यारह वष का समय रामचं शु लagdc.ac.in/pdf/gya_23sept2013.pdf ·...

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यारह वष का समय रामचं शुल दन-भर बैठे -बैठे मेरे सर पीड़ा : अपने थासे उठा और अपने एक नए एकांतवासी के यहाँ मने जाना वचारा। जाकर मने देखा तो वे यान-सर नीचा कए सोच रहे थे। मुझे देखकर चय नहं ; यक यह कोई नई बात नहं थी। थोड़े दन पूरब से इस देश मे आए है। नगर उनसे मेरे सवा और कसी से वशेष जान- पहचान नहं है ; और वह वशेषत: कसी से मलते -जुलते ह। के वल मुझसे मेरे भासे , वे -भाव रखते ह। उदास तो वे हर समय रहा करते ह। कई बेर उनसे मने इस उदासीनता का कारण पूछा भी ; कं तु मने देखा उसके कट करने एक कार का दु :-सा होता है ; इसी कारण वशेष पूछताछ नहकरता। ने पास जाकर कहा , " ! आज तुम बह उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक आव बहल जाएगा।" वे तुरंत खड़े हो गए और कहा , " चलो , मेरा भी यह जी चाहता है तो तु हारे यहाँ जानेवाला था।" हम दोन उठे और नगर से पूव का माग लया। बाग के दोन -भू शोभा का अनुभव करते और रयाल के राका अवलोकन करते हम लोग चले। दन का कांश अभी शेष था , इससे को िथरता थी। पावस जरावथा थी , इससे पर से भी कसी कार के याचार संभावना थी। तुत तु शंसा भी हम दोन बीच-बीच करते जाते थे। अहा! तु उदारता का भमान यह कर सकता है। षक को नदान और सूयातप- थवी को दान देकर यश का भागी यह होता है। इसे तो वय सल से रायबहादुर उपामलनी चाहए। पावस युवावथा का समय नहहै ; कं तु उसके यश वजा हरा रह है। थान-थान पर -लल-पूण ताल उसक पूव उदारता का रचय दे रहे एताभाव उलझन पड़कर हम लोग का यान माग शु ता रहा। हम लोग नगर से बह दूर नकल गए। देखा तो शनै :-शनै : भू रवत होने लगा ; णता- पहाड़ी , रेतील भू , जंगल बेर-मकोय छोट-छोट टकमय झाड़याँ िके अंतग होने लगीं। अब हम लोग को जान पड़ा हम झुके जा रहे सं या भी हो चलदवाकर डू बती करण आभा झाड़य पर पड़ने लगी। ची

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