियनी॥60॥

है वह मनुज न, जिजसमें ष्टिमली न मनुज!ा।

अनीति! �! में कहाँ नीति!-अस्वि2!त्व है॥

वह है न�पति! नहीं जो नहीं जान!ा।

न�पति!त्व का क्या उत्त�दाष्टियत्व है॥61॥

कोई सCन, ज्ञानमान, मति!मान, न�।

यथा-शचि- प�तिह! क�ना है �ाह!ा॥

देश, जाति!, भव-तिह! अवस� अवलोक क�।

प्राय: वह तिनज-तिह! को भी है त्याग!ा॥62॥

यदिद ऐसा है !ो क्या यह होगा तिवतिह!।

कोई नृप अपने प्रधान-क!Oव्य का॥

क�े त्याग तिनज के सुख-दुख प� दृष्टिH �ख।

अथवा मान तिनदेश मोह-म !व्य का॥63॥

जिजसका जिज!ना गुरु-उत्त�दाष्टियत्व है।

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उसे मह! उ!ना ही बनना �ातिहए॥

त्याग सतिह! जिजसमें लोका�ाधन नहीं।

वह लोकाष्टिधप कहला!ा है तिकसचिलए॥64॥

बा! !ुम्हें लोकापवाद की ज्ञा! है।

मुbे लोक-उत्पीड़न वांचिछ! है नहीं॥

अ!: बनूँ मैं क्यों न लोक-तिह!-पथ-पचिथक।

जहाँ सुकृति! है शान्ति ! तिवलस!ी है वहीं॥65॥

मैं हूँ व्यचिथ! अष्टिधक!�-व्यचिथ!ा है तिप्रया।

क्योंतिक स!ा!ी है आ-आ सुख-कामना॥

है यह सुख-कामना एक उ मत्त!ा।

भ�ी हुई है इसमें तिवतिवध-वासना॥66॥

यह स�सा-सं2कृति! है यह है प्रकृति!-�ति!।

यह तिवभाव संसगO-जतिन!-अभ्यास है॥

है यह मूर्वि!ं मनुज के प�मान द की।

व�-तिवकास, उल्लास, तिवलास, तिनवास है॥67॥

त्याग-कामना भी तिन!ा ! कमनीय है।

मानव!ा-मतिहमा द्वा�ा है अंतिक!ा॥

बन क!Oव्य प�ायण!ा से दिदव्य!म।

लोक-मा य-म त्रों से है अभिभमन्ति त्र!ा॥68॥

मैंने जो है त्याग तिकया वह उचि�! है।

ऐसा ही क�ना इस समय सुकम्मO था॥

इसीचिलए सहम! तिवदेहजा भी हुई।

क्योंतिक यही सहधार्मिमणंी प�म धमO था॥69॥

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तिक!ने सह साँस!ें बहु! दुख भोग!े।

तिक!ने तिपस!े पड़ प्रकोप !लवों !ले॥

दमन-�क्र यदिद �ल!ा !ो बह!ा लहू।

वृथा न जाने तिक!ने कट जा!े गले॥70॥

!ा!! देख लो साम-नीति! के ग्रहण से।

हुआ प्राभिणयों का तिक!ना उपका� है॥

प्रजा सु�भिक्ष! �ही तिपसी जन!ा नहीं।

हुआ लोक-तिह! म�ा न हाहाका� है॥71॥

हाँ! तिवयोतिगनी तिप्रया-दशा दयनीय है।

मे�ा उ� भी इससे मचिथ! अपा� है॥

तिक !ु इसी अवस� प� आश्रम में गमन।

दोनों के दुख का उत्तम-प्रति!का� है॥72॥

जब से सम्बन्धिन्ध! हम दोनों हुए हैं।

केवल छ महीने का हुआ तिवतिनयोग है॥

�हीं जिजन दिदनों लंका में जनकांगजा।

तिक !ु आ गया अब ऐसा संयोग है॥73॥

जो यह ब!ला!ा है अहह तिवयोग यह।

होगा चि��काचिलक ब�सों !क �हेगा॥

अ!: स!ा!ी है यह चि� !ा तिन! मुbे।

पति!प्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा॥74॥

प� मुbको इसका पू�ा तिवश्वास है।

हो अधी� भी !जेंगी नहीं धी�!ा॥

तिप्रया क�ेंगी मम-इच्छा की पूर्वि!ं ही।

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पू! �हेगी नयन-नी� की नी�!ा॥75॥

सहाय!ा उनके सद्भाव-समूह की।

सदा क�ेगी !पोभूष्टिम-शुचि�-भावना॥

उ हें सँभालेगी मुतिन की महनीय!ा॥

कुल-दीपक सं!ान-प्रसव-प्र2!ावना॥76॥

इसीचिलए मुbको अशान्ति ! में शान्ति ! है।

औ� तिव�ह में भी हूँ बहु! व्यचिथ! न मैं।

चि�न्ति !! हूँ प� अति!शय-चि�न्ति !! हूँ नहीं।

इसीचिलए बन!ा हूँ तिव�चिल!-चि�! न मैं॥77॥

तिक !ु जनकजा के अभाव की पूर्वि!ंयाँ।

हमें !ुम्हें भ्रा!ाओं भ्रा!ृ-वधू सतिह!॥

क�ना होगा जिजससे मा!ाए ँ!था।

परि�जन, पु�जन, यथा �ीति! होवें सुत्किख!॥78॥

!ा!! क�ो यह यत्न दचिल! दुख-दल बने।

स�स-शान्ति ! की ध�ा र्घ�-र्घ� में बहे॥

कोई कभी असुख-मुख अवलोके नहीं।

सुखमय-वास� से तिवलचिस! वसुधा �हे॥79॥

दोहा

सी!ा का स देश कह, सुन आदशO पतिवत्र।

व दन क� प्रभु-कमल- पग �ले गये सौष्टिमत्रा॥80॥

तपस्वि;�नी आश्रर्म $ौपदे पीछे     आगे

 

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प्रकृति! का नीलाम्ब� उ!�े।

शे्व!-साड़ी उसने पाई॥

हटा र्घन-र्घूँर्घट श�दाभा।

तिवहँस!ी मतिह में थी आई॥1॥

मचिलन!ा दू� हुए !न की।

दिदशा थी बनी तिवक�-वदना॥

अध� में मंजु-नीचिलमामय।

था गगन-नवल-तिव!ान !ना॥2॥

�ाँदनी चिछदिटक चिछदिटक छतिब से।

छबीली बन!ी �ह!ी थी॥

सुधाक�-क� से वसुधा प�।

सुधा की धा�ा बह!ी थी॥3॥

कहीं थ ेबहे दुग्ध-सो!े।

कहीं प� मो!ी थ ेढलके॥

कहीं था अनुपम-�स ब�सा।

भव-सुधा-प्याला के छलके॥4॥

मंजु!म गति! से ही�क-�य।

तिनछाव� क�!ी जा!ी थी॥

जगमगा!े !ा�ाओं में।

चिथ�क!ी ज्योति! दिदखा!ी थी॥5॥

भिक्षति!-छटा फूली तिफ�!ी थी।

तिवपुल-कुसुमावचिल तिवकसी थी॥

आज वैकुhठ छोड़ कमला।

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तिवक�-कमलों में तिवलसी थी॥6॥

पादपों के श्यामल-दल ने।

प्रभा पा�द सी पाई थी॥

दिदव्य हो हो नवला-लति!का।

तिवभा सु�पु� से लाई थी॥7॥

मंद-गति! से बह!ीं नदिदयाँ।

मंजु-�स ष्टिमले स�स!ी थीं॥

पा गये �ाका सी �जनी।

वीचि�याँ बहु! तिवलस!ी थीं॥8॥

तिकसी कमनीय-मुकु� जैसा।

स�ोव� तिवमल-सचिलल वाला॥

मोह!ा था 2वअंक में ले।

तिवधु-सतिह! मंजुल-उड़ु-माला॥9॥

श�द-गौ�व नभ-जल-थल में।

आज ष्टिमल!े थ ेऑंके से॥

कीर्वि!ं फैला!े थ ेतिहल तिहल।

कास के फूल प!ाके से॥10॥

$तुष्पद

!पस्वि2वनी-आश्रम समीप थी।

एक बड़ी �मणीय-वादिटका॥

वह इस समय तिवपुल-तिवलचिस!थी।

ष्टिमले चिस!ा की दिदव्य सादिटका॥11॥

उसमें अनुपम फूल त्किखले थे।

Page 134: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

मंद-मंद जो मुसका!े थे॥

बडे़ भले-भावों से भ�-भ�।

भली �ंग!ें दिदखला!े थे॥12॥

छोटे-छोटे पौधे उसके।

थ े�ुप खडे़ छतिब पा!े॥

हो कोमल-श्यामल-दल शोभिभ!।

�हे श्यामसु द� कहला!े॥13॥

�ंग-तिब�ंगी तिवतिवध ल!ाए।ँ

लचिल! से लचिल! बन तिवलचिस! थीं॥

तिकसी कचिल! क� से लाचिल! हो।

तिवक�-बाचिलका सी तिवकचिस! थीं॥14॥

इसी वादिटका में तिनर्मिमं! था।

एक मनो�म-शन्ति !-तिनके!न॥

जो था सहज-तिवभूति!-तिवभूतिष!।

साभित्तवक!ा-शुचि�!ा-अवलम्बन॥15॥

था इसके सामने सुशोभिभ!।

एक तिवशाल-दिदव्य-देवालय॥

जिजसका ऊँ�ा-कलस इस समय।

बना हुआ था का !-कान्ति !मय॥16॥

शान्ति !-तिनके!न के आगे था।

एक चिस!-चिशला तिव�चि�!-�त्व�॥

उस प� बैठी जनक-नजि दनी।

देख �ही थीं दृश्य-मनोह�॥17॥

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प्रकृति! हँस �ही थी नभ!ल में।

तिहम-दीष्टिध! को हँसा-हँसा क�॥

ओस-तिब दु-मु-ावचिल द्वा�ा।

गोद चिस!ा की बा�-बा� भ�॥18॥

�ारु-हाँचिसनी � द्र-तिप्रया की।

अवलोकन क� बड़ी रुचि��-रुचि�॥

देखे उसकी लोक-�ंजिजनी।

कृति!, तिन!ा !-कमनीय प�म शुचि�॥19॥

जनक-सु!ा उ� द्रवीभू! था।

उनके दृग से था जल जा!ा॥

तिक!ने ही अ!ी!-वृत्तों का।

ध्यान उ हें था अष्टिधक स!ा!ा॥20॥

कहने लगीं चिस!े! सी!ा भी।

क्या !ुम जैसी ही शुचि� होगी॥

क्या !ुम जैसी ही उसमें भी।

भव-तिह!-�!ा दिदव्य-रुचि� होगी॥21॥

!मा-!मा है !मोमयी है।

भाव सपत्नी का है �ख!ी॥

कभी !ुमा�ी पू!-प्रीति! की।

2वाभातिवक!ा नहीं प�ख!ी॥22॥

तिफ� भी '�ाका-�जनी' क� !ुम।

उसको दिदव्य बना दे!ी हो॥

कान्ति !-हीन को कान्ति !-म!ी क�।

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कमनीय!ा दिदखा दे!ी हो॥23॥

जिजसे नहीं हँसना आ!ा है।

�ारु-हाचिसनी वह बन!ी है॥

!ुमको आसिलंगन क� अचिस!ा।

2वर्विगंक-चिस!!ा में सन!ी है॥24॥

ताटंक

नभ!ल में यदिद लस!ी हो !ो,

भू!ल में भी त्किखल!ी हो।

दिदव्य-दिदशा को क�!ी हो !ो,

तिवदिदशा में भी ष्टिमल!ी हो॥25॥

बहु तिवकास तिवलचिस! हो वारि�ष्टिध,

यदिद पयोष्टिध बन जा!ा है।

!ो लर्घु से लर्घु!म स�व� भी,

!ुमसे शोभा पा!ा है॥26॥

तिगरि�-समूह-चिशख�ों को यदिद !ुम,

मभिण-मज्जिhi! क� पा!ी हो।

छोटे-छोटे टीलों प� भी,

!ो तिनज छटा दिदखा!ी हो॥27॥

सुजला-सुफला-श2य श्यामला,

भू जो भूतिष! हो!ी है।

!ुमसे सुधा लाभ क� !ो मरु-

मतिह भी मरु!ा खो!ी है॥28॥

�म्य-नग� लर्घु-ग्राम व�तिवभा,

Page 137: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

दोनों !ुमसे पा!े हैं।

�ाज-भवन हों या कुटी�, सब

कान्ति !-मान बन जा!े हैं॥29॥

!रु-दल हों प्रसून हों !ृण हों,

सबको दु्यति! !ुम दे!ी हो।

औ�ों की क्या बा! �ज!-कण,

�ज-कण को क� ले!ी हो॥30॥

र्घूम-र्घूम क�के र्घनमाला,

�स ब�सा!ी �ह!ी है।

मृदु!ा सतिह! दिदखा!ी उसमें,

द्रवण-शील!ा मह!ी है॥31॥

है जीवन-दाष्टियनी कहा!ी,

!ाप जग! का ह�!ी है।

!रु से !ृण !क का प्रति!पालन,

जल प्रदान क� क�!ी है॥32॥

तिक !ु महा-गजOन-!जOन क�,

कँपा कलेजा दे!ी है।

तिग�ा-तिग�ा क� तिबजली जीवन

तिक!नों का ह� ले!ी है॥33॥

तिहम-उपलों से ह�ी भ�ी,

खे!ी का नाश क�ा!ी है।

जल-प्लावन से नग� ग्राम,

पु� को बहु तिवकल बना!ी है॥34॥

Page 138: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

अ!: सदाशय!ा !ुम जैसी,

उसमें नहीं दिदखा!ी है।

केवल सत्प्रवृभित्त ही उसमें,

मुbे नहीं ष्टिमल पा!ी है॥35॥

!ुममें जैसी लोकोत्त�!ा,

सहज-न्धि2नग्धा!ा ष्टिमल!ी है।

सदा !ुमा�ी कृति!-कचिलका जिजस-

अनुपम!ा से त्किखल!ी है॥36॥

वैसी अनु�ंजन!ा शुचि�!ा,

तिकसमें कहाँ दिदखा!ी है।

केवल तिप्रय!म दिदव्य-कीर्वि!ं ही-

में वह पाई जा!ी है॥37॥

हाँ प्राय: तिवयोतिगनी !ुमसे,

व्यचिथ!ा बन!ी �ह!ी है।

देख !ुमा�े जीवनधन को,

ममO-वेदना सह!ी है॥38॥

यह उसका अ !�-तिवका� है,

!ुम !ो सुख ही दे!ी हो।

आसिलंगन क� उसके तिक!ने-

!ापों को ह� ले!ी हो॥39॥

यह तिन22वाथO सदाशय!ा यह,

व�-प्रवृभित्त प�-उपका�ी।

दोष-�तिह! यह लोका�ाधन,

Page 139: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

यह उदा�!ा अति!- या�ी॥40॥

बना सकी है भाग्य-शाचिलनी,

ऐ सुभगे !ुमको जैसी।

तित्रभुवन में अवलोक न पाई,

मैं अब !क कोई वैसी॥41॥

इस ध�!ी से कई लाख कोसों-

प� का ! !ुमा�ा है।

तिक !ु बी� में कभी नहीं।

बह!ी तिवयोग की धा�ा है॥42॥

लाखों कोसों प� �हक� भी,

पति!-समीप !ुम �ह!ी हो।

यह फल उन पुhयों का है,

!ुम जिजसके बल से मह!ी हो॥43॥

क्यों संयोग बाष्टिधका बन!ी,

लाखों कोसों की दू�ी॥

क्या हो!ी हैं नहीं स!ी की

सकल कामनाए ँपू�ी?॥44॥

ऐसी प्रगति! ष्टिमली है !ुमको,

अपनी पू!-प्रकृति! द्वा�ा।

है हो गया तिवदूरि�! जिजससे,

तिप्रय-तिवयोग-संकट सा�ा॥45॥

सुकृति!व!ी हो सत्य-सुकृति!-फल,

सा�े-पा!क खो!ा है।

Page 140: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

उसके पावन-!म-प्रभाव में,

बह!ा �स का सो!ा है॥46॥

!ुम !ो लाखों कोस दू� की,

अवनी प� आ जा!ी हो।

तिफ� भी पति! से पृथक न होक�,

पुलतिक! बनी दिदखा!ी हो॥47॥

मुbे सौ सवा सौ कोसों की,

दू�ी भी कलपा!ी है।

मे�ी आकुल ऑंखों को।

पति!-मूर्वि!ं नहीं दिदखला!ी है॥48॥

जिजसकी मुख-छतिव को अवलोके,

छतिबमय जग! दिदखा!ा है।

जिजसका सु द� तिवक�-वदन,

वसुधा को मुग्ध बना!ा है॥49॥

जिजसकी लोक-ललाम-मूर्वि!ं,

भव-ललाम!ा की जननी है।

जिजसके आनन की अनुपम!ा,

प�म-प्रमोद प्रसतिवनी है॥50॥

जिजसकी अति!-कमनीय-कान्ति ! से,

कान्ति !मान!ा लस!ी है।

जिजसकी महा-रुचि��-��ना में,

लोक-रुचि��!ा बस!ी है॥51॥

जिजसकी दिदव्य-मनो�म!ा में,

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�म मन !म को खो!ा है।

जिजसकी मंजु माधु�ी प�,

माधुयO तिनछाव� हो!ा है॥52॥

जिजसकी आकृति! सहज-सुकृति!,

का बीज हृदय में बो!ी है।

जिजसकी स�स-व�न की ��ना,

मानस का मल धो!ी है॥53॥

जिजसकी मृदु-मुसकान भुवन-

मोहक!ा की तिप्रय-था!ी है।

प�मान द जनक!ा जननी,

जिजसकी हँसी कहा!ी है॥54॥

भले-भले भावों से भ�-भ�,

जो भू!ल को भा!े हैं।

बडे़-बडे़ लो�न जिजसके,

अनु�ाग-�ँगे दिदखला!े हैं॥55॥

जिजनकी लोकोत्त� लीलाए,ँ

लोक-ललक की था!ी हैं।

लचिल!-लालसाओं को तिवलसे,

जो उल्लचिस! बना!ी हैं॥56॥

आजीवन जिजनके � द्रानन की-

�कोरि�का बनी �ही।

जिजसकी भव-मोतिहनी सुधा प्रति!-

दिदन पी-पी क� मैं तिनबही॥57॥

Page 142: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जिजन �तिवकुल-�तिव को अवलोके,

�ही कमचिलनी सी फूली।

जिजनके प�म-पू! भावों की,

भावुक!ा प� थी भूली॥58॥

चिस!े! महीनों हुए नहीं उनका,

दशOन मैंने पाया।

तिवष्टिध-तिवधान ने कभी नहीं,

था मुbको इ!ना कलपाया॥59॥

जैसी !ुम हो सुकृति!मयी जैसी-

!ुममें सहृदय!ा है।

जैसी हो भवतिह! तिवधाष्टियनी,

जैसी !ुममें मम!ा है॥60॥

मैं हूँ अति!-साधा�ण ना�ी,

कैसे वैसी मैं हूँगी।

!ुम जैसी मह!ी व्यापक!ा,

उदा�!ा क्यों पाऊँगी॥61॥

तिफ� भी आजीवन मैं जन!ा-

का तिह! क�!ी आयी हूँ।

अनतिह! औ�ों का अवलोके,

कब न बहु! र्घब�ाई हूँ॥62॥

जान बूb क� कभी तिकसी का-

अतिह! नहीं मैं क�!ी हूँ।

पाँव सवOदा फँूक-फँूक क�,

Page 143: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

ध�!ी प� मैं ध�!ी हूँ॥63॥

तिफ� क्यों लाखों कोसों प� �ह,

!ुम पति! पास तिवलस!ी हो।

तिबना तिवलोके दुख का आनन,

सवOदैव !ुम हँस!ी हो॥64॥

औ� तिकसचिलए थोडे़ अ !�,

प� �ह मैं उक!ा!ी हूँ।

तिबना नवल-नी�द-!न देखे,

दृग से नी� बहा!ी हूँ॥65॥

ऐसी कौन यून!ा मुbमें है,

जो तिव�ह स!ा!ा है।

चिस!े! ब!ा दो मुbे क्यों नहीं,

� द्र-वदन दिदखला!ा है॥66॥

तिकसी तिप्रय सखी सदृश तिप्रये !ुम,

चिलपटी हो मे�े !न से।

हो जीवन-संतिगनी सुत्किख!-

क�!ी आ!ी हो चिशशुपन से॥67॥

हो प्रभाव-शाचिलनी कहा!ी,

प्रभा भरि�! दिदखला!ी हो।

!मस्वि2वनी का भी !म ह�क�,

उसको दिदव्य बना!ी हो॥68॥

मे�ी ति!ष्टिम�ावृ!ा यून!ा,

का तिन�सन त्योंही क� दो।

Page 144: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

अपनी पावन ज्योति! कृपा-

दिदखला, मम जीवन में भ� दो॥69॥

कोमल!ा की मूर्वि!ं चिस!े हो,

तिह!े�!ा कहलाओगी।

आशा है आयी हो !ो !ुम,

उ� में सुधा बहाओगी॥70॥

अष्टिधक क्या कहूँ अति!-दुलOभ है,

!ुम जैसी ही हो जाना।

तिक !ु �ाह!ी हूँ जी से !व-

सद्भावों को अपनाना॥71॥

जो सहाय!ा क� सक!ी हो,

क�ो, प्राथOना है इ!नी।

जिजससे उ!नी सुखी बन सकँू,

पहले सुत्किख! �ही जिज!नी॥72॥

सेवा उसकी करँू साथ �ह,

जी से जिजसकी दासी हूँ।

हूँ न 2वाथO�!, मैं पति! के-

संयोग-सुधा की प्यासी हूँ॥73॥

दोहा

इ!ने में र्घंटा बजा उठा आ�!ी-थाल।

द्रु!- गति! से मतिहजा गईं मजि द� में !त्काल॥74॥

रिरपुसूदनागर्मन सखी पीछे     आगे

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बादल थ ेनभ में छाये।

बदला था �ंग समय का॥

थी प्रकृति! भ�ी करुणा में।

क� उप�य मेर्घ-तिन�य का॥1॥

वे तिवतिवध-रूप धा�ण क�।

नभ-!ल में र्घूम �हे थे॥

तिगरि� के ऊँ�े चिशख�ों को।

गौ�व से �ूम �हे थे॥2॥

वे कभी 2वयं नग-सम बन।

थ ेअद्भ!ु-दृश्य दिदखा!े॥

क� कभी दंुदुभी-वादन।

�पला को �हे न�ा!े॥3॥

वे पहन कभी नीलाम्ब�।

थ ेबडे़-मुग्धक� बन!े॥

मु-ावचिल बचिल! अध� में।

अनुपम-तिव!ान थ े!न!े॥4॥

बहुश:खhiों में बँटक�।

�ल!े तिफ�!े दिदखला!े॥

वे कभी नभ-पयोतिनष्टिध के।

थ ेतिवपुल-पो! बन पा!े॥5॥

वे �ंग तिब�ंगे �तिव की।

तिक�णों से थ ेबन जा!े॥

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वे कभी प्रकृति! को तिवलचिस!।

नीली-सातिड़याँ तिप हा!े॥6॥

वे पवन !ु�ंगम प� �ढ़।

थ ेदूनी-दौड़ लगा!े॥

वे कभी धूप-छाया के।

वे छतिबमय-दृश्य दिदखा!े॥7॥

र्घन कभी र्घे� दिदन-मभिण को।

थ ेइ!नी र्घन!ा पा!े॥

जो दु्यति!-तिवहीन क�, दिदन को-

थ ेअमा-समान बना!े॥8॥

वे धूम-पंुज से फैले।

थ ेदिदग ! में दिदखला!े॥

अंकस्थ-दाष्टिमनी दमके।

थ ेप्र�ु�-प्रभा फैला!े॥9॥

सरि�!ा स�ोव�ादिदक में।

थ े2व�-लह�ी उपजा!े॥

वे कभी तिग�ा बहु-बँूदें।

थ ेनाना-वाद्य बजा!े॥10॥

पावस सा तिप्रय-ऋ!ु पाक�।

बन �ही �सा थी स�सा॥

जीवन प्रदान क�!ा था।

व�-सुधा सुधाधा� ब�सा॥11॥

थी दृष्टिH जिजध� तिफ� जा!ी।

Page 147: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

हरि�याली बहु! लुभा!ी॥

ना�!े मयू� दिदखा!े।

अचिल-अवली ष्टिमल!ी गा!ी॥12॥

थी र्घटा कभी ष्टिर्घ� आ!ी।

था कभी जल ब�स जा!ा॥

थ ेजल्द कभी खुल जा!े।

�तिव कभी था तिनकल आ!ा॥13॥

था मचिलन कभी हो!ा वह।

कुछ कान्ति ! कभी पा जा!ा॥

कCचिल! कभी बन!ा दिदन।

उज्ज्वल था कभी दिदखा!ा॥14॥

क� उसे मचिलन-बसना तिफ�।

काली ओढ़नी ओढ़ा!ी॥

थी प्रकृति! कभी वसुधा को।

उज्ज्वल-सादिटका तिप हा!ी॥15॥

जल-तिब दु लचिस! दल-�य से।

बन बन बहु-का !-कलेव�॥

उत्फुल्ल 2ना!-जन से थे।

हो चिस- सचिलल से !रुव�॥16॥

आ मंद-पवन के bोंके।

जब उनको गले लगा!े॥

!ब वे तिन!ा !-पुलतिक! हो।

थ ेमु-ावचिल ब�सा!े॥17॥

Page 148: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

जब पड़!ी हुई फुहा�ें।

फूलों को �हीं रि�bा!ी॥

जब म�ल-म�ल मारु! से।

लति!कायें थीं लह�ा!ी॥18॥

छतिब से उड़!े छीटे में।

जब त्किखल जा!ी थीं कचिलयाँ॥

�मकीली बँूदों को जब।

टपका!ीं सु द�-फचिलयाँ॥19॥

जब फल �स से भ�-भ� क�।

था प�म-स�स बन जा!ा॥

!ब ह�े-भ�े कानन में।

था अजब समा दिदखला!ा॥20॥

वे सुत्किख! हुए जो बहुधा।

प्यासे �ह-�ह क� !�से॥

bूम!े हुए बादल के।

रि�मजिbम-रि�मजिbम जल ब�से॥21॥

!प-ऋ!ु में जो थ ेआकुल।

वे आज हैं फले-फूले॥

वारि�द का बदन तिवलोके।

बास� तिवपभित्त के भूले॥22॥

!रु-खग-�य �हक-�हक क�।

थ ेकलोल-�! दिदखला!े॥

वे उमग-उमग क� मानो।

Page 149: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

थ ेवारि�-वाह गुण गा!े॥23॥

सा�े-पशु बहु-पुलतिक! थे।

!ृण-�य की देख प्र�ु�!ा॥

अवलोक सजल-नाना-थल।

बन-अवनी अष्टिम!-रुचि��!ा॥24॥

सावन-शीला थी हो हो।

आवत्ता-जाल आवरि�!ा॥

थी बडे़ वेग से बह!ी।

�स से भरि�!ा वन-सरि�!ा॥25॥

बहुश: सो!े बह-बह क�।

कल-कल �व �हे सुना!े॥

स� भ� क� तिवपुल सचिलल से।

थ ेसाग� बने दिदखा!े॥26॥

उस प� वन-हरि�याली ने।

था अपना bूला iाला॥

!ृण-�ाजिज तिव�ाज �ही थी।

पहने मु-ावचिल-माला॥27॥

पावस से प्रति!पाचिल! हो।

वसुधनु�ाग तिप्रय-पय पी॥

�ख हरि�याली मुख-लाली।

बहु-!पी दूब थी पनपी॥28॥

मनमाना पानी पाक�।

था पुलतिक! तिवपुल दिदखा!ा॥

Page 150: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

पी-पी �ट लगा पपीहा।

था अपनी प्यास बुbा!ा॥29॥

पाक� पयोद से जीवन।

!प के !ापों से छूटी॥

अनु�ाग-मूर्वि!ं 'बन', मतिह में।

तिवलचिस! थी बी� बहूटी॥30॥

तिनज-शा !!म तिनके!न में।

बैठी ष्टिमचिथलेश-कुमा�ी॥

हो मुग्ध तिवलोक �ही थीं।

नव-नील-जलद छतिब या�ी॥31॥

यह सो� �ही थीं तिप्रय!म।

!न सा ही है यह सु द�॥

वैसा ही है दृग-�ंजन।

वैसा ही महा-मनोह�॥32॥

प� क्षण-क्षण प� जो उसमें।

नव!ा है देखी जा!ी॥

वह नवल-नील-नी�द में।

है मुbे नहीं ष्टिमल पा!ी॥33॥

श्यामलर्घन में बक-माला।

उड़-उड़ है छटा दिदखा!ी॥

प� तिप्रय-उ�-तिवलचिस!-

मु-ा-माला है अष्टिधक लुभा!ी॥34॥

श्यामावदा! को �पला।

Page 151: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

�मका क� है �ौंका!ी॥

प� तिप्रय-!न-ज्योति! दृगों में।

है तिवपुल-�स ब�स जा!ी॥35॥

सवO2व है करुण-�स का।

है द्रवण-शील!ा-सम्बल॥

है मूल भव-स�स!ा का।

है जलद आद्रO-अ !2!ल॥36॥

प� तिन�अप�ाध-जन प� भी।

वह वज्रपा! क�!ा है॥

ओले ब�सा क� जीवन।

बहु-जीवों का ह�!ा है॥37॥

है जनक प्रबल-प्लावन का।

है प्रलयंक� बन जा!ा॥

वह नग�, ग्राम, पु� को है।

पल में तिनमग्न क� पा!ा॥38॥

मैं सा�े-गुण जलधा� के।

जीवन-धन में पा!ी हँ॥

उसकी जैसी ही मृदु!ा।

अवलोके बचिल जा!ी हूँ॥39॥

प� तिन�अप�ाध को तिप्रय!म-

ने कभी नहीं कलपाया॥

उनके हाथों से तिकसने।

कब कहाँ व्यथO दुख पाया॥40॥

Page 152: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

पु� नग� ग्राम कब उजडे़।

कब कहाँ आपदा आई॥

अपवाद लगाक� यों ही।

कब जन!ा गयी स!ाई॥41॥

तिप्रय!म समान जन-�ंजन।

भव-तिह!-�! कौन दिदखाया॥

प� सुख तिनष्टिमत्त कब तिकसने।

दुख को यों गले लगाया॥42॥

र्घन ग�ज-ग�ज क� बहुधा।

भव का है हृदय कँपा!ा॥

प� का ! का मधु� प्रव�न।

उ� में है सुधा बहा!ा॥43॥

जिजस समय जनकजा र्घन की।

अवलोक दिदव्य-श्यामल!ा॥

थीं तिप्रय!म-ध्यान-तिनमग्ना।

क� दू� चि�त्त-आकुल!ा॥44॥

आ उसी समय आलय में।

सौष्टिमत्रा-अनुज ने साद�॥

पग-व दन तिकया स!ी का।

बन करुण-भाव से का!�॥45॥

सी!ादेवी ने उनको।

प�माद� से बैठाला॥

लो�न में आये जल प�-

Page 153: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

तिनयमन का प�दा iाला॥46॥

तिफ� कहा !ा! ब!ला दो।

�र्घुकुल-पंुगव हैं कैसे?॥

जैसे दिदन कट!े थ ेक्या।

अब भी कट!े हैं वैसे?॥47॥

क्या कभी याद क�!े हैं।

मुb वन-तिनवाचिसनी को भी॥

उसको जिजसका आकुल-मन।

है पद-पंकज-�ज-लोभी॥48॥

�ा!क से जिजसके दृग हैं।

छतिब 2वाति!-सुधा के प्यासे॥

प्रति!कूल पड़ �हे हैं अब।

जिजसके सुख-बास� पासे॥49॥

जो तिव�ह वेदनाओं से।

व्याकुल होक� है ऊबी॥

दृग-वारि�-वारि�तिनष्टिध में जो।

बहु-तिववशा बन है iूबी॥50॥

हैं कीर्वि!ं क�ों से गुन्धि¼!।

जिजनकी गौ�व-गाथायें॥

हैं सकुशल सुत्किख!ा मे�ी।

अनु�ाग-मूर्वि!ं- मा!ायें?॥51॥

हो गये महीनों उनके।

मम!ामय-मुख न दिदखाये॥

Page 154: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

पावन!म-युगल पगों को।

मे�े क� प�स न पाये॥52॥

श्रीमान् भ�!-भव-भूषण।

2नेहाद्रO सुष्टिमत्रा-न दन॥

सब दिदनों �ही क�!ी मैं॥

जिजनका साद� अभिभन दन॥53॥

हैं 2वस्थ, सुत्किख! या चि�न्ति !!।

या हैं तिवपन्न-तिह!-व्र!-�!॥

या हैं लोका�ाधन में।

संलग्न बन प�म-संय!॥54॥

कह कह तिवयोग की बा!ें।

माhiवी बहु! थी �ोई॥

उर्मिमलंा गयी तिफ� आई।

प� �ा! भ� नहीं सोई॥55॥

श्रुति!कीर्वि!ं का कलपना !ो।

अब !क है मुbे न भूला॥

हो गये याद मे�ा उ�।

बन!ा है मम!ा-bूला॥56॥

यह ब!ला दो अब मे�ी।

बहनों की गति! है कैसी?

वे उ!नी दुत्किख! न हों प�,

क्या सुत्किख! नहीं हैं वैसी?॥57॥

क्या दशा दाचिसयों की है।

Page 155: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

वे दुत्किख! !ो नहीं �ह!ीं॥

या 2नेह-प्रवाहों में पड़।

या!ना !ो नहीं सह!ीं॥58॥

क्या वैसी ही सुत्किख!ा है।

मतिह की सवत्ताम था!ी॥

क्या अवधपु�ी वैसी ही।

है दिदव्य बनी दिदखला!ी॥59॥

ष्टिमट गयी �ाज्य की हल�ल।

या है वह अब भी फैली॥

कल-कीर्वि!ं चिस!ा सी अब !क।

क्या की जा!ी है मैली॥60॥

बोले रि�पुसूदन आर्य्याय�।

हैं धी� धु�ंध� प्रभुव�॥

नीति!ज्ञ, याय�!, संय!।

लोका�ाधन में !त्प�॥61॥

गुरु-भा� उ हीं प� सा�े-

साम्राज्य-संयमन का है॥

!न मन से भव-तिह!-साधन।

व्र! उनके जीवन का है॥62॥

इस दुगOम-!म कृति!-पथ में।

थीं आप संतिगनी ऐसी॥

वैसी !ु� ! थीं बन!ी।

तिप्रय!म-प्रवृभित्त हो जैसी॥63॥

Page 156: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

आश्रम-तिनवास ही इसका।

सवत्तम-उदाह�ण है॥

यह है अनु�चि--अलौतिकक।

भव-वजि द! सदा��ण है॥64॥

यदिद �र्घुकुल-ति!लक पुरुष हैं।

श्रीम!ी शचि- हैं उनकी॥

जो प्रभुव� तित्रभुवन-पति! हैं।

!ो आप भचि- हैं उनकी॥65॥

तिवश्रान्ति ! सामने आ!ी।

!ो तिब�ामदा थीं बन!ी॥

अनतिह!-आ!प-अवलोके।

तिह!-व�-तिव!ान थीं !न!ी॥66॥

थीं पूर्वि!ं यून!ाओं की।

मति!-अवगति! थीं कहला!ी॥

आपही तिवपभित्त तिवलोके।

थीं प�म-शान्ति ! बन पा!ी॥67॥

अ!एव आप ही सो�ें।

वे तिक!ने होंगे तिवह्नल॥

प� धी�-धु�ंध�!ा का।

नृपव� को है सच्चा-बल॥68॥

वे इ!नी ! मय!ा से।

क!Oव्यों को हैं क�!े॥

इस भावुक!ा से वे हैं।

Page 157: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

बहु-सद्भावों से भ�!े॥69॥

इ!ने दृढ़ हैं तिक बदन प�।

दुख-छाया नहीं दिदखा!ी॥

का!�!ा सम्मुख आये।

कँप क� है क!�ा जा!ी॥70॥

तिफ� भी !ो हृदय हृदय है।

वेदना-�तिह! क्यों होगा॥

!ज हृदय-वल्लभा को क्यों।

भव-सुख जायेगा भोगा॥71॥

जो सज्या-भवन सदा ही।

सबको हँस!ा दिदखला!ा॥

जिजसको तिवलोक आनजि द!।

आन द 2वयं हो जा!ा॥72॥

जिजसमें बह!ी �ह!ी थी।

उल्लासमयी - �स - धा�ा॥

जो 2वरि�! बना क�!ा था।

लोकोत्त�-2व� के द्वा�ा॥73॥

इन दिदनों करुण-�स से वह।

परि�प्लातिव! है दिदखला!ा॥

अवलोक म्लान!ा उसकी।

ऑंखों में है जल आ!ा॥74॥

अनु�ंजन जो क�!े थे।

उनकी �ंग! है बदली॥

Page 158: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है कान्ति !-तिवहीन दिदखा!ी।

अनुपम-�त्नों की अवली॥75॥

मन मा�े बैठी उसमें।

है सुकृति!व!ी दिदखला!ी॥

जो गी! करुण-�स-पूरि�!।

प्राय: �ो-�ो है गा!ी॥76॥

हो गये महीनों उसमें।

जा!े न !ा! को देखा॥

हैं खिखं�ी न जाने उनके।

उ� में कैसी दुख-�ेखा॥77॥

बा!ें मा!ाओं की मैं।

कहक� कैसे ब!लाऊँ॥

उनकी सी मम!ा कैसे।

मैं शब्दों में भ� पाऊँ॥78॥

मे�ी आकुल-ऑंखों को।

कब!क वह कलपायेगी॥

उनको �ट यही लगी है।

कब जनक-लली आयेगी॥79॥

आज्ञानुसा� प्रभुव� के।

श्रीम!ी माhiवी प्रति!दिदन॥

भतिगतिनयों, दाचिसयों को ले।

उन सब कामों को तिगन-तिगन॥80॥

क�!ी �ह!ी हैं साद�।

Page 159: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

थीं आप जिज हें तिन! क�!ी॥

सच्चे जी से वे सा�े।

दुत्किखयों का दुख हैं ह�!ी॥81॥

मा!ाओं की सेवायें।

है बडे़ लगन से हो!ी॥

तिफ� भी उनकी मम!ा तिन!।

है आपके चिलए �ो!ी॥82॥

सब हो प� कोई कैसे।

भवदीय-हृदय पायेगा॥

दिदव-सुधा सुधाक� का ही।

ब�!�-क� ब�सायेगा॥83॥

बहनें जनतिह! व्र!�! �ह।

हैं बहु! कुछ 2वदुख भूली॥

प� सत्संगति! दृग-गति! की।

है बनी असंगति! फूली॥84॥

दाचिसयाँ क्या, नग� भ� का।

यह है मार्मिमकं-कhठ-2व�॥

जब देवी आयेंगी, कब-

आयेगा वह व�-बास�॥85॥

है अवध शा ! अति!-उन्न!।

बहु-सुख-समृत्किध्द-परि�पूरि�!॥

सौभाग्य-धाम सु�पु�-सम।

�र्घुकुल-मभिण-मतिहमा मुखरि�!॥86॥

Page 160: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

है साम्य-नीति! के द्वा�ा।

सा�ा - साम्राज्य - सुशाचिस!॥

लोका�ाधन-म त्रों से।

हैं जन-पद प�म-प्रभातिव!॥87॥

प� कहीं-कहीं अब भी है।

कुछ हल�ल पाई जा!ी॥

उत्पा! म�ा दे!े हैं।

अब भी कति!पय उत्पा!ी॥88॥

चिस�ध�ा उन सबों का है।

पाषाण - हृदय - लवणासु�॥

जिजसने तिवध्वंस तिकये हैं।

बहु ग्राम बडे़-सु द�-पु�॥89॥

उसके वध की ही आज्ञा।

प्रभुव� ने मुbको दी है॥

साथ ही उ होंने मुbसे।

यह तिनभिश्च! बा! कही है॥90॥

केवल उसका ही वध हो।

कुछ ऐसा कौशल क�ना॥

लोहा दानव से लेना।

भू को न लहू से भ�ना॥91॥

आज्ञानुसा� कौशल से।

मैं सा�े कायO करँूगा॥

भव के कंटक का वध क�।

Page 161: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

भू!ल का भा� हरँूगा॥92॥

हो गया आपका दशOन।

आचिशष महर्विषं से पाई॥

होगी सफला यह यात्रा।

भू में भ� भूरि�-भलाई॥93॥

रि�पुसूदन की बा!ें सुन।

जी कभी बहु! र्घब�ाया॥

या कभी जनक-!नया के।

ऑंखों में ऑंसू आया॥94॥

प� बा�म्बा� उ होंने।

अपने को बहु! सँभाला॥

धी�ज-ध� थाम कलेजा।

सब बा!ों को सुन iाला॥95॥

तिफ� कहा कँुव�-व� जाओ।

यात्रा हो सफल !ुम्हा�ी॥

पु�हू! का प्रबल-पतिव ही।

है पवO!-गवO-प्रहा�ी॥96॥

है तिवनय यही तिवभुव� से।

हो तिप्रय!म सुयश सवाया॥

वसुधा तिनष्टिमत्त बन जाये।

!ब तिवजय कल्प!रुकाया॥97॥

दोहा

पग व दन क� ले तिवदा गये दनुजकुल काल।

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इसी दिदवस चिसय ने जने युगल-अलौतिकक-लाल॥98॥

नार्मकरण-सं;कार वितलोकी पीछे     आगे

 

शान्ति !-तिनके!न के समीप ही सामने।

जो देवालय था सु�पु� सा दिदव्य!म॥

आज सुसज्जिC! हो वह सुमन-समूह से।

बना हुआ है प�म-का ! ऋ!ुका !-सम॥1॥

ब्रह्म�ारि�यों का दल उसमें बैठक�।

मधु�-कंठ से वेद-ध्वतिन है क� �हा॥

!पस्वि2वनी सब दिदव्य-गान गा �ही हैं।

जन-जन-मानस में तिवनोद है भ� �हा॥2॥

एक कुशासन प� कुलपति! हैं �ाज!े।

सु!ों के सतिह! पास लसी हैं मतिहसु!ा॥

!पस्वि2वनी-आश्रम-अधीश्व�ी सजग �ह।

बन-बन पुलतिक! हैं बहु-आयोजन-�!ा॥3॥

नामक�ण-सं2का� तिक्रया जब हो �ुकी।

मुतिनव� ने यह साद� मतिहजा से कहा॥

पुतित्र जनकजे! उ हें प्राप्! वह हो गया।

�तिवकुल-�तिव का चि��वांचिछ! जो फल �हा॥4॥

कोख आपकी वह लोकोत्त�-खातिन है।

जिजसने कुल को लाल अलौतिकक दो दिदए॥

वे होंगे आलोक !म-बचिल!-पंथ के।

Page 163: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कुश-लव होंगे काल कश्मलों के चिलए॥5॥

सकुशल उनका ज म !पोवन में हुआ।

आशा है सं2का� सभी होंगे यहीं॥

सकल-कलाओं-तिवद्याओं से हो कचिल!।

तिव�तिह! होंगे वे अपूवO-गुण से नहीं॥6॥

रि�पुसूदन जिजस दिदवस पधा�े थ ेयहाँ।

उसी दिदवस उनके सुप्रसव ने लोक को॥

दी थी मंगलमय यह मंजुल-सू�ना।

मधु� क�ेंगे वे अमधु�-मधु-ओक को॥7॥

मुbे ज्ञा! यह बा! हुई है आज ही।

हुआ लवण-वध हुए शत्रु-सूदन जयी॥

द्व द्व युध्द क� उसको मा�ा उ होंने।

पाक� अनुपम-कीर्वि!ं प�म-गौ�वमयी॥8॥

आशा है अब पूणO-शान्ति ! हो जायगी।

शीघ्र दू� होवेंगी बाधायें-अप�॥

हो जायेगा जन-जन-जीवन बहु-सुत्किख!।

जायेगा अब र्घ�-र्घ� में आन द भ�॥9॥

दसकंधा� का तिप्रय-संबंधी लवण था।

अल्प-सहायक-सहका�ी उसके न थे॥

कई जनपदों में भी उसकी धाक थी।

बडे़ सबल थ ेउसके प्रति!-पाचिल! जथे॥10॥

इसीचिलए �र्घु-पंुगव ने रि�पु-दमन को।

दी थी व�-वातिहनी वातिहनी-पति! सतिह!॥

Page 164: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

यथा काल हो जिजससे दानव-दल-दलन।

तिह! क�!े हो सके नहीं भव का अतिह!॥11॥

तिक !ु उ हें जन-�-पा! वांचिछ! न था।

हुआ इसचिलए वध दु� !-दनुजा! का॥

आशा है अब अ य उठाएगँे न चिश�।

यथा!थ्य हो गया शमन उत्पा! का॥12॥

जो हल�ल इन दिदनों �ाज्य में थी म�ी।

उ हें देख क�के जिज!ना ही था दुत्किख!॥

देतिव तिवलोके अ ! दनुज-दौ�ात्म्य का।

आज हो गया हूँ मैं उ!ना ही सुत्किख!॥13॥

यदिद आहव हो!ा अनथO हो!े बडे़।

हो जा!ा पतिवपा! लोक की शान्ति ! प�॥

वृथा प�म-पीतिड़! हो!ी तिक!नी प्रजा।

काल का कवल बन!ा मधुपु� सा नग�॥14॥

तिक !ु नृप-चिश�ोमभिण की संय!-नीति! ने।

क�वाई वह तिक्रया युचि--सत्तामयी॥

जिजससे संकट टला अकंटक मतिह बनी।

हुई पू!-मानव!ा पशु!ा प� जयी॥15॥

मन का तिनयमन प्रति!-पालन शुचि�-नीति! का।

प्रजा-पंुज-अनु�ंजन भव-तिह!-साधना॥

कौन क� सका भू में �र्घुकुल-ति!लक सा।

आत्म-सुखों को त्याग लोक-अ�ाधना॥16॥

देतिव अ य!म-मूर्वि!ं उ हीं की आपको।

Page 165: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

युगल-सुअन के रूप में ष्टिमली है अ!:॥

अब होगी वह महा-साधना आपकी।

बनें पू!!म पू! तिप!ा के सम य!:॥17॥

आपके कचिल!!म-क�-कमलों की ��ी।

यह सामने लसी सुमूर्वि!ं श्री�ाम की॥

जो है अनुपम, जिजसकी देखे दिदव्य!ा।

कान्ति !म!ी बन सकी तिवभा र्घनश्याम की॥18॥

इस महान-मजि द� में जिजसकी स्थापना।

हुई आपकी भावुक!ामय-भचि- से॥

आज तिन!ा ! अलंकृ! जो है हो गई।

तिकसी का !क� की कुसुष्टिम!-अनु�चि- से॥19॥

�ा!-�ा! भ� दिदन-दिदन भ� जिजसके तिनकट।

बैठ तिब!ा!ी आप हैं तिव�ह के दिदवस॥

आकुल!ा में दे दे!ा बहु-शान्ति ! है।

जिजसके उज्ज्वल!म-पुनी!-पग का प�स॥20॥

जिजसके चिलए मनोह�-गज�े प्रति!-दिदवस।

तिव�� आप हो!ी �ह!ी हैं बहु-सुत्किख!॥

जिजसको अपOण तिकए तिबना फल ग्रहण भी।

नहीं आपकी सुरुचि� समb!ी है उचि�!॥21॥

�ाजकीय सब परि�धानों से �तिह! क�।

चिशशु-2वरूप में जो उसको परि�ण! क�ें।

!ो वह कुश-लव मंजु-मूर्वि!ं बन जायगी।

यह तिवलोम मम-नयन न क्यों मुद से भ�ें॥22॥

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देतिव! पति!-प�ायण!ा ! मय!ा !था।

!दीय!ा ही है उदीयमाना हुई॥

उभय सु!ों की आकृति! में, कल-कान्ति ! में-

गा!-श्याम!ा में क� अपनोदन हुई॥23॥

आशा है इनकी ही शुचि�-अनुभूति! से।

चिशशुओं में वह बीज हुआ होगा वतिप!॥

तिप!ृ-��ण के अति!-उदात्त-आ��ण का।

आप उसे ही क� सक!ी हैं अंकुरि�!॥24॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।

उसका पद है जीवन का भी जनष्टिय!ा॥

उसमें है वह शचि--सु!-�रि�! सृजन की।

नहीं पा सका जिजसे प्रकृति!-क� से तिप!ा॥25॥

इ!नी बा!ें कह मुतिनव� जब �ुप हुए।

आ!ा जल जब �ोक �हे थ ेचिसय-नयन॥

!पस्वि2वनी-आश्रम-अधीश्व�ी !ब उठीं।

औ� कहे ये बडे़-मनमोहक-व�न॥26॥

था तिप्रय-प्रा!:काल उषा की लाचिलमा।

�तिवक�-द्वा�ा आ�ंजिज! थी हो �ही॥

समय के मृदुल!म-अ !2!ल में तिवहँस।

प्रकृति!-सु द�ी प्रणय-बीज थी बो �ही॥27॥

मंद-मंद मंजुल-गति! से �ल क� मरु!।

व� उपवन को सौ�भमय था क� �हा॥

प्राभिणमात्र में !रुओं में !ृण-�ाजिज में।

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केचिल-तिनलय बन बहु-तिवनोद था भ� �हा॥28॥

धी�े-धी�े दु्यमभिण-का ! तिक�णावली।

ज्योति!मOय थी ध�ा-धाम को क� �ही॥

खेल �ही थी कं�न के कल-कलस से।

बहु! तिवलस!ी अमल-कलम-दल प� �ही॥29॥

तिकसे नहीं क�!ी तिवमुग्ध थी इस समय।

बने ठने उपवन की फुलवा�ी लसी॥

तिवक�-कुसुम के व्याज आज उत्फुल्ल!ा।

उसमें आक� मूर्वि!ंमयी बन थी बसी॥30॥

बेले के अलबेलेपन में आज थी।

तिकसी बडे़-अलबेले की तिवलसी छटा॥

श्याम-र्घटा-कुसुमावचिल श्यामल!ा ष्टिमले।

बनी हुई थी सावन की स�सा र्घटा॥31॥

यदिद प्रफुल्ल हो हो कचिलकायें कु द की।

मधु� हँस हँस क� थीं दाँ! तिनकाल!ी॥

आशा क� कमनीय!म-क�-स्पशO की।

फूली नहीं समा!ी थी !ो माल!ी॥32॥

बहु-कुसुष्टिम! हो बनी तिवक�-बदना �ही।

यथा!थ्य आमोदमयी हो यूचिथका॥

तिकसी समाग! के शुभ-2वाग! के चिलए।

मँह मँह मँह मँह महक �ही थी मज्जिल्लका॥33॥

�ंग जमा!ा लोक-लो�नों प� �हा।

�ंपा का �ंपई �ंग बन �ारु!�॥

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अष्टिधक लचिस! पाटल-प्रसून था हो गया।

तिकसी कँुव� अनु�ाग-�ाग से भूरि� भ�॥34॥

उल्लचिस!ा दिदखला!ी थी शेफाचिलका।

कचिलकाओं के बडे़-का ! गहने पहन॥

पंथ तिकसी माधाव का थी अवलोक!ी।

मधु-ऋ!ु जैसी मुग्धक�ी माधावी बन॥35॥

पहन हरि�!!म अपने तिप्रय परि�धान को।

था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥

बना �ही थी जपा-लाचिलमा को लचिल!।

तिकसी लाल के अवलोकन की लालसा॥36॥

इसी बड़ी सु द�-फुलवा�ी में कुसुम-

�यन तिन�! दो-दिदव्य मूर्वि!ंयाँ थीं लसी॥

जिजनकी चि�!वन में थी अनुपम-�ारु!ा।

स�स सुधा-�स से भी थी जिजनकी हँसी॥37॥

एक �हे उन्न!-ललाट व�-तिवधु-बदन।

नव-नी�द-श्यामावदा! नी�ज-नयन॥

पीन-वक्ष आजान-बाहु मांसल-वपुष।

धी�-वी� अति!-सौम्य सवO-गौ�व-सदन॥38॥

मभिणमय-मुकुट-तिवमंतिi! कुhiल-अलंकृ!।

बहु-तिवष्टिध मंजुल-मु-ावचिल-माला लचिस!॥

प�मोत्ताम-परि�धान-वान सौ दयO-धन।

लोकोत्त�-कमनीय-कलादिदक-आकचिल!॥39॥

थ ेतिद्व!ीय नयनाभिभ�ाम तिवकचिस!-बदन।

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कनक-कान्ति ! माधुयO-मूर्वि!ं मंथन मथन॥

तिवतिवध-व�-वसन-लचिस! तिक�ीटी-कुhiली।

कम्मO-प�ायण प�म-!ीव्र साहस-सदन॥40॥

दोनों �ाजकुमा� मुग्ध हो हो छटा।

थ ेउत्फुल्ल-प्रसूनों को अवलोक!े॥

उनके कोमल-स�स-चि�त्त प्राय: उ हें।

तिवक�-कुसुम-�य �यन से �हे �ोक!े॥41॥

तिफ� भी पूजन के तिनष्टिमत्त गुरुदेव के।

उन लोगों ने थोडे़ कुसुमों को �ुना॥

इसी समय उपवन में कुछ ही दू� प�।

उनके कानों ने कल�व हो!ा सुना॥42॥

�ाज-नजि दनी तिगरि�जा-पूजन के चिलए।

उपवन-पथ से मजि द� में थीं जा �ही॥

साथ में �हीं सुमुखी कई सहेचिलयाँ।

वे मंगलमय गी!ों को थीं गा �ही॥43॥

यह दल पहुँ�ा जब फुलवा�ी के तिनकट।

तिनयति! ने तिनय!-समय-महत्ता दी दिदखा॥

प्रकृति!-लेखनी ने भावी के भाल प�।

सु द�-लेख लचिल!!म-भावों का चिलखा॥44॥

�ाज-नजि दनी !था �ाज-न दन नयन।

ष्टिमले अ�ानक तिवपुल-तिवक�-स�चिसज बने॥

बीज पे्रम का वपन हुआ !त्काल ही।

दो उ� पावन-�समय-भावों में सने॥45॥

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एक बनी श्यामली-मूर्वि!ं की पे्रष्टिमका।

!ो तिद्व!ीय उ�-मध्य बसी गौ�ांतिगनी॥

दोनों की चि�!-वृभित्त अ�ां�क-पू! �ह।

तिकसी छलक!ी छतिब के द्वा�ा थी चिछनी॥46॥

उपवन था इस समय बना आन द-वन।

सुमनस-मानस ह�!े थ ेसा�े सुमन॥

अष्टिधक-ह�े हो गये सकल-!रु-पंुज थे।

�हक �हे थ ेतिवहग-वृ द बहु-मुग्ध बन॥47॥

�ाज-नजि दनी के शुभ-परि�णय के समय।

��ा गया था एक-2वयंव�-दिदव्य!म॥

�ही प्रति!ज्ञा उस भव-धनु के भंग की।

जो था तिगरि� सा गुरु कठो� था वज्र-सम॥48॥

धा�णी!ल के बडे़-धु�ंध� वी� सब।

जिजसको उठा सके न अपा�-प्रयत्न क�॥

!ोड़ उसे क� �ाज-नजि दनी का व�ण।

उपवन के अनु�- बने जब योग्य-व�॥49॥

उसी समय अंकुरि�! पे्रम का बीज हो।

यथा समय पल्लतिव! हुआ तिव2!ृ! बना॥

है तिवशाल!ा उसकी तिवश्व-तिवमोतिहनी।

सु�-पादप सा है प्रश2! उसका !ना॥50॥

है जन!ा-तिह!-�!ा लोक-उपकारि�का।

है नाना-सं!ाप-समूह-तिवनाचिशनी॥

है सुखदा, व�दा, प्रमोद-उत्पादिदका।

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उसकी छाया है भिक्षति!-!ल छतिब-वर्ध्दिध्दंनी॥51॥

बडे़-भाग्य से उसी अलौतिकक-तिवटप से।

दो लोकोत्त�-फल अब हैं भू को ष्टिमले॥

देखे �तिवकुल-�तिव के सु! के व�-बदन।

उसका मानस क्यों न बनज-वन सा त्किखले॥52॥

देतिव बधाई मैं दे!ी हूँ आपको।

औ� �ाह!ी हूँ यह सच्चे-हृदय से॥

चि��जीवी हों दिदव्य-कोख के लाल ये।

औ� यश2वी बनें तिप!ा-सम-समय से॥53॥

इ!ने ही में व�-वीणा बजने लगी।

मधु�-कhठ से मधुमय-देवालय बना॥

पे्रम-उत्स हो गया स�स-आलाप से।

जनक-नजि दनी ऑंखों से ऑंसू छना॥54॥

पद

बधाई देने आयी हूँ

गोद आपकी भ�ी तिवलोके फूली नहीं समाई हूँ॥

लालों का मुख �ूम बलाए ँलेने को लल�ाई हूँ।

ललक-भ�े-लो�न से देखे बहु-पुलतिक! हो पाई हूँ॥

जिजनका कोमल-मुख अवलोके मुदिद!ा बनी सवाई हूँ।

जुग-जुग जिजयें लाल वे जिजनकी ललकें देख ललाई हूँ॥

तिवपुल-उमंग-भ�े-भावों के �ुने-फूल मैं लाई हूँ।

�ाह यही है उ हें �ढ़ाऊँ जिजनप� बहु! लुभाई हूँ॥

�ीb �ीb क� तिवशद-गुणों प� मैं जिजसकी कहलाई हूँ।

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उसे बधाई दिदये कुसुष्टिम!ा-ल!ा-सदृश लह�ाई हूँ॥1॥55॥

जंगल में मंगल हो!ा है।

भव-तिह!-�! के चिलए ग�ल भी बन!ा स�स-सुधा सो!ा है।

काँटे बन!े हैं प्रसून-�य कुचिलश मृदुल!म हो जा!ा है॥

महा-भयंक� प�म-गहन-वन उपमा उपवन की पा!ा है।

उसको ऋत्किध्द चिसत्किध्द है ष्टिमल!ी साधो सभी काम सध!ा है॥

पाहन पानी में ति!�!ा है, से!ु वारि�तिनष्टिध प� बँध!ा है।

दो बाँहें हों तिक !ु उसे लाखों बाँहों का बल ष्टिमल!ा है॥

उसी के त्किखलाये मानव!ा का बहु-म्लान-बदन त्किखल!ा है।

!ीन लोक कन्धिम्प!का�ी अपका�ी की मद वह ढा!ा है॥

पाप-!प से !प्!-ध�ा प� स�स-सुधा वह ब�सा!ा है।

�र्घुकुल-पंुगव ऐसे ही हैं, वा2!व में वे �तिवकुल-�तिव हैं॥

वे प्रसून से भी कोमल हैं, प� पा!क-पवO! के पतिव हैं।

सहधार्मिमणंी आप हैं उनकी देतिव आप दिदव्य!ामयी हैं॥

इसीचिलए बहु-प्रबल-बलाओं प� भी आप हुई तिवजयी हैं।

आपकी प्रचिथ!-सुकृति!-ल!ा के दोनों सु! दो उत्तम-फल हैं॥

पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, चिशव-चिश�-गौ�व गंगाजल हैं।

तिप!ा-पुhय के प्रति!पादक हैं, जननी-सत्कृति! के सम्बल हैं॥

�तिवकुल-मानस के म�ाल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।

मुतिन-पंुगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोतिवद बन जावें॥

चि��जीवें कल-कीर्वि!ं सुधा पी वसुधा के गौ�व कहलावें॥2॥56॥

वितलोकी

जब !पस्वि2वनी-सत्यव!ी-गाना रुका।

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जनकसु!ा ने सतिवनय मुतिनव� से कहा॥

देव! आपकी आज्ञा चिश�सा-धार्य्यायO है।

सदुपदेश कब नहीं लोक-तिह!-क� �हा॥57॥

जिज!नी मैं उपकृ!ा हुई हूँ आपसे।

वैसे व्यापक शब्द न मे�े पास हैं॥

जिजनके द्वा�ा ध यवाद दँू आपको।

हो!ी कब गुरु-जन को इसकी प्यास है॥58॥

हाँ, यह आशीवाOद कृपा क� दीजिजए।

मे�े चि�! को �ं�ल-मति! छू ले नहीं॥

तिवतिवध व्यथाए ँसहूँ तिक !ु पति!-वांचिछ!ा।

लोका�ाधन-पू!-नीति! भूले नहीं॥59॥

!पस्वि2वनी-आश्रम-अधीश्व�ी आपकी।

जैसी अति!-तिप्रय-संज्ञा है मृदुभातिषणी॥

हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल।

कहाँ ष्टिमलेंगी ऐसी तिह!-अभिभलातिषणी॥60॥

अति! उदा� हृदया हैं, हैं भवतिह!-�!ा।

आप धमO-भावों की हैं अष्टिधकारि�णी॥

हैं मे�ी सुतिवधा-तिवधाष्टियनी शान्ति !दा।

मचिलन-मनों में हैं शुचि�!ा-सं�ारि�णी॥61॥

कभी बने जलतिब दु कभी मो!ी बने।

हुए ऑंसुओं का ऑंखों से सामना॥

अनुगृही!ा हुई अति! कृ!ज्ञा बनी।

सुने आपकी भावमयी शुभ कामना॥62॥

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आप श्रीम!ी सत्यव!ी हैं सहृदया।

है कृपालु!ा आपकी प्रकृति! में भ�ी॥

तिफ� भी दे!ी ध यवाद हूँ आपको।

है सद्वांछा आपकी प�म-तिह!-क�ी॥63॥

दोहा

फैला आश्रम-ओक में प�म-लचिल!-आलोक।

मुतिनव� उठे समhiली सांग- तिक्रया अवलोक॥64॥

जी�न-यात्रा वितलोकी पीछे     आगे

 

!पस्वि2वनी-आश्रम के चिलए तिवदेहजा।

पुhयमयी-पावन-प्रवृभित्त की पूर्वि!ं थीं॥

!पस्वि2वनी-गण की आद�मय-दृष्टिH में।

मानव!ा-मम!ा की मह!ी-मूर्वि!ं थीं॥1॥

ब्रह्म�यO-�! वाल्मीकाश्रम-छात्रा-गण।

!पोभूष्टिम-!ापस, तिवद्यालय-तिवबुध-जन॥

मूर्वि!ंम!ी-देवी थ ेउनको मान!े।

भचि-भाव-सुमनाजंचिल द्वा�ा क� यजन॥2॥

अष्टिधक-चिशचिथल!ा गभOभा�-जतिन!ा �ही।

तिफ� भी प�तिह!-�!ा सवOदा वे ष्टिमलीं॥

क� सेवा आश्रम-!पस्वि2वनी-वृ द की।

वे कब नहीं प्रभा!-कमचिलनी सी त्किखलीं॥3॥

उ हें �ोक!ी �ह!ी आश्रम-2वाष्टिमनी।

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कह वे बा!ें जिज हें उचि�! थीं जान!ी॥

तिक !ु तिकसी दुख में पति!!ा को देखक�।

कभी नहीं उनकी मम!ा थी मान!ी॥4॥

देख �ींदिटयों का दल ऑंटा छींट!ीं।

दाना दे दे खग-कुल को थीं पाल!ी॥

मृग-समूह के सम्मुख, उनको प्या� क�।

कोमल-हरि�! !ृणावचिल वे थीं iाल!ीं॥5॥

शान्ति !-तिनके!न के समीप के सकल-!रु।

�ह!े थ ेखग-कुल के कूजन से 2वरि�!॥

सदा वायु-मhiल उसके सब ओ� का।

�ह!ा था कलकhठ कचिल!-�व से भरि�!॥6॥

तिकसी पेड़ प� शुक बैठे थ ेबोल!े।

तिकसी प� सुना!ा मैना का गान था॥

तिकसी प� पपीहा कह!ा था पी कहाँ।

तिकसी प� लगा!ा तिपक अपनी !ान था॥7॥

उसके सम्मुख के सु द�-मैदान में।

कहीं तिवलस!ी थी पा�ाव!-मhiली॥

बोल-बोल क� बड़ी-अनूठी-बोचिलयाँ।

कहीं केचिल�! �ह!ी बहु-तिवहगावली॥8॥

इध�-उध� थ ेमृग के शावक र्घूम!े।

कभी छलाँगें भ� मानस को मोह!े॥

धी�े-धी�े कभी तिकसी के पास जा।

भोले-दृग से उसका बदन तिवलोक!े॥9॥

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एक तिद्व�द का बच्चा कति!पय-मास का।

जनक-नजि दनी के क� से जो था पला॥

प्राय: तिफ�!ा ष्टिमल!ा इस मैदान में।

मा!ृ-हीन क� जिजसे प्रकृति! ने था छला॥10॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति! दिदवस।

जनक-नजि दनी क� से हो!ा था भला॥

शान्ति !-तिनके!न के सब ओ� इसीचिलए।

दिदखला!ी थी सवO-भू!-तिह! की कला॥11॥

दो पुत्रों के प्रति!पालन का भा� भी।

उ हें बना!ा था न लोक-तिह! से तिवमुख॥

यह ही उनकी हृत्तांत्री का �ाग था।

यह ही उनके जीवन का था सहज-सुख॥12॥

पाँवोंवाले दोनों सु! थ ेहो गए।

अपनी ही धुन में वे �ह!े म2! थे॥

तिफ� भी वे उनको सँभाल उनसे तिनबट।

उनकी भी सुन!ीं जो आपदग््र2! थे॥13॥

थीं तिक!नी आश्रम-तिनवाचिसनी मोतिह!ा।

आ प्रति!दिदन अवलोकन क�!ी थीं कई॥

नयनों में थ ेयुगल-कुमा� समा गए।

हृदयों में श्यामली-मूर्वि!ं थी बस गई॥14॥

तिक !ु सहृदया सत्यव!ी-मम!ा अष्टिधक।

थी तिवदेह-नजि दनी युगल-न दनों प�॥

ज मकाल ही से उनकी परि�सेवना।

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वह क�!ी ही �ह!ी थी आठों-पह�॥15॥

इसीचिलए वह थी तिवदेहजा-सह��ी।

इसीचिलए वे उसे बहु! थीं मान!ी॥

उनके मन की तिक!नी ही बा!ें बना।

वह लड़कों को बहलाना थी जान!ी॥16॥

कभी रि�bा!ी उ हें वेणु वीणा बजा।

!�ह-!�ह के खेल वह खेला!ी कभी॥

कभी खेलौने �ख!ी उनके सामने।

2वयं खेलौना वह थी बन जा!ी कभी॥17॥

तिव�ह-वेदना से तिवदेहजा जब कभी।

व्याकुल हो!ीं !ब थी उ हें सँभाल!ी॥

गा गा क�के भाव-भ�े नाना-भजन।

!पे-हृदय प� थी !�-छीटे iाल!ी॥18॥

आते्रयी की सत्यव!ी थी तिप्रय-सखी।

अ!: उ होंने उसके मुख से थी सुनी॥

तिवदेहजा के तिव�ह-व्यथाओं की कथा।

जो थी वैसी पू!ा जैसी सु�धुनी॥19॥

आते्रयी थीं बुत्किध्दम!ी-तिवदुषी बड़ी।

तिव�ह-वेदना बा!ें सुन होक� द्रतिव!॥

शान्ति !-तिनके!न में आयीं वे एक दिदन।

!पस्वि2वनी-आश्रम-अधीश्व�ी के सतिह!॥20॥

जनक-नजि दनी ने साद�-क�-व दना।

बडे़ पे्रम से उनको उचि�!ासन दिदया॥

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तिफ� यह सतिवनय प�म-मधु�-2व� सेकहा।

बहु! दिदनों प� आपने पदापOण तिकया॥21॥

आते्रयी बोलीं हूँ क्षमाष्टिधकारि�णी।

आई हूँ मैं आज कुछ कथन के चिलए॥

आपके �रि�! हैं अति!-पावन दिदव्य!म।

आपको तिनयति! ने हैं अनुपम-गुण दिदए॥22॥

अपनी प�तिह!-�!ा पुनी!-प्रवृभित्त से।

सहज-सदाशय!ा से सु द�-प्रकृति! से॥

लोक�ंजिजनी-नीति! पू!-पति!-प्रीति! से।

सच्ची-सहृदय!ा से सहजा-सुकृति! से॥23॥

कहा, मानवी हैं देवी सी अर्शि�ं!ा।

व्यचिथ!ा हो!े, हैं क!Oव्य-प�ायणा॥

अश्रु-तिब दुओं में भी है धृति! bलक!ी।

अतिह! हुए भी �ह!ी है तिह!-धा�णा॥24॥

साम्राज्ञी होक� भी सहजा-वृभित्त है।

�ाजनजि दनी होक� हैं भव-सेतिवका॥

यद्यतिप हैं सवाOष्टिधकारि�णी ध�ा की।

क्षमामयी हैं !ो भी आप !!ोष्टिधका॥25॥

कभी तिकसी को दुख पहुँ�ा!ी हैं नहीं।

सबको सुख हो यही सो�!ी हैं सदा॥

कटु-बा!ें आनन प� आ!ीं ही नहीं।

आप सी न अवलोकी अ य तिप्रयम्वदा॥26॥

नवनी!ोपम कोमल!ा के साथ ही।

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अ !2!ल में अ!ुल-तिवमल!ा है बसी॥

साभित्तवक!ा-चिस!!ा से हो उद्भाचिस!ा।

वहीं श्यामली-मूर्वि!ं तिकसी की है लसी॥27॥

देतिव! आप वा2!व में हैं पति!-देव!ा।

आप वा2!तिवक!ा की सच्ची-सू्फर्वि!ं हैं॥

हैं प्रति!पभित्त प्रचिथ!-2वग�य-तिवभूति! की।

आप सत्य!ा की, चिशव!ा की मूर्वि!ं हैं॥28॥

तिक !ु देख!ी हूँ मैं जीवन आपका।

प्राय: है आवरि�! �हा आपभित्त से॥

ले लीजिजए तिववाह-काल ही उस समय।

�हा 2वयंव� ग्रचिस! तिवचि�त्र-तिवपभित्त से॥29॥

था तिववाह अधीन शंभु-धनु भंग के।

तिक !ु !ोड़ने से वह !ो टूटा नहीं॥

वसंुध�ा के वी� थके बहु-यत्न क�।

तिक !ु तिवफल!ा का कलंक छूटा नहीं॥30॥

देख यह दशा हुए तिवदेह बहु!-तिवकल।

हुईं आपकी जननी व्यचिथ!ा, चि�न्ति !!ा॥

आप �हीं �र्घु-पंुगव-बदन तिवलोक!ी।

कोमल!ा अवलोक �हीं अति!-शंतिक!ा॥31॥

�ाम-मृदुल-क� छू!े ही टूटा धनुष।

लोग हुए उत्फुल्ल दू� चि� !ा हुई॥

तिक !ु कलेजों में असफल-नृप-वृ द के।

�ुभने लगी अ�ानक ईष्या की सुई॥32॥

Page 180: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कहने लगे अनेक नृपति! हो संगदिठ!।

परि�णय होगा नहीं टूटने से धनुष॥

सम� भयंक� होगा मतिहजा के चिलए।

अचिस-धा�ा सु�-सरि�!ा काटेगी कलुष॥33॥

�ाजाओं की देख युध्द-आयोजन।

सभी हुए भयभी! कलेजे तिहल गए॥

वे भी सके न बोल याय तिप्रय था जिज हें।

बडे़-बडे़-धी�ों के मँह भी चिसल गए॥34॥

इसी समय भृगुकुल-पंुगव आये वहाँ।

उ हें देख बहु-भूप भगे, बहु दब गए॥

सब ने सो�ा बहु!-बड़ा-संकट टला।

खडे़ हो सकें गे न अब बखेiे नये॥35॥

प� वे !ो वध-अथO उसे थ ेखोज!े।

जिजसने !ोड़ा था उनके गुरु का धनुष॥

यही नहीं हो हो क� प�म-कुतिप! उसे।

कह!े थ ेकटु-व�न परुष से भी परुष॥36॥

ज्ञा! हुए यह, सब लोगों के �ोंगटे।

खडे़ हो गये लगे कलेजे काँपने॥

तिक !ु !ु� ! उ हें अनुकूल बना चिलया।

तिवनयी-�र्घुब� के कोमल-आलाप ने॥37॥

था यौवन का काल हृदय उत्फुल्ल था।

पे्रम-गं्रचिथ दिदन दिदन दृढ़!म थी हो �ही॥

�ाज-तिवभव था �ाज्य-सदन था 2वगO सा।

Page 181: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

ललक उ�ों में लगन बीज था बो �ही॥38॥

व� तिवलासमय बन वास� था तिवलस!ा।

�जनी पल पल प� थी अनु�ंजन-�!ा॥

यदिद तिवनोद हँस!ा मुखड़ा था मोह!ा।

!ो �स�ाज �हा ऊप� �स ब�स!ा॥39॥

तिप!ृ-सद्म मम!ा ने भूल मन जिजस समय।

ससु�-सदन में शनै: शनै: था �म �हा॥

उ हीं दिदनों अवस� ने आक� आपसे।

समा�ा� पति! �ाज्या�ोहण का कहा॥40॥

आह! दूस�े दिदवस सुना जो आपने।

तिकसका नहीं कलेजा उसको सुन चिछला॥

कैकेई-सु!-�ाज्य पा गये �ाम को।

कानन-वास �!ुदOश-वत्स� का ष्टिमला॥41॥

कहाँ तिकस समय ऐसी दुर्घOटना हुई।

कह!े हैं इति!हास कलेजा थामक�॥

वृथा कलंतिक! कैकेई की मति! हुई।

कह!े हैं अब भी सब इसको आह भ�॥42॥

आपने दिदखाया स!ीत्व जो उस समय।

वह भी है लोकोत्त�, अद्भ!ु है महा॥

�ौदह सालों !क वन में पति! साथ �ह।

तिकस कुल-बाला ने है इ!ना दुख सहा॥43॥

थीं सम्राट्-वधू ध�ाष्टिधपति! की सु!ा।

ऋत्किध्द चिसत्किध्द क� बाँधो सम्मुख थी खड़ी॥

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सकल-तिवभव थ ेआनन सदा तिवलोक!े।

�त्न�ाजिज थी !लवों के नी�े पड़ी॥44॥

तिक !ु आपने पल भ� में सबको !जा।

प्राणनाथ के आनन को अवलोक क�॥

था यह पे्रम प्र!ीक, पू!!म-भाव का।

था यह त्याग अलौतिकक, अनुपम �तिक! क�॥45॥

इस प्रवास वन-वास-काल का वह समय।

अति!-कुज्जित्स! था, हुई जब र्घृभिण!!म-तिक्रया॥

जब आया था कं�न का मृग सामने।

�ावण ने जब आपका ह�ण था तिकया॥46॥

लंका में जो हुई या!ना आपकी।

छ महीने !क हुईं साँस!ें जो वहाँ।

जीभ कहे !ो कहे तिकस !�ह से उसे।

उसमें उनके अनुभव का है बल कहाँ॥47॥

मूर्वि!ंम!ी-दुगOति!-दानवी-प्रकोप से।

आपने वहाँ जिज!नी पीड़ायें सहीं॥

उ हें देख आहें भ�!ी थी आह भी।

कन्धिम्प! हो!ी न�क-यंत्राणायें �हीं॥48॥

नी�ाशय!ा की वे ��म-तिववृभित्त थीं।

दु�ा�ा� की वे उत्कट-आवृभित्त थीं॥

�ावण वज्र-हृदय!ा की थीं प्रतिक्रया।

दानव!ा की वे दुदाO !-प्रवृभित्त थीं॥49॥

तिक !ु हुआ पाम�!ा का अवसान भी।

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पापानल में 2वयं दग्ध पापी हुआ॥

ऑं� लगे कनकाभा प�मोज्ज्वल बनी।

2वाति!-तिब दु �ा!की �ारु-मुख में �ुआ॥50॥

आपके प�म-पावन-पुhय-प्रभाव से।

महामना श्री भ�!-सुकृति! का बल ष्टिमले॥

तिफ� वे दिदन आये जो बहु वांचिछ! �हे।

जिज हें लाभक� पु�जन पंकज से त्किखले॥51॥

हुआ �ाम का �ाज्य, लोक अभिभ�ाम!ा।

दशOन देने लगी सब जगह दिदव्य बन॥

सकल-जनपदों, नग�ों, ग्रामादिदकों में।

तिवमल-कीर्वि!ं का गया मनोज्ञ तिव!ान !न॥52॥

सब कुछ था प� एक लाल की लालसा।

लालाष्टिय! थी ललतिक! चि�! को क� �ही॥

ष्टिमले काल-अनुकूल गभO-धा�ण हुआ।

युगल उ�ों में व� तिवनोद ध�ा बही॥53॥

पति!-इच्छा से व�-सु!-लाभ-प्रवृभित्त से।

अति!-पुनी!-आश्रम में आयी आप हैं॥

सफल हुई कामना महा-मंगल हुआ।

तिक !ु स!ा!े तिनत्य तिव�ह-सं!ाप हैं॥54॥

आ!े ही पति!-मूर्वि!ं बनाना 2वक� से।

उसे सजाना पहनाना गज�े बना॥

पास बैठ उसको देखा क�ना स!!।

क�!े �हना बहु-भावों की वं्यजना॥55॥

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हम लोगों को यह ब!ला!ा तिनत्य था।

तिव�ह तिवकल!ा से क्या है चि�! की दशा॥

तिक!नी पति!प्राणा हैं आप, !थैव है-

कैसा पति!-आनन अवलोकन का नशा॥56॥

तिक !ु यह समb चि�! में �ह!ी शान्ति ! थी।

अल्प-समय !क ही होगी यह या!ना॥

क्योंतिक �हा तिवश्वास प्रसव उप�ा ! ही।

आपको अवध-अवनी देगी सा त्वना॥57॥

तिक !ु देख!ी हूँ यह, पुत्रव!ी बने।

हुआ आपको एक साल से कुछ अष्टिधक॥

तिक !ु अवध की दृष्टिH न तिफ� पाई इध�।

औ� आपके 2व� में 2व� भ� गया तिपक॥58॥

कुलपति!-आश्रम की तिवष्टिध मुbको ज्ञा! है।

गभOव!ी-पति!-रुचि� के वह अधीन है॥

वह �ाहे !ो उसे बुला ले या न ले।

प� आश्रम का वास ही समी�ीन है॥59॥

!पोभूष्टिम में जिजसका सब सं2का� हो।

आश्रम में ही जो चिशभिक्ष!, दीभिक्ष!, बने॥

वह क्यों वैसा लोक-पूज्य होगा नहीं।

ध�ा पू! बन!ी है जैसा सु! जने॥60॥

�र्घुकुल-पंुगव सब बा!ें हैं जान!े।

इसीचिलए हैं आप यहाँ भेजी गईं॥

कुलपति! ने भी उस दिदन था यह ही कहा।

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देख �ही हूँ आप अब यहीं की हुईं॥61॥

आप स!ी हैं, हैं क!Oव्य-प�ायणा।

सब सह लेंगी कृति! से च्यु! होंगी नहीं॥

तिक !ु बहु-व्यथामयी है तिव�ह-वेदना।

उससे आप यहाँ भी नहीं ब�ी �हीं॥62॥

आजीवन जीवन-धन से तिबछुड़ी न जो।

लंका के छ महीने जिजसे छ युग बने॥

उसे क्यों न उसके दिदन होंगे व्यथामय।

जिजस तिवयोग के ब�स न तिगन पाये तिगने॥63॥

आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।

�हा आपदाओं के क� में ही पड़ा।

देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका।

मे�ा जी बन जा!ा है व्याकुल बड़ा॥64॥

प� तिवलोकक� अनुपम-तिनग्रह आपका।

देखे धी� धु�ंध� जैसी धी�!ा॥

प� दुख का!�!ा उदा�!ा से भ�ी।

अवलोकन क� नयन-नी� की नी�!ा॥65॥

हो!ा है तिवश्वास तिव�ह-जतिन!ा-व्यथा।

बनेगी न बाष्टिधका पुनी!-प्रवृभित्त की॥

दू� क�ेगी उ�-तिव�चि- को सवOदा।

मम!ा जन!ा-तिवतिवध-तिवपभित्त-तिनवृभित्त की॥66॥

पड़ तिवपभित्तयों में भी कब प�-तिह!-�!ा।

प� का तिह! क�ने से है मँह मोड़!ी॥

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बँध!ी तिग�!ी टक�ा!ी है चिशला से।

है न स�स!ा को सु�सरि�!ा छोड़!ी॥67॥

मतिह में मतिहमामय अनेक हो गये हैं।

यथा समय कम हुई नहीं मतिहमामयी॥

प� प्राय: सब तिवतिवध-संकटों में पडे़।

तिक !ु उसे उनप� 2व-आत्मबल से जयी॥68॥

मचिलन-मानसों की मलीन!ा दू� क�।

भ�!ी �ह!ी है भू!ल में भव्य!ा॥

है फूट!ी दिदखा!ी संकट-ति!ष्टिम� में।

दिदव्य-जनों या देवी ही की दिदव्य!ा॥69॥

आश्रम की कुछ ब्रह्म�ारि�णी-मूर्वि!ंयाँ।

ऐसी हैं जिजनमें है भौति!क!ा भ�ी॥

तिक !ु आपके लोकोत्त�-आदशO ने।

उनकी तिक!नी बु�ी-वृभित्तयाँ हैं ह�ी॥70॥

इस तिव�ा� से भी पधा�ना आपका।

!पस्वि2वनी-आश्रम का उपका�क हुआ॥

तिनज प्रभाव का व�-आलोक प्रदान क�।

तिक!ने मानस-!म का संहा�क हुआ॥71॥

है समाप्! हो गया यहाँ का अध्ययन।

अब अग2!-आश्रम में मैं हूँ जा �ही॥

तिवदा ग्रहण के चिलए उपज्जिस्थ! हुई हूँ।

यद्यतिप मुbे पृथक!ा है कलपा �ही॥72॥

है कामना अलौतिकक दोनों लातिड़ले।

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पुhय-पंुज के पू!-प्र!ीक प्र!ी! हों॥

!ज अवैध-गति! तिवष्टिध-तिवधान-सवO2व बन।

आपके तिव�ह-बास� शीघ्र व्य!ी! हों॥73॥

जनक-नजि दनी ने अ याश्रम-गमन सुन।

कहा आप जायें मंगल हो आपका॥

अहह कहाँ पाऊँगी तिवदुषी आप सी।

आपका व�न पय था मम-सं!ाप का॥74॥

अनसूया देवी सी व�-तिवद्याव!ी।

सदा�ारि�णी सवO-शा2त्र-पा�ंग!ा॥

यदिद मैंने देखी !ो देखी आपको।

वैसी ही हैं आप सुधी प�-तिह!-�!ा॥75॥

जो उपदेश उ होंने मुbको दिदए हैं।

वे मे�े जीवन के तिप्रय-अवलम्ब हैं॥

उपवन रूपी मे�े मानस के चिलए।

सु�भिभ! क�नेवाले कुसुम-कदम्ब है॥76॥

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जान!ी।

पति!-तिवयोग-दुख सा जग में है कौन दुख॥

!ुच्छ सामने उसके भव-सम्पभित्त है।

पति!-सुख पत्नी के तिनष्टिमत्त है 2वगO-सुख॥77॥

अ !� का प�दा �ह जा!ा ही नहीं।

एक �ंग ही में �ँग जा!े हैं उभय॥

जीवन का सुख !ब हो जा!ा है तिद्वगुण।

बन जा!े हैं एक जब ष्टिमलें दो हृदय॥78॥

Page 188: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

�हे इसी पथ के मम जीवन-धन पचिथक।

यही ध्येय मे�ा भी आजीवन �हा॥

तिक !ु क�ें संयोग के चिलए यत्न क्या।

आकस्वि2मक-र्घटना दुख दे!ी है महा॥79॥

कायO-चिसध्द के सा�े-साधन ष्टिमल गए।

कृत्यों में तु्रदिट-लेश भी न हो!े कहीं॥

आये तिवघ्न अचि� !नीय यदिद सामने।

!ो तिन!ा !-चि�न्ति !! चि�! क्यों होगा नहीं॥80॥

जब उसका दशOन भी दुलOभ हो गया।

जो जीवन का सम्बल अवलम्बन �हा॥

!ो आवेग बनायें क्यों आकुल नहीं।

कैसे !ो उदे्वग वेग जाये सहा॥81॥

भूल न पाईं वे बा!ें मम!ामयी।

प्रीति!-सुधा से चिस- सवOदा जो �हीं॥

2मृति! यदिद है मे�े जीवन की सह��ी।

अहह आत्म-तिव2मृति! !ो क्यों होगी नहीं॥82॥

तिबना वारि� के मीन बने वे आज हैं।

�हे जो नयन सदा 2नेह-�स में सने॥

भला न कैसे हो मे�ी मति! बावली।

क्यों प्रमत्त उ मत्ता नहीं मम!ा बने॥83॥

�तिवकुल-�तिव का आनन अवलोके तिबना।

स�स श�द-स�सीरुह से वे क्यों त्किखलें॥

क्यों न ललक!े आकुल हो !ा�े �हें।

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क्यों न छलक!े ऑंखों में ऑंसू ष्टिमलें॥84॥

कलपेगा आकुल हो!ा ही �हेगा।

व्यचिथ! बनेगा क�ेगा न मति! की कही॥

तिनज-वल्लभ को भूल न पाएगा कभी।

हृदय हृदय है सदा �हेगा हृदय ही॥85॥

भूल सकें गे कभी नहीं वे दिदव्य-दिदन।

भव्य-भावनायें जब दम भ�!ी �हीं॥

कान �हे जब सुन!े प�म रुचि��-व�न।

ऑंखें जब छतिब-सुधा-पान क�!ी �हीं॥86॥

कभी समी� नहीं होगा गति! से �तिह!।

होगा सचिलल !�ंगहीन न तिकसी समय।

कभी अभाव न होगा भाव-तिवभाव का।

कभी भावना-हीन नहीं होगा हृदय॥87॥

यह 2वाभातिवक!ा है इससे ब� सका-

कौन, सभी इस मोह-जाल में हैं फँसे॥

सा�े अ !2!ल में इसकी व्यान्तिप्! है।

मन-प्रसून हैं बास से इसी के बसे॥88॥

तिव�ह-ज य मे�ी पीड़ायें हैं प्रकृ!।

तिक !ु कभी क!Oव्य-हीन हूँगी न मैं॥

तिप्रय-अभिभलाषायें जो हैं प्राणेश की।

तिकसी काल में उनको भूलँूगी न मैं॥89॥

तिव�ह-वेदनाओं में यदिद है सबल!ा।

उनके शासक !ो तिप्रय!म-आदेश हैं॥

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जो हैं पावन प�म याय-संग! उचि�!।

भव-तिह!का�क जो सच्चे उपदेश हैं॥90॥

महामना नृप-नीति!-प�ायण दिदव्य-धी।

धमO-धु�ंध� दृढ़-प्रति!ज्ञ पति!-देव हैं॥

तिफ� भी हैं करुणातिनधान बहु दयामय।

लोका�ाधन में तिवशेष अनु�- हैं॥91॥

आत्म-सुख-तिवसजOन क�के भी वे इसे।

क�!े आये हैं आजीवन क�ेंगे॥

तिबना तिकये प�वा दु2!�-आवत्ता की।

आपदास्विब्ध-मज्जिC!-जन का दुख ह�ेंगे॥92॥

तिनज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का।

भा� उ हीं प� है, जो है गुरु!� महा॥

सा�ी उचि�! व्यवस्थाओं का सवOदा।

अष्टिधका�ी मतिह में नृप-सत्तम ही �हा॥93॥

सु!ों के सतिह! मे�े आश्रम-वास से।

देश, जाति!, कुल का यदिद हो!ा है भला॥

अ य व्यवस्था !ो कैसे हो सकेगी।

सदा !ुलेगी !ुल्य याय-शीला-!ुला॥94॥

�र्घुकुल-पंुगव की मैं हूँ सहधार्मिमणंी।

जो है उनका धमO वही मम-धमO है॥

भली-भाँति! मम-उ� उसको है जान!ा।

उनके तिप्रय-चिसध्दा !ों का जो ममO है॥95॥

उनकी आज्ञा का पालन मम-ध्येय है।

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उनका तिप्रय-साधन ही मम-क!Oव्य है॥

उनका ही अनुगमन प�म-तिप्रय-कायO है।

उनकी अभिभरुचि� मम-जीवन-म !व्य है॥96॥

तिव�ह-वेदनायें हों तिक !ु प्रसन्न!ा।

उनकी मुbे प्रसन्न बना!ी �हेगी॥

मम-मम!ा देखे पति!-तिप्रय-साधन बदन।

सवO या!नायें सुखपूवOक सहेगी॥97॥

दोहा

नमन जनकजा ने तिकया, कह अ !2!ल-हाल।

तिवदा हुईं कह शुभ- व�न आते्रयी !त्काल॥98॥

दाम्पत्य-दिदव्यता वितलोकी पीछे    

 

प्रकृति!-सु द�ी �ही दिदव्य-वसना बनी।

कुसुमाक� द्वा�ा कुसुष्टिम! का !ा� था॥

मंद मंद थी �ही तिवहँस!ी दिदग्वधू।

फूलों के ष्टिमष समुत्फुल्ल संसा� था॥1॥

मलयातिनल बह मंद मंद सौ�भ-तिब!�।

वसुधा!ल को बहु-तिवमुग्ध था क� �हा॥

सू्फर्वि!ंमयी-मत्त!ा-तिवक�!ा-रुचि��!ा।

प्राभिण मात्र अ !2!ल में था भ� �हा॥2॥

चिशचिश�-शी!-चिशचिथचिल!-!न-चिश�ा-समूह में।

समय शचि--सं�ा� के चिलए लग्न था॥

परि�व!Oन की प�म-मनोह�-प्रगति! पा।

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!रु से !ृण !क छतिब-प्रवाह में मग्न था॥3॥

तिक!ने पादप लाल-लाल कोंपल ष्टिमले।

ऋ!ु-पति! के अनु�ाग-�ाग में थ े�ँगे॥

बने मंजु-परि�धानवान थ ेबहु-तिवटप।

शाखाओं में हरि�!-नवल-दल के लगे॥4॥

तिक!ने फल फूलों से थ ेऐसे लसे।

जिज हें देखने को लो�न थ े!�स!े॥

तिक!ने थ ेइ!ने प्रफुल्ल इ!ने स�स।

ललक-दृगों में भी जो थ े�स ब�स!े॥5॥

रुचि��-�साल ह�े दृग-�ंजन-दलों में।

चिलये मंजु-मंज�ी भूरि�-सौ�भ भ�ी॥

था सौ�भिभ! बना!ा वा!ाव�ण को।

न�ा मानसों में तिवमुग्ध!ा की प�ी॥6॥

लाल-लाल-दल-लचिल!-लाचिलमा से तिवलस।

वणOन क� ममO�-ध्वतिन से तिवरुदावली॥

मधु-ऋ!ु के 2वाग! क�ने में मत्त था।

मधु से भरि�! मधूक ब�स सुमनावली॥7॥

�ख मुँह-लाली लाल-लाल-कुसुमाचिल से।

लोक ललक!े-लो�न में थ ेलस �हे॥

देख अलौतिकक-कला तिकसी छतिबका ! की।

दाँ! तिनकाले थ ेअना�-!रु हँस �हे॥8॥

क�!े थ ेतिव2!ा� तिकसी की कीर्वि!ं का।

तिक!नों में अनु�चि- उसी की भ� सके॥

Page 193: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

दिदखा तिवक�!ा, उज्ज्वल!ा, व�-अरुभिणमा।

शे्व!-�- कमनीय-कुसुम क�ना� के॥9॥

हो!ा था यह ज्ञा! भानुजा-अंक में।

पीले-पीले-तिवक� बहु-बनज हैं लसे॥

हरि�!-दलों में पी!ाभा की छतिब दिदखा।

थ ेकदम्ब-!रु तिवलचिस! कुसुम-कदम्ब से॥10॥

कौन नयनवाला प्रफुल्ल बन!ा नहीं।

भला नहीं त्किखल!ी तिकसके जी की कली॥

देखे तिप्रय हरि�याली, तिवशद-तिवशाल!ा।

अवलोके सेमल-ललाम-सुमनावली॥11॥

ना�-ना� क� �ीb भ� सहज-भाव में।

तिकसी समाग! को थ ेबहु! रि�bा �हे॥

बा�-बा� मलयातिनल से ष्टिमल-ष्टिमल गले।

�ल-दल-दल थ ेगी! मनोह� गा �हे॥12॥

2!ंभ-�ाजिज से सज कुसुमावचिल से तिवलस।

ष्टिमले सहज-शी!ल-छतिबमय-छाया भली॥

हरि�!-नवल-दल से बन सर्घन जहाँ !हाँ।

!ंबू !ान �ही थी वट-तिवटपावली॥13॥

तिकसको नहीं बना दे!ा है वह स�स।

भला नहीं कैसे हो!े वे �स भ�े॥

ना�ंगी प� �ंग उसी का है �ढ़ा।

हैं बसं! के �ंग में �ँगे सं!�े॥14॥

अंक तिवलस!ा कैसे कुसुम-समूह से।

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ह�े-ह�े दल उसे नहीं ष्टिमल!े कहीं॥

नी�स!ा हो!ी न दू� जो मधु ष्टिमले।

!ो हो!ा जंबी� नी�-पूरि�! नहीं॥15॥

कंटतिक!ा-बद�ी !ो कैसे तिवलस!ी।

हो उदा� सफला बन क्यों क�!ी भला॥

जो प्रफुल्ल!ा मधु भ�!ा भू में नहीं।

कोतिबदा� कैसे बन!ा फूला फला॥16॥

दिदखा श्यामली-मूर्वि!ं की मनोह�-छटा।

बन सक!ा था वह बहु-फलदा!ा नहीं॥

पाँव न जो जम!ा मतिह में ऋ!ु�ाज का।

!ो जम्बू तिनज-�ंग जमा पा!ा नहीं॥17॥

कोमल!म तिकसलय से का ! तिन!ा ! बन।

दिदखा नील-जलधा� जैसी अभिभ�ाम!ा॥

कुसुमायुध की सी कमनीया-कान्ति ! पा।

मोतिह! क�!ी थी !माल-!रु-श्याम!ा॥18॥

मलयातिनल की मंथ�-गति! प� मुग्ध हो।

क�!ी �ह!ी थीं बनठन अठखेचिलयाँ॥

फूल ब्याज से बा�-बा� उत्फुल्ल हो।

तिवलस-तिवलस क� बहु-अलबेली-बेचिलयाँ॥19॥

ह�े-दलों से तिहल ष्टिमल त्किखल!ी थीं बहु!।

कभी चिथ�क!ीं लह�ा!ीं बन!ीं कचिल!॥

कभी का !-कुसुमावचिल के गहने पहन।

लति!कायें क�!ी थीं लीलायें लचिल!॥20॥

Page 195: hindisahityasimanchal.files.wordpress.com€¦  · Web viewअलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी।

कभी मधु-मधुरि�मा से बन!ी छतिबमयी।

कभी तिनछाव� क�!ी थी मु-ावली॥

सजी-सादिटका पहना!ी थी अवतिन को।

तिवतिवध-कुसुम-कुल-कचिल!ा हरि�!-!ृणावली॥21॥

दिदये हरि�!-दल उ हें लाल जोडे़ ष्टिमलें।

या अनु�चि--अरुभिणमा ऊप� आ गई।

लाल-लाल-फूलों से तिवपुल-पलाश के।

कानन में थी लचिल!-लाचिलमा छा गई॥22॥

उ हें बडे़-सु द�-चिलबास थ ेष्टिमल गए।

छटा चिछदिटक थी �ही बाँस-खँूदिटयों प�॥

आज बेल-बूटों से वे थीं तिवलस!ी।

टूटी पड़!ी थी तिवभूति! बूदिटयों प�॥23॥

सब दिदन जिजस पलने प� प्या�ा-!न पला।

दे!ी थी उसकी मह!ी-कृति! का प!ा॥

दिदखा-दिदखा क� ह�ीति!मा की मधु�-छतिब।

नव-दूवाO-दे मतिह को मोहक-श्याम!ा॥24॥

कोतिकल की काकली ति!ति!चिलयों का नटन।

खग-कुल-कूजन �ंग-तिब�ंगी वन-ल!ा॥

अजब-समा थी बाँध छतिब पंुज!ा।

गंुजन-सतिह! ष्टिमचिल द-वृ द की मत्त!ा॥25॥

व�-बास� ब�बस था मन को मोह!ा।

मलयातिनल बहु-मुग्ध बना था प�स!ा॥

थी �ौगुनी �मक!ी तिनचिश में �ाँदनी।

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स�स!म-सुधा �हा सुधाक� ब�स!ा॥26॥

मधु-तिवकास में मूर्वि!ंमान-सौ दयO था।

वांचिछ!-छतिब से बनी छबीली थी मही॥

प!े-प!े में प्रफुल्ल!ा थी भ�ी।

वन में न!Oन तिवमुग्ध!ा थी क� �ही॥27॥

समय सुना!ा वह उ मादक-�ाग था।

जिजसमें अभिभमंतित्र!-�समय-2व� थ ेभ�े॥

भव-हृत्तांत्री के चिछड़!े वे !ा� थे।

जिजनकी ध्वतिन सुन हो!े सूखे-!रु ह�े॥28॥

सौ�भ में थी ऐसी व्यापक-भूरि�!ा।

!न वाले तिनज !न-सुष्टिध जा!े भूल थे॥

मोहक!ा-iाली हरि�याली थी चिलये।

फूले नहीं समा!े फूले फूल थे॥29॥

शान्ति !-तिनके!न के सु द�-उद्यान में।

जनक-नजि दनी सु!ों-सतिह! थीं र्घूम!ी॥

उ हें दिदखा!ी थीं कुसुमावचिल की छटा।

बा�-बा� उनके मुख को थीं �ूम!ी॥30॥

था प्रभा! का समय दिदवस-मभिण-दिदव्य!ा।

अवनी!ल को ज्योति!मOय थी क� �ही॥

आसिलंगन क� तिवटप, ल!ा, !ृण, आदिदका।

कान्ति !मय-तिक�ण कानन में थी भ� �ही॥31॥

युगल-सुअन थ ेपाँ� साल के हो �ले।

उ हें बना!ी थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥

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कभी ति!ति!चिलयों के पीछे वे दौड़!े।

कभी तिकलक!े सुन कोतिकल की काकली॥32॥

ठुमुक-ठुमुक �ल तिकसी फूल के पास जा।

तिवहँस तिवहँस थ े!ु!ली-वाणी बोल!े॥

टूटी-फूटी तिनज पदावली में उमग।

बा�-बा� थ ेस�स-सुधा�स र्घोल!े॥33॥

दिदखा-दिदखा क� श्याम-र्घटा की तिप्रय-छटा।

दोनों-सुअनों से यह कह!ीं मतिह-सु!ा॥

ऐसे ही श्यामावदा! कमनीय-!न।

प्या�े पुत्रों !ुम लोगों के हैं तिप!ा॥34॥

कह!ीं कभी तिवलोक गुलाब प्रसून की।

बहु-तिवमुग्ध-कारि�णी तिवचि�त्र-प्रफुल्ल!ा॥

हैं ऐसे ही तिवक�-बदन �र्घुवंश-मभिण।

ऐसी ही है उनमें महा-मनोज्ञ!ा॥35॥

नाम ब!ाक� कु द, यूचिथका आदिद का।

दिदखा रुचि��!ा कुसुम शे्व!-अवदा! की॥

कह!ीं ऐसी ही है कीर्वि!ं समुज्ज्वला।

!ुम दोनों तिप्रय-भ्रा!ाओं के !ा! की॥36॥

लोक-�ंजिजनी ललाम!ा से लाचिल!ा।

दिदखा जपा सुमनावचिल की तिप्रय-लाचिलमा॥

कह!ी थीं यह, !ुम दोनों के जनक की।

ऐसी ही अनु�चि- है �तिह! काचिलमा॥37॥

हरि�!-नवल-दल में दिदखला अंगजों को।

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पीले-पीले कुसुमों की व� तिवक�!ा॥

कह!ी यह थीं ऐसा ही पति!-देव के।

श्यामल-!न प� पी!ाम्ब� है तिवलस!ा॥38॥

इस प्रका� जब जनक-नजि दनी सु!ों को।

आनजि द! क� पति!-गुण-गण थीं गा �ही॥

�ीb-�ीb क� उनके बाल-तिवनोद प�।

तिनज-व�नों से जब थीं उ हें रि�bा �ही॥39॥

उसी समय तिवज्ञानव!ी आक� वहाँ।

चिशशु-लीलायें अवलोकन क�ने लगी॥

�मणी-सुलभ-2वभाव के वशीभू! हो।

उनके अनु�ंजन के �ंगों में �ँगी॥40॥

यह थी तिवदुषी-ब्रह्म�ारि�णी प्रायश:।

ष्टिमल!ी �ह!ी थी अवनी-नजि दनी से॥

!कO -तिव!कO उठा बहु-बा!ें-तिह!क�ी।

सीखा क�!ी थी सत्पथ-संतिगनी से॥41॥

आया देख उसे साद� मतिहसु!ा ने।

बैठाला तिफ� सत्यव!ी से यह कहा॥

आप कृपा क� लव-कुश को अवलोतिकये।

अब न मुbे अवस� बहलाने का �हा॥42॥

समाग!ा के पास बैठक� जनकजा।

बोलीं कैसे आज आप आईं यहाँ॥

मुसकाक� तिवज्ञानव!ी ने यह कहा।

उठने प� कुछ !कO औ� जाऊँ कहाँ॥43॥

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देतिव! आत्म-सुख ही प्रधान है तिवश्व में।

तिकसे आत्म-गौ�व अति!शय प्या�ा नहीं॥

2वाथO सवO-जन-जीवन का सवO2व है।

है तिह!-ज्योति!-�तिह! अ !� !ा�ा नहीं॥44॥

भिभन्न-प्रकृति! से कभी प्रकृति! ष्टिमल!ी नहीं।

अहंभाव है परि�पूरि�! संसा� में॥

काम, क्रोध, मद, लोभ, 2व� है भ�ा।

प्राभिण मात्र के हृत्तांत्री के !ा� में॥45॥

है तिववाह-बंधन ऐसा बंधन नहीं।

2वाभातिवक!ा जिजसे !ोड़ पा!ी नहीं॥

तिवतिवध-परि�ज्जिस्थति!याँ हैं ऐसी बलव!ी।

जिजससे मुँह चि�!वृभित्त मोड़ पा!ी नहीं॥46॥

कृतित्रम!ा है उस कंुbदिटका-सदृश जो।

नहीं ठह� पा!ी तिवभेद-�तिवक� प�स॥

उससे कलुतिष! हो!ी �ह!ी है सुरुचि�।

अस�स बन!ा �ह!ा है मानस-स�स॥47॥

है सच्चा-व्यवहा� शुचि�-हृदय का तिवभव।

प्रीति!-प्र!ीति!-तिनके! प�स्प�!ा-अयन॥

उ� की गं्रचिथ तिवमो�न में समष्टिधक-तिनपुण।

प�म-भव्य-मानस सद्भावों का भवन॥48॥

कृतित्रम!ा है कपट कुदिटल!ा सह��ी।

मंजुल-मानस!ा की है अवमानना॥

सहज-सदाशय!ा पद-पूजन त्यागक�।

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यह है क�!ी प्रवं�ना की अ�Oना॥49॥

तिक !ु देख!ी हूँ मैं यह बहु-र्घ�ों में।

सदा��ण से अ यथा��ण है अष्टिधक॥

कभी-कभी सुख-चिलप्सादिदक से बचिल! चि�!।

सत्प्रवृभित्त-हरि�णी का बन!ा है बष्टिधक॥50॥

भव-मंगल-कामना !था ज्जिस्थति!-हे!ु से।

न�-ना�ी का तिनयति! ने तिकया है सृजन॥

हैं अपूणO दोनों प� उनको पूणO!ा।

है प्रदान क�!ा दोनों का सन्धिम्मलन॥51॥

प्राणी में ही नहीं, !ृणों !क में यही।

अटल व्यवस्था दिदखला!ी है स्थातिप!ा॥

जो ब!ला!ी है तिवष्टिध-तिनयम-अवाधा!ा।

अनुल्लंर्घनीय!ा !था कृ!कायO!ा॥52॥

यदिद यथेच्छ आहा�-तिवहा�-उपे! हो।

न� ना�ी जीवन, !ो होगी अष्टिधक!ा-

पशु-प्रवृभित्त की, औ उचंृ्छखल!ा बढे।

होवेगी दुदOशा-मर्दिदं!ा-मनुज!ा॥53॥

पशु-पक्षी के जोडे़ भी हैं दीख!े।

वे भी हैं दाम्पत्य-बन्धनों में बँधो॥

वांछनीय है न�-ना�ी की युग्म!ा।

सा�े-म त्र इसी साधन से ही सधो॥54॥

इसीचिलए है तिवष्टिध-तिववाह की पू!!म।

तिनगमागम द्वा�ा है वह प्रति!पादिद!ा॥

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है तिद्वतिवधा ह�!ी क� सुतिवधा का सृजन।

वह दे, वसुधा को दिदव जैसी दिदव्य!ा॥55॥

जिजससे हो!े एक हैं ष्टिमले दो हृदय।

स�स-सुधा-धा�ायें सदनों में बहीं॥

भूष्टिम-मान बन!े हैं जिजससे भुवन-जन।

वह तिवधान अभिभनजि द! होगा क्यों नहीं॥56॥

कुल, कुटुम्ब, गृह जिजससे है बहु-गौ�तिव!।

सामाजिजक!ा है जिजससे सम्मातिन!ा॥

महनीया जिजससे मानव!ा हो सकी।

क्यों न बनेगी प्रचिथ! प्रथा वह आदिद्र!ा॥57॥

तिक !ु प्रश्न यह है प्राय: जो तिवषम!ा।

हो!ी �ह!ी है मानचिसक-प्रवृभित्त में॥

भ्रम, प्रमाद अथवा सुख-चिलप्सा आदिद से।

कैसे वह न र्घुसे दम्पति!-अनु�चि- में॥58॥

पति!-देव!ा हुई हैं होंगी औ� हैं।

तिक !ु सदा उनकी संख्या थोड़ी �ही॥

ष्टिमलीं अष्टिधक!� सांसारि�क!ा में सधी।

तिक!नी क�!ी हैं कृतित्रम!ा की कही॥59॥

मुbे ज्ञा! है, है गुण-दोषमयी-प्रकृति!।

तिक !ु क्यों न उ� में वे धा�ायें बहें॥

सकल-तिवषम!ाओं को जिजनसे दू�क�।

हो!े भिभन्न अभिभन्न-हृदय दम्पति! �हें॥60॥

तिकसी काल में क्या ऐसा होगा नहीं।

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क्या इ!नी मह!ी न बनेगी मनुज!ा॥

सदन-सदन जिजससे बन जाये सु�-सदन।

क्या बुध-वृ द न देंगे ऐसी तिवष्टिध ब!ा॥61॥

अति!-पावन-बन्धन में जो तिवष्टिध से बँधो।

क्यों उनमें न प्र!ीति!-प्रीति! भ�पू� हो॥

देतिव आप ममOज्ञ हैं ब!ायें मुbे।

क्यों दुभाOव-दुरि�! दम्पति! का दू� हो॥62॥

कहा जनकजा ने मैं तिवबुधो आपको।

क्या ब!लाऊँ आप क्या नहीं जान!ीं॥

यह उदा�!ा, सहृदय!ा है आपकी।

जो 2वतिवषय-ममOज्ञ मुbे हैं मान!ी॥63॥

देख प्रकृति! की कुज्जित्स!-कृति!यों को दुत्किख!।

मैं भी वैसी ही हूँ जैसी आप हैं॥

तिकसको �ोमांचि�! क�!े हैं वे नहीं।

भव में भ�े हुए जिज!ने सं!ाप हैं॥64॥

इस प्रका� के भी कति!पय-मति!मान हैं।

जो दुख में क�!े हैं सुख की कल्पना॥

अनतिह! में भी जो तिह! हैं अवलोक!े।

औ�ों के कहने को कहक� जल्पना॥65॥

जो हो, प� परि�!ाप तिकसे हैं छोड़!े।

है तिवiम्बना तिवष्टिध की बड़ी-बलीयसी॥

चि�न्ति !! तिव�चिल! बा�-बा� बहु आकुचिल!।

तिकसे नहीं क�!ी प्रवृभित्त-पापीयसी॥66॥

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तिवबुध-वृ द ने क्या ब!लाया है नहीं।

तिनगमागम में सब तिवभूति!याँ हैं भ�ी॥

तिक !ु पड़ प्रकृति! औ� परि�ज्जिस्थति!-लह� में।

कुमति!-स�ी में है iूब!ी सुमति!-स�ी॥67॥

सा�े-मनोतिवका� हृदय के भाव सब।

इजि द्रय के व्यापा� आत्मतिह!-भावना॥

सुख-चिलप्सा गौ�व-मम!ा मानस्पृहा।

2वाथO-चिसत्किध्द-रुचि� इH-प्रान्तिप्! की कामना॥68॥

व� ना�ी में हैं समान, अनुभूति! भी-

इसीचिलए प्राय: उनकी है एक सी॥

कब तिकसका कैसा हो!ा परि�णाम है।

क्या वश में है औ तिकसमें है बेबसी॥69॥

क्यों उलbी-बा!ें भी जा!ी हैं सुलb।

कैसे कब जी में पड़ जा!ी गाँठ है॥

ह�ा-भ�ा कैसे �ह!ा है हृदय-!रु।

कैसे मन बन जा!ा उकठा-काठ है॥70॥

कैसे अ !2!ल-नभ में उठ पे्रम र्घन।

जीवन-दायक बन!ा है जीवन ब�स॥

मेल-जोल !न क्यों हो!ा तिनज�व है।

मनोमचिलन!ा रूपी �पला को प�स॥71॥

कैसे अमधु� कहला!ा है मधु�!म।

कैसे अस�स बन जा!ा है स�स-चि�!॥

क्यों अकचिल! लग!ा है सोने का सदन।

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कुसुम-सेज कैसे हो!ी है कंटतिक!॥72॥

अवगुण-!ा�क-�य-परि�दशOन के चिलए।

क्यों मति! बन जा!ी है नभ!ल-नीचिलमा॥

जा!ी है प्रति!कूल-काचिलमा से बदल।

क्यों अनु�ाग-�ँगी-ऑंखों की लाचिलमा॥73॥

क्यों अप्रीति! पा जा!ी है उसमें जगह।

जो उ�-प्रीति!-तिनके!न था जाना गया॥

कैसे कटु बन!ा है वह मधुमय-व�न।

कणO-�सायन जिजसको था माना गया॥74॥

जो हो!े यह बोध जान!े ममO सब।

दम्पति! को अ यथा��ण से प्रीति! हो॥

!ो यह है अति!-ममO-वेष्टिधनी आपदा।

क्या तिवचि�त्र! दुन�ति! यदिद भरि�!-भीति! हो॥75॥

जो न� ना�ी एक सूत्र में बध्द हैं।

जिजनका जीवन भ� का तिप्रय-सम्बन्ध है॥

जो समाज के सम्मुख सतिद्वष्टिध से बँधो।

जिजनका ष्टिमलन तिनयति! का पू!-प्रबंधा है॥76॥

उन दोनों के हृदय न जो होवें ष्टिमले।

एक-दूस�े प� न अग� उत्सगO हो॥

सुख में दुख में जो हो प्रीति! न एक सी।

2वगO सा सुखद जो न युगल-संसगO हो॥77॥

!ो इससे बढ़क� दुष्कृति! है कौन सी।

पडे़गा कलेजा सत्कृति! को थामना॥

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हुए सभ्य!ा-दुगOति! पशु!ा क�ों से।

होगी मानव!ा की अति!-अवमानना॥78॥

प्रकृति!-भिभन्न!ा क�!ी है प्रति!कूल!ा।

भ्रम, प्रमादिद आदिदक तिवहीन मन है नहीं॥

कहीं अज्ञ!ा बहँक बना!ी है तिववश।

मति!-मलीन!ा है तिवपभित्त ढा!ी कहीं॥79॥

है प्रवृभित्त न� ना�ी की तित्रगुणान्धित्मका।

सब में स!, �ज, !म, सत्ता है सम नहीं॥

इनकी मात्र में हो!ी है भिभन्न!ा।

देश काल औ� पात्रा-भेद है कम नहीं॥80॥

अ !�ाय ए साधन हैं ऐसे सबल।

जो प्राणी को हैं प�ड़ों में iाल!े॥

पं�-भू! भी अल्प प्रपं�ी हैं नहीं।

वे भी कब हैं !म में दीपक बाल!े॥81॥

ऐसे अवस� प� प्राणी को बन प्रबल।

आत्म-शचि- की शचि- दिदखाना �ातिहए॥

सत्प्रवृभित्त से दुष्प्रवृभित्तयों को दबा।

!म में अ !ज्योति!-जगाना �ातिहए॥82॥

सत्य है, प्रकृति! हो!ी है अति!-बलव!ी।

तिक !ु आन्धित्मक-सत्ता है उससे सबल॥

भौति!क!ा यदिद क�े भू!पन भू! बन।

क्यों न उसे आध्यान्धित्मक!ा !ो दे मसल॥83॥

जिजसमें सा�ी-सुख-चिलप्सायें हों भ�ी।

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जो प�ष्टिम! होवे आहा�-तिवहा� !क॥

उस प्रसून के ऐसा है !ो पे्रम वह।

जिजसमें ष्टिमले न रूप न �ंग न !ो महँक॥84॥

जिजसमें लाग नहीं लग!ी है लगन की।

जिजसमें iटक� पे्रम ने न ऑं�ें सहीं॥

जिजसमें सह सह साँस!ें न ज्जिस्थ�!ा �ही।

कह!े हैं दाम्पत्य-धमO उसको नहीं॥85॥

जहाँ पे्रम सा दिदव्य-दिदवाक� है उदिद!।

कैसे दिदखालायेगा !ामस-!म वही॥

दम्पति! को !ो दम्पति! कोई क्यों कहे।

जिजसमें है दाम्पत्य-दिदव्य!ा ही नहीं॥86॥

तिनज-प्रवाह में बहा अपावन-वृभित्तयाँ।

जो न पे्रम धा�ायें उ� में हों बही॥

!ो दम्पति! की तिह!-तिवधाष्टियनी वासना।

पायेगी सु�-सरि�!ा-पावन!ा नहीं॥87॥

जिजसे !�ंतिग! क�!ा �ह!ा है सदा।

मंजु सन्धिम्मलन-शी!ल-मृदुगामी अतिनल॥

त्किखले ष्टिमले जिजसमें सद्भावों के कमल।

है दम्पति! का पे्रम वह स�ोव�-सचिलल॥88॥

उसमें है साभित्तवक-प्रवृभित्त-सुमनावली।

उसमें सु�!रु सा तिवलचिस! भव-के्षम है॥

सकल-लोक अभिभन दन-सुख-सौ�भ-भरि�!।

न दन-वन सा अनुपम दम्पति!-पे्रम है॥89॥

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है सु द�-साधना कामना-पूर्वि!ं की।

भ�ी हुई है उसमें शुचि�-तिह!कारि�!ा॥

है तिवधाष्टियनी तिवष्टिध-संग! व�-भूति! की।

कल्प!ा सी दम्पति! की सहकारि�!ा॥90॥

है सद्भाव समूह ध�ा!ल के चिलए।

सवO-काल से�न-�! पावस का जलद॥

फूला-फला मनोज्ञ कामप्रद का !-!न।

है दम्पति! का पे्रम कल्प!रु सा फलद॥91॥

है तिवभिभन्न!ा की ह�!ी उद्भावना।

�हने दे!ी नहीं अका !-अनेक!ा॥

है पयस्वि2वनी-सदृश प्रकृ!-प्रति!पाचिलका।

कामधोनु-कामद है दम्पति!-एक!ा॥92॥

पू!-कलेव� दिदव्य-देव!ों के सदृश।

भूरि�-भव्य-भावों का अनुपम-ओक है॥

व�-तिववेक से सु�गुरु जिजसमें हैं लसे।

दम्पति!-पे्रम प�म-पुनी! सु�लोक है॥93॥

मृदुल-उपादानों से बतिन!ा है �चि�!।

हैं उसके सब अंग बडे़-कोमल बने॥

इसीचिलए है कोमल उसका हृदय भी।

उसके कोमल-व�न सुधा में हैं सने॥94॥

पुरुष अकोमल-उपादान से है बना।

इसीचिलए है उसे ष्टिमली दृढ़-चि�त्त!ा॥

बiे-पुH हो!े हैं उसके अंग भी।

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उसमें बल की भी हो!ी है अष्टिधक!ा॥95॥

जैसी ही जननी की कोमल-हृदय!ा।

है अभिभलतिष!ा है जन-जीवनदाष्टियनी॥

वैसी ही पा!ा की बलवत्ता !था।

दृढ़!ा है वांचिछ!, है तिवभव-तिवधाष्टियनी॥96॥

है दाम्पत्य-तिवधान इसी तिवष्टिध में बँधा।

दोनों का सहयोग प�स्प� है ग्रचिथ!॥

जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष।

!ो कुल-बाला मूर्वि!ं-शान्ति ! की है कचिथ!॥97॥

अप�-अंग क�!ा है पीतिड़!-अंग-तिह!।

जो यह मति! �ह सकी नहीं चि��-संतिगनी॥

कहाँ पुरुष में !ो पौरुष पाया गया।

कहाँ बन सकी बतिन!ा !ो अधाeतिगनी॥98॥

तिकसी समय अवलोक पुरुष की परुष!ा।

कोमल!ा से काम न जो लेवे तिप्रया॥

कहाँ बनी !ो 2वाभातिवक!ा-सह��ी।

काम मृदुल-उ� ने न मृदुल!ा से चिलया॥99॥

�स तिवहीन जिजसको कहक� �सना बने।

ऐसी नी�स बा!ें क्यों जायें कही॥

का ! के चिलए यदिद वे कड़वे बन गए।

का !-व�न में !ो का !!ा कहाँ �ही॥100॥

जिजस प� स�स ब�स जाने ही के चिलए।

कोमल से भी कोमल कचिल!-कुसुम बने॥

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उसको तिकसी तिवचिशख से बन वे क्यों लगें।

�हे व�न जो सदा सुधा�स में सने॥101॥

अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृभित्त हो।

बड़ी �ूक है उसे नहीं जो �ोक!ी॥

कोई कोमल-हृदया तिप्रय!म को कभी।

कड़ी ऑंख से कैसे है अवलोक!ी॥102॥

जो न कhठ हो सकी पुनी!-गुणावली।

क्यों पा!ी न प्रवृभित्त कलहतिप्रय!ा प!ा॥

जो कटूचि- के चिलए हुई उत्कhठ !ो।

क्यों कलंतिक!ा बनेगी न कल-कंठ!ा॥103॥

पह�ाने पति! के पद को मुँह से कभी।

तिनकल नहीं पा!ी अपुनी!-पदावली॥

सहज-मधु�!ा मानस के त्यागे तिबना।

अमधु� बन!ी नहीं मधु�-व�नावली॥104॥

है कठो�!ा, काठ चिशला से भी कदिठन।

क्यों न पे्रम-धा�ायें ही उनमें बहें॥

कोमल हैं !ो बनें अकोमल तिकसचिलए।

क्यों न कलेजे बने कलेजे ही �हें॥105॥

जिजसमें है न सहानुभूति!-ममOज्ञ!ा।

सदा नहीं हो!ा जो यथा-समय-सदय॥

जिजसमें है न हृदय-धन की मम!ा भ�ी।

हृदय कहायेगा !ो कैसे वह हृदय॥106॥

क्या गरि�मा है रूप, �ंग, गुण आदिद की।

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क्या इस भूति!-भरि�!-भूमध्य तिनज2व है॥

जो उत्सगO न उस प� जीवन हो सका।

जो इस जग!ी में जीवन-सवO2व है॥107॥

अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है।

सबसे अष्टिधक उसी प� जिजसका प्या� है॥

वह पति!!ा है जो उससे है उलb!ी।

जिजस पति! का !न, मन, धन प� अष्टिधका� है॥108॥

�ूक उसी की है जो वल्लभ!ा दिदखा।

हृदय-वल्लभा का पद पा जा!ी नहीं॥

प्राणनाथ !ो प्राणनाथ कैसे बनें।

पति!प्राणा यदिद पत्नी बन पा!ी नहीं॥109॥

पढ़ !दीय!ा-पाठ भेद को भूल क�।

सत्य-भाव से पू!-पे्रम-प्याला तिपये॥

बन जा!ी हैं जीतिव!ेश्व�ी पन्धित्नयाँ।

जीवनधन को जीवनधन अर्विपं! तिकये॥110॥

भाग्यव!ी वह है भ� साभित्तवक-भूति! से।

भचि--बीज जो प्रीति!-भूष्टिम में बो सकी॥

वह सहृदय!ा है सहृदय!ा ही नहीं।

जो न समर्विपं! हृदयेश्व� को हो सकी॥111॥

पूजन क� सद्भाव-समूह-प्रसून से।

जगा आ�!ी सत्कृति! की बन सदव््र!ा॥

दिदव्य भावना बल से पाक� दिदव्य!ा।

देवी का पद पा!ी है पति!-देव!ा॥112॥

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वहन क� स�स-सौ�भ संय!-भाव का।

जो स�ोजिजनी सी हो भव-स� में त्किखली॥

वही स!ी है शुचि�-प्र!ीति! से पूरि�!ा।

जिजसे पति!-प�ायण!ा पू�ी हो ष्टिमली॥113॥

उसका अष्टिधका�ी है सबसे अष्टिधक पति!।

सो� यह 2वकृति! की क�!ी जो पूर्वि!ं हो॥

पति!व्र!ा का पद पा सक!ी है वही।

जीतिव!ेश तिह! की जो जीतिव! मूर्वि!ं हो॥114॥

सहज-स�ल!ा, शुचि�!ा, मृदु!ा सदय!ा-

आदिद दिदव्य गुण द्वा�ा जो हो ऊर्जिजं!ा॥

प्रीति! सतिह! जो पति!-पद को है पूज!ी।

भव में हो!ी है वह पत्नी पूजिज!ा॥115॥

लंका में मे�ा जिजन दिदनों तिनवास था।

वहाँ तिवलोकी जो दाम्पत्य-तिवiम्बना॥

उसका ही परि�णाम �ाज्य-तिवध्वंस था।

भयंक�ी है संयम की अवमानना॥116॥

हो!ा है यह उचि�! तिक जब दम्पति! त्किखजें।

सूत्रपा! जब अनबन का होने लगे॥

उसी समय हो सावधन संय! बनें।

कलह-बीज जब तिबगड़ा मन बोने लगे॥117॥

यदिद �ं�ल!ा पत्नी दिदखलाये अष्टिधक।

पति! !ो कभी नहीं त्यागे गम्भी�!ा॥

उग्र हुए पति! के पत्नी कोमल बने।

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हो अधी� कोई भी !ज ेन धी�!ा॥118॥

!पे हुए की शी!ल!ा है औषष्टिध।

सहनशील!ा कुल कलहों की है दवा॥

शा !-चि�त्त!ा का अवलम्बन ष्टिमल गये।

प्रकृति!-भिभन्न!ा भी हो जा!ी है हवा॥119॥

कोई प्राणी दोष-�तिह! हो!ा नहीं।

तिक!नी दुबOल!ायें उसमें हैं भ�ी॥

तिक !ु सुधा�े सब बा!ें हैं सुध�!ी।

भलाइयों ने सब बु�ाइयाँ हैं ह�ी॥120॥

सभी उलbनें सुलbायें हैं सुलb!ी।

गाँठ iालने प� पड़ जा!ी गाँठ है॥

�स के �खने से ही �स �ह सका है।

ह�ा भ�ा कब हो!ा उकठा-काठ है॥121॥

मयाOदा, कुल-शील, लोक-लCा !था।

क्षमा, दया, सभ्य!ा, चिशH!ा, स�ल!ा॥

कटु को मधु� स�स!म अस�स को बना।

हैं कठो� उ� में भ� दे!ी !�ल!ा॥122॥

मधु�-भाव से कोमल-!म-व्यवहा� से।

पशु-पक्षी भी हो जा!े अधीन हैं॥

अनतिह! तिह! बन!े 2वकीय प�कीय हैं।

क्यों न ष्टिमलेंगे दम्पति! जो जलमीन हैं॥123॥

क्यों न दू� हो जाएगी मन मचिलन!ा।

क्यों न तिनकल जाएगी कुल जी कीकस�॥

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क्यों न गाँठ खुल जाएगी जी में पड़ी।

पडे़ अग� दम्पति! का दम्पति! प� अस�॥124॥

जिजन दोनों का सबसे तिप्रय-सम्बन्ध है।

जो दोनों हैं एक दूस�े से ष्टिमले॥

एक वृ ! के दो अति! सु द�-सुमन-सम।

एक �ंग में �ँग जो दोनों हैं त्किखले॥125॥

ऐसा तिप्रय-सम्बन्ध अल्प-अ !� हुए।

भ्रम-प्रमाद में पडे़ टूट पा!ा नहीं॥

2नेहक�ों से जो बन्धन है बँधा, वह-

खीं�-!ान कुछ हुए छूट जा!ा नहीं॥126॥

तिक !ु �ोग इजि द्रय-लोलुप!ा का बढे़।

पडे़ आत्मसुख के प्रपं� में अष्टिधक!�॥

हो!ी है पशु!ा-प्रवृभित्त की प्रबल!ा।

जा!ी है उ� में भौति!क!ा-भूति! भ�॥127॥

लंका में भौति!क!ा का साम्राज्य था।

था तिववाह का बन्धन, तिक !ु अप्रीति!क�॥

तिनत्य वहाँ हो!ा 2वच्छ द-तिवहा� था।

था तिवलाचिस!ा नग्न-नृत्य ही रुचि�� !�॥128॥

कलह कपट-व्यवहा� कु-कौशल क�ों से।

बहु-सदनों के सुख जा!े थ ेचिछन वहाँ॥

हो!ा �ह!ा था साधा�ण बा! से।

पति!-पत्नी का परि�त्याग प्रति!-दिदन वहाँ॥129॥

अहंभाव दुभाOव !था दुवाOसना।

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उसे !ोड़ दे!ी थी पति!!-प्रवं�ना॥

ऐं�ा !ानी हुई तिक वह टूटा नहीं।

कच्चा धागा था तिववाह-बन्धन बना॥130॥

उस अभातिगनी की अशान्ति ! को क्याकहें।

जिजसे शान्ति ! पति!-परि�वत्तOन ने भी न दी॥

हो!ी है वह तिवतिवध-य त्राणाओं भ�ी।

इसीचिलए !ृष्णा है वै!�णी नदी॥131॥

न�क ओ� जा!ी थीं प� वे सो�!ीं।

उ हें लग गया 2वगO-लोक का है प!ा॥

दु�ा�ा� ही सदा�ा� था बन गया।

2व! त्र!ा थी ष्टिमली !जे प�! त्र!ा॥132॥

था बनाव-श्रृंगा� उ हें भा!ा बहु!।

!न को सज उनका मन था �ौ�व बना॥

उचंृ्छखल!ा की थीं वे अति!-पे्रष्टिमका।

उसी में ��म-सुख की थी तिप्रय-कल्पना॥133॥

इH-प्रान्तिप्! थी 2वाथO-चिसत्किध्द उनके चिलए।

थी कदथOना से पूरि�!ा-प�ाथO!ा॥

पुhय-काय� में थी बड़ी-तिवiम्बना।

पाप-कमाना थी जीवन-�रि�!ाथO!ा॥134॥

बहु-वेशों में परि�ण! क�!ी थी उ हें।

पुरुषों को वश में क�ने की कामना॥

पापीयसी-प्रवृभित्त-पूर्वि!ं के चिलए वे।

क�!ी थीं तिवक�ाल-काल का सामना॥135॥

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थोड़ी भी प�वाह कलंकों की न क�।

लगा काचिलमा के मुँह में भी काचिलमा॥

लालन क� लालसामयी-कुप्रवृभित्त का॥

वे �ख!ी थीं अपने मुख की लाचिलमा॥136॥

इजि द्रय-लोलुप!ा थी �ग-�ग में भ�ी।

था तिवलास का भाव हृदय-!ल में जमा॥

�ोमांचि�!क� उनकी पाप-प्रवृभित्त थी।

मनमानापन �ोम-�ोम में था �मा॥137॥

पुरुष भी इ हीं �ंगों में ही थ े�ँगे।

प� कठो�!ा की थी उनमें अष्टिधक!ा॥

जो प्रवं�ना में प्रवीण थीं �मभिणयाँ।

!ो उनकी तिवष्टिध-हीन-नीति! थी बष्टिधक!ा॥138॥

नहीं पाशतिवक!ा का ही आष्टिधक्य था।

निहंसा, प्रति!-निहंसा भी थी प्रबला बनी॥

प्राय: पापा�ा�-बाधाकों के चिलए।

पापा�ा�ी की उठ!ी थी !जOनी॥139॥

बने कलंकी कुल !ो उनकी बला से।

लोक-लाज की प�वा भी उनको न थी॥

जैसा �ाजा था वैसी ही प्रजा थी।

ईश्व� की भी भीति! कभी उनको न थी॥140॥

इ हीं पापमय कम� के अति!�ेक से।

ध्वंस हुई कं�न-तिव�चि�!-लंकापु�ी॥

जिजससे कन्धिम्प! हो!े सदा सु�ेश थे।

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धूल में ष्टिमली प्रबल-शचि- वह आसु�ी॥141॥

प्राणी के अयथा-आहा�-तिवहा� से।

उसकी प्रकृति! कुतिप! होक� जैसे उसे-

दे!ी है बहु-दhi रुजादिदक-रूप में।

वैसे ही सब कह!े हैं जनपद जिजसे॥142॥

वह �लक� प्रति!कूल तिनयति! के तिनयमके।

भव-व्यातिपनी प्रकृति! के प्रबल-प्रकोप से॥

कभी नहीं ब�!ा हो!ा तिवध्वंस है।

वैसे ही जैसे !म दिदनक� ओप से॥143॥

लंका की दुगOति! दाम्पत्य-तिवiम्बना।

मुbे आज भी क�!ी �ह!ी है व्यचिथ!॥

हुए याद उसकी हो!ा �ोमां� है।

प� वह है प्राकृति!क-गूढ़!ा से ग्रचिथ!॥144॥

है अभिभनजि द! नहीं साभित्तवकी-प्रकृति! से।

है पति!-पत्नी त्याग प�म-तिनजि द!-तिक्रया॥

ष्टिमले दो हृदय कैसे होवेंगे अलग।

अतिप्रय-कमO क�ेंगे कैसे तिप्रय-तिप्रया॥145॥

वा2!व!ा यह है, जब पति!!-प्रवृभित्तयाँ।

कुज्जित्स!-चिलप्सा दुव्यसनों से हो प्रबल॥

इजि द्रय-लोलुप!ाओं के सहयोग से।

दे!ी हैं सब-साभित्तवक भावों को कु�ल॥146॥

!भी सष्टिमष हो!ा तिव�ोध आ�ंभ है।

जो दम्पति! हृदयों में क�!ा छेद है॥

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जिजससे जीवन हो जा!ा है तिवषम!म।

हो!ा �ह!ा पति!-पत्नी तिवचे्छद है॥147॥

जिजसमें हो!ी है उचंृ्छखल!ा भ�ी।

जो पाम�!ा कटु!ा का आधा� हो॥

जिजसमें हो निहंसा प्रति!-निहंसा अधम!ा।

जिजसमें प्या� बना �ह!ा व्यापा� हो॥148॥

क्या वह जीवन क्या उसका आन द है।

क्या उसका सुख क्या उसका आमोद है॥

तिक !ु प्रकृति! भी !ो है वैचि�त्रयों भ�ी।

मल-कीटक मल ही में पा!ा मोद है॥149॥

यह भौति!क!ा की है बड़ी तिवiम्बना।

इससे हो!ा प्राभिण-पंुज का है प!न॥

लंका से जनपद हो!े तिवध्वंस हैं।

मरु बन जा!ा है न दन सा दिदव्य-वन॥150॥

उदा�!ा से भ�ी सदाशय!ा-�!ा।

सद्भावों से भौति!क!ा की बाष्टिधका॥

पुhयमयी पावन!ा भरि�!ा सदव््र!ा।

आध्यान्धित्मक!ा ही है भव-तिह!-साष्टिधका॥151॥

यदिद भौति!क!ा है अति!-2वाथO-प�ायणा।

आध्यान्धित्मक!ा आत्मत्याग की मूर्वि!ं है॥

यदिद भौति!क!ा है तिवलाचिस!ा से भ�ी।

आध्यान्धित्मक!ा सदा�ारि�!ा पूर्वि!ं है॥152॥

यदिद उसमें है प�-दुख-का!�!ा नहीं।

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!ो इसमें है करुणा स�स प्रवातिह!ा॥

यदिद उसमें है !ामस-वृभित्त अमा-समा।

!ो इसकी है सत्प्रवृभित्त-�ाकाचिस!ा॥153॥

यदिद भौति!क!ा दानवीय-सम्पभित्त है।

!ो आध्यान्धित्मक!ा दैतिवक-सुतिवभूति! है॥

यदिद उसमें है ना�कीय-कटु-कल्पना॥

!ो इसमें 2वग�य-स�स-अनुभूति! है॥154॥

यदिद उमसें है लेश भी नहीं शील का।

!ो इसका जन-सहानुभूति! तिनज2व है॥

यदिद उसमें है भ�ी हुई उदं्दi!ा।

सहनशील!ा !ो इसका सवO2व है॥155॥

यदिद वह है कृतित्रम!ा कल छल से भ�ी।

!ो यह है साभित्तवक!ा-शुचि�!ा-पूरि�!ा॥

यदिद उसमें दुगुOण का ही अति!�ेक है।

!ो इसमें है दिदव्य-गुणों की भूरि�!ा॥156॥

यदिद उसमें पशु!ा की प्रबल-प्रवृभित्त है।

!ो इसमें मानव!ा की अभिभव्यचि- है॥

भौति!क!ा में यदिद है जड़!ावादिद!ा।

आध्यान्धित्मक!ा मध्य चि� मयी-शचि- है॥157॥

भौति!क!ा है भव के भावों में भ�ी।

औ� प्रपं�ी पं�भू! भी हैं न कम॥

कहाँ तिकसी का कब छूटा इनसे गला।

तिक !ु श्रेय-पथ अवलम्बन है श्रेष्ठ!म॥158॥

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न�-ना�ी तिनदष हो सकें गे नहीं।

भौति!क!ा उनमें भ�!ी ही �हेगी॥

आपके सदृश मैं भी इससे व्यचिथ! हूँ।

तिक !ु यही मानव!ा-मम!ा कहेगी॥159॥

आध्यान्धित्मक!ा का प्र�ा� क!Oव्य है।

जिजससे यथा-समय भव का तिह! हो सके॥

आप इसी पथ की पचिथका हैं, तिवनय है।

पाँव आप का कभी न इस पथ में थके॥160॥

दोहा

तिवदा मतिह-सु!ा से हुई उ हें मान महनीय।

सुन तिवज्ञानव!ी सरुचि� कथन-प�म-कमनीय॥161॥