किशोर दूरदर्शन दर्शकों के लिंग...

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अयȡय - थम Ǘ मिȡ िशȪरȡवथȡ एवȲ षयȲिȡरȣ यवहȡर िशȪरȡवथȡ बȡि िȯ विȡस म मɅ आनȯ वȡȣ वह अवथȡ हȰ ǔजसमɅ वƴ हȪ जȡनȯ पर बȡि न तȪ बȡि रह जȡतȡ हȰ और न हȣ ȫढ िहȡ जȡ सितȡ हȰ। इस िȡर यह एि सȲमण िȧ अवथȡ हȰ। आसǕब (2007) िȯ अनǕसȡर "हमȡरȣ सȲि Ǚ Ǔत मɅ िशȪरȡवथȡ िȪ य िȧ जȰव-सȡमȡǔजि ǔथǓत िȡ एि सȲमण िȡ िहȡ जȡ सितȡ हȰ ǔजसमɅ ितशयɉ, ǔजमȯदȡǐरयɉ, वशȯषȡििȡरɉ तथȡ अय Ȫगɉ िȯ सȡथ सबिɉ मɅ अयȡिि पǐरवतशन हȪ जȡतȯ हɇ। ऐसȢ पǐरǔथǓतयɉ मɅ अपनȯ मȡतȡ-पतȡ, सȡथयɉ और दǗसरɉ ि ȯ Ǔत अभव Ǚ यɉ मɅ पǐरवतशन आनȡ अǓनवȡयश हȪ जȡतȡ हȰ"। इस अवथȡ मɅ बȡयȡवथȡ िȧ ȡय: सभȢ शȡरȣǐरि व मȡनसि वशȯषतȡओȲ िȡ Ȫप हȪ जȡतȡ हȰ और उनिȯ थȡन पर नवȢन गǕणɉ िȡ आवभȡशव हȪनȯ गतȡ हȰ। वशȯषǾप सȯ िशȪरɉ िȯ भȢतर शȡरȣǐरि, सȲवȯगȡमि, सȡमȡǔजि तथȡ मȡनसि पǐरवतशन ǺƴगȪचर हȪतȯ हɇ। यƭप पǗवश -िशȪरȡवथȡ मɅ इन पǐरवतशनɉ िȡ वǾप वȰसȡ नहȣȲ हȪतȡ जȰसȡ उर-िशȪरȡवथȡ िȯ अȲǓतम वषɟ मɅ Ǒदखȡई पतȡ हȰ। िशȪरȡवथȡ ȡय: तȯरह वषश सȯ बȢस-इिȧस वषश िȯ बȢच फ़Ȱ ȣ ह Ǖ ई मȡनȢ जȡतȢ हȰ। आजि जब यǕवि इिȧस वषश िȡ हȪ जȡतȡ हȰ, तब उसȯ िȡनǗनन ȫढ यȡ पǐरपव मȡनȡ जȡतȡ हȰ। िशȪरȡवथȡ ȫढव िȧ तȰयȡरȣ िȡ समय हȰ जब बȡȪचत यवहȡर एवȲ अभव Ǚ यɉ िȡ थȡन ȫढȪचत यवहȡर एवȲ अभव Ǚ Ǔतयȡȱ ȯ ȯतȢ हɇ। िशȪरȡवथȡ िȡ महव य िȯ जȢवन मɅ अयिि हȪतȡ हȰ। वȡतव मɅ यह अवथȡ य ि ȯ Ǔनमȡशण

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  • अध्याय - प्रथम

    भूलमिा

    किशोरावस्था एविं षड़यिंत्रिारी व्यवहार

    किशोरावस्था बा ि िे वविास क्म में आने वा ी वह अवस्था है स्जसमें प्रववि हो

    जाने पर बा ि न तो बा ि रह जाता है और न ही प्रौढ िहा जा सिता है। इस प्रिार

    यह एि सिंक्मण िी अवस्था है। आसुब (2007) िे अनुसार "हमारी सिंस्िृनत में

    किशोरावस्था िो व्यडक्त िी जैव-सामास्जि स्स्थनत िा एि सिंक्मण िा िहा जा सिता है

    स्जसमें ितशव्यों, स्जम्मेदाररयों, ववशेषाधििारों तथा अन्य ोगों िे साथ सम्बन्िों में

    अत्याधिि पररवतशन हो जाते हैं। ऐसी पररस्स्थनतयों में अपने माता-वपता, साधथयों और दसूरों

    िे प्रनत अलभववृत्तयों में पररवतशन आना अननवायश हो जाता है"। इस अवस्था में बाल्यावस्था

    िी प्राय: सभी शारीररि व मानलसि ववशेषताओिं िा ोप हो जाता है और उनिे स्थान पर

    नवीन गुणों िा आववभाशव होने गता है। ववशेषरूप से किशोरों िे भीतर शारीररि,

    सिंवेगात्मि, सामास्जि तथा मानलसि पररवतशन दृविगोचर होते हैं। यद्यवप पूवश-किशोरावस्था

    में इन पररवतशनों िा स्वरूप वैसा नहीिं होता जैसा उत्तर-किशोरावस्था िे अिंनतम वषों में ददखाई

    पड़ता है।

    किशोरावस्था प्राय: तेरह वषश से बीस-इक्िीस वषश िे बीच फ़ै ी हुई मानी जाती है।

    आजि जब युवि इक्िीस वषश िा हो जाता है, तब उसे िानूनन प्रौढ या पररपक्व माना

    जाता है। किशोरावस्था प्रौढत्व िी तैयारी िा समय है जब बा ोधचत व्यवहार एविं

    अलभववृत्तयों िा स्थान प्रौढोधचत व्यवहार एविं अलभवनृतयाूँ े ेती हैं। किशोरावस्था िा

    महत्व व्यडक्त िे जीवन में अत्यधिि होता है। वास्तव में यह अवस्था व्यडक्त िे ननमाशण

  • िी अवस्था होती है। बा ि िे प्रौढ जीवन िी रूपरेखा इसी अवस्था में बनिर तैयार हो

    जाती है।

    किशोरावस्था िी एि महत्वपूणश ववशेषता उसिी सािंवेधगि अस्स्थरता होती है, स्जसिे

    फ स्वरूप उसिे सामास्जि सम्बन्िों में भी अस्स्थरता पाई जाती है। किशोर िी रूधचयों,

    मनोवनृतयों और इच्छाओिं में भी शीघ्रता से पररवतशन होता रहता है। वास्तव में इस अवस्था

    में उसिे सिंबिंि व्यापि होने गत ेहैं तथा उस पर िई ददशाओिं से प्रभाव पड़ने गता है।

    अत: उसिे सामास्जि-नैनति मूल्यों में दृढता नहीिं आ पाती। जीवन िी प्रत्येि अवस्था में

    व्यडक्त िो किसी न किसी प्रिार िी समस्या िा सामना अवश्य िरना पड़ता है, परन्तु

    किशोरावस्था िी समस्याएूँ अपेक्षािृत अधिि गिंभीर एविं जदट होती हैं। अपनी ववलशिताओिं

    िे िारण किशोरावस्था एि अत्याधिि सुझावग्रहणशी ता िी अवस्था होती है, स्जसमें

    किशोर अपने बाह्य वातावरण से प्राप्त होने वा े प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सुझाव सिंिेतों िो आसानी

    से स्वीिार िर ेता है। बाह्य वातावरण िे प्रनत यह सुझावग्रहणशी ता उसे िाल्पननि

    “मॉड ों” िे अनुरूप व्यवहार िरने िे ल ए तीव्र रूप से प्रवतृ्त िरती है। राघव एविं िुमार

    (2010) िे अनुसार बाल्यावस्था एविं किशोरावस्था अवसर तथा जोणखम िा समय है।

    सामास्जि दवॄििोण से भी यह अवस्था अत्याधिि सिंवेदनशी अवस्था है। इस दौरान

    ववलभन्न सिंचार माध्यमों िे समक्ष बबताया गया समय अन्य सकक्य एविं साथशि क्ष्यों यथा

    पढना, लमत्रों िे साथ खे िूद, एविं व्यायाम आदद िो प्रनतस्थावपत िर देता है। िक्िर एविं

    सहयोदहयों (2006) ने भी अपने अध्ययन में पाया कि बच्चों िा सिंज्ञानात्मि वविास इस

    बात पर भी ननभशर िरता है कि वे सिंचार माध्यमों िे आिार पर अपनी िल्पनाशडक्त िा

    अभ्यास िरते हैं। अपने म्बवत ्अध्ययन िे आिार पर ब्रायन (2009) ने यह बताया कि

    स्जन किशोरों ने टी.वी. िे समक्ष ज्यादा समय गुजारा उनमें अवसाद िे क्षण ज्यादा

  • वविलसत हुये, जबकि इतना ही समय टी.वी. िे समक्ष गुजारने वा े वयस्ि स्त्री व परुूष पर

    इसिा प्रभाव उतनी तीव्रता से नहीिं पड़ा ।

    किशोरावस्था िी इस उच्च सुझावग्रहणशी ता एविं उनमें सािंवेधगि उदो नों िे ववशेष

    पररपे्रक्ष्य में उनिे सामास्जि रूप से ऋणात्मि व्यवहारों में सिं ग्न होने िी प्रववृत्त भी तीव्र

    हो जाती है। षड़यिंत्रिारी व्यवहार भी एि ऐसा ही ऋणात्मि व्यवहार है जो पररवार, समाज

    में ववघटन हेतु स्जम्मेदार है। षड़यिंत्रिारी व्यवहार एि अत्यिंत अवप्रय, गैरिानूनी व

    अववश्वसनीय योजना है, जो दो या अधिि व्यडक्तयों द्वारा अवैि या अवप्रय उद्देश्यों िे ल ए

    बनायी जाती है।

    इसिी वववेचना मनोवैज्ञाननि रूप से भी िी जा सिती है। इसिे अनुसार अवप्रय

    स्स्थनत उत्पन्न िरने या व्यवहार िरने िे ल ए व्यडक्त िे पास एि छुपा हुआ िारण होता है

    स्जसिे फ़ स्वरूप वह एि ववशेष प्रिार िे व्यवहार िी ओर प्रवतृ होता है। षड़यिंत्रिारी

    व्यवहार िा प्रत्यय ्एि किये गये व्यवहार अथवा सामास्जि प्रकक्या ति ही सीलमत नहीिं है

    बस्ल्ि यह प्रत्यय अधिि सामान्य व ववस्ततृ है।

    वतशमान शोि िे पररपे्रक्ष्य में षड़यिंत्र शब्द िा उपयोग किसी व्यडक्त िे ऐसे ऋणात्मि

    व्यवहार या िायश िे ल ए प्रयुक्त किया गया है स्जससे व्यडक्त अवािंनछत तरीिे से सामास्जि,

    आधथशि, अथवा मनोवैज्ञाननि ाभ प्राप्त िरना चाहता है। षड़यिंत्र िा िारण उपेक्षा िा

    आिंतररि भय हो सिता है अथवा किसी ऐसे व्यडक्त िे अनुिरण िी नछपी हुई प्रवनृत स्जससे

    ववषयी गहन रूप से प्रभाववत हो, इस षड़यिंत्रिारी व्यवहार िी जनि हो सिती है।

    षड़यिंत्र िा सिंबिंि सिंचार माध्यमों िे व्दारा ददखाए जाने वा े ऋणात्मि व्यवहार तथा

    उससे सिंबिंधित पररस्स्थनतयों िे प्रनत सुझावग्रहणशी ता से है। टी.वी. िे प्रभाव िे िारण

    व्यडक्त इस बात से अलभपे्रररत होते हैं कि ऋणात्मि व्यवहार से भी वे अप्रत्यक्ष रूप से

  • ाभास्न्वत हो सिते हैं। इस ऋणात्मि व्यवहार िा सिंबिंि व्यडक्त िी सुझावग्रहणशी ता से

    है।

    "षड़यिंत्र लसद्ािंत" शब्द िा प्रथम उपयोग 1909 में किया गया। मू रूप में इस शब्द

    िा प्रयोग एि तटस्थ शब्द िे रूप में किया गया, परन्तु 1960 िी राजनैनति उिापटि िे

    दौरान इस शब्द ने वतशमान समय िे ऋणात्मि अथश िो पाया। आक्सफोडश िे अिंगे्रजी

    शब्दिोश में इसे 1997 में शालम किया गया।

    राजनैनति वैज्ञाननि लमशे बारिून (1980) ने षड़यिंत्र लसद्ािंत िे ननम्नल णखत तीन

    प्रिारों िा वणशन किया है।

    (१) घटना षड़यिंत्र लसद्ािंत : इस लसद्ािंत िे अनुसार षड़यिंत्र िो एि सीलमत अ ग

    घटना या घटनाओिं िे समूह िे ल ए स्जम्मेदार माना गया है, स्जसमें षड़यिंत्रिारी

    ब ों िो अपनी ऊजाश एि सीलमत तथा सुपररभावषत क्ष्य पर दोषारोवपत िी

    जाती है। इसिा सवशज्ञात उदाहरण िेनेडी हत्या षड़यिंत्र सादहत्य (1990) है।

    (२) व्यवस्स्थत षड़यिंत्र लसद्ािंत : इस लसद्ािंत में यह माना जाता है कि षड़यिंत्र िे

    ववस्ततृ क्ष्य होते हैं। सामान्यत: जैसे किसी क्षेत्र, देश, यहाूँ ति कि पूरे ववश्व िो

    अपने ननयिंत्रण में ेना। यह षड़यिंत्र लसद्ािंत में एि सामान्य धचत्रण ही है स्जसिे

    अन्तगशत ज्यूस (Jews),मेसन ् स (Masons) तथा िेथोल ि (Catholic) चचश िे

    लमशनरी आदद िी चचाश िी जाती है। इसिे अनतररक्त इस षड़यिंत्र लसद्ािंत में

    'िम्युननस्म' अथवा अन्तराष्ट्रीय पूिंजीवादी भी शालम हैं।

    (३) ‘सुपर’ षड़यिंत्र लसद्ािंत : इस लसद्ािंत में यह माना जाता है कि बहु-षड़यिंत्र एि-

    दसूरे िे साथ पदानुक्म तरीिे से जुडे़ रहते हैं। इसिे अनुसार घटना एविं व्यवस्था

  • एि जदट तरीिे से जुडे़ होते हैं ताकि षड़यिंत्रिारी व्यवहार आपस में सिंबिंधित

    रहें। इस लसद्ािंत ने 1980 िे दौरान प्रच न पाया (आइिे एविं िूपर, 1982)।

    आज िी प्रनतस्पिाशपूणश आिुननि जीवन में हर व्यडक्त दसूरों से आगे बढना चाहता है कफर

    वह शकै्षक्षि पररस्स्थनत हो, पाररवाररि स्स्थनत हो या कफर सामास्जि िायश स्स्थनत हो। अपने

    क्ष्य िो जल्दी प्राप्त िरने में व्यडक्त अपनी उजाश स्वयिं िे िायश पर खचश न िर अन्य

    व्यडक्तयों िे िायों िे ईष्यापूणश अव ोिन पर ज्यादा खचश िर रहा है। ऐसी स्स्थनत में उसिी

    समस्त मानलसि व शारीररि ऊजाश अन्य व्यडक्तयों िे क्ष्य िी ओर तेजी से बढते िदमों िो

    रोिने, उन्हें क्ष्य बाधित िरने अथवा उन्हें अन्य प्रिार से परेशान िरने में ही खचश हो

    जाती है, और वह ववलभन्न सामास्जि रूप से ऋणात्मि व्यवहारों में सिं ग्न होता जाता है।

    षड़यिंत्रिारी व्यवहार भी एि ऐसा ही सामास्जि रूप से ऋणात्मि व्यवहार है, स्जसिे अिंतगशत

    व्यडक्त अपने ननदहत स्वाथश िे िारण अन्य व्यडक्तयों िे ववरूद् सास्जश रचता है और उसिे

    कक्यान्वयन में अपनी समस्त मानलसि-शारीररि ऊजाश िा हनन िरता है। इस सारे प्रयास

    में वह क्षक्षत व्यडक्त िो व्यडक्तगत, सामास्जि, शारीररि या आधथशि हानन पहुूँचाने िे ल ए

    दृढ सिंिस्ल्पत प्रतीत होता है।

    मानव व्यवहार िे ननिाशरि िे रूप में उसिी आनुवािंलशिता व वातावरण िी प्रमुख

    भूलमिा होती है। वातावरण में रहते हुए व्यडक्त ववलभन्न सामास्जि अिंत:कक्याओिं िे दौरान

    ववलशि व्यवहारों िो सीखता है। बेन्दरूा (2002) ने अपने सामास्जि अधिगम लसद्ािंत में इन

    व्यवहारों िे सीखने में सामास्जि ‘मॉड़ ो’ िी भूलमिा िे महत्व िो समझाया है। सिंचार

    माध्यमों में टी.वी. द्वारा ऐसे ही सशक्त व तीव्र ‘मॉड ों’ िा पररचय अप्रत्यक्ष रूप से दशशिों

    िो होता है।

  • टी.वी. दहिंसा एविं षड़यिंत्रिारी व्यवहार

    आज टी.वी. इस पृ् वी पर रहने वा े गभग हर पररवार िा एि महत्वपूणश सदस्य बन

    गया है क्योंकि इसिे नजदीि गुजारा गया समय पररवार िे अन्य सदस्यों व्दारा आपस में

    गुजारे गए िु समय से भी ज्यादा है। टी.वी. िे साथ अिंत:कक्या िरते समय बात िरने िे

    ल ए िोई प्रयास नहीिं िरना पड़ता, या कफर किसी िी लशिायत िो सुनने िे आवश्यिता ही

    नहीिं पड़ती। व्यडक्त िो आकफस में थिान दद ाने वा े िायश िे पिात ्अपने छोटे बच्चों िे

    साथ बो ने िी बाध्यता नहीिं रहती। इस स्स्थनत िो िोई सम्मान नहीिं देता और न ही

    इससे खुश रहता है, परन्तु एि बार टी.वी. िो चा ू िर देने िे पिात ्सभी असुवविाएूँ

    समाप्त हो जाती हैं। बच्चे शािंत हो जाते हैं, पत्नी लशिायत िरना बिंद िर देती है और आप

    पूणशत: आनिंददत हो जाते हैं। यह सब इतना सर है कि आज टी.वी. हर पररवार िी

    सिंस्िृनत िा एि अहम ्दहस्सा बन चुिा है। यही एि समय है जब एि व्यडक्त अपनी समस्त

    पाररवाररि समस्याओिं िो, िायश िी असफ ताओिं िो भू जाता है। टी.वी. िे सामने रखा

    सोफा पररवार िी मे -लम ाप एविं आध्यास्त्मि एिात्मता िा प्रतीि बन जाता है।

    एि साथ खे ने व आपस में सिंवेगपूणश बातचीत िरने िी बजाय व्यडक्त टी.वी. िे 'धि र'

    िारावादहि िो देखना ज्यादा पसिंद िरता है। टी.वी. िे अस्स्तत्व िे िारण मानव व्यवहार

    व समाज पर पड़ने वा े ऋणात्मि प्रभावों िो निारना अथशहीन है, परन्तु इस सन्दभश में

    महत्वपूणश त्य यह है कि ोग इस बात िो स्वीिार नहीिं िरना चाहते तथा प्राय: इस िो

    तिश पूणश बताने िा प्रयास िरते हैं। आज िे बच्चे भववष्य िे आिार हैं। ये बच्चे जैसे

    वविलसत होंगे, यह इस बात िो ननिाशररत िरेगा कि यह ववश्व ि भववष्य में िैसा ददखेगा।

    यद्यवप हर पा ि िो टी.वी. िे ऋणात्मि प्रभावों िी जानिारी है परन्तु वे अपने बच्चों िो

    अिंत:कक्या व्दारा लसखाने िी स्जम्मेदारी स्वयिं नहीिं ेिर टी.वी. पर थोपना चाहते हैं। आज

    िे माता-वपता बहुत ज्यादा िायश िरते हैं । परन्तु जब वे थिे-हारे घर ौटते हैं तब वे अपने

  • बच्चों िे साथ समय नहीिं गुजारना चाहते। पररणामस्वरूप बच्चे स्वयिं पर ननभशर रहिर

    टी.वी. िे साथ समय गुजारते हैं इस प्रिार टी.वी. एि तरह से उनिे ल ए 'बेबीलसटसश' िी

    भूलमिा ननभाता है। एि अध्ययन िे अनुसार व्यडक्त िो 16 वषश िी आय ुति आते-आते

    गभग 1,00,000 दहिंसि धचत्रण एविं 33000 ‘मडशर’ देखने िो लम ते हैं। गिंदी बस्स्तयों िे

    बच्चों पर किये गए एि अध्ययन में यह पाया गया कि बच्चों द्वारा टी.वी. देखने िा औसत

    समय 3.56 घिंटे था तथा ड़कियों द्वारा गुजारा गया यह समय (M=3.73 घिंटे) ड़िों व्दारा

    गुजारे गए समय (M=3.47 घिंटे) से अधिि था। एि अन्य अध्ययन (जोडशन एविं साथी,

    2006) में यह समय औसतन 3 घिंटे प्रनतददन पाया गया। बडेट एविं साधथयों (2003) ने

    अपने अध्ययन में यह पाया कि बच्चों व्दारा टी.वी. देखते गुजारने वा ा समय औसतन 2.2

    + - 1.2 घिंटे था। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि 12.26 प्रनतशत बच्चों एविं

    किशोरों िे पास अपने रूम में टी.वी. उप ब्ि था तथा ऐसे बच्चों िा औसत टी.वी. दशशन

    समय 3.81 घिंटे प्रनतददन था जबकि अन्य बच्चों स्जनिे रूम में टी.वी. नहीिं था, यह समय

    औसतन 3.51 घिंटे था। ववल्सन एविं सहयोधगयों (2002) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि

    70% बच्चों िे टेल ववजन शो में शारीररि आक्ामिता िो ददखाया जाता है स्जसमें प्रनत

    घिंटा 14 दहिंसि गनतववधियाूँ प्रदलशशत िी जाती है। यहाूँ यह उल् ेखनीय त्य पाया गया कि

    जो प्रोग्राम बच्चों िे नहीिं थे उनमें दहिंसि गनतववधियों िे प्रदशशन िी यह सािंस्ययिी मात्र 4

    प्रनत घिंटे थी।

    टी.वी. िे सन्दभश में एि सवेक्षण में ननम्नल णखत पररणाम प्राप्त हुए -

    1. प्राथलमि लशक्षा िे अिंत ति, औसत बच्चों ने 8000 ‘मडशर’ व 1,00,000 अन्य

    आक्ामि ‘एक््स’ देख चुिे होते हैं।

  • 2. बच्चों िे ‘िाटूशन’ एविं ‘एक्शन’ िायशक्मों में औसतन 20 आक्ामि व्यवहार प्रनत घिंटे

    प्रदलशशत होते हैं जबकि 'प्राइम टाइम' िे दौरान प्रदलशशत िारावादहिों में औसतन 5

    आक्ामि व्यवहार प्रनत घिंटे होते ददखाई पड़ते हैं।

    3. तीव्र माकफ़शन ’पावर रेन्जर’ उत्पादों, जो कि तीव्र आक्ामि िारावदहिों पर आिाररत हैं

    िी बबक्ी एि बबल यन डॉ र से अधिि हो गयी है।

    4. स्टारवार मूवी से सिंबिंधित - तीन बबल यन डॉ र से अधिि मूल्य िे उत्पाद पूरे ववश्व

    में ववक्य किये गये हैं।

    5. 90% से ज्यादा लशक्षि यह सोचते हैं कि उनिे व्दारा पढाये गये बच्चों में ‘पावर

    रेन्जर’ जैसे िारावादहिों िे िारण आक्ामिता बढी है।

    गे्रने ो व पाउ े (2000) ने टी.वी. दशशन समय व असदहष्णुता िे मध्य िनात्मि सह-

    सिंबिंि पाया। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि मानलसि रोगों िे मापों िे प्रसरणों में

    टी.वी. दशशन एि प्रमुख िारि है। ऐसे ही अनेि अध्ययनों िे आिार पर मानलसि

    स्वास््य िे प्रवतशिों िे व्दारा इ ेक्राननि माध्यमों िी आ ोचना िी जाती रही है। टी.वी. िे

    ऋणात्मि प्रभाव िाफ़ी ववस्ततृ हैं। हमारे महत्वपूणश आिषशि क्ष्य, समय तथा यहािं ति कि

    व्यडक्तगत स्वतिंत्रता भी टी.वी.िे नाम पर बल चढ रही है। इसिे बावजूद भी हम इसिे प्रनत

    सजग नहीिं हैं। आज यह स्स्थनत है कि गभग पूरे ववश्व में औसतन व्यडक्त अपने जीवन िे

    गभग 9 वषश इस चमिते बाक्स (टी.वी.) िे सामने कफ़जू खचश िर देता है।

    मनोवैज्ञाननि दृवििोण िे अनसुार गातार िई वषों ति टी.वी. दशशन िा हमारे मानस

    पट , हमारे व्यडक्तत्व, व ववशेष प्रववृत्तयों पर भी बहुत अधिि प्रभाव पड़ रहा है। यह प्रभाव

    िनात्मि व ऋणात्मि दोनों ही है। टी.वी. एि लशक्षण यिंत्र िे रूप हमारे ज्ञानविशन िे ल ए

    वास्तव में एि ’इिंटेल जेंट बाक्स’ साबबत तो सिता है परन्तु आज टी.वी. में प्रस्तुत किए जा

    रहे अधििािंश िारावादहि ज्ञानविशन लशक्षण िे बजाय ववलभन्न प्रिार िे आक्ामि व्यवहारों

  • िो प्रदलशशत िरते पाये जा रहे हैं। सामास्जि अधिगम लसद्ान्त िे अनुसार व्यडक्त जब

    गातार इन दहिंसि दृश्यों िो देखता है तो स्वाभाववि रूप से वास्तववि जीवन में

    पररस्स्थनतयािं आने पर वैसे ही दहिंसि रूप से व्यवहार िरने िो प्रवतृ्त होता है। भारतीय

    पररपे्रक्ष्य में यह अत्यन्त महत्वपूणश हो जाता है क्योंकि देश िी सिंस्िृनत िे अनुिू

    अधििािंश िारावादहि पाररवाररि पिृभूलम से उभर िर आते हैं और ऐसे िारावादहिों में

    आवश्यि रूप से ’वव ेन’ (ख नायि) िी उपस्स्थनत पररवार िे सदस्य िे रूप में ही ददखाई

    पड़ती है। यह ख नायि रूपी पररवार िा सदस्य अपने ही घर िे एि या अधिि सदस्यों िे

    ववरूद् सास्जश रचता है और एि बहुत म्बे समय ति उस षड़यिंत्रिारी व्यवहार से ाभ

    ेता ददखाया जाता है। म्बे समय ति इसी प्रिार िे षड़यिंत्रिारी व्यवहारों से प्राप्त

    तात्िाल ि ाभों िो देखिर टी.वी. दशशि ऐसे षड़यिंत्रिारी व्यवहारों िो अपनाने हेतु आसानी

    से प्रवतृ्त हो जाते हैं। यही वजह है कि मनोवैज्ञाननि इस ददशा में अत्याधिि शोि िर रहे हैं।

    ाईबटश और स्पे्रकफ़न (1988) िे अनुसार दरूदशशन षड़यिंत्रिाररता और आक्ामिता िो

    ननरिंतर आगे बढा रहा है। मानव में पीड़ा और ददश िी अनुभनूत िीरे-िीरे वव ुप्त होती जा रही

    है, स्जससे उनिे नैनति ज्ञान में िमी हो रही है। वे घरे ू भावनात्मि ररश्तों िो लमट्टी िे

    णख ौनों िी तरह टूटते देखते हैं। उन्हें बचपन से ही तानों और उ ाहनों में डूबे ररश्ते देखने

    लम रहे हैं। पररवार, सिंस्िारों िा प्रमुख स्त्रोत होता है मगर दरूदशशन िारावादहि इसी पररवार

    िी छवव िो बच्चों िे मन में िूलम िर रहे हैं।

    ने सन एविं उनिे सहयोधगयों (2008) ने अपने अध्ययन िे दौरान यह पाया कि

    किशोरावस्था में किये गये वे सभी दहिंसात्मि / निारात्मि व्यवहार किसी भी दृवि से समाज

    तथा व्यडक्त िे ल ये अदहतिर एविं सामास्जि व मनोवैज्ञाननि रूप से निारात्मिता िी

    सीमा में आते हैं। इस प्रिार ये किशोरों िो अपने उत्तरदानयत्वों से दरू िरते हैं, तथा इसिे

    साथ ही साथ अनधुचत िायश िे ल ये पे्रररत भी िरते हैं स्जससे निारात्मिता िा क्षेत्र अधिि

  • वविरा रूप िारण िर ेता है। न्यूयािश िी िो िंबबया यूननवलसशटी व्दारा अध्ययन (2008)

    में दो से अधिि घिंटे टी.वी. देखने िे समय िो घाति बताया गया है। इस अध्ययन िे

    अनुसार अगर माता-वपता चाहते हैं कि उनिे बच्चे बडे़ होिर किसी आक्ामि प्रवॄवत्त िे न

    बनें तो उन्हें अपने बच्चों िे टी.वी. देखने िे समय में भी िमी ानी होगी। किशोरावस्था

    िी 16-17 सा िी यह उम्र बच्चों िे जीवन िे ल ए बहुत महत्वपूणश होती है, क्योकििं इस

    समय उनिे व्यडक्तत्व िा वविास हो रहा होता है।

    आिाशइव्स आूँफ़ पीडडएदरक्स एिंड एडोल सेंट मेडडलसन (2010) में छपी िनाडा िी

    माूँस्न्रय यूननवलसशटी िे अध्ययन में पाया गया कि किशोर स्जतना ज्यादा टी.वी. देखते हैं

    उनिा ननष्पादन उतना ही िमजोर होता जाता है और उनमें उतना ही ज्यादा ‘जिंि फ़ूड’

    खाने िी सिंभावना रहती है। इन नतीजों ति पहुूँचने िे ल ए 1314 किशोरों िे अलभभाविों

    से उनिे टी.वी. देखने िी आदत सिंबिंिी सवा -जवाब किए गये। उनिे अिादलमि, मनो-

    सामास्जि और स्वास््य सिंबिंिी आदतों िो जािंचा गया। यह पाया गया कि अधिि टी.वी.

    देखने से उनिे ननष्पादन में तिरीबन 10% िी धगरावट आई। िक्षा में अध्ययन िे दौरान

    साधथयों व्दारा परेशान किये जाने िी सिंभावना 60% ति दजश िी गई। यह भी ननष्िषश

    सामने आया कि टी.वी. देखने से बुवद्मता में िमी आई, वहीिं दसूरी ओर वे अधिि भारी

    (मोटे) भी हो गये।

    िनाडा में लशक्षिों िे फ़ेडरेशन िे 2003 में किये गये एि सवे िे अनसुार किशोरों

    िी स्जिंदगी पर प्रभाव ड़ा ने वा े सबसे प्रभावी माध्यमों में से एि प्रभावी माध्यम दरूदशशन

    है। इस सवे िे अनुसार गे्रड 03 से 16 ति िे 75% बच्चों व किशोरों िे ल ए (स्जसमें

    ड़िे तथा ड़कियाूँ दोनों शालम हैं) दरूदशशन रोजाना समय बबताने िा सशक्त जररया है।

    िनाडा िे हाटश एिंड स्रोि फ़ाउण्डेशन (2010) िे अनुसार - दरूदशशन देखने वा े 7 से

    16 वषश िे बीच िे चार बच्चों में से एि मोटापे िा लशिार होता है। दरूदशशन देखने िे बाद

  • उजाश िा क्षरण होता है। दरूदशशन पर ववज्ञावपत ‘जिंि फ़ूड्स’ िा प्रच न भी मोटापा बढाने में

    सहायि होता है। दरूदशशन तथा अन्य माध्यमों िे व्दारा ढेरों ैंधगि सूचनाओिं िा प्रदशशन

    बच्चों िे सिंबिंि में पा िों िी धचिंता िा िारण है।

    िेम्प एविं िू स्त्रा (1977) ने अपने शोि में यह पाया कि अधिि टी.वी. देखने िा

    असर पढाई पर स्पि ददखाई पड़ता है, स्जसमें सामास्जि एविं घरे ू िारि ही मुयय हैं। आज

    इस आिुननि टी.वी. युग में बच्चे दसूरों िे घर जािर सामास्जि िायश / दानयत्वों िा

    ननवशहन िरने िे बजाय घर पर बैििर टी.वी. देखना पसिंद िरते हैं। इस िारण खे -िूद से

    दरू आ स्य घर िर ेता है। साथ-ही-साथ पढने में भी रूधच िम हो जाती है। अत:

    स्वभावत: बच्चे धचड़धचडे़पन िा लशिार हो जाते हैं और व्यवहारगत आचरण नहीिं िरते हैं।

    मनोवैज्ञाननिों ने यह बताने िा प्रयास किया है कि हमें क्यों टी.वी. िे ऋणात्मि

    प्रभावों से बचने िी आवश्यिता है। उनिे अनुसार ये वजहें ननम्नानुसार हैं-

    (i) जीवन िो बेिार जाने से बचायें - जैसे कि पह े भी ल खा जा चुिा है कि औसत

    किशोर छात्र प्रनतददन 4 घन्टे 30 लमनट िा समय टी.वी. देखने में गुजारता है अथाशत 1642

    घन्टे प्रनतवषश या दो माह से अधिि िा समय वह बगैर किसी महत्वपूणश िायश िो िरते हुए

    व्यथश िर देता है। यह भी गणना िी गई है कि एि 65 वषीय वदृ् अपने जीवन िा िे

    महत्वपूणश 9 वषश िेव टी.वी. देखने में व्यथश िर देता है।

    मनोवैज्ञाननिों िा ववचार है कि यदद व्यडक्त टी.वी. न देखे तो वह प्रनतवषश 2 माह िा

    समय किसी महत्वपूणश िायों िो पूरा िरने में गा सिता है और वह भी बगैर टी.वी. िे

    ऋणात्मि प्रभावों से प्रभाववत हुये। इसिे ल ए वह िोई भी व्यडक्तगत, सामास्जि,

    सािंस्िृनति, शकै्षक्षि उत्थान िे ल ए अथवा, सादहत्य, ि ा व क्ीड़ा जैसे क्षेत्र में िायश िर

    अपनी िुश ता िो बढा सिता है।

  • (ii) टी.वी. दहिंसा िी जनि है - टी.वी. िे नुिसानदायी प्रभाव, ववशेषिर दहिंसा िी बहुतायत

    ने माता-वपता, लशक्षिों एविं स्वास््य ववशेषज्ञों िो धचिंनतत िर ददया है (क् ािश -वपयसशन, िे.,

    1997)। ववलभन्न अध्ययनों से यह ज्ञात हो चुिा है कि हम स्जतना अधिि टी.वी. देखेंगे,

    उतने अधिि दहिंसि होंगे (जानसन, 2007)। मनोवैज्ञाननिों िे मतानुसार टी.वी. पर बार-बार

    दहिंसि दृश्य देखने से दशशि भी िीरे-िीरे अवचेतन स्तर पर इन दहिंसि घटनाओिं िो सामान्य

    रूप से स्वीिृत िरने गते हैं और फ़ स्वरूप दहिंसा िे प्रनत वे असिंवेदनशी होने गते हैं।

    ऐसा भी होता है कि पररस्स्थनत आने पर उन्हें ऐसे ही दहिंसि व्यवहार िरने में िोई दहचि

    नहीिं होती। िीरे-िीरे वे िब दहिंसि प्रववृत्त िे हो जाते हैं, उन्हें यह स्वयिं भी पता नहीिं च

    पाता। क् ािश (1995) िे अनुसार चूिंकि किशोर ’प्री-स्िू ’ बच्चों िी तु ना में अधिि बेहतर

    तरीिे से सोचते व तिश िरते हैं तथा उनमें ‘चे ेंज’ स्वीिार िरने िी प्रववृत्त अधिि होती है,

    फ़ स्वरूप वे मनोवैज्ञाननि रूप से टी.वी. पर प्रदलशशत दहिंसा, अपराि व आत्महत्या िे प्रनत

    अधिि सिंवेदनशी होते हैं। इसिे ववपरीत ’प्री-स्िू ’ िे बच्चे ’पीडड़त प्रभाव’ से अधिि

    प्रभाववत होते हैं स्जसिे फ़ स्वरूप िुछ प्रनतमाएिं उन्हें ड़रावनी गती हैं और उनमें धचिंता,

    ’फ़ोबबि’ प्रनतकक्याएिं, अल्पिा ीन दरुास्वप्न एविं अन्य प्रिार िी नीिंद िी समस्याएिं वविलसत

    हो जाती हैं।

    यह आवश्यि है कि हम टी.वी. िे समक्ष िम से िम समय व्यतीत िरें ताकि हममें

    दहिंसि प्रवनृत वविलसत न हो पाये क्योंकि यह न िेव स्वयिं हमारे ल ए नुिसानदेय है,

    बस्ल्ि समाज भी इसिे ऋणात्मि प्रभावों से नुिसान पाता है। सामास्जि ववघटन िी

    प्रकक्या में तेजी िी एि प्रमुख वजह यह भी है कि सामान्य व्यडक्त दहिंसि घटनाओिं िे प्रनत

    न िेव असिंवेदनशी होता जा रहा है बस्ल्ि उसे िरने हेतु प्रवतृ्त भी हो रहा है।

    एयूजमेन और मॉएस (2007) इस बात से सहमत हैं कि दरूदशशन िे गिंभीर

    निारात्मि प्रभावों िो िम िरने िे ल ए यह समझना आवश्यि है कि दरूदशशन िा किशोरों

  • व बच्चों पर क्या प्रभाव हो सिता है। दहिंसा एविं बढता हुआ भय भी उनमें से एि है।

    ववशेषत: बाल िाएूँ दरूदशशन में अन्यों िी तु ना में दहिंसा िा अधिि लशिार ददखायी जाती

    हैं। दहिंसापरि दरूदशशन ‘शो’ िे िारण उनिे वास्तववि जीवन में दहिंसा िे प्रनत सिंवेदना िम

    हो जाती है। गातार दरूदशशन पर दहिंसा देखने िे िारण उनमें दहिंसात्मि प्रवॄवत्त अधिि पायी

    जाती है स्जससे शा ा में उनिा प्रदशशन प्रभाववत होता है तथा वे खे ने, पढने, सिंगीत आदद

    से वे विंधचत रह जाते हैं।

    सेंटर फ़ार एड़वोिेसी एिंड ररसचश (2010) व्दारा किए गए अध्ययन िे अनुसार बच्चे

    तथा किशोर टी.वी. देखने िी आदत िे आिार पर हर एि घिंटे में िम से िम 14 दहिंसि

    िायश देखते हैं, या कफ़र चार दहिंसि गनतववधियािं हर लमनट या हर 15 सेिें ड पर एि दहिंसि

    िायश देखते हैं। किशोरों िो उच्च सािंवेधगिता वा े प्रोग्राम देखने में बहुत मजा आता है।

    उनिे पसिंदीदा िायशक्मों में 50 प्रनतशत स्थान इन्हीिं वयस्ि पाररवाररि ड्रामों िो लम ता है।

    उनिी पसिंद शहर, उम्र और ल िंग भेद से प्रभाववत नहीिं होती और वे पाररवाररि ड्रामों से

    ज्यादा आिवषशत और ज्यादा जुडे़ हुए हैं।

    जोवाना (2011) िे अनुसार टी.वी. दहिंसा सभ्य समाज िे ल ये एि खतरा प्रस्तुत िर

    रही है। िानून एविं सिंस्थायें एि सुरक्षक्षत व कक्याशी समास्जि सिंरचना िो वविलसत िरने

    िा प्रयास िर रहे हैं, परिंतु दहिंसि मनोरिंजि िायशक्मों िी अदभुत ोिवप्रयता िे फ़ स्वरूप

    एि ववपररत आदशश िी स्स्थनत जनमानस में फ़ै रही है। िानून एविं सिंस्थाओिं िा िायश

    िदिन होता जा रहा है। लमडडया अपने सिंपूणश प्रारूपों में एि स्वाभाववि व्यवसाय हो गया है,

    जो अिंत:सिंस्िृनत िी समस्त बािाओिं तथा मानव व्यवहार प्रारूपों िे प्रनत सिंवेदनशी ता िो

    तोड़ रहा है स्जसिे फ़ स्वरूप सास्जशपूणश व्यवहार जैसे निारात्मि व्यवहारों में ववृद् आ रही

    है।

  • (iii) टी.वी. हमे ननस्ष्क्य ‘ ेलम िंग’ बनना लसखाता है - टी.वी. िा एि छुपा हुआ

    ऋणात्मि प्रभाव यह भी है कि टी.वी. हमें आराम से बैिना लसखाता है। व्यडक्त टी.वी. िे

    समक्ष आ स िे साथ दृश्यों िो देखता रहता है और उन्हें अचेतन रूप से स्वीिृत िरता

    जाता है, बजाय इसिे कि वह िुछ धचिंतन-मनन िरे या िुछ िायश िरे। टी.वी. से ननि ने

    वा ी आवाजें व्यडक्त िो यह बताती हैं कि आज रात िो क्या खाना है, कि उसे यह िार

    खरीदनी चादहए, यह कि दनुनया खतरनाि है और इसिा सामना िरना हमारी क्षमता िे

    बाहर है। यह सब सरासर ग त है, परन्तु बार-बार देखने व सुनते रहने पर िहीिं न िहीिं हम

    उन पर ववश्वास िरने गते हैं और प्रभाववत होिर तदनानुसार व्यवहार िरने गते हैं। इस

    प्रिार यह हमारे मानलसि स्वास््य िो भी प्रभाववत िर रहा है।

    (iv) टी.वी. हमें मखूश बना रहा है - अमरीिा में एसोलसयेट पे्रस व्दारा िराये गये जनमत

    सवेक्षण (2007) में यह पाया गया कि गभग एि-चौथाई अमेरीिा वालसयों ने उस वषश एि

    भी किताब नहीिं पढी। अपनी किताब ’टेक्नोपो ी’ में पोस््मेन (2008) ने ल खा है कि टी.वी.

    िीरे-िीरे किताब िे ववरूद् अपना सिंघषश जीत रहा है। उनिे अनुसार टी.वी. ववश्व िो सर तम

    सामान्य अिंश में छोटा िर रहा है। यह हमें गातार अज्ञानता व मूखशता िी सीमाओिं िी ओर

    ढिे रहा है। यह हमें पेररस दहल्टन िी पूजा िरना सीखा रहा है पर आिंईस्टीन िी नहीिं।

    (v) टी.वी. हमें स्थ ूिायी बना रहा है - यद्यवप व्यडक्त िो स्थू िायी बनाने में चबीयुक्त

    भोजन िी महत्वपूणश भलूमिा है, टी.वी. िे िई हाननिारि प्रभावों में एि यह भी है कि

    व्यडक्त इसिे समक्ष घिंटो गनतरदहत बैिा रहता है जो कि मोटापे िा एि महत्वपूणश िारण है

    और यह हर देश में एि महामारी िे रूप में फ़ै रहा है। अमेरीिा में 2007 में किये जो

    एि सवेक्षण िे अनसुार देश िी िु जनसिंयया िा 26.60% दहस्सा मोटापे िी समस्या से

    जूझ रहा है (यू.एस. ओबेलसटी रेन्ड, 2007)। जोडशन (2007) ने भी टी.वी. दशशन व मोटापे िे

    मध्य िनात्मि सह-सम्बन्ि पाया है।

  • यदद ोग उसी 3-4 घन्टों िे दौरान स्जन्हें वह टी.वी. देखते गुजारता है, घूमते हुए

    गुजारें तो वे तु नात्मि रूप से िाफ़ी पत े होंगे।

    (vi) टी.वी. हमें भौनतिवादी बनाता है - यदद टी.वी. िे दृश्यों में से ववज्ञापनों िो हटा ददया

    जाये तो भी मानव जीवन में सिारात्मि पररवतशन आ सिता है। टी.वी. ववज्ञापन िे प्रभाव

    में आिर अनावश्यि चीजों पर होने वा े अपने खचों िो हम िाफ़ी हद ति बचा सिते हैं

    तथा उसिे स्थान पर किसी अन्य महत्वपूणश एविं आवश्यि वस्तु या िायश पर उस रालश िो

    खचश िर सिते हैं या भववष्य िी आवश्यिता िे ल ए सिंधचत िर सिते हैं।

    (vii) टी.वी. आचरणहीनता सीखा रहा है - टी.वी. मनोरिंजन में प्रस्तुत ैंधगि व्यवहार िा

    बच्चों पर ऋणात्मि प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि टी.वी. पर प्रस्तुत ैंधगि व्यवहारों से ऐसा

    प्रतीत होता है कि व्यडक्त स्जतने ोगों िे साथ ’सैक्स’ िरना चाहता है, उतने ोगों िे साथ

    वह ैंधगि व्यवहार बगैर स्जम्मेदार हुए िर सिता है। एड्स, ैंधगि लशक्षा, जन्म ननयिंत्रण

    अथवा गभशपात आदद िा धचत्रण टी.वी. पर यदािदा ही होता है। स्रासबजशर व डॉ रस्टीन

    (1999) तथा चिंरा व साधथयों (2008) ने अपने अध्ययनों में यह पाया कि स्जन किशोररयों

    ने ऐसे ैंधगि व्यवहार प्रदलशशत िरने वा े टी.वी. िारावादहि अधिि देखे, उन्होने टी.वी. न

    देखने वा ी किशोररयों िी तु ना में अत्याधिि सिंयया में वववाह पूवश गभश िारण किया।

    क् ािश (1995) ने भी अपने अध्ययन में यह पाया कि टी.वी. िारावादहिों में प्रस्तुत

    60% से अधिि ख ुी दहिंसा, ैंधगि व्यवहार, िुम्रपान व शराब सेवन, किशोरों िो ऐसे

    आचरणहीन व्यवहारों िो अपनाने े ल ए प्रवतृ िर रही हैं।

    नेशन िाउिं लस आफ़ एजुिेशन ररसचश एिंड रेनन िंग (2010) में छपी ररपोटश िे अनुसार

    दरूदशशन िे िुछ खास तरह िे िायशक्मों से किशोरों में दहिंसि स्वभाव िा वविास होता है।

    किशोरों में यह यौनाचरण िो प्रभाववत िरती है तथा अश्ली ता िो उनिा स्वाभाववि

    आचरण बना देती है।

  • टेल ववजन व दहिंसा िे मध्य िनात्मि सिंबिंि अब स्पि हो चुिा है। इसिे प्रनत धचिंता

    1952 में प्रारिंभ हुई थी जब अमेररिन िािंगे्रस ने इस पर बहस िी। इसिे पिात ्इस सिंदभश

    में िई बार सुनवाई हुई परन्तु मुद्दे िी जदट ता, िानूनी मुस्श्ि , शोि िे अभाव तथा

    सामास्जि वैज्ञाननिों में मतभेदों िे िारण इस पर िोई िोस िायशवाही नहीिं हो पा रही थी।

    परन्तु शोिों िी सिंयया में बढोतरी िे साथ अब यह प्रमाण लम ने गे हैं कि टेल ववजन पर

    ददखाये जाने वा े दहिंसि दृश्यों िे प्रनत जनमानस िी धचिंता वास्तववि है। इस बात िो

    ववशेषज्ञों ने भी स्वीिारा है। (नेशन िमीशन आन द िाजेस एिंड वप्रवेन्शन आफ़ वाय ेंस

    इन 1969)।

    अमेररिन सायिो ास्जि एसोलसयेशन टास्ि फ़ोसश आन टेल ववजन एिंड सोसाइटी

    (1992) ने अपने 30 वषों िे अध्ययनों िे आिार पर इस बात िी पुवि िी कि टेल ववजन

    पर ददखाई जाने वा ी दहिंसा िा दषु्प्रभाव पड़ता है।

    शोि यह सुझाव देते हैं कि टी.वी. दहिंसा बच्चों व वयस्ि िो तीन तरीिे से प्रभाववत िर

    सिती है -

    (१) प्रत्यक्ष प्रभाव - वे बच्चे तथा वयस्ि, जो टी.वी. पर बहुत दहिंसात्मि दृश्य देखते

    हैं, उनमें आक्ामि प्रववृत्त अधिि वविलसत होती है। वे उस अलभवनृत व मूल्य िो भी

    स्वीिार िर सिते हैं स्जसिे अनुसार आक्ामिता अन्तद्वशन्द िो सु झाने िा एि

    बेहतर एविं सुखद तरीिा है।

    (२) असिंवेदनशी ता - वे बच्चे जो टी.वी. पर बहुत अधिि मात्रा में दहिंसा देखते हैं,

    वास्तववि जगत में दहिंसा िे प्रनत िम सिंवेदनशी हो जाते हैं। वे अन्य ोगों िे ददश

    व वेदना िे प्रनत भी असिंवेदनशी हो सिते हैं और साथ ही समाज में दहिंसा िे बढते

    स्तर िे प्रनत अधिि सदहष्णु हो सिते हैं।

  • (३) औसत ववश्व समुधचत क्षण - वे बच्चे तथा वयस्ि, जो गातार टी.वी. पर

    ददखाये जाने वा े दहिंसात्मि दृश्यों िो देखते रहते हैं, इस ववश्व िो आशिंिा िे साथ

    देख सिते हैं। वे यह ववश्वास िर सिते हैं कि वास्तववि दनुनया भी उतनी ही ननम्न

    (घदटया / अवप्रय) व खतरनाि है जैसा कि टेल ववजन में सामान्यत: ददखाया जाता

    है।

    क् ािश (1993) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि दहिंसा िे दृश्य देखने वा े

    दशशिों पर ननम्न तीन तरीिों से प्रभाव पड़ता है-

    (i) आक्ामि प्रभाव (दहिंसात्मि व्यवहार घदटत होने िी तीव्र सिंभावना);

    (ii) पीडड़त प्रभाव (पीडड़त हो जाने िा बढा हुआ भय); एविं

    (iii) दशशि (‘बायस्टेन्डर’) प्रभाव (दसूरों िे प्रनत होने वा ी दहिंसात्मि

    घटनाओिं िे प्रनत उपेक्षा अथवा असिंवेदनशी ता)।

    टी.वी. दहिंसा बच्चों में दहिंसात्मि व्यवहार िे प्रनत अलभव्यडक्त अिंतबाशिा िो िम िर

    देती है। बार-बार आवतृ होने वा े दहिंसात्मि सन्देश उन्हें दहिंसा िे प्रनत असिंवेदनशी बना

    देते हैं। टी.वी. दहिंसा व्यडक्त में उते्तजना िो बढा देती है। टी.वी. िायशक्मों में बच्चों िे

    शरीर-कक्यात्मि प्रकक्याओिं पर प्रभाव िे सन्दभश में ग्रोवर (1990) व्दारा किये गए अध्ययन

    में यह पाया गया कि टी.वी. में ददखाए जाने वा े िीमी गनत वा े प्रसामास्जि िाटूशन धचत्रों

    िी तु ना में तेज-गनत वा े, रिंग-बबरिंगे व दहिंसात्मि िाटूशन धचत्रों िी उते्तजना बढाने में

    अधिि भूलमिा है। इस उते्तजना िा महत्वपूणश खतरा यह है कि यह सुखिारी प्रत्यक्षीिृत

    होता है क्योंकि यह व्यडक्त िी प्राथलमि उते्तजना आवश्यिता िी पूती िरता है। तात्पयश यह

    है कि टी.वी. दशशि िारावादहिों में ददखाए जाने वा े दहिंसात्मि दृश्यों िो मनोरिंजन िा

    माध्यम समझता है।

  • व्यवहारात्मि अनुसिंिानों िे व्दारा भी टी.वी. दहिंसा िे दषु्प्रभाव िो प्रदलशशत किया गया

    है। बेन्दरूा (2002) ने टी.वी. दहिंसा एविं आक्ामि व्यवहार िी िड़ी िो सामास्जि अधिगम

    लसद्ािंत व्दारा समझाने िा प्रयास किया है। इस लसद्ािंत िे अनुसार मानव व्यवहार िे

    तरीिों एविं उनिी उपयुक्तता िो वास्तववि जीवन में, प्रत्यक्ष उदाहरण व्दारा तथा सिंचार

    माध्यमों में प्रस्तुत मॉड ों िे अप्रत्यक्ष अनुिरण व्दारा सीखता है। 'बेबो डॉ ’ (गुडड़या)

    प्रयोग में बच्चों िे समक्ष कफल्म िे व्दारा एि वयस्ि िो 'बेबो डॉ ’ िे प्रनत आक्ामि

    व्यवहार िरते ददखाया गया। इस कफल्म िो देखने िे पिात ्उन बच्चों ने भी 'बेबो डॉ ’ िे

    प्रनत ज्यादा आक्ामि व्यवहार प्रदलशशत किया। बाद में इसी प्रिार िे अनुसिंिान नसशरी स्िू

    िे बच्चों तथा िा ेज िे छात्रों पर भी किये गए और समान पररणाम प्राप्त हुए। दक्षक्षण

    आफ्रीिा में किये गए एि शोि से पता च ता है कि टी.वी. दहिंसा िे फ स्वरूप सामुदानयि

    स्तर पर भी आक्ामिता िा स्तर बढता है।

    ववलभन्न टी.वी. चैन ों िे प्रादभुाशव से टी.वी. पर तथािधथत सामास्जि िारावादहिों िी

    बाढ सी आ गयी जो वास्तव में पूणशत: समाज ववरोिी हैं। टे ीववजन किशोरों िे समक्ष

    अन्य ोगों व्दारा प्रस्तुत िाल्पननि घटनाएिं ददखाई जाती हैं स्जसे वे बगैर किसी मानलसि

    प्रयास िे स्वीिार िर ेते हैं। अत: दहिंसि िायशक्मों िो अधिि बार देखने से किशोरों में

    हीरो िे ‘एक्शन’ व आक्ामि प्रसिंग िे सन्दभश में ददवास्वपन देखने िी प्रववृत्त बढ जाती है

    (ल िंगर, 1999)। यद्यवप अधििाूँश टी.वी. िारावादहिों में अिंत सुखद व सत्य होता है परन्तु

    यह भी एि िटु सत्य है कि अत्याधिि िंबे समय ति च ने वा े इन िारावादहिों में सत्य

    प्रिाशन िे पूवश एि ‘वव ेन’ समाप्त होता है तो उसिी जगह एि दसूरा ‘वव ेन’ े ेता तथा

    इन ‘वव ेन’ िी सास्जशों िो इतने प्रभावशा ी ढिंग से प्रस्तुत किया जाता है कि उनिो देखना

    रूधचिर गता है। ये िारावादहि सप्ताह में चार से पािंच बार 'प्राइम टाइलम िंग' अथाशत रात 7

  • से 11 बजे ति ददखाए जाते हैं, जो कि पररवार िे सभी उम्र िे व्यडक्तयों िे ल ए फुसशत िा

    समय रहता है व इस खा ी, फुसशत िे समय टी.वी. पर षड़यिंत्रिारी पात्रों िी बौछार होती

    रहती है स्जसिा प्रभाव समाज िे प्रनत व्यडक्त िे प्रत्यक्षीिरण पर पड़ता है एविं

    पररणामस्वरूप उनिी नैनतिता में िमी आती है। वमाश एविं अजवानी ( 2010) िे अध्ययन

    में इसिी पुवि हुई है।

    सुझाव ग्रहणशी ता तथा षड़यिंत्रिारी व्यवहार

    किशोरों िे व्यवहार िे पररचा न में म ू प्रववृत्तयों िी भाूँनत सामान्य प्रववृत्तयों िा भी

    योगदान रहता है। मू प्रववृत्त में एि ववलशष्ठ सिंवेग होता है और उसमें एि ववशेष प्रिार िी

    गनत रहती है। जबकि सामान्य प्रववृत्तयों में न तो सिंवेग या उते्तजना रहती है और न ही गनत

    होती है। सामान्य प्रववृत्तयाूँ सामास्जि-मनोवैज्ञाननि प्रकक्याएूँ हैं स्जनिा मानलसि स्स्थनतयों

    िे साथ सात्मीिरण या समायोजन स्थावपत हो जाता है। सुझाव सामास्जि सात्मीिरण िा

    ज्ञानात्मि पक्ष है।

    सुझाव एि ऐसी प्रकक्या है स्जसमें व्यडक्त अपने ववचार या राय दसूरे व्यडक्त िे सामने

    प्रस्तुत िरता है कि वह उसे स्वीिार िर ेगा। इससे स्पि है कि सझुाव में दो पक्ष होते हैं

    - एि सुझाव देने वा ा व्यडक्त व दसूरा सुझाव ग्रहण िरने वा ा व्यडक्त। सझुाव में दोनों पक्ष

    कक्याशी एविं सचेत होते हैं।

    सुझावग्रहणशी ता िी स्स्थनत में व्यडक्त िी ताकिश ि शडक्त िम हो जाती है, और वह

    बबना तिश किए बातों िो स्वीिार िर ेता है। आय,ु बुस्ध्द और मानलसि योग्यताओिं िी

    ववृद् िे साथ सुझावग्रहणशी ता िम होती जाती है, दसूरी ओर जब यह योग्यताएूँ घटती हैं

    तब सुझावग्रहणशी ता बढती है। किशोरों में वयस्िों िी अपेक्षा सझुावग्रहणशी ता इसी वजह

  • से अधिि पाई जाती है। अनपढ वयस्िों में सझुावग्रहणशी ता पढे-ल खे वयस्िों िी तु ना

    में अधिि मात्रा में पाई जाती है।

    सुझाव िी पररभाषा 1. मैिडुग (1909) िे अनुसार : सुझाव सिंचार िी एि ऐसी प्रकक्या है स्जसिे फ़ स्वरूप

    एि व्यडक्त व्दारा दी गयी राय उपयुक्त ताकिश ि आिार िे बबना ही दसूरों िे व्दारा ववश्वास िे

    साथ स्वीिार िी जाती है।

    “Suggestion is the process of communication resulting in the acceptance with conviction of

    the communicated proposition in the absence of logically adequate grounds for its

    acceptance”.

    2. किम्ब यिंग (1955) िे अनुसार : सुझाव शब्दों, धचत्रों या ऐसे ही किसी अन्य माध्यम

    व्दारा किये गये प्रतीि सिंचार िा एि ऐसा स्वरूप है स्जसिा उद्देश्य उस प्रतीि िो स्वीिार

    िरने िे ल ए पे्रररत िरना होता है।

    “Suggestion may be defined as a form of symbolic communication – words, pictures or some

    similar devices aimed at inducing acceptance”.

    3. थाउ ेस (1957) िे अनुसार : सुझाव शब्द िा प्रयोग अब सािारणत: उस प्रकक्या िे

    ल ए किया जाता है स्जसमें ववचार ववशेष िे प्रनत मनोववृत्त वववेिपूणश अनुमान्य िो छोड़िर

    अन्य माध्यम से एि व्यडक्त व्दारा दसूरे ति सिंचाररत िी जाती है।

    “The word suggestion is now commonly used in the process by which an attitude towards a

    system of ideas is communicated from one person to another by a process other than that of

    rational pursuance”.

    4. इभान्स (1978) िे अनुसार : सुझाव एि ऐसी प्रकक्या है स्जसिे व्दारा किसी व्यडक्त में

    आ ोचना िरने िी मानलसि क्षमता िो िम िर ददया जाता है और व्यडक्त दसूरे स्त्रोत से

    लम ने वा ी सूचनाओिं िो बबना सिंदेह, तिश तथा आ ोचना िे ही स्वीिार िर ेता है।

  • “Suggestion is any process designed to cause an individual to lower or blunt his critical

    faculties and accept information coming from another source without criticism, doubt and

    argument”.

    5. आइजेंि और उनिे साधथयों (1972) िे अनसुार : सुझाव सम्पे्रषण िी वह प्रकक्या है

    स्जसमें एि या अधिि व्यडक्त अन्य व्यडक्त िे या अधिि व्यडक्तयों िे (बबना किसी

    आ ोचनात्मि प्रत्युत्तर िे) ननणशय, मत, अलभववृत्तयाूँ आदद या व्यवहार प्रारूपों िे बद ने िे

    िारण होते हैं। यह प्रकक्या प्रभाववत होने वा े व्यडक्तयों िी जानिारी िे बबना होती है।

    “A process of communication during which one or more persons cause one or more

    individuals to change (without critical response) their judgements, opinions, attitudes etc. or

    patterns of behavior. The process can take place without being noticed by the individual to

    be influenced”.

    सुझाव िा महत्व

    किशोरों िे जीवन में सझुाव िा बहुत अधिि महत्व होता है। व्यवहार पररमाजशन िे

    साथ-साथ लशक्षा में सुझाव िा ववशेष महत्व होता है।

    १. बा ि िे सामाजीिरण में महत्व - बा ि िी आवश्यिताओिं िी पूनत श उसिे

    बाल्यिा में माता-वपता व्दारा िी जाती है। किशोर होने पर आस-पास, ववद्या य एविं समाज

    में रहिर बहुत से व्यवहार वह स्वयिं सीखता है। पाररवाररि सदस्य, लमत्रों एविं लशक्षिों से भी

    वह बहुत सी जानिारी प्राप्त िरता है । इस प्रिार किशोर अपनी आयु िे अनुसार समाज िे

    सिंदभश में

    बहुत सी जानिारी प्राप्त िरता है।

    २. लशक्षा में महत्व - सुझाव ग्रहण िरने िी प्रववृत्त िे िारण किशोर लशक्षिों िे

    उपदेशों िो ध्यानपूवशि आत्मसात ्िरते हैं। सुझावों िे व्दारा किशोरों िो प्रलशक्षण देना अनत

  • सर होता है। सुझाव िे माध्यम से लशक्षि किशोरों में आदशश अनुशासन उत्पन्न िर पाते

    हैं।

    ३. चररत्र एविं नैनति वविास - सुझावों िे व्दारा किशोरों िा चाररबत्रि वविास किया जा

    सिता है। उनमें उच्च चाररबत्रि ववशेषताओिं एविं उच्च नैनति मूल्यों िो सीखने िे ल ए पे्रररत

    किया जा सिता है। पाररवाररि सदस्यों से लम ने वा े सुझाव किशोरों िे चररत्र िो उन्नत

    बना सिते हैं।

    ४. सामास्जि वविास - सुझाव सामास्जि वविास में भी सहायि हैं। सझुावों िे व्दारा

    किशोरों में पे्रम, सहानुभूनत, सहिाररता तथा सद्प् भावना जैसे गुणों िा वविास किया जा

    सिता है।

    ५. रूधचयों िा वविास - सुझावों िे माध्यम से किशोरों में अच्छी रूची उत्पन्न िी जा

    सिती है। उपयोगी ववषयों में अधिि रूधच उत्पन्न िरने में माता-वपता तथा लशक्षि िे

    सुझाव िा ववशेष महत्व होता है।

    ६. सिंवेगात्मि अलभव्यडक्त - किशोरों में उपयुक्त सिंवेगात्मि अलभव्यडक्त सुझावों िे व्दारा

    लसखाई जा सिती है। उनिे उपयुक्त समायोजन िे ल ए उपयुक्त सिंवेगात्मि अलभव्यडक्त

    आवश्यि है। आत्म सुझाव िे व्दारा इसमें सिंशोिन किया जा सिता है। अत: किशोरों िो

    अच्छे-अच्छे सुझाव देने िे ल ये पे्रररत िरना चादहये।

    ७. ननषेिात्मि सुझावों से बचाव - किशोरों िो हर समय ननषेिात्मि सझुाव देने से वे

    ननषेिात्मि व्यवहार िरने गत े हैं। िनात्मि सुझाव िा किशोरों िे आचरण पर अच्छा

    प्रभाव पड़ता है। अत: सुझाव िनात्मि उजाश ल ये होने चादहयें।

    सुझाव एविं सुझावग्रहणशी ता

  • सुझाव वह बाह्य उद्दीपन है जो किसी व्यडक्त िो दसूरों व्दारा िुछ िरने िे ल ए प्राप्त

    होता है। एि व्यडक्त में कितनी मात्रा में सझुावों िो ग्रहण िर�