ओमप्रकाश वाल्मकक और शरणकnमार...

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ओमकाश वामीक और शरणकुमार कलबाले की कहाकिय का कशप ओमकाश वामीक और शरणकुमार कलबाले की कहाकिय का कशप- कवधाि कवधाि ओमकाश वामीक और शरणकु मार कलबाले की कहाकिय का तुलिामक अययि 192 अयाय – पाच ओमकाश वामीक और शरणकुमार कलबाले की कहाकिय का कशप-कवधाि मिुय के जीवि म भाषा का अयत महव है । भाषा के मायम से वह मौकिक और कलकित अकभयकि करिे म समथ हो पाता है । साकहय सृजि म मािव सवेदिा, सामाकजक चेतिा ता भाकषकवधाि रचिाकार के कलए मायम अवा ेरक होते ह । कजस समाज या सामाकजक वथ के प म रचिाकार िड़ा होता है उस पररवेश की भाषा का भाव भी उसके साकहय म कदिाई देता है। भाव की अकभयकि का मायम भाषा है और रचिा की सफलता का एक मापदड भी उसको मािा जाता है । भाषा कजतिी सरल और बोधय होती है , उतिी ही भावशाली मािी जाती है । भाषा का सृजि रचिाकार के परवेशािुकू ल कवकसत होता है । दकलत साकहय समाज के ऐसे वथ के लो के याथ को तुत करता है , कजसको सकदय से समाज िे अपिे से द र रिा है । इस कारण दकलत साकहय म वे सभी भाविाएँ एव उपमाि कवमाि कदिाई देते ह , जो समाज से द र रहिे के कारण उिम पिपे ह । यह भाविाएँ और उपमाि दकलत समाज के याथ से ऱबऱ करािे म सहायक ह । सकदय से समाज िे इि कपछड़े और दबे -कुचले लो को सामाकजक सुि-सुकवधाओ से वकचत कर रिा है । ओमकाश वामीक और शरणकुमार कलबाले दोि ही कहािीकार दकलत जाकत म पैदा हुए और आज साकहय के मायम से ये दोि रचिाकार दकलत समाज की या को अकभयि कर रहे ह । अिढ़ता के रहते हुए भी दकलत साकहयकार िे अपिी रचिाओ म सवेदिा को पूरी कशत से यि ककया है । यही दकलत साकहयकार की भाषा का सदयथ भी है । दोि कहािीकार की कहाकिय का भाषागत वै कश शद भाषा की सबसे छोटी इकाई है और शद के साथक यो से वाय का किमाथण होता है । ओमकाश वामीक और शरणकुमार कलबाले की भाषा सरल, सहज और यावहारक होिे के सा ही अपिे देश की बोली से भी भाकवत कदिाई देती है , कजस कारण इिकी कहाकिय म कहदी के

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  • ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्पओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प--कवधािकवधाि

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 192

    अध्याय – पााँच

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प-कवधाि

    मिषु्य के जीवि में भाषा का अत्यिंत महत्व है । भाषा के माध्यम से वह मौकिक और कलकित

    अकभव्यकि करिे में समर्थ हो पाता है । साकहत्य सजृि में मािव सिंवेदिा, सामाकजक चेतिा तर्ा

    भाकषक कवधाि रचिाकार के कलए माध्यम अर्वा पे्ररक होते हैं । कजस समाज या सामाकजक वर्थ के

    पक्ष में रचिाकार िड़ा होता है उस पररवेश की भाषा का प्रभाव भी उसके साकहत्य में कदिाई देता ह।ै

    भावों की अकभव्यकि का माध्यम भाषा है और रचिा की सफलता का एक मापदिंड भी उसको मािा

    जाता है । भाषा कजतिी सरल और बोधर्म्य होती ह,ै उतिी ही प्रभावशाली मािी जाती है । भाषा का

    सजृि रचिाकार के पररवेशािकूुल कवककसत होता है । दकलत साकहत्य समाज के ऐसे वर्थ के लोर्ों के

    यर्ार्थ को प्रस्ततु करता है, कजसको सकदयों से समाज िे अपिे से दूर रिा है । इस कारण दकलत

    साकहत्य में वे सभी भाविाए ँएविं उपमाि कवद्यमाि कदिाई देते हैं, जो समाज से दूर रहिे के कारण

    उिमें पिपे हैं । यह भाविाए ँऔर उपमाि दकलत समाज के यर्ार्थ से रूबरू करािे में सहायक हैं ।

    सकदयों से समाज िे इि कपछड़े और दबे-कुचले लोर्ों को सामाकजक सिु-सकुवधाओ िं से विंकचत कर

    रिा है । ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले दोिों ही कहािीकार दकलत जाकत में पैदा हुए

    और आज साकहत्य के माध्यम से ये दोिों रचिाकार दकलत समाज की व्यर्ा को अकभव्यि कर रह े

    हैं । अिर्ढ़ता के रहते हुए भी दकलत साकहत्यकारों िे अपिी रचिाओ िं में सिंवेदिा को पूरी कशद्दत से

    व्यि ककया है । यही दकलत साकहत्यकारों की भाषा का सौंदयथ भी है ।

    दोिों कहािीकारों की कहाकियों का भाषागत वैकशष््टय

    शब्द भाषा की सबसे छोटी इकाई है और शब्दों के सार्थक प्रयोर् से वाक्य का किमाथण होता है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की भाषा सरल, सहज और व्यावहाररक होिे के सार्

    ही अपिे प्रदेश की बोली से भी प्रभाकवत कदिाई देती है, कजस कारण इिकी कहाकियों में कहिंदी के

  • ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्पओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प--कवधािकवधाि

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 193

    सार्-सार् अिंगे्रजी और अन्य कई भाषाओ िं के शब्दों का भी प्रयोर् कदिाई देता है । इन्होंिे अपिे

    साकहत्य में उन्हीं शब्दों को अकधकाकधक रूप में प्रयोर् ककया र्या ह,ै जो जि-सामान्य में रचे बसे हैं ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त अिंगे्रजी के शब्द

    इमरजेंसी, ड्यूटी, पोस्टमाटथम, हेडमास्टर, कडप्टी, केस, ररपोटथ, बे्रक, कॉल-बेल, पकुलस

    स्टेशि, सवे ऑफ इिंकडया, अिंटीजी, मेकडकल लीव, काडथ, वैड्स, मैिेजर, ड्राइवर, एयरबैर्, केकबि,

    कप्रिंकटिंर्, मकजस्रेट, पू्रफ, में स्टोरी, टेली कप्रन्ट, फैक्स, सेंसरकशप, हेड लाइि, ओ.के., एपू्रव, मूड,

    थ्री व्हीलर, एस.सी., परडे ग्राउिंड, लाइबे्ररी, कैसेट, स्रीि, पॉकलसी, ज्वाइि, स्टाटथ, पॉकेट, सेंरल,

    कोकडथिेशि, वकथ शॉप, सपुरवाइजर, िवथस, कशफ्ट, केकमकल प्लािंट, स्वीपर, शॉप, स्टैंड, प्रमोशि,

    मीकटिंर्, होमवकथ , एडमीशि, फाइिल, इयर, हॉस्टल, रकैर्िंर्, स्टूडेंट, इिंजीकियररिंर्, सीकियर, बेडरूम,

    ड्राइिंर्, अिंकल, एलॉट, पै्रकक्टकल, अटैंडेंस, दीि, इिंस्पेक्टर, एिकाउिंटर, फायररिंर्, स्पीड, वोट,

    लेबर, टूलडाउि, सस्पेंड, केकमकल प्लािंट, िवथस, कशफ्ट, ररफ़्यूजी, हेडलाइि, मैटर, कप्रिंकटिंर्, मूड,

    रसे्टोरेंट, इिंसलेट, र्ॉड फायररिंर्, कडस्टरकबिंर् एलीमेंट, चैररटी शो, फिं क्शि, फ्लैट्स, स्टाटथ, सेक्शि,

    ररपे्रजेंटेकटव, रेकिर् आकद ।

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त अिंगे्रजी के शब्द

    प्राइमरी स्कूल, मूड, कमेंट, बीयर, अिंकल, स्मूर्, सॉफ्ट, लाइफ, एडवोकेट, ऑकफस, पोंई िंट्स,

    हॉस्टल, पाटथिर, ररटायर, िाइट कॉलेज, रोड, रूम, हाटथ अटैक, बेडरूम, क्लकथ , मेजाररटी, ज्वाइि,

    लेटमाकथ , मेमो, िोटबकु, स्टेप बाय स्टेप, सेक्स, सीकियर डॉक्टर, स्टाफ रूम, गू्रप, कडकफकल्टी,

    हेड ऑफ दी कडपाट्थमेंट, लेडीज़ कॉिथर, फैशि, सीकियाररटी, जूकियर, कबल, हैड, प्रोसीजर, लाइबे्ररी,

    लोि, ऑप्शि, एज बार, कबकल्डिंर्, बोडीर्ाडथ, सपुरवाइजर, रकजस्टडथ पासथल, माक्सथ, ब्लैकमेल,

    कमलेरी, आर.आर.डी.सी., पोकस्टिंर्, रेकििंर्, कड्रल, पी.टी.,इिंस्रक्टर, ऑडथर, रररूट, राइफल,

    वायरलेस, एल.एम.जी., कैप्टि, टेकक्िकल, स्टेशि, स्क्वाड, शूकटिंर्, रेंड सोल्जर, बोर्ी, यूकिट,

    कब्रज, कैं प, सर, बेल-कस्वच, क्लॉक, टी.वी., फोि, टेबल, िाइट ड्यूटी, रे्ट, ऑफर, कॉलोिी,

    किेक्शि, मूड कडस्टबथ, सॉरी, पसथिेलटी, बोल्ड, बैलेंकसिंर्, रसे-हाउस, बीयर, कर्येटर, रोल

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 194

    चेयरमेि, ट्यूटोररयल, एडकमट, कटकफि, ककचि, कसर्रटे, कसटी बस, कािंकफडेंकशयल ररपोटथ,

    ऑपरशेि, बी.ए., मैकरक, बैच मॉकिटर, इिंस्रक्टर, पकिशमेंट स्टेशि, कडवीजि, इिंरीमेंट, मेमो,

    हरसमेंट, यूकियि, प्रमोशि, स्मूर् एकिकिस्रेशि, रे्स्ट, एक्स्प्लेिेशि, ऑडथर, यूरोकपयि, चॉइस,

    डस्टर, ग्रपु, कडकफकल्टी, अरेंज, करप, टाइमपास, फ़्लटथ, वकथ लोड, प्रोसीजर, पीररयड, आप्शि,

    सपुरवाइजर, ब्लैकमेल, कवदाउट कटकट, फ्रें कली, हैप्पी न्यू ईयर, ररवाइिंड, प्लीज, िॉिवेज, मेंबर,

    मुिंकसपाकलटी, अटेण्ड, मैकचिंर्, कलीर्, पीररयड, स्टाफ रूम, वकथ लोड, प्रोसीजर, लाइबे्ररी, कवदाउट

    कटकट, फैि, कवर स्टोरी, कैररयर, मेंबर, अटैंड, ररसीव, ओरल, ररटेि टेस्ट, रेकििंर् कॉल, फैशि,

    इइिंसटालमेंट, मिंर्-एिंड, टैक्स, लॉबी, रे्स्ट, फ्रिं टपेज, पाटथिर लॉज, कर्येटर, रोल, कडस्टबथ, ऑफर,

    रे्ट, रोमािंकटक आकद ।

    इि दोिों कहािीकारों की कहाकियों में अिंगे्रजी के शब्दों के सार् ही अिंगे्रजी के वाक्यों का प्रयोर्

    भी कदिाई देता है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त अिंगे्रजी के वाक्य

    1. हू आर यू ब्ल्डीफूल

    2. योर सकवथसेज़ आर टकमथिेटेड फ्राम टुडे

    3. आई कर्िंक यू हैव इग्िोडथ देम

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त अिंगे्रजी के वाक्य

    1. मे आय ककमि सर

    2. ओ माय र्ॉड, होररबल

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त अरबी के शब्द

    जाकहर, माकहर, तमीज़, तािाकशी, सलूुक, इशार,े िज़ररया, मशरू्ल, लहजे, कजर, तूल, सदमे,

    लफ़्ज, अजी, मलुाकजम, औक़ात, कफलहाल, बयाि, रुतबा, जाकलम, मलु्तवी, ख़्याल, मआुयिा,

    कजस्म वाककफ़, मकसद, जहालत, अहकमयत, इिंक़लाब, मकुदम, कफतरत, हुज्जत, मातम, मात,

    तकथ , हैरत, कशद्दत, मज़मूि, तसल्ली, तक़ाज़ा, शक्ल, कहमायती, लतु्फ़, इत्मीिाि, ज़ेहि, इिंकार,

  • ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्पओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प--कवधािकवधाि

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 195

    शरीफ़, मिुाकतब, ज़ाकहल, वहशीयत, हादसा, शैताकियत, शराफत, हालात, मासूकमयत, हरफ,

    वजूद, मौजूदर्ी, इिंतजाम, शरीक, मलुकजम आकद ।

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त अरबी के शब्द

    ऐश, दायरा, आफ़त, कफ़र, शऊर, हैवाि, र्लती, मज़ाक, वसूल, कशकायत, तफ़्सील, कजद,

    मतुाकबक, हाकज़र, इस्तीफ़ा, महरूम, तकलीफ़, कब्ज़े, मआुयिा, मफ़ुकलसी, कवायद, अदब,

    मदहोश, हस्बमामूल, इजाजत, जाकहर, तारीफ़, ख़बर, अहकमयत, जमािा, महसूस, कख़ताब, शरबत,

    तस्वीर, ररयासत, कसयासत, कहरासत, मातहत, माकहर, जब्त, जमाित, कबूल, मलुाकातें, वहशी,

    तकलीफ़, िसीब, मलुाकजम, िौफ़, तमाशा, वाकया, जलु्म, इजाफ़ा, ख़ाकतर, जमात, ताकत,

    काकफ़ला, ख़याल, कजस्म, इज्ज़त, अजाि, रक़म, जमाित आकद ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त फारसी के शब्द

    जारी, अिंदाज़, ख़ामोशी, सकुिथया,ँ ख़दु, रवैया, शह, ज़ख्म, र्िुाह, पेशर्ी, कजिंदाबाद, कमबख़्तों,

    र्ुिंजाइश, सख़्त, तलख़ी, बदौलत, तहख़ािे, दहशत, िाज़कु, शहतीर, साकज़श, कर्रफ़्त, बदहवास,

    िािाबदोश, तबाह आकद । इसके अलावा इिकी कहाकियों में अरबी-फारसी का सिंयिु रुप भी

    कदिाई देता ह,ै जैसे- सैलाब (अरबी+फारसी), बेशमी (फारसी+अरबी), र्मर्ीि (अरबी+फारसी),

    िेकिीयत (फारसी+अरबी),

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त फारसी के शब्द

    पाबिंद, रोज़, िदुकुशी, शकमिंदा, कर्रफ़्तारी, दहशत, तबदीली, कशकि, बेताब, िौबत, शोहदा,

    ख़ामोश, शबिम, िािदािी, िदु्दार, सकुिथया,ँ तलख़ी, कसफ़ाररश, िशुर्वार, दरकमयाि, आमदरफ़्त

    आकद । इसके अलावा इिकी कहाकियों में अरबी-फारसी का सिंयिु रुप भी कदिाई देता है, जैसे –

    बेतहाशा (फारसी+अरबी), बेशमुार (फारसी+अरबी), िशुकमजाज़ (फारसी+अरबी), सैलाब

    (अरबी+फारसी), बेइज़्जती (फारसी+अरबी), सरहद (फारसी+अरबी), वाकहयात (अरबी+फारसी),

    िजरअिंदाज (अरबी+फारसी) आकद ।

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 196

    भाषा में भदेसपि

    दोिों कहािीकारों िे अपिे अिभुवों को ही अपिे साकहत्य के माध्यम से समाज के सामिे

    प्रस्ततु ककया है । समाज िे उिके कलए कजस अभद्र भाषा का प्रयोर् ककया है, यर्ार्थ की अकभव्यकि

    के कलए इि दोिों कहािीकारों की कहाकियों में उस भाषा की झलक कदिाई देती है, कजसके कारण

    कहीं-कहीं इिकी भाषा में भदेसपि कदिाई देता है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों के उदाहरण

    1. “हरामी की औलाद ये डिंडा पूरा उतार दूिंर्ा ....तू मझेु तमीज कसिाएर्ा ....”1

    2. “भिंर्ी चमारों की यह कहम्मत । ....क्यू ँबे कबसिा तझेु प्रधाि इसीकलए बणाया र्ा ?”2

    3. “पता िहीं कहा-ँकहा ँसे इि किं जड़ों को पकड़कर घर ले आता है । िबरदार आरे् से ककसी

    हरामी को दोबारा यहा ँलाया ....”3

    4. “पिंडत, ये साले िीच लोर् िीच ही रहेंरे् । उिकी ही करामात है यह । इस र्ावँ में दीि-ईमाि

    तो अब रह िहीं र्या हैं । आज र्ोहत्या हुई ह,ै कल ककसी बच्चे की हत्या होर्ी । मैं भी ठाकुर

    की औलाद हू ँ....हार् ि काट कदए तो ...”4

    5. “क्यों बे ! मैंिे तझेु यहा ँमफु्तिोरी के कलए रिा है क्या...तीि-तीि जिों का पेट पल रहा ह ै

    इस र्ोदाम से । कफर भी बहािेबाजी ककए कबिा तू मािता ही िहीं....क्या इरादे हैं

    तेर.े...चूतड़ों पे चबी चढ़ र्ई है...”5

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों के उदाहरण

    1. “जेब काट ली भड़ुवे िे”6

    2. “तू इस हरामी के सार् सोई ”7

    3. “भड़ुए िे इतिा सब कुछ कैसे याद रिा होर्ा?”8

    4. “सर जी, परुुष का कशश्न महापाप है । स्त्री की योकि महापणु्य है । मआुफ कीकजए सरजी, मैं

    आपके घर में अश्लील बात कर रहा हू ँ। लेककि हमारी बस्ती में ऐसे शब्द चलते हैं। पिंकडत को

    जैसे सत्यिारायण की पोर्ी याद रहती है, वैसे ही हमें ये शब्द याद रहते हैं ।”9

  • ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्पओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प--कवधािकवधाि

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 197

    उपयुथि दोिों कहािीकारों की कहाकियों में अभद्र शब्दों का प्रयोर् ककया र्या है । कहाकियों को

    पढ़ते हुए ऐसा लर्ता है कक जाकतर्त बातें अभी भी समाज का पीछा िहीं छोड़ रही हैं । दकलत

    साकहत्यकारों की भाषा के कवषय में किं वल भारती कहते हैं, “मैं यहा ँ यह स्पष्ट करिा चाहूरँ्ा कक

    बलात्कार की कशकार कोई भी स्त्री श्ृिंर्ार की मोहक भाषा िहीं बोलेर्ी, र्लुामी का जआु ढो रह े

    व्यकि और अत्याचार से पीकड़त व्यकि की भाषा साकहकत्यक िहीं होर्ी । वह बर्ावत की भाषा होर्ी ।

    कशक्षा और सम्माकित कजिंदर्ी से दकलत सकदयों से विंकचत रहे हैं । उन्हें सिंस्कृत भाषा में बोलिे तक

    का किषेध र्ा । दकलत कहािी इसी यर्ार्थ से उपजी है इसकलए उसके पात्र वही भाषा बोल सकते हैं

    जो समाज िे उन्हें कसिायी है । प्रािंजल, साकहकत्यक भाषा में कल्पिा से सुिंदर कचत्र तो िींचे जा

    सकते हैं पर यर्ार्थ को अकभव्यकि िहीं ककया जा सकता ।”10

    शरणकुमार कलिंबाले की भाषा में समाज-व्यवस्र्ा को लेकर आरोश का स्वर काफी तीिा

    कदिता ह,ै इस कारण ये कहाकियों में जाकतर्त र्ाली देिे से भी परहेज िहीं करते । उदाहरण- “तभी

    मैं कह रहा र्ा कक ये बम्मि साला दकलतों की कज़िंदर्ी पर कैसे कलि सकेर्ा ? साले िे चोरी की है

    और महाि लेिक बि र्या ।”11

    शरणकुमार कलिंबाले की अिूकदत पसु्तक ‘दकलत साकहत्य का सौंदयथशास्त्र’ में कलिा है , “दकलत

    साकहत्य में व्यि हुए अिभुव सिंसार की अपेक्षा अलर् है । एक अलर् सिंसार, एक िया समाज, एक

    अलर् मिषु्य पहले-पहल साकहत्य में व्यि हुआ है । दकलत साकहत्य का यर्ार्थ अलर् है । इस यर्ार्थ

    की भाषा अलर् है । यह भाषा दकलतों की र्वािंर-असभ्य भाषा है । यह भाषा दकलतों की बोली भाषा

    है। यह भाषा कशष्ट सिंकेत और व्याकरण के कियम ि माििे वाली भाषा है । ऐसा कहा जाता है कक हर

    एक दस कोस पर भाषा बदलती है ककन्त ुदकलतों के सिंबिंध में अन्तर का र्कणत र्लत ठहरता है । एक

    ही र्ावँ की भाषा और अछूत टोली की भाषा में भेद कदिाई देता है ।”12

    ग्रामीण भाषा

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में ग्रामीण भाषा का पटु कदिाई देता ह,ै जबकक शरण कुमार

    की कहाकियों में ऐसी भाषा िहीं कदिाई देती है ।

  • ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्पओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का कशल्प--कवधािकवधाि

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 198

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त ग्रामीण भाषा

    1. “कजबते यो कजिावरों का डॉक्टर र्ावँ में आया है ..... म्हार ेतो पेट पर लात मार दी है

    सोहर ेिे ।”13

    2. “घर जाके रोटी-पाणी देि कलयो .....हमें आणे में देर हो जार्ी ।”14

    3. “झाड़-फँूक का कोई भी असर िा हो ररया है । तमु जाणो । जो भी ह,ै भूल-चूक की माफी

    दे दो । अब तो र्ारा ही आसरा है ।”15

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में कहीं-कहीं पिंजाबी का प्रयोर् भी है -

    1. “ओ, पतु्तर आ ....की हाल है तेर े।”16

    2. “कतयाररया ँकैसी चल रही हैं ।”17

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों के अिवुादक ‘किकशकािंत ठकार’ मराठी भाषी हैं, कजस कारण

    उिकी अिूकदत कहाकियों पर मराठी भाषा का प्रभाव कदिाई देता है ।

    जैसे – “उन्हें भी बड़ा सिु हो र्या ।’18

    ‘सर हॉस्टल के लड़कों की मजी सभँालते रहते हैं ।”19

    “पकुलस की और भी ज्यादा कुमकु आ जाती है ।”20

    प्रतीकात्मकता

    ककसी वस्त,ु पात्र की मूतथ पहचाि करिे की बजाय उसका प्रकतकिकधत्व करिे वाली वस्त ुप्रतीक

    है । जैसे- डॉ. अिंबेडकर की प्रकतमा दकलतों को उिके कायों के प्रकत कृतज्ञता का प्रतीक है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों के शीषथक प्रतीकात्मक हैं, तो शरणकुमार कलिंबाले िे अपिी

    कहाकियों में प्रतीकात्मक भाषा का समावेश ककया है । ओमप्रकाश वाल्मीकक िे ‘अिंधड़’ शब्द को

    कहािी का शीषथक बिाया ह,ै कजसका पात्र कम. लाल दकलत जाकत के अपमाि से बचिे के कलए अपिे

    ररश्तेदारों से सार ेररश्ते-िातों को ित्म कर लेता ह ैपर पत्िी के चाचा की मतृ्य ुके ददथ को वह अपिे

    भीतर समेट िहीं पाता । वह अपिी बेटी के सार् चाचा के घर देहारादूि चला जाता है । उसकी बेटी

    कपिंकी देहारादूि आकार उससे ढेरों सवाल पूछती है । “ कपिंकी िे मािों कम. लाल को रिंरे् हार्ों पकड़

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 199

    कलया र्ा । उसे चपु देिकर कपिंकी मिुर होिे लर्ी र्ी, डैड, इिसे अच्छा तो आपका अदथली रहता

    है। आपिे इिके कलए क्या ककया ? आई कर्िंक यू हैव इग्िोडथ देम (मझेु लर्ता है, आपिे इन्हें िजर

    अिंदाज ककया है) ....आपको ऐसा िहीं करिा चाकहए र्ा डैड । ये लोर् क्या सोचते होंरे् आपके बार े

    में?...डैड, हम मसूरी िहीं जाएरेँ् । यहीं रहेंरे् ....इि सबके सार् ....मैं इन्हें करीब से जाििा चाहती

    हू।ँ डैड, आप कहते हैं ये लोर् मेर ेिािा, मामा हैं ।...कफर मा ँयहा ँक्यों िहीं आई ?...कपिंकी के सवालों

    के उत्तर उिके पास िहीं रे् । उिकी चेतिा जैसे कुिं द हो र्ई र्ी । वे दोिों चपु हो र्ए रे् । दोिों के

    बीच जैसे अचािक र्हरी िाई बि र्ई र्ी । ....कम. लाल िे कमर ेकी बत्ती बझुा दी र्ी । अिंधेरा होते

    ही कम. लाल की स्मकृत में तेज अिंधड़ चलिे लरे् रे् ।”21 ….

    “मैं िहीं जािती सामाकजक सोच से

    आपका क्या आशय ह?ै लेककि डैड, ककसी भी बदलाव के कलए भार्िा तो समाधाि िहीं होता ।

    भार्कर हम उसे और बढ़ा देते हैं ।”22

    आत्मग्लाकि और हीिताबोध से अिंतमथि में उठी मािकसक पीड़ा और द्वन्द्व का प्रतीक अिंधड़ है ।

    इस कहािी में कम. लाल अपराधी की भाकँत अपिी ही बेटी के प्रश्नों से स्वयिं को दिंकडत महसूस करते

    हैं । परशेाि होिा, समझ ि आिा, क्या करें, क्या ि करें ? और अिंधेरा होते ही स्मकृत में तेज अिंधड़

    चलिे का आशय कपिंकी द्वारा ककए प्रश्नों का मकस्तष्क में बार-बार घूमिा, कवचकलत होिा आकद शब्द-

    कचत्र पात्र की हताशा और असफलता के प्रतीक हैं । इसी कहािी में ‘रात अन्य कदिों की अपेक्षा लिंबी

    हो र्ई र्ी ।’ रात का लिंबा होिा द:ुिों, समस्याओ िं और कष्टों की ओर सिंकेत करता है जो

    िकारात्मक कस्र्कत का सूचक है । प्रतीक के प्रयोर् से इिकी कहाकिया ँप्रभावशाली तर्ा जीविंत हो

    उठी हैं ।

    शरणकुमार कलिंबाले की कहािी ‘िार् पीछा कर रहे हैं’ में, जहरीले काले िार् की िजर तर्ा

    कोटथ की दीवार से िार्ों का दन्तहीि हो जािा, जैसे प्रतीकात्मक वाक्यों का प्रयोर् कहािी का

    भाषार्त वैकशष््टय है । उदाहरण – “कोटथ से बाहर किकलते वि मैंिे दौल्या की बीवी की ओर देिा

    र्ा। उसकी िजर में मझेु दौल्या की िजर कदिाई दी । वह िजर अब भी मेरा पीछा कर रही है । मैं

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 200

    भार् रहा हू ँऔर हजारों जहरीले काले िार् मझेु दिंश चभुािे के कलए मेरा पीछा कर रहे हैं ।....इस

    कोटथ की दीवारों िे ककतिे िार्ों को दिंतहीि कर कदया होर्ा ?”23

    इस कहािी में प्रयिु भाषा से कहािी का मूल भाव प्रकट हो जाता है कक कजस प्रकार अपिे

    प्रकतशोध के कलए िार् की िजर अपिे अन्यायकाररयों का पीछा करती रहती ह,ै उसी प्रकार इस

    कहािी में दौल्या की बीवी की आिँों को देिकर दौल्या के बचपि के कमत्र को डर का अहसास होता

    है । उसे ऐसा लर्ता है कक ये आिेँ उसे माफ िहीं करेंर्ी । कोटथ की दीवार का दिंतहीि हो जािा से

    आशय कािूिी व्यवस्र्ा के बाजारीकरण से ह,ै जहा ँपैसे के बल पर न्याय िरीदा जाता है और कजस

    के सार् अन्याय हो रहा ह,ै वह उि अर्थसिंपन्ि व्यकि के सामिे बेबस सा कदिाई देता है अर्ाथत् वह

    अन्याय से लड़िे की शकि िो बैठता है ।

    शरणकुमार कलिंबाले की ‘रोटी’ कहािी में ‘येसकर की लाठी’ आिसा के कलए अपिे पकत के सार्

    होिे का अहसास करता है । पकत की मौत के बाद “लव्हा मािंर् येसकर की लाठी मारँ्िे आ र्या र्ा ।

    िामा की येसकरी का काम लव्हा मािंर् के घर को सौंपा र्या र्ा । आिसा िे येसकर की लाठी लव्हा

    मािंर् को दे दी । मदथ जैसा आधार देिे वाली लाठी लव्हा मारँ् को देते हुए आिसा को अपिे कवधवा

    होिे का अहसास हुआ ।”24

    लाठी को दूसर े के घर जाता देि आिसा को बहुत द:ुि होता है । उसे ऐसा लर्ता है जैसे

    उसके जीवि का सहारा छीि कर ककसी और को दे कदया र्या है । येसकर की लाठी के दूसर ेके घर

    जािे से आिसा को कवधवापि का अहसास होता है । लाठी आिसा को उसके पकत के सार् होिे का

    अहसाह कराती है ।

    दोिों कहािीकारों िे कहाकियों में प्रतीकात्मक भाषा को बड़ी सहजता तर्ा सरलता के सार्

    व्यि ककया है । मािा जाता है कक साकहत्य का किमाथण कबिा कल्पिा के सिंभव िहीं है लेककि इसका

    यह मतलब कबल्कुल िहीं किकालिा चाकहए कक वह यर्ार्थ से दूर हो र्या इि दोिों कहािीकारों िे

    अपिी कहाकियों के माध्यम से उसी यर्ार्थ को उजार्र ककया है ।

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 201

    आलिंकाररकता

    आलिंकाररकता से कहािी में एक कवकशष्ट सौंदयथ आ जाता है । शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों

    में कहीं-कहीं आलिंकाररक भाषा का प्रयोर् कदिाई देता है, जैसे- ‘िीलू’ कहािी में उसकी सुिंदरता का

    वणथि करते हुए शरणकुमार कलिंबाले िे उपमािों का प्रयोर् कुछ इस तरह से ककया ह,ै “वह जब चलती

    है तब कमट्टी को र्कत कमल जाती है । वह जब बात करती है तब कदि भी कसतारों के मौर से भर जाता

    है । वह जब मसुकराती है तब पेड़ों िई कोपलें फूटती हैं । वह जब रोती है तब कसतार ेटूट पड़ते हैं।”25

    “र्ावँ के बदमाशों िे उसे सताया है । उसके होठों पार आर् िाच रही है । आिँों में बेकचरार्

    आरोश । कवद्रोह से किन्ि उसका चेहरा कैसा- रौद्र लर् रहा र्ा ।“26

    “मधमुक्िी जैसे सब तरफ से मध ुइकट्ठा करती है, वैसे ही तमु्हें भी अिभुवों को प्राप्त करिा

    चाकहए । इि अिभुवों का एक छत्ता बि जाएर्ा । तमु्हार ेअपिे अिभुवों का छत्ता । हमें अकग्ि

    छत्ता बिािा है , समझे ? तमु्हें इसमें कुछ और जोड़िा ही होर्ा ।”27

    अपिी कहाकियों में पररवेशािकूुल मौकलक सौंदयथ बोधक उपमाओ िं से यिु सहज-सरल भाषा के

    सार् ही शरणकुमार कलिंबाले िे पौराकणक पात्रों को उदाहरण की तरह प्रयोर् ककया है ।

    “र्ली के सार ेलड़के इकट्ठा हो र्ए । हड़बड़ी मच र्ई । सब मेरा अपमाि करिे लरे् । समीर

    जोशी चपुचाप बैठ र्या । द्रौपदी वस्त्रहरण के अवसर पर भीष्म और द्रोण इसी तरह मौि धारण

    कर चपु बैठे होंरे् । सौ लोर्ों की र्कलयों से ज्यादा जोशी का मौि मझेु बेचैि कर रहा र्ा ।”28

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में, शरणकुमार कलिंबाले की अपेक्षा भाषा का आलिंकाररक रूप

    कम कदिाई देता है । कुछ उदाहरण ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों के दृष्टव्य हैं -

    “शहर से दूर कदि-भर की र्हमा-र्हमी के बाद यह भट्टा अधेँर ेकी र्ोद में समा जाता है ।”29

    “लिंबरदार िे कालू को ऐसे घूरा जैसे जाल में फँसे कशकार को देिकर कशकारी देिता है ।”30

    कचत्रात्मकता

    कचत्रात्मकता भाषा का ऐसा र्णु है, कजससे कहािी को पढ़ते समय पाठक के मि में एक कचत्र-सा

    कििंच जाता है । ‘शवयात्रा’ कहािी में ओमप्रकाश वाल्मीकक िे कचत्रात्मक भाषा के द्वारा वातावरण का

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 202

    सजीव कचत्रण ककया ह,ै “चमारों के र्ावँ में बल्हारों का एक पररवार र्ा, जो जोहड़ के पार रहता र्ा ।

    चमारों और बल्हारों के बीच एक सीमा रिेा की तरह र्ा जोहड़ । बरसात के कदिों जब जोहड़ पािी

    से भर जाता र्ा तब बल्हारों का सिंपकथ र्ावँ से एकदम कट जाता र्ा । बाकी समय में पािी कम हो

    जािे से ककसी तरह वे पार करके र्ावँ पहुचँते रे् । याकि बल्हारों के र्ावँ तक जािे का रास्ता िहीं र्ा।

    रास्ता बिािे की जरूरत कभी ककसी िे महसूस ही िहीं की र्ी । ....जब ककसी चमार को उिकी

    जरूरत पड़ती तो जोहड़ के ककिार ेिड़े होकर आवाज लर्ा देता । जोहड़ इतिा बड़ा भी िहीं र्ा,

    कक बल्हारों तक आवाज ही ि पहुचेँ । आवाज सिुकर वे बाहर आ जाते रे् ।”31

    शरणकुमार कलिंबाले िे ‘अन्धेर ेका र्भथ’ कहािी में र्भथवती स्त्री की बादलों से तलुिा करते हुए

    इस रूप में कचकत्रत ककया है, “कोमल पावँों में मेंहदी रची हुए र्ी । कितिंभ र्ोल उभर ेहुए रे् । चनु्िटों के

    पीछे से उसका र्भथवती होिा ऐसे झाकँ रहा र्ा, जैसे बादलों के पीछे से चादँ झाकँता हो । बली की

    िजर वषाथ के पेट के आस-पास रेंर्िे लर्ी । वह किल उठा । र्भथवती वषाथ को देिकर उसे अपिी मा ँ

    याद आ र्ई ।”32

    काव्यात्मकता

    काव्य, र्द्य भाषा की कवशेष पहचाि िहीं है लेककि कभी-कभी भाषा में काव्यात्मकता के कारण

    लय का सजृि होता है । ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्राय: भाषा का यह र्णु कदिाई िहीं

    देता । शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में कहीं-कहीं काव्यात्मकता कदिाई देती है, जो कहािी को

    बाकधत िहीं करती बकल्क उसे और र्कतवाि बिाती है ।

    “मेर ेकलेजे का उद्घोष बि जाओ

    मेर ेआसँओु िं के कशलालेि बि जाओ

    मेरी मकुि के कशल्पकार बि जाओ”33

    “भूलिा चाहू ँतो भूल िहीं सकता

    तमु्हार ेरमणीय रूप को ।

    सह िहीं सकता इस बेचैिी को तमु्हार ेकबिा ।

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 203

    अकारण ही पहचाि हो र्ई

    इस तरह जीिे में मरिे की ।”34

    “हम राष्र की सरहद पर लड़ रहे हैं ।

    दिंर्ाई जाकत-धमथ की सरहद पर लड़ रहे हैं ।”35

    “जब राह ही श्मशाि से र्जुरती है,

    तब कचता को देिकर र्दर्द िहीं होिा है ।

    यकद उठा सके तो उठािा ह,ै

    कचता से अिंर्ार ।

    रािंकत के कलए कसिंर्ार मािकर ।”36

    वणणिात्मकता

    वणथिात्मकता से कहािी में ककसी घटिा या पात्र कवशेष का रूप कवस्तार ग्रहण करता है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में भी वणथिात्मकता का प्रयोर् कदिाई

    देता है । ओमप्रकाश वाल्मीकक ‘अम्मा’ कहािी में अम्मा का पररचय देते हुए कलिते हैं, “मैं कजस

    अम्मा की बात कर रहा हू ँ– उसका िाम क्या है, मैं िहीं जािता । शायद वह स्वयिं भी अभी तक

    अपिा िाम भूल चकुी होर्ी । क्योंकक जब वह मायके से ससरुाल आई र्ी तो सास-ससरु िे उसे ‘बहू’

    कहकर पकुारा, देवर और ििद िे उसे भाभी या भावज, पास-पड़ोस की बड़ी-बूकढ़यों िे उसके

    िसम के िाम पर ‘सकुड़ू की बहू’ िामकरण अिजािे में ही कर कदया र्ा । शरुू के कदिों में सकुड़ू

    उसका िाम िहीं लेता र्ा । िाम तो वह अब भी िहीं लेता । इि कदिों िाम लेिे की जरूरत ही िहीं

    पड़ती र्ी । कदि-भर तो वह मा-ँबहि के साए में कघरी रहती र्ी । देर रात सकुड़ू चपुके-चपुके उसकी

    चारपाई पर पहुचँता र्ा, वह भी चोर की तरह दबे पावँ ।”37

    शरणकुमार कलिंबाले की ‘सिंबोकध’ कहािी में एक कवशेष अवसर की तैयारी का वणथि इि शब्दों में

    ककया र्या है, “आसमाि में तािंडव शरुू हो र्या । वषाथ की बड़ी-बड़ी बूदेँ टपकिे लर्ी । राह चलते

    लोर् आश्य ढँूढिे लरे् आज सारी रात बाररश होती ही रहेर्ी । बाररश के ककवाड़ों को कीलों से

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 204

    जड़वा देिा चाकहए । आज बाररश िे रौद्र रूप धारण कर कलया है । कल सारी बस्ती िे चिंदा इकट्ठा

    ककया र्ा । पाषाड़ की मूकतथ र्ढ़वा ली र्ी । कल का कदि दकलत बस्ती के कलए त्यौहार का कदि र्ा ।

    कल बस्ती र्ािे वाली र्ी िाचिे वाली र्ी । बाबासाहब की मूकतथ की स्र्ापिा करिे वाली र्ी ।”38

    मिोवैज्ञाकिकता

    कहािी में पात्रों की मिोदशा का वणथि कहािी को प्रभावी बिािे में सहायक होता है ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक िे ‘मुिंबई कािंड’ कहािी में िायक की मिोदशा को वकणथत करते हुए कहा ह,ै

    “उसिे जैसे ही कदम आरे् बढ़ाया, उसके मकस्तष्क में एक कवचार कौंधा । क्षण भर के कलए उसे लर्ा

    जैसे कवद्यतु तरिंरे् उसके कजस्म में तैर र्ई हैं । वह कठठक र्या, अर े! मैं यह क्या कर रहा हू ँ। मुिंबई में

    ककसी िे मेर ेकवश्वास पर चोट की और मैं यहा ँककसी की आस्र्ा पर चोट करिे जा रहा हू ँ। कुछ र्ािंधी

    को ‘बापू’ कहते हैं और कुछ आिंबेडकर को ‘बाबा’ : वहा ँ‘बाबा’ कहिे वाले मार ेर्ए, यहा ँ‘बापू’ कहिे

    वालों पर भी र्ाज कर्र सकती है । जो भी हो मार ेतो किदोष ही जायेंरे् । ....वह पसीिे-पसीिे हो र्या

    र्ा ।....उसिे तय ककया, ‘िहीं, मैं एक र्िुाह का बदला दूसर ेर्िुाह से िहीं लूरँ्ा ।”39

    कर्ाकार िे िायक के मकस्तष्क में उठे प्रश्नों और उसके मि में चल रहे द्वन्द्व का मिोवैज्ञाकिक

    वणथि ककया है । यह मािव प्रवकृत है कक ककसी र्लत कायथ को करिे से पहले उसका मि बार-बार

    उसे वह र्लत काम करिे के कलए मिा करता है । इस दृकष्ट से ओमप्रकाश वाल्मीकक िे कहािी िायक

    की मिोदशा का बड़ा सटीक वणथि ककया है ।

    दकलतों के सार् प्रारिंभ से ही समाज िे ऐसा व्यवहार ककया है कक दकलत कहािीकार ईश्वर के

    प्रकत भी अपिे मि में बैठे आरोश को रोक िहीं पाते । उन्हें ऐसा लर्ता है कक भर्वाि भी इिंसाि की

    तरह ही भेदभाव रिता है । इसी ददथ को यर्ार्थ रूप देिे में शरणकुमार कलिंबाले की भाषा सार्थक

    साकबत होती है । मिषु्य सकदयों से कजस भेदभाव को भोर्ता आ रहा ह,ै उसे वह ईश्वरकृत मािता है

    लेककि शरणकुमार कलिंबाले इस बात को स्वीकार िहीं कर पाते । अपिे इसी क्षोभ को ‘समाकध’

    कहािी में व्यि ककया है । एक दकलत व्यकि की ईश्वर के प्रकत सोच को कहािीकार स्पष्ट करता हुआ

    कहता ह,ै “यहा ँका भर्वाि भी मिषु्यद्रोही है । वह सवणों को एक पलड़े में रिता है तो शूद्रों को

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 205

    दूसर ेपलड़े में तोलता है । सार ेहक-अकधकार वह सवणों को ही दे देता ह ै। यह समाज धमथ के कियमों

    से जकड़ा हुआ है । धमथग्रन्र् के पन्िे-पन्िे पर शूद्रों का अपमाि और उन्हें यातिा देिे के आदेश

    कमलते हैं । सोचता हू,ँ इि धमथग्रिंर्ों के पन्िे-पन्िे पर टट्टी कर देिी चाकहए । मूत से इि मिंत्रों को कभर्ो

    देिा चाकहए । इन्हीं मिंत्रों िे हमारी आदमीयत को िकारा है । हम भी उिके मिंत्रत्व को िकारते हैं । जो

    भर्वाि हमें अपकवत्र मािता है उसके कसर पर हम जूतोंवाले पैर रिकर िड़े होंरे् ।”40

    केवल ईश्वर के प्रकत िहीं, बकल्क सामाकजक मान्यताओ िं के प्रकत भी र्हरा आरोश इिकी

    कहाकियों मे कदिाई देता ह ै । शरणकुमार कलिंबाले की ‘जवाब िहीं मेर े पास’ कहािी में दकलत के

    आरोश को यर्ार्थ रूप से प्रस्ततु करिे में उिकी भाषा सफल साकबत होती है । “हजार वषों तक

    हम लाचार रे्, र्लुाम रे् । ककसी िे हम पर दया कदिाई, र्धे को र्िंर्ा कपला दी, लेककि हमें अिंजलुी

    भर पािी से महरूम रिा । र्ोमूत्र को पकवत्र मािा, लेककि हमार ेस्पशथ को अपकवत्र कहा । चींकटयों को

    शक्कर किलाई, लेककि हमें भीि तक िहीं दी । उिके मिंकदरों में कुते्त और कबकल्लया ँजा सकती हैं,

    लेककि हमें सीढ़ी के पास भी पहुचँिे िहीं कदया । इिके पािी भरिे के स्र्ाि पर जािवर पािी पी

    सकते हैं, लेककि समाि अकधकार से पािी पीिे के कलए हमें अपिी जाि र्वँािी पड़ती है । यह है इस

    सिंस्कृकत का बड़प्पि ! हमें र्ावँ की सीमा के बाहर रिकर सार ेकवश्व-भर को अपिा घर कहिा इिकी

    कुकटल िीकत है । अब हम अपिे अकधकारों की बात करिे लरे् हैं तो इन्हें कमचथ लर्ती है । बकुियादी

    तौर पर वे हमार ेअकधकार मािते ही िहीं । आरक्षण और योजिाओ िं के टुकड़े डाले जाते हैं । इससे

    समस्या सलुझ िहीं सकती ।”41

    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले िे अपिी कहाकियों में दकलतों को कमले

    अकधकार के प्रकत सवणथ व्यकि के रोष का बहुत अच्छा कचत्रण ककया ह,ै कजसका उदाहरण

    अग्रकलकित है -

    “रीढ़-वीढ़ कुछ िहीं शमाथजी...मर-मारकर काम करें हम और प्रमोशि कमले इि भिंर्ी-चमारों

    को...बस शमाथ जी अब सेंटर में बदलाव आिा ही चाकहए...िहीं तो ये लोर् देश को तबाह कर

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 206

    देंरे्...एक बार िौकरी में आरक्षण कमल र्या तो कफर प्रमोशि में आरक्षण देिे का क्या तकु ?....अिंगे्रज

    ऐसा बीज बो र्ए हैं कक पता िहीं कब तक भरु्तिा पड़ेर्ा ...”42

    “अजी पिंतजी, सभँाल के आ जाइए । छूत लर् जाएर्ी । इसे िहीं पहचािा आपिे ? यह आपिे

    सदाकशव का बेटा है । फौजी है ।”43

    महुावर ेतथा लोकोकक्त

    महुावर ेका प्रयोर् दैकिक जीवि में किरिंतर होता है । इिसे भाषा को िई अर्थवत्ता प्राप्त होती ह ै

    तर्ा भाषा अकधक जीविंत, व्यावहाररक और सशि बि पाठकों को प्रभाकवत करती है । ओमप्रकाश

    वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में अिायास ही महुावर ेऔर लोकोकि का समावेश

    हो र्या है कजिसे कहाकिया ँप्रभावशाली बि पड़ी हैं ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्राप्त महुावर े

    ‘िसें फड़फड़िा, आग्िेय िेत्रों से घूरिा, कठठककर मजा लेिा, कबयाबाि जिंर्ल उर्िा, बूढ़ी

    हड्कडयों में जोश आिा, रोम-रोम कापँिा, िाक रर्ड़िा, अवाक रहिा, हार् र्मथजोशी से पकड़िा,

    उल्लू की दमु, टस-से-मस ि होिा, र्ाली का बैंर्ि, र्ाज कर्रिा, कबफर पड़िा, रूह कापँिा, र्सु्से से

    उफििा, भूचाल आिा, िलबली मचिा, रिंरे् हार्ों पकड़िा, आसमाि टूट पड़िा, आिेँ छलछला

    आिा, ताक-झाकँ करिा, भिक लर्िा, उल्टे-पावँ लौटिा, त्यौररया ँचढ़ािा, काि में तेल डालिा,

    सन्िाटा छािा, कबजली कौंधिा, ठर्ा रह जािा, मि उचटिा, ति-मि छन्िी होिा, कन्िी काटिा,

    कजस्म पर चींकटया ँरेंर्िा, चेहर ेपर हवाइया ँउड़िा छुपे रुस्तम , मौत की शहतीर आकद ।

    ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहाकियों में प्रयुक्त लोकोकक्त

    पूजा के बित कुकतया हर्ाई होिा, कौवा भी हिंस िा बि सके है आकद ।

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 207

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त महुावर े

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयिु महुावर ेइस प्रकार हैं –‘ िूि िौलिा, ईद का चादँ,

    कोजाकर्री की पूिम, सनु्ि रह जािा, कघग्घी बिंध जािा, बदि ठिंडा पड़ जािा, िजर पर्रा जािा,

    कचिंर्ारी भड़कािा, िाक कट जािा, आिंिो में भर आिा, सनु्ि रह जािा, आिँों में तेल डालिा, बदि

    ठिंडा पड़िा, कलेजा कापँ उठिा, िार िािा, पैरों के िीचे की जमीि किसकिा, आहें भरिा आकद ।

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों में प्रयुक्त लोकोकक्त

    उसके िािे के दािंत अलर् और कदिािे के अलर्, रक्षक ही भक्षक बिा, र्रीब की बहू सबकी

    जोरू, दमड़ी के कलए चमड़ी कमल जाएर्ी, ि माधव का कुछ लेिा ि ऊधों को कुछ देिा, हम भले

    अपिा काम भला, कजस र्ावँ में ब्राह्मण देवता िहीं उस र्ावँ में झर्ड़ा-टिंटा िहीं आकद ।

    शैलीगत वैकशष््टय

    कजस प्रकार ककसी रचिा को प्रभावी बिािे में भाषा का महत्वपूणथ योर्दाि रहता ह,ै उसी प्रकार

    शैली भी उसके सौंदयथ को कििारिे का कायथ करती है । कोई भी रचिा अपिे कशल्प के कारण मािस

    पटल पर अलर्-अलर् प्रभाव छोड़ती है । जब ककसी रचिा का सजृि ‘मैं’ को कें द्र में रिकर ककया

    जाता ह,ै तब उसकी शैली को आत्मकर्ात्मक-शैली कहा जाता है । रचिाकार इसमें समाज की

    समस्याओ िं को ‘स्वयिं’ से जोड़कर देिता है । वह या तो िदु को कहािी के कें द्र में रिकर सजृि

    करता चला जाता है अर्वा र्ौण पात्र के रूप में कहािी मे उपकस्र्त रहता है । मराठी साकहत्यकार

    शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों मे आत्मकर्ात्मक शैली के उदाहरण प्राय: प्रयिु होते हैं, जबकक

    ओमप्रकाश वाल्मीकक में आत्मकर्ात्मक शैली के उदाहरण िहीं कमलते हैं । शरणकुमार कलिंबाले िे

    अपिी अकधकतर कहाकियों में ‘स्वयिं’ को ही मखु्य पात्र के रूप में रिकर कहािी को आरे् बढ़ाया है ।

    उदाहरण- “समीर जोशी की बातें सिुकर मझेु बरुा लर्ा । मैं ककसी महार से दोस्ती करता तो वह

    जाि कुबाथि कर देता । अपिा चिुाव ठीक िहीं र्ा । समीर जोशी चला र्या । मैं बाघ की तरह उिसे

    झर्ड़ा करँूर्ा । अन्याय सहि िहीं करँूर्ा । सबको कुचल डालूरँ्ा । कहते हुए मैं उठ र्या । बाहर

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 208

    ‘र्णपकत बाप्पा मोरया’ का शोर जारी र्ा । डिंडे और लेजम की आवाजें कािों के पदे फाड़ रही र्ी ।

    मेरा िूि उबल पड़ा । मेरी शकि समाप्त हो र्यी र्ी । मैं जल उठा पत्िी िे मझेु रोकते हुए कहा,

    अजी, ब्राह्मण उकसािे का ही काम करते आए हैं । जोशी िे आपको उकसाया है ।”44

    कर्ा-साकहत्य में वणथि एक सहज शैली है । कहािी के पात्रों के चररत्र-कचत्रण रुकचया-ँअरुकचया ँ

    अर्वा घटिाओ िं के वणथि पर कर्ा का पूरा प्रभाव कटका होता है । कोई भी कहािी कजतिी स्पष्ट,

    माकमथक, सहज और वणथिात्मक होर्ी अकधक प्रभावशाली होर्ी । कहिंदी के कहािीकार ओमप्रकाश

    वाल्मीकक और मराठी के कहािीकार शरणकुमार कलिंबाले िे अपिी कहाकियों में वणथिात्मक शैली का

    प्रयोर् ककया है । ओमप्रकाश वाल्मीकक की कहािी ‘घसुपैकठये’ में इिके द्वारा प्रयोर् की र्ई

    वणथिात्मक-शैली का एक अिंश प्रस्ततु है :-

    “यह तो सरासर जलु्म ह,ै राकेश िे उते्तकजत होते हुए कहा । अमरदीप िे राकेश की ओर

    देिा....अभी कुछ कदि पहले ऐसी ही बस में फाइिल के प्रणव कमश्ा िे कचल्लाकर आवाज लर्ाई तो

    बस में सभुाष सोिकर र्ा, जो प्रणव की आवाज पर चपुचाप रहा । सोिकर के पास जो छात्र बैठा

    र्ा, उसिे इशार ेसे बता कदया कक सोिकर यहा ँबैठा है । प्रणव कमश्ा अपिी अवहेलिा पर कतलकमला

    र्या । सोिकर के बाल पकड़कर अपिी ओर िींचे , क्यों बे चमरटे सिुाई िहीं पड़ा हमिे क्या कहा

    र्ा ? सोिकर िे अपिे बाल छुड़ािे की कोकशश की....मैं चमार िहीं हू ँ । बालों की पकड़ इतिी

    मजबूत र्ी । सोिकर कराह उठा । प्रणव कमश्ा का झन्िाटेदार र्प्पड़ सोिकर के र्ाल पर पड़ा ।

    (र्ाली) चमार हो या सोिकर.... ब्राह्मण तो िहीं हो .... हो तो कसफथ कोटे वाले .... बस इतिा ही

    काफी ह,ै प्रणव कमश्ा िे सोिकर को लात-घूसँों से अधमरा कर कदया । पूरी बस में ठहाके रू्जँ रह ेरे्

    .... बाबा साहब के िाम पर र्ाकलया ँदी जा रही र्ीं । प्रणव कमश्ा के इस शौयथ पर उसे शाबाकशया ँ

    कमल रही र्ीं ।”45

    शरणकुमार कलिंबाले िे दकलतों की सामाकजक कस्र्कत को ‘आत्मकर्ा’ कहािी में इस प्रकार

    वकणथत ककया ह,ै “अिसूुकचत जाकतयों में मेरी जाकत अलर् है । मेरी जाकत की कवशेषता यह है कक अभी

    तक साकहत्य में मेरी जाकत के द:ुि ददथ को वाणी िहीं कमल सकी है । दकलत साकहत्य में अकधकतर

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 209

    ‘महार’ जाकत के ही अिभुवों की अकभव्यकि हो पायी है । दकलतों में कई जाकतया ँहैं । उि तक अभी

    कशक्षा का सिंस्कार पहुचँ िहीं पाया है । वे सकुवधाओ िं का लाभ िहीं उठा सकी हैं । बाबासाहब

    अिंबेडकर की वजह से महार जाकत जल्दी साक्षर हो र्यी । सिंर्कठत हो र्ई । इस जाकत के पास सिंर्ठि

    है । इससे उन्हें सकुवधाओ िं का लाभ कमल जाता है लेककि दकलतों की अन्य जाकतया ँअभी भी अिंधेर ेमें

    लड़िड़ा रही हैं । अिंबेडकर जी के कवचारों का महत्व अब उिके जेहि में आिे लर्ा है । अिंबेडकर जी

    का सोच समूचे सवथहारा का सोच है । हम सबकी मकुि की सोच है । अब हम इसे पहचाििे लरे् हैं ।”46

    सिंकक्षप्त-सिंवाद शैली दोिों कहािीकारों की कहाकियों को आरे् बढ़ािे में सहायक साकबत हुई

    है । इि सिंकक्षप्त सिंवादों से कहाकियों के प्रवाह में कोई बाधा उत्पन्ि िहीं होती है ।

    “तमु आकिरी बार कह रही हो ?

    बार-बार इसी कवषय पर क्या कहेंरे् ?

    मैं क्या समझू ँ?

    मैं क्या बता सकती हू ँ!

    तमु मेर ेसार् शादी िहीं करोर्ी ?

    सिंभव िहीं ।

    दोस्ती ?

    वह तो है ही ।”47

    “क्या बाहर किवन्या िहीं है ?

    िहीं, वह पािी लािे कुए ँके पास र्या है ।

    क्या काम है ?

    मझेु आप से कुछ बात करिी है ।

    लेककि मझेु िहीं करिी है । बाहर किकाल जाओ ।”48

    “बात क्या है ?कुछ कहो तो । ऋकष िे पूछा ।

    ऋकष, तमु तो समझदार और पढ़े-कलिे आदमी हो ....वह र्ौतम वहा ँबैठा है ।

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    ओमप्रकाश वाल्मीकक और शरणकुमार कलिंबाले की कहाकियों का तुलिात्मक अध्ययि 210

    सबसे आरे् ।

    तो ?

    तो क्या ? उसे और उसके बच्चों को उठाकर पीछे बैठाओ..

    लेककि क्यों ?”49

    “राकेश साहब, सभुाष सोिकर बकल चढ़ र्या है...

    क्या ?....राकेश िे लर्भ�