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स्वामी विवेकानंद और सांड से टकराव | प्रेरक प्रसंग : स्वामी विवेकानंद | Great Moral

एक घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक दिन एक अंगरेज मित्र तथा कु. मूलर के साथ वे किसी मैदान में टहल रहे थे। उसी समय एक पागल सांड तेजी से उनकी ओर बढ़ने लगा। अंगरेज सज्जन अपनी जान बचाने को जल्दी से भागकर पहाड़ी के दूसरी छोर पर जा खड़े हुए। कु. मूलर भी जितना हो सका दौड़ी और फिर घबराकर भूमि पर गिर पड़ीं।

स्वामीजी ने यह सब देखा और उन्हें सहायता पहुंचाने का कोई और उपाय न देखकर वे सांड के सामने खड़े हो गए और सोचने लगे- 'चलो, अंत आ ही पहुंचा।'

बाद में उन्होंने बताया था कि उस समय उनका मन हिसाब करने में लगा हुआ था कि सांड उन्हें कितनी दूर फेंकेगा। परंतु कुछ कदम बढ़ने के बाद ही वह ठहर गया और अचानक ही अपना सिर उठाकर पीछे हटने लगा। स्वामी जी को पशु के समक्ष छोड़कर अपने कायरतापूर्ण पलायन पर वे अंग्रेज बड़े लज्जित हुए। कु.मूलर ने पूछा कि वे ऐसी खतरनाक परिस्थिति से सामना करने का साहस कैसे जुटा सके। स्वामी जी ने पत्थर के दो टुकड़े उठाकर उन्हें आपस में टकराते हुए कहा कि खतरे और मृत्यु के समक्ष वे अपने को चकमक पत्थर के समान सबल महसूस करते हैं क्योंकि मैंने ईश्वर के चरण स्पर्श किए हैं।' अपने बाल्यकाल में भी एक बार उन्होंने ऐसा ही साहस दिखाया था।

प्रेरक प्रसंग : स्वामी विवेकानंद | Great Moral Stories

भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।

उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- 'आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?'

स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही।' देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।

काम में संलग्नता | Motivational Hindi Story

गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी करके एक शिष्य अपने गुरु से विदा लेने आया। गुरु ने कहा- वत्स, यहां रहकर तुमने शास्त्रों का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया, किंतु कुछ उपयोगी शिक्षा शेष रह गई है। इसके लिए तुम मेरे साथ चलो।

शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे गुरुकुल से दूर एक खेत के पास ले गए। वहां एक किसान खेतों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य उसे गौर से देखते रहे। पर किसान ने एक बार भी उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देखा। जैसे उसे इस बात का अहसास ही न हुआ हो कि पास में कोई खड़ा भी है। 

वहां से आगे बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि एक लुहार भट्ठी में कोयला डाले उसमें लोहे को गर्म कर रहा था। लोहा लाल होता जा रहा था। लुहार अपने काम में इस कदर मगन था कि उसने गुरु-शिष्य की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। 

गुरु ने शिष्य को चलने का इशारा किया। फिर दोनों आगे बढ़े। आगे थोड़ी दूर पर एक व्यक्ति जूता बना रहा था। चमड़े को काटने, छीलने और सिलने में उसके हाथ काफी सफाई के साथ चल रहे थे। गुरु ने शिष्य को वापस चलने को कहा।

शिष्य समझ नहीं सका कि आखिर गुरु का इरादा क्या है? रास्ते में चलते हुए गुरु ने शिष्य से कहा- वत्स, मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया लेकिन व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा बाकी थी। तुमने इन तीनों को देखा। ये अपने काम में संलग्न थे। अपने काम में ऐसी ही तल्लीनता आवश्यक है, तभी व्यक्ति को सफलता मिलेगी।

दया का फल | Inspirational Short Story

अरब देश में सुबुक्तीन नामक एक बादशाह राज्य करता था । 

युवावस्था में वह एक सिपाही था ।  उसे शिकार का बहुत शौक था ।  जब भी समय मिलता वह शिकार के लिये निकल जाता ।

एक दिन शिकार की खोज में वह बहुत देर तक भटकता रहा ।  किन्तु उसे कुछ हाथ न लगा ।  निराश हुआ वह वापस लौट रहा था तो उसने देखा कि एक हिरनी अपने छोटे से बच्चे के पास खड़ी होकर उसे प्यार कर रही है ।

सुबुक्तीन को लगा खाली हाथ लौटने से तो अच्छा है कि कुछ ही हाथ लग जाये ।  वह घोड़े से उतर गया ।  हिरनी तो आहट सुनकर झाड़ियों में छिप गयी परन्तु इतना छोटा बच्चा उतनी फुर्ती नहीं दिखा पाया ।  सुबुक्तीन ने उस बच्चे को बाँधकर घोड़े पर रख लिया और चल पड़ा ।

ममता के कारण हिरनी घोड़े के पीछे पीछे चलने लगी ।  बहुत दूर जाने के बाद सुबुक्तीन ने पीछे मुड़कर देखा तो हिरनी पीछे आ रही थी ।  उसे हिरनी पर दया आ गयी और उसने बच्चे को छोड़ दिया ।  बच्चा पाकर हिरनी बहुत प्रसन्न हुई ।

उस रात सुबुक्तीन ने स्वप्न में देखा एक देवदूत उसे कह रहा है कि तूने आज एक असहाय पशु पर दया की है, इसलिये खुदा ने तेरा नाम बादशाहों की सूची में लिख दिया है । तू अवश्य एक दिन बादशाह बनेगा ।

उसका सपना सच हो गया वह उन्नति करता हुआ सैनिक से बादशाह बन गया ।

मातृ और पितृभक्त श्रवण कुमार | Hindi Mythological Stories

 

श्रवण कुमार का नाम इतिहास में मातृभक्ति और पितृभक्ति के लिए अमर रहेगा। ये कहानी उस समय की है जब महाराज दशरथ अयोध्या पर राज किया करते थे ।

बहुत समय पहले  त्रेतायुग में श्रवण कुमार नाम का एक बालक था। श्रवण के माता-पिता अंधे थे। श्रवण अपने माता-पिता को बहुत प्यार करता। उसकी माँ ने बहुत कष्ट उठाकर श्रवण को पाला था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, अपने माता-पिता के कामों में अधिक से अधिक मदद करता।

सुबह उठकर श्रवण माता-पिता के लिए नदी से पानी भरकर लाता। जंगल से लकड़ियाँ लाता। चूल्हा जलाकर खाना बनाता। माँ उसे मना करतीं-

”बेटा श्रवण, तू हमारे लिए इतनी मेहनत क्यों करता है? भोजन तो मैं बना सकती हूँ। इतना काम करके तू थक जाएगा।“

”नहीं माँ, तुम्हारे और पिता जी का काम करने में मुझे जरा भी थकान नहीं होती। मुझे आनंद मिलता है। तुम देख नहीं सकतीं। रोटी बनाते हुए, तुम्हारे हाथ जल जाएँगे।“

”हे भगवान! हमारे श्रवण जैसा बेटा हर माँ-बाप को मिले। उसे हमारा कितना खयाल है।“ माता-पिता श्रवण को आशीर्वाद देते न थकते।

श्रवण के माता-पिता रोज भगवान की पूजा करते। श्रवण उनकी पूजा के लिए फूल लाता, बैठने के लिए आसन बिछाता। माता-पिता के साथ श्रवण भी पूजा करता।

मता-पिता की सेवा करता श्रवण बड़ा होता गया। घर के काम पूरे कर, श्रवण बाहर काम करने जाता। अब उसके माता-पिता को काम नहीं करना होता।

एक दिन श्रवण के माता-पिता ने कहा-

”बेटा, तुमने हमारी सारी इच्छाएँ पूरी की हैं। अब एक इच्छा बाकी रह गई है।“

”कौन-सी इच्छा माँ? क्या चाहते हैं पिता जी? आप आज्ञा दीजिए। प्राण रहते आपकी इच्छा पूरी करूँगा।“

”हमारी उमर हो गई अब हम भगवान के भजन के लिए तीर्थ. यात्रा पर जाना चाहते हैं बेटा। शायद भगवान के चरणों में हमें शांति मिले।“

श्रवण सोच में पड़ गया। उन दिनों आज की तरह बस या रेलगाड़ियाँ नहीं थी। वे लोग ज्यादा चल भी नहीं सकते थे। माता-पिता की इच्छा कैसे पूरी करूँ, यह बात सोचते-सोचते श्रवण को एक उपाय सूझ गया। श्रवण ने दो बड़ी-बड़ी टोकरियाँ लीं। उन्हें एक मजबूत लाठी के दोनों सिरों पर रस्सी से बाँधकर लटका दिया। इस तरह एक बड़ा काँवर बन गया। फिर उसने माता-पिता को गोद में उठाकर एक-एक टोकरी में बिठा दिया। लाठी कंधे पर टाँगकर श्रवण माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने चल पड़ा।

श्रवण एक-एक कर उन्हें कई तीर्थ स्थानों पर ले जाता है। वे लोग गया, काशी, प्रयाग सब जगह गए। माता-पिता देख नहीं सकते थे इसलिए श्रवण उन्हें तीर्थ के बारे में सारी बातें सुनाता। माता-पिता बहुत प्रसन्न थे। एक दिन माँ ने कहा-”बेटा श्रवण, हम अंधों के लिए तुम आँखें बन गए हो। तुम्हारे मुंह से तीर्थ के बारे में सुनकर हमें लगता है, हमने अपनी आँखों से भगवान को देख लिया है।“

”हाँ बेटा, तुम्हारे जैसा बेटा पाकर, हमारा जीवन धन्य हुआ। हमारा बोझ उठाते तुम थक जाते हो, पर कभी उफ़ नहीं करते।“ पिता ने भी श्रवण को आशीर्वाद दिया।

”ऐसा न कहें पिता जी, माता-पिता बच्चों पर कभी बोझ नहीं होते। यह तो मेरा कर्तव्य है। आप मेरी चिंता न करें।“

एक दोपहर श्रवण और उसके माता-पिता अयोध्या के पास एक जंगल में विश्राम कर रहे थे। माँ को प्यास लगी। उन्होंने श्रवण से कहा-

बेटा, क्या यहाँ आसपास पानी मिलेगा? धूप के कारण प्यास लग रही है।

”हाँ, माँ। पास ही नदी बह रही है। मैं जल लेकर आता हूँ।“

श्रवण कमंडल लेकर पानी लाने चला गया।

अयोध्या के राजा दशरथ को शिकार खेलने का शौक था। वे भी जंगल में शिकार खेलने आए हुए थे। श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया। बर्तन मे पानी भरने की अवाज़ सुनकर राजा दशरथ को लगा कोई जानवर पानी पानी पीने आया है। राजा दशरथ आवाज सुनकर, अचूक निशाना लगा सकते थे। आवाज के आधार पर उन्होंने तीर मारा। तीर सीधा श्रवण के सीने में जा लगा। श्रवण के मुंह से ‘आह’ निकल गई।

राजा जब शिकार को लेने पहुंचे तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। अनजाने में उनसे इतना बड़ा अपराध हो गया। उन्होंने श्रवण से क्षमा माँगी।

”मुझे क्षमा करना एभाई । अनजाने में अपराध कर बैठा। बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?“

”राजन्, जंगल में मेरे माता-पिता प्यासे बैठे हैं। आप जल ले जाकर उनकी प्यास बुझा दीजिए। मेरे विषय में उन्हें कुछ न बताइएगा। यही मेरी विनती है।“ इतना कहते-कहते श्रवण ने प्राण त्याग दिए।

दुखी हृदय से राजा दशरथ, जल लेकर श्रवण के माता-पिता के पास पहुंचे। श्रवण के माता-पिता अपने पुत्र के पैरों की आहट अच्छी तरह पहचानते थे। राजा के पैरों की आहट सुन वे चैंक गए।

”कौन है? हमारा बेटा श्रवण कहाँ है?“

बिना उत्तर दिए राजा ने जल से भरा कमंडल आगे कर, उन्हें पानी पिलाना चाहा, पर श्रवण की माँ चीख पड़ी- ”तुम बोलते क्यों नहीं, बताओ हमारा बेटा कहाँ है?“

”माँ, अनजाने में मेरा चलाया बाण श्रवण के सीने में लग गया। उसने मुझे आपको पानी पिलाने भेजा है। मुझे क्षमा कर दीजिए।“ राजा का गला भर आया।

”हाँ श्रवण, हाय मेरा बेटा“ माँ चीत्कार कर उठी। बेटे का नाम रो-रोकर लेते हुए, दोनों ने प्राण त्याग दिए। पानी को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया। प्यासे ही उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।

सचमुच श्रवण कुमार की माता-पिता के प्रति भक्ति अनुपम थी। जो पुत्र माता-पिता की सच्चे मन से सेवा करते हैं, उन्हें श्रवण कुमार कहकर पुकारा जाता है। सच है, माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।

कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी पुत्र वियोग सहना पड़ा रामचंद्र जी चौदह साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

सदभावना और आशावादिता की शक्ति | प्रेरणादायक कहानी | Hindi Motivational Story

दूसरी शताब्दी में रोम पर एक बड़ा समर्थ सम्राट राज्य करता था, जिसका नाम था हैड्रियन ।  उस जमाने में कोई सत्ताधारी मनुष्य बिना किसी अंगरक्षक के अकेला घूम सकता था ।  एक दिन दोपहर में जब युवा सम्राट घोडे पर सवार हो एक गाँव से गुजर रहा था तब उसने देखा कि एक वृद्घ व्यक्ति तपती धूप में झुककर कुछ फलों के पौधे रोप रहा है ।

सम्राट ने रुककर पूछा, मेरे प्रिय नागरिक, आप की उम्र क्या होगी ।

निश्चित रुप से तो नहीं कह सकता परन्तु करीब सौ वर्ष तो जरुर होगी ।  ग्रमीण ने सम्राट को सलाम करते हुए कहा ।

मुझे तुम पर रहम आता है, क्या तुमने जवानी में कमा कर बुढ़ापे के लिये कुछ धन नहीं जमाकिया ।  सम्राट ने पूछा ।

मैंने जीवन भर पूरी ईमानदारी से अपने अच्छे खतों पर काम किया और मेरे अच्छे खेतों ने मुझे कभी निराश नहीं किया ।  मैं समझता हूँ कि भगवान से बुलावा आने तक मेरे पास निर्वाह के लिये काफी धन है ।

बिलकुल ठीक, फिर सौ वर्ष की आयु में खेतों में पेड़ रोपने की क्या आवश्यकता है ।  क्या तुम्हें यह उम्मीद है तुम इन पेड़ों के फलने तक जीवित रहोगे ।  सम्राट ने तिरस्कार के भाव से पूछा ।

प्रभु, अपनी युवावस्था मे जब मैंने यह जमीन खरीदी थी, तब इसमें बहुत वृक्ष गे थे ।  इनके फलों को जीवन भर खाता रहा, परन्तु उनमें से किसी वृक्ष को मैंने नहीं लगाया था ।  मैं इन वृक्षों को इसलिये रोप रहा हूँ ताके इसके फलों को मेरे बाद दूसरे लोग खा सकें ।  मुझे फलों का लालच नहीं है, बल्कि इन्हें रोपने में रुचि है ।  फिर भी, इनके फलों का आनन्द लेने वालों में मैं ओभी शामिल हो सका तो मुझे आर्श्चय नहीं होगा ।  और यदि भगवान ने चाहा तोफलों का एक टोकरा अपने सम्राट को भी भेंट करुँगा ।

सम्राट हँस पड़ा ।  मेरी शुभकामना तेरे साथ है, मेरे आदरणीय मित्र ।  इतना कह कर सम्राट चलता बना ।

कुछ वर्षों बाद एक दिन सम्राट अपने महल की खुली छत पर टहल रहा था ।  उसने देखा कि ेक वृद्व व्यक्ति अपनी पीठ पर एक बोरा लादे महल के मुख्य द्वार तक आया जिसे द्वारपालों ने अन्दर आने से रोक दिया ।  सम्राट ने वृद्व आदमी को कुछ देर तक ध्यान से देखा ।

फिर उसने द्वारपालों को ुसे महल के अन्दर ले आने का आदेश दिया ।  और उसके स्वागत के लिये स्वयं नीचे आया । सचमुच, यह वही ग्रामीण था, जो अब सौ से ऊपर होगा,  जिसे सम्राट ने कुछ वर्ष पूर्व फलों के वृक्ष रोपते देखा था ।  वह पके फलों की पहली फसल लेकर सम्राट को भेंट देने आया था ।

सम्राट ने भेंट को स्वीकार कर उस व्यक्ति को गले से लगा लिया और उसके टोकरे को स्वर्ण मुद्राओं से भर दिया ।  उसने दरबारियों को बताया कि, सदभावना और आशावादिता की शक्ति क्या होती है, उसने अब समझ लिया है ।  

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मुश्किलों पर विजय | प्रेरणादायक कहानी | Hindi Motivational Story

दो व्यक्ति राम और श्याम शहर से कमाकर पैसे लेकर घर लौट रहे थे। अपनी मेहनत से राम ने खूब पैसे कमाए थे, जबकि श्याम कम ही कमा पाया था। श्याम के मन में खोट आ गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह राम  का पैसा हड़पने को मिल जाए, तो खूब ऐश से जिंदगी गुजरेगी। रास्ते में एक उथला कुआं पड़ा, तो श्याम ने राम को उसमें धक्का दे दिया। राम गढ्डे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा।

श्याम ने सोचा कि यह ऊपर आ गया, तो मुश्किल हो जाएगी। इसलिए श्याम साथ लिए फावड़े से मिट्टी खोद-खोदकर कुएं में डालने लगा। लेकिन जब राम के ऊपर मिट्टी पड़ती, तो वह अपने पैरों से मिट्टी को नीचे दबा देता और उसके ऊपर चढ़ जाता। मिट्टी डालने के उपक्रम में श्याम इतना थक गया था कि उसके पसीने छूटने लगे। लेकिन तब तक वह कुएं में काफी मिट्टी डाल चुका था और राम उन मिट्टियों पर चढ़ कर  ऊपर आ गया।

अतः जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब बहुत सारी मुश्किलें एक साथ हमारे जीवन में मिट्टी की तरह आ पड़ती हैं। जो व्यक्ति इन मुश्किलों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ता जाता है उसी की जीत होती है और वही  जीवन में हर बुलंदियों को छूता है।

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बुरे कर्मों का बखान | प्रेरणादायक कहानी | Hindi Motivational Story

एक डाकू [bandit] गुरु नानकदेवजी के पास आया और चरणों में माथा टेकते हुए बोला- "मैं डाकू [dacoit] हूँ, अपने जीवन से तंग हूँ। मैं सुधरना [ameliorate/cultivate] चाहता हूँ, मेरा मार्गदर्शन[guidance] कीजिए, मुझे अंधकार से उजाले की ओर ले चलिए।" नानकदेवजी ने कहा-"तुम आज से चोरी करना और झूठ बोलना छोड़ दो, सब ठीक हो जाएगा।" डाकू प्रणाम करके चला गया। कुछ दिनों बाद वह फिर आया और कहने लगा-"मैंने झूठ बोलने और चोरी से मुक्त होने का भरसक[at most] प्रयत्न [try] किया, किंतु मुझसे ऐसा न हो सका। मैं चाहकर बदल नहीं सका। आप मुझे उपाय[remedy] अवश्य बताइए।"

गुरु नानक सोचने लगे कि इस डाकू को सुधरने का क्या उपाय[cure ] बताया जाए। उन्होंने अंत में कहा-"जो तुम्हारे मन में जो आए करो, लेकिन दिनभर झूठ बोलने, चोरी करने और डाका डालने[dacoity] के बाद शाम को लोगों के सामने किए हुए कामों का बखान[define/express] कर दो।"

डाकू को यह उपाय सरल जान पड़ा। इस बार डाकू पलटकर नानकदेवजी के पास नहीं आया क्योंकि जब वह दिनभर चोरी आदि करता और शाम को जिसके घर से चोरी की है उसकी चौखट[doorway] पर यह सोचकर पहुँचता कि नानकदेवजी ने जो कहा था कि तुम अपने दिनभर के कर्म[deed] का बखान करके आना लेकिन वह अपने बुरे कामों के बारे में बताते में बहुत संकोच[hesitate] करता और आत्मग्लानि[regret] से पानी-पानी हो जाता। वह बहुत हिम्मत करता[dare] कि मैं सारे काम बता दूँ लेकिन वह नहीं बता पाता। हताश-निराश[disappointed/downhearted] मुँह लटकाए वह डाकू एक दिन अचानक[unexpected/sudden] नानकदेवजी के सामने आया। अब तक न आने का कारण बताते हुए उसने कहा-"मैंने तो उस उपाय को बहुत सरल समझा था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयाँ कहने में लज्जा[disgrace] आती है, अतः मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया।" नानकदेवजी ने उसे अपराधी[convict /culprit ] से अच्छा बना दिया। 

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राम की मुरली | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

स्कूल के हेड मास्टर [Principal] ने अपनी आँफिस में दीवार-घड़ी पर नजर डाली ।  एक बज चुका ।  लंच ब्रेक का समय ।  लेकिन उसने घन्टे [Bell] की आवाज नहीं सुनी ।  क्या प्यून [Peon] घन्टा लगाना भूल गया उसे सन्देह [Doubt] हुआ ।

अचानक मुरली [Flute] की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी ।  करीब उसके साथ-साथ ही घन्टे की आवाज आई ।  बच्चे रिसेस का आनन्द लेने के लिये दौड़कर बाहर आने लगे ।  कुछेक बच्चे स्कूल के कम्पाउन्ड में एक पेड के नीचे एक नौ बर्ष के लड़के को घेरकर खड़े हो गये ।  वह मुरली बेचनेवाला राम था ।

वह हर रोज लंच के समय स्कूल में आया करता था ।  वह जैसे ही मुरली बजाना आरम्भ करता, प्यून समझ जाता कि घन्टा बजाने का समय हो गया ।  उसे घड़ी देखने की जरुरत नहीं पड़ती थी ।  यह दोनों के लिये आदत बन चुकी थी ।

राम की मुरली के संगीत के बहुत बच्चे प्रशंसक [admirer] बन गये थे ।  कुछेक तो अपना टिफिन [Lunch box]  भी उसके साथ मिलकर खाने लगे ।  कुछ अध्यापको ने इसे पसन्द नहीं किया, उनमे से एक थे चौथी कक्षा के क्लास टीचर मि- दत्ता ।  उसे लगा कि मुरली बेचनेवाला अवांछनीय [undesirable] तत्व  होने के साथ-साथ बच्चों को खराब भी कर रहा है ।  उसने हेडमास्टर को शिकायत की ।  

हेड मास्टर राम के पास गया और वहाँ एकत्र बच्चों को डाँटकर क्लास में भेज दिया ।  फिर राम को आँखे दिखाते हुए [staring] कहा, यहाँ से चले जाओ ।  और स्कूल में फिर कभी नहीं आना ।राम कुछ दिनों तक स्कूल नहीं आया ।  प्यून को उसकी कमी खटकने लगी, हालांकि [Although] दोपहर का घनटा बजाने के लिये वह बहुत सावधानी [Precaution] बरतने लगा ।  बच्चो उदास होगये क्योंकि वे अब राम की मुरली के संगीत से वंचित [Deprived] हो गये थे और हर रोज उसका साथ भी छूट गया था, यघपि [Although] वह कुछ मिनटों के लिये ही होता था ।

एक दिन, मानो कोई चमत्कार हो गया हो, मुरली की चिर परिचित [known/identical] धुन फिर सुनाई पड़ी ।  साथ-साथ लंच का घन्टा भी बज उठा ।  बच्चे सीधे राम की तरफ दौड़े ।  आज उसकी बहुत मुरलियाँ बिक गई ।  वह बच्चों को मुरली बजाना सिखा भी रहा था ।

मि. दत्ता को मुरलीवाले की वापसी अच्छी नहीं लगी ।  वह हेड मास्टर को बुला कर ले आया ।  उसे आते देखकर बच्चों की भीड़े तितर-बितर[Scattered] हो गई ।  कुछ बच्चे अब भी राम के पास मंडरा रहे थे ।  हेड मास्टर गुस्से से तमतमाता हुआ सीधा राम के पास गया और बिना कुछ बोले उसके गाल पर कसकर एक तमाचा जड़ दिया ।  वह कुछ क्षणों के लिये हक्का-वक्का [shocked] हो गया ।  उसकी आँखों से आँसुओं की गंगा-जमुना बह पड़ी ।

हेड मास्टर घबरा गया ।  क्या उसने उसे ज्यादा कठोर सजा दे दी ।  उसने अपना पर्स निकाल ाऔर राम को ओर एक नोट बढ़ा दिया ।  किन्तु उसने विनयपूर्वक अस्वीकार कर दिया ।  सर, मैं कभी इस स्कूल में तीसरी कक्षा [third standard] का छात्र था ।  एक सड़क दुर्घटना [road accident] में मेरे माता-पिता की अचानक मृत्यु [sudden death] के कारण मेरी पढ़ाई रुक गई क्योंकि अपने माता पिता की मैं एकमात्र सन्तान था, और मेरे परिवार में मेरी देखभाल करने वाला कोई और नहीं था । मुझे गरीबी का सामना करना पड़ा, इसलिये मैंने मुरली [flute] बेचने का फैसला किया ।  सर, मैं अपने स्कूल को किसी तरह भूल नहीं पा रहा हूँ और यहाँ के बच्चो के साथ दोस्ती करना अच्छा लगता है ।  इसी आकर्षण [attraction] के कारण मैं यहाँ खिंचा चला आता हूँ ।  मैं स्कूल से दूर कैसे रह सकता हूँ ।  किन्तु यदि आपको ऐसा महसूस होता हो कि मैं आपके लिये एक समस्या हूँ तो मैं चला जाऊँगा।  हेड मास्टर राम की दुखभरी कहानी सुनकर अबाक रह गया ।  उसने मि. दत्ता की ओर देखा।  वह भी स्तंभित [astonished] थे।

मुझे खेद है मेरे बच्चे ।  मुझे क्रोध नहीं करना चाहिये था ।  मत सोचो कि तुम अनाथ [orphan] हो ।  हमलोग तुम्हारी देखभाल करेंगे ।  तुम्हें अपनी पढाई जारी रखनी चाहिये ।  कल स्कूल में आ जाना ।  तुम्हें चौथी कक्षा [Fourth standard] में दाखिला [admission] मिल जायेगा ।  हेड मास्टर ने सान्तवना देते हुए प्यार से राम से कहा ।

दूसरे दिन प्रातः असेम्वली के समय हेड मास्टर को राधू के पाकेट से एक मुरली झाँकती हुई दिखाई पड़ी ।  उसने राम से असेम्बली आरम्भ होने से पहले मुरली पर एक प्रार्थना की धुन बजाने के लिये कहा ।  वास्तव में, तब से यह दैनिक कार्यक्रम का हिस्सा बन गया ।  

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राज नर्तकी और ईर्ष्यालु दरबारी | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

कांचनदेश के राजा धीरसिंह की राज नर्तकी[Dancer] थी, वसंतमालिनी ।  यघपि उसका जन्म साधारण परिवार में हुआ, परन्तु बचपन से ही नृत्य[Dance] के प्रति वह विशेष रुचि दिखाती हुई आयी और बालिग होते-होते सुप्रसिद्व नर्तकी[Dancer] बन गयी और नाम कमाया ।  राजा ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसे राज नर्तकी के पद पर नियुक्त किया ।  उसके नृत्य विन्यासों और असाधारण रुप भंगिमाओं [Expressions] को देखते हुए सबके सब मंत्रमुग्ध [Mesmerized, Spellbound] हो जाते थे ।  उस साल महारानी यामिनी देी के जन्म दिन के अवसर पर राजधानी में बड़े पैमाने पर उत्सव मनाये जा रहे थे ।  उस शुभ अवसर पर प्रजा के समक्ष उसका आदर-सत्कार करने का निर्णय राजा धीरसिंह ने लिया ।

परन्तु, राजा का यह निर्णय अन्य कलाकारों[Artists] और पंडितों[Scholars] को ठीक नहीं लगा ।  उन्हें जो गौरव नहीं मिला, वह एक राज नर्तकी को मिले, यह उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया ।  वे इस विषय को लेकर अंदर ही अंदर कुढ़ रहे थे ।  मौका मिलने पर उसका अपमान करने और उसे  नीचा दिखाने के लिये वे तैयार बैठे थे ।

उस दिन की शाम को महारानी का जन्म दिनोत्सव मनाया जाने वाला था ।  वसंतमालिनी सजाये गये मंच पर बड़े ही विनय के सात एक कोने में बैठी हुई थी ।

राजा धीरसिंह ने मूल्यवान भेंटें प्रदान करके उसका सत्कार किया और उसके नृत्य की प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए कहा, हमारी वसंतमालिनी किसी अप्सरा से कम नहीं है ।  उसका अदभुत नृत्य कितना ही प्रशंसनीय [Applaudable] है ।  ऐसी अदभुत नर्तकियाँ बहुत ही कम होती है ।  उसका हमारे राज्य में होना हमारा सौभाग्य है ।  उसके अदभुत नृत्य को देखने का भाग्य देवताओं को भी नहीं मिला ।

उपस्थित प्रजा ने तालियाँ बजाते हुए अपना हर्ष व्यक्त किया ।  पर, राजा से थोड़ी ही दूरी पर बैठे एक पंडित ने उठकर कहा, महाराज, क्षमा करें ।  आप अपूर्व कला पोषक है ।  कलाकारों का आदर करने में आपकी बराबरी करने की क्षमता किसी और में है ही नहीं ।  वसंतमालिनी एक सामान्य परिवार से आयी हुई कन्या है ।  किन्तु आपने उसे राज नर्तकी बनाया, जो आपकी उदारता का ज्वलंत [Object-lesson] उदाहरण है ।  परन्तु, इसका यह मतलब नहीं कि आप उसकी तुलना अप्सराओं [Nymphs] से करें ।  आपने ऐसा करके देवताओं का अपमान किया ।  मैंने जो कहा, उसमें कोई त्रुटि हो तो मुझे माफ करें ।

इसके दूसरे ही क्षण एक नृत्य कलाकार उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, मैंने अनगिनत नर्तकियों की नृत्य प्रतिभा देखी ।  वसंतमालिनी के नृत्य में स्वाभाविकता [Naturalness] कम है और दिखावा [Gimmick] अधिक ।  उसके नृत्य को देखते हुए आप ही आप हँसी फूट पड़ती है ।  यह दुर्भाग्य की बात है कि महाराज अपने हाथों उसका सम्मान कर रहे है ।  हमारे राज्य ने जो पाप किया, उसका यह फल है ।

वही बैठे आस्थान बिदूषक [Jester] गंगाधर शास्त्री ने उठकर कहा, महाप्रभु, हमारे राज्य ने जो पुण्य-पाप किये, इसके बारे में मैं नही जानता, पर इतना अवश्य जानता हूँ कि राज  नर्तकी वसंतमालिनी ने पुण्य-पाप दोनों किये ।

बिदूषक की बातों ने महाराज में कुतूहल [Curiosity] जगाया ।  उसने विदूषक से पूछा, ये लोग तो िसे पाप कह रहे है, अपमान मान रहे है, परन्तु आपका कहना है कि हमारी नर्तकी ने पाप-पुण्य दोनों किये है ।  यह कैसे संभव है ।  कृपया इस पर प्रकाश डालिये ।

विदूषक ने कहा, आप श्रेष्ठ कला पोषक है ।  आपके राज्य में उसका जन्म लेना उसका पुण्य है ।  इसी कारण, आप आज इस विराट सभा में उसका सत्कार कर रहे है ।  परन्तु किसी जन्म में उसने पाप किया होगा और वह पाप अब उसका पीछा कर रहा है ।

महाराज ने विदूषक से कहा कि वे इसे विशद रुप से समझाएँ और संदेहों को दूर करें ।

साथी कलाकारों को जो आदर-सम्मान प्राप्त हो रहा है, उसे देखते हुए अन्य कलाकार ईर्ष्या के मारे जले जा रहे है ।  ऐसे लोगों के सम्मुख वसंतमालिनी को नाचना पड़ रहा है ।  यह उसका किया गया पाप है ।  विदूषक ने गंभीर स्वर में कहा ।

इसके पहले जिन-जिन लोगों ने वसंतमालिनी की समालोचना की, उसके नृत्य को दिखावटटी बताया, उन्होंने शर्म के मारे सिर झुका लिये .  तब राजा ने कहा, ऐसे चाँद की सुन्दरता का आनन्द कोई नहीं ले सकता, जो चांदनी को नहीं फैलाता ।  उसी प्रकार साथी मानव में जो अच्छाई है, शक्ति-सामर्थ्य है, उनका जो आदर नहीं करता, उनका पांडित्य निष्प्रयोजन [Needless] है ।  ऐसे लोगों के व्यक्तित्व में वह काला धब्बा है ।  मुझे इस बात का दुख है कि ऐसे लोग मेरे राज्यसभा में मौजूद है ।

अपनी बाक् पटुता के बल पर जिन ईर्ष्यालु लोगों की असलियत का पर्दाफाश विदूषक ने किया, उसका सत्कार वसंतमालिनी के हाथों किया गया ।  जनता ने आन्नद-भरित होकर जोर से तालियाँ बजायी ।

अतः दूसरों की कमियाबी और तर्रकी से इर्ष्या कर कोई कभी आगे नहीं बढ़ सकता। आपने आप से प्रतियोगिता करें , कमियाबी आपके कदम चूमेगी ।

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बिना नीव का मकान | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

बुद्ध अपने प्रवचनों[preaching] में उनके शिष्यों को बहुत सी कथाएं सुनाते थे. यह कथा भी उन्हीं में से एक है.

 

कभी किसी काल में किसी नगर में राम और श्याम नामक दो धनी व्यापारी रहते थे. वे दोनों ही अपने धन और वैभव[splendor] का बड़ा प्रदर्शन करते थे. 

एक दिन राम  अपने मित्र श्याम  के घर उससे भेंट करने के लिए गया. राम  ने देखा कि श्याम  का घर बहुत विशाल और तीन मंजिला[storey] था. 2,500 साल पहले तीन मंजिला घर होना बड़ी बात थी और उसे बनाने के लिए बहुत धन और कुशल वास्तुकार [architect] की आवश्यकता होती थी. राम  ने यह भी देखा कि नगर में सभी निवासी श्याम  के घर को बड़े विस्मय [amazement ] से देखते थे और उसकी बहुत बड़ाई करते थे.

अपने घर वापसी पर राम  बहुत उदास था कि श्याम  के घर ने सभी का ध्यान खींच लिया था. उसने उसी वास्तुकार [architect] को बुलवाया जिसने श्याम का घर बनाया था. उसने वास्तुकार से श्याम के घर जैसा ही तीन मंजिला घर बनाने को कहा. वास्तुकार ने इस काम के लिए हामी भर दी और काम शुरू हो गया.

कुछ दिनों बाद राम काम का मुआयना [Examine] करने के लिए निर्माणस्थल पर गया. जब उसने नींव [foundation ] खोदे जाने के लिए मजदूरों को गहरा गड्ढा [Pit] खोदते देखा तो वास्तुकार को बुलाया और पूछा कि इतना गहरा गड्ढा क्यों खोदा जा रहा है.

“मैं आपके बताये अनुसार तीन मंजिला घर बनाने के लिए काम कर रहा हूँ”, वास्तुकार ने कहा, “सबसे पहले मैं मजबूत नींव बनाऊँगा, फिर क्रमशः पहली मंजिल, दूसरी मंजिल और तीसरी मंजिल बनाऊंगा.”

“मुझे इस सबसे कोई मतलब नहीं है!”, राम ने कहा, “तुम सीधे ही तीसरी मंजिल बनाओ और उतनी ही ऊंची बनाओ जितनी ऊंची तुमने श्याम के लिए बनाई थी. नींव की और बाकी मंजिलों की परवाह मत करो!”

“ऐसा तो नहीं हो सकता”, वास्तुकार ने कहा.

“ठीक है, यदि तुम यह नहीं करोगे तो मैं किसी और से करवा लूँगा”, राम ने नाराज़ होकर कहा.

उस नगर में कोई भी वास्तुकार नींव के बिना वह घर नहीं बना सकता था, फलतः वह घर कभी न बन पाया. अतः किसी भी बड़े कार्य को सम्पन्न करने के लिए उसकी नीव सबसे मजबूत बनानी चाहिए एवं काम को योजनाबद्ध [Planned, schematic] तरीके से किया जाना चाहिए ।

तीन प्रश्नों के उत्तर | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

यह कहानी उस राजा की है जो अपने तीन प्रश्नों के उत्तर खोज रहा था।

तो, एक बार एक राजा के मन में आया कि यदि वह इन तीन प्रश्नों के उत्तर खोज लेगा तो उसे कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी.

पहला प्रश्न: किसी भी कार्य को करने का सबसे उपयुक्त कौन सा है?

दूसरा प्रश्न: किन व्यक्तियों के साथ कार्य करना सर्वोचित है?

तीसरा प्रश्न: वह कौन सा कार्य है जो हर समय किया जाना चाहिए?

राजा ने यह घोषणा करवाई कि जो भी व्यक्ति उपरोक्त प्रश्नों के सही उत्तर देगा उसे बड़ा पुरस्कार दिया जाएगा. यह सुनकर बहुत से लोग राजमहल गए और सभी ने अलग-अलग उत्तर दिए. पहले प्रश्न के उत्तर में एक व्यक्ति ने कहा कि राजा को एक समय तालिका बनाना चाहिए और उसमें हर कार्य के लिए एक निश्चित समय नियत कर देना चाहिए तभी हर काम अपने सही समय पर हो पायेगा. दूसरे व्यक्ति ने राजा से कहा कि सभी कार्यों को करने का अग्रिम निर्णय कर लेना उचित नहीं होगा और राजा को चाहिए कि वह मनविलास के सभी कार्यों को तिलांजलि देकर हर कार्य को व्यवस्थित रूप से करने की ओर अपना पूरा ध्यान लगाये.

किसी और ने कहा कि राजा के लिए यह असंभव है कि वह हर कार्य को दूरदर्शिता पूर्वक कर सके. इसलिए राजा को विज्ञजनों की एक समिति का निर्माण करना चाहिए जो हर विषय को परखने के बाद राजा को यह बताये कि उसे कब क्या करना है. फिर किसी और ने यह कहा कि कुछ मामलों में त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं और परामर्श के लिए समय नहीं होता लेकिन ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं की सहायता से राजा यदि चाहे तो किसी भी घटना का पूर्वानुमान लगा सकता है.

दूसरे प्रश्न के उत्तर के लिए भी कोई सहमति नहीं बनी. एक व्यक्ति ने कहा कि राजा को प्रशासकों में अपना पूरा विश्वास रखना चाहिए. दूसरे ने राजा से पुरोहितों और संन्यासियों में आस्था रखने के लिए कहा. किसी और ने कहा कि चिकित्सकों पर सदैव ही भरोसा रखना चाहिए तो किसी ने योद्धाओं पर विश्वास करने के लिए कहा.

तीसरे प्रश्न के जवाब में भी विविध उत्तर मिले. किसी ने कहा कि विज्ञान का अध्ययन सबसे महत्वपूर्ण है तो किसी ने धर्मग्रंथों के पारायण को सर्वश्रेष्ठ कहा. किसी और ने कहा कि सैनिक कौशल में निपुणता होना ही सबसे ज़रूरी है.

राजा को इन उत्तरों में से कोई भी ठीक नहीं लगा इसलिए किसी को भी पुरस्कार नहीं दिया गया. कुछ दिन तक चिंतन-मनन करने के बाद राजा ने एक महात्मा के दर्शन का निश्चय किया. वह महात्मा एक पर्वत के ऊपर बनी कुटिया में रहते थे और सभी उन्हें परमज्ञानी मानते थे.

राजा को यह पता चला कि महात्मा पर्वत से नीचे कभी नहीं आते और राजसी व्यक्तियों से नहीं मिलते थे. इसलिए राजा ने साधारण किसान का वेश धारण किया और अपने सेवक से कहा कि वह पर्वत की तलहटी पर लौटने का इंतज़ार करे. फिर राजा महात्मा की कुटिया की ओर चल दिया.

महात्मा की कुटिया तक पहुँचने पर राजा ने देखा कि वे अपनी कुटिया के सामने बने छोटे से बगीचे में फावड़े से खुदाई कर रहे थे. महात्मा ने राजा को देखकर सर हिलाया और खुदाई करते रहे. बगीचे में काम करना उनके लिए वाकई कुछ कठिन था, वे वृद्ध हो चले थे. हांफते हुए वे जमीन पर फावड़ा चला रहे थे.

राजा महात्मा तक पहुंचा और बोला, “मैं आपसे तीन प्रश्नों का उत्तर जानना चाहता हूँ. 

पहला: किसी भी कार्य को करने का सबसे अच्छा समय क्या है? 

दूसरा: किन व्यक्तियों के साथ कार्य करना सर्वोचित है? 

तीसरा: वह कौन सा कार्य है जो हर समय किया जाना चाहिए?

महात्मा ने राजा की बात ध्यान से सुनी और उसके कंधे को थपथपाया और खुदाई करते रहे. राजा ने कहा, “आप थक गए होंगे. लाइए, मैं आपका हाथ बंटा देता हूँ.” महात्मा ने धन्यवाद देकर राजा को फावड़ा दे दिया और एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए बैठ गए.

दो क्यारियाँ खोदने के बाद राजा महात्मा की ओर मुड़ा और उसने फिर से वे तीनों प्रश्न दोहराए. महात्मा ने राजा के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया और उठते हुए कहा, “अब तुम थोड़ी देर आराम करो और मैं बगीचे में काम करूंगा.” लेकिन राजा ने खुदाई करना जारी रखा. एक घंटा बीत गया, फिर दो घंटे. शाम हो गयी. राजा ने फावड़ा रख दिया और महात्मा से कहा, “मैं यहाँ आपसे तीन प्रश्नों के उत्तर पूछने आया था पर आपने मुझे कुछ नहीं बताया. कृपया मेरी सहायता करें ताकि मैं समय से अपने घर जा सकूं.”

महात्मा ने राजा से कहा, “क्या तुम्हें किसी के दौड़ने की आवाज़ सुनाई दे रही है?”. राजा ने आवाज़ की दिशा में सर घुमाया. दोनों ने पेड़ों के झुरमुट से एक आदमी को उनकी ओर भागते आते देखा. वह अपने पेट में लगे घाव को अपने हाथ से दबाये हुए था. घाव से बहुत खून बह रहा था. वह दोनों के पास आकर धरती पर गिर गया और अचेत हो गया. राजा और महात्मा ने देखा कि उसके पेट में किसी शस्त्र से गहरा वार किया गया था.राजा ने फ़ौरन उसके घाव को साफ़ किया और अपने वस्त्र को फाड़कर उसके घाव पर बाँधा ताकि खून बहना बंद हो जाए. कपड़े का वह टुकड़ा जल्द ही खून से पूरी तरह तर हो गया तो राजा ने उसके ऊपर दूसरा कपडा बाँधा और ऐसा तब तक किया जब तक खून बहना रुक नहीं गया.

कुछ समय बाद घायल व्यक्ति को होश आया और उसने पानी माँगा. राजा कुटिया तक दौड़कर गया और उसके लिए पानी लाया. सूरज अस्त हो चुका था और वातावरण में ठंडक आने लगी. राजा और महात्मा ने घायल व्यक्ति को उठाया और कुटिया के अन्दर बिस्तर पर लिटा दिया. वह आँखें बंद करके चुपचाप लेटा रहा. राजा भी पहाड़ चढ़ने और बगीचे में काम करने के बाद थक चला था. वह कुटिया के द्वार पर बैठ गया और उसे नींद आ गयी. सुबह जब उसकी आँख खुली तब सूर्योदय हो चला था और पर्वत पर दिव्य आलोक फैला हुआ था.

एक पल को वह भूल ही गया कि वह कहाँ है और वहां क्यों आया था. उसने कुटिया के भीतर बिस्तर पर दृष्टि डाली. घायल व्यक्ति अपने चारों ओर विस्मय से देख रहा था. जब उसने राजा को देखा तो बहुत महीन स्वर में बुदबुदाते हुए कहा, “मुझे क्षमा कर दीजिये”.

“लेकिन तुमने क्या किया है और मुझसे क्षमा क्यों मांग रहे हो”, राजा ने उससे पूछा.

“आप मुझे नहीं जानते पर मैं आपको जानता हूँ. मैंने आपका वध करने की प्रतिज्ञा ली थी क्योंकि पिछले युद्ध में आपने मेरे राज्य पर हमला करके मेरे बंधु-बांधवों को मार डाला और मेरी संपत्ति हथिया ली. जब मुझे पता चला कि आप इस पर्वत पर महात्मा से मिलने के लिए अकेले आ रहे हैं तो मैंने आपकी हत्या करने की योजना बनाई. मैं छुपकर आपके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था पर आपके सेवक ने मुझे देख लिया. वह मुझे पहचान गया और उसने मुझपर प्रहार किया. मैं अपने बचाव के लिए भागता हुआ यहाँ आ गया और आपके सामने गिर पड़ा. मैं आपकी हत्या को उद्यत था पर आपने मेरे जीवन की रक्षा की. मैं बहुत शर्मिंदा हूँ. मुझे समझ नहीं आ रहा कि आपके उपकार का मोल कैसे चुकाऊँगा. मैं जीवनपर्यंत आपकी सेवा करूंगा और मेरी संतानें भी सदैव आपके कुल की सेवा करेंगीं. कृपया मुझे क्षमा कर दें”.

राजा यह जानकर बहुत हर्षित हुआ कि प्रकार उसके शत्रु का रूपांतरण हो गया. उसने न केवल उसे क्षमा कर दिया बल्कि उसकी संपत्ति लौटाने का वचन भी दिया और उसकी चिकित्सा के लिए अपने सेवक के मार्फ़त अपने निजी चिकित्सक को बुलावा भेजा. सेवक को निर्देश देने के बाद राजा महात्मा के पास अपने प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए पुनः आया. उसने देखा, महात्मा पिछले दिन खोदी गयी क्यारियों में बीज बो रहे थे.

महात्मा ने उठकर राजा से कहा, “आपके प्रश्नों के उत्तर तो पहले ही दिए जा चुके हैं.”

“वह कैसे?”, राजा ने चकित होकर कहा.

“कल यदि आप मेरी वृद्धावस्था का ध्यान करके बगीचे में कार्य करने में मेरी सहायता नहीं करते तो आप वापसी में घात लगाकर बैठे हुए शत्रु का शिकार बन जाते. तब आपको यह खेद होता कि आपको मेरे समीप अधिक समय व्यतीत करना चाहिए था. अतः आपका कल बगीचे में कार्य करने का समय ही सबसे उपयुक्त था. 

आप जिस सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति से मिले वह मैं ही था. और आपका सबसे आवश्यक कार्य था मेरी सहायता करना. बाद में जब घायल व्यक्ति यहाँ चला आया तब सबसे महत्वपूर्ण समय वह था जब आपने उसके घाव को भलीप्रकार बांधा. यदि आप ऐसा नहीं करते तो रक्तस्त्राव के कारण उसकी मृत्यु हो जाती. तब आपके और उसके मध्य मेल-मिलाप नहीं हो पाता. अतः उस क्षण वह व्यक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण था और उसकी सेवा-सुश्रुषा करना सबसे आवश्यक कार्य था.”

“स्मरण रहे, केवल एक ही समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और वह समय यही है, इस क्षण में है. इसी क्षण की सत्ता है, इसी का प्रभुत्व है. सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वही है जो आपके समीप है, आपके समक्ष है, क्योंकि हम नहीं जानते कि अगले क्षण हम किसी अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने के लिए जीवित रहेंगे भी या नहीं. और सबसे आवश्यक कार्य यह है कि आपके समीप आपके समक्ष उपस्थित व्यक्ति के जीवन को सुख-शांतिपूर्ण करने के प्रयास किये जाएँ क्योंकि यही मानवजीवन का उद्देश्य है.”

लेव तॉल्स्तॉय

प्रार्थना प्रेम और समर्पण का नाम है | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

प्रार्थना क्या है? – प्रेम और समर्पण. जहां प्रेम नहीं है, वहां प्रार्थना नहीं है. 

प्रेम के स्मरण में एक अद्भुत घटना का उल्लेख है. नूरी, रक्काम एवं कुछ अन्य सूफी फकीरों पर काफिर होने का आरोप लगाया गया था और उन्हें मृत्यु दण्ड दिया जा रहा था.

जल्लाद जब नंगी तलवार लेकर रक्काम के निकट आये, तो नूरी ने उठकर स्वयं को अपने मित्र के स्थान पर अत्यंत प्रसन्नता और नम्रता के साथ पेश कर दिया. दर्शक स्तब्ध रह गये. हजारों लोगों की भीड़ थी. उनमें एक सन्नाटा दौड़ गया. जल्लाद ने कहा, “हे युवक, तलवार ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे मिलने के लिए लोग इतने उत्सुक और व्याकुल हों. और फिर तुम्हारी अभी बारी भी नहीं आयी है.”

और, पता है कि फकीर नूरी ने उत्तर में क्या कहा? उन्होंने कहा, “प्रेम ही मेरा धर्म है. मैं जानता हूं कि जीवन संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु है, लेकिन प्रेम के मुकाबले वह कुछ भी नहीं है. जिसे प्रेम उपलब्ध हो जाता है, उसके लिए जीवन खेल से ज्यादा नहीं है. संसार में जीवन श्रेष्ठ है लेकिन प्रेम जीवन से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह संसार का नहीं, सत्य का अंग है. और प्रेम कहता है कि जब मृत्यु आये, तो अपने मित्रों के आगे हो जाओ और जब जीवन मिलता हो तो पीछे. इसे हम प्रार्थना कहते हैं.”

प्रार्थना का कोई ढांचा नहीं होता है. वह तो हृदय का सहज अंकुरण है. जैसे पर्वत से झरने बहते हैं, ऐसे ही प्रेम-पूर्ण हृदय से प्रार्थना का आविर्भाव होता है.

ओशो के पत्रों के संकलन ‘पथ के प्रदीप’ से. प्रस्तुति – ओशो शैलेंद्र

कठिन परिस्थितियां और सत्य का मार्ग | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

एक दिन एक बड़े भूकंप ने एक मंदिर को हिलाकर रख दिया. मंदिर का कुछ भाग ध्वस्त भी हो गया. सभी संन्यासी अत्यंत भयभीत थे.

 

जब भूकंप थम गया तो गुरु ने सभी शिष्यों से कहा, “इस भूकंप के आने से तुम सबको यह देखने का अवसर मिला है कि ऐसी परिस्थितियों में सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कैसा व्यवहार करता है.

तुम सभी ने यह देखा कि भूकंप आने पर मैं भयभीत नहीं हुआ. मुझे अपने चारों ओर घट रही चीज़ों का पूरा बोध था. मैं तुम सबको रसोई तक ले आया क्योंकि यह मंदिर का सबसे मजबूत भाग है. मेरा निर्णय सही था क्योंकि हम सभी बच गए और किसी को भी चोट नहीं आई. लेकिन मैं तुम सभी को यह भी बता देना चाहता हूँ कि अपने ऊपर पूर्ण नियंत्रण और आत्म-संयम होने के बाद भी मैं कुछ तनाव में था – और यह तुम इस बात से समझ सकते हो कि मैंने यहाँ एक गिलास में रखा पानी गटागट पी लिया जबकि सामान्य स्थितियों में मैं ऐसा कदापि नहीं करता!”

एक संन्यासी यह सुनकर मुस्कुरा दिया, पर उसने कुछ कहा नहीं.

“तुम हंस क्यों रहे हो?”, गुरु ने उससे पूछा.

“वह पानी नहीं था”, संन्यासी ने कहा, “उस गिलास में सोया सॉस था”.

धर्म और इश्वर का महत्व | प्रेरक प्रसंग | Motivational Hindi Story

एक युवक ओलंपिक में गोताखोरी के प्रदर्शन की तैयारी कर रहा था. उसके जीवन में धर्म का महत्व केवल इतना ही था कि वह अपने बड़बोले ईसाई मित्र की बातों को कभी-कभार बिना कोई प्रतिवाद किये सुन लेता था. उसका मित्र नियमित रूप से चर्च जाता था और वापस लौटकर युवक को बाइबिल के उपदेश सुनाया करता. युवक अपने मित्र की बातों को सुन तो लेता लेकिन उनपर कुछ ध्यान नहीं देता था.

एक रात युवक गोताखोरी के अभ्यास के लिए इन-डोर स्वीमिंग पूल गया. वहां रौशनी नहीं थी. इन-डोर स्वीमिंग पूल की छत कुछ खुली हुई थी और चंद्रमा का कुछ प्रकाश भीतर आ रहा था. उतनी रोशनी में युवक अपना अभ्यास कर सकता था.

युवक सबसे ऊंचे डाइविंग प्लेटफोर्म पर गया. डाइविंग बोर्ड के किनारे खड़े होकर उसने गोता लगाने की तैयारी में अपनी बाँहें फै